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पिछले कई सालों से नेल नेंट लगाने से अब मेरे नाखूनों पर पीली सी परत आ गई है. कृपया कोई समाधान बताएं.

सवाल
पिछले कई सालों से लगातार नेल नेंट लगाने से अब मेरे नाखूनों पर पीली सी परत आ गई है. नाखून कमजोर व टूटे से भी दिखाई देने लगे हैं. कृपया मुझे इस समस्या का कोई समाधान बताएं?

जवाब
नाखूनों पर पीलापन नजर आना न केवल स्वास्थ्य के लिए बुरा है, बल्कि दिखता भी बेहद खराब है. इस समस्या से नजात पाने के लिए 1 चम्मच बेकिंग सोडा, 1 चम्मच औलिव औयल व 1 चम्मच नीबू का रस मिला कर पेस्ट बना कर नेल्स पर लगाएं और फिर टूथब्रश की मदद से सौफ्ट स्क्रब करें. नाखूनों को सेब के सिरके में सोक करना भी अच्छा औप्शन है.

धर्म और समाज में बंटता त्योहार, खुशियों के आनंद से आप भी तो वंचित नहीं

यदि हम बात करें मनाए जाने वाले त्योहारों की तो सारे त्योहार आपस में प्यार व खुशी का संदेश ही देते हैं. रक्षाबंधन भाईबहन का प्यार, दीवाली बुराई पर अच्छाई की जीत, होली खुशी व उल्लास के लिए मानते हैं. इस के अलावा कुछ अन्य त्योहार जैसे पोंगल, बैसाखी आदि खेती से संबंधित त्योहार हैं, जो यह दर्शाते हैं कि जब काम का वक्त था जम कर काम किया और जब फसल पकी तो खुशियां मनाओ जोकि एक तरह से व्यवस्थित रहने का तरीका भी है. लेकिन इन खूबसूरत त्योहारों को धर्म, समाज व भाषा में बंटते देख मन बड़ा ही व्यथित हो जाता है.

यह मेरा धर्म यह तुम्हारा धर्म

कुछ वर्षों पहले की बात है. मैं हैदराबाद में तबादले के कारण गई थी. वहां एक अपार्टमैंट में नवरात्र स्थापना यानी कि गुड़ी पड़वा मनाया जाना था. उस के पहले ही अपार्टमैंट के 2 गुटों में विवाद हो गया. एक गुट जो वर्षों से अपार्टमैंट में इस त्योहार को अपने तौर पर मना रहा था और सारे लोग उस में शामिल भी हो रहे थे, वहीं दूसरा गुट आ गया और काफी झगड़े के बाद यह तय हुआ कि इसे बतुकम्मा के नाम से और उसी के रीतिरिवाजों के हिसाब से मनाया जाए. खैर काफी बहस के बाद उसे बतुकम्मा के नाम से मनाया गया. आकर्षक फूलों की सजावट हुई, पंडितों को बुलाया गया, पूजापाठ हुए और केबल टीवी पर उस का लाइव प्रसारण भी हुआ. यह सब हुआ अपनेआप को मानने वाले गुट के जमा किए पैसों और मैनेजमैंट से.

इस तरह के त्योहारों को लोग अलगअलग नाम से मानते हैं, लेकिन इस को मनाने के पीछे चाहे सब का उद्देश्य एक ही है, लेकिन अपने पंडितों के बताए रीतिरिवाजों और अपने जाति, भाषा या क्षेत्र का अहं जब तक शांत न हो कुछ लोगों को त्योहार का मजा ही नहीं आता.

अब कोई उन लोगों से यह पूछे कि ये रीतिरिवाज और धर्म आया कहां से? तो शायद किसी को पता नहीं होगा. सही माने में तो असली रीतियां भी किसी को पता नहीं लेकिन जो पंडित ने बताया वह सब किया और उस के एवज में पंडित को भारी दक्षिणा मिली.

गणपति के लिए चंदा इकट्ठा किया गया तो कुछ पंजाबी लोगों ने यह कह चंदा देने से इनकार कर दिया कि हमारी लोहड़ी तो नहीं मनाते यहां. दोनों में एक खटास धर्म के नाम पर पड़ गई जबकि कहने को धर्म एक ही था.

ऐसे में यह सवाल अहम है कि हम धर्म, राज्य, जाति, भाषा के नाम पर त्योहारों को क्यों अलग करते हैं? त्योहार मनाने के पीछे सिर्फ खुशी के भाव नहीं, बल्कि सभी से मिलेंजुलें, अच्छे परिधान पहनें, लजीज पकवान बनाएं और चेहरे पर मुसकान बिखेरें. लेकिन उस में भी हमारे धर्म, समाज, भाषा पहरेदार बन कर खड़े हो जाते हैं.

त्योहारों में अगर इन झगड़ों से किसी का भला होने वाला है तो सिर्फ पंडेपुजारियों का और धर्म व समाज के ठेकेदारों का.

धर्म की बेलें जहां फलों से लदने लगती हैं वहीं हमारे धर्मगुरु मठाधीश अपने धर्म की तूती बजाने निकल पड़ते हैं और उन के चेले अलगअलग युक्तियों से उन का प्रचार करते हैं.

ऐसे ही धर्म व समाज के ठेकेदार अपने मठों में खुशीखुशी दूसरे धर्मों के नेताओं की चिलम भरते हैं. बस उन्हें उन धर्मगुरुओं से कुछ फायदा चाहिए. जहां अपने चेलों को दूसरे धर्म के खिलाफ भड़काते हैं, वहीं स्वयं जरा से फायदे के लिए दूसरे धर्म के ठेकेदारों को अपने आयोजनों में स्टेज पर मालाएं पहनाते हैं. रही बात समाज की तो समाज तो स्वयं संस्कृति का मुखौटा ओढ़े इस पल इधर तो उस पल उधर रहता है जैसे ही कोई पैसे वाला या कोई अन्य ताकत अपने हाथ में ले कर समाज में दाखिल होता है उसी के हिसाब से समाज के नियम, कानून बदल जाते हैं.

धार्मिक आयोजन में यदि कोई सरकारी ताकत हाथ में हो तो कहने ही क्या. पूरी सोसायटी उस के त्योहार को अपना मानने लगती है, चाहे पीठ पीछे बुराई करेंगे पर सामने सब मुसकान बिखेरते उस में शामिल होने के लिए तत्पर रहेंगे.

स्वयं के फायदे के लिए नहीं है त्योहार

अभी पिछले वर्ष की ही बात है. कुछ विदेशी वस्तुओं के प्रेमी लोग भी होते हैं. बस ऐसी ही महिला को एक विदेशी महिला से दोस्ती बढ़ाते देखा. थोड़े दिन बाद ही उसे क्रिसमस ट्री डैकोरेशन के लिए बच्चों समेत विदेशी महिला के घर जाते देखा. जबकि वह महिला स्वयं आए दिन पूजापाठ कराने के लिए पंडितों को घर में बुलाती रहती. आज सत्यनारायण कथा तो कल वट सावित्री व्रत. और सिर्फ जो रीत वह निभाए वही सही होती, अन्य सभी महिलाएं उसे जबरन मानें वरना जो न मानें उस का पत्ता कट.

बड़े व्यवसाई की पत्नी हैं तो दूसरी महिलाएं भी उस के घर हर तीजत्योहार मनाने सजधज कर चल देतीं. उन्हीं पिछलग्गू महिलाओं में से एक के मुंह से पीठ पीछे से बोलते सुना, ‘‘विदेशी वस्तुओं के चक्कर में मैडम क्रिसमस भी मनाने लगीं और उस फिरंगी से दोस्ती भी

बढ़ा ली.’’ इस वर्ष भी कुछ नए विचारों के लोगों ने गणपति पूजा पर विभिन्न पदार्थों को ले कर गणेश की प्रतिमा बनाई. किसी ने मिट्टी की बनाई जिस में खाद व बीज भी मिला दिए ताकि पूजा के बाद उसे सीधे गमले में लगा दिया जाए. न तो उस के पैरों में आने की संभावना और न ही प्रदूषण. कहने को तो बड़ा नेक विचार पर पंडितों ने उस में कमी ढूंढ़ ली कि फिर विसर्जन कैसे होगा?

वहीं किसी  ने चौकलेट के गणपति बनाए ताकि पूजा के बाद उसे दूध में मिला दिया जाए और वह दूध गरीब बच्चों को पिला दिया जाए.

कुछ महिलाओं के इस पर विचार सुने- किसी ने कहा चौकलेट की बिक्री का तरीका है, तो किसी ने कहा जिस गणपति की पूजा करो उसे ही दूध बना कर पी जाओ, ये कैसी गलत विधि है पूजा की. यहां सोचने की बात यह है कि त्योहार में खुशियां ढूंढ़ें और बांटें भी. आपस में एकदूसरे की कमियां न ढूंढ़ें.

नकारें नहीं अपनाएं

अकसर देखा गया है एक ही भाषा के लोग जब अपने उत्सव मनाते हैं, तो उन के रीतिरिवाज, पहनावा, खानपान सब एक जैसा ही होता है. ऐसे में यदि कोई एक महिला दूसरी भाषा की हो तो उसे शामिल कर लेने में कोई बुराई तो नहीं. उसी उत्सव को वह अपने हिसाब से मना ले आप सभी के साथ और आप भी उस नई महिला की रीतियां अच्छी लगें तो अपना लें. लेकिन नहीं, हमारे यहां तो अपनी भाषा के लोग मिलते ही दूसरे को झट से नकार दिया जाता है. जबकि भाषा तो सिर्फ संचार का माध्यम होती है. आप अपनी बात किसी को कह सकें, भाषा का औचित्य वहीं तक है, लेकिन उस को ले गुटबाजी करना और त्योहार में भी आपस में बंट जाना कहां तक सही है?

और तो और हमारा सोशल मीडिया भी इस में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. जैसे ही कोई त्योहार आता है, पहले से ही सोशल मीडिया उस उत्सव से संबंधित पोस्ट शेयर करने लगता है और फिर गुहार लगाता है कि इस वर्ष फलां उत्सव कुछ ऐसे मनाएं, वैसे मनाएं और लाइक करें.

कोई भी धर्म, भाषा, जाति और समाज पीछे नहीं. सभी अपनीअपनी मार्केटिंग में लगे हुए हैं और भोलीभाली भीड़ की मिट्टी में अपने नाम का झंडा गाड़ कर अपनी साख जमाने की कोशिश कर रहे हैं. उसे अपनी राजनीति का शिकार बना रहे हैं.

कभीकभी तो ऐसा महसूस होता है कि यदि ये ‘मेरा धर्म श्रेष्ठ’ का नारा न लगाएं तो जैसे इन का धर्म अभी नष्ट ही हो जाएगा. जो उन्मादी लोग ‘मेरा धर्म श्रेष्ठ’ का नारा लगा रहे हैं और धर्म के नाम पर लोगों को बांट रहे हैं उन्हें धर्म का इस्तेमाल करना पूरापूरा आता है.

जब वोट डालने के लिए लोगों को फुसलाने की बात होती है, तो धर्म ही सब से ज्यादा कारगर साबित होता है. प्रकृति के नियमों का फायदा धर्म के दुकानदार उठा रहे हैं. प्रकृति ने तो सब को आजाद किया है. पशुपक्षी, नदीझरने, पहाड़पत्थर उन का तो कोई धर्म नहीं, कोई समाज नहीं, लाखों करोड़ों सालों से बस अपनाअपना कार्य कर रहे हैं.

नदी कभी नहीं पूछती कि ऐ झरने तू पहले बता कि किस पहाड़ से बह कर आया है वरना मैं तुझे अपने में नहीं समाऊंगी. और वह स्वयं सब झरानों का काफिला ले सागर के हृदय में समा जाती है. पहाड़ से टूटी चट्टान भी लुढ़क कर जहां रुक जाए, बस वही उस का ठिकाना हो जाता है. कोई पहाड़ उसे धकेलता नहीं. हवा अपना रुख मनमुताबिक तय करती है. आसमान, तारे, चांद, सूरज सब ही तो हैं जो हर धर्म, समाज को यथा योग्य कुछ दे रहे हैं.

सिर्फ हम मनुष्यों को ही धर्म, समाज, जाति, भाषा की आवश्यकता क्यों है? क्यों हम किसी पंडेपुजारी के बिना अपनी मनपसंद की पूजा नहीं कर सकते? यदि करें तो ये समाज के लोग तिरस्कृत क्यों करने लगते हैं? जबकि वे स्वयं नियम बनाते और स्वयं ही तोड़ते हैं.

ये सत्ता पिपासु लोग हैं. उन्हें डर है कि यदि लोग अपनी सुविधानुसार ऐसा करने लगेंगे तो उन की अहमियत कम हो जाएगी.

जनाधार बचाने में असफल मायावती, सोशल इंजीनियरिंग से बिगड़ी बात

5 हजार साल से अधिक के इतिहास में 2007 में शायद पहली बार देश के किसी हिस्से में दलितों की अगुआई में बहुमत से सरकार बनी थी. दलित और उस से जुड़े लोग इसे बदलाव की नई बयार के रूप में देख रहे थे. इस के पहले तक दलित ऊंची जातियों के नीचे काम करता था. उस को सत्ता तो दूर, बराबर में बैठने और खाने व पीने का भी अधिकार नहीं था. न वह ऊंची जातियों की तरह खुशियां मना सकता था और न ही दुखों को जाहिर कर सकता था.

जब देश आजाद हुआ तब यह लगा कि शायद दलितों को बराबरी का हक मिल जाएगा. लोकतंत्र के नाम पर दलितों को ऊंची जातियों के पीछे चलने का ही हक मिला था. आजादी के कुछ समय पहले से ही दलित समाज के हित के लिए बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने एक नई राजनीतिक ताकत को जुटाने का प्रयास शुरू किया था.

चुनावी बदलाव के बाद लोगों को यकीन हो चला था कि बहुमत की सरकार बनाने के बाद मायावती दलितों की भलाई के काम करेंगी. लेकिन यह भ्रम जल्दी ही टूट गया. नतीजतन, मायावती से लोगों का ऐसा मोहभंग हुआ कि बसपा अपने सब से बुरे दौर में वापस चली गई.

2007 में बहुमत की सरकार बनाने का लाभ मायावती दलितों की भलाई में नहीं लगा सकीं. न वे दलितों के हालात बदल सकीं, न ही दलित समाज को सही राह दिखाने में सफल रहीं. यही वजह थी कि 5 साल सरकार चलाने के बाद मायावती को चुनावदर चुनाव हार का सामना करना पड़ा.

अपनी स्थापना के बाद से बसपा आज सब से खराब हालत में है. सोचने वाली बात यह है कि मायावती इस हालत से निबटने में खुद को बेसहारा पा रही हैं. वे विरोधी दल के रूप में संघर्ष करती नजर नहीं आ रही हैं. मायावती को अभी भी यह लग रहा है कि दूसरों से नाराज हो कर लोग उन की छत्रछाया में अपनेआप आ जाएंगे. यह सच है कि मायावती देश के बड़े दलित और कमजोर वर्ग के उत्थान का जरिया बन सकती थीं. इतिहास ने उन को जो मौका दिया था, उस में वे चूक गईं.

सत्ता न बन सकी बदलाव का जरिया

दलित समाज में अंधविश्वास, जातिबिरादरी, अशिक्षा और छुआछूत जैसी बुराइयों को दूर करने के लिए कई सामाजिक संगठनों ने काम शुरू किया. बामसेफ और डीएस-4 ने भी कांशीराम की अगुआई में नई मुहिम शुरू कर दी थी. वे मानते थे कि सत्ता में भागीदारी कर के ही समाज को बदला जा सकता है.

अपनी राह को मजबूत करने के लिए कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. बामसेफ और डीएस-4 की ताकत के बल पर यह पार्टी बहुत ही जल्द दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने में सफल रही. 1991 में बसपा ने पहली बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया और अपने 12 विधायकों को जीत दिलाने में सफलता हासिल की. सालदरसाल उस की ताकत भी बढ़ने लगी थी. 1993 में 67, 1996 में 68, 2002 में 98 विधायक बनाने में बसपा सफल रही थी.

1990 के दशक में प्रदेश में जातीय और धार्मिक आधार पर वोटों का धुव्रीकरण शुरू हुआ. इस की वजह से पहली  बार अयोध्या विवाद को सीढ़ी बना कर भारतीय जनता पार्टी सत्ता तक पहुंची थी. कांग्रेस के साथ रहने वाली बाकी ऊंची जातियां भाजपा के साथ आ खड़ी हुई थीं. केंद्र में उस समय के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन लागू कर के पिछड़ों की चेतना को जगा दिया था.

बसपा के संस्थापक कांशीराम को उस समय यह लगा कि अगर ऊंची जातियों को सत्ता से बाहर करना है तो दलित और पिछड़ों का गठजोड़ बनाना पड़ेगा. इसी के चलते बसपा और सपा का 1993 में गठजोड़ हुआ था. यह स्वाभाविक गठजोड़ था जो सदियों से वंचित शूद्रों यानी पिछड़ों और अछूतों यानी दलितों के बीच था. यह गठजोड़ एक अभूतपूर्व उत्पादक वर्ग पैदा कर सकता था और कम से कम उत्तर प्रदेश को नई चेतना व अर्थव्यवस्था दे सकता था पर यह चालबाजी व मूर्खता के कारण औंधेमुंह गिर गया. बसपा ने इस तरह के गठजोड़ कर के सत्ता पर तो कब्जा कर लिया पर सत्ता के जरिए व्यवस्था बदलने का उस का सपना पूरा नहीं हो सका. बाद में भी सत्ता को हासिल करने के लिए जो भी समझौते पार्टी ने किए वे उस के लिए घातक साबित हुए. बसपा के लिए गठजोड़ के साथ सत्ता हासिल करना दोधारी तलवार बन गई.

फिर न बन सका दलित-पिछड़ा गठजोड़

बसपा के सहयोग से समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने. कांशीराम की भावनाओं को मुलायम समझ नहीं पाए और यह कोशिश करने लगे कि बसपा को तोड़ दिया जाए. दूसरी तरफ भाजपा बसपा को अपनी ओर मिलाने के लिए बेताब थी. नतीजा यह हुआ कि सपा और बसपा

का गठजोड़ टूट गया. दलित और पिछड़ों की अगुआई करने वाली बसपा और सपा के बीच दूरियां इतनी बढ़ गईं कि दोबारा ये दल आपस में कभी मिल ही नहीं पाए.

सत्ता पर कब्जा करने के लिए बसपा ने पिछड़ों का साथ छोड़ कर अगड़ों का सहारा लिया. अगड़ों और पिछड़ों का यह गठबंधन बसपा को रास आया और बसपा नेता मायावती 3 बार मुख्यमंत्री बनीं. मायावती मुख्यमंत्री तो बन गईं पर बसपा में ऊंची जातियों का प्रवेश हुआ तो उन का जनाधार धीरेधीरे खिसकने लगा. मायावती के लिए दलित-अगड़ा गठजोड़ ‘केर बेर के संग’ साबित हुआ.

कांशीराम के बाद मायावती जब बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनीं तो उन्होंने ऊंची जातियों की अगुआई करने वाली भाजपा के अगड़ी जातियों के वोटबैंक ब्राह्मण, बनिया और ठाकुरों को पार्टी से जोड़ने का काम किया. इस का सब से बड़ा असर यह दिखा कि मायावती की अगुआई में बसपा पहली बार प्रदेश की नंबर-1 पार्टी बन गई. इस समय यह लगा कि बसपा नेता मायावती ने बड़ी चतुराई से प्रदेश के राजनीतिक हालात को अपनी ओर मोड़ने में सफलता हासिल कर ली.

मायावती अपनी सफलता को बहुत दिनों तक बरकरार नहीं रख पाईं. दलित व पिछड़ा गठजोड़ एक बार टूटा तो फिर नहीं बन सका. अगर दलित-पिछड़ा गठजोड़ कायम रहता तो बसपा और सपा दोनों की आज जैसी हालत न होती. मायावती की व्यक्तिगत तानाशाही सोच इस राह में सब से बड़ा रोड़ा है तो वहीं समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव परिवार के साथ उन की दूरी दलित-पिछड़ा गठजोड़ की राह में सब से बड़ा रोड़ा है. अपनी राजनीतिक अदूरदर्शिता के चलते मुलायम परिवार के बिखरने का लाभ उठाने में भी मायावती चूक गईं.

सोशल इंजीनियरिंग से बिगड़ी बात

बसपा को पता था कि वह सत्ता पर तब तक कब्जा नहीं कर सकती जब तक दूसरी जातियां उस के साथ न आ जाएं. इसलिए उस ने दलित और अगड़ी जातियों के गठजोड़ का नया फार्मूला बनाया. इस का सब से बड़ा आधार यह था कि अगर बसपा को 24 फीसदी दलितों का वोट मिल जाए और 8 फीसदी दूसरी जिताऊ जातियों का वोट मिल जाए तो 32 फीसदी वोट उस का हो जाएगा और फिर वह सरकार बनाने में सफल हो जाएगी.

14वीं विधानसभा के चुनाव में बसपा ने ब्राह्मणों को 86, ठाकुरों को 67 और बनियों को 31 टिकट दे कर अपना फार्मूला पेश किया. इस का परिणाम यह रहा कि देश में पहली बार दलितों को सत्ता में कब्जा करने का पूरा अधिकार मिल गया. 2007 में बसपा का यह प्रयोग उस को बहुमत की सरकार बनाने में मददगार जरूर साबित हुआ पर यह बसपा की जड़ों को हिला गया.

कांशीराम अपनी बातों में ब्राह्मणवादी व्यवस्था को नीबू का रस कहते थे. दलितों को समझाते हुए वे कहते थे, ‘जिस तरह से नीबू का थोड़ा सा रस पूरे दूध को फाड़ देता है उस तरह  ब्राह्मणवादी व्यवस्था समाज को जाति और धर्म के रूप में अलगअलग कर देती है. छुआछूत की सब से बड़ी वजह यही व्यवस्था होती है.’ जब तक मायावती सरकार में रहीं तब तक उन को भी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि सोशल इंजीनियरिंग के रूप में जिन अगड़ी जातियों, खासकर ब्राह्मणों, को बसपा से जोड़ लिया है, वे बसपा को बांटने में लगी हैं. वे इस बात से खुश थीं कि कई ब्राह्मण नेता उन के पैर छू रहे थे. वे खुद को दलितों की देवी मान बैठीं. उन को लगा कि उन का मान और सम्मान पूरे देश के दलितों के लिए जरूरी हो गया है. मायावती की यह सोच उन को जमीन से दूर करती गई.

बसपा को मजबूत करने के लिए मायावती ने सोचा कि दूसरे दलित संगठनों और राजनीतिक दलों को कमजोर कर दिया जाए तो बसपा कभी कमजोर नहीं होगी. दलित बसपा को छोड़ कर कहीं और नहीं जा सकता. मायावती यह भूल गईं कि सोशल इंजीनियरिंग के प्रभाव में दलित भी आ चुका है. उसे यह भी लगने लगा कि ऊंची जातियों की तरह से समाज में रहने के लिए उसे ऊंची जातियों सा व्यवहार करना चाहिए. इस में सब से बड़ा खतरा पूजापाठ से होने लगा.

मायावती ने दलित महापुरुषों के साथ कई पार्कों में अपनी खुद की मूर्तियां लगवा दीं. ऐसे में दलित खुद उसी मूर्तिपूजा की व्यवस्था में फंस गया जिस से निकालने के लिए डाक्टर अंबेडकर और कांशीराम ने पूरे समाज को जागरूक किया था. दलितों का मूर्तिपूजा और कर्मकांड की तरफ दोबारा आकर्षित होना बसपा पर भारी पड़ा.

समाज को जोड़ने में असफल

मायावती की छवि कमजोरों की मददगार की बनी. ‘चढ़ गुंडों की छाती पर, वोट लगा दो हाथी पर’ का नारा बताता है कि बाहुबलियों को ले कर बसपा नेता मायावती का क्या रुख था. बसपा की नेता मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी अलग छवि बनाई थी. एक कुशल प्रशासक के रूप में उन की आज भी तारीफ होती है.

मायावती के राज में बड़े से बड़ा बाहुबली भी घबरा जाता था. राजा भैया के अलावा दूसरे नेता मुख्तार अंसारी, अखिलेश सिंह, अतीक अहमद भी मायाराज में खुश नहीं थे. अपनी इस छवि को वे आगे कायम रखने में सफल नहीं हुईं. जब मायावती ने मुख्तार अंसारी की तारीफ शुरू की, उन की छवि को नुकसान पहुंचने लगा. कांशीराम ने जब मायावती को बसपा की विरासत सौंपी थी तो उन का सपना था कि वे पूरे वंचित समाज को एकजुट कर आगे बढ़ें. मायावती ने शुरुआती दौर में यह काम किया भी. बाद में उन की तानाशाही शैली से दलित समाज बिखरने लगा.

मायावती का जन्म 15 जनवरी, 1956 को गाजियाबाद जिले के छोटे से बादलपुर गांव, जो अब गौतमबुद्ध नगर जिले में है, में प्रभुदयाल और रामरती के घर में हुआ था. मायावती के 9 भाईबहन हैं. मायावती ने मेरठ विश्वविद्यालय से बीएड और दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की डिगरी हासिल की. दिल्ली के प्राइमरी स्कूल में बच्चों को पढ़ाने की नौकरी भी की. उस समय मायावती दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके में छोटे से घर में रहती थीं.

1984 में मायावती की मुलाकात कांशीराम से हुई. इस के बाद बहुजन समाज पार्टी बनी तो मायावती उस की शुरुआती सदस्य बनीं. मायावती ने अपने बचपन में भेदभाव और छुआछूत को करीब से देखा था. ऐसे में उन का पूरा प्रयास था कि वे इस वर्ग के उत्थान की दिशा में काम करेंगी. कांशीराम ने मायावती को समाज के लिए काम करने और राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए तैयार किया.

1984 में ही मायावती ने पहली बार कैराना लोकसभा से निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा. इस चुनाव में उन को 44 हजार वोट ही मिले. वे चुनाव हार गईं. 1989 में मायावती ने बिजनौर क्षेत्र से पहली बार चुनाव जीता. 1998 और 1999 में अकबरपुर से लोकसभा, 1994 में राज्यसभा, 1996 और 2002 में वे विधायक भी बनीं. 1995 में मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. 1997 और 2002 में भी मायावती मुख्यमंत्री बनीं. सितंबर 2007 में मायावती बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनीं. मायावती चौथी बार मुख्यमंत्री बनने वाली देश की पहली महिला नेता बनीं.

मायावती के पहले वाले 3 कार्यकालों में जनता ने देखा है कि प्रदेश में कानून व्यवस्था का राज रहा. नौकरशाही पर लगाम लगाने में वे सब से आगे रहीं. हथियार ले कर सड़कों पर घूमने वालों की तादाद घट गई थी. मायावती कुशल प्रशासक तो बनीं पर उन में तानाशाही सोच का भी जन्म हो गया. सत्ता हासिल करने के लिए मायावती ने दलित-अगड़ा गठजोड़ तैयार कर के सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला तो तैयार कर लिया पर दलित समाज को एकजुट रखने में वे असफल रहीं. बसपा में दलितों के साथ अति पिछड़ी जातियां भी थीं, जो समाज में दलित जैसी हालत में ही थीं. मायावती इन को अपने साथ ले कर चलने में सफल नहीं हुईं. इन जातियों के नेता धीरेधीरे बसपा से अलग होने लगे. नेताओं के साथ उन से जुड़े लोग भी बसपा से दूर होने लगे. मायावती इन बातों को समझने को तैयार नहीं थीं.

हार से नहीं लिया सबक

2009 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना शुरू कर दिया था. उस के पीछे की सोच थी कि जिस तरह से विधानसभा चुनाव में बसपा के पक्ष में वोट पड़े हैं, अगर वोटिंग का यही ट्रैंड रहा तो बसपा को लोकसभा की 35 से 40 सीटें उत्तर प्रदेश से मिल जाएंगी. असल में विधानसभा चुनावों के 2 वर्षों के अंदर ही बसपा से लोगों का मोहभंग हो चुका था. मायावती और उन के रणनीतिकार यह समझने को तैयार नहीं थे.

2009 के लोकसभा चुनावों का परिणाम बसपा की आशा के अनुकूल नहीं रहा. इस के बाद भी बसपा ने इस खतरे की घंटी को सुनने में चूक की. वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि दलित वोट पार्टी से खिसकता जा रहा है. इस का परिणाम यह हुआ कि 2012 के विधानसभा चुनाव में उसे उस से बड़ी हार का सामना करना पड़ा. अपने तानाशाही रुख को छोड़ने को मायावती अब भी तैयार नहीं हैं. विरोधी पार्टी के रूप में जिस तरह से बसपा को संघर्ष करना चाहिए वह इस के लिए तैयार नहीं है.

विधानसभा चुनाव में सपा ने बसपा को चारोंखाने चित कर दिया. बसपा तब भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थी कि उस का बेस वोट खिसक चुका है. परिणाम यह हुआ कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट पर विजय हासिल नहीं हुई. बसपा को इस बात का गुमान था कि लोकसभा चुनाव में भले ही बसपा को वोट नहीं मिले हों, पर विधानसभा चुनाव में बसपा की सरकार बनेगी. समाजवादी पार्टी में बिखराव का लाभ उठाने में भी मायावती असफल रहीं. जिस के कारण लोकसभा की ही तरह विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को बुरी हार का सामना करना पड़ा. जिस का प्रभाव यह रहा कि बसपा के पास मायावती की राज्यसभा सीट बचाने लायक विधायक नहीं बन सके. 1993 के बाद पहली बार मायावती किसी सदन की नेता नहीं बन पाईं. जिस बसपा को 2007 में प्रचंड बहुमत मिला वह 10 वर्षों के अंदर प्रदेश में सब से नीचे के पायदान पर पहुंच गई. इस में मायावती की रणनीति का सब से बड़ा दोष रहा है.

जरूरी है दलित-पिछड़ा गठजोड़

दलित और पिछड़ों की अगुआई करने वाली बसपा और सपा दोनों ही उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिए पर पहुंच गई हैं. दोनों के अपनेअपने बेस वोट पार्टियों से छिटक चुके हैं. भाजपा ने अपने नवहिंदुत्व के सहारे दलित और पिछड़ों को मूर्तिपूजा व धार्मिक कर्मकांडों से जोड़ने में सफलता हासिल कर ली है. भाजपा ने गाय, गंगा और अयोध्या जैसे मुद्दों को उठा कर हिंदुत्व की नई बहस छेड़ कर दलितपिछड़ों को खुद से जोड़ने में सफलता पा ली है.

अब चुनाव का मुद्दा जाति से हट कर धर्म पर टिक गया है. धर्म के नाम पर दलितपिछड़ा वर्ग सपाबसपा से दूर भाजपा के पक्ष में खड़ा हो जाता है. सपा व बसपा दोनों को इस बात का भ्रम था कि ज्यादा से ज्यादा मुसलिमों को टिकट दे कर वे मुसलिम वोट को अपने पक्ष में कर सकती हैं. सपा व बसपा के इस कदम से इन पार्टियों के विरोध में हिंदू वोट एकजुट हो गया. पहले हिंदुत्व के नाम पर अगड़ी जातियां ही भाजपा के पक्ष में खड़ी होती थीं, अब दलित और पिछड़ी जातियां भी भाजपा के पक्ष में खड़ी हो गई हैं.

दलित और पिछड़ों के बीच धार्मिक महत्त्व का बढ़ना खतरे की घंटी है. सपा व बसपा दोनों के बड़े नेता इस बात को समझने को तैयार नहीं हैं. उन में विचारक तो हैं ही नहीं. जो विचारक हैं भी, उन्हें ये नेता बुद्धिजीवी मान कर अछूत मानते हैं और चार हाथ दूर रखते हैं. उन्होंने अपने को चाटुकारों से घेर रखा है जो जाति विशेष का खयाल रखते हैं, जनता में समरसता आने में विश्वास नहीं रखते. इसलिए वे खुद हिंदुत्व को अपना कर भाजपा की कार्बन कौपी बनने की तैयारी में हैं. सपा व बसपा के मुख्य नेताओं को लगता है कि धार्मिक कर्मकांड से वे भाजपा को उस की ही भाषा में मात दे सकते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि धार्मिक कर्मकांड की राह पर चल रहे वे ‘माया मिला न राम’ वाली हालत में पहुंच जाएंगे. अयोध्या में राम की मूर्ति लगवाने के विवाद पर जब सपा नेता अखिलेश यादव से सवाल किया गया तो वे बोले, ‘जब हम सत्ता में आएंगे तब इस से बड़ी मूर्ति लगवा देंगे.’ असल वे उस शर्म को भूल गए जिस ने शंबूक के वेद पढ़ने पर आपत्ति की थी.

अखिलेश जिस तरह से समाजवादी विचारधारा से दूर हो गए हैं, उसी तरह मायावती बहुजन की विचारधारा को दरकिनार कर चुकी हैं. विचारधारा छोड़ चुके ये दल केवल राजनेता बन कर रह गए हैं. जिस का लाभ लेते हुए भाजपा ने अपने नवहिंदुत्व का प्रचार किया. नतीजतन, दलित और पिछड़े दोनों ही मूर्तिपूजा के समर्थक बन कर हिंदुत्व की विचारधारा पर चल पड़े. उन्हें मनुवाद से होने वाले नुकसान की समझ नहीं है. वे अगड़ा बनने के लिए उन की ही तरह से पूजापाठ में लग गए हैं. उन्हें इस बात का आभास नहीं कि पूजापाठ से सामाजिक समरसता नहीं आएगी, पूजापाठ में लग कर भी दलित समाज मुख्यधारा का अंग नहीं बन सकेगा. जबकि भाजपा इस का लाभ उठा कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करती रहेगी.

मायावती की कमियां

–       कुरसी से हटने के बाद उत्तर प्रदेश से दूरी बना लेती हैं. उन का संघर्ष केवल प्रैस कौन्फ्रैंस तक सीमित रह जाता है. बसपा और उस के कार्यकर्ता बगैर सेनापति के संघर्ष करने में असफल.

–       बसपा का कार्यालय अपने लोगों का मददगार नहीं बनता. किले की तरह बना पार्टी कार्यालय अपनों को संरक्षण देने में असफल.

–       मायावती के तानाशाही रुख से दलितों की छोटीछोटी कई जातियां और उन के नेता पार्टी से दूर होते गए. बसपा ने नया वोटबैंक नहीं बनाया.

–       मायावती दलितों में कर्मकांड और धार्मिक कुरीतियों के सच को उजागर करने में असफल. जिस मूर्तिपूजा का बसपा विरोध करती थी, मायावती ने उस का समर्थन किया.

–       अंबेडकर और कांशीराम के कर्मकांडविरोधी विचारों को फैलाने में बसपा असफल. इसी के चलते दलित कर्मकांड और उस के जाल में उलझ गए.

–       तानाशाही व्यवहार को छोड़ने में मायावती असफल. जनता, नेताओं और दूसरे लोगों से सीधे संपर्क नहीं करतीं.

किस को धमकी दे रही हैं मायावती

भाजपा नहीं सुधरी तो मायावती बौद्ध धर्म अपना लेंगी. खुद मायावती ने उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में एक सभा में यह बात कही. उन का कहना है कि भाजपा दलितों, अति पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के प्रति अपनी सोच नहीं बदलती तो वे हिंदू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म अपना लेंगी. मायावती ने यह बात बसपा के एक कार्यकर्ता सम्मेलन में कही. पूर्वांचल के आजमगढ़ में आयोजित सम्मेलन में आजमगढ़, वाराणसी और गोरखपुर के कार्यकर्ता हिस्सा ले रहे थे. मायावती की इस धमकी को फूलपुर लोकसभा सीट पर होने जा रहे उपचुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है.

मायावती की रणनीति यह है कि किसी भी तरह से वे चुनावी लड़ाई में सब से प्रबल दावेदार बनी रहें.

मायावती ने बौद्ध धर्म अपनाने की धमकी दे कर नए सवालों को जन्म दे दिया है. लोगों को यह समझ नहीं आ रहा कि डाक्टर भीमराव अंबेडकर की नीतियों पर चलने के बाद अब तक मायावती ने बौद्ध धर्म स्वीकार क्यों नहीं किया? क्या अब तक दलितों के साथ कोई भेदभाव नहीं हो रहा था?

हिंदू धर्म में बढ़े भेदभाव, धार्मिक कर्मकांड और ऐसी ही तमाम कुरीतियों का विरोध करते हुए डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने हिंदू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धर्म अपना लिया था. इस का प्रभाव भी पड़ा. कम से कम दलित बिरादरी में नई सोच का जन्म हुआ था. दलित वर्ग के लोग खुद तो जागरूक हो ही रहे थे, अपने साथियों को भी जागरूक कर रहे थे. जब दलित आंदोलन को ले कर कांशीराम आगे बढ़े तब तक वे बौद्ध धर्म अपना नहीं पाए थे.

मायावती ने दलित आंदोलन से एकजुट बिरादरी का लाभ ले कर उत्तर प्रदेश में अपनी एक ताकत बनाई. 4 बार वे प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. वे दलित चेतना की बात को भूल गईं. राजनीतिक ताकत के लिए दलितब्राह्मण गठजोड़ कर लिया. ऐसे में कभी भी यह नहीं लगा कि सामाजिक रूप से कहीं दलित और ब्राह्मण एकसाथ खड़े हों.

दलित के साथ तब भी समाज में वही भेदभाव था जो आज है. मायावती को दलित बिरादरी के लिए सामाजिक रूप से जो करना था वह वे नहीं कर पाईं. जिस से दलित को लगा कि क्यों न वह धर्म की शरण में जा कर ही अपना उद्धार कर ले. भाजपा ने इस बात का लाभ उठाया. दलितों के कुछ वर्गों को भाजपा ने अपने साथ मिला लिया. अब ये लोग अगड़ों की तरह पूजा करते हैं. ये लोग मंदिरों में जा कर पूजापाठ करना चाहते हैं. इन को लगता है कि अगड़ी जातियों की बराबरी के लिए जरूरी है कि वे भी उस तरह के ही काम करें. यह वर्ग इसी सोच में फंस, मायावती से दूर हट गया. भाजपा ने इस वर्ग को नवहिंदुत्व का पाठ पढ़ा दिया.

मायावती की असल परेशानी यह है कि दलित नवहिंदुत्व की विचारधारा में शामिल हो कर भाजपा से क्यों जुड़ रहे हैं? अगर यह बात मायावती ने कुछ समय पहले स्वीकार की होती और अपने में सुधार किया होता तो बसपा इतना पीछे नहीं जाती. अब मायावती के बौद्ध धर्म अपनाने से भाजपा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला. दलित समाज भी इस को ले कर बहुत गंभीर नहीं है.

मायावती को अगर दलितों को अपने से जोड़ना है तो वे उन को यह समझाना शुरू करें कि क्या उन के लिए अच्छा है और क्या बुरा? दलित अब पहले की तरह मायावती की बातों पर आंख मूंद कर भरोसा करने को तैयार नहीं है. मायावती की दलितों के बीच जो छवि 2007 में थी, अब वह वैसी नहीं रह गई है. मायावती को अगर अपनी खोई जमीन हासिल करनी है तो खोई छवि भी वापस लानी होगी, तभी बसपा का भला होगा. बौद्ध धर्म के शिगूफे से कुछ हासिल नहीं होगा. दलितों की बड़ी बिरादरी बौद्ध धर्म और उस की खूबियों से अब परिचित भी नहीं रह गई है.

जिंदगी सैक्स वर्कर्स की : इसे जान कर आपके रोंगटे खड़े हो सकते हैं

सांवली रंगत और औसत कदकाठी वाली नीलू (बदला हुआ नाम) का जन्म महाराष्ट्र के पुसद शहर में हुआ था. 8 भाईबहनों में एक नीलू का परिवार काफी गरीबी में गुजरबसर करता था. 13 साल की छोटी सी उम्र में उस की शादी कर दी गई. उस का पति शराबी निकला. रोज मारपीट करता.

नीलू ने 2-3 सालों तक सबकुछ सहा. इस बीच वह गर्भवती हो गई. मगर इस नाजुक स्थिति में भी किसी ने उस की सहायता नहीं की. उलटा, पति द्वारा मारपीट किया जाना जारी रहा. आजिज आ कर वह घर से भाग गई. इस दौरान उस की मुलाकात एक महिला से हुई जो उसे घरेलू काम दिलाने के बहाने नांदेड़ ले गई.

नीलू काम की चाह में नांदेड़ चली गई. बाद में उसे पता चला कि उस महिला ने उसे बेच दिया है. रोज उस के पास ग्राहक भेजे जाते. इस तरह, परिस्थितिवश, वह एक सैक्सवर्कर बना दी गई.

एक साल बाद वहां के दलाल ने उसे राजस्थान के बीकानेर शहर में ला कर बेच दिया. करीब 6 महीने तक बीकानेर में रहने के बाद वह वापस भाग कर पुसद आ गई.

फिलहाल नीलू पुसद में भाड़े के घर में अपने पार्टनर के साथ रह रही है. उस की उम्र अब 24 साल है और बेटा 8 साल का हो चुका है. वह अपने बच्चे को पढ़ा रही है, साथ ही सैक्सवर्कर का काम भी कर रही है. वह अब इस बात की परवा नहीं करती कि समाज क्या कहेगा.

कुछ ऐसी ही कहानी सविता की भी है. सविता की शादी कम उम्र में हो गई थी. जल्दी ही उस की 2 बेटियां भी पैदा हुईं मगर वैवाहिक जीवन ज्यादा चल नहीं सका. सविता का तलाक हो गया. वह अपनी दोनों बेटियों के साथ अलग रहने लगी. इस बीच, उस की छोटी बेटी ने गलती से चूहे मारने की दवा पी ली.

सविता तुरंत उसे अस्पताल ले कर गई. डाक्टरों ने कहा कि बच्ची को आईसीयू में रखना होगा और कुल खर्च 16 हजार रुपए से जयादा आएगा.

यह बात करीब 14-15 वर्षों पहले की है. सविता के पास उस वक्त बिलकुल भी रुपए नहीं थे. वह बहुत परेशान हो गई कि इतने पैसे कहां से आएंगे. तब उस की एक सहेली उसे रुपए देने को तैयार हो गई. वह सहेली एक सैक्सवर्कर थी. उस ने शर्त रखी थी कि सविता को भी इस पेशे में आना होगा. सविता के पास कोई और चारा नहीं था. सहेली से रुपए ले कर उस ने बेटी का इलाज कराया. बाद में स्वयं एक सैक्सवर्कर बन गई. सहेली उस के पास ग्राहक भेजने लगी.

इन दोनों की तरह भारत में कितनी ही ऐसी महिलाएं हैं जो इस पेशे से जुड़ी हैं. आंकड़ों की मानें तो अकेले भारत में 1.2 करोड़ से ज्यादा सैक्सवर्कर हैं.

सैक्सवर्कर या वेश्या, यानी वह स्त्री जो अपने शरीर का सौदा करती है. सामान्यतया हम वेश्याओं को बहुत ही नीची नजरों से देखते हैं. इस पेशे को समाज के लिए कलंक और इस से जुड़ी महिलाओं को तुच्छ समझते हैं.

इतिहास पुराना है

देखा जाए तो भारत में वेश्यावृत्ति का इतिहास बहुत पुराना है. बहुत पहले भारत के कुछ हिस्सों में यह पेशा दरबारी नर्तकी कहलाता था. ये ऐसी महिलाएं होती थीं जो शिक्षित होने के साथसाथ नृत्य, संगीत, राजनीति, साहित्य जैसी विभिन्न विधाओं में भी पारंगत होती थीं. ये पुरुषों को रिझाने और उन का मन बहलाने का काम करती थीं. इस में सैक्स इन्वौल्व हो भी सकता था और नहीं भी. ये महिलाएं राजनीति, सेना, प्रशासन से जुड़े अहम फैसलों को भी प्रभावित करती थीं.

मुगलजान भी एक दरबार में थी जो गायिका और लेखिका भी थी. वह मिर्जा गालिब जैसे मशहूर कवि की कविताओं को संगीत देती थी. बेगम सामरा भी एक दरबारी नर्तकी थी, जिस ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर शासन भी किया. इसी तरह मारन सरकार, जो एक नर्तकी थी, 1802 में राजा रणजीत सिंह की रानी बनी. उसे लोगों ने बहुत इज्जत दी.

मुगल शासनकाल में भी ऐसी महिलाएं थीं. तब इन का नाम तवायफ होता था. तवायफें आमतौर पर नृत्य कर के पुरुषों का मनोरंजन करतीं. शारीरिक जुड़ाव जरूरी नहीं था. मुगल बादशाहों, जमींदारों, अमीरों और दरबारियों ने इन्हें संरक्षण दिया था. राजा जहांगीर के हरम में 6 हजार से ज्यादा तवायफें थीं जिन्हें धन, सत्ता और शक्ति सब हासिल थे.

इस से पहले मंदिरों में देवदासी प्रथा थी. यह अभी भी चल रही है. दिल्ली में एक जानामाना रैडलाइट एरिया जीबी रोड है. सैक्सवर्कर महिलाओं के कारण यह इलाका सदैव ग्राहकों व दलालों से भरा होता है. मध्यवर्ग व उच्चवर्ग के अधेड़ और कमउम्र लड़के भी बड़ी संख्या में यहां पहुंचते हैं. दिल्ली के खास उच्चवर्ग के सदस्यों को यहां के मशहूर कोठा नंबर 64 के आसपास चक्कर लगाते हुए अकसर देखा जा सकता है.

मुंबई का कामाठीपुरा, कोलकाता का सोनागाछी, ग्वालियर का रेशमपुरा, पुणे का पैठ आदि भी बदनाम इलाके हैं. इन में ज्यादातर लड़कियां नेपाल और बंगलादेश से ट्रैफिकिंग द्वारा लाई जाती हैं. महज 10-12 साल की आयु में इन्हें मुंबई, कोलकाता आदि के वेश्यालयों में बेच दिया जाता है. ये बुरी तरह इस चंगुल में फंस जाती हैं. इन का निकलना कठिन हो जाता है.

भारत में वेश्यावृत्ति के कई रूप हैं जिन में प्रमुख हैं :

–  स्ट्रीट प्रौस्टिट्यूट

–  बार डांसर्स

–  कौल गर्ल्स

–  रिलीजियस प्रौस्टिट्यूट

–  एस्कौर्ट गर्ल्स

–  रोड साइड ब्रोथेल

–  चाइल्ड प्रौस्टिट्यूट

हमारे देश का कानून वेश्यावृत्ति पर शिकंजा कसता है. इस से जुड़े और इसे चलाने व संरक्षण देने वालों को सजा दिए जान का प्रावधान है. होटल, लौज के या दूसरे कमरों को खुलेआम वेश्यालय के रूप में प्रयोग करने वालों को कानूनी गिरफ्त में लिया जा सकता है.

ऐसी महिलाओं का जीवन आसान नहीं होता. अपने पेशे की वजह से इन्हें कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है, जिन में सब से प्रमुख एचआईवी यानी एड्स है. सविता बताती है कि अकसर ग्राहक सुरक्षा का उपाय नहीं करते, जिस से इस तरह की बीमारियों के होने का खौफ बना रहता है.

इस के अलावा सर्वाइकल कैंसर, साइकोलौजिकल डिस्और्डर्स आदि होने के खतरे बने रहते हैं.

नाइंसाफी

सैक्स वर्कर्स एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही अकसर तथाकथित सभ्य घरानों के लोग अपनी भौंहें चढ़ा लेते हैं. इस काम से जुड़ी महिलाओं को लोग नीची नजरों से देखते हैं. वे इन का साया भी अपने घर क्या, महल्ले तक से दूर रखना चाहते हैं. पर अफसोस कि इन्हीं सभ्य घराने के पुरुष यदि इन महिलाओं के दर पर जाते हैं तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती.

स्वस्ति संस्था की रीजनल औफिसर गिरिजा ठाकुर कहती हैं, ‘‘पुरुष वही काम करे तो उस के चरित्र पर कलंक नहीं लगता मगर स्त्री करे तो उसे कुलटा करार दिया जाता है. धर्म भी उन की इस स्थिति का जिम्मेदार है. धर्मगुरु नहीं चाहते कि वे वापस समाज में स्थान पाएं. धर्म ने लोगों को गुलाम बनाया हुआ है ताकि लोग धर्मगुरुओं से डरें. स्त्री यदि मजबूरीवश इस काम को अपना व्यवसाय बनाती है तो इतनी हायतोबा क्यों?’’

सामाजिक कार्यकर्ता अनुजा कपूर कहती हैं, ‘‘वेश्याएं भी इंसान हैं, इन्हें भी जीने का हक है. मगर समाज इन पर ‘गंदी औरत’ का तमगा लगा देता है और इन्हें जलालतभरी नजरों से देखता है. कोई वेश्या अस्पताल जाती है तो इस के इलाज की सही व्यवस्था नहीं हो पाती. इन के साथ अन्याय होता है. कोई इन के पैसे छीनता है तो ये महिलाएं कहीं जा कर गुहार नहीं लगा सकतीं. सरकार द्वारा इन के पुनर्वास की व्यवस्था नहीं की जाती. इस वजह से इन्हें इसी व्यवसाय को करते रहना पड़ता है. यदि सनी लियोनी को समाज पलकों पर बिठा सकता है तो दूसरी महिलाओं ने क्या दोष किया है? सब को मौका मिलना चाहिए अपनी जिंदगी संवारने का. समाज को इन्हें सहजरूप से स्वीकार करना चाहिए.’’

वेश्यावृत्ति दुनिया के सब से पुराने पेशों में से एक है. बंगलादेश समेत ऐसी बहुत से देश हैं जहां इसे एक काम का दरजा दिया गया और इसे कानूनी माना गया है.

बंगलादेश की राजधानी ढाका में टैंजिल नामक इलाके में कांडापारे नामक बाजार है. यह वहां का सब से पुराना और बड़ा वेश्यालय है. पिछले 200 सालों से यहां इस तरह का काम होता रहा है. 2014 में इसे नष्ट कर दिया गया था, मगर स्थानीय एनजीओ की सहायता से इसे फिर से शुरू किया गया है.

हाल ही में एक फोटो जर्नलिस्ट वहां घूम कर आई और वहां की जिंदगी का आंखोंदेखा हाल बयान किया. अमूमन 12-14 वर्षों की उम्र की अवस्था में लड़कियां इस पेशे में आती हैं. उस वक्त वे बंधुआ होती हैं. उन्हें किसी तरह का अधिकार नहीं होता. उन बंधुआ लड़कियों की एक मालकिन होती है. वे अपनी मालकिन की गुलाम होती हैं. कम से कम 5 सालों तक उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं होती, न ही उन्हें अपने काम का कोई पारिश्रमिक ही मिलता है.

जब वे अपना कर्ज चुका लेती हैं तो स्वतंत्ररूप से अपना काम कर पाती हैं. उन्हें हक मिल जाता है कि वे अपने रुपए अपने पास रख सकें या फिर किसी ग्राहक से न कह सकें.

ऐसा ही कुछ हाल भारत में भी है. शुरुआत के कई साल यहां भी सैक्सवर्कर का अपनी कमाई पर हक नहीं होता. वह एक गुलाम होती है.

मलाल क्यों

नीलू बताती है, ‘‘शुरुआत में एक ग्राहक से उसे 100 रुपए मिलते थे. इस में से 50 रुपए ही उस के होते. बाकी के 50 रुपए दलाल को देने पड़ते थे. अब उसे इस बात का डर नहीं लगता कि लोग क्या कहेंगे. जब वह मजबूर थी तो किसी ने उस का साथ नहीं दिया. सब ने अपना स्वार्थ देखा. अब भला वह किसी की परवा क्यों करे? जिसे जो सोचना है, सोचे, वह अपना काम कर रही है, ताकि अपना व बच्चे का पेट पाल सके और बच्चे को शिक्षा दिला सके.’’

यह कहानी सिर्फ नीलू की नहीं, बल्कि ऐसी कितनी ही सैक्सवर्कर्स की है जो परिस्थितिवश आजीविका के लिए इस क्षेत्र में आई हैं. मगर इस बात का अब उन्हें मलाल नहीं. हां, वे जमाने के नजरिए और अपने साथ हो रही ज्यादतियों से परेशान जरूर रहती हैं.

सवाल यह भी उठता है कि इन महिलाओं को खुलेआम किसी को अपना पेशा बताने का हक क्यों नहीं? जिस तरह वकील और डाक्टर अपने नाम के साथ पेशा लिख सकते हैं, उसी तरह ये महिलाएं अपना पेशा बिना डरे, उजागर क्यों नहीं कर सकतीं?

पुलिस की ज्यादती

सैक्स वर्कर सविता कहती है, ‘‘हम मोबाइल के जरिए ग्राहकों से संपर्क करते हैं. कम उम्र में मैं 2-3 हजार रुपए तक कमा लेती थी. इन्हीं पैसों से मैं ने अपनी दोनों बेटियों की शादी अच्छे घरों में कर दी. मगर अब मेरा धंधा बहुत मंदा पड़ गया है. उम्र बढ़ने के साथसाथ काम घटता गया. उस पर ज्यादतियों का सामना भी करना पड़ता है. पुलिस अकसर हमारे अड्डों पर रेड डालती है. अक्तूबर 2016 में हमारे लौज पर पुलिस ने रेड डाली. मैं पकड़ी गई और करीब 22 दिनों तक पुलिस कस्टडी में रही. अब मुझे इस काम में डर लगने लगा है. ग्राहकों की संख्या भी घटने लगी है.’’

दरअसल, उम्र बढ़ने के साथ इन महिलाओं का शरीर गिरने लगता है और चेहरे पर भी पहली जैसी रौनक नहीं रह जाती. ऐसे में इन की कमाई कम हो जाती है. इन्हें कई बार साथ रहने के लिए

पार्टनर मिल जाता है मगर शादी नहीं होती. ऐसे में उम्र बढ़ने के बाद ये किसी पुरुष पर आश्रित रहना नहीं चाहतीं. इसलिए समय रहते ही वे अपना घर और बच्चों से जुड़े दायित्त्व पूरे कर लेना चाहती हैं.

जिंदगी बहुत छोटी है और यह अपने वश में भी नहीं. तो फिर जमाने की परवा क्यों की जाए. सभी को हक है कि वे अपने तरीके से जिएं. वक्त और परिस्थितियों ने जिन्हें जिस मुकाम पर खड़ा किया है, वहीं से उन्हें अपनी जिंदगी के रास्ते ढूंढ़ने होते हैं.

कोई भी पेशा गंदा नहीं होता और यदि होता है तो स्त्रीपुरुष दोनों के लिए उस के मापदंड एक होने चाहिए.

सुरक्षित भविष्य के लिए मार्गदर्शन जरूरी

कुछ संस्थाएं हैं जो जिस्मफरोशी करने वाली महिलाओं की सहायता करती हैं. स्वस्ति एक ऐसी ही संस्था है जो फैक्टरी वर्कर्स, सैक्सवर्कर्स और शहरी कमजोर तबके के लोगों के स्वास्थ्य व बेहतर जिंदगी के लिए काम करती है.

इस संस्था से जुड़े रोहन देशपांडे कहते हैं, ‘‘हम अपने प्रोग्राम के तहत सैक्सवर्कर्स को वित्तीय ज्ञान और सुरक्षा देते हैं. हम उन्हें पैसों को खर्च करने और उन्हें भविष्य को सुरक्षित रखने से जुड़ी वित्तीय योजनाओं की जानकारी देते हैं ताकि वे अपने पैसों का समुचित प्रयोग कर सकें. उन्हें अपने आईडैंटिटी कार्ड्स जैसे पैन कार्ड, आधार कार्ड आदि बनवाने में भी सहायता करते हैं.

‘‘यदि कोई सैक्सवर्कर उम्रदराज हो गई है या वह अब यह काम नहीं करना चाहती तो हम उसे वैकल्पिक आय के स्रोतों की जानकारी देते हैं. जरूरी हुआ तो ट्रेनिंग भी दी जाती है. हमारे पास सैल्फहैल्थ गु्रप हैं जिन के जरिए उन्हें आसानी से लोन मिल जाता है और सैक्सवर्कर्स छोटेछोटे बिजनैस की शुरुआत भी कर सकती हैं.’’

संविदा नियुक्ति : अपनों को रेवड़ी, कई सवाल खड़े करता है ये तरीका

मध्य प्रदेश में संविदा नियुक्ति नियम 2017 के वजूद में आते ही उन हजारोंलाखों लोगों की बांछें खिल गईं जो भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हैं. इस नियम के तहत सरकार जिसे चाहे संविदा पर सरकारी नौकरी दे सकती है. नियम को बनाने और लागू करने में सरकार ने गजब की फुरती दिखाई और महज एक महीने के गहन चिंतन के बाद ही इसे अमलीजामा पहना दिया.

यह पहला मौका होगा जब गैर सरकारी लोग बगैर किसी प्रवेशपरीक्षा या योग्यता के सरकारी नौकरी के पात्र होंगे.  इस अनूठे नियम में हैरानी की एक बात यह भी है कि इस में शैक्षणिक योग्यता का जिक्र  नहीं है  यानी इकलौती योग्यता किसी मंत्री का मुंहलगा होना होगा. ऐसी और भी कई विसंगतियां इस नियम में हैं जो सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगाती हैं. नए नियम का मसौदा इतनी चतुराई से बनाया गया है कि सरकार जिसे चाहे, सरकारी नौकरी दे कर उपकृत कर सकती है.

यह है नियम

सरकार ने पूरी कोशिश की है कि संविदा नियुक्ति नियम देखने में आसान न लगें, पर बारीकी से इसे देखें तो साफ नजर आता है कि इस नियम की आड़ में कानूनीतौर पर मनमानी करने को मंजूरी दे दी गई है.

अभी तक राज्य में संविदा नियुक्ति का कोई नियम नहीं था. हालांकि, सामान्य प्रशासन विभाग ने साल 2011 में कुछ दिशानिर्देश जारी किए थे पर वे इतने अस्पष्ट थे कि हर एक सरकारी विभाग ने अपनी सहूलियतों व जरूरतों के मुताबिक भरती नियम बना लिए थे, जिस का खमियाजा सरकार अभी तक भुगत रही है. ये संविदा कर्मचारी कभी भी नियमतीकरण के अलावा अन्य मांगों को ले कर सड़कों पर हड़ताल, धरनाप्रदर्शन व हंगामा करते नजर आते हैं जिस से कामकाज ठप ही होता है.

सरकार ने अब तय किया है कि आम लोगों को भी यह मौका दिया जाए.  निचले से ले कर ऊपरी रसूखदार पदों तक सरकार हर किसी को नौकरी देगी.  बिलकुल राजशाही न दिखे, इस के लिए मामूली सी शर्त यह होगी कि जिस पद पर उसे नियुक्ति देना है, उसे पहले संविदा पद घोषित किया जाएगा. प्राप्त आवेदनों पर मंत्रिमंडल फैसला लेगा कि नौकरी किसे दी जाए.

सितंबर के आखिर में इस नियम के वजूद में आने के बाद से ही मंत्रियों के बंगलों पर चहलपहल व रौनक और बढ़ गई है. हर कोई चाहता है कि अगले साल चुनाव के पहले उसे संविदा वाली नौकरी मिल जाए. इस के बाद जो होगा, देखा जाएगा. मंत्रियों ने भी बाकायदा वफादारों को भरोसा देना शुरू कर दिया है कि चिंता मत करो, अगली कैबिनेट बैठक में ही काम हो जाएगा. दिलचस्प हालत तो यह है कि सरकारी नौकरी चाहने वाले लोग खुद ही खाली पदों की जानकारी ले जा कर मंत्रियों को दे रहे हैं.

गौरतलब है कि सरकार संविदा नियुक्ति तभी देगी जब नियमित पद खाली हों और उन के लिए काबिल उम्मीदवार न मिल रहे हों. हर एक विभाग में छोटे से ले कर बडे़ पद लाखों की तादाद में खाली पड़े हैं. बावजूद इस के कि इन के लिए शिक्षित और काबिल लोगों की कमी नहीं, सीधी भरती के बंद होेने और पदोन्नति में आरक्षण का कानूनी विवाद होने के चलते भरतियां नहीं हो रही हैं.

ऐसे में उन लोगों की चांदी हो आना तय दिख रहा है जो मंत्रियों, भाजपा के बड़े नेताओं और आरएसएस के चहेते हैं.  वे आकाओं के लिए मुद्दत से फर्श उठाने से ले कर रैलियों की भीड़ बढ़ाने तक में अपना योगदान देते रहे हैं. नए नियम के तहत, न केवल सरकारी विभाग बल्कि मुख्यमंत्री और मंत्री भी अपने स्टाफ में बाहरी लोगों को रख सकेंगे. अभी तक होता यह था कि मंत्रियों के स्टाफ में प्रतिनियुक्ति पर सरकारी कर्मचारीअधिकारी के लिए जाने का ही प्रावधान था. वह अब इस फैसले से खत्म हो गया है.

खामियां ही खामियां

हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर जल्द ही कोई चाय, ठेला या खोमचा वाला खा- निरीक्षक या अधिकारी बन जाए या फिर शराब की दुकान में काम करने वाला कर्मचारी आबकारी निरीक्षक के पद पर शोभायमान दिखे. ऐसा इसलिए कि मसौदे में कहीं इस बात का जिक्र नहीं है कि उम्मीदवार की शैक्षणिक योग्यता, अनुभव और उम्र कितनी होनी चाहिए.

खुद को पाकसाफ दिखाने के लिए सरकार ने यह जरूर कहा है कि इन गैरसरकारी संविदा पर नौकरी वालों को महंगाई भत्ता नहीं दिया जाएगा और उन्हें पद का न्यूनतम वेतन ही दिया जाएगा लेकिन इन्हें अवकाश सरकारी कर्मचारियों की तरह ही दिए जाएंगे.  अगर महिला की भरती होती है तो उसे मातृत्व अवकाश दिया जाएगा. यानी कोई महिला भरती होने के बाद चौथे महीने में ही गर्भवती हो जाती है तो उसे सालभर का वेतन बैठेबिठाए दिया जाएगा.

सरकारी नौकरी हर किसी की ख्वाहिश होती है. वजह, इस में काम कम और दाम ज्यादा होते हैं. ऐसा कोई सरकारी पद नहीं है जिस में घूस खाने के इंतजाम न हों. ऐसे में न्यूनतम वेतन की बात बेमानी है. उलटे, घूसखोरी बढ़ने की आशंका ज्यादा है. जो भी सिफारिश से या घूस दे कर आएगा, उस का पहला काम और कोशिश ज्यादा से ज्यादा पैसा बना लेने की होगी. सरकार ने इन लोगों की जवाबदेही भी तय नहीं की है, न ही यह कहा है कि अच्छा प्रदर्शन न करने पर इन्हें सेवा से हटाया जा सकता है.

जाहिर है यह सिर्फ अपनों को रेवडि़यां बांटने की कवायद है जिस में मंत्रियों को तो खुली छूट दे दी गई है कि वे जिसे चाहें, नौकरी पर रख लें. ऐसे में भाजपा कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों के सपने अंगड़ाई ले रहे हैं जो बात कतई हैरानी की नहीं.

रेवड़ियां ही रेवड़ियां

अब होगा यह कि ये नए सरकारी दामाद जम कर पैसा काटेंगे. किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जा रहा कि इस नए नियम में आरक्षण का जिक्र भी कहीं नहीं है. मुमकिन है तमाम कर्मचारी अनारक्षित कोटे के हों.  आरक्षण पर हायहाय करने वाले भी इस में कुछ नहीं कर पाएंगे.  एक तरह से यह दलितों और आदिवासियों की अनदेखी ही है.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृहनगर विदिशा के भाजपा कार्यकर्ता तो इस फैसले से कुछ ज्यादा ही उत्साहित हैं उन्होंने फिर गणेश परिक्रमा शुरू कर दी है. ऐसे ही एक कार्यकर्ता ने इस प्रतिनिनिधि को बताया कि उस की नौकरी तो पक्की है. 40 वर्षीय यह कार्यकर्ता बचपन से भाजपा में है और सीएम हाउस में उस की खासी पूछपरख है. अब इसे और ऐसे लोगों को अगर नौकरी मिली, तो तय है कि यह जनता के पैसे की खुली बरबादी होगी जो भाजपा के प्रचारप्रसार के एवज में बांटी जाएगी.

इन रसूखदार सरकारी नौकरों पर विभाग के अफसरों का हुक्म और हिदायतें चलेंगी, ऐसा लग नहीं रहा.  सरकार ने जानबूझ कर इस बात का भी उल्लेख नहीं किया है कि राजनीतिक दलों और विचारधाराओं से जुड़े लोगों को संविदा वाली नौकरी नहीं दी जाएगी जिस से संदेशा यह जा रहा है कि ये नौकरियां उन्हीं लोगों को दी जाएंगी जो सत्तारूढ़ दल और आरएसएस जैसी किसी विशेष विचारधारा से जुड़े हैं.

शुरुआती दौर में ही हर कोई मानने लगा है कि यह नियम अपनों को उपकृत करने के लिए बनाया गया है जिस से चुनाव में भाजपा को फायदा हो. अभी तक सरकारी अधिकारी जिस दल की विचारधारा से सहमत होते थे, उसे खुल कर बयां नहीं करते थे, पर अब साफ दिख रहा है कि सरकारी दफ्तर राजनीति के अड्डे बन जाएंगे जिन में सरकारी नौकर बनने वाले नेता जनता के पैसे पर पलेंगे. 10-15 फीसदी अगर ईमानदारी से ले भी लिए गए तो उन से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.

बेहतर तो यह होता कि सरकार कौर्पोरेट और प्राइवेट कंपनियों से कर्मचारियों की भरती करती जो कड़ी मेहनत करते हैं और घूस वगैरा भी नहीं लेते. इन लोगों को अपने काम का अच्छा अनुभव होता है. पर सरकार की मंशा सिर्फ रेवडि़यां बांटने की ही है, तो कोई क्या कर लेगा.

सामान्य प्रशासन विभाग के एक अधिकारी का नाम न छापने की शर्त पर कहना है कि बात, ‘अभी गांव बसा नहीं कि भिखारी पहले आ गए’ जैसी है. अभी किसी पद के लिए विज्ञापन नहीं दिया गया है लेकिन विभिन्न विभागों में आवेदन जमा होने लगे हैं. इस अधिकारी के मुताबिक, हर एक नया कर्मचारी हर साल 3 से 8 लाख रुपए तक खजाने के खाली करेगा.

अभी एक साल के लिए भरती होने जा रही है. नए सरकारी नौकर तो चाहेंगे ही कि अगली बार भी भाजपा ही सत्ता में आए ताकि उन की नौकरी आगे भी चलती रहे. हैरानी की एक बात इस फैसले पर विपक्ष की खामोशी है.

युवा बनाम वृद्ध : उम्र के सिनेमाई फासले

मणिरत्नम की फिल्म ‘युवा’ में जब युवा दल का नेता अपने साथियों के साथ चुनावी जीत हासिल करने के बाद संसद प्रांगण में दाखिल होता है तो वहां पहले से मौजूद वरिष्ठ व वृद्ध नेताओं और मंत्रियों के हावभाव देख कर युवा बनाम वृद्ध के बीच के अहं, संघर्ष, वैचारिक असमानता और तल्खियोेंभरे रिश्ते बखूबी जाहिर होते हैं. भारतीय सिनेमा में उम्र के इस फासले के टकराव को वैचारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आपराधारिक मोरचे पर मिर्चमसाले के तड़के के साथ पेश करना बेहद कामयाब फार्मूला रहा है.

कभी नायक नायिका के अमीरी के नशे में चूर वृद्ध पिता से टकराता है तो कभी युवा नायक पुलिस या सैनिक की वरदी में उम्रदराज विलेन से दोदो हाथ करता नजर आता है. कई दफा रोमांस की पिच पर एक हसीना के प्यार में पागल युवा और वृद्ध नायक मजेदार चूहेबिल्ली का खेल खेलते दिखते हैं. कभीकभी तकरार चुनावी पगडंडियों से गुजरती हुई पार्लियामैंट तक पहुंच जाती है. और इस सारे क्रम में जैनरेशन गैप के चलते दोनों के बीच की भिड़ंत का इमोशन प्रभावी तरीके से उभरता है. यही वजह है कि बदलते दौर के सिनेमा में सबकुछ बदला लेकिन यंग गन को ओल्ड बैरल के सामने हमेशा दोदो हाथ कर दिखाया गया.

ऐसा नहीं है कि दोनों हमेशा टकराते ही रहते हैं. फिल्म ‘पिंक’ में एक नए तरीके से युवावृद्ध को संवेदनशील तार में पिरोते देखा गया. युवा अपराधी 3 लड़कियों से न सिर्फ छेड़छाड़ करते हैं बल्कि उन में से एक लड़की के साथ बलात्कार भी करते हैं. जब लड़कियां राजनीतिक रसूख के सामने घुटने तोड़ रही होती हैं तभी एक बुजुर्ग वकील उन के लिए अदालत की चौखट पर इंसाफ की बहस करता है और उन्हें न्याय दिलाता है.

युवा बनाम वृद्ध के फार्मूले की बदौलत सिनेमाघरों में जो संख्या युवाओं की होती है, लगभग उसी तादाद में बुजुर्ग भी दिख जाते हैं. आगे कुछ ऐसी ही फिल्मों व किरदारों की चर्चा करते हैं जहां उम्र के सिनेमाई फासले अपनीअपनी उम्र के फायदे और नुकसानों के साथ एकदूसरे के सामने डट कर खड़े हैं.

उपेक्षित बुजुर्ग, स्वच्छंद युवा

रजत कपूर की फिल्म ‘दत्तक’ पितापुत्र के रिश्ते को नए तरीके से परिभाषित करती है. उस में युवा और बुजुर्ग के बीच संघर्ष की कोई आर्थिक, आपराधिक या सियासी वजह नहीं है. मामला उपेक्षा का है. जब देश के महल्ले वृद्धाश्रम बनते जा रहे हैं और युवा कैरियर की स्वच्छंदता के नाम पर अपनी दुनिया में मसरूफ हों तो बुजुर्ग कहां जाएं, इस मुद्दे को फोकस में ले कर फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है.

विदेश से कई सालों बाद लौटा पुत्र अपने बुजुर्ग पिता की तलाश में भारत लौटा है और इस क्रम में उसे अपने पिता के साथ वृद्ध आश्रम में अंतिम दिनों के साथी रहे बुजुर्ग से उन के आखिरी दिनों का पता चलता है. जब उसे पता चलता है कि उस के पिता की मृत्यु उस का इंतजार करतेकरते हो गई तो वह अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है लेकिन एक क्रांतिकारी फैसला भी लेता है. पुत्र पिता की जगह उस बुजुर्ग को अपने साथ ले जाता है, इस तर्क के साथ कि जब पुत्र को दत्तक लिया जा सकता है तो पिता को क्यों नहीं?

बेहद अहम मसलों को रेखांकित करती इस फिल्म के प्लौट को कई और फिल्मों में देखा गया. मसलन, ‘अवतार’, ‘बागबान’, ‘उम्र’, और ‘आ अब लौट चलें’ आदि में युवाओं द्वारा उपेक्षित बुजुर्गों का दर्द बयां हुआ. ‘पूरब और पश्चिम’ और ‘नमस्ते लंदन’ में दिखाया गया कि किस तरह युवा अपनी स्वच्छंद जिंदगी के लिए बुजुर्ग मातापिता को अकेलेपन की अंधेरी गुफा में धकेल रहा है.

रोमांस में जब चीनी हो कम

रुपहले परदे पर रोमांस सब से बड़ा बिकाऊ और हिट फार्मूला रहा है. रोमांस में मजेदार परिस्थितियां अकसर उम्र के फासलों को ले कर पैदा होती हैं. हीरो और हीरोइन के बीच जातपांत और अमीरीगरीबी का मामला किसी तरह सुलझ भी जाए लेकिन अगर दोनों के बीच उम्र का अंतर है तो मामला रोचक होना तय है.

फिल्म ‘चीनी कम में’ जब 60 पार कर चुके खड़ूस शेफ का दिल 30 पार लड़की पर आ जाता है तो उम्र की उस दीवार को तोड़ने में नायक के पसीने छूट जाते हैं. पहले कम उम्र की लड़की को कनविंस करो, फिर उम्र में खुद से छोटे अपने ससुर का आमरण अनशन तुड़वाओ और न जाने क्याक्या, बस इस तिकड़म में अमिताभ बच्चन, तब्बू और परेश रावल की जुगलबंदी दर्शकों को मजेदार और मनोरंजक लगती है.

इसी थीम को दोहराया गया राम गोपाल वर्मा की विवादित फिल्म ‘निशब्द’ में. फर्क इतना था कि यहां नायक तो 60 साल का बूढ़ा है लेकिन दिल जिस पर आया है उस की उम्र स्वीट 16 की है. साल 2003 में सुभाष घई की फिल्म ‘जौगर्स पार्क’ में एक रिटायर्ड जज खुद से आधी उम्र की लड़की के इश्क में पड़ जाता है. लिहाजा, उसे अपनी बीवी और बच्चों के सामने फजीहत का शिकार होना पड़ता है. उम्र का फासला लोगों को उन के प्यार की गहराई नहीं समझने देता. इस के उलट, ‘श्रीमान आशिक’ और ‘इक्के पे इक्का’ जैसी हास्य फिल्मों में बुजुर्ग हीरो दिल में रोमांस की चाह लिए युवा का रूप धर नायिका का दिल जीतने की मजेदार तिकड़में भिड़ाता है.

ऐसा नहीं है कि हर बार नायक ही बुजुर्ग होता है. कई बार नायिका बुजुर्ग या उम्रदराज होती है और कम उम्र के नायक का दिल उस पर आ जाता है. याद आती है यश चोपड़ा की बहुचर्चित फिल्म ‘लमहे’. फिल्म के फर्स्ट हाफ में अपने से बड़ी उम्र की औरत के प्यार में खोया नायक जब अपने प्यार को नहीं हासिल कर पाता है तो ताउम्र अविवाहित रहने का फैसला करता है.

कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब नायक के प्रेम को अस्वीकृत करने वाली औरत की कमसिन बेटी उम्रदराज हो चुके उसी नायक की तरफ आकर्षित होने लगती है जो उस की मां से प्रेम करता था. उम्र के अनूठे मोड़ में उलझी इस प्रेमकहानी को रिलीज के समय भले ही दर्शकों का वाजिब प्यार न मिला हो पर आज इस फिल्म को क्लासिक का दरजा हासिल है.

इन मसलों को हास्य के हलकेफुलके अंदाज में ‘हसीना मान जाएगी’ में देखा गया जब एक उम्रदराज बूआ का दिल युवा पर आ जाता है. ‘सात खून माफ’ में यह मामला जरा डार्क थीम में लिपटा था. इस तरह जबतब रोमांस की रोड पर उम्र का ब्रेकर लगा है, हालात जरा इश्किया हो ही जाते हैं.

उफ…ये तुम्हारे आदर्श…

रोमांस से आगे बढ़ते हैं तो फिल्मी परदे पर युवा और वृद्ध के बीच सियासी, सामाजिक व आदर्शवाद का संघर्ष होने लगता है. विचारधारा का टकराव कभी भ्रष्टाचार और उसूलों को ले कर होता है तो कभी जिंदगी जीने के तरीके व नियमकानून  को मानने या न मानने को ले कर. कई दफा युवा सोच सही साबित होती है तो कई बार वृद्ध के अनुभव युवाओं पर भारी पड़ते हैं.

फिल्म ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ में बुजुर्ग प्रोफैसर और युवा मैनेजमैंट के स्टूडैंट का वैचारिक टकराव काबिलेगौर है. एक पूंजीवाद का समर्थन है तो दूसरा वाम विचारधारा का है. इसी तरह का द्वंद्व सुधीर मिश्रा ने फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ में दर्शाया था. जहां नक्सल और पूंजीवाद की जमीन पर युवाओं का उम्रदराज व भ्रष्ट व्यवस्था से विरोध था.

फिल्म ‘पीकू’ में पितापुत्री की जोड़ी अपनेअपने नजरिए को ले कर तकरार भी करती है और प्यार भी. यश चोपड़ा की ही एक और फिल्म  ‘मोहब्बतें’ में जहां युवा संगीतकार शिक्षक कालेज में प्यार के सभी दरवाजे छात्रों के लिए खोलना चाहता है, वहीं प्रिंसिपल कठोर अनुशासन का समर्थक है. हालांकि फिल्म के आखिर में युवा दिल और सोच के आगे कठोर दिल पिघल जाता है.

अमिताभ और अक्षय कुमार की 3 फिल्में ‘एक रिश्ता,’ ‘खाकी’ और ‘वक्त’ में युवा बनाम वृद्ध के संघर्ष के 3 अलग अलग आयाम दिखे. फिल्म ‘एक रिश्ता’ में बुजुर्ग पिता अपने युवा पुत्र पर भरोसा नहीं दिखाता और किसी के बहकावे में आ कर उसे घर से बाहर निकाल देता है. यहां दोनों के बीच संघर्ष कारोबार के संचालन को ले कर है. जबकि फिल्म ‘खाकी’ में दोनों के बीच संघर्ष ईमानदारी और बेईमानी को ले कर है. यहां युवा करप्ट है और वृद्ध पुलिस अफसर ईमानदार. जबकि ‘वक्त’ में युवा पुत्र कामचोर है और बुजुर्ग पिता अपनी जिंदगी के बचे चंद दिनों में अपने पुत्र को काबिल और जिम्मेदार बनाने के लिए अनूठा प्रयोग कर रहा है.

भ्रष्टाचार के धरातल में कमल हासन की फिल्म ‘हिंदुस्तानी’ अनोखी पहल थी. यहां बुजुर्ग स्वतंत्रतासेनानी समाज में फैले करप्शन को खत्म करने के लिए हिंसक तरीके अपना रहा है और इस राह में आने वाले अपने इकलौते व भ्रष्ट पुत्र को भी मृत्युदंड देने से पीछे नहीं हटता. इस फिल्म में पितापुत्र दोनों किरदार कमल हासन ने बखूबी निभाए.

आदर्श और उसूलों की युवा बनाम वृद्ध का संघर्ष ‘शक्ति’, ‘सारांश’, ‘मैं ने गांधी को नहीं मारा’, ‘गांधी-माई फादर’, ‘ऐलान’ जैसी कई फिल्मों में रोचक अंदाज में प्रदर्शित हुआ. फिल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ और दिलीप कुमार की जोड़ी पितापुत्र के रूप में दिखी. जहां दोनों में संघर्ष इस बात को ले कर है कि फर्ज की खातिर पुलिस पिता ने बेटे के जीवन की परवा नहीं की. परिणामस्वरूप बेटा खफा हो कर अपराध के रास्ते पर निकल कर पिता के सामने कानून का दुश्मन बन कर खड़ा हो जाता है.

यंगिस्तान की राजनीति

अकसर हमारे नेताओं की इस बात को ले कर तीखी आलोचना होती है कि वे राजनीति में युवाओं को आगे नहीं लाना चाहते और खुद ही कुरसियों पर जमे रहना चाहते हैं. इस बाबत कई युवा नेताओं और बुजुर्ग नेताओं के बीच अमर्यादित बयानबाजी भी देखी गई है.

फिल्म ‘यंगिस्तान’ में एक मंत्री की अचानक हुई मौत के चलते जब उस के नौसिखिए बेटे को मंत्री बनाया जाता है तो पार्टी में पहले से मौजूद बुजुर्ग नेताओं की प्रतिक्रिया नकारात्मक रहती है. फिल्म में युवा नेता के नए सियासी तरीकों और बुजुर्गों के अडि़यल स्वभाव पर तीखा कटाक्ष किया गया है.

इस मामले में सब से रोचक फिल्म जो याद आती है वह है अनिल कपूर अभिनीत ‘नायक’. निर्देशक शंकर की इस फिल्म में युवा और ईमानदार राजनीति बनाम करप्ट और बुजुर्ग खलनेता के बीच जबरदस्त टक्कर दिखाई गई है. युवा नायक न्यूज चैनल के दफ्तर में रिपोर्टर कम कैमरामैन है और उस के सामने है वृद्ध राजनेता खलनायक बतौर सीएम. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि एक लाइव इंटरव्यू के दौरान सीएम नायक को एक दिन का सीएम बनने की चुनौती देता है. फिर इसी अजीबोगरीब उठापटक में शुरू होती है युवा बनाम वृद्ध की सियासी जंग.

मणिरत्नम की फिल्म ‘युवा’ में अजय देवगन, अभिषेक बच्चन और विवेक ओबेराय युवा शक्ति को अपनेअपने तरीके से प्रतिबिंबित करते हैं और उन के रास्ते में बाधक बनते हैं बुजुर्ग राजनेता.

उम्र से आंखमिचौली

दिलचस्प बात यह है कि तमाम सिनेमाई प्रयोगों में ज्यादातर वृद्ध व सशक्त किरदार अपेक्षाकृत युवा अभिनेताओं ने अदा किए. अपनी उम्र से कई गुना बड़े किरदारों को युवा ऐक्टर्स ने संजीदगी से जिया. ‘सारांश’ फिल्म में 60 पार की भूमिका के लिए नैशनल अवार्ड पाने वाले अनुपम खेर उन दिनों 28 साल के भी नहीं थे. इसी तरह कमल हासन ‘हिंदुस्तानी’ में 80 साल के फ्रीडम फाइटर का रोल 40 साल की उम्र में विश्वसनीयता से निभाते हैं.

भारत-पाक क्रौसबौर्डर लव ड्रामा ‘वीर जारा’ में शाहरुख खान और प्रिटी जिंटा को बुजुर्ग किरदारों में देखा गया. सुपरस्टार राजेश खन्ना ने भी जवानी के दिनों में ‘अवतार’ और ‘आप की कसम’ जैसी फिल्मों में बुजुर्ग किरदार सफलतापूर्वक अदा किए. फिल्म ‘गांधी- माइफादर’ में गांधी का किरदार निभाने वाले दर्शन जरीवाला, रिचर्ड एटंबर्ग की औस्कर विजेता फिल्म ‘गांधी’ में बेन किंग्सल ने भी यही काम किया.

इस तरह की फिल्मों में सब से ज्यादा प्रयोग अगर किसी अभिनेता ने किए हैं तो वे संजीव कुमार हैं. संजीव कई फिल्मों में अपनी उम्र से बड़े किरदारों में दिखे. अलगअलग फिल्मों में अभिनेत्री जया बच्चन के पति, पिता, ससुर और प्रेमी की भूमिका निभाने वाले संजीव अकेले ऐक्टर थे.

फिल्म ‘पा’ में अमिताभ बच्चन ने बेहद अनूठा प्रयोग किया. इस फिल्म में वे 10 साल के प्रोजोरिया से पीडि़त लड़के की भूमिका 60 साल में करते दिखे. और तो और, अपने रियल लाइफ पुत्र अभिषेक बच्चन के बेटे बने नजर आए.

उम्र का जो फासला रुपहले परदे पर मेकअप की परतों के तले होता है, असल जिंदगी में कुछ और हो जाता है. असल जिंदगी में जहां अभिनेता अक्षय खन्ना जैसे युवा सितारे उम्रदराज लगते हैं तो वहीं सलमान खान, अनिल कपूर और जैकी श्रौफ जैसे उम्रदराज सितारे युवा अभिनेताओं को टक्कर देते हुए अभी तो हम जवान हैं के फलसफे को चरितार्थ कर रहे हैं.

अब श्रीदेवी को ही ले लीजिए. अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना के साथ काम करने वाली अभिनेत्री ने जब फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ से जोरदार वापसी की तो अपने यंगलुक्स और सैक्सी फिगर से कमसिन अभिनेत्रियों को टक्कर दे गईं. अमिताभ बच्चन जब ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ में दिखते हैं तो लगता नहीं है कि उन की उम्र 60 पार है. ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी भी कई युवा अभिनेत्रियों को कौंपलैक्स देने के लिए काफी हैं.

माधुरी दीक्षित, रेखा, सिमी ग्रेवाल और जूही चावला ने भी खुद को काफी हद तक जवान बना रखा है. इस लिस्ट में ऐश्वर्या, रवीना टंडन, शिल्पा शेट्टी, आसिफ शेख और सोनाली बेंद्रे के नाम भी लिए जा सकते हैं.

संतुलन की सीढ़ी

कुल मिला कर भारतीय सिनेमा में जब भी युवा और वृद्ध किरदार आमनेसामने आए हैं, दर्शकों का खूब मनोरंजन हुआ है. उम्र का यह फिल्मी फासला और संघर्ष कभी हंसाता है, कभी रुलाता है तो कभी सामाजिक सरोकार से जुडे़ कई अहम और गंभीर सवाल खड़े कर देता है. समझने वाली बात तो यह है कि ये फिल्मी किरदार हमारी असल जिंदगी से प्रेरित या आधारित होते हैं.

समाज के किसी न किसी कोने में उम्र का फासला लिए 2 जैनरेशन एकदूसरे से संघर्ष करती दिख जाती हैं. कभी दफ्तरों में बौस-कर्मचारी की तरह, कभी खेल के मैदान में कोच-खिलाड़ी की तरह तो कभी राजनीतिक मोरचे पर.

कार्य के हर क्षेत्र में वृद्ध और युवा एकदूसरे को ज्यादा उपयोगी और सक्रिय दिखाने की होड़ में भिड़ते हैं, प्रतिस्पर्धा करते हैं. कभी युवा का उत्साह और ऊर्जा जीतती है तो कभी बुजुर्गियत का अनुभव बाजी मार जाता है. लेकिन, उम्र का यह फासला हमारे देश, समाज और पारिवारिक संरचना के संतुलन की सीढ़ी का काम भी करता है.

वृद्धों की जेब से मालामाल बौक्स औफिस

एकल सिनेमा यानी सिंगल स्क्रीन सिनेमा का दौर अब लगभग खत्म हो चुका है. पुराने सिंगल स्क्रीन या तो तोड़ कर मौल, मल्टीप्लैक्स की शक्ल ले चुके हैं या फिर स्टोरहाउस बनने पर मजबूर हैं. इस बदलाव ने फिल्मों की कमी और बौक्स औफिस के गणित को भी बदल कर रख दिया है.

90 के दशक तक फिल्म का टिकट औसतन 5 रुपए से 30 रुपए तक था. मल्टीप्लैक्स सिनेमाघरों के आने के बाद अब वही टिकट 500 रुपए तक पहुंच गया है. जाहिर है इतना पैसा युवा दर्शक आसानी से नहीं जुटा पाते, जिन में स्कूल छात्र, कोचिंग स्टूडैंट, साधारण नौकरीपेशा शामिल हैं.

अब फिल्म दर्शकों में पैसे वाले युवा कम हैं और वृद्घ प्रौढ़ दर्शक ज्यादा हैं जो मल्टीप्लैक्स में पैसा खर्च कर सकते हैं. इसलिए उन के मतलब की सस्ती फिल्में भी जोरदार कमाई कर जाती हैं और युवा व बच्चों को ध्यान में रख कर बनाई गई फिल्में पिट जाती हैं.

‘सीक्रेट सुपरस्टार’, ‘रिदम’, ‘स्निफ’, ‘आवाज’, ‘सिक्सटीन’, ‘कच्चा लिम्बू’, ‘स्टैनली का डिब्बा’ जैसी कई फिल्में आईं जो छात्र जीवन और संघर्ष पर आधारित थी, दर्शकों को मल्टीप्लैक्स नहीं खींच पाईं, क्योंकि इन फिल्मों के दर्शक युवा थे. वहीं पिछले 1-2 सालों में प्रदर्शित हुई फिल्मों बाहुबली-2, ‘टौयलेट एक प्रेमकथा’, ‘काबिल’, ‘रईस’, ‘जौली एलएलबी-2’, ‘पीकू’, ‘प्रेम रतन धन पायो’,  ‘सरबजीत’, ‘साला खड़ूस,’ ‘अजहर’, ‘मदारी’, ‘तलवार’, ‘सुलतान’, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘बाहुबली’, ‘पिंक’, ‘तीन’, ‘बाजीराव मस्तानी’, ‘दिल धड़कने दो’, ‘गब्बर इज बैक’, ‘एयरलिफ्ट’, ‘बेबी’, ‘मांझी-द माउंटेन मैन’, ‘रूस्तम’, ‘कबाली’, ‘घायल वंस अगेन’, ‘जय गंगाजल’, ‘गंगाजल,’ ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’, ‘वेलकम बैक’, ‘बदलापुर’, ‘दृश्यम’ ने जोरदार कमाई की. ऐसा इसलिए क्योंकि ये सभी फिल्में या तो पारिवारिक थीं या फिर अपने मैच्योर या सस्ते कंटैंट की वजह से वृद्घ दर्शकों की जेबें ढीली कर लेती हैं.

एक फिल्म के लिए 250 से 500 रुपए तक के टिकट के अलावा करीब 500 रुपए तक के स्नैक्स. आनेजाने का खर्चा मिला कर लगभग 1,000 रुपए खर्च करना, जाहिर है युवाओं की पौकेट पर भारी पड़ता है. वे या तो नई फिल्मों के स्मार्टफोन पर पायरेटेड वर्जन देख कर मन बहला लेते हैं या फिर टीवी प्रीमियर के भरोसे बैठे रहते हैं. लेकिन वृद्घ दर्शक जो किसी मल्टीनैशनल कंपनी के एमडी, मैनेजर, सीनियर पोस्ट पर काम करते हैं, आसानी से इतने पैसे मल्टीप्लैक्स में जा कर खर्च करने की कूवत रखते हैं.

इस के अलावा सामाजिक ढांचे में भी बदलाव आया है. एक दौर था जब बड़ेबूढ़े सिनेमाघरों से अपने बच्चों को दूर रखते थे. तर्क था कि फिल्में देखने से बच्चे बिगड़ जाते हैं. इस के चलते सिनेमाघरों में जाना उन दिनों आपराधिक कृत्य सरीखा था. अब वृद्घों की मानसिकता बदली है. लिहाजा, वे अब फिल्मों को देखना वीकैंड होलीडे समझते हैं और अपनी जेब से पैसे खर्च कर पूरे परिवार को मल्टीप्लैक्स की सैर कराते हैं.

फिल्म एक्सपर्ट मानते हैं कि हिंदी में ज्यादातर सुपरहिट फिल्में फैमिली ओरिएंटेड रही हैं. इस के पीछे की वजह यही है कि उन के दर्शक वयोवृद्ध थे. सिर्फ युवाओं ने किसी फिल्म को सुपरहिट कराया हो, ऐसी कोई फिल्म नहीं है. ‘प्रेम रतन धन पायो’ इस बात की तसदीक करती है.

फिल्म उन्हीं घिसेपिटे फैमिली ड्रामा, मूल्य, भाईबहन का प्यार, जायदाद का बंटवारा, पारिवारिक साजिश और राजश्री के प्रचलित फार्मूलों पर चलती है. यह बेसिरपैर का मसला बूढ़े दर्शकों को आज भी भाता है. वे उसे अपने परिवार से जोड़ कर देखते हैं और अपने बच्चों को ऐसी फिल्में दिखाने पर जोर देते हैं. फिल्में तभी बड़ी हिट होती हैं जब उन्हें फैमिली दर्शक मिलते हैं. सूरज बड़जात्या की फिल्में रूढि़वादी और पारंपरिक होती हैं और इसी कारण पारंपरिक व रूढि़बद्ध बूढ़े दर्शकों को पसंद आती हैं.

इस बदलाव को भांपते हुए फिल्मकार इसी उम्र के दर्शकों को ध्यान में रख कर सस्ती और गैरसामाजिक सरोकार की सस्ती फिल्में बनाते हैं और बूढ़े दर्शक सिनेमाघरों में आ कर अपनी जेबें ढीली कर जाते हैं.

बूढों के सहारे फिल्म उद्योग

राजनीति में राहुल गांधी (47 साल) और अखिलेश यादव (44 साल) जैसे 40 पार नेताओं को युवा नेता बता कर खूब पोस्टरबाजी की जाती है, युवा कार्यकर्ताओं व वोटर्स को रिझाया भी जाता है. दरअसल, राजनीति में कद्दावर व भीड़ खींचने वाले 30-35 साल के कन्हैया कुमार या हार्दिक पटेल जैसे युवा नेता न के बराबर हैं. सो, पार्टियों को इन अधेड़ कथित युवा राजनेताओं का सहारा लेना पड़ता है.

राजनीति की ही तरह, हिंदी फिल्म को भी अब बूढ़े स्टार्स का ही सहारा है. फिल्मों को भी बूढ़ों का सहारा लेना पड़ रहा है क्योंकि यहां भी युवा स्टार्स की बेहद कमी है. वृद्घ स्टार हैं कि रिटायर नहीं हो रहे हैं और ज्यादा से ज्यादा फिल्में करने को तैयार हैं. इसलिए बूढ़े सितारे ही दर्शकों को सिनेमाघर पर खींच रहे हैं. यहां तो राजनीति से भी बुरा हाल है. क्योंकि यहां का युवा सितारा कथित तौर पर 50 साल का है. 25-30 साल के युवा अभिनेता या तो टीवी सीरियल्स और मौडलिंग वर्ल्ड में खपाए जा रहे हैं या फिर इंटरनैट की वैब सीरीज में काम करने को मजबूर हैं. फिल्मों में तो 50-60 साल के अभिनेता ही सुपरस्टार बने हुए हैं. वृद्ध स्टार आज साल में 3-4 फिल्में करने से गुरेज नहीं करते. मौजूदा ज्यादातर स्थापित स्टार 80-90 के दशक से फिल्मों में घिसे जा रहे हैं.

सलमान खान की उम्र 52 साल की है और वे ‘सुलतान’ फिल्म में 30 साल के लड़के का रोल कर रहे हैं. ऐसे ही अक्षय कुमार 50 के हो चुके हैं लेकिन फिल्म ‘खट्टा मीठा’ में छात्र की भूमिका मजे से निभाते हैं, ‘स्पैशल 26’ में भी वे यही काम करते हैं. आमिर खान, जिन की उम्र 52 साल है, फिल्म ‘3 इडियट्स’ में मैनेजमैंट के अपनी उम्र से आधे के छात्र के किरदार में दिखते हैं. इसी तरह अधेड़ हो चुके शाहरुख खान 52 साल के हो चुके हैं लेकिन दीपिका पादुकोण और आलिया भट्ट के साथ मजे से काम कर रहे हैं. इसी तरह संजय दत्त 58 साल के हो चुके हैं. सैफ अली खान 46 साल के हैं और आसानी से 25-30 साल की अभिनेत्रियों के साथ रोमांस कर रहे हैं.

अक्षय कुमार, सलमान, अजय देवगन, सुनील शेट्टी, शाहरुख खान, सैफ अली आदि स्टार्स 50 के आसपास हैं और 1990 से फिल्मों में सक्रिय हैं. फिर भी युवा स्टार्स उन के सामने कहीं से भी टिक नहीं पाते. या कह सकते हैं कि इन के होते उन्हें मौका ही नहीं मिल रहा. नतीजतन, ये सभी उम्रदराज स्टार बौलीवुड को अपनी मुट्ठी में कैद किए हैं.

इस मामले में अमिताभ बच्चन का भी जवाब नहीं. जनाब 75 साल के हो चुके हैं. इस उम्र के ज्यादातर बुजुर्ग अपने नातीपोतों के साथ घर में खाली वक्त बिताते हैं लेकिन अमिताभ बच्चन साल में ‘पिंक,’ ‘तीन’ और ‘पीकू’ जैसी फिल्में कर युवा कलाकारों से ज्यादा मेहनताना जेब में अंटी कर लेते हैं. 75 साल के होते हुए वे खुद को बूढ़ा मानने के लिए तैयार नहीं हैं. ‘बूड्ढा होगा तेरा बाप’ जैसी फिल्मों में खुद को युवाओं का स्टार साबित करने की कोशिश करते दिख जाते हैं. बिग बी की तरह नाना पाटेकर, अनिल कपूर, आदित्य पंचोली, आसिफ शेख, जैकी श्रौफ, अरबाज खान के भी नाम लिए जा सकते हैं.

इन सब स्टार्स से अपेक्षाकृत स्टार की बात करें तो शाहिद कपूर, विवेक ओबेराय, आफताब शिवदासानी, अर्जुन कपूर, ऋतिक रोशन, रणवीर सिंह, रणबीर कपूर, वरुण धवन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, जिमी शेरगिल के नाम आते हैं. हालांकि ये भी 30 से 40 साल के हैं और युवा होने के मूल मापदंड से काफी दूर हैं, फिर भी रुपहले परदे पर 20-25 साल के युवा किरदारों को कर लेते हैं. हालांकि ये हमेशा दूसरी श्रेणी के ही स्टार रहे हैं. पहली कतार में 50 साला स्टार ही आते हैं. उन की फिल्में भी करोड़ों का कारोबार करती हैं. उन के अपने प्रोडक्शन हाउस भी हैं.

कमोबेश यही हाल अभिनेत्रियों के मामले में भी है. दीपिका पादुकोण, करीना कपूर, कैटरीना कैफ, ऐश्वर्या राय, तब्बू, प्रियंका चोपड़ा, विद्या बालन, रानी मुखर्जी, अमीषा पटेल, काजोल जैसी बड़ी अभिनेत्रियां 35-40 साल की हैं और युवा अभिनेत्रियां इन की सहेली, साइडकिक के रोल करने को मजबूर हैं. आलिया भट्ट व श्रद्धा कपूर जरूर युवा हैं लेकिन इन के नाम अपवाद सरीखे हैं.

दरअसल, बूढ़े हो चुके ये स्टार जब अपनी फिल्मों में युवा किरदारों में स्वीकृत हो जाते हैं तो अन्य फिल्मकार उन भूमिकाओं के लिए युवा कलाकारों को नहीं लेते. वजह, युवा स्टार के बजाय उम्रदराज स्टार की फिल्म सिनेमाहौल तक ज्यादा भीड़ लाती है.

साऊथ इंडियन फिल्म इंडस्ट्री का भी बुरा हाल है. वहां तो रजनीकांत (66), बालकृष्ण (57), चिरंजीवी (62), वेंकटेश (56), ममूटी (66), मोहन लाल (57) साल के हैं लेकिन अपनी हर फिल्म में 25-30 साल की हीरोइन के साथ रोमांस करते हैं और दर्शकों को भी सिनेमाघर के आगे ढोलनगाड़े बजाने पर मजबूर कर देते हैं. कमोबेश हर भाषा की फिल्मनगरी में बूढ़े स्टार्स राज कर रहे हैं और युवा स्टार्स की कमी बनी हुई है.

खेल संघों का खेल : पैसों के लालची लोगों ने किया खेल का बेड़ा गर्क

अखिल भारतीय फुटबौल संघ यानी एआईएफएफ के अध्यक्ष पद पर पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल के चुनाव को दिल्ली हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया. एआईएफएफ के चुनाव में प्रफुल्ल पटेल को तीसरी बार अध्यक्ष बनाया गया था.

अदालत ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि एआईएफएफ ने चुनाव प्रक्रिया में राष्ट्रीय खेल संहिता का पालन नहीं किया था. दरअसल, खेल संघों की आचार संहिता में दर्ज नियमों में यह शर्त है कि इस में कोई भी पदाधिकारी एक पद 4-4 साल के 2 कार्यकाल बिताने के बाद उसी संघ में अगले 4 साल तक कोई भी चुनाव किसी पद के लिए नहीं लड़ सकता.

सवाल उठता है कि जब ऐसी बात थी तो एआईएफएफ के पदाधिकारियों को क्या नियमकायदे नहीं मालूम थे या फिर पैसों के खेल में सबकुछ भूल गए थे.

यह कोई नई बात नहीं है जब नियमों की धज्जियां उड़ाई गई हों. ऐसा पहले से ही होता आया है क्योंकि खेल संघों में राजनेताओं, नौकरशाहों और कारोबारियों का कब्जा हमेशा से रहा है. यह केंद्रीय स्तर से ले कर राज्यों तक में होता है.

खेल संघों की जिम्मेदारी खेलों को बढ़ावा देना, खिलाडि़यों को निखारना, उन्हें बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराना, खेल प्रतिभाओं की तलाश करना आदि होता है. पर यहां क्या हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है. राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हम खेल में क्रिकेट को छोड़ कर कहां हैं, यह सभी जानते हैं.

यह हमेशा से कहा जा रहा है कि खेल संघों में उच्च पदों पर खेल से संबंधित लोग होने चाहिए पर संघों में तो पैसे वाले और पावर वाले ही कुंडली मार कर बैठे हुए हैं जिन को खेल से कोई लेनादेना नहीं है. पैसों के लालची लोगों ने खेल का बेड़ा गर्क कर रखा है.

खेल संघों में राजनीति इतनी हो गई है कि वहां खेल का भला हो ही नहीं सकता. अदालत ने भी यह बात कह दी है कि खेल को राजनीति से दूर रखा जाए पर खेल संघों में बैठे लोग इतने अडि़यल हैं कि सबकुछ अनसुना कर देते हैं क्योंकि उन के पास पैसा और पावर दोनों हैं. और इस देश में जिस के पास पैसा और पावर हैं उस की चलती खूब है क्योंकि वे चलाने वालों को अपनी जेब में रखते हैं.

जीत के साथ नेहरा हुए विदा

आशीष नेहरा ने कोलंबो में 24 फरवरी, 1999 को टैस्ट मैच में पदार्पण किया था. 24 जून, 2001 में उन्होंने हरारे में भारत और जिंबाब्वे के बीच मुकाबले में पहला एकदिवसीय मैच खेला और जोहानिसबर्ग में 9 दिसंबर, 2009 को भारत और श्रीलंका के बीच मुकाबले में पहला टी-20 मैच खेला.

नेहरा 17 टैस्ट, 120 एकदिवसीय और 26 टी-20 अंतर्राष्ट्रीय मैचों में 44 टैस्ट विकेट, 157 एकदिवसीय विकेट और 34 टी-20 विकेट ले चुके हैं. चोटिल होने के कारण वे टीम में अंदरबाहर होते रहे. 2003 विश्वकप में उन्होंने इंगलैंड के खिलाफ 23 रन दे कर 6 विकेट झटके थे. यह उन के एकदिवसीय कैरियर का सब से यादगार प्रदर्शन था.

नेहरा की खास बात यह रही कि वे ऐसे गेंदबाज हैं, जिन की उम्र जैसेजैसे बढ़ती गई वे वैसेवैसे और शानदार गेंदबाजी करते रहे. शायद इसीलिए 38 के वर्ष होने के बावजूद उन्हें मौका मिलता रहा.

अपने कैरियर के आखिरी मैच में न्यूजीलैंड के खिलाफ टी-20 मैच में नेहरा ने पहला और आखिरी ओवर डाला. भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली ने उन्हें यह मौका दिया. इस विदाई में कई खिलाड़ी भावुक  हुए जिन में युवराज सिंह ने भी नेहरा के लिए एक खत लिखा.

जाहिर है ऐसे क्षण खिलाडि़यों और खेलप्रेमियों के लिए दुखद होता है पर यह सचाई है कि यह दिन हर खिलाड़ी के साथ आता है. कई खिलाडि़यों की छुट्टी पहले हो जाती है और किसी की छुट्टी बाद में होती है. पर नेहरा की विदाई जीत के साथ हुई है, तो यादगार रहेगा ही. उम्मीद की जाती है कि नेहरा जैसे तेज गेंदबाज भारतीय टीम को मिलें और बेहतर परफौर्मेंस दें.

विश्वपटल पर भारत : स्थायी सरकार लेती है हर रोज अस्थायी फैसले

इन देशों में से कितनों के नाम सुने हैं या उन के बारे में कुछ जानते हैं- यमन, मौरीशनिया, सेनेगल, इथोपिया, माली, पाकिस्तान, स्वाजीलैंड, छद रिपब्लिक, गिनी, लाइबेरिया, जांबिया, सिएरा लियोन, मोजांबिक, ट्यूनीशिया, नाइजीरिया, आईवरी कोस्ट, बंगलादेश, मैडागास्कर, मलावी, निकारागुआ आदि. ये अफ्रीका और दक्षिणी एशिया के वे देश हैं जिन में मानवशक्ति का सही व पूरा इस्तेमाल न के बराबर है. भारत का दरजा इन के अंतिम वाले से पहले आता है.

नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, इंडोनेशिया, वियतनाम, फिलीपींस, थाईलैंड हम से अच्छे हैं. सर्वोत्तम देश नौर्वे से भारत में ह्यूमन कैपिटल का विकास लगभग आधा है. फिर हम किस दम पर हर समय विश्व की सब से तेजगति से बढ़ने वाली अर्थशक्ति होने का दावा करते हैं.

एक बड़े भूभाग पर बड़ी जनसंख्या होने के कारण हम अपनी सम्मिलित आय या पूंजी पर शान नहीं बघार सकते. सवाल तो यह है कि हमारा औसत नागरिक कितना खुश, संतुष्ट, समर्थ है. इस में तो हम बिलकुल फेल हो रहे हैं.

नौर्वे, स्वीडन, स्विट्जरलैंड व अमेरिका पहले नंबर के 4 ऐसे देश हैं जिन्होंने कभी साम्राज्य नहीं बनाए पर इन में लोग सब से ज्यादा संतुष्ट और शिक्षित हैं. वे हुनर रखते हैं और अपनी स्किल के बलबूते अपनेअपने देश को व खुद को समर्थ बनाए हुए हैं.

इन देशों में से अमेरिका को छोड़ दें, तो धार्मिक व सामाजिक विवाद न के बराबर हैं. अमेरिका में सामाजिक, जातीय व धार्मिक विवाद हैं पर अभी भी अमेरिकी कठोर परिश्रम कर रहे हैं. दूसरे कई देश अब बेहतर हो रहे हैं पर लाख खामियों के बावजूद अमेरिका की श्रेष्ठता कम नहीं हो रही. हालांकि, बड़ी जनसंख्या व बड़े भूभाग के कारण अमेरिका लड़खड़ा रहा है पर फिर भी अग्रणी है.

भारत तो अजीब द्वंद्व में फंसा है. हमारे यहां कानून का राज है पर अराजकता है. हमारे यहां स्थायी सरकार है पर हर रोज वह अस्थायी फैसले लेती है. हमारे चप्पेचप्पे पर खेती होती है पर उपज कम है. हमारे यहां स्कूल खुले हैं पर उन से निकलने वाले अंगूठाछाप हैं. हम एक संविधान में बंधे हैं पर सरकार व जनता रोज उस को तोड़ने में लगी रहती हैं. हमारी उत्पादकता व्यर्थ जा रही है. बेकारों की गिनती बढ़ रही है. निरर्थक गपें होती रहती हैं. अर्थहीन मुद्दों पर सिरफुटौवल हो रही है.

पर छाती पीटने में हमारा कोई सानी नहीं है. हर रोज अपना खुद का गुणगान करना हमारा परम धर्म हो गया है. ह्यूमन कैपिटल की जो बरबादी इस देश में है, उस के उदाहरण सिर्फ अफ्रीका के कुछ ही देशों में मिलेंगे और कहीं नहीं. बंगलादेश व पाकिस्तान तो भारत की संस्कृति के ही हिस्सेदार हैं और उन के गुणदोष हमारे साझे के ही हैं.

अपनी लव लाइफ में दें कलरफुल इनरवियर का तड़का

आज के फैशनेबल युग में हर चीज कलरफुल हो गई है. फिर चाहे बात ज्वैलरी की हो, फुटवेयर की हो, पर्स की हो या ड्रैसेज की. ये कलर ही हमारे जीवन में खुशियों के रंग बिखेरते हैं और अगर बात हो आप के इनरवियर की तो क्या आप को पता है? आप के फेडेड इनरवियर आप की लव लाइफ को नीरस भी बना सकते हैं.

जी हां कुछ शोध से पता चला है कि फीमेल पार्टनर के इनरवियर के कलर का गहरा असर आप के प्यार करने के मूड पर पड़ता है. तो जाने इनरवियर के रंगों का प्यार पर कैसा होता है असर.

मूड बनाएं एनर्जी लेवल बढाएं

प्यार में रंग भरना हर कोई चाहता है, अपनी लव लाइफ को इंटरैस्टिंग बनान के लिए ऐसे ब्राइट कलर का चुनाव करें जो आप की एनर्जी लेवल को बढ़ाएं इनरवेयर के रैउ, ब्लैक, ब्लू जैसे वाइबे्रट कलर को पहन कर जब आप की पार्टनर सामने आती है तो आप का प्यार करने का मूड ना भी होते मूड बन जाता है. क्योंकि ये ब्राइट कलर आप के एनर्जी लेवल को बढ़ाते हैं.

समझें इनरवियर की इंर्पोटेंस

अकसर महिलाएं मानती हैं कि इनरवियर तो दिखते नहीं इसलिए किसी भी तरह के फेडेड इनरवियर वो पहन लेती है और यहीं पहन कर जब आप अपने पार्टनर के सामने जाती है तो पार्टनर का मूड पूरी तरह से स्पौयल हो सकता है ये आप की लव लाइफ में ठंडापन व नीरसता ला सकते हैं. इस के अलावा फेडेड और लो क्वालिटी के इनरवियर आप की फिगर और स्किन पर भी काफी निगेटिव असर डालते हैं. इसलिए इनर वियर की इंर्पोटेंस को समझें और कलरफुल इनरवियर से अपनी लाइफ को इंटरैस्टिंग बनाएं.

लव लाइफ को हौट और सैक्सी बनाने के लिए. दे कलरफुल इनरवियर का तड़का जो आप की एनर्जी लेवल और मूड को बेहतर बनाएं.

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