हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का कभी वह दौर था जब एक नई फिल्म के आने पर जोरशोर से दर्शक चाहे देश के हों या विदेशों के, उसे देखने के लिए आतुर हो उठते थे और उस में अभिनय करने वाले पात्रों के फौलोअर्स बन जाते थे व कहानीकार की चर्चा किया करते थे. यह सही है कि समय के साथसाथ कहानियों में परिवर्तन आया. पहले गांव की कहानी, फिर समय के साथ शहरों की कहानी पर फ़िल्में बनीं. उन से निकल कर बौलीवुड आधुनिकता की ओर बढ़ गया और आधुनिक तकनीक के साथ, सैक्स, मारधाड़, खूनखराबा आदि को जम कर परोसा जाने लगा. इस तरह की फिल्मों से भी दर्शक ऊब गया और उस ने अब ऐसी फिल्मों को नकार दिया. फलस्वरूप, फिल्में फ्लौप रहीं.
दर्शकों का प्यार इन फिल्मों को नहीं मिला और कई थिएटर हौल बंद हो चुके हैं, तो कुछ बंद होने की कगार पर हैं. लेकिन क्या ऐसी कहानियों, जो दर्शकों के मन को छू सकें, पर फ़िल्में बननी बंद हो गईं? क्या निर्माता, निर्देशक दर्शकों की चाहत को टटोलने में असमर्थ हो चुके हैं? यही वजह है कि पूरे विश्व में इन फिल्मों को देखने वाले दर्शक बजाय देखने के उन का बहिष्कार कर रहे हैं. आखिर क्या है इस की वजह, जिस के परिणामस्वरूप दर्शक थिएटर हौल तक जाने और फिल्मों को देखना नहीं चाहते और आज भी वे 80 और 90 के दशक की फिल्मों को बारबार देखते हैं?
अमेरिका के लास एंजिलस में रहने वाले विजित होर कहते हैं कि आज की हिंदी फिल्में अजीब कहानियों वाली होती हैं, जिन्हें एक घंटा भी बैठ कर देखना मुमकिन नहीं, कहानियों में कसाव नहीं होता, कहानियां ओरिजिनल नहीं होतीं, किसी न किसी विदेशी फिल्म की कौपी होती हैं.
वे कहते हैं, “हालफिलहाल मैं ने ‘एनिमल’ और ‘क्रू’ फिल्म देखी. एक में खूनखराबा, तो दूसरे में कहानी ही बेसिर पैर की है. मनोरंजन से भी आज की फिल्में दूर हो चुकी हैं. क्या अच्छी कहानियों को लिखने वाले नहीं हैं? हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को समस्या का पता नहीं, आज मैँ 80 या 90 के दशक की फिल्में देखता हूं और बारबार देखता हूं और मुझे अच्छी लगती हैं.”
क्वालिटी कंटैंट की नहीं कमी
यह सही है कि आज की तारीख में क्वालिटी कंटैंट की कमी दर्शकों के पास नहीं है, इसलिए उन की आशाएं फिल्मों से भी बढ़ चुकी हैं, क्योंकि वे किसी भी कंटैंट पर अपना समय बरबाद नहीं करना चाहते. आज की कहानियां रियलिटी से दूर हो चुकी हैं, जबकि पहले की कहानियां आम जिंदगी से जुड़ी हुई होती थीं, जिन के गाने, संवाद उन की पिक्चराइजेशन भी रियल और लार्जर दैन लाइफ थी, जो आज की फिल्मों में नहीं है. आधिकतर फिल्में बाहर की लोकेशन पर शूट की जाती हैं, जिन्हें देखने पर इंडियन या फौरेन फिल्म या दोनों का मिश्रण कुछ भी साफ समझ में नहीं आता.
कन्फ्यूज़्ड निर्माता-निर्देशक
पहले की फिल्मों के हीरो और उन के संवाद आम दर्शकों के बीच आ जाते थे, मसलन फिल्म ‘दीवार’ का प्रसिद्ध संवाद ‘मेरे पास मां है’, फिल्म ‘शोले’ का ‘कितने आदमी थे’ आदि बच्चेबच्चे से ले कर बड़ों के बीच में था. तब संगीत भी यों ही नहीं डाल दिए जाते थे, बल्कि कहानी के अनुसार उन्हें समय लगा कर तैयार किया जाता था, जो रियल होते थे और सुनने में अच्छा लगता था. आम इंसान की जिंदगी को आज की फिल्में बयां नहीं करतीं. फिल्म निर्माता भी खुद नहीं जानना चाहते हैं कि उन्हें आज क्या दिखाना है और मनोरंजन के रूप में मैसेज कैसे देना है. यही वजह है कि फिल्म इंडस्ट्री धीरेधीरे पतन की ओर बढ़ती जा रही है.
जनून की कमी
पिछले दिनों कामयाब राइटर जोड़ी सलीम-जावेद पर बनी डाक्युमैंट्री फिल्म ‘ऐंग्री यंग मैन’ का प्रमोशन हुआ. उस दौरान जावेद अख्तर ने एक फिल्म लेखक के रूप में अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए कहा कि “जब मैँ युवा था, इस मुंबई शहर में आया था, उस समय मेरे पास न तो कोई नौकरी थी और न ही कोई संपर्क या पैसा था. कई बार मुझे भूखे पेट सो जाना पड़ता था, लेकिन इस के बावजूद मैं ने हार नहीं मानी, क्योंकि मैँ अपनी लिखी कहानी को दुनिया के साथ शेयर करना चाहता था और मैं ने किया. मैं ने कहानियां सलीम साहब के साथ मिल कर भी लिखीं. उस समय हम दोनों की जोड़ी सब से अधिक पैसे लेने वाले फिल्म लेखकों की बनी. जिस में हम दोनों ने 22 फिल्में साथ लिखीं, जिस में 20 फिल्में सुपर हिट रहीं. आज फिर से एक और फिल्म दर्शकों के लिए हम दोनों साथ में लिखना चाहते हैं.
उक्त अवसर पर फिल्म लेखक सलीम खान गहरी सांस लेते हुए कहते हैं, “ऐसा कब तक चलेगा, आज के अच्छे लेखक कहां गए. मैं ने अपने कैरियर की शुरुआत एक ऐक्टर के रूप में की थी, बाद में एहसास हुआ कि मुझे कहानी लिखने में अधिक दिलचस्पी है, फिर मैं ने ऐक्टिंग छोड़ लेखन की ओर ध्यान केंद्रित किया और जावेद अख्तर से मिला व हम दोनों ने मिल कर कई सफल फिल्मों के साथसाथ इंडस्ट्री को चुनौती दी.”
जिम्मेदार इंग्लिश माध्यम स्कूल
यह सही है कि वो दिन अब नहीं रहे जब एक साधारण लड़का मुंबई जैसे अनजान शहर में एक झोले में कुछ कहानियों और एक कलम के साथ फिल्म इंडस्ट्री के दरवाजा खटखटाता हो और प्रतीक्षा करता हो कि कब कौन सा दरवाजा खुले और उस की कहानी को फिल्म बनने की स्वीकृति मिले. आज वैसा धीरज और जनून किसी में नहीं रहा, क्योंकि इंग्लिश मीडियम स्कूल्स ने इस की जगह ले ली है, जहां अच्छी हिंदी जानने वाले युवाओं की कमी फिल्म इंडस्ट्री को भुगतना पड़ रहा है. आज कहानियां इंग्लिश या रोमन में लिखी जाती हैं, ऐसे में कहानी के भाव का अलग होना स्वाभाविक हो जाता है. पहले जैसी कहानियां न तो लिखी जा रही हैं और न ही फिल्में बन पा रही हैं.
काम नहीं कर रहा स्टार पावर
आज की फिल्में दर्शकों के मन को छूने में असमर्थ हो रही हैं, लेकिन इस क्राइसिस के बावजूद गिनीचुनी कुछ फिल्में ऐसी हैं जिन्हें दर्शकों का प्यार मिला है. मसलन, ‘जुगजुग जियो’, ‘भूलभुलैया’ और ‘गंगूबाई कठियावाड’ आदि फिल्मों को देश में ही नहीं विदेश में भी सराहना मिली है. रुचिकर, रिलेटेबल, थ्रिलिंग स्टोरीज. जिन में कुछ नयापन हो और जो दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींच सकें, पर आज फिल्म नहीं बन रही हैं. वास्तविकता से दूर और ढीली कहानियों की आज फिल्में बन रही हैं, जिन्हें दर्शक हजम नहीं कर पा रहे.
इतना ही नहीं, स्टार पावर भी आज कमजोर कहानी की वजह से कुछ कमाल नहीं दिखा पा रहा है. शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान, अक्षय कुमार आदि जैसे बड़े स्टार की फिल्में भी आज फ्लौप हो रही हैं, क्योंकि कहानी में दम नहीं.
तकनीकों का प्रयोग
हिंदी फिल्मों में आजकल नई तकनीकों का अधिक प्रयोग होने लगा है, जिस की क्वालिटी आज के दर्शकों को अच्छी नहीं लगती. यही वजह है कि विदेश में रहने वाले भारतीय ऐसी फिल्मों का बहिष्कार कर रहे हैं.
अमेरिका के पोर्टलैंड में रहने वाला और एक मल्टीनैशनल कंपनी का इंजीनियर सुजोय कहता है कि हिंदी फिल्मों में तकनीकों का प्रयोग सही तरीके से नहीं होता, जिस से दृश्य बिचकने लगते हैं. तकनीक का सही जगह प्रयोग फिल्ममेकर को करना नहीं आता. इंग्लिश फिल्मों की कौपी की कोई वजह भी समझ में नहीं आती, क्योंकि इंडिया में अच्छे लेखक रहे हैं, सालों से सभी ने अच्छी ओरिजिनल कहानियां लिखी हैं, लेकिन आज की फिल्मों के क्लाइमैक्स से ले कर गाने और कहानी सभी को वे विदेशी फिल्मों से कौपी करते हैं. नई और मनोरंजक फिल्मों की कहानी फिल्मों में आज देखने को नहीं मिलती.
कंफ्यूज्ड कहानी
असल में पहले की तरह लेखक अब नहीं हैं. इसे रणबीर कपूर ने भी एक इंटरव्यू में माना है. उन का कहना है कि इंडस्ट्री में नए लोगों की प्रतिभा को सराहा नहीं जा रहा है. नई प्रतिभा और आउटसाइडर्स को आगे आने नहीं दिया जाता. अधिकतर कहानियां कंफ्यूज्ड नजर आती हैं. आजकल लेखक व निर्देशक एक ही व्यक्ति है, जो गलत हो रहा है. हर कोई एक सही कहानी नहीं लिख सकता. इस के अलावा पिछले 2 दशकों से हिंदी फिल्में पश्चिमी देशों से प्रभावित रही हैं, जिन्हें आम भारतीय दर्शक देखना नहीं चाहते. दर्शकों को सही तरह से समझ न पाना भी इंडस्ट्री के नीचे गिरने की अहम वजह है.
नेपोटिज्म है हावी
फिल्म इंडस्ट्री के अच्छा न करने की वजह नेपोटिज्म भी कुछ हद तक जिम्मेदार है. हालांकि पहले भी इंडस्ट्री में नेपोटिज्म था, एकाधिकार थे, लेकिन किसी का ध्यान उधर नहीं गया, क्योंकि अच्छी फिल्में बन रही थीं. लगातार फिल्मों के गिरते स्तर को देखते हुए दर्शकों का ध्यान अब उधर गया है. कुछ दिनों पहले फिल्म ‘द आर्चीस’ रिलीज हुई जिस में शाहरुख खान की बेटी सुहाना खान के साथ कई सैलिब्रिटी स्टार्स के बेटेबेटियों ने अभिनय किया, लेकिन बेकार की कहानी और उन सब की कमजोर परफौर्मेंस ने दर्शकों को एक बार फिर से निराश किया. फिल्म ठंडे बस्ते में चली गई.
‘द आर्चीस’ के अलावा इंडस्ट्री की कई फिल्में इस साल दर्शकों की नब्ज नहीं पकड़ पाईं और वे फ्लौप हो गईं, मसलन अभिनेता अक्षय कुमार की फिल्म ‘बड़े मिया छोटे मिया’, ‘मैदान’, ‘एलएसडी 2’, ‘इश्क विश्क रिबाउंड’, ‘खेल खेल में’, ‘वेदा’ इत्यादि.
अंत में इतना कहा जा सकता है कि अगर बौलीवुड फिल्म इंडस्ट्री दर्शकों से खुद को एक बार फिर से जोड़ने की कोशिश करती है या उन के टैस्ट को पहचान पाती है, तो फिल्ममेकर को अच्छा कंटैंट दर्शकों को परोसना होगा, जिस की वे चाहत रखते हैं. और तब जा कर एक बार फिर से पुराने दौर में इंडस्ट्री जा सकती है और फिल्में सफल हो सकती हैं.