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दिल्ली के आर्कबिशप अनिल काउटे का अर्क

दिल्ली के आर्कबिशप अनिल काउटे को भी लोकतंत्र खतरे में दिखा तो उन्होंने एक चिट्ठी लिख डाली कि लोकतंत्र खतरे में है और 2019 में ईसाइयों को नई सरकार बनाने के लिए वोट करना चाहिए.

पिछले 4 सालों से ‘लोकतंत्र खतरे में है’ का जुमला खूब उछल रहा है. अब इस में ईसाई धर्मगुरु भी कूद पड़े हैं. इस पर आरएसएस की ओर से अपेक्षित जवाब यह आया कि धर्मांतरण और फंडिंग पर रोक लगने से पादरी घबराए हुए हैं. धर्मतंत्र और लोकतंत्र में कोई फर्क रह गया है, ऐसा लगता नहीं, लेकिन देश के अधिकतर दलित और आदिवासी क्यों मंदिरों से ज्यादा चर्चों को तवज्जुह देते हैं, यह आरएसएस कभी सोच ले तो उस की ‘लोकतंत्र खतरे में है’ वाली समस्या मिनटों में हल हो जाएगी.

रही बात अनिल काउटे की, तो हल्ला मचने पर उन्होंने बड़ी मासूमियत से सफाई दे डाली कि उन की चिट्ठी के गलत मतलब निकाले गए हैं और हर बार सरकार नई ही होती है.

ब्रेकफास्ट रैसिपीज : ओट्स रवा ढोकला

ओट्स रवा ढोकला

सामग्री

– 3/4 कप ओट्स

– 1/2 कप बारीक सूजी

– 1 कप दही

– 1/4 कप पानी

– 2 छोटे चम्मच अदरक व हरीमिर्च पेस्ट

– 1/4 कप गाजर कद्दूकस की

– 1 बड़ा चम्मच रिफाइंड औयल

– 1 सैशे ईनो

– थोड़ सा फ्रूट साल्ट

– नमक स्वादानुसार.

तड़के की सामग्री

– 1 बड़ा चम्मच रिफाइंड औयल

– 1 छोटा चम्मच राई

– 1 छोटा चम्मच जीरा

– 6-7 करीपत्ते

– 2 हरीमिर्चें लंबाई में चीरी गई

– थोड़ी सी धनियापत्ती कटी सजावट के लिए.

विधि

ओट्स को नौनस्टिक पैन में 1 मिनट उलटेंपलटें. आंच धीमी रहनी चाहिए. ठंडा कर के मिक्सी में पाउडर बना लें. ओट्स, सूजी और दही मिक्स कर 20 मिनट के लिए ढक कर रख दें. पुन: फेंटें. इस में गाजर, नमक, अदरक व हरीमिर्च पेस्ट, तेल और पानी मिलाएं. अच्छी तरह मिक्स कर लें. मिश्रण यदि गाढ़ा लगे तो थोड़ा पानी डाल लें. ढोकला बनाने वाले स्टीमर में 2 कप पानी डाल कर गरम करें. जिस बरतन में ढोकला बनाना है उसे चिकना करें. मिश्रण में ईनो, फ्रूट साल्ट मिला कर बरतन में पलटें. 10-15 मिनट में ढोकला बन जाएगा. ठंडा होने पर बरतन निकाल लें. मनचाहे टुकड़ों में काट लें. तड़का बना कर ढोकलों पर फैलाएं.

क्रिकेट में भटकते युवा

चेन्नई सुपरकिंग्स ने सनराइजर्स हैदराबाद को 8 विकेट से हरा कर इस बार फिर इंडियन प्रीमियर लीग यानी आईपीएल 2018 का खिताब अपने नाम कर लिया. इस से पहले चेन्नई सुपरकिंग्स 2 बार यह खिताब हासिल कर चुकी है.

आईपीएल का चस्का युवाओं को इस तरह लग गया है जैसे नशेड़ी को नशे का बेसब्री से इंतजार रहता है. पिछले एकडेढ़ महीनों में युवा मैच के दौरान टीवी से चिपके रहे या फिर स्टेडियमों में हाथ हिलाते नजर आए. इस से तो यही लगता है कि उन के लिए क्रिकेट सब से ज्यादा महत्त्चपूर्ण है. जबकि आईपीएल मार्केटिंग का मास्टर स्ट्रोक है और इस मास्टर स्ट्रोक का मास्टरमाइंड ललित मोदी इंगलैंड में बैठ कर इस तमाशे का मजा ले रहा है.

सवाल उठता है कि 20-20 ओवर के इस तमाशे में अपना धन और समय गंवा कर क्या हासिल हुआ? जवाब सुनने को मिल सकता है कि इस से मनोरंजन होता है और इस मनोरंजन के लिए थोड़ा सा समय और धन गंवा भी दिया तो इस में हर्ज ही क्या है.

आईपीएल विशुद्ध रूप से मनोरंजन है यानी 20-20 ओवर के इस मैच में खूब इंटरटेनमैंट होता है. इसे मनोरंजक बनाने के लिए खूब प्रचारप्रसार किया जाता है. स्टेडियमों में तरहतरह का म्यूजिक बजाया जाता है. चौकेछक्कों की बरसात होने पर चीयर लीडर्स खूब ठुमके लगाती हैं यानी आप के मनोरंजन के लिए धनकुबेरों ने ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि धन व समय गंवाने के बाद भी आप को खूब मजा आए.

इस मजे के लिए आप पहले टिकट लेते हैं, फिर स्टेडियम तक पहुंचने के लिए किराया देते हैं या फिर पैट्रोल फूंक कर कार या मोटरसाइकिल से वहां पहुंचते हैं. उस के बाद बारी आती है पार्किंग की. फिर वहां पार्किंग के भी पैसे देते हैं और पहुंच जाते हैं अपनी टीम का हौसला  बढ़ाने के लिए मैदान के अंदर. थोड़ी देर बाद आप अपनी प्यास बुझाने या भूख शांत करने के लिए देखादेखी ही सही, औनेपौने दामों में खानेपीने की चीजें खरीदते हैं और शुरू हो जाते हैं चीयर लीडर्स की तरह झूमने.

कुछ युवाओं के झुंड स्टेडियमों में इसलिए भी हुड़दंग मचाते हैं ताकि का फोकस उन पर पड़े और जैसे ही कैमरे फोकस उन पर पड़ता है वे और भी उतावले हो जाते हैं. दूसरे दिन जब कोई रिश्तेदार या अड़ोसपड़ोस के लोग मिलते हैं तो यह कहते नजर आते हैं कि वाह बेटा, तुम ने तो खूब मजे किए. अगली बार हमें भी बताना, हम भी चलेंगे.

चिंता की बात यह है कि उन से यह कोई नहीं कहता कि बेटा, तुम ने जो इतना समय बरबाद किया वहां जा कर, वह व्यर्थ रहा.

हिसाब लगाया जाए तो आप समझ सकते हैं कि यदि एक परिवार के  4 सदस्य मैच देखने जाते हैं तो उन्हें कम से कम 3 से 4 हजार रुपए खर्चने पड़ते हैं और 5-6 घंटे बरबाद किए, सो अलग.

कोई इस बात को समझने को तैयार नहीं कि इस से कुछ भला होने वाला नहीं है, न ही देश को और न ही क्रिकेट के चाहने वालों को. भला उन धनकुबेरों को जरूर हो रहा है जो करोड़ोंअरबों रुपया लगा कर खिलाडि़यों को खरीदते हैं और टीम बना कर आप के सामने परोसते हैं. वे आप से ही पैसा वसूलते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि वे आप को इस चक्रव्यूह में फंसा कर मालामाल हो रहे हैं और आप इस तमाशे में ताली बजा रहे हैं.

चिंता की बात यह है कि इस बात को युवा समझने को राजी नहीं हैं. और न ही मातापिता उन्हें समझाने को राजी हैं क्योंकि मातापिता भी इस तमाशे में गवाह बन रहे हैं.

विमान यात्रियों के लिए राहत पैकेज

देश का सामान्य नागरिक भी विमान सेवा का लाभ ले, इस के लिए विमान किराया सामान्य स्तर पर लाया जाना आवश्यक है. भले ही आज बड़ी संख्या में लोग कम किराए वाली विमान सेवा का लाभ उठा रहे हैं लेकिन इसे और कम किया जाना चाहिए. साथ ही, यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि विमानन कंपनी के कर्मचारी यात्रियों के साथ सलीके से पेश आएं. इस के लिए कई प्रावधान करने जरूरी हैं.

बहरहाल, नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने विमानन सेवा में बड़ा सुधार कर यात्रियों की सुविधा के लिए पैसेंजर चार्टर तैयार किया है. चार्टर में विमानन कंपनियों की मनमानी रोकने के लिए कई कदम उठाए गए हैं. चार्टर के मसौदे में कहा गया है कि यात्रियों को 24 घंटे के भीतर यात्रा टिकट रद्द करने पर शुल्क नहीं देना होगा.

हालांकि यह भी कहा गया है कि रद्दीकरण की स्थिति में यात्रियों से मूल किराया और ईंधन प्रभार से ज्यादा रद्दीकरण शुल्क नहीं जोड़ा जा सकता. इस का मतलब 24 घंटे के भीतर रद्द करने पर न्यूनतम शुल्क देना होगा लेकिन 96 घंटे के भीतर रद्दीकरण पर कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा.

यह स्पष्ट होना आवश्यक है कि न्यूनतम प्रभार किस स्तर पर लिया जाएगा. एयरलाइंस की गलती से उड़ान में देरी पर यात्रियों को हर्जाना मिलेगा. विमान कंपनी की गलती से यदि कनैक्ंिटग फ्लाइट छूटती है तो 5 हजार रुपए जुर्माना यात्री को मिलेगा. कनैक्टिंग फ्लाइट 4 से 12 घंटे देरी से चल रही है तो जुर्माना 10 हजार रुपए हो और 12 घंटे से ज्यादा की देरी हो तो जुर्माना 20 हजार रुपए देना पड़ेगा.

एयरलाइंस की गलती से यदि यात्रा एक दिन टलती है तो बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के यात्रियों को होटल में ठहराने की व्यवस्था एयरलाइंस कंपनी को करनी होगी. विमान रद्द होने की सूचना देने पर यात्रियों को किसी विमान से निर्धारित उड़ान के 2 घंटे के भीतर यात्रा कराई जा सकती है या उन का पैसा लौटाया जा सकता है.

घोटाले, दोष, दोषी

नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के मामले में 12,000 से 20,000 करोड़ रुपए के घपले पर सरकारी पंजाब नैशनल बैंक ने सारा दोष एक सीनियर लैवल के अफसर पर डाल दिया है. उसे गिरफ्तार करा कर बैंक के डायरैक्टर व चेयरमैन बच निकले हैं. यही तो सरकारी अफसरों की खासीयत है कि वे आमतौर पर हर तरह के आरोपों से मुक्त रहते हैं. यही प्रशासकीय सेवक अपने को देश का आयरनफ्रेम कहते हैं. इस फ्रेम का हर गर्डर दूसरे पर निर्भर रहता है और दूसरे की सुरक्षा करता है. प्राइवेट बैंकों को यह सुविधा नहीं है और इसीलिए जैसे ही पता चला कि वीडियोकोन कंपनी को 40,000 करोड़ रुपए के कर्ज में जो 3,250 करोड़ रुपए आईसीआईसीआई बैंक ने दिए थे उस में बैंक की चेयरपर्सन चंदा कोचर का अहम रोल था. इन्हीं चंदा कोचर के पति दीपक कोचर की कंपनी न्यू पावर रिन्यूएबल्स को वीडियोकोन के चेयरमैन वेणुगोपाल धूर्त ने मोटा कर्ज दिया था.

केंद्रीय जांच ब्यूरो इस आरोप की जांच कर रहा है और चंदा कोचर से पूछताछ शुरू हो गई है. ऐसी पूछताछ नीरव मोदी को कर्ज देने वाले सरकारी बैंकों के चेयरमैनों से अभी शुरू नहीं हुई है, क्योंकि वे बैंक सरकारी जो हैं. सरकार जो करती है, वह ठीक ही होता है, यह धारणा आज तक जनता में बनी हुई है. लगातार प्रचार के बल पर सरकारी अफसर यह साबित करने में सफल हो गए हैं कि इस देश में भ्रष्टाचार, लूट, बेईमानी या तो नेता करते हैं या व्यापारी. उन्होंने अफसरशाही को इस से मुक्त कर रखा है. लगभग हर कानून में बारबार नियंत्रण सरकारी अफसरों व इंस्पैक्टरों को दिया जाता है, जबकि भ्रष्टाचार की असल जड़ों में खादपानी देने का काम इन्हीं अफसरों के बनाए नियमकानून करते हैं और इन्हें लागू करने वाले यही अफसर इस का लाभ उठाते हैं.

आईसीआईसीआई बैंक सरकारी नहीं है और इसीलिए उस के चेयरपर्सन पर जल्दी ही हाथ डाल दिया गया वरना चाहे चारा घोटाला हो, कोयला घोटाला हो या कौमनवैल्थ गेम्स घोटाला, दोषी मुख्यतया सरकारी अफसरों की जमात ही होती है जो अपने इशारे पर नेताओं व व्यापारियों को चलाती है. जरूरत इस बात की है कि कानून कड़े नहीं, सभी पक्षों पर बराबर लागू हों. दोषी केवल नेता और व्यापारी नहीं, उन के हाथ बांधने वाले या उन को खुला अवसर देने वाले नियमकानून भी हैं. दोषी वे सैकड़ों कानून हैं जो आम जनता को आराम से जीने नहीं देते. इन्हीं के कारण प्रतिस्पर्धा कम होती है और व्यापारी, नेता, अफसर मिल कर जनता को लूटते हैं. अफसर जानते हैं कि नेता कुछ समय के लिए आते हैं और उन्हें कानून की पेचीदगियों का कुछ पता नहीं होता. वे उन्हें बहका कर मामले उलझा देते हैं और खुद निकल जाते हैं.

मंगनी की अंगूठी (भाग-1) : क्या सुमिता के जादू में बंध पाया मोहित

रैस्टोरैंट के हौल में दाखिल हो कर सुमिता ने इधरउधर देखा. सारी मेजें भरी हुई थीं. वह इस रैस्टोरैंट की रैगुलर कस्टमर थी. स्टाफ उस को पहचानता था. हैडवेटर भी तनिक शर्मिंदा था. वह मन ही मन सोच रहा था, ‘मोटा टिप देने वाली मैडम को आज कोई मेज खाली नहीं मिली.’ ‘‘मैडम…’’ आ कर वह सौरी बोलता इस से पहले ही सुमिता ने कहा, ‘‘डोंट माइंड, आज रश है.’’

वह जैसे ही वापस जाने को मुड़ी तभी उस की नजर हौल के तनहा कोने में बैठे एक गंभीर सूरत वाले नौजवान पर पड़ी. खयालों में खोया वह नवयुवक फ्रूट जूस के गिलास से धीरेधीरे चुसकियां ले रहा था. वह तनहा कोना सुमिता को बहुत पसंद था मगर आज वह भी खाली नहीं था. गोल मेज के इर्दगिर्द सिर्फ 2 ही कुरसियां थीं. एक खाली थी दूसरी पर हलकीहलकी दाढ़ी और आंखों पर नजर का चश्मा लगाए गंभीर सूरत वाला वही नौजवान बैठा था.

कुछ सोच कर सुमिता उस मेज के समीप पहुंची. आगंतुक को देख कर नौजवान तनिक चौंका फिर उस ने सवालिया नजरों से सुमिता को देखा. ‘‘आप के सामने की सीट खाली है, अगर माइंड न करें तो मैं बैठ जाऊं?’’ थोड़े संकोच भरे स्वर में सुमिता ने कहा.

‘‘शौक से बैठिए, आई डोंट माइंड’’, स्थिर स्वर में नौजवान ने कहा. सुमिता ने कुरसी खिसकाई और उस पर बैठ गई. सामने बैठा नौजवान निर्विकार ढंग से अपने फ्रूट जूस के गिलास से चुसकियां लेता रहा.

सुमिता बहुत सुंदर थी. उस का फिगर काफी सुडौल और आकर्षक था. उस को देखते ही नौजवान और अधेड़ कुत्ते की तरह लार टपकाने और जीभ लपलपाने लगते थे. मगर सामने बैठा नवयुवक उस सौंदर्य से लापरवाह था. सुमिता एक कौल सैंटर में ऊंचे पद पर काम करती थी, उसे मोटी तनख्वाह मिलती थी. वह सैरसपाटा करने, खानेपीने के लिए कभी अकेली तो कभी किसी सहेली या सहयोगी के साथ इस रैस्टोरैंट में आतीजाती थी. यह रैस्टोरैंट उसे काफी पसंद था.

तभी उस का स्थायी वेटर उस के सामने आ गया. ‘‘मैडम…’’

यह सुनते ही सुमिता ने एक क्षण सामने देखा. सामने बैठा नवयुवक फ्रूट जूस पी कर गिलास मेज पर रख कर मैन्यू पढ़ रहा था. ‘‘माई और्डर इज सेम.’’

सिर हिलाता वेटर लौट गया. थोड़ी देर बाद वेटर उस की पसंदीदा लाइट ड्रिंक और फ्रैंच फ्राइज की प्लेट रख कर चला गया.

उस नवयुवक ने भी अपना और्डर दे दिया. वेटर उस का और्डर भी सर्व कर गया. नवयुवक खातापीता रहा. थोड़ी देर बाद सुमिता का खाने का और्डर भी सर्व हो गया. वेटर उस की पसंद जानता था. आमनेसामने बैठे खापी रहे दोनों नौजवान युवकयुवती थे. युवती मन ही मन सोच रही थी कि नौजवान उस की तरफ ललचाई नजरों से अवश्य देखेगा, लार टपकाएगा व उस पर लाइन मारने की कोशिश करेगा. मगर एक यंत्रचलित पुतले के समान सामने बैठा नौजवान बिना किसी भाव के खातापीता रहा.

बिल अदा कर सुमिता उठ कर खड़ी हुई लेकिन अभी तक वह नवयुवक खाना खा ही रहा था. ‘अजीब आदमी है, शायद सैडिस्ट है.’ सोचती हुई वह बाहर आ गई. थोड़े दिन बाद एक शौपिंग मौल की लिफ्ट में जाते समय उस का सामना फिर से उसी सैडिस्ट से हो गया. पहले की तरह वह अब भी निर्विकार था.

‘‘अरे, वह नौजवान या तो कोई फिलौसफर होगा या फिर इंपोटैंट व्यक्ति.’’ उस की कौल सैंटर की सहयोगी नीरू ने कहा. ‘‘अरे, अगर वह इंपोटैंट हुआ या फिलौसफर तब भी इस के किसी का काम का नहीं है,’’ शालू ने कहा.

‘‘वैसे क्या तेरी उस में दिलचस्पी है,’’ नीरू ने शरारत भरी नजरों से उस की तरफ देखते हुए पूछा. ‘‘अरे, इस के ईगो पर चोट पहुंची है, क्योंकि वह न तो इस के फिगर से इंप्रैस हुआ न ही बातों से. इस को उम्मीद थी कि वह इस को देखते ही ललचाएगा, लार टपकाएगा, मगर उस ने तो इस की तरफ ध्यान से देखा भी नहीं,’’ शालू का तीर निशाने पर लगा.

पहले सुमिता तिलमिलाई फिर खिलखिला कर हंस पड़ी. उस के साथ सभी सहेलियां हंस पड़ीं. ‘‘अगर वह युवक तुझ से इंप्रैस हो जाए और दोस्ती कर ले तब क्या खिलाएगी,’’ मीनाक्षी ने शरारत से कहा.

‘‘इस के पसंदीदा रैस्टोरैंट में लंच करेेंगे,’’ एक सहेली ने कहा. ‘‘लंच का टाइम तो अब भी हो गया है,’’ नीरू की इस बात पर सब सहेलियां अपनाअपना टिफिन खोलने लगीं.

शाम को सब का कार्यक्रम हलके जलपान का बन गया. सब उसी रैस्टोरैंट में पहुंचीं. तभी सुमिता की नजर एक कोने में मेज के करीब बैठे नौजवान पर पड़ी. सभी ने उस की नजर का अनुसरण किया.

‘‘अरे, क्या वही फिलौसफर तो नहीं,’’ नीरू ने कहा. ‘‘वही है.’’

‘‘चलो, हम उस से इंट्रोडक्शन करती हैं.’’ सुमिता पहले तो सकुचाई, लेकिन फिर वह उन के साथ उस नौजवान की मेज के समीप पहुंची.

‘‘हैलो, हैंडसम,’’ सुंदर नवयुवतियों को एकसाथ मेज के पास आ कर खड़े होने और बेबाकी से उस को हैलो, बोलता देख नौजवान सकपकाया. ‘‘हैलो,’’ सुमिता को देख उस की आंखों में पहचान के भाव उभरे मगर वह असमंजस में पड़ा उन को देखता रहा.

‘‘यह आप से पहले भी मिल चुकी है, यह कहती है कि आप शायद कोई फिलौसफर हैं इसलिए हम आप से परिचय करना चाहते हैं,’’ मीनाक्षी ने कहा. ‘‘ओह, श्योर. बैठिए,’’ सामने पड़ी कुरसी की तरफ इशारा करते हुए उस

नौजवान ने कहा. सामने एक ही कुरसी थी. 3 कुरसियां और लग गईं.

‘‘आप का नाम,’’ उस नौजवान से नीरू ने पूछा. ‘‘मोहित,’’ संक्षिप्त सा जवाब मिला.

‘‘आप क्या करते हैं,’’ दूसरा सवाल मीनाक्षी का था. ‘‘मैं आर्टिस्ट हूं. विज्ञापन कंपनियों के लिए डिजाइन बनाता हूं.’’

‘‘आर्टिस्ट भी फिलौसफर ही होता है,’’ इस टिप्पणी पर सब सहेलियां हंस पड़ीं. ‘‘मेरे मामाजी कहते हैं लेखन, चित्रकला, फिलौसफी सब असामान्य मस्तिष्क के लोगों के काम ही होते हैं,’’ शेफाली की इस बात पर सब सहेलियां फिर हंस पड़ीं. मोहित भी मुसकरा पड़ा.

‘‘अरे, तू भी तो कुछ बोल, असल फिलौसफर तो तू है,’’ नीरू ने सुमिता को कहा. ‘‘मिस्टर, आप का स्टूडियो कहां है?’’ पहली बार सुमिता ने सवाल किया.

इस पर मोहित ने अपने पर्स से एक विजिटिंग कार्ड निकाल कर थमा दिया. ‘‘अब आप हमें कुछ खिलाएंगे या फिर हम आप की खिदमत करें,’’ नीरू ने आंखें मटकाते हुए कहा.

इस पर मोहित हलका सा हंसा और सिर झुकाते हुए बोला, ‘‘फरमाइए, आप की खिदमत में क्या पेश करूं?’’ उस की इस अदा पर सब खिलखिला कर हंस पड़े. फिर सब ने मैन्यू पढ़ कर अपनीअपनी पसंद का और्डर दिया. हलकीफुलकी बातें करतेकरते हंसते हुए खायापिया. अच्छाखासा बिल आया जो मोहित ने मुसकराते हुए अदा किया. फिर अपने कौल सैंटर का पता और सुमिता का मोबाइल नंबर दे कर सब चली आईं.

मोहित अपने स्टूडियो में बैठा सोच रहा था कि वह कंप्यूटर पर ग्राफिक डिजाइन बनाता था. कभी यह काम कागज और ब्रश से होता था. मगर अब सब कंप्यूटर से होता है. वह तनहाई पसंद, खुद तक सीमित रहने वाला युवक था. उस का सामाजिक दायरा सीमित था. मूल रूप से वह

एक चित्रकार था. रोजीरोटी के लिए वह आर्टिस्ट बन विज्ञापन कंपनियों को छोटेछोटे क्रिएटिव डिजाइन, स्कैच बना कर देता था. 30 वर्ष का होने पर भी वह कुंआरा था. कभी आगे बढ़ कर उस ने किसी लड़की से दोस्ती नहीं की थी. अभी तक विवाह न होने का कारण यही था. अपने रिजर्व नेचर की वजह से वह किसी लड़की को पसंद नहीं कर पाता था और न ही कोई लड़की उसे पसंद कर पाती थी.

मगर आज का किस्सा कुछ अजीब सा था. कुछ दिन पहले एक सुंदर सी लड़की उसे रैस्टोरैंट में मिली थी, फिर लिफ्ट में, मगर अपने स्वभाव के कारण वह उस की तरफ ध्यान नहीं दे पाया और चुपचाप बैठा रहा था. अब उस को क्या पता था कि एक दिन उस की यही खुद में सीमित रहने की प्रवृत्ति आकर्षण का कारण बन जाएगी.

सुमिता भी यही सोच रही थी कि दर्जनों पुरुष मित्र होने पर भी उस को कोई प्रभावित नहीं कर पाया था और इस का सब से अहम कारण था कि हर कोई उस पर ललचाई दृष्टि डालता था. कुछ दिन बाद वह मोहित के स्टूडियो में जा पहुंची. मोहित कंप्यूटर पर ग्राफिक्स बना रहा था. अन्य कंप्यूटरों पर उस के कई सहायक काम कर रहे थे. इन में 3-4 लड़कियां भी थीं.

‘‘अरे, आप… आइएआइए, तशरीफ रखिए,’’ सुमिता को देख कर मोहित खिल उठा. ठंडा पीते हुए सुमिता ने इधरउधर नजर डाली. स्टूडियो में एक तरफ स्टैंड पर कैनवास से बने खाली और अर्धनिर्मित चित्र भी थे.

‘‘क्या कंप्यूटर के जमाने में आप तुलिका और कैनवास पर भी काम करते हैं?’’ उस ने पूछा. ‘‘जो रचनात्मकता ब्रश और कैनवास पर आती है. वह कंप्यूटर के डिजाइन या ग्राफिक्स में नहीं आ सकती.’’

‘‘लेकिन आजकल तो अधिक चलन कंप्यूटर से बनी डिजाइनों का है.’’ ‘‘वह तो है, मगर इस तरह बने किसी डिजाइन या तसवीर में वह आत्मा नहीं होती, जो ब्रश से बने चित्र में होती है.’’

मोहित की इस बात को सुन कर सुमिता समझ गई कि मोहित एक चित्रकार के साथसाथ पक्का दार्शनिक भी है. इस के बाद हलकीफुलकी बातें कर सुमिता चली आई. स्टूडियो में सुमिता का आनाजाना बढ़ गया और अब दोनों शाम को काम समाप्त होने के बाद घूमनेफिरने भी जाने लगे.

सुमिता को उस का सहज, स्वाभाविक स्वभाव और खुद में खोए रहने की प्रवृत्ति पसंद आई. मोहित भी उस से प्रभावित हुआ. वह एक बार उस के कौल सैंटर भी आया मगर वहां का व्यावसायिक और व्यस्त माहौल उस को पंसद नहीं आया. सुमिता सोचती कि वह मोहित से विवाह संबंधी बात करे या फिर वह ही उस को प्रपोज करेगा.

एक शाम मोहित के पास एक बड़ी विज्ञापन कंपनी का फोन आया. ‘‘मिस्टर मोहित, काैंग्रेचुलेशन.’’

‘‘फौर व्हाट?’’ ‘‘पिछले महीने आप के बनाए लैंडस्केप डिजाइन को इंटरनैशनल नैचुरल डिजाइन कौंटैस्ट में पहला अवार्ड मिला है, आप को एक सप्ताह का स्विट्जरलैंड भ्रमण का इनाम मिला है.’’

इस पर मोहित आश्चर्य में पड़ गया. ‘‘मगर मैं तो कभी बाहर घूमने नहीं गया.’’

‘‘कोई बात नहीं, अब हो आइए.’’ ‘‘मेरे पास तो पासपोर्ट भी नहीं है.’’

‘‘आजकल पासपोर्ट 3 दिन में बन जाता है.’’ नियत दिन मोहित भ्रमण के लिए हवाईजहाज पर सवार हुआ, उस के साथ अन्य शहरों से आए कई चित्रकार और आर्टिस्ट भी थे. भ्रमण टूर का कांट्रैक्ट एक टूरिज्म कंपनी ने लिया था.

हवाईजहाज उड़ते ही सब को सीट बैल्ट बांधने की हिदायत दी गई. साथ ही लैमन जूस या टौफी चूसने को दी गईं. हवाई सफर लगभग 7 घंटे का था. पहले हलका नाश्ता सर्व हुआ. फिर दोपहर का भोजन मिला.

‘‘मिस्टर, आप वैज लेंगे या नौनवैज,’’ एक खूबसूरत व्योमबाला ने मोहित के समीप आ कर पूछा. किसी खयाल में खोया मोहित एकदम चौंका और बोला, ‘‘मैं दोनों ही खा लेता हूं, जो अच्छा बना है ले आइए.’’

उस के इस जवाब पर आगेपीछे और सामने की कतार में बैठे यात्री हंस पड़े. व्योमबाला भी हंस पड़ी. ‘‘मिस्टर, हवाईजहाज में खाना किचन में नहीं बनता बल्कि बंद पैकेट्स में सप्लाई होता है. आप अगर वैजिटेरियन पैकेट मांगेंगे तो वैजिटेरियन मिलेगा और नौनवैज मांगेंगे तो वही मिलेगा.’’

‘‘ठीक है, नौनवैज ही दे दो.’’ एयरहोस्टैस एक पैकेट और एक खाली प्लेटचम्मच उसे थमा कर आगे बढ़ गई. अगली सीट के पीछे फोल्डिंग टेबल का इंतजाम था. सहयात्री की देखादेखी मोहित ने भी मेज खींच ली और उस पर प्लेट रख कर पैकेट खोला.

फिर आइसक्रीम व कौफी सर्व हुई. व्योमबाला एक ट्रौली में यह सब सर्व कर रही थी. उस का पाला पहली बार हवाईजहाज की यात्रा करने वाले यात्रियों से पड़ता ही रहता था. उसे मोहित जैसे यात्री मिलते ही रहते थे. जहाज हवाईअड्डे पर उतरा तब तक शाम ढल आई थी जहां से मुख्य शहर काफी दूर था. एक स्टेशन वैगन में अनेक यात्री सवार हुए. व्योमबाला एक एयरबैग थामे आ गई और संयोग से उसे मोहित के बगल में सीट मिली.

‘‘क्या आप स्विट्जरलैंड पहली बार आए हैं?’’ एयरहोस्टैस ने बातचीत शुरू की.

‘‘मैं हवाईजहाज में पहली बार सवार हुआ हूं.’’ ‘‘आप यहां क्या करने आए हैं?’’ बेहतरीन दाढ़ी बढ़ाए मस्तमौला नजर आने वाले सुंदर नैननक्श वाले युवक की तरफ गौर से देखते व्योमबाला ने पूछा.

‘‘मैं एक आर्टिस्ट हूं. विज्ञापन कंपनियों के लिए ग्राफिक्स और डिजाइन बनाता हूं. हाल ही में मेरे एक डिजाइन को एक प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला है. इस के लिए एक सप्ताह के लिए स्विट्जरलैंड भ्रमण का इनाम मिला है.’’ व्योमबाला प्रशंसात्मक नजरों से उस की तरफ देखने लगी.

‘‘आप तो नियमित आती रहती होंगी.’’ ‘‘जी हां, हमारा तो प्रोफैशन ही ऐसा है.’’

‘‘यहां कब तक ठहरेंगी?’’ ‘‘3 दिन, वापसी के पूरे यात्री मिलने में 3 दिन लग ही जाते हैं.’’

‘‘समय बिताने के लिए आप क्या करती हैं?’’ ‘‘यहां समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता. सारा स्विट्जरलैंड बहुत खूबसूरत है. बर्फ पर स्कीइंग करते, पहाड़ों पर ऐक्सपिडिशन करते और बड़ी झील में बोट चलाते समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता,’’ व्योमबाला ने कहा.

इस तरह हलकीफुलकी बातें होती रहीं. मुख्य शहर बर्न आधे घंटे बाद आया. एक तीनसितारा होटल में ठहरने का इंतजाम था. व्योमबाला और उस के क्रू के अनेक साथी नियमित आतेजाते थे, इसलिए स्टाफ उन्हें पहचानता था. अगले दिन साइट सीइंग के लिए भ्रमण दल एक टूरिस्ट बस में सवार हुआ. सचमुच सारा स्विट्जरलैंड ही खूबसूरत था. व्योमबाला भी साथ थी.

मोहित और उस की मुलाकात हलकीफुलकी दोस्ती में बदल गई. ‘‘आप का क्या नाम है,’’ रैस्टोरैंट में मैन्यू पढ़ते मोहित ने पूछा.

‘‘सुमिता वालिया, और आप का?’’ ‘‘मेरा नाम तो मोहित है,’’ मोहित उस की तरफ अपलक देख रहा था. उस के इस तरह देखने पर सुमिता वालिया तनिक चौंकी और उस ने पूछा, ‘‘आप इस तरह मेरी तरफ क्यों देख रहे हैं?’’

‘‘एक ही महीने में 2-2 लड़कियों से वास्ता पड़ा और संयोग से दोनों का नाम भी सुमिता है.’’ इस पर सुमिता वालिया खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘वह दूसरी सुमिता कौन है,’’ उस ने मोहित से जानना चाहा. ‘‘वह एक कौल सैंटर में काम करती है. एक बार रैस्टोरैंट में मेज खाली नहीं थी तो मेरे समीप ही आ कर बैठी थी. फिर पता नहीं मुझ पर कैसे आकर्षित हो गई थी.’’

‘पता नहीं कैसे आकर्षित हो गई थी,’ कहने पर सुमिता वालिया ने उस की तरफ गौर से देखा. क्या कभी मोहित ने अपने व्यक्तित्व पर गौर नहीं किया. रैस्टोरैंट का माहौल मोमबत्तियों के मद्धिम प्रकाश में बहुत रोमानी हो गया था. हलकेफुलके ड्रिंक्स के बाद एकदूसरे की पसंद का खाना खाया गया.

खाने के बाद टहलने का प्रोग्राम बना. बाहर हलकीहलकी बर्फबारी हो रही थी. ‘‘आप भारी गरम कपड़े नहीं लाए.’’ मोहित के हलके पुलओवर की तरफ देखते हुए सुमिता वालिया ने कहा.

‘‘मैं कभी ऐसी जगह आया ही नहीं.’’ ‘‘चलिए, मेरे पास ऐक्स्ट्रा ओवर कोट है,’’ सुमिता के साथ मोहित उस के होटल के कमरे में चला गया. ओवरकोट उसे फिट आ गया.

हलकी बर्फबारी में दोनों काफी देर तक इधरउधर घूमते रहे. घूमतेघूमते सुमिता स्वयं को मोहित के गले में बांहें डाले देखने लगी. शहर के एक किनारे पर काफी बड़ी झील थी. जिस की दूसरी सीमा साथ लगते जरमनी को छूती थी. ‘‘कल मुझे वापस जाना है,’’ सुमिता ने कहा.

‘‘मेरा अभी 4 दिन का भ्रमण बाकी है.’’ ‘‘कहां घूमोगे?’’

‘‘क्या पता? यह तो भ्रमण टूर का संचालक बताएगा.’’ शायद सुमिता वालिया कहना चाहती थी कि अगर ठहरती तो भ्रमण और भी सुखद रहता मगर वह खामोश रही. अपनाअपना मोबाइल नंबर दे कर दोनों ने विदा ली.

भ्रमण समाप्त कर मोहित भी सप्ताहांत में लौट आया. थोड़ेथोड़े अंतराल पर कौल सैंटर में कार्यरत सुमिता भी आती रही. दोनों पहले की तरह ही शाम को खानेपीने, घूमनेफिरने को निकलते रहे. एक शाम व्योमबाला सुमिता वालिया का फोन आया. उस ने मोहित को शाम के खाने के लिए आमंत्रित किया. स्थान वही था जहां कौल सैंटर वाली सुमिता मिली थी. यह जान कर मोहित की स्थिति बड़ी खराब हो गई, क्योंकि उसी शाम उस का दूसरी सुमिता के साथ खाने का प्रोग्राम था और स्थान वही था. अब वह क्या करे? कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

व्योमबाला को तो कौल सैंटर वाली सुमिता के बारे में बता दिया था मगर व्यस्तता के कारण कौल सैंटर वाली सुमिता को व्योमबाला सुमिता के बारे में नहीं बता पाया था. ‘जो होगा देखा जाएगा,’ इस विचार को ले कर वह वहां जाने के लिए तैयार होने लगा. पहले वह कभी भी शाम को घूमने जाते समय तैयार नहीं होता था मगर जब से उस की दोस्ती सुमिता से हुई और अब व्योमबाला से तब से वह अपने व्यक्तित्व की तरफ ध्यान

देने लगा था. शानदार काले ईवनिंग सूट और मैच करती टाई लगाए कीमती परफ्यूम से महकता मोहित रैस्टोरैंट में पहुंचा. व्योमबाला एक रिजर्व टेबल पर बैठी उस का इंतजार कर रही थी. मोहित को देखते ही चौंक पड़ी. उस का व्यक्तित्व एकदम से बदल गया. कहां तो वह एक बेतरतीब, मस्तमौला सा साधारण कपड़े पहनने वाला नौजवान और अब कहां यह एकदम से अपटूडेट सूटबूटटाई में सजाधजा नौजवान.

‘‘हैलो,’’ दोनों ने एकदूसरे से हाथ मिलाया. ‘‘बहुत अच्छे लग रहे हो, एकदम शहजादा गुलफाम की तरह,’’ व्योमबाला ने मोहित को देखते हुए कहा.

अपनी तारीफ से कौन खुश नहीं होता, इसलिए मोहित भी यह सुन कर खुश हो गया. ‘‘आप भी तो बला की दिलकश और हसीन नजर आ रही हैं,’’ व्योमबाला हलकी नीले रंग की शिफौन साड़ी पहने हुए थी और उस से मैच करता लो कट ब्लाऊज और मैच करती हलकी ज्वैलरी सचमुच उस के सौंदर्य में चार चांद लगा रही थी.

(क्रमश:)

बलात्कारी पुरुष आखिर सोचता क्या है?

16 दिसंबर, 2012 की रात को दिल्ली में 23 साल की पैरामैडिकल की छात्रा निर्भया के साथ गैंगरेप हुआ, उसे सफदरजंग अस्पताल में नाजुक स्थिति में भरती करवाया गया. 29 दिसंबर को सिंगापुर के एक अस्पताल में उस छात्रा की मौत हो गई. इस जघन्य घटना ने पूरे संसार को हिला कर रख दिया था, जैसे पूरा भारत, पूरा विश्व एक आवाज में बोल रहा था कि क्यों हुआ ऐसा निर्भया के साथ. इस कांड को निर्भयाकांड के नाम से जाना जाता है.

बलात्कार की बढ़ती घटनाएं

निर्भयाकांड के आरोपियों को सुप्रीमकोर्ट द्वारा फांसी की सजा दिए जाने से उम्मीद जगी थी कि अब कानून की सख्ती से दरिंदे डरेंगे, लेकिन क्या ऐसा हुआ? क्या बलात्कार की घटनाएं होनी बंद हो गईं? एक निर्भया के मरने के बाद हर दिन, हर साल कितनी ही निर्भयाएं बलात्कार की शिकार हो रही हैं.

इस कांड के बाद आंकड़े गवाह हैं कि भारत में प्रतिदिन 92 महिलाएं बलात्कार की शिकार होती है, जिन में 4 सिर्फ दिल्ली की होती हैं. देश में लगभग 20 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता है. ये तो वे आंकडे़ हैं जो पीडि़त द्वारा पुलिस में दर्ज कराए जाते हैं. सोचिए, ये मामले इस से कहीं ज्यादा होंगे, क्योंकि अभी भी 80 प्रतिशत स्त्रियां लोकलाज, गरीबी, असहाय या अशिक्षित होेने के कारण थाने तक नहीं पहुंच पातीं.

आखिर वे क्या कारण हैं जो पुरुषों को बलात्कार के लिए उकसाते हैं? आइए जानें कुछ मनोवैज्ञानिकों के विचार –

कमला नेहरू कालेज, दिल्ली में असिस्टैंट प्रोफैसर और ‘सैक्सुअल क्राइम औफ वुमेन इन देहली’ जैसे विषय पर पीएचडी कर चुके डा. तारा शंकर कहते हैं, ‘‘यह मैंटैलिटी ही ऐसी होती है. हमारा दिमाग पुरानी परंपराओं और आदतों से घुलामिला है. कुछ जनजातियों को छोड़ दें तो हर जगह महिलाओं को उपभोग करने का सामान समझा जाता है. दिमाग में औरत के प्रति यह जो नजरिया है, वह ही गलत है. जहां तक रेप की बात है, तो अगर मौका मिल जाए तो समाज का हर दूसरा या तीसरा पुरुष रेपिस्ट निकलेगा.

‘‘पोर्न, कपड़े या दूसरी वजहें तो सिर्फ माध्यम हैं. मौका मिलने के बाद अगर पकड़े जाने का डर न हो तो लोग रेप करने से संकोच ही न करें. पोर्न में दिखने वाला हिंसक सैक्स भी लोगों के अंदर उसी श्रेष्ठता को सिद्ध करता है जो हमारा समाज सिखाता है कि पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ व ताकतवर होते हैं. वे कुछ भी कर सकते हैं. श्रेष्ठ होने का यह मिथक लोगों के भीतर स्थापित है और वे ऐसा कर के संतुष्ट होते हैं.’’

मुंबई की क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक सोनाली गुप्ता कहती हैं, ‘‘पुरुषों द्वारा रेप करने की पहली वजह तो यह है कि हमारी सोसाइटी कितने ही लोगों के लिए अपनी पावर दिखाने का माध्यम बन जाती है. ऐसे लोग अपना हक जमा कर अपनी एक आइडैंटिटी क्रिएट करना चाहते हैं. दूसरा कारण है कि अगर कोई लड़की उन्हें पसंद आ जाती है, तो उन्हें लगता है कि वह हर हाल में मिलनी चाहिए, चाहे वह हां कहे या ना. तीसरी अहम वजह है कि वे अपनी कामोत्तेजना को कंट्रोल नहीं कर पाते, न ही वे इसे कंट्रोल करना चाहते हैं.

‘‘ऐसे लोगों के लिए रेप बदला लेने का माध्यम भी बन जाता है. कुछ ऐसे मनोरोगी होते हैं जिन्हें दूसरों को नुकसान पहुंचा कर अच्छा लगता है. इन के लिए दूसरे को चोट पहुंचाना मानसिक संतुष्टि जैसा होता है. इन्हें इलाज की जरूरत होती है क्योंकि इन का मानसिक संतुलन ठीक नहीं होता.’’

वे आगे कहती हैं, ‘‘उन्हें सिखाया ही नहीं गया कि लड़कियां भी लड़कों जैसी ही होती हैं, उन की मरजी के खिलाफ सैक्स नहीं करना चाहिए. इस के अलावा समाज में मैसेज देने वाला जो मास मीडिया है, उस पर अगर सैक्सुअल वौयलैंस दिखाया जाएगा, उन का कोई पसंदीदा हीरो लड़की के साथ जोरजबरदस्ती करेगा, तो लोग उसे रोलमौडल की तरह ही लेंगे. हम अभी भी मीडिया के तौर पर ज्यादा सैंसिटिव नहीं हुए. म्यूजिक वीडियोज, गीतों या फिल्मों में औरत को उपभोग की वस्तु की तरह पेश किया जाता है. जब तक पुरुष खुद को पावर पोजीशन में देखेंगे, रेप होते रहेंगे. हमें औरत के  प्रति मानसिकता बदलनी ही होगी.’’

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पुरुषों में एक श्रेष्ठता की भावना भरी होती है कि वे कुछ भी कर सकते हैं, जैसे सड़कों पर घूमना, कहीं भी आनाजाना आदि. लेकिन जब ये चीजें कोई लड़की करती है तो उन्हें लगता है कि एक लड़की ऐसा भला कैसे कर सकती है. यह भावना उन्हें उस लड़की के साथ जबरदस्ती करने को उकसाती है. मर्दों को रेप करना अपनी ताकत को दिखाने का जरिया नजर आता है.

जिन लोगों की पेरैंटिंग अच्छी होती है, वे इस तरह की चीजों को समझते हैं. लेकिन हमारे देश में लोग शिक्षा और सही समय पर मिलने वाली सैक्स एजुकेशन, दोनों के न मिलने के कारण ज्यादा हिंसक हो जाते हैं. वे सैक्स से संबंधित जरूरी बातें हिंसक तरीके से सीखते हैं, जैसे सड़कों पर झगड़ों के द्वारा. इसलिए उन्हें लगता है कि  ये ही सही तरीका है.

जो बच्चे सड़कों पर पलेबढ़े हों या मजदूरी करते हों, वे अच्छी तरह से शिक्षित नहीं होते. वे अपने बचपन में इस तरह की हिंसक घटनाओं की चपेट में आ सकते हैं. इसलिए उन के दिमाग में वे चीजें बनी रहती हैं और मौका मिलने पर वे उन चीजों को हिंसक तरीके से ही करते हैं.

स्त्रियों के प्रति मानसिकता

  • लोगों की महिलाओं के प्रति ओछी मानसिकता भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है. निर्भया गैंगरेप के आरोपी के वकील ए पी सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा कि अगर मेरी बेटी भी बगैर अनुमति के किसी मर्द के साथ बाहर जाए और किसी से संबंध बनाए तो मैं उसे जान से मार दूंगा, आग लगा कर जला दूंगा.
  • आरोपी पवन गुप्ता की बहन का कहना है कि इंसान से गलती हो जाती है, उसे दूसरा मौका मिलना चाहिए. उस का कहना था, हमेशा लड़के की ही गलती हो, ऐसा जरूरी नहीं है.
  • आरोपी ड्राइवर मुकेश सिंह ने बीबीसी को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा, ‘‘यदि निर्भया रेप के समय चुप रहती तो उस की हत्या नहीं होती.’’
  • निर्भया कांड पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बहुत से लोग यह बोलने से नहीं चूक रहे थे,  ‘महिलाओं को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए कि पुरुष उत्तेजित हो कर ऐसा कुकृत्य करने के लिए मजबूर हो जाएं.’

पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ने ठीक ही कहा कि बस ड्राइवर के बयान ने एक बार फिर उस पुरुष मानसिकता को उजागर कर दिया है जिस के तहत वह नारी को अपनी जैविक संपत्ति समझता है. उन की दलील है कि किसी अपराध का पता लगाने और दोषियों को सजा देने से पहले बचाव जरूरी है. लेकिन जब तक अपराध की मूल वजह का पता नहीं चलता, तब तक उस से बचाव कैसे किया जा सकता है.

लगभग मिलतेजुलते बयान देने वाले इन लोगों की सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि नदी के 2 छोरों की तरह भिन्न है. बावजूद इस के अगर इन की जबान से मिलतेजुलते शब्द निकल रहे हैं तो इस के लिए देश की वह पुरुष मानसिकता ही जिम्मेदार है जिस में आज भी महिला को भोग्या समझा जाता है.

स्त्रियां दोषी

दिसंबर 31, 2011, हैदराबाद : आंध्र प्रदेश के डीजीपी वी दिनेश रेड्डी ने कहा था कि बढ़ते रेप के मामलों के लिए फैशनेबल कपड़े जिम्मेदार हैं. डीजीपी ने यह भी कहा कि अपने पारदर्शी कपड़ों की वजह से  महिलाएं लोगों को उकसाती हैं और नतीजतन, रेप जैसी घटनाएं होती हैं.

आंध्र प्रदेश के डीजीपी अपने इस बयान से विवादों में घिर गए. इस बयान पर तब के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कड़ी नाराजगी जताते हुए कहा था कि हर किसी को अपनी पसंद के कपड़े पहनने का अधिकार है.

आरटीआई ऐक्टिविस्ट लोकेश खुराना ने 2014 में उत्तर प्रदेश के तमाम थानों से बलात्कार के मामलों पर कई बिंदुओं पर रिपोर्ट मांगी थी. करीब 40 थानों ने बलात्कार की घटनाओं में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया था. इस में महिलाओं के कपड़ोें, मोबाइल फोन, इंटरनैट, टीवी और सिनेमा के साथ ही कुछ ने तो यहां तक कहा था कि महिलाओं के अर्धनग्न कपड़ों से नजर आती अश्लीलता इस के लिए जिम्मेदार है.

हाल ही में चंडीगढ़ के एक रेप केस में सांसद किरण खेर ने नसीहत देते हुए कहा कि जब लड़की को पता था कि आटो में पहले से ही आदमी बैठे हुए हैं तो उस आटो में नहीं बैठना चाहिए था. इसे राजनीतिक मोहरा बनाते हुए विपक्ष के नेता पवन कुमार बंसल ने किरण के बयान की आलोचना करते हुए कहा कि किरण के बयान पर मुझे हैरानी हो रही है. किरण को ऐसे बयान देने की जगह यह बताना चाहिए कि चंडीगढ़ को महिलाओं के लिए और सुरक्षित कैसे बनाया जा सकता है. अमूमन ऐसी घटनाओं के बाद सरकारें व सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी इन पर परदा डालने में जुट जाती हैं और विपक्ष व दूसरे सामाजिक संगठन धरनेप्रदर्शनों में, लेकिन घटना के मूल कारणों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता.

अनूठी पहल : रोटी बैंक, ताकि कोई भूखा न रहे

जीवन में जन्म और मृत्यु निश्चित है और कहते हैं कि हर इंसान के जन्म से पहले ही उस का प्रारब्ध लिख दिया जाता है. हम नहीं जानते कि इस में कितनी सचाई है, परंतु इतना अवश्य है कि इंसान अपनी मूलभूत आवश्यकताओं ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के लिए हमेशा संघर्ष करता है. जिस के पास ये तीनों चीजें जरूरत से ज्यादा हैं, वह अमीर कहलाता है, किंतु कुछ के पास 2 हैं तो वे ठीकठाक जिंदगी बिताते हैं, परंतु बहुत से लोग हमारे समाज में ऐसे भी हैं जिन के पास पेट भरने के लिए दो वक्त की रोटी तक उपलब्ध नहीं है. इन्हीं बातों को मद्देनजर रखते हुए राजकुमार भाटिया व उन के साथियों ने एक खास पहल की और उस पहल का नाम दिया ‘रोटी बैंक… ताकि कोई भूखा न रहे.’

उन्हें यह प्रेरणा तब मिली जब 2015 में एक दिन उन के पास एक व्यक्ति काम मांगने आया. राजकुमार भाटिया बताते हैं कि उस समय वे उसे कोई काम नहीं दे सकते थे. उन्होंने उसे कुछ पैसे देने चाहे, परंतु उस व्यक्ति ने पैसे लेने से इनकार कर दिया और बोला, ‘मुझे पैसे नहीं चाहिए, हो सके तो मुझे खाना खिला दीजिए.’

उन्होंने उसे खाना खिला दिया. परंतु उन के मन को यह बात कचोटती रही कि इंसान कितना मजबूर हो जाता है जब उस के पास पेट भरने के लिए दो रोटी भी नहीं होती और वह मांगने पर मजबूर हो जाता है. ऐसे अनेक लोग होंगे जो दो जून की रोटी को तरसते होंगे. फिर उन्होंने अपने मित्र सुधीर से बात की और रोटी बैंक शुरू किया. एक सफेद डब्बे पर ‘रोटी बैंक’ लिख कर रखा गया और इस तरह से इस कार्य की शुरुआत हुई. फिर एक के साथ एक लोग जुड़ते चले गए और कारवां बन गया.

रोटी बैंक टीम का कहना है, ‘‘रोटी बैंक एक प्रयोग है, एक साधना है, एक प्रयास है बढ़ रही सामाजिक गैरजिम्मेदारी को कम करने का. रोटी बैंक एक संघर्ष है भूख के विरुद्ध. रोटी बैंक एक मकसद है सेवा का, मानवता का. रोटी बैंक एक बैंक है जहां पैसा जमा नहीं होते, जहां जमा होती हैं रोटियां. रोटी बैंक एक कोशिश है, साधनसंपन्न लोगों को प्रेरित करने का कि वे अपनी रोटियों के साथ 2 रोटियां एक जरूरतमंद के लिए भी बनवाएं और उसे अपने आसपास की रोटी बैंक शाखा में जमा करवाएं जहां से उन रोटियों को भूख से संघर्ष कर रहे लोगों तक पहुंचाया जा सकें.’’

जानीमानी एंकर रिचा अनिरुद्ध, जो 92.5 एफएम में कार्यरत हैं, ने इस टीम से संपर्क किया और इस मुहिम को अपने कार्यक्रम के जरिए आम व खास लोगों तक पहुंचाया. हालांकि रोटी बैंक की टीम प्रचार नहीं चाहती थीं परंतु जनजन तक इस मुहिम को पहुंचाने के लिए कोई न कोई माध्यम तो चाहिए ही था. फिर एक दैनिक समाचारपत्र ने इन की मुहिम को छापा. इस तरह से लोग रोटी बैंक से जुड़ते चले गए.

रोटी बैंक की टीम ने स्कूलों से भी जुड़ना शुरू किया. आज दिल्ली के 9 स्कूल इस मुहिम से जुड़े हुए हैं. रोटी बैंक की टीम ने एक स्कूल में जा कर सुबह की प्रार्थना के दौरान रोटी बैंक के बारे में सब को बताया और बच्चों को प्रेरित किया ताकि वे अपने लंच के साथ एक पैकेट खाना उन बच्चों के लिए बनवाएं जो अभावग्रस्त हैं और जरूरतमंद हैं. इस तरह स्कूल भी इस मुहिम से जुड़ते चले गए.

स्कूलों के माध्यम से रोटी बैंक कपड़े, किताबकौपियां एकत्रित कर के रोटी बैंक से लाभान्वित बच्चों को शिक्षा प्रदत्त करवाने का प्रयास भी कर रहा है, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें.

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रोटी बैंक के लिए यह बहुत गौरवशाली क्षण था जब 30 अप्रैल, 2017 को प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में रोटी बैंक के युवा कार्यकर्ताओं की सराहना की.

इस संस्था द्वारा अब तक रोटी बैंक के 63 सैंटर खोले जा चुके हैं जो इस कार्य में लगे हुए हैं. हर सैंटर से रोज खाना एकत्रित करना, फिर उसे जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाना अपनेआप में यह कार्य आसान नहीं है, परंतु बस, टीम की निष्ठा ने इस कार्य को कर दिखाया है.

एक बाल सुधार गृह में 300 से 400 पैकेट खाना रोज भेजा जा रहा है. सप्ताह में 2 दिन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स के बाहर दूरदूर से आए मरीजों के परिजनों को भोजन (रोटी पैकेट्स) पहुंचाने की भी व्यवस्था है.

आज तक एक दिन में 3,890 पैकेट बांटे गए हैं, यह एक दिन की अधिकतम संख्या है. 3 रोटी, साथ में अचार या सूखी सब्जी, यह एक पैकेट का निश्चित भोजन है जो किसी व्यक्ति की एक वक्त की भूख को शांत कर देता है. 31 दिसंबर, 2017 तक 5 लाख 58 हजार लोगों को रोटी बैंक द्वारा सम्मानपूर्वक भोजन करवाया जा चुका है. कूड़ा बीनने वाले बच्चों, स्कूल जाने वाले बच्चों और मजदूरों के बच्चों को खाना बांटा जाता है. नशा करने वालों और मंदिर के बाहर बैठ कर मांगने वालों को यह खाना नहीं दिया जाता.

कुछ लोग और कुछ वृद्ध ऐसे भी हैं जिन के पास सबकुछ है, परंतु देखभाल करने वाला, खाना खिलाने वाला कोई नहीं है, तो उन के लिए टिफिन भेजा जाता है, जो पूर्णतया गोपनीय रहता है ताकि उन के सामाजिक सम्मान में कमी न आ पाए. नई दिल्ली के महिंद्रा पार्क में झुग्गी के साथ घर में रह रहे दोनों पतिपत्नी घुटने की वजह से चलनेफिरने से लाचार थे, राजकुमार भाटिया उन का टिफिन खुद पहुंचाते थे. जब आसपास के लोगों को पता चला तो उन लोगों ने उस दंपती के खाने की जिम्मेदारी ली.

सार्थक कार्य

जब मन में सेवाभाव हो, तो लोग अपनेआप जुड़ जाते हैं. रोटी बैंक टीम के वौलंटियर्स फोटो और प्रचार से परहेज करते हैं और अपने काम को स्थिर भाव से अंजाम देते हैं. किसी भी पोस्टर, बैनर या पोस्ट पर इन के फोटो उपलब्ध नहीं हैं.

इस टीम का कहना है कि वह कभी किसी से चंदा या धनराशि नहीं लेगी. जितना भी करेगी अपने ही बलबूते पर करेगी. ‘रोटी बैंक’ इफरा यानी इंडियन फूड रिकवरी अलाएंस में साझीदार है. यह भारत सरकार का एक अभियान है, जिसे एफएसएसएआई यानी खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण द्वारा संचालित किया जा रहा है.

रोटी बैंक बचा हुआ खाना नहीं लेता और यह टीम बीचबीच में खाना खा कर चैक करती है कि यह खाना ताजा है और खाने लायक है या नहीं.

किसी भी बड़े कार्य को शुरू करना तो आसान होता है परंतु उस का निरंतर प्रबंधन करना मुश्किल होता है. जब किसी की एक सार्थक पहल किसी दूसरे के मन को छू ले और सज्जन शक्तियां जब एकसाथ हो जाती हैं तो कार्य पूर्ण होने लगते हैं. रोटी बैंक के साथ ऐसा ही हुआ है और हो रहा है.

दुविधा में पारसी युवा

पुराने मित्रों का एक गुट दक्षिण मुंबई की लबूरनूम रोड पर स्थित एक घर में जमा है. इन्हीं में से एक 61 वर्षीय रफात मेहर ने कहा, ‘‘हम न तो विद्रोही हैं और न ही समाजसुधारक हैं.’’ इस बात का समर्थन वहां उपस्थित अन्य 4 महिलाओं ने भी किया. ये वे 5 महिलाएं हैं जिन्होंने अपना प्रेम पाने के लिए अपने समुदाय को छोड़ कर गैर समुदाय में शादी की है.

25 वर्ष पूर्व रफात मेहर, अमरसेय, स्मिता गोदरेज, वेरा महाजन और खुरशीद नारंग ने अपना संगठन बनाया था. इस संगठन में इन का साथ आने का मुख्य कारण था एक जवान

औरत रोक्सन दर्शन की एक दुर्घटना में मृत्यु, जो  पारसी घराने की बेटी थी लेकिन उस ने अपने समुदाय से अलग गुजराती पुरुष से विशेष कानून 1954 के तहत शादी की थी, उस का पार्थिव शरीर शांति स्तंभ से वापस लौटा दिया गया था.

गैरसरकारी संगठन चलाने वाली रफात का कहना है कि पारसी समुदाय के अधिनियम के अनुसार जो पारसी गैरपारसी से विवाह करता है उसे व्यभिचार का दोषी माना जाता है. विरोधियों ने बौंबे पारसियों की एक पंचायत बुलाई, जिस का नेतृत्व न्यायाधीशों और विद्वानों ने किया. पंचायत में यह निर्णय लिया गया कि यदि उस के मातापिता या पति द्वारा यह शपथपत्र प्रस्तुत किया जाए कि उक्त महिला ने ताउम्र पारसी धर्म का पालन किया है, तभी उस के पार्थिव शरीर को शांति स्तंभ में रखा जा सकता है.

रफात का कहना है कि इस पंचायत के विरोध में ही हम 5 महिलाओं ने मिल कर एक संगठन बनाया. रफात का आगे कहना है कि आज भी गैरपारसी समुदाय में विवाह करने वाली महिलाओं के साथ भेदभाव बरता जाता है, लेकिन अब महिला संगठन उन महिलाओं की पारसी धर्म के रीतिरिवाजों के पालन कराने में मदद करता है. कुछ विद्रोही पादरी इस प्रकार की अवधारणा की निंदा करते हैं. हालांकि पारसी धर्म पुरुष व महिला की समानता की पैरवी करता है.

रफात, जिन्होंने 1989 में बहाई व्यक्ति से शादी की थी, मानती हैं कि धर्म में कट्टरवाद पनप रहा है. मुंबई पारसियों का गढ़ है. यहां के एक ट्रस्टी नोशिर दादरावाला का कहना है कि मुंबई में पारसी पंचायत एक छोटा सा संगठन है जो धर्म का सरपरस्त और पारसी संपत्ति व फंड पर नियंत्रण रखता है. इस पंचायत में कोई लिंग भेदभाव नहीं होता.

रफात और उन के दोस्तों का कहना है कि समुदाय की घटती संख्या ने बाहरी लोगों के बारे में एक जनून पैदा किया है. सामाजिक कार्यकर्ता 66 वर्षीय क्रिशना कहती हैं, ‘‘2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 57,264 पारसी हैं. 2001 की तुलना में इन में 18 प्रतिशत की कमी आई है. वहीं अन्य देशों जैसे स्वीडन और दक्षिण अमेरिका में बड़ी संख्या में लोग पारसी धर्म अपना रहे हैं.’’

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विस्तृत दृष्टिकोण

2006 में एसोसिएशन फौर रिवाइवल औफ जोरास्ट्रियवाद का गठन करने वाले विस्पी वाडिया का कहना है, ‘‘हमारे समुदाय के सभी लोगों का दृष्टिकोण रहा है कि हमारा धर्म सार्वभौमिक है. केवल भारत में ही यह विशेष विचारधारा पनपी है जहां गैर समुदाय में विवाह करने वालों के प्रति भेदभाव बरता जाता है, जबकि समुदाय के सदस्यों की संख्या निरंतर घटती जा रही है. यदि गैर समुदाय के लोगों से विवाह करने वालों के बच्चों को निष्कासित करते हैं तो हालात और भी बिगड़ जाएंगे.’’

मुंबई निवासी 52 वर्षीय गूलरुख गुप्ता ने 2013 में सर्वोच्च न्यायालय में अपना वाद दाखिल करते हुए पूछा था, ‘क्या एक पारसी महिला, जो अपने समुदाय से बाहर शादी करती है, पारसी रहती है? क्या समुदाय के संरक्षक उस से आग्रह कर सकते हैं कि वह अपने अधिकारों को छोड़ दे? क्या उसे अग्नि मंदिर (एजियारी) या शांति स्तंभ से विमुख किया जा सकता है? क्या वह अपनी मरजी से धर्म का पालन नहीं कर सकती? क्या वह अपने मातापिता के अंतिम संस्कार में शामिल हो सकती है? गूलरुख ने 1991 में पंजाबी हिंदू व्यक्ति से विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह किया था.

अपनी पारसी मित्र की घटना याद करते हुए गूलरुख बताती हैं कि उन की मित्र को उन की माताजी ने अंतिम संस्कार में शामिल होने से रोक दिया था. इसी घटना से उन्हें प्रेरणा मिली कि उस के मातापिता के गुजर जाने पर क्या होगा? मेरी मित्र अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो सकी जो मुझे बहुत ही अमानवीय लगा.

गूलरुख का कहना है कि जब हम मुंबई के पौश इलाके महालक्ष्मी के सुपर लग्जरी हाउसिंग सोसाइटी के अपने घर पर मिले तो उन्होंने कहा कि मेरे पास अपने परिवार को सहयोग करने के लिए एकमात्र रास्ता अदालत है. उन की बहन शिराज पटोदिया जानीमानी वकील हैं तथा एक कानूनी फर्म में वरिष्ठ भागीदार हैं. उन्होंने इस मामले में मेरी सहायता की.

गूलरुख ने जब गुजरात हाईकोर्ट में 2008 में केस डाला तो कोर्ट ने कहा था कि महिपाल गुप्ता से शादी करने के बाद उन की पारसी पहचान खत्म हो जाती है. गूलरुख 17 वर्ष की उम्र में पढ़ाई के लिए गुजरात से मुंबई गई थीं जहां कालेज में वे अपने पति से मिली थीं. 7-8 वर्षों बाद उन्होंने शादी की. उन के परिजनों को उन के विवाह से कोई आपत्ति नहीं है. उन के बच्चों को पूजास्थलों में प्रवेश से रोका नहीं जाता. इस प्रकार का समान अधिकार महिला को क्यों नहीं मिलता?

वर्ष 1997 में विवाह के कुछ दिनों पश्चात दिलशाद एक शादी समारोह में बेंगलुरु अपने मायके गईं. उन के परिजनों को तो दिल्ली के गैरजातीय व्यक्ति से शादी करने पर कोई एतराज नहीं था, लेकिन समुदाय को था. समुदाय के लोगों ने उन से बहुत ही रूखा व्यवहार किया. कुछ ने तो उन के पति से हाथ भी नहीं मिलाया, जो बहुत ही अजीब था. 50 वर्षीया दिलशाद कहती हैं, ‘‘जब तक मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ था, मुझे नहीं पता था कि समुदाय से बाहर शादी करना विवादों को निमंत्रण देना है. दिल्ली पारसी समुदाय में ऐसा भेदभाव नहीं है. हमें प्रगतिशील समुदाय माना जाता है, लेकिन गैरसमुदाय विवाह पर हम अचानक कट्टरपंथी हो जाते हैं.’’

दिल्ली के पारसी ‘अंजुमन’ के ट्रस्टी डा. निलोफर श्रौफ कहते हैं, ‘‘गैरसमुदाय में विवाह पर प्रतिबंध के नियम राज्यों व शहरों में अलगअलग हैं. दिल्ली पारसी अंजुमन में हम पारसी महिलाओं और उन के जीवनसाथी को समुदाय का सदस्य बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. उन के पति को मतदान और पारसी कमेटी में भाग लेने का हक देते हैं, लेकिन मंदिर में ज्योति जलाने, श्मशानघाट जाने और अंजुमन का ट्रस्टी बनने का अधिकार नहीं देते. हम ऐसे युगल के बच्चों को नवज्योत समारोह करने व संगठन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं.’’

रोकटोक का कारण धनसंपत्ति

निलोफर महसूस करते हैं कि अन्य शहरों में महिलाओं पर रोकटोक का कारण धनसंपत्ति है. उन्हें डर रहता है कि बाहर का व्यक्ति उन की पैतृक संपत्ति हड़प लेगा, लेकिन दिल्ली में ऐसा कोई डर नहीं है क्योंकि तमाम संपत्ति दिल्ली सरकार ने लीज पर दे रखी है.

पारसी पंचायत, अहमदाबाद के अध्यक्ष (सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर) जहांगीलर अंकलेसर कहते हैं, ‘‘गुजरात में अगर कोई पारसी युवती मुसलिम लड़के से विवाह करती है तो वह अधिक समय तक पारसी नहीं रह पाती और यदि वह हिंदू लड़के से विवाह करती है और पारसी धर्म का पालन करती है तो उस पर कोई प्रतिबंध नहीं होता.’’

43 वर्षीय पत्रकार कमल कपिल गांधी पारसी धर्म को एक उदार धर्र्म मानती हैं. उन का कहना है, ‘‘यह धर्म समानता सिखाता है. गहमबर (पारसी त्योहार) के समय गरीबअमीर बिना किसी भेदभाव के एकसाथ खाना खाते हैं.’’ लेकिन 7 व 14 वर्षीय 2 बच्चों की मां दिलशाद का कहना है कि यह सब पाखंड व दिखावा है, क्योंकि इस सामूहिक भोज में उन महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता जिन्होंने गैरसमुदाय के युवकों से शादी की है.

कमल कहती हैं, ‘‘मैं ने 1999 में एक पंजाबी हिंदू व्यक्ति से विवाह किया था, जो दिल्ली पारसी समुदाय के लिए कोई आपत्तिजनक मामला नहीं था. लेकिन मुंबई और पुणे में क्या होता है, मुझे पता नहीं. मेरा जन्म गुजरात में हुआ और दंत विशेषज्ञ की पढ़ाई के लिए मैं मंगलौर आई जहां मैं अपने पति से मिली. अब हम दिल्ली के वसंत विहार में रहते हैं.

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‘‘शुरुआत में हम दिल्ली में किसी को नहीं जानते थे. एक दिन हमारी गाड़ी पर पारसी प्रतीक चिह्न देख कर एक सज्जन ने दिल्ली अंजुमन कार्यक्रम के लिए निमंत्रित किया. दिल्ली पारसी पंचायत ने मेरे पति को स्वीकार किया लेकिन वे मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते, जो मुझे सही नहीं लगा. घर पर हम सभी तीजत्योहार मनाते हैं, दीवाली व नवरोज मनाते हैं तथा सभी धर्मों के अच्छे गुण अपनाते हैं. हाल ही में मेरी बड़ी बेटी ने नवजोत समारोह में भाग लिया था जिस पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की.’’

हूफ्रीश कृष्णामूर्ति ने 2001 में चेतन कृष्णामूर्ति से विवाह किया था. इन के विवाह पर किसी ने कोई रोकटोक नहीं लगाई थी. कमल की तरह ही इन की 9 वर्षीय पुत्री ने नवजोत समारोह में भाग लिया था. ये भी अपनी बेटी को फरोहर में भेजती हैं, जहां पारसी रीतिरिवाज और परंपरा सिखाई जाती है. ऐसे कई युगल हैं जो अपने बच्चों को फरोहर में भेजते हैं.

अधिकार का मामला

गैरपारसी व्यक्ति से विवाहित पारसी महिला के बच्चों के अधिकार का मामला कलकत्ता हाईकोर्ट में लंबित है. कोलकाता निवासी पारसी महिला प्रोची मेहता ने यह मामला दर्ज कराया है. उस की पुत्री ने हिंदू व्यक्ति से विवाह किया था. उस के 10 वर्षीय बेटे तथा 7 वर्षीय बेटी को अग्नि मंदिर में प्रवेश करने से रोक दिया गया था.

मुंबई निवासी 35 वर्षीया पूर्व पत्रकार सानया दलाल ने भी गैरपारसी व्यक्ति से विवाह किया था. इन का कहना है, ‘‘अपने बच्चों को पारसी समुदाय से न जोड़ पाने तथा न्याय दिलाने में देरी के कारण मैं खुद को द्वितीय श्रेणी के व्यक्ति जैसा महसूस करती हूं.’’

जहांगीर पटेल, जो पारसी समुदाय पर आधारित मुंबई से प्रकाशित पत्रिका ‘पारसीआना’ के संपादक हैं, का कहना है, ‘‘अन्य सभी समुदायों में स्वीकारोक्ति मिलती है, केवल हमारे धर्म में भेदभाव किया जाता है. कई महत्त्वपूर्ण बदलाव न्यायालय द्वारा लाए गए हैं, न कि हमारी आपसी सहमति से.’’

31 वर्षीय जरीन मिर्जा अहमदाबाद स्थित एक रैस्तरां की मुख्य शैफ हैं. उन्होंने तेलुगुभाषी प्रसाद से विवाह किया है. वे मुसकराते हुए बताती हैं, ‘‘मैं पारसी पुजारी परिवार से हूं जहां पारसी नियमों के खिलाफ नहीं जा सकते. लेकिन जब मैं 2013 में रैस्टोरैंट में काम करते हुए अपने पति से मिली और विवाह करने का निर्णय लिया तो मां आसानी से मान गई थीं लेकिन पिताजी को मनाना मुश्किल था.’’

2016 में विवाह करने के बाद से जरीन मंदिर में प्रवेश नहीं करतीं. यों तो मंदिर में प्रवेश न करने का कोई लिखित नियम नहीं है लेकिन पिता के सम्मान के लिए वे ऐसा नहीं करतीं. जरीन धार्मिक महिला नहीं हैं किंतु पारसी धर्म के पवित्र चिह्न धारण करती हैं. कई पारसी कार्यक्रमों में न जाने का उन्हें मलाल है.

जरीन का आगे कहना था, ‘‘पारसी समुदाय उन्नतशील विचारधारा रखता है. सभी महिलाएं उच्चशिक्षित व मृदुभाषी हैं. किंतु गैरपारसी विवाह पर अधिकांश चुप्पी साध लेते हैं. समय के साथ पिताजी ने प्रसाद को स्वीकारना शुरू कर दिया है. मेरी चचेरी बहन ने भी गैरपारसी से विवाह किया है.’’

समय के साथ काफी कुछ बदला

इस्मत खम्बाटा, जोकि आर्किटैक्ट व टीडीडब्लू की निदेशक हैं तथा फर्नीचर और कलात्मक वस्तु बेचती है, ने 1988 में सीईपीटी विश्वविद्यालय के निदेशक से पढ़ाई के दौरान विवाह किया था.

इन का कहना है, ‘‘मेरे विवाह पर मेरे परिवार को कोई एतराज नहीं था और न ही हमें समाज की कोई परवा थी. लोग अकसर असमंजस में रहते हैं कि किस धर्म को मानें. समय के साथ बहुतकुछ बदला है. पहले जिस महिला को माहवारी होती थी उसे रसोई और पवित्र स्थलों पर प्रवेश नहीं मिलता था, लेकिन अब कोई भी इन नियमों को नहीं मानता. ऐसा ही गैरपारसी विवाह के साथ है.

‘‘जरूरी नहीं कि बच्चों के लिए नवरोज करने पर ही धार्मिक व्यक्ति कहलाओगे. मैं नियमित पारसी धार्मिक चिह्न धारण नहीं करती, लेकिन सभी पारसी कार्यक्रमों में जाती हूं. तो पारसी व्यक्ति होना क्या है? बहुत सी बातें हैं जो साथ ले कर चलनी हैं. हम प्रगतिशील और उदार प्रवृत्ति के लोगों का एक समूह हैं. हम अन्य संस्कृतियों के लिए खुले हैं और मुझे लगता है कि हम अन्य समुदायों के साथ मिल कर कामयाब हो सकते हैं. मेरे लिए मेरी पारसी पहचान एक व्यक्तिगत चीज है.’’

मैं ने अपने बेटे को एमबीए करवाया जिस पर लाखों रुपए खर्च किए. अब कौलेज वाले प्लेसमैंट से मुकर रहे हैं. आप ही बताएं कि हमें क्या करना चाहिए.

सवाल
मेरी उम्र 55 वर्ष है. मैं ने अपने बेटे को एक निजी संस्थान से एमबीए करवाया जिस पर लाखों रुपए खर्च किए. उसे पढ़ाने के लिए मैं ने लोन तक लिया. संस्थान वालों ने ऐडमिशन के वक्त प्लेसमैंट की गारंटी दी थी, लेकिन अब कोर्स खत्म होने के बाद वे प्लेसमैंट से मुकर रहे हैं. जिन दोचार छात्रों को प्लेसमैंट मिली है वे भी मात्र 5-7 हजार रुपए में नौकरी कर रहे हैं. ऐसे में बच्चों का कैरियर दावं पर लग रहा है. आप ही बताएं कि हमें क्या करना चाहिए?

जवाब
देखिए, आज एमबीए व इंजीनियरिंग का इतना अधिक क्रेज है कि हर पेरैंट देखादेखी इन्हीं कोर्सेज में अपने बच्चों को ऐडमिशन करवाना चाहता है भले ही उन्हें इन पर लाखों रुपए खर्च करने पड़ें और फ्यूचर कुछ न हो.

आज पेरैंट्स जगहजगह खुले प्राइवेट संस्थान, जो ऐडमिशन के वक्त 100 प्रतिशत प्लेसमैंट की गारंटी देते हैं, में अपने बच्चों का दाखिला करवा देते हैं. लेकिन प्लेसमैंट के वक्त ऐसे संस्थान या तो छात्रों की बैड परफौर्मेंस के कारण उन्हें प्लेसमैंट देने से मना कर देते हैं या फिर प्लेसमैंट के नाम पर उन के साथ मजाक किया जाता है. ऐसे में पेरैंट्स के साथसाथ बच्चे भी निराश हो जाते हैं और सोचते हैं कि इस से अच्छा था कि वे कोई छोटामोटा कोर्स ही कर लेते.

आप ही बताइए अगर एक ही फील्ड में सभी बच्चे जाएंगे तो नौकरियों की कमी तो होगी ही और रही बात संस्थानों के झूठे वादों की, तो ‘जो दिखता है वही बिकता है’ वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होती है. ऐसे में आप देखादेखी या फिर झूठे वादों में न फंस कर, सूझबूझ से निर्णय लें ताकि आप के बच्चे का कैरियर बन जाए.

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