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रोज औसतन 86 Rape लेकिन कितने अपराधी जाते हैं सलाखों के पीछे

देश भर में हर दिन औसतन 86 बलात्कार होते हैं. इन में से अधिकतर आरोपी जानपहचान के होते हैं. लाज शर्म, समाज और लचर कानूनी प्रक्रिया के चलते औरतों को न्याय मिलना दूर की बात हो जाती है.

बलात्कार – दिनांक 19 . 11 . 2024
एक – मध्य प्रदेश के देवास में एक सीमेंट कारोबारी वीरेन्द्र को पुलिस ने गिरफ्तार किया उस पर एक महिला जिसे उस ने अपनी बहन बनाया था के यौन शोषण का आरोप था.
दो – विकासनगर ( देहरादून ) में एक नाबालिग लड़की का दुष्कर्म कर उस का वीडियो बनाने वाला आरोपी समद सहारनपुर से गिरफ्तार.
तीन – नोएडा में एक युवती को बहला फुसला कर होटल ले जा कर बलात्कार करने वाला आरोपी गिरफ्तार.
चार – हरियाणा के फरीदाबाद में अपनी ही 2 नाबालिग बेटियों से बलात्कार करना वाला नशेड़ी पिता गिरफ्तार, मां ने लिखाई थी रिपोर्ट.
पांच – नागपुर में एक बस स्टैंड के पास 26 वर्षीय कालेज छात्रा की बलात्कार के बाद हत्या पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया.
छह – मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले की पिछोर तहसील के एक गांव की विवाहिता ने केन्द्रीय मंत्री और क्षेत्रीय सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को चिट्ठी लिखते कहा कि उस के साथ गजेन्द्र गुर्जर, रुपेश गुर्जर, अरविन्द पाल व मातादीन कुशवाह ने सामूहिक बलात्कार किया लेकिन अमोला थाने वालों ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की.
सात – उत्तर प्रदेश के जालोन के उरई थाने में पीड़िता अपने मकान मालिक के खिलाफ दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखाने गई तो कार्रवाई के एवज या घूस कुछ भी समझ लें में दो सिपाहियों ने उस का अकेले में ले जा कर बलात्कार कर डाला. महिला ने उच्च अधिकारियों से शिकायत की तो आरोपियों ने उस पर समझौते के लिए दबाब डाला. अब अपर पुलिस अधीक्षक मामले की जांच कर रहे हैं. क्या पता ऐसी जांचें क्यों होती हैं. सीधेसीधे इन भक्षकों के खिलाफ बलात्कार का आरोप क्यों दर्ज नहीं किया गया.

बीती 19 नंवबर को हुए ये बलात्कार के चंद मामले हैं जिन में रिपोर्ट दर्ज हुई. यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कितने मामलों में रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई गई होगी. वैसे एक एजेंसी मिंट के अंदाजे के मुताबिक महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के करीब 85 फीसदी मामले दर्ज नहीं किए जाते. मिंट ने यह अनुमान साल 2015 – 16 के नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे की रिपोर्ट और एनसीआरबी के 2014 से 2016 के आंकड़ों के आधार पर लगाया था.

ऐसा क्यों इस सवाल का जवाब हर कोई जानता समझता है कि इस में बदनामी पीड़िता की ही होती है और समाज उसे ही दोषी मानता है. अलावा इस के पीड़िता और उस के परिवार जनों को इस बात का भी भरोसा नहीं रहता कि आरोपी को सजा होगी ही. बलात्कार के कितने मामलों में दोषियों को सजा होती है और कितने बाइज्जत बरी हो जाते हैं और अकसर कोई जानपहचान वाला ही बलात्कारी होता है यह भी आगे आंकड़ों की शक्ल में बताया जा रहा है. लेकिन उस के पहले एक नजर मोदी राज में महिलाओं के खिलाफ होने बाले अपराधों और बलात्कारों पर.

पिछले 10 सालों में यानी मोदी राज में महिलाओं के प्रति होने बाले अपराधों में लगभग 75 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इस आंकड़े से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश भर में महिलाएं किस कदर असुरक्षित हो चली हैं. ऐसा क्यों और इस का जिम्मेदार कौन इन सवालों का जबाब ढूंढने से पहले एक नजर आंकड़ों पर डालें तो समझ आता है कि इन 10 सालों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था को परोक्ष रूप से शह मिली है. किसी भी महिला के प्रति सब से गंभीर अपराध बलात्कार ही होता है इस के आंकड़े तो और भी चिंताजनक हैं.

नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश भर में महिलाओं के प्रति 4 लाख से भी ज्यादा अपराध दर्ज किए जाते हैं इन में बलात्कार के अलावा अपहरण, दहेज हत्या, एसिड अटैक, ट्रेफिकिंग सहित छेड़छाड़ भी शामिल है.
साल 2022 में बलात्कार के दर्ज मामलों की संख्या 31516 थी. जबकि 10 साल पहले 2012 में यह संख्या 24923 थी यानी हर दिन कोई 86 बलात्कार उस देश में होते हैं जहां यत्र नारी पूज्यन्ते तत्र… का हांका हर कभी गर्व से लगाया जाता है.
इस साल महिलाओं के प्रति होने बाले कुल दर्ज अपराधों की संख्या 2.44 लाख थी जो 2022 में बढ़ कर 4.45 लाख का आंकड़ा पार कर गई. क्या खा कर और किस मुंह से औरत को देवी कहा जाता है यह तो भगवान कहीं हो तो वही जाने.

आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार के 95 फीसदी से भी ज्यादा मामलों में आरोपी परिचित होता है. एनसीआरबी के मुताबिक साल 2022 में 2324 मामलों में बलात्कारी पीड़िता के परिवार का सदस्य था. 14 हजार से भी ज्यादा मामलों में आरोपी कोई परिचित दोस्त औनलाइन फ्रैंड भूतपूर्व पति या फिर लिव इन पार्टनर था. 13 हजार मामलों में आरोपी एम्प्लायर, फैमिली फ्रैंड या फिर पड़ोसी था. महज 1062 मामलों में ही बलात्कार का आरोपी कोई अपरिचित था.

बलात्कार को शह मिलने की एक अहम वजह न्याय व्यवस्था भी है. इसे भी ये आंकड़े साबित करते हैं कि साल 2021 में पिछले साल यानी 2022 के लगभग 13 हजार मामले लम्बित थे. कोई 4 हजार मामलों में फाइनल रिपोर्ट गलत निकली. हैरानी की बात तो यह भी कि 1921 मामलों में दोष सच होते हुए भी पर्याप्त सबूत नहीं जुटाए जा सके.
साल 2022 की बात करें तो बलात्कार के लगभग 1 लाख 70 हजार से भी ज्यादा मामले अदालतों में लम्बित थे. इसी साल दोष सिद्धि की दर 27.4 फीसदी थी यानी 100 में से करीब 27 लोगों को ही सजा सुनाई गई. बाकी 73 मूंछों पर ताव देते समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गए जबकि पीड़िताएं मुंह छिपाने बाध्य हुईं मानो खुद ही दोषी हों. और हों क्यों नहीं आखिर औरत जात जो ठहरीं.

बलात्कार और कितना घिनोना हो सकता है इस का अंदाजा इस हकीकत से भी लगाया जा सकता है कि आरोपियों ने 110 उन महिलाओं को भी नहीं बख्शा जो शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग थीं.
2022 में ही 34 गर्भवती महिलाओं के साथ भी बलात्कार हुआ था. यह जानकर और भी हैरानी हो सकती है कि 4681 मामले एक ही महिला के साथ बारबार बलात्कार करने के दर्ज हुए थे. हवस के पुजारियों ने मासूम बच्चियों और वृद्धाओं को भी नहीं छोड़ा. 87 मामलों में पीड़िताओं की उम्र 60 साल से ज्यादा थी तो 32 मामलों में पीड़िताओं की उम्र 6 साल से कम थी.

2022 में देश भर की जेलों में लगभग 73 हजार कैदी ऐसे थे जिन्होंने महिलाओं के खिलाफ अपराध किए थे. इन में से भी 47 हजार यानी 64 फीसदी बलात्कार के आरोपी थे. और हैरान व चिंतित होने यह आंकड़ा पर्याप्त है कि 2022 में ही बलात्कार के 5 फीसदी मामलों में ही ट्रायल पूरा हो पाया था यानी 95 फीसदी मामले लम्बित थे.

इस पर भी देश की सबसे ताकतवर और असरदार कुर्सियों पर विराजे कर्णधार यह कहें कि बस बहुत हो चुका. नहीं अब और नहीं. अपराधी खुलेआम घूम रहे हैं और पीड़ित डर के साए में रहते हैं तो लगता है यह सुप्रीम बेबसी बोल रही है. या यह भी कि महिलाओं के खिलाफ अपराध अक्षम्य हैं. दोषी कोई भी हो वो बचना नहीं चाहिए. उस को किसी भी रूप में मदद करने वाले बचने नहीं चाहिए, तब लगता है कि होना जाना कुछ नहीं है क्योंकि बलात्कार के दोषियों के सब से बड़े मददगार तो कानून, पुलिस, वकील और उन से भी उपर समाज होता है.

आंकड़े तो गवाही यह देते हैं कि होता वही है जो मंजूरे वकील होता है. छोटी बड़ी हर अदालत में हिंदी फिल्म का डिफेन्स लायर बोल रहा है जो आरोपी को चुटकियों में निकाल ले जाता है. बिलकुल बीआर चौपड़ा की फिल्म इंसाफ का तराजू के वकील श्रीराम लागु की तरह जो अपने मुवक्किल राज बब्बर को छुड़ा ले गए थे. तब इंसाफ पीड़िता जीनत अमान को भरी अदालत में राज बब्बर की हत्या करना पड़ा था.

वह फिल्म थी सो क्लाइमेक्स हर किसी को भाया था लेकिन हकीकत में पीड़िता अपने साथ हुई ज्यादती को छिपाने में ही भलाई समझती है या फिर मारे डर और शर्म के खुद ही ख़ुदकुशी कर लेती है क्योंकि वाकई में एक बलात्कार के बाद कई बलात्कार और होते हैं.

 

मोस्‍ट वांटेड लिस्‍ट में है अर्श डाला, जानें Lawrence Bishnoi से उसका रिश्‍ता

Lawrence Bishnoi and Arsh Dalla : लौरेंस बिश्‍नोई के बाद जिस गैंगस्‍टर का नाम तेजी से चर्चा में आया है वह है अर्श डाला. कनाडा में नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में शूट आउट हुआ था. इसी को लेकर अर्श को अरेस्‍ट किया गया है. कौन है ये अर्श, क्‍यों उतरा वह अपराध की दलदल में, पढ़ें.

अर्श डाला को कनाडा में अरेस्‍ट कर लिया गया है. इसे हरदीप निज्‍जर का करीबी बताया जा रहा है. अर्श डाला को कुछ लोग अर्श दल्‍ला के नाम से भी जानते हैं, वैसे इसका पूरा नाम अर्शदीप सिंह है. यह भारत की मोस्‍ट वांटेड अपराधि‍यों की सूची में भी शामिल है. आजकल यह गैंगस्‍टर अपनी पत्‍नी के साथ कनाडा में ही रहता है.

अर्श डाला को कनाडा में अरेस्‍ट करने के साथ ही पंजाब के फरीदकोट से इसके दो गुर्गों को भी गिरफ्तार कर लिया गया है. इन शूटर्स ने बताया कि अर्श के कहने पर उन्‍होंने 7 नवंबर को मध्‍य प्रदेश के ग्‍वालियर में जसवंत सिंह गिल की हत्‍या की थी.

 

अर्श कैसे बना अपराधी

 

अर्शदीप पहली बार उस समय चर्चा में आया जब उसने सोशल मीडिया पर एक पोस्‍ट डाल कर एक व्‍यक्ति की हत्‍या की जिम्‍मेदारी ली थी. इस पोस्‍ट में अर्श ने यह लिखा था कि इसी व्‍यक्ति की वजह से उसका फ्यूचर बरबाद हो गया. उसे अपराध की दुनिया में लाने वाला यही आदमी है. यहां तक कि इस व्‍यक्ति की वजह से ही उसकी मां को पुलिस हिरासत में रखा गया. जिस व्‍यक्ति पर अर्श ने इतने सारे आरोप लगाए वह पंजाब के मोगा का कांग्रेस नेता बलजिंदर सिंह बल्‍ली था.

मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो, केवल अपने और अपनी मां पर हुए जुल्‍मों का बदला लेने के लिए ही अर्श डाला ने अपराध की दुनिया में कदम रखा. पिछले 4 सालों से अर्श डाला कनाडा में रख कर ही पंजाब के अपराध जगत को कंट्रोल कर रहा है.

 

इसके इशारे पर काम करते हैं 700 शूटर्स

 

अर्श के बारे में कहा जाता है कि वह सोशल मीडिया के जरिए अपने गैंग में पंजाब और हरियाणा के लोगों को शामिल करता है. वह इन युवाओं को कनाडा में बसने का लालच देकर अपने झांसे में लेता है. अर्श के बारे में कहा जाता है कि पाकिस्‍तानी सीक्रेट एजेंसी आईएसआई इसकी मददगार है.

गैंगस्‍टर अर्श डाला को राष्‍ट्रीय जांच एजेंसी, पंजाब पुलिस और दिल्‍ली पुलिस ने अपने मोस्‍ट वांटेड की लिस्‍ट में शामिल कर रखा है. इसके बारे में यह मशहूर है कि इसके करीब 700 शूटर्स भारत भर में हैं, जो इसके एक इशारे पर किसी की जान ले लेते हैं. अर्श का गैंग एक्‍सटौर्शन, टारगेट किलिंग, टैरर फंडिंग, ड्रग्‍स की स्‍मलिंग समेत कई अपराधों में लिप्‍त है.

आतंकवादी घोषित

ऐसा कहा जा रहा है कि अर्शदीप की गिरफ्तारी कनाडा के एक हिंदू मंदिर पर हुए हमले के बाद हुई. यह हमला खालिस्‍तानी आतंकवादियों की ओर से किया गया था. भारत के गृह मंत्रालय की ओर से अर्श डाला को गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत आतंकवादी घोषित किया जा चुका है. वहीं राष्‍ट्रीय जांच एजेंसी उसे भगोड़ा घोषित कर चुकी है. उसके सिर पर 5 लाख का इनाम भी है.

अर्श और लौरेंस के बारे में दो तरह की बात की जाती हैं, कुछ लोग यह मानते हैं कि लौरेंस बिश्‍नोई और लौरेंस के दोस्‍त गोल्‍डी बराड़ के साथ अर्श डाला की बहुत अच्‍छी दोस्‍ती है. वहीं कुछ का कहना है कि अर्श डाला जिस बम्बिहा नाम के गैंग से जुड़ा है, वह लौरेंस का एंटी गैंग माना जाता है. कहा जाता है कि जिस तरह से भारतीय सीक्रेट एजेंसियां अर्श के गतिविधियों पर नजर रखती है उसी तरह से लौरेंस बिश्‍नोई गैंग भी उस पर नजर गड़ाए रहती है.

भाभीजी कहां हैं

 

लेखक : अश्विनी कुमार भटनागर

 

केशव की पत्नी तरला खाना बनाने की शौकीन थी तो नरेश की पत्नी मनीषा को अपनी साजसज्जा से फुरसत नहीं मिलती थी. उन के इन रवैयों से परेशान केशव व नरेश ने एक ऐसी युक्ति अपनाई कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, आखिर वह युक्ति क्या थी?

 

हैलोहैलो से परिचय की शुरुआत हो कर केशव और नरेश में आत्मीयता हो गई थी. अब तो दोपहर का खाना भी दोनों साथ बैठ कर खाते थे.

 

‘‘आज मैं इडली, चटनी और सांभर लाया हूं.’’ केशव ने अपना लंच बौक्स खोलते हुए कहा, ‘‘मेरी पत्नी बहुत अच्छा बनाती है.’’

 

‘‘यार, घर के खाने की बात ही कुछ और है,’’ नरेश ने अपना डब्बा खोल कर कुछ उदासी से कहा, ‘‘मेरा मन तो अकसर बाहर खाने को करता है.’’

 

‘‘हम लोगों की मानसिकता भी विचित्र है,’’ केशव ने हंस कर कहा, ‘‘होटल में घर जैसा खाना ढूंढ़ते हैं और घर में होटल जैसा.’’

 

दरअसल, नरेश के खाने में न तो कोई विविधता होती थी और न ही अच्छा स्वाद. लगभग रूखा सा. नरेश की पत्नी की रुचि खाना बनाने में कतई नहीं थी. वह तो बस, पत्नी का कर्तव्य निभा रही थी. अगर नरेश ने कभी कुछ कह दिया तो वह तुनक जाती थी.

 

‘‘इतने सारे होटल हैं. अब तो वहां जाना भी नहीं पड़ेगा. सब मुफ्त में होम डिलीवरी करते हैं. मनचाहा मंगाओ और खाओ,’’ उस की पत्नी का सदा यही जवाब होता था.

 

केशव को नरेश की स्थिति का एहसास था, इसीलिए वह अपनी पत्नी तरला से कहता, ‘‘नरेश को तुम्हारा खाना बहुत अच्छा लगता है. थोड़ा ज्यादा ही रख देना.’’

 

तरला इठला कर उत्तर देती, ‘‘मेरा खाना किसे पसंद नहीं? मुझ तो घर में सब हल्दीराम भी कहने लगे थे. बस, एक बार रसोई में घुस जाऊं तो नए से नया स्वादिष्ठ व्यंजन बना कर ही निकलती थी. ठीक बात है न?’’

 

केशव कटाक्ष करने से नहीं चूकता,  ‘‘हां, एक गुण हो तो बाकी सारे अवगुण नजरअंदाज हो जाते हैं.’’

 

तरला नाराज हो कर मुंह बिचकाती. वैसे, वह कोई खास सुंदर नहीं थी और न ही उस में ठीक से रहने का सलीका ही था. काफी समय किचन और मसालों में रहने से उस के कपड़ों से ही नहीं, शरीर से भी मसालों की गंध आती थी. अब तो केशव उस गंध का इतना आदी हो गया था कि अगर वह कभी घर में नहीं होती तो दूर से ही उस की अनुपस्थिति का एहसास उसे हो जाता था.

 

 

खाली घर में ऊंचे स्वर में केशव अपनेआप से कहता था, ‘‘कहां हो मेरी हल्दी, मेरी सरसों, मेरी नमक, मेरी मिर्च, अब अधिक न तड़पाओ और जल्दी से प्रकट हो जाओ.’’

 

बाहर से अंदर आते हुए जब तरला यह नाटकीय संवाद सुनती तो खिलखिला कर हंस पड़ती थी.

 

एक दिन केशव ने कहा, ‘‘सुनो, मैं चाहता हूं नरेश और मनीषा को खाने पर बुला लूं. तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं?’’

 

नरेश के बारे में तरला बहुतकुछ सुनती रहती थी. उसे भी नरेश से मिलने की इच्छा थी, सो तुरंत कहा, ‘‘हांहां, बुला लो, कम से कम एक प्रशंसक तो और बढ़ेगा.’’

 

जिस दिन जाना था, मनीषा और नरेश समय से पहले ही पहुंच गए. घंटी बजाई तो दरवाजा केशव ने खोला. वह बनियान और पाजामा पहने था. यह देख कर दोनों को हंसी आ गई.

 

‘‘माफ करना, यार,’’ केशव ने सोेफे पर से सामान हटा कर उन के बैठने की जगह बनाते हुए कहा, ‘‘भाभी, आप बैठिए. मैं अभी तैयार हो कर आता हूं.’’

 

घर को बिखरा देख कर दोनों थोड़ा चौंक गए थे. अब आने का पता था तो कुछ तो सजावट सभी करते हैं. और तो और, घर में अगरबत्ती की जगह मसालों की खुशबू ने स्वागत किया.

 

केशव के जाते ही नरेश और मनीषा ने एकदूसरे को देखा. आंखों में एक ही प्रश्न था. यह घर है या कोई गोदाम?

 

केशव को तैयार हो कर आने में आधा घंटा लगा. तब तक दोनों बैठे बोर होते रहे.

 

जब केशव आया तो नरेश ने पूछा, ‘‘भाई, हमारी भाभीजी कहां हैं? अभी तक दर्शन नहीं हुए. कहीं ब्यूटीपार्लर तो नहीं चली गईं.’’

 

‘‘मेरी इन को तो ब्यूटीपार्लर का नाम छोड़ो, काम भी पता नहीं,’’ केशव ने मनीषा की ओर प्रशंसा से देखते हुए कहा, ‘‘ये तो साक्षात ब्यूटीपार्लर स्वयं हैं.’’

 

 

मनीषा को सजनेसंवरने का बड़ा चाव था. केश हों या कपडे़, सौंदर्य प्रसाधन हों या चलनेबैठने का अंदाज, सब में एक अदा थी. अपनी प्रशंसा सुन कर वह मुसकरा दी.

 

‘‘अब यही तो एक गुण है मेरी इन अच्छी आधी में,’’ नरेश ने हंस कर कहा, ‘‘जो भी इन्हें देखता है, लट्टू हो जाता है.’’

 

केशव अभी मनीषा को निहार ही रहा था कि अंदर से तरला बाहर आ गई.

 

‘‘माफ करना भैया और मनीषाजी,’’ तरला ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘सुबह से खाना बनाने में लगी थी. आप लोग पहली बार आए हैं तो कुछ तो विशेष बनाना ही था न.’’

 

तरला को देख कर नरेश और मनीषा चौंक गए. अभी तक वह रसोई वाली साड़ी पहने थी. केशों की लटें गालों पर झुल रही थीं. पता न होता तो जरूर ही उसे नौकरानी समझने की भूल हो जाती.

 

‘‘आज परीक्षा हो जाएगी,’’ मनीषा ने हंस कर कहा, ‘‘वैसे तो आप स्वयं कुशल हैं, लेकिन मैं आप की कुछ मदद कर सकती हूं?’’

 

‘‘अरे नहीं,’’ केशव ने कहा, ‘‘आप का शृंगार खराब हो जाएगा.’’

 

‘‘आप इन को सूप दीजिए, मशरूम का है,’’ तरला ने केशव से कहा और बोली, ‘‘बस, आधे घंटे में आती हूं.’’

 

सूप इतना स्वादिष्ठ था कि नरेश को और लेने की इच्छा हुई, लेकिन रुक गया. मनीषा ने भी प्रशंसा की.

 

तरला हाथमुंह धो कर और साड़ी बदल कर आई, लेकिन कोई अंतर नहीं पड़ा.

 

मेज पर तरहतरह के व्यंजन थे. इतने स्वादिष्ठ थे कि सब उंगलियां चाटते रह गए. तरला हर एक व्यंजन का विस्तार से वर्णन भी कर रही थी. सबकुछ इतना अच्छा था कि नरेश और मनीषा भूल गए कि जब घर में आए थे तो कितना बुरा प्रभाव पड़ा था.

 

नरेश बारबार पत्नी से कहता, ‘‘तुम को भाभी से प्रशिक्षण लेना पड़ेगा. कुछ दिनों के लिए यहीं छोड़ जाऊंगा. क्यों भाभी?’’

 

नरेश और मनीषा के जाने के बाद तरला खाना और बरतन समेटने लगी. केशव आराम से बैठा तरला को भागदौड़ करते देख रहा था.

 

थोड़ी देर बाद पल्लू से हाथ पोंछते हुए तरला ने पास आ कर बैठते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘कहो, कैसा रहा? खाने की तो बहुत तारीफ कर रहे

थे न.’’

 

‘‘तारीफ तो होटल के खाने की भी लोग करते हैं,’’ केशव ने चिढ़ कर कहा, ‘‘मु?ो तो शरम आ रही थी.’’

 

‘‘शरम, कैसी शरम?’’ तरला ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अच्छे खाने में शरम की क्या बात हुई?’’

 

‘‘शरम खाने से नहीं, तुम्हारे से आई,’’ केशव ने तनिक क्रोध से कहा, ‘‘देखा नहीं, मनीषा कैसा शृंगार कर के आई थी. कपड़े और जेवर पहनने के ढंग से लगता था कि अच्छे खानदान की है. घरवाली को ऐसा लगना चाहिए कि पति को गर्व हो.’’

 

तरला झटके से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘अब खाना बनवा लो या मुझे कोई मेम बना दो. ठीक है, कल से खाना अपनेआप बना लेना. मैं सजती

और संवरती रहूंगी. मुझे भी तो पाउडरलिपस्टिक लगाना आता है.’’

तरला पति के मुंह से प्रशंसा के दो शब्द सुनने आई थी. उस की जगह कांटे चुभो दिए. क्रोध से केशव को देखने लगी.

 

‘‘नरेश तो यह भी कह रहा था कि उस का घर देखो तो हमेशा आईने की तरह चमकता है,’’ केशव ने क्रोध से कहा, ‘‘एक हमारा घर देखा, पूरा गोदाम है.’’

 

‘‘हां, और नरेश सुबह उठ कर चाय बनाता है तब महारानी बिस्तर से उठती है,’’ तरला ने ऊंचे स्वर से कहा, ‘‘और अगर कहीं नरेश ने जूतेचप्पल इधरउधर रख दिए तो सारे घर में झाड़ू लगवाती है. मुझे सब मालूम है. आधा महीना तो खाना बाहर से आता है.’’

 

अगले दिन तरला बिस्तर से नहीं उठी. सुबह न चायनाश्ता बना न दफ्तर के लिए लंच. केशव चुपचाप खाली लंचबौक्स उठा कर चला गया. भोजन अवकाश पर नरेश और केशव आमनेसामने थे. दोनों का मुंह लटका हुआ था.

 

लंचबौक्स खोलते हुए आश्चर्य का नाटक कर केशव ने कहा, ‘‘अरे, लंच वाला डब्बा तो घर पर ही रह गया. खाली डब्बा आ गया. चलो, तुम्हारे पास तो कुछ होगा.’’

 

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ नरेश ने उत्साह से कहा, ‘‘आज भरवां परांठे बना रही थी, सो मैं ने तुम्हारा खयाल कर के और परांठे रखने को कह दिया था. अब तुम्हारे घर जैसे तो नहीं.’’

 

 

नरेश ने डब्बा खोला और आश्चर्य से बोला, ‘‘अरे, यह भी खाली, लगता है मेरा डब्बा भी घर पर रह गया.’’

 

दोनों एकदूसरे को काफी देर तक देखते रहे और फिर ठठा कर हंस पड़े.

 

केशव ने हंसते हुए कहा, ‘‘यार, ये पत्नियां भी खूब हैं. तारीफ करो तो मुश्किल, बुराई करो तो भी मुश्किल. अब पति बेचारा क्या करे?’’

 

‘‘अब मैं ने मनीषा से यही तो कहा था कि भाभी कितना अच्छा खाना बनाती हैं,’’ नरेश ने कहा, ‘‘तुम कुछ दिन उन के पास रह कर सीख लो.’’

 

‘‘और मैं ने क्या कहा, यही तो कि मनीषा कितनी अच्छी तरह से अपने को और अपने घर को रखती है. थोड़ा उस से सीख लो,’’ केशव ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘बस, हो गई महाभारत शुरू.’’

 

कैंटीन में कौफी पीते हुए नरेश ने कहा, ‘‘यार, पत्नी बदल लेते हैं. शायद कुछ दिन सुकून मिले.’’

 

‘‘विचार तो बुरा नहीं है,’’ केशव ने मुसकरा कर कहा, ‘‘लेकिन संभव नहीं.’’

 

‘‘क्यों?’’ नरेश ने आश्चर्य से पूछा.

 

‘‘उसे झेल नहीं पाओगे,’’ केशव ने उत्तर दिया, ‘‘और इतनी सफाईपसंद औरत को झेलना मेरे लिए भी मुश्किल होगा. आदतें तो पत्नियों ने पहले ही बिगाड़ दी हैं.’’

 

‘‘बात तो ठीक है,’’ नरेश ने सहमत हो कर कहा, ‘‘फिर करें क्या?’’

 

‘‘कुछ नहीं, बस, झेलते रहो,’’ केशव ने फलसफा झाड़ते हुए कहा, ‘‘सात फेरे लिए हैं और सात जनम साथ निभाने के वादे किए हैं.’’

 

‘‘चलो, हम ही सुधर जाते हैं,’’ नरेश ने गहरी सांस ले कर कहा.

 

2 दिनों के शीतयुद्ध के बाद दोनों का जीवन सामान्य होने लगा. चेहरों पर हलकी मुसकान आ गई.

 

 

कुछ दिन और बीतने के बाद केशव को लगा दफ्तर से आने के बाद घर कुछ अधिक साफसुथरा था. तरला भी धुले और साफ कपड़ों में दिखाई दी.

 

जब न रहा गया तो केशव ने नरेश से कहा, ‘‘पता नहीं मेरा सपना है या सच देख रहा हूं.’’

 

‘‘क्या मतलब?’’ नरेश ने आश्चर्य से पूछा. केशव ने घर की सुधरती स्थिति को स्पष्ट किया.

 

‘‘ताज्जुब है,’’ नरेश ने कहा, ‘‘मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है.’’

 

‘‘क्या मतलब?’’

 

‘‘आजकल खाना पहले से कुछ अधिक स्वादिष्ठ लग रहा है. खाने में विविधता भी है,’’ नरेश ने खुलासा किया, ‘‘लगता है मनीषा भाभी से टिप ले रही है.’’

 

‘‘हो सकता है,’’ केशव ने हंस कर कहा.

 

‘‘क्या मतलब?’’ नरेश ने पूछा.

 

केशव ने हंसते हुए कहा, ‘‘मेरा टैलीफोन का बिल बढ़ रहा है. और तेरा?’’

 

‘‘वाह, क्या बात है,’’ नरेश ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘और मेरा भी.’’

 

‘‘और हां, याद रखना,’’ केशव ने मंत्र पढ़ा, ‘‘तारीफ अपनी पत्नी की और बुराई दूसरी पत्नी की. वह भी अगर मजबूरी हो.’’

 

कुछ सोच कर नरेश ने कहा, ‘‘यार, अगर मेरी कोई संतान लड़की हुई तो उसे पूरी शिक्षा दूंगा. आधीअधूरी नहीं.’’

 

‘‘यानी, घरगृहस्थी चलाने की पूरी शिक्षा और अपने ऊपर भी खर्च करने में कोई कंजूसी न करे,’’ केशव ने कहा, ‘‘जहां जाए, पूरा योगदान दे और हर क्षेत्र में दिलों को जीत ले.’’

 

 

 

समर्पण : रिश्‍ते की गहराई

लेखिका : डा. के रानी

 

बेटी अनु का बेरोजगार तुषार से शादी करने का निर्णय सुधा पचा नहीं पा रही थी. लेकिन अनु को तुषार की काबिलीयत और समझदारी पर पूरा विश्वास था. तुषार ने भी अनु को अपने प्रति प्यार को  अपने समर्पण की महक से और भी सराबोर कर दिया.

 

 

 

 

सुबहसुबह अनु का फोन आ रहाथा. सुधा ने झट से फोन उठा लिया. अनु के पापा शर्माजी भी पास में खड़े थे. सुधा ने हमेशा की तरह स्पीकर औन कर दिया जिस से वे दोनों उस से बात कर सकें. अनु ने उन्हें तुरंत खुशखबरी सुनाई, ‘‘मम्मी, मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है.’’

 

सुधा ने सुना तो अवाक रह गई. उसे अनु से अभी ऐसी उम्मीद नहीं थी. उस ने पूछा, ‘‘कौन है वह खुशनसीब जिसे हमारी बेटी ने अपना साथी चुना है?’’

 

‘‘तुषार. हम दोनों यहां साथ ही कंपीटिशन की तैयारी कर रहे हैं,’’

 

यह सुनते ही सुधा के हाथ कांपने और जबान लड़खड़ाने लगी.

 

अनु के पापा ने जब यह बात सुनी तो वे सन्न रह गए, ‘‘अनु, तुम क्या कह रही हो? तुम पर तो हमारी बहुत सारी उम्मीदें लगी हुई हैं.’’

 

‘‘पापा, मैं आप की उम्मीदें पूरी करने की पूरी कोशिश करूंगी. मैं तुषार को अपना जीवनसाथी बनाना चाहती हूं. वह बहुत अच्छा लड़का है. मुझे पूरा यकीन है कि जब आप उस से मिलेंगे तो आप को भी वह बहुत पसंद आएगा.’’

 

‘‘बेटा, वह तो अभी जौब पर भी नहीं है.’’

 

‘‘इस से क्या फर्क पड़ता है पापा? जौब में तो मैं भी नहीं हूं. हम दोनों संघर्ष कर रहे हैं और हमारा संघर्ष एक दिन जरूर रंग लाएगा.’’

 

‘‘अनु एक बार फिर से सोच लो.’’

 

‘‘इस में सोचना क्या है, पापा?

 

मुझे अपने जीवनसाथी के रूप में तुषार पसंद है. मैं उसे अपना जीवनसाथी बनाना चाहती हूं. अगर मेरी पसंद को आप लोग खुले दिल से स्वीकार करेंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा, मम्मी.’’

 

‘‘हम तो हमेशा से तुम्हारे साथ हैं.  तुम्हारी इच्छा हमारे लिए बहुत माने रखती है. हम चाहते थे कि पहले तुम कोई अच्छा जौब चुन लो उस के बाद शादी के बारे में सोचो.’’

 

‘‘पापा, कल किस ने देखा है? आप लोग निश्चिंचिंत रहिए. हम दोनों आप के ऊपर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डालेंगे. मुझे नैट क्वालीफाई करने के बाद इतनी फैलोशिप मिलती है कि उस से एक छोटे से घर में हम गुजारा कर लेंगे.’’

 

 

अनु के तर्कों के आगे मम्मीपापा की एक न चली. तुषार ने भी अपने मम्मीपापा को मना लिया था. वे भी चाहते थे लड़का पहले कुछ बन जाए और उस के बाद शादी के बारे में सोचे पर तुषार नहीं माना. उस ने अनु के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया. वे चाह कर भी कुछ नहीं कर सके. उन्होंने भी भारी मन से शादी की सहमति दे दी. दोनों परिवारों ने दिल्ली आ कर एकदूसरे से मुलाकात कर ली थी. उन की एकदूसरे से कोई अपेक्षाएं भी नहीं थीं.

 

बहुत सादे तरीके से सुधा ने अपनी बेटी को विदा कर दिया. तुषार और अनु बहुत खुश थे. उन्हें अपने फैसले पर नाज भी था. कोचिंग के दौरान अनु की दोस्ती तुषार से हो गई थी. वह बिहार का रहने वाला साधारण घर का लड़का था. वह पढ़नेलिखने में बहुत होशियार था. प्रशासनिक सेवा में हाथ आजमाने के लिए उस के मांबाप ने उसे कोचिंग के लिए दिल्ली  भेज दिया था. एक ही सैंटर पर कोचिंग के दौरान वे एकदूसरे के नजदीक आ गए थे.

 

अनु और तुषार दोनों की परवरिश साधारण परिवार में हुई थी. उन की सोच भी एकजैसी थी. बहुत जल्दी उन की दोस्ती प्यार में बदल गई. अभी तक दोनों को किसी प्रतियोगिता में सफलता नहीं मिल पाई थी लेकिन वे दोनों अपनी मंजिल की ओर लगातार अग्रसर थे. वे दोनों एकसाथ प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करते और अपने दिल का हाल भी एकदूसरे को बताते.

 

एक दिन अवसर पा कर तुषार ने अनु के सामने अपने प्यार का इजहार कर दिया और अनु के सामने अपने दिल की बात रख दी, ‘अनु, हम एकदूसरे को 2 सालों से अच्छी तरह से जानते हैं. मैं चाहता हूं कि हम हमेशा एकसाथ रहें. क्या तुम मुझसे शादी करोगी?’

 

 

उस की बात सुन कर अनु चौंक गई थी. उसे उम्मीद नहीं थी कि तुषार उसे इतनी जल्दी प्रपोज कर देगा.

 

‘यह तुम क्या कह रहे हो? अभी तो हम दोनों ही अपने कैरियर के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे में शादी की बात तुम्हारे दिमाग में कहां से आ गई?’

 

‘मेरे हिसाब से तो अभी शादी करना ठीक रहेगा. क्या पता कल अच्छी जगह नौकरी मिलने के बाद हमतुम एकदूसरे से कितनी दूर चले जाएं?’

 

‘ऐसा कभी नहीं होगा.’

 

‘वक्त का कुछ पता नहीं होता, अनु. हम अभी से कोशिश करेंगे कि एकदूसरे के साथ अधिक से अधिक समय बिताएं. नौकरी के बाद घर वालों का दबाव भी हम पर बढ़ जाएगा.’

 

‘क्या तुम उन के दबाव में आ कर शादी करोगे?’

 

‘नहीं अनु, मेरे कहने का मतलब यह नहीं. मैं किसी को नाराज नहीं करना चाहता. यह समय है जब हम अपनी इच्छाओं को पूरा करते हुए दूसरों के दिल को दुखाए बगैर आराम से शादी कर सकते हैं और अपना ज्यादा से ज्यादा समय एकसाथ बिता सकते हैं,’ तुषार बोला.

 

तुषार स्वभाव से गंभीर था. अनु उस की बातों की गहराई को समझ गई. उन से शादी के लिए हां कह दी. सुधा के परिवार, पड़ोसी और रिश्तेदारों ने कभी सोचा भी नहीं था कि अनु इतने अच्छे कैरियर के साथ बिना व्यवस्थित हुए शादी कर लेगी? पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने सुधा की बहुत खिंचाई की थी. पड़ोस वाली गुप्ता आंटी तो जैसे इसी मौके की तलाश में थीं, ‘सुधा, तुम तो कहती थीं कि मेरा दामाद कोई आईएएस औफिसर होगा. मेरी अनु के लिए लड़कों की कोई कमी नहीं रहेगी.’

 

‘अनु ने बहुत सोचसम?ा कर अपने लिए जीवनसाथी चुना है. आखिर उसे तुषार में कुछ खास तो दिखाई दिया होगा, तभी उस ने इतना बड़ा कदम उठाया है. उस का चुनाव कभी गलत नहीं हो सकता.’

 

‘वह तो दिखाई दे रहा है,’ गुप्ता आंटी कटाक्ष करती बोलीं.

 

सुधा को सभी से ऐसी बातें सुनने को मिल रही थीं. अनु ने मम्मीपापा के सपनों को दरकिनार करते हुए, किसी की परवाह किए बगैर शादी कर ली थी.

 

सुधा को छुटपन से ही अपनी बेटी पर बड़ा नाज था. बचपन से ही अनु पढ़ने में बहुत होशियार थी. एक साधारण से परिवार में पैदा होने के कारण उस के पास बहुत सारी सुविधाएं तो नहीं थीं पर एक तेज दिमाग जरूर था, जिस के बल पर वह अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रही थी. शर्माजी को भी अपनी बेटी पर गर्व था. वे उस की हर इच्छा पूरी करते. अनु के बड़े होने के साथ मम्मीपापा की अपेक्षाएं भी बड़ी हो गई थीं.

 

‘अनु पढ़नेलिखने में विलक्षण है. वह जिस काम में हाथ डालेगी वही बन जाएगी,’ हरकोई यही कहता. यह सुन कर सुधा और शर्माजी फूले न समाते. अनु ने पहले ही बता दिया था कि वह डाक्टर या इंजीनियर नहीं बनेगी. वह पढ़लिख कर किसी अन्य क्षेत्र में जाएगी. अनु ने अर्थशास्त्र से एमए प्रथम श्रेणी में करने के साथ ही कालेज में टौप किया था. उस के प्रोफैसर चाहते थे कि वह इसी विषय में पीएचडी कर प्रोफैसर बन जाए पर अनु कहीं और अपना भविष्य तलाश रही थी. वह प्रशासनिक सेवाओं में जाने की इच्छुक थी.

 

 

अपने सपने पूरे करने के लिए अनु कोचिंग के लिए दिल्ली चली आई. सुधा और शर्माजी को उस के कोचिंग लेने पर कोई एतराज नहीं था. उन्हें पूरा विश्वास था कि इस के बल पर अनु एक दिन उन का नाम जरूर रोशन करेगी. लेकिन बिना कुछ बने तुषार से शादी कर के अनु ने मम्मीपापा के सपनों को एक ?ाटके में तोड़ डाला था.

 

अनु की शादी के बाद भी कई दिनों तक सुधा अपनेआप को सामान्य नहीं कर पाई. तुषार से मिल कर उसे भी अच्छा लगा था. वह एक सुल?ा हुआ युवक था लेकिन एक बेरोजगार दामाद को अपनाने में उसे हिचक हो रही थी. बेटी की खुशी के आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा.

 

 

उन्हें यकीन था एक दिन अनु जरूर कुछ न कुछ अच्छा ही करेगी. कुछ ही महीने में अनु की मेहनत रंग लाई. उस ने पीसीएस की मुख्य परीक्षा पास कर ली थी. अनु ने साक्षात्कार की बहुत अच्छी तैयारी की थी पर वह उस में रह गई. तुषार अभी भी संघर्षरत था. उन दोनों को इस बात का काफी मलाल हुआ. ऐसी परिस्थिति में भी तुषार ने अनु को हिम्मत बंधाई, ‘‘अनु, तुम्हें दिल छोटा नहीं करना चाहिए. तुम बहुत मेहनती और होशियार हो. एक दिन तुम्हें अपनी मेहनत का पूरा श्रेय जरूर मिलेगा.’’

 

‘‘तुषार, तुम ही तो मेरी प्रेरणा हो. तुम्हारी बातों से मु?ो बड़ी हिम्मत मिलती है. मैं और मेहनत करूंगी और एक दिन कुछ बन कर दिखाऊंगी,’’ अनु बोली.

 

इसे कोई संयोग ही कहें कि जितना उस ने सोचा था, वह वहां तक न पहुंच पाई. नैट परीक्षा उत्तीर्ण करने के कारण उस का यूनिवर्सिटी में असिस्टैंट प्रोफैसर के लिए चयन हो गया था. परिस्थितियों को देखते हुए अनु ने यह जौब खुशीखुशी स्वीकार कर ली. अब उस के सामने आर्थिक परेशानी नहीं थी.

 

2 महीने बाद तुषार का सलैक्शन  यूपीएससी परीक्षा के माध्यम से ही समीक्षा अधिकारी के लिए हो गया था. दोनों बेहद खुश थे. आखिरकार उन्हें एक ही शहर में नौकरी तो मिल गई थी. ये नौकरियां उन के योग्यता और सपनों के अनुरूप नहीं थीं लेकिन घरगृहस्थी चलाने के लिए पर्याप्त थीं. अनु ने यह खबर मम्मीपापा को सुनाई तो उन्हें ज्यादा खुशी नहीं हुई.

 

सुधा बोली, ‘‘अनु, तुम आगे भी  तैयारी करते रहना. यह नौकरी तो तुम्हें इसी शहर में रह कर पढ़ने से भी मिल सकती थी.’’

 

‘‘आप बिलकुल ठीक कहती हैं, मम्मी. मैं आगे भी प्रयास करती रहूंगी.’’

 

अनु अपने काम के प्रति बहुत समर्पित थी. वह पीएचडी करना चाहती थी ताकि अपने कैरियर में किसी से पीछे न रहे. नैट की बदौलत वह इस नौकरी तक पहुंच गई थी. तुषार के सहयोग के कारण उसे आगे पढ़ने में कोई परेशानी नहीं थी. वे दोनों अभी भी प्रतियोगिताओं की तैयारी कर रहे थे पर उन का समय साथ नहीं दे रहा था. तुषार की नौकरी लगने के सालभर बाद अनु ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया. सुधा ऐसे समय में बेटी को अकेले पा कर मात्र 2 हफ्ते के लिए अनु के पास आई थी. उस के नर्सिंगहोम से घर आ जाने पर वह वापस लौट आई थी. तुषार जिस तरह से अनु का खयाल रखता था, सुधा उस से संतुष्ट थी.

 

 

अनु के 6 महीने मातृत्व अवकाश के साथ आराम से कट गए. उस ने कुछ महीने और शिशु देखभाल अवकाश ले लिया था. अब नौकरी के साथसाथ बच्चे को देखने के लिए एक आदमी की घर पर जरूरत थी.

 

अनु ने कहा, ‘‘तुषार, क्यों न हम अपने पेरैंट्स को यहां बुला लें.’’

 

‘‘क्या उन का दिल हमारे साथ लगेगा? हम एक छोटे से फ्लैट में रहते हैं. मम्मीपापा को इस प्रकार से रहने की आदत नहीं है.’’

 

‘‘तुम ठीक कहते हो. उन के लिए यह घर जेल के समान हो जाएगा, भले ही हम अपनी ओर से उन के लिए कोई कसर नहीं रखेंगे. एक सामान्य जिंदगी जीने वाले को बड़े शहरों की आदत नहीं होती. उन की अपनी एक दिनचर्या है, जिसे वे यहां अच्छे से नहीं निभा पाएंगे. इस के साथ एक दूसरी बात भी है.’’

 

‘‘वह क्या?’’

 

‘‘तुम तो जानती हो कि उन के सपनों को तोड़ कर हम दोनों ने शादी की. उन की अपेक्षाएं हम से कुछ और थीं और हम उन की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे. हमें देख कर उन्हें यह बात भी याद आती रहेगी. अच्छा होगा कि हम बच्चे की देखभाल के लिए एक आया रख लें.’’

 

 

जल्दी ही अनु ने अपने सहकर्मियों की मदद से एक आया का इंतजाम कर दिया पर उस के भरोसे रिया को छोड़ने में दोनों को बड़ी परेशानी हो रही थी. किसी तरह 2 महीने बीते. एक बार रिया की तबीयत बिगड़ गई. ऐसी हालत में उन की हिम्मत रिया को आया के भरोसे छोड़ने की न हो सकी. तब समस्या का समाधान तुषार ने निकाला, ‘‘अनु, मैं कुछ समय के लिए रिया की देखभाल के लिए छुट्टी ले लेता हूं.’’

 

‘‘यह क्या कर रहे हो तुम?’’

 

‘‘मैं ठीक कह रहा हूं. हम दोनों में से छुट्टी कोई भी ले क्या फर्क पड़ता है? बच्चा हमारा है. इतने महीने तुम उस की देखभाल कर चुकी हो. तुम्हें अभी अपना पीएचडी का काम भी पूरा करना है. मैं औफिस से छुट्टी ले लेता हूं.’’

 

‘‘तुम्हें छुट्टी कहां मिलेगी?’’

 

‘‘तो क्या हुआ? अवैतनिक अवकाश ले लूंगा. हमारे बच्चे की परवरिश में कोई कसर नहीं रहनी चाहिए,’’ तुषार ने कहा तो अनु उस के परिवार के प्रति समर्पण को देख कर नतमस्तक हो गई.

 

वैसे तो उन के घर में भी काम करने  वाले आते थे लेकिन उन के ऊपर भी देखभाल के लिए घर पर कोई तो चाहिए था. तुषार ने यह जिम्मेदारी बडे़ अच्छे से संभाल ली. रिया बड़ी हो रही थी. अनु उस की ओर से बिलकुल बेफिक्र थी. तुषार एक जिम्मेदार पिता की तरह उस की बहुत अच्छी देखभाल करता. शाम को अनु थक कर घर आती तो उस के साथ भी बहुत अच्छा व्यवहार करता. अनु अपनेआप को धन्य मानती कि उसे पति के रूप में तुषार मिला. अनु ने यह बात मम्मी को बताई कि अब तुषार नौकरी छोड़ कर बच्चे की देखभाल करेंगे.

 

‘‘मम्मी, रिया हम दोनों की बेटी है. क्या फर्क पड़ता है कि देखभाल मैं करूं या तुषार करें?’’

 

‘‘बेटी, यह काम औरतों को ही शोभा देता है.’’

 

‘‘मम्मी, आप तुषार से मिल चुकी हैं. वे बहुत ही अच्छे इंसान है. उन्होंने मु?ो कभी एहसास तक नहीं होने दिया कि मैं एक औरत हूं और वे मेरे पति. वे घर को मु?ा से अच्छे तरीके से संभालते हैं और बेटी का भी बहुत ध्यान रखते हैं.’’

 

‘‘तो क्या घर तेरी तनख्वाह से चलेगा बेटी?’’

 

 

‘‘परिवार के बीच में तेरामेरा कहां से आ गया मम्मी? मेरा और तुषार का जो कुछ है वह हम सब का है. इस से क्या फर्क पड़ जाता है कि घर कौन चला रहा है? फर्क इस बात से पड़ता है कि घर अच्छे से चलना चाहिए. उस में सब के लिए स्थान होना चाहिए. सब की कद्र होनी चाहिए. रिया को घर पर आया की नहीं मम्मीपापा की जरूरत है. तुषार उस की बहुत अच्छे से देखभाल करते हैं. अगर तुम्हें कुछ गलत लगता है तो तुम यहां आ जाओ.’’

 

‘‘तुम तो जानती हो कि मैं तुम्हारे पापा को अकेला नहीं छोड़ सकती और इतने दिन वे बेटी के घर पर रहेंगे नहीं.’’

 

‘‘तो तुम ही बताओ कि रिया की देखभाल कौन करेगा?’’

 

‘‘तुम तुषार के मम्मीपापा को बुला लो.’’

 

‘‘वह भी तो आप की ही तरह हैं. आप यह क्यों नहीं सम?ातीं?’’ अनु बोली तो सुधा चुप हो गई. उन्हें जरा भी अच्छा नहीं लगा था कि दामाद नौकरी से छुट्टी ले कर घर बैठ कर औरतों की तरह अपनी बेटी की देखभाल कर रहा है. इस दौरान वे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी करते रहे पर सफलता हाथ नहीं लगी.

 

समय कट रहा था. 3 साल बाद अनु ने एक और बेटी प्रिया को जन्म दिया. मातृत्व अवकाश में अनु ने घर संभाला. उस ने बच्चों की देखभाल के लिए एक साल की और छुट्टी ली. उस के बाद बच्चों को देखने की समस्या फिर खड़ी हो गई थी. तुषार बच्चों की परवरिश में कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहता था.

 

वह इस पक्ष में नहीं था कि बच्चों को दिनभर आया के हवाले छोड़ कर खुद नौकरी पर जाया जाए. वह जानता था कि शाम को जब थक कर मम्मीपापा दोनों घर आते हैं तो उन के तनाव का बच्चों पर क्या असर पड़ता है. वे किस तरह से बच्चों की परवरिश के लिए एकदूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं. समस्या गंभीर थी और इस का हल निकालना भी जरूरी था.

 

एक दिन तुषार बोला, ‘‘मैं सोचता हूं कि नौकरी छोड़ कर अपना समय परिवार को दे दूं.’’

 

‘‘नहीं, तुषार नौकरी छोड़ने की नौबत आई तो नौकरी मैं छोड़ूंगी तुम नहीं.’’

 

‘‘भला क्यों?’’

 

‘‘एक पुरुष का इस तरह नौकरी छोड़ कर अपने को घर पर कैद कर लेना किसी को भी अच्छा नहीं लगता.’’

 

 

‘‘मैं किसी की नहीं तुम्हारी बात पूछ रहा हूं. तुम तो जानती हो घर पर रह कर भी मैं अपने लिए कुछ न कुछ काम ढूंढ़ ही लूंगा. मुझे जितना वक्त मिलेगा उस दौरान मैं मार्केटिंग का औनलाइन काम कर लूंगा.’’

 

‘‘यह काम इतना सरल नहीं है.’’

 

‘‘मन में लगन हो तो कठिन काम भी सरल हो जाते हैं. तुम्हें मुझ पर भरोसा तो है?’’

 

‘‘खुद से भी ज्यादा. सच कहूं तो मैं यही चाहती हूं कि तुम इस बारे में न सोचो.’’

 

‘‘मैं ने कभी ऐसा नहीं सोचा कि मेरी पत्नी नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाए. मैं जानता हूं कि तुम में मुझसे ज्यादा टेलैंट है.’’

 

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’

 

‘‘मैं सही कह रहा हूं. तुम मु?ा से अच्छी नौकरी पर हो. तुम्हारी नौकरी के घंटे कम हैं और साथ ही नौकरी का तनाव भी कम है. मेरी नौकरी का समय तुम से ज्यादा है और उस में तनाव भी बहुत है. अकसर नौकरी के सिलसिले में टूर पर जाना पड़ता है. मैं नौकरी से ऊपर अपने घर को तवज्जो देता हूं.’’

 

‘‘तुम ठीक कहते हो पर तुम्हारे मम्मीपापा क्या सोचेंगे?’’

 

‘‘तुम मेरे मम्मीपापा की नहीं अपने मम्मीपापा की फिक्र करो. उन्हें अच्छा नहीं लगता कि दामाद नौकरी छोड़ कर घर पर रहे. मैं ने इसे अपना घर नहीं हमारा घर सम?ा है. इस घर का गुजारा एक के काम करने से अच्छे से चल जाता है. हम बच्चों को देखने के लिए घर पर आया का प्रबंध करते हैं. उस के बदले भी उसे अच्छाखासा मेहनताना देना पड़ता है. उस पर भी दिनभर तनाव रहता है. शाम को बच्चों के काम की चिंता लगी रहती है. इस सब को संभालने के लिए हम दोनों में से एक का घर पर रहना जरूरी है. वैसे, मैं घर पर रह कर भी अच्छाखासा कमा लूंगा. अब तुम खुद सोचो तुम क्या चाहती हो?’’

 

‘‘मैं ने अपनी इच्छा तुम्हें बता दी है.’’

 

‘‘अनु, तुम नौकरी छोड़ती हो तो तुम पर काम का बो?ा अधिक पड़ेगा और तुम्हें शायद नौकरी छोड़ने का पछतावा भी हो.’’

 

‘‘अभी नौकरी छोड़ने की क्या जरूरत है. मैं अवैतनिक अवकाश भी ले सकती हूं.’’

 

‘‘वह तो ठीक है लेकिन तुम जिस जगह पर हो वहां पर तुम्हें अपने स्टूडैंट्स के भविष्य का खयाल भी रखना चाहिए. मेरे ऊपर इस प्रकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है. औफिस में एक काम छोड़ता है उस की जगह दूसरा ले लेता है,’’ तुषार ने अनु को सम?ाया.

 

‘‘तुम ठीक कहते हो, तुषार. तुम्हारी सोच बहुत बड़ी है और मेरी छोटी.’’

 

‘‘ऐसी बात नहीं है, अनु. तुम्हारी सोच मुझ से भी बड़ी है लेकिन समाज का दबाव देख कर शायद तुम ?ाक जाती हो. मुझे अपने घर की परवाह है समाज की नहीं.’’

 

 

तुषार का निर्णय अनु को बहुत अच्छा लगा. तुषार ने पहले अवैतनिक अवकाश का प्रार्थनापत्र दिया उस के बाद उस ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया.

 

अनु ने यह बात जब मम्मी को बताई तो वह अवाक रह गई, ‘‘अनु, मैं यह क्या सुन रही हूं?’’

 

‘‘मम्मी आप ने ठीक सुना है. तुषार ने नौकरी छोड़ दी है.’’

 

‘‘ऐसी क्या मजबूरी आ गई?’’

 

‘‘मम्मी, घर पर बच्चों को हमारी जरूरत है. उसे पूरा करने के लिए किसी एक को तो यह सब करना ही था. हम दोनों ने सोचा और तुषार ने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया.’’

 

‘‘तो क्या दामादजी दिनभर औरतों की तरह घर का काम देखेंगे?’’

 

‘‘मम्मी, आप घर के काम को छोटा समतीहैं. जब 2 लोग घर से बाहर निकल कर दिनभर काम करते हैं तो दोनों के ऊपर घर और बाहर दोनों का दवाब रहता है. तुषार नहीं चाहते मैं इस प्रकार का तनाव झेलूं. उन्हें मेरी चिंता रहती है. तभी तो उन्होंने इतना बड़ा फैसला लिया है. हर किसी पुरुष के बस का यह सब नहीं होता,’’ अनु बोली तो सुधा चुप हो गई.

 

वह आज तक तुषार को दिल से अपना दामाद स्वीकार नहीं कर सकी थी. उन्हें लगता था कि इस के कारण ही अनु उस मुकाम तक न पहुंच सकी थी जहां उसे होना चाहिए था. तुषार के चक्कर में पड़ कर उस ने अपना कैरियर बरबाद कर लिया था. कितनी उम्मीदें थीं उन्हें अनु से? उस के मन में कहीं बहुत बड़ी कसक थी. उन की  बेटी ने हमेशा अपनी ही मनमानी की है और उन की कभी नहीं सुनी. जब कैरियर बनाने का समय था तब शादी कर ली. अब जरा स्थिति सुधरी थी तो उस के पति ने नौकरी छोड़ दी है और घर बैठ कर बच्चे पाल रहा है. वे समाज और रिश्तेदारों को क्या जवाब देंगे कि उन का दामाद नौकरी छोड़ कर घर में औरतों की तरह आया का काम कर रहा है?

 

तुषार ने जल्दी ही अपना घर और मार्केटिंग का काम बहुत अच्छे से संभाल लिया. वह सुबह दोनों बच्चों को स्कूल भेजता और दोपहर उन्हें लेने जाता. इस बीच वह अपना मार्केटिंग का काम भी कर लेता. इस से उस की अच्छीखासी कमाई भी होने लगी थी. शाम को दोनों बच्चों को घुमाने भी ले जाता. अनु कालेज से थकीहारी घर आती तो उस से प्यार से बात करता और उस की इच्छा का मान रखता. दोनों को समय मिलता तो वे इधरउधर घूमने भी चले जाते.

 

एक दिन सुधा का फोन आया. वह बहुत घबराई हुई थी, ‘‘अनु, तुम्हारे पापा की तबीयत बहुत खराब हो गई है. तुम तुरंत यहां आ जाओ.’’

 

‘‘मम्मी, मैं वहां आ कर क्या करूंगी? दिल्ली में बहुत अच्छे डाक्टर हैं. तुम प्लीज पापा को ले कर तुरंत यहां आ जाओ.’’

 

मरता क्या न करता. ऐसी हालत में शर्माजी को दिखाने के लिए दिल्ली लाना पड़ा. अनु ने साफ कह दिया था कि मम्मीपापा मेरे ही साथ आ कर रुकेंगे. मजबूर हो कर सुधा को वहीं रुकना पड़ा. पापाजी की हालत ऐसी न थी कि वह अकेले भागदौड़ कर सकते. तुषार एक बेटे से भी बढ़ कर उन की सेवा में लगा रहा. वह सुबहसवेरे उन के साथ डाक्टर के पास जाता. दिनभर वह उन की हर जरूरत का खयाल रखता और साथ के साथ अपना औनलाइन मार्केटिंग का काम भी निबटा लेता.

 

 

तुषार की देखभाल और भागदौड़ का नतीजा था कि पापाजी की हालत में जल्दी सुधार हो गया था. इस दौरान सुधा घर पर रह कर बच्चों की देखभाल कर लेती. तुषार दिनभर पापाजी के साथ रह कर जब घर लौटता तो सब से पहले रिया को होमवर्क करवाता. ऐसी विषम परिस्थिति में भी उस ने अनु पर पापाजी की तबीयत की जरा सी भी जिम्मेदारी नहीं डाली.

 

पहली बार सुधा को एहसास हुआ कि तुषार के रूप में उन्हें दामाद नहीं एक हीरा मिला है जिस की पहचान अनु को बहुत पहले हो गई थी. घर चलाने की उन की रूढि़वादी सोच को तुषार ने तारतार कर दिया था. तुषार का अपने परिवार के प्रति समर्पण किसी स्त्री से भी बढ़ कर था. यहां पर स्त्रीपुरुष का कहीं कोई भेद न था. उन के परिवार की गाड़ी बहुत ही अच्छी तरह से प्यार से सरोबार हो आगे बढ़ रही थी.

 

 

अनु और तुषार अपनी जिम्मेदारियां  बखूबी निभा रहे थे. अनु घर से बाहर निकल नौकरी कर रही थी और तुषार घर की जिम्मेदारियां निभाते हुए अपना मार्केटिंग का काम भी कर रहा था? जिस से उस की अच्छीखासी कमाई भी हो रही थी. तुषार के मम्मीपापा यह बात पहले से जानते थे कि उन्हें अपने बेटे से कोई शिकायत नहीं थी.

 

यह सब देख कर उन्हें अब अनु के फैसले पर कोई आपत्ति नहीं थी. उन की समझ में आ गया था कि दुनिया में रुतबा बहुत माने रखता है लेकिन इस से बढ़ कर घर की सुखशांति और पतिपत्नी के बीच की समझदारी होती है. घर में कितना भी पैसा आ जाए और वहां शांति न हो तो सब बेकार है.

 

सुधा के मम्मीपापा को पहली बार परिवार के प्रति समर्पण और आत्मविश्वास से भरे तुषार के सामने अपनी रूढि़वादी सोच बहुत तुच्छ लगी. तुषार की नई पहल पर अब उन्हें भी बहुत गर्व हो रहा था. अनु की हंसतीमुसकराती गृहस्थी देख कर उस के मम्मीपापा बहुत खुश थे

Modern Story : बौस और वो नई लड़की

इस मल्टीनैशनल कंपनी पर यह दूसरी चोट है. इस से पहले भी एक बार यह कंपनी बिखर सी चुकी है. उस समय कंपनी की एक खूबसूरत कामगार स्नेहा ने अपने बौस पर आरोप लगाया था कि वे कई सालों से उस का यौन शोषण करते आ रहे हैं. उस के साथ सोने के लिए जबरदस्ती करते आ रहे हैं और यह सब बिना शादी की बात किए.

ऐसा नहीं था कि स्नेहा केवल खूबसूरत ही थी, काबिल नहीं. उस ने बीटैक के बाद एमटैक कर रखा था और वह अपने काम में भी माहिर थी. वह बहुत ही शोख, खुशमिजाज और बेबाक थी. उस ने अपनी कड़ी मेहनत से कंपनी को केवल देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी कामयाबी दिलवाई थी.

इस तरह स्नेहा खुद भी तरक्की करती गई थी. उस का पैकेज भी दिनोंदिन मोटा होता जा रहा था. वह बहुत खुश थी. चिडि़या की तरह हरदम चहचहाती रहती थी. उस के आगे अच्छेअच्छे टिक नहीं पाते थे.

पर अचानक स्नेहा बहुत उदास रहने लगी थी. इतनी उदास कि उस से अब छोटेछोटे टारगेट भी पूरे नहीं होते थे.

इसी डिप्रैशन में स्नेहा ने यह कदम उठाया था. वह शायद यह कदम उठाती नहीं, पर एक लड़की सबकुछ बरदाश्त कर सकती है, लेकिन अपने प्यार में साझेदारी कभी नहीं.

जी हां, स्नेहा की कंपनी में वैसे तो तमाम खूबसूरत लड़कियां थीं, पर हाल ही में एक नई भरती हुई थी. वह अच्छी पढ़ीलिखी और ट्रेंड लड़की थी. साथ ही, वह बहुत खूबसूरत भी थी. उस ने खूबसूरती और आकर्षण में स्नेहा को बहुत पीछे छोड़ दिया था.

इसी के चलते वह लड़की बौस की खास हो गई थी. बौस दिनरात उसे आगेपीछे लगाए रहते थे. स्नेहा यह सब देख कर कुढ़ रही थी. पलपल उस का खून जल रहा था.

आखिरकार स्नेहा ने एतराज किया, ‘‘सर, यह सब ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या… क्या ठीक नहीं है?’’ बौस ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘आप अपना वादा भूल बैठे हैं.’’

‘‘कौन सा वादा?’’

‘‘मुझ से शादी करने का…’’

‘‘पागल हो गई हो तुम… मैं ने तुम से ऐसा वादा कब किया…? आजकल तुम बहुत बहकीबहकी बातें कर रही हो.’’

‘‘मैं बहक गई हूं या आप? दिनरात उस के साथ रंगरलियां मनाते रहते…’’

बौस ने अपना तेवर बदला, ‘‘देखो स्नेहा, मैं तुम से आज भी उतनी ही मुहब्बत करता

हूं जितनी कल करता था… इतनी छोटीछोटी बातों पर ध्यान

मत दो… तुम कहां से कहां पहुंच

गई हो. अच्छा पैकेज मिल रहा है तुम्हें.’’

‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, अपनी मेहनत से हूं.’’

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‘‘यही तो मैं कह रहा हूं… स्नेहा, तुम समझने की कोशिश करो… मैं किस से मिल रहा हूं… क्या कर रहा हूं, क्या नहीं, इस पर ध्यान मत दो… मैं जोकुछ भी करता हूं वह सब कंपनी की भलाई के लिए करता हूं… तुम्हारी तरक्की में कोई बाधा आए तो मुझ से शिकायत करो… खुद भी जिंदगी का मजा लो और दूसरों को भी लेने दो.’’

पर स्नेहा नहीं मानी. उस ने साफतौर पर बौस से कह दिया, ‘‘मुझे कुछ नहीं पता… मैं बस यही चाहती हूं कि आप वर्षा को अपने करीब न आने दें.’’

‘‘स्नेहा, तुम्हारी समझ पर मुझे अफसोस हो रहा है. तुम एक मौडर्न लड़की हो, अपने पैरों पर खड़ी हो. तुम्हें इस तरह की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए.’’

‘‘आप मुझे 3 बार हिदायत दे चुके हैं कि मैं इन छोटीछोटी बातों पर ध्यान न दूं… मेरे लिए यह छोटी बात नहीं है… आप उस वर्षा को इतनी अहमियत न दें, नहीं तो…

‘‘नहीं तो क्या…?’’

‘‘नहीं तो मैं चीखचीख कर कहूंगी कि आप पिछले कई सालों से मेरी बोटीबोटी नोचते रहे हो…’’

बौस अपना सब्र खो बैठे, ‘‘जाओ, जो करना चाहती हो करो… चीखोचिल्लाओ, मीडिया को बुलाओ.’’

स्नेहा ने ऐसा ही किया. सुबह अखबार के पन्ने स्नेहा के बौस की करतूतों से रंगे पड़े थे. टैलीविजन चैनल मसाला लगालगा कर कवरेज को परोस रहे थे.

यह मामला बहुत आगे तक गया. कोर्टकचहरी से होता हुआ नारी संगठनों तक. इसी बीच कुछ ऐसा हुआ कि सभी सकते में आ गए. वह यह कि वर्षा का खून हो गया. वर्षा का खून क्यों हुआ? किस ने कराया? यह राज, राज ही रहा. हां, कानाफूसी होती रही कि वर्षा पेट से थी और यह बच्चा बौस का नहीं, कंपनी के बड़े मालिक का था.

इस सारे मामले से उबरने में कंपनी को एड़ीचोटी एक करनी पड़ी. किसी तरह स्नेहा शांत हुई. हां, स्नेहा के बौस की बरखास्तगी पहले ही हो चुकी थी.

कंपनी ने राहत की सांस ली. उसने एक नोटीफिकेशन जारी किया कि कंपनी में काम कर रही सारी लड़कियां और औरतें जींसटौप जैसे मौडर्न कपड़े न पहन कर आएं.

कंपनी के नोटीफिकेशन में मर्दों के लिए भी हिदायतें थीं. उन्हें भी मौडर्न कपड़े पहनने से गुरेज करने को कहा गया. जींसपैंट और टाइट टीशर्ट पहनने की मनाही की गई.

इन निर्देशों का पालन भी हुआ, फिर भी मर्दऔरतों के बीच पनप रहे प्यार के किस्सों की भनक ऊपर तक पहुंच गई.

एक बार फिर एक अजीबोगरीब फैसला लिया गया. वह यह कि धीरेधीरे कंपनी से लेडीज स्टाफ को हटाया जाने लगा. गुपचुप तरीके से 1-2 कर के जबतब उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा. किसीकिसी को कहीं और शिफ्ट किया जाने लगा.

दूसरी तरफ लड़कियों की जगह कंपनी में लड़कों की बहाली की जाने लगी. इस का एक अच्छा नतीजा यह रहा कि इस कंपनी में तमाम बेरोजगार लड़कों की बहाली हो गई.

इस कंपनी की देखादेखी दूसरी मल्टीनैशनल कंपनियों ने भी यही कदम उठाया. इस तरह देखते ही देखते नौजवान बेरोजगारों की तादाद कम होने लगी. उन्हें अच्छा इनसैंटिव मिलने लगा. बेरोजगारों के बेरौनक चेहरों पर रौनक आने लगी.

पहले इस कंपनी की किसी ब्रांच में जाते तो रिसैप्शन पर मुसकराती हुई, लुभाती हुई, आप का स्वागत करती हुई लड़कियां ही मिलती थीं. उन के जनाना सैंट और मेकअप से रोमरोम में सिहरन पैदा हो जाती थी. नजर दौड़ाते तो चारों तरफ लेडीज चेहरे ही नजर आते. कुछ कंप्यूटर और लैपटौप से चिपके, कुछ इधरउधर आतेजाते.

पर अब मामला उलटा था. अब रिसैप्शन पर मुसकराते हुए नौजवानों से सामना होता. ऐसेऐसे नौजवान जिन्हें देख कर लोग दंग रह जाते. कुछ तगड़े, कुछ सींक से पतले. कुछ के लंबेलंबे बाल बिलकुल लड़कियों जैसे और कुछ के बहुत ही छोटेछोटे, बेतरतीब बिखरे हुए.

इन नौजवानों की कड़ी मेहनत और हुनर से अब यह कंपनी अपने पिछले गम भुला कर धीरेधीरे तरक्की के रास्ते पर थी. नौजवानों ने दिनरात एक कर के, सुबह

10 बजे से ले कर रात 10 बजे तक कंप्यूटर में घुसघुस कर योजनाएं बनाबना कर और हवाईजहाज से उड़ानें भरभर कर एक बार फिर कंपनी में जान डाल दी थी.

इसी बीच एक बार फिर कंपनी को दूसरी चोट लगी. कंपनी के एक नौजवान ने अपने बौस पर आरोप लगाया कि वे पिछले 2 सालों से उस का यौन शोषण करते आ रहे हैं.

उस नौजवान के बौस भी खुल कर सामने आ गए. वे कहने लगे, ‘‘हां, हम दोनों के बीच ऐसा होता रहा है… पर यह सब हमारी रजामंदी से होता रहा?है.’’

बौस ने उस नौजवान को बुला कर समझाया भी, ‘‘यह कैसी नादानी है?’’

‘‘नादानी… नादानी तो आप कर रहे हैं सर.’’

‘‘मैं?’’

‘‘हां, और कौन? आप अपना वादा भूल रहे हैं.’’

‘‘कैसा वादा?’’

‘‘मेरे साथ जीनेमरने का… मुझ से शादी करने का.’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या?’’

‘‘दिमाग तो आप का खराब हो गया है, जो आप मुझ से नहीं, एक लड़की से शादी करने जा रहे हैं.’’

 

Funny Story : रिटायरमैंट के क्विक लौस

मेरे रिटायरमैंट का दिन नजदीक आते ही मेरे आसपास के लोग मेरा मन बहलाने के लिए मुझे सपने दिखाते रहे कि रिटायर होने के बाद जो मजा है, वह सरकारी नौकरी में रहते नहीं. लेकिन रिटायरमैंट के बाद मेरे जो क्विक लौस हुए उन्हें मैं ही जानता हूं.

रिटायर होने के 4 दिनों बाद ही पता चल गया कि रिटायर होने के कितने क्विक लौस हैं. लौंग टर्म लौस तो धीरेधीरे सामने आएंगे. आह रे रिटायरी. बीते सुख तो कम्बख्त औफिस में ही छूट गए रे भैये. रिटायरमैंट के बाद के सब्जबाग दिखाने वालो, हे मेरे परमादरणियो, मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम्हें कभी समय पर पैंशन न मिले.

बंधुओ, घर के कामों से न मैं पहले डरता था, न अब डरता हूं. इन्हीं कम्बख्त घर के कामों के कारण ही तो हर रोज लेट हो जाने के बाद अगले दिन समय पर औफिस जाने की कसम खा कर भी रिटायर होने तक समय पर औफिस न पहुंचा.

वैसे मु झे इस बात पर पूरा संतोष है कि मैं ने सरकारी नौकरी में रहते घर के कामों को औफिस के कामों से अधिक प्राथमिकता दी, इन की, उन की, सब की तरह. औफिस के कामों का क्या? वे तो होते ही रहते हैं. आज नहीं तो कल. कल नहीं तो परसों. परसों नहीं तो चौथे. और जो ज्यादा ही हुआ तो अपना काम सरका दिया किसी दूसरे की ओर. पर घर के काम तो भाईसाहब आप को ही करने होते हैं, अपने हिस्से के भी, अपनी बीवी के हिस्से के भी घर में शांति रखनी हो तो. वरना, महाभारत के लिए कुरुक्षेत्र ढूंढ़ने की कतई जरूरत नहीं.

दूसरी ओर, जोजो औफिस के कामों को कम घर के कामों को अधिक प्राथमिकता देते हैं, उन का घर नरक होते हुए भी स्वर्ग होता है. और जो औफिस के कामों को अधिक प्राथमिकता देते हैं और घर के कामों से हाथ चुराते हैं वे रिटायरमैंट के बाद तो छोडि़ए, रिटायर होने से पहले ही स्वर्ग जैसे औफिस में रहने के बाद भी नरक ही भोगते हैं.

 

जौब लगने से ले कर रिटायरमैंट तक लेट औफिस जाने, जाने तो जाने, न जाने तो न जाने का, बिन छुट्टी लिए औफिस से जल्दी घर आने का मु झे तनिक भी मलाल नहीं क्योंकि मैं उस देश का वासी हूं जहां जल्दी तो सब को रहती है, पर समय पर कोई कहीं भी नहीं पहुंचता.

तो मित्रो, अब मैं फील कर रहा हूं कि रिटायरमैंट के बाद मेरा सब से बड़ा क्विक लौस जो हुआ है, वह यह है कि अब मैं सरकारी पैसे पर निजी मस्ती करने नहीं जा सकूंगा. सरकारी नौकरी में रहते सरकार के पैसों पर घूमने के आप के पास हजारों बहाने होते हैं. न भी हों तो भी किसी भी बहाने घूमने की अति आवश्यक जरूरत बता बहाने बना लिए जाते हैं. बस, आप के पास  झूठा इनोवेटिव दिमाग होना चाहिए.

ऐसा करने से सरकारी कामों में गतिशीलता बनी रहती है. बाहर के लोगों से संपर्क बढ़ते हैं जो रिटायरमैंट से पहले और रिटायरमैंट के बाद बड़े काम आते हैं. वैसे भी, जो मैं ने रिटायरमैंट तक फील किया, वह यह कि सरकारी नौकरी मेलमिलाप के सिवा और कुछ भी नहीं, काम तो जाए भाड़ में.

जब हम अंगरेजों के रहते हुए भी सरकारी काम का बहिष्कार सीने पर गोली खाने के बाद कर सकते हैं तो भाईसाहब, अब तो हम आजाद हैं, आजाद. और आजाद भी ऐसे कि हमारी आजादी हम सब से कुछ करवा सकती है पर, औफिस में काम कदापि नहीं करवा सकती. हम और तो सब कुछ कर सकते हैं, पर औफिस में रह कर औफिस का काम नहीं कर सकते, तो बस, नहीं कर सकते. जिस में दम हो, करवा कर देख ले. चौथे दिन अपनेआप ही काम करना न भूल जाए तो रिटायरमैंट के बाद उस का जूता मेरा सिर.

सच कहूं तो अपनी जेब से पैसे दे कर आज तक मैं शौचालय भी नहीं गया था. शौचालय जाता तो उस का 5 के बदले 50 रुपए का बिल ले औफिस आ कर वापस ले लेता. कई बार तो मैं ने ऐसा भी किया कि शौच खुले में कर दिया और शौचालय वाले से बिल ले उसे सगर्व औफिस में प्रोड्यूस कर रीइंबर्स करवा लिया. अब मैं सच बोल कर अपना मन हलका कर लेना चाहता हूं. सो, जो शौचालय के बाहर जानपहचान का निकल आता, उस से अलतेचलते यों ही 50 रुपए का बिल ले लेता. शौच के जाली बिल के 10 रुपए निकालने वाला खा लेता, 40 अपुन रख लेते अदब से.

दूसरा क्विक लौस जो मैं फील कर रहा हूं वह यह कि घर में अब सारा दिन इस भीषण गरमी में पंखा पूरी स्पीड में चलाना पड़ रहा है. पड़ेगा ही, अपने मीटर के साथ. औफिस में ऐसीऐसी गंदी आदतें पड़ गई थीं कि अब पता चल रहा है कि वे गंदी नहीं, बहुत गंदी आदतें थीं. औफिस में कई बार तो हीटर और पंखा तक एकसाथ चला देता था. पर अब 2 दिन में ही घर के पंखे को औन करने में भी दम निकल रहा है. अभी से ही यह हाल है तो सर्दी में सूरज ही जाने, हीटर कैसे लगा पाऊंगा?

 

रिटायरमैंट का एक और क्विक लौस जो मैं फील कर रहा हूं वह यह भी है कि औफिस में तो जिसे जो मन में आता था, बक देता था. बेचारे प्यून टेबल साफ होने के बाद भी मेरे गालियां देने पर साफ करते रहते थे. इतना साफ कि हर महीने टेबल का माइका नया लगवाना पड़ता था. इस बहाने लाख पगार लेने वाले के ऊपर या नीचे कहीं से भी 2-4 सौ और बन जाते थे. पर अब घर में सब मु झ पर बकते रहते हैं. जबकि मु झे बेवजह अपने पर बकना तक पसंद नहीं.

रिटायरमैंट का एक और क्विक लौस…कल तक जो कुत्ता मेरे घर से औफिस जाने और औफिस से घर आने पर मेरे तलवे चाटता था, आज मु झे उसी के तलवे चाटने पड़ रहे हैं. जिस बंदे ने औफिस में सब को उंगलियों पर नचाया, आज वही घर, गली के गधे से गधे की उंगलियों पर नाचने को विवश है.

कुल मिला कर, जमा के नाम पर कुछ नहीं, सब घटघटा कर ही अपनी हालत वह हो गई है कि… अपने रिटायरमैंट के कगार पर बैठे मित्रों से सारे सच कहना चाहता हूं पर इस बात से डरता हूं कि कल को कहीं वे रिटायर होने के डर के बदले एक्सटैंशन की टैंशन ले कर वैसे ही रिटायर न हो जाएं.

Bjp freebie : लाडली बहन योजना क्‍या भाजपा की रेवड़ी नहीं

फ्री की रेवडि़यां आजकल भारतीय जनता पार्टी और उस के नेता नरेंद्र मोदी की खासा पसंद बनी हुई हैं जिन्हें वे बारबार दोहराते रहते हैं. फ्री चिकित्सा, फ्री बिजली, फ्री बस यात्रा के लालच भारतीय जनता पार्टी की घमासान धार्मिक दानपुण्य की सामाजिक मुहिम का बहुत सही जवाब हैं. भाजपा पौराणिकता वाले सामाजिक गठन पर टिकी है जिस में राज्य अगर कुछ देता है तो सिर्फ ऋषिमुनियों को देता है. पौराणिक गाथाएं उन्हीं राजाओं के गुणगान से भरी हैं जिन्होंने यज्ञ कराए और फिर अंत में ऋषियों को ढेर सारा धन, अनाज, सैकड़ों गाएं, दासियां दीं.

 

केंद्र सरकार लगातार ऋषियोंमुनियों के लिए नएनए तीर्थ बना रही है. उन तीर्थों तक पहुंचाने के लिए हाईवे बना रही है, हवाई अड्डे बना रही है. नदियों के किनारे धार्मिक व्यापार के लिए घाट बना रही है जहां भक्तों से दान कराया जा सके.

मुफ्त में बिजली देना, मुफ्त में चिकित्सा देना, मुफ्त में शिक्षा देना इस सरकार का उद्देश्य है ही नहीं क्योंकि यह कहीं से हिंदू पौराणिक सोच का हिस्सा नहीं है. मुफ्त पाने वाले लोग हमारे यहां राक्षस प्रवृत्ति के माने गए हैं. यह सोच कि सरकार का काम जनता के लिए कुछ सुविधाएं जुटाना होता है, भारतीय जनता के लिए एक मजबूरी है. भाजपा की केंद्र सरकार व इसी पार्टी की राज्य सरकारें भी जनता को खुश करने के लिए अब कुछ देने को मजबूर हैं.

 

कर्नाटक में औरतों को मुफ्त बस सेवा, दिल्ली में मुफ्त बिजली व चिकित्सा आदि गैरभाजपा सरकारों ने शुरू की तो भारतीय जनता पार्टी को भी मन मार कर करना पड़ा पर यह नरेंद्र मोदी को हमेशा खलता रहता है और बीचबीच में वे मुफ्त की रेवडि़यां कह कर इन का मजाक उड़ाते रहते हैं. मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की लाड़ली बहना कार्यक्रम ऐसे ही हैं.

 

दुनिया के बहुत से अमीर देशों ने यह फार्मूला अपनाया है कि अमीरों को काम करने की पूरी छूट हो, उन के लिए सुविधाएं हों, उन के लिए सड़कों, हवाई अड्डों का जाल बिछाओ, उन्हें भरपूर कमाने दो ताकि देशों की सरकारें उन के मुनाफे से टैक्स ले सकें और उस टैक्स से गरीबों, आम किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों को मुफ्त में सेवाएं दे सकें. अर्थव्यवस्था का यह फार्मूला अरसे से सफल है क्योंकि अमीर अपनी आदत के अनुसार कमाना जानते हैं पर टैक्स देने के अलावा जनता के लिए वे खर्च नहीं कर सकते.

 

18वीं सदी के बाद धर्म पर बहुत कम देश खर्च कर रहे हैं. जनता पर खर्च कर रहे हैं. भारत सरकार इस का एक बड़ा अपवाद है. इसे सैकड़ों मंदिरों, आश्रमों, आयुर्वेद शास्त्र की नकली शिक्षा देने व कुंभों में पैसा बरबाद करने से कोई दिक्कत नहीं है. जनता को सीधे कुछ दिया जाए, वह रेवड़ी है, खाली बैठे पुजारियों के लिए मंदिर बनाए जाएं, वह जनकल्याण है.

 

Donald Trump : अमेरिका में ट्रंप सरकार का बनना, कितना सही कितना गलत

राष्ट्रपति और कांग्रेस के दोनों सदनों (सीनेट एवं हाउस औफ रिप्रेजेन्टेटिव्स) में मिले बहुमत- ने उन्हें एक खतरनाक डिक्टेटर बनने का मौका दे दिया है.  अमेरिका ग्रेट अगेन और बाहरी लोगों के रोजगार के मौकों की तलाश में गैरकानूनी तौर पर अमेरिका में घुसने जैसे सतही मुद्दों पर डोनाल्ड ट्रंप को मिली जीत असल में कैथोलिक व इवेंजेलिस्ट चर्चों की जीत है जिन पर गोरे अमीरों का कब्जा है.

 

200 सालों से दुनियाभर में लोकतंत्र व व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं के लिए लड़ रहे अमेरिका ने दुनिया का नेतृत्व छोड़ कर अपने गोरे संपन्न नागरिकों के लिए एक स्वर्ग सा बनाने का फैसला लिया है जिसे दुनिया के दूसरे कोनों में क्या हो रहा है, इस से तब ही सरोकार होगा जब उस में उस का मुनाफा होता दिखेगा.

 

एक नेता की जगह एक लंपट, सैक्स आरोपों से घिरे, फितूरों में भरोसा करने वाले, लोकतंत्र के बहाने पैसा कमाने वाले नेता को चुन कर अमेरिकावासियों ने दुनिया के देशों के नेताओं को यह सिखा सा दिया है कि जनहित की नहीं, स्वहित की बात ही लोकतंत्र का असल मूल मंत्र है. लोकतंत्र पर पड़ने वाली काली स्याही अमेरिका की जनता ने खुद लगाई है और दुनियाभर के लोकतांत्रिक देश अब भयभीत हैं जबकि कट्टरपंथी नेता/शासक मन ही मन खुश हैं. अब अमेरिका की लोकतांत्रिक मूल्यों पर उठने वाली आवाज 4 सालों के लिए तो धीमी हो ही गई है, हो सकता है यह हमेशा के लिए बंद भी हो जाए.

 

इतिहास गवाह है कि कितनी ही बार बड़े समाज एक गलत शासक के कारण संकट में पड़े. हमारे अपने ज्ञात-लिखित इतिहास के अनुसार, मुगल शासक औरंगजेब की कट्टरता ने मुगल वंश को ही समाप्त नहीं कर दिया बल्कि पूरे देश को अराजकता में ?ांक भी दिया जिस का लाभ विदेशियों ने जम कर उठाया.

 

उस के बाद मराठाओं ने शिवाजी के नेतृत्व में कुछ सही राज की स्थापना की लेकिन पेशवाओं के आते ही मराठा राज सामाजिक कहर बन गया और जो थोड़ीबहुत न्याय व व्यवस्था बननी शुरू हुई थी, खत्म हो गई. मुट्ठीभर विदेशियों ने बचेखुचे मुगल साम्राज्य और मराठा साम्राज्य को आसानी से हरा कर देश पर पूरा कब्जा कर लिया.

 

यह अमेरिका में हो सकता है क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप का खब्तीपन अमेरिकियों की रगरग में घुस चुका है. डोनाल्ड ट्रंप ने फौक्स टीवी और एक्स (पहले ट्विटर) जैसे प्रचार साधनों का भरपूर इस्तेमाल किया जिन के मालिक, मैनेजर, शेयरहोल्डर मुख्यतया चर्च जाने वाले गोरे हैं और वे गोरे हैं जो कट्टरपंथियों का राज नई उभरती टैक्नोलौजी के सहारे चलाना जानते हैं और चाहते भी हैं.

 

अमेरिकी टैक्नोलौजी डोनाल्ड ट्रंप के राज में फलेगीफूलेगी क्योंकि अब वह हर बात की पूरी, हो सका तो ज्यादा भी, कीमत वसूलेगी. जैसे गूगल ने पहले मुफ्त का लौलीपौप दे कर भारत के पोस्टऔफिसों को खत्म सा कर दिया और अब अपने दाम आसमान छूने जैसे बढ़ा दिए हैं वैसा ही अब अमेरिका में होगा.

 

कालों, लेटिनों, भारतीय मूल के वोटरों ने खासी संख्या में डोनाल्ड ट्रंप को वोट दिया है क्योंकि गरीब, कमजोर हमेशा ही हाकिमों के मानसिक व शारीरिक दोनों तरह के गुलाम रहे हैं. अपनेआप में ये धार्मिक कट्टर लोग अमेरिका के विशेष गुण, उस के खुलेपन, के कारण अमेरिका में आ कर बसे थे, अब वह खत्म होने लगे तो आश्चर्य नहीं.

 

डोनाल्ड ट्रंप, जो व्यक्तिगत तौर पर औरतों को खिलौना व सैक्स औब्जैक्ट समझते हैं, अपना यह विशेष अवगुण वे पूरे अमेरिका में फैला देंगे और अमेरिकी औरतें कहीं चर्च के बहाने, कहीं पैसे की खातिर, कहीं डर की वजह से ट्रंप समर्थक की बिनखरीदी गुलाम बन कर रह जाएंगी. हो सकता है कि डोनाल्ड ट्रंप की दूसरी जीत के बाद अमेरिका की सेना और ताकतवर हो जाए क्योंकि अमेरिकी मूलतया कर्मठ व लड़ाकू हैं. वहां आम लोगों में हरेक के पास एक से ज्यादा बंदूकें हैं और डोनाल्ड ट्रंप के मुख्य समर्थकों में पावरफुल अमेरिकी राइफल एसोसिएशन भी है.

 

वे बड़े हथियार बनाएंगे पर दुनिया पर धौंस जमाने के लिए, लोकतंत्रों की रक्षा के लिए नहीं. दुनिया की गरीबी, भेदभाव, सरकारों के अपनी जनता पर अत्याचारों के खिलाफ अमेरिका सेना अब आगे नहीं आएगी, वह अमेरिकियों के हितों, अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए आगे आएगी.

 

डोनाल्ड ट्रंप की जीत ने अमेरिकी जनता पर पड़ी वैचारिक उदारता की परत को फाड़ दिया है. ‘टर्मिनेटर’ की ह्यूमन स्किन के नीचे बेजान मशीन है जिस में भावनाएं नहीं और जो सिर्फ अपनी खातिर काम करती है. अमेरिकी जनता ने ग्रेट अमेरिका को विदा कर ‘ग्रेट अमेरिकी रुलर’ को स्थापित किया है.

 

Women Health Problem : ओवरऐक्टिव ब्लैडर और मेनोपौज

बारबार पेशाब करने को मजबूर होना ओवरऐक्टिव ब्लैडर  होने का संकेत होता है. यह समस्या पुरुष और महिलाओं? दोनों को हो सकती है. महिलाओं में तो ओएबी और मेनोपौज का कुछ संबंध भी होता है.

 

ओवरऐक्टिव ब्लैडर  यानी ओएबी एक क्रौनिक समस्या है. इस के चलते बारबार पेशाब करना पड़ता है. इसे थोड़ी देर भी रोक पाना बहुत ही मुश्किल होता है. अकसर वाशरूम जाने के रास्ते में ही यूरिन लीक हो जाता है. यह समस्या पुरुष और महिला दोनों को हो सकती है. महिलाओं में मेनोपौज और ओएबी का परस्पर कुछ संबंध भी है.

 

महिलाओं के अंतिम मेन्सुरल साइकिल को मेनोपौज कहते हैं. किसी महिला को लगातार 12 महीनों तक पीरियड न हुआ हो तो डाक्टर इसे निश्चित तौर पर मेनोपौज कहते हैं. इस बीच के समय को पेरीमेनोपौज कहते हैं. मेनोपौज का मतलब आप के ‘मासिक पीरियड’ का अंत. पेरीमेनोपौज और मेनोपौज के दौरान शरीर में हार्मोनल बदलाव होते हैं.

 

मेनोपौज के सिम्प्टम्स

  •     पीरियड में बदलाव जो आप के सामान्य पीरियड से भिन्न हो.

 

  •  हौट फ्लैशेज यानी शरीर के ऊपरी भाग में अचानक गरमी महसूस होना.

 

  •   नींद में समस्या.

 

  •  मूड चेंज.

 

  •    सैक्स के प्रति रुचि में बदलाव.

 

  • योनि में बदलाव.

 

  •   ब्लैडर कंट्रोल में बदलाव, यह बदलाव ओएबी (ओवरऐक्टिव ब्लैडर का संकेत हो सकता है.)

 

ओएबी के सिम्प्टम्स

 

बारबार यूरिन करना, अचानक यूरिन करने की इच्छा, ब्लैडर कंट्रोल में कठिनाई और वाशरूम तक जाते समय कुछ मात्रा में यूरिन का लीक होना, रात में दो या दो से ज्यादा बार यूरिन करना.

 

ओएबी से होने वाली परेशानियां

 

ओएबी के चलते क्वालिटी औफ लाइफ, सैक्स एक्टिविटी, दैनिक कार्यप्रणाली और प्रोडक्टिविटी, सामाजिक जीवन, थकावट, डिप्रैशन, डिहाइड्रेशन, इन्फैक्शन और दुर्घटना यानी वाशरूम जाने की जल्दबाजी में गिरने की समस्या हो सकती है.

 

मेनोपौज और ब्लैडर कंट्रोल : एस्ट्रोजन का रिश्ता

 

मेनोपौज के कारण हुआ ओएबी स्त्रियों के मुख्य सैक्स हार्मोन एस्ट्रोजन में हुए बदलाव के चलते हो सकता है. एस्ट्रोजन सिर्फ सैक्स हैल्थ और प्रजनन के लिए ही जरूरी नहीं है, यह शरीर के अन्य अंगों (पेल्विक मसल, ब्लैडर और मूत्र नली) और टिश्यू हैल्थ के लिए भी जरूरी है. एस्ट्रोजन इन अंगों को मजबूत और फ्लेक्सिबल बनाए रखता है.

 

मेनोपौज में एस्ट्रोजन लैवल में काफी कमी आ जाती है, इसलिए इन अंगों के मसल और टिश्यू कमजोर हो जाते हैं. एस्ट्रोजन लैवल में कमी के चलते यूटीआई की भी संभावना रहती है.

 

ओएबी के अन्य कारण

 

बढ़ती उम्र में पेल्विक एरिया के मसल्स की कमजोरी के चलते भी ओएबी की समस्या हो सकती है. इस के अलावा प्रैग्नैंसी, प्रसव, किसी दुर्घटना से योनि में हुए बदलाव, दवा के साइड इफैक्ट, अत्यधिक कैफीन और अल्कोहल का सेवन भी ओएबी का कारण हो सकते हैं.

 

ओएबी को कैसे मैनेज करें

 

ओएबी में अचानक यूरिन आ रहा महसूस होता है. तब अकसर असंयमिता के चलते वाशरूम तक जातेजाते कुछ बूंदें लीक हो जाती हैं. इसे कुछ हद तक आप खुद मैनेज कर सकते हैं. इसे लाइफस्टाइल में कुछ बदलाव कर और ऐक्सरसाइज द्वारा कंट्रोल किया जा सकता है.

 

कीगल ऐक्सरसाइज : कीगल ऐक्सरसाइज को पेल्विक मसल ऐक्सरसाइज भी कहते हैं. इस का असर 6 से 8 सप्ताह के बाद महसूस होगा.

 

ब्लैडर ट्रेनिंग : इस के लिए जब यूरिन महसूस हो, उसे यथासंभव कुछ देर संयमपूर्वक रोक कर रखें.

 

डबल वौयडिंग : मूत्रत्याग के बाद कुछ मिनट इंतजार कर फिर यूरिन करें, ब्लैडर पूरी तरह खाली हो गया, इसे सुनिश्चित करें.

 

एब्जौर्बेंट पैड : इस पैड को पहनने से आप को बाथरूम तक जाने के लिए पर्याप्त समय मिलेगा और यूरिन के लीक होने की संभावना नहीं रहेगी, साथ ही, कुछ देर रोक कर आप अन्य जरूरी एक्टिविटी कर सकते  हैं.

 

वजन कंट्रोल : सामान्य से ज्यादा वजन के चलते ब्लैडर पर ज्यादा दबाव पड़ता है और यूरिन जल्दीजल्दी आता है, सो शरीर के वजन को नियंत्रित करें.

 

खानपान : कैफीन, अल्कोहल और अन्य कार्बोनेटेड ड्रिंक का सेवन न करें या कम से कम लें.

 

दवा

 

यदि ऐक्सरसाइज और उपरोक्त विधि से ओएबी कंट्रोल नहीं होता है तब डाक्टर की सलाह से दवा लें. इस से ब्लैडर रिलैक्स करेगा और ओएबी सिम्प्टम  में कमी आएगी.

 

एस्ट्रोजन ट्रीटमैंट : मेनोपौज में एस्ट्रोजन की कमी दूर करने के लिए हार्मोन थेरैपी द्वारा इसे ठीक कर सकते हैं. हालांकि कुछ डाक्टरों का मानना है कि एस्ट्रोजन थेरैपी कोई कारगर तरीका नहीं है फिर भी कुछ महिलाओं का कहना है कि इस से उन्हें लाभ हुआ है.

 

डाइट कंट्रोल और ओएबी : ओएबी में ब्लैडर मसल कमजोर होने के कारण ब्लैडर फुल होने के पहले ही कौन्टैक्ट करने लगता है और बारबार यूरिन आता  है.

 

रात्रि में पानी न पिएं : यथासंभव रात  में पानी की मात्रा कम करें.

 

इन चीजों से परहेज करें

 

कुछ खाद्य पदार्थ खासकर ड्रिंक ब्लैडर, यूरेथ्रा और पेल्विक मसल को इरिटेट कर ओवरऐक्टिव ब्लैडर सिम्प्टम को और भी बढ़ा देते हैं.

 

  •    कार्बोनेटेड ड्रिंक्स, स्पोर्ट्स ड्रिंक और बीवरेज.

 

  •   कैफीन यानी चाय और कौफी.

 

  •  चौकलेट

 

  •  अल्कोहल.

 

  •    टमाटर और उस से बने सूप, कैचप और सौस.

 

  •   साइट्रस फल.

 

  •  मसालेदार चीजें, कच्चा प्याज, मधु, चीनी, फ्लेवर और प्रिजर्वेटिव वाले भोजन.

 

अगर आप ग्लूटेन (गेहूं, बार्ले आदि में पाया जाने वाला प्रोटीन) के प्रति संवेदनशील हैं तब ऐसे पदार्थ न खाएं,  जैसे ब्रैड या ब्रैड से बनी चीजें, ब्रेकफास्ट सीरियल, ओट्स आदि. उपरोक्त चीजों का सेवन थोड़ी मात्रा में कभीकभी ही किया जा सकता है.

 

डाक्टर की सलाह कब लें

 

ओएबी के चलते आप की जिंदगी या दैनिक गतिविधियों में बाधा न पड़े, इस के लिए निम्न सिम्प्टम बढ़ने से पहले डाक्टर की सलाह लें-

 

  •   दिन में 8 बार से ज्यादा यूरिन करना.
  •   यूरिन करने के लिए रात में दो या ज्यादा बार रैगुलर उठना पड़े.
  •    यूरिन लीक होना.
  •   ओएबी के चलते आप को अपनी जरूरी दैनिक गतिविधियों से सम?ाता करना पड़ रहा हो आदि.

 

 Interview : FIR, Bhabhi ji Ghar Par Hain और ‘हप्पू की उलटन पलटन’ की निर्माता हैं बिनायफर कोहली

‘एफआईआर’, ‘भाभीजी घर पर हैं’, ‘हप्पू की उलटन पलटन’ जैसे टौप कौमेडी फैमिली शोज की निर्माता बिनायफर कोहली अपने शोज के माध्यम से महिला सशक्तीकरण का संदेश देने में यकीन रखती हैं. वह अपने शोज की महिला किरदारों को गृहणी की जगह वर्किंग और तेजतर्रार दिखाती हैं, ताकि आज की जनरेशन कनैक्ट हो सके.

 

बहुमुखी प्रतिभा की धनी बिनायफर कोहली ने मौडलिंग से कैरियर की शुरुआत की थी. महज 16 साल की उम्र में वे कोरियोग्राफर बन गई थीं. बिनायफर ने बौम्बे डाइंग, मफतलाल, आईडब्ल्यूएस, पोर्श, एस्टी लौडर आदि के लिए भारत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैशन शोज की कोरियोग्राफी व मौडलिंग की. फिर एडवरटाइजिंग एजेंसी का काम संभाला. उस के बाद वे लेखिका, टीवी सीरियल निर्मात्री बनीं.

पिछले 32 वर्षों में अपने पति संजय कोहली के साथ मिल कर ‘एडिट 2 प्रोडक्शन’ के तहत ‘माही वे’, ‘निलांजना’, ‘एफआईआर’, ‘भाभीजी घर पर हैं’, ‘हप्पू की उलटन पलटन’, ‘जीजा जी छत पर हैं’, ‘फैमिली नंबर 1’, ‘में आई कम इन मैडम’ और ‘शादी नंबर वन’ सहित 32 से अधिक सामाजिक एवं कौमेडी टीवी सीरियलों का निर्माण कर चुकीं बिनायफर कोहली की गिनती सर्वश्रेष्ठ लेखिका, निर्माता, कोरियोग्राफर के साथसाथ समाजसेवक के रूप में भी होती है.

रतन टाटा को अपनी प्रेरणास्रोत मानने वाली बिनायफर कोहली मूलतया पारसी हैं, जिन्होंने मौडलिंग के दौरान उस वक्त के मशहूर मौडल व पंजाबी युवक संजय कोहली संग विवाह रचाया था. आज वे एक बेटे व एक बेटी की मां हैं.

बिनायफर के पिता एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ और मां अपने समय की फैशनपरस्त व एलआईसी की गोल्ड मैडलिस्ट थीं. मुंबई में पलीबढ़ी बिनायफर की स्कूली शिक्षा क्राइस्ट चर्च स्कूल और के सी कालेज से पूरी हुई. टीवी इंडस्ट्री में बिनायफर कोहली की पहचान एक कड़क मास्टर लेकिन मुसीबत के वक्त हर किसी की मदद करने वाली टीवी निर्माता के रूप में होती है.

पुलवामा हमले में शहीद हुए महाराष्ट्र के 2 शहीदों के परिवारों को आर्थिक सहायता देने, भुज में आए भूकंप के दौरान 9 मैडिकल टीमें भेजने से ले कर अभिनेता दीपेश भान की सामयिक मौत के बाद दीपेश के 40 लाख रुपए के कर्ज को अपनी पूरी टीम व क्राउड फंडिंग की मदद से चुकता करवाने से ले कर कई तरह से लोगों की मदद बिना किसी शोरशराबा के करती रहती हैं. तभी तो कई तकनीशियन उन के साथ 30 वर्षों से काम कर रहे हैं तो कई कलाकार 20 वर्षों से उन के साथ काम कर रहे हैं.

बिनायफर कोहली अपने सामाजिक व कौमेडी सीरियलों के माध्यम से हमेशा महिला सशक्तीकरण सहित कई संदेश देती आई हैं. उन्हें सीरियल के किसी भी महिला पात्र को शौर्ट्स पहनाना पसंद नहीं.

आप खुद को टीवी सीरियल निर्माता, कोरियोग्राफर या लेखिका में से क्या बेहतरीन मानती हैं? उन से जब यह सवाल पूछा तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं तो तीनों में खुद को बेहतरीन मानती हूं. मैं भारत की लीडिंग कोरियोग्राफर थी. हमारी एडवरटाइजिंग एजेंसी भी थी. मैं और मेरे पति संजय कोहली मिल कर एड भी बनाते थे. मैं स्पष्ट कर दूं कि हमारी प्रोडक्शन कंपनी ‘एडिट 2’ को मेरे पति संजय कोहली हैड करते हैं. हम ने जी टीवी का लौंच इवैंट किया और पहला सीरियल जसपाल भट्टी को ले कर ‘हाय जिंदगी बाय जिंदगी’भी बनाया.

‘‘फिर हम ने सोनी टीवी के लिए ‘फैमिली नंबर वन’ बनाया. कौमेडी में तो संजय को महारत हासिल है. लोग उन्हें ‘किंग औफ कौमेडी’ कहते हैं. टीवी पर 10 अतिलोकप्रिय व बेहतरीन कौमेडी सीरियलों में से 6 सीरियल तो हमारे ही हैं. हमारी कंपनी यानी कि ‘एडिट 2’ का सीरियल ‘एफआईआर’ पूरे 10 साल तक प्रसारित होता रहा. ‘भाभीजी घर पर हैं’ को भी 10 साल हो गए. ‘हप्पू की उलटन पलटन’ 5वें वर्ष में है. ‘मे आई कम इन मैडम’ के 3 सीजन टैलीकास्ट हो चुके हैं. ‘जीजा जी छत पर हैं’ के 2 सीजन टैलीकास्ट हुए. हमारे सीरियल ‘फैमिली नंबर वन’ की गिनती पहले पांच में होती है. हम ने कई सामाजिक सीरियल भी बनाए, जिन्हें पुरस्कृत भी किया गया. मु?ो सामाजिक सीरियल लिखने में महारत हासिल है तो वहीं संजय कोहली को कौमेडी में महारत है तो वे अपनी टीम के साथ कौमेडी सीरियलों पर काम करते हैं. इसलिए मैं अपनेआप को तीनों क्षेत्रों में बेहतरीन मानती हूं.

‘‘हम ने कई नएनए प्रयोग किए. पहले सीरियल के टाइटल में हर कोई सीरियल या एपिसोड के ही कुछ सीन्स को काट कर, उन्हें जोड़ कर उस पर टाइटल चलाते थे. लेकिन सोनी टीवी के लिए जब हम ने पहला सीरियल ‘फैमिली नंबर वन’ बनाया तो हम ने टाइटल के लिए भी कोरियोग्राफ किया. ऐसा काम सब से पहले मैं ने ही किया था. हम ने एक परिवार को नीले और दूसरे परिवार को हरे रंग के कौस्ट्यूम पहना कर डांस कराया. तो वे टाइटल्स एकदम अलग बन गए थे. फिर मैं ने यही काम अपने दूसरे शो ‘मस्ती’ में किया. धीरेधीरे दूसरे निर्माताओं ने हमारी नकल करते हुए टाइटल्स के लिए अलग शूट करना शुरू किया और अब तो सीरियल के टाइटल्स और प्रोमो को फिल्माने के लिए अलग से यूनिट बुलाई जाती है. मैं ने कई सीरियल लिखे. मैं ने एक फिल्म ‘बारिश’ लिखी थी, जिसे ‘स्टार’ ने रिलीज किया था. इस फिल्म को सुखवंत ढड्ढा ने पंजाब में फिल्माया था.’’

कहा जाता है कि आप खुद को मल्टीटास्किंग मानती हैं? यह पूछे जाने पर वे कहती हैं, ‘‘जी. मैं मल्टीटास्कर और वर्कहौलिक हूं. मैं प्रतिदिन 16 से 18 घंटे काम करती हूं और मुझे यह पसंद है. दूसरी बात मेरे पास एक टीम है, जो वास्तव में पुरानी और मजबूत है. इन में से कुछ 32 साल से हमारे साथ हैं, कुछ 20 साल से हैं. इन में से अधिकांश की शुरुआत हमारे साथ हुई. हमारे कैमरामैन राजा दादा मेरे पहले सीरियल से हमारे साथ काम कर रहे हैं. यानी कि 32 वर्षों से हमारे साथ हैं. निर्देशक शशांक बाली ने हमारे स्टार प्लस पर प्रसारित सीरियल ‘शादी नंबर वन’ में बतौर सहायक निर्देशक काम किया था. हम ने उन्हें सीरियल ‘एफआईआर’ में निर्देशक बना दिया. शशांक बाली पहले मशहूर हास्य निर्देशक राजन वागधरे के सहायक थे. समीर कुलकर्णी भी राजन वागधरे के सहायक थे, जिन्होंने ‘फैमिली नंबर वन’ निर्देशित किया था.

‘एफआईआर’ के बाद शशांक बाली तो संजय के छोटे भाई बन चुके हैं. शशांक की सहायक हर्षदा भी हमारे सीरियल निर्देशित करती है. रघुबीर शेखावत ने सब से पहले हमारे लिए ‘फैमिली नंबर वन’ लिखा, अब वे 5 वर्षों से ‘हप्पू की उलटन पलटन’ लिखते हैं. फिर मनोज संतोषी हमारे साथ जुड़े. मनोज संतोषी जैसा कौमेडी लेखक मैं ने टीवी इंडस्ट्री में नहीं देखा. संजय के मुकाबले मैं थोड़ी कड़क हूं. लेकिन मेरा कोई भी तकनीशियन मु?ो रात के एक बजे भी फोन कर सकता है और उस का फोन आते ही मैं तुरंत पहुंचती हूं क्योंकि वह मेरी ‘वर्किंग फैमिली’ है. मेरे आर्ट डायरैक्टर अरूप 30 साल से मेरे साथ हैं. अब तो वे काफी सीनियर आर्ट डायरैक्टर हैं. शशांक का सहायक रित्विक अब हमारा ‘हप्पू की उलटन पलटन’ निर्देशित कर रहा है.

आप ने सामाजिक सीरियलों के मुकाबले कौमेडी सीरियल ज्यादा बनाए. जब एकसाथ दोतीन कौमेडी सीरियल प्रसारित हो रहे होते हैं तो यह कितनी चुनौती होती है? इस सवाल पर उन्होंने बताया, ‘‘जब कई कौमेडी सीरियल एकसाथ प्रसारित होते हैं तो अलगअलग ट्रैक के बारे में सोचना एक चुनौती होती है और कहानी के हिसाब से कुछ समान नहीं होना चाहिए. अलगअलग ट्रैक के बारे में सोचना एक चुनौती बन जाता है.

‘‘कभीकभी आप के पास समान ट्रैक भी हो सकते हैं क्योंकि यदि आप स्वच्छता पर कुछ कर रहे हैं, आप ईर्ष्या पर कुछ कर रहे हैं तो ये समान ट्रैक हो सकते हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि हरकोई एकजैसा ट्रैक बना सकता है, लेकिन जो भी इसे अच्छा बनाएगा, वह देखने लायक के मामले में इसे अच्छी तरह से बेचेगा. साथ ही, प्रत्येक कहानी अलग है और पात्रों का एक अलग सैट है. हम सर्वश्रेष्ठ के लिए प्रयास करते हैं और कुछ सुपर कौमेडी सीरियल बनाते हैं.’’

टीवी इंडस्ट्री में जिस तरह की औरतें दिखाई जा रही हैं उन से आप कितना सहमत हैं? इस मसले पर उन का कहना था, ‘‘फिलहाल तो टीवी में रीयल औरतें ही दिखाई जा रही हैं. आप टीवी में औरत को वकील के रूप में, औरत को ग्रूमिंग क्लासेस चलाने वाली के रूप में, कुछ सिर्फ घर संभालती हैं पर वे अन्याय नहीं सहन करेंगी. मसलन, आप ‘अनुपमा’ को लीजिए. अनुपमा के साथ बहुतकुछ होता रहता है, उसे कई समस्याओं से जू?ाना पड़ता है पर वह उन सभी से लड़ विजयी बन कर आती है.

‘‘उसे देख कर हर औरत रिलेट करती है, कहती है कि हां, ऐसा तो उस के साथ भी हुआ था. अनुपमा में वह क्लासेस शुरू करती है, फिर शेफ की प्रतियोगिता भी जीतती है. मेरे सीरियल में महिला चुनाव लड़ती है और जीतती है. जबकि औरतें घरेलू हैं पर उन के पति उन का हौसला बढ़ाते हैं. जिंदगी में समस्या आने पर एकसाथ मिलबैठ कर हल करते हैं. ‘भाभीजी घर पर हैं’ में अंगूरी की सास हमेशा अंगूरी का पक्ष लेती है. अंगूरी व उस की सास के बीच बहुत अच्छा रिश्ता है. मेरे निजी जीवन में मेरी सास मेरी बहुत अच्छी दोस्त है तो वही हमारे सीरियल में नजर आता है. मेरे एक सीरियल में ससुरबहू के बीच बेहतरीन रिश्ते हैं. अब तो हम सभी सीरियल के माध्यम से दकियानूसी बातों को हटाने की पहल में लगे हुए हैं. अब विज्ञान का जमाना है.

‘‘हमारा ‘भाभीजी घर पर हैं’ और राजन साही का ‘अनुपमा’ ऐसे सीरियल हैं जहां महिलाओं को सकारात्मक तरीके से महिमामंडित किया गया है. यहां तक कि अंगूरी भाभी और अनुपमा जैसी साधारण महिलाओं को भी उन के जीवन में पुरुष अपना खुद का कुछ शुरू करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. भाभीजी विभिन्न चीजें करने का प्रयास करती हैं चाहे वह नृत्य हो या अभिनय और उन्हें हमेशा प्रोत्साहित किया जाता है. ‘भाभीजी घर पर हैं’ और ‘अनुपमा’ ने मानक स्थापित किए हैं और कई लोगों को प्रेरित किया है. लोग अलगअलग चीजों के साथ प्रयोग कर रहे हैं और अपनी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं.

‘‘निजी जीवन में महिलाएं हमारे सीरियलों के इन मजबूत किरदारों से प्रभावित होती हैं और उन्हें अपना रोल मौडल मानती हैं. जब वे टीवी के परदे पर वंचितों को सफल होते और अपने निर्णय स्वयं लेते हुए व विजेता के रूप में आगे आते हुए, अपनी आकांक्षाओं और जो वह चाहते हैं उसे हासिल करने के सपनों को पूरा करते हुए देखती हैं तो वे व दूसरी सभी महिलाएं प्रेरित होती हैं.’’

तो जिन सीरियलों में किचन पौलिटिक्स तथा औरत को औरत की दुश्मन दिखाया जाता है, उस से आप कितना सहमत हैं? इस सवाल पर वे कहती हैं, ‘‘यह सब भी तो हमारे समाज का हिस्सा है. हमारे देश की 70 प्रतिशत जनता गांवों में रहती है. ग्रामीण औरत जब बेटी को जन्म देती है तो उस को कितने ताने ?ोलने पड़ते हैं. सास के अत्याचार, पति के अत्याचार आदि खबरें हम आज भी सुनते रहते हैं. ससुर अलग से फायदा उठाने का प्रयास करता है. मैं ने निजी जीवन में एक महिला को डोनेशन के तौर पर एफडी बना कर दिया तो उस ने कहा, ‘मैडम, आप इसे अपने पास ही रखिए, घर पर ले जाएंगे तो हमारे सासससुर इसे तुरंत बंद करा कर पैसा ले लेंगे.’

‘‘समाज में विधवाओं को इज्जत नहीं मिलती. मैं तो सवाल उठाती हूं कि एक देवी की मूर्ति मंदिर में रख कर पूजा करते हो तो फिर घर में दूसरी देवी को क्यों मारते हो? वैसे अब धीरेधीरे बदलाव आ रहा है. शहरों में और मौडर्न विचारों के लोगों में सासबहू के बीच दोस्ताना संबंध हैं पर बड़े स्तर पर बदलाव तभी आ सकता है, जब पुरुष की मानसिकता में बदलाव आए. पुरुष सत्तात्मक सोच बदले.’’

इन सामाजिक बुराइयों को बदलने के लिए टीवी किस तरह से अपनी भूमिका निभा सकता है? इस पर उन का कहना है, ‘‘हम अपने सीरियलों में महिला किरदारों को सिखाते रहते हैं कि किस तरह दूसरों को अपने पक्ष में करना चाहिए, किस तरह होनहार बनना चाहिए. सीरियल ‘दिया बाती और हम’ में तो नायक ने अपनी पत्नी को पढ़ कर पुलिस औफिसर बनने दिया.

‘‘पिछले 8-10 वर्षों में टीवी इंडस्ट्री में काफी बदलाव आया. वह महिलाओं को उठने और आगे बढ़ने के मौके दे रही है. अब सीरियल बताते हैं कि आप की पत्नी आप की अर्धांगिनी है, वह ऊपर उठेगी तो आप भी ऊपर उठेंगे, बच्चों का भी विकास होगा. हम महानगरों में देखते हैं कि अधिकांश औरतें सुबह 4 बजे उठ कर पानी भरती हैं, फिर टिफिन बनाती हैं, फिर लोकल ट्रेन में लटकलटक कर नौकरी पर जाती हैं, शाम को घर वापस आने पर पहले बच्चों को पढ़ाती हैं, फिर रात्रि का भोजन बनाती हैं. खाना बना, खिला कर फिर बरतन धो कर वे कब सोती हैं, कौन पूछता है पर वे मेहनत कर रही हैं और आगे बढ़ने की जुगत में लगी हुई हैं.

‘‘मुझे नहीं पता कि हिंदुस्तान में कितने मर्द हैं जोकि घर में बरतन धोते हैं. देखिए, लिज्जत पापड़ को एक औरत ने शुरू किया था, आज इस में कितनी औरतें काम कर रही हैं. मेरे पड़ोस में एक औरत है, जोकि सिर्फ काजू की बर्फी बना कर बेचने का काम करती है. एक औरत है, जोकि सिर्फ मोहन थाल बेचती है तो एक भी काम अच्छा करो तो पूरा संसार बदल जाता है.’’

तमाम लोगों का मानना है कि टीवी सीरियल की महिलाएं खलनायिका होती हैं? इस सवाल पर उन्होंने अपना मत यों जाहिर किया, ‘‘मैं टीवी की महिलाओं को खलनायिका नहीं मानती. टीवी पर खलनायक की भूमिका निभाने वाले बहुत सारे खूबसूरत पुरुष हैं. भले ही यह एक उचित नकारात्मक चरित्र न हो, फिर भी उन के पास भूरे रंग के बहुत सारे शेड्स हैं. एक समय था जब महिलाएं प्रतिपक्षी की भूमिका निभाती थीं, लेकिन अब बदलाव आ गया है. टीवी का कंटैंट काफी बदल गया है और लोग ऐसे वास्तविक व प्रासंगिक सीरियल बना रहे हैं. वैसे, अब पुरुषों को भी टीवी पर शक्तिशाली किरदार मिलने लगे हैं, जो पहले नहीं होता था. जैसा कि मैं ने कहा कि कंटैंट में प्रगति हुई है, उसी तरह चरित्ररेखाचित्र भी बदल गए हैं. टीवी पर सिर्फ महिला उन्मुख सीरियल नहीं रहे.’’

अक्तूबर 1992 में सैटेलाइट टीवी चैनल की शुरुआत होने पर सीरियलों की टीआरपी 22 से 32 तक जाती थी, अब यह 3 तक नहीं पहुंच पा रही है. ऐसा क्यों? इस सवाल पर वे बताती हैं, ‘‘अब दर्शकों के पास मनोरंजन की चौइस बढ़ गई है. पहले जीटीवी और सोनी टीवी के अलावा दूरदर्शन व फिल्में थीं. अब मनोरंजन चैनलों की भीड़ है. फिल्में हैं, टीवी हैं, ओटीटी प्लेटफौर्म हैं.

‘‘इतना ही नहीं, अब हर इंसान के हाथ में मोबाइल है, जिस पर वह इंस्टाग्राम रील्स से ले कर यूट्यूब पर ढेर सारा कंटैंट देख रहा है. ऐसे में दर्शकों का बंटना स्वाभाविक है. शुरू में सिर्फ जीटीवी था, फिर सोनी टीवी आया. कुछ समय बाद लोग स्टार प्लस पर केवल ‘सांस’ सीरियल देखने के लिए जाने लगे थे. उस के बाद सहारा, इमेजिन, कलर्स, दंगल सहित कई चैनल आए. इस के अलावा आप अपने पसंदीदा सीरियल को समय मिलने पर कभी भी ओटीटी प्लेटफौर्म पर जा कर देख सकते हैं.

‘‘आज की तारीख में मेरे सीरियल का जो नया एपिसोड रात में 8 या 9 बजे आता है, वह पहले उसी दिन सुबह 6 या 7 बजे ओटीटी प्लेटफौर्म अर्थात वैब पर आ चुका होता है. मतलब, पहले एपिसोड ओटीटी प्लेटफौर्म पर आता है, दिनभर में किसी भी समय लोग उसे देख सकते हैं. उस के बाद रात में चैनल पर आता है. अब मैं अपना पसंदीदा सीरियल सुबह उठ कर ओटीटी प्लेटफौर्म पर देख लेती हूं. ऐसे में चैनल पर सीरियल को व्यूवरशिप कैसे मिलेगी? पहले ऐसा नहीं था.

‘‘पहले चैनल पर हर सीरियल का एक ‘रिपीट रन’ था. पहले पूरा परिवार एक समय में एक ही सीरियल देख पाता था. अब तो एक ही समय में परिवार का हर सदस्य अलगअलग सीरियल या इंस्टाग्राम रील्स वगैरह देख सकता है. अब तो एक ही घर के हर कमरे में टीवी सैट है. हर इंसान के हाथ में मोबाइल फोन है. लेकिन अब तनाव बढ़ गया है. अब हम एकसाथ कई चीजों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं.’’

लेकिन चैनल पर सीरियल का एपिसोड टैलीकास्ट होने से पहले ही ओटीटी प्लेटफौर्म पर उसे स्ट्रीम कर देने से नुकसान तो टीवी इंडस्ट्री को ही हो रहा है? इस पर उन्होंने कहा, ‘‘जी हां, आप सच कह रहे हैं. टीआरपी गई तो चैनल को मिलने वाले एड कम हुए या एड पर मिलने वाली राशि कम हुई. वैसे भी, कोविड के दौरान चैनलों को मिलने वाले एड काफी कम हुए. एड पर मिलने वाली राशि कम हुई. इस से चैनल को काफी नुकसान हुआ.’’        द्य

 

 

 

 

 

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