‘एफआईआर’, ‘भाभीजी घर पर हैं’, ‘हप्पू की उलटन पलटन’ जैसे टौप कौमेडी फैमिली शोज की निर्माता बिनायफर कोहली अपने शोज के माध्यम से महिला सशक्तीकरण का संदेश देने में यकीन रखती हैं. वह अपने शोज की महिला किरदारों को गृहणी की जगह वर्किंग और तेजतर्रार दिखाती हैं, ताकि आज की जनरेशन कनैक्ट हो सके.

 

बहुमुखी प्रतिभा की धनी बिनायफर कोहली ने मौडलिंग से कैरियर की शुरुआत की थी. महज 16 साल की उम्र में वे कोरियोग्राफर बन गई थीं. बिनायफर ने बौम्बे डाइंग, मफतलाल, आईडब्ल्यूएस, पोर्श, एस्टी लौडर आदि के लिए भारत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैशन शोज की कोरियोग्राफी व मौडलिंग की. फिर एडवरटाइजिंग एजेंसी का काम संभाला. उस के बाद वे लेखिका, टीवी सीरियल निर्मात्री बनीं.

पिछले 32 वर्षों में अपने पति संजय कोहली के साथ मिल कर ‘एडिट 2 प्रोडक्शन’ के तहत ‘माही वे’, ‘निलांजना’, ‘एफआईआर’, ‘भाभीजी घर पर हैं’, ‘हप्पू की उलटन पलटन’, ‘जीजा जी छत पर हैं’, ‘फैमिली नंबर 1’, ‘में आई कम इन मैडम’ और ‘शादी नंबर वन’ सहित 32 से अधिक सामाजिक एवं कौमेडी टीवी सीरियलों का निर्माण कर चुकीं बिनायफर कोहली की गिनती सर्वश्रेष्ठ लेखिका, निर्माता, कोरियोग्राफर के साथसाथ समाजसेवक के रूप में भी होती है.

रतन टाटा को अपनी प्रेरणास्रोत मानने वाली बिनायफर कोहली मूलतया पारसी हैं, जिन्होंने मौडलिंग के दौरान उस वक्त के मशहूर मौडल व पंजाबी युवक संजय कोहली संग विवाह रचाया था. आज वे एक बेटे व एक बेटी की मां हैं.

बिनायफर के पिता एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ और मां अपने समय की फैशनपरस्त व एलआईसी की गोल्ड मैडलिस्ट थीं. मुंबई में पलीबढ़ी बिनायफर की स्कूली शिक्षा क्राइस्ट चर्च स्कूल और के सी कालेज से पूरी हुई. टीवी इंडस्ट्री में बिनायफर कोहली की पहचान एक कड़क मास्टर लेकिन मुसीबत के वक्त हर किसी की मदद करने वाली टीवी निर्माता के रूप में होती है.

पुलवामा हमले में शहीद हुए महाराष्ट्र के 2 शहीदों के परिवारों को आर्थिक सहायता देने, भुज में आए भूकंप के दौरान 9 मैडिकल टीमें भेजने से ले कर अभिनेता दीपेश भान की सामयिक मौत के बाद दीपेश के 40 लाख रुपए के कर्ज को अपनी पूरी टीम व क्राउड फंडिंग की मदद से चुकता करवाने से ले कर कई तरह से लोगों की मदद बिना किसी शोरशराबा के करती रहती हैं. तभी तो कई तकनीशियन उन के साथ 30 वर्षों से काम कर रहे हैं तो कई कलाकार 20 वर्षों से उन के साथ काम कर रहे हैं.

बिनायफर कोहली अपने सामाजिक व कौमेडी सीरियलों के माध्यम से हमेशा महिला सशक्तीकरण सहित कई संदेश देती आई हैं. उन्हें सीरियल के किसी भी महिला पात्र को शौर्ट्स पहनाना पसंद नहीं.

आप खुद को टीवी सीरियल निर्माता, कोरियोग्राफर या लेखिका में से क्या बेहतरीन मानती हैं? उन से जब यह सवाल पूछा तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं तो तीनों में खुद को बेहतरीन मानती हूं. मैं भारत की लीडिंग कोरियोग्राफर थी. हमारी एडवरटाइजिंग एजेंसी भी थी. मैं और मेरे पति संजय कोहली मिल कर एड भी बनाते थे. मैं स्पष्ट कर दूं कि हमारी प्रोडक्शन कंपनी ‘एडिट 2’ को मेरे पति संजय कोहली हैड करते हैं. हम ने जी टीवी का लौंच इवैंट किया और पहला सीरियल जसपाल भट्टी को ले कर ‘हाय जिंदगी बाय जिंदगी’भी बनाया.

‘‘फिर हम ने सोनी टीवी के लिए ‘फैमिली नंबर वन’ बनाया. कौमेडी में तो संजय को महारत हासिल है. लोग उन्हें ‘किंग औफ कौमेडी’ कहते हैं. टीवी पर 10 अतिलोकप्रिय व बेहतरीन कौमेडी सीरियलों में से 6 सीरियल तो हमारे ही हैं. हमारी कंपनी यानी कि ‘एडिट 2’ का सीरियल ‘एफआईआर’ पूरे 10 साल तक प्रसारित होता रहा. ‘भाभीजी घर पर हैं’ को भी 10 साल हो गए. ‘हप्पू की उलटन पलटन’ 5वें वर्ष में है. ‘मे आई कम इन मैडम’ के 3 सीजन टैलीकास्ट हो चुके हैं. ‘जीजा जी छत पर हैं’ के 2 सीजन टैलीकास्ट हुए. हमारे सीरियल ‘फैमिली नंबर वन’ की गिनती पहले पांच में होती है. हम ने कई सामाजिक सीरियल भी बनाए, जिन्हें पुरस्कृत भी किया गया. मु?ो सामाजिक सीरियल लिखने में महारत हासिल है तो वहीं संजय कोहली को कौमेडी में महारत है तो वे अपनी टीम के साथ कौमेडी सीरियलों पर काम करते हैं. इसलिए मैं अपनेआप को तीनों क्षेत्रों में बेहतरीन मानती हूं.

‘‘हम ने कई नएनए प्रयोग किए. पहले सीरियल के टाइटल में हर कोई सीरियल या एपिसोड के ही कुछ सीन्स को काट कर, उन्हें जोड़ कर उस पर टाइटल चलाते थे. लेकिन सोनी टीवी के लिए जब हम ने पहला सीरियल ‘फैमिली नंबर वन’ बनाया तो हम ने टाइटल के लिए भी कोरियोग्राफ किया. ऐसा काम सब से पहले मैं ने ही किया था. हम ने एक परिवार को नीले और दूसरे परिवार को हरे रंग के कौस्ट्यूम पहना कर डांस कराया. तो वे टाइटल्स एकदम अलग बन गए थे. फिर मैं ने यही काम अपने दूसरे शो ‘मस्ती’ में किया. धीरेधीरे दूसरे निर्माताओं ने हमारी नकल करते हुए टाइटल्स के लिए अलग शूट करना शुरू किया और अब तो सीरियल के टाइटल्स और प्रोमो को फिल्माने के लिए अलग से यूनिट बुलाई जाती है. मैं ने कई सीरियल लिखे. मैं ने एक फिल्म ‘बारिश’ लिखी थी, जिसे ‘स्टार’ ने रिलीज किया था. इस फिल्म को सुखवंत ढड्ढा ने पंजाब में फिल्माया था.’’

कहा जाता है कि आप खुद को मल्टीटास्किंग मानती हैं? यह पूछे जाने पर वे कहती हैं, ‘‘जी. मैं मल्टीटास्कर और वर्कहौलिक हूं. मैं प्रतिदिन 16 से 18 घंटे काम करती हूं और मुझे यह पसंद है. दूसरी बात मेरे पास एक टीम है, जो वास्तव में पुरानी और मजबूत है. इन में से कुछ 32 साल से हमारे साथ हैं, कुछ 20 साल से हैं. इन में से अधिकांश की शुरुआत हमारे साथ हुई. हमारे कैमरामैन राजा दादा मेरे पहले सीरियल से हमारे साथ काम कर रहे हैं. यानी कि 32 वर्षों से हमारे साथ हैं. निर्देशक शशांक बाली ने हमारे स्टार प्लस पर प्रसारित सीरियल ‘शादी नंबर वन’ में बतौर सहायक निर्देशक काम किया था. हम ने उन्हें सीरियल ‘एफआईआर’ में निर्देशक बना दिया. शशांक बाली पहले मशहूर हास्य निर्देशक राजन वागधरे के सहायक थे. समीर कुलकर्णी भी राजन वागधरे के सहायक थे, जिन्होंने ‘फैमिली नंबर वन’ निर्देशित किया था.

‘एफआईआर’ के बाद शशांक बाली तो संजय के छोटे भाई बन चुके हैं. शशांक की सहायक हर्षदा भी हमारे सीरियल निर्देशित करती है. रघुबीर शेखावत ने सब से पहले हमारे लिए ‘फैमिली नंबर वन’ लिखा, अब वे 5 वर्षों से ‘हप्पू की उलटन पलटन’ लिखते हैं. फिर मनोज संतोषी हमारे साथ जुड़े. मनोज संतोषी जैसा कौमेडी लेखक मैं ने टीवी इंडस्ट्री में नहीं देखा. संजय के मुकाबले मैं थोड़ी कड़क हूं. लेकिन मेरा कोई भी तकनीशियन मु?ो रात के एक बजे भी फोन कर सकता है और उस का फोन आते ही मैं तुरंत पहुंचती हूं क्योंकि वह मेरी ‘वर्किंग फैमिली’ है. मेरे आर्ट डायरैक्टर अरूप 30 साल से मेरे साथ हैं. अब तो वे काफी सीनियर आर्ट डायरैक्टर हैं. शशांक का सहायक रित्विक अब हमारा ‘हप्पू की उलटन पलटन’ निर्देशित कर रहा है.

आप ने सामाजिक सीरियलों के मुकाबले कौमेडी सीरियल ज्यादा बनाए. जब एकसाथ दोतीन कौमेडी सीरियल प्रसारित हो रहे होते हैं तो यह कितनी चुनौती होती है? इस सवाल पर उन्होंने बताया, ‘‘जब कई कौमेडी सीरियल एकसाथ प्रसारित होते हैं तो अलगअलग ट्रैक के बारे में सोचना एक चुनौती होती है और कहानी के हिसाब से कुछ समान नहीं होना चाहिए. अलगअलग ट्रैक के बारे में सोचना एक चुनौती बन जाता है.

‘‘कभीकभी आप के पास समान ट्रैक भी हो सकते हैं क्योंकि यदि आप स्वच्छता पर कुछ कर रहे हैं, आप ईर्ष्या पर कुछ कर रहे हैं तो ये समान ट्रैक हो सकते हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि हरकोई एकजैसा ट्रैक बना सकता है, लेकिन जो भी इसे अच्छा बनाएगा, वह देखने लायक के मामले में इसे अच्छी तरह से बेचेगा. साथ ही, प्रत्येक कहानी अलग है और पात्रों का एक अलग सैट है. हम सर्वश्रेष्ठ के लिए प्रयास करते हैं और कुछ सुपर कौमेडी सीरियल बनाते हैं.’’

टीवी इंडस्ट्री में जिस तरह की औरतें दिखाई जा रही हैं उन से आप कितना सहमत हैं? इस मसले पर उन का कहना था, ‘‘फिलहाल तो टीवी में रीयल औरतें ही दिखाई जा रही हैं. आप टीवी में औरत को वकील के रूप में, औरत को ग्रूमिंग क्लासेस चलाने वाली के रूप में, कुछ सिर्फ घर संभालती हैं पर वे अन्याय नहीं सहन करेंगी. मसलन, आप ‘अनुपमा’ को लीजिए. अनुपमा के साथ बहुतकुछ होता रहता है, उसे कई समस्याओं से जू?ाना पड़ता है पर वह उन सभी से लड़ विजयी बन कर आती है.

‘‘उसे देख कर हर औरत रिलेट करती है, कहती है कि हां, ऐसा तो उस के साथ भी हुआ था. अनुपमा में वह क्लासेस शुरू करती है, फिर शेफ की प्रतियोगिता भी जीतती है. मेरे सीरियल में महिला चुनाव लड़ती है और जीतती है. जबकि औरतें घरेलू हैं पर उन के पति उन का हौसला बढ़ाते हैं. जिंदगी में समस्या आने पर एकसाथ मिलबैठ कर हल करते हैं. ‘भाभीजी घर पर हैं’ में अंगूरी की सास हमेशा अंगूरी का पक्ष लेती है. अंगूरी व उस की सास के बीच बहुत अच्छा रिश्ता है. मेरे निजी जीवन में मेरी सास मेरी बहुत अच्छी दोस्त है तो वही हमारे सीरियल में नजर आता है. मेरे एक सीरियल में ससुरबहू के बीच बेहतरीन रिश्ते हैं. अब तो हम सभी सीरियल के माध्यम से दकियानूसी बातों को हटाने की पहल में लगे हुए हैं. अब विज्ञान का जमाना है.

‘‘हमारा ‘भाभीजी घर पर हैं’ और राजन साही का ‘अनुपमा’ ऐसे सीरियल हैं जहां महिलाओं को सकारात्मक तरीके से महिमामंडित किया गया है. यहां तक कि अंगूरी भाभी और अनुपमा जैसी साधारण महिलाओं को भी उन के जीवन में पुरुष अपना खुद का कुछ शुरू करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. भाभीजी विभिन्न चीजें करने का प्रयास करती हैं चाहे वह नृत्य हो या अभिनय और उन्हें हमेशा प्रोत्साहित किया जाता है. ‘भाभीजी घर पर हैं’ और ‘अनुपमा’ ने मानक स्थापित किए हैं और कई लोगों को प्रेरित किया है. लोग अलगअलग चीजों के साथ प्रयोग कर रहे हैं और अपनी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं.

‘‘निजी जीवन में महिलाएं हमारे सीरियलों के इन मजबूत किरदारों से प्रभावित होती हैं और उन्हें अपना रोल मौडल मानती हैं. जब वे टीवी के परदे पर वंचितों को सफल होते और अपने निर्णय स्वयं लेते हुए व विजेता के रूप में आगे आते हुए, अपनी आकांक्षाओं और जो वह चाहते हैं उसे हासिल करने के सपनों को पूरा करते हुए देखती हैं तो वे व दूसरी सभी महिलाएं प्रेरित होती हैं.’’

तो जिन सीरियलों में किचन पौलिटिक्स तथा औरत को औरत की दुश्मन दिखाया जाता है, उस से आप कितना सहमत हैं? इस सवाल पर वे कहती हैं, ‘‘यह सब भी तो हमारे समाज का हिस्सा है. हमारे देश की 70 प्रतिशत जनता गांवों में रहती है. ग्रामीण औरत जब बेटी को जन्म देती है तो उस को कितने ताने ?ोलने पड़ते हैं. सास के अत्याचार, पति के अत्याचार आदि खबरें हम आज भी सुनते रहते हैं. ससुर अलग से फायदा उठाने का प्रयास करता है. मैं ने निजी जीवन में एक महिला को डोनेशन के तौर पर एफडी बना कर दिया तो उस ने कहा, ‘मैडम, आप इसे अपने पास ही रखिए, घर पर ले जाएंगे तो हमारे सासससुर इसे तुरंत बंद करा कर पैसा ले लेंगे.’

‘‘समाज में विधवाओं को इज्जत नहीं मिलती. मैं तो सवाल उठाती हूं कि एक देवी की मूर्ति मंदिर में रख कर पूजा करते हो तो फिर घर में दूसरी देवी को क्यों मारते हो? वैसे अब धीरेधीरे बदलाव आ रहा है. शहरों में और मौडर्न विचारों के लोगों में सासबहू के बीच दोस्ताना संबंध हैं पर बड़े स्तर पर बदलाव तभी आ सकता है, जब पुरुष की मानसिकता में बदलाव आए. पुरुष सत्तात्मक सोच बदले.’’

इन सामाजिक बुराइयों को बदलने के लिए टीवी किस तरह से अपनी भूमिका निभा सकता है? इस पर उन का कहना है, ‘‘हम अपने सीरियलों में महिला किरदारों को सिखाते रहते हैं कि किस तरह दूसरों को अपने पक्ष में करना चाहिए, किस तरह होनहार बनना चाहिए. सीरियल ‘दिया बाती और हम’ में तो नायक ने अपनी पत्नी को पढ़ कर पुलिस औफिसर बनने दिया.

‘‘पिछले 8-10 वर्षों में टीवी इंडस्ट्री में काफी बदलाव आया. वह महिलाओं को उठने और आगे बढ़ने के मौके दे रही है. अब सीरियल बताते हैं कि आप की पत्नी आप की अर्धांगिनी है, वह ऊपर उठेगी तो आप भी ऊपर उठेंगे, बच्चों का भी विकास होगा. हम महानगरों में देखते हैं कि अधिकांश औरतें सुबह 4 बजे उठ कर पानी भरती हैं, फिर टिफिन बनाती हैं, फिर लोकल ट्रेन में लटकलटक कर नौकरी पर जाती हैं, शाम को घर वापस आने पर पहले बच्चों को पढ़ाती हैं, फिर रात्रि का भोजन बनाती हैं. खाना बना, खिला कर फिर बरतन धो कर वे कब सोती हैं, कौन पूछता है पर वे मेहनत कर रही हैं और आगे बढ़ने की जुगत में लगी हुई हैं.

‘‘मुझे नहीं पता कि हिंदुस्तान में कितने मर्द हैं जोकि घर में बरतन धोते हैं. देखिए, लिज्जत पापड़ को एक औरत ने शुरू किया था, आज इस में कितनी औरतें काम कर रही हैं. मेरे पड़ोस में एक औरत है, जोकि सिर्फ काजू की बर्फी बना कर बेचने का काम करती है. एक औरत है, जोकि सिर्फ मोहन थाल बेचती है तो एक भी काम अच्छा करो तो पूरा संसार बदल जाता है.’’

तमाम लोगों का मानना है कि टीवी सीरियल की महिलाएं खलनायिका होती हैं? इस सवाल पर उन्होंने अपना मत यों जाहिर किया, ‘‘मैं टीवी की महिलाओं को खलनायिका नहीं मानती. टीवी पर खलनायक की भूमिका निभाने वाले बहुत सारे खूबसूरत पुरुष हैं. भले ही यह एक उचित नकारात्मक चरित्र न हो, फिर भी उन के पास भूरे रंग के बहुत सारे शेड्स हैं. एक समय था जब महिलाएं प्रतिपक्षी की भूमिका निभाती थीं, लेकिन अब बदलाव आ गया है. टीवी का कंटैंट काफी बदल गया है और लोग ऐसे वास्तविक व प्रासंगिक सीरियल बना रहे हैं. वैसे, अब पुरुषों को भी टीवी पर शक्तिशाली किरदार मिलने लगे हैं, जो पहले नहीं होता था. जैसा कि मैं ने कहा कि कंटैंट में प्रगति हुई है, उसी तरह चरित्ररेखाचित्र भी बदल गए हैं. टीवी पर सिर्फ महिला उन्मुख सीरियल नहीं रहे.’’

अक्तूबर 1992 में सैटेलाइट टीवी चैनल की शुरुआत होने पर सीरियलों की टीआरपी 22 से 32 तक जाती थी, अब यह 3 तक नहीं पहुंच पा रही है. ऐसा क्यों? इस सवाल पर वे बताती हैं, ‘‘अब दर्शकों के पास मनोरंजन की चौइस बढ़ गई है. पहले जीटीवी और सोनी टीवी के अलावा दूरदर्शन व फिल्में थीं. अब मनोरंजन चैनलों की भीड़ है. फिल्में हैं, टीवी हैं, ओटीटी प्लेटफौर्म हैं.

‘‘इतना ही नहीं, अब हर इंसान के हाथ में मोबाइल है, जिस पर वह इंस्टाग्राम रील्स से ले कर यूट्यूब पर ढेर सारा कंटैंट देख रहा है. ऐसे में दर्शकों का बंटना स्वाभाविक है. शुरू में सिर्फ जीटीवी था, फिर सोनी टीवी आया. कुछ समय बाद लोग स्टार प्लस पर केवल ‘सांस’ सीरियल देखने के लिए जाने लगे थे. उस के बाद सहारा, इमेजिन, कलर्स, दंगल सहित कई चैनल आए. इस के अलावा आप अपने पसंदीदा सीरियल को समय मिलने पर कभी भी ओटीटी प्लेटफौर्म पर जा कर देख सकते हैं.

‘‘आज की तारीख में मेरे सीरियल का जो नया एपिसोड रात में 8 या 9 बजे आता है, वह पहले उसी दिन सुबह 6 या 7 बजे ओटीटी प्लेटफौर्म अर्थात वैब पर आ चुका होता है. मतलब, पहले एपिसोड ओटीटी प्लेटफौर्म पर आता है, दिनभर में किसी भी समय लोग उसे देख सकते हैं. उस के बाद रात में चैनल पर आता है. अब मैं अपना पसंदीदा सीरियल सुबह उठ कर ओटीटी प्लेटफौर्म पर देख लेती हूं. ऐसे में चैनल पर सीरियल को व्यूवरशिप कैसे मिलेगी? पहले ऐसा नहीं था.

‘‘पहले चैनल पर हर सीरियल का एक ‘रिपीट रन’ था. पहले पूरा परिवार एक समय में एक ही सीरियल देख पाता था. अब तो एक ही समय में परिवार का हर सदस्य अलगअलग सीरियल या इंस्टाग्राम रील्स वगैरह देख सकता है. अब तो एक ही घर के हर कमरे में टीवी सैट है. हर इंसान के हाथ में मोबाइल फोन है. लेकिन अब तनाव बढ़ गया है. अब हम एकसाथ कई चीजों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं.’’

लेकिन चैनल पर सीरियल का एपिसोड टैलीकास्ट होने से पहले ही ओटीटी प्लेटफौर्म पर उसे स्ट्रीम कर देने से नुकसान तो टीवी इंडस्ट्री को ही हो रहा है? इस पर उन्होंने कहा, ‘‘जी हां, आप सच कह रहे हैं. टीआरपी गई तो चैनल को मिलने वाले एड कम हुए या एड पर मिलने वाली राशि कम हुई. वैसे भी, कोविड के दौरान चैनलों को मिलने वाले एड काफी कम हुए. एड पर मिलने वाली राशि कम हुई. इस से चैनल को काफी नुकसान हुआ.’’        द्य

 

 

 

 

 

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