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स्किन के लिए फायदेमंद है माइक्रोकरंट फेशियल

आपने पहले कई तरह के क्लीनअप और फेशियल जैसे फ्रूट फेशियल, गोल्ड फेशियल, पर्ल फेशियल आदि के बारे सुना होगा, लेकिन क्या आपने कभी माइक्रोकरंट फेशियल का नाम सुना है? अगर नहीं, तो इस आर्टिकल में जानिए माइक्रोकरंट फेशियल क्या है और उसे कराने के फायदे क्या हैं?

क्या है माइक्रोकरंट फेशियल?

माइक्रोकरंट फेशियल एक तरह की फेशियल प्रक्रिया ही है जो चेहरे की फेशियल मसल्स को टोन करता है, टेक्सचर अच्छा करता है और साथ में ग्लोइंग और दमकती त्वचा देता है. इस फेशियल में त्वचा के पोर्स को टाइट किया जाता है, इस वजह से इसे एंटी एजिंग फेशियल भी कहते हैं, जिससे आप जवां नजर आती हैं. इस प्रक्रिया में मशीन और कुछ केमिकलयुक्त उत्पादों का इस्तेमाल किया जाता है. इसकी खास बात यह है कि इसमें दर्द नहीं होता.

कैसे किया जाता है माइक्रोकरंट फेशियल?

माइक्रोकरंट फेशियल की प्रक्रिया सिंपल और आसान है. इस प्रक्रिया में सबसे पहले क्लींजिंग किया जाता है. दूसरे स्टेप में, एक्सपर्ट्स मैग्नीफाइंग लैम्प्स की मदद से आपकी स्किन की जानकारी जुटाते हैं और जानने की कोशिश करते हैं कि आपकी त्वचा की जरूरत क्या है. अगले स्टेप में हौट स्टीम दिया जाता है. इसकी मदद से त्वचा के पोर्स खुल जाते हैं और वो नरम हो जाते हैं. चौथे स्टेप में आता है एक्सफोलिएशन. इसमें डर्मेटोलौजिस्ट मैकेनिकल प्रक्रिया की मदद से त्वचा के डेड सेल्स हटाते हैं. इसमें डर्मोटोलौजिस्ट मसाज करते हैं ताकि आपके फेशियल मसल्स रिलैक्स होकर सांस ले सके. अगले स्टेप में फेस मास्क का इस्तेमाल किया जाता है. इस प्रोसेस में एक्सपर्ट पील औफ मास्क की एक लेयर चेहरे पर लगाते हैं और ये मास्क आपकी स्किन टाइप को देखकर चुना जाता है. इसे लगा कर 20 मिनट तक रखा जाता है और फिर सूखने के बाद हटा लिया जाता है. फाइनल स्टेप में, डर्मोटोलौजिस्ट टोनर लगते हैं और इसे आपके चेहरे पर ही लगा छोड़ देते हैं.

माइक्रोकरंट फेशियल के फायदे

  • त्वचा का टेक्सचर बेहतर होता है.
  • ये स्किन पर एक्ने और पिंपल्स की मौजूदगी को भी कम करता है.
  • ये डेड स्किन हटाकर बंद पोर्स को खोलता है.
  • स्किन टोन को एकसमान करता है.
  • ये आपकी जौलाइन को डिफाइन करता है और आपके आईब्रोज को भी अपलिफ्ट करता है.
  • ये समय से पूर्व एजिंग के साइन को कम करता है और त्वचा की बारीक लकीरों, झुर्रियों को कम करता है.
  • ये आपकी त्वचा को डिटाक्स करता है और टाक्सिन्स बाहर निकालता है जिससे स्किन हेल्दी दिखती है.ये ब्लड सर्क्युलेशन को बेहतर करता है जिससे चेहरा दमकता हुआ नजर आता है

वेब सीरीज ‘दिल्ली क्राइम’ में मानवीय पक्ष को भी उकेरा गया है : रसिका दुग्गल

लीक से हटकर फिल्में करते करते रसिका दुग्गल ने हर माध्यम में अपने अभिनय का लोहा मनवा लिया है. वह फीचर फिल्मों के साथ साथ लघु फिल्में व वेब सीरीज भी कर रही हैं. गत वर्ष उन्होंने सआदत हसन मंटों की बायोपिक फिल्म ‘‘मंटो मने मंटो” की पत्नी साफिया का किरदार निभाकर जबरदस्त शोहरत बटोरी थी. उसके बाद वह वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ में एकदम अलग किरदार में नजर आयी. तो अब हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘‘हामिद’’ में वह एक कश्मीरी औरत के किरदार में नजर आयी, जिसे अपने गुमशुदा पति की तलाश है. जबकि 22 मार्च से वह ‘नेटफ्लिक्स’ पर प्रसारित होने वाली वेब सीरीज ‘‘दिल्ली क्राइम’’ में ट्ेनी पुलिस अफसर के निधि किरदार में नजर आएंगी.

‘‘मंटो’’ के लिए उर्दू और ‘‘हामिद’’के लिए कश्मीरी भाषा सीखते हुए आपने कलाकार के तौर पर कितना ग्रो किया?

किसी भाषा के एसेंट को पकड़ना या सीखने से हमारी बाोौडी लैंगवेज पर भी असर पड़ता है. उसका असर किरदार से जुड़े कई दूसरे जेस्चरों पर भी पड़ता है. आपको अपने आप ही किरदार के दूसरे जेस्चर की आइडिया मिल जाती है,जिससे पूरा व्यू बदल जाता है. हमेशा कहा जात है कि यदि आप किसी क्षेत्र की भाषा सीखना चाहते हैं तो पहले वहां के संगीत को सुने. जब किसी क्षेत्र के संगीत से परिचित होते हैं,तो काफी हद तक उस क्षेत्र से भी आप वाकिफ हो जाते हैं. आप जिस तरह से बात करते हैं, उसका भी असर पड़ता है.

वैसे भी मुझे हमेशा से नई भाषा सीखने का शौक रहा है. यहां तक कि मैने ग्रेज्युएशन की पढ़ाई के ही दौरान जेएनयू में जर्मन भाषा सीखने के लिए आवेदन किया था. पर बाद में मैंने ग्रेज्युएशन को ही महत्व दिया.

आप विदेशी भाषा क्यों सीखना चाह रही थी?

सच कहूं तो मुझे विदेषी भाषाओें में कम भारतीय भाषाओं को सीखने में ज्यादा रूचि है. मैं जब एक वर्ष के लिए ब्राजील में रही थी,तो मैंने उन दिनों वहां की भाषा भी सीखी थी. मुझे अलग तरह की भाषा को लिखना सीखना भी आनंद देता है. मैने ‘मंटो’ के दौरान उर्दू पढ़ना,बोलना और लिखना सीखा. ‘हामिद’ के लिए मैंने कश्मीरी भाषा तो नहीं सीखी, पर उसके एसेंट को पकड़ा. जब मैं कश्मीर गयी, तो मैंने पाया कि वहां के सभी लोग कश्मीरी एक जैसी बोलते हैं. मगर जब वह हिंदी बोलते हैं, तो एक ही घर का हर सदस्य अलग अंदाज में हिंदी बोलता है. कश्मीर में हमने एक परिवार के साथ दस दिन बिताया. उनके यहां तीन बेटियां थीं,तीनो बेटियां अलग अंदाज में हिंदी बोल रही थी. मैंने तीनों की आवाज रिकार्ड करके अपने निर्देशक को सुनाई थी कि मुझे किसके लहजे को पकड़कर फिल्म में अपने इशरत के किरदार के लिए बोलना है.तो मुझे तीन चार दिन यही समझने में लग गए थे कि किसके लहजे को पकड़ा जाए.बाद में मेरी समझ में आया कि जब लोग अपनी मातृभाषा से इतर भाषा को एडौप्ट करते हैं, तो अलग अलग ढंग से ही एडौप्ट करते हैं.

दस दिन एक कश्मीरी परिवार में रहने के बाद आपने वहां के लोगों को क्या समझा?

देखिए,पूरा कश्मीर एक जैसा नही है. पूरे कश्मीर के हालात भी एक जैसे नहीं है. कश्मीर के अलग अलग इलाके में स्थितियां अलग हैं. कुछ इलाकों में तनाव है,तो कुछ जगह नहीं है. हम लोग जहां शूटिंग कर रहे थे, वह गुलमर्ग के रास्ते पर आता है. जो कि पूरी तरह से ट्य्ूरिस्ट इलाका है. वहां के लोग पूर्णरूपेण सैलानियों पर निर्भर करते हैं. तो वहां के लोग चाहते हैं कि बाहरी दुनिया तक उनकी ईमेज अच्छी जाए.वह हमसे कहते थे कि कशमीर  में हालात अच्छे हैं. यदि किसी गांव से पथराव की खबर आती थी, तो वह कहते थे कि, ‘देखो हमारे गांव में ऐसा कभी नहीं होता. यदि कभी ऐसा हो गया, तो ऐसे पत्थरबाजों को हम यहां टिकने नहीं देंगे. एक दो बदनाम लोग ही पूरे कशमीर  का नाम खराब कर रहे हैं, तो वहां लोग इस बात को लेकर हमेशा सचेत रहते हैं कि उनकी इकौनाोमी पर असर न पड़े. उनका प्रयास रहता है कि जिन सैलानियों के आने से उनका व्यवसाय चलता रहता है,वह सैलानी लगातार आते रहे.

परिवार के सदस्यों से तो हम हर तरह की बाते करते रहे. फेशबुक, इंस्टाग्राम को लेकर बात हुई. परिवार की लड़कियों ने मेरे साथ तस्वीरें खिंचवाई,पर लड़कियों ने हमसे निवेदन किया कि हम उन तस्वीरों को इंटाग्राम पर न डाले. तो समझ में आया कि वहां पर अभी भी लड़कियों पर कई तरह की पाबंदियां हैं. अन्यथा शहरी लड़कियों व उनमें कोई फर्क नही रहा. परिवार के मुखिया यानी कि लड़कियों के पिता उर्दू में कविताएं लिखते हैं. मैं उनकी कविताएं पढ़ लेती थी. उनका बेटा पढ़ा लिखा नहीं था. वह बेरोजगार था. उसने मेेरी फिल्मे देखी नहीं थी.जब मैं मिली,उसके बाद उसने इंटरनेट या वीडियो पर मेरी फिल्में देखीं.

आप एक वेब सीरीज ‘‘दिल्ली क्राइम’’ को लेकर क्या कहेंगी?

रिची मेहता निर्देशित यह वेब सीरीज 22 मार्च से ‘‘नेटफ्लिक्स’’पर प्रसारित होगी.इसकी कहानी 2012 के दिल्ली के गैंगरेप यानी कि निर्भया हत्या कांड की जांच पर आधारित है. पूरी सीरीज तो पुलिस के नजरिए से बतायी जा रही है,पर इस कांड को लेकर आम लोगों की राय को भी शामिल किया गया है. इंवेस्टीगेशन में क्या हुआ,पुलिस ने क्या किया से लेकर इस कांड की जांच में जुड़ी महिला पुलिस अफसरों की जिंदगी का भी चित्रण है. इसमें इस बात का जिक्र है कि सभी महिला पुलिस अफसर किस तरह से अपनी अपनी जिंदगी में देशभक्ति को निगोसिएट कर रही हैं.

किसी भी अपराध की जांच के दौरान जो हालात होते हैं,उसका असर पुलिस वालों पर क्या पड़ता है,उसका भी इसमें चित्रण है?

इसमें  इस बात का चित्रण है कि हमारे देश की पुलिस कितनी सीमाओं में रहकर काम कर रही है. दिल्ली पुलिस के ज्यादातर अफसर तो वीआईपी सिक्यूरिटी में ही लगे रहते हैं. इसमें एक दृश्य है कि पुलिस अफसर बने राजेश तैलंग कुछ काम कर रहे हैं, तभी बिजली चली जाती है तो वह अपने स्टेशन हेड से पूछता है तो पता चलता है कि बिल न भरा होने के कारण कट गयी फिर राजेश तैलंग किस तरह फोन करेक बिल जल्द भर जाएगा के आश्वाष्न से बिजली चालू करवाते हैं. पुलिस अफसर किस तरह दूसरों से फेवर लेकर काम करते हैं. पुलिस वाले कानून के तहत काम करते हैं,पर कई बार कानून के सहारे न्याय दिलाने में समय ज्यादा लगता है, तो वह दूसरे रास्ते अपनाते रहते हैं. ‘निर्भयाकांड’में एक दो नहीं छह लोगों को पकड़ना था,जितनी देरी होगी, उतने ही लोग दूर भाग जाएंगे. उस वक्त की डीसीपी ने दिन रात काम किया और पेपर वर्क बाद में करवा लेंगे कहकर किस तरह जुगाड़ करके सब को पकड़ा था, वह सब इसमें है. सीरीज में डीसीपी वर्तिका चतुर्वेदी का किरदार शेफाली शाह ने निभाया है. तो यह सीरीज काफी रोचक है कि हमारे देश में क्या क्या हो रहा है. पहले मुझे लगता था कि यहां किसे कानून व्यवस्था की परवाह है,पर इस सीरीज के लिए रिसर्च वर्क और फिर शूटिंग करते समय मुझे इन पुलिस अफसरों केे मानवीय पक्ष को भी जानने का अवसर मिला.

दिल्ली क्राइम का मकसद निर्भयाकांड की जांच प्रक्रिया से लोगों को अवगत कराना है या कुछ और मकसद है?

पूरी कहानी निर्भयाकांड के वक्त क्या हुआ, उसे बड़ी संजीदगी के साथ बयां करती है. जांच में कैसे क्या हुआ उसे भी बताती है. इसी के साथ यह सीरीज पुलिस वालों की जिंदगी में भी झांकती है.

रिची ने बताया कि रिसर्च के दौरान जब वह पुलिस अफसरों से मिला तो उसने हर किसी से सवाल किया कि जिस रात यह कांड हुआ, उस दिन वह सुबह सुबह क्या कर रही थीं? जिसे उसने सीरीज में रखा. मेरा किरदार जो ट्रेनी है,नीति के पिता चाहते है कि वह शादी कर ले तो अरेंज मैरिज के लिए वह सुबह एक लड़के से मिल रही है. राजेश तैलंग अपनी बेटी की शादी के लिए किसी से मिल रहे हैं. डीसीपी वर्तिका चतुर्वेदी की अपनी टीन एजर बेटी है जो कि भारत छोड़कर विदेश जाना चाहती है उसे लगता है कि यहां औरतें सुरक्षित नहीं वर्तिका उसे समझाती है कि भारत देश सबसे अधिक सुरक्षित है और रात में गैंगरेप की खबर आ जाती है तो अब वर्तिका को हर हाल में कानून व्यवस्था दुरूस्त करना है. तो वहीं पर वर्तिका के घर के अंदर भी एक बहस शुरू हो जाती है.

आप वेब सीरीज भी काफी कर रही हैं?

जी हां, मुझे रोचक किरदार निभाने हैं. जब अच्छा काम करने का अवसर वेब सीरीज में मिल रहा हो, तो मैं मना नहीं करती. मेरी सोच यह है कि मेरा काम दर्शकों तक पहुंचना चाहिए फिर माध्यम कुछ भी हो सकता है. अब तो वेब सीरीज ‘ह्यूमरसली योर्स..’का सेकंड सीजन भी आने वाला है. ‘मिर्जापुर’ आ चुकी है, इसके सेकंड सीजन की शूटिंग शुरू होने वाली है.

आने वाली फिल्में कौन सी हैं?

करण गौड़ के निर्देशन में एक फिल्म कर रही हूं. करण गौड़ के साथ मैंने अपने करियर की पहली फिल्म ‘क्षय’की थी. हम अच्छे  दोस्त हैं और काम करते हुए हमने एक साथ ‘ग्रो’किया है. एक फिल्म संजय मिश्रा और अक्षय ओबेराय के साथ की है,जिसका नाम है-‘‘हैश टैग गड़वी”. गड़वी मुख्य किरदार का नाम है. इसमें ब्लैक ह्यूमर के साथ साथ ड्रामा भी है. इसमें मेरा किरदार संजय मिश्रा के साथ है. मैंने एक फिल्म की है,जो कि थोड़ी कमर्लशियल और कौमेडी है.पर फिल्म का नाम और निर्देशक का नाम कुछ वजहों से नही बता सकती.

तो अब आप व्यावसायिक फिल्में भी कर रही हैं?

मुझे मुंबईया मसाला या व्यावसायिक फिल्में करने से तब तक परहेज नहीं है जब तक मुझे बेहतरीन काम करने का अवसर मिल रहा है. मैं उन किरदारों को निभाना चाहती हूं,जो कि कहानी का अभिन्न हिस्सा हों,न कि सजावटी गहना.मुझे पहले भी कई व्यावसायिक फिल्मों के आफर मिलते रहे हैं जो कि मुझे रोचक नहीं लगे और मैंने नहीं किया.वैसे अब तो व्यावसायिक फिल्में भी अच्छे व रोचक किरदार लिखे जा रहे हैं.सिनेमा में आए बदलाव के साथ अब कहानियों में भी काफी बदलाव आ गया है.

बहुत फर्क है 2014 और 2019 में

अधिकतर राजनैतिक वैज्ञानिक और विश्लेषक मानते हैं कि पुलवामा हादसे के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक का चुनावी फायदा भाजपा और नरेंद्र मोदी को मिलेगा, मीडिया का बड़ा वर्ग भी इससे सहमत है और 5-6 फीसदी मोदी भक्तों ने तो इस मुद्दे पर हाहाकार मचा रखा है. एक ऐसा माहौल गढ़ने और बनाने की कोशिश जिसे साजिश कहना बेहतर होगा रची जा रही है कि राष्ट्रवाद के अलावा कुछ और न दिखे. यह कोशिश दरअसल में बहुसंख्यकों की असुरक्षा को दर्शाती है जिसके लिए अपना धर्म जाति और गौत्र तक देश से ऊंचा और ऊपर होता है. यह असुरक्षा आतंकवाद या पाकिस्तान को लेकर कतई नहीं है बल्कि बीते पांच सालों में देश में जो हुआ उससे ध्यान बंटाने की एक निरर्थक सी प्रतिक्रिया भर है. कैसे है इसे समझने 2014 की तरफ मुड़ना जरूरी है.

तब नरेंद्र मोदी किसी फरिश्ते की तरह सियासी फ़लक पर प्रगट हुये थे और लोगों को बता रहे थे कि देश कांग्रेसी दुर्दशा और परिवारवाद की लूट पाट का शिकार है. इस जकड़न से मुक्ति के लिए जरूरी है कि लोग उन्हें यानि एक ऐसे नेता को प्रधानमंत्री बनाएं जो चाय बेचता था और जिसे सत्ता का कोई मोह नहीं है. वह तो बस देश सेवा करना चाहता है. उससे गरीबों किसानों और युवाओं की बदहाली बर्दाश्त नहीं हो रही है. बातों बातों में राम मंदिर निर्माण का वादा भी उन्होने किया था जो भाजपा का एजेंडा हमेशा से ही रहा है. अब इस मुद्दे के कहीं अते पते नहीं हैं. पुलवामा और बालाकोट के पहले दीवाली के वक्त जरूर हिंदूवादियों ने आस्था की दुहाई देते इसको गरमाने की कोशिश की थी लेकिन आम लोगों का रिसपोन्स उम्मीद के मुताबिक नहीं मिला तो अयोध्या में इकट्ठा हुये साधु संतों की भीड़ भी काई की तरह छट गई.

2014 में विकट की सत्ता विरोधी लहर थी जिसके असली हकदार समाजसेवी अन्न हज़ारे और उनकी नव गठित टीम थी. अन्ना का आंदोलन देश भर में हड़कंप मचा गया था खासतौर से युवाओं में खासा जोश था जो किसी भी कीमत पर हताशा और अवसाद से मुक्ति चाहते थे. लगभग 2 साल अन्ना हज़ारे देश को बताते रहे कि फसाद की असल जड़ भ्रष्टाचार है. बात सच भी थी इसलिए लोगों ने यूपीए सरकार को खारिज करने का मन बना लिया. इस स्थिति को भाँपते बाबा रामदेव जैसे कई ऋषि मुनि और अप्रत्यक्ष रूप से आरएसएस ने भी आंदोलन के हवन कुंड में अपनी आहुति दी थी.

पर एक कमी थी कि वोटर को विकल्प क्या दिया जाये.  ऐसे में गोधरा कांड के नायक और गुजरात के मुख्यमंत्री बतौर नायक पेश किए गए. मोदी भी मौका चूके नहीं और लालकृष्ण आडवाणी को धकियाते देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर विराजमान हो गए. मुरली मनोहर जोशी और जसवंत सिंह तो दूर की बात हैं  राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज , वेंकैया नायडू , उमा भारती , शिवराज सिंह चौहान और नितिन गडकरी जैसे दिग्गज  भाजपाई नेता ताकते ही रह गए और नरेंद्र मोदी ने देश की ज़िम्मेदारी और बागडोर संभाल ली. कांग्रेस इस चुनाव में एतिहासिक दुर्गति का शिकार हुई एक बारगी तो ऐसा लगने लगा था कि वह खत्म ही हो गई.

2014 सपनों का साल था , उम्मीदों का दौर था लोग धैर्य से अच्छे दिनों का इंतजार करने लगे थे.  उन्हें उम्मीद थी कि भले ही हर खाते में 15 लाख रु आने की बात गप्प  हो लेकिन कांग्रेस का फैलाया कचरा जरूर नरेंद्र मोदी साफ कर देंगे. लेकिन नरेंद्र मोदी का ध्यान सड़क के कचरे पर गया तो देखते ही देखते हर हाथ में झाड़ू आ गई. इस स्वच्छता अभियान से अच्छे दिनों बाली फीलिंग नहीं आई और लोगों को अपने चुनाव और फैसले पर शक होने लगा तो टीम मोदी घबरा उठी.  क्योंकि इसके पहले दिल्ली और बिहार जैसे राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे बता चुके थे कि जुमलेबाजी से लोग विदकने लगे हैं लिहाजा नया कुछ किया जाये जिससे लोगों का ध्यान बंटे.

इधर सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का चुनाव भी सर पर था जिसे जीतना भाजपा के लिए टेड़ी खीर साबित हो रहा था लोग वहाँ भी मंदिर और अच्छे दिनों के बाबत सवाल करने लगे थे कि इनका  क्या हुआ. फिर जो नया काम नरेंद्र मोदी ने किया उसका जिक्र करने एक शब्द नोटबंदी ही काफी है. सपा , बसपा और कांग्रेस पैसों के अभाव में ढंग से प्रचार नहीं कर पाये  और भाजपा दिल्ली और बिहार जैसी दुर्दशा का शिकार होने से बच गई क्योंकि नोटबंदी के कुछ दिन पहले ही तमाम प्रचार सामग्री का वह इंतजाम कर चुकी थी और उत्तरप्रदेश के हर एक जिले में कार्यकर्ताओं के लिए मोटर साइकिलें पहुंचाई जा चुकीं थीं.

अब तक राहुल गांधी भी सक्रिय राजनीति में आ गए थे जिन्हें लग रहा था और अभी भी लग रहा है कि देश गलत हाथों में चला गया है.  आरएसएस और भाजपा नफरत की राजनीति कर रहे हैं लिहाजा उन्होने प्यार की राजनीति शुरू कर दी. कर्नाटक और पंजाब के बाद मध्य प्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे भाजपाई गढ़ों में उनकी प्यार की झप्पी चली भी और कब  देखते ही देखते लोकसभा चुनाव फिर आ गए लोगों को पता ही नहीं चला.

2014 और 2019 के आम चुनावों में कई बड़े फर्क हैं. किसी के पास कोई मुद्दा वोट मांगने नहीं है. भाजपा मोदी सरकार की काल्पनिक उपलब्धियां गिना रही है तो विपक्ष भी उसका  काल्पनिक विरोध कर रहा है. जमीनी बात कोई वजनदारी से नहीं कर और कह पा रहा कि आम आदमी की ज़िंदगी पाँच सालों में उतनी ही दुश्वार क्यों हो गई जितनी कि 2014 तक थी. दिल्ली का रामलीला मैदान सूना पड़ा है अन्ना हज़ारे रालेगण सिद्धि में हैं या मुंबई के किसी अस्पताल में भर्ती हैं किसी को नहीं पता.  बाबा रामदेव यदा कदा बोलते दिख जाते हैं लेकिन वे भ्रष्टाचार की बात नहीं करते बल्कि अरबों रु की बोली रुचि सोया खरीदने के लिए लगा रहे होते हैं. बीच में उन्होने इशारा किया था कि मोदी ही दौबारा प्रधानमंत्री हों इसमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं.

चुनावी बाजी अब नेताओं और गठबंधनों के पास है , जिसके मुंह में जो आ रहा है वह उसे उगलता जा रहा है.  ऐसे में मतदाता गफलत में है कि किसे चुने नोटबंदी ,जीएसटी और मोब लिंचिंग बाले मोदी को या फिर कथित एयर स्ट्राइक बाले 56 इंच की छाती बाले मोदी को इन दोनों चेहरों में विकट का विरोधाभास है एक तरफ कुआ है तो दूसरी तरफ खाई है. यानि गिरना तय है तो तरीका अपनी सहूलियत से चुन लिया जाये.

चौपालों, चौराहों गुमठियों से लेकर सोशल मीडिया तक पर देश दो खेमों में बट गया है एक धड़ा कहता है मोदी को ही चुन लो उससे कम से कम दलित और मुसलमान दबे तो रहेंगे दूसरा धड़ा इस फलसफे से इत्तफाक नहीं रखता वह ठेठ देसी लहजे में कहता और पूछता है कि मोदी जी ने पाँच साल में क्या उखाड़ लिया और अब तो भाजपा की हालत भी हर जगह  खस्ता हो गई है सो अपना वोट क्यों बेकार करें. तुरंत जबाब मिलता है कि फिर देश का क्या होगा मोदी जी नहीं रहे तो अफरा तफरी मच जाएगी.  ये और ऐसे सवाल जबाब कभी खत्म नहीं होते और न ही 23 मई तक होंगे कि अभी कहां का सुकून है अफरा तफरी तो अभी भी मची है. चौकीदारी तो कहने भर की बात है.

सार ये कि भाजपा के हक में 2014 सा माहौल और हवा नहीं है और त्रिशंकु लोकसभा के पूरे आसार हैं. सत्ता की चाबी नवीन पटनायक , ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं के हाथ में होगी जो अपने पत्ते नहीं खोल रहे. हिन्दी पट्टी में भाजपा घाटे में जाती दिख रही है जिसकी भरपाई पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों से हो पाएगी ऐसा लग नहीं रहा.  कांग्रेस 2014 के मुक़ाबले काफी फायदे में नजर आ रही है.

सट्टा बाजार और सर्वे उद्धयोग नरेंद्र मोदी को बढ़त पर दिखा रहा है लेकिन भाव हर सप्ताह बदल रहे हैं तो यह दांव लगवाने की पुरानी ट्रिक है. इंदौर के एक नामी सटोरिये की मानें तो अभी बुकिंग न के बराबर आ रहीं है.  सबसे बड़ी दिक्कत यूपी से पेश आ रही है जहां भाजपा 25 सीटें ले जाये तो बड़ी बात होगी, अलावा इसके एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में भी उसकी हालत ठीक यानि पहले जैसी नहीं. अगर आप और कांग्रेस में सीटों का बंटबारा हो गया तो भाजपा की दिक्कतें और बढ़ेंगी. इस सटोरिये के मुताबिक बिहार और महाराष्ट्र में ही भाजपा ठीक ठाक प्रदर्शन कर पाएगी लेकिन कुल 150 का आंकड़ा छू पाएगी इसमें शक है.

जबकि 2014 में ऐसा नहीं था अप्रेल के पहले ही भाजपा को सत्तारूढ़ दल और मोदी को प्रधानमंत्री मान लिया गया था यह और बात है कि तब इतने प्रचंड बहुमत की उम्मीद किसी को नहीं थी. यानि हालात हर जगह शक से मुक्त नहीं हैं कि क्या होगा और तटस्थ वोट किस तरफ जाएगा.

लज्जतदार केले बेसन की सब्जी

सामग्री :

कच्चे केले-1,

बेसन-1 कप,

हींग- एक चुटकी,

जीरा- 1 टीस्पून,

हल्दी पाउडर-1/2 टीस्पून,

लाल मिर्च पाउडर-1/2 टीस्पून,

धनिया पाउडर-1 टीस्पून,

गरम मसाला पाउडर – 1/2 टीस्पून,

दही-1 कप,

पानी-1/2 कप,

नमक- स्वादानुसार,

तेल-1 बड़ा टीस्पून,

हरा धनिया-1 टेबलस्पून (बारीक काटा),

हरी मिर्च-1 कटी हुई,

तेल- फ्राई करने के लिए

विधि :

  • केलों को गोल टुकड़ों में काट लें और एक मिनट तक पानी में उबाल लें। अब एक बाउल में बेसन, नमक, हल्दी और पानी डालकर गाढ़ा बैटर बना लें.
  • अब केलों को बैटर में लपेट कर गरम तेल में फ्राई कर लें। अब एक कढ़ाई में तेल गरम करें और उसमें हींग व जीरा डालें.
  • जब जीरा चटकने लगे तब इसमें हल्दी, लाल मिर्च पाउडर और धनिया पाउडर डालकर दो सेकेंड तक भून लें.
  • फिर इसमें दही व पानी डालकर मिक्स करें और फ्राई केले, गरम मसाला व नमक डालें और ढककर धीमी
    आंच पर 15-20 मिनट तक पका लें.
  • तैयार है केला-बेसन की सब्जी. रोटी या चावल किसी के साथ भी कर सकते हैं सर्व.

बनना चाहते हैं स्मार्ट पेरैंट्स, तो फौलो करें ये 4 टिप्स

आप भी बेहतर पेरैंट्स बन सकते हैं, अगर बच्चे के जन्म के बाद आप ने अपने रूटीन को कुछ इस तरह बदल लिया है…

जहां नन्हे मेहमान के आने से घर में रौनक आ जाती है, घर में चारों तरफ बच्चे की किलकारियां गूंजती हैं, वहीं घर का हर सदस्य उत्सुकता से भर जाता है. पेरैंट्स को तो ऐसा लगता है जैसे उन की जिंदगी में नई ऊर्जा का संचार हुआ हो. लेकिन नन्हे के आने से पेरैंट्स का लाइफस्टाइल भी पूरी तरह से प्रभावित होता है, जिसे शुरुआत में तो वे हंसीखुशी स्वीकार लेते हैं, लेकिन बाद में रूटीन में भी बदलाव उन की जिंदगी पर असर डालने लगता है. ऐसे में जरूरी है कि रूटीन में बदलाव से निबटने के लिए योजना बना कर चलें.

  1. खानपान में लापरवाही:

पूरा दिन बच्चे की केयर में मातापिता अपने खानपान पर बिलकुल ध्यान नहीं देते हैं. समय नहीं मिलने के कारण वे जो मिल गया वही खा लेते हैं. भले ही फास्टफूड खा कर ही पूरा दिन क्यों न बिताना पड़े और फिर यही अनहैल्दी ईटिंग हैबिट्स उन्हें बीमार कर देती हैं.

कैसे निबटें:

जब भी कुछ नया होता है तो बदलाव आना स्वाभाविक है. लेकिन उस बदलाव के अनुसार खुद को ऐडजस्ट करना बड़ी चुनौती होती है. अगर आप अकेले रहते हैं तो आप अपना खानपान संबंधी टाइमटेबल बना कर चलें, जिस से अनहैल्दी खाने का सवाल ही न उठे. जैसे आप ब्रेकफास्ट में स्प्राउट्स, अंडा, चीला बगैरा ले सकते हैं. इसी तरह लंच में दाल, रोटी, दही, छाछ या फिर उबले चने और रात के डिनर में ओट्स वगैरह ले सकते हैं, जो हाई फाइबर रिच डाइट होती है. इस बीच आप को जब भी भूख का एहसास हो तो आप फ्रूट्स, चने बगैरा लें, जो आप की भूख को शांत करने के साथसाथ आप को हैल्दी भी रखेंगे.

2. सोने के समय में कमी:

बच्चे के आने से पेरैंट्स की नींद में खलल पड़ता है, क्योंकि अब अपने हिसाब से नहीं बल्कि बच्चे के हिसाब से सोनाउठना पड़ता है, जो थकान के साथसाथ तनाव का भी कारण बनता है और जिस का असर उन की पर्सनल के साथ साथ प्रोफैशनल लाइफ पर भी पड़ता है.

कैसे निबटें:

ऐसे समय में पेरैंट्स को मिल कर जिम्मेदारी निभानी चाहिए, जैसे आप घर पर हैं तो आप अपने हसबैंड के सामने घर के सभी जरूरी काम निबटा लें ताकि बच्चे के सोने पर आप भी अपनी नींद पूरी कर सकें और फिर जब आप का पार्टनर काम से घर लौटे तो आप के फ्रैश होने के कारण उन्हें भी आराम मिल सके. रात को भी इसी तरह मैनेज करने से आप पहले की तरह ही अपना रूटीन बना सकते हैं.

3. इमोशनल बैलेंस:

वर्किंग होते हुए भी पहले घंटों एकदूसरे को टाइम देना, एकदूसरे की हर बात सुनना, लेकिन बाद में बच्चे में बिजी रहने के कारण पार्टनर एकदूसरे को वक्त नहीं दे पाते हैं. रोमांस तो उन की लाइफ में रह नहीं जाता, जिस से उन के बीच इमोशनली अटैचमैंट में कमी आती है.

कैसे निबटें:

पेरैंट्स बनने का मतलब यह नहीं कि आप एकदूसरे के साथ रोमांस जताना ही छोड़ दें, एकदूसरे को छेड़ना ही छोड़ दें, बल्कि पहले की तरह ही पार्टनर के साथ रोमांटिक रहें. उस की फीलिंग्स को समझें और टाइम दें. हो सके तो डिनर या फिर रोमांटिक डेट्स पर भी जाएं. इस से लाइफ में रोमांस बना रहता है वरना नीरसता आने से लाइफ बोरिंग लगने लगती है.

4. अनुशासन में कमी:

अकसर हमें अनुशासन में रहना पसंद होता है जैसे टाइम पर उठना, खाना, कहीं बाहर जाना है तब भी टाइम से निकलना, ऐक्सरसाइज बगैरा. लेकिन पेरैंट्स बनने के बाद हम चाह कर भी खुद को अनुशासन में नहीं रख पाते, जो हमें अंदर ही अंदर परेशान करता है.

कैसे निबटें:

भले ही शुरुआत के 1-2 हफ्ते आप के बहुत बिजी निकलें, लेकिन बाद में आप अपना शैड्यूल बना कर चलें, जैसे अगर आप बाहर ऐक्सरसाइज के लिए नहीं जा सकते तो घर में ही करें और अगर डिनर फिक्स टाइम पर नहीं हो पा रहा तो निडर को टाइम पर करने के लिए उस में ओट्स, सूप, सलाद, खिचड़ी शामिल करें, जो कम समय में बनने के साथसाथ ज्यादा हैल्दी भी है. इस से आप बाहर का खाने से भी बच जाएंगे और स्वस्थ भी रहेंगे. इसी तरह आप बाकी चीजों को भी मैनेज कर के नई स्थितियों से आसानी से निबट सकते हैं. -पारुल भटनागर द्य

पिंपल होने पर ऐसे करें शेव

रोजाना शेव करना ज्‍यादातर पुरुषों के स्किन केयर रुटीन का हिस्सा होता है. लेकिन अगर स्किन पर मुंहासे हो जाएं तो ऐसा करना आपके लिए दर्द का सबब बन सकता है. जी हां मुंहासों वाली त्‍वचा पर शेविंग करना पुरुषों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. क्योंकि केमिकलयुक्‍त शेविंग क्रीम और रेजर की तेज धार की वजह से स्किन संबंधी समस्‍याएं और बढ़ सकती है. तो ऐसे में आप क्‍या करें हम आपको बताते हैं.

चेहरे की सफाई करें

शेव करने से पहले अपने चेहरे को अच्‍छे से शेव कर लें. सबसे पहले एक गर्म टावेल लें और चेहरे पर कुछ समय के लिए लगा लें. ये आपके चेहरे को मुलायम बनाने के साथ ही आपके बालों के रोम को खोलता हैं. इससे आपकी शेविंग आराम से होगी.

एल्‍कोहल फ्री शेविंग ही लें

अगर आपका चेहरा मुंहासों से भरा हुआ है तो अपने लिए बिना खुशबू और एल्‍कोहल फ्री शेविंग क्रीम ही चुनें. आपको ऐसी क्रीम को अवाइड करने की जरुरत है जिसमें सेंसेथिक तत्‍व मौजूद होते हैं. क्‍योंकि इस वजह से आपके चेहरे पर जलन हो सकती है. अपने लिए ऐसी शेविंग क्रीम चुनें जिनमें नेचुरल औयल की मात्रा ज्‍यादा हो.

अच्‍छा रेजर चुनें

अगर आपकी त्‍वचा ज्‍यादा संवेदनशील है तो अपने लिए सिंगल ब्‍लेड वाली रेजर ही चुनें. मल्‍टीपल ब्‍लेड वाली रेजर की वजह से मुंहासों पर कट या फूटने की सम्‍भावना ज्‍यादा रहती है. शेव करने से पहले और बाद में सुनिश्चित कर लें कि आप रेजर एंटी-बैक्‍टीरियल लोशन से साफ करें.

शेविंग औयल लगाएं

शेविंग करने से पहले कोई अच्‍छा सा शेविंग औयल लगाएं. इससे शेविंग करते समय आपको काफी आसानी होगी. चेहरा नर्म होने की वजह से रेजर आराम से आपकी स्किन से फिसलकर काम करेगा और बिना कट के आप शेविंग बना सकते हैं.

हेयर ग्रोथ के हिसाब से शेविंग

शेविंग करते समय हेयर ग्रोथ को जरुर देख लें, क्‍योंकि इस वजह से आप आराम से शेविंग कर सकते हैं. शेविंग करते समय आप इस बात का ध्‍यान रखें कि कहीं रेजर आपके मुंहासों के आसपास न लगें वरना आपके चेहरे पर जख्‍म भी हो सकता है.

आराम से मुंह को धोएं

जब आप एक बार शेव कर लें, तो अपने चेहरे को गुनगुने पानी से धोएं. अगर आपको अभी भी कुछ चिपचिपा सा लग रहा है तो अपने चेहरे को सामान्‍य क्‍लींजर से धोएं. अब चेहरे पर बहुत हल्‍का सा मौइश्‍चराजर लगाएं या आफ्टर शेव लोशन लगाएं जो आपके चेहरे को नर्म मनाने के साथ हाइड्रेड बनाएं रखता है.

असली पहचान

मैं राजेश को जब भी देखती मेरे जेहन में ‘गुलाम’ फिल्म में आमिर खान का गेटअप घूम जाता था. वह बिलकुल उसी तरह बालों की स्टाइल, हाथों में कड़ा और गले में चेन डाल कर घूमता रहता था. वह मेरी पड़ोसिन की बूआ का बेटा था. मेरे परिवार के लोग राजेश को टपोरी समझते थे पर उसी टपोरी ने वह कर दिखाया था जिस के बारे में न तो मैं ने कभी सोचा था न मेरे परिवार में किसी को उम्मीद थी.

आज जब राजेश का फोन आया कि नीलू मां बनने वाली है तो मेरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. मां और बाबूजी के साथ मेरे देवर भी तरहतरह के मनसूबे बनाने लगे और मैं सोचने लगी कि इस दुनिया में कितने ऐसे लोग हैं जो जैसे दिखते हैं वैसे अंदर से होते नहीं और जो बाहर से भोलेभाले दिखते हैं स्वभाव से भी वैसे हों यह जरूरी नहीं.

नीलू मेरी सब से छोटी ननद है. मेरी आंखों के सामने उस की बचपन की तसवीर घूमने लगी और मेरा मन 15 साल पीछे की बातों को याद करने लगा.

मैं इस घर में बहू बन कर जब आई थी तब मेरे दोनों देवर व ननद छोटेछोटे थे. मेरे पति सब से बड़े थे. उन में व बाकी बहनभाइयों में उम्र का काफी फासला था. हमारी शादी के दूसरे दिन ही बूआ सास ने मजाक में कहा था, ‘बहू, तुम्हें पता है कि तुम्हारे पति व अन्य बहनभाइयों में उम्र का इतना अंतर क्यों है? तुम्हारे पति के जन्म के बाद मेरी भाभी ने सोचा थोड़ा आराम कर लिया जाए…’ और इतना कह कर वह जोर का ठहाका मार का हंस पड़ी थीं.

नईनई भाभी पा कर मेरे छोटेछोटे देवर तो मेरे आगेपीछे चक्कर काटते और मेरा आंचल पकड़ कर घूमते रहते थे. पर मैं ने गौर किया कि मेरी सब से छोटी ननद नीलू जो लगभग 6-7 साल की थी, मेरे सामने आने से कतराती थी. यदि वह कभी हिम्मत कर के पास आती भी थी तो उस के भाई उसे झिड़क देते थे. यहां तक कि मांजी भी हमेशा उसे अपने कमरे में जाने को बोलतीं. नीलू मुझे सहमी सी नजर आती.

शादी के कुछ दिन बाद घर मेहमानों से खाली हो गया था. कोई काम नहीं था तो सोचा कमरे में पेंटिंग ही लगा दूं. मैं अपने कमरे में पेंटिंग लगा रही थी कि देखा, नीलू चुपचाप मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई है. मुझे इस तरह उस का चुपचाप आना अच्छा लगा.

‘आओ नीलू, तुम अपनी भाभी के पास नहीं बैठोगी? तुम मुझ से बातें क्यों नहीं करतीं.’

मैं उस से प्यार से अभी पूछ ही रही थी कि मेरा बड़ा देवर संजय आ गया और नीलू की ओर देख कर बोला, ‘अरे, भाभी, यह क्या बातें करेगी…इतनी बड़ी हो गई पर इसे तो ठीक से बोलना तक नहीं आता.’

संजय ने बड़ी आसानी से यह बात कह दी. मैं ने देखा कि नीलू का खिला चेहरा बुझ सा गया. मैं ने सोचा कि इस बारे में संजय को कुछ नसीहत दूं. पर तभी मांजी मेरे कमरे में आ गईं और आते ही उन्होंने भी नीलू को डांटते हुए कहा, ‘तू यहां खड़ीखड़ी क्या कर रही है. जा, जा कर पढ़ाई कर.’

नीलू अपने मन के सारे अरमान लिए चुपचाप वापस अपने कमरे में चली गई.

उस के जाने के बाद मांजी बोलीं, ‘देखो बहू, मैं ने तुम्हारे लिए यह सूट खरीदा है,’ और वह मुझे सूट दिखाने लगीं, पर मेरा मन नीलू पर ही लगा रहा.

शाम को जब यह घर आए तो चायनाश्ते के समय मैं ने इन से पूछा, ‘आप एक बात बताइए कि यह नीलू इतनी डरीसहमी सी क्यों रहती है?’

यह गौर से मुझे देखते हुए बताने लगे कि वह साफसाफ बोल नहीं पाती. दरअसल, नीलू ने बोलना ही देर से शुरू किया और 6 साल की होने के बावजूद हकलाहकला कर बोलती है.

‘आजकल तो कितनी मेडिकल सुविधाएं हैं. आप नीलू को किसी स्पीच थेरेपिस्ट को क्यों नहीं दिखाते?’

उस समय उन्होंने मेरी बात हवा में उड़ा दी पर मैं ने मन ही मन सोचा कि मैं खुद नीलू को दिखाने के लिए किसी स्पीच थेरेपिस्ट के पास जाऊंगी. इस बारे में जब मैं ने बाबूजी से बात की तो उन्होंने भी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई लेकिन उन्होंने सीधे मना भी नहीं किया.

अगले हफ्ते मैं नीलू को शहर की एक लोकप्रिय महिला स्पीच थेरेपिस्ट के पास ले गई.

थोड़ी देर बाद जब थेरेपिस्ट नीलू का विश्लेषण कर के बाहर आईं तो बोलीं, ‘इस का हकला कर बोलना उतनी परेशानी की बात नहीं है जितना इस के व्यक्तित्व का दबा होना. इसे लोगों के सामने आने में घबराहट होती है क्योंकि लोग इस के हकलाने का मजाक उड़ाते हैं. इसी से यह खुल कर नहीं रहती और न ही बोल पाती है.’

मैं नीलू को ले कर घर चली आई. मैं ने निश्चय किया कि नीलू को ले कर मैं बाहर निकला करूंगी, उसे अपने साथ घुमाने ले जाया करूंगी और उस दिन से मैं नीलू पर और ज्यादा ध्यान देने लगी.

मैं ने नीलू के व्यक्तित्व को निखारने की जैसे कसम खा ली थी. इस के नतीजे जल्दी ही हम सब के सामने आने लगे. उस दिन तो घर में खुशी की लहर ही दौड़ गई जब नीलू अपने स्कूल में कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार ले कर घर आई थी.

समय पंख लगा कर कितनी तेजी से उड़ गया, पता ही नहीं चला. मेरे सभी देवरों की शादी हो गई. अब घर में बस, नीलू ही थी. उस ने भी एम.ए. कर लिया था. हम लोग उस की शादी के लिए लड़का देख रहे थे. जल्द ही लड़का भी मिल गया जो डाक्टर था. परिवार के लोगों ने बड़ी धूमधाम से नीलू की शादी की.

शादी के बाद के कुछ महीनों तक तो सब कुछ ठीकठाक चलता रहा. धीरेधीरे मैं ने महसूस किया कि नीलू की आवाज में खुशी नहीं झलकती. मैं ने पूछा भी पर उस ने कुछ बताया नहीं और शादी के केवल 2 साल बाद ही नीलू अकेले मायके वापस आ गई.

उस के बुझे चेहरे को देख कर हम सभी परेशान रहते थे. मैं ने सोचा भी कि कुछ दिन बीत जाएं तो उस के ससुराल फोन करूं. क्या पता पतिपत्नी में खटपट हुई हो.

15 दिन बाद जब मैं ने नीलू के ससुराल फोन किया तो उस की सास व पति के जवाब सुन कर सन्न रह गई.

‘मेरा तो एक ही बेटा है, आप ने हम से झूठ बोल कर शादी की और अपनी तोतली बेटी हमें दे दी. उस पर वह बांझ भी है. मैं तो सीधे तलाक के पेपर भिजवाऊंगी,’ इतना कह कर नीलू की सास ने फोन काट दिया.

घर में सन्नाटा छा गया. मांजी ने मुझे भी कोसना शुरू कर दिया, ‘मैं कहती थी कि यह कभी ठीक नहीं होगी. तुम्हारे उस ‘स्पीच थेरेपी’ जैसे चोंचलों से कुछ होने वाला नहीं है. लो, देखो, अब रखो अपनी छाती पर इसे जिंदगी भर.’

मुझे नीलू की सास की बात सुन कर उतना दुख नहीं हुआ जितना कि अपनी सास की बातों से हुआ. दरअसल, नीलू एकदम ठीक हो गई थी पर नए माहौल में एकाध शब्द पर थोड़ा अटकती थी जोकि पता नहीं चलता था. पर उस के ससुराल वालों ने उसे कैसे बांझ करार दे दिया यह बात मेरी समझ में नहीं आई. क्या 2 साल ही पर्याप्त होते हैं किसी स्त्री की मातृत्व क्षमता को नापने के लिए?

खैर, बात काफी आगे बढ़ चुकी थी. आखिर तलाक हो ही गया. इस के बाद नीलू एकदम चुप सी रहने लगी. जैसे कि मेरी शादी के समय थी. बंद कमरे में रहना, किसी से बातें न करना.

एक दिन मैं ने जिद कर के नीलू को अपने साथ बाहर चलने के लिए यह सोच कर कहा कि घर से बाहर निकलेगी तो थोड़ा बदलाव महसूस करेगी. रास्ते में ही पड़ोस की बूआ का बेटा राजेश मिल गया. उस ने मुझे रोक कर नमस्कार किया और बोला, ‘भाभी, मुझे मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई है और कंपनी वालों ने रहने के लिए फ्लैट दिया है. किसी दिन मम्मी से मिलने के लिए आप मेरे घर आइए न.’

‘ठीक है भैया, किसी दिन मौका मिला तो आप के घर जरूर आऊंगी,’ इतना कह कर मैं नीलू के साथ बाजार चली गई.

एक दिन मैं बूआ के घर गई. उन का घरपरिवार अच्छा था. अपना खुद का कारोबार था. मैं ने बातों ही बातों में बूआ से नीलू का जिक्र किया तो वह बोल पड़ीं, ‘अरे, उस बच्ची की अभी उम्र ही क्या है? कहीं दूसरी शादी करा दें तो ठीक हो जाएगी.’

‘लेकिन बूआ, कौन थामेगा उस का हाथ? अब तो उस पर बांझ होने का ठप्पा भी लग गया है. यद्यपि मैं ने उस के तमाम मेडिकल चेकअप कराए हैं पर उस में कहीं कोई कमी नहीं है,’ इतना कहते- कहते मेरा गला जैसे भर्रा गया.

‘मैं कैसा हूं आप के घर का दामाद बनने के लिए?’ राजेश बोला तो मैं ने उसे डांट दिया कि यह मजाक का वक्त नहीं है.

‘भाभी, मैं मजाक नहीं सच कह रहा हूं. मैं नीलू का हाथ थामने को तैयार हूं बशर्ते आप लोगों को यह रिश्ता मंजूर हो.’

मेरा मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया. आश्चर्य से मैं बूआ की ओर पलटी तो मुझे लगा कि उन्हें भी राजेश से यह उम्मीद नहीं थी.

थोड़ी देर रुक कर वह बोलीं, ‘मैं घूमघूम कर समाजसेवा करती हूं और जब अपने घर की बारी आई तो पीछे क्यों हटूं? फिर जब राजेश को कोई एतराज नहीं है तो मुझे क्यों होगा?’

राजेश मेरी ओर मुड़ कर बोला, ‘भाभी, जहां तक बच्चे की बात है तो इस दुनिया में सैकड़ों बच्चे अनाथ पड़े हैं. उन्हीं में से किसी को अपने घर ले आएंगे और उसे अपना बच्चा बना कर पालेंगे.’

राजेश के मुंह से ऐसी बातें सुन कर मुझे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. जिस की पहचान हम उस के पहनावे से करते रहे वह तो बिलकुल अलग ही निकला और जो सूटटाई के साथ ‘जेंटलमैन’ बने घूमते थे वह कितने खोखले निकले.

मेरे मन से राजेश के लिए सैकड़ों दुआएं निकल पड़ीं. मेरा रोमरोम पुलकित हो उठा था. मुझे टपोरी ड्रेस में भी राजेश किसी राजकुमार की तरह लग रहा था.

घर आ कर मैं ने यह बात परिवार के दूसरे लोगों को बताई तो सब इस के लिए तैयार हो गए और फिर जल्दी ही नीलू की शादी राजेश के साथ कर दी गई. शादी के साल भर बाद ही वे दोनों अनाथ आश्रम जा कर एक बच्चा ले आए और आज जब नीलू खुद मां बनने वाली है तो मेरा मन खुशी से झूम उठा है.

मैं ने राजेश से फोन पर बात की और उसे बधाई दी तो वह कहने लगा कि भाभी, हम मांबाप तो पहले ही बन चुके थे पर बच्चों से परिवार पूरा होता है न. बेटी तो हमारे पास पहले से ही है अब जो भी होगा उसे ले कर कोई गिलाशिकवा नहीं रहेगा, क्योंकि वह हमारा ही अंश होगा.

राजेश के मुंह से यह सुन कर सचमुच मन भीग सा गया. राजेश ने मानवता की जो मिसाल कायम की है, यदि ऐसे ही सब हो जाएं तो समाज में कोई परेशानी आए ही न. यह सोच कर मेरी आंखों में राजेश व उसके परिवार के प्रति कृतज्ञता के आंसू आ गए.

घर में ही था अपराधी

लाश का सिर पूर्व की तरफ था, टांगें पश्चिम की ओर. आंखें बंद और मुंह खुला हुआ. दोनों पैर बिस्तर से नीचे लटके थे, जिन में जूती पहनी हुई थी. घटनास्थल को देख कर पहली ही नजर में लग रहा था कि अपराधियों को मृतका जानती थीं. उन्होंने बिस्तर से उठ कर पैरों में जूती पहनने के बाद इत्मीनान से मुख्य दरवाजे तक पहुंच कर कुंडी खोली होगी.

मृतका के सिर पर 2 गहरे घाव थे. खून बह कर बिस्तर पर फैल गया था. गरदन में सलवार का पोंहचा कस कर बंधा हुआ था. बैड पर ही करीब 8 वर्षीया लड़की की लाश भी पूर्व-पश्चिम दिशा में ही पड़ी थी. लाल रंग के ऊनी स्कार्फ से उस के गले पर भी कस कर गांठ बांध दी गई थी.

अंबाला के थाना बलदेवनगर के प्रभारी रामचंदर राठी ने फोन से मिली सूचना पर राजविहार क्षेत्र की उस कोठी में जा कर उक्त दर्दनाक मंजर देखा था. उस वक्त दिन के साढ़े 11 बज रहे थे.

कोठी के भीतरबाहर लोगों का हुजूम था.

‘‘थाने में फोन किस ने किया था?’’ राठी ने लोगों से पूछा.

‘‘जी सर, मैं ने किया था.’’ करीब 45 वर्ष के दिखने वाले एक सिख ने आगे आते हुए कहा.

उस ने खुद को राजविहार के साथ लगते गांव बरनाला पंजोखरा का सरपंच जसमेर सिंह बता कर आगे कहना शुरू किया, ‘‘अभी कुछ देर पहले मैं इधर से गुजर रहा था कि इस कोठी के सामने भीड़ देख कर रुक गया. दरियाफ्त करने पर कोठी में 2 कत्ल हो जाने का पता चला तो अपना फर्ज समझ कर मैं ने थाने में फोन कर दिया.’’

‘‘ठीक है, धन्यवाद. अब आप पुलिस की इतनी मदद करें कि अपनी तहरीर हमें दे दें, जिस पर एफआईआर दर्ज करवा कर हम अपनी काररवाई आगे बढ़ाएं.’’

इस के बाद राठी ने इस कांड की सूचना कंट्रोलरूम के माध्यम से फ्लैश करवा दी.

इधर जसमेर सिंह से तहरीर ले कर एफआईआर दर्ज करने के लिए थाने भिजवाई गई, उधर क्राइम टीम के इंचार्ज कुलविंदर सिंह व डौग स्क्वायड के हैंडलर महिंद्रपाल के अलावा पुलिस फोटोग्राफर महेंद्र सिंह भी घटनास्थल पर आ पहुंचे. इन्होंने अपनी काररवाई शुरू की ही थी कि सीआईए इंसपेक्टर रिसाल सिंह और डीएसपी (मुख्यालय) करण सिंह भी वहां आ गए.

कुछ वक्त में सभी ने अपनी काररवाइयां पूरी कर लीं. प्रशिक्षित डौग मुख्य सड़क पर पहुंच कर रुक जाता था. लिहाजा यही अनुमान लगाया गया कि हत्यारे वारदात को अंजाम दे कर मुख्य सड़क तक पैदल गए होंगे और वहां से किसी वाहन पर सवार हो कर निकल भागे होंगे.

सीआरपीसी की धारा 174 के अंतर्गत काररवाई करते हुए दोनों लाशों का पंचनामा तैयार कर शवों को पोस्टमार्टम के लिए सिविल अस्पताल भिजवाने के बाद राठी ने खून सने बिस्तर कपड़े वगैरह कब्जे में लेने की काररवाई की. फिर उपस्थित लोगों की सहायता से घटना के सूत्र जोड़ने शुरू किए.

वह मकान प्रसिद्ध लोकगायक जोड़ी सुरेंद्र सिंह चंचल और जसवंत कौर का था. मरने वाली बच्ची इन की 8 वर्षीया बेटी मनप्रीत कौर उर्फ श्रेया थी. 65 वर्षीया मृतक वृद्धा थीं जसवंत कौर की मां दलजीत कौर. गायक पतिपत्नी अपने ट्रुप के साथ अकसर दौरे पर रहा करते थे. पीछे नानीदोहती इस कोठी में अकेली रहती थीं. गायक जोड़ी उन दिनों भी अमेरिका गई हुई थी.

सिवाय इन चंद बातों के राठी को उस वक्त अन्य कोई जानकारी नहीं मिल पाई. घटनास्थल की काररवाई पूरी कर वह थाने लौट गए. तब तक थाने में सरपंच जसमेर सिंह की तहरीर के आधार पर भादंवि की धारा 302 के तहत एफआईआर दर्ज हो चुकी थी. पहली नजर में यह मामला लूटपाट के लिए हत्या का लग रहा था. मगर घर के किसी सदस्य के वहां मौजूद न होने से इस संबंध में फिलहाल निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता था.

मैं उन दिनों शिमला गया हुआ था. डीएसपी करण सिंह से मुझे इस हत्याकांड की जानकारी मिली तो मैं ने राठी को फोन कर के मामले में तेजी लाने और हत्यारों को जल्दी से जल्दी गिरफ्तार करने संबंधी दिशानिर्देश दिए. उस रोज राठी के लिए शायद इस से आगे बढ़ पाना संभव नहीं था. अलबत्ता अब तक के घटनाक्रम का विस्तृत ब्यौरा देने के साथसाथ वह आगे की काररवाई के बारे में भी मुझे विस्तार से बताता रहा.

इस के अगले दिन उस ने जो कुछ मुझे बताया, उस के अनुसार एक लड़का थाने में उस से मिलने आया था. उस ने अपना नाम रंजीत सिंह बताते हुए राठी से कहा था कि वह पटियाला में रहता है और अपनी बुआ जसवंत कौर व फूफा सुरेंद्र चंचल के साथ गानेबजाने का काम करता है. 2 दिन पहले जब उस के फूफा और बुआ को प्रोग्राम देने अमेरिका जाना था, वह पटियाला से पहले लुधियाना गया था और वहां से ड्राइवर मोहिंदर कुमार को साथ ले कर अंबाला आया था.

रंजीत द्वारा राठी को बताए अनुसार, फालतू सामान कोठी के कमरे में रखते समय बुआ ने उस की दादी दलजीत कौर को खर्चे के लिए 50 हजार रुपए नकद दिए थे. इस के बाद वह और मोहिंदर दिल्ली एयरपोर्ट तक के लिए टैक्सी करने अंबाला छावनी चले गए.

जब भी फूफा और बुआ को प्रोग्राम के लिए बाहर जाना होता था तो वह कार घर पर पार्क करवा कर ड्राइवर मोहिंदर को छुट्टी दे देते थे. कभीकभी वह वह कार अपने घर लुधियाना भी ले जाया करता था. उन दिनों वह एक रोज के लिए कार ले कर गया था. रंजीत के जरिए उसे वापस बुलवा लिया गया था.

‘‘कार घर पर पार्क कर के हम लोग टैक्सी से पालम एयरपोर्ट के लिए रवाना हुए. गाड़ी में टैक्सी ड्राइवर के अलावा मोहिंदर, मैं और बुआ फूफा थे. फ्लाइट का समय होने पर फूफा और बुआ एयरपोर्ट के अंदर चले गए. टैक्सी वाले को भी हम ने फारिग कर दिया था.

फ्लाइट चली जाने पर मैं और मोहिंदर बस से अंबाला के लिए चल पड़े. इस से पहले विदा होते वक्त बुआ ने मोहिंदर और मुझ से कहा था कि हम पहले अंबाला बीबी (दलजीत कौर) के पास जा कर उन की जरूरतों की बाबत पूछे और उस के बाद ही कहीं और जाएं.’’ रंजीत ने राठी को बताया था.

उस के आगे बताए अनुसार मोहिंदर ने एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही अपनी मजबूरी जता दी थी कि उसे लुधियाना में जरूरी काम है सो वह अंबाला नहीं जा पाएगा. दिल्ली से हमें लुधियाना के रूट वाली बस मिल गई, जिस पर सवार हो कर रंजीत अंबाला के बलदेवनगर में उतर गया व मोहिंदर उसी बस से लुधियाना चला गया.

उसी शाम करीब 4 बजे दलजीत कौर से मुलाकात करने के बाद रंजीत पटियाला जाने के लिए जब बलदेवनगर स्टापेज से बस पर चढ़ा तो उसे लुधियाना की ओर से आने वाली बस से मोहिंदर उतरते दिखा. उसे देख कर उस के मन में यही बात आई कि वह बीबी से मिलने आया होगा.

मगर इस के अगले दिन उसे किसी से इस हत्याकांड की खबर मिली. उस ने अमेरिका फोन कर के फूफा और बुआ को घटना के बारे में बताया. यह दुखद समाचार सुनते ही फूफा ने उसे तुरंत अंबाला पहुंचने को कहा. साथ ही कहा कि जब तक वे लोग वापस नहीं आ जाते, लाशों का संस्कार न किया जाए.

राठी ने सीआरपीसी की धारा 161 के तहत रंजीत का बयान दर्ज कर लिया.

अगले दिन मैं भी शिमला से लौट आया. मैं ने देखा इस केस को ले कर अंबाला पुलिस की काफी किरकिरी हो रही थी. मेरे अंबाला पहुंचते ही अखबार वालों ने मुझे घेर लिया. वाकई यह केस हमारे लिए चुनौती बना हुआ था. उसी रोज मैं ने पुलिस की इमरजेंसी मीटिंग बुलाई. इस मीटिंग में जो अंतिम निष्कर्ष निकला, वह यही था कि किसी भी तरह मोहिंदर को राउंडअप कर के उस से पूछताछ की जाए.

मगर उस का पता किसी को मालूम नहीं था. रंजीत ने हमें उस के लुधियानावासी होने की जानकारी दी थी. फिर वह हमें वहां के एक घर में ले भी गया था, लेकिन मालूम पड़ा कि 2 दिन पहले वह यहां का अपना किराए का कमरा खाली कर के चला गया था. कहां गया था, इस की किसी को खबर नहीं थी. न ही किसी को उस के मुस्तकिल पते की जानकारी थी.

हमें लगा कि उस का पक्का पता सुरेंद्र चंचल अथवा जसवंत कौर के पास जरूर होगा. अब उन से फोन पर भी संपर्क नहीं हो पा रहा था. वे इंडिया के लिए निकल चुके थे. मोबाइल फोंस की तब तक शुरुआत नहीं हुई थी.

खैर, उसी दिन गायक दंपति अंबाला पहुंच गए. सब से पहले उन्होंने मुझ से ही संपर्क किया. मैं ने थाने में इन के भी 161 के बयान दर्ज करवा दिए.

ये लोग मूलरूप से लुधियाना के गोपालनगर के रहने वाले थे. अंबाला में उन का हवेलीनुमा मकान था. मगर आतंकवाद के दिनों में इन लोगों ने अंबाला के बलदेवनगर में अपना मकान बनवा लिया था.

दोनों व्यावसायिक सिंगर थे. प्रोग्राम देने के लिए उन्हें अकसर घर से बाहर जाना पड़ता था. इस के लिए उन्होंने अंबेसडर कार रखी हुई थी, जिसे मोहिंदर कुमार पुत्र मनोहरलाल निवासी गोराया, जालंधर चलाया करता था. इन दिनों वह लुधियाना में रहता था, जहां उस की पत्नी किसी फैक्ट्री में नौकरी करती थी.

गायक जोड़ी को जब प्रोग्राम देने विदेश जाना होता था, कार अंबाला वाले घर में पार्क कर दी जाती थी. किसी को भी यह कार चलाने की मनाही होती थी. इन दिनों मोहिंदर अपने परिवार के साथ लुधियाना चला जाया करता था. इस बार भी ऐसा ही हुआ था.

पिता के देहांत के बाद परिवार में होने वाले संपत्ति विवाद से परेशान हो कर पिछले कुछ समय से जसवंत कौर अपनी मां को अपने साथ रखे हुए थीं. उन की एकलौती बेटी स्थानीय कौनवेंट स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ती थी.

अपने बयान दर्ज करवाने के बाद गायक दंपति ने घर पहुंच कर चोरी गए सामान की सूची तैयार की. नकदी और गहने वगैरह मिला कर यह भारीभरकम चोरी का मामला था. हालांकि इन लोगों को इस नुकसान की बजाए परिवार के 2 सदस्यों के कत्ल हो जाने का गहरा सदमा था. वे यही गुहार लगाए हुए थे कि कातिलों को जल्दी से जल्दी पकड़ा जाए.

मैं ने मामले में रुचि लेते हुए उन लोगों को अपने औफिस में बुलवा कर हत्याकांड में किसी पर शक होने की बाबत पूछा. उन्होंने स्पष्ट रूप से तो कुछ नहीं कहा, अलबत्ता उन की बातों से यह जरूर लगा कि उन्हें मोहिंदर पर शक था. हमारे शक की सुई पहले ही उस तरफ जा रही थी. लिहाजा उन्हें साथ ले कर एक पुलिस पार्टी लुधियाना के अलावा कुछ अन्य जगहों पर भी भेजी गई, लेकिन मोहिंदर पुलिस के हत्थे न चढ़ा.

इस तरह 5 दिनों का समय और निकल गया, मगर हम लोग उसे पकड़ पाने में नाकाम रहे.

उन दिनों इस केस को ले कर यह चर्चा भी जोरों पर थी कि पंजाब के डीजीपी के.पी.एस. गिल के औपरेशन हीलिंग टच में इस गायक दंपति ने गिल के कंधे से कंधा मिला कर गांवगांव में जा कर अपनी कला बिखेरते हुए उन्हें अपना सहयोग दिया था. इस वजह से वे लोग भी आतंकवादियों की निगाहों में आ गए थे. हो सकता है कि उन के घर पर बरपा कहर आतंकवादियों की ही देन हो.

मगर हम लोग इसे आतंकी वारदात कतई नहीं मान रहे थे, इसलिए इस दिशा में हम ने कदम बढ़ाए ही नहीं. हम अपने पहले वाले प्रयासों से ही जुडे़ रहे.

हमारे प्रयास रंग लाए. आखिर हम ने लुधियाना के शिमलापुरी इलाके से मुखबिरी के आधार पर मोहिंदर को पकड़ लिया. उस ने छूटते ही कहा, ‘‘मेरी बहन बनी हुई है जसवंत कौर, मुझे पिछले कई सालों से राखी बांधती आ रही है. घर के सब लोग मुझ पर पूरा विश्वास करते थे. बीबी और श्रेया का कत्ल होने की बात मुझे अब आप लोगों से मालूम पड़ रही है.’’

मगर जब उसे अंबाला ला कर कस्टडी रिमांड में ले कर पूछताछ शुरू की गई तो उसे टूटते देर नहीं लगी. दोनों हत्याओं का अपराध कबूल करते हुए उस ने बताया कि लूटे गए रुपए व जेवरात उस की बीवी किरनबाला के पास थे. इस पर किरन को भी लुधियाना के एक घर से गिरफ्तार कर लिया गया. उसे भी अदालत पर पेश कर के कस्टडी रिमांड हासिल करने के बाद हम ने पतिपत्नी से व्यापक पूछताछ की.

इस पूछताछ में जो कुछ उन्होंने हमें बताया, उस से इस डबल मर्डर के पीछे की कहानी कुछ इस तरह सामने आई—

किरनबाला की शादी लुधियाना के गांव अमरोली निवासी धर्मपाल के साथ हुई थी, जिस की 8 महीने बाद सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी. इस के कुछ समय बाद ही किरन ने एक बेटे को जन्म दिया. इसे ले कर विधवा के रूप में वह अपने पिता के साथ लुधियाना में जा कर रहने लगी.

कुछ अरसा बाद पिता ने उस की शादी मोहिंदर कुमार से कर दी. गायक जोड़ी उन दिनों लुधियाना में ही रह रही थी, जिन के यहां मोहिंदर नौकरी करता था. मोहिंदर भले ही कार ड्राइवर था, लेकिन मालकिन जसवंत कौर ने उसे अपना धर्मभाई बना लिया था.

इस सिलसिले में मोहिंदर ने हमें बताया था कि धर्मभाई तो वह बन गया था, मगर जसवंत कौर ने धर्मभाई के नाम पर कम पैसों में ज्यादा काम लेने का सिलसिला बना लिया था. वह उसे कई बार अपने प्रोग्रामों में भी ले जाया करती थी, जहां इन लोगों के साथ पूरी रात जागने पर उसे 50 रुपए मिला करते थे.

किरनबाला के पास पहले से लड़का था, मोहिंदर से शादी के बाद 2 लड़कियां और हो गईं. हालांकि मियांबीवी दोनों कमाते थे तो भी इतनी कमाई न थी कि घर की गुजर सलीके से हो पाती. बकौल मोहिंदर उस की मालकिन के पास खूब पैसा था, लुटाती भी दोनों हाथों से थी मगर अपने व अपने परिवार पर. उस ने उन लोगों की समस्या को समझने का कभी प्रयास नहीं किया था. बस धर्मभाई कह कर ही अपना उल्लू साधती रहती थी.

मोहिंदर के बताए अनुसार, विदेश जाते वक्त महज कुछ दिनों के गुजारे के लिए जसवंत कौर ने अपनी मां के हाथ पर नोटों की गड्डियां रख दी थीं, जबकि उस से केवल यह बोला गया था कि धर्मभाई होने के नाते उसे उस की मां का पूरा ध्यान रखना होगा, भले ही उसे लुधियाना से कितनी बार भी अंबाला आना पड़े. इस के लिए जसवंत ने उसे 500 रुपए दिए थे.

बकौल मोहिंदर दिल्ली से लौटने के बाद वह पसोपेश में था. जसवंत कौर पर उसे गुस्सा था, साथ ही पैसों की जरूरत भी थी. आखिर एक योजना बना कर वह उस रोज रात के 11 बजे राजविहार वाली कोठी पर जा पहुंचा. हालांकि इस से पहले लुधियाना जा कर वह 4 बजे अंबाला भी आ आया था. मगर इधरउधर घूम कर टाइम पास कर के रात गहराने का इंतजार करता रहा था.

खैर, रात में 11 बजे कोठी पर पहुंच कर उस ने घंटी बजाई तो वृद्धा दलजीत कौर ने दरवाजा खोलते हुए उस से पूछा, ‘‘तुम! इतनी रात गए?’’

मोहिंदर ने बस खराब होने का बहाना बना दिया. मोहिंदर द्वारा हमें बताए अनुसार, इस के बाद दलजीत कौर ने उस से भीतर चल कर खाना खा लेने को कहा. इस पर खाना खा चुकने की बात कहते हुए उस ने दलजीत कौर से उस का एक काम कर देने को कहा. इस तरह बातचीत करते हुए वे दोनों भीतर चले गए.

भीतर श्रेया अभी जाग रही थी. वह बैड पर रजाई में दुबकी बैठी थी. सामने टीवी चालू था. दलजीत कौर भी उस के पास बैड के किनारे बैठ गईं.

बकौल मोहिंदर वह कुछ देर वहीं खड़ा टीवी पर आते दृश्यों को देखता रहा. फिर दलजीत कौर की ओर इत्मीनान से बढ़ते हुए बोला, ‘‘बीबी, मैं ने आप से कहा है कि आप मेरा एक काम कर दो.’’

‘‘हां, कहो क्या काम है?’’ दलजीत कौर ने सहज भाव से पूछा.

‘‘जसवंत ने चलते वक्त जो पैसा आप को दिया है, वह मुझे दे दो.’’

‘‘क्यों, तुम्हें इतने पैसों का क्या करना है?’’

‘‘और आप को इन रुपयों का क्या करना है?’’

‘‘मेरी बहुत सी जरूरतें हैं.’’

‘‘आप लोगों की ऐसी कोई खास जरूरत नहीं, जिस के लिए इतना पैसा चाहिए. मेरी जरूरतें आप से भी कहीं ज्यादा और अहम हैं.’’

‘‘तुम्हें तनख्वाह नहीं मिलती क्या? उस से अपनी जरूरतें पूरी किया करो. फिर प्रोग्राम पर जाने का अलग से पैसा मिलता है. खानेओढ़ने को भी अकसर यहां से मिल जाता है. तो और कौन सी जरूरतें रह गईं तुम्हारी?’’

‘‘देखो बीबी, रुपया चुपचाप मेरे हवाले कर दो. तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, मेरे कई काम संवर जाएंगे. न दिए तो तुम्हें मार डालूंगा और तुम्हारी इस नवासी को भी.’’

मोहिंदर के बताए मुताबिक, उस ने यह बात कहते वक्त श्रेया की ओर इशारा भी किया. वह अभी तक टीवी देखने में मस्त थी. बात उस के कानों में पड़ी तो उस ने पास पड़ा लकड़ी का सोटा उठा कर मोहिंदर पर वार कर दिया.

‘‘एक छोटी बच्ची से मुझे यह उम्मीद कतई न थी. फिर उस का दुस्साहस देख कर मैं एकबारगी चौंका, वहीं गुस्से से भी भर उठा. तेजी से पीछे घूम कर मैं ने सोटा श्रेया से छीन लिया. फिर उसी से दलजीत कौर व श्रेया पर दनादन वार करने लगा. दोएक दफा दोनों चीखीं, फिर उन की आवाजें गले में ही घुट कर रह गईं.

दोनों निढाल हो कर बैड पर गिर पड़ीं. सोटे के वार से दलजीत कौर का सिर 2 जगह से फट गया. उन दोनों के मर जाने का विश्वास मुझे हो गया था तो भी मैं ने पास पड़े स्कार्फ से श्रेया की ओर सलवार के पोंहचे से दलजीत कौर की गरदन बुरी तरह कस कर गला घोंट दिया. इस के बाद जो कुछ हाथ लगा, बैग में डाल लिया.

रात में ही मैं वापस लुधियाना जा कर लूटा गया सारा सामान और नकद पैसा अपनी घरवाली के हवाले कर आया. पहले तो वह घबराई, फिर रातोंरात अमीर बनते देख सहज हो गई. इस के बाद अगले ही दिन किराए का मकान छोड़ कर हम शिमलापुरी में रहने लग गए.’’ मोहिंदर ने हमें बताया.

पूछताछ के बाद हम लोगों ने मोहिंदर व उस की घरवाली की निशानदेही पर लूटा गया सारा सामान मय नकदी के बरामद कर लिया.

आगे की काररवाई के लिए विवेचक रामचंदर राठी ने  केस के अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट अभी अदालत में दाखिल नहीं की थी, तभी उस का तबादला कुरुक्षेत्र हो गया. उस की जगह आए इंसपेक्टर सुरेंद्र सिंह ने चालान तैयार कर अदालत में पेश कर दिया. इस के बाद मेरा ट्रांसफर भी अंबाला पुलिस चीफ से एसपी (क्राइम) के पद पर हो गया. केस सेशन कमिट हो कर अंबाला के सत्र न्यायालय में चलता रहा, जहां से मोहिंदर को उम्रकैद और उस की पत्नी किरनबाला को 3 साल कैद बामशक्कत की सजा हुई.

मुझे याद है कि एक दिन जब मैं मोहिंदर से पूछताछ कर रहा था तो उस ने मुझ से एक साथ 3 बातें बोली थीं, ‘‘साहब, आज जितनी भी ज्यादतियां हो रही हैं, सब रिश्तों के नाम पर ही होती हैं. जसवंत कौर ने मुझे अपना धर्मभाई बना कर जो मान बख्शा, उस रिश्ते की आड़ में वह मुझ से ज्यादतियां भी करती रही. ज्यादती और बेबसी की अगली सीढ़ी अपराध ही होती है जो मैं ने किया.’’

मुझ से कहे बिना न रहा गया था कि आधार कोई भी हो, अपराध तो अपराध है. अपराध को अंजाम देने के बाद अपराधी को उस अपराध की सजा तो भुगतनी ही पड़ती है.          ?

—कथा में पात्रों के नाम बदले हुए हैं.

  प्रस्तुति: मनोहर शुक्ला

जनता का समय

23 मई को जनता का फैसला सुनाए जाने तक कम से कम सरकारी विज्ञापनों के खोखले वादों से तो छुटकारा मिलेगा. चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता लागू होने के पहले के सप्ताहों में सरकार ने जिस तरह विज्ञापनबाजी की है वह अभूतपूर्व है. उस ने समाचारपत्रों में एक एक दिन में 10-10, 12-12 पृष्ठों के विज्ञापन छपवा कर जनता पर मानसिक प्रहार किया है. विरोधी दलों के पास तो सरकारी खजाना नहीं था,  सो, वे बेचारे मन मसोस कर रह गए.

अब 60 दिनों तक जो सरकारी शांति रहेगी, वह जनता को मौका देगी कि वह, क्या सही था क्या गलत था, का फैसला कर सके. 2014 में हिंदूवादी लहर बनाने के साथ ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, ‘15 लाख रुपए खाते में आएंगे’, ‘भ्रष्टाचारमुक्त भारत बनाएंगे’, ‘सब का साथ सब का विकास’ आदि नारों और नरेंद्र मोदी के नए तरीके के धुआंधारी भाषणों के बल पर जीत कर आई भारतीय जनता पार्टी से जनता को उम्मीदें थीं. भाजपा के कट्टर हिंदू तेवरों से जो डरे थे वे भी एक नए तरह के बेहतर शासन की उम्मीद कर रहे थे.

चुनाव आयोग के मौडल कोड औफ कंडक्ट लागू होने के बाद के ये 60 दिन तय करेंगे कि 2019 में अब जनता का फैसला क्या है? जनता हमेशा सही होती है, यह जरूरी नहीं. जनता ने खुशी खुशी से हमारे ही देश में भी और कई दूसरे देशों में भी बेईमानों, झूठों, विघटनकारियों को चुना है. कितने ही परिपक्व लोकतंत्र गलत नेताओं के हाथों में सौंपे जा चुके हैं. कितने ही देशों में जनता ने तानाशाहों को खुशी खुशी वोट दिया है. जनता ने धार्मिक, देशप्रेम, बराबरी के नारों में उलझ कर गलत सरकारें बनाई हैं.

भारत का लोकतंत्र कोई अलग नहीं है. यहां का मतदाता जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण, पैसे, रिश्वत के आधार पर वोट देता है. ज्यादातर मामलों में उसे मालूम ही नहीं है कि सही क्या है, गलत क्या है. जनता की राय सही हो, यह कोई गारंटी नहीं है. वहीं, इस के अलावा कोई और उपाय भी नहीं है सरकारें बनाने का. राजाओं के दिन लद गए हैं और सभी लड़ाकू राजा अच्छे प्रबंधक साबित नहीं होते.

अच्छे वक्ता अच्छे शासक नहीं होते. अच्छे शासक पूरी बात साफ शब्दों में कह सकें, जरूरी नहीं. जनता को तो उसी आधार पर वोट देना होगा जो वह सुनेगी, देखेगी या महसूस करेगी. ये 60 दिन जनता के लिए मनन करने के हैं. पर जनता में सही फैसला लेने की क्षमता हो, यह जरूरी नहीं.

भाजपाई तीर…

भारतीय जनता पार्टी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन होने के बाद भी उन पार्टियों पर ऐसे तीर नहीं छोड़ रही जैसे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर छोड़ रही है. जिन्हें जातिवादी और विभाजक कह कह कर गालियां दी जाती थीं उन पर भाजपा की ट्रौल फौज चुप है और रातदिन केवल राहुल गांधी और सोनिया गांधी का मखौल उड़ाने की कोशिशें हो रही हैं. हालांकि, ये कोशिशें अब अपने खिसकते समर्थकों को बचाने के लिए हैं, दूसरों को भाजपा में लाने के लिए नहीं.

मायावती और अखिलेश का प्रभाव केवल उत्तर प्रदेश में है. दलित होने के कारण दूसरे राज्यों में मायावती इक्कादुक्का विधायकों या कौर्पोरेशनों में 5-7 पार्षदों को ही जिता पाती हैं. देशभर के दलितों में वे गहरी पैठ नहीं बना पाईं. दूसरे राज्यों में दलित या तो राज्य तक सीमित रहने वाली पार्टी को वोट देते हैं या फिर कांग्रेस से जुड़े हैं.

उत्तर प्रदेश में दम ठोकने वाली समाजवादी पार्टी का भी यही हाल है. मुलायम सिंह ने कभी इसे उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं फैलाया और उन का समर्थन कई राज्यों में कांग्रेस के साथ है, तो कई राज्यों में किसी स्थानीय पार्टी के साथ.

उत्तर प्रदेश अकेला राज्य है जहां दलितों व पिछड़ों की पार्टियां हैं और दोनों ने कईकई बार राज भी किया है. प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता में या उस के करीब भी आए अरसा हो चुका है.

मायावती और अखिलेश यादव के खिलाफ सोशल मीडियाई मोर्चा न खोलना भाजपा के लिए संकट पैदा करेगा क्योंकि 80 सीटों पर मुख्य मुकाबला तो उन्हीं के गठबंधन से है. चुनावी नतीजों के बाद उन्हीं से मिलना न पड़े, इस के लिए उन पर हमला न किया जाए, चुनावी जंग में यह भी संभव नहीं है.

यह देश ऐसा है जहां वक्त पर गधे को बाप बनाना बुद्धिमानी मानी जाती है और जहां पौराणिक गाथाओं में दुश्मनों को पटाना या वक्त पर जी हुजूरी करना धर्मयुत है. अमृतमंथन में भी यही हुआ था जिस में विष्णु के 2 अवतार बने थे- कश्यप व मोहिनी. तीसरे अवतार शिव ने जहर पिया था. अब जहां अवतारों ने पहले दस्युओं के साथ काम करने पर और बाद में उन्हें धोखा देने पर मुहर लगा दी हो, वहां उन को हजारों साल बाद पूजने वाले कैसे गलत हो सकते हैं?

सत्ता के अमृतमंथन में कब, किस की जरूरत पड़ जाए, यह नहीं कहा जा सकता. इसलिए मायावती और अखिलेश यादव फिलहाल भाजपा की ट्रौल आर्मी की गोलियों से बचे हैं. आने वाले दिनों में पता चलेगा कि मोहिनी अवतार बन कर अमृत का घड़ा धोखे से छीन कर कैसे देवताओं के हाथों में आता है. पुराणों में ब्लूप्रिंट तैयार है.

बेरोजगारी बेलगाम?

राष्ट्रीय सैंपल सर्वे औफिस आजकल विवादों के तूफान में घिरा है क्योंकि उस की रिपोर्ट, जिसे मोदी सरकार जारी करने से कतरा रही है, कहती है कि युवाओं में 2011-12 के मुकाबले 2017-18 तक बेरोजगारी में 3 गुना वृद्धि हो गई है. करोड़ों नौकरियां पैदा कर के देश में सब का विकास करने का वादा कर के जीती भाजपा के लिए ये आंकड़े शर्मिंदगी पैदा करने वाले हैं, इसलिए वह इन्हें जारी करने में हिचकिचा रही है. सर्वे औफिस कहता है कि ये आंकड़े सरकार की अनुमति के बिना जारी किए जा सकते हैं.

देश में युवाओं में बेकारी तेजी से बढ़ रही है. गांवों में युवाओं की तादाद बहुत ज्यादा है. वे थोड़ाबहुत पढ़ कर बेरोजगार बने हुए हैं. वे सब सरकारी नौकरी चाहते हैं क्योंकि उन्होंने और उन के मातापिताओं ने देखा है कि पढ़लिख कर सरकारी बाबू बन कर लोग दिनभर मौज उड़ाते हैं और शाम को रिश्वत का पैसा घर लाते हैं. गांवों के आज के युवा न खेतों में काम करना चाहते हैं न कारखानों में.

खेतों और कारखानों में काम भी अब कम हो गया है. पहले नोटबंदी ने मारा, फिर जीएसटी ने. ऊपर से चाइनीज सामान बाजार में छा गया, क्योंकि उस के लिए विदेशी मुद्रा विदेशों में काम कर रहे भारतीय मजदूर अपने डौलर व दिरहम हवाईजहाज भरभर कर भेज रहे हैं. नई तकनीकों की वजह से खेतों और कारखानों में नौकरियां कम होने लगी हैं.

रिपोर्ट कहती है कि बेकारी का आंकड़ा जो अब है वह 45 सालों में सब से ज्यादा है. रेलवे क्लर्कों या पटवारियों की कुछ ही नौकरियों के लिए लाखों आवेदन मिलते हैं. सरकार के लिए तो आवेदन सिर्फ कागज भर होता है पर जिस ने आवेदन किया होता है वह रातदिन इसी का सपना देखता रहता है और उस का किसी और काम में मन नहीं लगता. वह परिवार व देश पर बोझ होता है और सरकार के लिए मात्र एक गिनती.

देश में बढ़ते अपराधों, गौरक्षकों, मंदिरों में पूजापाठ के पीछे यही बेकारी है. बैठे ठाले युवा कहीं से भी पैसा जुटाना चाहते हैं और वे कुछ भी कर लेते हैं. शिक्षा ने उन्हें थोड़ा समझदार बना दिया है, लेकिन इतना नहीं कि वे खुद अपने बल पर कारखाने खड़े कर सकें.

सरकार सफाई दे रही है कि नौकरियां हैं पर कम पैसे वाली हैं. यह बड़ी लचर दलील है. नौकरी वह होती है जो संतोष दे, घर चलाने के लायक हो और नौकरी पाने के बाद युवा किसी और सपने की आरे न भटके. सरकार इन युवाओं को नौकरी नहीं दे सकती क्योंकि उस ने तो मान लिया है कि नौकरी भाग्य से मिलती है, पूजापाठ से मिलती है, हिंदू धर्म की रक्षा से मिलती है, गांधी परिवार को दोष देने से मिलती है. अमित शाह और नरेंद्र मोदी के बयानों को सुन लें, तो कहीं काम की कहानी नहीं मिलेगी, सिर्फ मंदिर, कुंभ, नर्मदा यात्रा, संतोंमहंतों की बातें मिलेंगी.

चुनाव से एकदम पहले आए आंकड़े विपक्षियों के लिए सुखद हैं पर बेकारी की समस्या का हल उन के पास भी नहीं है.

सोशल मीडिया और झूठ

फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप ने झूठ का प्रचार करने में धर्मों को भी मात दे दी है. हर धर्म को अपने झूठ को ही अंतिम सत्य साबित करने में 100-200 या इस से भी ज्यादा साल लगे हैं, पर इन हाईटैक कंपनियों ने झूठ को सच मानने की आदत कुछ सालों में ही डलवा दी.

धर्मों की खबर फैलाने में लंबा समय लगता था. जिस ने झूठ गढ़ा उसे अपने आसपास के 10-20 लोगों को झूठ दूत बना कर दूसरी जगह भेजना पड़ता था, जिस में महीनों लगते थे. लेकिन आज के टैक प्लेटफौर्मों पर झूठ तैयार करो, और घंटों में दुनिया के कोनेकोने में पहुंचा दो. अगर वहां झूठ को सच मानने वाले मिले तो वह वायरल हो कर कुछ ही दिनों में सदासदा के लिए सच बन जाता है.

फर्क यह रहा है कि धार्मिक झूठ ने पक्की जमीन ली थी. उसे जिस ने माना अंतिम सत्य मान लिया और उसे झूठ कहने वाले का सिर काट दिया या अपना कटवा लिया. पर झूठ को झूठ नहीं माना. लेकिन हाईटैक झूठ की पोल तेजी से खुलने लगी और अब फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप के लिए खतरे की घंटी बज रही है कि उन पर भरोसा किया जाए या नहीं.

अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया का जम कर फायदा उठाया क्योंकि वहां के गोरों को डर था कि काले, भूरे, सांवले, पीले लोग उन के देश पर कब्जा न कर लें. भारत में 2014 में विकास और अच्छे दिनों के पीछे दलितों, पिछड़ों की बढ़ती तादाद और ताकत डरा रही थी. दोनों जगह चुनावों में इस स्पैशल मीडिया पर जम कर झूठ फेंका गया. अब टैक कंपनियां थोड़ी सावधान हुई हैं. फेसबुक ने अब संदेश पढ़ने शुरू कर दिए हैं और उस ने उन के अकाउंट बंद करने भी शुरू कर दिए हैं जो भ्रामक झूठ या घृणा फैलाने में माहिर हैं. मतलब यह है कि अब फेसबुक की चिट्ठी डाकिया पढ़ने लगा है और यदि उसे लगे कि उस में गलत बातें हैं तो वह चिट्ठी दबा सकता है और भेजने वाले या पाने वाले को बैन कर सकता है.

फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप और गूगल अब सरकारों से ज्यादा ताकतवर हो गए हैं. वे पार्टियों के ऊपर हैं. वे जनता के अकेले मार्गदर्शक हैं जबकि उन्हें जनता के भले की नहीं, अपने पैसों की चिंता है. वे पैसा मिले तो हर झूठ को फैला देंगे, न मिले तो सच को झूठों के अंबार के नीचे दबा देंगे.

लोग इस की भारी कीमत चुकाने लगे हैं. आज अज्ञान और गलत ज्ञान जम कर फैल रहा है जबकि विज्ञान पिछड़ रहा है. नतीजा यह है कि लोग चुटकुलों से जीवन जीना सीख रहे हैं, पोर्न से साथी बना रहे हैं, मोबाइल के कैमरे से खींची अंतरंग तसवीरों को इन टैक प्लेटफौर्मों से फैलाने की धमकियां दे कर अपनी बात मनवा रहे हैं. इन का असर गलत सरकार चुनने से ले कर घर, परिवार और संबंधों में गलतफहमी पैदा करने तक पर पड़ रहा है.

ब्रैस्टफीडिंग कराने से मां को होते हैं ये फायदे

डिलिवरी के फौरन बाद आप ने डाक्टर को यह कहते सुना होगा कि बच्चे को ब्रैस्टफीड जरूर कराएं, क्योंकि मां का दूध बच्चे के लिए बहुत फायदेमंद होता है. डाक्टर ही नहीं दादी मां, सास या फिर आसपास की अनेक महिलाएं भी शिशु को ब्रैस्टफीड कराने की सलाह देती हैं, क्योंकि वे इस के फायदों को बखूबी जानती हैं.

स्वास्थ्य मंत्रालय और विश्व स्वास्थ्य संगठन शिशु को जन्म के बाद पहले 6 महीने तक केवल ब्रैस्टफीड कराने की सलाह देते हैं. इतना ही नहीं यदि बच्चा ठोस आहार शुरू कर देता है, तो उस के बाद भी आप शिशु को ब्रैस्टफीडिंग कराना जारी रख सकती हैं. इस से आप के स्वास्थ्य पर कोई बुरा असर नहीं पड़ेगा.

डाक्टर अनिता गुप्ता, वरिष्ठ सलाहकार व स्त्री रोग विशेषज्ञा, फोर्टिस ला फेम, कहती हैं कि जैसे ही डिलिवरी होती है हम तुरंत ब्रैस्टफीड शुरू करा देते है. इस से 2 फायदे होते हैं. पहला, मां जिस पीड़ा में होती है उस से उस का ध्यान हट जाता है और दूसरा बच्चे की मां का गाढ़ा पीला दूध जिसे कोलोस्ट्रम कहते हैं पीने को मिल जाता है, जिस से बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है.

डा. अनिता यह भी बताती हैं कि हाइजीनिकली भी ब्रैस्टफीडिंग सुरक्षित होती है, क्योंकि बोतल या कटोरी चम्मच से दूध पिलाने में इन्फैक्शन का खतरा बढ़ जाता है.

 

मां को ब्रैस्टफीडिंग के फायदे….

ब्रैस्टफीडिंग कराने से केवल शिशु का ही विकास नहीं होता, बल्कि मां की सेहत में भी सुधार होता है.

ब्रैस्टफीडिंग कराने से गर्भाशय सिकुड़ कर पहले की स्थिति में आ जाता है.

ब्रैस्टफीडिंग कराने से कुछ और समय के लिए आप का डिंबोत्सर्जन रूक सकता है, हर महीने आने वाली माहवारी कुछ और महीनों के लिए रूक सकती है.

ब्रैस्टफीडिंग कराते ही मां और बच्चे के बीच भावनात्मक रिश्ता तो कायम होता है, साथ ही प्रसव के बाद होने वाला तनाव भी कम हो जाता है.

ब्रैस्टफीडिंग कराने से महिलाओं को ओवेरियन और ब्रैस्ट कैंसर होनेकी आशंका कम हो
जाती है.

शिशु को ब्रैस्टफीडिंग कराने से बढ़ा हुआ वजन कम हो जाता है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि शिशु के लिए ब्रैस्ट में दूध बनने से आप की 400-500 कैलोरी नष्ट हो जाती है.

एक शोध के अनुसार ब्रैस्टफीडिंग कराने वाली महिलाओं को औस्टियो पोरोसिस होने का खतरा कम होता है.

ब्रैस्टफीडिंग को बर्थकंट्रोल प्रोटैक्शन भी कहा जाता है. यदि आप कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखें तो ओवलेटिंग से भी बच सकती हैं.

 

शिशु के लिए फायदे…

ब्रैस्टफीडिंग शिशु को संपूर्ण पोषण प्रदान करती है, जिस में विटामिन, प्रोटीन और फैट सब मौजूद होते हैं. मां के दूध में वे सभी गुण होते हैं, जो बच्चे के विकास में सहायक होते हैं.

ब्रैस्टफीडिंग में ऐंटीबौडी मौजूद होते हैं, जो शिशु को वायरस और बैक्टीरिया से लड़ने में मदद करते हैं. इस से शिशु में ऐलर्जी और अस्थमा होने की संभावना कम होती है.

ऐसे शिशु जो केवल 6 माह तक मां के दूध पर निर्भर रहते हैं, वे डायरिया, इन्फैक्शन आदि से सुरक्षित रहते हैं.

ब्रैस्टमिल्क पचने में आसान होता है, जिस से बच्चे को कब्ज की शिकायत नहीं होती है.

वे शिशु जो  ब्रैस्टफीड करते हैं मोटापे का शिकार नहीं होते. उन का वजन नियंत्रित रहता है.

 

जरूरी टिप्स…..

जागरूकता: अपने शिशु के भूख के संकेतों को पहचानें. जब बच्चा भूखा हो उसे तभी फीड कराएं. इसे कहते हैं मांग होने पर पूर्ति. भूखे बच्चे अपने मुंह में हाथ डालते हैं, अंगूठा चूसते हैं. आप की ओर बारबार दूध पीने के लिए मुड़ते हैं. इसलिए अपने बच्चे के रोने का इंतजार मत कीजिए. इन संकेतों को देख कर तुरंत ब्रैस्टफीडिंग कराएं.

धैर्य रखें: स्वयं को धैर्यवान बनाएं, क्योंकि शिशु लंबे समय तक दूध पीता है, इसलिए मां जल्दबाजी में दूध पिला कर यह न समझे कि बच्चे का पेट भर गया है. मां को हर बार शिशु को कम से कम 30 मिनट तक फीड कराना चाहिए.

आराम: ब्रैस्टफीडिंग कराते समय इस बात का ध्यान रखें कि आप जितना रिलैक्स रहेंगी उतना ही दूध का प्रवाह अधिक रहेगा. इसलिए दूध पिलाते समय ऐसी स्थिति में बैठें कि आप को भी आराम मिले.

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