अधिकतर राजनैतिक वैज्ञानिक और विश्लेषक मानते हैं कि पुलवामा हादसे के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक का चुनावी फायदा भाजपा और नरेंद्र मोदी को मिलेगा, मीडिया का बड़ा वर्ग भी इससे सहमत है और 5-6 फीसदी मोदी भक्तों ने तो इस मुद्दे पर हाहाकार मचा रखा है. एक ऐसा माहौल गढ़ने और बनाने की कोशिश जिसे साजिश कहना बेहतर होगा रची जा रही है कि राष्ट्रवाद के अलावा कुछ और न दिखे. यह कोशिश दरअसल में बहुसंख्यकों की असुरक्षा को दर्शाती है जिसके लिए अपना धर्म जाति और गौत्र तक देश से ऊंचा और ऊपर होता है. यह असुरक्षा आतंकवाद या पाकिस्तान को लेकर कतई नहीं है बल्कि बीते पांच सालों में देश में जो हुआ उससे ध्यान बंटाने की एक निरर्थक सी प्रतिक्रिया भर है. कैसे है इसे समझने 2014 की तरफ मुड़ना जरूरी है.
तब नरेंद्र मोदी किसी फरिश्ते की तरह सियासी फ़लक पर प्रगट हुये थे और लोगों को बता रहे थे कि देश कांग्रेसी दुर्दशा और परिवारवाद की लूट पाट का शिकार है. इस जकड़न से मुक्ति के लिए जरूरी है कि लोग उन्हें यानि एक ऐसे नेता को प्रधानमंत्री बनाएं जो चाय बेचता था और जिसे सत्ता का कोई मोह नहीं है. वह तो बस देश सेवा करना चाहता है. उससे गरीबों किसानों और युवाओं की बदहाली बर्दाश्त नहीं हो रही है. बातों बातों में राम मंदिर निर्माण का वादा भी उन्होने किया था जो भाजपा का एजेंडा हमेशा से ही रहा है. अब इस मुद्दे के कहीं अते पते नहीं हैं. पुलवामा और बालाकोट के पहले दीवाली के वक्त जरूर हिंदूवादियों ने आस्था की दुहाई देते इसको गरमाने की कोशिश की थी लेकिन आम लोगों का रिसपोन्स उम्मीद के मुताबिक नहीं मिला तो अयोध्या में इकट्ठा हुये साधु संतों की भीड़ भी काई की तरह छट गई.
2014 में विकट की सत्ता विरोधी लहर थी जिसके असली हकदार समाजसेवी अन्न हज़ारे और उनकी नव गठित टीम थी. अन्ना का आंदोलन देश भर में हड़कंप मचा गया था खासतौर से युवाओं में खासा जोश था जो किसी भी कीमत पर हताशा और अवसाद से मुक्ति चाहते थे. लगभग 2 साल अन्ना हज़ारे देश को बताते रहे कि फसाद की असल जड़ भ्रष्टाचार है. बात सच भी थी इसलिए लोगों ने यूपीए सरकार को खारिज करने का मन बना लिया. इस स्थिति को भाँपते बाबा रामदेव जैसे कई ऋषि मुनि और अप्रत्यक्ष रूप से आरएसएस ने भी आंदोलन के हवन कुंड में अपनी आहुति दी थी.
पर एक कमी थी कि वोटर को विकल्प क्या दिया जाये. ऐसे में गोधरा कांड के नायक और गुजरात के मुख्यमंत्री बतौर नायक पेश किए गए. मोदी भी मौका चूके नहीं और लालकृष्ण आडवाणी को धकियाते देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर विराजमान हो गए. मुरली मनोहर जोशी और जसवंत सिंह तो दूर की बात हैं राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज , वेंकैया नायडू , उमा भारती , शिवराज सिंह चौहान और नितिन गडकरी जैसे दिग्गज भाजपाई नेता ताकते ही रह गए और नरेंद्र मोदी ने देश की ज़िम्मेदारी और बागडोर संभाल ली. कांग्रेस इस चुनाव में एतिहासिक दुर्गति का शिकार हुई एक बारगी तो ऐसा लगने लगा था कि वह खत्म ही हो गई.
2014 सपनों का साल था , उम्मीदों का दौर था लोग धैर्य से अच्छे दिनों का इंतजार करने लगे थे. उन्हें उम्मीद थी कि भले ही हर खाते में 15 लाख रु आने की बात गप्प हो लेकिन कांग्रेस का फैलाया कचरा जरूर नरेंद्र मोदी साफ कर देंगे. लेकिन नरेंद्र मोदी का ध्यान सड़क के कचरे पर गया तो देखते ही देखते हर हाथ में झाड़ू आ गई. इस स्वच्छता अभियान से अच्छे दिनों बाली फीलिंग नहीं आई और लोगों को अपने चुनाव और फैसले पर शक होने लगा तो टीम मोदी घबरा उठी. क्योंकि इसके पहले दिल्ली और बिहार जैसे राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे बता चुके थे कि जुमलेबाजी से लोग विदकने लगे हैं लिहाजा नया कुछ किया जाये जिससे लोगों का ध्यान बंटे.
इधर सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का चुनाव भी सर पर था जिसे जीतना भाजपा के लिए टेड़ी खीर साबित हो रहा था लोग वहाँ भी मंदिर और अच्छे दिनों के बाबत सवाल करने लगे थे कि इनका क्या हुआ. फिर जो नया काम नरेंद्र मोदी ने किया उसका जिक्र करने एक शब्द नोटबंदी ही काफी है. सपा , बसपा और कांग्रेस पैसों के अभाव में ढंग से प्रचार नहीं कर पाये और भाजपा दिल्ली और बिहार जैसी दुर्दशा का शिकार होने से बच गई क्योंकि नोटबंदी के कुछ दिन पहले ही तमाम प्रचार सामग्री का वह इंतजाम कर चुकी थी और उत्तरप्रदेश के हर एक जिले में कार्यकर्ताओं के लिए मोटर साइकिलें पहुंचाई जा चुकीं थीं.
अब तक राहुल गांधी भी सक्रिय राजनीति में आ गए थे जिन्हें लग रहा था और अभी भी लग रहा है कि देश गलत हाथों में चला गया है. आरएसएस और भाजपा नफरत की राजनीति कर रहे हैं लिहाजा उन्होने प्यार की राजनीति शुरू कर दी. कर्नाटक और पंजाब के बाद मध्य प्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे भाजपाई गढ़ों में उनकी प्यार की झप्पी चली भी और कब देखते ही देखते लोकसभा चुनाव फिर आ गए लोगों को पता ही नहीं चला.
2014 और 2019 के आम चुनावों में कई बड़े फर्क हैं. किसी के पास कोई मुद्दा वोट मांगने नहीं है. भाजपा मोदी सरकार की काल्पनिक उपलब्धियां गिना रही है तो विपक्ष भी उसका काल्पनिक विरोध कर रहा है. जमीनी बात कोई वजनदारी से नहीं कर और कह पा रहा कि आम आदमी की ज़िंदगी पाँच सालों में उतनी ही दुश्वार क्यों हो गई जितनी कि 2014 तक थी. दिल्ली का रामलीला मैदान सूना पड़ा है अन्ना हज़ारे रालेगण सिद्धि में हैं या मुंबई के किसी अस्पताल में भर्ती हैं किसी को नहीं पता. बाबा रामदेव यदा कदा बोलते दिख जाते हैं लेकिन वे भ्रष्टाचार की बात नहीं करते बल्कि अरबों रु की बोली रुचि सोया खरीदने के लिए लगा रहे होते हैं. बीच में उन्होने इशारा किया था कि मोदी ही दौबारा प्रधानमंत्री हों इसमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं.
चुनावी बाजी अब नेताओं और गठबंधनों के पास है , जिसके मुंह में जो आ रहा है वह उसे उगलता जा रहा है. ऐसे में मतदाता गफलत में है कि किसे चुने नोटबंदी ,जीएसटी और मोब लिंचिंग बाले मोदी को या फिर कथित एयर स्ट्राइक बाले 56 इंच की छाती बाले मोदी को इन दोनों चेहरों में विकट का विरोधाभास है एक तरफ कुआ है तो दूसरी तरफ खाई है. यानि गिरना तय है तो तरीका अपनी सहूलियत से चुन लिया जाये.
चौपालों, चौराहों गुमठियों से लेकर सोशल मीडिया तक पर देश दो खेमों में बट गया है एक धड़ा कहता है मोदी को ही चुन लो उससे कम से कम दलित और मुसलमान दबे तो रहेंगे दूसरा धड़ा इस फलसफे से इत्तफाक नहीं रखता वह ठेठ देसी लहजे में कहता और पूछता है कि मोदी जी ने पाँच साल में क्या उखाड़ लिया और अब तो भाजपा की हालत भी हर जगह खस्ता हो गई है सो अपना वोट क्यों बेकार करें. तुरंत जबाब मिलता है कि फिर देश का क्या होगा मोदी जी नहीं रहे तो अफरा तफरी मच जाएगी. ये और ऐसे सवाल जबाब कभी खत्म नहीं होते और न ही 23 मई तक होंगे कि अभी कहां का सुकून है अफरा तफरी तो अभी भी मची है. चौकीदारी तो कहने भर की बात है.
सार ये कि भाजपा के हक में 2014 सा माहौल और हवा नहीं है और त्रिशंकु लोकसभा के पूरे आसार हैं. सत्ता की चाबी नवीन पटनायक , ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं के हाथ में होगी जो अपने पत्ते नहीं खोल रहे. हिन्दी पट्टी में भाजपा घाटे में जाती दिख रही है जिसकी भरपाई पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों से हो पाएगी ऐसा लग नहीं रहा. कांग्रेस 2014 के मुक़ाबले काफी फायदे में नजर आ रही है.
सट्टा बाजार और सर्वे उद्धयोग नरेंद्र मोदी को बढ़त पर दिखा रहा है लेकिन भाव हर सप्ताह बदल रहे हैं तो यह दांव लगवाने की पुरानी ट्रिक है. इंदौर के एक नामी सटोरिये की मानें तो अभी बुकिंग न के बराबर आ रहीं है. सबसे बड़ी दिक्कत यूपी से पेश आ रही है जहां भाजपा 25 सीटें ले जाये तो बड़ी बात होगी, अलावा इसके एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में भी उसकी हालत ठीक यानि पहले जैसी नहीं. अगर आप और कांग्रेस में सीटों का बंटबारा हो गया तो भाजपा की दिक्कतें और बढ़ेंगी. इस सटोरिये के मुताबिक बिहार और महाराष्ट्र में ही भाजपा ठीक ठाक प्रदर्शन कर पाएगी लेकिन कुल 150 का आंकड़ा छू पाएगी इसमें शक है.
जबकि 2014 में ऐसा नहीं था अप्रेल के पहले ही भाजपा को सत्तारूढ़ दल और मोदी को प्रधानमंत्री मान लिया गया था यह और बात है कि तब इतने प्रचंड बहुमत की उम्मीद किसी को नहीं थी. यानि हालात हर जगह शक से मुक्त नहीं हैं कि क्या होगा और तटस्थ वोट किस तरफ जाएगा.