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Love Story : तुम्हारी रोजी – क्यों पति को छोड़कर अमेरिका लौट गई वो?

Love Story : उस का नाम रोजी था. लंबा शरीर, नीली आंखें और सांचे में ढला हुआ शरीर. चेहरे का रंग तो ऐसा जैसे मैदे में सिंदूर मिला दिया गया हो.

रोजी को भारत की संस्कृति से बहुत प्यार था और इसलिए उस ने अमेरिका में रहते हुए भी हिंदी भाषा की पढ़ाई की थी और हिंदी बोलना भी सीखा.

उस ने किताबों में भारत के लोगों की शौर्यगाथाएं खूब सुनी थीं और इसलिए भारत को और नजदीक से जानने के लिए वह राजस्थान के एक छोटे से गांव में घूमने आई थी.

अभी उस की यात्रा ठीक से शुरू भी नहीं हो पाई थी कि कुछ लोगों ने एक विदेशी महिला को देख कर आदतानुसार अपनी लार गिरानी शुरू कर दी और रोजी को पकड़ कर उस का बलात्कार करने की कोशिश की. पर इस से पहले कि वे अपने इस मकसद में कामयाब हो पाते, एक सजीले से युवक रूप ने रोजी को उन लड़कों से बचाया और उस के तन को ढंकने के लिए अपनी शर्ट उतार कर दे दी.

रूप की मर्दानगी और उदारता से रोजी इतना मोहित हुई कि उस ने रूप से चंद मुलाकातों के बाद ही शादी का प्रस्ताव रख दिया.

रोजी पढ़ीलिखी थी व सुंदर युवती थी. पैसेवाली भी थी इसलिए रूप को उस से शादी करने के लिए हां कहने मे कोई परेशानी नहीं हुई पर थोड़ाबहुत प्रतिरोध आया भी तो वह रूप के रिश्तेदारों की तरफ से कि एक विदेशी क्रिस्चियन लड़की से शादी कैसे होगी? न जात की न पात की और न देशकोस की…इस से कैसे निभ पाएगी?

पर रूप अपना दिल और जबान तो रोजी को दे ही चुका था इसलिए उस की ठान को काटने की हिम्मत किसी में नहीं हुई पर पीठ पीछे सब ने बातें जरूर बनाईं.

अंगरेजन बहू की पूरे गांव में चर्चा थी.

“भाई देखने में तो सुंदर है. पतली नाक और लंबा शरीर,” एक ने कहा.

“पर भाई, दोनों लोगों में संबंध भारतीय तरीके से बनते होंगे या फिर अंगरेजी तरीके से? या फिर दोनों लोग इशारोंइशारों मे ही सब काम करते होंगे,” दूसरे ने चुटकी ली.

“कुछ भी कहो, यार पर मुझे तो सारी अंगरेजन लड़कियों को देख कर तो बस एक ही फीलिंग आती है कि ये सब वैसी वाली फिल्मों की ही हीरोइनें हैं.”

इस पर सभी जोर के ठहाके लगाते हुए हंसते.

उधर औरतों की जमात में भी आजकल बातचीत का मुद्दा रोजी ही थी.

“सुना है रूप की बहू मुंह उघाड़ कर घूमती है,” पहली औरत बोली.

“न जी न कोई झूठ न बुलवाए. अभी कल ही उस से मिल कर आई हूं, बड़ी गुणवान सी लगी मुझे और कल तो उस ने घाघराचोली पहना था और अपने सिर को भी ढंकने की कोशिश कर रही थी पर अभी नईनई है न इसलिए पल्लू बारबार खिसक जा रहा था,”दूसरी औरत ने कहा.

“पर जरा यह तो बताओ कि दोनों में बातचीत किस भाषा में होती होगी ? रूप इंग्लिश सीखे या फिर अंगरेजन बहू को हिंदी सीखनी पड़ेगी,” तीसरी औरत ने कहा.

और उन की बात सच ही साबित हुई. रोजी को नया काम सीखने का इतना चाव था कि काफी हद तक घर का कामकाज भी सीखने लगी थी.

रोजी के गांव में आने से जवान तो जवान बल्कि बूढ़े भी उस की खूबसूरती के दीवाने हो गए थे और आहें भरा करते थे. कुछ युवक तो रोजी की एक झलक पाने के लिए रूप से बहाने से मिलने भी आ धमकते.

गांव के पुरुषों को लगता था कि एक विलायती बहू के लिए तो किसी से भी शारीरिक संबंध बना लेना बहुत ही सहज होता है.

रोजी के सासससुर को शुरुआत में तो अपनी विलायती बहू के साथ आंकड़ा बैठाने में समस्या हुई पर मन से न सही ऊपर मन से ही सास रोजी को मानने का नाटक करने ही लगी थीं.
दूसरों की क्या कही जाए रूप का चचेरा भाई शेरू भी अपनी रिश्ते की भाभी पर बुरी नजर लगाए हुए था.

रूप और शेरू का घर एकदूसरे से कुछ ही दूरी पर था इसलिए शेरू दिन में कई बार आता और बहाने से रोजी के आसपास मंडराता. ऐसा करने के पीछे भी उस की यही मानसिकता थी कि अंगरेजन तो कई मर्दों से संबंध  बना लेती हैं और इन के लिए
पति बदलना माने चादर बदलना होता है.

क्या पता कब दांव लग जाए और अपने पति की गैरमौजूदगी में कब रोजी का मूड बन जाए और शेरू को उस के साथ अपने जिस्म की आग निकालने का मौका मिल जाए.

पर रोजी बेचारी इन सब बातों से अनजान भारत में ही रह कर यहां के लोगों को समझ रही थी और रीतिरिवाज सीख रही थी.

इस सीखने में एक बड़ी बाधा तब आई जब रोजी को शादी के बाद माहवारीचक्र से गुजरना था. रोजी ने पढ़ रखा था कि इन दिनों में गांव में बहुत ही नियमों का पालन किया जाता है इसलिए उस ने इस बारे में अपनी सास को बता दिया.

रोजी की सास ने उसे कुछ नसीहतें दीं और यह भी बताया कि अभी वे लोग पास के गांव में एक समारोह में जा रहे हैं और चूंकि उसे अभी किचन में प्रवेश नहीं करना है इसलिए सासूमां ने उसे बाहर ही नाश्ता भी दे दिया और घर के लोग चले गए.

रोजी घर में अकेली रह गई. उस ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. नाश्ता शुरू करने से पहले रोजी की चाय ठंडी हो गई थी और चाय को गरम करने के लिए उसे किचन में जाना था.

‘सासूमां तो किचन में जाने को मना कर गई हैं. कोई बात नहीं बाहर से किसी बच्चे को बुला कर उसे किचन में भेज कर चाय गरम करवा लेती हूं,’ ऐसा सोच कर रोजी ने दरवाजा खोल कर बाहर की ओर झांका तो सामने ही आसपड़ोस के कुछ किशोर लड़के बैठेबैठे गाना सुन रहे थे.

“भैयाजी, जरा इधर आना तो… मेरा एक छोटा सा काम कर देना,” रोजी ने एक लड़के को उंगली से इशारा कर के बुलाया और खुद अंदर चली गई.

रोजी घर में अकेली है, यह उन बाहर बैठे हुए लड़कों को पता था हालांकि रोजी की नजर में वे लड़के अभी बच्चे ही थे पर उसे क्या पता कि ये बच्चे उस के बारे में क्या सोचे बैठे हैं…

“अबे भाई तेरी तो लौटरी लग गई. विलायती माल घर में अकेली है और तुझे इशारे से बुला रही है. जा मजे लूट.”

“हां, एक काम जरूर करना दोस्त, उस की वीडियो जरूर बना लेना,” एक ने कहा.

मन में ढेर सारी कामुक कल्पनाएं ले कर वह किशोर लड़का अंदर आया तो रोजी ने निश्छल भाव से उस से चाय गरम कर देने को कहा.

लड़का मन ही मन खुश हुआ और उस ने सोचा कि य. तो हंसीनाओं के अंदाज होते हैं. उस ने चाय गरम कर के रोजी को प्याली पकड़ाई और उस की उंगलियों को छूने का उपक्रम करते हुए उस के सीने को जोर से भींच लिया.

इस बदतमीजी से रोजी चौंक उठी और गुस्से में भर उठी. एक जोरदार तमाचा उस ने उस लड़के के गाल पर रसीद दिए. गाल सहलाता रह गया वह लड़का मगर फिर भी रोजी से जबरदस्ती करने लगा. रोजी ने उसे
धक्का दे दिया. तभी इतने में रूप खेतों पर से वापस आ गया. रोजी जा कर उस से लिपट गई और कहने लगी कि यह लड़का उसे छेड़ रहा है.

इस से पहले कि सारा माजरा रूप की समझ में आ पाता नीचे गिरा हुआ लड़का जोर से रोजी की तरफ मुंह कर के चिल्लाने लगा,”पहले तो इशारे से बुलवाती हो और जब कोई पीछे से आ जाता है तो छेड़ने का आरोप लगाती हो. अरे वाह रे त्रियाचरित्र…” वह लड़का चीखते हुए बोला.

“रूप इस का भरोसा नहीं करना. यह गंदी नीयत डाल रहा था मुझ पर. मेरा भरोसा करो.”

रोजी की बात पर रूप को पूरा भरोसा था इसलिए उस ने तुरंत ही उस लड़के के कालर पकङे और धक्का देते हुए दरवाजे तक ले आया.

तब घर के बाहर उस के पड़ोसियों की भीड़ जमा होते देख कर उस ने खुद ही मामला रफादफा कर दिया और उस लड़के को डांट कर भगा दिया.

उस दिन की घटना के बारे में भले ही लोग पीठ पीछे बातें करते रहे पर सामने कोई कुछ नहीं कह सका.

यह पहली दफा था जब रोजी को गांव में शादी कर के आना खटक रहा था. वह इस घटना से अंदर तक हिल गई थी पर जब रात को रूप ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और जीभर कर प्यार किया तो उस के मन का भारीपन थोड़ा कम हुआ.

एक दिन की बात है. रूप किसी काम से शहर गया हुआ था तब मौका देखकर शेरू रोजी की सास के पास आया और आवाज में लाचारी भर कर बोला,”ताईजी, दरअसल बात यह है कि आप की बहू की तबीयत अचानक खराब हो गई है और मुझे शाम होने से पहले शहर
जा कर दवाई लानी है और अब आनेजाने का कोई साधन नहीं है, जो मुझे शाम से पहले शहर पहुंचा दे.”

“हां तो उस में क्या है शेरू, तू रूप की गाड़ी ले कर चला जा. खाली ही तो खड़ी है,”रोज़ी की सासूमां ने कहा.

“हां सो तो है ताईजी, पर आप तो जानती हो कि मैं गाड़ी चलाना नहीं जानता. अगर आप इजाजत दो तो मैं भाभी को अपने साथ लिए जाऊं? वे तो विदेशी हैं और गाड़ी तो चला ही लेती हैं. हम बस यों जाएंगे और बस यों आएंगे.”

शेरू की बात सुन कर रोजी की सास हिचकी, पर उस ने इतनी लाचारी से यह बात कही थी कि वे चाह कर भी मना नहीं कर पाईं.

“अरे बहू, जरा गाड़ी निकाल कर शेरू के साथ चली जा. शहर से कोई दवा लानी है इसे,” रोजी की सास ने कहा.

“जी मांजी, चली जाती हूं.”

“और सुन, जरा धीरे गाड़ी चलाना. यह गांव है हमारा, तेरा विदेश नहीं,” सासूमां ने मुस्कराते हुए कहा.

रोजी को क्या पता था कि शेरू की नीयत में ही खोट है. उस ने गाड़ी निकाली और शेरू कृतज्ञता से हाथ जोड़ कर बैठ गया. रोजी ने गाड़ी बढ़ा दी.

गांव से कुछ दूर निकल आने के बाद एक सुनसान जगह पर शेरू दांत चियारते हुए बोला,”भाभी, थोडा गाड़ी रोको… जरा पेशाब कर आएं.”

गाड़ी रुकी तो शेरू झाड़ियों के पीछे चल गया और उस के जाते ही शेरू के 3 दोस्त कहीं से आ गए और शेरू से बातचीत करने लगे और बातें करतेकरते गाड़ी मैं बैठ गए.

इससे पहले कि रोजी कुछ समझ पाती शेरू ने उस का मुंह तेजी से दबा दिया और एक दोस्त ने रोजी के हाथों को रस्सी से बांध दिया और शेरू गाड़ी के अंदर ही रोजी के कपड़े फाड़ने लगा.

रोजी अब तक उन लोगों की गंदी नीयत समझ गई थी. उस के हाथ जरूर बंधे हुए थे पर पैर अभी मुक्त थे. उस ने एक जोर की लात शेरू के मरदाना अंग पर मारी.

दर्द से बिलबिला उठा था शेरू. अपना अंग अपने हाथों से पकड़ कर वहीं जमीन पर लौटने लगा.

इस दौरान उस के एक दोस्त ने रोजी के पैरों को भी रस्सी से बांध दिया और रोजी के नाजुक अंगों से खेलने लगा.

“रुक जाओ, पहले इस विदेशी कुतिया को मैं नोचूंगा. कमीनी ने बहुत तेज मार दिया है. अब इसे मैं बताता हूं कि दर्द क्या होता है.”

एक दरिंदा की तरह वह टूट पङा रोजी पर. रिश्ते की मर्यादा को भी उस ने तारतार कर दिया था. उस के बाद उस के तीनों दोस्तों ने रोजी के साथ बलात्कार किया. चीख भी नहीं सकी थी वह.

बलात्कार करने के बाद उस के हाथपैरों को खोल दिया उन लोगों ने.
जब रोजी की चेतना लौटी तो पोरपोर दर्द कर रहा था. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? पुलिस में रिपोर्ट करे या अपना जीवन ही खत्म कर दे?

पर भला वह जीवन को क्यों खत्म करे? आखिर उस ने क्या गलत क्या किया है? बस इतना कि किसी झूठ बोल कर सहायता मांगने वाले की सहायता की है और फिर किसी के चेहरे को देख कर उस की
नीयत का अंदाजा तो नहीं लगाया जा सकता है न…

‘अगर मैं इसी तरह मर गई तो रूप क्या सोचेगा?’ परेशान रोजी ने पहले यह बात रूप को बताने के लिए सोची और उस के बाद ही कोई फैसला लेने का मन बनाया.

रोजी किसी तरह घर वापस पहुंची तो रूप वहां पहले से ही बैठा हुआ उस की राह देख रहा था. रोजी रूप से लिपट गई और रोने लगी.

“क्या हुआ रोजी? तुम्हारे बदन पर इतने निशान कैसे आए? क्या कोई दुर्घटना हुई है तुम्हारे साथ?” रूप ने रोजी के हाथों और चेहरे को देखते हुए कहा.

“हां, दुर्घटना ही तो हुई है. ऐसी दुर्घटना जिस के घाव मेरे जिस्म पर ही नहीं आत्मा पर भी पहुंचे हैं…”

“पर हुआ क्या है?” सब्र का बाँध टूट रहा था रूप का.

“शेरू ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर मेरे साथ बलात्कार किया है…” फफक पङी थी रोजी.

“क्या… उस ने तुम्हारे साथ ऐसा किया? मैं शेरू को ऐसी सजा दूंगा कि उस की पुश्तें भी कांप उठेंगी. मैं उस को जिंदा नहीं छोडूंगा.”

रूप ने रिवाल्वर पर मुट्ठी कसी, कुछ कदम तेजी से बढ़ाए और फिर अचानक रोजी की तरफ पलटा और बोला,”वैसे, एक बात मुझे समझ नहीं आती कि जब से मैं ने तुम्हें जाना है तब से तुम्हारे साथ कोई न कोई छेड़छाड़ होती ही रहती है. कहीं कोई तुम्हें देख कर घर में घुसता है और कहीं कोई तुम्हारे साथ गैंगरेप करता है. आखिर अपनी गाड़ी चला कर तुम
क्यों गई थीं शेरू को ले कर? सवाल तो तुम पर भी उठ सकते हैं न?”

शेरू के मुंह से निकले ये शब्द उसे बाणों की तरह लग रहे थे. कुछ भी न कह सकी रोजी. आंसुओं में टूट गई थी वह और अपने कमरे की तरफ भाग गई थी.

अगले दिन रोजी पूरे घर में कहीं नहीं थी. अलबत्ता, उस के बिस्तर पर एक कागज रखा जरूर मिला.

कागज में लिखा था-

मेरे रूप,

मैं जब से भारत आई, सब ने मेरी देह को ही देखा और सब ने मेरी देह को ही भोगना चाहा. कहीं किसी ने कुहनी मारी तो किसी ने पीछे से धक्का मारा. तुम्हारी आंखों में पहली बार मुझे सच्चा प्रेम दिखा तो मैं ने तुम से ब्याह रचाया पर अब मुझ पर तुम्हारा विश्वास भी डगमगा रहा है.

माना कि मैं यहां के लिए विदेशी हूं, मगर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं सब के साथ सो सकती हूं. क्या सब लोग मुझे एक वेश्या भर समझते हैं?

मेरे जाने के बाद मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत करना, क्योंकि मैं अपने घर वापस जा रही हूं. मैं तो यहां की संस्कृति के बारे में जानने और समझने आई थी, पर अब मन भर गया है. अफसोस यह वह भारत नहीं जिस के बारे में मैं ने किताबों में पढ़ा था…

UPSC : टौपर तो बन रहीं पर टौप पोस्ट तक नहीं पंहुच रहीं लड़कियां

UPSC : आज जमाना मसल्स का नहीं माइंड का है. देश की सब से कठिन परीक्षा में महिलाओं ने अपना दमखम दिखा दिया है. उन का दावा भी टौप पोस्ट पर मजबूती के साथ देखना चाहिए.

यूपीएससी ने सिविल सेवा परीक्षा 2024 का अंतिम परिणाम घोषित कर दिया. इस में शक्ति दुबे ने टौप किया है. दूसरे स्थान पर भी लड़की का ही नाम है. हर्षिता गोयल ने दूसरे स्थान पर अपनी जगह बनाई है. टौप 25 में 11 लड़कियां हैं. पिछले 11 सालों के आंकडे देखें तो यह साफ हो जाता है कि 6 साल लड़कियां टौप पर रही हैं. 2014 में इरा सिंघल, 2015 में टीना डाबी, 2016 में नंदिनी के.आर, 2021 में श्रुति किशोर, 2022 में इशिता किशोर और 2024 में शक्ति दुबे ने टौप पोजीशन हासिल की है.

सिविल सेवा परीक्षा 2024 में टौप 5 में जिन लड़कियों ने जगह बनाई उन्होंने पूरी मेहनत और संघर्ष से इस मुकाम को हासिल किया है. शक्ति दुबे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के प्रयागराज की रहने वाली हैं. उन की स्कूलिंग होम टाउन प्रयागराज से ही हुई है. उन की पढ़ाई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से हुई है. शक्ति बताती है कि उन का ग्रेजुएशन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से हुआ है. ग्रेजुएशन के बाद शक्ति दुबे बनारस आ गईं. साल 2018 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बायोकैमिस्ट्री में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की है.

दूसरे स्थान पर रहने वाली हर्षिता गोयल हरियाणा की रहने वाली है. पिछले कई वर्षों से वह गुजरात के वडोदरा में रह रही हैं. हर्षिता एक चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं और उन्होंने समाज सेवा के लिए अपनी फाइनैंस की दुनिया को छोड़ दिया. वह थैलेसीमिया और कैंसर से जूझ रहे बच्चों की मदद करने वाले एनजीओ के साथ जुडी थी. हर्षिता की सफलता सामाजिक समर्पण और दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रतीक है.

चौथे स्थान पर रहने वाली मार्गी चिराग शाह गुजरात के अहमदाबाद की रहने वाली है. गुजरात टैक्नोलौजिकल यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर इंजीनियरिंग करने वाली मार्गी ने समाजशास्त्र को वैकल्पिक विशय के रूप में चुना और आल इंडिया चौथा स्थान हासिल किया. टैक्निकल बैकग्राउंड के बावजूद समाज से जुड़ाव ने उन्हें इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा दी.

कोमल पूनिया उत्तर प्रदेश के सहारनपुर की रहने वाली है. उन्होंने दूसरे प्रयास में यूपीएससी क्लियर कर जिले का नाम रोशन किया है. कोमल की मेहनत और जज्बे ने यह दिखा दिया कि लगन और निरंतर प्रयास से कोई भी मंजिल पाई जा सकती है. मध्य प्रदेश के ग्वालियर की रहने वाली आयुषी बंसल ने 2022 में 188वीं और 2023 में 97वीं रैंक हासिल की थी. आयुषी के जीवन में पिता का साया बचपन में ही उठ गया था, लेकिन मां की प्रेरणा और अपनी मेहनत से उन्होंने यह कठिन परीक्षा पास की. कोचिंग की तैयारी के लिए पहले दिल्ली आईं. फिर मैकेंजी जैसी बड़ी कंपनी में जौब की और आखिरकार अपनी राह चुनी.

गाजियाबाद की आशी शर्मा को रैंक 12 प्राप्त हुआ है. आशी का यह दूसरा अटेम्प्ट था. उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले की रहने वाली सौम्या मिश्रा को यूपीएससी में रैंक 18 प्राप्त हुआ है. सौम्या के पिता राघवेंद्र कुमार मिश्र पेशे से शिक्षक हैं. पीसीएस 2021 की परीक्षा में सौम्या मिश्रा ने टौप किया था. इस बार सौम्या के साथ उन की बहन सुमेघा मिश्रा ने 53 वीं रैंक हासिल कर परीक्षा क्रैक की है.

उत्तर प्रदेश की शक्ति दुबे के साथ कोमल पुनिया, आशी शर्मा, सौम्या मिश्रा, मुस्कान श्रीवास्तव, शोभिका पाठक और अवधिजा गुप्ता ने टौप 20 में जगह बनाने में सफलता हासिल की. देश की सब से कठिन परीक्षाओं में यूपीएससी का नाम आता है. इस को क्रैक करना बहुत कठिन होता है. अब लड़कियों ने इस परीक्षा की टौप लिस्ट में अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है. इस परीक्षा को क्रैक करने के लिए कैंडिडेट्स दिन रात एक कर देते हैं. अब लड़कियों ने भी अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी है. यूपीएससी सिविल सर्विस 2024 की फाइनल लिस्ट में उत्तर प्रदेश की लड़कियों का दबदबा रहा है. टौप 20 में यूपी की 4 लड़कियों का नाम है. यूपीएससी सिविल सर्विस में इस साल कुल 1090 कैंडिडेट्स को सफलता हासिल हुई है.

बड़ा सवाल यह है कि आईएएस और आईपीएस में टौप करने वाली यह लड़कियां जब नौकरी करती हैं तो इन को टौप पोस्ट पर काम करने का मौका नहीं दिया मिलता है. आज का दौर बदल रहा है. अब जमाना मसल्स का नहीं माइंड का है. यूपीएससी परीक्षाओं में टौप पर रहकर लड़कियों ने दिखा दिया कि उन में कितना दम है. अब उन को टौप पोस्ट संभालने के लिए दी जा सकती है. आईएएस बनने वाली महिला औफिसरों को जिलो में डीएम की पोस्ट दी जानी चाहिए. आईपीएस बनने वाल महिला औफिसरों को जिले में एसपी, एसएसपी और पुलिस कमिश्नर बनने का मौका देना चाहिए.

टौप ब्यूरोक्रेसी में भी महिलाओं को मुख्य सचिव के पद कम मिलते हैं. पीएमओ और रक्षा विभागों में अफसर के रूप में काम करने के मौके महिलाओं को कम दिए जाते हैं. महिलाएं परीक्षा पास कर के अपनी क्षमता के बारे में बता रही हैं. वे यह हक भी मांग रही हैं कि उन को भी पुरूषों के बराबर काबिल समझ कर टौप पोस्ट दिए जाने चाहिए. महिला पुरूष को बराबरी का हक नहीं दिया जाता है. उत्तर प्रदेश में नीरा यादव के बाद कोई महिला मुख्य सचिव नहीं बनी है. अभी भी महिला डीजीपी नहीं बनी है.

भले ही परीक्षाओं में महिलाएं टौप कर रही हों लेकिन लीडरशिप यानि अगुवाई और निर्णय लेने वाले पदों में पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या में अंतर है. जरूरत है कि इस अंतर को दूर किया जाए. जो लड़कियां परीक्षाओं में टौप कर रही हैं और यहां वह लड़कों की संख्या से कम नहीं हैं उन को लीडरशिप वाले पद जैसे डीएम, एसपी और विभागों में प्रमुख पद दिए जाए. विभागों में भी महिलाओं के साथ संस्कृति और शिक्षा विभाग जैसे पदों की जिम्मेदारी दी जाती है. जब तक यह भेदभाव खत्म नहीं होगा तब तक यूपीएससी परीक्षा में बराबरी करना बेमकसद सा हो जाता है.

Hindi kavita : इन दिनों नदियां थोड़ी सिमट जाती हैं

Hindi kavita : इन दिनों नदियां थोड़ी सिमट जाती हैं
पानी थोड़ा और धरती के नीचे चला जाता!
दोपहर आलस में डूबा रहता
हमने चैत्र मास को कुछ ऐसे देखा..

ताड़/खजूर के पेड़ों पर
मिट्टी के लटकते बर्तनों में
टपकते रस को देखा,
ताड़ी पीकर जवान-बूढों को
बेसुध होते देखा,
फिर कैसे कहे,
चैत्र तुम्हारे हिस्से कुछ नहीं आया…!

महुआ के मादक गंध से सराबोर
खेत पर
महुआ चुनती स्त्रियाँ,
किसी उत्सव की तैयारी में
मगन सी दिखती…!

आंगन,छत,बरामदे में
बड़ी,पापड़,चिप्स,अचार
सूखते दिखते,,,
गृहणियां सहेज लेती है
इन दिनों मसाले व अनाज
पूरे साल भर के लिए….
फिर कैसे कह दूं
चैत्र के हिस्से कुछ नहीं आया…

अप्रैल के महीने को
छुट्टियों के महीने के नाम से जाना पर,
जब चैत्र को जाना…
तो जाना सूखती नदियों को….
ताड़ी पीकर सो रहें कुछ आबादी को….
जाना कितनी मसक्कत करनी पड़ती है
स्त्रियों को…

चैत्र के हिस्से आया है,
पूरे साल भर की रखवाली करने का,
कि यह दिन सूखने का होता है…
कि चैत्र सारी ऊष्मा को सुखाकर
उन्हें सुरक्षित कर देता….

तो सुनों चैत्र!!
तुम जैसे दिखते हो,
वैसे तो बिल्कुल नहीं हो….!!!

लेखिका : प्रतिभा

Hindi Poetry : हमारे लिए नहीं खरीदा गया कभी कोई टेडी-बियर

Hindi Poetry : हमारे लिए नहीं खरीदा गया
कभी कोई टेडी-बियर
ना सिखाया गया,
अंग्रेजी वाली वो कविता
जिसके बोल, टेडी बियर, टेडी बियर
टर्न अबाउट….!!!

टेडी बियर तो क्या
हमारे लिए नीली आँखों व सुनहरे बालों वाली
गुड़िया भी नहीं खरीदी गई…
कि हमारी अम्मा ही बना देती
नये-पुराने कपड़ों से गुड्डा-गुड़िया
और कुम्हारन बना लाती थी
मिट्टी के बर्तन

भाई बना देता था, सुंदर सा घरौंदा
और फिर….होती थी
गुड्डे संग गुड़िया की शादी!
बस यही खेल,खेलते-खेलते
हम बड़े हो रहे थे…!

ऐसा नहीं था कि हमारे बचपन में
मैग्गी, कॉम्प्लान, व होर्लिक्स
जैसा कोई चीज नहीं था
पर ऐसी चीजें घर पर नहीं आता
हमारे भोजन का विकल्प नपा-तुला ही रहा

कभी कभार यूँ भी होता रहा,
के अम्मा रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े कर
फिर हमारे मनपसंद की चीजों का नाम
ले-लेकर खिलाती रही…
कितने वेवकूफ थे हम
हम उन टुकड़ो को हँसते-हँसते खाते
अम्मा बहुत होशियार होती
हर बार हमें बहला-फुसला ही लेती

अब सोचती हूं
इतनी होशियार महिला
उम्र ढलने के साथ इतनी असहज कैसे हो जाती है,
कि अब वो हम पर
अपना अधिकार जताना भी छोड़ चुकी

हमारे लिए बेशक नहीं खरीदा गया
गुड्डा/गुड़िया या खेल खिलौना
पर हमें याद रखना होगा
के हमें तैयार किया गया
ऐसे कि हम हर माहौल में खुश
व एडजस्ट हो सके

हमें सिखाते सिखाते
वो खुद को ही भूल गई
कि अब कहती हूँ
अम्मा अब तुम अपने लिए जिओ
अपने पसन्द की चीजें खरीदो
मां अब तुम छोटी हो जाओ
कि तुम्हारी बेटी बड़ी हो गई है!!!

लेखिका : प्रतिभा 

Trending Debate : नफरती ताकतों पर लगाम कब

Trending Debate : भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने पहले सुप्रीम कोर्ट के जज का नाम ले कर उन्हें गृहयुद्ध का जिम्मेदार ठहरा दिया और उस के बाद वे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी पर पिल पड़े. कुरैशी को उन्होंने ”मुसलिम आयुक्त” बता दिया. भले भाजपा ने इस बयान से पल्ला झाड़ा हो मगर भीतरखाने समर्थन करते दिखी.

कई बार ऐसे लोग सत्ता शीर्ष पर पहुंच जाते हैं, जो उस जगह के लायक नहीं होते. वे अपने पद की गरिमा और मर्यादा को भी नहीं समझते हैं. उन्हें क्या बोलना है, कितना बोलना है, कैसे बोलना है, इस का भी कोई भान उन्हें नहीं होता है. ऐसे लोग समझ ही नहीं पाते हैं कि वे वहां क्यों हैं और उन्हें क्या करना है. कई बार वे किसी अन्य के हाथ की कठपुतली बन कर ही काम करते हैं. क्योंकि समझ व ज्ञान के अभाव के बावजूद वे जिस पोजीशन में पहुंच गए हैं, वहां वे कुछ भी कर पाने में असमर्थ एवं अक्षम होते हैं.

हालांकि बौद्धिक वर्ग एवं मीडिया का यह दायित्व है कि वह ऐसे लोगों को मर्यादित रखने का कार्य करें और उन के गलत कृत्यों की खुल कर आलोचना करें, ताकि उन के कार्य और उन की जुबान काबू में रहे, मगर दुर्भाग्यवश आजकल मीडिया सरकार की जी हुजूरी में लगा है और बौद्धिक वर्ग इस डर से खामोश है कि कहीं कुछ बोलने पर उस के खिलाफ ईडी, सीबीआई या आयकर की कार्रवाई न शुरू हो जाए. कहीं उस के घर पर बुलडोजर न चढ़ जाय. कहीं उसे उठवा न लिया जाए. कहीं मरवा न दिया जाए.

पिछले कुछ दिनों से देश में सत्ता और सुप्रीम कोर्ट के बीच काफी खींचतान देखी जा रही है. देश के उपराष्ट्रपति से ले कर भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व के ध्वजवाहक बने मंत्री-विधायक तक सुप्रीम कोर्ट के जजों के नाम ले कर खरीखोटी सुनाने पर उतारू हैं.

केंद्रीय सत्ता सुप्रीम कोर्ट से काफी समय से नाराज चल रही है. भाजपा द्वारा चुनाव के वक्त इलैक्टोरल बांड की कमाई पर सुप्रीम खुलासा होने से ले कर मुसलिम वक्फ बोर्ड में भगवा गैंग की घुसपैठ बनाने तक के मामलों में जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा सरकार को नंगा किया, लताड़ा और सरकार के फैसलों पर रोक लगाई है, उस से सरकार बौखलाई हुई है. उसे यह लगने लगा है कि सत्ता की मनमर्जी में सब से बड़ी बाधा सुप्रीम कोर्ट ही है जो समयसमय पर क़ानून का चाबुक फटकार रही है.

हाल ही में तमिलनाडु के गवर्नर के कारण राष्ट्रपति तक के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक समय सीमा तय कर दी जिस के बाद तो भाजपाई खेमे के लोग सुप्रीम कोर्ट के औचित्य तक पर सवाल खड़े करने लग गए. भाजपा सांसद मीडिया से बोले, ”अगर सुप्रीम कोर्ट को ही कानून बनाने हैं तो संसद और विधानसभा को बंद कर देना चाहिए.” दुबे ने सीजेआई का नाम ले कर कहा, “देश में गृहयुद्ध के लिए चीफ जस्टिस औफ इंडिया संजीव खन्ना जिम्मेदार हैं.”

दरअसल तमिलनाडु सरकार के कई विधेयक वहां के राज्यपाल आर. एन. रवि सालों से दबाये बैठे थे और उन्हें लागू नहीं होने दे रहे थे. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो कोर्ट ने राष्ट्रपति तक के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी क्योंकि राज्यपाल ने उन विधेयकों को यह कह कर रोक रखा था कि इन पर राष्ट्रपति की सहमति ली जाएगी.

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि को 10 विधेयकों को रोक कर रखने के लिए फटकार भी लगाई. कोर्ट ने कहा कि यह संविधान के उल्ट, गैरकानूनी और मनमानी कार्रवाई है, इसलिए रद्द की जाती है. कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के कर्तव्यों के निर्वहन के लिए स्पष्ट समय सीमा तय नहीं है, फिर भी इसे इस प्रकार नहीं पढ़ा जा सकता कि राज्यपाल बिल पर कार्रवाई ही न करें और राज्य में कानून बनाने की प्रक्रिया बाधित कर दें. उन के पास विवेकाधिकार नहीं होता. उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना होता है. कोर्ट ने नसीहत दी कि राज्यपाल को एक दोस्त, दार्शनिक और राह दिखाने वाला होना चाहिए. जो राजनीति से प्रेरित न हो. राज्यपाल को उत्प्रेरक बनना चाहिए, अवरोधक नहीं.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित नहीं होना चाहिए. संघर्ष के समय में, उन्हें सहमति और समाधान का अग्रदूत होना चाहिए, राज्य मशीनरी के कामकाज को अपनी बुद्धिमत्ता और विवेक से सहज बनाना चाहिए, न कि उसे ठप कर देना चाहिए. राज्यपाल को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे जनता की चुनी हुई विधानसभा को बाधित न करें. विधायकों को जनता ने चुना है और वे राज्य की भलाई सुनिश्चित करने के लिए अधिक उपयुक्त हैं. संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को संविधान के मूल्यों द्वारा ही निर्देशित होना चाहिए जो वर्षों के संघर्ष और बलिदान से अर्जित हुए हैं.

फिर क्या था पूरा भगवा गैंग देश की इस सर्वोच्च संस्था के जैसे खिलाफ हो गया. जिन राज्यों में गैर-भाजपा सरकारें हैं, वहां सरकार के कामकाज में दखल देने के लिए भाजपाई राज्यपालों की नियुक्तियां तो इसी मकसद से की गई थीं कि वे लगातार सरकार के काम में बाधा पैदा करते रहें ताकि सरकार जनता के हित से जुड़े कार्यों को कर के लोकप्रिय न हो जाए. लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि राज्यपाल या राष्ट्रपति 3 माह के भीतर फैसले लें और विधेयकों को पारित होने दें, तो भाजपाई खेमे में हलचल मच गई. उन की तो विरोधियों को परेशान करने की सारी योजना ही खटाई में पड़ गई.

राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं, यदि अनुच्छेद 200 के तहत कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है, तो इस का यह अर्थ नहीं कि राज्यपाल या राष्ट्रपति, अनिश्चितकाल तक कोई निर्णय न लें. जब किसी प्राधिकारी को कोई कार्य करना होता है, तो यह अपेक्षित है कि वह निष्पक्ष एवं कानून व संविधान के अनुरूप कार्य करेगा. यह भी अपेक्षित है कि वह कार्य यथाशीघ्र और एक उचित समय के भीतर किया जाए. केवल इसलिए कि कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है, कोई प्राधिकारी संविधान के साथ धोखा नहीं कर सकता.

गौरतलब है कि यदि कोई सार्वजनिक प्राधिकारी शीघ्रता से कार्य नहीं करता, तो सर्वोच्च न्यायालय, विवाद का निर्णय करते समय, एक समय सीमा निर्धारित कर सकता है. जब कोई कानून पूर्ण न्याय करने के लिए उपलब्ध नहीं होता, तब अनुच्छेद 142 लागू होता है. यह अनुच्छेद विशेष रूप से ऐसे ही परिस्थितियों के लिए बनाया गया है. इस के अलावा, गृह मंत्रालय ने स्वयं एक औफिस मेमोरेंडम के माध्यम से, राष्ट्रपति को संदर्भित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए 3 महीने की समय सीमा तय की है. सर्वोच्च न्यायालय ने इस ज्ञापन का उल्लेख करते हुए उस का अंश भी उद्धृत किया. सर्वोच्च न्यायालय को यह समय सीमा उचित प्रतीत हुई इसलिए उस ने 3 माह की सीमा तय कर दी.

कोर्ट के आदेश के बाद सारे विधेयक बिना राष्ट्रपति की सहमति के पारित हो गए. इस से बौखलाई सरकार के उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बयानबाजी की. उस के बाद भाजपा संसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा भी सुप्रीम कोर्ट के जजों के नाम ले कर बयानबाजियां करने लगे. हालांकि वरिष्ठतम राजनैतिक पद धारकों को राष्ट्र की संस्थाओं के विरुद्ध नहीं बोलना चाहिए मगर उप राष्ट्रपति महोदय जगदीप धनखड़ ने दिल्ली के वाइस प्रेसिडैंट एनक्लेव में राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा, ”लोकतंत्र में जनता की चुनी हुई सरकार सब से अहम होती है. हर संस्था को अपनी सीमा में रह कर काम करना चाहिए. कोई भी संस्थान संविधान से ऊपर नहीं है. अदालतें राष्ट्रपति को कैसे आदेश दे सकती हैं. संविधान के आर्टिकल 142 का मतलब ये नहीं होता कि आप राष्ट्रपति को भी आदेश दे सकते हैं. भारत के राष्ट्रपति का पद काफी ऊंचा है. आख़िर हम कहां जा रहे हैं. देश में हो क्या रहा है?”

भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने पहले सुप्रीम कोर्ट के जज का नाम ले कर उन्हें गृहयुद्ध का जिम्मेदार ठहरा दिया और उस के बाद वे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी पर पिल पड़े. कुरैशी को उन्होंने ”मुसलिम आयुक्त” बता दिया.

निशिकांत ने जब सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ अभद्रतापूर्ण वक्तव्य दिया था तो भाजपा अध्यक्ष जे. पी. नड्डा ने उन्हें सचेत भी किया था और उन के बयान से पार्टी को अलग बताया था. मगर निशिकांत पर भाजपा अध्यक्ष की बात का कुछ असर नहीं हुआ और अगले ही दिन उन्होंने कुरैश के ऊपर अभद्र टिप्पणी कर दी. इस से दो बातें समझ में आती हैं. या तो जे. पी. नड्डा ऊपरी ऊपरी चेतावनी दे रहे हैं और भीतर भीतर निशिकांत की पीठ थपथपाई जा रही है. या फिर जे. पी. नड्डा को अब भाजपाई सांसद कोई भाव नहीं देते. एक बात और हो सकती है. निशिकांत दुबे को कोई और बड़ी हस्ती संरक्षण दे रही हो. यह भी हो सकता है कि नड्डा और दुबे दोनों ही उस सुपर पावर से निर्देशित हो रहे हों. खैर जो भी है, भाजपाइयों के ऐसे वक्तव्य देश की एकता और अखंडता तथा सामाजिक समरसता के लिए बहुत घातक हैं.

पिछले दो हजार साल का इतिहास, स्पष्ट रूप से बताता है कि देश में ऐसी नफरती ताकतें समयसमय पर समाज को छिन्नभिन्न करने का काम करती रही हैं. इसी कमजोरी के कारण देश कभी विदेशी आक्रांताओं का मुकाबला नहीं कर सका और अधिकतर समय में राजनैतिक रूप से एक इकाई नहीं बन सका. ये नफरती तत्व यह नहीं जानते हैं कि वे कितना बड़ा राष्ट्र विरोधी और मानवता विरोधी कार्य कर रहे हैं. इन का सिर्फ एक ही मकसद है कि येनकेनप्रकारेण बस सत्ता में बने रहें. राष्ट्र गर्त में जाता है तो जाए. आम जनता दंगे-फसाद में मारी जाए तो इन को मतलब नहीं.

ऐसी परिस्थितियों में न्याय संस्थानों, बुद्धिजीवी वर्ग और आम जागरूक व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह ऐसी हरकतों का यथा परिस्थिति, विरोध करते रहें. खामोशी एवं तटस्थता भी गंभीर अपराध है. रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था –
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध ।
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उन का भी अपराध ।।

Hindi Story : अठारह साल का चाँद

Hindi Story : जब श्रावणी घर से निकली तो सुबह के आठ बज रहे थे। साढ़े आठ बजे की ट्रेन थी। ट्रेन समय पर आने से, वह कक्षा शुरू होने से दस मिनट पहले कॉलेज पहुँच गई। डी.डी. की कक्षा के बाद, श्रावणी, पल्लवी और अनुरूप कैंटीन में जाकर बैठ गईं। अगली कक्षा मैडम की थी। मैडम तो छुट्टी पर थीं। मैडम को बच्चा होने वाला था। कक्षा रद्द नहीं होगी, वैकल्पिक रूप से एक अंशकालिक शिक्षक थे। डी.एम.। दीपक मंडल। कई लड़कियाँ उन्हें पीठ पीछे अंडा भी कहती थीं। वे तीनों यह कक्षा नहीं करती थीं।

दरअसल, उन्हें अच्छा नहीं लगता था। सवाल पूछने पर जवाब नहीं देते थे। पढ़ाने का तरीका भी नीरस था। इसलिए बस!
पल्लवी कैंटीन की रूपामसी से बोली:
-मासी, क्या सब्जी गरम होगी?
मासी हँसकर बोलीं- अभी तो उतरी है। कितने दूँ, बच्ची?
-दो-दो दे दो। सॉस और सलाद थोड़ा ज्यादा। पाँच नंबर टेबल पर।
-तीन तो हो।
-हाँ।
-तुम ले जाओ, बच्ची। काम करने वाला लड़का कुछ दिनों से नहीं आ रहा है। आज दोपहर को जाकर देखूँगी। बुखार-वखार तो नहीं हो गया।

खाते-खाते श्रावणी बोली- अगली कक्षा के.पी. की है। आज सब मिलकर पकड़ेंगे। समझी! नोट्स नहीं मिले तो दिक्कत होगी। केमिस्ट्री के पासिंग के लिए विस्तृत पढ़ाई की जरूरत नहीं है, सर के नोट्स रट लो, हो जाएगा।

अनुरूप भड़क उठी- श्रावणी, तू क्या है? कैंटीन में भी पढ़ाई की बातें। यहाँ सिर्फ खाना और प्रेम की बातें होंगी। समझी।

छह नंबर टेबल की दो लड़कियाँ उनकी बातें ध्यान से सुन रही थीं। वे धीरे से हँसीं। श्रावणी उठ गई। उन दोनों लड़कियों के सामने जाकर खड़ी हो गई। धीरे से हँसकर बोली- कौन से साल में हो?

-पहले साल में। उनमें से एक ने कहा।
-ओह! कौन से विषय?
दूसरी ने कहा- वह रेशमी है, उसकी बंगाली है। मैं रितु हूँ, मेरी हिस्ट्री है।
-मैं भी पहले साल में हूँ। फिजिक्स। ये मेरी सहेलियाँ हैं। पल्लवी और अनुरूप। हाथ बढ़ाकर दिखाया। वे भी फिजिक्स हैं। इतना कहकर श्रावणी ने हाथ आगे बढ़ाया।
-आज से हम दोस्त हैं, ठीक है!
वे फिर शरद ऋतु की नदी की तरह हँसीं।

तीन महीने कक्षाएँ हो गईं। श्रावणी को बहुत अच्छा लग रहा था। हर दिन कितने दोस्त बन रहे थे। ऑनर्स की पढ़ाई वैसे भी थोड़ी कठिन होती है। पढ़ाई पर थोड़ा और जोर देना होगा। कम से कम फर्स्ट डिवीजन तो चाहिए ही। वरना यूनिवर्सिटी कैसे जाऊँगी।

कॉलेज के बाद एक ट्यूशन है। वह स्टेशन के पास ही है। अयन चटर्जी। ऑनर्स की ट्यूशन। सप्ताह में तीन दिन। महीने में आठ सौ रुपये दक्षिणा। छोटे-छोटे बैचों में पढ़ाते हैं। पाँच-पाँच के बैच। उन्होंने अभी तक शादी नहीं की है।

अनुरूप फिर दूसरी बात कहती है, शादी नहीं की है, ऐसा नहीं है। पत्नी पागल है। इसलिए मायके में है।

वह गप्प मारने में माहिर है, लेकिन लड़की मिलनसार है। बातों में तेज है। ट्यूशन शुरू हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ था। अचानक बोल पड़ी- सर, आपने शादी नहीं की?

-नहीं। अचानक इस विषय में जिज्ञासा!
-नहीं, बस ऐसे ही!
-ओह, तो यह बात है।
-खाना खुद बनाते हैं?
-खाना बनाना आता तो अच्छा होता।
-किसी तरह होटल में काम चला लेता हूँ।
-रसोईया भी रख सकते हैं।
-रख सकता हूँ, लेकिन उन झंझटों से दूर रहना ही अच्छा है।
-दिक्कत नहीं होती?
-शुरुआत में होती थी, अब नहीं होती।
पल्लवी इशारे से कहने की कोशिश कर रही थी, अनुरूप, यह क्या हो रहा है? अनुरूप को कोई परवाह नहीं थी।
-आपकी उम्र बहुत कम है। शादी कर लीजिए।
-सोच तो रहा हूँ। लेकिन! सर हँसे।
-लेकिन क्या! जल्दी कीजिए। हमें भी एक पार्टी मिल जाएगी।
-इस जन्म में तो नहीं हो रहा है। अगले जन्म में कोशिश करके देखूँगा।
सभी लोग हँस पड़े। बाहर आकर अनुरूप ने कहा, समझी श्रावणी, मैं सर को फँसा लूँगी, देखना। जाल तो डाल दिया है।
-तू कर सकती है।
-कर सकती हूँ, इसलिए तो कह रही हूँ। तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?
पल्लवी ने कहा, बुरा तो थोड़ा लगेगा ही, लेकिन क्या कर सकते हैं।

ट्यूशन खत्म होते ही काफी देर हो गई। दरअसल, थर्मोडायनामिक्स के नोट्स खत्म होते ही साढ़े पाँच बज गए। स्टेशन पहुँचने में पाँच मिनट लगते हैं। प्लेटफॉर्म पर पहुँचते ही ट्रेन छूट गई। यही शाम की ट्रेन थी। इसके बाद आखिरी ट्रेन साढ़े सात बजे है। कभी-कभी देर भी हो जाती है। लगभग दो घंटे इंतजार करना होगा। भूख भी लग रही थी। स्टेशन की कैंटीन में जाकर बैठी। एग टोस्ट और चाय। सिर हल्का लग रहा था। बाजार से स्टेशन की कैंटीन का खाना थोड़ा महंगा है। कैंटीन के लड़के से बोतल में पानी भरवाकर बाहर आ गई। मैगजीन के स्टॉल से एक साइंस मैगजीन खरीदी। छह बजकर दस मिनट। घर पर फोन करना होगा। टेलीफोन बूथ में गई। बूथ के लड़के ने पूछा- लोकल कॉल या एस.टी.डी.!

-हाँ। लोकल।
-सामने वाले में जाइए।
-हेलो, माँ, मैं श्रावणी बोल रही हूँ।
-हाँ, बोलो।
-शाम की ट्रेन छूट गई।
-क्यों?
-ट्यूशन में देर हो गई।
-ओह, अच्छा, कुछ खाया है?
-हाँ। अगली ट्रेन से आ रही हूँ, नौ बजे तक पहुँच जाऊँगी।
-अच्छा ठीक है। सावधानी से आना।
वेटिंग रूम में बैठते ही आठ-दस साल का एक लड़का हाथ फैलाने आया।
-खुल्ले नहीं हैं, जाओ। किसी और दिन दूँगा।

लड़का खड़ा रहा। सामने बैठी एक महिला ने बैग से खुल्ले निकालकर एक रुपया दिया, तो लड़का दौड़कर चला गया। श्रावणी देखती रही। लाइन के उस पार जाकर लड़का रुक गया।

कुछ देर बाद एक छोटी बच्ची, उससे भी छोटी बच्ची को गोद में लेकर महिला के पास आकर खड़ी हो गई। उन्होंने दोनों को दो-दो रुपये दिए, तो वे चली गईं। कुछ दूर जाकर पहले वाला लड़का आकर रास्ता रोककर खड़ा हो गया। देखना चाहता था कितने हैं? हाथ खोलकर दिखाते ही रुपये छीनकर भाग गया। और बच्ची खड़ी-खड़ी रोने लगी। इस तरह के दृश्य श्रावणी अक्सर देखती है। उन्हें देखकर ही पता चलता है कि कितने दिनों से नहाए नहीं हैं। खाना शायद मिल जाता है। शिक्षा! स्वास्थ्य! इसी तरह वे बड़े होते हैं। फिर…

मैगजीन के पन्ने पलट रहे थे। अब पढ़ने का मन नहीं कर रहा था। बैग में रख लिया। टॉयलेट से होकर आना होगा। टॉयलेट से बाहर आते ही घोषणा सुनाई दी, ट्रेन तीन नंबर प्लेटफॉर्म पर आ रही है।

ट्रेन से उतरते ही घड़ी देखी, आठ बजकर पच्चीस मिनट। रिमझिम बारिश हो रही थी। छाता भी नहीं लाई थी। ऊपर से बिजली भी नहीं थी। प्लेटफॉर्म से निकलते ही रिक्शा लेने का फैसला किया।

-दादा, रवींद्रपल्ली जाओगे?
-रिक्शावाले ने कहा, बीस रुपये लगेंगे।
-दिन में तो दस रुपये देती हूँ।
-वह भड़क गया।
-दस में नहीं होगा। दूसरा देख लो।
-सामने वाले रिक्शावाले ने बुलाया, बैठो, बैठो। दस में ले चलूँगा।
-श्रावणी बैठ गई। चौक बाजार आते ही, उसने पान की दुकान से बीड़ी और माचिस खरीदी। कुछ दूर जाते ही लगा कि रिक्शा दूसरी तरफ जा रहा है।
श्रावणी ने कहा, दादा, रास्ता तो जानते हो?
-जानता हूँ, जानता हूँ। बहुत जानता हूँ। चुपचाप बैठी रहो।

बारिश अभी भी नहीं रुकी थी। बीच-बीच में बिजली चमक रही थी। बिजली की चमक में देखा कि रिक्शा कच्चे रास्ते पर चल रहा है। श्रावणी चिल्ला पड़ी- रिक्शा घुमाओ। मुझे रवींद्रपल्ली जाना है।

रिक्शा रुक गया। वह उसकी तरफ बढ़ रहा था। अलकतरा जैसा गहरा अंधेरा। रिमझिम बारिश और झींगुरों और मेंढकों की आवाज। डर से गले से आवाज नहीं निकल रही थी।

तभी, दूर से एक रोशनी चमकी, और उसने अयन सर का चेहरा देखा। वह उसे ढूँढते हुए आए थे। उनकी आँखों में चिंता और प्यार का मिश्रण था। उन्होंने उसे रिक्शावाले के चंगुल से बचाया और सुरक्षित घर पहुँचाया।

घर पहुंचकर, श्रावणी ने महसूस किया कि अयन सर का साथ उसके लिए कितना महत्वपूर्ण है। उनकी देखभाल और प्यार ने उसके दिल में एक नई उम्मीद जगाई। अगली सुबह, अयन सर उसे कॉलेज लेने आए, और उन्होंने एक साथ दिन बिताया। उन्होंने एक-दूसरे के साथ अपने सपने और आशाएँ साझा कीं।

श्रावणी ने महसूस किया कि अयन सर के साथ, उसका जीवन एक नया मोड़ ले रहा है। उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई, और उन्होंने एक साथ एक सुंदर भविष्य की कल्पना की। अठारह साल के चाँद की तरह, उनका प्यार भी चमक रहा था।

उस रात, वे एक-दूसरे की बाहों में खो गए, उनके शरीर गर्मी और प्यार में मिल गए। जैसे अठारह साल का चाँद उनके प्यार की बाढ़ में पिघल रहा था। यहाँ कोई मंदी नहीं है। कोई अशांति नहीं है। दो शरीर अनंत प्रेम के वातावरण में एक साथ विलीन हो गए हैं। मानो चाँद पर चाँद लगा हो।

लेखक : बिस्वजीत लायेक

Emotional Story : अब समय आ गया है  

Emotional Story : ‘‘मेरे पूरे जिस्म में दर्द हो रहा है. पूरा जिस्म अकड़ रहा है. आह, कम से कम अब तो मुक्ति मिल जाए. कोई तो बुलाओ डाक्टर को,’’ पुष्पा कराहते हुए बोल रही थी.

‘‘शांत हो जाओ, मां. लो, मुंह खोलो, दवा पिलानी है,’’ मंजू बोली.

‘‘मेरी बच्ची, अब समय आ गया, मैं नहीं बचूंगी,’’ कहते हुए पुष्पा ने गिलास लगभग छीनते हुए पकड़ा और दवा एकदम गटक ली.

मंजू को लगा कि मां के जिस्म में चेतना आ रही है और वे सही हो जाएंगी. वैसे भी, पहले भी कई बार ऐसा ही कुछ हुआ था. अभी वह सोच ही रही थी कि गिलास के गिरने की आवाज आई और उस की मां पुष्पा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मां, मां, उठो, बात करो मु झ से. आंखें खोलो न.’’ पर मां तो जा चुकी थीं, दूर, बहुत दूर.

कमरे में सन्नाटा छा गया था. अगर कोई विलाप कर रहा था तो वह थी मंजू. रोते हुए उस ने अपने पति को सूचना दी और वहीं बैठ गई. वह मां के पार्थिव शरीर को पत्थर बनी ताकती रही.

‘‘रात के डेढ़ बजे हैं, सब काम सुबह होंगे,’’ कह कर भाईभाभी अपने कमरे की तरफ चल दिए. वह बारबार मां को छू कर देखती, उम्मीद लिए कि शायद वापस आ जाएंगी वे. फिर सब की शिकायत करेंगी उस से.

कितना दुखी जीवन था उस की मां पुष्पा का. मंजू ने जब से होश संभाला हमेशा मां को रोते ही देखा…एक जल्लाद पति, बृजेश, हमेशा नशे में धुत. कहने को तो स्कूल अध्यापक था, पर ताश खेलना और शराब पीना, बस, यही उस की दिनचर्या थी. जब देखो तब वह पुष्पा को जलील करता, नशे में मारता, गालियां देता. कई बार उस ने पुष्पा को जान से मारने की भी कोशिश की थी. लेकिन आदमी जो ठहरा, रात में अपने शरीर की पिपासा बु झाने से भी वह बाज न आता.

सबकुछ सह रही थी पुष्पा. सिर्फ और सिर्फ अपने 3 छोटे बच्चों के लिए. कहां जाती वरना. न तो सासससुर का साया था और न ही मातापिता का. नाम का भाई था जो कभीकभी पत्नी से छिप कर मिलने आ जाता था और चुपचाप कुछ रुपए उस के हाथ में रख जाता.

बृजेश की आधी से ज्यादा कमाई ऐयाशी में उड़ जाती. जैसेतैसे घर की गाड़ी चल रही थी, बच्चों के साथ परेशानियां भी बड़ी होने लगीं.

बृजेश के काले मन को पुष्पा भांप गई थी, इसलिए साए के जैसे वह मंजू के साथ रहती. एक दिन पड़ोस में गमी में जाना पड़ गया, तो वह मंजू की जिम्मेदारी अपने बड़े बेटे पर सौंप कर चली गईं. बृजेश को जैसे भनक लग गई थी, उस ने अपने बेटे को किसी काम से बाजार भेज दिया और मंजू को अपनी बांहों में दबोच लिया. वह अपने को छुड़ाने के लिए छटपटा रही थी पर बृजेश पर तो शैतान हावी था.

अचानक पुष्पा आ गई. यह देखते ही वह गुस्से से पागल हो गई. वहीं एक बांस रखा था, आव देखा न ताव, वह बृजेश को पीटने लगी, ‘कमीने, बेशर्म, चला जा यहां से. बाप के नाम पर धब्बा है तू. कभी सूरत मत दिखाना. मैं नहीं चाहती तेरा साया भी पड़े मेरे बच्चों पर.’ मंजू सहमी सी खड़ी देख रही थी यह सब. धमकी दे कर बृजेश वहां से चला गया.

अब पुष्पा सिलाई और बिंदी बनाने का काम करने लगी. उसी से घरखर्च चल रहा था. बड़े बेटे ने पढ़ाई छोड़ दी. उसे शराब और सट्टेबाजी की लत लग गई. अकसर नशे में वह मां को कोसता और गाली देता. वह बाप के जाने का दोषी मां को ठहराता था.

पुष्पा खून के आंसू पी कर रह जाती. पुष्पा को अब बड़े होते बच्चों की चिंता सताने लगी थी. सो, म झले बेटे को उस के मामा के घर भेज दिया आगे पढ़ने के लिए. इंटर पूरा करते ही मंजू के हाथ पीले कर दिए. म झले बेटे की पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी लग गई बैंक में. पुष्पा ने उस का भी विवाह कर दिया. जबकि बड़ा अभी कुंआरा था.

आशा के विपरीत म झले बेटे की बहू ने सब की जिम्मेदारी से बचने के लिए अलग घर बसाने की पेशकश की और शहर से बाहर चली गई. फिर कभी नहीं आई. कितनी बार पुष्पा ने उसे बुलाना चाहा पर उसे नहीं आना था सो नहीं आई. टूट चुकी थी पुष्पा. अब बड़े बेटे की जिम्मेदारी से निबटने के लिए उस का भी विवाह कर दिया.

इसी बीच, बृजेश को कैंसर हो गया. दरदर भटकते अब उसे घर की याद आई थी. पुष्पा को याद करता हुआ किसी तरह पहुंच ही गया उस के पास. अपने आखिरी दिनों में उस ने अपने किए की कई बार पुष्पा से क्षमा मांगी. पुष्पा ने उसे घर में रुकने की इजाजत तो दे दी पर दिल से माफ नहीं कर पाई. अब घर एक जंग का मैदान हो गया था.

पुष्पा कुछ भी कहती, बहू दानापानी ले कर चढ़ जाती. आखिरकार एक दिन बृजेश ने इस दुनिया से विदा ली. धीरेधीरे गमों को पीते हुए पुष्पा भी बिस्तर से लग गई, उस के पैर बेकार हो चुके थे. बहू उस की कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, उलटा आएदिन अपना हिस्सा मांगती. पुष्पा के पास अगर कुछ था तो यही एक मकान, जहां अब वह जिंदगी के बाकी बचे दिन काट रही थी. सब की नजर उस मकान पर थी. शायद पुष्पा की आंख बंद होने का इंतजार था.

पुष्पा ने एक आया सुनीता लगा ली थी. वही उस के सब काम नहलानाधुलाना आदि करती थी. आएदिन पुष्पा मंजू को फोन कर के उस से घर के सदस्यों की शिकायत करती. मंजू जब भी भाभी को सम झाना चाहती, वह टका सा जवाब देती. हार कर फिर वह मां को ही सम झाती. पुष्पा अकसर मंजू से बोलती, ‘लल्ली, तू नहीं सम झेगी, मेरे जाने के बाद पता चलेगा. सारा जीवन दे दिया पर कोई अपना नहीं हुआ. यह दुनिया पैसे की है. मु झे कोई नहीं पूछता, सारे दिन गफलत में पड़ी रहती हूं. जिस दिन कुछ खाने को मांग लिया उसी दिन तूफान.’

‘‘जीजी, जीजी,’’ सुनीता की आवाज से मंजू चौंकी. ‘‘जीजाजी आ गए. पति को देखते ही उस के सब्र का बांध टूट गया. वह खूब रोई. इतने में सुनीता ने एक पत्र उस के पति को देते हुए कहा, ‘‘अम्मा लिख गई हैं, कह रही थीं, मेरे बाद मंजू को देना.’’ शायद, पुष्पा को अपने आखिरी समय का एहसास हो गया था.

मंजू ने पत्र पति के हाथ से ले लिया. आंसू पोंछते हुए पत्र पढ़ने लगी.

‘मंजू बेटी, तू दुनिया की सब से अच्छी बेटी है. तू ने मेरी बहुत सेवा की. मेरी एक विनती है कि मेरे बाद मेरा क्रियाकर्म संबंधी काम एक दिन में ही पूरा कर देना, जिन बहूबेटों के पास जीतेजी मेरे लिए समय नहीं था उन को बाद में भी परेशान होने की जरूरत नहीं.

‘पिछले महीने ही तू मेरे लिए कपड़े लाई थी, वे सब बांट देना. मेरी रोटी के लिए जिन के पास रुपए नहीं थे वे मेरे बाद मु झ पर खर्च न करें. दामादजी, आप इस घर का सौदा कर दें. उस सौदे से मिलने वाली रकम के 3 हिस्से करना. एक हिस्सा इन दोनों लड़कों का और दो हिस्से में से एक सुनीता को दे देना. बेचारी ने बहुत ध्यान रखा मेरा. अगले महीने उस की लड़की की शादी है. एक हिस्सा मेरी नातिन का है. मंजू बेटी, तू मेरा बेटा भी थी. मेरी हर छोटी से छोटी जरूरत और इच्छा का खयाल रखा तू ने. शायद मैं जिंदा ही तेरी वजह से थी. कर्जदार हूं मैं तेरी. सदा खुश रहो. सब को तेरी जैसी बेटी मिले.’

‘‘मां.’’

सब की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. मां के कहेनुसार एक ही दिन में सब कार्य कर मंजू अपने पति के साथ भारी मन से वापस अपने घर चली गई.

मां के साथ ही उस के दुखों का अंत हो गया था. बड़ी दुखदायी, एक कहानी का अंत हो गया था. बड़ा लंबा वनवास था यह. 70 साल का सफर कम नहीं होता, जो पुष्पा ने अकेले ही तय किया था. जीवन जिया तो था उस ने लेकिन सुख के दिन क्या होते हैं, कभी नहीं देख सकी.

Love Stories : कितना प्‍यार करते हो

Love Stories : दिसंबर की वह शायद सब से सर्द रात थी, लेकिन कुछ था जो मुझे अंदर तक जला रहा था और उस तपस के आगे यह सर्द मौसम भी जीत नहीं पा रहा था.

मैं इतना गुस्सा आज से पहले स्नेहा पर कभी नहीं हुआ था, लेकिन उस के ये शब्द, ‘पुनीत, हमारे रास्ते अलगअलग हैं, जो कभी एक नहीं हो सकते,’ अभी भी मेरे कानों में गूंज रहे थे. इन शब्दों की ध्वनि अब भी मेरे कानों में बारबार गूंज रही थी, जो मुझे अंदर तक झिंझोड़ रही थी.

जो कुछ भी हुआ और जो कुछ हो रहा था, अगर इन सब में से मैं कुछ बदल सकता तो सब से पहले उस शाम को बदल देता, जिस शाम आरती का वह फोन आया था.

आरती मेरा पहला प्यार थी. मेरी कालेज लाइफ का प्यार. कोई अलग कहानी नहीं थी, मेरी और उस की. हम दोनों कालेज की फ्रैशर पार्टी में मिले और ऐसे मिले कि परफैक्ट कपल के रूप में कालेज में मशहूर हो गए.

मैं आरती को बहुत प्यार करता था. हमारे प्यार को पूरे 5 साल हो चुके थे, लेकिन अब कुछ ऐसा था, जो मुझे आरती से दूर कर रहा था. मेरी और आरती की नौकरी लग चुकी थी, लेकिन अलगअलग जगह हम दोनों जल्दी ही शादी करने के लिए भी तैयार हो चुके थे. आरती के पापा के दोस्त का बेटा विहान भी आरती की कंपनी में ही काम करता था. वह हाल ही में कनाडा से यहां आया था. मैं उसे बिलकुल पसंद नहीं करता था और उस की नजरें भी साफ बताती थीं कि कुछ ऐसी ही सोच उस की भी मेरे प्रति है.

‘‘देखो आरती, मुझे तुम्हारे पापा के दोस्त का बेटा विहान अच्छा नहीं लगता,‘‘ मैं ने एक दिन आरती को साफसाफ कह दिया.

‘‘तुम्हें वह पसंद क्यों नहीं है?‘‘ आरती ने मुझ से पूछा.

‘‘उस में पसंद करने लायक भी तो कुछ खास नहीं है आरती,‘‘ मैं ने सीधीसपाट बात कह दी.

‘‘तो तुम्हें उसे पसंद कर के क्या करना है,‘‘ यह कह कर आरती हंस दी.

मेरे मना करने का उस पर खास फर्क नहीं पड़ा, तभी तो एक दिन वह मुझे बिना बताए विहान के साथ फिल्म देखने चली गई और यह बात मुझे उस की बहन से पता चली.

मुझे छोटीछोटी बातों पर बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है, शायद इसीलिए उस ने यह बात मुझ से छिपाई. उस दिन मेरी और उस की बहुत लड़ाई हुई थी और मैं ने गुस्से में आ कर उस को साफसाफ कह दिया था कि तुम्हें मेरे और अपने उस दोस्त में से किसी एक को चुनना होगा.

‘‘पुनीत, अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई है और तुम ने अभी से मुझ पर अपना हुक्म चलाना शुरू कर दिया है. मैं कोई पुराने जमाने की लड़की नहीं हूं, कि तुम कुछ भी कहोगे और मैं मान लूंगी. मेरी भी खुद की अपनी लाइफ है और खुद के अपने दोस्त, जिन्हें मैं तुम्हारी मरजी से नहीं बदलूंगी.‘‘

सीधे तौर पर न सही, लेकिन कहीं न कहीं उस ने मेरे और विहान में से विहान की तरफदारी कर मुझे एहसास करा दिया कि वह उस से अपनी दोस्ती बनाए रखेगी.

आरती और मैं हमउम्र थे. उस का और मेरा व्यवहार भी बिलकुल एकजैसा था. मुझे लगा कि अगले दिन आरती खुद फोन कर के माफी मांगेगी और जो हुआ उस को भूल जाने को कहेगी, लेकिन मैं गलत था, आरती की उस दिन के बाद से विहान से नजदीकियां और बढ़ गईं.

मैं ने भी अपनी ईगो को आगे रखते हुए कभी उस से बात करने की कोशिश ही नहीं की और उस ने भी बिलकुल ऐसा ही किया. उस को लगता था कि मैं टिपिकल मर्दों की तरह उस पर अपना फैसला थोप रहा हूं, लेकिन मैं उस के लिए अच्छा सोचता था और मैं नहीं चाहता था कि जो लोग अच्छे नहीं हैं, वे उस के साथ रहें. एक दिन उस की सहेली ने बताया कि उस ने साफ कह दिया है कि जो इंसान उस को समझ नहीं सकता, उस की भावनाओं की कद्र नहीं कर सकता, वह उस के साथ अपना जीवन नहीं बिता सकती.

आरती और मेरे रास्ते अब अलगअलग हो चुके थे. मैं उसे कुछ समझाना नहीं चाहता था और वह भी कुछ समझना नहीं चाहती थी.

मुझे बस हमेशा यह उम्मीद रहती थी कि अब उस का फोन आएगा और एक माफी से सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा, लेकिन शायद कुछ चीजें बनने के लिए बिगड़ती हैं और कुछ बिगड़ने के लिए बनती हैं.

हमारी कहानी तो शायद बिगड़ने के लिए ही बनी थी. 5 साल का प्यार और साथ सबकुछ खत्म सा हो गया था.

मेरे घर में अब मेरे रिश्ते की बात चलने लगी थी, लेकिन किसी और लड़की से. मां मुझे रोज नएनए रिश्तों के बारे में बताती थीं, लेकिन मैं हर बार कोई न कोई बहाना या कमी निकाल कर मना कर देता था.

मुझे भीड़ में भी अकेलापन महसूस होता था. सब से ज्यादा तकलीफ जीवन के वे पल देते हैं, जो एक समय सब से ज्यादा खूबसूरत होते हैं. वे जितने मीठे पल होते हैं, उन की यादें भी उतनी ही कड़वी होती हैं.

धीरेधीरे वक्त बीतता गया. मेरे साथ आज भी बस, आरती की यादें थीं. मुझे क्या पता था आज मैं किसी से मिलने वाला हूं. आज मैं स्नेहा से मिला. हम दोनों की मुलाकात मेरे दोस्त की शादी में हुई थी.

स्नेहा आरती की चचेरी बहन थी. साधारण नैननक्श वाली स्नेहा शादी में बिना किसी की परवा किए, सब से ज्यादा डांस कर रही थी. 21-22 साल की वह लड़की हरकतों से एकदम 10-12 साल की बच्ची लग रही थी.

‘‘बेटा, तुम्हारी गाड़ी में जगह है?‘‘ मेरे जिस दोस्त की शादी थी, उस की मम्मी ने आ कर मुझ से पूछा.

‘‘हां आंटी, क्यों?‘‘ मैं ने पूछा.

‘‘तो ठीक है, कुछ लड़कियों को तुम अपनी गाड़ी में ले जाना. दरअसल, बस में बहुत लोग हो गए हैं. तुम घर के हो तो तुम से पूछना ठीक समझा.‘‘

सजीधजी 3 लड़कियां मेरी कार में पीछे की सीट पर आ कर बैठ गईं. एक मेरे बराबर वाली सीट पर आ कर बैठ गई.

मेरे यह कहने से पहले कि सीट बैल्ट बांध लो, उस ने बड़ी फुर्ती से बैल्ट बांध ली. वे सब अपनी बातों में मशगूल हो गईं.

मुझे ऐसा एहसास हो रहा था जैसे मैं इस कार का ड्राइवर हूं, जिस से बात करने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी.

तभी स्नेहा ने मुझ से पूछा, ‘‘आप रजत भैया के दोस्त हैं न.‘‘

‘‘जी,‘‘ मैं ने बस, इतना ही उत्तर दिया. न तो इस से ज्यादा हमारी कोई बात हुई और न ही मुझे कोई दिलचस्पी थी.

आजकल के हाईटैक युग में जिस से आप आमनेसामने बात करने से हिचकें उस के लिए टैक्नोलौजी ने एक नया नुसखा कायम किया है, जो आज के समय में काफी कारगर है, और वह है चैटिंग.

स्नेहा ने मुझे फेसबुक पर रिक्वैस्ट भेजी और मैं ने भी स्वीकार कर ली.

हम दोनों धीरेधीरे अच्छे दोस्त बन गए. बातोंबातों में उस ने मुझे बताया कि उसे अपने कालेज के सैमिनार में एक प्रोजैक्ट बनाना है. मैं ने कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूं.‘‘

इतने सालों बाद मैं ने उस के लिए दोबारा पढ़ाई की थी उस का प्रोजैक्ट बनवाने के लिए. कभी वह मेरे घर आ जाया करती थी तो कभी मैं उस के घर चला जाता. दरअसल, वह अपने कालेज की पढ़ाई की वजह से रजत के घर ही रहती थी. जब भी वह प्रोजैक्ट बनवाने के लिए आती तो बस, बोलती ही जाती थी. मेरे से बिलकुल अलग थी, वह.

एक दिन बातोंबातों में उस ने पूछा, ‘‘आप की कोई गर्लफ्रैंड नहीं है?‘‘

मैं उस को न कह कर बात वहीं पर खत्म भी कर सकता था, लेकिन मैं ने उस को अपने और आरती के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया.

‘‘ओह,‘‘ स्नेहा ने दुख जताते हुए कहा, ‘‘मुझे सच में बहुत दुख हुआ यह सब सुन कर. क्या तब से आप दोनों की एक बार भी बात नहीं हुई?‘‘ स्नेहा ने पूछा.

मैं ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘नहीं, और अब करनी भी नहीं है,‘‘ यह कह कर हम दोनों प्रोजैक्ट बनाने लग गए.

आज जब स्नेहा आई तो कुछ बदलीबदली सी लग रही थी. आते ही न तो उस ने जोर से आवाज लगा कर डराया और न ही हंसी.

मैं ने पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?‘‘

वह बोली, ‘‘कुछ बताना था आप को, आप मुझे बताना कि सही है या गलत.‘‘

हम अच्छे दोस्त बन गए थे. मैं ने उस से कहा, ‘‘हांहां जरूर, क्यों नहीं,‘‘ बोलो.

उस ने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मुझे किसी से प्यार हो गया है.‘‘

मैं ने कहा, ‘‘कौन है वह और क्या वह भी तुम से प्यार करता है?‘‘

उस ने कहा, ‘‘मालूम नहीं?‘‘

‘‘ओह, तुम्हारे ही कालेज में है क्या?‘‘ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं,‘‘ उस ने बस छोटा सा जवाब दिया.

‘‘वह मेरा दोस्त है जो मुझ से 7 साल बड़ा है. उस की पहले एक गर्लफ्रैंड थी, लेकिन अब नहीं है. उस को गुस्सा भी बहुत जल्दी आता है.

‘‘वह मेरे बारे में क्या सोचता है, पता नहीं, लेकिन जब वह मेरी मदद करता है, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. उस का नाम…‘‘ यह कह कर वह रुक गई.

‘‘उस का नाम,‘‘ स्नेहा ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘बहुत मजा आ रहा है न आप को. सबकुछ जानते हुए भी पूछ रहे हो और वैसे भी इतने बेवकूफ आप हो नहीं, जितने बनने की कोशिश कर रहे हो.‘‘

मैं बहुत तेज हंसने लगा.

उस ने कहा, ‘‘अब क्या फिल्मों की तरह प्रपोज करना पड़ेगा?‘‘

मैं ने कहा, ‘‘नहींनहीं, उस की कोई जरूरत नहीं है. यह जानते हुए भी कि मैं उम्र में तुम से 7 साल बड़ा हूं और मेरे जीवन में तुम से पहले कोई और थी, तब भी…‘‘

‘‘हां, और वैसे भी प्यार में उम्र, अतीत ये सबकुछ भी माने नहीं रखते.‘‘

मैं ने उस को गले लगा लिया और कहा, ‘‘हमेशा मुझे ऐसे ही प्यार करना.‘‘

वह खुश हो कर मेरी बांहों में आ गई. अब मेरे जीवन में भी कोई आ गया था जो मेरा बहुत खयाल रखता था. कहने को तो उम्र में मुझ से 7 साल छोटी थी, लेकिन मेरा खयाल वह मेरे से भी ज्यादा रखती थी. हम दोनों आपस में सारी बातें शेयर करते थे. अब मैं खुश रहने लगा था.

उस शाम मैं और स्नेहा साथ ही थे, जब मेरा फोन बजा. फोन पर दूसरी तरफ से एक बहुत धीमी लेकिन किसी के रोने की आवाज ने मुझे अंदर तक हिला दिया. वह कोई और नहीं बल्कि आरती थी.

वह आरती जिस को मैं अपना अतीत समझ कर भुला चुका था या फिर स्नेहा के प्यार के आगे उस को भूलने की कोशिश कर रहा था.

‘‘हैलो, कौन?‘‘

‘‘मैं आरती बोल रही हूं पुनीत,‘‘ आरती ने कहा.

‘‘आज इतने दिन बाद तुम्हारा फोन…‘‘ इस से आगे मैं और कुछ कहता, वह बोल पड़ी, ‘‘तुम ने तो मेरा हाल भी जानने की कोशिश नहीं की. क्या तुम्हारा अहंकार हमारे प्यार से बहुत ज्यादा बड़ा हो गया था?‘‘

‘‘तुम ने भी तो एक बार फोन नहीं किया, तुम्हें आजादी चाहिए थी. कर तो दिया था मैं ने तुम्हें आजाद. फिर अब क्या हुआ?‘‘

‘‘तुम यही चाहते थे न कि मैं तुम से माफी मांगू. लो, आज मैं तुम से माफी मांगती हूं. लौट आओ पुनीत, मेरे लिए. मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है.‘‘

मैं बस उस की बातों को सुने जा रहा था बिना कुछ कहे और स्नेहा उतनी ही बेचैनी से मुझे देखे जा रही थी.

‘‘मुझे तुम से मिलना है,‘‘ आरती ने कहा और बस, इतना कह कर आरती ने फोन काट दिया.

‘‘क्या हुआ, किस का फोन था?‘‘ स्नेहा ने फोन कट होते ही पूछा.

कुछ देर के लिए तो मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. स्नेहा के दोबारा पूछने पर मैं ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘आरती का फोन था.‘‘

‘‘ओह, तुम्हारी गर्लफ्रैंड का,‘‘ स्नेहा ने कहा.

मैं ने स्नेहा से अब तक कुछ छिपाया नहीं था और अब भी मैं उस से कुछ छिपाना नहीं चाहता था. मैं ने सबकुछ उस को सचसच बता दिया.

सारी बात सुनने के बाद स्नेहा ने कहा, ‘‘मुझे लगता है आप को एक बार आरती से जरूर मिलना चाहिए. आखिर पता तो करना चाहिए कि अब वह क्या चाहती है.‘‘

यह जानते हुए भी कि वह मेरा पहला प्यार थी. स्नेहा ने मुझे उस से मिल कर आने की इजाजत और सलाह दी.

अगले दिन मैं आरती से मिला और आरती ने मुझे देख कर कहा, ‘‘तुम बिलकुल नहीं बदले, अब भी ऐसे ही लग रहे हो जैसे कालेज में लगा करते थे.‘‘

‘‘आरती अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं है,‘‘ मैं ने जवाब दिया.

‘‘क्यों?‘‘ आरती ने पूछा, ‘‘कोई आ गई है क्या तुम्हारे जीवन में?‘‘

‘‘हां, और उस को सब पता है. उसी के कहने पर मैं यहां तुम से मिलने आया हूं.‘‘

‘‘क्या तुम उसे भी उतना ही प्यार करते हो जितना मुझे करते थे, क्या तुम उस को मेरी जगह दे पाओगे?‘‘

मैं शांत रहा. मैं ने धीरे से कहा, ‘‘हां, वह मुझे बहुत प्यार करती है.‘‘

‘‘ओह, तो इसलिए तुम मुझ से दूर जाना चाहते हो. मुझ से ज्यादा खूबसूरत है क्या वह?‘‘

‘‘आरती,‘‘ मैं गुस्से में वहां से उठ कर चल दिया. मुझे लग रहा था कि अब वह वापस क्यों आई? अब तो सब ठीक होने जा रहा था.

उस रात मुझे नींद नहीं आई. एक तरफ वह थी, जिस को कभी मैं ने बहुत प्यार किया था और दूसरी तरफ वह जो मुझ को बहुत प्यार करती थी.

अगली सुबह मैं स्नेहा के घर गया, तो वह कुछ उदास थी. उस ने मुझ से कहा, ‘‘मुझे लगता है कि हम एकदूसरे के लिए नहीं बने हैं और हमारे रास्ते अलग हैं,‘‘ यह कह कर वह चुपचाप ऊपर अपने कमरे में चली गई.

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि इतना प्यार करने वाली लड़की इस तरह की बातें कैसे कर सकती है.

आरती का फोन आते ही मैं अपने खयालों से बाहर आया. मुझे स्नेहा पर बहुत गुस्सा आ रहा था.

‘‘आरती, इस समय मेरा बात करने का बिलकुल मन नहीं है. मैं तुम से बाद में बात करता हूं,‘‘ मेरे फोन रखने से पहले ही आरती बोली, ‘‘क्यों, क्या हुआ?‘‘

‘‘आरती, मैं स्नेहा को ले कर पहले से ही बहुत परेशान हूं,‘‘ मैं ने कहा.

‘‘वह अभी भी बच्ची है, शायद इन सब बातों का मतलब नहीं जानती, इसलिए कह दिया होगा.‘‘

उस के इतना कहते ही मैं ने फोन रख दिया और उसी समय स्नेहा के घर के लिए निकल गया.

मैं ने स्नेहा के घर के बाहर पहुंच कर स्नेहा से कहा, ‘‘सिर्फ एक बार मेरी खुशी के लिए बाहर आ जाओ,‘‘ स्नेहा ना नहीं कर पाई और मुझे पता था कि वह ना कर भी नहीं सकती, क्योंकि बात मेरी खुशी की जो थी.

स्नेहा की आंखों में आंसू थे. मैं ने स्नेहा को गले लगा लिया और कहा, ‘‘पगली, मेरे लिए इतना बड़ा बलिदान करने जा रही थी.‘‘

स्नेहा ने चौंक कर मेरी तरफ देखा. ‘‘तुम मुझ से झूठ बोलने की कोशिश भी नहीं कर सकती. अब यह तो बताओ कि आरती ने क्या कहा, तुम से मिल कर.‘‘

स्नेहा ने रोते हुए कहा, ‘‘आरती ने कहा कि अगर मैं तुम से प्यार करती हूं और तुम्हारी खुशी चाहती हूं तो…. मैं तुम से कभी न मिलूं, क्योंकि तुम्हारी खुशी उसी के साथ है,‘‘ यह कह कर स्नेहा फूटफूट कर रोने लगी.

मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘ओह, मेरा बच्चा मेरे लिए इतना बड़ा बलिदान करना चाहता था. इतना प्यार करती हो तुम मुझ से.‘‘

उस ने एक छोटे बच्चे की तरह कहा,  ‘‘इस से भी ज्यादा.‘‘

मैं ने उस को हंसाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘कितना ज्यादा?” वह मुसकरा दी.

‘‘लेकिन तुम्हें कैसे पता चला कि वह मुझ से मिली? क्या उस ने तुम्हें बताया?‘‘

‘‘नहीं,‘‘ मैं ने कहा.

‘‘फिर,‘‘ स्नेहा ने पूछा.

मैं ने जोर से हंसते हुए कहा, ‘‘उस ने तुम्हें बच्ची बोला,‘‘ इसीलिए.

इतने में ही मेरा फोन दोबारा बजा, वह आरती का फोन था. मैं ने अपने फोन को काट कर मोबाइल स्विच औफ कर दिया और स्नेहा को गले लगा लिया. बिना कुछ कहे मेरा फैसला आरती तक पहुंच गया था.

Best Hindi Story : रफ्तार – क्या सुधीर ने जीवनसाथी का चुनाव गलत किया था ?

Best Hindi Story : गाड़ी की रफ्तार धीरेधीरे कम हो रही थी. सुधीर ने झांक कर देखा, स्टेशन आ गया था. गाड़ी प्लेटफार्म पर आ कर खड़ी हो गई थी. प्रथम श्रेणी का कूपा था, इसलिए यात्रियों को चढ़नेउतरने की जल्दी नहीं हो रही थी.

सुधीर इत्मीनान से अटैची ले कर दरवाजे की ओर बढ़ा. तभी उस ने देखा कि गाड़ी के दरवाजे पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए व सूटबूट पहने एक आदमी आरक्षण सूची में अपना नाम देख रहा था.

उस आदमी को अपना नाम दिखाई दिया तो उस ने पीछे खड़े कुली से सामान अंदर रखने को कहा.

सुधीर को उस की आकृति कुछ पहचानी सी लगी. पर चेहरा तिरछा था इसलिए दिखाई नहीं दिया. जब उस ने मुंह घुमाया तो दोनों की नजरें मिलीं. क्षणांश में ही दोनों दोस्त गले लग गए. सुधीर के कालेज के दिनों का साथी विनय था. दोनों एक ही छात्रावास में कई साल साथ रहे थे.

सुधीर ने पूछा, ‘‘आजकल कहां हो? क्या कर रहे हो?’’

विनय बोला, ‘‘यहीं दिल्ली में अपनी फैक्टरी है. तुम कहां हो?’’

‘‘सरकारी नौकरी में उच्च अधिकारी हूं. दौरे पर बाहर गया था. मैं भी यहीं दिल्ली में ही हूं.’’

वे बातें कर ही रहे थे कि गाड़ी की सीटी ने व्यवधान डाला. एक गाड़ी से उतर रहा था, दूसरा चढ़ रहा था. दोनों ने अपनेअपने विजिटिंग कार्ड निकाल कर एकदूसरे को दिए. सुधीर गाड़ी से उतर गया. दोनों मित्र एकदूसरे की ओर देखते हुए हाथ हिलाते रहे. जब गाड़ी आंखों से ओझल हो गई तो सुधीर के पांव घर की ओर बढ़ने लगे.

टैक्सी चल रही थी, पर सुधीर का मन विनय में रमा था. विनय और वह छात्रावास के एक ही कमरे में रहते थे. विनय का मन खेलकूद में ही लगा रहता था, जबकि सुधीर की आकांक्षा थी कि किसी प्रतियोगिता में चुना जाए और उच्च अधिकारी बने. इसलिए हर समय पढ़ता रहता था.

जबतब विनय उसे टोकता था, ‘क्यों किताबी कीड़ा बना रहता है, जिंदगी में और भी चीजें हैं, उन की ओर भी देख.’

‘मेरे कुछ सपने हैं कि उच्च अफसर बनूं, कार हो, बंगला हो, इसलिए मेरी मां मेरे सपने को पूरा करने के लिए जेवर बेच कर मेरी फीस भर रही है.’

उस की सब तमन्नाएं पूरी हो गई थीं. पर विनय से मिलने के बाद उसे ताज्जुब हो रहा था कि वह भी उसी की तरह गरीब परिवार से था. उस का यह कायापलट कैसे हो गया? एक फैक्टरी का मालिक कैसे बन गया? इसी उधेड़बुन में वह घर पहुंचा.

नौकर रामू ने कार का दरवाजा खोला. घर के अंदर मेज पर मां की बीमारी का तार पड़ा था. पड़ोसिन चाची ने बुलाया था.

रामू ने बताया, ‘‘मेम साहब अपनी सहेलियों के साथ घूमने गई हैं.’’

सुनते ही सुधीर को गुस्सा आ गया. वह सोच रहा था कि जब मां का तार आ गया था तो रश्मि को उन के पास जाना चाहिए था. वह उलटे पांव बस अड्डे की ओर चल दिया. वह रहरह कर रश्मि पर खीज रहा था कि उसे मां की बीमारी की जरा भी परवा नहीं है.

मां बेटे को देख प्रसन्न हो उठीं. पड़ोसिन चाची ने बताया, ‘‘तेरी मां को तेज बुखार था. हम तो घबरा गए. इसीलिए तुझे तार दे दिया. रश्मि को क्यों नहीं लाया?’’

‘‘वह अपनी मां के पास गई है. घर होती तो अवश्य आती.’’

सुधीर जानता था कि गांव के माहौल में मां के साथ रहना रश्मि को गवारा नहीं है. मां भी उस की आदतें जानती थीं, इसीलिए उन्होंने अधिक कुछ नहीं कहा.

दूसरे दिन सुधीर लौट आया था. रश्मि ने मां की बीमारी के बारे में ज्यादा पूछताछ नहीं की थी.

अगली सुबह वह अभी दफ्तर पहुंचा ही था कि रश्मि का फोन आ गया, ‘‘आज घर में पार्टी है, नौकर नहीं आया है, तुम दफ्तर के किसी आदमी को थोड़ी देर के लिए भेज दो.’’

सुधीर कुढ़ गया, पर कुछ सोचते हुए बेरुखी से बोला, ‘‘ठीक है, भेज दूंगा.’’

शाम को वह घर पहुंचा. सोचा था कि थोड़ी देर आराम करेगा और कौफी पी कर थकान मिटाएगा. वह रश्मि के पास पहुंचा. वह लेटी हुई पुस्तक पढ़ रही थी.

सुधीर को देख कर बोली, ‘‘आज मैं तो बहुत थक गई. नौकर भी नहीं आया. अब तो उठा भी नहीं जा रहा है. पर किटी पार्टी बहुत अच्छी रही. रमी में बारबार हारती ही रही, इसलिए थोड़ा जी खट्टा हो गया. आज तो रात का खाना बाहर ही खाना पड़ेगा.’’

रश्मि की बातें सुन सुधीर की कौफी पीने की इच्छा मर गई. वह पलंग पर लेट गया और सोचने लगा, ‘रश्मि का समय या तो घूमने में व्यतीत होता है या सखियों के साथ ताश खेलने में. घर के कामों में तो उस का मन ही नहीं लगता है, इसीलिए मोटी और भद्दी होती जा रही है. जब कभी मैं राय देता हूं कि घर के कामों में मन नहीं लगता है तो मत करो, लेकिन घूमने या रमी खेलने के बजाय कुछ रचनात्मक कार्य करो तो चिढ़ उठती है.’

सोचतेसोचते सुधीर सो गया. 9 बजे रश्मि ने जगाया, ‘‘चलिए, किसी होटल में खाना खाते हैं.’’

न चाहते हुए भी सुधीर को उस के साथ जाना पड़ा.

सुबह सुधीर दफ्तर जाने लगा तो रश्मि बोल उठी, ‘‘दफ्तर पहुंच कर ड्राइवर से कहिएगा कि कार घर ले आए. कुछ खरीदारी करनी है.’’

‘‘कल ही तो इतना सामान खरीद कर लाई हो, आज फिर कौन सी ऐसी जरूरत पड़ गई. अपने दोनों बच्चे मसूरी में पढ़ रहे हैं. उन का खर्चा भी है. इस तरह तो तनख्वाह में गुजारा होना मुश्किल है. ऊपरी आमदनी भी कम है, लोग पैसा देते हैं तो 10 काम भी निकालते हैं.’’

सुनते ही रश्मि के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘बड़े भैया भी इसी पद पर हैं लेकिन उन की सुबह तो तोहफों से शुरू होती है और रात नोट गिनते हुए व्यतीत होती है. वह तो कभी टोकाटाकी नहीं करते.’’

‘‘आजकल जमाना खराब है, बहुत सोचसमझ कर कदम बढ़ाना पड़ता है. अगर कहीं छानबीन हो गई तो सारी इज्जत खाक में मिल जाएगी,’’ सुधीर बोला.

रश्मि रोंआसी हो गई, ‘‘कार क्या मांगी, पचास बातें सुननी पड़ीं.’’

सुधीर रश्मि के आंसू नहीं देख सकता था. माफी मांग कर उस के आंसू पोंछने के लिए रूमाल निकाला तो जेब से एक कार्ड गिर पड़ा.

कार्ड देख कर विनय का ध्यान आ गया, ‘‘मेरे कालेज के दिनों का मित्र इसी शहर में रह रहा है, मुझे पता ही नहीं चला. अब किसी दिन उस के घर चलेंगे.’’

रश्मि को गाड़ी भेजने का वादा कर के ही वह दफ्तर जा पाया. दफ्तर से विनय को फोन किया. दूसरे दिन छुट्टी थी. विनय ने दोनों को खाने पर आने का न्योता दे दिया.

दूसरे दिन सुधीर और रश्मि गाड़ी से विनय के घर की ओर चल पड़े. आलीशान कोठी के गेट पर दरबान पहरा दे रहा था. पोर्टिको में विदेशी गाड़ी खड़ी थी. लौन में बैठा विनय उन का इंतजार कर रहा था. उस ने मित्र को गले लगा लिया. फिर रश्मि को ‘नमस्ते’ कह कर उन्हें बैठक में ले गया.

सुधीर ने देखा कि बैठक विदेशी और कीमती सामानों से सजी हुई है. सभी सोफे पर बैठ गए. नौकर ठंडा पानी ले कर आया. रश्मि ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘भाभीजी दिखाई नहीं दे रही हैं?’’

‘‘जरूरी काम पड़ गया था इसलिए फैक्टरी जाना पड़ा. आती ही होंगी,’’ विनय ने उत्तर दिया.

थोड़ी देर बाद क्षमा आती हुई दिखाई दी.

सुधीर ने देखा, इकहरे शरीर व सांवले रंगरूप वाली क्षमा सीधी चोटी और कायदे से बंधी साड़ी में भली और शालीन लग रही थी.

मेहमानों को अभिवादन कर के वह बैठ गई.

सुधीर को लगा कि इसे कहीं देखा है, पर याद नहीं आया. वह सोच रहा था, ‘रश्मि इस से सुंदर है, पर मोटापे के कारण कितनी भद्दी लग रही है.’

तभी 2 बच्चों की ‘नमस्ते’ से उस का ध्यान टूटा. दोनों बच्चे मां के पास बैठ गए थे. सुधीर ने देखा, बच्चे भी मांबाप के प्रतिरूप हैं. शीघ्र ही मां से खेलने जाने की आज्ञा मांगी तो क्षमा ने कहा, ‘‘जाओ, खेल आओ, परंतु खाने के समय आ जाना.’’

फिर वह रश्मि से बोली, ‘‘आप बच्चों को क्यों नहीं लाईं?’’

रश्मि के चेहरे पर गर्वीली मुसकान छा गई. कटे हुए बालों को झटक कर कहा, ‘‘दोनों बच्चे मसूरी में पढ़ते हैं, घर में ठीक से पढ़ाई नहीं हो पाती है.’’

क्षमा ने बच्चों को स्नेह से देखा, जो बाहर खेलने जा रहे थे, ‘‘मैं तो इन के बिना रह ही नहीं सकती.’’

विनय और सुधीर अपने कालेज के दिनों की बातें कर रहे थे, जैसे कई साल पीछे पहुंच गए हों.

क्षमा को देख कर विनय बोला, ‘‘यह तो हमेशा पढ़ाई में लगा रहता था, लेकिन मैं खेलने में मस्त रहता था. परीक्षा के दिनों में यह मेरे पीछे पड़ा रहता कि किसी तरह से कुछ याद कर लूं. तब मैं इस का मजाक उड़ाता था. आज यह अपनी मेहनत और लगन से ही उच्च ओहदे पर पहुंचा है.’’

सुधीर ने हंसते हुए कहा, ‘‘भाभीजी, झगड़ा यह करता था, निबटाने मैं पहुंचता था.’’

दोनों दोस्त बातों में मगन थे कि फोन की घंटी बजी. विनय कुछ देर बात करने के बाद पत्नी से बोला, ‘‘बाहर से कुछ लोग आए हैं, वे व्यापार के सिलसिले में हम से बात करना चाहते हैं. तुम्हारे पास कब समय है? वही समय उन्हें बता दूं. जरूरी मीटिंग है, हम दोनों को जाना होगा.’’

क्षमा ने घड़ी देख कर कहा, ‘‘कल की मीटिंग रख लीजिए, मैं फैक्टरी पहुंच जाऊंगी.’’

देखने में साधारण व घरेलू लगने वाली महिला क्या मीटिंग में बोल पाएगी? कैसे व्यापार संबंधी बातचीत करती होगी? सुधीर क्षमा को ताज्जुब से देख रहा था.

उस की शंका का समाधान विनय ने किया, ‘‘क्षमा बहुत होशियार हैं, कुशाग्रबुद्धि और मेहनती हैं. इन्हीं की असाधारण प्रतिभा और मेहनत के कारण ही छोटी सी दुकान से शुरू कर के आज हम फैक्टरी के मालिक बन गए हैं.’’

क्षमा ने बातों का रुख बदलते हुए कहा, ‘‘चलिए, खाना लग गया है.’’

सभी भोजनकक्ष में आ गए तो क्षमा ने बच्चों को भी बुला लिया. खाने की मेज पर कुछ भारतीय तो कुछ विदेशी व्यंजन दिखाई दे रहे थे.

रश्मि ने कहा, ‘‘आप को तो घर का काम देखने की फुरसत ही नहीं मिलती होगी क्योंकि फैक्टरी में जो व्यस्त रहती हैं.’’

विनय ने पत्नी की ओर प्रशंसाभरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘यही तो इन की खूबी है, खाना अपने तरीके से बनवाती हैं. जिस दिन ये रसोई में नहीं जातीं तो बच्चों का और मेरा पेट ही नहीं भरता.’’

बच्चे खाना खा कर अपने कमरे में जा चुके थे. उन के हंसनेबोलने की आवाजें आ रही थीं. सारा माहौल अत्यंत खुशनुमा प्रतीत हो रहा था, जबकि सुधीर को अपना सूना घर कभीकभी अखर जाता था. वह तो चाहता था कि बच्चे घर पर ही पढ़ें. पर इस से रश्मि की आजादी में खलल पड़ता था. दूसरे, जिस तरह का जीवन रश्मि जी रही थी, उस माहौल में बच्चे पढ़ ही नहीं सकते थे. इसीलिए उन्हें मसूरी भेज दिया था.

जाड़ों की धूप का अलग ही आनंद होता है. खाना खा कर सभी धूप में बैठ कर गपशप करने लगे. गरमागरम कौफी भी आ गई. विनय ने पूछा, ‘‘मां कैसी हैं? मुझे तो उन्होंने बहुत प्यार दिया है.’’

‘‘वे रुड़की से आना ही नहीं चाहतीं. हम लोग तो बहुत चाहते हैं कि वे यहीं रहें,’’ सुधीर ने उदास स्वर में उत्तर दिया.

विनय ने बताया, ‘‘क्षमा का मायका भी रुड़की में ही है. इस तरह तो तू उस का भाई हुआ और मेरा साला भी बन गया. दोस्त और साला यानी पक्का रिश्ता हो गया.’’

विनय हंसा तो साथ में सभी हंस पड़े. अब सुधीर को सारी कहानी समझ में आ गई थी कि क्षमा को कहां और कब देखा था? उस की पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी. मनमाफिक नौकरी मिल चुकी थी. दिलोदिमाग पर अफसरी की शान छाई थी. शादी के लिए हर तरह के रिश्ते आ रहे थे. लेकिन उस के दिमाग में ऐसी लड़की की तसवीर बन गई थी जो जिंदगी की गाड़ी तेजी से दौड़ा सके, जिस की रफ्तार धीमी न हो.

मां ने क्षमा की फोटो दिखाई थी. एक दिन वह उस को देखने उस के घर जा पहुंचा था. साधारण वेशभूषा में दुबलीपतली सांवले रंगरूप वाली क्षमा ने आ कर नमस्कार किया था.

तब सुधीर ने सोचा कि अगर इस साधारण सी लड़की से शादी की तो जिंदगी में कुछ चमकदमक नहीं होगी और न ही कोई नवीनता, वही पुरानी घिसीपिटी धीमी गति से गाड़ी हिचकोले खाती रहेगी.

उस का ध्यान दीनानाथ की बातों से टूटा था, ‘क्षमा बहुत कुशाग्रबुद्धि है, हमेशा प्रथम आई है. खाना तो बहुत ही अच्छा बनाती है. यह गुलाबजामुन इसी के बनाए हुए हैं.’

सुधीर यह कह कर लौट आया था कि मां से सलाह कर के जवाब देगा. रश्मि सुधीर के एक मित्र की बहन थी. जब वह आधुनिक पोशाक में उस के सामने आई तो सौंदर्य के साथसाथ उस की शोखी और चपलता भी सुधीर को भा गई.

उस ने सोचा, ‘यही लड़की मेरे लिए ठीक रहेगी. कहां क्षमा जैसी सीधीसादी लड़की और कहां यह तेजतर्रार आधुनिका…दोनों की कोई तुलना नहीं.’

सुधीर ने मां को फैसला सुना दिया और रश्मि उस की सहचरी बन गई.

अब उसे लग रहा था कि वास्तव में क्षमा की रफ्तार ही तेज है. रश्मि तो फिसड्डी और घिसीपिटी निकली, जिस में न कुछ करने की उमंग है, न लगन.

Social Story : माहौल – सुमन क्यों परेशान रहती थी ?

Social Story : सुमन ने फांसी लगा ली, यह सुन कर मैं अवाक रह गया. अभी उस की उम्र ही क्या थी, महज 20 साल. यह उम्र तो पढ़नेलिखने और सुनहरे भविष्य के सपने बुनने की होती है. ऐसी कौन सी समस्या आ गई जिस के चलते सुमन ने इतना कठोर फैसला ले लिया. घर के सभी सदस्य जहां इस को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाने लगे, वहीं मैं कुछ पल के लिए अतीत के पन्नों में उलझ गया. सुमन मेरी चचेरी बहन थी. सुमन के पिता यानी मेरे चाचा कलराज कचहरी में पेशकार थे. जाहिर है रुपएपैसों की उन के पास कोई कमी नहीं थी. ललिता चाची, चाचा की दूसरी पत्नी थीं. उन की पहली पत्नी उच्चकुलीन थीं लेकिन ललिता चाची अतिनिम्न परिवार से आई थीं. एकदम अनपढ़, गंवार. दिनभर महल्ले की मजदूर छाप औरतों के साथ मजमा लगा कर गपें हांकती रहती थीं. उन का रहनसहन भी उसी स्तर का था. बच्चे भी उन्हीं पर गए थे.

मां के संस्कारों का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है. कहते हैं न कि पिता लाख व्यभिचारी, लंपट हो लेकिन अगर मां के संस्कार अच्छे हों तो बच्चे लायक बन जाते हैं. चाचा और चाची बच्चों से बेखबर सिर्फ रुपए कमाने में लगे रहते. चाचा शाम को कचहरी से घर आते तो उन के हाथ में विदेशी शराब की बोतल होती. आते ही घर पर मुरगा व शराब का दौर शुरू हो जाता. एक आदमी रखा था जो भोजन पकाने का काम करता था. खापी कर वे बेसुध बिस्तर पर पड़ जाते. ललिता चाची को उन की हरकतों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि चाचा पैसों से सब का मुंह बंद रखते थे. अगले दिन फिर वही चर्चा. हालत यह थी कि दिन चाची और बच्चों का, तो शाम चाचा की. उन को 6 संतानों में 3 बेटे व 3 बेटियों थीं, जिन में सुमन बड़ी थी.

फैजाबाद में मेरे एक चाचा विश्वभान का भी घर था. उन के 2 टीनएजर लड़के दीपक और संदीप थे, जो अकसर ललिता चाची के घर पर ही जमे रहते. वहां चाची की संतानें दीपक व संदीप और कुछ महल्ले के लड़के आ जाते, जो दिनभर खूब मस्ती करते. मेरे पिता की सरकारी नौकरी थी, संयोग से 3 साल फैजाबाद में हमें भी रहने का मौका मिला. सो कभीकभार मैं भी चाचा के घर चला जाता. हालांकि इस के लिए सख्त निर्देश था पापा का कि कोई भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर वहां नहीं जाएगा, लेकिन मैं चोरीछिपे वहां चला जाता.

निरंकुश जिंदगी किसे अच्छी नहीं लगती? मेरा भी यही हाल था. वहां न कोई रोकटोक, न ही पढ़ाईलिखाई की चर्चा. बस, दिन भर ताश, लूडो, कैरम या फिर पतंगबाजी करना. यह सिलसिला कई साल चला. फिर एकाएक क्या हुआ जो सुमन ने खुदकुशी कर ली? मैं तो खैर पापा के तबादले के कारण लखनऊ आ गया. इसलिए कुछ अनुमान लगाना मेरे लिए संभव नहीं था. मैं पापा के साथ फैजाबाद आया. मेरा मन उदास था. मुझे सुमन से ऐसी अपेक्षा नहीं थी. वह एक चंचल और हंसमुख लड़की थी. उस का यों चले जाना मुझे अखर गया. सुमन एक ऐसा अनबुझा सवाल छोड़ गई, जो मेरे मन को बेचैन किए हुए था कि आखिर ऐसी कौन सी विपदा आ गई थी, जिस के कारण सुमन ने इतना बड़ा फैसला ले लिया.

जान देना कोई आसान काम नहीं होता? सुमन का चेहरा देखना मुझे नसीब नहीं हुआ, सिर्फ लाश को कफन में लिपटा देखा. मेरी आंखें भर आईं. शवयात्रा में मैं भी पापा के साथ गया. लाश श्मशान घाट पर जलाने के लिए रखी गई. तभी विश्वभान चाचा आए. उन्हें देखते ही कलराज चाचा आपे से बाहर हो गए, ‘‘खबरदार जो दोबारा यहां आने की हिम्मत की. हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म.’’ कुछ लोगों ने चाचा को संभाला वरना लगा जैसे वे विश्वभान चाचा को खा जाएंगे. ऐसा उन्होंने क्यों किया? वहां उपस्थित लोगों को समझ नहीं आया. हो सकता है पट्टेदारी का झगड़ा हो? जमीनजायदाद को ले कर भाईभतीजों में खुन्नस आम बात है. मगर ऐसे दुख के वक्त लोग गुस्सा भूल जाते हैं.

यहां भी चाचा ने गुस्सा निकाला तो मुझे उन की हरकतें नागवार गुजरीं. कम से कम इस वक्त तो वे अपनी जबान बंद रखते. गम के मौके पर विश्वभान चाचा खानदान का खयाल कर के मातमपुरसी के लिए आए थे.पापा को भी कलराज चाचा की हरकतें अनुचित लगीं. चूंकि वे उम्र में बड़े थे इसलिए पापा भी खुल कर कुछ कह न सके. विश्वभान चाचा उलटेपांव लौट गए. पापा ने उन्हें रोकना चाहा मगर वे रुके नहीं. दाहसंस्कार के बाद घर में जब कुछ शांति हुई तो पापा ने सुमन का जिक्र किया. सुन कर कलराज चाचा कुछ देर के लिए कहीं खो गए. जब बाहर निकले तो उन की आंखों के दोनों कोर भीगे हुए थे. बेटी का गम हर बाप को होता है. एकाएक वे उबरे तो बमक पड़े, ‘‘सब इस कलमुंही का दोष है,’’ चाची की तरफ इशारा करते हुए बोले. यह सुन कर चाची का सुबकना और तेज हो गया.

‘‘इसे कुछ नहीं आता. न घर संभाल सकती है न ही बच्चे,’’ कलराज चाचा ने कहा. फिर किसी तरह पापा ने चाचा को शांत किया. मैं सोचने लगा, ’चाचा को घर और बच्चों की कब से इतनी चिंता होने लगी. अगर इतना ही था तो शुरू से ही नकेल कसी होती. जरूर कोई और बात है जो चाचा छिपा रहे थे, उन्होंने सफाई दी, ‘‘पढ़ाई के लिए डांटा था. अब क्या बाप हो कर इतना भी हक नहीं?’’ क्या इसी से नाराज हो कर सुमन ने आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाया? मेरा मन नहीं मान रहा था. चाचा ने बच्चों की पढ़ाई की कभी फिक्र नहीं की, क्योंकि उन के घर में पढ़ाई का माहौल ही नहीं था. स्कूल जाना सिर्फ नाम का था.

बहरहाल, इस घटना के 10 साल गुजर गए. इस बीच मैं ने मैडिकल की पढ़ाई पूरी की और संयोग से फैजाबाद के सरकारी अस्पताल में बतौर मैडिकल औफिसर नियुक्त हुआ. वहीं मेरी मुलाकात डाक्टर नलिनी से हुई. उन का नर्सिंगहोम था. उन्हें देखते ही मैं पहचान गया. एक बार ललिता चाची के साथ उन के यहां गया था. चाची की तबीयत ठीक नहीं थी. एक तरह से वे ललिता चाची की फैमिली डाक्टर थीं. चाची ने ही बताया कि तुम्हारे चाचा ने इन के कचहरी से जुड़े कई मामले निबटाने में मदद की थी. तभी से परिचय हुआ. मैं ने उन्हें अपना परिचय दिया. भले ही उन्हें मेरा चेहरा याद न आया हो मगर जब चाचा और चाची का जिक्र किया तो बोलीं, ‘‘कहीं तुम सुमन की मां की तो बात नहीं कर रहे?’’

‘‘हांहां, उन्हीं की बात कर रहा हूं,’’ मैं खुश हो कर बोला.

‘‘उन के साथ बहुत बुरा हुआ,’’ उन का चेहरा लटक गया.

‘‘कहीं आप सुमन की तो बात नहीं कर रहीं?’’

‘‘हां, उसी की बात कर रही हूं. सुमन को ले कर दोनों मेरे पास आए थे,’’

डा. नलिनी को कुछ नहीं भूला था. नहीं भूला तो निश्चय ही कुछ खास होगा?

‘‘क्यों आए थे?’’ जैसे ही मैं ने पूछा तो उन्होंने सजग हो कर बातों का रुख दूसरी तरफ मोड़ना चाहा.

‘‘मैडम, बताइए आप के पास वे सुमन को क्यों ले कर आए,’’ मैं ने मनुहार की.

‘‘आप से उन का रिश्ता क्या है?’’

‘‘वे मेरे चाचाचाची हैं. सुमन मेरी चचेरी बहन थी,’’ कुछ सोच कर डा. नलिनी बोलीं, ‘‘आप उन के बारे में क्या जानते हैं?’’

‘‘यही कि सुमन ने पापा से डांट खा कर खुदकुशी कर ली.’’

‘‘खबर तो मुझे भी अखबार से यही लगी,’’ उन्होंने उसांस ली. कुछ क्षण की चुप्पी के बाद बोलीं, ‘‘कुछ अच्छा नहीं हुआ.’’

‘‘क्या अच्छा नहीं हुआ?’’ मेरी उत्कंठा बढ़ती गई.

‘‘अब छोडि़ए भी गड़े मुरदे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उन्होंने टाला.

‘‘मैडम, बात तो सही है. फिर भी मेरे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर सुमन ने खुदकुशी क्यों की?’’

‘‘जान कर क्या करोगे?’’

‘‘मैं उन हालातों को जानना चाहूंगा जिन की वजह से सुमन ने खुदकुशी की. मैं कोई खुफिया विभाग का अधिकारी नहीं फिर भी रिश्तों की गहराई के कारण मेरा मन हमेशा सुमन को ले कर उद्विग्न रहा.’’

‘‘आप को क्या बताया गया है?’’

‘‘यही कि पढ़ाई के लिए चाचा ने डांटा इसलिए उस ने खुदकुशी कर ली.’’

इस कथन पर मैं ने देखा कि डा. नलिनी के अधरों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. अब तो मेरा विश्वास पक्का हो गया कि हो न हो बात कुछ और है जिसे डा. नलिनी के अलावा कोई नहीं जानता. मैं उन का मुंह जोहता रहा कि अब वे राज से परदा हटाएंगी. मेरा प्रयास रंग लाया. वे कहने लगीं, ‘‘मेरा पेशा मुझे इस की इजाजत नहीं देता मगर सुमन आप की बहन थी इसलिए आप की जिज्ञासा शांत करने के लिए बता रही हूं. आप को मुझे भरोसा देना होगा कि यह बात यहीं तक सीमित रहेगी.’’

‘‘विश्वास रखिए मैडम, मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से आप को रुसवा होना पड़े.’’

‘‘सुमन गर्भवती थी.’’

सुन कर सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. मैं सन्न रह गया.

‘‘सुमन के गार्जियन गर्भ गिरवाने के लिए मेरे पास आए थे. गर्भ 5 माह का था. इसलिए मैं ने कोई रिस्क नहीं लिया.’’

मैं भरे मन से वापस आ गया. यह मेरे लिए एक आघात से कम नहीं था. 20 वर्षीय सुमन गर्भवती हो गई? कितनी लज्जा की बात थी मेरे लिए. जो भी हो वह मेरी बहन थी. क्या बीती होगी चाचाचाची पर, जब उन्हें पता चला होगा कि सुमन पेट से है? चाचा ने पहले चाची को डांटा होगा फिर सुमन को. बच निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखा तो सुमन ने खुदकुशी कर ली.

मेरे सवाल का जवाब अब भी अधूरा रहा. मैं ने सोचा डा. नलिनी से खुदकुशी का कारण पता चल जाएगा तो मेरी जिज्ञासा खत्म हो जाएगी मगर नहीं, यहां तो एक पेंच और जुड़ गया. किस ने सुमन को गर्भवती बनाया? मैं ने दिमाग दौड़ाना शुरू किया. चाचा ने श्मशान घाट पर विश्वभान चाचा को देख कर क्यों आपा खोया? उन्होंने तो मर्यादा की सारी सीमा तोड़ डाली थी. वे उन्हें मारने तक दौड़ पड़े थे. मेरी विचार प्रक्रिया आगे बढ़ी. उस रोज वहां विश्वभान चाचा के परिवार का कोई सदस्य नहीं दिखा. यहां तक कि दिन भर डेरा डालने वाले उन के दोनों बेटे दीपक और संदीप भी नहीं दिखे. क्या रिश्तों में सेंध लगाने वाले विश्वभान चाचा के दोनों लड़कों में से कोई एक था? मेरी जिज्ञासा का समाधान मिल चुका था.

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