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sad love story : मेरा प्यार असफल हो गया

Sad Love Story : एक हार्ट केयर हौस्पिटल के शुभारंभ का आमंत्रण कार्ड कोरियर से आया था. मानसी ने पढ़ कर उसे काव्य के हाथ में दे दिया. काव्य ने उसे पढना शुरू किया और अतीत में खोता चला गया… उस ने रक्षित का दरवाजा खटखटाया. वह उस का बचपन का दोस्त था. बाद में दोनों कालेज अलगअलग होने के कारण बहुत ही मुश्किल से मिलते थे. काव्य इंजीनियरिंग कर रहा था और रक्षित डाक्टरी की पढ़ाई.

आज काव्य अपने मामा के यहां शादी में अहमदाबाद आया हुआ था, तो सोचा कि अपने खास दोस्त रक्षित से मिल लूं, क्योंकि शादी का फंक्शन शाम को होना था. अभी दोपहर के 3-4 घंटे दोस्त के साथ गुजार लूं. जीभर कर मस्ती करेंगे और ढेर सारी बातें करेंगे. वह रक्षित को सरप्राइज देना चाहता था. उस के पास रक्षित का पता था क्योंकि अभी उस ने पिछले महीने ही इसी पते पर रक्षित के बर्थडे पर गिफ्ट भेजा था.

दरवाजा दो मिनट बाद खुला, उसे आश्चर्य हुआ पर उस से ज्यादा आश्चर्य रक्षित को देख कर हुआ. रक्षित की दाढ़ी बेतरतीब व बढ़ी हुई थी. आंखें धंसी हुई थीं जैसे काफी दिनों से सोया न हो. कपड़े जैसे 2-3 दिन से बदले न हों. मतलब, वह नहाया भी नहीं था. उस के शरीर से हलकीहलकी बदबू आ रही थी, फिर भी काव्य दोस्त से मिलने की खुशी में उस से लिपट गया. पर सामने से कोई खास उत्साह नहीं आया.

क्या बात है भाई, तबीयत तो ठीक है न,’ उसे आश्चर्य हुआ रक्षित के व्यवहार से, क्योंकि रक्षित हमेशा काव्य को देखते ही चिपक जाता था. ‘अरे काव्य, तुम यहां, चलो अंदर आओ,’ उस ने जैसे अनमने भाव से कहा. स्टूडैंट रूम की हालत वैसे ही हमेशा खराब ही होती है पर रक्षित के रूम की हालत देख कर लगता था जैसे एक साल से कमरा बंद हो. सफाई हुए महीनों हो गए हों. पूरे कमरे में जगहजगह जाले थे. किताबों पर मिट्टी जमा थी. किताबें अस्तव्यस्त यहांवहां बिखरी हुई थीं. काव्य ने पुराना कपड़ा ले कर कुरसी साफ की और बैठा. उस से पहले ही रक्षित पलंग पर बैठ चुका था जैसे थक गया हो. काव्य अब आश्चर्य से ज्यादा दुखी व स्तब्ध था. उसे चिंता हुई कि दोस्त को क्या हो गया है? ‘‘तबीयत ठीक है न? यह क्या हालत बना रखी है खुद की व कमरे की? 2-3 बार पूछने पर उस ने जवाब नहीं दिया, तो काव्य ने कंधों को पकड़ कर झिंझड़ कर पूछा तो रक्षित की आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ कहने की जगह वह काव्य से चिपक गया, तकलीफ में जैसे बच्चा अपनी मां से चिपकता है.

वह फफकफफक कर रोने लगा. काव्य को कुछ भी समझ न आया. कुछ देर तक रोने के बाद वह इतना ही बोला, ‘भाई, मैं उस के बिना जी नहीं सकता,’ उस ने सुबकते हुए कहा. ‘किस के बिना जी नहीं सकता? तू किस की बात कर रहा है?’ दोनों हाथ पकड़ कर काव्य ने प्यार से पूछा. ‘आम्या की बात कर रहा हूं.’ ‘ओह तो प्यार का मामला है. मतलब गंभीर. यह उम्र ही ऐसी है. जब काव्य कालेज जा रहा था तब उस के गंभीर पापा ने उसे एकांत में पहली बार अपने पास बिठा कर इस बारे में विस्तार से बात की.

अपने पापा को इस विषय पर बात करते हुए देख कर काव्य को घोर आश्चर्य हुआ था. पर जब पापा ने पूरी बात समझई व बताई, तब उसे अपने पापा पर नाज हुआ कि उन्होंने उसे कुएं में गिरने से पहले ही बचा लिया. ‘ओह,’ काव्य ने अफसोसजनक स्वर में कहा. ‘रक्षित, तू एक काम कर. पहले नहाधो और शेविंग कर के फ्रैश हो जा. तब तक मैं पूरे कमरे की सफाई करता हूं. फिर मैं तेरी पूरी बात सुनता हूं और समझता हूं,’ काव्य ने अपने दोस्त को अपनेपन से कहा. काव्य सफाईपसंद व अनुशासित विद्यार्थी की तरह था. रो लेने के कारण उस का मन हलका हो गया था.

‘अरे काव्य, सफाई मैं खुद ही कर दूंगा. तू तो मेहमान है.’ काव्य को ऐसा बोलते हुए रक्षित हड़बड़ा गया. ‘अरे भाई, पहले मैं तेरा दोस्त हूं. प्लीज, दोस्त की बात मान ले.’ अब दोस्त इतना प्यार और अपनेपन से कहे तो कौन दोस्त की बात न माने. काव्य ने समझ कर उसे अटैच्ड बाथरूम में भेज दिया, क्योंकि ऐसे माहौल में न तो वह ढंग से बता सकता है और न वह सुन सकता है. पहले वह फ्रैश हो जाए तो ढंग से कहेगा. काव्य ने किताब और किताबों की शैल्फ से शुरुआत की और आधे घंटे में एक महीने का कचरा साफ कर लिया.

काव्य होस्टल में सब से साफ और व्यवस्थित कमरा रखने के लिए प्रसिद्ध था. आधे घंटे बाद जब रक्षित बाथरुम से निकला तो दोनों ही आश्चर्य में थे. रक्षित एकदम साफ और व्यवस्थित कक्ष देख कर और काव्य, रक्षित को क्लीन शेव्ड व वैलड्रैस्ड देख कर. ‘वाऊ, तुम ने इतनी देर में कमरे को होस्टल के कमरे की जगह होटल का कमरा बना दिया भाई. तेरी सफाई की आदत होस्टल में जाने के बाद भी नहीं बदली,’ रक्षित सफाई से बहुत प्रभावित हो कर बोला. ‘और तेरी क्लीन शेव्ड चेहरे में चांद जैसे दिखने की,’ चेहरे पर हाथ फेरते हुए काव्य बोला. अब रक्षित काफी रिलैक्स था.

‘भैया चाय…’ दरवाजे पर चाय वाला चाय के साथ था. ‘अरे वाह, क्या कमरा साफ किया है आप ने,’ कमरे की चारों तरफ नजर घुमाते हुए छोटू बोला तो रक्षित झेंप गया. वह रोज सुबहसुबह चाय ले कर आता है, इसलिए उसे कमरे की हालत पता थी. ‘अरे, यह मेरे दोस्त का कमाल है,’ काव्य के कार्य की तारीफ करते हुए रक्षित मुसकराते हुए बोला, ‘अरे, तुम्हें चाय लाने को किस ने बोला?’ ‘मैं ने बोला. दीवार पर चाय वाले का फोन नंबर था.’ ‘थैंक्यू काव्य. चाय पीने की बहुत इच्छा थी,’ रक्षित ने चाय का एक गिलास काव्य को देते हुए कहा. दोनों चुपचाप गरमागरम चाय पी रहे थे. चाय खत्म होने के बाद काव्य बोला, ‘अब बता, क्या बात है, कौन है आम्या और पूरा माजरा क्या है?’

आम्या की बात सुन कर रक्षित फिर से मायूस हो गया, फिर से उस के चेहरे पर मायूसी आ गई. हाथ कुरसी के हत्थे से भिंच गए. ‘मैं आम्या से लगभग एक साल पहले मिला था. वह मेरी क्लासमेट लावण्या की मित्र थी. लावण्या की बर्थडे पार्टी में हम पहली बार मिले थे. हमारी मुलाकात जल्दी ही प्रेम में बदल गई. वह एमबीए कर रही थी और बहुत ही खूबसूरत थी. मैं सोच भी नहीं सकता कि कालेज में मेरी इतनी सारी लड़कियों से दोस्ती थी पर क्यों मुझे आम्या ही पसंद आई. मुझे उस से प्यार हो गया. शायद वह समय का खेल था. हम लगभग रोज ही मिलते थे. मेरी फाइनल एमबीबीएस की परीक्षा के दौरान भी मुझ में उस की दीवानगी छाई हुई थी. वह भी मेरे प्यार में डूबी हुई थी. ‘मैं अभी तक प्यारमोहब्बत को फिल्मों व कहानियों में गढ़ी गई फंतासी समझता था.

जिसे काल्पनिकता दे कर लेखक बढ़ाचढ़ा कर पेश करते हैं. पर अब मेरी हालत भी वैसे ही हो गई, रांझ व मजनूं जैसी. मैं ने तो अपना पूरा जीवन उस के साथ बिताने का मन ही मन फैसला कर लिया था और आम्या की ओर से भी यही समझता था. मुझ में भी कुछ कमी नहीं थी, मुझ में एक परफैक्ट शादी के लिए पसंद करने के लिए सारे गुण थे.’ ‘तो फिर क्या हुआ दोस्त?’

काव्य ने उत्सुकता से पूछा. ‘मेरी एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी हो गई थी और मैं हृदयरोग विशेषज्ञ बनने के लिए आगे की तैयारी के लिए पढ़ाई कर रहा था. एक दिन उस ने मुझ से कहा, ‘सुनो, पापा तुम से मिलना चाहते हैं.’ वह खुश और उत्साहित थी. ‘क्यों?’ मुझे जिज्ञासा हुई. ‘हम दोनों की शादी के सिलसिले में,’ उस ने जैसे रहस्य खोलते हुए कहा. ‘शादी? वह भी इतनी जल्दी’ मैं ने हैरानगी से कहा. ‘मैं आम्या को चाहता था पर अभी शादी के लिए विचार भी नहीं किया था. ‘हां, मेरे दादाजी की जिद है कि मेरी व मेरी छोटी बहन की शादी जल्दी से करें,’ आम्या ने शादी की जल्दबाजी का कारण बताया और जैसी शांति से बता रही थी उस से तो ऐसा लगा कि उसे भी जल्द शादी होने में आपत्ति नहीं है.

‘अभी इतनी जल्दी यह संभव नहीं है. मेरा सपना हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का है और मैं अपना सारा ध्यान अभी पढ़ाई में ही लगाना चाहता हूं,’ मैं ने उसे अपने सपने के बारे में और अभी शादी नहीं कर सकता हूं, यह समझया. ‘उस के लिए 2-3 साल और रुक जाओ. फिर हम दोनों जिंदगीभर एकदूसरे के हो जांएगे,’ मैं ने उसे समझते हुए कहा.

‘नहीं रक्षित, यह संभव नहीं है. मेरे पिता इतने साल तक रुक नहीं सकते. मेरे पीछे मेरी बहन का भी भविष्य है,’ जैसे उस ने जल्दी शादी करने का फैसला ले लिया हो. ‘मैं ने उसे बहुत समझया. पर उस ने अपने पिता के पसंद किए हुए एनआरआई अमेरिकी से शादी कर ली और पिछले महीने अमेरिका चली गई और पीछे छोड़ गई अपनी यादें और मेरा अकेलापन. मैं सोच नहीं सकता कि आम्या मुझे छोड़ देगी.

मैं दुखी हूं कि मेरा प्यार छिन गया. मैं ने उसे मरने की हद तक चाहा. काव्य, मेरा प्यार असफल हो गया. मझ में कुछ भी कमी नहीं थी. फिर भी क्यों मेरे साथ समय ने ऐसा खेल खेला.’ रक्षित फिर से रोने लगा और रोते हुए बोला, ‘बस, तभी से मुझे न भूख लगती है न प्यास. एक महीने से मैं ने एक अक्षर की भी पढ़ाई नहीं की है. मेरा अभी विशेषज्ञ प्रवेश परीक्षा का अगले महीने ही एग्जाम है. यों समझ कि मैं देवदास बन गया हूं.’ वह फिर से काव्य के कंधे पर सिर रख कर बच्चों जैसा रोने लगा. ‘देखो रक्षित, इस उम्र में प्यार करना गलत नहीं है. पर प्यार में टूट जाना गलत है.

तुम्हारा जिंदगी का मकसद हमेशा ही एक अच्छा डाक्टर बनना था न कि प्रेमी. देखो, तुम ने कितना इंतजार किया. बचपन में तुम्हारे दोस्त खेलते थे, तुम खेले नहीं. तुम्हारे दोस्त फिल्म देखने जाते, तो तुम फिल्म नहीं देखते थे. तुम्हारा भी मन करता था अपने दोस्तों के साथ गपशप करने का और यहां तक कि रक्षित, तुम अपनी बहन की शादी में भी बरातियों की तरह शाम को पहुंच पाए थे, क्योंकि तुम्हारी पीएमटी परीक्षा थी. वे सारी बातें अपने प्यार में भूल गए. ‘आम्या तो चली गई और फिर कभी वापस भी नहीं आएगी तुम्हारी जिंदगी में.

और यदि आज तुम्हें आम्या ऐसी हालत में देखेगी तो तुम पर उसे प्यार नहीं आएगा, बल्कि नफरत करेगी और सोचेगी कि अच्छा हुआ कि मैं इस व्यक्ति से बच गई जो एक असफलता के कारण, जिंदगी से निराश, हताश और उदास हो गया और अपना जिंदगी का सपना ही भूल गया. क्या वह ऐसे व्यक्ति से शादी करती? ‘सोचो रक्षित, एक पल के लिए भी. एक दिल टूटने के कारण क्या तुम भविष्य में लाखों दिलों को टूटने दोगे, इलाज करने के लिए वंचित रखोगे. इस मैडिकल कालेज में आने, इस अनजाने शहर में आने, अपना घर छोड़ने का मकसद एक लड़की का प्यार पाना था या फिर बहुत सफल व प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का था? तुम्हें वह सपना पूरा करना है जो यहां आने से पहले तुम ने देखा था. ‘

रक्षित बता दो दुनिया को और अपनेआप को भी कि तुम्हारा प्यार असफल हुआ है, पर तुम नहीं और न ही तुम्हारा सपना असफल हुआ है. और यह बात तुम्हें खुद ही साबित करनी होगी,’ काव्य ने उसे समझया.

‘तुम सही कहते हो काव्य, मेरा लक्ष्य, मेरा सपना, सफल प्रेमी बनने का नहीं, एक अच्छा डाक्टर बनने का है. थैंक्यू तुम्हें दोस्त, यह सब मुझे सही समय पर याद दिलाने के लिए,’ काव्य के गले लग कर, दृढ़ता व विश्वास से रक्षित बोला. ‘‘कार्ड हाथ में ले कर कब से कहां खो गए हो?’’
मानसी ने अपने पति काव्य को झिंझड़ कर पूछा, ‘‘अरे, कब तक सोचते रहोगे. कुछ तैयारी भी करोगे? कल ही रक्षित भैया के हार्ट केयर हौस्पिटल के उद्घाटन में जोधपुर जाना है,’’ मानसी ने उस से कहा तो वह मुसकरा दिया.

Hindi Story : दलित की बेटी

Hindi Story : आज हरीपुर गांव में बड़ी चहलपहल थी. ब्लौक के अफसर, थाने के दारोगा व सिपाही, जो कभी यहां भूल कर भी नहीं आते थे, बड़ी मुस्तैदी दिखा रहे थे. आते भी क्यों नहीं, जिले की कलक्टर काजल जो यहां आने वाली थीं. तकरीबन 8 महीने पहले काजल ट्रांसफर हो कर इस जिले में आई थीं. दूसरे लोगों के लिए भले ही वे जिले की कलक्टर थीं, लेकिन इस गांव के लिए किसी देवदूत से कम नहीं थीं. तकरीबन 7 महीने पहले उन्होंने इस गांव को गोद लिया था. वैसे तो यह गांव बड़ी सड़क से 3 किलोमीटर की दूरी पर था, लेकिन गांव से बड़ी सड़क तक जाने के लिए लोग कच्चे रास्ते का इस्तेमाल करते थे.

इस गांव की आबादी तकरीबन 2 हजार थी, लेकिन यहां न तो कोई प्राइमरी स्कूल था, न ही कोई डाक्टरी इलाज का इंतजाम था. यहां ज्यादातर मकान मिट्टी की दीवार और गन्ने के पत्तों के छप्पर से बने थे, लेकिन जब से कलक्टर काजल ने इस गांव को गोद लिया है, तब से इस गांव की तसवीर ही बदल गई है. सरकारी योजनाओं के जरीए अब इस गांव में रहने वाले गरीब व पिछड़े लोगों के मकान पक्के बन गए हैं. हर घर में शौचालय व बड़ी सड़क से गांव तक पक्की सड़क भी बन गई है और आज गांव में बनी पानी की टंकी का उद्घाटन था, जिस से पूरे गांव को पीने का साफ पानी मिल सके. और तो और इस गांव का सरपंच ठाकुर महेंद्र सिंह, जो दलितों को छूता तक नहीं था, भी आज लोगों को बुलाबुला कर मंच के सामने लगी कुरसियों पर बिठा रहा था.

सुबह के तकरीबन 10 बजे कलक्टर काजल का गांव में आना हुआ. सारे अफसरों के साथसाथ ठाकुर महेंद्र सिंह भी माला ले कर उन के स्वागत के लिए खड़ा था, लेकिन कलक्टर काजल ने माला पहनने से इनकार कर दिया. पानी की टंकी के उद्घाटन से पहले कलक्टर काजल ने ठाकुर महेंद्र सिंह से पूछा, ‘‘ठाकुर साहब, क्या आप मेरे द्वारा छुई गई इस टंकी का पानी पी सकेंगे?’’ ठाकुर महेंद्र सिंह खिसियानी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘अरे मैडम, यह कैसी बात कर रही हैं आप…’’

तब कलक्टर काजल बोलीं, ‘‘ठाकुर साहब, मैं उसी अछूत बुधवा की बेटी कजली हूं, जिसे आप ने अपना हैंडपंप छूने के जुर्म में गांव से बाहर निकाल दिया था…’’ और यह कह कर कलक्टर काजल ने टंकी का वाल्व खोल कर पानी चालू कर दिया. पीछे से लोगों के नारे लगाने की आवाज आने लगी. ठाकुर महेंद्र सिंह की आंखों के सामने आज से 15 साल पुराना नजारा घूमने लगा. बुधवा अपनी 12 साल की बेटी कजली के साथ खेतों से गेहूं काट कर घर आ रहा था. चैत का महीना था. कजली को प्यास लगी थी. वे दोनों ठाकुर महेंद्र सिंह के बगीचे में लगे हैंडपंप के पास से गुजर रहे थे.

कजली बोली थी, ‘बाबा, थोड़ा पानी पी लूं, बड़ी प्यास लगी है.’ बुधवा बोला था, ‘नहीं बेटी, घर चल कर पानी पीना. यह ठाकुर का नल है. अगर किसी ने देख लिया, तो हमारी शामत आ जाएगी.’ कजली बोली थी, ‘बाबा, यहां कोई नहीं है. मैं जल्दी से पानी पी लूंगी. कोई भी नहीं जानेगा,’ इतना कह कर कजली ने हैंडपंप को पकड़ा ही था कि ठाकुर का बेटा रमेश वहां आ गया और कजली को नल पकड़े देख कर आपे से बाहर हो गया. उस ने कजली और बुधवा को खूब भलाबुरा कहा. इस बात को ले कर गांव में पंचायत बैठी और गांव के सरपंच ठाकुर महेंद्र सिंह ने फरमान सुनाया कि चूंकि कजली ने ठाकुरों के नल को छुआ है, इसलिए उसे और उस के परिवार को गांव से बाहर निकाल दिया जाए. फिर क्या था. बुधवा का घर तोड़ दिया गया और उन्हें जबरदस्ती गांव से बाहर निकाल दिया गया.

अब ठाकुर महेंद्र सिंह को अपनी उस गलती पर पछतावा हो रहा था. जिस को उस ने गांव से बेइज्जत कर के निकाल दिया था, वही कजली आज इस के जिले की कलक्टर है. ठाकुर महेंद्र सिंह पुराने खयालों से बाहर निकला, तो देखा कि कलक्टर काजल जाने वाली हैं. वह दौड़ कर उन के सामने पहुंचा और बोला, ‘‘मुझे माफ कर दो मैडम. मैं पहले जैसा नहीं रहा. अब मैं बदल गया हूं.’’ कलक्टर काजल बोलीं, ‘‘अच्छी बात है ठाकुर साहब. बदल जाने में ही भलाई है,’’ इतना कह कर वे अपनी जीप में बैठ कर चल दीं.

Emotional Story : मन की मुंडेर पर

Emotional Story : औरत के संघर्ष को औरत ही बेहतर ढंग से समझ सकती है और आज अम्माजी ने भी इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था.

‘‘म म्मी, मैं कालेज जा रही हूं. आज थोड़ा लेट जाऊंगी, सैमिनार है.’’

‘‘ठीक है, अनु. जरा संभल कर जाना,’’ जया बोली.

‘‘क्या मम्मी, आप भी न आज भी मुझे छोटी सी बच्ची ही समझती हो, यहां मत जाया कर, वहां मत जाया कर.’’

‘‘हांहां, जानती हूं कि तू बहुत बड़ी हो गई है पर मेरे लिए तो तू आज भी वही गोलमटोल सी मेरी प्यारी सी अनु है.’’

अनु के चेहरे पर मासूम सी मुसकराहट तैरने लगी.

‘‘अच्छाअच्छा, अब जल्दी भी कर, ज्यादा बातें न बना, कालेज पहुंचने में देर हो जाएगी.’’

मांबेटी में मधुर नोकझोंक चल ही रही थी कि तब तक अम्माजी प्रकट हुईं.

‘‘कहां चली सवारी इतनी सुबहसुबह?’’

‘‘दादी, मेरी एक्स्ट्रा क्लासेस हैं, बस, कालेज के लिए निकल रही हूं.’’

‘‘ठीक है, ठीक है, पढ़ाईलिखाई तो होती रहेगी पर कभीकभी अपनी दादी के पास भी बैठ जाया कर, तेरी दादी का भी क्या भरोसा, कब प्रकृति के यहां से बुलावा आ जाए.’’

अम्माजी ने दार्शनिकों की तरह कहा. यह रोज का ही किस्सा था. जब तक दादी दोचार ऐसी बातें न बोल दें तब तक उन को चैन नहीं मिलता था. अनु ने दादी के गले में हाथ डाल कर कर कहा, ‘‘मेरी प्यारी दादी, अभी आप इतनी जल्दी मुझे छोड़ कर नहीं जा रहीं. अभी तो आप को मेरी शादी में तड़कताभड़कता डांस भी करना है.’’

‘‘चल हट, तू भी न, जब देखो तब.’’

अनु की बात सुन कर अम्मा लजा गईं. तभी अनु ने मां की तरफ रुख किया,  ‘‘मम्मी, मैं सोच रही हूं कि मैं भी कंप्यूटर की क्लासेस जौइन कर लूं. इधर पढ़ाई का लोड भी थोड़ा कम है.’’

‘‘अरे, यह सब छोड़ अब चौके में मां का हाथ बंटाया कर. तुझे दूसरे घर भी जाना है. कंप्यूटरसंप्यूटर कुछ काम नहीं आने वाला. मां के साथ घर का काम करना सीख, नहीं तो ससुराल वाले उलाहना देने लगेंगे.’’

‘‘क्या दादी, आप भी न, किस जमाने की बात कर रही हैं?’’

दादी ने अनु के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, तू कुछ भी कर ले, कुछ भी सीख ले पर चौके का काम नहीं सीखा तो सब बेकार है. यह समाज औरतों के लिए कभी नहीं बदलता.’’

और भी न जाने क्या सोच कर अम्मा की आंखें भर आईं. जया भी अम्मा को इस तरह से भावुक देख कर आश्चर्य में पड़ गई. आज सुबहसुबह ही बाबूजी से अम्मा की किसी बात पर नोकझोंक हो गई थी. बाबूजी ने अम्माजी से कह दिया था कि तुम दिनभर करती क्या हो? यह बात शायद उन के दिल को चुभ गई थी. जया अम्माजी से कुछ कहना चाह रही थी पर शब्द उस के गले में ही अटक गए. अम्मा ने अपनेआप को संभाला और जया की तरफ रुख कर कहा, ‘‘अब इस को अपने साथ चौके में भी काम सिखाया करो. पढ़ाईलिखाई तो होती रहेगी और अनु, यह जो कंप्यूटरसंप्यूटर का भूत है न, इसे अपने घर जा कर पूरा करना.’’

जया सोच में पड़ गई. अपना घर अम्माजी की नजर में अपना घर आखिर कौन सा था. जहां अनु रहती थी क्या वह घर उस का अपना घर नहीं था. शादी के पहले जब उस ने अपनी मां से कत्थक सीखने के लिए जिद की थी तो बाबूजी कितना नाराज हुए थे. अच्छे घर की लड़कियां यह सब नहीं सीखतीं. जब तुम अपने घर जाना तब यह सब नाटक करना. मेरे घर यह सब चोंचलेबाजी नहीं चलेगी. जया सोचने लगी, वक्त बदल गया, पीढि़यां बदल गईं पर आज भी यह निर्णय नहीं हो पाया कि बेटियों का असली घर कौन सा होता है. अनु कालेज चली गई और जया घर के कामों में लग गई.

दिनभर काम करतेकरते उस की कमर अकड़ गई थी. न जाने क्यों उस का मन बारबार विचलित हो रहा था. कल रात में ही अम्मा ने एक तसवीर दिखाई थी. अनु अब शादी लायक हो गई है. अब जल्दी से जल्दी इस के हाथ पीले करने हैं. तुम्हारे बाबूजी की यही अंतिम इच्छा है कि मरने से पहले वे पोती को विदा कर दें. जया अम्मा का मुंह आश्चर्य से देखती रह गई. अभी अनु की उम्र ही क्या है, अभी तो उस का कालेज भी पूरा नहीं हुआ है और अभी से शादी, उस ने न जाने कितने सपने देखे हैं, उस के उन मासूम सपनों का क्या.

‘अम्माजी, अभी तो अनु बहुत छोटी है, अभी से शादी की बातें?’

‘अरे, मैं ने ऐसा क्या कह दिया. लड़की जब कंधे के बराबर आने लगे तो उस के हाथ पीले कर देने चाहिए. वक्त का क्या पता न जाने कोई ऊंचनीच हो जाए तो. क्या तुम किसी ऊंचनीच का इंतजार कर रही हो?’

जया अम्मा का मुंह देखती रह गई, क्या उन्हें अपनी परवरिश पर जरा भी भरोसा नहीं है. बाबूजी की अंतिम इच्छा के लिए अनु की बलि देना कहां तक सही है. आनंद हमेशा की तरह अपनी मां के सामने मुंह नहीं खोल पाए. आज भी वही हुआ, जया आखिर कहां तक अनु की पैरवी करती. आनंद ने तसवीर पर निगाह डाली, लड़का सुंदर, सजीला और संभ्रांत लग रहा था.

‘अम्मा, लड़का तो देखने में काफी अच्छा लग रहा है.’

‘मैं भी तो यही कह रही हूं खातापीता परिवार है, अपनी अनु खुश रहेगी. अपनी मैडम को समझ लो, इन्हीं को न जाने क्या दिक्कत है?’

अम्मा की तीर सी चुभती बातों ने जया को बेचैन कर दिया. आनंद चुपचाप अम्मा की बातों को सुनते रहे. जया को इस से ज्यादा आनंद से कोई उम्मीद भी न थी.

‘अनु को यह तसवीर दिखा देना, कल यह न हो कि तुम्हारी लाड़ली कहे कि बिना पूछे शादी कर दी.’

जया कसमसा कर रह गई. तभी किसी आवाज से उस की आंखें खुल गईं, सामने अम्माजी खड़ी थीं. वह हड़बड़ा कर पलंग पर बैठ गई.

‘‘क्या हुआ अम्माजी, किसी चीज की जरूरत थी क्या? मुझे आवाज दे दी होती, मैं आ गई होती.’’

‘‘ठीक है, ठीक है. सारे घर की चिंता तो मुझे ही करनी है, फिर मुझे मिलने आना ही पड़ता. अपनी बिटिया को फोटो दिखाई कि नहीं कि वैसे ही दराज में पड़ी हुई है?’’

जया के पास उन की बात का जवाब न था.

‘‘समझ गई, अभी तक तुम ने कोई बात नहीं की होगी अपनी लाडो से. एक काम ठीक से नहीं करती. लाओ वह तसवीर मुझे दे दो, मैं ही बात कर लूंगी.’’

‘‘नहींनहीं अम्माजी, ऐसी कोई बात नहीं है. काम की व्यस्तता में मैं भूल गई थी.’’

‘‘भूल गई थी?’’

अम्मा ने तिरछी निगाह से जया को देखा जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो. सच में जब जया ही इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं थी, वह अनु से क्या कहती. ऐसा नहीं था कि उसे लड़का पसंद नहीं था पर वह इतनी जल्दी अनु की शादी नहीं करना चाहती थी. उस के भी कुछ सपने थे. कुछ अरमान थे. वह नहीं चाहती थी कि घर वालों की इच्छाओं के आगे उस के सपने दम तोड़ दें.

‘‘मैं आज जरूर पूछ लूंगी.’’

‘‘तुम तो रहने ही दो, तुम से कोई काम ठीक से नहीं होता. मुझे फोटो दे दो, मैं ही पूछ लूंगी.’’

‘‘नहींनहीं अम्माजी, ऐसी कोई बात नहीं है, आज शाम तक का समय दीजिए, मैं उस से जरूर पूछ लूंगी.’’

‘‘ठीक है, ठीक है. आज जरूर पूछ लेना और अगर तुम से न हो पाए तो मुझे बता देना, मैं यह काम भी कर लूंगी.’’

जया चुपचाप अम्मा की बातों को सुनती रही. अम्मा कमरे से बाहर चली गई, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. शाम हो गई थी, लगता है अनु कालेज से वापस आ गई. जया ने साड़ी के पल्लू को ठीक किया और दरवाजे की ओर बढ़ी. अनु के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ रही थी.

‘‘मम्मीमम्मी, मैं आज बहुत खुश हूं. पूरा हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था. हर व्यक्ति की आंखों में मेरे लिए प्रशंसा का स्वर था. जानती हो मम्मी, आर के सर ने कहा, ‘तुम बहुत अच्छा बोलती हो, इसी तरह पढ़ाई पर ध्यान दो, एक न एक दिन तुम कुछ न कुछ जरूर करोगी.’ मम्मी. तुम जानतीं नहीं, मैं आज कितनी खुश हूं.’’

जया उस के मासूम चेहरे पर खुशी देख कर मन ही मन भावुक हो रही थी, कैसे सम?ाए घर वालों को और कैसे बताए अनु को कि उस की खुशियों को, उस के सपनों को तोड़ने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. अनु न जाने कितनी देर तक बोलती रही. जया समझ नहीं पा रही थी कि वह अपनी बात कहां से शुरू करे, कैसे इस मासूम सी बच्ची के अरमानों का गला घोंट दे.

‘‘क्या हुआ मां, कुछ कहना चाहती हो?’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसी तो कोई बात नहीं.’’

अनु ने बड़े ही लाड़ से उस के हाथों को अपने हाथों में ले कर आंखों में आंखें डाल कर पूछा, ‘‘मां, मैं इतनी बड़ी तो हो ही गई हूं कि तुम्हारे दिल की बातों को समझ सकूं.’’

जया का दिल भर आया, ‘‘अनु, तुम्हारी दादी तुम्हारे लिए एक रिश्ता ले कर आई हैं, बहुत ही अच्छा रिश्ता है, एक बार फोटो देख लो.’’ जया ने धीरे से तसवीर अनु की तरफ सरका दी. अनु का हाथ कांप गया. उस के हाथ के कंपन को जया ने भी महसूस किया.

‘‘मां, इतनी जल्दी भी क्या है. अभी तो मुझे जिंदगी में बहुतकुछ करना है और आप सब अभी से शुरू हो गए.’’

‘‘एक बार तसवीर तो देख लो, हो सकता है लड़का तुम्हें पसंद आ जाए.’’

अनु गुस्से से बिफर उठी, ‘‘बात पसंद या नापसंद की नहीं है, बात मेरे जीवन की है. सच बताओ मां, क्या तुम भी यही चाहती हो?’’

जया के पास अनु की किसी भी बात का कोई जवाब नहीं था. अनु ने बड़े ही संजीदा स्वर में कहा, ‘‘मां, क्या तुम भी यही चाहती हो जो सारी दुनिया चाहती है तो मैं तुम्हारी बात नहीं टालूंगी?’’

जया अनु को देखती रह गई. उस छोटे से वाक्य ने न जाने कितनाकुछ कह दिया. जया चुपचाप तसवीर को उठा कर अपने कमरे में चली आई पर बात वहीं खत्म नहीं हुई थी. बात तो अब शुरू हुई थी. दादी ने दूसरे दिन जया को रोक कर पूछ लिया, ‘‘जया, अनु से कोई बात हुई, उसे तसवीर दिखाई?’’

‘‘जी, वह…’’

‘‘अगर तुम से नहीं हो सकता तो मुबताओ, मैं अभी अनु से पूछती हूं. अनु अनु…’’

अनु कालेज जाने के लिए तैयार हो रही थी. अम्मा की आवाज सुन कर आनंद, बाबूजी और अनु कमरे से बाहर आ गए, ‘‘क्या हुआ दादी, आप इतनी जोरजोर से क्या चिल्ला रही हैं?’’

‘‘अनु, मुझे लागलपेट कर बात करनी नहीं आती. तुम्हारी शादी के लिए बहुत अच्छा रिश्ता आया है. तुम्हारी मां ने शायद उस की तसवीर दिखाई होगी. हम सब को रिश्ता बहुत पसंद है. तुम भी तसवीर देख लो, लड़के वालों को जवाब देना है.’’

‘‘दादी, ऐसी क्या जल्दी है, अभी मेरी उम्र ही क्या है, अभी तो मेरी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई और आप सब मुझे विदा करने के लिए तैयार बैठे हुए हैं.’’

‘‘हर चीज का एक वक्त होता है. शादी की उम्र निकल जाएगी तो हाथ मलते रह जाओगी.’’

‘‘पर दादी.’’

‘‘परवर कुछ नहीं, मैं ने जो कह दिया, सो कह दिया. तुम्हारे दादाजी की भी यही इच्छा है.’’

ड्राइंगरूम में अजीब सा सन्नाटा पसर गया. तभी एक गंभीर सी आवाज ने इस सन्नाटे को तोड़ा, ‘‘अम्माजी, अगर अनु नहीं चाहती है कि उस की शादी अभी न हो तो हमें उस की शादी अभी नहीं करनी चाहिए.’’

अम्माजी ने जलती हुई निगाह से जया की तरफ देखा, ‘‘देख रहे हैं आनंद के पापा, इन के भी पर निकल आए हैं. कैसी मां हो तुम, अपनी बेटी को समझना चाहिए, उलटे तुम उस के गलत फैसले में उस को बढ़ावा दे रही हो?’’

‘‘नहीं अम्माजी, यह उस की जिंदगी है, उस की जिंदगी के फैसले भी उसी के होंगे. हम सब उस की जिंदगी के फैसले नहीं लेंगे.’’

‘‘वाहवाह, क्या बात कही,’’ अम्माजी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘इस का मतलब यह है कि हमारे मांबाप और उन के मांबाप ने अब तक अपनी बेटियों के लिए जो फैसले लिए वे गलत थे. जय हो, यही सुनना बाकी था.’’

जया ने बड़े ही संजीदा स्वर में कहा, ‘‘काश, मेरे पापा ने भी मु?ा से शादी करने से पहले सिर्फ एक बार पूछा होता.’’

आनंद जया को आश्चर्य से देख रहे थे.

‘‘क्या कमी है तुम्हारी जिंदगी में, सबकुछ तो है, आनंद जैसा पति, इतना अच्छा घर, संतान का सुख और क्या चाहिए औरत को?’’ अम्माजी ने अपनी बात की पैरवी की.

‘‘अम्माजी, क्या औरत को सिर्फ पति का प्यार, पैसा और एक अच्छा घर ही चाहिए होता है? क्या औरत सिर्फ यही चाहती है, सोच कर देखिए. जिस उम्र में हमारी शादी हुई तब उस नाजुक उम्र में गृहस्थी का बोझ सहने लायक हमारी उम्र थी क्या पर बहू के तौर पर मुझे वह सबकुछ करना पड़ा जो मैं करना नहीं चाहती थी. बात सिर्फ कमी की नहीं है, अम्माजी. बात आत्मसम्मान की है.

‘‘शादी की वजह से मेरी पढ़ाई बीच में ही छूट गई, यह आप सब जानते हैं. मेरे भी बहुत सारे सपने थे, मैं भी चाहती थी औरों की तरह कि पढ़लिख सकूं और अपने पैरों पर खड़ी हो सकूं पर यह सपना, सपना ही रह गया. हम बेटी को पढ़ाने की बात तो कहते हैं पर उसे सपने देखने और फैसले लेने का अधिकार नहीं देते. सो, फिर ऐसी पढ़ाई का क्या फायदा.

‘‘मुझे अपने पति से कोई शिकायत नहीं है पर जब किसी मुद्दे पर मेरी उन से बहस होती है तो अकसर वे मुझ से कह देते हैं, ‘तुम चुप रहो, तुम्हें

समझ में नहीं आएगा.’ आप की गृहस्थी को देखने वाली, आप के बच्चों को पालने वाली, आप के मातापिता की सेवा करने वाली आप की पत्नी आप से सिर्फ इसलिए कम है क्योंकि वह आप की तरह पढ़ीलिखी नहीं है. यह अफसोस मु जीवनभर रहा और आगे भी रहेगा कि काश, मैं ने अपने पिता के फैसले का विरोध किया होता, काश, मेरे पिता ने मुझ से मेरी राय मांगी होती तो शायद मेरा जीवन और भी खुशहाल होता और मैं आप सभी को आत्मसम्मान के साथ स्वीकार कर पाती.’’

बाबूजी एकटक जया को देख रहे थे, उन्होंने जया के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘दूसरे के सुखदुख को समझने वाली मेरी बहू के दर्द को इस घर ने कभी नहीं समझ. पर बेटा, मुझ तुम पर गर्व है कि तुम ने हमें एक बहुत बड़े गलत काम को करने से बचा लिया. मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मुझे फख्र है कि मुझे तुम्हारी जैसी बहू मिली.’’

अम्मा की आंखों से भी झर झर आंसू बह रहे थे, शायद एक औरत के संघर्ष को एक औरत ही बेहतर ढंग से समझ सकती है और आज अम्माजी ने भी इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था. सभी की आंखों में आंसू भरे हुए थे और चेहरे पर एक सहज मुसकान. आज सूरज दिलों के अंधेरों को दूर कर एक नए प्रकाश के साथ आसमान में दैदीप्यमान था, आज मन की मुंडेर पर उम्मीद का दीया टिमटिमा रहा था.

लेखिका – डा. रंजना जायसवाल

Emotional Hindi Kahani : पराया भाई सगी भाभी

Emotional Hindi Kahani : बहू शब्द सुनते ही मन में सब से पहला विचार यही आता है कि बहू तो सदा पराई होती है. लेकिन मेरी शोभा भाभी से मिल कर हर व्यक्ति यही कहने लगता है कि बहू हो तो ऐसी. शोभा भाभी ने न केवल बहू का, बल्कि बेटे का भी फर्ज निभाया. 15 साल पहले जब उन्होंने दीपक भैया के साथ फेरे ले कर यह वादा किया था कि वे उन के परिवार का ध्यान रखेंगी व उन के सुखदुख में उन का साथ देंगी, तब से वह वचन उन्होंने सदैव निभाया.

जब बाबूजी दीपक भैया के लिए शोभा भाभी को पसंद कर के आए थे तब बूआजी ने कहा था, ‘‘बड़े शहर की लड़की है भैयाजी, बातें भी बड़ीबड़ी करेगी. हमारे छोटे शहर में रह नहीं पाएगी.’’

तब बाबूजी ने मुसकरा कर कहा था, ‘‘दीदी, मुझे लड़की की सादगी भा गई. देखना, वह हमारे परिवार में खुशीखुशी अपनी जगह बना लेगी.’’

बाबूजी की यह बात सच साबित हुई और शोभा भाभी कब हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं, पता ही नहीं चला. भाभी हमारे परिवार की जान थीं. उन के बिना त्योहार, विवाह आदि फीके लगते थे. भैया सदैव काम में व्यस्त रहते थे, इसलिए घर के काम के साथसाथ घर के बाहर के काम जैसे बिजली का बिल जमा करना, बाबूजी की दवा आदि लाना सब भाभी ही किया करती थीं.

मां के देहांत के बाद उन्होंने मुझे कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी. इसी बीच राहुल के जन्म ने घर में खुशियों का माहौल बना दिया. सारा दिन बाबूजी उसी के साथ खेलते रहते. मेरे दोनों बच्चे अपनी मामी के इस नन्हे तोहफे से बेहद खुश थे. वे स्कूल से आते ही राहुल से मिलने की जिद करते थे. मैं जब भी अपने पति दिनेश के साथ अपने मायके जाती तो भाभी न दिन देखतीं न रात, बस सेवा में लग जातीं. इतना लाड़ तो मां भी नहीं करती थीं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘‘शालिनी, दिनेश को ले कर फौरन चली आ बेटी, शोभा को तेरी जरूरत है.’’

मैं ने तुरंत दिनेश को दुकान से बुलवाया और हम दोनों घर के लिए निकल पड़े. मैं सारा रास्ता परेशान थी कि आखिर बाबूजी ने इस समय हमें क्यों बुलाया और भाभी को मेरी जरूरत है, ऐसा क्यों कहा  मन में सवाल ले कर जैसे ही घर पहुंची तो देखा कि बाहर टैक्सी खड़ी थी और दरवाजे पर 2 बड़े सूटकेस रखे थे. कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है. अंदर जाते ही देखा कि बाबूजी परेशान बैठे थे और भाभी चुपचाप मूर्ति बन कर खड़ी थीं.

भैया गुस्से में आए और बोले, ‘‘उफ, तो अब अपनी वकालत करने के लिए शोभा ने आप लोगों को बुला लिया.’’

भैया के ये बोल दिल में तीर की तरह लगे. तभी दिनेश बोले, ‘‘क्या हुआ भैया आप सब इतने परेशान क्यों हैं ’’

इतना सुनते ही भाभी फूटफूट कर रोने लगीं.

भैया ने गुस्से में कहा, ‘‘कुछ नहीं दिनेश, मैं ने अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया है जिस से बाबूजी सहमत नहीं हैं. मैं विदेश जाना चाहता हूं, वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल रही है, रहने को मकान व गाड़ी भी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है भैया,’’ दिनेश ने कहा.

दिनेश कुछ और कह पाते, तभी भैया बोले, ‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई दिनेश, मैं अब अपना जीवन अपनी पसंद से जीना चाहता हूं, अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ.’’

यह सुनते ही मैं और दिनेश हैरानी से भैया को देखने लगे. भैया ऐसा सोच भी कैसे सकते थे. भैया अपने दफ्तर में काम करने वाली नीला के साथ घर बसाना चाहते थे.

‘‘शोभा मेरी पसंद कभी थी ही नहीं. बाबूजी के डर के कारण मुझे यह विवाह करना पड़ा. परंतु कब तक मैं इन की खुशी के लिए अपनी इच्छाएं दबाता रहूंगा ’’

मैं बाबूजी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, आप भैया से कुछ कहते क्यों नहीं  इन से कहिए ऐसा न करें, रोकिए इन्हें बाबूजी, रोक लीजिए.’’

चारों ओर सन्नाटा छा गया, काफी सोच कर बाबूजी ने भैया से कहा, ‘‘दीपक, यह अच्छी बात है कि तुम जीवन में सफलता प्राप्त कर रहे हो पर अपनी सफलता में तुम शोभा को शामिल नहीं कर रहे हो, यह गलत है. मत भूलो कि तुम आज जहां हो वहां पहुंचने में शोभा ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया. उस के प्यार और विश्वास का यह इनाम मत दो उसे, वह मर जाएगी,’’ कहते हुए बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए.

भैया का जवाब तब भी वही था और वे हम सब को छोड़ कर अपनी अलग दुनिया बसाने चले गए.

बाबूजी सदा यही कहते थे कि वक्त और दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती, इस बात का आभास भैया के जाने के बाद हुआ. सगेसंबंधी कुछ दिन तक घर आते रहे दुख व्यक्त करने, फिर उन्होंने भी आना बंद कर दिया.

जैसेजैसे बात फैलती गई वैसेवैसे लोगों का व्यवहार हमारे प्रति बदलता गया. फिर एक दिन बूआजी आईं और जैसे ही भाभी उन के पांव छूने लगीं वैसे ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हट बेशर्म, अब आशीर्वाद ले कर क्या करेगी  हमारा बेटा तो तेरी वजह से हमें छोड़ कर चला गया. बूढ़े बाप का सहारा छीन कर चैन नहीं मिला तुझे  अब क्या जान लेगी हमारी  मैं तो कहती हूं भैया इसे इस के मायके भिजवा दो, दीपक वापस चला आएगा.’’

बाबूजी तुरंत बोले, ‘‘बस दीदी, बहुत हुआ. अब मैं एक भी शब्द नहीं सुनूंगा. शोभा इस घर की बहू नहीं, बेटी है. दीपक हमें इस की वजह से नहीं अपने स्वार्थ के लिए छोड़ कर गया है. मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगा, यह मेरी बेटी है और मेरे पास ही रहेगी.’’

बूआजी ने फिर कहा, ‘‘कहना बहुत आसान है भैयाजी, पर जवान बहू और छोटे से पोते को कब तक अपने पास रखोगे  आप तो कुछ कमाते भी नहीं, फिर इन्हें कैसे पालोगे  मेरी सलाह मानो इन दोनों को वापस भिजवा दो. क्या पता शोभा में ऐसा क्या दोष है, जो दीपक इसे अपने साथ रखना ही नहीं चाहता.’’

यह सुनते ही बाबूजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने बूआजी को अपने घर से चले जाने को कहा. बूआजी तो चली गईं पर उन की कही बात बाबूजी को चैन से बैठने नहीं दे रही थी. उन्होंने भाभी को अपने पास बैठाया और कहा, ‘‘बस शोभा, अब रो कर अपने आने वाले जीवन को नहीं जी सकतीं. तुझे बहादुर बनना पड़ेगा बेटा. अपने लिए, अपने बच्चे के लिए तुझे इस समाज से लड़ना पड़ेगा.

तेरी कोई गलती नहीं है. दीपक के हिस्से तेरी जैसी सुशील लड़की का प्यार नहीं है.

तू चिंता न कर बेटा, मैं हूं न तेरे साथ और हमेशा रहूंगा.’’

वक्त के साथ भाभी ने अपनेआप को संभाल लिया. उन्होंने कालेज में नौकरी कर ली और शाम को घर पर भी बच्चों को पढ़ाने लगीं. समाज की उंगलियां भाभी पर उठती रहीं, पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा. राहुल को स्कूल में डालते वक्त थोड़ी परेशानी हुई पर भाभी ने सब कुछ संभालते हुए सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली.

भाभी ने यह साबित कर दिया कि अगर औरत ठान ले तो वह अकेले पूरे समाज से लड़ सकती है. इस बीच भैया की कोई खबर नहीं आई. उन्होंने कभी अपने परिवार की खोजखबर नहीं ली. सालों बीत गए भाभी अकेली परिवार चलाती रहीं, पर भैया की ओर से कोई मदद नहीं आई.

एक दिन भाभी का कालेज से फोन आया, ‘‘दीदी, घर पर ही हो न शाम को

आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘हांहां भाभी, मैं घर पर ही हूं आप आ जाओ.’’

शाम 6 बजे भाभी मेरे घर पहुंचीं. थोड़ी परेशान लग रही थीं. चाय पीने के बाद मैं ने उन से पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी कुछ परेशान लग रही हो  घर पर सब ठीक है ’’

थोड़ा हिचकते हुए भाभी बोलीं, ‘‘दीदी, आप के भैया का खत आया है.’’

मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. बोली, ‘‘इतने सालों बाद याद आई उन को अपने परिवार की या फिर नई बीवी ने बाहर निकाल दिया उन को ’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी, आखिर वे आप के भाई हैं.’’

भाभी की बात सुन कर एहसास हुआ कि आज भी भाभी के दिल के किसी कोने में भैया हैं. मैं ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘भाभी, क्या लिखा है भैया ने ’’

भाभी थोड़ा सोच कर बोलीं, ‘‘दीदी, वे चाहते हैं कि बाबूजी मकान बेच कर उन के साथ चल कर विदेश में रहें.’’

‘‘क्या कहा  बाबूजी मकान बेच दें  भाभी, बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करना भी चाहेंगे तो मैं उन्हें कभी ऐसा करने नहीं दूंगी. भाभी, आप जवाब दे दीजिए कि ऐसा कभी नहीं होगा. वह मकान बाबूजी के लिए सब कुछ है, मैं उसे कभी बिकने नहीं दूंगी. वह मकान आप का और राहुल का सहारा है. भैया को एहसास है कि अगर वह मकान नहीं होगा तो आप लोग कहां जाएंगे  आप के बारे में तो नहीं पर राहुल के बारे में तो सोचते. आखिर वह उन का बेटा है.’’

मेरी बातें सुन कर भाभी चुप हो गईं और गंभीरता से कुछ सोचने लगीं. उन्होंने यह बात अभी बाबूजी से छिपा रखी थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, तभी दिनेश आ गए और हमें परेशान देख कर सारी बात पूछी. बात सुन कर दिनेश ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आप को यह बात बाबूजी को बता देनी चाहिए. दीपक भैया के इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे.’’

यह सुनते ही भाभी डर गईं. फिर हम तीनों तुरंत घर के लिए निकल पड़े. घर जा कर

भाभी ने सारी बात विस्तार से बाबूजी को बता दी. बाबूजी कुछ विचार करने लगे. उन के चेहरे से लग रहा था कि भैया ऐसा करेंगे उन्हें इस बात की उम्मीद थी. उन्होंने दिनेश से पूछा, ‘‘दिनेश, तुम बताओ कि हमें क्या करना चाहिए ’’

दिनेश ने कहा, ‘‘दीपक आप के बेटे हैं तो जाहिर सी बात है कि इस मकान पर उन का अधिकार बनता है. पर यदि आप अपने रहते यह मकान भाभी या राहुल के नाम कर देते हैं तो फिर भैया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे.’’

दिनेश की यह बात सुन कर बाबूजी ने तुरंत फैसला ले लिया कि वे अपना मकान भाभी के नाम कर देंगे. मैं ने बाबूजी के इस फैसले को मंजूरी दे दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सही कर रहे हैं.

ठीक 10 दिन बाद भैया घर आ पहुंचे और आ कर अपना हक मांगने लगे. भाभी पर इलजाम लगाने लगे कि उन्होंने बाबूजी के बुढ़ापे का फायदा उठाया है और धोखे से मकान अपने नाम करवा लिया है.

भैया की कड़वी बातें सुन कर बाबूजी को गुस्सा आ गया. वे भैया को थप्पड़ मारते हुए बोले, ‘‘नालायक कोई तो अच्छा काम किया होता. शोभा को छोड़ कर तू ने पहली गलती की और अब इतनी घटिया बात कहते हुए तुझे जरा सी भी लज्जा नहीं आई. उस ने मेरा फायदा नहीं उठाया, बल्कि मुझे सहारा दिया. चाहती तो वह भी मुझे छोड़ कर जा सकती

थी, अपनी अलग दुनिया बसा सकती थी पर उस ने वे जिम्मेदारियां निभाईं जो तेरी थीं.

तुझे अपना बेटा कहते हुए मुझे अफसोस होता है.’’

भाभी तभी बीच में बोलीं, ‘‘दीपक, आप बाबूजी को और दुख मत दीजिए, हम सब की भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं.’’

भाभी का आत्मविश्वास देख कर भैया दंग रह गए और चुपचाप लौट गए. भाभी घर की बहू से अब हमारे घर का बेटा बन गई थीं.

लेखिका- अमिता बत्रा

Romantic Story : प्‍यार की पहली छूअन

Romantic Story : उस दिन बस में बहुत भीड़ थी. कालिज पहुंचने की जल्दी न होती तो पुरवा वह बस जरूर छोड़ देती. उस ने एक हाथ में बैग पकड़ रखा था और दूसरे में पर्स. भीड़ इतनी थी कि टिकट के लिए पर्स से पैसे निकालना कठिन लग रहा था. वह अगले स्टाप पर बस रुकने की प्रतीक्षा करने लगी ताकि पर्स से रुपए निकाल कर टिकट ले सके. बस स्टाप जैसे ही निकट आया कि अचानक किसी ने पुरवा का पर्स खींचा और चलती बस से कूद गया. पुरवा जोरजोर से चिल्ला पड़ी, ‘‘मेरा पर्स, अरे, मेरा पर्स ले गया. कोई पकड़ो उसे,’’ उस के स्वर में बेचैनी भरी चीख थी.

पुरवा की चीख के साथ ही बस झटके से रुक गई और लोगों ने देखा कि तुरंत एक युवक बस से कूद कर चोर के पीछे भागा. ‘‘लगता है यह भी उसी चोर का साथी है,’’ बस में एकसाथ कई स्वर गूंज उठे. बस रुकी हुई थी. लोगों की टिप्पणी बस में संवेदना जता रही थी. एक यात्री ने कहा, ‘‘क्या पता साहब, इन की पूरी टोली साथ चलती है.’’ तभी नीचे हंगामा सा मच गया. बस से कूद कर जो युवक चोर के पीछे भागा था वह काफी फुर्तीला था. उस ने भागते हुए चोर को पकड़ लिया और उस की पिटाई करते हुए बस के निकट ले आया. ‘‘अरे, बेटे, इसे छोड़ना मत,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पुलिस में देना, तब पता चलेगा कि मार खाना किसे कहते हैं.’’

उधर कुछ यात्री जोश में आ कर अपनेअपने हाथों का जोर भी चोर पर आजमाने लगे. पुरवा परेशान खड़ी थी. एक तो पर्स छिनने के बाद से अब तक उस का दिल धकधक कर रहा था, दूसरे, कालिज पहुंचने में देर पर देर हो रही थी. बस कंडेक्टर ने उस चोर को डराधमका कर उस की पूरी जेब खाली करवा ली और फिर कभी बस में सूरत न दिखाने की हिदायत दे कर बस स्टार्ट करवा दी.

सभी यात्री महज उस बात से खुश थे कि चलो, जल्दी जान छूट गई, वरना पुलिस थाने में जाने कितना समय खराब होता. युवक ने पुरवा को पर्स देते हुए कहा, ‘‘देख लीजिए, पर्स में पैसे पूरे हैं कि नहीं.’’

उस युवक के इस साहसिक कदम से गद्गद पुरवा ने पर्स लेते हुए कहा, ‘‘धन्यवाद, आप ने तो कमाल कर दिया.’’ ‘‘नहीं जी, कमाल कैसा. इतने सारे यात्री देखते रहते हैं और एक व्यक्ति अपना हाथ साफ कर भाग जाता है, यह तो सरासर कायरता है,’’

उस युवक ने सारे यात्रियों की तरफ देख कर कहा तो कुछ दूरी पर बैठे एक वृद्ध व्यक्ति धीरे से बोल पड़े, ‘‘जवान लड़की देख कर हीरो बनने के लिए बस से कूद लिया था. हम बूढ़ों का पर्स जाता तो खड़ाखड़ा मुंह देखता रहता.’’

इस घटना के बाद तो अकसर दोनों बस में टकराने लगे. पुरवा किसी के साथ बैठी होती तो उसे देखते ही मुसकरा देती. यदि वह किसी के साथ बैठा होता तो पुरवा को देखते ही थोड़ा आगे खिसक जाता और उस से भी बैठ जाने का आग्रह करता.

जब पहली बार दोनों साथ बैठे थे तो पुरवा ने कहा था, ‘‘मैं ने अपने मम्मीपापा को आप के साहस के बारे में बताया था.’’ ‘‘अच्छा,’’ युवक हंस दिया, ‘‘आप को लगता है कि वह बहुत साहसिक कार्य था तो मैं भी मान लेता हूं पर मैं ने तो उस समय अपना कर्तव्य समझा और चोर के पीछे भाग लिया.’’

‘‘आप क्या करते हैं?’’ पुरवा ने पूछ लिया. ‘‘अभी तो फिलहाल इस दफ्तर से उस दफ्तर तक एक अदद नौकरी के लिए सिर्फ टक्करें मार रहा हूं.’’

‘‘आप तो बहुत साहसी हैं. धैर्य रखिए, एक न एक दिन आप अपने मकसद में जरूर कामयाब होंगे,’’ पुरवा को लगा, युवक को सांत्वना देना उस का कर्तव्य बनता है. पुरवा के उतरने का समय आया तो वह हड़बड़ा कर बोली, ‘‘आप का नाम?’’ ‘‘कुछ भी पुकार लीजिए,’’ युवक मुसकरा कर बोला, ‘‘लोग मुझे सुहास के नाम से जानते हैं.’’

अगली बार एकसाथ बैठते ही सुहास ने पूछ लिया, ‘‘आप ने इतने दिनों में अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं.’’ ‘‘क्या जानना चाहते हैं? मैं एक छात्रा हूं. एम.ए. का अंतिम वर्ष है और मैं अंधमहाविद्यालय में संगीत भी सिखाती हूं.’’

फिर बहुत देर तक दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पर चर्चा करते रहे. विदा होते समय सुहास को याद आया, वह बोला, ‘‘आप का नाम पूछना तो मैं रोज ही भूल जाता हूं.’’ पुरवा मुसकरा दी और बोली, ‘‘पुरवा है मेरा नाम,’’ और चहकती सी बस से उतर गई.

एक दिन सुहास भी उसी बस स्टाप पर उतर गया जहां पुरवा रोज उतरती थी तो वह चहक कर बोली, ‘‘आज आप यहां कैसे…’’ ‘‘बस, तुम्हारे साथ एक कप चाय पीने को मन हो आया,’’ सुहास के स्वर में भी उल्लास था. फिर सुहास को लगा जैसे कुछ गलत हुआ है अत: अपनी भूल सुधारते हुए बोला, ‘‘देखिए, आप के लिए मेरे मुंह से तुम शब्द निकल गया है. आप को बुरा तो नहीं लगा.’’ पुरवा हंस दी. मन में कुछ मधुर सा गुनगुनाने लगा था. धीरे से बोली, ‘‘यह आज्ञा तो मैं भी चाहती हूं. हम दोनों मित्र हैं तो यह आप की औपचारिकता क्यों?’’

‘‘यही तो…’’ सुहास ने झट से उस की हथेली पर अपने सीधे हाथ का पंजा थपक कर ताली सी बजा दी, ‘‘फिर हम चलें किसी कैंटीन में एकसाथ चाय पीने के लिए?’’ सुहास ने आग्रह करते हुए कहा. चाय पीते समय दोनों ने देखा कि कुछ लड़के इन दोनों को घूर रहे थे. सुहास का पौरुष फिर जाग उठा. उस ने पुरवा से कहा, ‘‘लगता है इन्हें सबक सिखाना पड़ेगा.’’ ‘‘जाने दो, सुहास. समझ लो कुत्ते भौंक रहे हैं. सुबहसुबह उलझना ठीक नहीं है.’’ चाय पी कर दोनों फिर सड़क पर आ गए. ‘‘सुनो, सुहास,’’ पुरवा ने उसे स्नेह से देखा, ‘‘तुम्हें इतना गुस्सा क्यों आ रहा था कि उन की मरम्मत करने को उतावले हो उठे.’’ ‘‘देख नहीं रही थीं, वे सब कैसे तुम्हें घूर रहे थे,’’ सुहास का क्रोध अभी तक शांत नहीं हुआ था. ‘‘मेरे लिए किसकिस से झगड़ा करोगे,’’ पुरवा ने उसे समझाने की चेष्टा की, लेकिन उस के मन में एक मीठी सी गुदगुदी हुई कि इसे मेरी कितनी चिंता है, मेरी मर्यादा के लिए मरनेमारने को तत्पर हो उठा. धीरेधीरे कैंटीन में बैठ कर एकसाथ चाय पीने का सिलसिला बढ़ गया. अब दोनों के ड्राइंगरूम के फोन भी घनघनाने लगे थे. देरदेर तक बातें करते हुए दोनों अपनेअपने फोन का बिल बढ़ाने लगे. दोनों जब कभी एकसाथ चलते तो उन की चाल में विचित्र तरह की इतराहट बढ़ने लगी थी, जैसे पैरों के नीचे जमीन नहीं थी और वे प्यार के आकाश में बिना पंख के उड़े चले जा रहे थे.

एक उच्च सरकारी पद से रिटायर हुए मकरंद वर्मा के 3 बेटे और एक बेटी थी. बेटी श्वेता इकलौती होने के कारण बहुत दुलारी थी. एक बार जो कह दिया वह पूरा होना ही चाहिए. उन के लिए तो सभी बच्चे लाडले ही थे. उन का बड़ा बेटा निशांत डाक्टर और दूसरा बेटा आकाश इंजीनियर था. सब से छोटा बेटा सुहास अभी नौकरी की तलाश में था. पढ़ाई में अपने दोनों बड़े भाइयों से अलग सुहास किसी तरह बी. काम. पास कर सका था. बस, तभी से वह लगातार नौकरी के लिए आवेदन भेज रहा है. कभीकभी साक्षात्कार के लिए बुलावा आ जाता है तो आंखों में सपने ही सपने तैरने लगते हैं.

मकरंद वर्मा की बूढ़ी आंखों में भी उत्साह जागता है. सोचते हैं कि शायद अब की बार यह अपने पैरों पर खड़ा हो जाए पर दोनों में से किसी का भी सपना पूरा नहीं होता. सुहास खाली समय घर वालों का भाषण सुनने के बजाय बाहर वालों की सेवा करने में अधिक खुश रहता है. उस सेवा में मित्रों के घर उन के मातापिता को अस्पताल ले जाने से ले कर बस में चोरउचक्कों को पकड़ना भी शामिल है.

सुहास अपनी बहन श्वेता को कुछ अधिक ही प्यारदुलार करता है. श्वेता भी भाई का हर समय साथ देती है. मम्मी रजनी बाला अपनी लाडली बेटी को जेब खर्च के लिए जो रुपए देती हैं उन में से बहन अपने भाई को भी दान देती रहती है क्योंकि उसे पता है कि भाई बेकार है.

अपने दोनों बड़े भाइयों की तरह जीवन में सफल नहीं है इसलिए उस की तरफ लोग कम ध्यान देते हैं. लेकिन श्वेता को पता है कि सुहास कितना अच्छा है जो उस का हर काम करने को तत्पर रहता है. बाकी दोनों भाई तो विवाह कर के अपनीअपनी बीवियों में ही मगन हैं. इसीलिए उसे सुहास ही अधिक निकट महसूस होता है. मकरंद वर्मा को अपने दोनों छोटे बच्चों, श्वेता व सुहास के भविष्य की बेहद चिंता थी पर चिंता करने से समस्या कहां दूर होती है.

श्वेता के लिए कई लड़के देखे, पर उसे सब में कुछ न कुछ दोष दिखाई दे जाता है. श्वेता रजनी से कहती है, ‘‘मम्मा, ये मोटी नाक और चश्मे वाला लड़का ही आप को पसंद करना था.’’ रजनी उसे प्यार से पुचकारतीं, ‘‘बेटी, लड़कों का रूपरंग नहीं उन का घरपरिवार और पदप्रतिष्ठा देखी जाती है.’’ इस तरह 1 से 2 और 2 से 3 लड़के उस की आलोचना के शिकार होते गए. श्वेता को सहेलियों के साथ घूमना जितना अच्छा लगता था उस से कहीं अधिक मजा उसे अपने भाई सुहास को चिढ़ाने में आता था.

उस दिन रविवार था. शाम को श्वेता को किसी सहेली के विवाह में जाना था. कारीडोर में बैठ कर वह अपने लंबे नाखूनों की नेलपालिश उतार रही थी. तभी उस ने सुहास को तैयार हो कर कहीं जाते देखा तो झट से टोक दिया, ‘‘भैयाजी, आज छुट्टी का दिन है और आप कहां नौकरी ढूंढ़ने जा रहे हैं?’’ ‘‘बस, घर से निकलो नहीं कि टोक देती है,’’ फिर श्वेता के निकट आ कर हथेली खींचते हुए बोला, ‘‘ये नाखून किस खुशी में इतने लंबे कर रखे हैं?’’ ‘‘सभी तो करती हैं,’’ श्वेता ने हाथ वापस खींच लिया.

‘‘सभी गंदगी करेंगे तो तुम भी करोगी,’’ सुहास झुंझला गया. ‘‘कुछ कामधाम तो है नहीं आप को, बस, यही सब टोकाटाकी करते रहते हैं,’’ श्वेता ने सीधे उस के अहं पर चोट कर दी तो वह क्रोध पी कर बाहर दरवाजे की ओर बढ़ गया. ‘‘सुहास,’’ रजनी के स्वर कानों में पड़ते ही वह पलट कर बोला, ‘‘जी, मम्मी.’’ ‘‘बिना नाश्ता किए सुबहसुबह कहां चल दिए?’’ ‘‘मम्मी, एक दोस्त ने चाय पर बुलाया है. जल्दी आ जाऊंगा.’’

‘‘दोस्त से फुरसत मिले तो शाम को जल्दी चले आइएगा,’’ श्वेता बोली, ‘‘एक सहेली की शादी में जाना है. वहीं आप की जोड़ीदार भी खोज लेंगे.’’ ‘‘मेहरबानी रखो महारानी. अपना जोड़ीदार खोज लेना, हमारा ढूंढ़ा तो पसंद नहीं आएगा न,’’ सुहास ने भी तीर छोड़ा और आगे बढ़ गया. पुरवा जल्दीजल्दी तैयार हो रही थी तभी उस की मम्मी ने उसे टोका, ‘‘छुट्टी के दिन क्यों इतनी तेजी से तैयार हो रही है? आज तुझे कहीं जाना है क्या?’’ ‘‘अरे मम्मा, तुम्हें याद नहीं, मुझे अंधमहाविद्यालय भी तो जाना है.’’ ‘‘लेकिन आज, छुट्टी वाले दिन?’’ मम्मी ने उस के बिस्तर की चादर झाड़ते हुए कहा, ‘‘कम से कम छुट्टी के दिन तो अपना कमरा ठीक कर लिया कर.’’ ‘‘वापस आ कर कर लूंगी, मम्मी. वहां बच्चों को नाटक की रिहर्सल करवानी है,’’ पुरवा ने चहकते हुए कहा और अपना पर्स उठा कर चल दी.

‘‘कम से कम नाश्ता तो कर ले,’’ मम्मी तकियों के गिलाफ सही करती हुई बोलीं. ‘‘कैंटीन में खा लूंगी, मम्मी,’’ पुरवा रुकी नहीं और तीव्रता से चली गई. सुहास निश्चित स्थान पर पुरवा की प्रतीक्षा कर रहा था. ‘‘हाय, पुरवा,’’ पुरवा को देखते ही उल्लसित हो सुहास बोला. ‘‘देर तो नहीं हुई?’’ पुरवा ने उस की बढ़ी हुई हथेली थाम ली. ‘‘मैं भी अभी कुछ देर पहले ही आया था.’’

दोनों के चेहरे पर एक अनोखी चमक थी. पुरवा के साथसाथ चलते हुए सुहास ने कहा, ‘‘घर वालों से झूठ बोल कर प्यार करने में कितना अनोखा आनंद है.’’ ‘‘क्या कहा, प्यार…’’ पुरवा चौंक कर ठहर गई. ‘‘हां, प्यार,’’ सुहास ने हंस कर कहा. ‘‘लेकिन तुम ने अभी तक प्यार का इजहार तो किया ही नहीं है,’’ पुरवा ने कुछ शरारत से कहा. ‘‘तो अब कर रहा हूं न,’’ सुहास ने भी आंखों में चंचलता भर कर कहा. ‘‘चलो तो इसी खुशी में कौफी हो जाए,’’ पुरवा ने मुसकरा कर कहा. रेस्तरां की ओर बढ़ते हुए दोनों एकदूसरे के परिवार का इतिहास पूछने लगे. जैसे प्यार जाहिर कर देने के बाद पारिवारिक पृष्ठभूमि की जानकारी जरूरी हो. ‘‘सबकुछ है न घर में,’’ सुहास कौफी का आर्डर देते हुए हंस कर बोला, ‘‘मम्मीपापा हैं, 2 भाईभाभी, एक लाडली सी बहन, भाभियों का तो यही कहना है कि मम्मीपापा ने मुझे लाड़ में बिगाड़ रखा है लेकिन मैं किसी तरफ से तुम्हें बिगड़ा हुआ लगता हूं क्या?’’ पुरवा ने आगेपीछे से उसे देखा और गरदन हिला दी, ‘‘लगते तो ठीकठाक हो,’’ उस ने शरारत से कहा, ‘‘नाक भी ठीक है, कान भी ठीक जगह फिट हैं और मूंछें…तौबातौबा, वह तो गायब ही हैं.’’ ‘‘ठीक है, मैडम, अब जरा आप अपनी प्रशंसा में दो शब्द कहेंगी,’’ सुहास ने भी उसे छेड़ने के अंदाज में कहा. ‘‘क्यों नहीं, महाशय,’’ पुरवा इतरा उठी, ‘‘मेरी एक प्यारी सी मम्मी हैं जो मेरी बिखरी वस्तुएं समेटती रहती हैं. पापा का छोटा सा व्यापार है. बड़े भाई विदेश में हैं. एक छोटा भाई था जिस की पिछले साल मृत्यु हो गई.’’ ‘‘ओह,’’ सुहास ने दुखी स्वर में कहा. इस के बाद दोनों गंभीर हो गए थे. थोड़ी देर के लिए दोनों की चहक शांत हो गई थी. कौफी का घूंट भरते हुए सुहास ने पूछा, ‘‘क्या खाओगी?’’ ‘‘जो तुम्हें पसंद हो,’’ पुरवा ने कहा. ‘‘यहां सुबहसुबह इडलीचटनी गरम सांभर के साथ बहुत अच्छी मिलती है.’’

‘‘ठीक है, फिर वही मंगवा लो,’’ पुरवा निश्ंिचत सी कौफी पीने लगी. मन में अचानक कई विचार उठने लगे. मम्मी से झूठ बोल कर आना क्या ठीक हुआ, आज तक जो कार्य नहीं किया वह सुहास की संगत पाने के लिए क्यों किया? यह ठीक है कि उसे अंधमहाविद्यालय के लिए नाटक की रिहर्सल करवानी पड़ती है, पर आज तो नहीं थी.

उस ने सुहास की ओर देखा. इतने बड़े घर का बेटा है, पर दूसरों के दुख को अपना समझ कर कैसे सहायता करने को तड़प उठता है. उस के इसी व्यक्तित्व ने तो पुरवा का मन जीत लिया है. इडलीसांभर आ चुका था. पुरवा ने अपनी प्लेट सरकाते हुए कहा, ‘‘मम्मी ने बड़े प्यार से हलवा तैयार किया था, पर मैं बिना नाश्ता किए ही भाग आई.’’ ‘‘हाथ मिलाओ यार,’’ सुहास ने तपाक से हथेली बढ़ा दी, ‘‘मेरी मम्मा भी नाश्ते के लिए रोकती ही रह गईं, पर देर हो रही थी न, सो मैं भी भाग आया.’’ ‘‘अरे वाह,’’ कहते हुए पुरवा ने पट से उस की हथेली पर अपनी कोमल हथेली रख दी तो उस का संपूर्ण शरीर अनायास ही रोमांचित हो उठा.

यह कैसा विचित्र सा कंपन है, पुरवा ने सोचा. क्या किसी पराए व्यक्ति के स्पर्श में इतना रोमांच होता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उस के मन ने तर्क किया. यह तो एक सद्पुरुष के प्यार भरे स्पर्श का ही रोमांच होगा. कितनी विचित्र बात है कि एक छोटी सी घटना जीवन को एक खेल की तरह अपनी डगर पर मोड़ती चली गई और आज दोनों को एकदूसरे की अब इतनी जरूरत महसूस होती है. शायद इसे ही प्यार कहते हैं.

Social Media : रील्स की अंधेरी खाई की तरफ बढ़ता युवा तबका

Social Media : भारत में युवाओं को रील्स के जाल में फंसाने में सब से बड़ा हाथ सरकारों का ही है. क्योंकि युवाओं के लिए पेश किया गया सरकारों द्वारा यही आत्मनिर्भर भारत का मौडल है. हाथ में एक मोबाइल और इंटरनेट पर छा जाने का सपना. यही मेक इन इंडिया भी है और यही स्किल इंडिया भी.

क्या हो जब एक पूरी जेनरेशन एक ऐसे सपने को पाने के लिए खप जाए जिस के पूरे होने की उम्मीद न के बराबर हो? क्या हो जब युवा खुद की एनर्जी और समय ऐसे काम में खर्च करे जिस का भविष्य चंद महीनों या दिनों का हो? और अधिक संभावना यह हो कि भविष्य कुछ हो ही न. बात सोशल मीडिया की और इस में गहरे तक नप चुके युवाओं की.

भारत में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स की संख्‍या दिनोंदिन बढ़ रही है. रिपोर्ट की मानें तो इन की संख्या 25 लाख से अधिक है. कुछ और रिपोर्ट 40 लाख पार बताती हैं. ये युवा हर दिन उठ कर इसी उम्मीद में रील्स बनाए जा रहे हैं कि काश, सामने दिख रहे बड़े इंफ्लुएंसर की जिंदगी वे भी जी पाएं, काश एक वीडियो कैसे भी कर के वायरल हो जाए, इस के लिए चाहे जो कुछ करना हो फौलोवर्स बढ़ जाएं.

मगर हकीकत यही है कि रील्‍स बना कर कमाई करने की चाहत रखने वालों में से 90 फीसदी के करीब इंफ्लुएंसर्स ढेला भर भी नहीं कमा पा रहे हैं. जी, ढेला भर. ऐसी नपीतुली जानकारी बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) की एक रिसर्च में सामने आई है.

वेव्‍स समिट 2025 के अनुसार, भारत में तकरीबन 25 लाख इंफ्लुएंसर्स हैं, जिन के कम से कम 1,000 से अधिक फौलोअर्स हैं. लेकिन, इन में से बहुत कम ही अपनी क्रिएटिविटी से कमाई कर पाते हैं. वहीं मात्र 10 फीसदी इंफ्लुएंसर्स ही पैसा छाप रहे हैं. कमाई करने वाले ये इंफ्लुएंसर्स का प्रभाव बहुत बड़ा है. ये क्रिएटर्स देश के 30% से अधिक उपभोक्ताओं को प्रभावित कर रहे हैं और लगभग 33 लाख करोड़ के उपभोक्ता खर्च पर असर डालते हैं.

मगर इन के उलट बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट बताती है, कि भारत में करीब 50% नैनो और माइक्रो इंफ्लुएंसर्स हैं, जो 18,000 रुपए प्रति माह से भी कम कमाते हैं. देखा जाए तो एक इंफ्लुएंसर अकेला वीडियो नहीं बनाता, उस के साथ सहायक कलाकारों से ले कर, कैमरा संभालने वाला और एडिट करने वाला तक होते हैं. कम से कम 4 – 5 युवाओं की एक टीम रील्स बनाती है और 18000 रुपए प्रति माह से भी कम कमाती है.

उस पर तुर्रा यह कि इन रील्स को बनाने के लिए इन्हें नई नई लोकेशन, अच्छा फोन, ट्रेंड के हिसाब से नएनए या सेकंड हेंड कपड़े खरीदने होते हैं. ऐसे में सवाल यह कि बगैर प्रोडक्टिविटी वाली ये रील्स आखिर इन का या देश का क्या भला कर रही हैं? और अगर देश का युवा रील बनाने लगेगा तो औफिसों, कारखानों, रिसर्च सेंटरों, विद्यालयों, अस्पतालों में काम कौन करेगा?

बीसीजी की इस रिपोर्ट ने कंटेंट से कमाई करने वाले इंफ्लुएंसर्स को 6 खांचों में बांटा है. सब से बड़ा खांचा “द ट्रस्ट एंबेसेडर्स” की है. इस में 14 से 17 लाख नैनो क्रिएटर्स आते हैं. इन के 10,000 से 50,000 फौलोअर्स हैं. ये ब्रांड अवेयरनेस और कन्वर्जन दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. 4 से 6 लाख “निश क्रिएटर्स” हैं. ये किसी विशेष क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हैं. ये सीमित दर्शकों को बहुत प्रभावित करते हैं. वहीं “इनक्विजिटर्स” श्रेणी में 75,000 से 1 लाख क्रिएटर्स ऐसे हैं जो सवाल उठा कर चर्चा को जन्म देते हैं. “इन्फ्लुएंसर आइकन्स” श्रेणी के 60,000 से 80,000 क्रिएटर्स नए प्रोडक्ट्स के लिए उत्साह पैदा करने में माहिर हैं.

“डिसेमिनेटर्स” की श्रेणी में 10,000 से 15,000 क्रिएटर्स आते हैं जो बड़े स्तर पर लोगों तक जानकारी पहुंचाने का काम करते हैं. वहीं “ट्रेंड सेटर्स” श्रेणी के 2,000 से 4,000 क्रिएटर्स ब्रांड की विश्वसनीयता बनाए रखने और लौयल्टी बढ़ाने में सहायक होते हैं.

इन फेन्सी नामों को एक पल के लिए भूल भी जाएं तो सवाल खड़ा होता है कि युवा आखिर कर क्या रहा है? इन में सब से बड़ी संख्या उन की है जो चिंदी पैसों में अपने उस समय को जाया कर रहा है जिस में वह कुछ बुनियादी कामों को कर सकता था. समस्या इसी बड़ी संख्या की है जिन के पास कोई स्किल नहीं, न क्रिएटिविटी है, वह बस रील इसलिए बना रहा है क्योंकि सब बना रहे हैं.

यही युवा व्यूअर भी हैं और यही रीलमेकर्स भी. जिस उम्र में इन्हें दूसरे प्रोडक्टिव स्किल्स सीखने चाहिए थे, उस उम्र में इन का जीवन मोबाइल के इर्दगिर्द ही घूमने लगा है. समस्या यह भी है कि इन युवाओं को रील्स के जाल में फंसाने में सब से बड़ा हाथ सरकारों का ही है. क्योंकि युवाओं के लिए पेश किया गया सरकारों द्वारा यही आत्मनिर्भर भारत का मौडल है. हाथ में एक मोबाइल और इंटरनेट पर छा जाने का सपना. यही मेक इन इंडिया भी है और यही स्किल इंडिया भी.

इस से सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से आसानी से पल्ला झाड़ लेती हैं. फिर क्यों ही अच्छी यूनिवर्सिटी और स्कूल चाहिए. क्यों ही बढ़िया रिसर्च सेंटर चाहिए? फिर क्यों ही देश को वैज्ञानिक और इनोवेटर चाहिए? भला रील बनाने में इन सब का क्या ही काम? यहां तक कि इन में से कुछ इंफ्लुएंसर्स को अवार्ड या विज्ञापन दे कर बाकी युवाओं की फौज को इस फील्ड में उतार आने का प्रोत्साहन भी सरकार ही देती है.

आज भारत टैकनोलोजी में अपने पड़ोसी देश चीन से मीलों पीछे है, इतना कि उस के वर्तमान तक पहुंचने में भारत को 20 साल खर्चने पड़ेंगे. कारण सीधा है, वहां की सरकार अपनी जीडीपी का ढाई प्रतिशत से ज्यादा रिसर्च डिवेलपमेंट में खर्च करती है, वहीं भारत लगभग 1 प्रतिशत से भी कम यानी 0.69 प्रतिशत खर्च करती है. चीन में जहां 25 लाख से अधिक रिसर्चर हैं, वहीं भारत में 9 लाख के आसपास ही हैं. करोड़ों की आबादी वाले देश में उंगलियों पर गिन सकने लायक ही आईआईटी हैं. और इस से बड़ी दिक्कत यह कि यहां से पढ़ कर निकलने वालों का सपना किसी बड़ी एमएनसी से जुड़ना होता है.

परिणाम यह कि वहां स्टार्टअप्स बड़ी संख्या में होते हैं और यहां उन स्टार्टअप्स के कंज्यूमर्स. वहां के युवा रील बनाने वाली एप्लीकेशन तैयार करते हैं और यहां उन रील्स पर नाचने वाले युवा तैयार हो रहे हैं. वहां प्रोडक्टिव फोर्स तैयार हो रही है यहां रील फोर्स.

कुछ महीने पहले ही चीन के आम से परिवार के 39 साल के लियांग ने डीपसीक एआई बना कर दुनियाभर को हिला दिया. यहां तक कि अमेरिकी शेयर बाजार में भारी हलचल मचा दी. समस्या यह है कि भारत में नेता ग्लोबल पावर बनने के लिए भाषण पर ज्यादा जोर देते हैं, न कि ग्लोबल पावर बनाने में. यही कारण भी है यहां युवा इनोवेशन के नाम पर रील बनाने तक ही सीमित रह गए हैं. वे हर एंगल से रील बना रहे हैं, हर तरह की रील बना रहे हैं, और जो नहीं बना रहे वे उन्हें अपने मोबाइल फोन से देख रहे हैं.

Bihar Politics : बिहार की जनता का निकम्मापन और बदलाव की चुनौतियां

Bihar Politics : बिहार को ले कर जब भी चर्चा होती है तो उस के पिछड़ेपन और गरीबी की होती है. सवाल यह कि इन समस्याओं का असल जिम्मेदार है कौन? आखिर क्यों बिहार की स्थिति में वे बदलाव नहीं आ पाए जो उस की इस छवि को बदल पाते.

बिहार, भारत का एक ऐसा राज्य जो ऐतिहासिक महत्त्व, सांस्कृतिक विरासत और अपनी उपजाऊ भूमि के लिए जाना जाता है. चंपारण सत्याग्रह, जिसे भारत में गांधीजी के पहले सत्याग्रह के रूप में जाना जाता है, 1917 में बिहार के चंपारण जिले में हुआ था, लेकिन आज देश को आजाद हुए दशकों बीत गए फिर भी बिहार और बिहारी आजाद नहीं हुए. ऐसा इसलिए क्योंकि न तो बिहार को अशिक्षा से आजादी मिली, न बंधुआ मजदूरी से आजादी मिली और न गरीबी से.

वोट देने की मशीन

12 करोड़ बिहारीयों के भविष्य की चिंता सत्ता धारियों को बिलकुल भी नहीं है. वे बिहार की जनता को बस एक वोट देने की मशीन समझते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर भाजपा और उस के घटक दलों ने मिल कर 39 सीट जीतीं और साल 2024 के चुनाव में भाजपा ने 12, जनता दल यूनाइटेड को 12, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 5 सीटें मिली, लेकिन इस का कोई भी असर बिहार के मुलभूत विकास में तो बिल्कुल भी नजर नहीं आता.

सुदूर देहात में आज भी स्थति जस की तस बनी हुई है और मौडर्न बिहार में अरबोंखरबों की लागत में बन रहे पुल बनते बनते ही गिर जा रहे हैं और जो पुल या सड़क बन गई है वो इतनी जल्दी टूट रही है कि लगता है उसे पथ निर्माण विभाग का आदेश है कि भई! सड़क जितनी जल्दी टूटेगी तो उतनी जल्दी नया टेंडर फाइनल होगा, ‘तब ही न बिजनेस होगा जी बिहार में, इ हे तो बिहार का स्टार्टअप है’. इस के बावजूद बिहार की जनता अपनी मेहनत के बलबूते पर दिल्ली और मुम्बई जैसे बड़े शहरों में कई बड़ीबड़ी इमारत खड़ी कर देते हैं.

महीनो अपने गांव और खेत से दूर रहने वाले बिहारी जब पर्व त्यौहार पर अपने गांव घर जाने लगते हैं तो उन्हें वहां भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. बिहारियों को ट्रेनों में ऐसे ठूसठूस कर अपने अपने गांव जाना पड़ता है जैसे कि किसी ने ट्रकों में ठूसठूस कर अनाजों की बोरियां लाद दी हों. वहीं मोदीजी को भी अहमदाबाद से मुंबई के लिए ही पहली बुलेट ट्रेन शुरू करनी है. उन्हें उस बिहार से ज्यादा से ज्यादा सामान्य रेलगाड़ियां नहीं शुरू करनी है जहां के लोग सब से ज्यादा ट्रेनों में ठूसठूस कर आतेजाते हैं और रेलवे को त्योहारों के समय सब से ज्यादा पैसे देते हैं.

यही नहीं जितने लोग एक दिन में मुंबई अहमदाबाद की प्लेन में सफर नहीं करते उस से दो गुना से ज्यादा बिहारी रोज दिल्ली से पटना के लिए ट्रैवल करते हैं. लेकिन फिर भी सुविधाएं बिहार में नहीं बढ़ रही हैं. बिहारियों की धरती, जो कभी मगध और नालंदा जैसे वैभवशाली साम्राज्यों का केंद्र थी, आज विकास की दौड़ में सब से पीछे खड़ी है. बिहार की जनता को अकसर निकम्मेपन का तमगा दिया जाता है, लेकिन क्या यह केवल जनता की गलती है? या इस के पीछे नेताओं की नाकामी, सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां, और ऐतिहासिक उपेक्षा भी जिम्मेदार है?

जनता का निकम्मापन : कड़वा सच या सामाजिक उपेक्षा?

बिहारियों के लिए जब बिहार में सरकार इन्वेस्टमेंट नहीं ला पाती है तब बिहारियों को दूसरे प्रदेशों का रूख अपना पेट पालने के लिए करना पड़ता है क्योंकि हर बिहारी तो जमीन का स्वामी है नहीं कि खेती कर के अपना और अपने परिवार का भरणपोषण कर सकें. ऐसे में बिहारियों को मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में मजदूरी करने के लिए मजबूरन जाना ही पड़ता है. क्योंकि बिहार के स्कूलों और कालेजों में ठीक से पढ़ाई होती नहीं है इसलिए बिहारियों को मजदूरी के आलावा और कोई चारा समझ नहीं आता है. “बिहारी निकम्मे हैं” – यह वाक्य अकसर सुनने को मिलता है, खासकर उन लोगों से जो बिहार की स्थिति को बिना गहराई से समझे आलोचना करते हैं.

लेकिन क्या बिहार की 12 करोड़ जनता वाकई निकम्मी है? अगर हम आंकड़ों और तथ्यों की ओर देखें, तो बिहार की स्थिति जटिल और बहुआयामी है. बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश में सब से कम है, और नीति आयोग के अनुसार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और उद्योग के क्षेत्र में यह सब से पिछड़ा राज्य है. बिहार में बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, और हर साल लाखों बिहारी मजदूरी के लिए दिल्ली, मुंबई, और पंजाब जैसे राज्यों में पलायन करते हैं.

लेकिन यह निकम्मापन नहीं, बल्कि अवसरों की कमी और दशकों की उपेक्षा का परिणाम है. 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बिहार “जंगलराज” के लिए कुख्यात था, जहां अपराध, भ्रष्टाचार, और अव्यवस्था चरम पर थी. 2005 में नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद कुछ सुधार हुए, जैसे सड़कों का निर्माण, बिजली की आपूर्ति में वृद्धि, और अपराध में कमी. फिर भी, बिहार आज भी बुनियादी सुविधाओं, जैसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं, से वंचित है.

जनता की सब से बड़ी गलती शायद यह है कि वह बारबार उन्हीं नेताओं को चुनती है, जो जाति, धर्म, और वादों के नाम पर वोट मांगते हैं. बिहार का वोटिंग पैटर्न दशकों से जाति आधारित रहा है. यादव मुसलिम गठजोड़ राष्ट्रीय जनता दल का आधार है, जबकि कुर्मी, कोइरी और अति पिछड़ा वर्ग जनता दल यूनाइटेड के समर्थक हैं. भारतीय जनता पार्टी सवर्ण और कुछ ओबीसी जातियों के वोटों पर निर्भर है. इस जातिगत समीकरण ने बिहार की जनता को विकास के मुद्दों से भटकाया और नेताओं को जवाबदेही से बचने का मौका दिया.

बिहार में बदलाव: क्या कुछ हुआ?

2005 से नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में कुछ बदलाव तो हुए, लेकिन क्या ये बदलाव जनता के हित में पर्याप्त थे?

रोजगार और पलायन

बिहार में रोजगार सृजन आज भी सब से बड़ी चुनौती है. नीतीश सरकार ने शिक्षक भर्ती और पुलिस भर्ती जैसे कदम उठाए, लेकिन ये नाकाफी हैं. बिहार में औद्योगिक विकास न के बराबर है. बिहार को अगर अग्रिणी राज्यों लाना है तो बिहार में इंडस्ट्री लानी ही होगी. शुगर मील और छोटेमोटे पेपर बेग के फैक्ट्रियों से बिहार की 12 करोड़ जनता पर कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा. अगर बिहारियों का पलायन रोकना है तो बिहार में स्टार्टअप और स्किल्स पर जोर देना होगा. इस के साथ बिहार के सरकारी कालेजों की आधारभूत संरचना में सुधार की भारी आवश्यकता है. हर ब्लौक में एक ऐसा कालेज खोलने की जरुरत है जो वर्तमान व भविष्य को ध्यान में रखते हुए विषयों के सिलेबस में बदलाव कर उन्हें नई तरीके से डिजाइन करें, जिस से बिहार के युवाओं को शिक्षा और नौकरी में आसानी से मिल सके.

तेजस्वी की माई-बहिन मान योजना

तेजस्वी यादव ने “माई-बहिन मान योजना” के तहत महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये देने का वादा है, जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आकर्षित कर सकता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या ये योजनाएं केवल चुनावी जुमले हैं या वास्तव में बिहार की अर्थव्यवस्था को बदल सकती हैं? बिहार में माई-बहिन योजना के लिए 1 लाख करोड़ रूपए से ज्यादा की धनराशि की जरुरत होगी. जो कि बिहार सरकार के बजट का एक तिहाई हिस्सा होगा.

अगर ये योजना लागू की जाएगी तो बिहार के बाकी योजनाओं की पूर्ति सरकार कहां से करेगी या सरकार बिहार की जनता को गरीब बनाने के लिए नई कर्ज से लाद देगी? बिहार की जनता को ऐसे चुनावी जुमले से सावधान रहने की जरुरत है, क्योंकि जब 15 लाख खाते में नहीं आए हैं तो 1 लाख करोड़ तो दिन में तारे देखने जैसा सपना होगा.

शिक्षा

बिहार की साक्षरता दर देश में सब से कम है और इस के लिए कहीं न कहीं बिहार की जनता ही जिम्मेदार है क्योंकि बिहार की जनता ने कभी भी शिक्षा स्वास्थ्य और विकास के नाम पर वोट नहीं दिया. बिहार में वोट सिर्फ और सिर्फ जातिवाद और परिवारवाद को दिया.

बिहार की जनता ने नीतीश को चुना तो नीतीश कभी भाजपा की गोद में जा कर बैठ गए तो कभी आरजेडी के खेमे में हो लिए. उन्होंने बिहार के विकास के लिए कम अपनी कुर्सी और पार्टी के विकास के लिए ज्यादा काम किया. वैसे नीतीश सरकार ने स्कूलों में साइकिल योजना और मिड डे मील जैसी योजनाएं शुरू कीं, जिस से स्कूलों में नामांकन बढ़ा. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता अभी भी दयनीय है. सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी, बुनियादी ढांचे की कमी, और पुरानी पाठ्यपुस्तकें आम समस्याएं हैं.

बिहार कभी स्कूल की छत गिर जाती है तो कभी गुरुजी बच्चों से अपनी गाड़ी साफ करवाते हैं. बिहार में शिक्षक की नौकरी पाने के बाद शिक्षक अपने आप को प्रधानमंत्री समझने लगते हैं. बिहार में स्कूल हो या कालेज, या फिर किसी सरकारी नौकरी की परीक्षा, सब के क्वेश्चन पेपर व्हाट्सऐप पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. बिहार में सिर्फ नीतीश कुमार की कुर्सी सेफ है परीक्षा के प्रश्नपत्र नहीं. दो चार नेता छात्रों के आंदोलन में आ कर अपनी फुटेज मीडिया में दे कर अपनी ख्याति बटोर कर चलते बनते हैं. छात्र चीखचीख कर सड़क पर ही दम तोड़ देते हैं और नीतीश कुमार अपनी मस्ती में चलते रहते हैं.

अगर बिहार की जनता ने स्कूल और स्वास्थ्य और बिहार के विकास के नाम पर वोट किया होता तो ये आंदोलन की कोई नौबत ही नहीं आती. बिहार में रोजगार सृजन होता और 9वीं पास कभी भी बिहार का उपमुख्यमंत्री नहीं बनता. अब बिहार की राजनीति में एक नए खिलाड़ी आए हैं, जिन की पहचान बड़ेबड़े उद्योगपतियों से है, इन जनाब का नाम है प्रशांत किशोर.

प्रशांत भाजपा समेत कई पार्टियों के लिए काम कर चुके हैं. इसके साथ ही वे जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं. अगर प्रशांत बिहार का विकास चाहते हैं तो उन्हें उद्योगपतियों जितना चंदा जनसुराज को बनाने में बहाया है उस चंदे के पैसे से अगर वे बिहार में उद्योग लगाते तो कुछ बिहारियों का भला तो जरुर होता और शायद इस का फायदा प्रशांत को भी होता. लेकिन इन्हें तो बिहार का मुख्यमंत्री बनना है और उस से भी पहले इन्हें इतिहास में अपना नाम बहुत बड़े आंदोलनकारी नेता के रूप में दर्ज करवाना है.

वे अपनी सियासी रणनीतिकार की छवि को मिटा कर आंदोलनकारी की छवि को आगे बढ़ाना चाहते हैं और बात बिहार के छवि को बदलने की कहते हैं. बिहार की जनता को अगर शिक्षा चाहिए तो उसे जमीन से जुड़े नेताओं को वोट देने की जरुरत है, उद्योगपतियों से जुड़े नेताओं को नहीं.

स्वास्थ्य

बिहार में स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. इस की पोल आएदिन खुलती रहती है. कोरोना महामारी में बिहार के सरकारी अस्पतालों की जो तस्वीर सामने आई थी वह वाकई डराने वाली थी. बिहार के सरकारी अस्पतालों की हालत देख कर इंसानियत पर से भरोसा उठ जाता है. आखिर क्यों बिहार का स्वास्थ्य विभाग अपने ही प्रदेश के जनता के प्रति इतना निर्दयी हो गया है. बिहार के चुनाव में कभी भी स्वास्थ्य मुद्दा नहीं बनाया गया क्योंकि सत्ता और विपक्ष दोनों को पता है कि किसी के भी कार्यकाल में बिहार के अस्पतालों का कायाकल्प नहीं कर पाएं.

स्वास्थ्य मंत्रालय को हर साल बजट में हजारों करोड़ रुपए मिलते हैं, लेकिन बिहार की जनता को स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर ठेंगा दिखाया जाता है. बिहार की जनता ने भी कभी अस्पतालों के लिए कोई मांग नहीं की, न ही अच्छे डाक्टरों की कोई मांग की तो ऐसे में जो महामानव सत्ता में आए उन्होंने स्वास्थ्य मंत्रालय को आम समझ कर के चूसा और बिहार के अस्पतालों के इन्फ्रास्ट्रक्चर को नीव से ले कर छत तक कमजोर कर दिया.

इस का एक जीताजागता उदहारण है दरभंगा एम्स. इस अस्पताल को अब तक बन कर जनता के लिए समर्पित हो जाना था. लेकिन अभी तो जमीन में बस चारदीवारी काम भी ठीक से नहीं हो पाया है. क्योंकि ये प्रोजैक्ट बिहार की जनता के लिए है तो यह इतनी जल्दी कैसे पूरा होगा. अगर मंत्रियों के नए बंगले का प्रोजैक्ट आ जाए तो बिहार के विकासपुरुष इस की खुद निगरानी करेंगे और दिल्ली से चल कर महामानव आएंगे और मंत्रियों को नए बंगले में गृहप्रवेश करवाएंगे.

अब बिहार की जनता को ये सोचना चाहिए कि विकासपुरुष और महामानव दोनों ही बिहार के जनता की सेहत से खेल रहे हैं. उन्हें वोट देना मतलब कागजों में योजनाओं को पूरा करने जैसा है. आज भी सरकारी अस्पतालों में बेड, दवाइयां, और डाक्टरों की कमी है. नीतीश सरकार की “आयुष्मान भारत योजना” और अन्य स्वास्थ्य योजनाएं कागजों तक सीमित हैं.

विज्ञान और तकनीक

बिहार में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में लगभग कोई प्रगति नहीं हुई है. न ही कोई नया रिसर्च सेंटर बनाया गया है और न ही बिहार के युवाओं को सरकार रिसर्च की ओर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर सकी है. आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान बिहार में हैं, लेकिन इन का लाभ स्थानीय युवाओं को कम मिलता है. स्टार्टअप और टैक्नोलौजी हब की कमी बिहार के युवाओं को अन्य राज्यों की ओर धकेलती है.

आखिर कब बिहार के युवा यादव और मुसलिम वोट बैंक का शिकार बनते रहेंगे. अगर तकनीक और विज्ञान में बिहार को आगे बढ़ाना है तो सब से पहले युवाओं को एकजुट हो कर बिहार सरकार से मांग करनी चाहिए कि बिहार को तकनीक और विज्ञान में आगे ले जाने के लिए नई संस्थान स्थापित करें और रिचर्स व विज्ञानिकों को अच्छी प्रोत्साहन राशि दें, जिस से वे ख़ुशीख़ुशी बिहार को आगे ले जाएंगे.

हिंदुत्व और सामाजिक समीकरण

इस बार भाजपा और जेडीयू बिहार चुनाव में औपरेशन सिंदूर को चुनाव में भुनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं और स्थानीय मुद्दों से जनता का ध्यान भटका रहे हैं. वैसे 2014 से पहले से ही भाजपा हिंदुत्व का नारा दे रही है, और बिहार में इस का असर देखने को मिलता है. ‘औपरेशन सिंदूर’ जैसे कदमों से भाजपा ने हिंदू वोटरों को एकजुट करने की कोशिश की है. लेकिन बिहार में जाति की राजनीति अभी भी धर्म से ऊपर है. मुसलिम वोटर (लगभग 17%) आरजेडी के साथ मजबूती से खड़े हैं, जबकि सवर्ण और ओबीसी वोटरों का कुछ हिस्सा भाजपा और जेडीयू के बीच बंटे हैं. एनडीए का पूरा फोकस बिहार चुनाव में बिहार के मुद्दों के बजाय पाकिस्तान की धुलाई रहने वाली है.

बिहार की जनता को यह समझना होगा कि औपरेशन सिंदूर से बिहार के विकास का कोई लेना देना नहीं है. इस से बिहार के स्थानीय मुद्दे जस के तस रहने वाले हैं. जनता को तय करना होगा कि बिहार में कौन विकास की रक्षा करेगा, ताकि बिहार आगे बढ़ सकें.

नीतीश बनाम तेजस्वी : 2025 का असली मुकाबला?

2025 का बिहार विधानसभा चुनाव मुख्य रूप से नीतीश कुमार (एनडीए) और तेजस्वी यादव (महागठबंधन) के बीच माना जा रहा है, लेकिन प्रशांत किशोर और चिराग पासवान जैसे नेता इसे त्रिकोणीय बना सकते हैं. नीतीश कुमार बिहार के सब से लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं. उन की सरकार ने सड़क, बिजली, और महिला सशक्तिकरण (जैसे साइकिल योजना और शराबबंदी) के क्षेत्र में काम किया है. लेकिन उन की उम्र (74 वर्ष) और स्वास्थ्य समस्याएं उन के खिलाफ जा रही हैं. जेडीयू-भाजपा गठबंधन का लक्ष्य 225 सीटें जीतना है. भाजपा नीतीश के प्रति सहानुभूति वोट और ‘औपरेशन सिंदूर’ जैसे हिंदुत्व कार्ड का इस्तेमाल कर रही है. लेकिन नीतीश की बारबार पाला बदलने की आदत ने उन की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया है.

तेजस्वी यादव

नीतीश के बारबार पाला बदलने से तेजस्वी यादव मजबूत हुए और छात्रों के आन्दोलन में सहयोग ने उन्हें और उन की पार्टी को मजबूती दी है, जिस से तेजस्वी यादव बिहार के युवाओं में लोकप्रिय हुए हैं. एक सर्वे के अनुसार, 36% लोग उन्हें अगले मुख्यमंत्री के रूप में देखते हैं. लेकिन आरजेडी का “जंगलराज” का इतिहास और लालू परिवार के भ्रष्टाचार के आरोप उन के लिए चुनौती हैं.

चिराग पासवान और अन्य

चिराग पासवान (लोक जनशक्ति पार्टी) भी बिहार में अपनी जगह बना रहे हैं. उन की पार्टी पासवान (दुसाध) वोटरों (5.31%) पर दावा ठोकती है. चिराग का एनडीए के साथ रहना या अलग चुनाव लड़ना 2025 के समीकरण को प्रभावित कर सकता है.

क्या बिहार की जनता अपनी गलती सुधारेगी?

बिहार की जनता की सब से बड़ी गलती है कि वह विकास के बजाय जाति और धर्म के आधार पर वोट देती है. लेकिन 2025 का चुनाव कुछ अलग हो सकता है. युवा वोटरों में जागरूकता बढ़ रही है, और सोशल मीडिया के जरिए बेरोजगारी, शिक्षा, और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे चर्चा में हैं. प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी इस जागरूकता को भुनाने की कोशिश कर रही है. अगर जनता उन के “बच्चों के भविष्य” के नारे को गंभीरता से लेती है, तो बिहार में तीसरा विकल्प उभर सकता है. लेकिन इस के लिए जनता को अपने निकम्मेपन के तमगे को तोड़ना होगा और वोटिंग पैटर्न में बदलाव लाना होगा.

बिहार की जनता का निकम्मापन एक सतही आरोप है, जिस के पीछे दशकों की सामाजिक-आर्थिक उपेक्षा और नेताओं की नाकामी है. 2025 का चुनाव बिहार के लिए एक मौका है कि वह अपनी दिशा बदले. नीतीश कुमार का अनुभव, तेजस्वी यादव की युवा ऊर्जा, और प्रशांत किशोर का नया विजन – इन में से कौन बिहार को नई दिशा देगा, यह जनता के हाथ में है. लेकिन अगर बिहार की जनता फिर से जाति, धर्म, या मुफ्त वादों के जाल में फंसी, तो बदलाव की उम्मीद धूमिल हो जाएगी.

बिहार को चाहिए एक ऐसी सरकार जो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विज्ञान-तकनीक में क्रांति लाए. बिहार के 12 करोड़ लोग अगर ठान लें, तो यह राज्य फिर से भारत का गौरव बन सकता है. सवाल यह है – क्या बिहार की जनता अपनी गलतियों से सबक लेगी, या फिर वही पुराना चक्र चलेगा?

इन नेताओं ने बिहार में नई सामाजिक और राजनीतिक दिशा की तय

बिहार की राजनीती शुरू से ही केंद्र सरकार की दिशा तय करती आई है. लेकिन बिहार की राजनीति में कुछ ऐसे चंद सांसद विधायक भी हैं जिसे चुन कर बिहार की जनता ठगा हुआ नहीं महसूस कर रही है. इन नेताओं ने बिहार की सामाजिक-राजनीतिक दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बिहार की राजनीति में इन्होने अपनी एक अलग छाप छोड़ी है.

यादव जाति

पप्पू यादव (पूर्णिया) – निर्दलीय

पूर्णिया से निर्दलीय सांसद पप्पू यादव बिहार के उन नेताओं से बिल्कुल अलग है जो मुसीबत के समय भाग खड़े होते हैं. बिहार में बाढ़ हो या कोरोना महामारी, पप्पू यादव हमेशा ही ग्राउंड पर जा कर जनता की मदद करते हुए दिखाई देते हैं. राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव का राजनीतिक सफर बड़ा ही रोमांचक रहा है. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में पप्पू यादव छठी बार सांसद बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

लोकसभा चुनाव से पहले पप्पू यादव ने अपनी जनाधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कर पूर्णिया लोकसभा सीट से टिकट की दावेदारी पेश की थी. लेकिन गठबंधन की वजह से यह टिकट आरजेडी को चला गया. इस से पप्पू यादव आगबबूला हो गए और पार्टी से इस्तीफा दे कर निर्दलीय चुनाव मैदान में कूद गए. इस के परिणाम यह हुआ इस इस सीट से आरजेडी प्रत्याशी को मुंह की खानी पड़ी और जनता ने पूर्णिया की कमान पप्पू यादव को सौंप दी. पप्पू यादव का चुनाव जीतना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि वे सदैव जनता के बीच बने रहते हैं और उन की समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर रहते हैं.

गिरधारी यादव (बांका) – जदयू

बांका लोकसभा सीट से सांसद गिरधारी यादव ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत कांग्रेस से की थी इस के बाद वे आरजेडी से जुड़े रहे. गिरधारी यादव लोकसभा व विधानसभा दोनों के सदस्य रहे हैं. अपने क्षेत्र में गिरधारी यादव ने शिक्षा, सड़क और सिंचाई के मुद्दों पर विशेष रूप से काम किया है. बिहार में उन की पहचान एक अनुभवी नेता के रूप में है.

दिनेश चंद्र यादव (मधेपुरा) – जदयू

दिनेश चंद्र यादव का अपने लंबे राजनीतिक कैरियर में 4 बार सांसद रह चुके हैं. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने 6,24,334 वोट ला कर जीत दर्ज की. इस के साथ वे रेल मंत्रालय के सलाहकार समिति, कोयला और सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की सलाहकार समिति और गृह मामलों की समिति के सदस्य के रूप में अपना योगदान दे चुके हैं. मधेपुरा सांसद दिनेश अपने क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी और किसानो के लिए खूब काम किया है.

नित्यानंद राय (उजियारपुर) – भाजपा

उजियारपुर लोकसभा सीट से भाजपा सांसद नित्यानंद राय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रशिक्षित नेता हैं. इस के साथ ही वे वर्तमान में गृह राज्य मंत्री भी हैं. नित्यानंद राय ने उजियारपुर के बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ बनाया है. उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, महिला सुरक्षा और युवाओं के प्रशिक्षण केन्दों को स्थापित कर उजियारपुर मौडल स्थापित किया है.

अशोक यादव (मधुबनी) – भाजपा

अशोक यादव को राजनीति विरासत मिली है, वे वरिष्ठ नेता हुकुमदेव नारायण यादव के पुत्र हैं. अशोक ने अपने संसदीय क्षेत्र में शिक्षा, पर्यटन के साथ साथ मिथिला पेंटिंग और संस्कृति को बढ़ावा देने पर विशेष जोर दिया है. इस के साथ ही मधुबनी में सड़क संपर्क को मजबूत करने की दिशा में कार्य किया है.

सुरेंद्र यादव (जहानाबाद) – राजद

जहानाबाद से आरजेडी सांसद सुरेन्द्र यादव विधायक भी रह चुके हैं. वे आरजेडी के समर्पित नेता के रूप में जाने जाते हैं. बताया जाता है कि सुरेन्द्र यादव के राजनीतिक जीवन में जातीय समीकरण और सामाजिक न्याय की निति हमेशा ही केंद्र में रही है.

मीसा भारती (पाटलिपुत्र) – राजद

पेशे से डाक्टर रहीं मीसा भारती आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की बेटी हैं. मीसा वर्तमान में पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं. मीसा भारती ने सामाजिक न्याय के मुद्दों के साथसाथ महिला सशक्तिकरण के लिए काफी सराहनीय कार्य किया है. यही वजह रही कि मीसा को पाटलिपुत्र की जनता ने सांसद बना कर संसद भेजा.

कोयरी जाति

राजाराम सिंह कुशवाहा (काराकाट) – भाकपा माले

लोकसभा चुनाव 2024 में जिन सीटों की सब से ज्यादा चर्चा रहीं उन में से एक काराकाट लोकसभा सीट भी थी. क्योंकि एक अभिनेता ने यहां परचा भर कर चुनाव को रोमांचक बना दिया था. लेकिन फिर भी जनता ने कोयरी जाति से आने वाले भाकपा (माले) के राजाराम सिंह कुशवाहा को अपना सांसद चुना. बिहार की राजनीति में राजाराम की पहचान किसान आंदोलन और मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ने वाले नेता की है. इस के साथ ही उन की राजनीति दलित और पिछड़े वर्ग के हक़ में संघर्ष और भूमि अधिकारों के इर्दगिर्द घूमती है.

अभय सिन्हा (औरंगाबाद) – राजद

औरंगाबाद लोकसभा के सांसद अभय कुमार सिन्हा पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. उन की पहचान क्षेत्र में स्थानीय युवाओं को रोजगार, तकनीकी शिक्षा और चिकित्सा सुविधा दिलाने से बनी. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में अभय ने बहुत ही रोमांचक मुकाबले में जीत हासिल की. इस चुनाव में अभय ने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी को 79,111 वोटों के अंतर से हरा दिया.

विजय लक्ष्मी (सीवान) – जदयू

सीवान से जदयू सांसद विजय लक्ष्मी की अपने क्षेत्र में एक लग पहचान है. सीवान से सांसद होने के साथसाथ विजय लक्ष्मी पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करती हैं. अपने लोकसभा में उन्होंने महिला स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर काम किया है.

कुर्मी जाति

कौशलेंद्र कुमार (नालंदा) – जदयू

नालंदा सांसद और जदयू नेता कौशलेंद्र कुमार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी माने जाते हैं. कौशलेंद्र राजनीतिक सफर काफी लंबा रहा है, वे चार बार सांसद चुने गए हैं. इस के साथ ही उन्होंने नालंदा में शिक्षा, मैडिकल कालेज, रेलवे कनेक्टिविटी, सिंचाई और कृषि उपकरण उपलब्ध कराने जैसे मुद्दों पर केंद्रित कार्य किया है. कौशलेंद्र नालंदा को एक मौडल संसदीय क्षेत्र में विकसित करने पर जोर दे रहे हैं.

बिहार में पिछड़ी जाति के ये विधायक बदल रहें हैं राज्य की तस्वीर

यादव जाति

मनोज कुमार यादव (कल्याणपुर) – राजद

बिहार में पिछड़ी जाति से आने वाले कई लोगों ने समाज में बदलाव का कार्य किया है. इन में से के नाम आरजेडी कल्यानपुर विधायक मनोज कुमार यादव है. मनोज ने अपने अपने क्षेत्र में सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में कई कदम उठाए हैं. सड़कों के निर्माण और शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने काफी जोर लगाया है, जिस से उन की पहचान जमीन से जुड़े नेता के तौर पर की जाती है.

श्यामबाबू प्रसाद यादव (पिपरा) – भाजपा

भाजपा नेता व पूर्वी चंपारण के पिपरा से विधायक श्यामबाबू अपने क्षेत्र में केंद्र सरकार की योजना पहुंचाने के लिए आने जाते हैं. उन्होंने अपने क्षेत्र में उज्ज्वला योजना, प्रधामंत्री आवास योजना और नल जल जैसे योजनाओं के क्रियान्वयन पर काफी जोर दिया है.

मुकेश कुमार यादव (बाजपट्टी) – राजद

सीतामढ़ी के बाजपट्टी से आरजेडी विधायक मुकेश कुमार की पहचान एक युवा और उर्जावान के नेता के रूप में की जाती है. मुकेश कुमार अपन क्षेत्र में बेरोजगार योवाओं के लिए काम काम कर रहे हैं. इस के साथ ही बिहार विधानसभा में उन्होंने सिंचाई की समस्या को जोरशोर से उठाया. वहीं स्कूलों की स्थिति सुधारने की दिशा में पहल भी की.

ललित कुमार यादव (दरभंगा ग्रामीण) – राजद

आरजेडी नेता और दरभंगा ग्रामीण विधायक ललित कुमार यादव लम्बे से समय से राजनीति में सक्रीय है. ललित यादव ने अपने विस क्षेत्र में ग्रामीण स्वास्थ्य, सड़क निर्माण और जल संसाधन जैसे विषयों पर विशेष रूप से काम किया है. इस के साथ ही गांवों में स्वच्छ जल आपूर्ति कराने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई है. ललित कुमार यादव को उन के अनुभव और कार्य शैली की वजह से एक प्रभावशाली नेता के रूप में जाना जाता है.

तेज प्रताप यादव (हसनपुर) – राजद

लालू यादव के बड़े बेटे और आरजेडी के हसनपुर से विधायक तेजप्रताप यादव बिहार के युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं. तेजप्रताप बेरोजगारी, स्वच्छता और पर्यावरण के विषयों पर जागरूकता फैलाने का काम करते हैं. तेजप्रताप का कार्यकाल हमेशा से ही विवादों का हिस्सा रहा है, लेकिन उन्होंने अपने क्षेत्र में पौधारोपण, रोजगार मेला और ग्रामीण आधारभूत संरचना पर कई काम किए हैं.

कोयरी जाति

अमरजीत कुशवाह (जीरादेई) – सीपीआई (एमएल)

सीवान के जीरादोई से भाकपा (माले) विधायक अमरजीत कुशवाह दलित धिकार उअर भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर खुल कर बोलते हैं. वे किसान आंदोलन और भाकपा (माले) की जनवादी राजनीति का चेहरा माने जाते हैं. अमरजीत को सड़क से सदन तक गरीबों और भूमिहीनों की लड़ाई लड़ने के लिए जाना जाता है. अमरजीत का राजनीतिक संघर्ष जमीनी आंदोलनों और समाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है.

कुर्मी जाति

विजय कुमार सिन्हा (लखीसराय) – भाजपा

भाजपा का वरिष्ठ नेता विजय कुमार सिन्हा लखीसराय से विधायक हैं. उन्हें भाजपा के समर्पित कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता है. वे विधानसभा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. विजय सिन्हा वर्तमान बिहार सरकार में उप मुख्यमंत्री का पद भी संभाल रहे हैं. कानून व्यवस्था, महिला सुरक्षा और शिक्षा जैसे मुद्दों पर विजय सिन्हा हमेशा से जोर देते हुए आए हैं. इस के साथ ही उन्होंने लखीसराय को मौडल जिला बनाने के लिए कई विकास परियोजनाओं की आधारशिला रखी है. विजय सुशासन और पारदर्शिता के हमेशा पक्षधर रहे हैं.

Special Hindi Story : आंटी का आंचल

Special Hindi Story : सौतेली मां की मार से कंचन का बचपन खो गया था. प्यार के दो बोल बोलने वाली और स्नेह के साथ खाना खिलाने वाली कोई थी तो बस, पड़ोस की सुधा आंटी. सुधा भी मां की ममता को तरस रहे कंचन के मन को अपने प्यार से भर देना चाहती थी लेकिन ऐसा वह कैसे करती?

दोपहर के 2 बज रहे थे. रसोई का काम निबटा कर मैं लेटी हुई अपने बेटे राहुल के बारे में सोच ही रही थी कि किसी ने दरवाजे की घंटी बजा दी. कौन हो सकता है? शायद डाकिया होगा यह सोचते हुए बाहर आई और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक 22-23 साल की युवती खड़ी थी.

‘‘आंटी, मुझे पहचाना आप ने, मैं कंचन. आप के बगल वाली,’’ वह बोली.

‘‘अरे, कंचन तुम? यहां कैसे और यह क्या हालत बना रखी है तुम ने?’’ एकसाथ ढेरों प्रश्न मेरे मुंह से निकल पड़े. मैं उसे पकड़ कर प्यार से अंदर ले आई.

कंचन बिना किसी प्रश्न का उत्तर दिए एक अबोध बालक की तरह मेरे पीछेपीछे अंदर आ गई.

‘‘बैठो, बेटा,’’ मेरा इशारा पा कर वह यंत्रवत बैठ गई. मैं ने गौर से देखा तो कंचन के नक्श काफी तीखे थे. रंग गोरा था. बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे को और भी आकर्षक बना रही थीं. यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी कंचन का शरीर बस, ये समझिए कि हड्डियों का ढांचा भर था.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, कैसी हो तुम?’’

नजरें झुकाए बेहद धीमी आवाज में कंचन बोली, ‘‘आंटी, मैं ने कितने पत्र आप को लिखे पर आप ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.’’

मैं खामोश एकटक उसे देखते हुए सोचती रही, ‘बेटा, पत्र तो तुम्हारे बराबर आते रहे पर तुम्हारी मां और पापा के डर के कारण जवाब देना उचित नहीं समझा.’

मुझे चुप देख शायद वह मेरा उत्तर समझ गई थी. फिर संकोच भरे शब्दों में बोली, ‘‘आंटी, 2 दिन हो गए, मैं ने कुछ खाया नहीं है. प्लीज, मुझे खाना खिला दो. मैं तंग आ गई हूं अपनी इस जिंदगी से. अब बरदाश्त नहीं होता मां का व्यवहार. रोजरोज की मार और तानों से पीडि़त हो चुकी हूं,’’ यह कह कर कंचन मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

मैं ने उसे उठाया और गले से लगाया तो वह फफक पड़ी और मेरा स्पर्श पाते ही उस के धैर्य का बांध टूट गया.

‘‘आंटी, कई बार जी में आया कि आत्महत्या कर लूं. कई बार कहीं भाग जाने को कदम उठे किंतु इस दुनिया की सचाई को जानती हूं. जब मेरे मांबाप ही मुझे नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं तो और कौन देगा मुझे अपने आंचल की छांव. बचपन से मां की ममता के लिए तरस रही हूं और आखिर मैं अब उस घर को सदा के लिए छोड़ कर आप के पास आई हूं वह स्पर्श ढूंढ़ने जो एक बच्चे को अपनी मां से मिलता है. प्लीज, आंटी, मना मत करना.’’

उस के मुंह पर हाथ रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘ऐसा दोबारा भूल कर भी मत कहना. अब कहीं नहीं जाएगी तू. जब तक मैं हूं, तुझे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है.’’

उसे मैं ने अपनी छाती से लगा लिया तो एक सुखद एहसास से मेरी आंखें भर आईं. पूरा शरीर रोमांचित हो गया और वह एक बच्ची सी बनी मुझ से चिपकी रही और ऊष्णता पाती रही मेरे बदन से, मेरे स्पर्श से.

मैं रसोई में जब उस के लिए खाना लेने गई तो जी में आ रहा था कि जाने क्याक्या खिला दूं उसे. पूरी थाली को करीने से सजा कर मैं बाहर ले आई तो थाली देख कंचन रो पड़ी. मैं ने उसे चुप कराया और कसम दिलाई कि अब और नहीं रोएगी.

वह धीरेधीरे खाती रही और मैं अतीत में खो गई. बरसों से सहेजी संवेदनाएं प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बाहर निकलने लगीं.

कंचन 2 साल की थी कि काल के क्रूर हाथों ने उस से उस की मां छीन ली. कंचन की मां को लंग्स कैंसर था. बहुत इलाज कराया था कंचन के पापा ने पर वह नहीं बच पाई.

इस सदमे से उबरने में कंचन के पापा को महीनों लग गए. फिर सभी रिश्तेदारों एवं दोस्तों के प्रयासों के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली. इस शादी के पीछे उन के मन में शायद यह स्वार्थ भी कहीं छिपा था कि कंचन अभी बहुत छोटी है और उस की देखभाल के लिए घर में एक औरत का होना जरूरी है.

शुरुआत के कुछ महीने पलक झपकते बीत गए. इस दौरान सुधा का कंचन के प्रति व्यवहार सामान्य रहा. किंतु ज्यों ही सुधा की कोख में एक नए मेहमान ने दस्तक दी, सौतेली मां का कंचन के प्रति व्यवहार तेजी से असामान्य होने लगा.

सुधा ने जब बेटी को जन्म दिया तो कंचन के पिता को विशेष खुशी नहीं हुई, वह चाह रहे थे कि बेटा हो. पर एक बेटे की उम्मीद में सुधा को 4 बेटियां हो गईं और ज्योंज्यों कंचन की बहनों की संख्या बढ़ती गई त्योंत्यों उस की मुसीबतों का पहाड़ भी बड़ा होता गया.

आएदिन कंचन के शरीर पर उभरे स्याह निशान मां के सौतेलेपन को चीखचीख कर उजागर करते थे. कितनी बेरहम थी सुधा…जब बच्चों के कोमल, नाजुक गालों पर मांबाप के प्यार भरे स्पर्श की जरूरत होती है तब कंचन के मासूम गालों पर उंगलियों के निशान झलकते थे.

सुधा का खुद की पिटाई से जब जी नहीं भरता तो वह उस के पिता से कंचन की शिकायत करती. पहले तो वह इस ओर ध्यान नहीं देते थे पर रोजरोज पत्नी द्वारा कान भरे जाने से तंग आ कर वह भी बड़ी बेरहमी से कंचन को मारते. सच ही तो है, जब मां दूसरी हो तो बाप पहले ही तीसरा हो जाता है.

अब तो उस नन्ही सी जान को मार खाने की आदत सी हो गई थी. मार खाते समय उस के मुंह से उफ तक नहीं निकलती थी. निकलती थीं तो बस, सिसकियां. वह मासूम बच्ची तो खुल कर रो भी नहीं सकती थी क्योंकि वह रोती तो मार और अधिक पड़ती.

खाने को मिलता बहनों का जूठन. कंचन बहनों को जब दूध पीते या फल खाते देखती तो उस का मन ललचा उठता. लेकिन उसे मिलता कभीकभार बहनों द्वारा छोड़ा हुआ दूध और फल. कई बार तो कंचन जब जूठे गिलास धोने को ले जाती तो उसी में थोड़ा सा पानी डाल कर उसे ही पी लेती. गजब का धैर्य और संतोष था उस में.

शुरू में कंचन मेरे घर आ जाया करती थी किंतु अब सुधा ने उसे मेरे यहां आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. कंचन के साथ इतनी निर्दयता देख दिल कराह उठता था कि आखिर इस मासूम बच्ची का क्या दोष.

उस दिन तो सुधा ने हद ही कर दी, जब कंचन का बिस्तर और सामान बगल में बने गैराज में लगा दिया. मेरी छत से उन का गैराज स्पष्ट दिखाई देता था.

जाड़ों का मौसम था. मैं अपनी छत पर कुरसी डाल कर धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी. तभी देखा कंचन एक थाली में भाईबहन द्वारा छोड़ा गया खाना ले कर अपने गैराज की तरफ जा रही थी. मेरी नजर उस पर पड़ी तो वह शरम के मारे दौड़ पड़ी. दौड़ने से उस के पैर में पत्थर द्वारा ठोकर लग गई और खाने की थाली गिर पड़ी. आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी बाहर आई और आव देखा न ताव चटाचट कंचन के भोले चेहरे पर कई तमाचे जड़ दिए.

‘कुलटा कहीं की, मर क्यों नहीं गई? जब मां मरी थी तो तुझे क्यों नहीं ले गई अपने साथ. छोड़ गई है मेरे खातिर जी का जंजाल. अरे, चलते नहीं बनता क्या? मोटाई चढ़ी है. जहर खा कर मर जा, अब और खाना नहीं है. भूखी मर.’ आवाज के साथसाथ सुधा के हाथ भी तेजी से चल रहे थे.

उस दिन का वह नजारा देख कर तो मैं अवाक् रह गई. काफी सोचविचार के बाद एक दिन मैं ने हिम्मत जुटाई और कंचन को इशारे से बाहर बुला कर पूछा, ‘क्या वह खाना खाएगी?’

पहले तो वह मेरे इशारे को नहीं समझ पाई किंतु शीघ्र ही उस ने इशारे में ही खाने की स्वीकृति दे दी. मैं रसोई में गई और बाकी बचे खाने को पालिथीन में भर एक रस्सी में बांध कर नीचे लटका दिया. कंचन ने बिना किसी औपचारिकता के थैली खोल ली और गैराज में चली गई, वहां बैठ कर खाने लगी.

धीरेधीरे यह एक क्रम सा बन गया कि घर में जो कुछ भी बनता, मैं कंचन के लिए अवश्य रख देती और मौका देख कर उसे दे देती. उसे खिलाने में मुझे एक आत्मसुख सा मिलता था. कुछ ही दिनों में उस से मेरा लगाव बढ़ता गया और एक अजीब बंधन में जकड़ते गए हम दोनों.

मेरे भाई की शादी थी. मैं 10 दिन के लिए मायके चली आई लेकिन कंचन की याद मुझे जबतब परेशान करती. खासकर तब और अधिक उस की याद आती जब मैं खाना खाने बैठती. यद्यपि हमारे बीच कभी कोई बातचीत नहीं होती थी पर इशारों में ही वह सारी बातें कह देती एवं समझ लेती थी.

भाई की शादी से जब वापस घर लौटी तो सीधे छत पर गई. वहां देखा कि ढेर सारे कागज पत्थर में लिपटे हुए पड़े थे. हर कागज पर लिखा था, ‘आंटी आप कहां चली गई हो? कब आओगी? मुझे बहुत तेज भूख लगी है. प्लीज, जल्दी आओ न.’

एक कागज खोला तो उस पर लिखा था, ‘मैं ने कल मां से अच्छा खाना मांगा तो मुझे गरम चिमटे से मारा. मेरा  हाथ जल गया है. अब तो उस में घाव हो गया है.’

मैं कागज के टुकड़ों को उठाउठा कर पढ़ रही थी और आंखों से आंसू बह रहे थे. नीचे झांक कर देखा तो कंचन अपनी कुरसीमेज पर दुबकी सी बैठी पढ़ रही थी. दौड़ कर नीचे गई और मायके से लाई कुछ मिठाइयां और पूरियां ले कर ऊपर आ गई और कंचन को इशारा किया. मुझे देख उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने खाने का सामान रस्सी से नीचे उतार दिया. कंचन ने झट से डब्बा खोला और बैठ कर खाने लगी, तभी उस की छोटी बहन निधि वहां आ गई और कंचन को मिठाइयां खाते देख जोर से चिल्लाने ही वाली थी कि कंचन ने उस के मुंह पर हाथ रख कर चुप कराया और उस से कहा, ‘तू भी मिठाई खा ले.’

निधि ने मिठाई तो खा ली पर अंदर जा कर अपनी मां को इस बारे में बता दिया. सुधा झट से बाहर आई और कंचन के हाथ से डब्बा छीन कर फेंक दिया. बोली, ‘अरे, भूखी मर रही थी क्या? घर पर खाने को नहीं है जो पड़ोस से भीख मांगती है? चल जा, अंदर बरतन पड़े हैं, उन्हें मांजधो ले. बड़ी आई मिठाई खाने वाली,’ कंचन के साथसाथ सुधा मुझे भी भलाबुरा कहते हुए अंदर चली गई.

इस घटना के बाद कंचन मुझे दिखाई नहीं दी. मैं ने सोचा शायद वह कहीं चली गई है. पर एक दिन जब चने की दाल सुखाने छत पर गई तो एक कागज पत्थर में लिपटा पड़ा था. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि यह कंचन ने ही फेंका होगा. दाल को नीचे रख कागज खोल कर पढ़ने लगी. उस में लिखा था :

‘प्यारी आंटी,

होश संभाला है तब से मार खाती आ रही हूं. क्या जिन की मां मर जाती हैं उन का इस दुनिया में कोई नहीं होता? मेरी मां ने मुझे जन्म दे कर क्यों छोड़ दिया इस हाल में? पापा तो मेरे अपने हैं फिर वह भी मुझ से क्यों इतनी नफरत करते हैं, क्या उन के दिल में मेरे प्रति प्यार नहीं है?

खैर, छोडि़ए, शायद मेरा नसीब ही ऐसा है. पापा का ट्रांसफर हो गया है. अब हम लोग यहां से कुछ ही दिनों में चले जाएंगे. फिर किस से कहूंगी अपना दर्द. आप की बहुत याद आएगी. काश, आंटी, आप मेरी मां होतीं, कितना प्यार करतीं मुझ को. तबीयत ठीक नहीं है…अब ज्यादा लिख नहीं पा रही हूं.’

समय धीरेधीरे बीतने लगा. अकसर कंचन के बारे में अपने पति शरद से बातें करती तो वह गंभीर हो जाया करते थे. इसी कारण मैं इस बात को कभी आगे नहीं बढ़ा पाई. कंचन को ले कर मैं काफी ऊहापोह में रहती थी किंतु समय के साथसाथ उस की याद धुंधली पड़ने लगी. अचानक कंचन का एक पत्र आया. फिर तो यदाकदा उस के पत्र आते रहे किंतु एक अज्ञात भय से मैं कभी उसे पत्र नहीं लिख पाई और न ही सहानुभूति दर्शा पाई.

अचानक कटोरी गिरने की आवाज से मैं अतीत की यादों से बाहर निकल आई. देखा, कंचन सामने बैठी है. उस के हाथ कंपकंपा रहे थे. शायद इसी वजह से कटोरी गिरी थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ फिर उसे अंदर वाले कमरे में ले जा कर अपनी साड़ी पहनने को दी. बसंती रंग की साड़ी उस पर खूब फब रही थी. उस के बाल संवारे तो अच्छी लगने लगी. बिस्तर पर लेटेलेटे हम काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. इसी बीच कब उसे नींद आ गई पता नहीं चला.

कंचन तो सो गई पर मेरे मन में एक अंतर्द्वंद्व चलता रहा. एक तरफ तो कंचन को अपनाने का पर दूसरी तरफ इस विचार से सिहर उठती कि इस बात को ले कर शरद की प्रतिक्रिया क्या होगी. शायद उन को अच्छा न लगे कंचन का यहां आना. इसी उधेड़बुन में शाम के 7 बज गए.

दरवाजे की घंटी बजी तो जा कर दरवाजा खोला. शरद आफिस से आ चुके थे. पूरे घर में अंधेरा छाया देख पूछ बैठे, ‘‘क्यों, आज तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

कंचन को ले कर मैं इस तरह उलझ गई थी कि घर की बत्तियां जलाना भी भूल गई.

घर की बत्तियां जला कर रोशनी की और रसोई में आ कर शरद के लिए चाय बनाने लगी. विचारों का क्रम लगातार जारी था. बारबार यही सोच रही थी कि कंचन के यहां आने की बात शरद को कैसे बताई जाए. क्या शरद कंचन को स्वीकार कर पाएंगे. सोचसोच कर मेरे हाथपैर ढीले पड़ते जा रहे थे.

शरद मेरी इस मनोदशा को शायद भांप रहे थे. तभी बारबार पूछ रहे थे, ‘‘आज तुम इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? इतनी व्यग्र एवं परेशान तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा. क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

मैं शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. उचित मौका देख मैं ने बड़े ही सधे शब्दों में कहा, ‘‘कंचन आई है.’’

मेरा इतना कहना था कि शरद गंभीर हो उठे. घर में एक मौन पसर गया. रात का खाना तीनों ने एकसाथ खाया. कंचन को अलग कमरे में सुला कर मैं अपने कमरे में आ गई. शरद दूसरी तरफ करवट लिए लेटे थे. मैं भी एक ओर लेट गई. दोनों बिस्तर पर दो जिंदा लाशों की तरह लेटे रहे. शरद काफी देर तक करवट बदलते रहे. विचारों की आंधी में नींद दोनों को ही नहीं आ रही थी.

बहुत देर बाद शरद की आवाज ने मेरी विचारशृंखला पर विराम लगाया. बोले, ‘‘देखो, मैं कंचन को उस की मां तो नहीं दे सकता हूं पर सासूमां तो दे ही सकता हूं. मैं कंचन को इस तरह नहीं बल्कि अपने घर में बहू बना कर रखूंगा. तब यह दुनिया और समाज कुछ भी न कह पाएगा, अन्यथा एक पराई लड़की को इस घर में पनाह देंगे तो हमारे सामने अनेक सवाल उठेंगे.’’

शरद ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी. कभी सोचा ही नहीं था कि वे इस तरह अपना फैसला सुनाएंगे. मैं चिपक गई शरद के विशाल हृदय से और रो पड़ी. मुझे गर्व महसूस हो रहा था कि मैं कितनी खुशनसीब हूं जो इतने विशाल हृदय वाले इनसान की पत्नी हूं.

जैसा मैं सोच रही थी वैसा ही शरद भी सोच रहे थे कि हमारे इस फैसले को क्या राहुल स्वीकार करेगा?

राहुल समझदार और संस्कारवान तो है पर शादी के बारे में अपना फैसला उस पर थोपना कहीं ज्यादती तो नहीं होगी. आखिर डाक्टर बन गया है, कहीं उस के जीवन में अपना कोई हमसफर तो नहीं? उस की क्या पसंद है? कभी पूछा ही नहीं. एक ओर जहां मन में आशंका के बादल घुमड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर दृढ़ विश्वास भी था कि वह कभी हम लोगों की बात टालेगा नहीं.

कई बार मन में विचार आया कि फोन पर बेटे से पूछ लूं पर फिर यह सोच कर कि फोन पर बात करना ठीक नहीं होगा, अत: उस के आने का हम इंतजार करने लगे. इधर जैसेजैसे दिन व्यतीत होते गए कंचन की सेहत सुधरने लगी. रंगत पर निखार आने लगा. सूखी त्वचा स्निग्ध और कांतिमयी हो कर सोने सी दमकने लगी. आंखों में नमी आ गई.

मेरे आंचल की छांव पा कर कंचन में एक नई जान सी आ गई. उसे देख कर लगा जैसे ग्रीष्मऋतु की भीषण गरमी के बाद वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर पौधे हरेभरे हो उठते हैं. अब वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं ऊर्जावान दिखाई देने लगी थी. उस ने इस बीच कंप्यूटर और कुकिंग कोर्स भी ज्वाइन कर लिए थे.

और वह दिन भी आ गया जब राहुल दिल्ली से वापस आ गया. बेटे के आने की जितनी खुशी थी उतनी ही खुशी उस का फैसला सुनने की भी थी. 1-2 दिन बीतने के बाद मैं ने अनुभव किया कि वह भी कंचन से प्रभावित है तो अपनी बात उस के सामने रख दी. राहुल सहर्ष तैयार हो गया. मेरी तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. मैं तेजी से दोनों के ब्याह की तैयारी में जुट गई और साथ ही कंचन के पिता को भी इस बात की सूचना भेज दी.

कंचन और राहुल की शादी बड़ी  धूमधाम से संपन्न हो गई. शादी में न तो सुधा आई और न ही कंचन के पिता. कंचन को बहुत इंतजार रहा कि पापा जरूर आएंगे किंतु उन्होंने न आ कर कंचन की रहीसही उम्मीदें भी तोड़ दीं.

अपने नवजीवन में प्रवेश कर कंचन बहुत खुश थी. एक नया घरौंदा जो मिल गया था और उस घरौंदे में मां के आंचल की ठंडी छांव थी.

Latest Hindi Stories :  एक और परिणीता

Latest Hindi Stories :  अपने चेहरे की विकृति के कारण स्वर्णा अपने सहयोगियों के तानों से परेशान हो चुकी थी लेकिन शिवेन के लिए उस की यह विकृति कोई माने नहीं रखती थी. शिवेन के उदार स्वभाव से हैरान स्वर्णा के सामने यह राज तब खुला जब वह शिवेन की अनुपस्थिति में उस के घर पहुंची. शिवेन दत्त के चार्ज लेते ही पूरे दफ्तर में खलबली मच गई कि दादा अडि़यल इनसान हैं. हां, चपरासी और मेकैनिक खुश हैं. दोनों की खुशी की वजह अलगअलग हैं. चपरासी तो इसलिए खुश हैं कि बाबुओं की तीमारदारी से उन्हें अब कुछ राहत मिलेगी.

मेकैनिक खुश हैं कि शिवेन दत्त तकनीकी जानकारी रखते हैं और उन का चयन योग्यता के आधार पर हुआ है, किसी की सिफारिश से नहीं. दूर संचार विभाग के मैनेजर पद पर आंखें तो बहुत से लोग गड़ाए बैठे थे मगर इन में से एक भी तकनीकी जानकारी नहीं रखता था और विभाग को ऐसे इंजीनियर की तलाश थी जो आज के तेज रफ्तार संचार माध्यमों का सही ढंग से संचालन कर सके. इसीलिए चयन कार्यक्रम में पूरी तरह से पारदर्शिता बरती गई. दूर संचार विभाग में काम करने वाली महिलाओं का अपना एक संगठन भी था जिस की अध्यक्ष स्वर्णा कपूर थी.

वह बोलती कम पर लिखती अधिक थी. आएदिन किसी न किसी पुरुषकर्मी की शिकायत लिख कर वह अधिकारी के पास भेजती रहती थी और पुरुषकर्मी अपना शिकायतीपत्र पी.ए. को कुछ दे कर हथिया लेते थे. कहने का मतलब यह कि स्वर्णा कपूर किसी का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकी. नई झाड़ू जरा जोरदार सफाई करती है. इस कहावत को ध्यान में रखते हुए सभी पुरुषकर्मी कुछ अधिक चौकन्ने हो गए थे. शिवेन दत्त ने स्वर्णा कपूर को पहली बार तब देखा जब वह लंबी छुट्टी मांगने उन के पास आई. साड़ी का पल्लू शौल की तरह लपेटे वह किसी मूर्ति की तरह मेज के पास जा खड़ी हुई. शिवेन दत्त खामोशी की उस मूर्ति को देखते ही हतप्रभ रह गए.

स्वर्णा पलकें झुकाए दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘अगर आप छुट्टी मंजूर नहीं करेंगे तो मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूंगी, क्योंकि मैं कभी छुट्टी नहीं लेती हूं.’’

शिवेन दत्त जैसे जाग पड़े, ‘‘तो फिर आज क्यों? और वह भी इतनी लंबी छुट्टी ली जा रही है?’’
‘‘एम.ए. फाइनल की परीक्षा देनी है मुझे.’’ शाम को काम खत्म कर शिवेन जाने लगे तो अपने पी.ए. से पूछ बैठे, ‘‘कब से हैं मिसेज कपूर यहां?’’

‘‘5 बरस तो हो ही गए हैं. पर सर, आप इन्हें मिसेज नहीं मिस कहिए.’’
‘‘शटअप,’’ शिवेन ने डांट दिया.
बचपन में मैनिंजाइटिस होने से स्वर्णा का मुंह टेढ़ा हो गया और जवानी में वह हताश व कुंठित थी, क्योंकि दोनों छोटी बहनों की शादी हो चुकी थी. स्वर्णा को सितार सिखाने वाली महिला, जिसे पति की जगह दूर संचार विभाग में नौकरी मिली थी, ने स्वर्णा को दूर संचार विभाग में काम करने का रास्ता दिखाया और वह टेलीफोन आपरेटर बन गई. शिवेन का अपने विभाग पर ऐसा दबदबा कायम हुआ कि हर बात में निंदा करने वाले भी अब उन की बात मानने लगे. यही नहीं, उन्होंने अपनी मेजकुरसी हाल में ही एक ओर लगवा ली ताकि सब को उन के होने का एहसास बना रहे.

उन से खार खाने वाले अधेड़ उम्र के सहकर्मी भी उन के विनम्र स्वभाव से दब गए. 3 महीने पलक झपकते ही निकल गए. स्वर्णा जब लौट कर दफ्तर आई तो किसी पुराने मनचले ने फब्ती कसी, ‘‘डिगरी पर डिगरी लिए जाओ, बरात नहीं आने वाली.’’ इस फब्ती से प्रथम श्रेणी में डिगरी हासिल करने का गर्व व खुशी मटियामेट हो गई. स्वर्णा ने एक बार फिर अपने आंसू पी लिए. शिवेन के पी.ए. ने जा कर जब यह छिछोरा व्यंग्य उन्हें सुनाया तो वह भी तिलमिला पड़े पर वह जानते थे कि स्वर्णा उन से कहने नहीं आएगी.

अगली बार वह स्वर्णा के सामने से गुजरे तो अनायास रुक गए और एक अभिभावक की तरह उन्होंने नम्र स्वर में पूछा, ‘‘पास हो गईं?’’ ‘‘जी,’’ स्वर्णा ने गरदन नीची किए ही उत्तर दिया. ‘‘मिठाई नहीं खिलाओगी?’’
‘‘जी, पापाजी से कह दूंगी.’’ अगले दिन स्वर्णा मिठाई का कटोरदान ले कर शिवेन की मेज के सामने जा खड़ी हुई तो वह कुछ झेंप से गए.

‘‘अरे, आप…मैं ने तो यों ही कह दिया था.’’ ‘‘मैं ने खुद बनाए हैं,’’ स्वर्णा उत्साह से बोली.
शिवेन ने 1 लड्डू उठा लिया और कहा कि बाकी लड्डुओं को अपने सहकर्मियों में बांट दो. इस के कुछ दिन बाद ही सरकारी आदेश आया कि रात की ड्यूटी के लिए कुछ टेलीफोन आपरेटर रखे जाएंगे जिन्हें तनख्वाह के अलावा अलग से भत्ता मिलेगा. मौजूदा कर्मचारियों को प्राथमिकता दी जाएगी. स्वर्णा ने रात की शिफ्ट में काम करने का मन बनाया तो मिसेज ठाकुर भी उस के साथ हो लीं. तय हुआ कि रात को आते समय दफ्तर के ही सरकारी चौकीदार को कुछ रुपए महीना दे देंगी ताकि वह उन को घर तक छोड़ जाया करेगा.

यह सबकुछ इतना गोपनीय ढंग से हुआ कि विभाग में किसी को पता ही नहीं चला. स्वर्णा को अपनी जगह न देख कर शिवेन ने पूछताछ की तो पता चला कि स्वर्णा और मिसेज ठाकुर ने शाम की शिफ्ट ली है. उस रात जब दोनों ड्यूटी खत्म कर बाहर निकलीं तो जहां उन का रिकशा और चपरासी खड़ा होता था वहां शिवेन अपनी जीप ले कर खुद खड़े थे. दोनों को जीप में बैठने का आदेश दिया और खुद चालक की सीट पर बैठ कर जीप चलाने लगे. पहले स्वर्णा को उस के घर छोड़ा फिर मिसेज ठाकुर जब अकेली रह गईं तो उन्हें आड़े हाथों लिया.

अपनी सफाई में मिसेज ठाकुर ने सारा सच उगल दिया. ‘‘सर, आप समझने की कोशिश कीजिए. दफ्तर के लोगों ने स्वर्णा का जीना दूभर कर दिया था. कौन क्या कहता है आप को शायद इस का आभास नहीं है.’’ ‘‘एक कुंआरी लड़की का रात को बाहर अकेले काम पर जाना क्या ठीक है?’’ ‘‘नहीं, मगर यहां उसे कोई छेड़ता तो नहीं है. रामदेवजी बाप की तरह उसे स्नेह देते हैं. मैं उस के साथ हूं. रिकशे वाले को मैं पिछले 15 साल से जानती हूं.’’ ‘‘अच्छा, आप लोगों को रात के समय घर छोड़ने के लिए कल से आरिफ रोज जीप ले कर आएगा,’’ शिवेन बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में मैं आप लोगों के लिए एक वैन का इंतजाम करा दूंगा.’’ कभीकभी शिवेन विभाग में दौरा करने आते तो स्वर्णा से हालचाल पूछ लेते. धीरेधीरे शिवेन स्वर्णा से इधरउधर की भी बातें करने लगे. मसलन, कौनकौन से लेखक तुम्हें पसंद हैं, कहांकहां घूमी हो, क्याक्या तुम्हारी अभिरुचि है.

स्वर्णा उत्तर देने में झिझकती. मिसेज ठाकुर ने उसे प्यार से समझाया, ‘‘मित्रता बुरी नहीं होती. बातचीत से आत्मविश्वास पनपता है.’’ एक दिन रामदेव ने कहा, ‘‘बेटी, शिवेन को तुम्हारी बड़ी चिंता रहती है,’’ और उस पर गहरी नजर डाल दी. स्वर्णा संभल गई. अगली बार जब शिवेन उस के पास बैठ कर शहर में लगी फिल्मों की बात करने लगे तो वह झुंझला कर बोली, ‘‘सर, मेरे पास इतना समय नहीं है कि फिल्में देखती फिरूं.’’ उस की इस बेरुखी से शिवेन शर्मिदा हो चुपचाप वहां से हट गए. स्वर्णा का मन फिर काम में नहीं लगा. अनमनी सी सोचने लगी कि सब तो उस के चेहरे का इतिहास पूछते हैं, फिर सहानुभूति जताते हैं और उस के अंदर की वेदना को जगा कर अपना मनोरंजन करते हैं. लेकिन इस व्यक्ति ने कभी भी उस से वह सबकुछ नहीं पूछा जो और लोग पूछते हैं. शिवेन फिर दिखाई नहीं दिए. अगर आते भी थे तो रामदेव से औपचारिक पूछताछ कर के चले जाते थे. उधर स्वर्णा की बेचैनी बढ़ने लगी. हर रोज उस की आंखें बारबार दरवाजे की ओर उठ जातीं. इतने सरल, स्वच्छ इनसान पर उस ने यह कैसा वार किया. क्या बुरा था. दो बातें ही तो वह करते थे. हंसनामुसकराना जुर्म है क्या.

वह तो उस के संग हंसते थे न कि उस पर. अपने ही अंतर्द्वंद्व में उलझी स्वर्णा को जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक दिन बिना किसी को कुछ बताए उस ने एक छोटा सा पत्र लिख कर डाक द्वारा शिवेन को भिजवा दिया. कई दिनों तक कोई उत्तर नहीं आया. फिर एक पत्र उस के घर के पते पर सरकारी लिफाफे में आया जिस में उसे एक नए पद के साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था. दिल्ली से आए 3 उच्च अधिकारियों ने उस का साक्षात्कार लिया और वह सहायक प्रबंधक के रूप में चुन ली गई. शिवेन के सामने वाले कमरे में अब उस की मेज लगा दी गई थी.

उसे प्रबंधन व नियंत्रण की सारी जानकारी शिवेन स्वयं देने लगे. वह एक चतुर शिष्या की तरह सब ग्रहण करती गई. ऊपर से भले ही सबकुछ शांत था पर अंदर ही अंदर इस नई नियुक्ति को ले कर दफ्तर में काफी उथलपुथल थी. आतेजाते किसी ने वही पुराना राग छेड़ दिया, ‘‘यार, नया न सही, 4 बच्चों वाला ही सही.’’ स्वर्णा तिलमिला कर रह गई. घर आने के बाद रोरो कर उस ने अपनी आंखें सुजा लीं. दशहरे पर शिवेन ने 15 दिन की छुट्टी ली तो उन की गैरमौजूदगी में स्वर्णा बिना किसी सहायता के विभाग सुचारु रूप से चलाती रही. इसी दौरान एक दिन घर पर शिवेन का फोन आया.

दफ्तर के बाबत औपचारिक बातें करने के बाद उसे बाजार की एक बड़ी दुकान के बाहर मिलने को कहा. स्वर्णा ने घर में किसी को कुछ नहीं बताया और मिलने चली गई. शिवेन ने उस की पसंद से अपनी मां और बहन के लिए कपड़ों की खरीदारी की. फिर दोनों एक रेस्तरां में बैठ कर इधरउधर की बातें करते रहे.

बातों के सिलसिले में ही स्वर्णा पूछ बैठी, ‘‘बच्चों के लिए कुछ नहीं लिया आप ने?’’ ‘‘नहीं,’’ शिवेन एकदम खिलखिला कर हंस दिए और बोले, ‘‘किस के बच्चे? मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है.’’ स्वर्णा अविश्वास से बोली, ‘‘दफ्तर में तो सब कहते हैं कि आप 4 बच्चों के बाप हैं.’’ ‘‘स्वर्णा, मेरी उम्र 36 साल हो गई है पर मैं कुंआरा हूं. अगर एक 30 साल की स्त्री कुंआरी हो तो लोग कहते हैं कि किसी ने उसे पसंद नहीं किया. मगर एक पुरुष अविवाहित रहे तो जानती हो लोग उस के विषय में क्या सोचते हैं…मैं शादीशुदा हूं यही भ्रम बना रहे तो अच्छा है.’’ शिवेन ने अपना हृदय खोल कर रख दिया था और स्वर्णा जीवन में पहली बार किसी की राजदार बनी थी. 2 दिन बाद शिवेन ने स्वर्णा को अपने साथ सिनेमा देखने के लिए आमंत्रित किया. इस बार भी वह घर से बहाना बना कर शिवेन के साथ चली गई. यद्यपि इस तरह घर वालों से झूठ बोल कर जाने पर उस के मन ने उसे धिक्कारा था मगर इस खतरे में बाजी जीत जाने का स्वाद भी था. कोई उसे भी चाह रहा था, यह एहसास होते ही उस के सपने अंगड़ाई लेने लगे थे. वह सुबह उठती तो अपनी उनींदी मुसकान उसे समेटनी पड़ती. कहीं कोई कुछ पूछ न ले. अगली शाम वह उसी दुकान पर गई और अपने लिए सुंदर साडि़यां खरीद लाई. फिर जाने क्या सोच कर अपनी मां के लिए ठीक वैसी ही साड़ी खरीदी जैसी शिवेन की मां के लिए उस ने पसंद की थी. मां को ला कर साड़ी दी तो वह उदास स्वर में बोलीं, ‘‘क्या मेरी तकदीर में बेटी की कमाई की साड़ी ही लिखी है?’’ ‘‘मां, तुम यह क्यों नहीं समझ लेतीं कि मैं तुम्हारा बेटा हूं.’’ स्वर्णा अपनी खुशी में मिसेज ठाकुर को शरीक करने के लिए उन के घर की ओर चल दी. धीरेधीरे उन्हें सबकुछ बता दिया. वह गंभीर हो गईं. समझाते हुए बोलीं, ‘‘स्वर्णा, तुम जवान लड़की हो. आगेपीछे सोच कर कदम उठाना. शिवेन बड़े ओहदे वाला इनसान है.

क्या तुम्हें अपनी बिरादरी के सामने स्वीकार करेगा? कहीं ऐसा न हो कि जिस दिन उसे अपनी बिरादरी की कोई अच्छी लड़की मिले तो तुम्हें फटे कपड़े की तरह छोड़ दे. थोड़े दिनों की खुशी के लिए जीवन भर का दुख मोल लेना कहां की समझदारी है? अब अगर शिवेन बुलाए तो मत जाना.’’ अगली बार शिवेन ने फोन पर उसे अपने घर आने के लिए कहा. स्वर्णा ने पहली बार टाल दिया. लेकिन दूसरी बार शिवेन ने फिर बुलाया तो उस ने मिसेज ठाकुर को बताया. सुनते ही वह भड़क उठीं. ‘‘देखा न, घर पर बुला रहा है. इस का इरादा कतई नेक नहीं है, कुछ करना पड़ेगा.’’ ‘‘दीदी, अगर मैं नहीं गई तो भी वह बदला निकाल सकते हैं. मेरी नौकरी और पदोन्नति का भी तो खयाल करो. सब उन्हीं की मेहरबानी है. टेलीफोन पर उन की बातों से ऐसा नहीं लगता कि उन का कोई बुरा इरादा होगा. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं क्या न करूं.’’

‘‘ठीक से सोच लो, स्वर्णा. जाना तो तुम्हें कल है.’’ मिसेज ठाकुर के घर से लौटते समय आगे की सोच कर उस का गला सूखा जा रहा था. मन का तनाव उस की नसनस में बह रहा था. अनायास उस ने महसूस किया कि वह नितांत अकेली है. उस के आसपास के सभी व्यक्ति, जो उस पर अधिकार जताते हैं, किसी न किसी डर के अधीन हैं. अपनीअपनी सामाजिकता से बंधे पालतू पशुओं की तरह एक नियत जीवनयापन कर रहे हैं. दादी को जातबिरादरी का डर, पिताजी को अपने कर्तव्य से गिर जाने का डर, मां को इन दोनों को नाराज करने का डर और इन सब के नीचे, लगभग कुचला हुआ उस का अपना अस्तित्व था. इन सब के विपरीत उस के मन को एक शिवेन ही तो था जो बादलों तक उड़ा ले जा रहा था.

शिवेन का खयाल आते ही उस का अंगअंग झंकृत हो उठा. सहसा उसे लगा कि वह इतनी हलकी है कि कोई शिला उसे पूरी तरह दबा दे, नहीं तो वह उड़ जाएगी. वह अपने ही हाथपैरों को कस कर समेटे गठरी सी बनी खिड़की के बाहर देखती कब सो गई उसे पता ही न चला. सुबह आंख खुली तो उस की नजर सामने अलमारी पर पड़ी जिस के एक खाने में उस की दोनों छोटी बहनों के विवाह की तसवीरें रखी थीं. उन के ठीक बीच में एक बंगाली दूल्हादुलहन की जोड़ी रखी थी जो वर्षों पहले उस ने एक मेले से खरीदी थी. सुबह उस ने अपना फैसला फोन पर मिसेज ठाकुर को सुनाया. वह बोली, ‘‘चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं. तुम आगे जा कर दरवाजा खुलवाना. बाहर ही खड़ी रह कर बात करना. यदि अंदर आने के लिए शिवेन जोर दें तो बताना मैं भी साथ हूं. रिकशे वाला भी हमारा अपना है. यदि जरूरत पड़ी तो शोर मचा देंगे.’’ हिम्मत कर के स्वर्णा शिवेन के घर चल दी. मिसेज ठाकुर भी रिकशे में पीछेपीछे हो लीं. शिवेन का मकान कई गलियों से गुजरने के बाद मिला था. स्वर्णा ने दरवाजा खटखटाया. अंदर से एक स्त्री कंठ ने कहा, ‘‘कौन है, दरवाजा खुला है, आ जाओ.’’ स्वर्णा ने अपना नाम बताया और दरवाजा जरा सा खोला तो वह पूरा ही खुल गया. सामने आंगन में बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला उसे बुला रही थी. स्वर्णा ने दरवाजा खुला ही छोड़ दिया क्योंकि उस के ठीक सामने 10 गज की दूरी पर मिसेज ठाकुर उसे अपने रिकशे में बैठेबैठे देख सकती थीं. ‘‘बेटी शेफाली, देखो, स्वर्णा आई है.’’ शेफाली धड़धड़ाती हुई सीढि़यों से उतरी और स्वर्णा को प्रेम से गले लगाया. ‘‘शिबू ने बताया था कि आप आएंगी. वह कोलकाता गया है. परसों आ जाएगा. आइए, बैठिए.’’ शेफाली को देख कर स्वर्णा का मुंह खुला का खुला रह गया, क्योंकि उस का ऊपर का होंठ बीच में से कटा हुआ था. इस के बाद भी शेफाली ने सहज ढंग से उस की खातिर की. मांजी के पास रखे बेंत के मूढ़ों पर दोनों बैठीं बातचीत करती रहीं. नाश्ता किया और फिर शेफाली उसे अपना घर दिखाने के लिए अंदर ले गई. स्वर्णा ने देखा कि शिवेन के कमरे में ढेरों पुस्तकें पड़ी थीं. एक कोने में सितार रखा था. शेफाली ने बताया, ‘‘शिबू मुझ से 3 साल छोटा है और वह तुम को बेहद पसंद भी करता है. इस से पहले शिवेन ने कभी अपनी शादी की बात नहीं की थी.

तुम पहली लड़की हो जो उस के जीवन में आई हो. ‘‘आज से 20 साल पहले जब पिताजी का देहांत हुआ था तब मैं 19 साल की थी और शिवेन 16 का रहा होगा. इतनी छोटी उम्र में ही उस पर मेरी शादी का बोझ आ पड़ा. मेरा ऊपर का होंठ जन्म से ही विकृत था. विकृति के कारण रिश्तेदारों ने मेरे योग्य जो वर चुने उन में से कोई विधुर था, कोई अपंग. स्वयं अपंग होते हुए भी लोग मुझे देख कर मुंह बना लेते थे. ‘‘एक दिन एक आंख से अपंग व्यक्ति ने जब मुझे नकार दिया तो शिवेन उसे बहुत भलाबुरा कहते हुए बोला कि चायमिठाई खाने आ जाते हैं, अपनी सूरत नहीं देखते. ‘‘इस बात को ले कर हमारे रिश्तेदारों ने हमें बहुत फटकारा. बस, उसी दिन मैं ने शिवेन को बुला कर कह दिया कि बंद करो यह नाटक.

मुझे किसी से शादी नहीं करनी है. शिवेन रोते हुए बोला, ‘ऐसा मत सोचिए, दीदी. मैं अपना फर्ज पूरा नहीं करूंगा तो समाज यही कहेगा कि बाप रहता तो बेटी कुंआरी तो न बैठी रहती,’’’ शेफाली स्वर्णा को बता रही थी. ‘‘ बाबा मेरी शादी करवा सकते थे क्या?’’ क्या उन के पास देने के लिए लाखों रुपए का दहेज था?’ मैं ने शिवेन से पूछा, ‘अभी तू छोटा है तभी फर्ज की बात कर रहा है. कल को जब तू शादी लायक होगा तो क्या तू मेरी जैसी लड़की से शादी कर लेगा? दूसरों को क्यों लज्जित करता है?’ ‘‘बस, उसी दिन से उस ने शपथ ले ली कि विकृत चेहरे वाली लड़की से ही शादी करूंगा.’’

थोड़ा रुक कर शेफाली फिर बोली, ‘‘स्वर्णा, जिस दिन पहली बार उस ने तुम्हें देखा था उसी दिन शिबू ने तुम से शादी के लिए अपना मन बना लिया था. इस पर तुम इतनी गुणी निकलीं. अब तुम्हारी बारी है. घरबार भी तुम ने देख लिया है. बोलो, क्या कहती हो?’’

स्वर्णा ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया. उस की रुलाई फूट पड़ी. शेफाली ने उसे गले से लगाया. स्वर्णा चुपचाप उठी, साड़ी का पल्लू पीछे से खींच कर सर ढक लिया और घुटनों के बल बैठ कर मांजी के पांव छुए. स्वर्णा जाते समय धीरे से शेफाली से बोली, ‘‘आज से चौथे दिन मैं आप सब का अपने घर पर इंतजार करूंगी.’’

Sad Love Story : मेरे प्‍यार की मंजिल

Sad Love Story : दिसंबर का पहला पखवाड़ा चल रहा था. शीतऋतु दस्तक दे चुकी थी. सूरज भी धीरेधीरे अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहा था और उस की किरणें आसमान में लालिमा फैलाए हुए थीं. ऐसा लग रहा था मानो ठंड के कारण सभी घर जा कर रजाई में घुस कर सोना चाहते हों. पार्क लगभग खाली हो चुका था, लेकिन हम दोनों अभी तक उसी बैंच पर बैठे बातें कर रहे थे. हम एकदूसरे की बातों में इतने खो गए थे कि हमें रात्रि की आहट का भी पता नहीं चला. मैं तो बस, एकाग्रचित्त हो अखिलेश की दीवानगी भरी बातें सुन रही थी.

‘‘मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं रीमा, मुझे कभी तनहा मत छोड़ना. मैं तुम्हारे बगैर बिलकुल नहीं जी पाऊंगा,’’ अखिलेश ने मेरी उंगलियों को सहलाते हुए कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो अखिलेश, मैं तो हमेशा तुम्हारी बांहों में ही रहूंगी, जिऊंगी भी तुम्हारी बांहों में और मरूंगी भी तुम्हारी ही गोद में सिर रख कर.’’

मेरी बातें सुनते ही अखिलेश बौखला गया, ‘‘यह कैसा प्यार है रीमा, एक तरफ तो तुम मेरे साथ जीने की कसमें खाती हो और अब मेरी गोद में सिर रख कर मरना चाहती हो? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं तुम्हारे बिना जी कर क्या करूंगा? बोलो रीमा, बोलो न.’’ अखिलेश बच्चों की तरह बिलखने लगा.

‘‘और तुम… क्या तुम उस दूसरी दुनिया में मेरे बगैर रह पाओगी? जानती हो रीमा, अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो क्या कहता,’’ अखिलेश ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘यदि तुम इस दुनिया से पहले चली जाओगी तो मैं तुम्हारे पास आने में बिलकुल भी देर नहीं करूंगा और यदि मैं पहले चला गया तो फिर तुम्हें अपने पास बुलाने में देर नहीं करूंगा, क्योंकि मैं तुम्हारे बिना कहीं भी नहीं रह सकता.’’

अखिलेश का यह रूप देख कर पहले तो मैं सहम गई, लेकिन अपने प्रति अखिलेश का यह पागलपन मुझे अच्छा लगा. हमारे प्यार की कलियां अब खिलने लगी थीं. किसी को भी हमारे प्यार से कोई एतराज नहीं था. दोनों ही घरों में हमारे रिश्ते की बातें होने लगी थीं. मारे खुशी के मेरे कदम जमीन पर ही नहीं पड़ते थे, लेकिन अखिलेश को न जाने आजकल क्या हो गया था. हर वक्त वह खोयाखोया सा रहता था. उस का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था. शरीर भी काफी कमजोर हो गया था.

मैं ने कई बार उस से पूछा, लेकिन हर बार वह टाल जाता था. मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता था, जैसे वह मुझ से कुछ छिपा रहा है. इधर कुछ दिनों से वह जल्दी शादी करने की जिद कर रहा था. उस की जिद में छिपे प्यार को मैं तो समझ रही थी, मगर मेरे पापा मेरी शादी अगले साल करना चाहते थे ताकि मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर लूं. इसलिए चाह कर भी मैं अखिलेश की जिद न मान सकी.

अखिलेश मुझे दीवानों की तरह प्यार करता था और मुझे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. यह बात मुझे उस दिन समझ में आ गई जब शाम को अखिलेश ने फोन कर के मुझे अपने घर बुलाया. जब मैं वहां पहुंची तो घर में कोई भी नहीं था. अखिलेश अकेला था. उस के मम्मीपापा कहीं गए हुए थे. अखिलेश ने मुझे बताया कि उसे घबराहट हो रही थी और उस की तबीयत भी ठीक नहीं थी इसलिए उस ने मुझे बुलाया है.

थोड़ी देर बाद जब मैं उस के लिए कौफी बनाने रसोई में गई, तभी अखिलेश ने पीछे से आ कर मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया, मैं ने घबरा कर पीछे हटना चाहा, लेकिन उस की बांहों की जंजीर न तोड़ सकी. वह बेतहाशा मुझे चूमने लगा, ‘‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता रीमा, जीना तो दूर तुम्हारे बिना तो मैं मर भी नहीं पाऊंगा. आज मुझे मत रोको रीमा, मैं अकेला नहीं रह पाऊंगा.’’

मेरे मुंह से तो आवाज तक नहीं निकल सकी और एक बेजान लता की तरह मैं उस से लिपटती चली गई. उस की आंखों में बिछुड़ने का भय साफ झलक रहा था और मैं उन आंखों में समा कर इस भय को समाप्त कर देना चाहती थी तभी तो बंद पलकों से मैं ने अपनी सहमति जाहिर कर दी. फिर हम दोनों प्यार के उफनते सागर में डूबते चले गए और जब हमें होश आया तब तक सारी सीमाएं टूट चुकी थीं. मैं अखिलेश से नजरें भी नहीं मिला पा रही थी और उस के लाख रोकने के बावजूद बिना कुछ कहे वापस आ गई.

इन 15 दिन में न जाने कितनी बार वह फोन और एसएमएस कर चुका था. मगर न तो मैं ने उस के एसएमएस का कोई जवाब दिया और न ही उस का फोन रिसीव किया. 16वें दिन अखिलेश की मम्मी ने ही फोन कर के मुझे बताया कि अखिलेश पिछले 15 दिन से अस्पताल में भरती है और उस की अंतिम सांसें चल रही हैं. अखिलेश ने उसे बताने से मना किया था, इसलिए वे अब तक उसे नहीं बता पा रही थीं.

इतना सुनते ही मैं एकपल भी न रुक सकी. अस्पताल पहुंचने पर मुझे पता चला कि अब उस की जिंदगी के बस कुछ ही क्षण बाकी हैं. परिवार के सभी लोग आंसुओं के सैलाब को रोके हुए थे. मैं बदहवास सी दौड़ती हुई अखिलेश के पास चली गई. आहट पा कर उस ने अपनी आंखें खोलीं. उस की आंखों में खुशी की चमक आ गई थी. मैं दौड़ कर उस के कृशकाय शरीर से लिपट गई.

‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं अखिलेश, सिर्फ ‘कौल मी’ लिख कर सैकड़ों बार मैसेज करते थे. क्या एक बार भी तुम अपनी बीमारी के बारे में मुझे नहीं बता सकते थे? क्या मैं इस काबिल भी नहीं कि तुम्हारा गम बांट सकूं?‘‘

‘‘मैं हर दिन तुम्हें फोन करता था रीमा, पर तुम ने एक बार भी क्या मुझ से बात की?’’

‘‘नहीं अखिलेश, ऐसी कोई बात नहीं थी, लेकिन उस दिन की घटना की वजह से मैं तुम से नजरें नहीं मिला पा रही थी.’’

‘‘लेकिन गलती तो मेरी भी थी न रीमा, फिर तुम क्यों नजरें चुरा रही थीं. वह तो मेरा प्यार था रीमा ताकि तुम जब तक जीवित रहोगी मेरे प्यार को याद रख सकोगी.’’

‘‘नहीं अखिलेश, हम ने साथ जीनेमरने का वादा किया था. आज तुम मुझे मंझधार में अकेला छोड़ कर नहीं जा सकते,’’ उस के मौत के एहसास से मैं कांप उठी.

‘‘अभी नहीं रीमा, अभी तो मैं अकेला ही जा रहा हूं, मगर तुम मेरे पास जरूर आओगी रीमा, तुम्हें आना ही पड़ेगा. बोलो रीमा, आओगी न अपने अखिलेश के पास’’,

अभी अखिलेश और कुछ कहता कि उस की सांसें उखड़ने लगीं और डाक्टर ने मुझे बाहर जाने के लिए कह दिया.

डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद अखिलेश को नहीं बचाया जा सका. मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई थी. मेरा तो सुहागन बनने का रंगीन ख्वाब ही चकनाचूर हो गया. सब से बड़ा धक्का तो मुझे उस समय लगा जब पापा ने एक भयानक सच उजागर किया. यह कालेज के दिनों की कुछ गलतियों का नतीजा था, जो पिछले एक साल से वह एड्स जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहा था. उस ने यह बात अपने परिवार में किसी से नहीं बताई थी. यहां तक कि डाक्टर से भी किसी को न बताने की गुजारिश की थी.

मेरे कदमों तले जमीन खिसक गई. मुझे अपने पागलपन की वह रात याद आ गई जब मैं ने अपना सर्वस्व अखिलेश को समर्पित कर दिया था.

आज उस की 5वीं बरसी है और मैं मौत के कगार पर खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही हूं. मुझे अखिलेश से कोई शिकायत नहीं है और न ही अपने मरने का कोई गम है, क्योंकि मैं जानती हूं कि जिंदगी के उस पार मौत नहीं, बल्कि अखिलेश मेरा बेसब्री से इंतजार कर रहा होगा.

मैं ने अखिलेश का साथ देने का वादा किया था, इसलिए मेरा जाना तो निश्चित है परंतु आज तक मैं यह नहीं समझ पाई कि मैं ने और अखिलेश ने जो किया वह सही था या गलत?

अखिलेश का वादा पक्का था, मेरे समर्पण में प्यार था या हम दोनों को प्यार की मंजिल के रूप में मौत मिली, यह प्यार था. क्या यही प्यार है? क्या पता मेरी डायरी में लिखा यह वाक्य मेरा अंतिम वाक्य हो. कल का सूरज मैं देख भी पाऊंगी या नहीं, मुझे पता नहीं. Sad Love Story 

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