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Social Story : औरत का बदला

Social Story : यौन दुराचार के आरोप में निलंबन, धूमिल सामाजिक प्रतिष्ठा और एक लंबी विभागीय जांच प्रक्रिया के बाद निर्दोष साबित हो कर फिर बहाल हुए सुशील आज पहली बार औफिस पहुंचे. पूरा स्टाफ उन के सम्मान में खड़ा हो गया, मगर उन्होंने किसी की तरफ भी नजर उठा कर नहीं देखा और चपरासी के पीछेपीछे सीधे अपने केबिन में चले गए. आज उन की चाल में पहले सी ठसक नहीं थी. वह पुराना आत्मविश्वास कहीं खो सा गया था.

कुरसी पर बैठते ही उन की आंखों में नमी तैर गई. उन के उजले दामन पर जो काले दाग लगे थे वे बेशक आज मिट गए थे मगर उन्हें मिटातेमिटाते उन का चरित्र कितना बदरंग हो गया, यह दर्द सिर्फ भुक्तभोगी ही जान सकता है.

कितना गर्व था उन्हें अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा पर, बहुत भरोसा था अपने व्यवहार की पारदर्शिता पर. हां, वे काम में सख्त और वक्त के पाबंद थे. मगर यह भी सच था कि अपने स्टाफ के प्रति बहुत अपनापन रखते थे. वे कितनी बड़ी खुशफहमी पाले हुए थे अपने दिल में कि उन का स्टाफ भी उन्हें बहुत प्यार करता है. तभी तो उन्हें अपने चपरासी मोहन की बातों पर जरा भी यकीन नहीं हुआ था जब उस ने रजनी और शिखा के बीच हुई बातचीत ज्यों की त्यों सुना कर उन्हें खतरे से आगाह किया था. उन्हें आज भी वह सब याद है जो मोहन ने उस दिन दोनों की बातें लगभग फुसफुसा कर कही थीं…

‘इन सुशील का भी न, कुछ न कुछ तो इलाज करना ही पड़ेगा. जब से डिपार्टमैंट में हेड बन कर आए हैं, सब को सीट से बांध कर रख दिया है. मजाल है कि कोई लंचटाइम के अलावा जरा सा भी इधरउधर हो जाए,’ शिखा की टेबल पर टिफिन खोलते हुए रजनी ने अपनी भड़ास निकाली.

‘हां यार, विमल सर के टाइम में कितने मजे हुआ करते थे. बड़े ही आराम से नौकरी हो रही थी. न सुबह जल्दी आने की हड़बड़ाहट और न ही शाम को 6 बजे तक सीट पर बैठने की पाबंदी. अब तो सुबह अलार्म बजने के साथ ही मोबाइल में सुशील का चेहरा दिखाई देने लगता है,’ शिखा ने रजनी की हां में हां मिलाते हुए उस की बात का समर्थन किया.

‘याद करो, कितनी बार हम ने औफिस से बंक मार कर मैटिनी शो देखा है, ब्यूटीपार्लर गए हैं, त्योहारों पर सैल में शौपिंग के मजे लूटे हैं. और तो और, औफिसटाइम में घरबाहर के कितने ही काम भी निबटा लिया करते थे. अब तो बस, सुबह साढ़े 9 बजे से शाम 6 बजे तक सिर्फ फाइलें ही निबटाते रहो. लगता ही नहीं कि सरकारी नौकरी कर रहे हैं,’ रजनी ने बीते हुए दिनों को याद कर के आह भरी.

‘और हां, सुशील सर पर तो तुम्हारी आंखों का काला जादू भी काम नहीं कर रहा, है न,’ शिखा ने जानबूझ कर रजनी को छेड़ा?

‘सही कह रही हो तुम. विमल सर तो मेरी एक मुसकान पर ही फ्लैट हो जाते थे. सुशील को तो यदि बांहोें में भर के चुंबन भी दे दूं न, तब भी शायद कोई छूट न दें,’ रजनी ने ठहाका लगाते हुए अपनी हार स्वीकार कर ली.

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‘शिखा मैडम, आप को साहब ने याद किया है,’ तभी मोहन ने आ कर कहा था.

‘अभी आती हूं,’ कहती हुई शिखा ने अपना टिफिन बंद किया और सुशील के चैंबर की तरफ चल दी.

‘साहब का चमचा,’ कह कर रजनी भी बुरा सा मुंह बनाती हुई अपनी सीट की तरफ बढ़ गई.

सुशील को एकएक बात, एकएक घटना याद आ रही थी. रजनी उन के औफिस में क्लर्क है. बेहद आकर्षक देहयष्टि की मालकिन रजनी को यदि खूबसूरती की मल्लिका भी कहा जाए तो भी गलत न होगा. उस की मुखर आंखें उस के व्यक्तित्व को चारचांद लगा देती हैं. रजनी को भी अपनी इस खूबी का बखूबी एहसास है और अवसर आने पर वह अपनी आंखों का काला जादू चलाने से नहीं चूकती.

मोहन ने ही उन्हें बताया था कि 3 साल पहले जब रजनी ने ये विभाग जौइन किया था तब प्रशासनिक अधिकारी मिस्टर विमल उस के हेड थे. शौकीनमिजाज विमल पर रजनी की आंखों का काला जादू खूब चलता था. बस, वह अदा से पलकें उठा कर उन की तरफ देखती और उस के सारे गुनाह माफ हो जाते थे.

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विमल ने कभी उसे औफिस की घड़ी से बांध कर नहीं रखा. वह आराम से औफिस आती और अपनी मरजी से सीट छोड़ कर चल देती. हां, जाने से पहले एक आखिरी कौफी वह जरूर मिस्टर विमल के साथ पीती थी. उसी दौरान कुछ चटपटी बातें भी हो जाया करती थीं. मिस्टर विमल इतने को ही अपना समय समझ कर खुश हो जाते थे. रजनी की आड़ में शिखा समेत दूसरे कर्मचारियों को भी काम के घंटों में छूट मिल जाया करती थी, इसलिए सभी रजनी की तारीफें करकर के उसे चने के झाड़ पर चढ़ा रखते थे.

लेकिन रजनी की आंखों का काला जादू ज्यादा नहीं चला क्योंकि मिस्टर विमल का ट्रांसफर हो गया. उन की जगह सुशील उन के बौस बन कर आ गए. दोनों अधिकारियों में जमीनआसमान का फर्क. सुशील अपने काम के प्रति बहुत ईमानदार थे और साथ ही, वक्त के भी बहुत पाबंद, औफिस में 10 मिनट की भी देरी न तो खुद करते हैं और न ही किसी स्टाफ की बरदाश्त करते. शाम को भी 6 बजे से पहले किसी को सीट नहीं छोड़ने देते.

जैसा कि अमूमन होता आया है कि लंबे समय तक मिलने वाली सुविधाओं को अधिकार समझ लिया जाता है. रजनी को भी सुशील के आने से कसमसाहट होने लगी. उन की सख्ती उसे अपने अधिकारों का हनन महसूस होती थी. उसे न तो जल्दी औफिस आने की आदत थी और न ही देर तक रुकने की. उस ने एकदो बार अपनी अदाओं से सुशील को शीशे में उतारने की कोशिश भी की मगर उसे निराशा ही हाथ लगी. सुशील तो उसे आंख उठा कर देखते तक नहीं थे. फिर? कैसे चलेगा उस की आंखों का काला जादू? इस तरह तो नौकरी करनी बहुत मुश्किल हो जाएगी. रजनी की परेशानी बढ़ने लगी तो उस ने शिखा से अपनी परेशानी साझा की थी. तभी मोहन ने उन की बातें सुन ली थीं और सुशील को आगाह किया था.

उन्हीं दिनों विधानसभा का मौनसून सत्र शुरू हुआ था. इन सत्रों में विपक्ष द्वारा सरकार से कई तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं और संबंधित सरकारी विभाग को उन के जवाब में अपने आंकड़े पेश करने पड़ते हैं. साथ ही, जब तक उस दिन का सत्र समाप्त नहीं हो जाता,

तब तक उस विभाग के सभी अधिकारियों व उन से जुड़े कर्मचारियों को औफिस में रुकना पड़ता है. हां, देरी होने पर महिला कर्मचारियों को सुरक्षित उन के घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी जरूर विभाग की होती है. इस बाबत सुशील भी हर रोज उन के लिए कुछ टैक्सियों की एडवांस में व्यवस्था करवाते थे.

रजनी के अधिकारक्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं के लिए चलाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण विकास योजनाओं की जानकारी वाली फाइलें थीं. इसलिए सुशील की तरफ से उसे खास हिदायत थी कि वह बिना उन की इजाजत के औफिस छोड़ कर न जाए. और फिर उस दिन जो हुआ उसे भला वे कैसे भूल सकते हैं.

‘साहब ने आज आप को फाइलों के साथ रुकने के लिए कहा है,’ मोहन ने जैसे ही औफिस से निकलने के लिए बैग संभालती रजनी को यह सूचना दी, उस के हाथ रुक गए. उस ने मन ही मन कुछ सोचा और सुशील के चैंबर की तरफ बढ़ गई.

‘सर, आज मेरे पति का जन्मदिन है, प्लीज आज मुझे जल्दी जाने दीजिए. मैं कल देर तक रुक जाऊंगी,’ रजनी ने मिन्नत की.

‘मगर मैडम, हमारे विभाग से जुड़े प्रश्न तो आज के सत्र में ही पूछे जाएंगे. कल रुकने का क्या फायदा? लेकिन आप फिक्र न करें, जैसे ही आप का काम खत्म होगा, हम तुरंत आप को टैक्सी से जहां आप कहेंगी वहां छुड़वा देंगे. अब आप जाइए और जल्दी से ये आंकड़े ले कर आइए,’ सुशील ने उस की तरफ एक फाइल बढ़ाते हुए कहा. रजनी कुछ देर तो वहां खड़ी रही मगर फिर सुशील की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पा कर निराश सी चैंबर से बाहर आ गई.

‘सर, क्या मैं आप के मोबाइल से एक फोन कर सकती हूं? अपने पति को देर से आने की सूचना देनी है, मैं जल्दबाजी में आज अपना मोबाइल लाना भूल गई,’ रजनी ने संकोच से कहा.

‘औफिस के लैंडलाइन से कर लीजिए,’ सुशील ने उस की तरफ देखे बिना ही टका सा जवाब दे दिया.

‘लैंडलाइन शायद डेड हो गया है और शिखा भी घर चली गई. पर

खैर, कोई बात नहीं, मैं कोई और व्यवस्था करती हूं,’ कहते हुए रजनी वापस मुड़ गई.

‘यह लीजिए, कर दीजिए अपने घर फोन. और हां, मेरी तरफ से भी अपने पति को जन्मदिन की शुभकामनाएं दीजिएगा,’ सुशील ने रजनी को

अपना मोबाइल थमा दिया और फिर से फाइलों में उलझ गए. रजनी उन

का मोबाइल ले कर अपनी सीट पर आ गई. थोड़ी देर बाद उस ने मोहन के साथ सुशील का मोबाइल वापस भिजवा दिया और फिर अपने काम में लग गई.

‘रजनीजी, आज आप अभी तक औफिस नहीं आईं?’ दूसरे दिन सुबह लगभग 11 बजे सुशील ने रजनी को फोन किया.

‘सर, कल आप के साथ रुकने से मेरी तबीयत खराब हो गई. मैं 2-4 दिनों तक मैडिकल लीव पर रहूंगी, रजनी ने धीमी आवाज में कहा.

‘क्या हुआ?’ सुशील के शब्दों में चिंता झलक रही थी.

‘कुछ खास नहीं, सर. बस, पूरी बौडी में पेन हो रहा है. रैस्ट करूंगी तो ठीक हो जाएगा. मैं अलमारी की चाबियां शिखा के साथ भिजवा रही हूं. शायद आप को कुछ जरूरत पड़े,’ कह कर रजनी ने अपनी बात खत्म की.

2 दिनों बाद सुशील के पास महिला आयोग की अध्यक्ष सुषमा का फोन आया जिसे सुन कर सुशील के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई. रजनी ने उन पर यौन दुराचार का आरोप लगाया था. रजनी ने अपने पक्ष में सुशील द्वारा भेजे गए कुछ अश्लील मैसेज और एक फोनकौल की रिकौर्डिंग उन्हें उपलब्ध करवाई थी. सुशील ने लाख सफाई दी, मगर सुषमा ने उन की एक  न सुनी और रजनी की लिखित शिकायत व सुबूतों को आधार बनाते हुए यह खबर हर अखबार व न्यूज चैनल वालों को दे दी. सभी समाचारपत्रों ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया.

चूंकि खबर एक बड़े प्रशासनिक अधिकारी से जुड़ी थी और वह भी ऐसे विभाग का जोकि खास महिलाओं की बेहतरी के लिए ही बनाया गया था, सो सत्ता के गलियारों में भूचाल आना स्वाभाविक था. न्यूज चैनलों पर गरमागरम बहस हुई. महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था पर खामियों को ले कर विपक्ष द्वारा सरकार को घेरा गया. सुशील के घर के बाहर महिला संगठनों द्वारा प्रदर्शन किया गया. सरकार से उन्हें बरखास्त करने की पुरजोर मांग की गई.

सरकार ने पहले तो अपने अधिकारी का पक्ष लिया मगर बाद में जब रजनी के मोबाइल में भेजे गए सुशील के अश्लील संदेश और फोनकौल की रिकौडिंग मीडिया में वायरल हुए तो सरकार भी बैकफुट पर आ गईर् और तुरंत प्रभाव से सुशील को सस्पैंड कर के एक उच्चस्तरीय जांच कमेटी का गठन किया गया. मामले की निष्पक्ष जांच के लिए एक महिला प्रशासनिक अधिकारी उपासना खरे को जांच अधिकारी बनाया गया.

उपासना की छवि एक कर्मठ और ईमानदार अधिकारी की रही थी. उसे इस से पहले भी ऐसी कई जांच करने का अनुभव था. साथ ही, एक महिला होने के नाते रजनी उस से खुल कर बात कर सकेगी, शायद उसे जांच अधिकारी नियुक्त करने के पीछे सरकार की यही मंशा रही होगी.

इधर सुशील के निलंबन को रजनी अपनी जीत समझ रही थी. उस ने एक दिन बातों ही बातों में शेखी मारते हुए शिखा के सामने सारे घटनाक्रम को बखान कर दिया तो शिखा को सुशील के लिए बहुत बुरा लगा. उधर शर्मिंदगी और समाज में हो रही थूथू के कारण सुशील ने अपनेआप को घर में कैद कर लिया.

उपासना ने पूरे केस का गंभीरता से अध्ययन किया. सुशील और रजनी के अलगअलग और एकसाथ भीबयान लिए. दोनों के पिछले चारित्रिक रिकौर्ड खंगाले. पूरे स्टाफ से दोनों के बारे में गहन पूछताछ की और सुशील के पिछले कार्यालयों से भी उन के व्यवहार व कार्यप्रणाली से जुड़ी जानकारी जुटाई.

मोहन और शिखा से बातचीत के दौरान अनुभवी उपासना को रजनी की साजिश की भनक लगी और उन्हीं के बयानों को आधार बनाते हुए उस ने रजनी को पूछताछ के लिए दोबारा बुलाया. इस बार जरा सख्ती से बात की. थोड़ी ही देर के सवालजवाबों में रजनी उलझ गई और उस ने सारी सचाई उगल दी.

‘मैं ने औफिस के लैंडलाइन फोन की पिन निकाल कर उसे डेड कर दिया. फिर बहाने से सुशील का मोबाइल लिया और उस से अपने मोबाइल पर कुछ अश्लील मैसेज भेजे. दूसरे दिन जब सर ने मुझे फोन किया तो मैं ने उन की बातों के द्विअर्थी जवाब देते हुए उस कौल को रिकौर्ड कर लिया और फिर उन्हें सबक सिखाने के लिए सारे सुबूत देते हुए महिला आयोग से उन की शिकायत कर दी. नतीजतन, वे सस्पैंड हो गए. इस कांड से सबक लेते हुए नए अधिकारी भी मुझ से दूरदूर रहने लगे और मुझे फिर से मनमरजी से औफिस आनेजाने की आजादी मिल गई,’ रजनी ने उपासना से माफी मांगते हुए यह सब कहा. अब यह केस शीशे की तरह बिलकुल साफ हो गया.

‘रजनी, तुम्हें शर्म आनी चाहिए. तुम ने ऐसी गिरी हुई हरकत कर के महिलाओं का सिर शर्म से नीचा कर दिया. तुम ने अपने महिला होने का नाजायज फायदा उठाने की कोशिश कर के महिला जाति के नाम पर कलंक लगाया है. तुम्हें इस की सजा मिलनी ही चाहिए…’ उपासना ने रजनी को बहुत ही तीखी टिप्पणियों के साथ

दोषी करार दिया और सुशील को बहाल करने की सिफारिश की. उपासना ने अपनी जांच रिपोर्ट में रजनी को बतौर सजा न सिर्फ शहर बल्कि राज्य से भी बाहर स्थानांतरण करने की अनुशंसा की.

मामला चूंकि सरकार के उच्चस्तरीय प्रशासनिक अधिकारी से जुड़ा था और आरोप भी बहुत संगीन थे, इसलिए मुख्य सचिव ने व्यक्तिगत स्तर पर गुपचुप तरीके से भी मामले की जांच करवाई और आखिरकार, उपासना की जांच रिपोर्ट को सही मानते हुए सुशील को बहाल करने के आदेश जारी हो गए, हालांकि उन का विभाग जरूर बदल दिया गया था. रजनी का ट्रांसफर दिल्ली से लखनऊ कर दिया गया.

रजनी ने कई बार मौखिक व लिखित रूप से विभाग में अपना माफीनामा पेश किया, मगर आरोपों की गंभीरता को देखते हुए विभाग ने उस का प्रार्थनापत्र ठुकरा दिया और आखिरकार रजनी को लखनऊ जाना पड़ा.

आज भले ही सुशील अपने ऊपर लगे सभी आरोपों से बरी हो चुके हैं मगर महिलाओं को ले कर एक अनजाना भय उन के भीतर घुस गया है. महिलाओं के प्रति उन के अंदर जो एक स्वाभाविक संवेदना थी उस की जगह कठोरता ने ले ली. वे शायद जिंदगीभर यह हादसा न भूल पाएं कि महज काम के घंटों में छूट न देने की कीमत उन्हें क्याक्या खो कर चुकानी पड़ी.

सुशील ने मुख्य सचिव को पत्र लिख कर अपील की कि या तो

उन के अधीन कार्यरत सभी महिलाओं को दूसरे विभाग में ट्रांसफर कर दिया जाए या फिर उन्हें ही ऐसे सैक्शन में लगा दिया जाए. जहां महिला कर्मचारी न हों. आखिर दूध का जला छाछ भी फूंकफूक कर पीता है.

स्वाभाविक है यह मांग नहीं मानी गई और सालभर बाद सुशील ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और अपना छोटा सा कंसल्ंिटग का व्यवसाय शुरू कर दिया. एक औरत ने इस तरह उन की कमर तोड़ दी कि अब वे पत्नी व बेटी से भी आंख नहीं मिला पाते हैं. Social Story 

Family Story In Hindi : प्रेम की सीमा

Family Story In Hindi : वे नए शहर में आए हैं. निशा खुश दिख रही है. कारण एक आवासीय सोसायटी में उन्हें एक छोटा सा फ्लैट भी जल्दी मिल गया था. निशा और पीर मोहम्मद पहले दिल्ली में रहते थे, जहां पीर एक छोटे से कारखाने में पार्टटाइम अकाउंटैंट की नौकरी में था. इसी तरह वह 1-2 और दुकानों में अकाउंट्स का काम देखता था. लेकिन कोरोनाकाल में वह काफी परेशानियों से गुजरा था. पीर मोहम्मद ने भी उस दौरान व्हाट्सऐप ग्रुप बना कर कुछ जरूरतमंदों की सहायता की थी. लोगों को राशन दिलाने में भी लगा रहा, लेकिन कोरोना का दूसरा वर्ष अप्रैल माह और भी भयावह था.

वजीर ए आजम के भाषण से मुल्क में इतनी आत्मनिर्भरता फैल चुकी थी, जहां प्रत्येक व्यक्ति अपनी रक्षा स्वयं करता दिखा, जहां अपनी जान की रक्षा स्वयं के कंधों पर थी. लोगों की मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा था. कोरोना रोकथाम का पहले साल का लौकडाउन कम भयावह न था. सड़कों पर लोग अपने परिवार के साथ मीलों पैदल चल रह रहे थे. सांसद, विधायक, पार्षद सब नदारद दिखे थे. तब पीर मोहम्मद ने अपने मित्र पैगंबर अली से कहा था,”भाई साहब, बस स्टैंड, बिजली के खंभों, चौराहों पर जो आएदिन बड़ेबड़े फ्लैक्स लगा कर लोगों को ईद, बकरीद, दीवाली, होली, रक्षाबंधन, क्रिसमस, बुधपूर्णिमा, डा.अंबेडकर जयंती की मुबारकबाद देते थे आखिर अब वे सभी कहां चले गए? मंदिर और मसजिद के नाम पर चंदा लेने वाले नहीं दिखते, जो सुबहसुबह गलियों में मंदिर निर्माण के लिए चंदा इक्कठा करते घूमते थे? ऐसे जुझारू नेता और स्वयंसेवक सामाजिक कार्यकर्ता आखिर कहां हैं इस वक्त?”

तब पैगंबर अली ने कहा था, “भाई, लगता है, सब कोरोना वायरस से निबट गए.”

मुल्क में औक्सीजन, बैड, दवाइयों के कारण लोग मर रहे थे, जिस से श्मशान और कब्रिस्तान में लंबीलंबी लाइनें लग रही थीं. हालात यह था कि श्मशान में अधजली बौडी पड़ी रहती थीं क्योंकि लोगों के पास साधन न थे, न थीं लकड़ियां. ऐसी स्थितियां लोगों को विचलित कर देती थीं. बहुतेरे मृत शरीर गंगा नदी के रेत में दफन दिख रहे थे जिन्हें जानवर खा रहे थे. बहुत भयानक मंजर. ऐसी खबरें देख कर निशा बहुत दुखी होती थी. घबराहट होता था उस के मन में.
पीर मोहम्मद जब भी फोन उठाते कोई न कोई अप्रिय घटना उसे व्हाट्सऐप से मिल ही जाती थी. अब तो उसे अपना फोन उठाने में भी डर लगने लगा था.

अप्रैल में ही पीर मोहम्मद के बहुत करीब फादर जौय का इंतकाल हो गया था. पीर मोहम्मद को उन से एक लगाव सा था. जब पीर मोहम्मद दिल्ली में था तो फादर जौय ने उस के बच्चे के स्कूल ऐडमिशन में उस की मदद की थी. फादर जौय की कोरोना से मौत की खबर सुन कर पीर मोहम्मद बहुत रोया था.

अप्रैल तक पूरे मुल्क में करोना से 2 लाख से ज्यादा लोग मर चुके थे. मई 2022 में ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा कि भारत में कोरोना से 47 लाख लोगों की मौत हुई है.

पीर मोहम्मद निशा से कहता, “समाज कितना असंवेदनशील हो गया है, तभी तो हम इन मौतों को रुपए की गिनती से देख रहे हैं. ₹2 लाख कम हो सकते हैं, लेकिन 2 लाख लोगों का मर जाना बहुत भयावह है. इन दोनों में बहुत अंतर है. कोरोना बहुत बड़ी त्रासदी बना. इस से लड़ने में हमारा सिस्टम पूरी तरह नाकाम दिख रहा है. क्या इस सिस्टम की जवाबदेही नहीं है? इस सरकार की जवाबदेही नहीं है?

जब सरकार पूरे मुल्क में लौकडाउन लगा सकती है, तो संसाधनों की उपलब्धता क्यों नहीं कर सकती? कोरोना ने दिखाया है कि हमारी सरकार और हम लोगों की नैतिकता बिलकुल समाप्त हो चुकी है. एक सांसद जिन को 1 महीने में लगभग ₹2 लाख से अधिक वेतन मिलता है, तो आखिर किसलिए? दूसरी तरफ सत्ता आंदोलनकारियों को जेलों में ठूंस चुकी थी. सरकार तानाशाही तरीके से कोरोनाकाल में ही 3 नए कृषि कानून को ले आई थी. कोरोनाकाल में ही किसान आंदोलन में सक्रिय हो गए, क्योंकि यह उन के लिए जीने और मरने की बात थी.

भारतीय समाज से लोककल्याणकारी व्यवस्था का लगभग अंत होता सा दिखा. यह तो नवउदारवाद है जहां सरकारी नीति में पूंजीपतियों जैसी सोच हावी हो जाना. जहां सरकार कहे कि हम ने मुफ्त में कोरोना के टीके लगाए हैं.

निशा और पीर मोहम्मद के लिए यह शहर तो नया था. आसपास के घरों की कुछ महिलाओं से निशा की हायहैलो तो हो ही चुकी है जबकि समाज में एक सोशल डिस्टैंस नामक तत्त्व स्थापित हो चुका था. वैसे सामाजिक दूरियां तो पहले भी थीं पर उन में कुछ कानूनी अंकुश था. लेकिन अब तो स्वस्थ्यतौर पर लोग एकदूसरे से दूरी रख सकते हैं. यहां पीर मोहम्मद को कुछ बेहतर नौकरी मिल गई थी. बेचारे ने बड़ी मेहनत की थी, लेकिन उम्र तेजी से भागता है. उस ने तो सरकारी नौकरी प्राप्त करने की बहुत दिनों तक आशा की थी. इस नए शहर में उन्होंने अपने बेटे बबलू का ऐडमिशन वहीं के एक कौन्वेंट स्कूल में करा दिया था.

निशा यहां खुश इसलिए भी थी क्योंकि लगभग 8 वर्षों बाद उसे अपना एक फ्लैट मिला था जिसे वह अपना तो कह ही सकती थी. वैसे, वह किराए पर भी खुश थी, लेकिन अपने स्वयं के फ्लैट की बात ही अलग होती है. निशा किराए के घर को भी चमका कर रखती थी. पहले वाली मकानमालकिन कहती कि अरे, पीर मोहम्मद, तेरी बींदणी बहुत अच्छी है. साफसफाई पर ज्यादा ध्यान देती है. निशा पीर मोहम्मद के प्रति एक समर्पित और शिक्षित गृहिणी थी. शादी के 9 वर्ष होने वाले थे, लेकिन निशा के चेहरे की त्वचा आज भी 24 की ही लगती थी. अब तो उस का बेटा बबलू भी 7 वर्ष का हो चुका है.

चूंकि अब वे नए शहर में आए हैं, पीर मोहम्मद की नौकरी पहले से कुछ बेहतर जरूर थी. निशा को पार्क और पेड़पौधे बड़े प्रिय लगते. वह अकसर सोचती थी कि अपना घर होने पर बागवानी करेगी. लेकिन उस ने अपने नए फ्लैट को काफी अच्छे से सजा दिया था. अब नियमित तो नहीं, लेकिन एक रोज छोड़ कर सोसायटी से कुछ दूर एक बहुत बड़े सिटी पार्क में बबलू को ले कर जाती. बबलू खुश होता. उस को दौड़नेकूदने का एक बड़ा सा स्पेस मिल जाता था. निशा के साथ कभीकभी सोसायटी की कुछ महिलाएं भी साथ जाती थीं. लेकिन उन में एक सामाजिक दूरी रहती थी. एक तो कोरोना और दूसरा धार्मिक और जातीयता का क्योंकि एक महिला ने निशा से उस के धर्म के बारे में पूछा था, तब निशा ने कहा था हम मुसलमान हैं.

एक दूसरी मुसलिम महिला ने उस से उस की धार्मिक जाति भी पूछी, तब निशा ने उसे बताया था कि हम ‘शाह’ हैं, तब उस ने उसे कमतर दृष्टि से देखा था. निशा सोचती है कि हिंदू वर्ग में मुसलमानों के नाम से भेदभाव है. लेकिन मुसलिम समुदाय में भी क्या जाति को ले कर भेद नहीं है? निशा सोचती है कि क्या पसमांदा मुसलमान दोहरी मार के शिकार नहीं हैं?

उस दिन से सोसाइटी में और भी सोशल डिस्टैंस बढ़ गया था. वैसे, कोई न कोई महिला पार्क में घूमते जाते वक्त दिख ही जाती. कुछ का साथ न सही, दूसरी तरफ कोरोनाकाल में पार्क में भीड़ भी कम ही दिखती थी.

एक रोज निशा बबलू को ले कर पार्क गई थी. बबलू अन्य बच्चों के साथ लुकाछिपी खेलने लगा. कुछ बच्चों की मांएं आवश्यक काम होने की वजह से घर चली गईं. लेकिन बबलू घर चलने को तैयार नहीं था. वह कहता, “मम्मी, खेलो न…”

निशा ने कहा, “ठीक है, छिप जाओ.” इस तरह वह खेलने लगी.

जब निशा की दोबारा बारी आई और वह बबलू को खोजने लगी, तो पता नहीं कहां जा कर छिप गया, मिल ही नहीं रहा था.

बबलू कहां हो…बबलू…बबलू… लेकिन कहीं से कोई आवाज ही नहीं आई. शाम ढलने लगी थी. निशा ने देखा कि बगल में एक पार्क और है, जो कुछ छोटा है और जिस में बंदर, शेर, हिरन, भालू की आकृति भी बनी हुई थी. निशा सोचने लगी कि क्या पता उस के अंदर तो नहीं चला गया है. निशा ने उस छोटे पार्क में जा कर आवाज लगाई “बबलू… बबलू…” लेकिन कुछ पता नहीं.

अब उसे बहुत घबराहट होने लगी थी. सोचने लगी कि पीर मोहम्मद को फोन करूं या न करूं. पीर मोहम्मद तो काफी गुस्सा होंगे और वह रोने लगी क्योंकि पार्क भी खाली हो रहा था. वैसे ही उस में कम लोग थे. पार्क में सन्नाटा पसर रहा था जहां कुछ देर पहले कुछ शोरगुल और बच्चों की किलकारियां वातावरण में गूंज रही थीं, वहीं शाम ढलने को थी. लाइटें कुछ कुछ दूरी पर थीं. एक बड़ी ऊंची लाइट भी थी पर पार्क में सन्नाटा पसर गया था.

निशा ने सब जानवरों की आकृतियों के पास जा कर देखा, लेकिन बबलू नहीं मिला. अब वह रोने लगी. तभी पीछे से किसी आदमी ने आवाज दी कि क्या हुआ मैडम? निशा ने उसे बताया कि मैं अपने बेटे बबलू को खोज रही हूं, जो उस बड़े पार्क में खेल रहा था, मिल ही नहीं रहा है.

उस आदमी ने कहा,”आप उसे वहीं खोजें. बच्चा बाहर तो नहीं गया होगा.”

वह निशा के साथ बड़े पार्क में गया. निशा ने देखा कि बबलू बेंच पर बैठा रो रहा है. उधर से एक सुरक्षाकर्मी भी आता दिखा. निशा बबलू को देख कर जोरजोर से रोने लगी थी. उस ने उसे चूमा और सीने से लगा लिया था,”कहां चला गया था?”

बबलू ने कहा, “मैं तो यहीं था,” वह भी हिचकियां लेले कर रो रहा था.

“मैं तो हाइड ऐंड सिक खेल रह था,” बबलू पता नहीं क्यों अकेले में बातें किया करता है. निशा अकसर यह बात पीर मोहम्मद से पूछती थी. बबलू ने उसी पार्क में एक कुआं दिखाया जो लगभग 4 फुट ऊंचे ईंटों से घेरा गया था और लोहे के ग्रिल से ढंका हुआ था ताकि कोई बच्चा उस में न गिर जाए और न कोई उस पर चढ़ पाए. बबलू उस कुएं के पीछे छिप गया था.

निशा ने कहा,”बेटा, ऐसा नहीं करते. अकेले बच्चों को राक्षस ले जाता है. जब मम्मी आवाज लगा रही थी तो क्या आप ने सुना नहीं?”

“नहीं मम्मी, मैं तो हाइड ऐंड सिक खेल रहा था.”

इस के बाद निशा बबलू को ले कर पार्क से बाहर आई. साथ में वह आदमी भी आया था. उस की उम्र लगभग 40 की होगी. निशा ने उस से कहा,”आप का एहसान है, मुझे तो उस समय कुछ समझ ही नहीं आ रहा था आखिर मैं करूं तो क्या? एक तो नया शहर है. पता नहीं क्या उलटासीधा दिमाग में घूमने लगा था.”

व्यक्ति ने कहा, “आप नए हैं यहां?”

“जी…” निशा ने उसे बताया कि वह सैक्टर-बी में नई बनी सोसायटी में रहती है.

निशा ने उसे अपना फोन नंबर भी दिया. वह कुछ आगे बढ़ गई तभी उसे याद आया कि अरे, मैं ने तो उन का नाम भी नहीं पूछा.

उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो वह आदमी जा रहा था. उस ने आवाज लगाई और जब उस ने देखा तो निशा ने उस को हाथ हिलाया. वह ज्यादा दूर नहीं गया था. वह उस के पास आया तो निशा बोली,”सौरी, मैं ने तो आप का नाम ही नहीं पूछा, क्या नाम है आप का?”

“सरफराज खान.”

पीर मोहम्मद घर पहुंच चुका था. वह निशा पर कोई पाबंदी नहीं चाहता था. दूसरी बात यह भी थी कि वह घर से ज्यादा निकलती भी नहीं थी. दिल्ली शहर में जब वे रहते थे तो वहां उन के कुछ रिश्तेदार भी रहते थे. अगर निशा उन के घर जाती तो जाने से पहले वह पीर मोहम्मद को बता देती थी. औफिस से आने के बाद पीर मोहम्मद अगर सिंक में किचन के जूठे बरतन देखता तो उसे साफ कर देता था. चाय भी बना कर पी लेता था. आज जब निशा नहीं आई थी तो वह समझ गया था कि कुछ काम होगा उसे, क्योंकि निशा ने उन्हें बता दिया था कि वह बबलू को पार्क में ले जा रही है. निशा एक जिम्मेदार औरत है.

दरअसल, वह अपनी उम्र से ज्यादा समझदार हो गई थी. शादी कर के आई तो उस के कम खर्चे को ले कर पीर मोहम्मद अकसर दुखी भी हो जाता था. जब कभी दोनों बाजार जाते तो वह अपने लिए कुछ न खरीदती. पीर मोहम्मद उसे बारबार कहता कि कुछ तो खरीद लो, लेकिन वह नहीं खरीदती. पीर मोहम्मद को अंदर से रोने जैसा भाव हो जाता था.

निशा ने उसे देख कर कहा,”कब आए?”

“थोड़ी देर हुआ है. क्यों बबलू, आज तो मजा आया होगा?”

निशा ने कहा, “आप ने कुछ लिया?”

“हां, चाय बनाई थी, लेकिन तुम तो जानती हो कि तुम्हारे हाथ की चाय पीए बगैर लगता ही नहीं है कि चाय पी है.”

निशा और पीर मोहम्मद का विवाह अरैंज्ड से लव मैरिज बन गया था. जब दोनों की शादी की बात चली तो दोनों ने एकदूसरे से मिले बगैर ही शादी कर ली. पीर मोहम्मद और निशा का एकदूसरे से फोन पर बातचीत से ही बहुत लगाव हो गया था. इतना लगाव कि उन्होंने एकदूसरे को देखना भी मुनासिब नहीं समझा था. पीर मोहम्मद के साथ रहतेरहते निशा के सालों गुजर गए थे. इन वर्षों में निशा ने पीर मोहम्मद से कुछ डिमांड न की, क्योंकि वह पीर मोहम्मद की माली हालात को अच्छी तरह समझती थी. दूसरी तरफ वह बहुत संकोची थी. उसे लगता कि कोई उस बात को बोल न दे. कोई ताना न मार दे. वह किसी बात को ले कर गंभीर हो जाती है. वह किसी भी बात को बहुत जल्दी दिल पर लगा लेती. बहुत संवेदनशील रहती थी वह.
साल 2 साल में कभी कपड़े खरीद लिए नहीं तो कोई डिमांड नहीं. कहीं घूमना भी नहीं जाना होता.

निशा को याद है जब उस की शादी हुई थी, तो पीर मोहम्मद ने कहा था कि वह उसे आगरा ले कर जाएगा, लेकिन उस के पास इतने पैसे ही नहीं हुए कि ले कर जाए. 3 महीने बाद वह अपने मायके चली गई थी. जब वापस आई तो 1 साल के बाद पीर मोहम्मद उसे घुमाने ले गया था. उस समय निशा 2 महीने से पेट से थी. पीर मोहम्मद दहेज तो नहीं लेना चाहता था, लेकिन सामाजिक रूढ़ियों में वह दवाब में आ गया था. उस के अंदर भी कुछ दहेज को ले कर एक लालच समा गया था था फिर भी अपनी तरफ से कुछ भी डिमांड नहीं कर सका. लेकिन शादी के बाद उस ने निशा के मातापिता को सरेआम बेइज्जत किया, पारिवारिक व सामाजिक रूढ़ियों के दबाव में क्योंकि कोई कितना भी आदर्शवादी बने, लेकिन इस व्यवस्था से निकलना मुश्किल हो जाता है. ऐसा नहीं है कि लोग नहीं निकले हैं. पीर मोहम्मद परिवर्तनवादी प्रक्रिया में जरूर था. सब से बड़ी बात तो यह थी कि उस ने कुछ मांगा भी नहीं था, लेकिन घर वालों की तानाकशी के प्रभाव में आ ही गया था. लेकिन वह एक अच्छा इंसान है जो केयर तो करता है लेकिन उस में व्यक्ति को पहचानने की समझ नहीं. वह निशा से कहता कि किसी चीज की आवश्यकता है तो उसे कह दे. लेकिन निशा कहती कि जैसे मैं आप की दिल की बात समझ जाती हूं तो आप क्यों नहीं समझ पाते? यह दोनों का बहुत बड़ा विरोधाभाष लगता है.

शादी के बाद बाद वे 2-3 बार ही लोकल घूमने गए थे. इतने सालों में वे पीर मोहम्मद के साथ 2 बार ही सिनेमा देखने गई थी. लेकिन निशा पीर मोहम्मद को बहुत प्यार करती थी जबकि पीर मोहम्मद उस से उतना प्यार नहीं करता था. लेकिन वह उस के बगैर रह भी नहीं सकता था. जब निशा उस से नाराज हो जाती या बात करना बंद कर देती तब पीर मोहम्मद बैचन हो जाता.

प्यार बिलकुल अंधा होता है, जो व्यक्ति उस के अंदर उस में समाहित हो जाता है उस से निकलना एक सच्चे और संवेदनशील व्यक्ति के लिए बहुत मुश्किल होता है. शादी से पहले एक बार फोन पर पीर मोहम्मद ने निशा से कहा था, “इस बार जब तुम्हारे पापामम्मी आए तो अपना फोटो जरूर भेज देना.”

लेकिन जब उस के मम्मीपापा आए, तो फोटो नहीं ले कर आए थे. इस पर पीर मोहम्मद ने निशा से अपनी नाराजगी जाहिर की थी. सच्चा प्यार वही कर सकता है, जो संवेदनशील है. देश, अपने और समाज के प्रति इस के विपरीत कोई नहीं. प्यार किसी की जान नहीं लेता. प्यार न ही किसी के शरीर का भूखा होता है. प्यार तो समर्पण है एकदूसरे के लिए. प्यार किसी के प्रति इर्ष्या भी नहीं है. अगर कोई किसी को प्यार करता तो वह उस को दुख नहीं दे सकता. न उस को हानि पहुंचा सकता है. प्यार किसी का रूपरंग भी नहीं देखता है, लेकिन इस को जीवन में ढाल लेना ही जीवन को समझ लेना होता है. इसी प्रकार समाज और देश है. इस के प्रति सच्चा समर्पण किसी व्यक्ति को किसी भी स्तर से दुखी न करना है.

लेकिन जब शादी में पीर मोहम्मद ने निशा को पहली बार देखा तो उसे लगा कि कैसी लड़की से शादी हो रही है, इस के तो सिर के बाल झङ गए हैं. निशा अपने बालों को सामने से ढंक कर रखती थी, जोकि उस पर बहुत भद्दा लगता था. शुरू में निशा में पीर मोहम्मद को कुछ विशेष आकर्षण नहीं दिखा था. लेकिन वह कुछ कर नहीं सकता था क्योंकि शादी हो चुकी थी. अब वह उस के बंधन में बंध चुका था, अगर वह उस को पहले देख लेता तो शायद शादी न करता. लेकिन वह उस से बेहद प्रेम करने लगा था, निशा उस से ज्यादा प्रेम करती थी.

पीर मोहम्मद को स्त्रियों के घने बाल बहुत अच्छे लगते थे. अपनी शादी के बाद वह सोचता है चि क्या उपाय करें, जिस से निशा के बाल घने हो जाएं. तब वस बाजार से अपनी हैसियत के अनुसार बाल घने और गंजापन दूर करने के लिए तरहतरह के तेल खरीद कर लाने लगा. उस के सिर पर मलिश भी करता. वह मालिश करता तो निशा को बुरा लगता था. लेकिन पीर मोहम्मद ने उसे बता दिया था कि उसे घने बाल अच्छे लगते हैं और छोटे बौब कट जैसे.

एक बात और थी कि पीर मोहम्मद भी कोई बहुत विशेष न था. लेकिन समाज हमेशा सुंदर बहू की कामना करता है चाहे लड़का कैसा भी हो. लेकिन निशा दब्बू लड़की नहीं थी. यह चाहत तो पीर मोहम्मद में थी. पर निशा सुंदर थी. दूसरी बात यह भी थी कि निशा उसे बहुत खराखरा सुना भी देती थी, उस के फुजूलखर्ची जोकि वह नहीं करता था लेकिन अनावश्यक कोई सामान मंगा ले आना. अपने खर्चे को ताक पर रख कर दूसरों को दे देना. पीर मोहम्मद दिखावटी भी था.

एक दिन निशा ने उस से कहा,”तुम्हारे साथ इतने वर्ष हो गए कभी कुछ डिमांड न की. क्या तुम बच्चे की ख्वाहिश भी पूरी नहीं कर सकते हो?”

लेकिन अब दोनों की स्थितियां बदल चुकी थीं. अब पीर मोहम्मद के पास पहले से बेहतर नौकरी थी. पीर अब 40 का हो गया था और निशा 34 की, लेकिन सचाई तो यह भी थी कि निशा ने उस के साथ बहुत समझौता किया था. पीर मोहम्मद एक अच्छा इंसान तो था लेकिन उस में शुरूशुरू में मेल ईगो भी था, कुछ घमंडी भी, जबकि उस के पास कुछ न था. पर उस ने अपने मेल ईगो धीरेधीरे समाप्त कर लिया.

निशा जब पार्क से आई, तो बबलू को ले कर बाथरूम में चली गई थी, क्योंकि भारत में जब से कोरोना फैला, लोगों में एक दूरी सी बन गई. अब सोशल डिस्टैंस ज्यादा ही हो गया है. हाथ धोना, मुंह धोना, कपड़े बदलना… खासकर बाहर से आने के बाद तो यह एक नियमित दिनचर्या है. निशा सोचती कि क्या यह सामाजिक दूरी पहले कम थी, जो कोरोना की आड़ में और ज्यादा हुई है? मुसलमानों से मिलनेजुलने में खासतौर पर शहरी वर्ग में एक संशय पहले ही था जो अब ज्यादा बढ़ गया है. सीएए और एनसीआर के विरोध के बाद खासतौर पर मुसलिम मोहल्लों को मुल्क विरोधी गतिविधियों के तौर पर जानना कुछ लोगों की मनोस्थिति थी जबकि कोरोना को रोकने का उपाय सरकार ढूंढ़ नहीं पा रही थी.

जल्दीजल्दी बबलू के हाथमुंह धो कर बाथरूम से निशा ने उसे बाहर भेज दिया था और पीर मोहम्मद ने उसे दूसरे कपड़े पहना दिए थे. अब बबलू उस के साथ खेलने लगा था.

कुछ देर के बाद निशा पीर मोहम्मद के लिए चाय ले कर आई. वह बबलू के साथ खेल रहा था. बबलू को दूध और कुछ बिस्कुट दिए थे. दोनों चाय पीने लगे, तब निशा ने पीर मोहम्मद को पार्क वाली घटना बताई कि बबलू कैसे गुम हो गया था, गुम क्या उस की शरारत थी.

एक आदमी ने मदद की, सहयोग किया खोजने में. इस पर पीर मोहम्मद गुस्सा हुआ, लेकिन जल्दी ही शांत हो गया क्योंकि वह जानता था कि उस का गुस्सा निशा के सामने नहीं चल सकता. चलेगा तो उसे ही सौरी बोलना पड़ेगा नहीं तो निशा गुमशुम हो जाएगी. घर का सब काम करेगी लेकिन उस से पहले जैसा व्यवहार नहीं करेगी. निशा ने अपने को पहले से बहुत बदल लिया है फिर पीर मोहम्मद उस को समझ ही चुका था.

उस ने कहा “देखो यार, नया शहर है, हम किसी को ज्यादा जानते नहीं हैं. तुम ने मुझे फोन क्यों नहीं किया?”

निशा ने कहा, “मैं काफी डर गई थी और कुछ समझ ही नहीं आ रहा था.”

“चलो, कोई बात नहीं, अब खुश हो जाओ. क्या नाम था उस आदमी का?”

“सरफराज खान….”

“छुट्टी वाले दिन उस को खाने पर बुलाना. मेरे पास तो उस का फोन नंबर भी नहीं है,” पीर मोहम्मद ने कहा.

2 दिन के बाद सरफराज ने निशा को फोन किया और मिलने की इच्छा जाहिर की. निशा संकोच करते हुए उसे टाल न सकी, क्योंकि उस दिन का एहसान था. निशा ने उसे अगले दिन मिलने की बात कही. कहा कि वह सुबह बच्चे को स्कूल वैन तक छोड़ने आती है, उस के बाद मिलेगी. क्योंकि वह भी सैक्टर-बी में ही रहता था. निशा बबलू को छोड़ने के बाद उस से मिली. सरफराज बहुत खुश हुआ और वह उस के लिए चाय बना कर भी लाया. निशा ने देखा कि उस के फ्लैट में बहुत सी पैंटिंग थी. निशा ने पूछा,”क्या आप आर्टिस्ट हैं?”

उस ने कहा,”जी, पहले मैं विदेश में रहता था अब फिर कुछ वर्षों से यहां हूं. वहां कुछ व्यापर भी करता था. उस ने निशा की भी पैंटिंग दिखाई जो उस ने बनाई थी, जब उस के आंखों में आंसू आ गए थे जो बहुत आकर्षित कर रह था. निशा की बड़ीबड़ी आंखें जो बिलकुल दूध की भांति सफेद दिखती थी, अपनी सचाई को बखान कर रही थी. निशा ने जब वे पैंटिंग्स देखी तो बहुत ज्यादा खुश हुई.

निशा ने उस से पूछा,’यह कब की पैंटिंग हैं?”

उस ने कहा,”जब आप बबलू को खोज रही थीं और आप के आंखों में आंसू थे तब मैं ने फोटो लिया था.”

निशा ने कहा,”आप ने कब फोटो ले ली.”

उस ने कहा, “उसी शाम को. हम तो कलाकार हैं, चेहरा देख कर याद कर लेते हैं फिर भी फोटो ले लेते हैं ताकि कुछ गलत न हो. मैं एक फोटोग्राफर भी हूं.”

निशा ने कल्पना भी न की थी कि कोई व्यक्ति उस की इतनी अच्छी पैंटिंग बनाएगा. अब चाय खत्म हो चुकी थी.

सरफराज ने पूछा,”चाय कैसी लगी?”

निशा ने कहा, “पैंटिंग के मुकाबले तो बिलकुल रद्दी थी. सही बता रही हूं. मैं झूठी तारीफ नहीं करती.”

“फिर तो आप की हाथ की चाय पीनी पड़ेगी.”

“क्यों नहीं?”

“कभी हमारे घर आएं. पीर मोहम्मद भी आप से मिलना चाहते हैं?”

“लेकिन मुझे तो अभी पीनी है. प्लीज…प्लीज…”

निशा ने समय देखा, अभी सुबह के 9 बजे थे. बबलू की स्कूल वैन तो दोपहर 1 बजे आती है. सरफराज के आग्रह में बहुत आकर्षण था. उस में एक अनुरोध था, निशा मना नहीं कर पाई.

निशा को लगा कि यह ऐसे कह रहा है जैसे कल यह यहां नहीं होगा. निशा ने उस से पूछा, “आप अकेले रहते हैं?”

उस ने कहा, “जी, अब कोई नहीं करीबी हैं, मगर नाम के.”

निशा ने उस की ओर देखा. उस ने कहा,” चलिए, मैं आप को अपना किचन दिखता हूं,” फिर उस ने निशा को दूध, चीनी और चायपत्ती दी.

निशा ने उस से कहा, “आप के पास अदरक नहीं है क्या?”

उस ने कहा,”नहीं.”

“अदरक से स्वाद बढ़ जाता है,” निशा ने कहा.

चाय पीने के बाद सरफराज ने कहा,”अद्भुत, ऐसी चाय मैं ने अपने जीवन में आज तक नहीं पी है.”

निशा ने सरफराज से कहा, “कोरोना महामारी के पहले वर्ष हम दिल्ली में थे. बहुत बुरा दौर था. सब्जी वाले, फल वाले गलीगली भटकते थे. पीर मोहम्मद बगैर राशनकार्ड धारक जोकि राशन कूपन प्राप्त करने की प्रतीक्षा में रहते, उन्हें राशन दिलाने में लगे रहते थे. बहुत चिंतित रहते थे कि उन्हें कैसे राशन मिले?”

सरफराज ने कहा,”जी, यहां भी यही हाल था. पुलिस वाले सब्जी बाजार और थोक मंडी में लोगों को पीटते. उस दौरान मैं ने बहुत सी फोटो ली हैं. लोगों की कुछ सहायता की. लेकिन सरकार नाकाम दिखी. इस सैक्टर-बी कालोनी को जब आप पार करेंगी तो एक लेबर चौक है, वहां के दिहाड़ी मजदूर बदहाल एवं परेशान थे. सस्ती दरों में सब्जी भी बिक रही थी. कुछ राशन दुकानदार फायदा भी उठा रहे थे. इस महामारी में गरीब ज्यादा परेशान और बदहाल था, दूसरी तरफ भक्त कह रहे थे सरकार सभी जमातियों के पिछवाड़े को लाल कर देगी. खैर, सब मुद्दों को छोङ कर, जनता थाली उत्सव के बाद, कोरोना दीपोत्सव…”

निशा ने कहा, “क्या मूर्खता चरम पर नहीं पहुंच गई है? लेकिन सरकार संविदा में कार्यरत लोग, बेरोजगार दिव्यांग और दृष्टिबाधितों के लिए कुछ नहीं करती दिखी. बहुत से लोगों के हिसाब से कोरोना वायरस, मुसलिम आतंकवादियों ने भारत के खिलाफ एक साजिश रची थी, जो हिंदुओं को खत्म कर देना चाहते थे और भारत में तबाही फैलाना चाहते थे. इसलिए उन का मानना था कि उन्हें मुसलमानों से संपर्क नहीं रखना चाहिए. ऐसी बातें गांवों, कसबों में सांप्रदायिक तत्त्वों द्वारा फैलाई जा रही थीं, जिस सें मीडिया ने अहम भूमिका अदा की थी.”

एक दिन लोकल मार्केट में पीर मोहम्मद और निशा की मुलाकात सरफराज से हुई. निशा ने पीर मोहम्मद को बताया कि यही हैं सरफराज, जो उस दिन बबलू को खोजने में मदद की थी.”

तभी पीर मोहम्मद ने कहा,”कल रविवार है. शाम को आइए न खाना साथ खाएं.”

रविवार को सरफराज निशा के घर पर आया. पीर मोहम्मद ने उस का खुले दिल से स्वागत किया. उस ने पीर मोहम्मद को बताया कि यह शहर उस के लिए पुराना है, लेकिन मैं अब बिलकुल अकेला रह गया हूं. हमारा घर इसी शहर में था और दशकों पहले मम्मीपापा का इंतकाल हो चुका है. कुछ रिलेटिव हैं, लेकिन वे दूरदूर रहते हैं. कुछ दूसरे शहर में हैं. पहले मैं कनाडा में रहता था, अब यही हूं. वहां से आने के बाद ही मैं ने यहां फ्लैट लिया था. जब से यहां हूं नहीं तो कुछ दिनों में ही बहुत दूर चला जाऊंगा.”

पीर मोहम्मद ने पूछा,”मतलब कहां?”

“कनाडा, और कहां…”

उस रोज सरफराज निशा की पैंटिंग भी ले कर आया था, जिसे देख कर पीर मोहम्मद भी बहुत खुश हुआ,”अरे जनाब, आप तो मकबूल फिदा हुसैन जैसे कलाकार हैं. क्या पैंटिंग बनाई है. इस में जीवंतता है. ऐसा लगता है कि कब बोल पड़ेगी पैंटिंग.”

इस के बाद सरफराज जब भी उधर से गुजरता वह उस से मिल लेता था.
निशा बबलू को जब स्कूल छोड़ने जाती तो सरफराज फोन कर देता. निशा उस के घर चली जाती. जब निशा सरफराज के घर जाती तो उस की डिमांड रहती की चाय बना कर पिला दे. अब तो सरफराज ने अदरक भी खरीद कर रख ली थी.

निशा सोचती कि आखिर वह उस की बात मना क्यों नहीं कर पाती है. निशा के न मना करने का कारण यह भी था कि सरफराज छोटी उम्र में ही अनाथ हो चुका था. दूसरी बात यह भी थी कि निशा को उस से कुछ लगाव सा हो गया था. कोई था ही नहीं उस का इस दुनिया में जिस से वह अपने दिल की बात कह सके.

निशा जब उस के घर जाती तो वह कुछ नई पैंटिंग्स दिखाता. कुछ फोटो दिखाता. उस रोज निशा को जब उस ने फोन किया और घर आने की बात कही तो निशा ने मना कर दिया था. निशा ने उस से कहा था कि दूसरे दिन देखेगी. मगर फिर दूसरे दिन निशा उस के घर गई.

सरफराज ने अपनी आदतानुसार चाय पीने की ख्वाहिश जाहिर की. निशा जब चाय बना कर लाई तो उस रोज सरफराज ने उस को उपहारस्वरूप झुमके देने की ख्वाहिश जाहिर की. निशा ने कहा कि यह क्या है? इस का मतलब यह नहीं है कि मैं आप को चाय बना कर दे रही हूं या आप से बात कर ले रही हूं, तो आप मुझे यह सब देंगे. लेकिन वह बहुत रिक्वैस्ट करने लगा कि उसे पहन ले. यह उस की आखिरी इच्छा है.

निशा ने कहा,”मैं इसे नहीं लूंगी लेकिन पहन लेती हूं, आप की खुशी के लिए. वैसे, आप की आखिरी इच्छा क्या है?”

सरफराज बोला,”यही कि कलपरसों मैं कनाडा जा सकता हूं.”

निशा को उस के इस व्यवहार से बहुत आश्चर्य हो रहा था और अपनेआप पर गुस्सा भी. पर सरफराज का अनुरोध वह टाल न पाई थी.

जब निशा वे झुमके पहन कर आई तो सरफराज बहुत खुश दिख रहा था, जैसे उस की अंतिम इच्छा पूरी हो गई हो. वे झुमके निशा पर बहुत खिल रहे थे.

निशा ने सरफराज से कहा, “खुश…”

वह चाहता था कि वह निशा की फोटो इस झुमके के साथ बनाए. इस के लिए उस ने निशा की फोटो ली. निशा का रंग सावंला जरूर था, लेकिन चेहरे पर बहुत चमक और तेज था. लगता ही नहीं था कि निशा एक बच्चे की मां है.

निशा ने पूछा,”आप मेरी फोटो क्यों बनाना चाहते हैं? अरे आप अभी तो जवान हैं, शादी क्यों नहीं कर लेते? मैं आप के लिए कोई अच्छी सी लड़की देखती हूं.”

सरफराज ने कहा,”नहीं, अब बहुत देर हो चुकी है. मतलब कि अब कौन शादी करेगा?”

झुमके के संदर्भ में निशा झेंप जरूर गई थी. उसे कुछ समझ नहीं आया था कि आखिर यह है क्या? दोस्ती का अर्थ यह तो नहीं होता. लेकिन दोस्ती का अर्थ बहुत कुछ भी होता है.
निशा ने कहा,”अब मुझे चलना चाहिए,” वह झुमके निकालने के लिए हाथ ऊपर उठाई तो सरफराज ने कहा,”नहीं, यह आप के लिए ही हैं.”

“क्यों?”

“आप अच्छी लगती हैं मुझे,” सरफराज ने कहा.

सरफराज ने कहा,”एक बात कहूं, आप बुरा तो नहीं मानोगी?”

“क्या?”

“मुझे आप से प्यार हो गया है, पता ही नहीं चला आप कब दिल के करीब आ गईं? कहते हैं न कि प्यार तो प्यार है, जो किसी बंधन में नहीं बंधा होता. मुझे पता है आप शादीशुदा हैं फिर भी आप से प्यार हो गया है.”

निशा का गुस्सा फूट पड़ा,”आखिर यह क्या है? मैं जिसे केवल दोस्त समझती हूं, जिस का दुनिया में कोई नहीं है. कुछ साथ एक सहानुभूति का दे रही थी. उसे अपना समझ कर चाय बना दे रही हूं, तो इस का आशय यह नहीं होना चाहिए. आइंदा आप मुझ से न मिलें और न ही मैं आप से मिलूंगी. हद है…अजीब आदमी हैं.”

निशा उस के दरवाजे से बाहर निकल चुकी थी. वह अपने घर आ चुकी थी लेकिन उसे सरफराज से कुछ लगाव तो जरूर हो गया था. निशा ने यह बात पीर मोहम्मद को नहीं बताई. वह जानती है कि पीर मोहम्मद भले ही खुले विचारों का है फिर भी वह जानती थी कि किसी भी पुरुष को यह बुरा लगेगा क्योंकि मेल ईगो भी तो कुछ चीज होता है. लेकिन 2 रोज बाद सरफराज ने निशा को फोन किया. उस ने मिलने की इच्छा जाहिर की. उस ने कहा कि वह अब यहां से जा रहा है फिर कभी वापस नहीं आएगा.

निशा मिलने से पहले हिचकी लेकिन उस रोज गुस्से से वहां निकल आई थी, जो झुमके उस ने पहनी थी उसे वापस करना था इसलिए वह सरफराज से मिलने उस के घर जा पहुंची.

जब निशा सरफराज से मिली तो उस ने उस दिन के लिए माफी मांगी.
उस ने कहा, “क्या करे वह, उस के वश में नहीं रहा. क्या आप मुझे अपने हाथ की चाय नहीं पिलाएंगी?”

निशा ने संकोच करते हुए कहा,”आखिरी बार.”

उस ने कहा,”बिलकुल, आखिरी बार.”

निशा ने चाय बना कर सरफराज को दी. निशा ने झुमके निकाल कर उस के टेबल पर रख दिए.

उस ने कहा,”प्लीज, इसे तो ले लीजिए. एक यादगार रहेगा, जरूरी नहीं है कि अब मैं कभी मिलूंगा. निशानी के तौर पर रख लीजिए.”

निशा उस की तरफ देख रही थी. उस ने निशा के हाथ में झुमके रखे और निशा के माथे पर किस कर दिया. तभी निशा ने उसे झटका दिया. सरफराज ने फिर निशा के माथे को किस किया.

निशा को उस का किस और उस के पकड़ने में एक ऐसा आकर्षण लगा कि वह उस के कंट्रोल में कब चली गई उसे पता ही नहीं चला और वे एकदूसरे में समाहित हो गए. ऐसा लग रहा था कि वे एकदूसरे के लिए ही बने हों. जैसे निशा को एक सच्चे प्रेमी और सरफराज को एक प्रेमिका की तलाश थी. दोनों अब एकदूसरे के प्रति समर्पित दिख रहे थे.

सुबह के 12 बजने वाले थे. 1 बजे बबलू को स्कूल से भी लाना था. वह जल्द से जल्द वहां से निकली. उसे दरवाजे तक छोड़ने भी आया था सरफराज.

निशा उसे भूल नहीं पा रही थी. वह अंदर से बहुत परेशान थी, सोच रही थी कि आखिर ऐसा कैसे हो गया? निशा इस बात पर हैरान थी कि सरफराज कैसे उस की दिल की बात को समझ लेता था, जो पीर मोहम्मद आज तक न समझ सका. क्या यह आसान है एक स्त्री के लिए? वह पूरी रात सोचती रही.

3-4 दिन गुजर गए न सरफराज का फोन आया और न ही निशा ने उस को फोन किया था. चौथे दिन निशा स्वयं सरफराज के घर गई तो देखा दरवाजा बंद था. कुछ देर वह वहीं खड़ी रही. वह घंटी बजा रही थी कि तभी बगल से एक औरत आई. उस ने कहा,”सरफराजजी ने इस फ्लैट की चाबी दी थी, उन्होंने कहा था कि निशा नाम की कोई आएगी तो उन्हें यह चाबी दे देना. क्या आप का नाम निशा है?”

निशा ने कहा, “जी.”

“सरफराज कब गए कनाडा?”

उस ने कहा, “पता नहीं.”

निशा फ्लैट खोल कर सरफराज के घर में घुसी. घर में कुछ अधूरी पैंटिंग थी, उसे वहां एक खत भी मिला. लिखा था :

“अजीज निशा,

“जब खत आप को मिलेगा, शायद मैं इस दुनिया में न रहूं. आप से मिल कर जीने की चाह बढ़ गई थी, जिस से मैं कुछ महीने और जीवित रहा. मैं ने तो आप को पार्क में देखा था, आप को देख कर ही प्रेम हो गया था. आप की बड़ीबड़ी आंखें. उन आखों में सचाई, बात करने का तरीका. आप के अपनत्व ने मुझे आप की ओर आकर्षित कर दिया था. मेरा इलाज सिटी अस्पताल में चल रहा था. मैं ने आप को बताया नहीं, उस के लिए माफी. मुझे कैंसर है, अब मेरे पास समय नहीं बचा है. डाक्टर हर बार कुछ महीने का समय बताते थे. लगता है, वह समय पूरा हो गया है.”

घर आने पर निशा ने पीर मोहम्मद को अपने साथ घटित और सरफराज के साथ शारीरिक संबंध वाली बात सचाई के साथ बता दी थी. उस ने सोचा था कि पीर मोहम्मद उसे छोड़ देगा. सब सुन कर पीर मोहम्मद सिटी अस्पताल पहुंचा फिर उस के कुछ रिश्तेदारों का पता किया. फोन कर के बताया की सरफराज अब नहीं रहे. लेकिन उन्होंने अपनी असमर्थता बताई. बाद में पीर मोहम्मद ने लोकल लोगों के साथ मिल कर उस का सुपुर्देखाक करवाया. फिर वह घर आया और पहले दिन तो उस ने निशा से बात न की, दूसरे दिन कुछ देर सोचता रहा पीर मोहम्मद, फिर उस ने निशा से कहा,”चलो, कोई नहीं, इसे एक सपना समझ कर भूल जाओ. मैं तुम से बैगर बात किए रह ही नहीं सकता.”

पीर मोहम्मद ने निशा से कहा, “दूसरी तरफ जब एक पुरुष किसी औरत के साथ शारीरिक संबंध बना लेता है, किसी दूसरी महिला को प्राप्त करने के बारे में सोच सकता है या किसी के प्रति आकर्षित हो सकता है तो महिला क्यों नहीं हो सकती? मैं इसे कोई अपराध नहीं है मानता कि तुम ने कुछ गलत किया. यह तुम्हारे वश में था ही नहीं.

“एक मरते हुए व्यक्ति में प्यार की एक तड़प थी. एक बात मैं कहूं, सच में वह तुम से मुझ से कहीं अधिक प्यार करता था वह. किसी व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध बन जाना एक स्वाभाविक घटना है. यह जरूरी नहीं है कि औरत इस बंधन में बंधे. पर यह जरूर है कि तुम सरफराज को भूल जाओ, लेकिन तुम्हारा शरीर उसे कभी नहीं भूल पाएगा, ऐसा मुझे लगता है.” Family Story In Hindi 

Family Story : काश, एक बेटा होता

Family Story :  जाड़े की गुनगुनी और मखमली धूप खिड़की से सीधे कमरे में प्रवेश कर रही थी. मोहनजी खिड़की के पास खड़े धूप के साथसाथ गरम चाय की चुसकियां ले रहे थे.

तभी मां खांसती हुई कमरे में घुसीं. मोहनजी के मुसकराते और चिंतामुक्त चेहरे को देख वे बोलीं, ‘‘अरे, अब तो कुछ गंभीर हो जा. तुझे देख कर तो लगता ही नहीं कि आज तू चौथी बेटी का बाप बना है.’’

‘‘इस में गंभीर रहने की क्या बात है, मां? बाप बना हूं चौथी बार. कितनी खुशी की बात है,’’ मोहनजी मां की तरफ मुड़ कर बोले.

‘‘हां, पर बेटी का बाप, और वह भी चौथी बेटी का. इस बार तो पूरी उम्मीद थी कि पोता ही होगा. कौन से देवता के चरणों में माथा नहीं टेका. कौन सी मनौती नहीं मांगी. व्रत, दान, तीरथ, पूजापाठ, सब बेकार गया. न जाने देवीदेवता हम से क्यों नाराज हैं. हमारा खानदान न तो आगे बढ़ पाएगा और न ही मेरे लड़के को…’’ इस से पहले कि मां आगे कुछ और बोलतीं, मोहनजी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया.

वे मां पर लगभग चीखते हुए बोले, ‘‘बस, मां, बस. कड़वा बोलने की सारी हदें पार कर दीं आप ने. फिर से वही पुराना राग. पोता, पोता, पोता. तुम्हारी इन्हीं ऊलजलूल अंधविश्वासी बातों की वजह से मैं किसी भी बेटी के पैदा होने पर खुशी नहीं मना पाता. घर का माहौल खराब कर देती हैं आप इन घटिया और ओछी बातों को बारबार सुना कर. ऐसी हरकतें करने लगती हैं आप कि मानो कोई पहाड़ टूट पड़ा हो आप पर. पोता चाहिए था आप को, नहीं हुआ. पोती हुई, बात खत्म.’’  मां पर इन सब बातों का कोई फर्क नहीं पड़ा. वे और भी ऊंचे स्वर में बोलीं, ‘‘अरे, तुझे क्या? बाहर आसपड़ोस की मेरी उम्र की सारी औरतें मुझे चार बातें सुनाती हैं. सभी के एक न एक पोता जरूर है. मेरा इकलौता बेटा बेसहारा ही रहेगा. बुढ़ापे में कोई दो रोटी देने वाला भी नहीं रहेगा.’’

‘‘बस, मां, बहुत हो गया. आज कितनी खुशी का दिन है. कम से कम आज के दिन तो मेरा दिमाग खराब मत करो. और जो औरतें तुम से अनापशनाप बातें करती हैं, उन से कहना अगर उन में हिम्मत है तो आ कर मेरे सामने ये बातें कहें. मैं उन्हें उन की औकात याद दिला दूंगा. बेटियां मेरी हैं, उन्हें क्या परेशानी है? तभी बड़ी बेटी भक्ति खुशी से झूमते हुए वहां आई और चहकते हुए बोली, ‘‘दादी, मैं ने अपनी सारी फ्रैंड्स को बता दिया है कि मेरी छोटी बहन हुई है. मैं फिर से दीदी बन गई हूं.’’

‘‘हांहां, एक और भवानी आ गई है. जाओ, जा कर अपनी छाती से लगा कर भेंट लो.’’

‘‘बच्चे से ठीक से बात किया करो, मां,’’ मोहनजी चाय का कप जमीन पर फेंकते हुए बोले और भक्ति का हाथ पकड़ बड़बड़ाते हुए रागिनी के पास पहुंचे. वह कुछ घंटों पहले पैदा हुई बेटी को ले कर रो रही थी.

‘‘यह क्या, यार, रागिनी? तुम भी ना. इतनी एजुकेटेड हो फिर भी बिलकुल पिछड़ी सोच वाली होती जा रही हो. मां के बारे में तो पता था तुम्हें कि अगर बेटी हुई तो वे ऐसा ही करेंगी. तुम्हें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए था. चलो, पोंछो ये आंसू,’’ मोहनजी रागिनी का सिर सहलाते हुए बोले.

‘‘मैं जरा सी खुशी देने लायक भी नहीं रही. न मांजी को न आप को. एक बेटा तक न दे पाई आप को. मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो, रागिनी? मैं ने आज तक कभी तुम्हें ऐसा एहसास होने दिया कि मुझे बेटा ही चाहिए? मैं उन सब के मुंह पर ताला लगाऊंगा, जो हमें बेटियों के मांबाप होने का ताना कस रहे हैं. एक दिन ये सभी अपने कहे पर पछताएंगे. तुम देखना. मैं अपनी बेटियों को शिक्षा, संस्कार, व्यवहार में खूब काबिल बनाऊंगा. पड़ोसी, रिश्तेदार, जो तुम्हें बेटी होने पर ताने देते हैं, वे कल हमारी बेटियों के नाम की मिसालें देंगे.’’

‘‘सच कह रहे हैं आप?’’ रागिनी आंसू पोंछती हुई बोली.

‘‘हां, रागिनी.’’

‘‘अच्छा, इस का कोई नाम सोचा है आप ने?’’

‘‘हां, वह तो इस के पैदा होने के पहले ही सोच लिया था.’’

‘‘अच्छा, क्या नाम सोचा है आप ने?’’

‘‘रीति. अच्छा नाम है न? चारों बेटियों का नाम एकजैसा-भक्ति, दीप्ति, नीति और रीति. कहो, कैसा लगा?’’

‘‘बहुत अच्छा है,’’ कह कर रागिनी मोहनजी से लिपट गई.

समय तेजी से बीत रहा था. मोहनजी और रागिनी अपनी बच्चियों को लाड़प्यार से पाल रहे थे. चारों बहनों में हमेशा लड़ाई होती रहती कि मम्मीपापा को अपने पास कौन रखेगा. भक्ति कहती, ‘मैं बड़ी हूं, इस नाते मम्मीपापा की जिम्मेदारी मेरी होगी. बुढ़ापे में मैं उन का सहारा बनूंगी. तुम तीनों अपने काम से काम रखना. समझीं?’ इस पर दीप्ति, नीति और रीति तीनों एकसाथ बड़ी बहन पर चिल्ला उठतीं, ‘मम्मीपापा सिर्फ तुम्हारे ही हैं क्या?’ अकसर चारों बहनें इसी बात पर झगड़ा करती रहतीं. मोहनजी इस समस्या का समाधान निकालते हुए कहते, ‘झगड़ा मत किया करो. हम दोनों तुम चारों के ससुराल में 3-3 महीने रहेंगे. न किसी के यहां ज्यादा न किसी के यहां कम. अब ठीक है न?’ तब चारों बोलतीं, ‘हां, अब ठीक है.’

मोहनजी और रागिनी को चारों बेटियों को अपने लिए आपस में लड़ता देख अपार सुख मिलता. मोहनजी ने अपनी मां से पूछा, ‘‘क्यों मां? क्या तुम ने कभी कहीं बेटों को भी यों आपस में लड़ते देखा है? अगर वे लड़ते भी हैं तो सिर्फ अपने लिए, अपने मांबाप के लिए नहीं.’’

मां गहरी सांस लेती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, देखा तो नहीं है पर ऊंट किस करवट बैठेगा, यह अभी पता नहीं. जिंदगी कब कहां किस मोड़ पर ले जाए, पता नहीं. बेटा, तुझे खुश देख कर तसल्ली हो रही है. मैं तो चाहूंगी कि जो इन बेटियों के मुंह से निकल रहा है, वही हो. मैं तो बस यही चाहती हूं कि मरने के बाद भी मैं तुम्हें खुश देख सकूं. पर याद रखना बेटा, घने अंधेरे में अपना साया भी साथ छोड़ देता है.’’

कुछ समय बाद ही मां अपने दिल में पोता खिलाने का अरमान लिए इस दुनिया से चल बसीं. चौथी बेटी रीति को ससुराल विदा करने के बाद रागिनी भी कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी से लंबे समय तक जूझने के बाद मोहनजी को हमेशा के लिए अलविदा कह गई. चारों बेटियों की शादी में घरगृहस्थी के सामान, गहने सबकुछ चले गए. बचपन में किए गए अपने वादे के मुताबिक, भक्ति ने अपने पापा को अपने पास बुला लिया. पर अपनी सास और जेठानी के रोजरोज के तानों के कारण उस ने पिता के सामने अपने हाथ खड़े कर दिए.

एक सुबह सास का कर्कश स्वर मोहनजी के कानों में पड़ा, ‘‘कैसेकैसे बेहया लोग पड़े हैं इस दुनिया में. एक बार कहीं पांव जमा लेंगे तो आगे बढ़ने का नाम नहीं लेंगे. अरे, मेहमान को मेहमान की तरह रहना चाहिए. आए, 2-4 दिन रहे, खायापिया और चले गए तो ठीक लगता है.’’

सास की राह पर भक्ति की जेठानी ने भी उन के सुर में सुर मिला कर कहा, ‘‘पता नहीं मांजी, कैसे लोग बेटियों के ससुराल में रह कर सुबहशाम का निवाला ठूंसते हैं? मेरे भी पापा आते हैं. चायनाश्ता ही कितने संकोच से करते हैं. वे तो कहते हैं कि मेरे लिए बेटी की ससुराल का पानी पीना भी पाप है. अगर कुछ खापी लेते हैं तो उस का दस गुना दे कर जाते हैं. कपड़े हों, पैसे या गहने, छक कर देते हैं. मेरे पापा को कभी मेरे यहां इस तरह रहने की नौबत आएगी तो उस से पहले वे चुल्लूभर पानी में डूब मरेंगे.’’

मोहनजी अपमान और उपेक्षा से तड़प उठे. सामने भक्ति आंखों में आंसू भरे खड़ी थी. उस के हाथ में पापा का बैग था. वह बैग मोहनजी को पकड़ाते हुए बोली, ‘‘पापा, अब मुझ से आप की यह बेइज्जती नहीं देखी जाती. हर दिन, हर रात मैं घुट और तड़प रही हूं. ये लोग मुझे गालियां और ताने दें, मैं बरदाश्त कर लूंगी पर आप का अपमान नहीं सहा जाएगा. मैं ने दीप्ति को फोन कर दिया है. आप उस के यहां चले जाइए.’’

मोहनजी ने अपने हाथ में बैग ले कर भक्ति के सिर पर हाथ फेरते हुए, ‘सदा खुश रहो’ कहा और तेजी से बाहर निकल गए.

दीप्ति के घर पहुंचने पर उन्हें लगा कि मानो यहां भूचाल आ गया हो. दीप्ति के ससुर चिडि़यों को चावल के दाने डाल रहे थे. उस की सास रसोई से ही चिल्लाती हुई बोलीं, ‘‘चावल कितना महंगा है, पता भी है आप को? कहीं से कोई ऐक्स्ट्रा कमाई नहीं है. महंगाई दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. एकएक पैसा छाती से लगा कर रखना पड़ता है. इतनी भी हैसियत नहीं कि कामवाली लगवा सकूं. सारा काम खुद ही करना पड़ता है. बहू भी आई है ऐसी कि एकदम निकम्मी, कामचोर. बस, दिनभर बकरियों की तरह खाती है और अजगर की तरह सोती है,’’ फिर कुछ बड़बड़ाती हुई दीप्ति की सास रसोई से बाहर आईं. घर के दरवाजे के सामने मोहनजी को देख ठिठक गईं, ‘‘अरे, भाईसाहब, आप? आइए न अंदर. वहां क्यों खड़े हैं? देखिए न आप के समधी को केवल शाहखर्ची ही सूझती है. मैं एकएक पैसा बचाने के लिए रातदिन एक किए रहती हूं, और ये हैं, केवल लुटाते रहते हैं. हमारी हालत तो ऐसी है भाईसाहब कि अगर इस समय कहीं से कोई मेहमान आ कर टिक गया तो हमें खाने के लाले पड़ जाएंगे.’’

मोहनजी अवाक्. उन्हें लगा मानो किसी ने उन के गाल पर करारा तमाचा मारा हो. चायपानी पूछने के बजाय दीप्ति की सास ने सीधेसीधे मोहनजी से पूछा, ‘‘वैसे कितने दिनों तक रहेंगे आप यहां? व्यवस्था करनी पड़ेगी न?’’

मोहनजी घबरा उठे, कांपते स्वर में बोले, ‘‘नहींनहीं, समधनजी, मैं यहां रुकने थोड़े ही आया हूं. भक्ति के यहां से आ रहा था, सोचा, दीप्ति के भी हालचाल लेता चलूं.’’

‘‘अच्छाअच्छा,’’ कह कर उन्होंने सुकूनभरी सांस ली. अब उन की बातों में नरमी आ गई. उन्होंने दीप्ति से कहा, ‘‘देखो बेटा, तुम्हारे पापा आधे एक घंटे के लिए आए हैं. चायपानी, नाश्ता अच्छे से करा देना. चाहें तो खाना भी पैक कर देना. अच्छा भाईसाहब, मैं चलती हूं, बहुत काम पड़ा है. आप थोड़ी ही देर के लिए आए हैं. बेटी से मिल लीजिए. मैं क्यों फालतू की बातों में आप का समय बरबाद करूं,’’ हंसती हुई वे वहां से निकल गईं.

‘कितनी जहरीली हंसी है इस औरत की. दीप्ति की सास भी भक्ति की सास की तरह तेजतर्रार है. बड़ी बदतमीज औरत है. हमेशा काट खाने को तैयार. न जाने कैसे रहती है मेरी बेटी इस के साथ? बेचारी पूरे दिन चकरघिन्नी की तरह नाचती है. पूरे घर का काम करती है. कैसी स्वस्थ, हट्टीकट्टी बेटी विदा की थी मैं ने, आज केवल हड्डियों का ढांचा रह गई है.’

मोहनजी मन ही मन सोच रहे थे. दीप्ति पानी लिए पिता के पास आई. उस की आंखें सूखी थीं. मोहनजी की आंखें भर आईं. वे बोले, ‘‘कुछ नहीं लूंगा, बेटा. बस, तुम्हें देखने आया था, देख लिया. अब चलता हूं.’’

उन के निकलते ही दरवाजा तेजी से बंद करने की आवाज आई. शायद उस की सास ने बंद किया होगा. ‘बदतमीज औरत’ कह कर मोहनजी बोझिल कदमों  से आगे बढ़ गए. रात एक धर्मशाला में जैसेतैसे बिताने के बाद वे अगले दिन सुबहसुबह ही बिना किसी पूर्व सूचना के तीसरी बेटी नीति के यहां पहुंच गए. बड़ी चहलपहल थी वहां. लोग कहीं निकलने की तैयारी कर रहे थे. पापा को यों अचानक देख नीति हैरान रह गई. उस ने दौड़ कर पापा का हाथ पकड़ा और लगभग खींचती हुई अपने कमरे में ले गई.

‘‘पापा, आप यहां? इस तरह कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस बेटा, ऐसे ही आने का प्रोग्राम बन गया. सोचा, चल के कुछ दिन तुम्हारे यहां रह लूं. तुम लोग कहीं जा रहे हो क्या?’’

‘‘हां पापा, हम लोग आज ही अमेरिका जाने के लिए निकल रहे हैं. 3 घंटे बाद की फ्लाइट है. मेरी ननद की शादी है. लड़का एनआरआई है. लड़के की जिद है कि शादी अमेरिका में ही हो. बस, वहीं के लिए निकल रहे हैं. आप को फोन कर के आना चाहिए था, पापा. मैं कहीं आप के ठहरने की व्यवस्था करा देती. अब आप कहां रहेंगे? हम लोग तो जा रहे हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं, बेटा. तुम लोग आराम से जाओ. एंजौय करो. मैं तुम्हारे घर में रह लूंगा और तुम्हारे घर की देखभाल भी कर लूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, ऐसा कैसे हो सकता है? इतना बड़ा घर है. एक से एक कीमती सामान है घर में. आप को पता भी है, इस घर के एकएक डैकोरेटिव आइटम 50-50 हजार रुपए के हैं. और ये जो पेंटिंग देख रहे हैं आप, लाखों की है. सौरभ इन्हें अपने हाथों से साफ करते हैं. किसी और मैंबर को छूने भी नहीं देते. वैसे भी यहां चोरीचकारी अकसर होती हैं. और आप ठहरे बूढ़े इंसान. क्या कर पाएंगे? आप को तो मारेंगे ही, घर के सारे सामान चोरी हुए तो करोड़ों गए. घर बंद कर के जाने में ही भलाई है. यहां के चोर लूटपाट तो करते ही हैं, जान भी ले लेते हैं. और वैसे भी हम लोग 3 महीने बाद लौट ही रहे हैं. तब तक आप अपनी व्यवस्था कहीं और कर लीजिए. चाहें तो रीति के यहां रह लीजिए. मैं वापस लौटते ही आप को अपने पास बुला लूंगी.’’

मोहनजी का सिर घूम गया. यह वही नीति है, जो सब से ज्यादा मम्मीपापा के लिए लड़ती थी. ससुराल में सब से बड़ा वाला कमरा मैं मम्मीपापा को दूंगी. सासससुर को घर से निकाल दूंगी पर पापामम्मी को कहीं नहीं जाने दूंगी. और आज पापा से कहीं ज्यादा कीमती घर और घर के निर्जीव सामान हैं. इसी नीति की शादी में घर गिरवी रख दिया था. किसी कीमत पर इंजीनियर लड़के को अपना दामाद बनाना चाहते थे, चाहे कितना भी दहेज देना पड़े. थके और लड़खड़ाते कदमों से वे बाहर आ गए. बड़ी उम्मीद और आशा के साथ वे रीति के घर पहुंचे. कम से कम उन्हें यहां तो एक कोने में जगह मिल जाएगी. उन की सब से छोटी बेटी, सब से लाड़ली बेटी, उन्हें निराश तो नहीं करेगी.

‘‘पापा, आप को जब तक यहां रहना है, रह सकते हैं. पर आप के रहते विवेक यहां नहीं रह सकते हैं.’’

मोहनजी यह सुन कर अवाक् रह गए. उन का दिल तेजी से धड़कने लगा, ‘‘क्यों, बेटी?’’

‘‘पापा, आप ने उन का जो अपमान किया था, वे अब तक नहीं भूले हैं.’’

मोहनजी को याद आया. रीति ने प्रेमविवाह किया है, जिसे मोहनजी ने कभी स्वीकार नहीं किया था. विवेक को दामाद जैसा प्यार और सम्मान देने की बात तो दूर, कभी सीधे मुंह बात तक नहीं की थी मोहनजी ने. पत्नी रागिनी ने रिश्तेदारों और पड़ोसियों के कहने पर दोनों की शादी तो करवा दी थी पर किसी रस्म में शामिल होने से इनकार कर दिया था. मोहनजी लंबी गहरी सांस लेते हुए बोले, ‘‘नहीं, बेटा, मैं चलता हूं. मैं तुम दोनों के बीच कोई तनाव नहीं पैदा करना चाहता. पर जातेजाते एक बात जरूर पूछना चाहूंगा बेटा कि बचपन में तो तुम चारों मेरे और अपनी मां के लिए बहुत लड़ते थे कि हमें सहारा दोगे, बुढ़ापे की लाठी बनोगे, और आज तुम में से किसी में भी हिम्मत नहीं है कि अपने बाप को अपने घर में थोड़ी सी जगह दे सको?’’

रीति के मन में शायद बहुत दिनों से कोई गुबार भरा था. बिना एक पल की देर किए तपाक से थोड़े ऊंचे स्वर में बोली, ‘‘कहते तो आप भी थे हमेशा कि मैं अपनी बेटियों को कार में विदा करूंगा. बड़े घरों में जाएंगी मेरी बेटियां. रानियों की तरह ठाट से रहेंगी. क्या हुआ आप का वादा? हम ने जो कहा था वह तो बचपना था. हंसी, खेल, लड़ाई में कह गए. पर आप तो समझदार थे. जो कहते थे, वह कर पाने की हिम्मत थी आप में? सब से ज्यादा दहेज तो आप ने नीति दीदी को दिया. वह तो अच्छा हुआ कि मैं ने लवमैरिज की, वरना दीदी की तरह सासजेठानी की गालियां और ताने सुनते दिन बीतता, या फिर दीप्ति दीदी की तरह अच्छा खाने और पहनने को तरस जाती.’’

मोहनजी को मानो सांप सूंघ गया. काटो तो खून नहीं. उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा मानो पूरी दुनिया का अंधकार सिमट कर उन की आंखों के सामने आ गया हो. अच्छा हुआ रागिनी यह सब देखने से पहले ही मर गई. उन का मन किया कि फूटफूट कर रोएं, जोरजोर से चिल्लाएं. मगर यह सब करने का क्या फायदा? न तो कोई उन के आंसू पोंछने वाला है और न ही कोई उन्हें सुनने वाला.

आज उन का विश्वास झूठा साबित हुआ. बेटियों के बाप का गर्व चकनाचूर हो गया. रागिनी का रोना, मां के ताने, पड़ोसियोंरिश्तेदारों के व्यंग्य सब सच हो गए. मां ने ठीक कहा था, ‘जिंदगी कब कहां किस मोड़ पर ले जाए, पता नहीं. घने अंधेरे में अपना साया भी साथ छोड़ देता है.’ इतने वर्षों में आज पहली बार मोहनजी को बेटा न होने की कसक हुई. उन का कलेजा जैसे छलनी हो गया. आज मोहनजी झूठे साबित हो गए. आज उन्हें आभास हुआ कि वे जीवन की किस मरीचिका में जी रहे थे. उन की चारों बेटियां 4 गहरी खाइयां नजर आने लगीं. हर तरफ गहन अंधकार. जीवन का सब से दुखद अध्याय उन के सामने था. अब इस से बुरा क्या हो सकता है. उन के सामने की सारी दुनिया जैसे घूमने लगी. वे गश खा कर नीचे गिर पड़े. होश आने पर देखा, लोग उन पर पानी के छींटे मार रहे हैं. उन के चारों तरफ बड़ी भीड़ जमा है. उस में से एक ने पूछा, ‘‘अंकलजी, क्या हुआ आप को?’’

‘‘कुछ नहीं, बेटा. ऐसे ही चक्कर आ गया था.’’

‘‘कौन हैं आप? कहां जाना है आप को?’’

मोहनजी ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘मुझे किसी वृद्धाश्रम पहुंचा दे, बेटा.’’ Family Story 

Mankesh and Dogesh : सोशल मीडिया पर भेड़चाल से कुछ हटके

Mankesh and Dogesh : सोशल मीडिया पर मंकेश और डोगेश नाम के दो प्राणी इन दिनों धमाल मचाए हुए हैं. इन में एक बंदर है और एक कुत्ता. बंदर मंकेश अपने दोस्त डोगेश के साथ जगहजगह घूमता है. व्लौगिंग करता है. हंसी मजाक करता है. किसी बड़े नामी संत की तरह प्रवचन भी करता है. पहली नजर में कुत्ते और बंदर की यह जोड़ी बिलकुल असली लगती है. कमाल यह भी है कि दोनों जहांजहां घूमते हैं वो सारी जगहें भी बिलकुल असली जैसी ही लगती हैं. दरअसल यह आधुनिक तकनीक एआई का कमाल है. साथ ही, यह अजय श्रीवास्तव नाम के युवा के दिमाग़ से निकला बेजोड़ आइडिया है जो इस वक़्त पूरे देश में छाया हुआ है.

कालेज ड्रौपआउट अजय श्रीवास्तव देश के बाकी पढ़ेलिखे नौजवानों की तरह बेरोजगारी में दिन काट रहे थे तो उन्होंने सोशल मीडिया के जरिए अपने खर्चे पूरे करने का मन बनाया और सोशल मीडिया पर भेड़चाल से अलग कुछ नया और इनोवेटिव करने का मन बना लिया. एआई से वीडियो बनाने की थोड़ीबहुत समझ थी, बस, उन्होंने अपना दिमाग़ लगाया और बना दिया मंगेश और डोगेश का ऐसा कैरेक्टर जो देखते ही देखते लोगों का चहेता बन गया.

मात्र एक महीने में ही अजय श्रीवास्तव ने वह कमाल दिखाया जो वर्षों की मेहनत से भी लोग हासिल नहीं कर पाते. डोगेश और मंगेश के कई वीडियोज तो मिलियन्स व्यूज पार कर चुके हैं. कमाई भी अच्छीखासी होने लगी है. डोगेश और मंगेश के साथ इन के सृष्टिकर्ता अजय भी फेमस हुए, सो अलग.

यही है इनोवेशन की ताकत. अजय श्रीवास्तव ने यह साबित किया है की भेड़चाल से अलग कुछ नया कर दिखाने का जनून हो तो सफलता सिर चढ़ कर बोलती है. Mankesh and Dogesh

Handmade Sweaters : लुप्त होती हाथ से स्वैटर बुनने की कला, अनमोल चीजों में तनाव को दूर करने की ताकत

Handmade Sweaters : हाल ही में जब भारत और इंगलैंड के बीच टैस्ट मैच सीरीज हो रही थी तब दर्शकों में बैठी कई महिलाएं स्वैटर बुन रही थीं. बहुत सी विदेशी फिल्मों में भी बुनने की इस कला का प्रदर्शन किया जाता है. बहुतों में तो पुरुषों को भी स्वैटर बुनते दिखाया जाता है. पर भारत में यह अति लोकप्रिय कला अब मानो लुप्त हो गई है. मशीन के ऊन से बने सामान ने हाथों की होशियारी को काबू कर लिया है.

ऐसे में मुझे दिल्ली के सरोजिनी नगर इलाके में रहने वाली गुप्ता आंटी याद आती हैं जो भरी बस में किसी और के स्वैटर को हाथ से छू कर उस की बुनाई का डिजाइन चुटकियों में याद कर लिया करती थीं और घर आ कर हूबहू उसी डिजाइन का स्वैटर बुन लेती थीं. उन के हाथ में सफाई थी, ऊन का रंग संयोजन कमाल का था और सब से बड़ी बात, उस पहने हुए स्वैटर में उन के स्नेह का स्पर्श हमेशा बना रहता था.

पर आज के बाजारवाद ने हाथ के हुनर को अपना बंदी बना लिया है. जो उंगलियां पहले सलाइयों पर फिरती थीं, वे अब मोबाइल फोन की कुछ इंच की स्क्रीन पर समय जाया कर रही हैं. सोशल मीडिया पर स्वैटर बुनने की ढेरों वीडियो क्लिप मिल जाएंगी, इस के बावजूद ऊनी धागों का तानाबाना घरों से गायब हो गया है.

रिश्तों में गरमाहट रखने के लिए गुप्ता आंटी जैसों का होना बहुत जरूरी है. कभी पहन कर देखना किसी के हाथ का बुना स्वैटर. ऐसी अनमोल चीजें तनाव को ‘टाटा’ कहने की ताकत रखती हैं. Handmade Sweaters

 

Family Story In Hindi : तुम कैसी हो – आशा के पति को क्या उसकी चिंता थी?

Family Story In Hindi : एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें.

सच पूछिए तो मु झे कभी इस की जरूरत ही नहीं पड़ी. मेरा नेचर ही कुछ ऐसा है. मैं औपचारिकताओं में विश्वास नहीं रखता. पत्नी से फौर्मेलिटी, नो वे. मु झे तो यह ‘हाऊ आर यू’ पूछने वालों से भी चिढ़ है. रोज मिलते हैं. दिन में दस बार टकराएंगे, लेकिन ‘हाय… हाऊ आर यू’ बोले बगैर खाना नहीं हजम होता. अरे, अजनबी थोड़े ही हैं. मैं और आशा तो पिछले 24 सालों से साथ में हैं. एक छत के नीचे रहने वाले भला अजनबी कैसे हो सकते हैं? मेरा सबकुछ तो आशा का ही है. गाड़ी, बंगला, रुपयापैसा, जेवर मेरी फिक्सड डिपौजिट, शेयर्स, म्यूचुअल फंड, बैंक अकाउंट्स सब में तो आशा ही नौमिनी है. कोई कमी नहीं है. मु झे यकीन है आशा भी मु झ से यह अपेक्षा न रखती होगी कि मैं इस तरह का कोई फालतू सवाल उस से पूछूं. आशा तो वैसे भी हर वक्त खिलीखिली रहती है, चहकती, फुदकती रहती है.

50वां सावन छू लिया है उस ने. लेकिन आज भी वही फुरती है. वही पुराना जोश है शादी के शुरुआती दिनों वाला. निठल्ली तो वह बैठ ही नहीं सकती. काम न हो तो ढूंढ़ कर निकाल लेती है. बिजी रखती है खुद को. अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं वरना एक समय था जब वह दिनभर चकरघिन्नी बनी रहती थी. सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी उसे. गजब का टाइम मैनेजमैंट है उस का. मजाल है कभी मेरी बैड टी लेट हुई हो, बच्चों का टिफिन न बन पाया हो या कभी बच्चों की स्कूल बस छूटी हो. गरमी हो, बरसात हो या जाड़ा, वह बिना नागा किए बच्चों को बसस्टौप तक छोड़ने जाती थी. बाथरूम में मेरे अंडरवियर, बनियान टांगना, रोज टौवेल ढूंढ़ कर मेरे कंधे पर डालना और यहां तक कि बाथरूम की लाइट का स्विच भी वह ही औन करती है. औफिस के लिए निकलने से पहले टाई, रूमाल, पर्स, मोबाइल, लैपटौप आज भी टेबल पर मु झे करीने से सजा मिलता है. उसे चिंता रहती है कहीं मैं कुछ भूल न जाऊं. औफिस के लिए लेट न हो जाऊं. आलस तो आशा के सिलेबस में है ही नहीं. परफैक्ट वाइफ की परिभाषा में एकदम फिट.

कई बार मजाक में वह कह भी देती है, ‘मेरे 2 नहीं, 3 बच्चे हैं.’ आशा की सेहत? ‘टच वुड’. वह कभी बीमार नहीं पड़ी इन सालों में. सिरदर्द, कमरदर्द, आसपास भी नहीं फटके उस के. एक पैसा मैं ने उस के मैडिकल पर अभी तक खर्च नहीं किया. कभी तबीयत नासाज हुई भी तो घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाती है. दीवाली की शौपिंग के लिए निकले थे हम. आशा सामान से भरा थैला मु झे कार में रखने के लिए दे रही थी. दुकान की एक सीढ़ी वह उतर चुकी थी. दूसरी सीढ़ी पर उस ने जैसे ही पांव रखा, फिसल गई. जमीन पर कुहनी के बल गिर गई. चिल्ला उठा था मैं. ‘देख कर नहीं चल सकती. हरदम जल्दी में रहती हो.’ भीड़ जुट गई, जैसे तमाशा हो रहा हो. ‘आप डांटने में लगे हैं, पहले उसे उठाइए तो,’ भीड़ में से एक महिला आशा की ओर लपकती हुई बोली. मैं गुस्से में था. मैं ने आशा को अपना हाथ दिया ताकि वह उठ सके. आशा गफलत में थी. मैं फिर खी झ उठा, ‘आशा, सड़क पर यों तमाशा मत बनाओ. स्टैंडअप. कम औन. उठो.’ पर वह उठ न सकी. मैं खड़ा रहा. इस बीच, उस महिला ने आशा का बायां हाथ अपने कंधे पर रखा. दूसरे हाथ को आशा के कमर में डालती हुई बोली, ‘बस, बस थोड़ा उठने के लिए जोर लगाइए,’ वह खड़ी हो गई. आशा के सीधे हाथ में कोई हलचल न थी. मैं ने उस के हाथ को पकड़ने की कोशिश की.

वह दर्द के मारे चीख उठी. इतनी देर में पूरा हाथ सूज गया था उस का. ‘आप इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाएं. लगता है चोट गहरी है,’ महिला ने आशा को कस कर पकड़ लिया. मैं पार्किंग में कार लेने चला गया. पार्किंग तक जातेजाते न जाने मैं ने कितनी बार कोसा होगा आशा को. दीवाली का त्योहार सिर पर है. मैडम को अभी ही गिरना था. महिला ने कार में आशा को बिठाने में मदद की, ‘टेक केअर,’ उस ने कहा. मैं ने कार का दरवाजा धड़ाम से बंद किया. उसे थैंक्स भी नहीं कहा मैं ने. आशा पर मेरा खिसियाना जारी था, ‘और पहनो ऊंची हील की चप्पल. क्या जरूरत है इस सब स्वांग की.

जानती हो इस उम्र में हड्डी टूटी तो जुड़ना कितना मुश्किल होता है?’’ मेरी बात सही निकली. राइट हैंड में कुहनी के पास फ्रैक्चर था. प्लास्टर चढ़ा दिया गया था. 20 दिन की फुरसत. घर में सन्नाटा हो गया. आशा का हाथ क्या टूटा, सबकुछ थम गया, लगा, जैसे घर वैंटिलेटर पर हो. सारे काम रुक गए. यों तो कामवाली बाई लगा रखी थी, पर कुछ ही घंटों में मु झे पता चल गया कि बाई के हिस्से में कितने कम काम आते हैं. असली ‘कामवाली’ तो आशा ही है. मैं अब तक बेखबर था इस से. मेरे घर की धुरी तो आशा है. उसी के चारों ओर तो मेरे परिवार की खुशियां घूमती हैं. शाम की दवा का टाइम हो गया. आशा ने खुद से उठने की कोशिश की. उठ न सकी.

मैं ने ही दवाइयां निकाल कर उस की बाईं हथेली पर रखीं. पानी का गिलास मैं ने उस के मुंह से लगा दिया. मेरा हाथ उस के माथे पर था. मेरे स्पर्श से उस की निस्तेज आंखों में हलचल हुई. बरबस ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘तुम कैसी हो, आशा?’’ यह क्या, वह रोने लगी. जारजार फफक पड़ी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. उस के आंसू मेरे हाथ पर टपटप गिर रहे थे. आंसुओं की गरमाहट मेरी रगों से हो कर दिल की ओर बढ़ने लगी. उस के अश्कों की ऊष्मा ने मेरे दिल पर बरसों से जमी बर्फ को पिघला दिया. अकसर हम अपनी ही सोच, अपने विचारों और धारणाओं से अभिशप्त हो जाते हैं. यह सवाल मेरे लिए छोटा था, पर आशा न जाने कब से इस की प्रतीक्षा में थी. बहुत देर कर दी थी मैं ने. Family Story In Hindi 

Social Story : मुखौटा – कमला देवी से मिलना जरूरी क्यों था?

Social Story : सुबह के सारे काम प्रियदर्शिनी बड़ी फुरती से निबटाती जा रही थी. उस दिन उसे नगर की प्रतिष्ठित महिला एवं बहुचर्चित समाजसेविका कमला देवी से मिलने के लिए समय दिया गया था. काम के दौरान वह बराबर समय का हिसाब लगा रही थी. मन ही मन कमला देवी से होने वाली संभावित चर्चा की रूपरेखा तैयार कर रही थी.

आज तक उस का समाज के ऐसे उच्चवर्ग के लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था लेकिन काम ही ऐसा था कि कमला देवी से मिलना जरूरी हो गया था. वह समाज कल्याण समिति की सदस्य थीं और एक प्रसिद्ध उद्योग समूह की मालकिन. उन के पास, अपार वैभव था.

कितनी ही संस्थाओं के लिए वह काम करती थीं. किसी संस्था की अध्यक्ष थीं तो किसी की सचिव. समाजसेवी संस्थाओं के आयोजनों में उन की तसवीरें अकसर अखबारों में छपा करती थीं. उन की भारी- भरकम आवाज के बिना महिला संस्थाओं की बैठकें सूनीसूनी सी लगती थीं.

ये सारी सुनीसुनाई बातें प्रियदर्शिनी को याद आ रही थीं. लगभग 3 साल पहले उस ने अपने घर पर ही बच्चों के लिए एक स्कूल और झूलाघर की शुरुआत की थी. उस का घर शहर के एक छोर पर था और आगे झोंपड़पट्टी.

उस बस्ती के अधिकांश स्त्रीपुरुष सुबह होते ही कामधंधे के सिलसिले में बाहर निकल जाते थे. हर झोंपड़ी में 4-5 बच्चे होते ही थे. घर का जिम्मा सब से बडे़ बच्चे पर सौंप कर मांबाप निकल जाते थे. 8-9 बरस का बच्चा सीधे होटल में कपप्लेट धोने या गन्ने की चरखी में गिलास भरने के काम में लग जाता था.

जीवन चक्र की इस रफ्तार में शिक्षा के लिए कोई स्थान नहीं था, न समय ही था. दो जून की रोटी का जुगाड़ जहां दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद कई बार संभव नहीं हो पाता था वहां इस तरह के अनुत्पादक श्रम के लिए सोचा भी नहीं जा सकता था. 10 साल पढ़ाई के लिए बरबाद करने के बाद शायद कोई नौकरी मिल भी जाए लेकिन जब कल की चिंता सिर पर हो तो 10 साल बाद की कौन सोचे?

फिर भी प्रियदर्शिनी की यह निश्चित धारणा थी कि ये बच्चे बुद्धिमान हैं, उन में काम करने की शक्ति है, कुछ नया सीखने की उमंग भी है. इन्हें अगर अच्छा वातावरण और सुविधाएं मिल जाएं तो उन के जीवन का ढर्रा बदल सकता है. अभाव और उपेक्षा के वातावरण में पलतेबढ़ते ये बच्चे गुनहगार बन जाते हैं. चोरी करने, जेब कतरने जैसी बातें सीख जाते हैं. मेहनतमजदूरी करतेकरते गलत सोहबत में पड़ कर उन्हें जुआ, शराब आदि की लत पड़ जाती है और अगर बच्चे बहुत छोटे हों तो कुपोषण का शिकार हो कर उन की अकाल मृत्यु हो जाती है.

उस का खयाल था कि थोड़ी देखभाल करने से उन में काफी परिवर्तन आ सकता है. इसी उद्देश्य से उस ने अपनी एक सहेली के सहयोग से छोटे बच्चों के खेलने के लिए झूलाघर और कुछ बडे़ बच्चों के लिए दूसरी कक्षा तक की पढ़ाई के लिए बालबाड़ी की स्थापना की थी.

रात के समय वह झोंपडि़यों में जा कर उन में रहने वाली महिलाओं को परिवार नियोजन और परिवार कल्याण की बातें समझाती, घरेलू दवाइयों की जानकारी देती, साफसुथरा रहने की सीख देती.

पूरी बस्ती उस का सम्मान करती थी. अधिकाधिक संख्या में बच्चे झूलाघर और बालबाड़ी में आने लगे थे. इसी सिलसिले में वह कमला देवी से मिलना चाहती थी. अपना काम सौ फीसदी हो जाएगा ऐसा उसे विश्वास था.

किसी राजप्रासाद की याद दिलाने वाले उस विशाल बंगले के फाटक में प्रवेश करते ही दरबान सामने आया और बोला, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘बाई साहब हैं? उन्होंने मुझे 11 बजे का समय दिया था.’’

‘‘अंदर बैठिए.’’

हाल में एक विशाल अल्सेशियन कुत्ता बैठा था. दरबान उसे बाहर ले गया. इतने में सफेद ऊन के गोले जैसा झबरीला छोटा सा पिल्ला हाथों में लिए कमला देवी हाल में प्रविष्ट हुईं.

भारीभरकम काया, प्रयत्नपूर्वक प्रसाधन कर के अपने को कम उम्र दिखाने की ललक, कीमती साड़ी, चमचमाते स्वर्ण आभूषण, रंगी हुई बालों की कटी कृत्रिम लटें, नाक की लौंग में कौंधता हीरा, चेहरे पर किसी हद तक लापरवाही और गर्व का मिलाजुला मिश्रण.

पल भर के निरीक्षण में ही प्रियदर्शिनी को लगा कि इस रंगेसजे चेहरे पर अहंकार के साथसाथ मूर्खता का भाव भी है जो किसी भी जानेमाने व्यक्ति के चेहरे पर आमतौर पर पाया जाता है.

उठ कर नमस्ते करते हुए उस ने सहजता से मुसकराते हुए अपना परिचय  दिया, ‘‘मेरा नाम प्रियदर्शिनी है. आप ने आज मुझे मिलने का समय दिया था.’’

‘‘अच्छा अच्छा…तो आप हैं प्रियदर्शिनी. वाह भई, जैसा नाम वैसा ही रंगरूप पाया है आप ने.’’

अपनी प्रशंसा से प्रियदर्शिनी सकुचा गई. उस ने कुछ संकोच से पूछा, ‘‘मेरे आने से आप के काम में कोई हर्ज तो नहीं हुआ?’’

‘‘अजी, छोडि़ए, कामकाज का क्या? घर के और बाहर के भी सारे काम अपने को ही करने होते हैं. और बाहर का काम? मेरा मतलब है समाजसेवा करने का मतलब घर की जिम्मेदारियों से मुकरना तो नहीं होता? गरीबों की सेवा को मैं सर्वप्रथम मानती हूं, प्रियदर्शिनीजी.’’

कमला देवी की इस सादगी और सेवाभावना से प्रियदर्शिनी अभिभूत हो उठी.

‘‘प्रियदर्शिनी, आप बालबाड़ी चलाती हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘कितने बच्चे हैं बालबाड़ी में?’’

‘‘जी, 25.’’

‘‘और झूलाघर में?’’

‘‘झूलाघर में 10 बच्चे हैं.’’

‘‘फीस कितनी लेती हैं?’’

‘‘जी, फीस तो नाममात्र की लेती हूं.’’

‘‘फीस तो लेनी ही चाहिए. मांबाप जितनी फीस दे सकें उतनी तो लेनी ही चाहिए. इतनी मेहनत करते हैं हम फिर पैसा तो हमें मिलना ही चाहिए.’’

‘‘जी, पैसे की बात सोच कर मैं ने यह काम शुरू नहीं किया.’’

‘‘तो फिर क्या समय नहीं कटता था, इसलिए?’’

‘‘जी, नहीं. यह कारण भी नहीं है.’’

कंधे उचका कर आंखों को मटका कर हंस दी कमला देवी, ‘‘तो फिर लगता है आप को बच्चों से बड़ा लगाव है.’’

‘‘जी, वह तो है ही लेकिन सच बात तो यह है कि उस इलाके में ऐसे काम की बहुत जरूरत है.’’

‘‘कहां रहती हैं आप?’’

‘‘सिंधी बस्ती से अगली बस्ती में.’’

‘‘वहां तो आगे सारी झोंपड़पट्टी ही है न?’’

‘‘जी. होता यह है कि झोंपड़पट्टी वाले सुबह से ही काम पर निकल जाते हैं. घर संभालने का सारा जिम्मा स्वभावत: बड़े बच्चे पर आ जाता है. मांबाप की अज्ञानता और मजबूरी का असर इन बच्चों के भविष्य पर पड़ता है. इसी विचार से मैं बच्चों की प्रारंभिक पढ़ाई के लिए बालबाड़ी और छोटे बच्चों की देखभाल के लिए झूलाघर चला रही हूं.’’

‘‘तो इन छोटे बच्चों की सफाई, उन के कपडे़ बदलने और उन्हें दूध, पानी आदि देने के लिए आया भी रखी होगी?’’

‘‘जी नहीं. ये सब काम मैं स्वयं ही करती हूं.’’

‘‘आप,’’ कमला देवी के मुख से एकाएक आश्चर्यमिश्रित चीख निकल गई.

‘‘जी, हां.’’

‘‘सच कहती हैं आप? घिन नहीं आती आप को?’’

‘‘जी, बिलकुल नहीं. क्या अपने बच्चों की टट्टीपेशाब साफ नहीं करते हम?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है. लेकिन अपने बच्चे तो अपने ही होते हैं और दूसरों के दूसरे ही.’’

‘‘मेरे विचार में तो आज के बच्चे कल हमारे देश के नागरिक बनेंगे. अगर हम उन्हें जिम्मेदार नागरिक के रूप में देखना चाहें, उन से कुछ अपेक्षाएं रखें तो आज उन की जिम्मेदारी किसी को तो उठानी ही पड़ेगी न?’’

शांत और संयत स्वर में बोलतेबोलते प्रियदर्शिनी रुक गई. उस ने महसूस किया, कमला देवी का चेहरा कुछ स्याह पड़ गया है. उन्होंने पूछा, ‘‘लेकिन इन सब झंझटों से आप को लाभ क्या मिलता है?’’

‘‘लाभ?’’ प्रियदर्शिनी की उज्ज्वल हंसी से कमला देवी और भी बुझ सी गईं, ‘‘मेरा लाभ क्या होगा, कितना होगा, होगा भी या हानि ही होगी, आज मैं इस विषय में कुछ नहीं कह सकती लेकिन एक बात निश्चित है. मेरे इन प्रयत्नों से समाज के ये उपेक्षित बच्चे जरूर लाभान्वित होंगे. मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है.’’

‘‘अद्भुत, बहुत बढि़या. आप के विचार बहुत ऊंचे हैं. आप का आचरण भी वैसा ही है. बड़ी खुशी की बात है. वाह भई वाह, अच्छा तो प्रियदर्शिनीजी, अब आप यह बताइए, आप मुझ से क्या चाहती हैं?’’

‘‘जी, बच्चों के बैठने के लिए दरियां स्लेटें, पुस्तकें और खिलौने. मदद के लिए मैं एक और महिला रखना चाहती हूं. उसे पगार देनी पड़ेगी. वर्षा और धूप से बचाव के लिए शेड बनवाना होगा. इस के साथ ही डाक्टरी सहायता और बच्चों के लिए नाश्ता.’’

‘‘तो आप अपनी बालबाड़ी को आधुनिक किंडर गार्टन स्कूल में बदल देना चाहती हैं?’’

‘‘बिलकुल आधुनिक नहीं बल्कि जरूरतों एवं सुविधाओं से परिपूर्ण स्कूल में.’’

‘‘तो साल भर के लिए आप को 10 हजार रुपए दिलवा दें?’’

‘‘जी.’’

‘‘मेरे ताऊजी मंत्रालय में हैं. आप 8 दिन के बाद आइए. तब तक आप का काम करवा दूंगी.’’

‘‘सच,’’ खुशी से खिल उठी प्रियदर्शिनी, ‘‘आप का किन शब्दों में धन्यवाद दूं? आप सचमुच महान हैं.’’

कमला देवी केवल मुसकरा भर दीं.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं. आप की बहुत आभारी हूं.’’

‘‘चाय, शरबत कुछ तो पीती जाइए.’’

‘‘जी नहीं, इन औपचारिकताओं की कतई जरूरत नहीं है. आप के आश्वासन ने मुझे इतनी तसल्ली दी है…’’

‘‘अच्छा, प्रियदर्शिनीजी, आप का घर और हमारा समाज कल्याण कार्यालय शहर की एकदम विपरीत दिशाओं में है. आप ऐसा कीजिए, अपनी गाड़ी से यहां आ जाइए.’’

‘‘जी, मेरे पास गाड़ी नहीं है.’’

‘‘तो क्या हुआ, स्कूटर तो होगा?’’

‘‘जी नहीं, स्कूटर भी नहीं है.’’

‘‘मेरे पास फोन भी नहीं है.’’

‘‘प्रियदर्शिनीजी, आप के पास गाड़ी नहीं, फोन नहीं, फिर आप समाजसेवा कैसे करेंगी?’’

उपहासमिश्रित उस हंसी से प्रियदर्शिनी कुछ  हद तक परेशान सी हो उठी. फिर भी वह अपने सहज भाव से बोली, ‘‘मेरा मन पक्का है. हर कठिनाई को सहने के लिए तत्पर हूं. तन और मन के संयुक्त प्रयास के बाद कुछ भी असंभव नहीं होता.’’

अब तो खुलेआम छद्मभाव छलक आया कमला देवी के मेकअप से सजेसंवरे चेहरे पर.

‘‘मैं तो आप को समझदार मान रही थी, प्रियदर्शिनीजी. मैं ने आप से कहीं अधिक दुनिया देखी है. आप मेरी बात मानिए, अपनी इस प्रियदर्शिनी छवि को दुनिया की रेलमपेल में मत सुलझाइए. खैर, आप का काम 8 दिन में हो जाएगा. अच्छा.’’ दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते कहते हुए प्रियदर्शिनी ने विदा ली.

‘‘दीदी, हमारे लिए नाश्ता आएगा?’’

‘‘दीदी, स्कूल के सब बच्चों के लिए एक से कपडे़ आएंगे?’’

‘‘दीदी, सफेद कमीज और लाल रंग की निकर ही चाहिए.’’

‘‘नए बस्ते भी मिलेंगे?’’

‘‘और नई स्लेट भी?’’

‘‘मैं तो नाचने वाला बंदर ले कर खेलूंगा.’’

‘‘दीदी, नाश्ते में केला और दूध भी मिलेगा?’’

‘‘अरे हट. दीदी, नाश्ते में मीठीमीठी जलेबियां आएंगी न?’’

बच्चों की जिज्ञासा और खुशी ने उसे और भी उत्साहित कर दिया.

8वें दिन कमला देवी की कार उसे लेने आई तो उस के मन में उन के लिए कृतज्ञता के भाव उमड़ आए. जो हो, जैसी भी हो, उन्होंने आखिर प्रियदर्शिनी का काम तो करवा दिया न.

उस की साड़ी देख कर कमला देवी ने मुंह बिचकाया और जोरजोर से हंस कर बोलीं, ‘‘अरे, प्रियदर्शिनीजी, कम से कम आज तो आप कोई सुंदर सी साड़ी पहन कर आतीं. फोटो में अच्छी लगनी चाहिए न. फोटोग्राफर का इंतजाम मैं ने करवा दिया है. कल के अखबारों में समाचार समेत फोटो आ जाएगी. अच्छा, चलिए, फोटो में आप थोड़ा मेरे पीछे हो जाइए तो फिर साड़ी की कोई समस्या नहीं रहेगी.’’

कार अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगी तो धीमी आवाज में कमला देवी ने कहा, ‘‘देखिए, प्रियदर्शिनीजी, आप के नाम पर 5 हजार का चेक मिलेगा. वह आप मुझे दे देना. मैं आप को ढाई हजार रुपए उसी समय दे दूंगी.’’

प्रियदर्शिनी ने कुछ असमंजस में पड़ कर पूछा, ‘‘तो बाकी ढाई हजार आप कब तक देंगी?’’

‘‘कब का क्या मतलब? प्रिय- दर्शिनीजी, हमें समाजसेवा के लिए कितना कुछ खर्च करना पड़ता है. ऊपर से ले कर नीचे तक कितनों की इच्छाएं पूरी करनी पड़ती हैं और फिर हमें अपने शौक और जेबखर्च के लिए भी तो पैसा चाहिए.’’

प्रियदर्शिनी को लगा उस की संवेदनाएं पथरा रही हैं.

कमला देवी अभी तक बोले जा रही थीं, ‘‘प्रियदर्शिनीजी, आप बुरा मत मानिए. लेकिन यह ढाई हजार रुपए क्या आप पूरा का पूरा स्कूल के लिए खर्च करेंगी? भई, एकआध हजार तो अपने लिए भी रखेंगी या नहीं, खुद के लिए?’’

समाज कल्याण कार्यालय के दरवाजे तक पहुंच चुकी थीं दोनों. तेजी के साथ प्रियदर्शिनी पलट गई. तेज चाल से चल कर वह सड़क पर आ गई. सामने खडे़ रिकशे वाले को घर का पता बता कर वह निढाल हो कर उस में बैठ गई. उस की आंखों के सामने बारबार कमला देवी का मेकअप उतर जाने के बाद दिखने वाला विद्रूप चेहरा उभर कर आने लगा. उन की छद्म हंसी सिर में हथौड़े मारती रही. उन का प्रश्न रहरह कर कानों में गूंजने लगा, ‘फिर आप समाजसेवा कैसे करेंगी?’

जाहिर था प्रियदर्शिनी के पास तथाकथित समाजसेवियों वाला कोई मुखौटा तो था ही नहीं. Social Story 

Hindi Love Stories : नए प्रेम का अंकुर

Hindi Love Stories : कभीकभी निशा को ऐसा लगता है कि शायद वही पागल है जिसे रिश्तों को निभाने का शौक है जबकि हर कोई रिश्ते को झटक कर अलग हट जाता है. उस का मानना है कि किसी भी रिश्ते को बनाने में सदियों का समय लग जाता है और तोड़ने में एक पल भी नहीं लगता. जिस तरह विकास ने उस के अपने संबंधों को सिरे से नकार दिया है वह भी क्यों नहीं आपसी संबंधों को झटक कर अलग हट जाती.

निशा को तरस आता है स्वयं पर कि प्रकृति ने उस की ही रचना ऐसी क्यों कर दी जो उस के आसपास से मेल नहीं खाती. वह भी दूसरों की तरह बहाव में क्यों नहीं बह पाती कि जीवन आसान हो जाए.

‘‘क्या बात है निशा, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सोम के प्रश्न ने निशा को चौंकाया भी और जगाया भी. गरदन हिला कर उठ बैठी निशा.

‘‘मुझे कुछ देर लगेगी सोम, आप जाइए.’’

‘‘हां, तुम्हें डाक्टर द्वारा लगाई पेट पर की थैली बदलनी है न, तो जाओ, बदलो. मुझे अभी थोड़ा काम है. साथसाथ ही निकलते हैं,’’ सोम उस का कंधा थपक कर चले गए.

कुछ देर बाद दोनों साथ निकले तो निशा की खामोशी को तोड़ने के लिए सोम कहने लगे, ‘‘निशा, यह तो किसी के साथ भी हो सकता है. शरीर में उपजी किसी भी बीमारी पर इनसान का कोई बस तो नहीं है न, यह तो विज्ञान की बड़ी कृपा है जो तुम जिंदा हो और इस समय मेरे साथ हो…’’

‘‘यह जीना भी किस काम का है, सोम?’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो. अरे, जीवन तो कुदरत की अमूल्य भेंट है और जब तक हो सके इस से प्यार करो. तरस मत खाओ खुद पर…तुम अपने को देखो, बीमार हुई भी तो इलाज करा पाने में तुम सक्षम थीं. एक वह भी तो हैं जो बिना इलाज ही मर जाते हैं… कम से कम तुम उन से तो अच्छी हो न.’’

सोम की बातों का गहरा अर्थ अकसर निशा को जीवन की ओर मोड़ देता है.

‘‘आज लगता है किसी और ही चिंता में हो.’’

सोम ने पूछा तो सहसा निशा बोल पड़ी, ‘‘मौत को बेहद करीब से देखा है इसलिए जीवन यों खो देना अब मूर्खता लगता है. मेरे दोनों भाई आपस में बात नहीं करते. अनिमा से उन्हें समझाने को कहा तो उस ने बुरी तरह झिड़क दिया. वह कहती है कि सड़े हुए रिश्तों में से मात्र बदबू निकलती है. शरीर का जो हिस्सा सड़ जाए उसे तो भी काट दिया जाता है न. सोम, क्या इतना आसान है नजदीकी रिश्तों को काट कर फेंक देना?

‘‘विकास मुझ से मिलता नहीं और न ही मेरे बेटे को मुझ से मिलने देता है, तो भी वह मेरा बेटा है. इस सच से तो कोई इनकार नहीं कर सकता न कि मेरे बच्चे में मेरा खून है और वह मेरे ही शरीर से उपजा है. तो कैसे मैं अपना रिश्ता काट दूं. क्या इतना आसान है रिश्ता काट देना…वह मेरे सामने से निकल जाए और मुझे पहचाने भी न तो क्या हाल होगा मेरा, आप जानते हैं न…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, इसलिए यही चाहता हूं कि वह कभी तुम्हारे सामने से न गुजरे. मुझे डर है, वह तुम्हें शायद न पहचाने…तुम सह न पाओ इस से तो अच्छा है न कि वह तुम्हारे सामने कभी न आए…और इसी को कहते हैं सड़ा हुआ रिश्ता सिर्फ बदबू देता है, जो तुम्हें तड़पा दे, तुम्हें रुला दे वह खुशबू तो नहीं है न…गलत क्या कहा अनिमा ने, जरा सोचो. क्यों उस रास्ते से गुजरा जाए जहां से मात्र पीड़ा ही मिलने की आशा हो.’’

चुप रह गई निशा. शब्दों के माहिर सोम नपीतुली भाषा में उसे बता गए थे कि उस का बेटा मनु शायद अब उसे न पहचाने. जब निशा ने विकास का घर छोड़ा था तब मनु 2 साल का था. साल भर का ही था मनु जब उस के शरीर में रोग उभर आया था, मल त्यागने में रक्तस्राव होने लगता था. पूरी जांच कराने पर यह सच सामने आया था कि मलाशय का काफी भाग सड़ गया है.

आपरेशन हुआ, वह बच तो गई मगर कलौस्टोमी का सहारा लेना पड़ा. एक कृत्रिम रास्ता उस के पेट से निकाला गया जिस से मल बाहर आ सके और प्राकृतिक रास्ता, जख्म पूरी तरह भर जाने तक के लिए बंद कर दिया गया. जख्म पूरी तरह कब तक भरेगा, वह प्राकृतिक रास्ते से मल कब त्याग सकेगी, इस की कोई भी समय सीमा नहीं थी.

अब एक पेटी उस के पेट पर सदा के लिए बंध गई थी जिस के सहारे एक थैली में थोड़ाथोड़ा मल हर समय भरता रहता. दिन में 2-3 बार वह थैली बदल लेती.

आपरेशन के समय गर्भाशय भी सड़ा पाया गया था जिस का निकालना आवश्यक था. एक ही झटके में निशा आधीअधूरी औरत रह गई थी. कल तक वह एक बसीबसाई गृहस्थी की मालकिन थी जो आज घर में पड़ी बेकार वस्तु बन गई थी.

आपरेशन के 4 महीने भी नहीं बीते थे कि विकास और उस की मां का व्यवहार बदलने लगा था. शायद उस का आधाअधूरा शरीर उन की सहनशीलता से परे था. परिवार आगे नहीं बढ़ पाएगा, एक कारण यह भी था विकास की मां की नाराजगी का.

‘‘विकास की उम्र के लड़के तो अभी कुंआरे घूम रहे हैं और मेरी बहू ने तो शादी के 2 साल बाद ही सुख के सारे द्वार बंद कर दिए…मेरे बेटे का तो सत्यानाश हो गया. किस जन्म का बदला लिया है निशा ने हम से…’’

अपनी सास के शब्दों पर निशा हैरान रह जाती थी. उस ने क्या बदला लेना था, वह तो खुद मौत के मुंह से निकल कर आई थी. क्या निशा ने चाहा था कि वह आधीअधूरी रह जाए और उस के शरीर के साथ यह थैली सदा के लिए लग जाए. उस का रसोई में जाना भी नकार दिया था विकास ने, यह कह कर कि मां को घिन आती है तुम्हारे हाथ से… और मुझे भी.

थैली उस के शरीर पर थी तो क्या वह अछूत हो गई थी. मल तो हर पल हर मनुष्य के शरीर में होता है, तो क्या सब अछूत हैं? थैली तो उस का शरीर ही है अब, उसी के सहारे तो वह जी रही है. अनपढ़ इनसान की भाषा बोलने लग गया था विकास भी.

जीवन भर के लिए विकास ने जो हाथ पकड़ा था वह मुसीबत का जरा सा आवेग भी सह नहीं पाया था. उसी के सामने मां उस के दूसरे विवाह की चर्चा करने लगी थी.

एक दिन उस के सामने कागज बिछा दिए थे विकास ने. सोम भी पास ही थे. एक सोम ही थे जो विकास को समझाना चाहते थे.

‘‘रहने दीजिए सोम, हमारे रिश्ते में अब सुधार के कोई आसार नजर नहीं आते. मेरा क्या भरोसा कब मरूं या कब बीमारी से नाता छूटे… विकास को क्यों परेशान करूं. वह क्यों मेरी मौत का इंतजार करें. आप बारबार विकास पर जोर मत डालें.’’

और कागज के उस टुकड़े पर उस का उम्र भर का नाता समाप्त हो गया था.

‘‘अब क्या सोच रही हो निशा? कल डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘कब तक मेरी चिंता करते रहेंगे?’’

‘‘जब तक तुम अच्छी नहीं हो जातीं. दोस्त हूं इसलिए तुम्हारे सुखद जीवन तक या श्मशान तक जो भी निश्चित हो, अंतिम समय तक मैं तुम्हारा साथ छोड़ना नहीं चाहता.’’

‘‘जानते हैं न, विकास क्याक्या कहता है मुझे आप के बारे में. कल भी फोन पर धमका रहा था.’’

‘‘उस का क्या है, वह तो बेचारा है. जो स्वयं नहीं जानता कि उसे क्या चाहिए. दूसरी शादी कर ली है…और अब तो दूसरी संतान भी आने वाली है… अब तुम पर उस का भला क्या अधिकार है जो तलाक के बाद भी तुम्हारी चिंता है उसे. मजे की बात तो यह है कि तुम्हारा स्वस्थ हो जाना उस के गले से नीचे नहीं उतर रहा है.

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

 

‘‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे.

‘‘सच पूछो तो मुझे विकास पर तरस आने लगा है. मैं ने तो अपना सब एक हादसे में खो दिया. जिसे कुदरत की मार समझ मैं ने समझौता कर लिया लेकिन विकास ने तो अपने हाथों से अपना घर जला लिया.’’

कहतेकहते न जाने कितना कुछ कह गए सोम. अपना सबकुछ खो देने के बाद जीवन के नए ही अर्थ उन के सामने भी चले आए हैं.

दूसरे दिन जांच में और भी सुधार नजर आया. डाक्टर ने बताया कि इस की पूरी आशा है कि निशा का एक और छोटा सा आपरेशन कर प्राकृतिक मल द्वार खोल दिया जाए और पेट पर लगी थैली से उस को छुटकारा मिल जाए. डाक्टर के मुंह से यह सुन कर निशा की आंखें झिलमिला उठी थीं.

‘‘देखा…मैं ने कहा था न कि एक दिन तुम नातीपोतों के साथ खेलोगी.’’

बस रोतेराते निशा इतना ही पूछ पाई थी, ‘‘खाली गोद में नातीपोते?’’

‘‘भरोसा रखो निशा, जीवन कभी ठहरता नहीं, सिर्फ इनसान की सोच ठहर जाती है. आने वाला कल अच्छा होगा, ऐसा सपना तो तुम देख ही सकती हो.’’

निशा पूरी तरह स्वस्थ हो गई. पेट पर बंधी थैली से उसे मुक्ति मिल गई. अब ढीलेढाले कपड़े ही उस का परिधान रह गए थे. उस दिन जब घर लौटने पर सोम ने सुंदर साड़ी भेंट में दी तो उस की आंखें भर आईं.

विकास नहीं आए जबकि फोन पर मैं ने उन्हें बताया था कि मेरा आपरेशन होने वाला है.

‘‘विकास के बेटी हुई है और गायत्री अस्पताल में है. मैं ने तुम्हारे बारे में विकास से बात की थी और वह मनु को लाना भी चाहता था. लेकिन मां नहीं मानीं तो मैं ने भी यह सोच कर जिद नहीं की कि अस्पताल में बच्चे को लाना वैसे भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं होता.’’

क्या कहती निशा. विकास का परिवार पूर्ण है तो वह क्यों उस के पास आता, अधूरी तो वह है, शायद इसीलिए सब को जोड़ कर या सब से जुड़ कर पूरा होने का प्रयास करती रहती है.

निशा की तड़प पलपल देखते रहते सोम. विकास का इंतजार, मनु की चाह. एक मां के लिए जिंदा संतान को सदा के लिए त्याग देना कितना जानलेवा है?

‘‘क्यों झूठी आस में जीती हो निशा,’’ सोम बोले, ‘‘सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन इस सच को भी मान लो कि तुम्हारे पास कोई नहीं लौटेगा.’’

एक सुबह सोम की दी हुई साड़ी पहन निशा कार्यालय पहुंची तो सोम की आंखों में मीठी सी चमक उभर आई. कुछ कहा नहीं लेकिन ऐसा बहुत कुछ था जो बिना कहे ही कह दिया था सोम ने.

‘‘आज मेरी दिवंगत पत्नी विभा और गुड्डी का जन्मदिन है. आज शाम की चाय मेरे साथ पिओगी?’’ यह बताते समय सोम की आंखें झिलमिला रही थीं.

सोम उस शाम निशा को अपने घर ले आए थे. औरत के बिना घर कैसा श्मशान सा लगता है, वह साफ देख रही थी. विभा थी तो यही घर कितना सुंदर था.

‘‘घर में सब है निशा, आज अपने हाथ से कुछ भी बना कर खिला दो.’’

चाय का कप और डबलरोटी के टुकड़े ही सामने थे जिन्हें सेक निशा ने परोस दिया था. सहसा निशा के पेट को देख सोम चौंक से गए.

‘‘निशा, तुम्हें कोई तकलीफ है क्या, यह कपड़ों पर खून कैसा?’’

सोम के हाथ निशा के शरीर पर थे. पेटी की वजह से पेट पर गहरे घाव बन चुके थे. थैली वाली जगह खून से लथपथ थी.

‘‘आज आप के साथ आ गई, पेट पर की पट्टी नहीं बदल पाई इसीलिए. आप परेशान न हों. पट््टी बदलने का सामान मेरे बैग में है, मैं ने आज साड़ी पहनी है. शायद उस की वजह से ऐसा हो गया होगा.’’

सोम झट से बैग उठा लाए और मेज पर पलट दिया. पट्टी का पूरा सामान सामने था और साथ थी वही पुरानी पेटी और थैली.

सोम अपने हाथों से उस के घाव साफ करने लगे तो वह मना न कर पाई.

पहली बार किसी पुरुष के हाथ उस के पेट पर थे. उस के हाथ भी सोम ने हटा दिए थे.

‘‘यह घाव पेटी की वजह से हैं सोम, ठीक हो जाएंगे…आप बेकार अपने हाथ गंदे कर रहे हैं.’’

मरहमपट्टी के बाद सोम ने अलमारी से विभा के कपड़े निकाल कर निशा को दिए. वह साड़ी उतार कर सलवारसूट पहनने चली गई. लौट कर आई तो देखा सोम ने दालचावल बना लिए हैं.

हलके से हंस पड़ी निशा.

सोम चुपचाप उसे एकटक निहार रहे थे. निशा को याद आया कि एक दिन विकास ने उसे बंजर जमीन और कंदमूल कहा था. आधीअधूरी पत्नी उस के लिए बेकार वस्तु थी.

‘क्या मुझे शरीरिक भूख नहीं सताती, मैं अपनेआप को कब तक मारूं?’ चीखा था विकास. पता नहीं किस आवेग में सोम ने निशा से यही नितांत व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया, तब निशा ने विकास के चीख कर कहे वाक्य खुल कर सोम से कह डाले.

हालांकि यह सवाल निशा के चेहरे की रंगत बदलने को काफी था. चावल अटक गए उस के हलक में. लपक कर सोम ने निशा को पानी का गिलास थमाया और देर तक उस की पीठ थपकते रहे.

‘‘मुझे क्षमा करना निशा, मैं वास्तव में यह जानना चाहता था कि आखिर विकास को तुम्हारे साथ रहने में परेशानी क्या थी?’’

सोम के प्रश्न का उत्तर न सूझा उसे.

‘‘मैं चलती हूं सोम, अब आप आराम करें,’’ कह कर उठ पड़ी थी निशा लेकिन सोम के हाथ सहसा उसे जाने से रोकने को फैल गए..

‘‘मैं तुम्हारा अपमान नहीं कर रहा हूं निशा, तुम क्या सोचती हो, मैं तमाशा बना कर बस तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी का राज जान कर मजा लेना चाहता हूं.’’

रोने लगी थी निशा. क्या उत्तर दे वह? नहीं सोचा था कि कभी बंद कमरे की सचाई उसे किसी बाहर वाले पर भी खोलनी पड़ेगी.

‘‘निशा, विकास की बातों में कितनी सचाई है, मैं यह जानना चाहता हूं, तुम्हारा मन दुखाना नहीं चाहता.’’

‘‘विकास ने मेरे साथ रह कर कभी अपनेआप को मारा नहीं था…मेरे घाव और उन से रिसता खून भी कभी उस की किसी भी इच्छा में बाधक नहीं था.’’

उस शाम के बाद एक सहज निकटता दोनों के बीच उभर आई थी. बिना कुछ कहे कुछ अधिकार अपने और कुछ पराए हो गए थे.

‘‘दिल्ली चलोगी मेरे साथ…बहन के घर शादी है. वहां आयुर्विज्ञान संस्थान में एक बार फिर तुम्हारी पूरी जांच हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा. मैं ने आरक्षण करा लिया है, बस, तुम्हें हां कहनी है.’’

‘‘शादी में मैं क्या करूंगी?’’

‘‘वहां मैं अपनी सखी को सब से मिलाना चाहता हूं…एक तुम ही तो हो जिस के साथ मैं मन की हर बात बांट लेता हूं.’’

‘‘कपड़े बारबार गंदे हो जाते हैं और ठीक से बैठा भी तो नहीं जाता…अपनी बेकार सी सखी को लोगों से मिला कर अपनी हंसी उड़ाना चाहते हैं क्या?’’

उस दिन सोम दिल्ली गए तो एक विचित्र भाव अपने पीछे छोड़ गए. हफ्ते भर की छुट्टी का एहसास देर तक निशा के मानस पटल पर छाया रहा.

बहन उन के लिए एक रिश्ता भी सुझा रही थी. हो सकता है वापस लौटें तो पत्नी साथ हो. कितने अकेले हैं सोम. घर बस जाएगा तो अकेले नहीं रहेंगे. हो सकता है उन की पत्नी से भी उस की दोस्ती हो जाए या सोम की दोस्ती भी छूट जाए.

2 दिन बीत चुके थे, निशा रात में सोने से पहले पेट का घाव साफ करने के लिए सामान निकाल रही थी. सहसा लगा उस के पीछे कोई है. पलट कर देखा तो सोम खड़े मुसकरा रहे थे.

हैरानी तो हुई ही कुछ अजीब सा भी लगा उसे. इतनी रात गए सोम उस के पास…घर की एक चाबी सदा सोम के पास रहती है न…और वह तो अभी आने वाले भी नहीं थे, फिर एकाएक चले कैसे आए?

‘‘जी नहीं लगा इसलिए जल्दी चला आया. गाड़ी ही देर से पहुंची और सुबह का इंतजार नहीं कर सकता था…मैं पट्टी बदल दूं?’’

‘मैं बदल लूंगी, आप जाइए, सोम. और घर की चाबी भी लौटा दीजिए.’’

सोम का चेहरा सफेद पड़ गया, शायद अपमान से. यह क्या हो गया है निशा को? क्या निशा स्वयं को उन के सामीप्य में असुरक्षित मानने लगी है? क्या उन्हें जानवर समझने लगी है?

एक सुबह जबरन सोम ने ही पहल कर ली और रास्ता रोक बात करनी चाही.

‘‘निशा, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘भविष्य में आप खुश रहें उस के लिए हमारी दोस्ती का समाप्त हो जाना ही अच्छा है.’’

‘‘सब के लिए खुशी का अर्थ एक जैसा नहीं होता निशा, मैं निभाने में विश्वास रखता हूं.’’

तभी दफ्तर में एक फोन आया और लोगों ने चर्चा शुरू कर दी कि बांद्रा शाखा के प्रबंधक विकास शर्मा की पत्नी और दोनों बच्चे एक दुर्घटना में चल बसे.

सकते में रह गए दोनों. विश्वास नहीं आया सोम को. निशा के पैरों तले जमीन ही खिसकने लगी, वह धम से वहीं बैठ गई.

सोम के पास विकास की बहन का फोन नंबर था. वहां पूछताछ की तो पता चला इस घटना को 2 दिन हो गए हैं.

भारी कदमों से निशा के पास आए सोम जो दीवार से टेक लगाए चुपचाप बैठी थी. आफिस के सहयोगी आगेपीछे घिर आए थे.

हाथ बढ़ा कर सोम ने निशा को पुकारा. बदहवास सी निशा कभी चारों तरफ देखती और कभी सोम के बढ़े हुए हाथों को. उस का बच्चा भी चला गया… एक आस थी कि शायद बड़ा हो कर वह अपनी मां से मिलने आएगा.

भावावेश में सोम से लिपट निशा चीखचीख कर रोने लगी. इतने लोगों में एक सोम ही अपने लगे थे उसे.

विकास दिल्ली वापस आ चुका था. पता चला तो दोस्ती का हक अदा करने सोम चले गए उस के यहां.

‘‘पता नहीं हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया?’’ विकास ने उन के गले लग रोते हुए कहा.

वक्त की नजाकत देख सोम चुप ही बने रहे. उठने लगे तो विकास ने कह दिया, ‘‘निशा से कहना कि वह वापस चली आए… मैं उस के पास गया था. फोन भी किया था लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया,’’ विकास रोरो कर सोम को सुना रहा था.

उठ पड़े सोम. क्या कहते… जिस इनसान को अपनी पत्नी का रिसता घाव कभी नजर नहीं आया वह अपने घाव के लिए वही मरहम चाहता है जिसे मात्र बेकार कपड़ा समझ फेंक दिया था.

‘‘निशा तुम्हारी बात मानती है, तुम कहोगे तो इनकार नहीं करेगी सोम, तुम बात करना उस से…’’

‘‘वह मुझ से नाराज है,’’ सोम बोले, ‘‘बात भी नहीं करती मुझ से और फिर मैं कौन हूं उस का. देखो विकास, तुम ने अपना परिवार खोया है इसलिए इस वक्त मैं कुछ कड़वा कहना नहीं चाहता पर क्षमा करना मुझे, मैं तुम्हारीं कोई भी मदद नहीं कर सकता.’’

सोम आफिस पहुंचे तो पता चला कि निशा ने तबादला करा लिया. कार्यालय में यह बात आग की तरह फैल गई. निशा छुट्टी पर थी इसलिए वही उस का निर्देश ले कर घर पर गए. निर्देश पा कर निशा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘तबीयत कैसी है, निशा? घाव तो भर गया है न?’’

‘‘पता नहीं सोम, क्या भर गया और क्या छूट गया.’’

धीरे से हाथ पकड़ लिया सोम ने. ठंडी शिला सी लगी उन्हें निशा. मानो जीवन का कोई भी अंश शेष न हो. ठंडे हाथ को दोनों हाथों में कस कर बांध लिया सोम ने और विकास के बारे में क्या बात करें यही सोचने लगे.

‘‘मैं क्या करूं सोम? कहां जाऊँ? विकास वापस ले जाने आया था.’’

‘‘आज भी उस इनसान से प्यार करती हो तो जरूर लौट जाओ.’’

‘‘हूं तो मैं आज भी बंजर औरत, आज भी मेरा मूल्य बस वही है न जो 2 साल पहले विकास के लिए था…तब मैं मनु की मां थी…अब तो मां भी नहीं रही.’’

‘‘क्या मेरे पास नहीं आ सकतीं तुम?’’ निशा के समूल काया को मजबूत बंधन में बांध सोम ने फिर पूछा, ‘‘पीछे मुड़ कर क्यों देखती हो तुम…अब कौन सा धागा तुम्हें खींच रहा है?’’

किसी तरह सोम के हाथों को निशा ने हटाना चाहा तो टोक दिया सोम ने, ‘‘क्या नए सिरे से जीवन शुरू नहीं कर सकती हो तुम? सोचती होगी तुम कि मां नहीं बन सकती और जो मां बन पाई थी क्या वह काल से बच पाई? संतान का कैसा मोह? मैं भी कभी पिता था, तुम भी कभी मां थीं, विकास तो 2 बच्चों का पिता था… आज हम तीनों खाली हाथ हैं…’’

‘‘सोम, आप समझने की कोशिश करें.’’

‘‘बस निशा, अब कुछ भी समझना शेष नहीं बचा,’’ सस्नेह निशा का माथा चूम सोम ने पूर्ण आश्वासन की पुष्टि की.

‘‘देखो, तुम मेरी बच्ची बनना और मैं तुम्हारा बच्चा. हम प्रकृति से टक्कर नहीं ले सकते. हमें उसी में जीना है. तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो और मैं तुम्हें खो नहीं सकता.’’

सोम को ऐसा लगा मानो निशा का विरोध कम हो गया है. उस की आंखें हर्षातिरेक से भर आईं. उस ने पूरी ताकत से निशा को अपने आगोश में भींच लिया. कल क्या होगा वह नहीं जानते परंतु आज उन्हें प्रकृति से जो भी मिला है उसे पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्वीकारने और निभाने की हिम्मत उन में है. आखिर इनसान को उसी में जीना पड़ता है जो भी प्रकृति दे. Hindi Love Stories 

Romantic Story In Hindi : सबसे हसीन दुलहन

Romantic Story In Hindi : इन दिनों अनुजा की स्थिति ‘कहां फंस गई मैं’ वाली थी. कहीं ऐसा भी होता है भला? वह अपनेआप में कसमसा रही थी.

ऊपर से बर्फ का ढेला बनी बैठी थी और भीतर उस के ज्वालामुखी दहक रहा था. ‘क्या मेरे मातापिता तब अंधेबहरे थे? क्या वे इतने निष्ठुर हैं? अगर नहीं, तो बिना परखे ऐसे लड़के से क्यों बांध दिया मुझे जो किसी अन्य की खातिर मु झे छोड़ भागा है, जाने कहां? अभी तो अपनी सुहागरात तक भी नहीं हुई है. जाने कहां भटक रहा होगा. फिर, पता नहीं वह लौटेगा भी या नहीं.’

उस की विचार शृंखला में इसी तरह के सैकड़ों सवाल उमड़ते घुमड़ते रहे थे. और वह इन सवालों को झेल भी रही थी.  झेल क्या रही थी, तड़प रही थी वह तो.

लेकिन जब उसे उस के घर से भाग जाने के कारण की जानकारी हुई, झटका लगा था उसे. उस की बाट जोहने में 15 दिन कब निकल गए. क्या बीती होगी उस पर, कोई तो पूछे उस से आ कर.

सोचतेविचारते अकसर उस की आंखें सजल हो उठतीं. नित्य 2 बूंद अश्रु उस के दामन में ढुलक भी आते और वह उन अश्रुबूंदों को देखती हुई फिर से विचारों की दुनिया में चली जाती और अपने अकेलेपन पर रोती.

अवसाद, चिड़चिड़ाहट, बेचैनी से उस का हृदय तारतार हुआ जा रहा था. लगने लगा था जैसे वह अबतब में ही पागल हो जाएगी. उस के अंदर तो जैसे सांप रेंगने लगा था. लगा जैसे वह खुद को नोच ही डालेगी या फिर वह कहीं अपनी जान ही गंवा बैठेगी. वह सोचती, ‘जानती होती कि यह ऐसा कर जाएगा तो ब्याह ही न करती इस से. तब दुनिया की कोई भी ताकत मु झे मेरे निर्णय से डिगा नहीं सकती थी. पर, अब मु झे क्या करना चाहिए? क्या इस के लौट आने का इंतजार करना चाहिए? या फिर पीहर लौट जाना ही ठीक रहेगा? क्या ऐसी परिस्थिति में यह घर छोड़ना ठीक रहेगा?’

वक्त पर कोई न कोई उसे खाने की थाली पहुंचा जाता. बीचबीच में आ कर कोई न कोई हालचाल भी पूछ जाता. पूरा घर तनावग्रस्त था. मरघट सा सन्नाटा था उस चौबारे में. सन्नाटा भी ऐसा, जो भीतर तक चीर जाए. परिवार का हर सदस्य एकदूसरे से नजरें चुराता दिखता. ऐसे में वह खुद को कैसे संभाले हुए थी, वह ही जानती थी.

दुलहन के ससुराल आने के बाद अभी तो कई रस्में थीं जिन्हें उसे निभाना था. वे सारी रस्में अपने पूर्ण होने के इंतजार में मुंहबाए खड़ी भी दिखीं उसे. नईनवेली दुलहन से मिलनजुलने वालों का आएदिन तांता लग जाता है, वह भी वह जानती थी. ऐसा वह कई घरों में देख चुकी थी. पर यहां तो एकबारगी में सबकुछ ध्वस्त हो चला था. उस के सारे संजोए सपने एकाएक ही धराशायी हो चले थे. कभीकभार उस के भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती. तब वह बुदबुदाती, ‘भाड़ में जाएं सारी रस्मेंरिवाज. नहीं रहना मु झे अब यहां. आज ही अपना फैसला सुना देती हूं इन को, और अपने पीहर को चली जाती हूं. सिर्फ यही नहीं, वहां पहुंच कर अपने मांबाबूजी को भी तो खरीखोटी सुनानी है.’ ऐसे विचार उस के मन में उठते रहे थे, और वह इस बाबत खिन्न हो उठती थी.

इन दिनों उस के पास तो समय ही समय था. नित्य मंथन में व्यस्त रहती थी और फिर क्यों न हो मंथन, उस के साथ ऐसी अनूठी घटना जो घटी थी, अनसुल झी पहेली सरीखी. वह सोचती, ‘किसे सुनाऊं मैं अपनी व्यथा? कौन है जो मेरी समस्या का निराकरण कर सकता है? शायद कोई भी नहीं. और शायद मैं खुद भी नहीं.’

फिर मन में खयाल आता, ‘अगर परीक्षित लौट भी आया तो क्या मैं उसे अपनाऊंगी? क्या परीक्षित अपने भूल की क्षमा मांगेगा मुझ से? फिर कहीं मेरी हैसियत ही धूमिल तो नहीं हो जाएगी?’ इस तरह के अनेक सवालों से जूझ रही थी और खुद से लड़ भी रही थी अनुजा. बुदबुदाती, ‘यह कैसी शामत आन पड़ी है मु झ पर? ऐसा कैसे हो गया?’

तभी घर के अहाते से आ रही खुसुरफुसुर की आवाजों से वह सजग हो उठी और खिड़की के मुहाने तक पहुंची. देखा, परीक्षित सिर  झुकाए लड़खड़ाते कदमों से, थकामांदा सा आंगन में प्रवेश कर रहा था.

उसे लौट आया देखा सब के मुर झाए चेहरों की रंगत एकाएक बदलने लगी थी. अब उन चेहरों को देख कोई कह ही नहीं सकता था कि यहां कुछ घटित भी हुआ था. वहीं, अनुजा के मन को भी सुकून पहुंचा था. उस ने देखा, सभी अपनीअपनी जगहों पर जड़वत हो चले थे और यह भी कि ज्योंज्यों उस के कदम कमरे की ओर बढ़ने लगे. सब के सब उस के पीछे हो लिए थे. पूरी जमात थी उस के पीछे.

इस बीच परीक्षित ने अपने घर व घर के लोगों पर सरसरी निगाह डाली. कुछ ही पलों में सारा घर जाग उठा था और सभी बाहर आ कर उसे देखने लगे थे जो शर्म से छिपे पड़े थे अब तक. पूरा महल्ला भी जाग उठा था.

जेठानी की बेटी निशा पहले तो अपने चाचा तक पहुंचने के लिए कदम बढ़ाती दिखी, फिर अचानक से अपनी नई चाची को इत्तला देने के खयाल से उन के कमरे तक दौड़तीभागतीहांफती पहुंची. चाची को पहले से ही खिड़की के करीब खड़ी देख वह उन से चिपट कर खड़ी हो गई. बोली कुछ भी नहीं. वहीं, छोटा संजू दौड़ कर अपने चाचा की उंगली पकड़ उन के साथसाथ चलने लगा था.

परीक्षित थके कदमों से चलता हुआ, सीढि़यां लांघता हुआ दूसरी मंजिल के अपने कमरे में पहुंचा. एक नजर समीप खड़ी अनुजा पर डाली, पलभर को ठिठका, फिर पास पड़े सोफे पर निढाल हो बैठ गया और आंखें मूंदें पड़ा रहा.

मिनटों में ही परिवार के सारे सदस्यों का उस चौखट पर जमघट लग गया. फिर तो सब ने ही बारीबारी से इशारोंइशारों में ही पूछा था अनुजा से, ‘कुछ बका क्या?’

उस ने एक नजर परीक्षित पर डाली. वह तो सो रहा था. वह अपना सिर हिला उन सभी को बताती रही, अभी तक तो नहीं.’

एक समय ऐसा भी आया जब उस प्रागंण में मेले सा समां बंध गया था. फिर तो एकएक कर महल्ले के लोग भी आते रहे, जाते रहे थे और वह सो रहा था जम कर. शायद बेहोशी वाली नींद थी उस की.

अनुजा थक चुकी थी उन आनेजाने वालों के कारण. चौखट पर बैठी उस की सास सहारा ले कर उठती हुई बोली, ‘‘उठे तो कुछ खिलापिला देना, बहू.’’ और वे अपनी पोती की उंगली पकड़ निकल ली थीं. माहौल की गर्माहट अब आहिस्ताआहिस्ता शांत हो चुकी थी. रात भी हो चुकी थी. सब के लौट जाने पर अनुजा निरंतर उसे देखती रही थी. वह असमंजस में थी. असमंजस किस कारण से था, उसे कहां पता था.

परिवार के, महल्ले के लोगों ने भी सहानुभूति जताते कहा था, ‘बेचारे ने क्या हालत बना रखी है अपनी. जाने कहांकहां, मारामारा फिरता रहा होगा? उफ.’

आधी रात में वह जगा था. उसी समय ही वह नहाधो, फिर से जो सोया पड़ा, दूसरी सुबह जगा था. तब अनुजा सो ही कहां पाई थी. वह तो तब अपनी उल झनोंपरेशानियों को सहेजनेसमेटने में लगी हुई थी.

वह उस रात निरंतर उसे निहारती रही थी. एक तरफ जहां उस के प्रति सहानुभूति थी, वहीं दूसरी तरफ गहरा रोष भी था मन के किसी कोने में.

सहानुभूति इस कारण कि उस की प्रेमिका ने आत्महत्या जो कर ली थी और रोष इस बात पर कि वह उसे छोड़ भागा था और वह सजीसंवरी अपनी सुहागसेज पर बैठी उस के इंतजार में जागती रही थी. वह उसी रात से ही गायब था. फिर सुहागरात का सुख क्या होता है, कहां जान पाई थी वह.

उस रात उस के इंतजार में जब वह थी, उस का खिलाखिला चेहरा पूनम की चांद सरीखा दमक रहा था. पर ज्यों ही उसे उस के भाग खड़े होने की खबर मिली, मुखड़ा ग्रहण लगे चांद सा हो गया था. उस की सुर्ख मांग तब एकदम से बु झीबु झी सी दिखने लगी थी. सबकुछ ही बिखर चला था.

तब उस के भीतर एक चीत्कार पनपी थी, जिसे वह जबरन भीतर ही रोके रखे हुए थी. फिर विचारों में तब यह भी था, ‘अगर उस से मोहब्बत थी, तो मैं यहां कैसे? जब प्यार निभाने का दम ही नहीं, तो प्यार किया ही क्यों था उस से? फिर इस ने तो 2-2 जिंदगियों से खिलवाड़ किया है. क्या इस का अपराध क्षमायोग्य है? इस के कारण ही तो मु झे मानसिक यातनाएं  झेलनी पड़ी हैं.

मेरा तो अस्तित्व ही अधर में लटक गया है इस विध्वंसकारी के कारण. जब इतनी ही मोहब्बत थी तो उसे ही अपना लेता. मेरी जिंदगी से खिलवाड़ करने का हक इसे किस ने दिया?’ तब उस की सोच में यह भी होता, ‘मैं अनब्याही तो नहीं कहीं? फिर, कहीं यह कोई बुरा सपना तो नहीं?’

दूसरे दिन भी घर में चुप्पी छाई रही थी. वह जागा था फिर से. घर वालों को तो जैसे उस के जागने का ही इंतजार था.  झटपट उस के लिए थाली परोसी गई. उस ने जैसेतैसे खाया और एक बार फिर से सो पड़ा और बस सोता ही रहा था. यह दूसरी रात थी जो अनुजा जागते  बिता रही थी. और परीक्षित रातभर जाने क्याक्या न बड़बड़ाता रहा था. बीचबीच में उस की सिसकियां भी उसे सुनाई पड़ रही थीं. उस रात भी वह अनछुई ही रही थी.

फिर जब वह जागा था, अनुजा के समीप आ कर बोला, तब उस की आवाज में पछतावे सा भाव था, ‘‘माफ करना मु झे, बहुत पीड़ा पहुंचाई मैं ने आप को.’’

‘आप को,’ शब्द जैसे उसे चुभ गया. बोली कुछ भी नहीं. पर इस एक शब्द ने तो जैसे एक बार में ही दूरियां बढ़ा दी थीं. उस के तो तनबदन में आग ही लग गई थी.

रिमझिम, जो उस का प्यार थी, इस की बरात के दिन ही उस ने आत्महत्या कर ली थी. लौटा, तो पता चला. फिर वह भाग खड़ा हुआ था.

लौटने के बाद भी अब परीक्षित या तो घर पर ही गुमसुम पड़ा रहता या फिर कहीं बाहर दिनभर भटकता रहता. फिर जब थकामांदा लौटता तो बगैर कुछ कहेसुने सो पड़ता.

ऐसे में ही उस ने उसे रिमझिम झोड़ कर उठाया और पहली बार अपनी जबान खोली थी. तब उस का स्वर अवसादभरा था, ‘‘मैं पराए घर से आई हूं. ब्याहता हूं आप की. आप ने मु झ से शादी की है, यह तो नहीं भूले होंगे आप?’’

वह निरीह नजरों से उसे देखता रहा था. बोला कुछ भी नहीं. अनुजा को उस की यह चुप्पी चुभ गई. वह फिर से बोली थी, तब उस की आवाज विकृत हो आई थी.

‘‘मैं यहां क्यों हूं? क्या मुझे लौट जाना चाहिए अपने मम्मीपापा के पास? आप ने बड़ा ही घिनौना मजाक किया है मेरे साथ. क्या आप का यह दायित्व नहीं बनता कि सबकुछ सामान्य हो जाए और आप अपना कामकाज संभाल लो. अपने दायित्व को सम झो और इस मनहूसियत को मिटा डालो?’’

चंद लमहों के लिए वह रुकी. खामोशी छाई रही. उस खामोशी को खुद ही भंग करते हुए बोली, ‘‘आप के कारण ही पूरे परिवार का मन मलिन रहा है अब तक. वह भी उस के लिए जो आप की थी भी नहीं. अब मैं हूं और मु झे आप का फैसला जानना है. अभी और अभी. मैं घुटघुट कर जी नहीं सकती. सम झे आप?’’

अनुजा के भीतर का दर्द उस के चेहरे पर था, जो साफ  झलक रहा था. परीक्षित के चेहरे की मायूसी भी वह भलीभांति देख रही थी. दोनों के ही भीतर अलगअलग तरह के झंझावात थे,  झुंझलाहट थी.

परीक्षित उसे सुनता रहा था. वह उस के चेहरे पर अपनी नजरें जमाए रहा था. वह अपने प्रति उपेक्षा, रिमिझम के प्रति आक्रोश को देख रहा था. जब उस ने चुप्पी साधी, परीक्षित फफक पड़ा था और देररात फफकफफक कर रोता ही रहा था. अश्रु थे जो उस के रोके नहीं रुक रहे थे. तब उस की स्थिति बेहद ही दयनीय दिखी थी उसे.

वह सकपका गई थी. उसे अफसोस हुआ था. अफसोस इतना कि आंखें उस की भी छलक आई थीं, यह सोच कर कि ‘मु झे इस की मनोस्थिति को सम झना चाहिए था. मैं ने जल्दबाजी कर दी. अभी तो इस के क्षतविक्षत मन को राहत मिली भी नहीं और मैं ने इस के घाव फिर से हरे कर दिए.’

उस ने उसे चुप कराना उचित नहीं सम झा. सोचा, ‘मन की भड़ास, आंसुओं के माध्यम से बाहर आ जाए, तो ही अच्छा है. शायद इस से यह संभल ही जाए.’ फिर भी अंतर्मन में शोरगुल था. उस में से एक आवाज अस्फुट सी थी, ‘क्या मैं इतनी निष्ठुर हूं जो इस की वेदना को सम झने का अब तक एक बार भी सोचा नहीं? क्या स्त्री जाति का स्वभाव ही ऐसा होता है जो सिर्फ और सिर्फ अपना खयाल रखती है? दूसरों की परवा करना, दूसरों की पीड़ा क्या उस के आगे कोई महत्त्व नहीं रखती? क्या ऐसी सोच होती है हमारी? अगर ऐसा ही है तो बड़ी ही शर्मनाक बात है यह तो.’

उस की तंद्रा तब भंग हुई थी जब वह बोला, ‘‘शादी हो जाती अगर हमारी तो वह आप के स्थान पर होती आज. प्यार किया था उस से. निभाना भी चाहता था. पर इन बड़ेबुजुर्गों के कारण ही वह चल बसी. मैं कहां जानता था कि वह ऐसा कर डालेगी.’’

‘‘पर मेरा क्या? इस पचड़े में मैं दोषी कैसे? मु झे सजा क्यों मिल रही है? आप कहो तो अभी, इसी क्षण अपना सामान समेट कर निकल जाऊं?’’

‘‘देखिए, मु झे संभलने में जरा वक्त लगेगा. फिर मैं ने कब कहा कि आप यह घर छोड़ कर चली जाओ?’’

तभी अनुजा फिर से बिफर पड़ी, ‘‘वह हमारे वैवाहिक जीवन में जहर घोल गई है. अगर वह भली होती तो ऐसा कहर तो न ढाती? लाज, शर्म, परिवार का मानसम्मान, मर्यादा भी तो कोई चीज होती है जो उस में नहीं थी.’’

‘‘इतनी कड़वी जबान तो न बोलो उस के विषय में जो रही नहीं. ऊलजलूल बकना क्या ठीक है? फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया?’’ वह एकाएक आवेशित हो उठा था.

वह एक बार फिर से सकपका गई थी. उसे, उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा तो नहीं थी. फिर वह अब तक यह बात सम झ ही नहीं पाई थी कि गलत कौन है. क्या वह खुद? क्या उस का पति? या फिर वह नासपीटी?

देखतेदेखते चंद दिन और बीत गए. स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रही थी. अब उस ने उसे रोकनाटोकना छोड़ दिया था और समय के भरोसे जी रही थी.

परीक्षित अब भी सोते में, जागते में रोतासिसकता दिखता. कभी उस की नींद उचट जाने पर रात के अंधेरे में ही घर से निकल जाता. घंटों बाद थकाहारा लौटता भी तो सोया पड़ा होता. भूख लगे तो खाता अन्यथा थाली की तरफ निहारता भी नहीं. बड़ी गंभीर स्थिति से गुजर रहा था वह. और अनुजा झुंझलाती रहती थी.

ऐसे में अनुजा को उस की चिंता सताने भी लगी थी. इतने दिनों में परीक्षित ने उसे छुआ भी नहीं था. न खुद से उस से बात ही की थी उस ने.

उस दिन पलंग के समीप की टेबल पर रखी रिमझिम की तसवीर फ्रेम में जड़ी रखी दिखी तो वह चकित हो उठा. उस ने उस फ्रेम को उठाया, रिमझिम की उस मुसकराती फोटो को देर तक देखता रहा. फिर यथास्थान रख दिया और अनुजा की तरफ देखा. तब अनुजा ने देखा, उस की आंखें नम थीं और उस के चेहरे के भाव देख अनुजा को लगा जैसे उस के मन में उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे.

अनुजा सहजभाव से बोली, ‘‘मैं ने अपनी हटा दी. रिमझिम दीदी अब हमारे साथ होंगी, हर पल, हर क्षण. आप को बुरा तो नहीं लगा?’’

उस ने उस वक्त कुछ न कहा. काफी समय बाद उस ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने खाना खाया?’’ फिर तत्काल बोला, ‘‘हम दोनों इकट्ठे खाते हैं. तुम बैठी रहो, मैं ही मांजी से कह आता हूं कि वे हमारी थाली परोस दें.’’

खाना खाने के दौरान वह देर तक रिमझिम के विषय में बताता रहा. आज पहली बार ही उस ने अनुजा को, ‘आप’ और ‘आप ने’ कह कर संबोधित नहीं किया था. और आज पहली बार ही वह उस से खुल कर बातें कर रहा था. आज उस की स्थिति और दिनों की अपेक्षा सामान्य लगी थी उसे. और जब वह सोया पड़ा था, उस रात, एक बार भी न सिसका, न रोया और न ही बड़बड़ाया. यह देख अनुजा ने पहली बार राहत की सांस ली.

मानसिक यातना से नजात पा कर अनुजा आज गहरी नींद में थी. परीक्षित उठ चुका था और उस के उठने के इंतजार में पास पड़े सोफे पर बैठा दिखा. पलंग से नीचे उतरते जब अनुजा की नजर  टेबल पर रखी तसवीर पर पड़ी तो चकित हो उठी. मुसकरा दी. परीक्षित भी मुसकराया था उसे देख तब.

अब उस फोटोफ्रेम में रिमझिम की जगह अनुजा की तसवीर लगी थी.

‘तुम मेरी रिमझिम हो, तुम ही मेरी पत्नी अनुजा भी. तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल है और तुम ने मेरे कारण ही महीनेभर से बहुत दुख  झेला है, पर अब नहीं. मैं आज ही से दुकान जा रहा हूं.’

और तभी, अनुजा को महसूस हुआ कि उस की मांग का सिंदूर सुर्ख हो चला है और दमक भी उठा है. कुछ अधिक ही सुर्ख, कुछ अधिक ही दमक रहा है. Romantic Story In Hindi

Social Story In Hindi : छींकना भी हुआ मुहाल

Social Story In Hindi : सर्दी का मौसम और जुकाम का प्रकोप कोई अस्वाभाविक बात तो नहीं है लेकिन इस साल के सर्द मौसम में छींकना भी कठिन हो रहा है. वाह रे, स्वाइन फ्लू. तेरे भय ने तो सब लोगों की नींद ही उड़ा दी है. लोगों का बस, यही प्रयास है कि चाहे जो कुछ हो जाए लेकिन जुकाम न हो. सर्दी से बचने के लिए हर कोई इस कदर एहतियात बरत रहा है कि कहीं उसे भूल से भी जुकाम न हो जाए.

हमारे एक मित्र लाख कोशिशों के बाद भी जुकाम के शिकार बन गए. जुकाम हुआ तो छींक आनी भी स्वाभाविक थी, लेकिन छींक आते ही जैसे विस्फोट हो गया. उस दिन बस से अपने आफिस जा रहे थे कि न जाने कैसे भीड़ भरी बस में अचानक छींक आ गई.

उन का छींकना था कि सिटी बस में जैसे हड़कंप सा मच गया. उस समय का दृश्य तो वाकई बहुत डराने वाला लगा. बस के यात्रीगण हमारे मित्र को ऐसी शिकायत भरी नजरों से देख रहे थे जैसे उन्होंने कोई बेहद संगीन अपराध कर दिया हो. लोगों का छींक के प्रति डर ने बस में ऐसी अफरातफरी मचाई कि ड्राइवर ने इमरजेंसी ब्रेक लगा कर बस को रोका और एक स्वर में बस के यात्री हमें बस से तुरंत बाहर निकालने पर उतारू हो गए. सभी यात्रियों के विरोध के आगे हमारे मित्र को झुकना पड़ा और बस से उतर कर वे पैदल ही आफिस कूच कर गए. उन की हालत ऐसी थी जैसे समाज बहिष्कृत किसी अभागे की हो सकती है.

केवल छींकने मात्र से लोग यह मान बैठे थे कि ‘स्वाइन फ्लू’ का संक्रमण फैलाने का ठेका उन्होंने ही ले लिया हो. दूर भागते लोगों की अफरातफरी ऐसा दृश्य उपस्थित कर रही थी जैसे 26/11 के मुंबई के ताज होटल पर आतंकी घटना के समय रहा होगा. छींकने वाले शख्स को छींक आने की आशंका मात्र से लोग भाग खड़े होते हैं, भय के माहौल में उन की दौड़भाग दूरी बनाने के लिए स्वाभाविक है.

आस्ट्रिया के चांसलर मेटरनिक के बारे में 19वीं सदी में एक कहावत बड़ी प्रचलित थी कि जब मेटरनिक को जुकाम होता था तब पूरा यूरोप छींकता था. जुकाम आस्ट्रिया के चांसलर को और छींकना पूरे यूरोप का. है न वाकई विलक्षण उदाहरण, लेकिन यहां इस वाक्य का लाक्षणिक अर्थ इतना भर है कि मेटरनिक इतना महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन गया था कि वह जो कुछ भी करता था उस का सीधा असर संपूर्ण यूरोप की जनता पर पड़ता था.

आजकल जुकाम का खौफ छाया हुआ है. ‘स्वाइन फ्लू’ का डर हर तरफ दिख रहा है. डाक्टरों की चांदी हो रही है तो तथाकथित ‘झोलाछाप’ डाक्टर भी चांदी काटने में पीछे नहीं. अस्पताल, नर्सिंग होम में मरीजों का सैलाब उमड़ रहा है तो मेडिकल शौप भी ग्राहकों की आवाजाही से रौशन हो रही हैं. जुकाम न हो जाए, बस इसी चिंता में लोग एडवांस में ही उपचार कराते फिर रहे हैं. धड़ाधड़ दवाइयां खरीदीबेची जा रही हैं. बिना सोचेसमझे लोग दवाइयां ऐसे खा रहे हैं जैसे मिठाइयों की मुफ्त की लूट मची हो.

साधारण जुकाम से पीडि़त हमारे मित्र उस दिन जैसे ही आफिस तशरीफ लाए कि उन की हालत देखते ही आफिस में हड़कंप मच गया. आननफानन में स्टाफ सेक्रेटरी ने एक इमरजेंसी मीटिंग काल कर डाली. बौस पर दबाव डाल कर हमारे मित्र महोदय को फौरन आफिस से घर भेज दिया गया ताकि वे अच्छे से इलाज करा सकें. बौस जो छुट्टियां स्वीकृत करने में हमेशा आनाकानी करते हैं, उस दिन उन्होंने फौरन एक सप्ताह की छुट्टी स्वीकृत कर उन्हें यथाशीघ्र घर भिजवाने के लिए टैक्सी मंगवा दी. स्टाफ ने स्वयं ही टैक्सी का किराया भी एडवांस में चुकता कर दिया.

उस दिन इमरजेंसी मीटिंग में कुछ नए नियम भी निर्धारित हुए. अब आफिस में हाथ हिला कर अभिवादन करने पर तुरंत प्रभाव से प्रतिबंध लगा दिया गया. जुकाम की क्षीण सी संभावना मात्र से ही आफिस आने पर रोक लगा दी गई. आफिस खर्चे से मास्क खरीदे गए और उन्हें धारण करना अनिवार्य बना दिया गया.

अगर देखा जाए तो आजकल ‘मास्क’ पहनना मजबूरी के साथसाथ फैशन भी बन गया है. अच्छे स्टैंडर्ड क्वालिटी के ‘मास्क’ धारण करने वाले लोग अब अपने को ‘हाईजेंट्री क्लास’ के ‘एक्टिव’ समझने लगे हैं. ‘मास्क’ नहीं खरीद पाने वाले बेचारे समाज के निम्न, गरीब, साधनविहीन की श्रेणी में आ गए हैं. उन्हें अब अपनी किस्मत पर शिकायत होने लगी है. वाकई उस ने दुनिया में 2 वर्ग के लोग पैदा किए हैं. कार्ल मार्क्स की ‘हैव्ज’ और ‘हैव्ज नाट’ की विचारधारा उन्हें चरितार्थ होती नजर आ रही है. मास्क लगाने वाले संपन्न वर्ग के पास सबकुछ है तो दूसरे वर्ग के पास कुछ नहीं.

मित्र महोदय अपने घर पहुंचे तो घर का माहौल भी बदल गया. उन्हें इस नई भूमिका में देख कर उन के परिजन भी मारे डर के उन से दूर भागने लगे थे. उन का गुनाह सिर्फ इतना सा था कि घर में पैर रखते ही उन्हें दोचार छींकें आ गई थीं. इतनी सी बात कालोनी और फिर मीडिया के द्वारा शहर भर में हौट न्यूज बन कर आग की तरह फैल गई. काम वाली बाई और आसपास के तमाम लोगों ने उन से अभेद्य दूरी बना ली. जैसे साक्षात में वे ‘स्वाइन फ्लू’ के लाइवड्रिस्ट्रीब्यूटर बन गए हों. जुकाम पीडि़त व्यक्तियों को 2 मोर्चों को एकसाथ फेस करना पड़ता है. एक तो अपने घर के परिजनों से तो दूसरे बाहरी लोगों से, जिन्हें समझाना बेहद मुश्किल होता है.

सर्दी की ऋतु में ब्याहशादी का सीजन भी जोर पकड़ने लगा है. धड़ल्ले से शादीब्याह निबटाए जा रहे हैं तो बेचारे दूल्हेदुलहनों को दूसरी ही चिंता सता रही है. उन के हनीमून भी मास्क पहन कर ही संपन्न हो रहे हैं. डाक्टरी सलाह दी जा रही है कि भीड़भाड़ वाले इलाकों से दूर रहें. अब भला ब्याहशादी से कैसे दूर रहा जा सकता है. कुछ अति समझदार दूल्हे व दुलहन मास्क पहन कर ही ब्याह रचा रहे हैं. दांपत्य जीवन भी खतरे में पड़ता जा रहा है. रोमांस, सुख की जगह डर पैदा करने लगा है.

स्कूलकालेज में छुट्टियां हो जाने से विद्यार्थी वर्ग आनंदित है. जहां छुट्टियां नहीं हैं वहां छोटेछोटे बच्चे भी स्कूल का टाइम होते ही छींकना शुरू कर देते हैं. पेरेंट्स बेचारे उन्हें स्कूल न भेज कर सीधे डाक्टरों के क्लीनिकों पर ले दौड़ते हैं. स्कूल से भागने का मन हो तो चालाक विद्यार्थी इस अचूक नुस्खे का प्रयोग कर के टीचरों से घर जाने की ससम्मान अनुमति पा लेते हैं. Social Story In Hindi 

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