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मेरा बौयफ्रैंड चाहता है कि मैं उस के दोस्तों के साथ रोमांस करूं. क्या यह सही है?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मैं काफी समय से एक लड़के साथ रिलेशनशिप में हूं और वह एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करता है. उसे और उस के दोस्तों को पार्टी करने का काफी शौक है. मैं कई बार उस के साथ उन की औफिस पार्टीज में भी गई हूं जहां मैं उस के दोस्तों और उन की गर्लफ्रैंड से मिली. हाल ही में सब ने मिल कर प्लान बनाया कि वे सब मेरे बौयफ्रैंड के घर पर हाउस पार्टी करेंगे जिस में मैं भी शामिल हुई. हम सब ने खूब ऐंजौय किया और मेरी उस के दोस्तों की गर्लफ्रैंड से अच्छी दोस्ती भी हो गई. हम सब ने साथ में शराब पी और ढेर सारे गेम्स भी खेले. ऐसे में सब लड़कों ने मिल कर एक प्लान बनाया जोकि मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया. मुझे बाकी लड़कियों का तो नहीं पता पर जब मैं ने यह बात सुनी तो मुझे बहुत गुस्सा आया. दरअसल, उन सब ने मिल कर प्लान बनाया कि अगली बार हम किसी ट्रिप कर चलेंगे तो एक गेम खेलेंगे जिस में जिस लड़की का नाम जिस भी लड़के के साथ आएगा उन दोनों को आपस में रोमांस करना होगा. मैं अपने बौयफ्रैंड से बहुत प्यार करती हूं और किसी और लड़के के साथ रोमांस करने के बारे में सोच भी नहीं सकती. मुझे डर है कि अगर मैं ने मना किया तो वह मुझे छोड़ कर कोई और गर्लफ्रैंड न बना ले. मैं क्या करूं?

जवाब –

आजकल सोशल मीडिया से प्रभावित हो कर कई लोग अपनी जिंदगी को किसी मूवी से कम नहीं समझते. जैसे बौलीवुड या फिर हौलीवुड मूवीज में दिखाया जाता है कि लोग पार्टी करते समय अपने दोस्त के साथ अपनी बीवी या गर्लफ्रैंड ऐक्सचैंज कर लेते हैं, ठीक वैसे ही आजकल के लोग भी उसे कौपी करने लगे हैं जोकि काफी शर्मनाक है. मौडर्न होना अच्छी बात है लेकिन मौडर्न होने और बेशर्म होने में काफी अंतर होता है.

यह अच्छी बात है कि आप को उन सब की बात बिलकुल पसंद नहीं आई और आप ऐसा कुछ नहीं करना चाहतीं. सब से पहले तो अगर आप का बौयफ्रैंड आप से प्यार करता है तो उसे ऐसी घिनौनी बात कभी नहीं करनी चाहिए लेकिन फिर भी अगर वह ऐसी बात के लिए माना है तो उस के मन में किसी और लड़की के साथ रोमांस करने का लालच है, जिस से साफ पता चलता है कि वह आप से प्यार नहीं करता.

अगर वह अपने दोस्तों के बहकावे में आ कर ऐसा कुछ करना चाह रहा है तो और अपने बौयफ्रैंड को अकेले में समझाइए कि यह सब करना बिलकुल गलत है. हर लड़की की अपनी सैल्फ रिस्पैक्ट होती है तो ऐसे में अगर लड़कियां किसी के साथ भी रोमांस करने लग जाएंगी तो उन की इज्जत का क्या होगा.

अगर आप का बौयफ्रैंड फिर भी नहीं मानता तो आप उस पार्टी में बिलकुल मत जाइए और अपने बौयफ्रैंड से दूरी बना लें. एक समझदार और इज्जतदार लड़की कभी ऐसा कुछ करने के लिए तैयार नहीं होगी.

जैसाकि आप ने बताया कि आप को यह बात सुनते ही गुस्सा आ गया तो इस से पता लगता है कि आप के अंदर बहुत अच्छे संस्कार हैं और आप की तुलना में आप के बौयफ्रैंड की सोच बिलकुल घटिया है.

आप को ऐसे बौयफ्रैंड को छोड़ देना चाहिए जो अपनी गर्लफ्रैंड को किसी और के साथ रोमांस करने के लिए कह रहा है. आप को उस पार्टी में जाना पूरी तरह से ऐवौइड करना चाहिए क्योंकि शराब पीने के बाद कब क्या हो जाए किसी को नहीं पता और ऐसी सोच वाले लड़कों के साथ तो आप को कभी कहीं नहीं जाना चाहिए.

हां, शराब आदि नशीली चीजों से जितना तक हो दूरी बनाए रखें. शराब की गंदी लत न सिर्फ स्वास्थ्य के लिए ठीक है और न ही सामाजिक रूप से ही. शराब की लत मनमस्तिष्क को पंगु बना देती है और सोचनेसमझने की क्षमता पर भी घातक असर करती है. इसलिए शराब का सेवन कतई न करें.

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अनुपयोगी होते पतिपत्नी के रिश्ते का बदसूरत मोड़

उत्तर प्रदेश मानव अधिकार आयोग में बीती 25 सितम्बर तक 22,255 परेशान पति अपनी शिकायत दर्ज करा चुके थे कि उन की पत्नियां किसी न किसी तरह उन्हें प्रताड़ित करती हैं. यह संख्या अभी और बढ़ने की उम्मीद है क्योंकि साल 2023 – 24 में पत्नी पीड़ित पतियों की संख्या 31,285 थी जबकि 2022 – 23 में 36,409 पति आयोग इसी तरह की शिकायतें दर्ज कराने पहुंचे थे. यह खबर दिलचस्प भी है और चिंताजनक भी है. दिलचस्प इस लिहाज से है कि आमतौर पर यह उम्मीद नहीं की जाती कि पत्नियां भी पतियों को इतना हैरानपरेशान और प्रताड़ित कर सकती हैं कि वे इतनी बड़ी तादाद में हायहाय करते मानव अधिकार आयोग गुहार लगाने जाएं.

चिंताजनक इस लिहाज से है कि अगर यह सिलसिला यूं ही जारी रहा तो पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था की धुरी कहे जाने वाले पतिपत्नी के रिश्ते का अंजाम क्या होगा. प्रताड़ित या पत्नियों से दुखी पतियों की संख्या निश्चित रूप से इस से कहीं ज्यादा होगी क्योंकि सभी पति इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते, कुछ को अपनी मर्दानगी और मूंछों की इज्जत की चिंता रहती है कि बात आम हो गई तो उन का मजाक बनाया जाऐगा. कुछ पति परिवार और परिजनों की खातिर खामोश रहते हालातों से समझौता करते जिंदगी को जैसेतैसे ढोते रहते हैं.

अब से कोई 75 साल पहले आती तो यह या ऐसी खबर मजाक और अविश्वसनीय लगती. क्योंकि तब पति ऐसी पत्नियों को घर से बाहर निकाल देने में देर नहीं करता और इस के बाद वह मुड़ कर देखता भी नहीं कि बेचारी अर्धांगनी का हश्र क्या हुआ. उसे मायके वालों ने पनाह दी या कहीं दरदर की ठोकरें खाते उस वक्त को कोस रही है जब उस ने पति की ज्यादती का विरोध करने की हिम्मत जुटाई थी. इधर पति नजदीकी लगन में ही दूसरी शादी कर चुका होता और ठाठ की जिंदगी जीते अपनी दूसरी पत्नी को यह एहसास करा रहा होता कि औरत पांव की जूती और मर्द की गुलाम है जिस का धर्म ही पति और ससुराल वालों की सेवा करना है.

पति अय्याश हो, नपुंसक हो या शारीरिक रूप से उसे संतुष्ट और खुश नहीं रख पाता हो तो भी हिंदू धर्म में वह परमेश्वर और भगवान ही होता है. इस की मिसाल वे पत्नियां हैं जिन्होंने गुलामी की जिंदगी से बगाबत की थी या खुद के लिए जिम्मेदारियों के साथ कुछ हक भी मांगे थे. वे कहीं की नहीं रह गई हैं. यकीन न हो तो फलानी या ढिकानी को देख लो जो मायके में बाप भाइयों और भाभियों की मोहताज होते गुलामी ही कर रही है. उस के पास न जमीन जायदाद है न औलाद का सुख है फिर जिस्मानी सुख का तो सवाल ही नहीं उठता अगर गुलामी ही करनी थी तो ससुराल में ही करती.

जब संविधान ने महिलाओं को पुरुषों की बराबरी के हक दिए तो माहौल बदलना शुरू हुआ. इस के बाद हिंदू कोड बिल टुकड़ोंटुकड़ों में संसद से पारित हुआ तो महिलाओं को नारकीय जिंदगी से आजादी का रास्ता खुलने लगा. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ने तो भारतीय परिवारों में हाहाकार मचा दिया जिस के तहत महिलाओं को भी तलाक का अधिकार मिल गया. इतना ही नहीं एक बड़ा और अहम काम यह हुआ कि मर्दों से एक से ज्यादा शादियों करने की सहूलियत छिन गई. धार्मिक और राजनातिक हलकों में इस और ऐसे कानूनों का जम कर विरोध सड़कों से संसद तक यह अफवाह फैलाते हुआ कि ये कानून सनातन धर्म विरोधी हैं और इन्हें बना कर पारित करवाने वाले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की मंशा हिंदू धर्म और संस्कृति को नष्ट भृष्ट कर देने की है. सरिता के सितंबर प्रथम अंक में पाठक इसे विस्तार से पढ़ सकते हैं इस लेख में तथ्य भी हैं और तर्क भी हैं.

इन कानूनों से जो बदलाव हुए उन्हें भी आप इस रिपोर्ट में पढ़ सकते हैं कि यह प्रचार दुष्प्रचार ही निकला कि औरतों को मर्दों के बराबर हक देने से धर्म नष्ट भृष्ट हो जाएगा. अब देश अगर तेजी से तरक्की कर रहा है तो उस में धर्म या मौजूदा नरेन्द्र मोदी सरकार का कोई योगदान या हाथ नहीं है. बल्कि यह सब इसलिए मुमकिन हुआ कि अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी और योगदान दोनों बढ़े. पारिवारिक और सामाजिक तौर पर भी उन्हें खुल कर सांस लेने की आजादी मिली. वे शिक्षित भी हुईं कामकाजी भी हुईं. आज जो जागरूकता और आत्मविश्वास महिलाओं में दिखते हैं उन की वजह नेहरु सरकार द्वारा बनाए गए कानून हैं. यह और बात है कि महिलाओं को इस का अंदाजा या एहसास नहीं.

औरतें दलितों की तरह कई बंधनों और रूढ़ियों से क़ानूनी तौर पर आजाद हैं. पर यह भी पूरी तरह संतोषजनक नहीं है क्योंकि धर्म के धंधेबाजों ने उन्हें घेरने नएनए तरीके इजाद कर लिए हैं. जिन में से अहम हैं उन्हें पूजापाठ का अधिकार देना, शमशान में जा कर पिता या पति का अंतिम संस्कार करने देना और पितृ पक्ष के दिनों में श्राद्ध और पिंड दान करने का अधिकार देना. इस से धर्म के धंधेबाजों का पेट पलता है.

लेकिन उत्तर प्रदेश सहित देश भर से आ रही इस तरह की खबरें चिंता पैदा करने वाली हैं और विचार करने वाली भी कि कहीं औरतें कानूनी सहूलियतों और पारिवारिक व सामाजिक आजादी का वेजा फायदा तो नहीं उठा रहीं. कुछ मामलों में ऐसा होना संभव और स्वभाविक भी है लेकिन सभी मामलों पर यह थ्योरी फिट नहीं बैठती. यह दरअसल में पति या पत्नी के अनुपयोगी हो जाने के चलते ज्यादा हो रहा है.

एक पत्नी कैसेकैसे पति को परेशान कर सकती है इस पर खूब चुटकुले सोशल मीडिया मंडी में इधर से उधर होते रहते हैं. हास्य व्यंग के कवियों और लेखकों ने भी अपनी कलम इस पर चलाई है और निर्माताओं ने फिल्में भी बनाई हैं जिन में पति, पत्नी से परेशान रहता है. लेकिन पति उसे पहले की तरह मारपीट नहीं सकता न ही बिना तलाक दिए दूसरी शादी कर सकता और न ही घर से निकाल सकता. उलटे कई मामलों में तो यह देखा गया है कि पत्नी ही पति को घर से निकाल देती है और ऐसे मामलों में अकसर वह आर्थिक रूप से सक्षम यानी कमाऊ हो कर पति की कमाई की मोहताज नहीं रहती.

इस स्थिति की तुलना दलित आदिवासियों से की जा सकती है जिन का अपमान अब दंडनीय अपराध है. कोई उन्हें जाति सूचक शब्दों या संवोधन से ताने कसता है तो कानूनन गुनहगार होता है. कुछ मामलों में एससी/एसटी एक्ट का भी वेजा इस्तेमाल दहेज कानून की तरह देखने में आता है लेकिन इन कानूनों से नुकसान आटे में नमक बराबर ही हुए हैं जो कुदरती बात है. मुद्दे की बात पतिपत्नी में से किसी एक का अनुपयोगी हो जाना है जिस की वजह से रिश्ते ज्यादा दरक रहे हैं.

कोई भी पत्नी यह बर्दाश्त नहीं कर पाती कि वह मेहनत कर कमाए और निकम्मा पति उसे दूसरी औरत पर या शराब कबाब जुए सट्टे में उड़ा दे. जाहिर है जो पति कमाएगा धमाएगा नहीं वह बेकार हो कर पत्नी और घर पर बोझ ही बनेगा तिस पर भी दादागिरी यह कि मैं पति हूं तेरा भगवान हूं तो पत्नी तिलमिला उठती है. क्योंकि वह 75 – 80 साल पुरानी नहीं बल्कि आज के दौर की पत्नी है जिसे अपने अधिकार भी मालूम हैं और जिम्मेदारियों का भी एहसास है लेकिन यह बात आजकल की ही उन पत्नियों पर लागू नहीं होती है जो दिन भर मोबाइल फोन या फिर किटी पार्टियों में व्यस्त रहती हैं और पति अगर इस पर एतराज जताए समझाए या गुस्सा भी करे तो उस के कान काटने लगती हैं. यहां से शुरू होती है एक अंतहीन और बेवजह की कलह जिस का अंत अगर बड़े पैमाने पर मानव अधिकार आयोगों में हो रहा है जिन के पास समझाइश देने के अलावा कुछ नहीं होता.

सिर्फ खाना बना देना या बच्चों को संभालना ही पत्नी होने के माने अब नहीं रह गए हैं. बल्कि उसे पैसा कमाने की भी जरूरत है नहीं तो वह फालतू ही लगती है. जिन घरों में पतिपत्नी दोनों कमाते हैं उन में कलह कम होती है क्योंकि दोनों अपनी उपयोगिता बनाए रखते हैं. खातेपीते घरों में पत्नियां नौकरी कर रही हैं तो उन से नीचे के तबके की पत्नियां अपनी हैसियत और शिक्षा के मुताबिक छोटेमोटे काम कर घर चलाने में अपना सहयोग दे रही हैं. फिर भले ही वे घरों में झाड़ूपोंछा बर्तन करती नजर आएं या कपड़े धोए किसी भी तरह अपनी उपयोगिता बनाए रखती हैं. यानी मेट्रो के पतिपत्नी जो दोनों नौकरी करते हैं और आमतौर पर एकदूसरे से संतुष्ट रहते हैं वही हाल निम्न वर्ग का है कि पतिपत्नी दोनों में से कोई अनुपयोगी नहीं रहता. दिक्कत तब खड़ी होती है जब दोनों में से कोई एक वजहें कुछ भी हों फालतू या बेकार हो जाता है तो दूसरा झल्लाने लगता है.

अब अगर ऐसा पतियों के मामले में ज्यादा हो रहा है तो उन्हें किसी आयोग का दरवाजा खटखटाने से पहले अपना दिल और दिमाग टटोल कर देख लेना चाहिए कि क्यों पत्नी उन्हें तंग कर रही हैं. हालांकि इन में पत्नियों का सब से बड़ा और कारगर हथियार सैक्स सुख से वंचित रखना है जो निहायत ही गलत है. कानून भी इसे जायज नहीं मानता बल्कि इसे तलाक के अधिकार के रूप में देखता है. ऐसे कई फैसले इस की गवाही भी देते हैं कि पत्नी द्वारा जानबूझ कर पति को शारीरिक सुख न देना उस के प्रति क्रूरता है. एक अहम और चर्चित फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सुनील कुमार और राजेंद्र कुमार ने कहा था कि जीवन साथी को लम्बे समय तक सम्भोग की इजाजत न देना मानसिक क्रूरता है.

26 मई 2023 को आए इस फैसले में पीड़ित पति वाराणसी के रवींद्र यादव ने हाईकोर्ट में फैमिली कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी.

कुछ पतियों की लापरवाही और बुरी आदतें भी पत्नियों की परेशानी का शबब बन जाती हैं जिन के चलते वे पति को परेशान करने लगती हैं. कहने का मतलब यह नहीं कि पत्नी हमेशा सही होती होगी या होती है. कुछ पत्नियां गुस्सैल भी होती हैं और जिद्दी भीं, जिन पर समझानेबुझाने का कोई असर नहीं होता इसलिए वे पति को तंग करने लगती हैं कि तुम मुझे रोकोगेटोकोगे तो मैं तुम्हे यूं समझाउंगी.

ऐसी हालत में इकलौता हल आपसी बातचीत है उस से भी बात न बने तो तलाक बेहतर रास्ता है. हालांकि बातचीत से कई दफा बात बन जाती है और मनमुटाव और गलतफहमी भी दूर हो जाते हैं. अब अगर पति प्रताड़ना की शिकायत कर रहे हैं तो बात कतई हैरानी की नहीं, उन्हें तो खुश होना चाहिए कि शिकायत करने कोई मंच उन्हें मिला हुआ है जिस के पास क़ानूनी अधिकार भले ही कम हों लेकिन वह मामला सुलझाने की कोशिश तो करता है. इस के बाद अदालत ही बचती है जहां जा कर इंसाफ मांगना पत्नी की तरह पति का भी हक है.

किताबें पढ़ना अपने लाइफस्टाइल का हिस्सा बनाएं

यह तो आपने सुना ही होगा कि बिन विद्या नर पशु समान. बचपन में जब घरवाले हमें स्कूल भेजते थे, हमें किताबों पुस्तकों का ज्ञान नहीं था. लेकिन हम तब भी अज्ञानी नहीं थे. हम बातों को समझते थे, लेकिन तार्किक क्षमता विकसित नहीं हुई थी.

स्कूल पहुंचे, वहां हमारी शब्दकोश से पहचान कराई गई. तब हमें ये समझ आने लगा कि हम जो कुछ भी बोलते हैं उसे लिखा जाता है. उसे लिखा कैसे जाता है, लिखने के बाद वो शब्द के रूप में कैसा लगता है यह हमें पता चला और तब हम शब्द रूपी कलाकृति से परिचित हुए. लेकिन उस शब्द के कितने और अर्थ हो सकते हैं और उन शब्दों का हमारी जीवनशैली पर क्या प्रभाव पड़ेगा ये सब हमें हमारे गुरुओं के द्वारा दी गई किताब को पढ़ कर समझ आया.

हम सभी बचपन से यही सुनते आए हैं कि किताबें इंसान की सब से अच्छी दोस्त होती है. जिस से हमारे अंदर चीजों को सोचने समझने का ज्ञान आता है और हम अनुभवी कहलाते हैं. एक किताब, किसी भी व्यक्ति को इंजीनियर, डाक्टर, अफसर, और बिजनेसमैन बनाती है. सिर्फ यही नहीं बल्कि एक किताब, किसी भी व्यक्ति को सफलता के उस श्रेष्ठतम पायदान पर ले जाती है जहां पहुंच कर वो व्यक्ति अपनी कहानी, कागज के महज चंद टुकड़ों में समेट कर एक किताब के रूप में पूरी दुनिया को अपने कीर्तिमान और शौर्य का परिचय करवाती है.

बहरहाल, एक समय था जब हमारे पास पढ़ने के लिए केवल पुस्‍तकें होती थीं. किताबों के बारे में मिसाइल मेन अब्‍दुल कलाम कह गए हैं. ‘एक अच्छी किताब हजार दोस्तों के बराबर होती है जबकि एक अच्छा दोस्त एक पुस्तकालय के बराबर होता है.’

प्रिंटिंग प्रेस के अविष्‍कार ने पुस्‍तक लेखन को आसान बनाया

पहले किताबों का लेखन भी आसान नहीं था. प्राचीन सभ्यता में मिट्टी, पत्‍थर, पेड़ की छाल, धातु की चादरें और हड्डियों का उपयोग लिखने के लिए किया जाता था. जो कि काफी मेहनत का काम था. फिर इन्हें हाथ से ही लिखा जाने लगा. जो कि काफी मेहनत का काम था. यही वजह थी की किताबें बहुत कम और बहुत महंगी मिलती थीं. इस के बाद स्याही आई. इस ने लेखन को थोड़ा आसान बना दिया और लेखन को काला और भूरा रंग दिया. प्रिंटिंग प्रेस के अविष्‍कार ने पुस्‍तक लेखन को ओर भी आसान बना दिया. इस से किताबों को हाथ से लिखे जाने की मेहनत कम हो गई.

किताबों को ‘लिबरी केटेनटी’ कहा जाता था

18वीं शताब्‍दी तक सार्वजनिक पुस्‍तकालय में पुस्‍तकों को अक्‍सर बुक सेल्‍फ या डेस्‍क पर जंजीर से बांध दिया जाता था. ऐसा चोरी के डर से किया जाता था. अब आप समझ ही गए होंगे कि लोगों के जीवन में किताबों की कितनी अहमियत थी कि वे चोरी न हो जाएं, इस डर से उन की हिफाजत की जाती थी. जंजीरों वाली इन किताबों को ‘लिबरी केटेनटी’ के नाम से पुकारा जाता था.

फिर एक दौर आया जब पढ़ाकू लोगों को किताबी कीड़ा कहा जाने लगा

पढ़ाकू लोगों को पहले किताबी कीड़ा के नाम बुलाया जाता था. अब आप सोच रहे होंगे कि यह किताबी कीड़ा नाम क्यों पड़ा? पहले किताबों पर जिल्द जिसे बाइंडिंग कहते थे वह चढ़ाई जाती थी ताकि किताब को लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सके. और इन किताबों की जिल्द यानी बाइंडिंग पर छोटे कीड़े अपना भोजन ढूंढते थे जिस वजह से ज्यादा पढ़ने वाले लोगों को ‘किताबी कीड़ा’ कहा जाता था. लोगों में पढ़ने का क्रेज कुछ इस कदर था कि वह दिन में कई कई घंटा पढ़ने में लगते थे. उन के लिए पड़ना सिर्फ ज्ञान अर्जित करने का तरीका ही नहीं था बल्कि टाइम पास करने का जरिया भी था.

पहले किताबें पढ़ने का जनून कुछ इस तरह था –

जवाहरलाल नेहरू का किताबों से था एक खास रिश्ता

पुस्तक प्रेमी भारतीय नेताओं में जवाहरलाल नेहरू का नाम अग्रणी है. जवाहरलाल नेहरू किताबों की दुनिया में गहरी दिलचस्पी रखते थे. पंडित नेहरू को पुस्तकों से बहुत प्रेम था. वे पुस्तकों को इतना संभाल कर रखते थे कि वर्षों नई बनी रहती थी.

बल्कि बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने भारत में पुस्तक-संस्कृति के प्रचारप्रसार की दिशा में हरसंभव योगदान दिया. स्वाधीन भारत में साक्षरता के प्रसार पर ज़ोर देने के साथ ही नेहरू ने पुस्तकालयों के महत्त्व को भी बख़ूबी समझा था. यही वजह थी कि वे भारत के लाखों गांवों और शहरोंकस्बों के लिए छोटेबड़े पुस्तकालयों के महत्त्व पर ज़ोर देते रहे.

नेहरू ने यूरोप की पुस्तकालय संस्कृति का उदाहरण दिया और ऐसे पुस्तकालय स्थापित करने पर जोर दिया जहां पाठक किताबें, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ सकें. उन्होंने भारत ही नहीं विदेशों में भी पुस्तकालय खोलने पर जोर दिया. रंगून, कोलम्बो और सिंगापुर में पुस्तकालय खोलने के संदर्भ में यह राय दी कि वहां भारतीय इतनी संख्या में पहले से हैं और इतने सक्षम हैं कि अगर वे चाहें तो ख़ुद ही समूह बना कर ऐसा पुस्तकालय खोल सकते हैं. उन के चलते विदेशों में भी भारतीय पुस्तकालय बने.

रेलवे स्टेशनों के बुक-स्टाल में भी उन की दिलचस्पी रही. रेलवे स्टेशनों के बुक-स्टाल, जो आज प्रायः बंद हो चले हैं, उन के सुधार की लिए भी उन्होंने बहुत काम किया.

नेहरू अंग्रेजी राज के दौरान जेलों में लिखी अपनी किताबों के लिए मशहूर हैं. गौर करने वाली बात यह है कि उन्हें हर दिन निश्चित मात्रा में कागज-कलम दी जाती थी. नेहरू की कृतियों को देशविदेश में व्यापक प्रशंसा मिली.

अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन

अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने स्कूली पढ़ाई केवल कक्षा एक तक की थी लेकिन खुद स्वाध्याय के द्वारा सारा ज्ञान पाया था. आज भी 150 साल बाद हम उन्हें याद करते हैं जबकि इन 150 साल में आए कितने नेता आप को याद होंगे. इंसान अपने काम द्वारा याद किया जाता है. डिग्री एक समय तक ही काम आती है.

किताबों से दूरी की वजह

ई-बुक्स और इंटरनेट का प्रभाव

लेकिन आजकल के बिजी लाइफस्टाइल में बहुत कम लोग ही किताब पढ़ने की आदत (रीडिंग हैबिट) को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना पाते हैं. इस की एक बहुत बड़ी वजह सोशल मीडिया है जिस में टाइम वेस्ट करने को हम ज़माने के साथ चलना कहते हैं. वहां घंटों मोबाइल को चलने, बेकार के वीडियो देखने, रील बनाने और चलने में हम घंटों बरबाद कर रहे हैं. इस का फायदा तो कुछ नहीं है पर हम अपना कीमती समय ख़राब कर रहे हैं और ज्ञान भी कुछ नहीं मिल रहा.

दूसरे, हमें आज ई-बुक्स पढ़ना ज्यादा आसान लगता है. लेकिन ई-बुक्स को पढ़ना उतना आसान नहीं है इन उपकरणों को केवल चार्जिंग और इंटरनेट कनेक्शन द्वारा संचालित किया जाता है. डिस्चार्ज होने पर ये काम नहीं करेंगे. यह शर्त मैन्युअल रूप से किताबें पढ़ने पर लागू नहीं होती है. हम किसी भी समय किताब पढ़ सकते हैं और इस में कुछ भी खर्च नहीं होता है, और सब से महत्वपूर्ण है महसूस होना किताबों के छूने का सुख ई-बुक्स कभी नहीं दे सकता. इसलिए आएं जाने किताबे पड़ना क्यों जरुरी है.

किताबें पढ़ना क्यों है जरूरी

पढ़ने से मैमोरी शार्प होती है

यदि आप कोई काल्पनिक पुस्तक पढ़ते हैं, तो आप का मस्तिष्क विभिन्न पात्रों के नाम और स्वभाव को याद कर लेता है. उन के इतिहास में वापस जाना और घटनाओं या कथानक को याद करना मज़ेदार होता है और आप की याददाश्त में सुधार करता है. कई बार हम बात करतेकरते भी भूल जाते हैं की हम किस विषय पर बात कर रहे थे लेकिन जब हम उस बात को शांति से बैठ कर पढ़ते हैं तो कभी नहीं भूलते.

Vocabulary अच्छी होती है

पढ़ने से हमें नए शब्द सीखने को मिलते हैं. जितना हम पढ़ेंगे उतना ही नए शब्द हमारी मैमोरी में स्टोर होते जाएंगे. वे नए शब्द धीरेधीरे आप की डेली लाइफ के बोलने में अपनी जगह बना लेंगे. इस के आलावा अगर आप के पास ज्यादा शब्द होंगे तो इस से आप की बोलने की शैली भी बेहतर होगी और आप ज्यादा क्लियर तरीके से अपनी बात सामने वाले को समझा पाएंगे. स्पष्ट और अच्छी तरह से बोलने वाला होना किसी भी करियर में मदद कर सकता है और यह जानना कि आप आत्मविश्वास के साथ बोल सकते हैं, आप के आत्म-सम्मान को बहुत बढ़ावा दे सकता है.

स्ट्रेस कम होता है

स्ट्रेस में होना कोई बीमारी नहीं है बल्कि एक सिचुएशन है और इस सिचुएशन से आप खुद ही बाहर निकल सकते हैं. इस के लिए किताबें बहुत अच्छा रोल प्ले करती हैं. क्योंकि जब आप एक अच्छी स्टोरी में आप खो जाते हैं और आप का दिमाग कहीं और चला जाता है.

आप लेखक की रची हुए कल्पना की दुनिया में गोते लगाने लगते हैं और उस के द्वारा लिखे गए शब्दों के अर्थ समझने में लग जाते हैं और इसे बीच आप का अपना तनाव छू मंतर हो जाता है. हमें याद भी नहीं रहता की कुछ देर पहले हम किस मानसिक तनाव में थे. पढ़ने से तनाव कम हो सकता है, हृदय गति कम हो सकती है और रक्तचाप कम हो सकता है.

सहानुभूति विकसित करती है

पुस्तकें हमें अपने जीवन से बाहर की वास्तविकताओं का अनुभव कराती हैं. वे हमें अकसर कथावाचक के स्थान पर रख कर दूसरों से जुड़ना सिखाती हैं. हमें अपने आलावा दूसरों के दुखदर्द के प्रति भी संवेदनाएं होती हैं. हम उन से भी जुड़ने और समझने की कोशिश करते हैं.

नौलेज और ब्रेनपावर को बढ़ाती है रीडिंग हैबिट

पुस्तकें रोचक तथ्यों से भरी होती हैं. चाहे आप काल्पनिक या गैर-काल्पनिक किताबें पढ़ें, किताबें हमें ऐसी जानकारी दे सकती हैं जो हमें शायद पता न हो. विभिन्न विषयों को पढ़ना आप को अधिक ज्ञानवान व्यक्ति बना सकता है. कई विषय तो ऐसे होते हैं जिन के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं होती लेकिन जब उन के बारे में पढ़ते हैं तो वह इतना रोचक लगता है कि हम पढ़ते ही जातें हैं और कई घंटे बीत जाते हैं.

सोशल मीडिया से हमें दूर कर, नींद को पास बुलाती हैं किताबें

कई शोधों में खुलासा हुआ है कि किताब पढ़ने से नींद अच्छी आती है. हैल्थ एक्सपर्ट्स हमेशा रात में सोने से पहले मोबाइल चलाने के बजाय किताब पढ़ने की सलाह देते हैं. मनपसंद किताब पढ़ने से मस्तिष्क में मेलाटोनिन हार्मोन रिलीज होता है, जो मस्तिष्क को सोने का संकेत देता है. इस के लिए रोजाना रात में सोने से पहले अपनी मनपसंद किताब जरूर पढ़ें.

इलैक्ट्रानिक्स की कृत्रिम लाइट आप के दिमाग को संकेत देती है कि अभी जागने का समय है इसलिए बिस्तर पर आते ही इन चीजों से दुरी बना लें. अपना टैलीविजन बंद करना और अपने फ़ोन पर स्क्रौल न करना शरीर को आराम करने के लिए प्रोत्साहित करता है और बेहतर नींद लाता है. इसलिए हर रोज सोने से पहले कुछ पढ़ कर सोने की आदत डालें इस से काफी जल्दी नींद आ जाएगी.

रीडिंग हैबिट जिज्ञासा को बढ़ाती है

सही मायने में अगर आप में नईनई चीजों को जानने का जुनून है आप तभी आगे बढ़ पाएंगे. और रीडिंग हैबिट आप की जिज्ञासा को विकसित करती है. आप जितनी ज्यादा बुक्स पढ़ेंगे आप की जानने की भूख उतनी ही बढ़ेगी.

सफल बनना है तो रोज अखबार और किताबे पढ़ें

रोज सुबह उठ कर अखबार और किताबें पढ़ने की आदत आप को सफल बनाएगी. उस में आप को देशविदेश की जानकारी मिलेगी. आजकल समाज में क्या हो रहा है? क्या चल रहा है? इस के बारे में अपडेट रहेंगे तो यह आप की पढ़ाई और नौलेज बढ़ाने में भी मदद करेगा. इस के आलावा हमारे इर्दगिर्द बहुत से ऐसे लोग होते हैं, जिन के पास हर वक्त कुछ नए आइडियाज़ तैयार रहते हैं. उन का माइंड भी हमारे जैसा ही है. मगर वे लोग ज्यादा क्रिएटिव सोच पाते हैं. इस का कारण सुबह सवेरे जल्दी उठ कर कुछ वक्त अपने लिए निकालना ज़रूरी है. हम भी उन के आईडिया से कुछ मदद ले सकें.

अब तो आप समझ ही गए होंगे की हमेशा से हमारे पेरैंट्स और टीचर्स के द्वारा किताबें पड़ने पर क्यों जोर दिया जाता रहा है. अब्राहम लिंकन ने भी कहा है कि “किताबें आदमी को ये बताने के काम आती हैं कि उस के मूल विचार आखिरकार इतने नए भी नहीं हैं.”

किताबों में यदि थोड़ी सी भी रूचि जागृत होती है तो आप से अधिक ख़ुशक़िस्मत व्यक्ति औऱ कोई नहीं हो सकता.

बहुत से पुस्तक प्रमियों का मानना है कि जितनी देर से हम पढ़ना शुरू करते हैं उतना ही अफसोस होता है कि यह काम पहले क्यों नहीं किया. एक से एक किताबें सामने आती जाती हैं. एकमात्र यही आदत है जिस की अति भी हमारा कोई नुकसान नहीं करती, उल्टा कुछ बेहतर करती है. हां, आप को क्या पढ़ना है उस का चुनाव सावधानी से करें.

तो फिर अब सोच क्या रहे हैं. आप भी पढ़ने कि आदत बनाइए चाहे महीने में एक किताब ही पढ़ें दिन में मात्र आधा घंटा सुबह या शाम किताबों को देना शुरू कीजिए. आप के व्यक्तित्व में आप को खुद ही बदलाव नजर आने लगेंगे.

लव यू दादी मां

22 साल की छोटी सी उम्र में इला फैशन इंडस्ट्री की एक जानीमानी हस्ती बन चुकी है. इतना ही नहीं अब इला ने शाहपुरजट इलाके में अपना नया शोरूम बना लिया है. साथ ही अपना ब्रैंड भी लौंच कर लिया है. अब वह बड़ेबड़े फैशन डिजाइनरों को टक्कर देने लगी है.
इला ने अपने नए ब्रैंड का नाम भी अनोखा सा ही रखा है, ‘जे फौर जानकी.’

जब कोई उस से पूछता है कि उस ने अपने ब्रैंड का यह नाम क्यों चूज किया है तो इला फख्र से बताती है कि जानकी मेरी प्यारी दादी मां का नाम है. आज यदि मैं अपनी लाइफ में इस मुकाम तक पंहुची हूं तो सिर्फ दादी मां की वजह से. मेरी दादी मां ही मेरी लाइफ की मैंटोर, मोटीवेटर व नेविगेटर आदि सब हैं.

इला की दादी मां इला के औफिस में हर रोज इला के साथ औफिस में आती हैं. कुछ देर आरामकुरसी पर बैठती हैं और जब थक जाती हैं तो इला ड्राइवर के साथ घर वापस भेज देती है. इला के मन में यह अटल विश्वास है कि दादी मां का चेहरा देख कर दिन की शुरुआत करने से निश्चय ही उस का पूरा दिन बहुत अच्छा गुजरता है.

जब इला उन की तरफ देख कर लोगों को इंगलिश में उन की तारीफ में कसीदे पढ़ती है तो उन शब्दों का पूरापूरा मतलब तो नहीं समझ पाती दादी पर इला के हावभाव से यह जरूर पता लग जाता है कि उन की पोती उन की तारीफ में ही कुछ कह रही है.

दादी मां इला की इस अदा पर मन ही मन खुश हो कर उस को ढेर सारे आशीर्वाद दे डालती हैं. दादी मां के चेहरे पर मंदमंद मुसकराहट खिल जाती है. इस मुसकराहट के पीछे न जाने कितनी दर्द की लकीरें अंकित हैं यह तो सिर्फ वे ही जानती हैं, फिर तुरंत ही अपने मन को यह कह कर समझ लेती हैं कि अंत भला तो सब भला.

इला उन के इकलौते बेटे राघव व बहू नीरा की इकलौती बेटी थी. इला के जन्म के बाद एक साल तक नीरा ने अवकाश ले कर इला की परवरिश की फिर औफिस जौइन करने के लिए यह सवाल सामने आया कि इतनी छोटी बच्ची को न तो घर में अकेले आया के साथ छोड़ा जा सकता है और न किसी डे केयर में.

नीरा ने जब यह समस्या अपनी मां के साथ शेयर की तो इला की नानी उस को अपने घर ले गईं. उन का मानना था कि इतनी छोटी बच्ची को अभी से किसी आया के भरोसे छोड़ना बिलकुल भी ठीक नहीं है. यों भी नीरा को अपनी बच्ची से अधिक अपने कैरियर की अधिक चिंता थी.

नीरा की मां ने लाख समझाया कि इला को अभी तुम्हारी व तुम्हारे प्यार की बहुत जरूरत है और जब तक इला 5 साल की नहीं हो जाती तब तक अपने जौब को भूल जाओ. लाइफ में समय व परिस्थिति के अनुसार कई समझौते करने ही पड़ते हैं. इन 5 सालों में तो मैं अपने कैरियर में इतना पीछे रह जाऊंगी कि फिर मुझे कोई जौब भी देगा या नहीं. मैं अपना कैरियर दांव पर नहीं लगा सकती, नीरा ने अपना दोटूक फैसला अपनी मां को सुना दिया.

काफी सोचविचार के बाद इला की नानी उसे अपने साथ अपने घर ले गई. इला अपनी नानानानी की आंखों का तारा थी. साथ ही इला की बालसुलब चपलता से उन का मन भी बहल जाता था. नीरा भी बीचबीच में अवकाश ले कर इला से मिलने जाती रहती थी. जब भी जाती अपनी बेटी के लिए ढेरों उपहार, टौफी, चौकलेट आदि ले जाती. शायद यही उस का अपनी बेटी को प्यार दिखाने का तरीका था.

इधर कुछ दिनों से इला की नानी की तबीयत खराब रहने लगी तो उन्होंने नीरा से कहा कि अब तुम इला को अपने साथ रखो ओर उस की देखरेख के लिए किसी अच्छी आया का इंतजाम कर लो.

नानानानी के लाड़प्यार ने इला को जिद्दी व बिगड़ैल बना दिया था. राघव व नीरा तो सारा दिन औफिस में व्यस्त रहते. इला अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि उसे घर में अकेले छोड़ा जा सके. अभी वह सिर्फ 6 साल की थी.

नीरा ने अपनी समस्या औफिस की कुलीग के साथ शेयर की. किसी ने आया रखने की सलाह दी तो किसी ने घर पर दादीनानी को बुला कर उन के पास छोड़ने की सलाह दी. अधिकांश कुलिग्स का कहना था कि कितनी भी अच्छी आया रख लो फिर भी बच्चे के पास किसी अपने का होना जरूरी है. इस से बच्चा सिक्योर फील करता है.

नीरा ने औफिस से एक सप्ताह का अवकाश लिया, शहर की अच्छी से अच्छी सिक्योरिटी एजेंसियों के बारे में पता किया जो अच्छीअच्छी आया का प्रबंध कर सकती थी. 1-2 कंपनियों ने तो शहर के नामीगिरामी लोगों के नाम भी बताए कि हमारे यहां से भेजी गई आया के व्यवहार से उस के घर वाले संतुष्ट थे. नीरा ने पूरे घर में कैमरे भी फिट करवा दिए जिस से वह औफिस मे बैठेबैठे आया के क्रियाकलापों पर नजर रख सके कि आया उस की बच्ची के साथ कैसा व्यवहार कर रही है.

नीरा इतना करने के बाद काफी संतुष्टि का अनुभव कर रही थी कि वह तसल्ली से अपनी जौब पर फोकस कर सकेगी. राघव के टूर से लौटने पर उस ने अपने इंतजाम के बारे में बताया.

नीरा की सब बात सुनने के बाद राघव ने खुश हो कर कहा, ‘‘नीरा, हमारी बेटी इला के बारे में जो सोचा है बहुत अच्छा सोचा है. लेकिन मेरा मानना अभी भी यही है कि जबकि हम दोनों अपनेअपने जौब में बिजी हैं, ऐसे में आया के अलावा घर में किसी अपने का होना बहुत जरूरी है.

आप का क्या मतलब है कि किसी अपने का होना जरूरी है. अब कोई अपना क्या बाजार से खरीद कर लाया जाएगा? आप को तो मालूम है कि मेरी मां ने 6 साल तक इला को पालापोसा है. अब मेरे परिवार में तो कोई है नहीं जो हमारे घर आ कर रहे इला के साथ.

‘‘क्यों, इला की दादी तो है अभी. वे स्वस्थ भी हैं, अनुभवी भी. उन को जा कर ले आता हूं, वही रहेंगी इला के साथ. फिर जब इला कुछ और बड़ी हो जाएगी तो उसे किसी अच्छे होस्टल में डाल देंगे, जहां उस की पढ़ाईलिखाई व देखरेख दोनों भलीभांति हो जाएगी,’’ राघव के मुंह से इला की दादी को अपने घर में लाने की बात सुन कर नीरा का मूड उखड़ गया.

‘‘आप को तो बस हरदम अपनी मां को ही इस घर में लाने के मौके की तलाश रहती है. आप को तो मालूम है कि मुझे अपने घर में किसी की दखलंदाजी जरा भी पसंद नहीं है फिर वह देहातिन मेरी बच्ची को क्या अच्छी आदतें व संस्कार सिखाएगी.’’

‘‘क्यों, हम भाईबहनों को भी तो उन्होंने ही पाला है और अच्छे संस्कार भी दिए हैं,’’ इस मुद्दे को ले कर राघव व नीरा में काफी बहस हुई. आखिर नीरा को अपनी मौन सहमति देनी ही पड़ी.

भावावेश मे आ कर नीरा ने सासूमां के लिए जो देहातन शब्द का प्रयोग किया था उस पर उसे खुद ही खेद हुआ और इस के लिए राघव से उस ने तुरंत सौरी कह कर माफी मांग ली.

दूसरे दिन इतवार था. राघव कार ले कर गया और दोपहर तक मां को ले कर आ गया. बहू नीरा ने उन्हें देख कर जिस अंदाज मे पैर छुए और जिस तरह मुंह लटका लिया वह उन्हें बहुत खला. आखिर वह बच्ची तो नहीं थीं. अनमने ढंग से किए जाने वाले स्वागत को पहचानने की बुद्धि वह रखती ही थीं. उन की पोती भी उन्हें अजनबी नजरों से देखती रही. फिर राघव ने इला को बताया कि तुम्हारी दादी मां हैं. इन को अपना कमरा नहीं दिखाओगी?

यों तो नीरा ने इला को व्यस्त रखने के लिए उस को कई तरह की ऐक्टिविटीज की क्लासेस जौइन करा दी थीं. इन क्लासेस में वह क्या सीख कर आ रही है या नहीं, यह जानने और पूछने का नीरा को समय कहां था. उस की कौरपोरेट जगत की नौकरी, उस का सारा समय खा जाती थी. नीरा चाहते हुए भी इला से अधिक इंटरैक्शन नहीं कर पाती थी.

नीरा अपने जौब में व्यस्त रहती. सुबह 8 बजे घर से निकल कर शाम 8 बजे तक ही घर पहुंच पाती. तब तक इला सो चुकी होती. यही कारण था कि इला धीरेधीरे अपनी मां से दूर व दादी मां के नजदीक होती जा रही थी.

हां, शुरूशुरू में तो इला को अपने कमरे मे दादी मां का रहना अजीब लगा फिर उन के प्यार व स्नेहभरे व्यवहार से अब उन के साथ घुलनेमिलने लगी थी.

एक दिन ड्राइंग क्लास से लौटी तो बहुत खुश थी. जानकीजी ने उस की खुशी का कारण पूछा तो उस ने अपनी ड्राइंग की कौपी उन को दिखाई और बताया कि मैम ने हैप्पी फैमिली ड्रा करने को बोला था. मैं ने जो बनाया उस को देख कर बहुत खुश हुईं. मुझे शाबाशी दी. उस ने अपनी ड्राइंग कौपी में मम्मीपापा के साथ दादी मां को भी चित्रित किया था. जानकीजी यह जान कर बहुत खुश हुईं.

समय अपनी गति से बीत रहा था. घर में आया के साथसाथ इला की दादी मां है, यह सोच कर नीरा काफी निश्चिंत हो गई थी. इला धीरेधीरे बड़ी हो कर 12 साल की उम्र तक पहुंच रही थी. एक दिन स्कूल से लौटी तो स्कूलबैग पलंग पर पटक कर अपने बैड पर औंधे मुंह गिर कर रोने लगी. जानकीजी ने उस के स्कर्ट पर खून के दाग देखे तो घबरा गई. उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और कहा, ‘‘मुझे बताओ, क्या तुम को कहीं चोट लगी है, स्कूल में खेलते समय.’’

इला ने कहा, ‘‘नहीं, पर मेरे पेट मे जोर का दर्द हो रहा है. मां को 2-3 बार फोन मिलाया पर बात नहीं हो पाई. दादी मां, क्या आप के पास मेरे पेट दर्द को दूर करने की कोई दवा है?’’

‘‘हां, है न, मेरी दवा से तुम्हारा दर्द एकदम छूमंतर हो जाएगा,’’ जानकीजी समझ गईं कि इला को पीरियड्स शुरू हो गए हैं और इसी कारण उस की स्कर्ट पर खून के दाग लगे हैं और पेट दर्द हो रहा है.

उन्होंने आया को बोल कर गरम पानी की बोतल लाने को कहा. इला को अपने पास लिटाया, उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और पेट की सिंकाई की. थोड़ी देर में ही इला को नींद आ गई. जब वह सो कर उठी तो बोली, ‘‘लव यू दादी मां, आप ने तो सच में ही मेरा पेट दर्द गायब कर दिया.’’

इला को अपने पास बैठा कर धीरेधीरे उसे पीरियड्स की जानकारी दी और बताया, ‘‘बेटा, एक उम्र आने पर ऐसा सभी के साथ होता है. अब हर महीने तुम को इस से गुजरना होगा. 3-4 दिन के बाद तुम नौर्मल महसूस करोगी. डरने जैसी कोई बात नहीं है मेरी बच्ची. हां, इस दौरान तुम को अधिक उछलकूद से बचना होगा और अपने खाने में हैल्दी फूड्स शामिल करने होंगे ताकि इस दौरान जो रक्त तुम्हारे शरीर से बाहर निकलेगा उस से कमजोरी महसूस न हो.’’ इला ने दादी मां की सारी बातें बहुत ध्यान से सुनीं और कहा कि आगे से इन बातों का ध्यान रखेगी.
समय धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था. दादी मां को सिलाई व कढ़ाई करते देख उस का रुझान भी इस ओर बढ़ रहा था. इस बार एग्जाम में क्राफ्ट की फाइल में उसे फुल मार्क्स मिले थे क्योंकि दादी मां से सीखे कसीदों ने उस को काफी हुनरबाज बना दिया था.

आज इला खुश थी क्योंकि उस की टीचर ने उस की क्राफ्ट फाइल दिखा कर उस की बहुत तारीफ की थी. घर आते ही इला दादी मां के गले मे बांहें डाल कर लिपट गई और बोली, ‘‘लव यू दादी मां.’’

जानकीजी इला को अब तक गुड टच व बैड टच के बारे में भी बता चुकी थीं. यों तो इला कार से ही स्कूल आनाजाना करती थी. सुबह ड्राइवर स्कूल छोड़ आता. शाम को वापस घर ले आता.

एक दिन इला स्कूल से आ कर अपने कमरे में कपड़े बदल रही थी. उस की क्लास  का लड़का नोट्स लेने के बहाने घुस आया क्योंकि दरवाजा असावधानीवश खुला रह गया था. जानकीजी रसोई में इला के लिए खाना लगा रही थीं. वह लड़का पहले तो इला से छेड़छाड़ करने लगा फिर उस से जबरदस्ती करने की कोशिश की. इला जोर से चिल्लाई. आवाज सुन कर दादी मां तुरंत दौड़ी आई और उस लड़के का कौलर पकड़ कर 2-3 थप्पड़ मारे फिर घर के बाहर खींच कर ले गईं और जोरजोर से आवाज लगा कर पूरे महल्ले को जमा लिया. सभी लोगों ने पूरी बात जान कर उस लड़के की जम कर धुलाई की. तब तक किसी ने पुलिस को बुला लिया था. उस लड़के को पुलिस के हवाले कर दिया गया.

कमरे में आने पर देखा कि इला कोने में डरीसहमी खड़ी थी. वह जानकीजी को देख कर उन से लिपट कर रोने लगी और रोतीरोती बोली, ‘‘लव यू दादी मां. यू आर ग्रेट. यदि आज आप न होतीं तो न जाने क्या हो जाता. आया आंटी तो इन सब से बेखबर घोड़े बेच कर सो रही है.’’

शाम को नीरा के औफिस से वापस आने पर इला ने पूरी घटना अपनी मां को बताई कि किस तरह दादी मां की वजह से आज आप की बेटी किसी अनहोनी का शिकार होने से बच गई. नीरा को महसूस हुआ कि घर में किसी अपने का होना बहुत जरूरी है. साथ ही उस ने जा कर अपनी सासू मां को धन्यवाद दिया और अपने अब तक के व्यवहार के लिए माफी मांगी.

इला ने 12वीं तक जातेजाते जानकीजी से कपड़ों की कटिंग, कढ़ाई व डिजाइनिंग आदि सब सीख लिया था. इसलिए उस ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने का मन बना लिया था. उस की मां ने भी उस की चौइस पर अपनी हां की मुहर लगा दी क्योंकि इला के साथसाथ नीरा भी सासूमां के हुनर को सलाम करने लगी थी और इला वह तो उठतेबैठते हर समय बस एक ही बात बोलती रहती थी, ‘‘लव यू दादी मां.’’

इलजाम

वासुदेव जबलपुर के एक होटल में एक उपन्यास पढ़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन वह उपन्यास के कथानक पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था, क्योंकि मन बहुत खुश था. दूसरी बेटी मार्च महीने में पैदा हुई थी. वह बैंकर था, इसलिए मार्च महीने की व्यस्तता की वजह से वह बेटी के जन्म के समय पटना नहीं जा सका था. मनमसोस कर रह गया था वह.

नौकरी में इंसान नौकर बन कर रह जाता है. मन की कुछ भी नहीं कर पाता है. बड़ी बेटी के जन्म के समय में भी वह पत्नी के साथ नहीं था. इसी वजह से जब भी मौका मिलता है, पत्नी उलाहना देने से नहीं चूकती है. हालांकि उसे भी इस का बहुत ज्यादा अफसोस था, लेकिन उस की भावनाओं व मजबूरियों को समझने के लिए पत्नी कभी भी तैयार नहीं होती थी.

भोपाल से पटना के लिए हर दिन ट्रेन नहीं थी. पटनाइंदौर ऐक्सप्रैस सप्ताह में सिर्फ 2 दिन चलती थी. इटारसी से किसी भी ट्रेन में आरक्षण नहीं मिल पा रहा था और वासुदेव को जनरल बोगी में सफर करने की हिम्मत नहीं थी. हालांकि बेरोजगारी के दिनों में वह जनरल बोगी में बडे़ आराम से सफर किया करता था. एक बार तो वह हावड़ा से चेन्नई जनरल बोगी के दरवाजे के पास बैठ कर चला गया था और एक बार भीड़ की वजह से ट्रेन के बाथरूम को बंद कर कमोड में बैठ कर बोकारो से गया तक का सफर तय किया था.

लोकमान्य तिलक टर्मिनल से पटना जाने वाली ट्रेन में जबलपुर से आरक्षित सीटें उपलब्ध थीं. इसलिए, उस ने जबलपुर से टिकट कटवा लिया और भोपाल से जबलपुर बस से आ गया. ट्रेन शाम को थी, इसलिए लंच करने के बाद वह उपन्यास पढ़ने के लिए कमरे की बालकनी में बैठ गया.

उस की आंखें उपन्यास के पन्नों पर जरूर गढ़ी थीं, लेकिन मन बेटी के चेहरे की कल्पना करने में लीन था. क्या मेरे जैसी होगी वह या फिर वाइफ जैसी? मेरे जैसा चेहरा न हो तो ठीक ही होगा, क्योंकि वासुदेव का चेहरा बहुत बड़ा था, इस वजह से बहुत लोग उस का मजाक उड़ाते थे, बदसूरत कहते थे.

ससुरजी ने भी एक बार उसे बेटी के सामने ही बदसूरत कह दिया था, लेकिन उसे लोगों की बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि उस की नजरों में इंसान अपनी सीरत से पहचाना जाता है न कि सूरत से. वह बमुश्किल उपन्यास के 2-3 पन्ने ही पढ़ पाया था कि सोचने लगा कि जल्दी से ट्रेन आए और वह उड़ कर पटना पहुंच जाए. उस के मन में बेटी के अलावा बस यही विचार उमड़घुमड़ रहे थे.

मोबाइल की घंटी बजने से उस की तंद्रा भंग हो गई. उसे लगा कि पत्नी का फोन है. जबलपुर पहुंचने के बाद से 5 बार उस का फोन आ चुका था, लेकिन मोबाइल देखा तो अकाउंटैंट का फोन था. वह चौंक गया, क्योंकि अवकाश स्वीकृत होने के बाद ही उस ने हैडक्वार्टर छोड़ा था.
अकाउंटैंट ने घबराए स्वर में बोला, ‘‘सर, शाखा में लालवानी सर आए हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘फिर इस में घबराने की क्या बात है, सीनियर हैं, लेकिन हमारे पुराने मित्र हैं. चायनाश्ता करवाइए उन्हें.’’

अकाउंटैंट ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘लालवानी साहब आप के द्वारा स्वीकृत किए गए लोन खातों व उन के दस्तावेजों की जांच करने के लिए आए हैं.’’

यह सुन कर वासुदेव को झटका लगा, क्योंकि परसों ही लालवानी सर परिहार सर के घर में हो रही पार्टी में मिले थे, लेकिन उन्होंने जांच के बारे में कुछ नहीं बताया था. हां, वासुदेव से यह जरूर पूछा था, ‘‘सुना है, तुम छुट्टी पर पटना जा रहे हो?’’

जबाव में वासुदेव ने कहा था, ‘‘हां, छोटी बेटी का जन्म मार्च महीने में हुआ था, लेकिन क्लोजिंग के कारण उस समय घर नहीं जा सका था. इसलिए, 10 दिनों की छुट्टी ले कर घर जा रहा हूं, कुछ वक्त परिवार के साथ गुजारूंगा.’’

वासुदेव अकेले ही रहता था. इस के पहले उस की पदस्थापना भोपाल के बैरागढ़ में थी. जब उस की बड़ी बेटी का जन्म हुआ था, तभी उस की पोस्टिंग विदिशा जिले के सिरोंज तहसील में हुई थी.

उस ने प्रबंधन और यूनियन दोनों से आग्रह किया था कि उस की पोस्ंिटग या तो भोपाल से दिल्ली मुख्य रेलखंड के आसपास कर दें या फिर भोपाल से इटारसी मुख्य रेलखंड के आसपास ताकि वह भोपाल से रोज अपडाउन कर ले या फिर ऐसी जगह पोस्टिंग करें, जहां अच्छी मैडिकल सुविधा उपलब्ध हो ताकि जरूरत पड़ने पर वह बेटी का इलाज करा सके, क्योंकि हाल ही में गुना से भोपाल इलाज के लिए लाते हुए रास्ते में ही एक मुख्य प्रबंधक की मौत हो गई थी.

प्रबंधन और यूनियन वालों ने उस की एक नहीं सुनी और कहा, ‘‘बैंक की सर्विस औल इंडिया होती है और देश के किसी भी कोने में तुम्हारी पोस्टिंग की जा सकती है, हम तुम्हारे हिसाब से तुम्हारी पदस्थापना नहीं कर सकते हैं.’’

वासुदेव भावुक और संवेदनशील इंसान था. उसे इस बात का दुख नहीं था कि उस के खिलाफ जांच शुरू हुई है, दुख इस बात का था कि लालवानी सर ने उसे जांच के विषय में कुछ नहीं बताया, जबकि लालवानी सर से उस के मधुर संबंध थे, इसलिए उसे उन से ऐसी उम्मीद नहीं थी.

वैसे, वासुदेव जांच की बात सुन कर जरा सा भी नहीं डरा था, क्योंकि उस ने सारे लोन बैंक के दिशानिर्देशों के अनुरूप स्वीकृत किए थे. हां, पाइपलाइन के लिए दिए गए लोन में उसे इस बात की आशंका थी कि जांच के समय किसान के पास पाइप मिलेगी या नहीं, क्योंकि गरीबी की वजह से छोटे किसान पाइप उधार ले कर सिंचाई करते थे. सिरोंज और लटेरी तहसील में पानी की कमी होने और सिंचाई की समुचित सुविधा नहीं होने की वजह से नदी या नहर या तालाब से पानी पाइप की मदद से खेतों तक लाना पड़ता था. चूंकि वहां के अधिकांश इलाकों में भूजल नहीं था या बहुत ही नीचे था. इसलिए इलाके में गिनेचुने कुएं थे. अधिकांश गांवों में पीने का पानी टैंकर से जाता था.

वासुदेव की शाखा में सिरोंज और लटेरी दोनों तहसीलों के ग्राहक थे. कई बैंक वहां थे. इसलिए, प्रतिस्पर्धा भी बहुत ज्यादा थी. बिजनैस बढ़ाना आसान नहीं था. उस की शाखा सिरोंज से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर सिरोंज और लटेरी तहसील के बीच थी. वह बस या बाइक से शाखा जाता था. शाखा में भी बैंक की एक बाइक थी. इसलिए, जिस दिन वह बस से शाखा जाता था, उस दिन बैंक की बाइक का इस्तेमाल वह गैर निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) वसूली के लिए करता था.

सुबह 6 बजे ही वासुदेव वसूली हेतु घर से निकल जाता था. गांव जा कर वह सीधे मुखिया और सरपंच को चूककर्ता की सूची दे कर कहता था, ‘‘पंचायत भवन में उन्हें बुला कर पैसे जमा करने के लिए दबाव बनाएं, अगर वे मदद करेंगे तो बैंक गांव के जरूरतमंदों को कर्ज देने से कभी पीछे नहीं हटेगा. गांव के विकास हेतु भी वह जरूरी कर्ज मुहैया कराएगा.’’

वासुदेव, कहेअनुसार काम भी करता था. वह कई गांवों में युवकों को स्वरोजगार शुरू करने और डाक्टरों को क्लीनिक शुरू करने के लिए लोन पास कर चुका था. इस कारण सरकारी योजनाओं वाले लोन के बजटीय लक्ष्य को भी वासुदेव हर साल आसानी से हासिल कर लेता था. जिला कलेक्टर के अलावा राज्य के मुख्यमंत्री भी उसे इस के लिए सम्मानित कर चुके थे.

वासुदेव की यह रणनीति बहुत ही कारगर थी. इस से एनपीए की वसूली तो होती ही थी साथ ही साथ उसे डिपोजिट भी गांव में मिल जाती थी और ऋण के अच्छे प्रपोजल भी. वह बीमा के प्रोडक्ट भी सुबहसुबह गांव में बेच देता था. गांव वालों को घर में ही सारी बैंकिंग सुविधाएं दे देता था. इसलिए, उस शाखा का बिजनैस बहुत तेजी से बढ़ रहा था.

वासुदेव ने दिसंबर महीने में ही डिपोजिट, एडवांस, बीमा और म्यूचुअल फंड का बजटीय लक्ष्य हासिल कर लिया.

एनपीए की शानदार वसूली के लिए बैंक की तरफ से उसे एक लाख का पुरस्कार भी दिया गया और शाखा के हर स्टाफ सदस्य को 20-20 हजार की प्रोत्साहन राशि दी गई, ताकि सभी स्टाफ सदस्यों का मनोबल ऊंचा रहे और वे प्रोत्साहित हो कर भविष्य में भी इसी तरह से शानदार प्रदर्शन करते रहें.

वासुदेव के प्रदर्शन से बैंक प्रबंधन बहुत खुश था और उन्हें उम्मीद थी कि वासुदेव शाखा के बिजनैस को और भी बढ़ा सकता है. इसलिए, उसे जमा और एडवांस में अतिरिक्त बजट दिए गए, लेकिन उसे भी वासुदेव ने मार्च से पहले ही पूरा कर लिया. हालांकि वासुदेव के प्रदर्शन से बैंक की अन्य शाखाओं के शाखा प्रबंधकों में खलबली मची हुई थी.

हर प्री रिव्यू मीटिंग में रीजनल मैनेजर (आरएम) वासुदेव की खुल कर तारीफ करते थे, जिस से अन्य शाखा प्रबंधकों के सीने पर सांप लोट जाते थे. वे वासुदेव की सफलता को बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे. अपनी कमियों को छिपाने के लिए वे वासुदेव को रिश्वतखोर साबित करने में लगे रहते थे. मुख्य शाखा के शाखा प्रबंधक अजित परिहार सर भी वासुदेव से बहुत चिढ़ते थे, जबकि वासुदेव उन से पहले कभी नहीं मिला था. बिना मिले ही वे उस के दुश्मन बन गए थे.

परिहार सर शाखा की ऊपर वाली मंजिल पर अकेले रहते थे और रोज बिल्ंिडग की छत पर पार्टी करते थे. वह चाहते थे कि वासुदेव भी रोज उन की पार्टियों में शिरकत करे और पार्टी को स्पौंसर भी करे. उन की पार्टी में शराब और कबाब के साथसाथ शिकवाशिकायत व गलीगलौच का दौर चलता था. जो उन की पार्टियों में शिरकत नहीं करता था, परिहार सर उसे किसी न किसी तरह से नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते थे.

सिरोंज में भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की ब्रौडबैंड की सेवा उपलब्ध थी और उस की स्पीड भी बहुत अच्छी थी. इसलिए वासुदेव ने तुरंत इस की सेवा ले ली थी, क्योंकि वह रोज रात को पत्नी और बच्चों से वीडियो कौल पर ढेर सारी बातें करता था. उसे दिनभर की दिनचर्या में से नईनई और अनोखी सूचनाएं निकाल कर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने का चसका भी लग गया था, क्योंकि उस के पोस्ट पर हजारों लाइक्स और कमैंट्स आते थे, जिसे देख व पढ़ कर वह दिनभर खुश होता रहता था. गांव, जंगल और पहाड़ से जुड़ी अनोखी जानकारियों व कहानियों को शहर वाले बहुत पसंद करते थे. गांव से शहर पलायन करने वालों को यह सबकुछ ज्यादा ही पसंद था, क्योंकि वे इन सब को बहुत ही ज्यादा मिस करते थे.

जिंदगी में खालीपन न लगे, इसलिए वासुदेव खुद को हमेशा व्यस्त रखने की कोशिश करता था. उस ने इंदिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) में व्यवसाय प्रबंधन में स्नातकोत्तर (एमबीए) में दाखिला ले लिया था. वासुदेव पहले 5 सालों तक मीडिया में काम कर चुका था और पढ़नेलिखने का शौक उसे बचपन से था. बैंक में आने के बाद उस का पढ़नालिखना छूट गया था. चूंकि, वह अकेले रह रहा था, इसलिए मौके का फायदा उठाते हुए नियंत्रण अधिकारी से अखबारों में लिखने की अनुमति ले कर फिर से लिखना शुरू कर दिया.

वह संपादक को यह समझाने में कामयाब रहा कि वह अखबार के रिपोर्टरों से बेहतर रिपोर्टिंग कर सकता है, क्योंकि एनपीए की वसूली करने के क्रम में जंगल व पहाड़ के अलावा सिरोंज और लटेरी तहसील के गांवगांव में घूमता है, इसलिए वह ग्रामीणों और वंचित तबके व आदिवासियों की समस्याओं, पेड़ों की अवैध कटाई, जंगली जानवरों के शिकार आदि मामलों की अच्छी समझ रखता है.

शुरू में अखबारों के संपादकों ने नानुकुर किया, लेकिन वासुदेव की रिपोर्ट पढ़ने के बाद दोनों समझ गए कि वासुदेव के अखबार से जुड़ने से अखबार की विविधिता और विश्वसनीयता में इजाफा होगा और इस का फायदा उन्हें ही मिलेगा. इसलिए दोनों संपादकों ने वासुदेव को साप्ताहिक स्तंभ लिखने की अनुमति दे दी.

एमबीए का असाइनमैंट और अखबार के लिए कौलम लिखने की वजह से वासुदेव बहुत बिजी हो गया. फिर भी वह परिहार सर की 1-2 पार्टी में शामिल हुआ और पार्टी को स्पौंसर भी किया, लेकिन परिहार सर की अपेक्षा बढ़ती गई. इसलिए एक दिन उस ने परिहार सर को साफसाफ कह दिया कि न तो वह उन की पार्टी में आएगा और न ही पार्टी के लिए पैसे देगा.

वासुदेव के बागी तेवर को देख कर परिहार सर उस के पीछे पड़ गए. वह हर जगह वासुदेव की शिकायत करने लगे. क्षेत्रीय कार्यालय में भी वे आरएम सहित सभी डैस्क अधिकारियों के कान भरने लगे. आरएम कान के कच्चे थे, इसलिए परिहार सर उन्हें भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि वासुदेव लोन के एवज में रिश्वत लेता है, जिस से बैंक की साख खराब हो रही है. वह बढ़चढ़ कर के लोन इसलिए बांट रहा है, ताकि उसे अधिक से अधिक रिश्वत मिले.

क्षेत्रीय कार्यालय में उस के कुछ मित्रों ने उसे परिहार सर की कारस्तानी के बारे में बताया, लेकिन वासुदेव यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं हुआ कि परिहार सर इस हद तक नीचे गिर सकते हैं. उसे इस बात का भी विश्वास नहीं था कि परिहार सर की शिकायत पर आरएम सर कोई काररवाई करेंगे, क्योंकि आरएम सर उस के काम से बहुत खुश थे. उस के उम्दा प्रदर्शन के लिए वे कई बार उसे पुरस्कृत भी कर चुके थे और मामले में सब से महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उस ने कभी भी कोई गलत काम नहीं किया था.

जांच की काररवाई शुरू होने पर वासुदेव को अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था. परिहार सर जरूर एक नाकारा और नाकाबिल अधिकारी थे, लेकिन साथ में भोपाल मंडल के अधिकारी यूनियन के जनरल सेक्रेटरी भी थे. इसलिए उन की भोपाल मंडल में खूब चलती थी. नए अधिकारी भले ही उन्हें नहीं जानते थे, लेकिन पुराने लोग उन्हें जानते भी थे और उन से खौफ भी खाते थे.
खबर सुनने के बाद वासुदेव का मन कसैला हो गया और उस के मन में व्यवस्था को ले कर कई तरह के सवाल घूमने लगे, जैसे आरएम सर ने बिना सोचेसमझे जांच का आदेश क्यों दिया? क्या सच से उन्हें कोई लेनादेना नहीं है? क्या बैंक किसी के हनक और स्वार्थ से ऐसे ही चलता रहेगा?

वासुदेव खुद को भी कोस रहा था कि क्यों बैंक की बेहतरी के बारे में उस ने सोचा. वह भी अन्य सहकर्मियों की तरह नौकरी करने का कोरम पूरा करता तो अच्छा रहता. क्यों वह उत्साही लाल बना? वह परिहार सर के रास्ते पर क्यों नहीं चला? कामचोर लोग जीहुजूरी कर के यहां प्रोन्नति तो ले ही रहे हैं वगैरा. हालांकि यह सब सोच कर वासुदेव को ही मानसिक रूप से तकलीफ हो रही थी.

छुट्टी से लौटने के बाद जब उस ने लालवानी सर से मिलने की कोशिश की तो वे भी मिलने से कन्नी काटने लगे. बहुत पीछे पड़ने पर मिले तो जरूर, लेकिन होंठों को सिले रहे.

2 महीने हो गए, लेकिन जांच रिपोर्ट नहीं आई. वासुदेव बाहर से खुद को मजबूत दिखाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन अंदर से वह बहुत ही ज्यादा कमजोर हो गया था. मीडिया में अच्छी साख होने की वजह से जांच की खबर अखबारों की सुर्खियां नहीं बन सकीं, लेकिन यह खबर आग की तरह क्षेत्रीय कार्यालय और उस के कार्यक्षेत्र में आने वाली सभी शाखाओं के साथसाथ सिरोंज और लटेरी तहसील में फैल गई.

थाना प्रभारी से वासुदेव की अच्छी जानपहचान थी. बावजूद इस के एक दिन चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैनेजर साहब, आप तो छिपे रुस्तम निकले. सुना है, बहुत माल कमाया है आप ने, हम लोगों को एकाध बार पार्टी ही दे देते, बहुत दिनों से ब्लैक डौग का स्वाद नहीं चखा है मैं ने.’’
‘‘नहीं, आप को गलत जानकारी मिली है,’’ कह कर वासुदेव मुसकरा उठा, लेकिन अंदर से उसे ऐसा लग रहा था कि जमीन फट जाए और वह उस में समा जाए.

वासुदेव के सरल व सहज व्यवहार की वजह से इलाके के लगभग लोग उसे जानते थे. आज यही जानपहचान वासुदेव पर भारी पड़ रही थी. किसी से भी मिलने पर उस की आंखों में मौजूद सवालों का जबाव देने में वासुदेव असमर्थ था. उसे हमेशा यही लगता था कि सब की आंखें उसे घृणा और हिकारत भरी नजरों से देख रही हैं.

शाखा के सामने वाली चाय की दुकान पर वह लोगों को उस के रिश्वत लेने के बारे में खुसरफुसर करते हुए अकसर देखता था, लेकिन वह सबकुछ देख कर भी अनदेखी कर देता था.

परिवार के साथ में नहीं रहने की वजह से वह पूरी तरह से टूट चुका था. हालांकि पत्नी उस के मनोबल को ऊंचा रखने के लिए लगातार प्रयास कर रही थी. फिर भी, कमजोर पलों में एकाध बार उस ने आत्महत्या करने की भी सोची, लेकिन बेटियों का चेहरा सामने आने पर उस ने अपने मन को नियंत्रित कर लिया.

एक दिन वासुदेव जांच के बारे में पता करने के लिए क्षेत्रीय कार्यालय गया.

आरएम के एक खास बंदे से मिला, जिस के साथ उस के भी अच्छे संबंध थे.

पहले तो वह भी कुछ भी बताने से बचने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वासुदेव ने बहुत आग्रह किया तो उस ने कहा, ‘‘चिंता नहीं करो, तुम ने 85 किसान क्रैडिट कार्ड (केसीसी), 8 ट्रैक्टर लोन और 7 पाइपलाइन के लोन सैंक्शन किए थे, जिन में से सिर्फ 2 पाइपलाइन लोन में करीब 85 फुट पाइप किसानों के घर पर नहीं मिले, बाकी सभी लोन खाते एवं दस्तावेज सही हैं, जिन 2 ऋणी किसानों के पास पाइप नहीं मिले हैं, उन्होंने लिखित में बयान दिया है कि मिसिंग पाइप उन के रिश्तेदार के पास दूसरे गांव में है. इस तरह तुम्हारे खिलाफ लगाए गए सारे आरोप बेबुनियाद साबित हुए हैं. तुम्हें कोई सजा नहीं होगी और तुम्हारे निर्दोष होने की चिट्ठी इस सप्ताह तुम्हें मिल जाएगी,’’ यह सुन कर वासुदेव ने राहत की एक लंबी सांस ली और तुरंत फोन कर के पत्नी को यह खुशखबरी दी.

शनिवार की शाम को वासुदेव को क्लीन चिट वाला पत्र मिल गया. पत्र का मजमून पढ़तेपढ़ते वह सोचने लगा कि जिस तरह से विगत 2 महीनों से वह तनाव में जी रहा था, उस में कमजोर दिल वाले इंसान की मौत भी हो सकती थी. भले ही, मामले में उसे क्लीन चिट दे दी गई, लेकिन उस की ईमानदारी का कत्ल तो कर ही दिया गया. दामन पर लगे दाग को धोने के लिए कितनों को वह यह चिट्ठी दिखाएगा या सफाई देगा?

इस घटना से वासुदेव को यह भी समझ में आ गया कि किसी को दुश्मन बनाने के लिए उसे नुकसान पहुंचाना जरूरी नहीं है, अनजान व्यक्ति भी बिना किसी कारण का किसी का भी दुश्मन बन सकता है. आरोप लगाने वाले को इस बात की कतई परवा नहीं होती है कि उस के झूठे इल्जाम से किसी की मौत भी हो सकती है, परिवार तबाह हो सकता है.

न्यायधीश भी आरोपी का बिना पक्ष सुने सजा दे रहा है, वह यह नहीं सोच रहा है कि आरोप गलत साबित हुआ तो आरोपी का क्या होगा? उस के द्वारा भोगी गई सजा की कौन भरपाई करेगा? क्या उस की ईमानदारी पर कोई दोबारा विश्वास कर पाएगा?

मौजूदा समय में देश और दुनिया में रोज हजारों लोग झूठे आरोप लगने की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन उन की हत्या करने वालों को कभी भी, किसी भी कठघरे में खड़ा नहीं किया जा रहा है. आखिर क्यों?

दीवाली का टोटका – अंधविश्‍वास का ठग

एक दिन रुक्मिणी सेठानी हमारे घर आई. उस ने मुझे 500 सौ रुपए दे कर धीमे से कहा, ‘‘ये रुपए रख लो अब्दुल्ला की बहू, मुझे दीवाली के दिन लौटा देना. दीवाली आज से ठीक एक महीने बाद है, लो रुपए…’’

पर मैं ने हाथ आगे नहीं बढ़ाया. दरअसल, रुक्मिणी की बात मेरी समझ में नहीं आई. बिना मांगे रुपए दे कर दीवाली के दिन वापस करने की बात कुछ रहस्यमय लगी.

सेठानी होशियार थी. मेरी उलझन झट ताड़ गई. मुसकरा कर बोली, ‘‘बहू, यह एक टोटका है, दीवाली का टोटका.’’

फिर पाटे पर अच्छी तरह बैठ कर उस ने अपनी बात खुलासा बताई, ‘‘देखो राबिया, हमारे व्यापार में पिछले 2-3 वर्षों से मुनाफा नहीं हो रहा. लक्ष्मी आ ही नहीं रही. हां, अलबत्ता खर्च काफी हो जाता है. पंडितजी ने पतरा देख कर बताया है कि इस बार भी 6 का लाभ और 10 का खर्च है.’’

‘‘फिर तो इस का कारण भी उन्होंने बताया होगा?’’

‘‘बताया क्यों नहीं? बोले, ‘आप के घर दीवाली के दिन लक्ष्मी आए तो बात बने. इस दिन कोई रुपए ला कर दे तो समझना पौ बारह हैं,’’’

सेठानी तनिक मुसकराई.

‘‘अच्छा, फिर?’’ मुझे बड़ा अजीब लग रहा था.

‘‘फिर क्या, पंडितजी ने एक टोटका बताया है. वह करने पर ठीक दीवाली के दिन हमारे घर रुपए जरूर आएंगे.’’

‘‘कौन सा टोटका?’’

‘‘यही जो मैं करने जा रही हूं. ये रुपए तुम अपने पास रख लो. दीवाली वाले दिन मुझे दे जाना. किसी भी रूप में आए, दीवाली के दिन लक्ष्मी
आनी चाहिए. बस, टोटका पूरा हो जाएगा. फिर सालभर लाभ ही लाभ. कुछ समझे?’’

‘‘समझ गई,’’ चकित हो कर मैं ने सेठ धनपतराय की पत्नी को देखा. कितनी नादान, कितनी अंधविश्वासी है यह.

खैर, अपनी हंसी दबा कर सेठानी से 500 रुपए ले कर रख लिए और कहा, ‘‘मैं ये रुपए ठीक दीवाली के दिन आप के यहां आ कर दूंगी. आप का टोटका पूरा हो जाएगा. अब तो खुश हैं?’’

‘‘जीती रहो, राबिया, इस बार कुछ लाभ ज्यादा हो जाए तो रमा के हाथ पीले कर दूं. वैसे, उस की सगाई की बात चल रही है. लड़के वाले जल्दी ही रमा को देखने आएंगे.’’

‘‘हां, वैसे विभा और निशा भी सयानी हो गई हैं. उन के लिए भी घरवर खोज लो.’’

‘‘पहले रमा का ब्याह हो जाए, फिर आगे सोचूंगी. सेठजी को तो कोई चिंता नहीं. बस, व्यापार के पीछे पड़े रहते हैं. घर की तरफ तो मुड़ कर भी नहीं देखते.’’

सेठानी उठने को हुई तो मैं ने एक बात पूछ ली कि टोटका पूरा करने के लिए उन्होंने इतनी दूर ला कर रुपए क्यों दिए? यह काम तो पड़ोस में भी हो सकता था.

सेठानी का जवाब था, ‘‘पड़ोस में हमारी जातबिरादरी के लोग रहते हैं. अपने समाज में ऐसा करने से बात खुल जाती है जबकि टोटका गुप्त होना चाहिए. फिर अपने समाज वाले मौकेबेमौके ताना देने से भी नहीं चूकते. सब को पता लग जाने पर टोटके का प्रभाव जाता रहता है.’’

‘‘और अब तुम यह भी पूछोगी कि ये रुपए मुझे ही क्यों दिए तो इस का जवाब यह है कि तू और तेरा आदमी ईमानदार हैं. टोटके में लिखापढ़ी तो होती नहीं है, सो कोई ऐन वक्त पर इनकार कर दे तो सारे रुपए डूब गए.’’

‘‘यह तो आप ने अच्छी बात सोची.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं हमेशा अच्छी बात ही सोचती हूं. तो अब चलूं?’’ रुक्मिणी सेठानी उठ खड़ी हुई.

‘‘देख राबिया, हमारेतुम्हारे परिवारों में बड़ा पुराना अपनापन है. किसी से यह बात कहना नहीं. तू जाने या मैं, बस,’’ चलतेचलते उन्होंने समझाया.

सेठ धनपतराय का पूरा घर दीवाली के दिनों में कुछ ज्यादा ही अंधविश्वासी हो जाता था. आवश्यक चीजों की एक माह पहले ही खरीदारी हो जाती थी. बाकी पूरे कार्तिक मास में शायद ही उन्होंने कभी एक पैसा भी अंटी से निकाला हो.

उधर रमा की सगाई की बात तो चल ही रही थी. लड़के वालों ने अचानक कहला दिया कि हम रमा को देखने के लिए आ रहे हैं. लड़की पसंद आई तो सगाई पक्की कर जाएंगे. जब भी अवसर मिलेगा, आ जाएंगे.

यह समाचार बहुत अच्छा था, पर दिन व समय तय न होने के कारण सेठ धनपतराय के परिवार को कुछ असुविधा हो रही थी. खैर, लड़के वाले जो न करें वह थोड़ा.

छोटी दीवाली के दिन सेठानी ने सेठ को बताया, ‘‘देखना, कल दीवाली के दिन हमारे घर लक्ष्मी आएगी. कहीं से आए, कुछ रुपए जरूर आएंगे.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ सेठ धनपतराय मुसकराए.

सेठानी ने हंस कर पति की तोंद पर अपना सिर टिका दिया. ‘‘मेरी हथेली में खुजली जो हो रही है. रुपए जरूर आएंगे,’’ सेठानी ने अपनी हथेली खुजाना शुरू कर दिया था.

उस ने अपनी योजना पति को भी नहीं बताई थी. सेठ सोचने लगा कि दीवाली के दिन उन के यहां रुपए कहां से आ सकते हैं. दीवाली के दिन सुबह से ही सेठ धनपतराय के घर में बड़ी शांति थी. पूरा घर सतर्क था कि आज एक पैसा भी खर्च न हो जाए. उन्होंने चाय के लिए दूध भी रात को ही मंगवा लिया था. उधार का माल न सेठ किसी को देता था, न कोई सेठ को उधार देता था. लोग वही सुलूक कर रहे थे जो सेठ उन के साथ किया करता था. सुबह के 8 बजे होंगे कि सेठ के दरवाजे पर एक गाड़ी आ कर रुकी.

‘‘कौन है, देखना तो.’’ बही बंद कर के सेठ ने चश्मा ठीक किया. फिर खुद ही खिड़की से बाहर देख लिया, ‘‘अरे सुनो तो रुक्मिणी, वे लोग आ गए हैं, लड़के वाले.’’

सेठानी, जो रसोई झाड़ रही थी, भाग कर नल के नीचे गई. उस ने हाथमुंह धोया और अपनी बेटियों को सावधान कर के बैठक में आ गई. रमा जहांतहां से सफेदी के छींटों से भरी थी. विभा ने उसे स्नानघर में धकेल कर कुंडी चढ़ा दी, ‘‘झट से नहा ले.’’

पूरे घर में हड़कंप मच गया, लेकिन सेठानी ने शीघ्र ही स्थिति को संभाल लिया. उस ने बढ़ कर अपने होने वाले दामाद व साथ आई समधिनों का हार्दिक स्वागत किया. उन्हें बैठक में बिठा कर कुशलक्षेम पूछी. इस के बाद सेठ को वहां छोड़ कर वह बेटियों के पास भीतर आ गई.

‘‘मां, कहो तो बाजार से मिठाई ले आऊं? हमारे यहां तो मिठाई शाम को ही बनेगी. मेहमानों को नाश्ता…’’ निशा ने मां से पूछा.

‘‘नहीं, करमजली, आज हम एक पैसा भी नहीं खर्च करेंगे.’’

सेठानी झंझला रही थी, ‘‘वह लक्ष्मी ले कर अभी तक क्यों नहीं आई?’’

‘‘कौन मां?’’ विभा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

‘‘कोई भी, अच्छा, पहले चाय तो बना. लड़का आया है. एक उस की चाची है, दूसरी बूआ है,’’ रुक्मिणी हड़बड़ा रही थी.

‘‘चाय बना ली, पर वह खराब हो गई,’’ यह स्वर रमा का था.

‘‘खराब क्यों हो गई?’’ सेठानी ने दांत पीसे.

‘‘दूध रात का था, मां, शायद फट गया.’’

‘‘फट गया? अरी चुड़ैल, चाय जैसी भी है, बैठक में पहुंचाओ तो सही. क्या मेरी नाक कटवा कर ही चैन लोगी.’’

‘‘तब कुछ फल खरीद लाऊं मां, अभी 2 मिनट लगेंगे.’’

‘‘फिर वही बात, आज दीवाली है, हम लक्ष्मी खर्चेंगे नहीं, कहीं से खीचेंगे जरूर.’’ सेठानी ने फिर मन ही मन राबिया को गाली दी.

यों मां और बेटियों के बीच तकरार चल ही रही थी कि लड़के की चाची वहां आ गई, ‘‘क्या बात है, समधिन?’’

‘‘कुछ नहीं, बस चाय आ रही है, आप बैठें,’’ रुक्मिणी हंस दी.

‘‘चाय? चाय तो हमारा विमल नहीं पीएगा. वैसे भी पहली बार मीठे मुंह का शगुन होता है. बाजार से मिठाई मंगवा लें,’’ चाची यह कह कर वापस बैठक में आ गई. उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था.

रुक्मिणी अब क्या करे? कहीं से लक्ष्मी आ जाए तो टोटका पूरा कर के वह कुछ खर्च भी कर सकती है. मगर इस से पहले तो संभव नहीं था. हद हो गई, राबिया ने अभी तक रुपए नहीं भेजे. क्या मैं उस के पास पड़ोस के रामू को भेजूं? भूल तो नहीं गई वह.

मेहमान 8 बजे सेठ धनपतराय की हवेली पर आए थे, अब 11 बजने को आ गए, पर मजाल क्या जो उन्हें दूध, चाय, फल या मिठाई का नाश्ता मिल जाता.

विमल ने इसे अपना अपमान समझा. उस का मूड एकदम खराब हो गया. उस ने चाची की ओर संकेत किया. फिर चाची ने बूआजी को कुहनी मारी, लेकिन बूआजी ने उन्हें थोड़ा शांत रहने का इशारा किया.

सेठ इस बात को समझ गया. वह उठ कर लज्जित भाव से घर में गया, ‘‘अरी भागवान, कुछ तो कर. न हो तो रमा को ही बैठक में भेज दे.’’

‘‘नहीं जी, खाली हाथ वह नहीं जाएगी. बस, कहीं से लक्ष्मी आ जाए तो मैं सबकुछ मंगवा लूंगी, फल, मिठाई वगैरह. आप को शरम लगती है तो तनिक देर यहीं बैठ लें.’’

अभी अंदर ये बातें हो रही थीं कि तभी बैठक में एक लड़की ने प्रवेश किया. वहां अपरिचितों को बैठा देखा तो पूछ लिया, ‘‘सेठानी कहां है जी?

उन्होंने 500 रुपए मंगवाए थे, मेरी खाला से. रामू गया था कहने. ये लो, उन्हें दे देना.’’

‘‘वे भीतर आंगन में होंगी. अंदर चली जाओ. उन के रुपए उन्हीं को दो.’’

लड़की भोली थी. अंदर चली गई.

बैठक में सन्नाटा छा गया. ‘‘बड़ा धन्नासेठ बनता है. घर में फूटी कौड़ी नहीं. नाश्तेपानी के लिए भी उधार रुपए मांगे हैं, उठ बेटे. हमें इस कंगले से रिश्ता नहीं जोड़ना,’’ और मेहमान उठ खड़े हुए.

उन्हें गाड़ी में चढ़ते देखा तो सेठानी दौड़ कर बाहर आई. उस ने खिसिया कर कहा, ‘‘अरे कहां चल दिए? बैठिए, मैं मिठाई मंगवा रही हूं.’’ पर लड़के वालों ने एक न सुनी और अपनी गाड़ी आगे बढ़वा दी.

वैश्विक भूख सूचकांक: नरेंद्र मोदी की सत्ता के अनिश्चय

दुनिया की “वैश्विक भूख सूचकांक” (जीएचआई) की नवीनतम रिपोर्ट आई है. इस में स्वाभाविक रूप से भारत को 127 देशों में 105 वां स्थान मिला है, जो देश को एक ‘गंभीर’ श्रेणी में रखता है. यह आंकड़ा देश के सामने खड़ी एक बड़ी चुनौती को उजागर कर रहा है. देश में कुपोषण की भीषण समस्या है अगर आप ग्रामीण अंचल की और मुख करें तो इसे महसूस कर सकते हैं.

दरअसल, यह देश के करोड़ों नागरिकों के स्वास्थ्य और जीवन को प्रभावित कर रही है, यह हमारे देश के विकास और भविष्य के लिए भी एक संकट के बादल की तरह है.

दरअसल, आंकड़े बताते हैं देश में 13.7 फीसद जनसंख्या कुपोषित है, 35.5 फीसद बच्चे अविकसित हैं, और 2.9 फीसद बच्चे पैदाइश के 5 साल के अंदर मर जाते हैं. ये आंकड़े हमें बताते हैं कि सरकार नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने में असफल है. ऐसे में कहां जा सकता है कि जो राजनीतिक खेल है वह हमारे लोकतंत्र को कमजोर करता चला जा रहा है. इस का उदाहरण यह है कि हमारे बाद आजाद हुए देश हम से ज्यादा विकसित हैं.

हम अपने किसानों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. सब से पहले हमें अपने कृषि क्षेत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है, ताकि हम अपने नागरिकों को पर्याप्त मात्रा में भोजन प्रदान कर सकें. दूसरा, हमें अपने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने की आवश्यकता है, ताकि गरीब और वंचित वर्गों तक भोजन पहुंच सकें. तीसरा, हमें अपने स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की आवश्यकता है, ताकि हम कुपोषण और भूख से संबंधित बीमारियों का इलाज कर सकें.

आज नरेंद्र मोदी सरकार को इस समस्या का समाधान करने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा. मोदी सरकार को नीतियों और कार्यक्रमों को इस तरह से बनाने की आवश्यकता है कि भूख और कुपोषण खत्म हो. इस के अलावा, हमें अपने समाज में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है. नागरिकों को यह समझाने की आवश्यकता है कि भूख और कुपोषण एक विकट समस्या है और इस का समाधान करने के लिए सभी को एकजुट हो कर के एक दिशा में काम करना होगा. समयबद्ध तरीके से काम करना होगा तभी हम कुपोषण और भूख से जीत सकते हैं.

हमारे देश की शिक्षा पद्धति की दुनिया भर में आलोचना होती है इस दिशा में सरकार उदासीन रहती आई है. हमें अपने शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाने की आवश्यकता है, ताकि हम अपने नौनिहालों को पोषण और स्वास्थ्य के बारे में शिक्षित कर सकें. सरकार को महिलाओं को सशक्त बनाने की दरकार है, ताकि वे अपने परिवार के लिए बेहतर निर्णय ले सकें.

वैश्विक भूख सूचकांक की रिपोर्ट हमें यह याद दिलाती है कि हमारे देश के सामने खड़ी चुनौतियों का समाधान करने के लिए हमें एक साथ जुटने की आवश्यकता है. सरकार को नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने के लिए काम करने की आवश्यकता है, ताकि हम एक समृद्ध और स्वस्थ समाज बना सकें.

भूख और कुपोषण की समस्या का समाधान करने के लिए हमें अपने समाज में, लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव लाने की आवश्यकता है. हमें देश में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है, ताकि लोग इस समस्या के प्रति जागरूक हो सके और इस का समाधान करने में मदद कर सके.

सरकार को भी इस समस्या का समाधान करने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है. सरकार को अपने नीतियों और कार्यक्रमों को इस तरह से बनाने की आवश्यकता है कि वे भूख और कुपोषण को खत्म करने में मदद करे. जनोन्मुखी बन जाए.

हमें अपने नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने के लिए बुनियादी काम करने की आवश्यकता है, इस में हम फिसड्डी साबित होते हैं. हम एक समृद्ध और स्वस्थ राष्ट्र बना सकें. इस के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है आज देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और ईमानदारी की कमी के कारण भूख और कुपोषण भयावह साबित हो रहे हैं.

राज्य सरकारों, सामाजिक संस्थाएं और कुपोषण

देश में भूख और कुपोषण एक गंभीर समस्या है, जो देश के विकास और भविष्य के लिए एक बड़ा चुनौती है जो एक ‘गंभीर’ श्रेणी में आती है. इस समस्या का समाधान करने के लिए राज्य सरकारों और सामाजिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है.

कृषि विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा देने से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ सकते हैं.

सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाने से गरीब परिवारों को सस्ता अनाज मिल सकता है. स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार करने से कुपोषण से संबंधित बीमारियों का इलाज हो सकता है.

शिक्षा प्रणाली में पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा को शामिल करने से लोगों को जागरूक किया जा सकता है.

महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों को बढ़ावा देने से परिवारों में पोषण के फैसले लेने में महिलाओं की भूमिका बढ़ सकती है.

जागरूकता अभियान चला कर लोगों को पोषण के महत्व के बारे में बताया जा सकता है. गरीब परिवारों को पोषण युक्त भोजन प्रदान करने के लिए भोजन बैंक स्थापित किए जा सकते हैं. सामुदायिक किचन की स्थापना से गरीबों को सस्ता और पोषण युक्त भोजन मिल सकता है. पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है, गरीब परिवारों के बच्चों को पोषण युक्त आहार प्रदान करने के लिए छात्रावास कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं.

भूख और कुपोषण की समस्या का समाधान करने के लिए राज्य सरकारों और सामाजिक संस्थाओं को मिल कर काम करने की आवश्यकता है. इन कदमों से हम भूख और कुपोषण की समस्या को कम कर सकते हैं और देश के विकास में योगदान कर सकते हैं.

दरअसल सरकार की दाएंबाएं देखने की फितरत के कारण इस बुनियादी समस्या की ओर न तो ध्यान दिया जा रहा है और न ही इसे खत्म करने का गंभीर प्रयास दिखाई देते हैं जिस की बड़ी आवश्यकता है.

न्याय की मूरत ने सूरत बदली, क्या सीरत भी बदलेगी?

सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने न्याय की देवी की आंख से पट्टी उतार कर शायद यह संदेश देने की कोशिश की है कि उन की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट और न्याय व्यवस्था पारदर्शिता की ओर कदम बढ़ा रही है. न्याय की देवी की नई मूर्ति सुप्रीम कोर्ट के जजों की लाइब्रेरी में स्थापित की गई है.

गौरतलब है कि सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने खुद इस मूर्ति को बनाने का आदेश दिया था. नई मूर्ति की आंखों पर पट्टी नहीं है, वह पूरी तरह खुली हुई हैं. खुली आंखों वाली मूर्ति लगवा कर शायद यह संदेश देने की कोशिश है कि कानून अब अंधा नहीं रहा. वह सब कुछ देखभाल कर न्याय करेगा.

मूर्तिकार विनोद गोस्वामी ने यह नई मूर्ति सीजेआई की इच्छानुरूप तैयार की है. सीजेआई चाहते थे कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ‘न्याय की देवी’ की छवि भारतीय हो. सो नई प्रतिमा में देवी का चेहरा भारतीय है. वह जस्टिशिया की तरह आक्रामक और रौबदार न हो कर सौम्य है. नई देवी रोमन स्त्रियों की तरह ट्यूनिक की बजाए साड़ी पहने हुए है. उस की आंखें स्पष्ट रूप से दुनिया देख रही हैं और उस के दाहिने हाथ में तलवार की जगह देश का राष्ट्रीय ग्रंथ ‘संविधान’ है.

पारंपरिक रूप से अब तक न्याय की देवी की मूर्ति में तीन चीजें शामिल थीं : आंखों पर पट्टी, तराजू और तलवार. इन प्रतीकों का अलगअलग मतलब था –

आंखों पर पट्टी : यह पहली बार 16वीं शताब्दी में न्याय की मूर्तियों पर दिखाई दी, जो निष्पक्षता का प्रतीक था. इस का मतलब यह है कि कानून को सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए, चाहे उन की संपत्ति, शक्ति, सामाजिक स्थिति, या दूसरे बाहरी प्रभाव कुछ भी हो. आंख पर पट्टी होना यह दिखाता है कि न्याय निष्पक्ष और निष्कपट है.

तराजू : तराजू साक्ष्य और तर्कों के तौलने का प्रतीक है. यह दिखाता है कि कानून को किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले सभी पक्षों पर विचार करना चाहिए. यह निष्पक्षता का प्रतिनिधित्व करता है, जिस में न्याय साक्ष्य के आधार पर दिया जाता है.

तलवार : पारंपरिक रूप से तलवार कानून की ताकत और उस के निर्णयों को लागू करने की शक्ति का प्रतीक है. यह अकसर बिना म्यान के चित्रित की जाती है, जो यह दर्शाती है कि न्याय पारदर्शी, जल्द और निर्दोष की रक्षा करने या दोषी को दंडित करने में सक्षम है.

अब सुप्रीम कोर्ट में जो नई मूर्ति लगाई गई है उस में उस के हाथ में तलवार की जगह संविधान की पुस्तक है. हालांकि नई मूर्ति में एक चीज जिसे नहीं बदला गया वो है तराजू. नई मूर्ति के हाथ में अब भी तराजू रखा गया है, जो बताता है कि न्यायालय किसी भी मामले में दोनों पक्षों की बात सुन कर ही फैसला लेता है. यानी तराजू संतुलन का प्रतीक है.

विधि के क्षेत्र में न्याय की देवी का इतिहास बहुत पुराना है. न्याय की देवी की मूर्तियां दुनिया भर में अदालतों में एक जैसी नहीं है. कुछ देशों में न्याय की मूर्ति की आंखों पर पट्टी बंधी है तो कुछ में नहीं. उदाहरण के लिए अमेरिका में, न्याय की देवी की मूर्ति पर आमतौर पर पट्टी बंधी होती है. जर्मनी में, फ्रैंकफर्ट के रोमर में स्थित न्याय की देवी की मूर्ति बिना पट्टी के है.

न्याय की देवी अलगअलग सभ्यताओं में अलगअलग रूपों में दिखाई गई है. न्याय की देवी की सब से शुरुआती मूर्ति प्राचीन मिस्र में पाई जाती है. कहा जाता है कि ये देवी माट की थी. माट सत्य, व्यवस्था और संतुलन का प्रतीक थीं. उन्हें अकसर एक पंख पकड़े हुए दिखाया जाता था, जिस का उपयोग मृत्यु के बाद आत्मा के न्याय के लिए किया जाता था.

ग्रीक और रोमन सभ्यताओं ने बाद में अपनी खुद की न्याय की मूर्ति बनाई. ग्रीक देवी थेमिस कानून और व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करती थीं, जबकि उन की बेटी डाइक न्याय और नैतिक व्यवस्था का प्रतीक थीं. थेमिस को तराजू पकड़े हुए दिखाया गया था. इन्हें ही न्याय की देवी का शुरुआती रूप माना जाता है. रोमन पौराणिक कथाओं में थेमिस को जस्टिटिया के साथ जोड़ा गया था, जो न्याय की देवी थीं. जस्टिटिया की छवि आज की न्याय व्यवस्था को दिखाने के लिए रखी जाती है. ‘जस्टिटिया’ के नाम से ही जस्टिस शब्द निकला है.

न्याय की देवी का कान्सेप्ट भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से आया है. भारत में ब्रिटिश शैली की अदालतें हैं और कानूनी संस्थान भी ऐसे ही हैं. ब्रिटिश काल से ही यहां न्याय की देवी की मूर्ति उपयोग की जा रही है. कहा जाता है कि भारत में जो न्याय की देवी की मूर्ति है वो रोमन पौराणिक कथाओं वाली जस्टिटिया ही हैं. भारत में यह प्रतिमा अदालतों, ला कालेज और दूसरे कानूनी संस्थानों के बाहर देखी जाती है.

अब आजादी के 75वें साल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘न्याय की देवी’ की आंखों से पट्टी हटाने का फैसला न्याय के प्रति नैतिक दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव का प्रतीक भले हो, लेकिन इस से देश में बेहद धीमी गति से काम कर रही न्याय व्यवस्था में सुधार और लोगों को त्वरित न्याय कैसे मिलेगा, इस का किसी के पास कोई जवाब नहीं है. ‘न्याय की देवी’ के स्वरूप और तेवर का भारतीयकरण हो, यह अच्छा है, लेकिन न्याय प्रणाली अपने कामकाज में भी ‘देसी ढर्रे’ पर ही चलती रहे तो यह गंभीर चिंता का विषय है.

भावनात्मक तौर पर ‘न्याय की देवी’ के भाव बदलने की यह कोशिश अच्छी है, लेकिन व्यवहार में इस देश में निष्पक्ष और त्वरित न्याय मिलने और कानून के प्रभावी अनुपालन की कहानी बहुत आश्वस्त करने वाली नहीं है. इस का पहला कारण तो देशभर की अदालतों में न्यायाधीशों की कमी और न्याय प्रणाली का कछुए की चाल से काम करना है. अगर अदालतों में पर्याप्त संख्या में जज ही नहीं होंगे तो फैसले जल्द कैसे होंगे? जस्टिस चंद्रचूड़ को पहले इस ओर ध्यान देना चाहिए कि जजों की रिक्तियों को एक समय सीमा के भीतर भरा जाए.

भारत सरकार ने लोकसभा में 23 जुलाई 2023 को एक सवाल के जवाब में बताया था कि देश भर में निचली अदालतों में 5388 जजों के पद खाली पड़े हैं. देश की निचली अदालतों में जजों के स्वीकृत पद 25 हजार 246 हैं, लेकिन काम सिर्फ 19 हजार 858 ही कर रहे हैं. इन पदों पर नियुक्तियां राज्य सरकारों को ही करनी होती हैं, लेकिन वहां भी हद दर्जे की लेटलतीफी है. राजनीतिक गुणा भाग हैं. जोड़तोड़ है. सिफारिश और रिश्वत है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट में जरूर जजों के रिक्त पदों पर लगभग पूरी नियुक्तियां हो गई हैं, लेकिन हाई कोर्टों में 327 जजों के पद अभी भी खाली पड़े हैं.

एक तरफ जजों की कमी, दूसरी तरफ अदालतों में मुकदमों का बढ़ता अंबार. उपलब्ध जानकारी के मुताबिक वर्तमान में देश की निचली अदालतों में कुल 5.1 करोड़ मामले में लंबित हैं. अकेले सुप्रीम कोर्ट में ही पेंडिंग मामलों की संख्या 82 हजार है जबकि हाई कोर्टों में 58.62 लाख मामले फैसलों का इंतजार कर रहे हैं.

इन में भी 42.64 लाख मामले तो दीवानी के हैं. नई भारतीय न्याय संहिता में फौजदारी मामलों में तो फिर भी विवेचना की समय सीमा तय की गई है, लेकिन दीवानी मामलों में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. देश की अदालतों में 1 लाख 80 हजार मामले तो ऐसे हैं, जो 30 साल से चल रहे हैं.

इन का फैसला कब होगा, कोई नहीं जानता. ऐसे में पीढ़ियों तक मुकदमे चलते रहते हैं. नीति आयोग ने 2018 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अदालतों में इसी तरह धीमी गति से मामले निपटते रहे तो सभी लंबित मुकदमों के निपटारे में 324 साल लगेंगे. यह स्थिति तब है कि जब 6 साल पहले अदालतों में लंबित मामले आज की तुलना में कम थे.

न्याय के निष्पक्ष होने के साथ यह भी आवश्यक है कि न्याय वह समय रहते मिले. अन्यथा देर से मिलने वाले न्याय का, चाहे वह कितना भी निष्पक्ष क्यों न हो, कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जाता. आपराधिक और दीवानी विवादों के जितने मुकदमे अदालतों में पहुंच रहे हैं, उस तुलना में उन की सुनवाई करने और फैसला देने वालों जजों की संख्या बहुत कम है. आज भारत में हर 10 लाख की आबादी पर औसतन 21 जज काम कर रहे हैं. जबकि यूरोप में यही औसत प्रति 10 लाख 210 और अमेरिका में 150 जजों का है.

अगर हम अमेरिका के मानदंड को भी मानें तो भारत की 145 करोड़ की आबादी पर लंबित मुकदमों के निपटारे के लिए कुल 2 लाख 17 हजार जज चाहिए जबकि यहां 20 हजार भी नहीं हैं. जजों की नियुक्तियों का काम सरकार का है, लेकिन ज्यादातर सरकारें इस मामले में गंभीर नहीं दिखतीं.

परोक्ष रूप से यह रवैया जनता को न्याय के अधिकार के वंचित करने जैसा ही है. इस के अलावा भारतीय अदालतों में बुनियादी और अधोसंरचनात्मक सुविधाओं की कमी की अलग ही कहानी है. कई अदालतों में अदालत कक्षों की कमी है. शौचालय, प्रतीक्षा क्षेत्र, और पार्किंग स्थल जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच सीमित है. निचली अदालतों के केवल 40% भवनों में शौचालय प्रयोग करने योग्य हैं. निचली अदालतों में डिजिटल ढांचे, वीडियो कान्फ़्रेंसिंग रूम और जेलों और अधिकारियों से वीडियो कनेक्टिविटी की कमी है. भारत के 25 उच्च न्यायालयों में से केवल 9 ने अदालती कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग लागू की है.

न्यायपालिका के लिए बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए राज्य सरकारों के साथसाथ केंद्र को भी योगदान देना चाहिए. न्यायपालिका के लिए बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए राज्यों को न्यायालय भवन निर्माण के लिए उपयुक्त भूमि की पहचान करनी चाहिए. केंद्र सरकार को बुनियादी ढांचे में अपना योगदान बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए और राज्यों को समय पर धनराशि जारी करना सुनिश्चित करना चाहिए. क्योंकि न्यायालय के बुनियादी ढांचे की स्थिति न्याय के वितरण पर बहुत बड़ा प्रभाव डाल सकती है.

बहरहाल उम्मीद की जानी चाहिए कि अगर सर्वोच्च अदालत में ‘न्याय की देवी’ की सूरत बदली है तो आगे न्याय प्रणाली की सीरत भी बदलेगी. लेकिन कैसे यह सवाल अभी बाकी है.

हरियाणा में कांग्रेस की हार

हरियाणा विधानसभा चुनाव में चाहे कांग्रेस की हार हो गई हो और भारतीय जनता पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में जीती सीटों की दृष्टि से बेहतर प्रदर्शन किया हो, रैसलर विनेश फोगाट की जीत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उस ने 2 वर्ष पहले बृजभूषण सिंह, भाजपा सांसद, रैसलिंग फैडरेशन के अध्यक्ष, की करतूतों के विरुद्ध खुला विद्रोह किया था. भाजपा सरकार ने उन के कहने पर बृजभूषण सिंह को भाजपा से तो नहीं निकाला पर काफी हीलहुज्जत के बाद उस को पद से हटा दिया.

 

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कांग्रेस ने तब भी दिल्ली के जंतरमंतर पर धरने पर बैठी रैसलर को समर्थन दिया था और अब हरियाणा के चुनाव में टिकट दिया था.

बड़ी बात यह है कि कांग्रेस उन लोगों को टिकट दे रही है और फिर जितवा भी रही है जो सत्ता से लोहा लेने को तैयार हैं. आज देश की औरतें, सवर्ण औरतें भी, पिछड़े, दलित और मुसलिम सभी भाजपा के पौराणिक युग वाले आंतक के शिकार हैं. पिछले 30-40 सालों में जब से राममंदिर के बहाने पौराणिक समाज बनाने की कोशिश हो रही है, आधुनिक समान शिक्षा और विज्ञान की उपलब्धियों के बावजूद पिछड़ों, औरतों और मुसलिमों के हाथों से मौके छीने जा रहे हैं.

देश की उन्नति में इन सब का बड़ा हाथ रहा है क्योंकि ये लोग ही निर्माण में लगे हुए हैं. ये ही कारखाने चलाते हैं, ये ही खेती करते हैं, ये ही घरघर सामान पहुंचाते हैं. इन्हीं लोगों ने विदेश जा कर मजदूरी कर के विदेशी मुद्रा देश में भेजना शुरू किया है जिस के बल पर हम ठाट से विलासिता का विदेशी सामान खरीद रहे हैं. विदेशों में रह कर देश में पैसा भेजने वाले भारतीय दुनिया में पहले नंबर पर हैं.

हरियाणा के चुनाव में जो नतीजे आए हैं वे वैसे ही चौंकाने वाले है जैसे लोकसभा चुनाव के थे. लोकसभा चुनाव में सब को उम्मीद थी कि भाजपा 400 पार होगी और अब हरियाणा में उम्मीद थी कि भाजपा फिर हारेगी और कांग्रेस सरकार बनाएगी. भाजपा और कांग्रेस का वोट शेयर लगभग बराबर है पर सीटें भाजपा को ज्यादा मिल गईं. कांग्रेस को एक बड़ी उम्मीद हरियाणा जैसे छोटे प्रदेश से थी पर वह टूट गई है. लगता है, राहुल गांधी को और इंतजार करना होगा.

वैसे, भारतीय जनता पार्टी को लगभग 150 वर्षों तक संघर्ष करने के बाद सत्ता मिली थी. इस गुट ने हिंदूहिंदूहिंदू करना स्वामी दयानंद के समय से शुरू कर दिया था. इस ने पहले कांग्रेस के बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले के सहारे समाज को धर्म की पोखर में धकेलने की कोशिश की और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहारे. आज उसे बड़ी सफलता मिली हुई है पर वह अब फिर ढीली होती रही है.

हरियाणा के चुनाव ने जता दिया कि राहुल गांधी व दूसरे दलों का काम अभी आसान नहीं हुआ है.

जातियों से उठ कर एकता

हिंदू धर्म के मुख्य ग्रंथ महाभारत की कहानी में भाइयों में मनमुटाव दिखाया गया. वहीं, गीता का संदेश घर के क्लेशों को युद्ध से समाप्त करने का है. ऐसे में कौन सी एकता की बात हो रही है, किस एकता का राग आलापा जा रहा है.

पश्चिमी इतिहासकारों की खोजबीन के अनुसार भारत पर विदेशियों ने लगातार हमले किए. हमारे अपने साहित्यकार, अगर थे भी, तो राजा की चाटुकारिता करते रहते थे, इतिहास नहीं लिख रहे थे. उन के अनुसार न तो अशोक था, न चाणक्य, न मौर्य वंश. दक्षिण भारत में कुछ शूद्र राजा हुए हैं जिन्होंने जम कर पौराणिक हिंदू धर्म का प्रचार किया है. पर वहां भी जातिभेद लगातार स्पष्ट रहा है. ‘हम श्रेष्ठ हैं, बाकी निकृष्ट’ की भावना लगातार मन में भरी जा रही है.

शिरडी के साईं को ले कर आज जम कर विवाद हो रहा है कि वह कौन सी जाति का था. किसी को इस का पता नहीं. गुजरात के वैष्णव अरसे तक स्वामीनारायण मंदिरों में नहीं जाते थे, जाति के कारण.

देशभर में जातियों के नाम पर त्योहार बंटे हुए हैं. आजकल सब एकदूसरे के त्योहार मनाने लगे हैं, यह अच्छा है लेकिन यह विज्ञान की देन है. विज्ञान ने सब को एक शहर में रहने को बाध्य किया है, एक नल का पानी पीने को दिया है, एक बिजली का इस्तेमाल करने की सुविधा दी है. सड़कों पर आनेजाने पर आज प्रतिबंध नहीं लग सकता, तो यह विज्ञान का कमाल है.

मोहन भागवत, जो आरएसएस के मुखिया हैं, की आज जरूरत नहीं है. आज जरूरत है तार्किक, वैज्ञानिक, आधुनिक सोच की न कि धार्मिक सोच की. हिंदू एक न हों, सारे भारतीय एकजुट हो कर देश का निर्माण करें. मंदिर नहीं, उद्योग बनाएं. यह मोहन भागवत के बस का नहीं.

पौराणिक ग्रंथों में हिंदू राजाओं का खूब उल्लेख है लेकिन इतिहास में क्षत्रिय हिंदू राजाओं का वर्णन या उन के बनाए महल, मकान, शहर, मंदिर मिलना मुश्किल हैं. जिन मंदिरों को राम, विष्णु, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण का कहा जाता है, पुरातत्व खोजों के अनुसार वे 400-500 साल पुराने हैं और जहां मिलते हैं वहां क्षत्रिय नहीं शूद्र, यानी आज के ओबीसी, राजाओं के बनाए हुए मिलते हैं. बौद्ध निर्माण भी काफी दिखता है जिन में पूजापाठ भी होता था और रहने की जगह भी थी.

मोहन भागवत का 6 अक्तूबर को यह कहना कि ‘हिंदू समाज एक हो जाए,’ आज की स्थिति में क्या मतलब रखता है, समझ नहीं आया. हिंदू समाज है क्या, यही हर समय विवाद बना रहता है. पौराणिक ग्रंथ, स्मृतियां, मंदिर, रीतिरिवाज सब मिल कर समाज को हर समय बांटते रहते हैं.

अमृतमंथन में दस्युओं को अलग माना गया है और इस की कहानियां बारबार दोहराई जाती हैं. शिव ने जहर इसी अमृतमंथन के दौरान पिया था. कश्यप अवतार और मोहिनी अवतार इसी अमृतमंथन में हुए थे. फिर जो एकता की कहानी अमृतमंथन में सुनाई जाती है उस में दस्यु और देवता अलग क्यों थे? क्या दोनों हिंदू नहीं थे?

आजकल रामलीलाएं हो रही हैं. उन में मारीच, शूर्पणखा, रावण आदि को पराया दिखाया जा रहा है. उन्हें काला, बदसूरत दिखाया जा रहा है. दरअसल, लोगों के मन में यह बैठाया जा रहा है कि हिंदू हिंदू में फर्क है. दस्यु विदेशी थे, यह न मानते हुए भी अलग थे, तिरस्कार योग्य थे, यह दोहराया जाता है.

धर्मजातिजनित भेदभाव

भारत के हर शहर में कई ऐसे इलाके हैं जिन में केवल ऊंची जातियों के अमीर रहते हैं और जहां जगह की कमी नहीं है. ये इलाके शहरों के पुराने इलाकों से बाहर, भीड़भाड़, गलियों से दूर हैं. इन इलाकों की सड़कें चौड़ी हैं, पेड़ लगे हैं, रोज सफाई होती है, सीवर काम करता है, लाइटें लगी हैं जो जलती भी हैं, मकान पुते हुए साफसुथरे रहते हैं.

ऐसा ही अमेरिका में है. वहां गोरे पहले शहरों के बीच में रहते थे जैसे भारत के मुंबई में बांद्रा या कोलाबा इलाके में रहते थे. अब अमेरिकी शहर के बीच के इलाकों को कालों, भारतीयों, चीनियों, साउथ अमेरिकियों के लिए छोड़ कर ऊंचे दरवाजों वाली गेटेड कम्युनिटीज में जा रहे हैं.

आज 70 फीसदी गोरे अमेरिकी सबअर्बन एरियाज में रहते हैं. डाउन टाउन में केवल गरीब रह गए गोरे हैं. काले अब इन सबअर्बनों में किराए के मकान लेने लगे हैं क्योंकि 40-50 साल के स्ट्रगल के बाद उन्होंने अमेरिका में अपनी जगह बना ली है. भारत में पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों को दड़बेनुमा ढहते मकानों में या स्लमों में धकेला जा रहा है.

भारत की दिक्कत यह है कि यहां ऊंची जातियों वाले यादवों, कुर्मियों, जाटों, मराठों, रेड्डियों को भी ब्राह्मणों व बनियों वाले इलाकों में खुशीखुशी आने नहीं दिया जाता.

हर शहर चाहे अमेरिका हो या भारत का, एकजैसा बनने लगा है क्योंकि जैसे वहां डोनाल्ड ट्रंप जैसे खब्ती के करोड़ों अंधभक्त हैं वैसे ही यहां कट्टरपंथी नरेंद्र मोदी के करोड़ों अंधभक्त हैं जो हिंदू धर्म की वर्णव्यवस्था को बचाने के लिए सब से बड़े चौकीदार हैं.

ऊंची जातियों वाले उन्हें अपने परिवार का मानते हैं जैसे अमेरिका में अमेरिकी ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के सूत्रधार डोनाल्ड ट्रंप को मानते हैं. ट्रंप भी यही कहते हैं कि अमेरिका का राज सिर्फ गोरों के पास रहे.

किसी भी देश में धर्म-जाति को ले कर पैदा किया गया भेदभाव बेहद खतरनाक होता है. हिटलर को अभी भुलाया नहीं गया है, हिटलर के हाथों मारे और तड़पाए जाने वाले यहूदी आज उसी भेदभाव की वजह से इजराइल में फिलिस्तीनियों के साथ वैसा कर रहे हैं.

तीर्थस्थल बनाम शरणस्थल

कुंभ में भाइयों के बिछुड़ने की फिल्मी कहानियां तो अब दिखनी बंद हो गई हैं पर पश्चिम बंगाल के गंगासागर मेले का उपयोग अब भी घर के बूढ़ों को घर से निकाल फेंकने के लिए इस्तेमाल हो रहा है. एक दैनिक समाचारपत्र की खबर के अनुसार, गंगासागर के एक धार्मिक संगठन का कहना है कि हर साल करीब 8,000 बूढ़ों को गंगासागर की भीड़ में छोड़ने की नीयत से लाया जाता है पर उन में से बहुतों को पुलिस व स्वयंसेवकों द्वारा उन के घरों तक वापस पहुंचा दिया जाता है.

रामचरितमानस और गौपूजा वाले उत्तर प्रदेश व बिहार के मामले ज्यादा होते हैं जहां से आए लोग मानसिक संतुलन खो बैठे अपने वृद्धों को गंगासागर मेले में छोड़ जाते हैं. लगभग अपाहिज हो चुके इन वृद्धों की देखभाल न बेटे करना चाहते हैं, न बहुएं और न ही पोते.

आज के युग में जब किसी को ट्रेस करना आसान होता जा रहा है, इन परिवारों को बड़ी निराशा होती है जब स्वयंसेवक खोए वृद्धों को उन के घर तक ले जाते हैं. एक युग था जब कैमरे भी नहीं थे और न स्वयंसेवकों के पास साधन थे कि वे इन छोड़े गए वृद्धों को उन के घरों तक पहुंचा सकें.

वृद्धावस्था एक प्राकृतिक स्थिति है. न केवल वृद्धों को इस के लिए तैयार रहना चाहिए बल्कि बेटों, पोतों को इस की तैयारी करनी चाहिए. हर स्वस्थ व्यक्ति जीवन के अंत के 4-5 साल पैरालिसिस, किडनी डिजीज, अल्जाइमर्स, हार्ट, लंग्स, ब्लाइंडनैस आदि गंभीर बीमारियों का शिकार हो सकता है.

इन बीमारों को गंगासागर में छोड़ना और उसे पुण्य का काम सम?ाना धर्म के हजारों अवगुणों में से एक है. छोड़ तो कोई भी किसी को कहीं सकता है पर परिवार के लोग सोचते हैं कि तीर्थस्थान पर छोड़ने से उन्हें पाप नहीं लगेगा और वे दोषी नहीं ठहराए जाएंगे.

कुछ मामलों में तो लोग ऐसे ‘खोए’ वृद्धों का, घर वापस आ कर पूरी निष्ठा से, अंतिमक्रिया के अनुष्ठान का नाटक कर यह सिद्ध करते हैं कि वे बड़े धार्मिक हैं और उन का वृद्धस्वजन या तो भीड़ में मर गया या खो गया. जितने धार्मिक क्रियाकर्म करने होते हैं, किए जाते हैं.

यह परंपरा कि- वृद्धों को कहीं छोड़ आओ- वानप्रस्थ आश्रम से जुड़ी है जिस का बखान हर प्रवचन में पंडित और गुरु करते हैं. पंडितों और गुरुओं का यह उद्देश्य होता है कि वृद्ध होते लोग जीते जी अपनी धनसंपत्ति दान कर दें क्योंकि पता नहीं होश खोने के बाद उन के बेटे-पोते उन्हें कितना देंगे, देंगे भी या नहीं.

वैसे हमारे सारे तीर्थस्थल छोड़े गए हजारों लोगों की शरणस्थली हैं. वृंदावन, काशी, हरिद्वार, प्रयागराज आदि इस के बड़े केंद्र हैं. अयोध्या भी बनेगा.

बौयफ्रैंड अकेले में मेरे प्राइवेट पार्ट्स टच करता है. क्या मुझे उसे यह सब करने देना चाहिए?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी उम्र 22 साल है. मेरा एक बौयफ्रैंड है जिस से मेरा रिलेशन 1 साल से चल रहा है. वह मुझ से बहुत प्यार करता है और मेरा अच्छे से खयाल भी रखता है. लेकिन मेरा बौयफ्रैंड जब भी मुझ से अकेले में मिलता है तो वह मेरे प्राइवेट पार्ट्स को छूने की कोशिश करता है. मैं हर बार उसे ऐसा कुछ करने से मना करती हूं लेकिन वह फिर भी नहीं मानता और कहता है कि गर्लफ्रैंड और बौयफ्रेंड में यह सब चलता है. मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या मुझे उसे यह सब करने देना चाहिए?

जवाब –

आजकल रिलेशनशिप में आना काफी सामान्य सी बात है और कई लोग रिलेशनशिप में न सिर्फ रोमांस बल्कि सैक्स भी कर लेते हैं. हर इंसान को रोमांस करना पसंद होता है. जैसाकि आप ने बताया कि आप का बौयफ्रैंड अकेले में आप के प्राइवेट पार्ट्स को छूता है तो ऐसे में आप खुद सोचिए कि क्या आप को अच्छा लगता है जब वह यह सब करता है?

अगर आप को यह सब अच्छा लगता है और आप का बौयफ्रैंड का टच करना पसंद आता है तो बेशक आप को उसशका साथ देना चाहिए और इसे एक ऐंजौय की तरह लेना चाहिए.

रिलेशनशिप में किसिंग, स्मूचिंग या फिर सैक्स संबंध बनाना आम बात है मगर यह जबरन नहीं, रजामंदी से हो तभी ठीक है.

अलबत्ता, आप दोनों पिछले 1 साल से रिलेशनशिप में हैं लेकिन आप हर बार अपने बौयफ्रैंड को रोमांस के लिए मना कर देती हैं पर वह फिर भी आप से प्यार करता है तो ऐसे में उस का प्यार आप के लिए सच्चा है और जिस्मानी नहीं है तो आप को उस के साथ रोमांस जरूर करना चाहिए और उसे भी थोड़ी लिबर्टी लेने दीजिए.

आप को एक अच्छा लड़का मिला हुआ है तो उसे थोड़ी छूट देने में कोई बुराई नहीं है. कहीं ऐसा न हो कि आप के इस स्वभाव की वजह से आप एक अच्छे लड़के से हाथ धो बैठें.

अगर आप श्योर नहीं हैं कि भविष्य में आप की उस के साथ शादी होगी या नहीं तो ऐसे में सैक्स को ले कर आप सोचसमझ कर कदम उठाएं लेकिन रोमांस का मजा आप खुल कर उठा सकती हैं.

अगर आप को कभी भी ऐसा फील हो कि आप सैक्स करने के लिए भी तैयार हैं तो यह करना भी कोई गुनाह नहीं है बल्कि रोमांस और सैक्स एक ऐसा अनुभव है जिसे हर कोई ऐंजौय करता है.

मगर ध्यान रहे, सैक्स के लिए दोनों की रजामंदी जरूरी है और चूंकि अभी आप दोनों को ही पहले कैरियर बनानी है, तो ऐहतियात जरूर बरतें और बौयफ्रैंड से कहें कि वह सैक्स के दौरान कंडोम का प्रयोग करे. इस दौरान यह चैक भी करें कि कंडोम फट तो नहीं गया. वैसे, अच्छी क्वालिटी का कंडोम जल्द फटता नहीं और सैक्स को मजेदार बनाता है.

आप एक बात का ध्यान रखना कि आप को अपने बौयफ्रेंड को उतनी ही छूट देनी है जहां तक आप का मन मानता हो या जहां तक आप कंफर्टेबल फील करें. जहां भी आप को लगे कि आप असहज फील कर रही हैं तो उसी समय अपने बौयफ्रैंड को रोक दें.

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