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तेरी मेरी जिंदगी: क्या था रामस्वरूप और रूपा का संबंध?

लेखक- अंशु हर्ष

रामस्वरूप तल्लीन हो कर किचन में चाय बनाते हुए सोच रहे हैं कि अब जीवन के 75 साल पूरे होने को आए. कितना कुछ जाना, देखा और जिया इतने सालों में, सबकुछ आनंददायी रहा. अच्छेबुरे का क्या है, जीवन में दोनों का होना जरूरी है. इस से आनंद की अनुभूति और गहरी होती है. लेकिन सब से गहरा तो है रूपा का प्यार. यह खयाल आते ही रामस्वरूप के शांत चेहरे पर प्यारी सी मुसकान बिखर गई. उन्होंने बहुत सफाई से ट्रे में चाय के साथ थोड़े बिस्कुट और नमकीन टोस्ट भी रख लिए. हाथ में ट्रे ले कर अपने कमरे की तरफ जाते हुए रेडियो पर बजते गाने के साथसाथ वे गुनगुना भी रहे हैं ‘…हो चांदनी जब तक रात, देता है हर कोई साथ…तुम मगर अंधेरे में न छोड़ना मेरा हाथ …’

कमरे में पहुंचते ही बोले, ‘‘लीजिए, रूपा, आप की चाय तैयार है और याद है न, आज डाक्टर आने वाला है आप की खिदमत में.’

दोनों की उम्र में 5 साल का फर्क है यानी रामस्वरूप से रूपा 5 साल छोटी हैं पर फिर भी पूरी जिंदगी उन्होंने कभी तू कह कर बात नहीं की हमेशा आप कह कर ही बुलाया.

दोस्त कई बार मजाक बनाते कि पत्नी को आप कहने वाला तो यह अलग ही प्राणी है, ज्यादा सिर मत चढ़ाओ वरना बाद में पछताना पड़ेगा. लेकिन रामस्वरूप को कोई फर्क नहीं पड़ा. वे पढ़ेलिखे समझदार इंसान थे और सरकारी नौकरी भी अच्छी पोस्ट वाली थी. रिटायर होने के बाद दोनों पतिपत्नी अपने जीवन का आनंद ले रहे थे.

अचानक एक दिन सुबह बाथरूम में रूपा का पैर फिसल गया और उन के पैर की हड्डी टूट गई. इस उम्र में हड्डी टूटने पर रिकवरी होना मुश्किल हो जाता है. 4 महीनों से रामस्वरूप अपनी रूपा का पूरी तरह खयाल रख रहे हैं.

रूपा ने रामस्वरूप से कहा, ‘‘मुझे बहुत बुरा लगता है आप को मेरी इतनी सेवा करनी पड़ रही है, यों आप रोज सुबह मेरे लिए चायनाश्ता लाते हैं और बैठेबैठे पीने में मुझे शर्म आती है.’’

‘‘यह क्या कह रही हैं आप? इतने सालों तक आप ने मुझे हमेशा बैड टी पिलाई है और मेरा हर काम बड़ी कुशलता और प्यार के साथ किया है. मुझे तो कभी बुरा नहीं लगा कि आप मेरा काम कर रही हैं. फिर मेरा और आप का ओहदा बराबरी का है. मैं पति हूं तो आप पत्नी हैं. हम दोनों का काम हमारा काम है, आप का या मेरा नहीं. चलिए, अब फालतू बातें सोचना बंद कीजिए और चाय पीजिए,’’ रामस्वरूप ने प्यार से उन्हें समझाया.

4 महीनों में इन दोनों की दुनिया एकदूसरे तक सिमट कर रह गई है. रामस्वरूप ने दोस्तों के पास आनाजाना छोड़ दिया और रूपा का आसपड़ोस की सखीसहेलियों के पास बैठनाउठना बंद सा हो गया. अब कोई आ कर मिल जाता है तो ठीक है नहीं तो दोनों अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं.

रामस्वरूप का काम सिर्फ रूपा का खयाल रखना है और रूपा भी यही चाहती हैं कि रामस्वरूप उन के पास बैठे रहें.

कामवाली कमला घर की साफसफाई और खाना बना जाती है जिस से घर का काम सही तरीके से हो जाता है. बस, कमला की ज्यादा बोलने की आदत है. हमेशा आसपड़ोस की बातें करने बैठ जाती है रूपा के पास. कभी पड़ोस वाले गुप्ताजी की बुराई तो कभी सामने वाले शुक्लाजी की कंजूसी की बातें और खूब मजाक बनाती है.

रामस्वरूप यदि आसपास ही होते तो कमला को टोक देते थे, ‘‘ये क्या तुम बेसिरपैर की बातें करती रहती हो. अच्छी बातें किया करो. थोड़ा रूपा के पास बैठ कर संगीत वगैरह सुना करो. पूरा जीवन क्या यों ही लोगों के घर के काम करते ही बीतेगा?’’ इस पर कमला जवाब देती, ‘‘अरे साबजी, अब हम को क्या करना है, यही तो हमारी रोजीरोटी है और आप जैसे लोगों के घर में काम करने से ही मुझे तो सुकून मिल जाता है.

‘‘आप दोनों की सेवा कर के मुझे सुख मिल गया है. अब आप बताएं और क्या चाहिए इस जीवन में?’’

रामस्वरूप बोले, ‘‘कमला, बातें बनाने में तो तुम माहिर हो, बातों में कोई नहीं जीत सकता तुम से. जाओ, अब खाना बना लो, काफी बातें हो गई हैं. कहीं आगे के काम करने में तुम्हें देर न हो जाए.’’

पूरा जीवन भागदौड़ में गुजार देने के बाद अब भी दोनों एकदूसरे के लिए जी रहे हैं और हरदम यही सोचते हैं कि कुदरत ने प्यार, पैसा, संपन्नता सब दिया है पर फिर भी बेऔलाद क्यों रखा?

काफी सालों तक इस बात का अफसोस था दोनों को लेकिन 2-4 साल पहले जब पड़ोस के वर्माजी का दर्द देखा तो यह तकलीफ भी कम हो गई क्योंकि अपने इकलौते बेटे को बड़े अरमानों के साथ विदेश पढ़ने भेजा था वर्माजी ने. सोचा था जो सपने उन की जवानी में घर की जिम्मेदारियों की बीच दफन हो गए थे, अपने बेटे की आंखों से देख कर पूरे करेंगे. पर बेटा तो वहीं का हो कर रह गया. वहीं शादी भी कर ली और अपने बूढ़े मांबाप की कोई खबर भी नहीं ली. तब दोनों ने सोचा, ‘इस से तो हम बेऔलाद ही अच्छे, कम से कम यह दुख तो नहीं है कि बेटा हमें छोड़ कर चला गया है.’

आज सुबह की चाय के साथ दोनों अपने जीवन के पुराने दौर में चले गए. जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही परंपरागत तरीके से लड़कालड़की देखना और फिर सगाई व शादी कर के किस तरह से दोनों के जीवन की डोर बंधी.

जीवन की शुरुआत में घरपरिवार के प्रति सब की जिम्मेदारी होने के बावजूद रिश्तेनाते, रीतिरिवाज घरपरिवार से दूर हमारी दिलों की अलग दुनिया थी, जिसे हम अपने तरीके से जीते थे और हमारी बातें सिर्फ हमारे लिए होती थीं. अनगिनत खुशनुमा लमहे जो हम ने अपने लिए जीए वे आज भी हमारी जिंदगी की यादगार सौगात हैं और आज भी हम सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं.

तभी रामस्वरूप बोले, ‘‘वैसे रूपा, अगर मैं बीमार होता तो आप को मेरी सेवा करने में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि आप औरत हो और हर काम करने की आप की आदत और क्षमता है लेकिन मुझे भी कोई तकलीफ नहीं है आप की सेवा करने में, बल्कि यही तो वक्त है उन वचनों को पूरा करने का जो अग्नि को साक्षी मान कर फेरे लेते समय लिए थे.

‘‘वैसे रूपा, जिंदगी की धूप से दूर अपने प्यारे छोटे से आशियाने में हर छोटीबड़ी खुशी को जीते हुए इतने साल कब निकल गए, पता ही नहीं चला. ऐसा नहीं है कि जीवन में कभी कोई दुख आया ही नहीं. अगर लोगों की नजरों से सोचें तो बेऔलाद होना सब से बड़ा दुख है पर हम संतुष्ट हैं उन लोगों को देख कर जो औलाद होते हुए भी ओल्डएज होम या वृद्धाश्रमों में रह रहे हैं या दुखी हो कर पलपल अपने बच्चों के आने का इंतजार कर रहे हैं, जो उन्हें छोड़ कर कहीं और बस गए हैं.

‘‘उम्र के इस मोड़ पर आज भी हम एकदूसरे के साथ हैं, यह क्या कम खुशी की बात है. लीजिए, आज मैं ने आप के लिए एक खत लिखा है. 4 दिन बाद हमारी शादी की सालगिरह है पर तब तक मैं इंतजार नहीं कर सका :

हजारों पल खुशियों के दिए,

लाखों पल मुसकराहट के,

दिल की गहराइयों में छिपे

वे लमहे प्यार के,

जिस पल हर छोटीबड़ी

ख्वाहिश पूरी हुई,

हर पल मेरे दिल को

शीशे सी हिफाजत मिली

पर इन सब से बड़ा एक पल,

एक वह लमहा…

जहां मैं और आप नहीं,

हम बन जाते हैं.’’

रूपा उस खत को ले कर अपनी आंखों से लगाती है, तभी डाक्टर आते हैं. आज उन का प्लास्टर खुलने वाला है. दोनों को मन ही मन यह चिंता है कि पता नहीं अब डाक्टर चलनेफिरने की अनुमति देगा या नहीं.

डाक्टर कहता है, ‘‘माताजी, अब आप घर में थोड़ाथोड़ा चलना शुरू कर सकती हैं. मैं आप को कैल्शियम की दवा लिख देता हूं जिस से इस उम्र में हड्डियों में थोड़ी मजबूती बनी रहेगी.

‘‘बहुत अच्छी और आश्चर्य की बात यह है कि इस उम्र में आप ने काफी अच्छी रिकवरी कर ली है. मैं जानता हूं यह रामस्वरूपजी के सकारात्मक विचार और प्यार का कमाल है. आप लोगों का प्यार और साथ हमेशा बना रहे, भावी पीढ़ी को त्याग, पे्रम और समर्पण की सीख देता रहे. अब मैं चलता हूं, कभीकभी मिलने आता रहूंगा.’’

आज दोनों ने जीवन की एक बड़ी परीक्षा पास कर ली थी, अपने अमर प्रेम के बूते पर और सहनशीलता के साथ.

कराटे वाला चाणक्य : कैसे बन गया पूरा कालेज विनय का चहेता

विनय शरीर से दुबलापतला था. मगर उसे देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वह भीतर से बहुत मजबूत है. कराटे सीखने के इरादे ने ही उसे भीतर से भी काफी मजबूत बना दिया था. मन और बुद्धि का भी वह धनी था.

‘‘सर,’’ कमरे में प्रवेश कर विनय राजन सर से बोला.

‘‘कहो, कौन हो तुम? क्या चाहते हो,’’ राजन सर ने पूछा.

प्रश्नों की इस बौछार से जरा भी विचलित हुए बिना विनय बोला, ‘‘सर, मैं कराटे सीखना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कहा, कराटे? यह शरीर ले कर तुम कराटे सीखना चाहते हो,’’ राजन सर मजाकिया मूड में हंस कर बोले.

‘‘हां, सर. क्या मैं कराटे नहीं सीख सकता?’’ विनय ने पूछा.

‘‘नहीं, पहले खापी कर अपने शरीर को मजबूत बनाओ, तब आना. अभी तो एक बच्चा भी तुम्हें गिरा सकता है,’’ कह कर राजन सर अखबार पढ़ने लगे.

‘‘सर, मैं इतना कमजोर भी नहीं हूं,’’ विनय बोला.

‘‘कैसे मान लूं?’’

यह सुनते ही विनय ने अपने एक हाथ की मुट्ठी बांध ली और फिर बोला, ‘‘सर, मेरी इस मुट्ठी को खोलिए.’’

सुन कर राजन सर मुसकराए मगर कुछ ही देर में उन की मुसकराहट गायब हो गई. विनय की मुट्ठी खोलने में उन के पसीने छूटने लगे. तब कुछ ही क्षणों बाद विनय ने खुद ही अपनी मुट्ठी खोल ली.

राजन सर के मुंह से केवल इतना ही निकला, ‘‘वंडरफुल, तुम कल से टे्रनिंग सैंटर पर आ सकते हो लेकिन इस ढीलीढाली धोती में नहीं. अच्छा होगा कि तुम पाजामा पहन कर आओ.’’

विनय ने झुक कर उन के पैर छुए, फिर बाहर निकल आया. राजन सर चकित हो कर जाते हुए विनय को देखते रहे.

विनय नियमित रूप से राजन सर के यहां आने लगा. कालेज में किसी को इस की भनक तक नहीं लगी. अब भी वह उन के लिए एक कार्टून मात्र था, क्योंकि जब वह पहले दिन कालेज आया तो उस का हुलिया कुछ ऐसा ही था. सिर पर छोटे बालों के बीच गांठ लगी एक लंबी सी चुटिया, ढीलाढाला कुरता पैरों में मोटर टायर की देसी चप्पल.

सब से पहले उस का सामना कालेज के एक शरारती छात्र राजेंद्र से हुआ. उस ने इन शब्दों से उस का स्वागत किया, ‘‘कहिए, मिस्टर चाणक्य, यहां नंद वंश का कौन है जो इस लंबी चुटिया में गांठ लगा कर आए हो? गांठ खोलो तो लहराती चुटिया और भी अच्छी लगेगी.’’

सुनते ही उस के पीछे खड़ी छात्रछात्राओं की भीड़ ठठा कर हंस पड़ी. विनय ने कोई उत्तर नहीं दिया. केवल मुसकरा कर रह गया. यह जरूर हुआ कि उस दिन से सभी शरारती छात्रछात्राओं को उसे मिस्टर चाणक्य कहने में मजा आने लगा.

वैसे धीरेधीरे विनय ने खुद को वहां के माहौल में ढाल लिया. सिर पर गांठ लगी चुटिया के कारण उस का नया नाम चाणक्य पड़ गया.

विनय की क्लास में अधिकतर छात्रछात्राएं बड़े घरों से थे. कैंटीन में उन का नाश्ता मिठाई, समोसे, कौफी आदि से होता था. उन के कपड़े भी मौडर्न और सुपर स्टाइल के होते थे. मामूली कपड़ों वाला विनय तो सिर्फ चाय पी कर ही उठ जाता था. इसीलिए लड़केलड़कियां उस के पास बैठने में अपनी तौहीन समझते थे. विशेष रूप से वीणा और शीला को तो उस से बात तक करने में शर्म आती थी. मगर विनय इन सब से दूर पता नहीं किस दुनिया में खोया रहता था.

राजेंद्र, नरेश, वीणा और शीला की दोस्ती पूरे कालेज में मशहूर थी. राजेंद्र और नरेश भी संपन्न घरों से थे. वे कालेज की कैंटीन यहां तक कि बाहर भी अकसर वे साथसाथ घूमतेफिरते थे.

उस दिन परीक्षा के फौर्म और फीस जमा हो रही थी, नाम पुकारे जाने पर विनय भी फौर्म व फीस ले कर पहुंचा. क्लर्क ने पैसे गिनने के बाद विनय से पूछा, ‘‘यह क्या, डेढ़ सौ रुपए कम क्यों हैं? क्या तुम ने नोटिस बोर्ड पर कल बढ़ी हुई फीस के बारे में नहीं पढ़ा?’’

‘‘नहीं सर, मेरी मां की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए मैं जल्दी घर चला गया था. इसी कारण मैं नोटिस बोर्ड नहीं पढ़ पाया. सौरी सर,’’ विनय बोला.

‘‘देखो, मैं इतना कर सकता हूं कि फौर्म और पैसे तो अभी रख लेता हूं, लेकिन कल बाकी पैसे जमा कर देना वरना तुम्हारा फौर्म रुक जाएगा,’’ क्लर्क ने चेतावनी भरे स्वर में विनय से कहा.

वीणा शीला के कान में फुसफुसाई, ‘‘यार, तेरे पर्स में तो पैसे हैं, इसे देदे तो आज ही इस का फौर्म जमा हो जाएगा.’’

शीला बोली, ‘‘क्यों दे दूं? 10-20 रुपए की बात होती तो दे भी देती, डेढ़ सौ रुपए की उधारी यह चाणक्य महाशय चुकता कर भी पाएंगे,’’ वीणा चुप लगा गई.

विनय शाम को भारी मन से कालेज से बाहर निकला, कल कहां से आएंगे डेढ़ सौ रुपए, घर में तो मां की दवा के लिए ही मुश्किल आन खड़ी होती है. कभी यह भी सोचता कि क्यों कराटे सीखने में उस ने इतने पैसे बरबाद कर दिए. इसी सोच में डूबा विनय यह भी भूल गया कि वह साइकिल पकड़े पैदल ही चल रहा है.

तभी एक स्कूटी पर वीणा और शीला उस की बगल से गुजरीं. दोनों स्कूटी पर कालेज आयाजाया करती थीं. विनय ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया.

मगर तुरंत ही वह चौंक पड़ा. एक बाइक पर सवार 3 आवारा लड़के अश्लील हरकतें करते हुए वीणा व शीला का पीछा कर रहे थे. किसी अनिष्ट की आशंका से वह साइकिल से उन का पीछा करने लगा.

उस ने देखा, वे दोनों उन आवारा लड़कों से पीछा छुड़ाने के लिए स्कूटी की रफ्तार बढ़ाती जा रही थीं. मगर वे भी बाइक की रफ्तार उसी तरह बढ़ा रहे थे. उस रफ्तार में साइकिल से उन का पीछा करना मुश्किल था फिर भी वह जीजान से उन के पीछे लगा रहा.

इत्तफाक से एक जगह जाम लगा हुआ था. इस से बाइक की रफ्तार कुछ धीमी हो गई. यह देखते ही विनय ने साइकिल और तेज कर दी. वह सोच चुका था कि अब उसे क्या करना है. करीब पहुंचते ही उस ने साइकिल से बाइक पर एक जोरदार टक्कर मारी. बाइक तुरंत लड़खड़ा कर गिर पड़ी, उसी के साथ वे तीनों भी नीचे जमीन पर गिर गए.

‘‘सौरी, भाईसाहब. अचानक मेरी साइकिल के बे्रक फेल हो गए,’’ विनय बोला. मगर तभी उन्होंने विनय को लड़कियों को हाथ से भाग जाने का इशारा करते देख लिया. वे उस की चालाकी समझ गए. उन्होंने अपने एक साथी को विनय से निबटने के लिए छोड़ उन लड़कियों को घेर लिया.

विनय के लिए अब काम आसान हो गया था. उस ने कराटे के दोएक वार में ही युवक को इस तरह चित्त कर दिया कि वह फिर उठने लायक ही नहीं रहा.

उधर विनय जब उन लोगों के पास पहुंचा तो देखा कि वहां भारी भीड़ इकट्ठी हो गई थी. उन आवारा लड़कों ने वीणा और शीला के दुपट्टे फाड़ कर फेंक दिए थे. वे दोनों चीख रही थीं. मगर भीड़ मूकदर्शक बनी खड़ी थी. गुंडों के भय से कोई आगे आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. कहीं उन के पास हथियार हुए तो? तभी विनय की नजर भीड़ में खड़े राजेंद्र और नरेश पर पड़ी. इस समय वे भी भीड़ का हिस्सा बने हुए थे जैसे कि वे वीणा और शीला को पहचानते ही न हों.

विनय के लिए अब खुद को रोकना मुश्किल हो गया. वह ललकारता हुआ बाइकर्स पर टूट पड़ा. एक मामूली से लड़के के इस साहस से प्रभावित हो कर भीड़ में मौजूद लोग भी उन पर टूट पड़े और उन की अच्छीखासी पिटाई करने के बाद तीनों को पुलिस को सौंप दिया. विनय ने एक नजर वीणा और शीला पर डाली तो उन की आंखों में कृतज्ञता के आंसू झलक रहे थे. मगर विनय वहां एक मिनट के लिए भी नहीं रुका, क्योंकि उसे मां के लिए दवा भी तो ले जानी थी.

अगले दिन न चाहते हुए भी मां की दवा के लिए रखे पैसों में से विनय ने डेढ़ सौ रुपए निकाल लिए. विनय के कालेज पहुंचने से पहले ही उस के इस साहसिक कारनामे की सूचना पूरे कालेज को लग चुकी थी. मगर सब से पहले वह फीस के बाकी पैसे ले कर औफिस में गया, लेकिन वह चकित रह गया जब क्लर्क ने उसे बताया, ‘‘नहीं, इन्हें और कल दिए हुए पैसों को भी वापस रख लो. तुम्हारी पूरी फीस किसी और ने जमा कर दी है.’’

‘‘मगर सर, किस ने?’’

‘‘जमा करने वाले ने नाम न बताने की शर्त पर ऐसा किया है.’’

विनय समझ गया. उस ने शीला और वीणा की ओर देखा. उन की आंखें नीचे झुकी हुई थीं. पहले तो उस ने सारे पैसे उन्हें लौटाने की बात सोची, मगर फिर मां की बीमारी का खयाल कर फिलहाल उस ने चुप रहना ही ठीक समझा.

प्रिंसिपल के नोटिस पर मध्यावकाश में 10 मिनट के लिए कालेज के सभी छात्र और टीचर हौल में पहुंचे. प्रिंसिपल बोले, ‘‘आप लोग यहां बुलाए जाने का उद्देश्य तो समझ ही रहे होंगे. मैं चाहता हूं कि आप सब के सामने उस छात्र को उपस्थित करूं जिस ने इस कालेज का नाम रोशन किया है. आप ने व्यंग्य से उसे चाणक्य नाम दिया है. इतिहास में एक ही चाणक्य पैदा हुआ है. मगर विनय ने कल जिस साहस का परिचय दिया, वह किसी चाणक्य से कम नहीं है. इतिहास का चाणक्य कूटनीति में पारंगत था और हमारा चाणक्य बेमिसाल साहस का धनी है. उस का कराटे का ज्ञान कल खूब काम आया. आओ विनय, लोग तुम्हारे मुख से भी दो शब्द सुनना चाहते हैं.’’

प्रिंसिपल के पीछे खड़ा विनय सामने आ कर बोला, ‘‘आदरणीय गुरुजन और साथियो, मुझे आप से केवल दो बातें कहनी हैं. पहली यह कि अपनी माताबहनों के साथ आवारा लड़कों द्वारा अश्लील हरकतें करते देख चुप न रहें, भीड़ के साथ आप भी मूकदर्शक न बनें. आवारा लड़कों में कोई बल नहीं होता. आप उन्हें ललकारते हुए आगे बढ़ें. विश्वास कीजिए, आप की हिम्मत देख भीड़ भी उन्हें मजा चखाने आगे आ जाएगी.

‘‘दूसरी बात यह कि आप किसी को भी सोचसमझ कर ही अपना दोस्त बनाएं. दोस्त भरोसेमंद और संकट में काम आने वाला हो.’’

पूरे कालेज ने तालियों से विनय के इन शब्दों का स्वागत किया.

परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ. विनय पूरे कालेज में अव्वल आया. उस की इस सफलता पर बधाई देने वालों में सब से पहले उस के घर पहुंचने वाली वीणा और शीला थीं. उन के भीतर आया बदलाव बिना कुछ बोले ही उन के चेहरे पर साफ झलक रहा था.

गर्ल टौक: आंचल खुद रोहिणी की कैसे बन गई दोस्त

एक दिन साहिल के सैलफोन की घंटी बजने पर जब आंचल ने उस के स्क्रीन पर रोहिणी का नाम देखा तो उस के माथे पर त्योरियां चढ़ गईं.

रोहिणी के महफिल में कदम रखते ही संगीसाथी जो अपने दोस्त साहिल की शादी में नाच रहे थे, के कदम वहीं के वहीं रुक गए. सभी रोहिणी के बदले रूप को देखने लगे.

‘‘रोहिणी… तू ही है न?’’ मोहन की आंखों के साथसाथ उस का मुंह भी खुला का खुला रह गया.

वरमाला होने को थी, दूल्हादुलहन स्टेज पर आ चुके थे. दोस्त स्टेज के सामने मस्ती से नाच रहे थे. तभी रोहिणी के आते ही सारी महफिल का ध्यान उस की तरफ खिंच गया. यह तो होना ही था. वह लड़की जो कभी लड़कों का पर्यायवाची समझी जाती थी, आज बला की खूबसूरत लग रही थी. गोल्डन बौर्डर की हलकीपीली साड़ी पहने, खुले घुंघराले केशों और सुंदर गहनों से लदीफंदी रोहिणी आज परियों को भी मात दे रही थी. रोहिणी को इस रूप में कालेज के किसी भी दोस्त ने आज तक नहीं देखा था.

‘‘अरे यार, पहले पूछ ले कहीं कोई और न हो,’’ मनीष ने मोहन के साथ मिल कर ठिठोली की.

‘‘पूछने की कोई जरूरत नहीं. हूं मैं ही. मैं ने सोचा कि आज साहिल को दिखा दूं कि उस ने क्या खोया है,’’ रोहिणी स्टेज पर चढ़ते हुए बोली.

‘‘पर अब तो लेट हो गई. अब क्या फायदा जब साहिल दूल्हा बन चुका,’’ मोहन के कहते ही सब हंसने लगे.

हंसीखिंचाई के इस माहौल में आंचल गंभीर थी. दुलहन बनी बैठे होने के कारण वह कुछ कह नहीं सकती थी और फिर साहिल को जानती भी कहां थी वह. यह रिश्ता मातापिता ने ढूंढ़ा था. मेरठ के पास एक छोटे से कसबे की लड़की को दिल्ली में रहने वाला अच्छा वर मिला तो सभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था. आननफानन उस की शादी तय कर दी गई थी. लेकिन आज ये सब बातें सुन कर उस का दिल बैठा जा रहा था कि कहीं गलती तो नहीं कर बैठी वह… यह लड़की खुलेआम सब के सामने क्या कुछ कह रही है और सब हंस रहे हैं. साहिल भी कुछ नहीं कह रहे. ऐसी बातें क्या लड़कियों को शोभा देती हैं? साड़ी पहन लेने से संस्कार नहीं आ जाते. इन्हीं सब विचारों में उलझती आंचल ने धीरे से आंखें उठा कर साहिल की ओर देखा.

‘‘अरे यार रोहिणी, अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई है, अभी से लड़ाई करवाएगी क्या?’’ आंचल की आंखों के भाव शायद साहिल को समझ आ गए थे.

शादी कर के आंचल दिल्ली आ गई. कुछ दिन उसे नई गृहस्थी में बसाने हेतु उस की सास साथ रहीं. ससुरजी की नौकरी जामनगर में थी, इसलिए घरगृहस्थी बस जाने पर सास को वहीं लौटना था. कुछ ही दिनों में आंचल तथा उस की सास में मधुर रिश्ता बन गया. वह बहुत खुश थी. दिल्ली में अच्छा मकान, सारी सुखसुविधाएं, साजसज्जा, सास से मधुर संबंध, पति के प्यार में पूरी तरह सराबोर. उस ने कभी सोचा भी न था कि उस की शादीशुदा जिंदगी की इतनी खुशहाल शुरुआत होगी. अपने मायके फोन कर के वह यहां की तारीफों के पुल बांधती रहती. खाना बनाना, घर को सलीके से रखना, पहननेओढ़ने की तहजीब व बातचीत में माधुर्य, इन सभी गुणों से उस ने भी अपनी सास तथा साहिल का मन जल्द ही मोह लिया.

‘‘मम्मी फिर, जल्दी आना, ’’ सास के पांव छूते हुए उस ने कहा.

‘‘आंचल, मैं मम्मी को स्टेशन छोड़ कर आता हूं,’’ कहते हुए साहिल व उस की मां कार में सवार हो निकल गए.

आज पहली बार आंचल घर पर अकेली थी. वह गुनगुनाती हुई अपने घर को संवारने लगी. तभी फोन की घंटी बजी तो उस ने ध्यान दिया कि साहिल अपना सैलफोन घर पर ही भूल गए हैं. साहिल के फोन की स्क्रीन पर रोहिणी का नाम पढ़ वह सोचने लगी कि यह तो उसी लड़की का नाम है फोन उठाऊं या नहीं? माथे पर त्योरियां चढ़ गईं. फिर आंचल ने फोन उठा लिया, किंतु हैलो नहीं कहा. वह सुनना चाहती थी कि रोहिणी कैसे पुकारती है साहिल को.

‘‘हैलो डियर, व्हाट्स अप?’’ रोहिणी की आवाज में गर्मजोशी थी, ‘‘खो ही गए तुम तो शादी के बाद.’’

‘‘साहिल तो घर पर नहीं हैं,’’ आंचल ने रूखा सा जवाब दिया.

‘‘ओह, तुम आंचल हो न? तुम मुझे नहीं पहचान पाओगी, सिर्फ शादी में मुलाकात हुई थी और शादी में इतने नए चेहरे मिलते हैं कि याद रखना मुमकिन नहीं,’’ रोहिणी की आवाज में अभी भी गर्मजोशी थी.

आंचल ने रोहिणी की बातों का कोई उत्तर न दिया, ‘‘कोई काम था आप को मेरे पति से?’’

मेरे पति से के संबोधन पर रोहिणी हंस पड़ी, ‘‘नहीं, साहिल से नहीं, आंटी से बात करनी थी.’’

‘‘वे जामनगर जा चुकी हैं. क्या बात करनी थी, मुझे बता दीजिए,’’ आंचल का स्वर अब भी रूखा था.

‘‘कुछ खास काम नहीं, बस ऐसे ही…’’ कह रोहिणी चुप हो गई. आंचल का बात करने का ढंग उसे अटपटा लगा. लग रहा था मानो वह रोहिणी से बात करना नहीं चाह रही.

‘‘ठीक है,’’ कह आंचल ने फोन काट दिया. उस का मन उदास हो गया. साहिल तो दोस्त हैं पर यह लड़की तो उस की सास से भी बातचीत करती है. क्या पता कब से करती हो. उस के शहर में लड़के और लड़की के बीच इस तरह की दोस्ती के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. और अब जबकि उन की शादी हो चुकी है तब क्या मतलब है इस दोस्ती का?

साहिल के लौट आने पर आंचल ने उसे रोहिणी के फोन के बारे में कुछ नहीं बताया. सोचा जब कोई जरूरी काम या बात नहीं है तो क्या बताना.

आंचल को उदास देख साहिल ने मजाक किया, ‘‘क्या बात है, अभी से सास की याद सताने लगी?’’

फीकी सी हंसी से आंचल ने बात टाल दी कि कैसे पूछे साहिल से कुछ? रात भर अजीबअजीब विचार आते रहे, कुछ खुली आंखों से तो कुछ सपने बन कर. कैसे हल करे आंचल अपने मन की उलझन. न तो मायके में और न ही ससुराल में वह यह बात किसी से कर सकती थी.

जीवन यथावत चलने लगा. साहिल सुबह से देर शाम तक औफिस में रहता और आंचल घर में मगन रहती. उसे इसी जिंदगी का इंतजार था. अब अपनी मनपसंद जिंदगी पा कर वह बहुत खुश थी. एक शाम घर लौट कर साहिल ने कहा, ‘‘आंचल, मैं रोहिणी को खाने पर बुलाना चाहता हूं, मैं चाहता हूं उसे तुम्हारे हाथों का लजीज खाना खिलाऊं. इस रविवार को बुलाया है मैं ने उसे. क्याक्या बनाओगी?’’

‘‘आप ने मुझे बता दिया है तो कुछ अच्छा ही बनाऊंगी. आप फिक्र मत कीजिए,’’ आंचल ने साहिल को तो आश्वस्त कर दिया, किंतु स्वयं चिंताग्रस्त हो गई.

रविवार को रोहिणी का रूप उस की शादी के दिन से बिलकुल विपरीत था. जींसटौप, कसे केश… आज रोहिणी के नैननक्श पर गौर किया था आंचल ने. वह वाकई खूबसूरत थी. साहिल के दरवाजा खोलते ही रोहिणी उस के गले लगी. यह कैसी दोस्ती है भला. आंचल को यह बात एकदम नागवार गुजरी. अचानक वह जा कर साहिल की बांह में बांह डाल खड़ी हो गई. लेकिन उस की इस हरकत से साहिल अचकचा गया. धीरे से बोला, ‘‘अ… चायनाश्ता ले आओ.’’

‘हुंह, दोस्त गले लग सकती है, लेकिन बीवी बांह में बांह नहीं डाल सकती,’ मन ही मन बड़बड़ाती आंचल किचन में चली गई.

बेहद फुरती के साथ उस ने सारा खाना डाइनिंग टेबल पर सजा दिया. वह साहिल और रोहिणी को कम से कम समय एकसाथ अकेले में गुजारने देना चाहती थी. वे दोनों सोफे पर आमनेसामने बैठे थे.

साहिल के पीछे से आ कर आंचल ने इस बार साहिल के गले में अपनी बांहें डालते हुए कहा, ‘‘चलिए, खाना तैयार है.’’साहिल फिर अचकचा गया. आंचल का अचानक ऐसा व्यवहार… वह तो हमेशा छुईमुई सी, शरमाई सी रहती थी और आज रोहिणी के सामने उसे क्या हो गया है.

खाना खाते हुए रोहिणी ने आंचल के खाने की तारीफ की.

‘‘थैंक्यू. मैं तो रोज ही इन के लिए अच्छे से अच्छा खाना पकाती हूं. बहुत प्यार करती हूं इन से और अगर किसी ने इन के और मेरे बीच आने की सोची भी तो मैं… मैं उसे…’’

‘‘अरे, यह क्या बोल रही हो?’’ साहिल ने आंचल की बात बीच में ही काटते हुए कहा, ‘‘रोहिणी क्या कह रही है और तुम क्या समझ रही हो?’’

‘‘मैं ने ऐसा क्या कह दिया कि आप मुझे इस तरह…’’

आंचल अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही रोहिणी ने बीचबचाव करते हुए कहा, ‘‘क्या साहिल, तुम भी न… ये कोई तरीका है नईनवेली दुलहन से बात करने का. एक तो उस ने इतना लजीज खाना बनाया है और तुम…’’

आंचल ने बीच में बात काटते हुए कहा, ‘‘इन्होंने जो कुछ कहा वह अपनी पत्नी से कहा और इन्हें पूरा हक है. आप बीच में न ही पड़ें,’’ फिर धीरे से बड़बड़ाई, ‘‘अच्छी तरह समझती हूं मैं, पहले आग लगाओ फिर बुझाने का नाटक.’’

रोहिणी चुप हो गई. वह समझ नहीं पा रही थी कि आंचल उस से इस तरह बेरुखी से व्यवहार क्यों कर रही है. वह तो उन के घर साहिल के साथसाथ आंचल से भी दोस्ती करने आई थी.

‘‘अरे, मूड क्यों खराब करती हो, आंचल, जाओ, खाना तो हो गया अब कुछ मीठा नहीं खिलाओगी रोहिणी को?’’ साहिल ने एक बार फिर माहौल को खुशगवार बनाने का प्रयास किया. किंतु आंचल और रोहिणी दोनों ही उदास थीं. आंचल मुंह बिचकाए अंदर चली गई. रोहिणी हाथ धोने के बहाने वहां से उठ कर बाथरूम में चली गई. वहां एकांत में वह सोचने लगी कि आखिर ऐसी क्या बात हो सकती है जो आंचल को इतनी बुरी लगी. हर नईनवेली को कुछ समय लगता है नए वातावरण, नए लोगों से तालमेल बैठाने में. हर लड़की अलग ढंग से पलीबढ़ी होती है. नए परिवार के नए रंगढंग में रचनेबसने में थोड़ा समय तो लगेगा ही न. आखिर आंचल को नए घर में आए दिन ही कितने हुए हैं. अभीअभी उस ने गृहस्थी संभाली है और खुद न्योतों पर जाने की जगह वही दूसरों को भोज करा रही है.

अचानक उस के मन में खयाल आया कि आंचल कहीं मेरे और साहिल के संबंध पर शक तो नहीं कर रही? आखिर वह एक ऐसे वातावरण से आई है जहां लड़कों और लड़कियों के बीच बराबरी की दोस्ती देखने को नहीं मिलती. ऐसे में रोहिणी का खुला व्यवहार कहीं आंचल को अटपटा तो नहीं लग रहा?

मीठे में आंचल ने खीर परोसी. आंचल का उतरा मुंह ठीक करने के लिए रोहिणी ने एक और कोशिश की, ‘‘वाह, कितनी स्वादिष्ठ खीर बनाई है. आंचल, प्लीज मुझे भी सिखाओ न ऐसा खाना बनाना.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों सिखाऊं ताकि आप रोजरोज मेरी गृहस्थी में दाखिल होती रहें?’’

आंचल का यह जवाब साहिल को बिलकुल पसंद नहीं आया और उस ने आंचल को डपट दिया, ‘‘आंचल, यह क्या तरीका है घर आए मेहमान से बात करने का?’’

साहिल की आवाज में कड़ाई सुन आंचल की आंखें डबडबा गईं. कुछ शक की चुभन, कुछ क्रोध की छटपटाहट… वह स्वयं को रोक न पाई और आंसू पोंछती हुई अंदर चली गई.

‘‘पता नहीं आज क्या हो गया है इसे, कैसा अजीब बरताव कर रही है,’’ साहिल आंचल की प्रतिक्रिया पर अभी भी हैरान था. लेकिन आंचल की आंखों के भावों व बेरुखी से रोहिणी की कुछकुछ समझ आ रहा था.

‘‘यदि तुम बुरा न मानो तो मैं आंचल से बात कर सकती हूं क्या?’’ रोहिणी ने साहिल से अनुमति मांगी.

‘‘अ… मैं तो बुरा नहीं मानूंगा पर अगर आंचल ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी कर दी तो? इसे इस मूड में मैं ने पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘तो मैं भी बुरा नहीं मानूंगी.’’

कमरे में आंचल बिस्तर पर औंधी पड़ी सुबक रही थी. रोहिणी के उस का नाम पुकारने पर वह व्यवस्थित होने लगी.

‘‘तबीयत ठीक नहीं थी तो कह देतीं न,

मैं फिर कभी आ जाती,’’ रोहिणी ने बिलकुल साधारण ढंग से बात शुरू की, ‘‘मैं यहां साहिल से मिलने या खाना खाने नहीं आई थी, बल्कि मैं तो आप से मिलने, आप से गपशप करने आई थी.’’

किंतु आंचल अब भी मुंह फुलाए बैठी थी. रोहिणी की ओर देखना भी उसे गवारा न था.

‘‘देखो न, आप मेरी भाभी जैसी हो. आप को मस्का नहीं मारूंगी तो आप मेरे लिए एक अच्छा सा लड़का कैसे ढूंढ़ोगी भला?’’ कह रोहिणी हंसने लगी, ‘‘साहिल से कोई उम्मीद रखना बेकार है. उसे तो मैं कहकह कर थक गई. वैसे उस की भी गलती नहीं है. उस की दोस्ती तो जैसा वह है वैसे लड़कों से है पर मुझे साहिल जैसा शांत, शरमीला लड़का नहीं चाहिए. मुझे तो अपने जैसा बिंदास और मस्त लड़का चाहिए. अगर है कोई आप की नजर में तो बताओ न.’’

रोहिणी का यह पैतरा काम कर गया. आंचल थोड़ी संभली हुई दिखने लगी. रोहिणी की बातों से उसे कुछ आश्वासन मिल रहा था.

तभी साहिल भी झांकता हुआ कमरे में दाखिल हुआ, ‘‘क्या चल रहा है भई?’’

‘‘कुछ नहीं, तुम्हारे मतलब का कुछ नहीं है यहां पर. यहां गर्ल टौक चल रही है और वह भी बेहद इंट्रैस्टिंग. इसलिए प्लीज, बाहर जाते हुए दरवाजा बंद करते जाना,’’ कह रोहिणी तो हंसी ही, साथ ही आंचल की भी हंसी छूट गई.

Sex Behaviour : उम्र के साथ बदलती संबंधों की गरमाहट

शादीशुदा जिंदगी में दूरियां बढ़ाने में सैक्स का भी अहम रोल होता है. अगर परिवार कोर्ट में आए विवादों की जड़ में जाएं तो पता चलता है कि ज्यादातर झगड़ों की शुरुआत इसी को ले कर होती है. बच्चों के बड़े होने पर पतिपत्नी को एकांत नहीं मिल पाता. ऐसे में धीरेधीरे पतिपत्नी में मनमुटाव रहने लगता है, जो कई बार बड़े झगड़े का रूप भी ले लेता है. इस से तलाक की नौबत भी आ जाती है. विवाहेतर संबंध भी कई बार इसी वजह से बनते हैं.

मनोचिकित्सक डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘‘उम्र के हिसाब से पति और पत्नी के सैक्स का गणित अलगअलग होता है. यही अंतर कई बार उन में दूरियां बढ़ाने का काम करता है. पतिपत्नी के सैक्स संबंधों में तालमेल को समझने के लिए इस गणित को समझना जरूरी होता है. इसी वजह से पतिपत्नी में सैक्स की इच्छा कम अथवा ज्यादा होती है. पत्नियां इसे न समझ कर यह मान लेती हैं कि उन के पति का कहीं चक्कर चल रहा है. यही सोच उन के वैवाहिक जीवन में जहर घोलने का काम करती है. अगर उम्र को 10-10 साल के गु्रपटाइम में बांध कर देखा जाए तो यह बात आसानी से समझ आ सकती है.’’

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शादी के पहले

आजकल शादी की औसत उम्र लड़कियों के लिए 25 से 35 के बीच हो गई है. दूसरी ओर खानपान और बदलते परिवेश में लड़केलड़कियों को 15 साल की उम्र में ही सैक्स का ज्ञान होने लगता है. 15 से 30 साल की आयुवर्ग की लड़कियों में नियमित पीरियड्स होने लगते हैं, जिस से उन में हारमोनल बदलाव होने लगते हैं. ऐसे में उन के अंदर सैक्स की इच्छा बढ़ने लगती है. वे इस इच्छा को पूरी तरह से दबाने का प्रयास करती हैं. उन पर सामाजिक और घरेलू दबाव तो होता ही है, कैरियर और शादी के लिए सही लड़के की तलाश भी मन पर हावी रहती है. ऐसे में सैक्स कहीं दब सा जाता है.

इसी आयुवर्ग के लड़कों में सैक्स के लिए जोश भरा होता है. कुछ नया करने की इच्छा मन पर हावी रहती है. उन की सेहत अच्छी होती है. वे हर तरह से फिट होते हैं. ऐसे में शादी, रिलेशनशिप का खयाल उन में नई ऊर्जा भर देता है. वे सैक्स के लिए तैयार रहते हैं, जबकि लड़कियां इस उम्र में अपनी इच्छाओं को दबाने में लगी रहती हैं.

30 के पार बदल जाते हैं हालात

महिलाओं की स्थिति: 30 के बाद शादी हो जाने के बाद महिलाओं में शादीशुदा रिलेशनशिप बन जाने से सैक्स को ले कर कोई परेशानी नहीं होती है. वे और्गेज्म हासिल करने के लिए पूरी तरह तैयार होती हैं. महिलाएं कैरियर बनाने के दबाव में नहीं होती. घरपरिवार में भी ज्यादा जिम्मेदारी नहीं होती. ऐसे में सैक्स की उन की इच्छा पूरी तरह से बलवती रहती है. बच्चों के होने से शरीर में तमाम तरह के बदलाव आते हैं, जिन के चलते महिलाओं को अपने अंदर के सैक्सभाव को समझने में आसानी होती है. वे बेफिक्र अंदाज में संबंधों का स्वागत करने को तैयार रहती हैं.

पुरुषों की स्थिति: उम्र के इसी दौर में पति तमाम तरह की परेशानियों से जूझ रहा होता है. शादी के बाद बच्चों और परिवार पर होने वाला खर्च, कैरियर में ग्रोथ आदि मन पर हावी होने लगता है, जिस के चलते वह खुद को थका सा महसूस करने लगते हैं. यही वह दौर होता है जिस में ज्यादातर पति नशा करने लगते हैं. ऐसे में सैक्स की इच्छा कम हो जाती है.

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महिला रोग विशेषज्ञा, डाक्टर सुनीता चंद्रा कहती हैं, ‘‘हमारे पास बांझपन को दूर करने के लिए जितनी भी महिलाएं आती हैं उन में से आधी महिलाओं में बांझपन का कारण उन के पतियों में शुक्राणुओं की सही क्वालिटी का न होना होता है. इस का बड़ा कारण पति का मानसिक तनाव और काम का बोझ होता है. इस के कारण वे पत्नी के साथ सही तरह से सैक्स संबंध स्थापित नहीं कर पाते.’’

नौटी 40 एट

40 के बाद की आयुसीमा एक बार फिर शारीरिक बदलाव की चौखट पर खड़ी होती है. महिलाओं में इस उम्र में हारमोन लैवल कम होना शुरू हो जाता है. उन में सैक्स की इच्छा दोबारा जाग्रत होने लगती है. कई महिलाएं अपने को बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त पाती हैं, जिस की वजह से सैक्स की इच्छा बढ़ने लगती है. मगर यह बदलाव उन्हीं औरतों में दिखता है जो पूरी तरह से स्वस्थ रहती हैं. जो महिलाएं किसी बीमारी का शिकार या बेडौल होती हैं, वे सैक्स संबंधों से बचने का प्रयास करती हैं.

40 प्लस का यह समय पुरुषों के लिए भी नए बदलाव लाता है. उन का कैरियर सैटल हो चुका होता है. वे इस समय को अपने अनुरूप महसूस करने लगते हैं. जो पुरुष सेहतमंद होते हैं, बीमारियों से दूर होते हैं वे पहले से ज्यादा टाइम और ऐनर्जी फील करने लगते हैं. उन के लिए सैक्स में नयापन लाने के विचार तेजी से बढ़ने लगते हैं.

50 के बाद महिलाओं में पीरियड्स का बोझ खत्म हो जाता है. वे सैक्स के प्रति अच्छा फील करने लगती हैं. इस के बाद भी उन के मन में तमाम तरह के सवाल आ जाते हैं. बच्चों के बड़े होने का सवाल मन पर हावी रहता है. हारमोनल चेंज के कारण बौडी फिट नहीं रहती. घुटने की बीमारियां होने लगती हैं. इन परेशानियों के बीच सैक्स की इच्छा दब जाती है.

इस उम्र के पुरुषों में भी ब्लडप्रैशर, डायबिटीज, कोलैस्ट्रौल जैसी बीमारियां और इन को दूर करने में प्रयोग होने वाली दवाएं सैक्स की इच्छा को दबा देती हैं. बौडी का यह सैक्स गणित ही पतिपत्नी के बीच सैक्स संबंधों में दूरी का सब से बड़ा कारण होता है.

डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘‘ऐसे में जरूरत इस बात की होती है कि सैक्स के इस गणित को मन पर हावी न होने दें ताकि सैक्स जीवन को सही तरह से चलाया जा सके.’’

रिलेशनशिप में सैक्स का अपना अलग महत्त्व होता है. हमारे समाज में सैक्स पर बात करने को बुरा माना जाता है, जिस के चलते वैवाहिक जीवन में तमाम तरह की परेशानियां आने लगती हैं. इन का दवाओं में इलाज तलाश करने के बजाय अगर बातचीत कर के हल निकाला जाए तो समस्या आसानी से दूर हो सकती है. लड़कालड़की सही मानो में विवाह के बाद ही सैक्स लाइफ का आनंद ले पाते हैं. जरूरत इस बात की होती है कि दोनों एक मानसिक लैवल पर चीजों को देखें और एकदूसरे को सहयोग करें. इस से आपसी दूरियां कम करने और वैवाहिक जीवन को सुचारु रूप से चलाने में मदद मिलती है.

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रिटायरमेंट के पहले गड़बड़ा रहे जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, कहीं आत्ममुग्धता के शिकार तो नहीं?

रिटायरमेंट को सहजता से ले पाना हर किसी के बस की बात नहीं होती क्योंकि रिटायरमेंट के बाद अधिकारी का लगभग सब कुछ छिन जाता है. पूरी सैलरी नहीं मिलती, एक झटके में साहबी और रुतबा दोनों खत्म हो जाते हैं. हाथ में और साथ में रह जाते हैं तो सेवानिवृति के दिन के भाषणों के परम्परागत जुमले, बुके और तोहफे, उन में भी रामायण और कल्याण जैसे धार्मिक ग्रन्थ ज्यादा होते हैं. सरकारी बंगला, सरकारी वाहन और वर्दीधारी सरकारी ड्राईवर, अर्दली, नौकरचाकर वगैरहवगैरह सब अपने से बेगाने हो जाते हैं.

इस मौके पर रिटायर होने जा रहे अधिकारी के कानों में 1960 में प्रदर्शित फिल्म बम्बई का बाबू फिल्म का मुकेश का गया यह गाना गूंज रहा होता है, चल री सजनी अब क्या सोचे…. इसी गाने की दो और लाइनें फूल मालाओं और शाल से लदेफदे रिटायर्ड साहब पर और ज्यादा फिट बैठती है, दुल्हन बन के गोरी खड़ी है, कोई नहीं अपना कैसी घड़ी है.

रिटायर्ड पर्सन वेतन भोगी से पेंशन भोगियों की जमात में जा खड़ा होता है. उस के पास सुनाने को अपने सेवाकाल के सेंसर्ड संस्मरण भर रह जाते हैं लेकिन दिक्कत यह कि श्रोता नहीं मिलते. 2 – 4 महीने बाद ही उसे महसूस होने लगता है कि जब सगे वाले ही कन्नी काटने लगे हैं तो औरों का क्या दोष लेकिन रिटायर होने के पहले की हालत उस से भी ज्यादा बुरी होती है. हर कोई हमदर्दी सी जताते पुचकारने भी लगता है कि चलो कोई बात नहीं जिंदगी निकाल दी अपने विभाग और देश की सेवा में, अब अपने लिए जियो, अपने बचेखुचे शौक पूरे करो, घूमो फिरो, तीरथ और सत्संग करो, क्लब का शौक हो तो उसे भी पूरा करो, आराम करो कुल जमा सार ये कि अब हमारा पिंड छोड़ो.

यह बहुद दुखद और अप्रिय स्थिति होती है जिस के बारे में रिटायर होने बाला साल दो साल पहले से ही सोचसोच कर हलाकान होने लगता है. आने वाले वक्त और उस की क्रूरता का उसे न केवल अंदाजा होता है बल्कि उसे श्रुति और स्मृति की बिना पर अनुभव भी हो जाता है कि रिटायर अफसर एक फ़ालतू की चीज समझा जाता है क्योंकि अब वह किसी का भला या बुरा नहीं कर सकता. लोगों की हमदर्दी काटने को दौड़ती है जो तरहतरह की सलाहमशवरे दे कर इस तनाव में इजाफा ही करते हैं. जबकि शुभचिंतकों की मंशा यह समझाने की होती है कि एक न एक दिन तो यह होना ही था. इसलिए अफ़सोस क्यों, जो नौकरी ले कर आता है उसे एक दिन रिटायरमेंट ले कर जाना ही पड़ता है. इतनी बातें सुनसुन कर डिप्रेशन हो आना भी स्वभाविक बात होती है.

10 नवम्बर को रिटायर होने जा रहे चीफ जस्टिस औफ इंडिया धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ की रिटायरमेंट को ले कर बैचेनी उन के हालिया भाषणों और वक्तव्यों से जाहिर हो रही है. जिस का विश्लेषण उन्हें आत्ममुग्ध ही ठहराता है. लगता ऐसा है कि वे अपने कार्यकाल का मूल्याकन और समीक्षा खुद ही कर दूसरों से यह मौका छीन लेना चाहते हैं. बिलाशक वे कोई साधारण पद पर नहीं हैं लेकिन खुद को असाधारण व्यक्ति साबित करने उन्होंने पिछले दिनों जो बातें कहीं हैं उन से लगता है कि वे भी आम सरकारी कर्मचारी अधिकारीयों की तरह रिटायरमेंट को सहजता से पचा नहीं पा रहे और अपने किए पर कभी फख्र भी करते हैं तो कभी गिल्ट भी उन्हें महसूस होता है.

28 अक्तूबर को मुंबई विश्वविध्यालय में एक लेक्चर सीरीज में उन्होंने कहा कि राज्यों और केंद्र सरकारों के प्रमुखों और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के बीच बैठकों का यह मतलब नहीं है कि कोई डील हुई है. ये बैठकें प्रशासनिक मामलों से जुड़ी होती हैं. हमें राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बातचीत करना होगी. क्योंकि उन्हें न्यायपालिका के लिए बजट प्रदान करना होगा और यह बजट जजों के लिए नहीं है. अगर हम नहीं मिलते हैं और केवल पत्रों पर निर्भर रहते हैं तो ऐसे काम नहीं होगा.

इस स्पष्टीकरण की कोई जरूरत नहीं थी लेकिन दिया गया तो कोई न कोई वजह तो होनी चाहिए क्योंकि वे खुद कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले थे, वे क्या मिले थे खुद नरेंद्र मोदी ही उन से मिलने थाल में मोदक ले कर उन के घर पहुंच गए थे.

बिना बुलाए मेहमान थे या आमंत्रित अतिथि थे- यह इन दोनों के सिवाय किसी को नहीं मालूम. बहाना या मौका अच्छा था बुद्धि के दाता गणेश के पूजन का. यानी मामला प्रशासनिक न हो कर धार्मिक था जिसे ले कर देश भर में अटकलों और अफवाहों का बाजार गर्म रहा था. जस्टिस चंद्रचूड़ नरेंद्र मोदी से कम धार्मिक या पूजापाठी नहीं हैं यह 12 सितम्बर को साबित भी हो गया. दोनों को उम्मीद यह रही होगी कि मामला चूंकि धर्म और पूजापाठ का है इसलिए कोई उंगली नहीं उठाएगा लेकिन उंगलियां इतनी उठीं कि उन्हें गिना पाना मुश्किल है.

इस मुलाकात पर और सफाई देते उन्होंने आगे कहा यह भी कि यह एक परम्परा है कि मुख्यमंत्री व मुख्य न्यायाधीश त्योहारों या शोक के अवसर पर एकदूसरे से मिलते हैं. लेकिन निश्चित रूप से हमें यह समझने की परिपक्वता होनी चाहिए कि इस का हमारे न्यायिक कामों पर कोई असर नहीं पड़ता है.

देखा जाए तो जस्टिस चंद्रचूड़ विपक्ष और गैर गोदी मीडिया को अपरिपक्व करार दे रहे थे क्योंकि एतराज इन्हीं ने जताया था. बाकी देश के आम आदमी को इस से इतना ही सरोकार था कि चलो जो भी हुआ अच्छा ही हुआ होगा. हमें क्या, हमें तो मुंशी प्रेमचन्द की पंच परमेश्वर नाम की कहानी में पढ़ा इतना ही याद है कि पंच के मुंह से परमेश्वर बोलता है. इधर यह रिवाज खत्म हो गया हो तो पता नहीं. क्योंकि किसी मुख्यमंत्री और हाई कोर्ट के किसी चीफ जस्टिस के मंदिर जाने के बहाने मिलने की बात हाल के दिनों में तो सुनने में आई नहीं हालांकि इस से पहले भी नहीं आई थी और फिर क्यों वे प्रधानमंत्री शब्द के इस्तेमाल से खुद को बचा रहे हैं.

वे साफ तौर पर यह कहने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहे कि उन के और प्रधानमंत्री के बीच कोई डील नहीं हुई थी या यह कि उन्होंने ही प्रधानमंत्री को गणेश पूजन के लिए आमंत्रित किया था. राजनीति को काजल की कोठरी यूं ही नहीं कहा जाता जिस की कालोंच से सीजेआई भी बचे नहीं रह पाए, नहीं तो परोक्ष रूप से वे कम से कम विपक्ष को तो अपरिपक्व न कहते इस शब्द का इस्तेमाल अकसर नरेंद्र मोदी और दूसरे कई छोटे बड़े भाजपाई नेता राहुल गांधी के लिए करते रहते हैं.

विपक्ष ने इस मुलाकात पर यह आशंका जताई थी कि इस से न्यायपालिका की निष्पक्षता खतरे में पड़ जाएगी तो इस पर तिलमिलाए भाजपाई कुछ पुराने मामले खोद लाए और यह दलील भी दी कि यह सामान्य मुलाकात थी और अतीत में भी ऐसा होता रहा है. यह मुलाकात सामान्य ही मानी जाती और जस्टिस चंद्रचूड़ की इस दलील से भी इत्तफाक रखा जा सकता था कि मुख्यमंत्रियों और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस का मिलना सामान्य बात है, एक शिष्टाचार है.

लेकिन वह सब एक प्रोटोकाल के तहत होता है और सियासी व प्रशासनिक गलियारों को मालूम रहता है कि आज फलां चीफ जस्टिस साहब और सीएम की मुलाकात इतने बजे अमुक स्थान पर होनी है. उस में गोपनीय कुछ नहीं रहता और न ही गणेश की मूर्ति के सामने खड़े हो कर आरती उतारी जाती. ऐसी शिष्टाचार वाली मुलाकातें जिन में न्यायिक चर्चा होनी होती है का प्रेस रिलीज पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट मय तस्वीरों के करता है. जिन में आमतौर पर दोनों आमनेसामने बैठे नजर आते हैं न कि मुंह से मुंह सटा कर पूजा कर रहे होते हैं.

इस विवादित मुलाकात के दौरान कोई अफसर मौजूद नहीं था कम से कम उस तस्वीर में तो बिलकुल नहीं जो नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर 12 सितम्बर को शेयर की थी. उस में सीजेआई और उन की पत्नी कल्पना दास ही दिखाई दे रहे हैं. क्या घर वालों को ऐसी सरकारी मीटिंगों में मौजूद रहने की इजाजत रहती है जिन में महत्वपूर्ण फैसले लिए जाने होते हैं जाहिर है नहीं होती. मुमकिन है इस अप्रत्याशित मुलाकात में कोई डील नहीं हुई हो पर मुमकिन यह भी बराबरी से है कि कोई डील हुई हो.

अहम सवाल यह भी कि इतनी बड़ी दिल्ली में नरेंद्र मोदी ने गणपति पूजन के लिए जस्टिस चंद्रचूड़ का ही घर क्यों चुना और बवाल मचने पर इस पर अपनी प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी जिस ने जस्टिस चंद्रचूड़ को दिक्कत में डाल दिया. इस मुलाकात को सीजेएआर यानी केम्पेन फार ज्युडिशियल एकाउंटिबिल्टी एंड रिफार्म्स ने एक गलत मिसाल करार दिया है. गौरतलब है कि सीजेएआर जजों का एक ग्रुप है जो जजों की जबाबदेही तय करने पर काम करता है. उस के मुताबिक यह मुलाकात सत्ता के विभाजन और न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करती है. क्या जस्टिस चंद्रचूड़ इस ग्रुप को भी अपरिपक्व मानते हैं? इस सवाल का जबाब भी हां में ही निकलता है वर्ना नेता और मीडिया तो एक आड़ या बहाना थे.

इस अफसाने के अलावा भूटान के पारो में जेएसडब्ल्यू ला स्कुल के दीक्षांत समारोह में यह कहना भी उन के भीतर की किसी ग्लानि से कम नहीं था कि, “वे खुद से पूछते हैं कि देश और इतिहास मेरे कार्यकाल का मुल्यांकन कैसे करेगा. मुझे थोड़ा कमजोर होने के लिए माफ करें मैं अपने देश की 2 साल तक सेवा करने के बाद नवम्बर में भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पद छोड़ दूंगा. जैसेजैसे मेरा कार्यकाल समाप्त हो रहा है मेरा मन भविष्य और अतीत के बारे में आशंकाओं और चिंताओं से बहुत ग्रस्त है. मैं न्यायाधीशों और क़ानूनी पेशेवरों की भावी पीढ़ी के लिए क्या छोडूंगा.”

यह भाषण भी उस फिलौसफी से सरोबर था जिस में अपने दोषों को भी गुणों की शक्ल में गिनाया जाता है, जस्टिस चन्द्रचूड़ किन आशंकाओं की बात कर रहे हैं यह कोई नहीं समझ पा रहा लेकिन इतिहास में दर्ज होने की अपनी महत्वाकांक्षा भी वे छिपा नहीं पाए. यह फिलौसफी आमतौर पर कार्पोरेट के सीईओ और चेयरमेन वगैरह झाड़ते हैं. जिन का मकसद यह बताना रहता है कि कम्पनी के लिए मैं ने इतना किया लेकिन इतना और करना बाकी रह गया. कहने का मतलब यह नहीं कि उन्हें ऐसा नहीं बोलना चाहिए लेकिन कानून के छात्रों की दिलचस्पी स्वभाविक तौर पर क़ानूनी विषयों में ही ज्यादा रहती है उन्हें ऐसे टिप्स चाहिए रहते हैं जो उन्हें एक कामयाब वकील या अच्छा जज बनाने में मदद करें. यह भाषण जो काफी लम्बा है वे अपनी रिटायर्मेंट पार्टी में देते तो ज्यादा सटीक और प्रासंगिक रहता. क्योंकि इस में एक जज की दुविधा थी हालांकि अपने फैसलों के प्रति संदेह और संकोच भी था.

यह कड़वा सच है कि सेशन कोर्ट से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक अपने कुछ या कई फैसलों के लिए आलोचना से बरी नहीं किए जाते लेकिन इसे बजाय चिंता के एक सबक के तौर पर जजों को लेना चाहिए. मीडिया और आम लोगों की प्रतिक्रिया कम अहम नहीं होती जो राम मंदिर के फैसले के वक्त भी दिखी थी कि यह है तो धर्म के प्रति आस्था से प्रेरित लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पास और कोई रास्ता भी नहीं था.

जस्टिस चंद्रचूड़ भी उस बेंच का हिस्सा थे जिस के अधिकतर जज इनामों से नवाजे जा चुके हैं. संभव है भक्तों की सरकार उन्हें भी कहीं फिट कर दे और कहीं 2027 में राष्ट्रपति ही न बना दे क्योंकि अब केंद्र में प्योर भाजपाई सरकार नहीं है इस की वजह उन का 21 अक्तूबर को यह कहना रहेगा कि रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद का समाधान निकालने के लिए उन्होंने भगवान से प्रार्थना की थी. अगर किसी का विश्वास हो तो भगवान रास्ता निकाल ही लेता है. पुणे के अपने पैतृक गांव कान्हेरसर में ग्रामीणों से रूबरू होते उन्होंने भगवान की महिमा बताई तो ऐसा लगा कि वाकई में पंच के मुंह से परमेश्वर ही बोलता है. बकौल जस्टिस चंद्रचूड़ तीन महीने के लगभग यह मामला मेरे पास रहा, मैं भगवान के सामने बैठ गया और उन से प्रार्थना की कि कुछ तो हल निकालना होगा.

तो भगवान ने हल निकाल दिया. इस में जस्टिस चंद्रचूड़ का कोई दोष या लेनादेना नहीं क्योंकि सब कुछ करते तो भगवानजी ही हैं. इस वक्तव्य में वह धर्मनिरपेक्षता कहीं नहीं थी जिस का जिक्र संविधान में न जाने क्या सोच कर किया होगा. अगर वे अल्लाह नहीं कह सकते थे तो ऊपर वाले ने हल निकाल दिया कह कर भी काम चला सकते थे लेकिन उन का मकसद अपना धर्म प्रेम दिखाना था सो जातेजाते एक बार और दिखा दिया.

अपने 8 साल के कैरियर में 1200 से भी ज्यादा बेंचों का हिस्सा रहे हैं और 597 फैसले उन्होंने दिए हैं. कुछ सरकार के कान उमेठते हुए भी हैं जिन का जिक्र उन के रिटायरमेंट के मद्देनजर मीडिया कुछ ऐसे कर रहा है मानो यह कोई बड़ी हिम्मत या दुसाहस का काम था (हालांकि था).

ऐसा कहने और गाने वालों को एक बार राजनारायण और इंदिरा गांधी वाले मुकदमे को पढ़ना देखना और समझना चाहिए जिस के दम पर लोग यह कहते हैं कि मैं तुम्हे अदालत में देख लूंगा. हालांकि इस के बाद जो हुआ वह भी कम अप्रिय नहीं था लेकिन अदालतों और न्याय से लोगों का भरोसा नहीं उठा था क्योंकि फैसला ऊपर कहीं से नहीं आया था बल्कि नीचे के एक जज ने किया था.

रिटायरमेंट के एक दो साल पहले से अधिकारी कर्मचारी एक अजीब सी मानसिकता का शिकार हो जाते हैं. आर्थिंक अनिश्चितता के साथसाथ उन्हें पारिवारिक और सामाजिक असुरक्षा भी घेर लेती है. नतीजतन वे अपना तनाव छुपा नहीं पाते, यही जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के साथ हो रहा है तो बात हैरानी की है या नहीं यह राम जाने.

वाराणसी का सांईं बाबा मूर्ति विवाद : चक्कर दानदक्षिणा का

यों तो 1930 के दशक से ही शिर्डी वाले सांईं बाबा के चमत्कारों से ताल्लुक रखते किस्सेकहानी आम होने लगे थे लेकिन लोगों में इन का बुखार 60 के दशक से ज्यादा चढ़ना शुरू हुआ था. उस दौर में प्रिंटिंग प्रैसों में छपे परचे खूब बांटे जाते थे जिन का मजमून यह होता था कि शिर्डी वाले सांईं बाबा की कृपा से फलां किसान को खेत में गड़ा खजाना मिला या ढिकाने के बेटे की सरकारी नौकरी लग गई, बेऔलाद दंपती के यहां शादी के चौदह वर्षों बाद चांद सा बेटा पैदा हुआ, अमुक की बेटी की शादी हो गई या फलांने का कोढ़ ठीक हो गया.

 

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इन परचों का अपना अलग क्रेज था जिन में यह भी खासतौर से लिखा होता था कि जो भी ऐसे हजार परचे छपवा कर बंटवाएगा उस की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होंगी और जो पढ़ कर भी परचे में लिखी बातों को अनदेखा करेगा या उन पर अविश्वास करेगा उस पर दुखों व मुसीबतों का पहाड़ टूटेगा. रामपुर के एक व्यापारी ने इस परचे का मजाक उड़ाया था तो उसे लकवा मार गया और फलांने ने परचे नहीं बटवाए तो उस का जवान बेटा मर गया वगैरहवगैरह.

आज की तरह लोग तब भी दहशत और आस्था में फर्क नहीं करते थे, सो, उन्होंने ऐसे परचे छपवा कर बंटवाए. इस से किस को क्या हासिल हुआ, यह तो भगवान कहीं हो तो जाने लेकिन प्रिंटिंग प्रैस वालों को जरूर बिना कोई गड्ढा खोदे खूब पैसा मिला जो थोक में ऐसे परचे छाप कर रखते थे और परचे के नीचे अपनी प्रैस का नाम व पता जरूर छापते थे जिस से ग्राहक को उन तक पहुंचने में भटकना न पड़े.

70 का दशक आतेआते लोग इफरात से शिर्डी जाने लगे. वहां के मंदिर की महिमा और चमत्कारों के चर्चे गांवगांव, शहरशहर होने लगे. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि लोगों का भरोसा शंकर, राम, हनुमान, दुर्गा या कृष्ण पर से उठने लगा था या प्रयागराज, हरिद्वार, बदरीधाम, केदारनाथ सहित किसी दूसरे तीर्थस्थल से उस की आस्था डगमगाने लगी थी बल्कि उन की मंशा यह थी कि इन्हें तो खूब आजमा लिया, अब एक बार सांईं बाबा को भी आजमा लेते हैं, हर्ज क्या है.

इस दौर में बौलीवुड ने भी सांईं बाबा के नाम पर खूब चांदी काटी. इस लिस्ट में सब से ऊपर नाम निर्माता, निर्देशक और अभिनेता गोस्वामी ब्राह्मण समुदाय के मनोज कुमार का आता है जिन्होंने 1977 में ‘शिर्डी वाले सांईं बाबा’ नाम की फिल्म बना कर तबीयत से पैसा कमाया था.

लेकिन इस के लिए वे चमत्कार और अंधविश्वास फ़ैलाने से नहीं चूके थे. इस के पहले मनोज कुमार ने अपनी फिल्मों में देशभक्ति की आड़ में सनातन धर्म और उस के देवीदेवताओं का भी खूब प्रचार किया था. ‘पूरब और पश्चिम’ और ‘उपकार’ जैसी कई फ़िल्में इस के सफल उदाहरण हैं. इस हिट फिल्म से सांईं बाबा बने सुधीर दलवी को घरघर पहचान ठीक वैसी ही मिली थी जैसी धार्मिक फिल्मों के जरिए साहू मोडक, जीवन, अनीता गुहा और भारत भूषण को मिली थी.

‘शिर्डी के सांईं बाबा’ फिल्म में राजेंद्र कुमार, हेमा मालिनी, प्रेमनाथ, मदन पुरी और शत्रुध्न सिन्हा जैसे दिग्गज कलाकर भी दिखे थे. इसी साल मनमोहन देसाई की फार्मूला ऐक्शन फिल्म ‘अमर अकबर एन्थोनी’ में सांईं बाबा पर शिर्डी मंदिर में ही फिल्माई गई कव्वाली ‘तारीफ तेरी निकली है दिल से, आई है लब पे बन के कव्वाली…’ पर भी दर्शक झूमे थे. यह कव्वाली ऋषि कपूर पर फिल्माई गई थी जिस मे सांईं बाबा की मेहरबानी से अंधी निरूपा राय की आखों की रोशनी वापस आ जाती है और बिछुड़े मांबेटे मिल जाते हैं. इतना ही नही, निरूपा राय की तलाश में भटक रहे खलनायकों जीवन और रंजीत को सांप सांईं बाबा के मंदिर में नहीं घुसने देता. अब तक ऐसे चमत्कारों का हक हिंदू देवीदेवताओं को ही हासिल था जो अब सांईं बाबा के खाते में दर्ज हो चला था.

अब तक सांईं बाबा का आधा पक्का मंदिर बन चुका था लेकिन इस से पहले यानी अपनी जिंदगी में वे एक चबूतरे पर बैठते थे. एक फ़क़ीर को भगवान बनाने में भक्तों ने देर नहीं की, उन्हें रेशमी कपड़े पहना दिए गए और सोने का मुकुट व सिंहासन मुहैया करा दिया गया. आज जो भव्य मूर्ति शिर्डी के मंदिर में लगी है वह कतई उन सांईं बाबा से मेल नहीं खाती जो जीतेजी वे वास्तव में थे.

बहरहाल, 80 का दशक आतेआते शिर्डी और सांईं बाबा में बढ़ती आस्था दूसरे तीर्थस्थलों व मंदिरों पर भारी पड़ने लगी. सांईं बाबा का मंदिर, जो शिर्डी की इकलौती मुख्य सडक से दिखता था, एक आलीशान इमारत में तबदील हो गया और दर्शन के लिए लंबीलंबी लाइनें लगने लगीं. पत्थर के सांईं बाबा को सोने में मढ़ दिया गया. मंदिर के ट्रस्ट ने उन के लिए विष्णु जैसा आसनसिंहासन मुहैया करा दिया. यह सब दानदक्षिणा की ही महिमा है. फर्क इतना भर रहा कि शिर्डी मंदिर में आने वाला दान ट्रस्ट के जरिए इकट्ठा होता है, दूसरे मंदिरों में गेरुए कपड़े वाले पुजारियों ने अपनी जेबें भरीं और इस के लिए जतन भी उन्होंने खूब किए.

इस देश में पुजारी बनने के लिए कोई प्रतियोगी परीक्षा पास नहीं करनी होती. कोई भी ऐरागैरा पंडा पुजारी बन सकता है. इस सनातनी रिवाज से शिर्डी मंदिर और सांईं बाबा के दीगर शहरों के मंदिर मुक्त ही रहे. इस से हिंदुओं का झुकाव इन की तरफ बढ़ा और वे यहां भी पैसा चढ़ाने लगे. सांईं बाबा और सांईं मंदिर ट्रस्ट को बदनाम करने की गरज से कहा तो यह भी जाने लगा कि शिर्डी मंदिर का पैसा, जो हिंदुओं के चढ़ावे का होता है, मुसलमानों और आतंकियों की मदद के लिए पाकिस्तान भेजा जाता है, इसलिए हिंदुओं को चाहिए कि वे शिर्डी मंदिर में दानदक्षिणा देने से बचें. इस आशय के वीडियो सोशल मीडिया पर अकसर वायरल भी किए जाते हैं लेकिन मीडिया ही उन्हें फर्जी और फेक साबित कर चुका है. सांईं भक्त भी इस बकवास पर यकीन नहीं करते और न ही वे लोग जिन्हें किसी भी मंदिर, मसजिद या चर्च से कुछ लेनादेना नहीं. यह सभी जानते हैं कि यह मुहिम कौन और क्यों चला रहा है.

80 के दशक से ही शिर्डी में जमीनजायदाद के भाव आसमान छूने लगे. जहां कभी 2 धर्मशालाएं होती थीं वहां हजारों की तादाद में छोटेबड़े होटल खुल गए. दक्षिण भारत के व्यापारियों ने शिर्डी अपने हाथ में ले ली ठीक वैसे ही जैसे उत्तर भारत के मंदिरों और नदी किनारों पर ब्राह्मणों ने कब्जा जमा रखा है. दोनों का ही मकसद भक्तों की जेब से अपना हिस्सा निकालना था. लोगों ने भी अपने पूजाघरों में सांईं बाबा की मूर्ति शंकर, हनुमान, कृष्ण और राम के साथ रखना शुरू कर दिया. देखतेदेखते हर शहर में सांईं बाबा के मंदिर बन गए. उन की चरण पादुकाएं पूजी जाने लगीं. दिखावे के मामले में सांईं भक्त सनातनियों को टक्कर देने लगे. सांईं बाबा की भी भव्य शोभायात्राएं उन की जन्मतिथि व पुण्यतिथि पर निकलने लगीं. उन के नाम पर व्रत रखे जाने लगे.

इस और ऐसी बहुत सी बातों का सनातन धर्म से गहरा कनैक्शन है जिस के चलते जबतब सनातनियों को शैव और वैष्णव मंदिरों से सांईं बाबा की मूर्तियां हटाने का दौरा पड़ता है और वे सांईं बाबा को मुसलमान साबित करने पर तुल जाते हैं. प्रचार यह किया जाता है कि सांईं बाबा मुसलमान था, उस का असली नाम चांद मियां था. और तो और, वह एक वेश्या का बेटा है. शिर्डी का मंदिर कोई मंदिर नहीं बल्कि एक मजार है, इसलिए हिंदुओं को शिर्डी नहीं जाना चाहिए.

मुट्ठीभर कट्टर हिंदुओं, जिन में से अधिकतर ब्राह्मण हैं, को छोड़ इस प्रचार के झांसे में कोई नहीं आ रहा तो सनातनियों को समझ नहीं आ रहा कि अब क्या करें जिस से लोग शिर्डी जाना बंद कर दें और चढ़ावा शिव व विष्णु अवतारों के मंदिरों में ही चढ़ाएं जिस से पंडेपुजारियों की आमदनी बढ़े.

अक्तूबर के पहले सप्ताह से ही वाराणसी से इस आशय की खबरें आने लगी थीं कि बहुत जल्द ही हिंदू मंदिरों से सांईं बाबा की मूर्तियां हटाई जाएंगी. इस के पीछे दलीलें वही दी गईं जो अब से कोई 8 साल पहले एक शंकराचार्य स्वरूपानंद दे गए थे कि सांईं बाबा कोई हिंदू देवता नहीं है जो उस का पूजन किया जाए, उसे हिंदू मंदिरों से हटाया जाए. उन की अपील पर तब किसी ने तवज्जुह नहीं दी थी क्योंकि सांईं बाबा के 95 फीसदी भक्त हिंदू ही हैं जिन्हें इस बात से कोई लेनादेना नहीं और न ही कोई एतराज है कि सांईं बाबा हिंदू थे या मुसलमान. उन्हें सिर्फ चमत्कारों से सरोकार था जो आज भी मौजूद है. फिर वे कोई सनातनी देवीदेवता करे या सांईं बाबा करें. सांईं भक्तों ने तब भी हर स्तर पर विरोध दर्ज कराया था और अब वाराणसी में भी कराया.

रखी भी तो इन्होंने ही थीं

1 अक्तूबर को वाराणसी के सनातन रक्षक दल ने शहर के 14 मंदिरों से सांईं बाबा की मूर्तियां हटाईं. इन में से कुछ को गंगा में सिरा दिया गया तो कुछ के टुकड़े कर गलियों में फेक दिए. कुछ मूर्तियों को सफ़ेद कपडे में लपेट कर रख दिया गया. जिस बड़े गणेश मंदिर में सालों से सांईं बाबा का पूजन हो रहा था वहां के पुजारी महंत रामू गुरु ने बड़ी मासूमियत से मीडिया को बताया कि जानकारी के अभाव में पूजन होता रहा. शास्त्र के अनुसार, इन का यानी सांईं बाबा का पूजन वर्जित है. जानकारी होने के बाद स्वेच्छा से मूर्ति को हटवा दिया गया. लगभग यही बयान अन्नपूर्णा मंदिर के महंत शंकर पुरी ने दिया कि शास्त्रों में कहीं भी सांईं की पूजा का वर्णन नहीं है, इसलिए अब मंदिर में स्थापित मूर्ति हटाई जा रही है.

यानी, इन महंतों को अपने सनातन धर्म और शास्त्रों की ही बुनियादी जानकारी नहीं कि किस की पूजा की जानी है और किस की नहीं. इस खेल के पीछे छिपी साजिश को समझें तो बात आईने की तरह साफ़ है कि मंदिरों में सांईं बाबा की मूर्तियां पूरे विधिविधान से रखी इसी मंशा से गई थीं कि सांईंभक्त जो दान-चढ़ावा दें उसे भी ये महंत-पुजारी बटोर ले जाएं.

हिंदू मंदिर डिपार्टमैंटल स्टोर या मौल जैसे होते हैं जिन में सभी प्रोडक्ट की तरह देवीदेवताओं की मूर्तियां रखी जाती हैं ताकि चढ़ावा देने वाले को ज्यादा सोचाविचारी न करना पड़े. जिन्हें शंकर पसंद है वे शंकर मूर्ति के आगे चढ़ाएं, जिन्हें रामसीता में भगवान दिखता है वे उन के सामने के बक्से में जेब ढीली करें और हनुमान व गणेश भक्त उन की मूर्ति के आगे पैसा चढ़ाएं. इसी कारोबार को बढ़ाने की गरज से सांईं बाबा की मूर्तियां रखी गई थीं जिस से कि सांईं भक्तों की जेबें भी सनातनी कैंची से काटी जा सकें.

ऐसा भी नहीं है कि पंडेपुजारियों को अब सांईं बाबा के नाम पर मिलने वाली दक्षिणा की दरकार नहीं रही, बल्कि वे तो हिंदू महासभा और सनातन रक्षक दल जैसे कट्टर हिंदूवादी संगठनों के दबाव में आ गए हैं जिन का मकसद सांप्रदायिक दुर्भाव फैलाना है. वाराणसी में सांईं मूर्ति हटाओ मुहिम का श्रीगणेश अजय शर्मा नाम के सज्जन ने किया जो केंद्रीय ब्राह्मण महासभा के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष हैं. जैसे ही सांईं मूर्तियों के मंदिरों से हटाने की खबर आम हुई, शिर्डी श्राइन ट्रस्ट ने विरोध जताया और सांईंभक्त सीधे पुलिस स्टेशन जा पहुंचे. उन्होंने अजय शर्मा के खिलाफ रिपोर्ट लिखाई जिस की बिना पर अजय शर्मा को गिरफ्तार कर लिया गया. इस के पहले उन के किडनैप किए जाने की अफवाह फैली थी जिस पर वाराणसी के लोगों ने कोई संज्ञान नहीं लिया था. जाहिर है, उन की नजर में यह पब्लिसिटी स्टंट था.

पंडेपुजारी इस मुहिम से सहमत नहीं थे, इस की एक मिसाल वाराणसी के रेशम कटरा इलाके के एक मंदिर के पुजारी चैतन्य व्यास का बयान है जिस में उन्होंने बताया कि कुछ लोग उन के मंदिर आए थे और उन्होंने दुर्गा व हनुमान की मूर्तियों के बीच रखी सांईं मूर्ति को हटाने को कहा था. लेकिन उन्होंने मूर्ति को सफ़ेद कपड़े से ढक दिया था. अजय शर्मा की गिरफ्तारी के बाद पुलिस वालों ने उन्हें हरी झंडी दिखाते कहा था कि वे अब सांईं बाबा की पूजा कर सकते हैं लेकिन किसी अनहोनी के डर के चलते उन्होंने ऐसा नहीं किया.

हिंदू युवाओं की जोरजबरजस्ती कितने शबाब पर है और बेकाबू है, यह वाराणसी में साफ़साफ़ देखने में आया जहां मंदिर के पुजारियों पर दबाव बनाया गया जिसे 2 महंतों ने दूसरे शब्दों में व्यक्त किया कि हम तो अज्ञानतावश सांईं बाबा का भी पूजनपाठ कर रहे थे. यह दलील ठीक वैसी ही है जैसे कोई यह कहे कि मुझे नहीं मालूम था कि बिना लाइसैंस व्हीकल चलाना अपराध है. असल में इन का अफ़सोस यह है कि खामखां मंदिर का एक एटीएम चला गया जो रोज पैसे उगलता था.

लड़ाई अब चढ़ावे के अलावा सनातन धर्म की ब्रैंडिंग की भी है जिसे हिंदू युवा इफरात से कर रहे हैं. इन युवाओं का इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी से कोई लेनादेना नहीं है और न ही वे यह जानते कि आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस में कैरियर कैसे बनाया जा सकता है. इन्हें धर्म के नाम पर वैमनस्य फ़ैलाने का टैंपरेरी रोजगार मिला हुआ है जिस के एंप्लौयर कौनकौन हैं और कहांकहां हैं, यह हरकोई जानता है.

शायद ही कभी किसी ने मुसलमानों को सांईं बाबा के मंदिर में पूजापाठ करते देखा हो या मसजिद में सांईं के नाम पर दुआ होती देखी हो. इस के बाद भी सांईं बाबा को चांद मियां कह कर बदनाम करने के पीछे की मंशा यह भी है कि सांईं बाबा हिंदूमुसलिम एकता के हिमायती थे.

मशहूर राम कथावाचक मोरारी बापू भी यही करते हैं तो उन्हें सोशल मीडिया पर खूब गालियां पड़ती हैं कि यह संत कोई संत नहीं बल्कि मुल्ला है. इस की कथाओं में मत जाओ, यह हिंदुओं के चढ़ाए पैसे मुसलिम लड़कियों की तालीम के लिए दे देता है. ऐसी ही बातें महात्मा गांधी के बारे में की जाती हैं कि वे भी मुसलमानों के हिमायती थे और मंदिरों में नमाज पढ़ते थे लेकिन कभी मसजिदों में पूजापाठ करने की उन की हिम्मत नहीं पड़ी. सार यह कि जो भी हिंदूमुसलिम एकता और भाईचारे की बात करता है वह आज सनातन धर्म का दुश्मन करार दे दिया जाता है.

सियासी तौर पर देखें तो यही बात इंडिया ब्लौक के बारे में कही जाती है. देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की मुहिम में इन दिनों सबकुछ जायज है क्योंकि सनातनियों का यह स्वर्णिम दौर है. सरकार उन्हीं की है जो दस साल मूर्तियां ही गढ़ती रही, मंदिर बनवाती रही या उन को आलीशान बनाने में अरबों रुपए फूंकती रही.

हैरानी तो तब हुई थी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले साल 23 अक्तूबर को शिर्डी गए थे लेकिन किसी रक्षक दल, परिषद, संघ या सेना की हिम्मत नहीं पड़ी थी कि वह इस का विरोध कर पाता. न ही तब किसी के मुंह से चूं तक निकलती है जब उन के मुखिया यानी मोदी दरगाह पर चढ़ाने के लिए चादर भेजते हैं. अब अगर सांईंभक्त सांईं बाबा को पूजते हैं तो अपने स्तर पर कोई गुनाह तो नहीं करते. हालांकि पूजापाठ से किसी को कुछ हासिल नहीं होता लेकिन यह व्यक्तिगत आस्था का मामला अगर है तो मंदिरों से सांईं बाबा की मूर्तियां हटाने की कोई तुक नहीं.

बेहतर तो यह होगा कि किसी की ही मूर्ति न रखी और न ही पूजी जाए. लेकिन ऐसा कभी हो पाएगा, इस में शक है क्योंकि विकसित होने की शर्त पर भारत चीन जैसा नास्तिक देश नहीं बनना चाहता. वजह, यह है कि इस से पंडों की रोजीरोटी खत्म होती है.

दीवाली 2024 : दिखावा कल्चर ने त्योहारों की असली खुशियां छीन लीं

पहले दीवाली पर घर में बनी मिठाइयां और पकवान जब दूसरों के घरों में जाते थे और उन पर तारीफें आती थीं तो मम्मी के चेहरे पर जो खुशी व रौनक होती थी, उस के आगे दीयों की रोशनी भी फीकी लगती थी, पर अब सबकुछ रेडीमेड है.

दो दशक पहले की दीवाली याद करिए. जो लोग आज जिंदगी के चौथे दशक में चल रहे हैं वे जब 18-20 साल की उम्र में थे, तब की दीवाली और अब की दीवाली में उन्हें एक बहुत बड़ा फर्क नजर आएगा. 20 साल पहले, कई महीने पहले से दीवाली का इंतजार होने लगता था. अब की दीवाली आई तो यह कर लेंगे, वह कर लेंगे. कितने काम होते थे जो दीवाली के लिए ही छोड़े जाते थे. किचन का कोई बरतन खराब हो गया और नया लेना है तो कहते थे : ‘‘अरे, दो महीने रुक जाओ, अब की धनतेरस पर ले लेंगे.’’

मम्मी के साथ घर के सभी छोटेबड़े दीवाली आने से हफ्तों पहले ही पूरे घर की साफसफाई में जुट जाते थे. बच्चा पार्टी को और्डर मिलता था कि अपनेअपने कमरे की सफाई करो, अलमारियों से किताबें और कपड़े निकाल कर साफ कर के नया अखबार बिछाओ और किताबें व कपड़े करीने से सजाओ, अरे दीवाली आने वाली है. पिताजी चौराहे से दो मजदूर पकड़ लाते थे और पूरे घर की पुताई करवाई जाती थी. यानी पूरा घर दीवाली के स्वागत की तैयारियों में जुट जाता था.

सब की दीवाली खूब बढि़या मने, इस की पूरी जिम्मेदारी मम्मी और उन के किचन पर होती थी. कई दिनों पहले से दीवाली की मिठाइयां और नमकीन बनने लगती थीं. पापा लइया-चना, गुड़, बताशे, चीनी के खिलौने, दीये, रुई, तेल-घी, मैदा, चीनी, खोया, मावे आदि दीवाली से कई दिनों पहले ही ला कर रख देते थे.

20-25 साल पहले तक निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों में बाजार से रंगीन डब्बों में रंगबिरंगी मिठाइयां ला कर बांटने का रिवाज नहीं था. ये नखरे तो बस उच्चवर्ग में ही देखे जाते थे. मगर आज निम्न तबके को भी यह रोग लग गया है. महंगी मिठाई न सही तो पतीसे का डब्बा ही सही. मध्य वर्ग के लोग अपनी कामवाली, सफाईवाली, धोबी, ड्राइवर, कूड़ा उठाने वाले, माली वगैरह को सौपचास रुपए के साथ पतीसे के डब्बे ही देने लगे हैं. उन के घरों में पतीसे के डब्बों का ढेर लग जाता है.

पहले ऐसा नहीं था. प्रसाद में जो मिठाई भोग चढ़ाई जाती थी, महल्ले में बांटने के बाद जो बचती थी वह घर में काम करने वाले लोगों में डिस्ट्रिब्यूट हो जाती थी. वे बड़े चाव से उस को खाते थे और अपने बच्चों के लिए बांध कर ले जाते थे.

जब घर में मिठाई बनती थी और खीलबताशे आते थे, तब महल्ले में बांटते वक्त यह नहीं देखा जाता था कि कौन गरीब और कौन अमीर, कौन हिंदू और कौन मुसलमान.

पहले दीवाली की मिठाइयां घर पर बनती थीं लेकिन अब सबकुछ रेडीमेड मिल जाता है. बाजार से आने वाली मिठाई के साथ न देने वाले का कोई प्रेम और न लेने वाले की कोई श्रद्धा. बस, एक फौर्मेलिटी है. पड़ोसी और रिश्तेदारों को दीवाली की मिठाई बांटनी है तो बाजार से खरीद कर बांट दो भले वह उस को मुंह न लगाए. अपना फर्ज तो पूरा हो गया. बड़े घरों में तो पहले भी दीवाली पर बाजार की महंगी मिठाई के साथ ड्राईफ्रूट और गिफ्ट देने का रिवाज रहा है. वहां बाकायदा लिस्ट बनती है कि कितने लोगों को गिफ्ट देना है. दूर के रिश्तेदारों और उन लोगों को इस लिस्ट से हटा दिया जाता है जो स्टैंडर्ड से मेल नहीं खाते या जिन से कोई फायदा नहीं होता या जो बूढ़ेबुजुर्ग हैं. लिस्ट में वही लोग होते हैं जिन के यहां से भी उतने ही महंगे गिफ्ट और मिठाइयां रिटर्न गिफ्ट के तौर पर आती हैं.

आज बाजार दुनियाभर के गिफ्ट आइटम्स से भरे पड़े हैं. बढि़याबढि़या शो पीस, डबल बेड की चादरें, क्विल्ट, ब्लैंकेट, लकड़ी के सजावटी सामान, पेंटिंग्स, किचन इक्विपमैंट्स, गैजेट्स, ड्राईफ्रूट्स के सजेसजाए पैकेट्स जिन में महंगी चौकलेट्स, नमकीन आदि होते हैं,

दीवाली पर देने का चलन इधर खूब बढ़ा है. अब तो मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवार भी दीवाली की मिठाई के साथ कोई न कोई गिफ्ट आइटम देने लगे हैं.

कुछ नहीं तो चाय के 6 प्यालों का सैट या गिलास का एक सैट ही सही. मगर, अपनी हनक दिखाने के लिए देना तो है. इस दिखावे के चक्कर में घर का बजट तो बिगड़ता ही है, कई बार गिफ्ट पसंद न आने पर वह या तो कूड़े की तरह किसी कोने में पड़ा रहता है या वैसा का वैसा पैक किसी अन्य को दे दिया जाता है. इन बाजारी चीजों के साथ त्योहार की खुशियां, प्रेम और श्रद्धा जैसे भाव एक घर से दूसरे घर नहीं जाते. बस, दिखावा ही जाता है और बदले में दिखावा ही लौटता है.

दिखावा कल्चर ने घर का बजट ही नहीं बिगाड़ा है, बल्कि त्योहारों पर बच्चों की असली खुशी पर नजर भी लगा दी है. शंकर यादव अपने कसबे में जब परिवार के साथ रहता था तब बच्चों के लिए 500 रुपए के पटाखे भी उसे बहुत लगते थे.

शंकर की दीवाली

शंकर दो साल से परिवार को ले कर दिल्ली में रह रहा है. अकेला कमाने वाला है. एक अखबार में लेआउट डिजाइनर है. घर पर भी कुछ मैगजीन आदि डिजाइन करता है.

महीने की आमदनी कभी 30-35 हजार रुपए तो कभी अच्छा काम मिल गया तो 50 हजार रुपए तक हो जाती है. दो बच्चे हैं. दोनों पढ़ रहे हैं. कुछ लोन ले कर एक सोसाइटी में वन बीएचके फ्लैट खरीदा है. उस की किस्त भी जाती है. ऐसे में दीवाली पर पड़ोस के तीनचार घरों में जिन से उस की पत्नी की अच्छी जानपहचान हो गई है, मिठाई का डब्बा, ड्राईफ्रूट और छोटामोटा गिफ्ट आइटम भेजना ही पड़ता है.

इस खर्चे के बाद बच्चों के लिए 500 रुपए पटाखों पर फूंकने की उस की हिम्मत नहीं होती. फिर, 500 रुपए में तो अब पटाखे भी दोतीन ही आते हैं. इस से तो बच्चे निराश ही होंगे क्योंकि सोसाइटी के अन्य बच्चे जब थैलियां भरभर के पटाखे फोड़ेंगे तब उन्हें देख कर शंकर के बच्चों में हीनभावना पैदा होगी. इस डर से शंकर दीवाली की शाम अंधेरा होते ही दोनों बच्चों और पत्नी को ले कर दिल्ली की रोशनी दिखाने निकल पड़ता है.

मैट्रो से कनाट प्लेस आता है और वहां बच्चों के साथ आतिशबाजी व सजीधजी दुकानों की रौनकों का मजा लेता है. फिर चारों किसी स्ट्रीट फूड का लुत्फ उठाते हैं. ठेले पर चाऊमीन, गोलगप्पे, चाट आदि खाते हैं.

फिर रात 11 बजे की आखिरी मैट्रो पर सवार हो कर घर लौट जाते हैं. तब तक उन की कालोनी की आतिशबाजी भी खत्म हो चुकी होती है और सोसाइटी के बच्चे अपनेअपने घरों में बंद हो चुके होते हैं.

शंकर की दीवाली तो बीते 2 सालों से ऐसे ही मन रही है, मन मारमार कर. यही पैसा जो वह गिफ्ट पर खर्च करता है अगर उस से बच्चों के लिए पटाखे और नए कपड़े ले आता तो शायद उस की और उस के परिवार की दीवाली सच्ची खुशियों के साथ मन रही होती मगर त्योहारों पर दिखावा कल्चर की मार शंकर का परिवार भी झेल रहा है.

शंकर सरीखे अनेक परिवार हैं जो अपनी इज्जत बचाने के लिए और सोसाइटी में सिर ऊंचा रख कर चलने के लिए अपनों की खुशियों का गला घोंट कर उन घरों में महंगे गिफ्ट और मिठाइयां पहुंचाते हैं जिन से भविष्य में कुछ हासिल नहीं होना है. मगर दुनिया क्या कहेगी, दुनिया उन की गरीबी का मजाक उड़ाएगी, इस डर ने त्योहारों की असली खुशी पाने से इंसान को महरूम कर दिया है.

दिखावा कल्चर में दिखावटी जिंदगी जी रहे लोग समाज में कुंठा और गुस्से को बढ़ा रहे हैं.

पोंगापंथी नहीं उत्सव मनाइए

दीवाली 5 दिनों का त्योहार होता है. इस की शुरुआत धनतेरस से होती है. इस के बाद दूसरे दिन छोटी दीवाली, तीसरे दिन दीवाली होती है. इस के बाद गोवर्धन और भैयादूज होते हैं. दीवाली की तैयारी में काफी समय लगता है.

त्योहार का आनंद लेना है तो पोंगापंथ से दूर रहिए. दीवाली के पहले के 28 दिन पितृपक्ष व नौरातों को पोंगापंथी में गुजारने की जगह अपने मित्रों, रिश्तेदारों के साथ डिनर पार्टी प्लान कीजिए, जिस में एकदूसरे के पास रहेंगे और एकदूसरे के सुखदुख को समझ सकेंगे. अच्छा है कि घर के सभी लोग मिल कर अपने घर की सफाई करें. घर छोटाबड़ा कैसा भी हो, उस का साफ रहना अच्छा लगता है.

जब घर के लोग मिल कर उस को साफ करते हैं तो एक अलग ही उत्साह होता है. साथ रंगरोगन करतेकरते आपस में होली भी खेल ली जाती है. इस से दीवाली के साथ ही साथ होली का आंनद भी ले लेते हैं और दीवाली के लिए घर भी साफ हो जाता है. दीवाली बरसात के बाद होती है, इसलिए सफाई से घर के कीड़ेमकोड़े भी खत्म हो जाते हैं.

नायडू स्टालिन क्यों समझ रहे औरत को बच्चा पैदा करने की मशीन

एक ने कहा महिलाएं ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें तो दूसरे ने झट से इस ज्यादा की हद भी बता दी कि न्यू कपल्स 16 बच्चे पैदा करें. इन दोनों में मुकम्मल राजनैतिक और वैचारिक मतभेद हैं. लेकिन आबादी बढ़ाने यानी औरतों के ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने के मसले पर दोनों एक हैं. जो ज्ञान धर्म गुरु और कट्टर हिंदूवादी संगठन अकसर देते रहते हैं उसे क्यों आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन बांट रहे हैं.

इस सवाल के जवाब में जो तस्वीर हालफिलहाल उभर के सामने आ रही है वह सियासी है कि ऐसी अपीलें परिसीमन के चलते की जा रही हैं, जिस के तहत दक्षिणी राज्यों में लोकसभा की सीटें घट जाएंगी और उत्तरी राज्यों में बढ़ जाएंगी. यह बात आंकड़े दे कर गिनाई भी जा रही हैं जबकि उलट इस के सनातन धर्म के ठेकेदार हिंदूओं को यह कहते डराते रहते हैं कि मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ रही है और वे बहुत जल्द ही 30 – 40 फीसदी हो जाएगी जिस के दम पर वे सत्ता पर काबिज हो कर देश को इस्लामिक राष्ट्र बना देंगे और तुम्हारे मंदिरों के साथ साथ बहनबेटियों की आबरू भी लूटेंगे सनातन धर्म और संस्कृति नष्ट भ्रष्ट कर देंगे. नायडू और स्टालिन ने किसी को डराया नहीं है क्योंकि उन का एजेंडा राजनैतिक है धार्मिक नहीं.

यानी कारण अलगअलग हैं, परिणाम एक ही है तो बात कुछकुछ ऐसी ही है कि छुरी तरबूज पर गिरे या तरबूज छुरी पर गिरे कटना तो तरबूज को ही है. जाहिर है अगर ऐसा हुआ ( हालांकि जिस का होना अब नामुमकिन है ) तो नुकसान सिर्फ और सिर्फ औरतों का होना है जिन्हें एक बार फिर बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा जा रहा. धर्म के ठेकेदारों की तरह इन दोनों नेताओं की भी कथनी और करनी में फर्क साफ दिख रहा है. चन्द्रबाबू नायडू का एक ही बेटा लोकेश है और एमके स्टालिन के भी सिर्फ दो ही संतानें, बेटा उदयनिधि स्टालिन और बेटी सेन्थराई सुबरिशन, हैं. ये दोनों शहीद तो पैदा हो लेकिन पड़ोसी के यहां हो वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहे हैं.

ये दोनों यह भी बेहतर जानते हैं कि आजकल की युवतियों पर ऐसी अपील का कोई असर नहीं पड़ने वाला जिन की प्राथमिकता व्यक्तिगत और आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता ज्यादा है बजाए पुरुषों की परतंत्रता ढोने के. कम से कम शहरी शिक्षित युवतियों ने तो अपना अस्तित्व तलाश लिया है लेकिन कम पढ़ीलिखी देहाती युवती भी ज्यादा बच्चे पैदा करना पसंद नहीं कर रही. ज्यादा बच्चे उस दौर में औरतें पैदा करती थीं जिस में उन का कोई वजूद या आजादी नहीं होते थे. पीरियड्स शुरू होने के पहले या साथ ही उन्हें एक से दूसरे घर में धकेल दिया जाता था.

वे ससुराल में भी चूल्हाचौका करती थीं, कपडे धोती थीं और झाड़ूपोंछा करती थीं और हर डेढ़ दो साल में एक बच्चा बिना नागा, बिना किसी हीलहुज्जत के पैदा करती थीं. 18 – 20 साल की और कई बार तो 16 की उम्र से यह सिलसिला शुरू होता था तो तब तक चलता रहता था तब तक प्रकृति खुद इन के आगे हथियार नहीं डाल देती थी कि बस अब तो बंद करो यह फैक्ट्री.

1950 – 60 के दशक में ग्रामीण तो ग्रामीण शहरी महिलाएं भी 8 – 10 बच्चे पैदा करती ही थीं. फिर धीरेधीरे यह सिलसिला कम होने लगा. शहरी महिलाएं 4 – 5 बच्चे पैदा करने लगीं 90 का दशक आतेआते हम दो हमारे दो का असर दिखने लगा और आज हालत यह है कि युवतियां एक बच्चा पैदा करने में भी कतरा रहीं हैं.

गांवदेहातों में भी लड़कियां 3 के बाद गिनती भूल रही हैं. इस जागरूकता में धर्म और जाति आड़े नहीं आते. ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए बदनाम कर दिए गए मुसलमान और दलित समुदाय के लोग भी अब गिन कर अपनी आमदनी और हैसियत के मुताबिक बच्चे पैदा कर रहे हैं. इन्हें भी अब समझ आने लगा है कि ज्यादा बच्चे कंगाली और दरिद्रता की अहम वजह बनते हैं इसलिए भलाई इसी में है कि अब सोचसमझ कर बच्चे पैदा किए जाएं.

प्यू रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक मुसलिम महिलाओं का फर्टिलिटी रेट पहले के मुकाबले काफी कम हुआ है. 90 के दशक में यह 4.4 फीसदी था जो 2015 तक घट कर 2.6 फीसदी रह गया. 2021 में यह 2.1 रह गया है. टोटल फर्टिलिटी रेट ( टीएफआर ) या प्रजनन दर का मतलब यह होता है कि एक महिला अपने जीवन काल में कितने बच्चों को जन्म देती है. आज से कोई 30 साल पहले मुसलिम महिलाएं 4 – 5 बच्चों को जन्म दे रही थीं वे अब महज दो बच्चों को जन्म दे रही हैं. हिंदू महिलाओं का टीएफआर 1.94 है जो मुसलिम महिलाओं से थोड़ा ही कम है. यानी जागरूकता मुसलिम महिलाओं में भी आ रही है.

चंद्रबाबू नायडू की अपील धर्म या जाति को ले कर नहीं बल्कि अपने प्रदेश सहित दक्षिण भारत को ले कर है. राष्ट्रीय जन्म दर 2.1 के मुकाबले आंध्र प्रदेश की जन्म दर 1.6 है. बकौल नायडू यूरोप और जापान आदि में कई देश बुजुर्ग होती आबादी से जूझ रहे हैं. वहां वृद्दों की संख्या बढ़ रही है और युवाओं की घट रही है. नायडू की इस चाइल्ड ट्रिगनामैट्रि और एज ज्योमैट्री से इत्तफाक रखा जा सकता है लेकिन एक सरसरी नजर उन्हें चीन के हालातों पर भी डाल लेनी चाहिए जहां सरकार बच्चे पैदा करने तमाम तरह के प्रोत्साहन और सहूलियतें दे रही है. यह वही चीन है जहां कुछ दशक पहले तक ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले कपल्स कटघरे में खड़े कर दिए जाते थे. नायडू तो एक कानून बनाने की भी बात कर रहे हैं जिस के तहत स्थानीय निकायों के चुनाव वही लोग लड़ पाएंगे जो ज्यादा बच्चे पैदा करेंगे. तमाम सहूलियतें भी उन्हें दी जाएंगी.

यह दिल बहलाने जैसी खुशफहमी है क्योंकि आजकल की युवतियां किसी झांसे में आने वाली नहीं. स्थानीय निकाय चुनाव में तो उन की दिलचस्पी न के बराबर होती है. शायद ही नहीं बल्कि तय है कि एक लाख में से एक युवती ऐसी मिले जो चुनाव की तयारी कर रही हो. हां ऐसी युवती जरुर हर घर में मिल जाएंगी जो जौब के लिए पढ़ और तैयारी कर रही हैं. इन में से भी 100 में से 4 – 6 लड़कियां ही ऐसी मिलेंगी जो हाउस वाइफ बनना चाहती हों. बाकी 95 का ख्वाव और मकसद दोनों पढ़ाई कैरियर और जौब हैं और इस रास्ते में जो भी आड़े आता है उसे वे दरकिनार कर आगे बढ़ जाती हैं.

यूनिसेफ द्वारा इसी साल फरवरी में जारी एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक 75 फीसदी भारतीय युवतियों ने बताया कि उन के लिए पढ़ाई के बाद जौब ज्यादा अहम है जबकि 25 फीसदी ने शादी को अहम बताया. लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि ये युवतियां शादी के बाद नौकरी नहीं करेंगी.

दरअसल अधिकतर युवतियां अब 30 के लगभग की उम्र में शादी करना पसंद कर रही हैं. इस दौरान वे खासा नहीं तो कम से कम इतना पैसा तो कमा चुकी होती हैं कि पेरैंट्स पर शादी के खर्च का भार न पड़े. 30 के लगभग शादी के बाद बच्चे के बारे में सोचना या बच्चा प्लान करना उन की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है. इस में पति की आमदनी और भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है.

शादी के 4 – 5 साल बाद जब यह सुनिश्चित हो जाता है कि वैवाहिक जीवन ठीकठाक चलेगा तो ही युवतियां बच्चा पैदा करने की सोचती हैं. वह भी तब जब उन्हें इस बात की भी गारंटी हो जाती है कि पति की आमदनी इतनी है कि घर गृहस्थी सुकून से चलेगी और बच्चे की परवरिश और पढ़ाई में भी पैसे की कमी आड़े नहीं आएगी.

वर्ल्ड बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में शादी के बाद जौब करने वाली महिलाओं की संख्या में गिरावट आई है. कोई एकतिहाई को शादी के बाद जौब छोड़ना पड़ता है. इस का सीधा सा मतलब यह निकलता है कि दो तिहाई महिलाएं जौब नहीं छोड़ती.

शादी के बाद नौकरी छोड़ने की एक अहम वजह बच्चे की इच्छा या जरूरत ही रहती है बाकी दूसरे हालात तो आजकल की स्मार्ट होती लड़कियां मैनेज कर लेती हैं. मसलन सासससुर अगर साथ रहते हों तो उन की सेवा शुमार के लिए नौकर रख लेना वगैरह लेकिन बच्चे यानी मातृत्व की ख्वाहिश बेहद कुदरती होती है.

अब नायडू और स्टालिन चाहते हैं कि सौ फीसदी महिलाएं नौकरी छोड़छाड़ कर अपनी दादी नानी की तरह धड़ाधड़ बच्चे पैदा करती जाएं तो यह कहीं से मुमकिन नहीं. अगर ऐसी ही उम्मीद युवतियों से रखी जाती है तो उन की पढ़ाईलिखाई के कोई माने नहीं रह जाएंगे. वे 10 वीं 12 वीं के बाद पढ़ेंगी ही क्यों, अगर उन्हें तनिक भी यह एहसास हो कि उन्हें सिर्फ बच्चे पैदा करते रहना है.

औरत भी अब पैसा कमाने की मशीन बन चुकी है लिहाजा वह बच्चे पैदा करने की मशीन नहीं बनना चाहती. क्योंकि उसे मालूम है कि फिर वह घर की नौकरानी बन कर रह जाएगी जिस का काम बच्चे पालने के साथसाथ घर की साफ सफाई बर्तन कपड़े और चूल्हा चौका करना ही रहता है. तो वह 60 – 70 साल पीछे नहीं जाना चाहती फिर अपील कोई नायडू करें या स्टालिन या गिरिराज सिंह उन्हें किसी की परवाह नहीं.

ये लोग दरअसल में औरत की आजादी और गैरत छीनने की बात कह रहे हैं जो उसे फिर से मर्दों का गुलाम बना कर रख देगी. इस में कोई शक नहीं कि नायडू और स्टालिन की चिंता बेवजह नहीं है कि दक्षिण भारत में अगर लोकसभा सीटें कम हुईं तो पांचों राज्य उत्तर भारत के मुकाबले पिछड़ जायेंगे लेकिन अपनी बात को जस्टिफाई करने इन दोनों के पास दमदार दलीलें नहीं हैं. दक्षिणी राज्यों ने अगर उत्तरी राज्यों के मुकाबले ज्यादा तरक्की की है तो इस की वजह वहां के लोगों का फैमिली प्लानिंग की अहमियत समझते उसे वक्त रहते अपना लेना था. अब चीन की तरह उन से कहा जा रहा है कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करो.

अगर इन्हें अपने राज्यों की आबादी बढ़ाना ही है तो उन्हें सेरोगेसी को प्रोत्साहन देना चाहिए जिस के नियम कायदे कानून काफी कठिन और अव्यवहारिक हैं. अगर ये दोनों सेरोगेसी को खुली छूट और प्रोत्साहन दें तो दो तरह की महिलाओं को फायदा होगा पहली वे पैसे वाली जो खुद बच्चा पैदा नहीं करना चाहतीं और दूसरी वे गरीब अनपढ़ या आधा पढ़ी जरूरतमंद जो कुछ या वाजिव पैसों के एवज में बच्चा पैदा करने से नहीं हिचकतीं. सेरोगेसी को अनैतिक व्यापार और देह व्यापार से जोड़ने की सोच से निकलना होगा. औरतों का शरीर उन की संपत्ति है, सरकार कानून बना कर दखल न दे, किसी भी सूरत में.

महिलाओं को अपनी सारी जिंदगी रसोई में ही स्वाहा करने की जरूरत नहीं

मेरी पड़ोसन श्रेया उस के पति दोनों एक ही औफिस में और एक ही सैलरी पैकेज पर काम करते हैं. पर तीनों टाइम सब की पसंद के हिसाब से खाना क्या बनेगा यह केवल श्रेया की चिंता और रिस्पोन्सिबिलिटी या कहें सिरदर्दी है. हसबैंड वाइफ दोनों को औफिस जाना होता है पर श्रेया ही सुबह घर में सब से पहले जागती है, सब का ब्रेकफास्ट, लंच बनाती, पैक करती है. श्रेया कितनी बार रोते हुए कहती है कि जो रसोई पहले मेरे लिए एक ऐसी जगह थी जहां कभीकभी अपने मन की कुकिंग करना मुझे स्ट्रेस फ्री करता था आज वही रसोई मेरे लिए उम कैद बन गई है, पता नहीं कब इस खाना बनाने से आजादी मिलेगी.”

सच ही तो है घर के भीतर के काम में पुरुष हिस्सेदार क्यों नहीं तब जब कि बाहर की जिम्मेदारी भी महिलाएं ले रही हैं ? जब महिला पुरुष दोनों औफिस में साथ में काम कर रहे हैं तो दोनों रसोई में एक साथ क्यों नहीं हो सकते ?

आज भी ‘घर में मम्मी की जगह किचन ही है. आप के आसपास नजर दौड़ा कर देखिए कितने घर हैं जहां आप को पापा किचन में मिलेंगे भले ही दोनों वर्किंग हों. कितनी दुखद बात है. है न. पता नहीँ समाज में क्यों और कैसे अलगअलग जगहों को भी जेंडर से निर्धारित कर लिया है.

खाना बनाना जेंडर आधारित काम नहीं है

आज भी भारतीय समाज में महिलाओं की मुख्य भूमिका घरों में तीन टाइम का सब की पसंद का मील तैयार करना है जिस से वे उकता जाती हैं और उन के मुंह से यही निकलता है ‘पता नहीं कब खाना बनने से आजादी मिलेगी!”

जो पुरुष बड़ेबड़े रेस्टोरेंट में खाना बनाते हैं वे पुरुष घर में तीनों समय का खाना क्यों नहीं बनाते जब महिलाएं कहती हैं कि उन्हें शेफ बनना है तो कहा जाता है तुम रसोई संभाल लो वही बहुत है. यही वजह है कि रेस्टोरेंट में शेफ के रूप में महिलाएं कम या न के बराबर दिखती हैं.

रसोई महिलाओं के लिए जेल

अगर किचन और महिलाओं के गठबंधन की बात हो रही है तो जनवरी 2021 में रिलीज़ हुई झकझोर देने वाली मलयालम फ़िल्म- ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ का जिक्र न हो यह कैसे हो सकता है क्योंकि यह फिल्म दिखाती है कि कैसे घर की इतनी मुख्य जगह भी महिलाओं के लिए जेल बन सकती है.

इस फिल्म के तो टाइटल में भी व्यंग्य है ‘ द ग्रेट इंडियन किचन’

यह फिल्म एक ऐसी साधारण भारतीय स्त्री की है जो आप को अपने आसपास दिखाई दे जाएगी. यानी इस फिल्म की नायिका जैसी अनेक महिलाएं हिंदुस्तान के हर घर की किचन में मौजूद हैं.

फिल्म की मुख्य पात्र अपने पति और ससुर के लिए सुबह से शाम स्वादिष्ट खाना बनाती हैं. घर का हर काम वह अकेले ही करती है. जब वह पति, ससुर और मेहमानों को खाना परोसती है तो वे तुरंत जान जाते हैं कि रोटियां गैस चूल्हे पर सेंकी हुई हैं, चटनी मिक्सर में बनाई है, चावल कुकर में पकाए हैं तो वे उसे कहते हैं कि कोई बात नहीं, कल से रोटी लकड़ी के चूल्हे पर बनाना, चावल पतीले में और चटनी हाथ की पिसी हुई ही स्वादिष्ट होती है.

ताज्जुब की बात कहें या दोगलापन कि जहां फिल्म की नायिका के ससुर खुद तो मोबाईल टीवी तमाम इलैक्ट्रानिक उपकरणों का मज़े से उपयोग करते हैं पर उन्हें खाने में चूल्हे पर चावल ही चाहिए और चटनी मिक्सी में पीसी हुई नहीं होनी चाहिए. कपड़े वाशिंग मशीन में नहीं हाथ से धुलने चाहिए.

फिल्म के अंत में जब उस से ये सब और सहन नहीं होता तो वह अपने पति का घर छोड़ कर चली जाती है, कभी वापस न आने के लिए.

द ग्रेट इंडियन किचन फिल्म हर उस महिला की कहानी है चाहे वह हाउस वाइफ हो या वर्किंग वूमेन संदेश देती है कि अपने अस्तित्व को पहचानो, अपने आत्मसम्मान को पहचानो.

यह फिल्म दुनिया की हर महिला को यह संदेश देने में सफल होती है कि यदि आप स्वयं की सहायता नहीं करते अथवा स्वयं के लिए खड़े नहीं होते तो दूसरा कोई भी आप की सहायता नहीं कर सकता. हर किसी को स्व अस्तित्व की लड़ाई स्वयं ही लड़नी पड़ती है.

महिलाओं की ज़िंदगी गुजर जाती है रसोई में

एक शोध में सामने आया है कि भारत में जहां महिलाएं प्रतिदिन घरेलू कार्यों पर 312 मिनट खर्च करती हैं वहीं पुरुष महज 29 मिनट खर्च करता है. जहां महिलाओं की जिंदगी के तकरीबन 10 साल रसोई में गुजर जाते हैं वहीं पुरुष सोने में 22 बरस गुजार देते हैं. लैंगिक भेदभाव सिर्फ भारतीय औरतों की मुसीबत नहीं.

दुनिया भर की आधी आबादी की कम या ज्यादा यही तस्वीर है. आंकड़ों की बात करें तो दुनिया भर में अपने सर्वेक्षण की विश्वसनीयता के लिए पहचान रखने वाली वाशिंगटन के गैलप कंपनी की रिपोर्ट के मुताबिक अभी अमेरिकी महिलाएं पुरुषों से रोजाना एक घंटे अधिक घरेलू कामों पर खर्च करती हैं यानी आज भी महिलाओं के हिस्से काम अधिक हैं.

महिलाओं को अपनी सारी जिंदगी रसोई में ही स्वाहा करने की जरूरत नहीं

अमेरिकी दार्शनिक जुडिथ बटलर के अनुसार हमारा समाज लोगों को जन्म से ही ‘सैक्स’ के आधार पर एक ढांचे में ढाल देता है जैसे लड़का है तो गन से खेलेगा, लड़की किचनकिचन खेलेगी और समाज में फिट होने के लिए हम इन रोल को निभाते चले जाते हैं जिस से हम औरों से अलग न दिखें. यानी कि जेंडर के हिसाब से काम करना समाज के द्वारा निर्मित एक ढांचा है, बायोलौजिकली इस का कोई लेनादेना नहीं है.

सदियों से ‘मां के हाथ का खाना’, ‘नानी के हाथ के लड्डू’ इत्यादि को ग्लोरिफाई कर रखा है. पिता के हाथ की रोटी और दादा के हाथ के लड्डू में भी स्वाद हो सकता है. वक़्त है अब इन रवायत को बदलने का. सदियों से माना जाता रहा है कि महिलाओं का खाने से ज़्यादा गहरा संबंध है लेकिन पेट के रास्ते पुरुषों के दिल तक पहुंचने के लिए क्यों एक महिला ही अपनी सारी जिंदगी रसोई में ही स्वाहा कर दे.

एक महिला होने के नाते मैं तो यही कहूंगी कि ये आप की इच्छा है कि आप को हाउस वाइफ बनना है या वर्किंग वूमेन बनना है पर कुछ भी बनने से पहले यह ज़रूरी है कि आप अपने अस्तित्व को पहचानें और उस अस्तित्व को आत्मसम्मान दिलाएं क्योंकि अगर महिलाएं खुद को पुनर्परिभाषित नहीं करेंगी तो वे अपने साथसाथ उन महिलाओं के अस्तित्व को भी ले डूबेगी जो रसोई की जिम्मेदारियों से आजादी चाहती हैं.

मर्द खाना क्यों नहीं बना सकते

पहली बात तो मर्द घर की रसोई में खाना बनाते नहीं और कभीकभी शौकिया बना भी लिया तो उन के पास एक ‘चॉइस’ होती है कि जब मन किया बना लिया, नहीं तो मां/बीवी/बेटी तो है ही तीनों टाइम का खाना बनाने के लिए. यह ‘चौइस’ महिलाओं के पास क्यों नहीं है?

दरअसल, महिलाओं को रसोई के काम की चौइस होना ही रसोई से आजादी है. भारतीय परंपरा में महिलाओं के लिए रसोई का काम एक अनिवार्य और आजीवन चलने वाला सतत काम है. यहां तक वर्किंग महिलाएं भी जो घर से बाहर काम करने जाती हैं वे भी रसोई का काम कर के जाती हैं और फिर शाम को जब काम से लौटती हैं तो फिर रसोई का काम संभालती हैं.

किचन कर रहा है महिलाओं को बीमार

हाल ही में हुई एक बड़ी रिसर्च में यह खुलासा हुआ है कि किचन में लंबे समय तक खड़े हो कर काम करने वाली महिलाओं की सेहत पर विपरीत असर पड़ता है. रसोई में लगातार काम करने वाली महिलाओं में थकान, कमजोर पाचन क्रिया और खराब इम्यून सिस्टम की समस्याएं पाई गई.

क्या है सोल्यूशन ?

महिलाओं को किचन के कामों से राहत की सांस मिले इस के लिए जरूरी है कि महिलाएं खुद भी ताजे और बासी के फितूर से बाहर निकलें और घर वालों को निकालें. फ्रेश जैसा कुछ नहीं होता या आप के मन का वहम है. फ्रेश का मतलब है खेती करना, ताजा अनाज लाना, काटनापीसना क्या यह पोसिबल है ?

नहीं न? कोई पूछे कि आप रेस्टोरेंट में जो खाना खाते हैं वह क्या आप के लिए ताज़ा काट पीस कर आता है ?नहीं न. तो फिर घर में तीनों टाइम फ्रेश दाल सब्जी क्यों बनाना, क्यों मसाले पीसना क्यों आटा क्यों मलना ?

महिलाएं रसोई को अपनी हौबी समझें, खाना बनाने को एन्जोय करें. वहां घंटों पसीना न बनाएं. किचन को लोंग लाइफ ड्यूटी नहीं समझें. ईजी, वन रेसीपीज़ बनाएं, खाना बनाने के लिए बाजार में मिलने वाले इंसटेंट पेस्ट, मसाले यूज करें इस से महिलाओं का रसोई में जाया होने वाला समय बचेगा. जब रोटी बनाने का मन न हो तो ब्रेड, पाव का यूज करें.

कुछ महिलाएं खुद रसोई को पहले अपनी कर्म भूमि बना लेती हैं सब को गरम फ्रेश खाना खिलाने की आदत डालती हैं और जब किसी कारण से ऐसा नहीं कर पातीं तो मन में गिल्ट पालती हैं ऐसी महिलाओं का कुछ नहीं हो सकता.

दोस्तियाप्पा : दादी की कौनसी बात से दादा जी चिढ़ जाते थे

दादी अकसर दादाजी से कहा करती थीं कि जिंदगी में एक यार तो होना ही चाहिए. सुनते ही दादाजी बिदक जाया करते थे. “किसलिए?” वे चिढ़ कर पूछते. “अपने सुखदुख साझा करने के लिए,” दादी का जवाब होता, जिसे सुन कर दादाजी और भी अधिक भड़क जाते.“क्यों? घरपरिवार, मातापिता, भाईबहन, पतिसहेलियां काफी नहीं हैं जो यार की कमी खल रही है. भले घरों की औरतें इस तरह की बातें करती कभी देखी नहीं. हुंह, यार होना चाहिए,” दादाजी देर तक बड़बड़ाते रहते. यह अलग बात थी कि दादी को उस बड़बड़ाहट से कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. वे मंदमंद मुसकराती रहती थीं.मैं अकसर सोचा करती थी कि हमेशा सखीसहेलियों और देवरानीजेठानी से घिरी रहने वाली दादी का ऐसा कौनसा सुखदुख होता होगा जिसे साझा करने के लिए उन्हें किसी यार की जरूरत महसूस होती है.

“दादी, आप की तो इतनी सारी सहेलियां हैं, यार क्या इन से अलग होता है?” एक दिन मैं ने दादी से पूछा तो दादी अपनी आदत के अनुसार हंस दीं. फिर मुझे एक कहानी सुनाने लगीं.

“मान ले, तुझे कुछ पैसों की जरूरत है. तू ने अपने बहुत से दोस्तों से मदद मांगी. कुछ ने सुनते ही बहाना बना कर तुझे टाल दिया. ऐसे लोगों को जानपहचान वाला कहते हैं. कुछ ने बहुत सोचा और हिसाब लगा कर देखा कि कहीं उधार की रकम डूब तो नहीं जाएगी. आश्वस्त होने के बाद तुझे समयसीमा में बांध कर मांगी गई रकम का कुछ हिस्सा दे कर तेरी मदद के लिए जो तैयार हो जाते हैं उन्हें मित्र कहते हैं. और जो दोस्त बिना एक भी सवाल किए चुपचाप तेरे हाथ में रकम धर दे, उसे ही यार कहते हैं. कुछ समझीं?” दादी ने कहा.

“जी समझी यही कि जो दोस्त आप से सवालजवाब न करे, आप को व्यर्थ सलाहमशवरा न दे और हर समय आप के साथ खड़ा रहे वही आप का यार है. है न?” मैं ने अपनी समझ से कहा.

“बिलकुल सही. लेकिन तेरे दादाजी को ये तीनों एक ही लगते हैं,” कहते हुए दादी की आंखों में उदासी उतर आई. यार न होने की टीस उन्हें सालने लगी.

“मैं बचपन से ही अपने दादादादी के साथ रहती हूं, क्योंकि मेरे मम्मीपापा दोनों नौकरी करते हैं. चूंकि दादाजी भी सरकारी सेवा में थे, इसलिए दादी न तो उन्हें अकेला छोड़ सकती थीं और न ही वे चाहती थीं कि उन की पोती आया और नौकरों के हाथों में पले. इसलिए, सब ने मिल कर तय किया कि मैं अपनी दादी के पास ही रहूंगी. बस, इसीलिए मेरा और दादी का दोस्तियाप्पा बना हुआ है.

जब से हमारे सामने वाले घर में सीमा आंटी रहने के लिए आई हैं तब से हमारे घर में भी रौनक बढ़ गई है. सीमा आंटी हैं ही इतनी मस्तमौला. जिधर से निकलती हैं, हंसी के अनार फोड़ती जाती हैं. चूंकि हमारे घर आमनेसामने हैं, इसलिए इन अनारों की रोशनी सब से ज्यादा हमारे घर पर ही होती है.

सीमा आंटी शायद कहीं नौकरी करती हैं. आंटी को गपें मारने का बहुत शौक है. औफिस से आने के बाद वे शाम ढलने तक दादीदादाजी के साथ गपें मारती रहती हैं. दादी कहीं इधरउधर गईं भी हों तो भी उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता. चायकौफी के दौर में डूबी वे दादाजी के साथ ही देर तक गपियाती रहती हैं.

मैं ने कई बार नोटिस किया है कि जब दादाजी अकेले होते हैं तब सीमा आंटी के ठहाकों में गूंज अधिक होती है. उस समय दादाजी के चहरे पर भी ललाई बढ़ जाती है. पिछले कुछ दिनों से तो तीनों का बाहर आनाजाना भी साथ ही होने लगा है.

जब से सीमा आंटी हमारी जिंदगी का हिस्सा बनी हैं तब से दादाजी दादी के प्रति जरा नरम हो गए हैं. आजकल वे दादी के इस तर्क पर बहस नहीं करते कि जिंदगी में यार होना चाहिए कि नहीं. लेकिन हां, खुल कर इस की वकालत तो वे अब भी नहीं करते.

“आप को नहीं लगता कि सीमा आंटी दादाजी में ज्यादा ही इंटरैस्ट लेने लगी हैं,” एक दिन मैं ने दादी को छेड़ा. दादी हंस दीं और बोलीं, “शायद इसी से उन्हें जिंदगी में यार की अहमियत समझ में आ जाए.”

दादी की सहजता मुझे आश्चर्य में डाल रही थी. “आप को जलन नहीं होती?” मैं ने पूछा.

“किस बात की जलन?” अब आश्चर्यचकित होने की बारी दादी की थी.

“अरे, आप उन की पत्नी हो. आप के पति के साथ कोई और समय बिता रहा है. आप को इसी बात की जलन होनी चाहिए और क्या?” मैं ने अपनी बात साफ की.

“तो क्या हुआ, यार कहां पति या पत्नी के अधिकारों का अतिक्रमण करता है?” दादी ने उसी सहजता से कहा. मैं उन की सरलता पर हंस दी.

आज दादी हमारे बीच नहीं हैं. अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे हम सब को हतप्रभ सा छोड़ कर अनंत यात्रा पर चल दीं. 15 दिनों बाद मम्मीपापा सामाजिक औपचारिकताएं निभा कर वापस चले गए. वे तो मुझे और दादाजी को भी अपने साथ ले जाने की जिद कर रहे थे लेकिन दादाजी किसी सूरत में इस घर को छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हुए. मैं उन की देखभाल करने के लिए उन के पास रुक गई. वैसे भी, मेरी स्नातक की पढ़ाई अभी चल ही रही थी.

एक दोपहर दादी की अलमारी सहेजते समय मुझे उन के पुराने पर्स के अंदर एक छोटी सी चाबी मिली. सभी ताले टटोल लिए, लेकिन उस चाबी का कोई ताला मुझे नहीं मिला. बात आईगई हो गई. फिर एक दिन जब मैं ने दादी का पुराना बक्सा खोल कर देखा तो उस में एक छोटी सी कलात्मक मंजूषा मुझे दिखाई दी. उस पर लगा छोटा सा ताला मुझे उस छोटी चाबी की याद दिला गया. लगा कर देखा तो ताला खुल गया.

मंजूषा के भीतर मुझे एक पुरानी पीले पड़ते पन्नों वाली छोटी सी डायरी मिली. ताले का रहस्य जानने के लिए मैं दादाजी को बिना बताए उसे छिपा कर अपने साथ ले आई. रात को दादाजी के सोने के बाद मैं ने वह डायरी निकाल कर पढ़ना शुरू किया.

पन्नादरपन्ना दादी खुलती जा रही थीं. डायरी में जगहजगह किसी धरम का जिक्र था. डायरी में लिखी बातों के अनुसार मैं ने सहज अनुमान लगाया कि धरम दादी की प्रेम कहानी का नायक नहीं था, वह उन का यार था. जब भी वे परेशान होतीं तो सिर्फ धरम से बात करती थीं.

मुझे याद आया कि दादी अकसर छत पर जा कर फोन पर किसी से बात किया करती थीं. दादाजी के आते ही तुरंत नीचे दौड़ आती थीं. जब वे वापस नीचे आती थीं तो एकदम हवा सी हलकी होती थी. मैं अंदाजा लगा रही हूं कि शायद वे धरम से ही बात करती होंगी.

दादी की डायरी क्या थी, दुखों का दस्तावेज़ थी. हरदम मुसकराती दादी अपनी हंसी के पीछे कितने दर्द छिपाए थीं, यह मुझे आज पता चल रहा है. पता नहीं क्यों दादाजी एक खलनायक की छवि में ढलते जा रहे हैं.

दादी और दादाजी का विवाह उन के समय के चलन के अनुसार घर के बड़ों का तय किया हुआ रिश्ता था. धरम उन दोनों के उन के बचपन का यार था. हालांकि, दुनियाजहान की बातेंशिकायतें दादी दादाजी से ही करती थीं लेकिन दादाजी का जिक्र या उन के प्रति उपजी नाराजगी को जताने के लिए भी तो कोई अंतरंग साथी होना चाहिए न. भावनाओं के मटके जहां छलकते थे, वह पनघट था धरम. यह बात दादाजी भी जानते थे लेकिन वे कभी भी स्त्रीपुरुष के याराने के समर्थक नहीं थे.

धीरेधीरे प्यार को अधिकार ढकने लगा और धरम दादाजी की आंखों में रेत सा अड़ने लगा. दादाजी को धरम के साथ दादी की निकटता डराने लगी. खोने का डर उन्हें अपराध करने के लिए उकसाने लगा. उन्होंने अपने प्यार का वास्ता दे कर दादी को उन के यार से दूर करने की साजिश की. दादाजी की खुशी और परिवार की सुखशांति बनाए रखने के लिए दादी ने धरम से दूरियां बना ली. वे अब दादाजी के सामने धरम का जिक्र नहीं करती थीं. दादाजी को लगा कि वे अपने षड्यंत्र में कामयाब हो गए, लेकिन वे दादी को धरम से दूर कहां कर पाए.

डायरी इस बात की गवाह है कि दादी अपने आखिरी समय तक धरम से जुड़ी हुई थीं. और मैं इस बात की गवाही पूरे होशोहवास में दे सकती हूं कि दादी की जिंदगी धरम को कलंकरहित यार का दर्जा दिलवाने की आस में ही पूरी हो गई.

आखिरी पन्ना पढ़ कर डायरी बंद करने लगी तो पाया कि मेरा चेहरा आंसुओं से तर था. दादी ने अपनी अंतिम पंक्तियों में लिखा था- “हमारे समाज में सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, बल्कि कुछ शब्द भी लैंगिक भेदभाव का दंश झेलते हैं. स्त्री और पुरुष के संदर्भ में उन की परिभाषा अगल होती है. उन्हीं अभागे शब्दों में से एक शब्द है ‘यार’. उस का सामान्य अर्थ बहुत जिगरी होने से लगाया जाता है लेकिन जब यही शब्द कोई महिला किसी पुरुष के लिए इस्तेमाल करे तो उस के चरित्र की चादर पर काले धब्बे टांक दिए जाते हैं.”

पता नहीं दादी द्वारा लिखा गया यही पन्ना आखिरी था या इस के बाद दादी का कभी डायरी लिखने का मन ही नहीं हुआ, क्योंकि दादी ने किसी भी पन्ने पर कोई तारीख अंकित नहीं की थी. लेकिन इतना तो तय था कि दादी के याराने को न्याय नहीं मिला. काश, कोई जिंदगी में यार की अहमियत समझ सकता. काश, समाज याराने को स्त्रीपुरुष की सीमाओं से बाहर स्वीकार कर पाता.

दादी के न रहने पर दादाजी एकदम चुप सा हो गए थे. कितने ही दिन तो घर से बाहर ही नहीं निकले. सीमा आंटी के आने पर जरूर उन का अबोला टूटता था. सीमा आंटी भी उन्हें अकेलेपन के खोल से बाहर लाने की पूरी कोशिश कर रही थीं. कोशिश थी, आखिर तो कामयाब होनी ही थी. दादाजी फिर से हंसनेबोलने लगे. रोज शाम सीमा आंटी का इंतज़ार करने लगे. जब भी कभी परेशान या दादी की याद में उदास होते, सब से पहला फोन सीमा आंटी को ही जाता.

आंटी भी अपने सारे जरूरी काम छोड़ कर उन का फोन अटेंड करतीं. मैं कई बार देखती कि जब दादाजी बोल रहे होते तब आंटी चुपचाप उन्हें सुनतीं.  न वे अपनी तरफ से कोई सलाह देतीं और न ही कभी किसी काम में दादाजी की गलती निकाल कर उन्हें कठघरे में खड़ा करतीं. क्या वे दादाजी की यार थीं?

सीमा आंटी दादाजी के लिए उस दीवार जैसी हो गई थीं जिस के सहारे इंसान अपनी पीठ टिका कर बैठ जाता है और मौन आंसू बहा कर अपना दिल भी हलका कर लेता है, यह जानते हुए भी कि यह दीवार उस की किसी भी मुश्किल का हल नहीं है. लेकिन हाँ, दुखी होने पर रोने के लिए हर समय हाजिर जरूर है.

दादी को गए साल होने को आया. 2 दिनों बाद उन की बरसी है. दादाजी पूरी श्रद्धा के साथ आयोजन में जुटे हैं. सीमा आंटी उन की हरसंभव सहायता कर रही हैं. मेरे मम्मीपापा भी आ चुके हैं. घर में एक उदासी सी तारी है. लग रहा है जैसे दादाजी के भीतर कोई मंथन चल रहा है.

“मिन्नी, आज शाम मेरा एक दोस्त धरम आने वाला है,” दादाजी ने कहा. सुनते ही मैं चौंक गई.  ‘धरम यानी दादी का यार… तो क्या दादाजी सब जान गए? क्या दादी की डायरी उन के हाथ लग गई?’ मैं ने लपक कर अपनी अलमारी संभाली. दादी की डायरी तो जस की तस रखी थी. धरम अंकल के आने का कारण मेरी समझ में नहीं आ रहा था. मैं ने टोह लेने के लिए दादाजी को टटोला.

“धरम अंकल कौन हैं, पहले तो कभी नहीं आए हमारे घर?” मैं ने पूछा.

“धरम तेरी दादी का जिगरी था. वह बेचारी इस रिश्ते को मान्यता दिलाने के लिए जिंदगीभर संघर्ष करती रही. लेकिन मैं ने कभी स्वीकार नहीं किया. आज जब अपने मन के पेंच खोलने के लिए किसी चाबी की जरूरत महसूस करता हूं तो उस का दर्द समझ में आता है,” दादाजी की आंखों में आंसू थे.

दादी की बरसी पर धरम अंकल आए. पता नहीं दादाजी ने उन से क्या कहा कि दोनों देर तक एकदूसरे से लिपटे रोते रहे. सीमा आंटी भी उन के पास ही खड़ी थीं. थोड़ा सहज हुए दादाजी ने सीमा आंटी की तरफ इशारा करते हुए धरम अंकल से उन का परिचय करवाया- “ये सीमा है. हमारी पड़ोसिन… मेरी यार.” और तीनों मुसकरा उठे.

मैं भी खुश थी. आज दादी के याराने को मान्यता मिल गई थी.

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