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Hindi Kahani : सास को हुआ बहू के दर्द का एहसास

Hindi Kahani :  ‘‘अरे,पता नहीं कौन सी घड़ी थी जब मैं इस मनहूस को अपने बेटे की दुलहन बना कर लाई थी. मुझे क्या पता था कि यह कमबख्त बंजर जमीन है. अरे, एक से बढ़ कर एक लड़की का रिश्ता आ रहा था. भला बताओ, 5 साल हो गए इंतजार करते हुए, बच्चा न पैदा कर सकी… बांझ कहीं की…’’ मेरी सास लगातार बड़बड़ाए जा रही थीं. उन के जहरीले शब्द पिघले शीशे की तरह मेरे कानों में पड़ रहे थे.

यह कोई पहला मौका नहीं था. उन्होंने तो शादी के दूसरे साल से ही ऐसे तानों से मेरी नाक में दम कर दिया था. सावन उन के इकलौते बेटे और मेरे पति थे. मेरे ससुर बहुत पहले गुजर गए थे. घर में पति और सास के अलावा कोई न था. मेरी सास को पोते की बहुत ख्वाहिश थी. वे चाहती थीं कि जैसे भी हो मैं उन्हें एक पोता दे दूं.

मैं 2 बार लेडी डाक्टर से अपना चैकअप करवा चुकी थी. मैं हर तरह से सेहतमंद थी. समझाबुझा कर मैं सावन को भी डाक्टर के पास ले गई थी. उन की रिपोर्ट भी बिलकुल ठीक थी.

डाक्टर ने हम दोनों को समझाया भी था, ‘‘आजकल ऐसे केस आम हैं. आप लोग बिलकुल न घबराएं. कुदरत जल्द ही आप पर मेहरबान होगी.’’

डाक्टर की ये बातें हम दोनों तो समझ चुके थे, लेकिन मेरी सास को कौन समझाता. आए दिन उन की गाज मुझ पर ही गिरती थी. उन की नजरों में मैं ही मुजरिम थी और अब तो वे यह खुलेआम कहने लगी थीं कि वे जल्द ही सावन से मेरा तलाक करवा कर उस के लिए दूसरी बीवी लाएंगी, ताकि उन के खानदान का वंश बढ़े.

उन की इन बातों से मेरा कलेजा छलनी हो जाता. ऐसे में सावन मुझे तसल्ली देते, ‘‘क्यों बेकार में परेशान होती हो? मां की तो बड़बड़ाने की आदत है.’’

‘‘आप को क्या पता, आप तो सारा दिन अपने काम पर होते हैं. वे कैसेकैसे ताने देती हैं… अब तो उन्होंने सब से यह कहना शुरू कर दिया है कि वे हमारा तलाक करवा कर आप के लिए दूसरी बीवी लाएंगी.’’

‘‘तुम चिंता न करो. मैं न तो तुम्हें तलाक दूंगा और न ही दूसरी शादी करूंगा, क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम में कोई कमी नहीं है. बस कुदरत हम पर मेहरबान नहीं है.’’

एक दिन हमारे गांव में एक बाबा आया. उस के बारे में मशहूर था कि वह बेऔलाद औरतों को एक भभूत देता, जिसे दूध में मिला कर पीने पर उन्हें औलाद हो जाती है.

मुझे ऐसी बातों पर बिलकुल यकीन नहीं था, लेकिन मेरी सास ऐसी बातों पर आंखकान बंद कर के यकीन करती थीं. उन की जिद पर मुझे उन के साथ उस बाबा (जो मेरी निगाह में ढोंगी था) के आश्रम जाना पड़ा.

बाबा 30-35 साल का हट्टाकट्टा आदमी था. मेरी सास ने उस के पांव छुए और मुझे भी उस के पांव छूने को कहा. उस ने मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया. आशीर्वाद के बहाने उस ने मेरे सिर पर जिस तरह से हाथ फेरा, मुझे समझते देर न लगी कि ढोंगी होने के साथसाथ वह हवस का पुजारी भी है.

उस ने मेरी सास से आने का कारण पूछा. सास ने अपनी समस्या का जिक्र कुछ इस अंदाज में किया कि ढोंगी बाबा मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूरने लगा. उस ने मेरी आंखें देखीं, फिर किसी नतीजे पर पहुंचते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी बहू पर एक चुड़ैल का साया है, जिस की वजह से इसे औलाद नहीं हो रही है. अगर वह चुड़ैल इस का पीछा छोड़ दे, तो कुछ ही दिनों में यह गर्भधारण कर लेगी. लेकिन इस के लिए आप को काली मां को खुश करना पड़ेगा.’’

‘‘काली मां कैसे खुश होंगी?’’ मेरी सास ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तुम्हें काली मां की एक पूजा करनी होगी. इस पूजा के बाद हम तुम्हारी बहू को एक भभूत देंगे. इसे भभूत अमावास्या की रात में 12 बजे के बाद हमारे आश्रम में अकेले आ कर, अपने साथ लाए दूध में मिला कर हमारे सामने पीनी होगी, उस के बाद इस पर से चुड़ैल का साया हमेशाहमेशा के लिए दूर हो जाएगा.’’

‘‘बाबाजी, इस पूजा में कितना खर्चा आएगा?’’

‘‘ज्यादा नहीं 7-8 हजार रुपए.’’

मेरी सास ने मेरी तरफ ऐसे देखा मानो पूछ रही हों कि मैं इतनी रकम का इंतजाम कर सकती हूं? मैं ने नजरें फेर लीं और ढोंगी बाबा से पूछा, ‘‘बाबा, इस बात की क्या गारंटी है कि आप की भभूत से मुझे औलाद हो ही जाएगी?’’

ढोंगी बाबा के चेहरे पर फौरन नाखुशी के भाव आए. वह नाराजगी से बोला, ‘‘बच्ची, हम कोई दुकानदार नहीं हैं, जो अपने माल की गारंटी देता है. हम बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं. तुम्हें अगर औलाद चाहिए, तो जैसा हम कह रहे हैं, वैसा करो वरना तुम यहां से जा सकती हो.’’

ढोंगी बाबा के रौद्र रूप धारण करने पर मेरी सास सहम गईं. फिर मुझे खा जाने वाली निगाहों से देखते हुए चापलूसी के लहजे में बाबा से बोलीं, ‘‘बाबाजी, यह नादान है. इसे आप की महिमा के बारे में कुछ पता नहीं है. आप यह बताइए कि पूजा कब करनी होगी?’’

‘‘जिस रोज अमावास्या होगी, उस रोज शाम के 7 बजे हम काली मां की पूजा करेंगे. लेकिन तुम्हें एक बात का वादा करना होगा.’’

‘‘वह क्या बाबाजी?’’

‘‘तुम्हें इस बात की खबर किसी को भी नहीं होने देनी है. यहां तक कि अपने बेटे को भी. अगर किसी को भी इस बात की भनक लग गई तो समझो…’’ उस ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

मेरी सास ने ढोंगी बाबा को फौरन यकीन दिलाया कि वे किसी को इस बात का पता नहीं चलने देंगी. उस के बाद हम घर आ गईं.

3 दिन बाद अमावास्या थी. मेरी सास ने किसी तरह पैसों का इंतजाम किया और फिर पूजा के इंतजाम में लग गईं. इस पूजा में मुझे शामिल नहीं किया गया. मुझे बस रात को उस ढोंगी बाबा के पास एक लोटे में दूध ले कर जाना था.

मैं ढोंगी बाबा की मंसा अच्छी तरह जान चुकी थी, इसलिए आधी रात होने पर मैं ने अपने कपड़ों में एक चाकू छिपाया और ढोंगी के आश्रम में पहुंच गई.

ढोंगी बाबा मुझे नशे में झूमता दिखाई दिया. उस के मुंह से शराब की बू आ रही थी. तभी उस ने मुझे वहीं बनी एक कुटिया में जाने को कहा.

मैं ने कुटिया में जाने से फौरन मना कर दिया. इस पर उस की भवें तन गईं. वह धमकी देने वाले अंदाज में बोला, ‘‘तुझे औलाद चाहिए या नहीं?’’

‘‘अपनी इज्जत का सौदा कर के मिलने वाली औलाद से मैं बेऔलाद रहना ज्यादा पसंद करूंगी,’’ मैं दृढ़ स्वर में बोली.

‘‘तू तो बहुत पहुंची हुई है. लेकिन मैं भी किसी से कम नहीं हूं. घी जब सीधी उंगली से नहीं निकलता तब मैं उंगली टेढ़ी करना भी जानता हूं,’’ कहते ही वह मुझ पर झपट पड़ा. मैं जानती थी कि वह ऐसी नीच हरकत करेगा. अत: तुरंत चाकू निकाला और उस की गरदन पर लगा कर दहाड़ी, ‘‘मैं तुम जैसे ढोंगी बाबाओं की सचाई अच्छी तरह जानती हूं. तुम भोलीभाली जनता को अपनी चिकनीचुपड़ी बातों से न केवल लूटते हो, बल्कि औरतों की इज्जत से भी खेलते हो. मैं यहां अपनी सास के कहने पर आई थी. मुझे कोई भभूत भुभूत नहीं चाहिए. मुझ पर किसी चुड़ैल का साया नहीं है. मैं ने तेरी भभूत दूध में मिला कर पी ली थी, तुझे यही बात मेरी सास से कहनी है बस. अगर तू ने ऐसा नहीं किया तो मैं तेरी जान ले लूंगी.’’

उस ने घबरा कर हां में सिर हिला दिया. तब मैं लोटे का दूध वहीं फेंक कर घर आ गई.

कुछ महीनों बाद जब मुझे उलटियां होनी शुरू हुईं, तो मेरी सास की खुशी का ठिकाना न रहा, क्योंकि वे उलटियां आने का कारण जानती थीं.

यह खबर जब मैं ने सावन को सुनाई तो वे भी बहुत खुश हुए. उस रात सावन को खुश देख कर मुझे अनोखी संतुष्टि हुई. मगर सास की अक्ल पर तरस आया, जो यह मान बैठी थीं कि मैं गर्भवती ढोंगी बाबा की भभूत की वजह से हुई हूं.

अब मेरी सास मुझे अपने साथ सुलाने लगीं. रात को जब भी मेरा पांव टेढ़ा हो जाता तो वे उसे फौरन सीधा करते हुए कहतीं कि मेरे पांव टेढ़ा करने पर जो औलाद होगी उस के अंग विकृत होंगे.

मुझे अपनी सास की अक्ल पर तरस आता, लेकिन मैं यह सोच कर चुप रहती कि उन्हें अंधविश्वास की बेडि़यों ने जकड़ा हुआ है.

एक दिन उन्होंने मुझे एक नारियल ला कर दिया और कहा कि अगर मैं इसे भगवान गणेश के सामने एक झटके से तोड़ दूंगी तो मेरे होने वाले बच्चे के गालों में गड्ढे पड़ेंगे, जिस से वह सुंदर दिखा करेगा. मैं जानती थी कि ये सब बेकार की बातें हैं, फिर भी मैं ने उन की बात मानी और नारियल एक झटके से तोड़ दिया, लेकिन इसी के साथ मेरा हाथ भी जख्मी हो गया और खून बहने लगा. लेकिन मेरी सास ने इस की जरा भी परवाह नहीं की और गणेश की पूजा में लीन हो गईं.

शाम को काम से लौटने के बाद जब सावन ने मेरे हाथ पर बंधी पट्टी देखी तो इस का कारण पूछा. तब मैं ने सारी बात बता दी.

तब वे बोले, ‘‘राधिका, तुम तो मेरी मां को अच्छी तरह से जानती हो.

वे जो ठान लेती हैं, उसे पूरा कर के ही दम लेती हैं. मैं जानता हूं कि आजकल उन की आंखों पर अंधविश्वास की पट्टी बंधी हुई है, जिस की वजह से वे ऐसे काम भी रही हैं, जो उन्हें नहीं करने चाहिए. तुम मन मार कर उन की सारी बातें मानती रहो वरना कल को कुछ ऊंचनीच हो गई तो वे तुम्हारा जीना हराम कर देंगी.’’

सावन अपनी जगह सही थे, जैसेजैसे मेरा पेट बढ़ता गया वैसेवैसे मेरी सास के अंधविश्वासों में भी इजाफा होता गया. वे कभी कहतीं कि चौराहे पर मुझे पांव नहीं रखना है.  इसीलिए किसी चौराहे पर मेरा पांव न पड़े, इस के लिए मुझे लंबा रास्ता तय करना पड़ता था. इस से मैं काफी थकावट महसूस करती थी. लेकिन अंधविश्वास की बेडि़यों में जकड़ी मेरी सास को मेरी थकावट से कोई लेनादेना न था.

8वां महीना लगने पर तो मेरी सास ने मेरा घर से निकलना ही बंद कर दिया और सख्त हिदायत दी कि मुझे न तो अपने मायके जाना है और न ही जलती होली देखनी है. उन्हीं दिनों मेरे पिताजी की तबीयत अचानक खराब हो गई. वे बेहोशी की हालत में मुझ से मिलने की गुहार लगाए जा रहे थे. लेकिन अंधविश्वास में जकड़ी मेरी सास ने मुझे मायके नहीं जाने दिया. इस से पिता के मन में हमेशा के लिए यह बात बैठ गई कि उन की बेटी उन के बीमार होने पर देखने नहीं आई.

उन्हीं दिनों होली का त्योहार था. हर साल मैं होलिका दहन करती थी, लेकिन मेरी सास ने मुझे होलिका जलाना तो दूर उसे देखने के लिए भी मना कर दिया.

मेरे बच्चा पैदा होने से कुछ दिन पहले मेरी सास मेरे लिए उसी ढोंगी बाबा की भभूत ले कर आईं और उसे मुझे दूध में मिला कर पीने के लिए कहा. मैं ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं ऐसा करूंगी तो मुझे बेटा पैदा होगा.

अपनी सास की अक्ल पर मुझे एक बार फिर तरस आया. मैं ने उन का विरोध करते हुए कहा, ‘‘मांजी, मैं ने आप की सारी बातें मानी हैं, लेकिन आप की यह बात नहीं मानूंगी.’’

‘‘क्यों?’’ सास की भवें तन गईं.

‘‘क्योंकि अगर भभूत किसी ऐसीवैसी चीज की बनी हुई होगी, तो उस का मेरे होने वाले बच्चे की सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है.’’

‘‘अरी, भूल गई तू कि इसी भभूत की वजह से तू गर्भवती हुई थी?’’

उन के लाख कहने पर भी मैं ने जब भभूत का सेवन करने से मना कर दिया तो न जाने क्या सोच कर वे चुप हो गईं.

कुछ दिनों बाद जब मेरी डिलीवरी होने वाली थी, तब मेरी सास मेरे पास आईं और बड़े प्यार से बोलीं, ‘‘बहू, देखना तुम लड़के को ही जन्म दोगी.’’

मैं ने वजह पूछी तो वे राज खोलती हुई बोलीं, ‘‘बहू, तुम ने तो बाबाजी की भभूत लेने से मना कर दिया था. लेकिन उन पहुंचे बाबाजी का कहा मैं भला कैसे टाल सकती थी, इसलिए मैं ने तुझे वह भभूत खाने में मिला कर देनी शुरू कर दी थी.’’

यह सुनते ही मेरी काटो तो खून नहीं जैसी हालत हो गई. मैं कुछ कह पाती उस से पहले ही मुझे अपनी आंखों के सामने अंधेरा छाता दिखाई देने लगा. फिर मुझे किसी चीज की सुध नहीं रही और मैं बेहोश हो गई.

होश में आने पर मुझे पता चला कि मैं ने एक मरे बच्चे को जन्म दिया था. ढोंगी बाबा ने मुझ से बदला लेने के लिए उस भभूत में संखिया जहर मिला दिया था. संखिया जहर के बारे में मैं ने सुना था कि यह जहर धीरेधीरे असर करता है. 1-2 बार बड़ों को देने पर यह कोई नुकसान नहीं पहुंचाता. लेकिन छोटे बच्चों पर यह तुरंत अपना असर दिखाता है. इसी वजह से मैं ने मरा बच्चा पैदा किया था.

तभी ढोंगी बाबा के बारे में मुझे पता चला कि वह अपना डेरा उठा कर कहीं भाग गया है.

मैं ने सावन को हकीकत से वाकिफ कराया तो उस ने अपनी मां को आड़े हाथों लिया.

तब मेरी सास पश्चात्ताप में भर कर हम दोनों से बोलीं, ‘‘बेटी, मैं तुम्हारी गुनहगार हूं. पोते की चाह में मैं ने खुद को अंधविश्वास की बेडि़यों के हवाले कर दिया था. इन बेडि़यों की वजह से मैं ने जानेअनजाने में जो गुनाह किया है, उस की सजा तुम मुझे दे सकती हो… मैं उफ तक नहीं करूंगी.’’

मैं अपनी सास को क्या सजा देती. मैं ने उन्हें अंधविश्वास को तिलांजलि देने को कहा तो वे फौरन मान गईं. इस के बाद उन्होंने अपने मन से अंधविश्वास की जहरीली बेल को कभी फूलनेफलने नहीं दिया.

1 साल बाद मैं ने फिर गर्भधारण किया और 2 स्वस्थ जुड़वा बच्चों को जन्म दिया. मेरी सास मारे खुशी के पागल हो गईं. उन्होंने सारे गांव में सब से कहा कि वे अंधविश्वास के चक्कर में न पड़ें, क्योंकि अंधविश्वास बिना मूठ की तलवार है, जो चलाने वाले को ही घायल करती है.

 

लेखिका : शालिनी जौली

Romantic Story : पर्सनल स्पेस

Romantic Story : आज औफिस में मैं बिलकुल भी ढंग से काम नहीं कर सका था. इस कारण बौस से तो कई बार डांट खानी पड़ी ही, सहयोगियों के साथ भी झड़प हो गई थी.

आखिर में तंग आ कर मैं ने औफिस से1 घंटा पहले जाने की अनुमति बौस से मांगी, तो उन्होंने तीखे शब्दों में मुझ से कहा, ‘‘मोहित, आज सारा दिन तुम ने कोई भी काम ढंग से नहीं किया है. मुझे छोटीछोटी बातों पर

किसी को डांटना अच्छा नहीं लगता. मुझे उम्मीद है कि कल तुम्हारा चेहरा मुझे यों लटका हुआ नहीं दिखेगा.’’

‘‘बिलकुल नहीं दिखेगा, सर,’’ ऐसा वादा कर मैं उन के कक्ष से बाहर आ गया.

औफिस से निकल कर मैं मोटरसाइकिल से बाजार जाने को निकल पड़ा. मुझे अपनी पत्नी नेहा के लिए कोई अच्छा सा गिफ्ट लेना था.

हमारी शादी को अभी 4 महीने ही हुए हैं. वह मेरे सुख व खुशियों का बहुत ध्यान रखती है. मेरी पसंद पूछे बिना मजाल है वह कोई काम कर ले.

पिछले गुरुवार को उस का यही प्यार भरा व्यवहार मुझे ऐसा खला कि मैं ने उसे शादी के बाद पहली बार बहुत जोर से डांट दिया था.

उस दिन हमें रवि की शादी की पहली सालगिरह की पार्टी में जाना था. जगहजगह टै्रफिक जाम मिलने के कारण मुझे औफिस से घर पहुंचने में पहले ही देर हो गई थी. ऊपर से ये देख कर मेरा गुस्सा बढ़ने लगा कि नेहा समय से तैयार होना शुरू करने की बजाय मेरे घर पहुंचने का इंतजार कर रही थी.

‘‘इन में से मैं कौन सी साड़ी पहनूं, यह तो बता दो?’’ आदत के अनुरूप उस ने इस मामले में भी मेरी पसंद जाननी चाही थी.

‘‘नीली साड़ी पहन लो,’’ अपना व उस का मूड खराब करने से बचने के लिए मैं ने अपनी आवाज में गुस्से के भाव पैदा नहीं होने दिए थे.

‘‘मुझे लग रहा है कि मैं ने इसे तब भी पहना था, जब हम रवि के घर पहली बार डिनर करने गए थे.’’

‘‘तो कोई दूसरी साड़ी पहन लो.’’

‘‘आप प्लीज बताओ न कि कौन सी पहनूं?’’

इस बार मेरे सब्र का बांध टूट गया और मैं उस पर जोर से चिल्ला उठा, ‘‘यार, तुम जल्दी तैयार होने के बजाय फालतू की बातें करने में समय बरबाद क्यों कर रही हो? हर काम करने से पहले मेरी जान खाने की बजाय तुम अपनेआप फैसला क्यों नहीं करतीं कि क्या किया जाए, क्या न किया जाए? मुझे ऐसा बचकाना व्यवहार बिलकुल अच्छा नहीं लगता है.’’

पार्टी में पहुंच कर उस का मूड पूरी तरह से ठीक हो गया, पर मेरा मूड उस के चिपकू व्यवहार के कारण खराब बना रहा.

रवि मेरा कालेज का दोस्त है. उस पार्टी में शामिल होने कालेज के और भी बहुत से दोस्त आए थे. मैं कुछ समय अपने इन पुराने दोस्तों के साथ बिताना चाहता था, पर नेहा मेरा हाथ छोड़ने को तैयार ही नहीं थी.

कुछ देर के लिए जब वह फ्रैश होने गई, तब मैं अपने दोस्तों के पास पहुंच गया था. मेरे दोस्त मौका नहीं चूके और नेहा का चिपकू व्यवहार मेरी खिंचाई का कारण बन गया था.

मुंहफट सुमित ने मेरा मजाक उड़ाते हुए कह भी दिया, ‘‘अबे मोहित, ऐसा लगता है कि तू ने तो किसी थानेदारनी के साथ शादी कर ली है. नेहा भाभी तो तुझे बिलकुल पर्सनल स्पेस नहीं देती हैं.’’

‘‘शायद मोहित शादी के बाद भी हर सुंदर लड़की के साथ इश्क लड़ाने को उतावला रहता होगा, तभी भाभी इस की इतनी जबरदस्त चौकीदारी करती हैं,’’ कुंआरे नीरज के इस मजाक पर सभी दोस्तों ने एकसाथ ठहाका लगाया था.

अपने मन की खीज को काबू में रखते हुए मैं ने जवाब दिया, ‘‘वह थानेदारनी नहीं बल्कि बहुत डिवोटिड वाइफ है. तुम सब अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि वह कितनी केयरिंग और घर संभालने में कितनी कुशल है.’’

‘‘अपना यार तो बेडि़यों को ही आभूषण समझने लगा है,’’ नीरज के इस मजाक पर जब दोस्तों ने एक और जोरदार ठहाका लगाया, तो मैं मन ही मन नेहा से चिढ़ उठा था.

पार्टी में हमारे साथ पढ़ी सीमा भी मौजूद थी. वह कुछ दिनों के लिए मुंबई से यहां मायके में अकेली रहने आई थी. पति के साथ न होने के कारण वह खूब खुल कर कालेज के पुराने दोस्तों से हंसबोल रही थी. मेरे मन में उस के ऊपर डोरे डालने जैसा कोई खोट नहीं था, पर कुछ देर उस के साथ हलकेफुलके अंदाज में फ्लर्ट करने का मजा मैं जरूर लेना चाहता था.

नेहा के हर समय चिपके रहने के कारण मैं उस के साथ कुछ देर भी मस्ती भरी गपशप नहीं कर सका. अपने सारे दोस्तों को उस के साथ खूब ठहाके लगाते देख मेरा मन खिन्न हो उठा.

मुझे थोड़ा सा भी समय अपने ढंग से जीने के लिए नहीं मिल रहा है, मेरे मन में इस शिकायत की जड़ें पलपल मजबूत होती चली गई थीं.

मैं खराब मूड के साथ पार्टी से घर लौटा था. मेरे माथे पर खिंची तनाव की रेखाएं देख कर नेहा ने मुझ से पूछा, ‘‘क्या सिर में दर्द हो रहा है?’’

‘‘हां, मुझे भयंकर सिरदर्द हो रहा है, पर तुम सिर दबाने की बात मुंह से निकालना भी मत,’’ मैं ने रूखे लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं सिर दबा दूंगी तो आप की तबीयत जल्दी ठीक हो जाएगी,’’ मेरी रुखाई देख कर उस का चेहरा फौरन उतर सा गया था.

‘‘मुझे सिरदर्द जल्दी ठीक नहीं करना है. अब तुम मेरा सिर खाना बंद करो, क्योंकि मैं कुछ देर शांति से अकेले बैठना चाहता हूं. मुझे खुशी व सुकून से जीने के लिए पर्सनल स्पेस चाहिए, यह बात तुम जितनी जल्दी समझ लोगी उतना अच्छा रहेगा,’’ मैं उस के ऊपर जोर से गुर्राया, तो वह आंसू बहाती हुई मेरे सामने से हट गई थी.

अगले दिन मैं ने उस के साथ ढंग से बात नहीं की. वह रात को मुझ से लिपट कर सोने लगी, तो मैं ने उसे दूर धकेला और करवट बदल ली. मुझे उस का अपने साथ चिपक कर रहना फिलहाल बिलकुल बरदाश्त नहीं हो रहा था.

अगले दिन शनिवार की सुबह मैं जब औफिस जाने को घर से निकलने लगा, तब उस ने मुझ से दुखी व उदास लहजे में कहा था, ‘‘आपस का प्यार बढ़ाने के लिए पर्सनल स्पेस की नहीं, बल्कि प्यार भरे साथ की जरूरत होती है. मैं आप से दूर नहीं रह सकती, क्योंकि आप के साथ मैं कितना भी हंसबोल लूं, पर मेरा मन नहीं भरता है. आज अपने भाई के साथ मैं कुछ दिनों के लिए मायके रहने जा रही हूं. मेरी अनुपस्थिति में आप जी भर कर पर्सनल स्पेस का मजा ले लेना.’’

मैं ने उसे रुकने के लिए एक बार भी नहीं कहा, क्योंकि मैं सचमुच कुछ दिनों के लिए अपने ढंग से अकेले जीना चाहता था.

नेहा से मिली आजादी का फायदा उठाने के लिए मैं ने उस दिन औफिस खत्म होने के बाद अपने दोस्त नीरज को फोन किया. उस ने फौरन मुझे अपने घर आने की दावत दे दी, क्योंकि वह मुफ्त की शराब पीने को हमेशा ही तैयार रहता था.

हम दोनों ने उस के ड्राइंगरूम में बैठ कर शराब पी. हमारी महफिल सजने के कारण उस की पत्नी कविता का मूड खराब नजर आ रहा था, पर हम दोनों ने अपनी मस्ती के चलते इस बात की फिक्र नहीं की.

शराब खत्म हो जाने के बाद मुझे मालूम पड़ा कि मेरा दोस्त बदल चुका था. नीरज ने कविता के डर के कारण मुझे डिनर कराए बिना ही घर से विदा कर दिया.

मैं ने बाहर से बर्गर खाया और घर लौट कर नीरज को मन ही मन ढेर सारी गालियां देता पलंग पर ढेर हो गया.

पार्टी के दिन सीमा से खुल कर हंसीमजाक न कर पाने की बात अभी भी मेरे मन में अटकी हुई थी. इतवार की सुबह मैं ने रवि से उस का फोन नंबर ले कर उस के साथ लंच करने का कार्यक्रम बना लिया.

हम 12 बजे एक चाइनीज रेस्तरां में मिले. पहले मैं ने उसे बढि़या लंच कराया और फिर हम बाजार में घूमने लगे. उस की खनकती हंसी और बातें करने का दिलकश अंदाज लगातार मेरे मन को गुदगुदाए जा रहा था.

कुछ देर बाद मैं ने उस से पूछा, ‘‘क्या हम मैटनी शो देखने चलें?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने अपनी आंखों में शरारत भर कर जवाब दिया.

‘‘क्यों मना कर रही हो?’’ मैं ने हंसते हुए पूछा.

‘‘हाल के अंधेरे में तुम अपने हाथों को काबू में नहीं रख पाओगे.’’

‘‘मैं वादा करता हूं कि बिलकुल शरीफ बच्चा बन कर फिल्म देखूंगा.’’

‘‘सौरी मोहित, शादी के बाद तुम्हें नेहा के प्रति वफादार रहना चाहिए.’’

उस का यह वाक्य मेरे मन को बुरी तरह चुभ गया. मैं ने उस से चिढ़ कर पूछा, ‘‘क्या तुम अपने पति के प्रति वफादार हो?’’

‘‘मैं उन के प्रति पूरी तरह से वफादार हूं,’’ उस का इतरा कर यह जवाब देना मेरी चिढ़ को और ज्यादा बढ़ा गया.

‘‘फिर मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि अगर मैं जरा सी भी कोशिश करूं, तो तुम मेरे साथ सोने को राजी हो जाओगी.’’

‘‘शटअप.’’ उस ने मुझे चिढ़ कर डांटा, तो मैं उस का मजाक उड़ाने वाले अंदाज में हंस पड़ा था.

मेरे खराब व्यवहार के लिए उस ने मुझे माफ नहीं किया और कुछ मिनट बाद जरूरी काम होने का बहाना बना कर चली गई. मुझे उस के चले जाने का अफसोस तो नहीं हुआ, पर मन अजीब सी उदासी का शिकार जरूर हो गया.

मैं ने अकेले ही फिल्म देखी और बाद में देर रात तक बाजार में अकारण घूमता रहा. उस रात भी मैं ढंग से सो नहीं सका, क्योंकि नेहा की याद बहुत सता रही थी. बारबार उस से फोन पर बातें करने की इच्छा हो रही थी, पर उस के साथ गलत व्यवहार करने के अपराधबोध ने ऐसा नहीं करने दिया.

सोमवार को औफिस में दिन गुजारना मेरे लिए मुश्किल हो गया था. काम में मन न लगने के कारण बौस से कई बार डांट खाई. जब वहां रुकना बेहद कठिन हो गया, तो बौस से इजाजत ले कर मैं घंटा भर पहले औफिस से बाहर आ गया था.

औफिस से निकलने के घंटे भर बाद मैं ने नेहा को फोन कर के उलाहना दिया, ‘‘तुम इतनी ज्यादा निर्मोही कैसे हो गई हो? आज दिन भर फोन कर के मेरा हालचाल क्यों नहीं पूछा?’’

‘‘मैं ने तो आप की नाराजगी व डांट के डर से फोन नहीं किया,’’ उस की आवाज का कंपन बता रहा था कि मेरी आवाज सुन कर वह भावुक हो उठी थी.

‘‘तुम्हारा फोन आने से मैं नाराज क्यों होऊंगा?’’

‘‘मैं फोन करती तो आप जरूर डांट कर कहते कि मैं मायके में रह कर भी आप को चैन से जीने नहीं दे रही हूं.’’

‘‘मैं पागल हूं, जो तुम्हें अकारण डांटूंगा. मुझे लगता है कि मायके पहुंच कर तुम्हें मेरा ध्यान ही नहीं आया.’’

‘‘जिस के अंदर मेरी जान बसती है, उस का ध्यान मुझे कैसे नहीं आएगा?’’

‘‘तो वापस कब आओगी?’’

‘‘आप आज लेने आ जाओगे, तो आज ही साथ चल चलूंगी.’’

‘‘मैं तो आ गया हूं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि दरवाजा क्यों नहीं खोल रही है, पगली?’’

‘‘क्या बारबार घंटी आप बजा रहे हो?’’

‘‘दरवाजा खोल कर देख लो न मेरी जान.’’

‘‘मैं अभी आई.’’

उस की उतावलेपन व खुशी से भरी आवाज सुन कर मैं जोर से हंस पड़ा था.

दरवाजा खोल कर जब नेहा ने मुझे फूलों का बहुत सुंदर सा गुलदस्ता हाथ में लिए खड़ा देखा, तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा. अपना उपहार स्वीकार करने के बाद वह मेरी छाती से लिपट कर खुशी के आंसू बहाने लगी.

मुझे इस समय उस की वह बात ध्यान आ रही थी, जो उस ने मायके आने से पहले कही थी, ‘आपस का प्यार बढ़ाने के लिए पर्सनल स्पेस की नहीं, बल्कि प्यार भरे साथ की जरूरत होती है. मैं आप से दूर नहीं रह सकती, क्योंकि आप के साथ मैं कितना भी हंसबोल लूं, पर मेरा मन नहीं भरता है.’

मैं ने उस का माथा चूम कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘मेरी समझ में यह आ गया

है कि तुम्हारे अलावा मेरी जिंदगी में खुशियां भरने की किसी के पास फुरसत नहीं है. मुझे अपनी जिंदगी में पर्सनल स्पेस नहीं, बल्कि तुम्हारा प्यार भरा साथ चाहिए. भविष्य में मेरी बातों का बुरा मान कर फिर कभी मुझे अकेला मत छोड़ना.’’

‘‘कभी नहीं छोड़ूंगी.’’ अपनी मम्मी की उपस्थिति की परवाह न करते हुए उस ने मेरे होंठों पर छोटा सा चुंबन अंकित किया और फिर शरमा भी गई.

उस ने कुछ देर बाद ही मेरे साथ सट कर बैठते हुए ढेर सारे सवाल पूछने शुरू कर दिए. मुझे उस के सवालों का जवाब देने में अब कोई परेशानी महसूस नहीं हो रही थी. उस से दूर रहने के मेरे अनुभव इतने घटिया रहे थे कि मेरे सिर से पर्सनल स्पेस में जीने का भूत पूरी तरह से उतर गया था.

Best Hindi Story : जब कृपा को अपने ही दोस्त का करना पड़ा आपरेशन

Best Hindi Story : कमरे में प्रवेश करते ही डा. कृपा अपना कोट उतार कर कुरसी पर धड़ाम से बैठ गईं. आज उन्होंने एक बहुत ही मुश्किल आपरेशन निबटाया था.

शाम को जब वे अस्पताल में अपने कक्ष में गईं, तो सिर्फ 2 मरीजों को इंतजार करते हुए पाया. आज उन्होंने कोई अपौइंटमैंट भी नहीं दिया था. इन 2 मरीजों से निबटने के बाद वे जल्द से जल्द घर लौटना चाहती थीं. उन्हें आराम किए हुए एक अरसा हो गया था. वे अपना बैग उठा कर निकलने ही वाली थीं कि अपने नाम की घोषणा सुनी, ‘‘डा. कृपा, कृपया आपरेशन थिएटर की ओर प्रस्थान करें.’’

माइक पर अपने नाम की घोषणा सुन कर उन्हें पता चल गया कि जरूर कोई इमरजैंसी केस आ गया होगा.

मरीज को अंदर पहुंचाया जा चुका था. बाहर मरीज की मां और पत्नी बैठी थीं.

मरीज के इतिहास को जानने के बाद डा. कृपा ने जैसे ही मरीज का नाम पढ़ा तो चौंक गईं. ‘जयंत शुक्ला,’ नाम तो यही लिखा था. फिर उन्होंने अपने मन को समझाया कि नहीं, यह वह जयंत नहीं हो सकता.

लेकिन मरीज को करीब से देखने पर उन्हें विश्वास हो गया कि यह वही जयंत है, उन का सहपाठी. उन्होंने नहीं चाहा था कि जिंदगी में कभी इस व्यक्ति से मुलाकात हो. पर इस वक्त वे एक डाक्टर थीं और सामने वाला एक मरीज. अस्पताल में जब मरीज को लाया गया था तो ड्यूटी पर मौजूद डाक्टरों ने मरीज की प्रारंभिक जांच कर ली थी. जब उन्हें पता चला कि मरीज को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा है तो उन्होंने दौरे का कारण जानने के लिए एंजियोग्राफी की थी, जिस से पता चला कि मरीज की मुख्य रक्तनलिका में बहुत ज्यादा अवरोध है. मरीज का आपरेशन तुरंत होना बहुत जरूरी था. जब मरीज की पत्नी व मां को इस बात की सूचना दी गई तो पहले तो वे बेहद घबरा गईं, फिर मरीज के सहकर्मियों की सलाह पर वे मान गईं. सभी चाहते थे कि उस का आपरेशन डा. कृपा ही करें. इत्तफाक से डा. कृपा अपने कक्ष में ही मौजूद थीं.

मरीज की बीवी से जरूरी कागजों पर हस्ताक्षर लिए गए. करीब 5 घंटे लगे आपरेशन में. आपरेशन सफल रहा. हाथ धो कर जब डा. कृपा आपरेशन थिएटर से बाहर निकलीं तो सभी उन के पास भागेभागे आए.

डा. कृपा ने सब को आश्वासन दिया कि आपरेशन सफल रहा और मरीज अब खतरे से बाहर है. अपने कमरे में पहुंच कर डा. कृपा ने कोट उतार कर एक ओर फेंक दिया और धड़ाम से कुरसी पर बैठ गईं.

आंखें बंद कर आरामकुरसी पर बैठते ही उन्हें अपनी आंखों के सामने अपना बीता कल नजर आने लगा. जिंदगी के पन्ने पलटते चले गए.

कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी

उन्हें अपना बचपन याद आने लगा… जयपुर में एक मध्यवर्गीय परिवार में वे पलीबढ़ी थीं. उन का एक बड़ा भाई था, जो मांबाप की आंखों का तारा था. कृपा की एक जुड़वां बहन थी, जिस का नाम रूपा था. नाम के अनुरूप रूपा गोरी और सुंदर थी, अपनी मां की तरह. कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी. कृपा का रंग अपने पिता की तरह काला था. दोनों बहनों की शक्लसूरत में मीनआसमान का फर्क था. बचपन में जब उन की मां दोनों का हाथ थामे कहीं भी जातीं, तो कृपा की तरफ उंगली दिखा कर सब यही पूछते कि यह कौन है?

उन की मां के मुंह से यह सुन कर कि दोनों उन की जुड़वां बेटियां हैं, लोग आश्चर्य में पड़ जाते. लोग जब हंसते हुए रूपा को गोद में उठा कर प्यार करते तो उस का बालमन बहुत दुखी होता. तब कृपा सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रोती, मचलती.

तब उसे पता नहीं था कि मानवमन तो सुंदरता का पुजारी होता है. तब वह समझ नहीं पाती थी कि लोग क्यों उस के बजाय उस की बहन को ही प्यार करते हैं. एक बार तो उसे इस तरह मचलते देख कर किसी ने उस की मां से कह भी दिया था कि लीला, तुम्हारी इस बेटी में न तो रूप है न गुण.

धीरेधीरे कृपा को समझ में आने लगा अपने और रूपा के बीच का यह फर्क.

मां कृपा को समझातीं कि बेटी, समझदारी का मानदंड रंगरूप नहीं होता. माइकल जैकसन काले थे, पर पूरी दुनिया के चहेते थे. हमारी बेटी तो बहुत होशियार है. पढ़लिख कर उसे मांबाप का नाम रोशन करना है. बस, मां की इसी बात को कृपा ने गांठ बांध लिया. मन लगा कर पढ़ाई करती और कक्षा में हमेशा अव्वल आती.

कृपा जब थोड़ी और बड़ी हुई तो उस ने लड़कों और लड़कियों को एकदूसरे के प्रति आकर्षित होते देखा. उस ने बस, अपने मन में डाक्टर बनने का सपना संजो लिया था. वह जानती थी कि कोई उस की ओर आकर्षित नहीं होगा. यदि मनुष्य अपनी कमजोर रग को पहचान ले और उसे अनदेखा कर के उस क्षेत्र में आगे बढ़े जहां उसे महारत हासिल हो, तो उस की कमजोर रग कभी उस की दुखती रग नहीं बन सकती. इसीलिए जब जयंत ने उस की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने उसे ठुकरा दिया.

कृपा का ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य की ओर था. एक दिन उस ने जयंत को अपने दोस्तों से यह कहते हुए सुना कि मैं कृपा से इसलिए दोस्ती करना चाहता हूं, क्योंकि वह बहुत ईमानदार लड़की है, कितने गुण हैं उस में, हमेशा हर कक्षा में अव्वल आती है, फिर भी जमीन से जुड़ी है.

उस दिन के बाद कृपा का बरताव जयंत के प्रति नरम होता गया. 12वीं कक्षा की परीक्षा में अच्छे नंबर आना बेहद जरूरी था, क्योंकि उन्हीं के आधार पर मैडिकल में दाखिला मिल सकता था. सभी को कृपा से बहुत उम्मीदें थीं.

जयंत बेझिझक कृपा से पढ़ाई में मदद लेने लगा. वह एक मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखता था. खाली समय में ट्यूशन पढ़ाता था ताकि मैडिकल में दाखिला मिलने पर उसे पैसों की दिक्कत न हो.

कृपा लाइब्रेरी में बैठ कर किसी एक विषय पर अलगअलग लेखकों द्वारा लिखित किताबें लेती और नोट्स तैयार करती थी.

पहली बार जब उस ने अपने नोट्स की एक प्रति जयंत को दी तो वह कृतार्थ हो गया. कहने लगा कि तुम ने मेरी जो मदद की है, उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा.

अब जब भी कृपा नोट्स तैयार करती तो उस की एक प्रति जयंत को जरूर देती.

एक दिन जयंत ने कृपा के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि हमारा साथ जीवन भर का हो जाए तो कैसा हो?

कृपा ने मीठी झिड़की दी कि अभी तुम पढ़ाई पर ध्यान दो, मजनू. ये सब तो बहुत बाद की बातें हैं.

कृपा ने झिड़क तो दिया पर मन ही मन वह सपने बुनने लगी थी. जयंत स्कूल से सीधे ट्यूशन पढ़ाने जाता था, इसलिए कृपा रोज जयंत से मिल कर थोड़ी देर बातें करती, फिर जयंत से चाबी ले कर नोट्स उस के कमरे में छोड़ आती. चाबी वहीं छोड़ आती, क्योंकि जयंत का रूममेट तब तक आ जाता था.

एक दिन लाइब्रेरी से बाहर आते समय कृपा ने हमेशा की तरह रुक कर जयंत से बातें कीं. जयंत अपने दोस्तों के साथ खड़ा था, पर जातेजाते वह जयंत से चाबी लेना भूल गई. थोड़ी दूर जाने के बाद अचानक जब उसे याद आया तो वापस आने लगी. वह जयंत के पास पहुंचने ही वाली थी कि अपना नाम सुन कर अचानक रुक गई.

जयंत का दोस्त उस से कह रहा था कि तुम ने उस कुरूपा (कृपा) को अच्छा पटाया. तुम्हारा काम तो आसान हो गया, यार. इस साथी को जीवनसाथी बनाने का इरादा है क्या?

जयंत ने कहा कि दिमाग खराब नहीं हुआ है मेरा. उसे इसी गलतफहमी में रहने दो. बनेबनाए नोट्स मिलते रहें तो मुझे रोजरोज पढ़ाई करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. परीक्षा से कुछ दिन पहले दिनरात एक कर देता हूं. इस बार देखना, उसी के नोट्स पढ़ कर उस से भी अच्छे नंबर लाऊंगा.

जयंत के मुंह से ये सब बातें सुन कर कृपा कांप गई. उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. इतना बड़ा धोखा? वह उलटे पांव लौट गई. भाग कर घर पहुंची तो इतनी देर से दबी रुलाई फूट पड़ी. मां ने उसे चुप कराया. सिसकियों के बीच कृपा ने मां को किसी तरह पूरी बात बताई.

कुछ देर के लिए तो मां भी हैरान रह गईं, पर वे अनुभवी थीं. अत: उन्होंने कृपा को समझाया कि बेटे, अगर कोई यह सोचता है कि किसी सीधेसादे इनसान को धोखा दे कर अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है, तो वह अपनेआप को धोखा देता है. नुकसान तुम्हारा नहीं, उस का हुआ है. व्यवहार बैलेंस शीट की तरह होता है, जिस में जमाघटा बराबर होगा ही. जयंत को अपने किए की सजा जरूर मिलेगी. तुम्हारी मेहनत तुम्हारे साथ है, इसलिए आज तुम चाबी लेना भूल गईं. पढ़ाई में तुम्हारी बराबरी इन में से कोई नहीं कर सकता. प्रकृति ने जिसे जो बनाया उसे मान कर उस पर खुश हो कर फिर से सब कुछ भूल कर पढ़ाई में जुट जाओ.

मां की बातों से कृपा को काफी राहत मिली, पर यह सब भुला पाना इतना आसान नहीं था.

हिम्मत जुटा कर दूसरे दिन हमेशा की तरह कृपा ने जयंत से चाबी ली, पर नोट्स रखने के लिए नहीं, बल्कि आज तक उस ने जो नोट्स दिए थे उन्हें निकालने के लिए. अपने सारे नोट्स ले कर चाबी यथास्थान रख कर कृपा घर की ओर चल पड़ी. 2-4 दिनों में छुट्टियां शुरू होने वाली थीं, उस के बाद इम्तिहान थे. चाबी लेते समय उस ने जयंत से कह दिया था कि अब छुट्टियां शुरू होने के बाद ही उस से मिलेगी, क्योंकि उसे 2-4 दिनों तक कुछ काम है. घर जाने पर उस ने मां से कह दिया कि वह छुट्टियों में मौसी के घर रह कर अपनी पढ़ाई करेगी.

जिस दिन छुट्टियां शुरू हुईं, उस दिन सुबह ही कृपा मौसी के घर की ओर प्रस्थान कर गई. जाने से पहले उस ने एक पत्र जयंत के नाम लिख कर मां को दे दिया.

छुट्टियां शुरू होने के बाद एक दिन जब जयंत ने नोट्स निकालने के लिए दराज खोली तो पाया कि वहां से नोट्स नदारद हैं. उस ने पूरे कमरे को छान मारा, पर नोट्स होते तो मिलते. तुरंत भागाभागा वह कृपा के घर पहुंचा. वहां मां ने उसे कृपा की लिखी चिट्ठी पकड़ा दी.

कृपा ने लिखा था, ‘जयंत, उस दिन मैं ने तुम्हारे दोस्त के साथ हुई तुम्हारी बातचीत को सुन लिया था. मेरे बारे में तुम्हारी राय जानने के बाद मुझे लगा कि मेरे नोट्स का तुम्हारी दराज में होना कोई माने नहीं रखता, इसलिए मैं ने नोट्स वापस ले लिए. मेरे परिवार वालों से मेरा पता मत पूछना, क्योंकि वे तुम्हें बताएंगे नहीं. मेरी तुम से इतनी विनती है कि जो कुछ भी तुम ने मेरे साथ किया है, उस का जिक्र किसी से न करना और न ही किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना वरना लोगों का दोस्ती पर से विश्वास उठ जाएगा. शुभ कामनाओं सहित, कृपा.’

पत्र पढ़ कर जयंत ने माथा पीट लिया. वह अपनेआप को कोसने लगा कि यह कैसी मूर्खता कर बैठा. इस तरह खुल्लमखुल्ला डींगें हांक कर उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली थी. उस के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, न ही इतना वक्त था कि नोट्स तैयार करता.

इम्तिहान से एक दिन पहले कृपा वापस अपने घर आई. दोस्तों से पता चला कि इस बार जयंत परीक्षा में नहीं बैठ रहा है.

उस के बाद कृपा की जिंदगी में जो कुछ भी घटा, सब कुछ सुखद था. पूरे राज्य में अव्वल श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी कृपा. दूरदर्शन, अखबार वालों का तांता लग गया था उस के घर में. सभी बड़े कालेजों ने उसे खुद न्योता दे कर बुलाया था.

मुंबई के एक बड़े कालेज में उस ने दाखिला ले लिया था. एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षाएं दीं. यहां भी वह अव्वल आई. उस ने हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का फैसला लिया. एम.डी. की पढ़ाई करने के बाद उस ने 3 बड़े अस्पतालों में विजिटिंग डाक्टर के रूप में काम करना शुरू किया. समय के साथ उसे काफी प्रसिद्धि मिली.

इधर उस की जुड़वां बहन की पढ़ाई में खास दिलचस्पी नहीं थी. मातापिता ने उस की शादी कर दी. उस का भाई अपनी पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था. भाई कभी मातापिता का हालचाल तक नहीं पूछता था. बहू ने दूरी बनाए रखी थी. जब अपना ही सिक्का खोटा था तो दूसरों से क्या उम्मीद की जा सकती थी.

बेटे के इस रवैए ने मांबाप को बहुत पीड़ा पहुंचाई थी. कृपा ने निश्चय कर लिया था कि मातापिता और लोगों की सेवा में अपना जीवन बिता देगी. कृपा ने मुंबई में अपना घर खरीद लिया और मातापिता को भी अपने पास ले गई.

चर्मरोग विशेषज्ञ डा. मनीष से कृपा की अच्छी निभती थी. दोनों डाक्टरी के अलावा दूसरे विषयों पर भी बातें किया करते थे, पर कृपा ने उन से दूरी बनाए रखी. एक दिन डा. मनीष ने डा. कृपा से शादी करने की इच्छा जाहिर की, पर दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है.

डा. कृपा ने दृढ़ता के साथ मना कर दिया. उस के बाद डा. मनीष की हिम्मत नहीं हुई दोबारा पूछने की. मां को जब पता चला तो मां ने कहा, ‘‘बेटे, सभी एक जैसे तो नहीं होते. क्यों न हम डा. मनीष को एक मौका दें.’’

डा. मनीष अपने किसी मरीज के बारे में डा. कृपा से सलाह करना चाहते थे. डा. कृपा का सेलफोन लगातार व्यस्त आ रहा था, तो उन्होंने डा. कृपा के घर फोन किया.

डा. कृपा घर पर भी नहीं थी. उस की मां ने डा. मनीष से बात की और उन्हें दूसरे दिन घर पर खाने पर बुला लिया. मां ने डा. मनीष से खुल कर बातें कीं. 4-5 साल पहले उन की शादी एक सुंदर लड़की से तय हुई थी, पर 2-3 बार मिलने के बाद ही उन्हें पता चल गया कि वे उस के साथ किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठा सकते. तब उन्होंने इस शादी से इनकार कर दिया था.

मां की अनुभवी आंखों ने परख लिया था कि डा. मनीष ही डा. कृपा के लिए उपयुक्त वर हैं. अब तक डा. कृपा भी घर लौट चुकी थी. सब ने एकसाथ मिल कर खाना खाया. बाद में मां के बारबार आग्रह करने पर डा. मनीष से बातचीत के लिए तैयार हो गई डा. कृपा. उस ने डा. मनीष से साफसाफ कह दिया कि उस की कुछ शर्तें हैं, जैसे मातापिता की देखभाल की जिम्मेदारी उस की है, इसलिए वह उन के घर के पास ही घर ले कर रहेंगे. वह डा. मनीष के घर वालों की जिम्मेदारी भी लेने को तैयार थी, लेकिन इमरजैंसी के दौरान वक्तबेवक्त घर से जाना पड़ सकता है, तब उस के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, वगैरह.

डा. मनीष ने उस की सारी शर्तें मान लीं और उन का विवाह हो गया. डा. मनीष जैसे सुलझे हुए व्यक्ति को पा कर कृपा को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गई थी. कुछ साल पहले डा. कृपा अपनेआप को कितनी कोसती थी. लेकिन अब उसे लगने लगा कि उस की जिंदगी में अब कोई अंधेरा नहीं है, बल्कि चारों तरफ उजाला ही उजाला है.

डा. कृपा धीरेधीरे वर्तमान में लौट आई. इस के बाद उस का सामना कई बार जयंत से हुआ. पहली बार होश आने पर जब जयंत ने डा. कृपा को देखा तो चौंकने की बारी उस की थी. कई बार उस ने डा. कृपा से बात करने की कोशिश की, पर डा. कृपा ने एक डाक्टर और मरीज की सीमारेखा से बाहर कोई भी बात करने से मना कर दिया.

डा. कृपा सोचने लगी, आज वह डा. मनीष के साथ कितनी खुश है. जिंदगी में कटु अनुभवों के आधार पर लोगों के बारे में आम राय बना लेना कितनी गलत बात है. कुदरत ने सुख और दुख सब के हिस्से में बराबर मात्रा में दिए हैं. जरूरत है तो दुख में संयम बरतने की और सही समय का इंतजार करने की. किसी की भी जिंदगी में अंधेरा अधिक देर तक नहीं रहता है, उजाला आता ही है.

Donald Trump : अमेरिका में गुरूर वाले गोरे की ताजपोशी

Donald Trump : अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप वही कर रहे हैं जो भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी कर रही है- अलगाव की राजनीति. भारत में यह अलगाव हिंदूमुसलिम का है तो अमेरिका में यह गोरों और बाहरियों, इमीग्रैंट्स का है. ट्रंप के कट्टरवादी, चर्च पिट्ठू, गोरे, आधे पढ़े, लड़ाकू, झगड़ालू, मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) समर्थक अमेरिका को गोरों का देश बनाने के लिए हर कदम उठा रहे हैं. मजेदार बात यह है कि बहुत से भारतीय मूल के सफल अमेरिकी उन का साथ दे रहे हैं.

अब भारत से अमेरिका का एस-1 वीजा ले कर अमेरिका में नौकरी करने वाले असमंजस में हैं कि वे कब तक वहां काम कर पाएंगे. अमेरिकी वेतनों के आदी हो गए ये भारतीय युवा अब भारत के काम के नहीं रह गए हैं और अमेरिका में हर रोज इन पर तलवार लटकी महसूस होगी.

अमेरिका की महानता के पीछे उस का दुनियाभर से टैलेंट जमा करना रहा है. कालों की गुलामी के बंधन में 200 वर्ष रखने वाले देश ने एक गृहयुद्ध कर के वह गलती खत्म कर दी और कालों को गुलामी से मुक्ति दिला दी तो लगा कि अगर किसी देश में जीने की आजादी मिल सकती है तो वह अमेरिका है. अमेरिका को यूरोप से आए गोरों का लाभ तो मिला ही, एशिया और अफ्रीका से आए मजदूरों का लाभ भी मिला.

इन मजदूरों की संतानें आज अमेरिकी समाज में ऊंची जगहों पर हैं और अमेरिका इन की मेहनत का लाभ उठा रहा है. अब ट्रंप के आने के बाद यह लाभ मिलेगा या नहीं, पता नहीं. जैसे भारत में सारी शक्ति, पूंजी, प्रचार, सरकार का ध्यान धर्म, मंदिर, पूजापाठ पर लग गया है, वैसे ही ट्रंप सरकार का ध्यान इमीग्रैंट्स को सीमाओं से बाहर खदेडऩे पर लगने वाला है. इस की जमीन बनाने के लिए ट्रंप सरकार गोरों की कंपनियों को हर तरह का संरक्षण देगी, उन का टैक्स कम करेगी, क्लाइमेट चेंज की मांग को कूड़े में फेंक देगी ताकि अमेरिकी गोरे अमीर बने रहें.
यह एकदो पीढ़ी को बड़ा लाभ दे सकता है पर पक्का इस दौरान न केवल यूरोप बल्कि चीन, जापान, कोरिया, वियतनाम जैसे देश भी, जहां धर्म और बाहरी लोगों के विवाद आज न के बराबर है, सब से ज्यादा लाभ उठाएंगे. भारतीय मूल के कुछ लोग, जो फिलहाल ट्रंप के तलवे चाट रहे हैं, कब निकाल बाहर किए जाएंगे, पता नहीं.

विभाजन की नीति कभी किसी देश को पनपा नहीं पाई. हिटलर ने जरमनी के यहूदियों को निशाना बनाया था, कम्युनिस्ट रूस ने व्यवसाइयों को, आज के भारत ने मुसलमानों और शूद्रों व दलितों को बनाया है और सब को इस की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी या पड़ रही है.जमीन के हर टुकड़े पर हर तरह के पेड़पौधे, पशुपक्षी पलते हैं तो ही वह उपजाऊ रहती है. कोई जमीन सिर्फ गोरों या सिर्फ हिंदुओं या सिर्फ मुसलमानों की है जहां देश का सिद्धांत चलेगा, वहां कभी उन्नति नहीं होगी.

Hindi kahani : सुवीरा को समर्पण के बदले मिला सिर्फ अपमान

Hindi kahani : मायके के सुखदुख में सहभागी बनी सुवीरा ने अपना पूरा जीवन उन को समर्पित कर दिया. लेकिन उन्होंने कदमकदम पर सुवीरा और उस के पति को न केवल अपमानित किया बल्कि उस से नाता भी तोड़ दिया. पदचाप और दरवाजे के हर खटके पर सुवीरा की तेजहीन आंखों में चमक लौट आती थी. दूर तक भटकती निगाहें किसी को देखतीं और फिर पलकें बंद हो जातीं. सिरहाने बैठे गिरीशजी से उन की बहू सीमा ने एक बार फिर जिद करते हुए कहा था, ‘‘पापा, आप समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे? जब तक नानीजी और सोहन मामा यहां नहीं आएंगे, मां के प्राण यों ही अधर में लटके रहेंगे. इन की यह पीड़ा अब मुझ से देखी नहीं जाती,’’ कहतेकहते सीमा सिसक उठी थी.बरसों पहले का वह दृश्य गिरीशजी की आंखों के सामने सजीव हो उठा जब मां और भाई के प्रति आत्मीयता दर्शाती पत्नी को हर बार बदले में अपमान और तिरस्कार के दंश सहते उन्होंने ऐसी कसम दिलवा दी थी जिस की सुवीरा ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.‘आज के बाद अगर इन लोगों से कोई रिश्ता रखोगी तो तुम मेरा मरा मुंह देखोगी.’बरसों पुराना बीता हुआ वह लम्हा धुलपुंछ कर उन के सामने आ गया था. अतीत के गर्भ में बसी उन यादों को भुला पाना इतना सहज नहीं था. वैसे भी उन रिश्तों को कैसे ? झुठलाया जा सकता था जो उन के जीवन से गहरे जुड़े थे.आंखें बंद कीं तो मन न जाने कब आमेर क्लार्क होटल की लौबी में जा पहुंचा और सामने आ कर खड़ी हो गई सुंदर, सुशील सुवीरा. एकदम अनजान जगह में किसी आत्मीय जन का होना मरुस्थल में झील के समान लगा था उन्हें. मंदमंद हास्य से युक्त, उस प्रभावशाली व्यक्तित्व को बहुत देर तक निहारते रहे थे. फिर धीरे से बोले, ‘आप का प्रस्तुतिकरण सर्वश्रेष्ठ था.’‘धन्यवाद,’ प्रत्युत्तर में सुवीरा बोली तो गिरीश अपलक उसे देखते ही रह गए थे. इस पहली भेंट में ही सुवीरा उन के हृदय की साम्राज्ञी बन गई थी.

फिर तो उसी के दायरे में बंधे, उस के इर्दगिर्द घूमते हुए हर पल उस की छोटीछोटी गतिविधियों का अवलोकन करते हुए इतना तो वह समझ ही गए थे कि उन का यह आकर्षण एकतरफा नहीं था. सुवीरा भी उन्हें दिल की अतल गहराइयों से चाहने लगी थी पर कह नहीं पा रही थी. अपने चारों तरफ सुवीरा ने कर्तव्यनिष्ठा की ऐसी सीमा बांध रखी थी जिसे तोड़ना तो दूर लांघना भी उस के लिए मुश्किल था.लगभग एक माह बाद दफ्तर के काम से गिरीश दिल्ली पहुंचे तो सीधे सुवीरा से मिलने उस के घर चले गए थे. बातोंबातों में उन्होंने अपने प्रेम प्रसंग की चर्चा सुवीरा की मां से
की तो अलाव सी सुलग उठी थीं वह.‘बड़ी सतीसावित्री बनी फिरती थी. यही गुल खिलाने थे?’ मां के शब्दों से सहमीसकुची सुवीरा कभी उन का चेहरा देखती तो कभी गिरीश के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास करती पर अम्मा शांत नहीं हुई थीं.अगले दिन कोर्टमैरिज के बाद सुवीरा हठ कर के अम्माबाबूजी के पास आशीर्वाद लेने पहुंची तो अपनी कुटिल दृष्टि बिखेरती अम्मा ने ऐसा गर्जन किया कि रोने को हो उठी थी सुवीरा.

‘अपनी बिरादरी में लड़कों की कोई कमी थी जो दूसरी जाति के लड़के से ब्याह कर के आ गई?’‘फोन तो किया था तुम्हें, अम्मा… अभी भी तुम्हारा आशीर्वाद ही तो लेने आए हैं हम,’ सुवीरा के सधे हुए आग्रह को तिरस्कार की पैनी धार से काटती हुई अम्मा ने हुंकार लगाई, ‘तू क्या समझती है, तू चली जाएगी तो हम जी नहीं पाएंगे. भूखे मरेंगे? डंके की चोट पर जिएंगे. लेकिन याद रखना, जिस तरह तू ने इस कुल का अपमान किया है, हम आशीर्वाद तो क्या कोई रिश्ता भी नहीं रखना चाहते तुझसे.’ से.’व्यावहारिकता के धरातल पर खड़े गिरीश, सास के इस अनर्गल प्रलाप का अर्थ भली प्रकार समझ गए थे. नौकरीपेशा लड़की देहरी लांघ गई तो रोटीपानी भी नसीब नहीं होगा इन्हें. झूठे दंभ की आड़ में जातीयता का रोना तो बेवजह अम्मा रोए जा रही थीं.बिना कुछ कहेसुने, कांपते कदमों से सुवीरा सीधे बाबूजी के कमरे में चली गई थी. वह बरसों से पक्षाघात से पीडि़त थे. ब्याहता बेटी देख कर उन की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी थी. सुवीरा भी उन के सीने से लग कर बड़ी देर तक सिसकती रही थी. रुंधे स्वर से वह इतना ही कह पाई थी, ‘बाबूजी, अम्मा चाहे मुझ से कोई रिश्ता रखें या न रखें पर मैं जब तक जिंदा रहूंगी, मायके के हर सुखदुख में सहभागिता ही दिखाऊंगी, यह मेरा वादा है आप से.’बेटी की संवेदनाओं का मतलब समझ रहे थे दीनदयालजी. आशीर्वाद स्वरूप सिर पर हाथ फेरा तो अम्मा बिफर उठी थीं, ‘हम किसी का एहसान नहीं लेंगे. जरूरत पड़ी तो किसी आश्रम में चाहे रह लें लेकिन तेरे आगे हाथ नहीं फैलाएंगे.’अम्मा चाहे कितना चीखतीचिल्लाती रहीं, सुवीरा महीने की हर पहली तारीख को नोटों से भरा लिफाफा अम्मा के पास जरूर पहुंचा आती थी और बदले में बटोर लाती थी अपमान, तिरस्कार के कठोर, कड़वे अपदंश. गिरीश ने कभी अम्मा के व्यवहार का विश्लेषण करना भी चाहा तो बड़ी सहजता से टाल जाती सुवीरा पर मन ही मन दुखी बहुत होती थी.‘जो कुछ कहना था, मुझे कहतीं. दामाद के सामने अनापशनाप कहने की क्या जरूरत थी?’ ऐसे में अपंग पिता का प्यार और पति का सौहार्द ठंडे फाहे सा काम करता.दौड़भाग करते कब सुबह होती, कब शाम, पता ही नहीं चलता था. गिरीश ने कई बार रोकना चाहा तो सुवीरा हंस कर कहती, ‘समझने की कोशिश करो, गिरीश. मेरे ऊपर अम्मा, बीमार पिता और सोहन का दायित्व है. जब तक सोहन अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, मुझे नौकरी करनी ही पड़ेगी.’‘सुवीरा, मैं ने अपने मातापिता को कभी नहीं देखा. अनाथालय में पलाबढ़ा लेकिन इतना जानता हूं कि सात फेरे लेने के बाद पतिपत्नी का हर सुखदुख साझा होता है. उसी अधिकार से पूछ रहा हूं, क्या तुम्हारे कुछ दायित्व मैं नहीं बांट सकता?’गिरीश के प्रेम से सराबोर कोमल शब्द जब सुवीरा के ऊपर भीनी फुहार बन कर बरसते तो उस का मन करता कि पति के मादक प्रणयालिंगन से निकल कर, भाग कर सारे खिड़कीदरवाजे खोल दे और कहे, देखो, गिरीश मुझे कितना प्यार करते हैं.2 बरस बाद सुवीरा ने जुड़वां बेटों को जन्म दिया. गिरीश खुद ससुराल सूचना देने गए पर कोई नहीं आया था.

बाबूजी तो वैसे ही बिस्तर पर थे पर मां और सोहन इतने समय बाद संतान के सुख से तृप्त बेटी के सुखद संसार को देखने इस बार भी नहीं आए थे. मन ही मन कलपती रही थी सुवीरा. गिरीश ने जरा सी आत्मीयता दर्शाई तो पानी से भरे पात्र की तरह छलक उठी थी सुवीरा, ‘क्या कुसूर किया था मैं ने उस घर को सजाया, संवारा अपने स्नेह से सींचा पर मेरे अस्तित्व को ही नकार दिया. कम से कम इतना तो देखते कि बेटी कहां है, किस हाल में है. मात्र यही कुसूर है न मेरा कि मैं ने प्रेम विवाह किया है.’ इतना सुनते ही गिरीश के चेहरे पर दर्द का दरिया लरज उठा था. बोले, ‘इस समय तुम्हारा ज्यादा बोलना ठीक नहीं है. आराम करो.’सुवीरा चुप नहीं हुई. प्याज के छिलकों की तरह परतदरपरत बरसों से सहेजी संवेदनाएं सारी सीमाएं तोड़ कर बाहर निकलने लगीं.‘मैं उस समय 5 साल की बच्ची ही तो थी जब अम्मा दुधमुंहे सोहन को मेरे हवाले छोड़ पड़ोस की औरतों के बीच गप्पें मारने में मशगूल हो जाती थीं. लौट कर आतीं तो किसी थानेदार की तरह ढेरों प्रश्न कर डालतीं.‘बेटे के लिए तो रचरच कर नाश्ता तैयार करतीं, लेकिन मैं अपनी पसंद का कुछ भी खाना चाहती तो बुरा सा मुंह बना लेतीं. उन की इस उपेक्षा और डांटफटकार से बचपन से ही मेरे मन में एक भावना घर कर गई कि अगर इतनी ही अकर्मण्य हूं मैं तो इन सब को अपनी काहिली दिखा कर रहूंगी.‘सच मानो गिरीश, मां की तल्ख तेजाबी बहस के बीच भी मैं सफलता के सोपान चढ़ती चली गई. बाबूजी ने कई बार लड़खड़ाती जबान के इशारे से अम्मा को समझाया था कि थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास सोहन को भी करवाएं पर अम्मा बाबूजी की कही सुनते ही त्राहित्राहि मचा देतीं. घर का हर काम उन की ही मरजी से होता था, वरना वे घर की ईंट से ईंट बजा कर रख देती थीं.‘एक रात बाबूजी फैक्टरी से लौटते समय सड़क दुर्घटना में बुरी तरह जख्मी हो गए थे. शरीर के आधे हिस्से को लकवा मार गया था. अच्छेभले तंदुरुस्त बाबूजी एक ही झटके में बिस्तर के हो कर रह गए. धीरेधीरे व्यापार ठप पड़ने लगा. सोहन की परवरिश सही तरीके से की गई होती तो वह व्यापार संभाल भी लेता. खानापीना, मौजमस्ती, यही उस की दिनचर्या थी. सीधा खड़ा होने के लिए भी उसे बैसाखी की जरूरत पड़ती थी तो वह कारोबार क्या संभालता?‘व्यापार के सिलसिले में मेरा अनुभव शून्य से बढ़ कर कुछ भी नहीं था. जमीन पर मजबूती से खड़े रहने के लिए मुझे भी बाबूजी के पार्टनरों, भागीदारों का सहयोग चाहिए था पर अम्मा को न जाने क्या सूझा कि वह फोन पर ही सब को बरगलाने लगीं. शायद उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि उन की बेटी उन के पति का कारोबार चला कर पूरी धनसंपदा हथिया लेगी और उन्हें और उन के बेटे को दरदर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर देंगी.‘धीरेधीरे बाबूजी के सभी पार्टनर हाथ खींचते गए. मेरी दिनरात की मेहनत भी व्यापार को आगे बढ़ाने में सफल नहीं हो सकी.

हार कर व्यापार बंद करना पड़ा. बहुत रोए थे बाबूजी उस दिन. उन की आंखों के सामने ही उन की खूनपसीने से सजाई बगिया उजड़ गई थी. लेकिन अम्मा की आंखों में न विस्मय था न पश्चात्ताप बल्कि मन ही मन उन्होंने दूसरी योजना बना डाली थी और एक दिन बेहोशी की हालत में पति से अंगूठा लगवा कर पूरा मकान और बैंक बैलेंस सोहन के नाम करवा कर ही उन्होंने चैन की सांस ली थी.‘कालेज की पढ़ाई, ट्यूशन, बाबूजी की तीमारदारी में कंटीली बाढ़ की तरह जीवन उलझता चला गया. जितनी आमद होती, अम्मा और सोहन उस रकम पर यों टूटते जैसे कबूतरों के झुंड दानों पर टूटते हैं.’कहतेकहते सिसक उठी थी सुवीरा. होंठों पर हाथ रख कर गिरीश ने उस के मुंह पर चुप्पी की मोहर लगा दी थी. 2 दिन तक प्रसव पीड़ा से छटपटाने के बाद औपरेशन से जुड़वां बेटों को जन्म देने में कितनी पीड़ा सुवीरा की शिथिल काया ने बरदाश्त की थी, यह तो गिरीश ही जानते थे.दिन बीतते गए. सोहन की आवारागर्दी देख सुवीरा का मन दुखी होता था. सोचती इस के साथ पूरा जीवन पड़ा है, कमाएगा नहीं तो अपनी गृहस्थी कैसे चलाएगा? कई धंधे खुलवा दिए थे सुवीरा और गिरीश ने पर सोहन महीने दो महीने में सबकुछ उड़ा कर घर बैठ जाता. उस पर अम्मा उस की तारीफ करते नहीं अघातीं.एक दिन अचानक खबर मिली कि सोहन का ब्याह तय हो गया. जिस धीरेंद्र की लड़की के साथ शादी तय हुई है वह गिरीश के अच्छे दोस्त थे. सुवीरा यह नहीं समझ पा रही है कि अम्मा ने कैसे उन्हें विश्वास में लिया कि वह अपनी बेटी सोहन के साथ ब्याहने को तैयार हो गए.सगाई से एक दिन पहले ही सुवीरा अम्मा के पास चली गई थी. दोनों पक्षों से उस का रिश्ता था. गिरीश ने भी पूरा सहयोग दिया था. सुवीरा ने घर सजाने से ले कर सब के नाश्ते आदि का इंतजाम किया पर अम्मा ने बड़ी खूबसूरती से सारा श्रेय खुद ओढ़ लिया. उस का मन किया, ठहाका लगा कर हंसे. आत्मप्रशंसा में तो अम्मा का जवाब नहीं.ब्याह के कार्ड बंटने शुरू हो गए. आस और उम्मीद की डोर से बंधी सुवीरा सोच रही थी कि शायद इस बार अम्मा खुद आ कर बेटी को न्योता देंगी लेकिन अम्मा को न आना था न वह आईं. हां, निमंत्रण डाक से जरूर आ गया था.

गिरीश ने पत्नी के सामने भूमिका बांध कर रिश्तों के महत्त्व को समझाया था, ‘सोहन का ब्याह है, सुवीरा, चलना है.’गुस्से से सुवीरा का चेहरा तमतमा गया था, ‘सगाई पर बिना निमंत्रण के चली गई तो क्या अब भी चली जाऊंगी?’‘यह आया तो है निमंत्रण,’ गिरीश ने टेबल पर रखा गुलाबी लिफाफा पत्नी को पकड़ाया तो स्वर प्रकंपित हो उठा था सुवीरा का, ‘डाक से…’‘छोटीछोटी बातों को क्यों दिल से लगाती हो? रिश्ते कच्चे धागों से बंधे होते हैं. टूट जाएं तो जोड़ने मुश्किल हो जाते हैं.’जोर से खिलखिला दी सुवीरा उस समय. भाई के विवाह में शामिल होने की इच्छा अब भी दिल के किसी कोने में दबी हुई थी. मन में ढेर सारी उमंगें लिए दोनों बेटों और पति के साथ जनवासे पहुंची तो मेहमानों की आवभगत में उलझ अम्मा को यह भी ध्यान नहीं रहा कि बेटीदामाद आए हैं.मित्रों, परिजनों की भीड़ में अपना मनोरंजन खुद ही करने लगे थे गिरीश और सुवीरा. पार्टी जोरशोर से चल रही थी. हंसीठट्ठे का माहौल था. अचानक तारिणी की चिल्लाहट सुन कर दोनों का ध्यान उस ओर चला गया.विक्रम को पकड़े अम्मा कह रही थीं, ‘भीम की तरह 40 पूरियां खा गया, ऊपर से कीमती गिलास भी तोड़ दिया.’दौड़तीभागती सुवीरा जब तक मूल कारण तक पहुंचती, अम्मा जोर से चीखने लगी थीं. सहमीसकुची सुवीरा इतना ही कह पाई थी, ‘गलती से गिर गया होगा अम्मा. जानबूझ कर नहीं किया होगा.’अचानक गिरीश की आंखों से चिंगारियां बरसने लगीं. बिना कुछ खाए ही जनवासे से लौट आए थे और सास को सुना भी दिया था, ‘सोहन की ससुराल से आए सामान की तो आप को चिंता है लेकिन बेटीदामाद और उन के बच्चों की आवभगत की जरा भी चिंता नहीं है.’घर लौटने के बाद भी फोन घुमा कर चोट खाए घायल सिंह की तरह ऐसी पटखनी दी थी सास तारिणी को कि तिलमिला कर रह गई थीं, ‘अम्मा, मेरे बेटे ने आप की 40 पूरियां खाई हैं या 50, आप चिंता मत करना. मुझ में इतना दम है कि आप के उस खर्च की भरपाई कर सकूं.’वह रात सुवीरा ने जाग कर काटी. पीहर के हर सुखदुख में सहभागिता दिखाते उन के पति का इस तरह अपमान क्यों किया अम्मा ने आत्मविश्लेषण किया. उसे ही नहीं जाना चाहिए था भाई के ब्याह में. हो सकता है अम्मा बेटीदामाद को बुलाना ही न चाहती हों. डाक के जरिए न्योता भेज कर महज औपचारिकता निभाई हो.विक्रम और विनय अब जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके थे. मानअपमान की भाषा भी खूब समझने लगे थे.

मां को धूर्तता का उपहार देने वाले लोगों से बच्चों को कतई हमदर्दी नहीं थी. कितनी बार मनोबल और संयम टूटे. गिरीश की बांहों का सहारा न मिला होता तो सुवीरा कब की टूट चुकी होती.एक दिन अचानक दीनदयाल के मरने का समाचार मिला. कांप कर रह गई सुवीरा उस दिन. अब तक दीनदयाल ही ऐसे थे जो संवेदनात्मक रूप से बेटी से जुड़े थे. मां की मांग का सिंदूर यों धुलपुंछ जाएगा, सुवीरा ने कभी इस की कल्पना भी नहीं की थी. पति चाहे बूढ़ा, लाचार या बेसहारा ही क्यों न हो, उस की छत्रछाया में पत्नी खुद को सुरक्षित महसूस करती है.अब क्या होगा, कैसे होगा, सोचतेविचारते सुवीरा मायके जाने की तैयारी करने लगी तो पहली बार अंगरक्षक के समान पति और दोनों बेटे भी साथ चलने के लिए तैयार हो उठे. एकमत से सभी ने यही कहा कि वहां जा कर फिर से अपमान की भागी बनोगी पर सुवीरा खुद को रोक नहीं पाई थी. मोह, ममता, निष्ठा, अपनत्व के सामने सारे बंधन कमजोर पड़ते चले गए थे. ऐसे में सीमा ने ही साथ दिया था.‘जाने दीजिए आप लोग मां को. ऐसे समय में तो लोग पुरानी दुश्मनी भूल कर भी एक हो जाते हैं. यह भी तो सोचिए, नानाजी मां को कितना चाहते थे. कोई बेटी खुद को रोक कैसे सकती है.’मातमी माहौल में दुग्धधवल साड़ी में लिपटी अम्मा के बगल में बैठ गई थी सुवीरा. दिल से पुरजोर स्वर उभरा था. सोहन के पास तो इतना पैसा भी नहीं होगा कि बाबूजी की उठावनी का खर्चा भी संभाल सके. भाई से सलाह करने के लिए उठी तो लोगों की भीड़ की परवाह न करते हुए सोहन जोरजोर से चीखने लगा, ‘चलो, जीतेजी न सही, बाप के मरने के बाद तो तुम्हें याद आया कि तुम्हारे रिश्तेदार इस धरती पर मौजूद हैं.’चाहती तो सुवीरा भी पलट कर इसी तरह उसे अपमानित कर सकती थी. जी में आया भी था कि इन लोगों से पूछे कि चलो मैं न सही पर तुम लोगों ने ही मुझ से कितना रिश्ता निभाया है पर कहा कुछ नहीं था. बस, खून का घूंट पी कर रह गई थी.लोगों की भीड़ छंटी तो सोहन की पत्नी से पूछ लिया था सुवीरा ने, ‘बैंक में हड़ताल है और मुझ से इस घर की आर्थिक स्थिति छिपी नहीं है.

ऐसे मौकों पर अच्छीखासी रकम की जरूरत होती है. इसीलिए कुछ पैसे लाई थी, रख लो.’‘क्यों लाई है पैसे?’ मां के मन में पहली बार परिस्थितिजन्य करुणा उभरी थी पर सोहन का स्वर अब भी बुलंद था.‘तुम मदद करने नहीं जायदाद बांटने आई हो. जाओ बहना, जाओ. अब तुम्हारा यहां कोई भी नहीं है.’सोहन की पत्नी ने कई बार पति को शांत करने का असफल प्रयास किया था लेकिन गिरीश अच्छी तरह समझ गए थे कि सोहन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है. दंभी इंसान हमेशा दूसरे को गलत खुद को सही मानता है.‘इस बदजबान को हम सुधारेंगे,’ जवानी का खून कहीं अनर्थ न कर डाले, इसीलिए सुवीरा ने रोका था अपने बेटों को.‘हम कौन होते हैं किसी को सुधारने वाले? स्वभाव तो संस्कारों की देन है.’लेकिन गिरीश उद्विग्न हो उठे थे.‘सुवीरा, कब तक आदर्शों की सलीब पर टंगी रहोगी? खुद भी झुकोगी मुझे भी झुकाओगी जिन लोगों में इनसानियत नहीं उन से रिश्ता निभाना बेवकूफी है. यदि आज के बाद तुम ने इन लोगों से संबंध रखा तो मेरा मरा मुंह देखोगी.’घर लौट कर गिरीश ने कई बार अपनी दी हुई शपथ का विश्लेषण किया था पर हर बार खुद को सही पाया था. जिन रिश्तों के निभाने से तर्कवितर्क के पैने कंटीले झाड़ की सी चुभन महसूस हो, गहन पीड़ा की अनुभूति हो, उसे तोड़ देना क्या गलत था? कहते समय कब सोचा था उन्होंने कि सुवीरा का पड़ाव इतना निकट था?बेहोशी की दशा में सन्नाटे को चीरते हुए सुवीरा के होंठों से जब सोहन और अम्मा का नाम छलक कर उन के कानों से टकराया तो उन्हें महसूस हुआ कि इतना सरल नहीं था सब. सिरहाने बैठे विक्रम की हथेलियों को हौले से थाम कर सुवीरा ने अपने शुष्क होंठों से सटाया, फिर चारों ओर देखा. उस की नजरें मुख्यद्वार पर अटक कर रह गईं.‘‘सुवीरा, विगत को भूल जाओ. मांगो, जो चाहे मांगो. मैं अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखूंगा.’’‘‘अंतिम समय में इस धरती से विदा लेते समय कांटों की गहरी चुभन झेलते हुए प्राण त्याग कर मुझे कौन सी शांति मिलेगी?’’‘‘क्यों इतना दुख करती हो? संबंधजन्य दुख ही तो दुख का कारण होते हैं,’’ दीर्घ निश्वास भर कर गिरीश ने पत्नी को सांत्वना दी थी.‘‘देखना, मेरे मरने के बाद ये लोग समझेंगे कि मेरा निश्छल प्रेम किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता था. मुझे तो सिर्फ प्यार के दो मीठे बोल और वैसी ही आत्मीयता चाहिए थी जैसी अम्मा सोहन को देती थीं.’’घनघोर अंधेरे में सुवीरा की आवाज डूबती चली गई. शरीर शिथिल पड़ने लगा, आंखों की रंगत फीकी पड़ने लगी. धीरेधीरे उन के चेहरे की तड़प शांत हो गई. स्थिर चिरनिद्रा में सो गई सुवीरा.पत्नी की शांत निर्जीव देह को सफेद चादर से ढक उन की निर्जीव पलकों को हाथों के दोनों अंगूठों से हौले से बंद करते हुए गिरीश आत्मग्लानि से घिर गए. पश्चात्ताप से टपटप उन की आंखों से बहते आंसू सुवीरा की पेशानी को न जाने कब तक भिगोते रहे.‘‘अपनी अम्मा और भाई को एक नजर देखने की तुम्हारी अभिलाषा मेरे ही कारण अधूरी रह गई. दोषी हूं तुम्हारा. गुनहगार हूं.

मुझे क्षमा कर दो.’’जैसे ही सुवीरा के मरने का समाचार लोगों तक पहुंचा, भीड़ का रेला उमड़ पड़ा. गिरीश और दोनों बेटों की जानपहचान, मित्रों और परिजनों का दायरा काफी बड़ा था.तभी लोगों की भीड़ को चीरते हुए सोहन और तारिणी आते दिखाई दिए. बहन की शांत देह को देख सोहन जोरजोर से छाती पीटने लगा. उसे देख तारिणी भी रोने लगीं.‘‘अपने लिए तो कभी जी ही नहीं. हमेशा दूसरों के लिए ही जीती रही.’’‘‘हमें अकेला छोड़ गई. कैसे जीएंगे सुवीरा के बिना हम लोग?’’नानी का रुदन सुन दोनों जवान बेटों का खून भड़क उठा. मरने के बाद मां एकाएक उन के लिए इतनी महान कैसे हो गईं? दंभ और आडंबर की पराकाष्ठा थी यह. यह सब मां के सामने क्यों नहीं कहा? इन्हीं की चिंता में मां ने आयु के सुख के उन क्षणों को भी अखबारी कागज की तरह जला कर राख कर दिया जो उन्हें जीवन के नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर सकते थे.उधर शांत, निर्लिप्त गिरीश कुछ और सोच रहे थे. कमल और बरगद की जिंदगी एक ही तराजू में तौली जाती है. कमल 12 घंटे जीने के बावजूद अपने सौंदर्य का अनश्वर और अक्षय आभास छोड़ जाता है जबकि 300 वर्ष जीने के बाद जब बरगद उखड़ता है तब जड़ भी शेष नहीं रहती.कई बार सुवीरा के मुंह से गिरीश ने यह कहते सुना था कि प्यार के बिना जीवन व्यर्थ है. लंबी जिंदगी कैदी के पैर में बंधी हुई वह बेड़ी है जिस का वजन शरीर से ज्यादा होता है. बंधनों के भार से शरीर की मुक्ति ज्यादा बड़ा वरदान है.सुवीरा की देह को मुखाग्नि दी जा रही थी लेकिन गिरीश के सामने एक जीवंत प्रश्न विकराल रूप से आ कर खड़ा हो गया था. कई परिवार बेटे को बेटी से अधिक मान देते हैं. बेटा चाहे निकम्मा, नाकारा, आवारागर्द और ऐयाश क्यों न हो, उसे कुल का दीपक माना जाता है, जबकि बेटी मनप्राण से जुड़ी रहती है अपने जन्मदाताओं के साथ फिर भी उतने मानसम्मान, प्यार और अपनत्व की अधिकारिणी क्यों नहीं बन पाती वह जितना बेटों को बनाया जाता है. यदि इन अवधारणाओं और भ्रांतियों का विश्लेषण किया जाए तो रिश्तों की मधुरता शायद कभी समाप्त नहीं होगी.

Car Safety : ऐसे रखें कार की सेहत का ख्याल

Car Safety : जीवन का एक और पहलू जिस में लोगों की बुरी आदतें होती हैं, चाहे उन्हें पता हो या न, वह है गाड़ी चलाते समय का. कोई भी व्यक्ति परफैक्ट ड्राइवर नहीं होता, लेकिन कुछ ऐसी ड्राइविंग आदतें होती हैं जो आने वाले समय में कार में गंभीर समस्याएं पैदा कर सकती हैं.

कार खरीदने के लिए बड़ी रकम की आवश्यकता होती है. कोई लोन ले कर खरीदे या अपनी जमापूंजी का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर के. बहुत लोगों के लिए यह सपना है जो लाइफटाइम में एक बार ही पूरा हो पाता है. तब क्यों न हम अच्छे से इस की देखभाल करें. हमारी कुछ बुरी आदतें होती हैं जो कार हैल्थ के लिए दुश्मन हैं-

पार्किंग ब्रेक न लगाना

ढलान पर पार्किंग ब्रेक नहीं लगाना कभी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है. समतल पर भी पार्किंग ब्रेक लगाना चाहिए. आजकल नई गाडि़यों में इन्हें न लगाना कार के लिए बुरा है. इसे नहीं लगाने से कार का पूरा लोड ट्रांसमिशन सिस्टम के एक छोटे से पुर्जे, जिसे पार्किंग पौल कहते हैं, पर आ जाता है. इस के चलते इस का वियर टियर (घिसना, टूटना) जल्दी होता है और कभी टूट भी सकता है.

तेल की टंकी खाली या बहुत कम तेल रखना

अकसर तेल की टंकी में कुछ लोग बहुत कम पैट्रोल या डीजल रखते हैं. फ्यूलपंप तेल में डूबे रहने से पंप ठंडा रहता है और बेहतर काम करता है. कहीं ऐसा न हो पैट्रोलपंप पर थोड़ाथोड़ा तेल भरवाने की आदत के चलते फ्यूलपंप ही न बदलना पड़ जाए.

रिवर्स गियर के बाद तत्काल फौरवर्ड गियर लगाना

जब कार रिवर्स गियर में हो तो उसे पूरी तरह रुकने के बाद ही फौरवर्ड गियर लगाएं. अकसर कुछ लोग बिना पूरा रुके रिवर्स से फौरवर्ड गियर में आने की भूल कर बैठते हैं. इस के चलते गियर ट्रेन पर बुरा असर होता है.

स्टार्ट के तुरंत बाद रेस देना

कार स्टार्ट करने के बाद ही कुछ लोग जल्दबाजी में इसे एक्सिलरेटर दबा कर रेस देते हैं. स्टार्ट करने के बाद एक से दो मिनट तक इसे औयलिंग करने दें. ऐसा करने से इंजन के सभी पुर्जों तक लुब्रिकेटिंग औयल पहुंचने से इंजन ब्लौक और इंजन औयल का टैंपरेचर धीरेधीरे सामान्य हो जाता है तुरंत रेस देने से अचानक तापमान बढ़ जाता है जिस से इंजन के पुर्जों पर स्ट्रैस पड़ता है.

गियर लीवर पर हाथ रखना

हमारे यहां अभी भी ज्यादातर कार में मैन्युअल ट्रांसमिशन है यानी गियर चेंज हाथ से गियर लीवर की मदद से करते हैं. कुछ लोगों में इस लीवर पर अकसर एक हाथ रखे रहने की आदत होती है, इस से ट्रांसमिशन सिस्टम के बुश पर स्ट्रैस पड़ता है और यह जल्दी खराब हो सकता है, इसलिए गियर शिफ्टर को गियर बदलते समय ही हाथ लगाएं. बेहतर है, दोनों हाथ स्टीयरिंग व्हील पर रहें ताकि इमरजैंसी में गाड़ी को आसानी से कंट्रोल कर सकें.

क्लच पर पैर रखना

मैन्युअल ट्रांसमिशन में अकसर हम बाएं पैर को क्लच पैडल पर रखने की भूल करते हैं, खासकर सिग्नल पर. सिग्नल ग्रीन होने पर जल्द से जल्द गियर में डाल कर हम आगे निकलना चाहते हैं. क्लच का इस्तेमाल गियर चेंज करने में ही करें, इस पर अनावश्यक रूप से पैर का दबाव पड़ने से इस का डिस्क घिसता है और रिलीज बियरिंग को भी नुकसान होता है. इस आदत से क्लच जल्दी खराब होता है.

अनावश्यक लोडिंग या ओवरलोडिंग

कार में अनावश्यक सामान रखना या ज्यादा पैसेंजर लोड करना ठीक नहीं. लोड जितना ज्यादा होगा उतना ही ज्यादा स्ट्रैस सस्पैंशन, ब्रेक और ड्राइवर ट्रेन पर तो पड़ेगा ही, तेल की खपत भी ज्यादा होगी. अकसर कार के ट्रंक में अनावश्यक चीजें पड़ी रहती हैं.ढलान पर ब्रेक पैडल दबाए रखना: ढलान पर उतरते समय कुछ लोग स्पीड ज्यादा रखते हैं और उसे कंट्रोल करने के लिए ब्रेक का बारबार इस्तेमाल करते हैं. इस के चलते ब्रेक पैड्स और पहिए के ड्रम गरम होते हैं. ऐसे में ब्रेक के जल्दी खराब होने का खतरा होता है और साथ में कुछ ईंधन भी बरबाद होता है. ढलान पर स्पीड को लो गियर में रख कर कंट्रोल करें, इस स्थिति में ब्रेक भी बेहतर काम करते हैं.

वार्निंग साइन अनदेखा करना

कार में कभी असामान्य गतिविधि को अनदेखा न करें, जैसे वाइब्रेशन यानी कंपन, चरचराहट या चींचीं जैसी आवाज या नौकिंग. शुरू में ही चैक कर इस का निदान कर लेना चाहिए वरना यह बढ़ कर किसी मुसीबत या बड़े खर्चे को निमंत्रण देना हो सकता है.

फ्लोरिंग करना

कुछ लोग आदत से या कभी सिर्फ फन के लिए कार के एक्सिलरेटर पैडल को बहुत ज्यादा दबा कर अचानक कार की स्पीड बहुत बढ़ा देते हैं, फिर ब्रेक पैडल को पूरा दबा कर कार रोक देते हैं. अचानक एक्सिलरेट करने से ट्रांसमिशन सिस्टम और ड्राइव ट्रेन पर काफी जोर पड़ता है और साथ ही, ईंधन बरबाद होता है. अचानक ब्रेक लगाने से ब्रेक पैड्स बहुत गरम हो जाता है और ब्रेक पैड्स व पहिए (ड्रम) का वियर टियर ज्यादा होता है.

Emotional Story : मां और मैं

Emotional Story : मैं जो था, वह मैं अच्छी तरह समझता और महसूस करता था. बाबा यह सब स्वीकार करते हुए शायद शर्मिंदगी महसूस करते थे लेकिन मां ने मुझे जगजाहिर कर मुझे मेरी नजरों में ‘अनमोल’ बना दिया था. ‘‘संतोष, कितना आसान है न, सारी गलतियों का बो झ महिलाओं पर डालना. क्या कभी तुम ने मेरे नजरिए से कुछ देखनेसम झने की कोशिश की है?’’ आई कहने लगीं.इस पर खी झ कर बाबा ने कहा, ‘‘रेणु, तुम औरतों का तो काम ही है कि अपनी गलती कभी मानो ही न और दूसरों को सम झाती रहो कि वह तुम्हें सम झे. खैर, मु झे तुम से बहस ही नहीं करनी. तुम हो ही ऐसी. एक तो औलाद भी ऐसी दी है जिस ने कही मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. उलटा, मु झे ही शर्म आ जाए और ऊपर से तुम्हारी बकबक. कितना प्रैशर होता है दिमाग पर तुम्हें पता भी नहीं होगा. तुम तो घर में रहती हो, कभी बाहर जा कर खुद कमाओ तो पता चले. आई कान्ट बियर बोथ औफ यू एनीमोर. आई रियली कान्ट बियर दिस. मैं जा रहा हूं और सीधे कल सुबह ही आऊंगा एक नया बम फोड़ने.’’ और गुस्से से दरवाजे को जोर से बंद करते हुए चले गए. एक तरफ जहां मुंबई जैसे बड़े शहर के एक छोटे से इलाके में हर रोज किसी को ट्रैफिक के शोर की आवाज, किसी को रेडियो, तो किसी को अपने देर होने की घंटी सुनाई देती, तो कोई अपने में मग्न रहता है. यहां देश के सब से अमीर लोग रहते हैं जिन के करोड़ों के बंगले हैं तो गरीबों की सब से बड़ी बस्ती भी
यहीं ही है लेकिन मजाल इन अमीरों की कि इस शहर को आदर्श कहा जाए. वही किचकिच, मगजमारी, तूतूमैंमैं. आर्थिक राजधानी तो यह शहर बन गया है लेकिन लगता है अमीरों के लिए, बाकी गरीबों के लिए तो लोकल ट्रेन के थर्ड क्लास के डब्बे भर रह गए हैं जिन में खचाखच भीड़, उमस और सड़न है. सड़न हर तरह की है, कभी ऊंचनीच की, कभी अमीरगरीब की तो कभी लिंगभेद की. इन सब के बीच एक मैं हूं, जिसे लोग ‘बीच’ का कह देते हैं, जानते हो बीच का क्या होता है? हिजड़ा, किन्नर, छक्का. मेरे जीवन में रोजरोज की ये सारी चीजें ऐसे घुस गई हैं जैसे मेरी बुक का मोस्ट इंपौर्टैंट क्वैश्चन हो जो इस साल के 12वीं बोर्ड एग्जाम में जरूर पूछा जाएगा. मु झे लगता है कि बाबा आई से नहीं बल्कि मु झ से नाराज हैं. शायद आई और बाबा को लगता है कि मु झे इस बात से फर्क नहीं पड़ता पर मु झे भी बाबा की बातें बुरी लगती हैं. आई एम नौट ए किड एनीमोर पर आई को रोता देख मैं कभी अपनी फीलिंग्स नहीं बता पाता. मु झे याद है बचपन में जब मैं ने पहली बार आई से पूछा था कि औलाद क्या होती है और जवाब में मु झे आई ने बताया था कि जो बच्चा सम झदार हो और मातापिता को तंग न करे वह अच्छी औलाद है और मैं मन ही मन उस समय खुश हुआ करता था कि मैं एक अच्छी औलाद हूं. लेकिन बाबा की तरफ से तो मु झे सिर्फ नफरत का एहसास होता रहा है.

मैं बचपन में अपने बाबा को किसी हीरो से कम नहीं सम झता था. दिखने में मु झे एकदम फिल्मी हीरो अक्षय कुमार जैसे दिखते थे और आज भी उन की शक्ल काफी हद तक वैसी ही दिखती है. बस, फर्क सिर्फ भयानक मूंछ का है. बाबा की मूंछ देख कर सब यही सम झते थे कि वे जरूर कोई आर्मी अफसर होंगे जबकि असल में उन की चौपाटी के पास वाली रोड पर कपड़ों की छोटी सी दुकान है.और आई, मेरी आई, मेरे लिए आज के टाइम की वे मौडर्न लेडी जैसी हैं जो दिखने में बहुत सुंदर लगती हैं, वे सुशील भी हैं, उन के बाल अभी तक वैसे ही काले और बड़े हैं जैसा कि मैं ने बचपन में देखा था और जब वे उन बालों का जूड़ा बना कर उस में गजरा लगाती थीं तब तो मानो कोई अप्सरा हो. सिर्फ यही नहीं, मेरी आई, बाबा से ज्यादा पढ़ीलिखी भी हैं. मैं कई बार सोचता हूं कि अगर आई को मिसवर्ल्ड के लिए चुना जाए तो इस में कोई नई बात न होगी. बस, आई की एक ही दिक्कत है और वह है उन का समाज के चार लोगों का मेरे लिए डर. मु झे आज भी याद है, जब मैं ने 10वीं बोर्ड क्लास में अपना स्कूल बदला था तब मैं ने अपने एडमिशन फौर्म में आई से पूछा था, ‘जैंडर वाले कौलम में क्या लिखूं?’ और आई ने हर बार की तरह डरते हुए कहा था, ‘मेल लिख दो.’ मैं कभी आई को दुखी नहीं करना चाहता, इसलिए मैं ने बिना कुछ सोचे आई की बात मान ली थी पर यह सचमुच मेरे लिए सोचने वाली बात है कि सिर्फ मेरी आई ही नहीं, क्या सभी लोग मु झ जैसे लोगों से डरते हैं? क्यों आखिर ‘मेल और फीमेल’ के अलावा हमारे पास विकल्प नहीं होते?पर मैं आई को खुल कर बताना चाहता हूं कि मेरा मन भी कभीकभी उन की तरह कपड़े पहन कर, तैयार हो कर घूमने का होता है, मैं भी चाहता हूं कि लड़कों के जैसे नहीं बल्कि लड़कियों के जैसे तरहतरह के फैशन वाले कपड़े पहनूं. बिलकुल उन्हीं की तरह मेकअप करूं और वह सब करूं जो मैं करना चाहता हूं. काश, आई ने मु झे इस के लिए रोकटोक न लगाई होती. पर मैं जरूर एक दिन आई को, बाबा को, दोस्तों को और सभी को पूरी दुनिया को चीखचीख कर सारी बात बताना चाहता हूं कि मैं अपनी लाइफ को अपनी तरह से जीना चाहता हूं. समाज के डर से लड़का बन कर नहीं, खुले मन से लाइफ एंजौय करना चाहता हूं. अपनी मरजी के कपड़े पहनना चाहता हूं. अपने दोस्तों को अपने बारे में खुल कर बताना चाहता हूं और सिर्फ स्कूल ही नहीं सभी जगह खुशीखुशी मेल या फीमेल नहीं, ‘ट्रांसजैंडर’ लिखना चाहता हूं. खुले आसमान में अपनी मरजी से अपनी तरह जीना चाहता हूं. ये सारी दिल की इच्छाएं न जाने कब पूरी होंगी. मु झे अभी तक यह बात याद है जब पड़ोस वाली दादी पिछले महीने हमारे घर आई थीं तब वे मेरी आई से कह रही थीं, ‘तुम्हारा बेटा कितना सुंदर दिखता है, एकदम गोरा, चटक रंग जैसे कोई सफेद फूल हो और बाल तो ऐसे भूरे हैं जिन्हें देख कर कोई भी कह दे कि यह जरूर कोई विदेशी होगा. कदकाठी भी ठीक है पर शरीर में लचीलापन एकदम लड़कियों सा है और बात करने का ढंग, बैठने का ढंग और यहां तक बातें भी एकदम ऐसे करता है जैसे मेरी नटखट पोती हो. काश, यह लड़का नहीं लड़की होता पर जो भी हो, इस के रहते तुम्हें बेटी की कमी नहीं खलती होगी.’’ और दोनों हंसने लगी थीं.

आई का तो पता नहीं पर मु झे यह सुन कर बहुत अच्छा लगा था. काश, यह सच हो जाए. उस के बाद तो मैं खुल कर जितनी चाहे उतनी लड़कियों से दोस्ती कर पाऊंगा पर ऐसा सोचते ही दूसरे पल मु झे बाबा की नफरतभरी निगाहें आंखों के सामने आने लगीं.मैं ने एक बार आई और बाबा की लड़ाई में सुना था कि आई ने सिर्फ मेरे कारण अपनी स्कूल टीचर वाली सरकारी नौकरी छोड़ दी थी जिस के लिए आई ने दिनरात एक कर के एग्जाम क्लीयर किया था. नौकरी छोड़ने पर बाबा ने उन्हें बहुत डांटा था. मु झे  लगता है आई को पता चल गया था कि बाबा मु झे मेरे ही जैसे लोगों के साथ मौका मिलते ही छोड़ आएंगे. शायद इसलिए आई कभी मु झे अकेले नहीं छोड़तीं. और इसलिए मु झे बाबा बिलकुल उस बिल्ली की तरह लगते हैं जो चूहे पर घात लगाए बैठी रहती है जिस में बलि चढ़ने वाला चूहा मैं ही हूं और आई को मेरे लिए समाज के 4 लोग वाली चिंता करते देख कर समाज बिलकुल उस भूखे शेर की तरह लगता है जो चूहाबिल्ली जैसे सभी छोटेमोटे जानवरों को खा जाएगा. मेरे लिए तो बिल्ली का शिकार होना और शेर का शिकार होना दोनों एक ही बात हैं क्योंकि शिकार आखिर मैं ही हूं. पर मैं हर बार यह सोचता हूं कि अगर मैं अपनेआप को शिकार न मानूं तो अच्छा रहेगा. आखिर मु झ जैसे कितने ही लोग इस दुनिया मे होंगे जो किसी न किसी बात से परेशान हैं पर मैं अपनेआप को इतना कमजोर भी नहीं मानता क्योंकि मेरे पास मेरी आई है और आई के पास मैं. पर क्या मेरे जैसे सब लोगों के पास आई होगी? इस की उम्मीद कम है पर कोर्ट तो है न, जो सहीगलत का फैसला करता है, तभी तो मेरे जैसे कितने लोग कोर्ट तक चले गए हैं और आज भी अपनी मनमरजी से अपनी इच्छा के लाइफ पार्टनर के साथ शादी करने के लिए लड़ रहे हैं. मु झे बस कल का इंतजार है. मु झे लगता है मैं आई से जा कर कह दूं कि बाबा जैसे इंसान को वे छोड़ दें, अब मैं सबकुछ अकेले कर सकता हूं. लेकिन आई को उन की मरजी के बगैर कुछ ऐसी बात कहने में हिचक होती है जो उन्हें नाराज कर दे. खैर, जो भी हो, मैं तो हमेशा आई के साथ ही हूं.पर आज आई सचमुच इतनी मायूस बैठी हैं जितनी वे मेरे भाई को खोने के बाद बैठी थीं. मु झे वह पल बिलकुल अभी के जैसा लग रहा है, ऐसा ही घुप्प अंधेरा और उस में आई की सिसकियोंभरी आवाज और मैं डर के मारे एक कोने से आई को देखे जा रहा था. वैसा ठीक अभी भी हो रहा है. काश, कोई आ कर उजाला कर दे. और न जाने कैसे और कब मेरी आंख लग गई, नींद तब टूटी जब बाबा आ चुके थे और आई से तलाक जैसी कुछ बातें बोल रहे थे और आई, आई तो जैसे यह सुन कर जिंदा लाश सी बनी हुई थीं जिन के सिर्फ आंसू ऐसे निकल रहे हों मानो किसी ने पानी का नल खोल दिया हो और बंद करना भूल गया हो.और मैं? आखिर मैं भी तो यही चाहता हूं कि बाबा हमारी जिंदगी से चले जाएं और सारे आंसू, दुख और परेशानी ले कर जाएं. फिर आई और मैं बहुत खुश रहेंगे पर आई तो जैसे पत्थर बनी हुई हैं. आज बाबा के कहने पर उन्हें मु झ में और बाबा में से किसी एक को चुनना होगा.

अब भला पत्थर कभी कुछ बोल सकता है क्या? बहुत देर बाद आई ने रोंआसीभरी आवाज में कहा, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हें तलाक देने के लिए तैयार हूं पर उस के पहले तुम्हें कल की पार्टी तक साथ रहना होगा और उस में हमारे रिश्तेदार, पड़ोसी, समाज के लोग जैसे सभी लोग होने चाहिए.’’बिना कुछ सोचे गुस्से में बाबा ने हामी भर दी.लेकिन मेरी आंखें अब भी आई से सवाल लिए बैठी हैं कि आखिर वे ऐसा क्यों करना चाहती हैं? क्या सभी के सामने वे बाबा का तमाशा बनाएंगी? नहींनहीं, इतना तो मैं जानता हूं आई को. पर बाबा? उन्होंने भी आई से इस का कारण क्यों नहीं पूछा? और कल इतनी जल्दी सब कैसे हो पाएगा. पर करना ही क्यों है? दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद मु झे ध्यान आया कि कल ही के दिन मेरा भाई इस दुनिया को विदा कर के चला गया था और शायद हर बार की तरह इस बार भी उस की पुण्यतिथि में सब को बुलाया जाता है जिस के लिए सालभर बाबा अपनी छोटी सी कमाई का बहुत छोटा सा हिस्सा हर महीने जमा करते हैं. काश, इतना सब मेरे लिए किया होता तो मु झे 10वीं बोर्ड में अपना स्कूल छोड़ कर सरकारी स्कूल में एडमिशन न लेना पड़ता पर अभी तो बात तलाक की थी, इस में यह सब कहां से आ गया?अगले दिन मेरी आंखें फटी ही रह गईं जब आई ने मु झे तैयार करने के लिए मु झे वह महंगी ड्रैस पहनाई जो मैं ने एक बार फोन में दिखाई थी. आज पहली बार आई ने मेरे दिल की ख्वाहिश पूरी की है. इस ड्रैस में मैं बिलकुल उन लड़कियों जैसा लगूंगा जो बहुत सुंदर दिखती हैं. ऐसा नहीं है कि आई ने मु झे कभी लड़कियों वाले कपड़े नहीं पहनाए पर ऐसे किसी पार्टी के लिए इस तरह से तैयार करवाना, यह पहली बार हुआ है. लेकिन इस से ज्यादा खुशी मु झे आज आई को देख कर हो रही है. आज वे इतनी खुश लग रही हैं जितनी खुश वे मेरे बोर्ड एग्जाम के रिजल्ट में मैरिट लाने पर हुई थीं पर ऐसा क्या हुआ है जिस से एक ही रात में आई के चेहरे पर असीम शांति वाली मुसकान है? मैं आई से कहना चाहता हूं कि आज अगर पार्टी में लोगों ने मु झे लड़कियों वाले कपड़ों में देख लिया तो फिर बाबा का सिर शर्म से झुक जाएगा, लेकिन उन्हें यह सब पता होने के बाद भी ऐसा क्यों कर रही हैं? आज सम झ आया ‘दिमाग का दही’ किसे कहते हैं. पार्टी हर बार की तरह इस बार भी हमारे घर के बगल वाले घरनुमा हौल में है. जिन का वह घर है वे विदेश में रहते हैं. कभीकभार छुट्टियों में आते हैं. ऐसे में बाबा को मुफ्त में एक बड़ा सा हौल मिल जाता है और टैंट का पैसा भी बच जाता है और घर असल में काफी अमीर लोगों का है तो उस में ज्यादा सजावट जैसे ताम झाम की जरूरत कभी पड़ी ही नहीं.

देखते ही कोई भी बोल दे कि अभीअभी इस को रेनोवेट करवाया हो. ऊपर से दिन के समय टैंट में गरमी भी तो बहुत लगती है.खैर, मु झे पता है, हर बार की तरह इस बार भी एक टेबल पर मेरे भाई की जन्म वाला एक फोटो फ्रेम और उस के सामने एक बड़ा सा दीया और उस के सामने अलग से टेबल पर एक थाली में परोसा हुआ आज का खाना जो मेरी पसंद का है आदि सब रखा है और आसपास कैटरिंग लगी हुई हैं जिन के खाने की मजेदार खुशबू नाक में दौड़ रही है.सभी लोगों के आने पर बाबा ने हर बार की तरह इस बार भी मेरे मर चुके भाई की याद में दीप जलाया और वही घिसीपिटी लाइन बोली जो वे हर बार बोलते हैं, ‘जैसा कि आप सभी को पता है, आज ही के दिन हमारे घर बेटा आया था और कुछ पल साथ रह कर जन्म लेने के कुछ पल बाद ही हम से दूर चला गया. उस की याद हमेशा मेरे दिल में रहेगी, इसलिए इस दिन को उस की याद में सैलिब्रेट करते हैं.’ और हर बार की तरह इस बार भी मैं कमरे में रह कर उन की बातों को अनसुना कर ही रहा था कि इतने में आई मु झे अपने साथ वहां ले जाने आईं जहां बाबा अभी ‘प्रवचन’ दे ही रहे थे.मेरा दिल बहुत तेजी से धड़क रहा है, ऐसा लग रहा था कि अब दिल फट कर बाहर आ ही जाएगा. पता नहीं क्या होगा जब किसी को पता चलेगा कि मैं लड़का नहीं हूं तो सब कैसे देखेंगे, क्या सोचेंगे सभी? सब आई और बाबा का मजाक तो नहीं बनाएंगे? कहीं सभी लोग मिल कर उन लोगों के पास तो नहीं भेज देंगे मु झे? नहींनहीं, यह नहीं होगा कभी भी.पर मैं जो सोच रहा था, वही, वही हो रहा है. आई जैसे ही मु झे लोगों के बीच ले जा रही हैं, लोगों के देखने का नजरिया अलग हो रहा है. जैसे ही मैं बाबा के पास पहुंचा, आई ने सब के सामने बोलना शुरू किया, ‘‘आज के दिन आप सभी को एक जरूरी बात भी बताना चाहती हूं, हमारा बेटा अनमोल असल में लड़का या लड़की नहीं बल्कि ट्रांसजैंडर है और मु झे यह बताते हुए बिलकुल भी शर्म नहीं आ रही है. अब तक यह बात सिर्फ संतोष, मु झे और अनमोल को ही पता है.‘‘पर मु झे यह बात इतने सालों तक छिपाने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि मु झे डर था कि समाज के 4 लोग कहीं न कहीं कुछ ऐसा जरूर बोलते जो मैं अपने बच्चे के लिए नहीं सुन सकती. माना मेरा बेटा बोल नहीं सकता पर बुरा तो उसे लग ही सकता है न. लेकिन अब मेरा बेटा बड़ा हो गया है और सब सम झने भी लगा है.

यह अभी 12वीं क्लास में है और साथ ही, एक छोटामोटा राइटर भी. मु झे लगता है कि समाज के डर से मैं ने यह सब किया है पर अब मैं आप सभी से यह पूछना चाहती हूं कि क्या मेरे बेटे को आप लोगों की तरह जीने का हक नहीं है?’’ और न जाने क्याक्या आई ने कह डाला होगा जो बातें मेरी सम झ के बाहर हो रही थीं. इस बात से मैं इतना डर गया कि मैं उस जगह से भाग कर सीधे अपने कमरे में जा कर छिप गया जहां कोई मु झे ढूंढ़ न पाए. मु झे सम झ नहीं आ रहा था कि आई ने एक सांस में ये सारी बातें इतनी आसानी से कह दीं, क्या आई को डर नहीं लगा?मु झे इस समय बाहर पार्टी में सभी लोग भूखे खूंखार शेर की तरह लग रहे हैं जो देखते ही मु झे खा जाएंगे. बस, आई मु झे हर बार की तरह इस बार भी बचा लेंगी ऐसा मुझे लगता है और शायद अभी जो कुछ भी आई कर रही हैं, वह भी मेरे लिए अच्छा ही साबित हो.बहुत लंबे समय तक अपने कमरे में बैठने के बाद मु झे लग रहा था आई मेरे पास जल्दी आ जाएंगी पर वे अभी तक नहीं आईं तो मैं ने अपने कमरे में नजरें घुमाना शुरू कर दिया. मैं ने आज से पहले कभी इस कमरे को इतना गौर से नहीं देखा था. सचमुच इस कमरे में मैं ने और आई ने मिल कर कितनाकुछ सजाया है और इस दीवार पर लगी मेरी और आई की बड़ी सी तसवीर बहुत खूबसूरत लग रही है और दीवार पर टंगी झालर भी आई के पायल की तरह आवाज कर रही है और यह पिक्चर वाल, इस में तो मेरे बनाए हुए वे सारे पिक्चर्स और स्कैच रखे हैं जो मैं ने बचपन से ले कर अभी तक बनाए हैं. सचमुच कितना सुंदर लगता है यह कमरा, मु झे आज पता चला. 2 कमरे और एक किचन वाले एक छोटे से घर में भी आई ने मेरी सारी जरूरतों को पूरा किया है. मेरे और दूसरे कमरे को देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि ये दोनों ही कमरे एक ही घर के हैं. मेरा रूम किसी शानदार हवेली से कम नहीं होगा. शायद ज्यादा जरूरत तो घर की बाकी चीजों को सुधारने की है, जैसे आई का टूटा हुआ फोन जो अभी तक हैंग होता है पर मेरे पास उस से अच्छा फोन है. दूसरे, कमरे की छत जो किसी पुरानी घिसी जूती की तरह है जिस में से हर बार बारिश में पानी टपकता है, ऊपर से बढ़ती महंगाई और बाबा की कम कमाई. बाबा भी करे तो अब क्या ही करे. कुछ दिनों से लगातार कारोबार में घाटा ही तो हो रहा है. लेकिन इन सब में कभी भी आई ने मु झे इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि हम मिडिल क्लास फैमिली से हैं. सचमुच मु झे इस बात की भी सम झ अब जा कर आई कि इस कमरे में ऐसा कोई भी समान नहीं है जिस में मेरे साथ मेरी आई का अस्तित्व न हो और जो नफरत मु झे बाबा से थी वह तो अब हवा में उड़ सी गई. और यह सब देखने के बाद मैं एकाएक कमरे से बाहर निकल आया. न जाने इतनी हिम्मत मु झ में कहां से आई पर मैं सीधा पार्टी की तरफ तेज कदमों के साथ चल दिया और सीधे जा कर आज बाबा के पास खड़ा हो गया.मुझे लग रहा था कि बाबा मु झ से दूर चले जाएंगे लेकिन यह क्या, बाबा खुद मुझे, मेरा हाथ पकड़ कर मेहमानों के बीच ले गए.

मेहमानों से जितना बन सका उतना इशारों में बात करने की कोशिश मैं ने की. बाकी काम बाबा ने संभाल लिया. आई मु झे यह सब करते देख मुसकराने लगीं तो मैं सम झ गया कि आई ने हर बार की तरह आखिर सब ठीक कर ही दिया. और सच में जब मैं ‘सो कौल्ड’ समाज के 4 लोगों से बातें करने लगा तब मु झे यह सम झ आया कि शायद यह सब एक अनसुल झे रहस्य की तरह है जो हम अपने समाज के प्रति अपने मन में छिपाए रहते हैं और जब हम इन रहस्यों को अपने मन में सुल झा लेते हैं तब हमें यह समाज भी हम से जुड़ा हुआ दिखाई देता है. उस समयसमाज के उन लोगों से बात करते समय मु झे उन्होंने किसी अलग तरीके से महसूस भी नहीं होने दिया. मैं यह सोचता हूं कि जब हम उन लोगों को अपनी उलझनें बताएंगे और उन से जू झने का रास्ता भी, तब शायद सभी एकता के साथ हम से सहमत हो कर हमारे साथ, हमारी हिम्मत बन सकते हैं.खैर, जो भी होता है, अच्छा होता है. मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि आज का दिन इतना अच्छा जाएगा. रात में मैं ने आज पहली बार आई और बाबा को प्यार से बात करते देखा और तलाक जैसे शब्द तो मानो हवा में ठीक उसी तरह गायब हो चुके थे जैसे पानी भाप बन कर उड़ कर गायब हो जाता है.और आई समाज के जिन लोगों से डरा करती थीं उन लोगों ने भी आज बहुत प्यार से बात की और यह साबित कर दिया कि हमें समाज से नहीं, खुद के विचारों से लड़ना होता है. मु झे ये पल बहुत अच्छे लग रहे हैं. सच कहूं तो समाज हमेशा हमारे साथ ही होता है, बस, फर्क इतना है कि उस का निर्णय हमें लेना होता है कि हमें समाज का साथ अच्छे या बुरे तरीके से चाहिए. मु झे लगता था कि मेरे ट्रांसजैंडर होने पर समाज मु झे मार डालेगा पर ऐसा नहीं है. समाज में एकता हमेशा से ही रही है और लोगों का नजरिया तो हम से और हमारे व्यवहार से बनता है. सचमुच, मैं शायद सही सोच रहा हूं.

 

लेखिका : आयुषी खवादे 

Best Hindi Story : बड़ी मिन्नतों के बाद हुआ बेटा

Best Hindi Story : बड़े जतन से आलोक और वाणी ने बेटे शिखर को पाया था. धीरेधीरे वाणी महसूस करने लगी थी कि पति आलोक धृतराष्ट्र की तरह पुत्रमोह में बंधे जा रहे हैं लेकिन वाणी ने गांधारी की तरह आंखों पर पट्टी नहीं बांधी थी. ‘‘मु बारक हो, बेटा हुआ है.’’ नर्स ने आलोक की गोद में बच्चे को देते हुए कहा. आलोक ने अपने नवजात बेटे को गोद में लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो आंखों से आंसू बह निकले. पिता बनने की खुशी हर आदमी के लिए खास होती है लेकिन आलोक के लिए ‘बहुत खास’ थी. गोद में ले बेटे को एकटक देखता रहा. चेहरे पर संतुष्टिभरी मुसकराहट खिल गई और उस ने बेटे को सीने से लगा लिया. मन ही मन खुद से वादा किया कि मैं सारी दुनिया की खुशी अपने बच्चे को दूंगा, वह भी बिना मांगे.आलोक और वाणी की शादी को 8 साल बीत चुके थे लेकिन वे संतान सुख से वंचित थे. इन 8 सालों में उन दोनों ने न जाने कितने डाक्टर बदले और कितने ही मंदिरों की चौखटों पर माथे रगडे़, अनगिनत मन्नतें, हवनयज्ञ, जिस ने जो उपाय बता दिया, वह किया. जब इंसान चारों तरफ से निराश होने लगता है तो इन सब अंधविश्वासों के घेरे में आ जाता है. लेकिन इन सब से कोई फायदा नहीं होता. इसलिए इन दंपती, यानी आलोक और वाणी का भी कोई फायदा न हुआ. रिश्तेदार तरहतरह के उपायउपचार बताने के साथ ही कभी सामने तो कभी पीछे ताने मारने से भी नहीं चूकते थे. कोई सहानुभूति के नाम पर हेय दृष्टि से देखता तो कोई अपने बच्चों को वाणी से दूर रखने की कोशिश करता.

आलोक और वाणी सब समझने के बाद भी कुछ न बोलते, बस, खून का घूंट पी कर रह जाते. वाणी ने दबी आवाज में बच्चा गोद लेने के लिए कहा तो परिवार में बवाल मच गया.‘पता नहीं किस का बच्चा होगा?’‘कौन सी बिरादरी का होगा?’‘अगर बच्चा लेना ही है तो रिश्तेदारी में से ही लो. ’एकदो धनलोलुप रिश्तेदारों ने तो अचानक उन से मेलजोल बढ़ाना भी शुरू कर दिया. आलोक और वाणी सब समझते थे, इसलिए उन्होंने रिश्तेदारों का बच्चा गोद लेने से साफ मना कर दिया. इस के बाद जो ताने दबी जबान में दिए जाते थे वे मुंह पर मिलने लगे.‘बांझ है, हम तो तरस खा कर अपना बच्चा दे रहे थे लेकिन एटिट्यूड तो देखो जरा, हूंह, हमें क्या, रहो ऐसे ही बेऔलाद.’वाणी आलोक के सीने से लग रो लेती लेकिन किसी को पलट कर जवाब न देती. उस वक्त दोनों ने संतान की उम्मीद छोड़ दी. लेकिन किस के लिए क्या होने वाला है, यह कोई जानता तो जिंदगी कितनी आसान लगती.इतने बरस के इंतजार के बाद वाणी की प्रैग्नैंसी की खबर ने रेगिस्तान से तपते मन को शीतल कर दिया था. पूरे 9 महीने आलोक ने वाणी का हद से ज्यादा ध्यान रखा. रैगुलर चैकअप, खानपान, मूड स्विंग आदि सब को संभालता आलोक एकएक दिन गिन रहा था. वहीं रिश्तेदारों के मुंह पर ताले लग गए थे.आलोक और वाणी की सारी दुनिया अब उन के बच्चे तक सिमट गई थी. जिस बच्चे के लिए उन्होंने सालों तपस्या की थी वह अब उन के सामने था. बड़े चाव से नाम रखा ‘शिखर.’ आलोक ने सारा घर खिलौनों से भर दिया. सोतेजागते, बस, शिखर ही उस के दिमाग में रहता. जितने समय घर में रहता, बेटे को गोद में रखता, इस बात पर अकसर वाणी से उस की बहस भी हो जाती. ‘‘आलोक, शिखर को हर वक्त गोद में रखोगे तो यह चलना कैसे सीखेगा?’’‘‘चलने लगेगा. मैं अभी इसे नीचे नहीं छोड़ूंगा, कहीं चोट लग गई तो?’’वाणी, आलोक के इस रवैए से खीझ जाती लेकिन आलोक का प्यार करने का यही तरीका था. नतीजा यह हुआ कि शिखर ने चलना देर से शुरू किया और अपने हाथ से खाना तो उसे 9 साल की उम्र में आया.‘‘मम्मा, आज मैम ने मुझे डांटा.’’‘‘क्यों?’’‘‘मैं ने सान्या को धक्का दिया था,’’ कह कर वह शरारत से मुसकरा दिया.उस की बात से वाणी को बहुत तेज गुस्सा आया तो आलोक ने हंस कर बात टाल दी, ‘‘मैं कल तुम्हारी टीचर से मिल कर आता हूं. ऐसे कैसे डांट सकती हैं मेरे क्यूट से बच्चे को.’’‘‘आलोक, यह गलत है. शिखर ने गलती की है और तुम उसे शह दे रहे हो.’’आलोक ने वाणी की बात अनसुनी कर शिखर को गोद में उठा लिया.वक्त अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था और शिखर भी बड़ा होने लगा.

आलोक बेटे के मुंह से निकली हर बात पूरी करता, फिर वह जायज हो या नाजायज. ऐसा नहीं था कि वाणी अपने बेटे को कम प्यार करती थी लेकिन वह समझती थी कि अच्छी परवरिश के लिए सख्ती भी जरूरी है और आलोक को भी सम?ाती लेकिन आलोक न तो खुद शिखर को कुछ कहता और न ही वाणी को कहने देता. आलोक के इसी रवैए के कारण 14 साल का शिखर एक जिद्दी और बिगड़ैल किशोर बन गया.अपनी जिद मनवाने के लिए उसे बहुत ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती थी. जिस दोस्त के पास जो चीज देख लेता वही उस को भी चाहिए होती थी. अगर कभी वाणी मना कर देती तो शिखर जोरजोर से चिल्लाता और हंगामा खड़ा कर देता क्योंकि उसे तो बचपन से ही मन की करने की आदत थी. वाणी के लिए यह सब बरदाश्त से बाहर था लेकिन आलोक उसे कुछ कहने नहीं देता. सच तो यह था कि आलोक अब खुद भी शिखर के जिद्दी स्वभाव के चलते अंदर ही अंदर परेशान था लेकिन धृतराष्ट्र की तरह पुत्रमोह में बंधा था, ऐसा मोह संतान का सर्वनाश करता है, यह बात उस की समझ में नहीं आ रही थी. आज शिखर ने स्कूल से वापस आते ही स्कूल बैग एक तरफ फेंक, जूते उतारते हुए फरमान जारी किया, ‘‘मम्मा, मुझे मोबाइल चाहिए.’’ उस के स्वर में रिक्वैस्ट नहीं और्डर था.वाणी ने शिखर को पलट कर देखा और खाना लगाते हुए ही बोली, ‘‘तुम्हें फोन की क्या जरूरत है?’’‘‘मेरे सब दोस्तों के पास फोन है, एक मेरे ही पास नहीं है.’’‘‘ठीक है, मेरा पुराना फोन रखा है, उसे ले लेना.’’‘‘पुराना? क्या बोल रही हो, मैं पुराना फोन यूज करूंगा? मुझे नया फोन चाहिए,’’ रोब के साथ चिल्लाते हुए वह बोला.‘‘शिखर.’’‘‘रहने दो मम्मा, मैं पापा से बात कर लूंगा. आप तो मुझे प्यार ही नहीं करतीं,’’ वाणी की बात बीच में ही काट शिखर पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया.

वाणी ने उस से बहस करना ठीक नहीं समझा.पिछले कुछ समय से खर्चे बढ़ गए थे. नया मकान लिया था और कार की इंस्टौलमैंट भी जाती थी, ऐसे में किसी और खर्च की गुंजाइश नहीं थी. शाम को आलोक के घर में घुसते ही शिखर ने फिर वही बात छेड़ दी. आलोक ने भी उसे पुराना फोन लेने को कहा. लेकिन शिखर कहां मानने वाला था.‘‘पापा, बता रहा हूं, नया फोन चाहिए, वह भी आईफोन.’’आलोक पहली बार किसी बात के लिए शिखर को मना करते हुए बोला, ‘‘नहीं बेटा, अभी मैं इतना खर्चा नहीं कर सकता. नया फोन कुछ महीने बाद दिलवा दूंगा, तब तक पुराने फोन से काम चला लो.’’शिखर के लिए यह अविश्वसनीय था कि पापा किसी बात के लिए उसे मना कर दें. वह आंखें फाड़ कर आलोक को देख रहा था. गुस्से से शरीर कांप रहा था, चेहरा लाल हो गया था.‘‘मतलब, आप मुझे फोन नहीं दिलवा रहे हो?’’‘‘बेटा, मेरी बात तो समझ, मैं मजबूर हूं.’’वाणी वहीं खड़ी सब देख रही थी और उसे आलोक का बेटे के सामने इस तरह मजबूरी जताना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. इस से पहले वह कुछ कहती, शिखर चिल्लाया, ‘‘पापा, अगर कल मेरा फोन नहीं आया तो…’’ ‘‘तो?’’ आलोक ने कहा.‘‘मैं सुसाइड कर लूंगा, पापा.’’आलोक सुन्न हो गया. उस का 14 साल का वह बेटा जु उस की जिंदगी का केंद्र था, उसे मरने की धमकी दे रहा था. सहसा आंखों के सामने आएदिन अखबारों में आने वाली आत्महत्या की खबरें घूम गईं. आलोक से खड़ा नहीं रहा गया, वहीं फर्श पर बैठ गया. अगर शिखर ने कुछ कर लिया तो? मैं कैसे जी पाऊंगा, चक्कर आ गया. दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया. तभी, एक आवाज से चौंक कर ऊपर देखा, ‘चटाक,’ वाणी ने शिखर को खींच कर चांटा लगाया और एक पर नहीं रुकी, लगातार मारती रही.‘‘तुझे मरना है न, ठीक है, इस घर में आज तक तेरी हर बात मानी जाती रही है, यह भी मानी जाएगी, बोल कैसे मरना है?’’ और शिखर को खींचते हुए बालकनी की ओर ले जाने लगी.‘‘चल, तुझे यहीं 10वें फ्लोर से धक्का दे कर किस्सा खत्म करती हूं.’’शिखर को ऐसी उम्मीद बिलकुल भी न थी, वह तो सिर्फ डरा रहा था लेकिन मां का यह रूप देख बुरी तरह घबरा गया. वाणी का गुस्सा देख उसे लगा वह सच में शिखर को बालकनी से फेंक देगी.‘‘नहीं मम्मा, मुझे नहीं मरना. सौरी मम्मा, सौरी.’’वाणी ने शिखर का गिरेबान पकड़ लिया, ‘‘कान खोल कर सुन ले, आज कह रही हूं दोबारा नहीं कहूंगी, बेशक तुझे हम ने बड़ी मन्नतों से पाया है और तू हमें बेहद प्यारा है लेकिन हमारे प्यार का गलत फायदा उठाने की कोशिश कभी मत करना. तेरी कोई भी जिद, और बदतमीजी आज के बाद इस घर में बरदाश्त नहीं होगी. और हां, जब मरने की इच्छा हो, मुझ से कहना. मैं अपने हाथों से तेरी जान लूंगी लेकिन इस तरह की सुसाइड की धमकी से डर कर नहीं रहेंगे हम.’’‘‘तेरे पापा ने हमेशा तुझे हद से ज्यादा प्यार दिया, बहुत बार समझाया भी मैं ने लेकिन उन्हें तेरे प्यार के सामने और कुछ दिखता ही नहीं था. वे भूल गए थे कि ‘भय बिनु होय न प्रीति.’ आलोक ने वाणी की तरफ देख सहमति में सिर हिला दिया.

 

लेखिका : संयुक्ता त्यागी 

Narendra Modi : क्या प्रधानमंत्री को इतिहास से कोई भय नहीं है?

Narendra Modi : सूचना के दायरे में प्रधानमंत्री को ले कर किस तरह की जानकारियां हासिल की जा सकती हैं, यह विवाद का विषय बना हुआ है. डिग्री मामला और पीएम केयर फंड को ले कर सवाल उठते रहे हैं पर संतुष्टि भरे जवाब मिल नहीं पाए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शिक्षा संदर्भित जानकारी सूचना अधिकार के तहत नहीं ली जा सकती. यह विवाद आज एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहां कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शायद अमिताभ बच्चन के इस डायलोग को याद कर लिया है, “हम जहां से खड़े होते हैं लाइन वहीं से शुरू होती है.”

यानी की हम जो कहेंगे वही सही है, चाहे वह कानून की किताब में लिखी हो या न, समाज की किताब में लिखी हो या न, दुनियादारी में उचित हो या न. अरे भाई…! अमिताभ बच्चन का यह डायलोग एक फिल्मी मात्र है. अमिताभ के पास जब कभी यह बात आती है तो हंस कर टाल जाते हैं और सारी दुनिया जानती है की फिल्म और हकीकत की दुनिया में बेहद अंतर होता है.

आज जब नरेंद्र मोदी की शिक्षा संबंधी जानकारी को कोई लेना चाहता है तो उसे यह कह कर टाल दिया जा रहा है कि यह उन की व्यक्तिगत जानकारियां हैं जबकि सारी दुनिया जानती है कि प्रधानमंत्री या जो भी सार्वजनिक शख्स हैं उन की हर वह जानकारी सार्वजनिक है जिस से उन का कोई अहित न होता हो. ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतिहास से अपनेआप को ऊपर समझते हैं. वे भूल जाते हैं कि इतिहास नीर क्षीर विवेचन के साथ दुनिया के बड़े से बड़े शहंशाह को भी जमीन पर ला कर खड़ा कर देता है.

ऐसे में देश में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किसी डिग्री को न दिया जाए उस के लिए पूरी सत्ता की ताकत अगर लग गई है तो उस का क्या अर्थ है. यह तो बच्चाबच्चा समझ सकता है.

दरअसल, हाल ही में, दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक मुद्दा उठाया है. डीयू ने कहा है, “सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून का उद्देश्य किसी तीसरे पक्ष की जिज्ञासा को संतुष्ट करना नहीं है, बल्कि सार्वजनिक प्राधिकारों के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना है.”

इस मामले में, केंद्रीय सूचना आयोग ने 21 दिसंबर, 2016 को उन सभी छात्रों के अभिलेख के निरीक्षण की अनुमति दी थी, जिन्होंने 1978 में बीए परीक्षा उत्तीर्ण की थी. लेकिन डीयू ने कहा है कि यह आदेश ‘मनमाना’ और ‘कानून की दृष्टि से अस्थिर’ है क्योंकि जिस जानकारी का खुलासा करने की मांग की गई वह ‘तीसरे पक्ष की व्यक्तिगत जानकारी’ है.

यह मुद्दा हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि आरटीआई कानून कैसे रोका जा रहा है. यह कानून हमारे देश में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था. इस मामले में, डीयू ने कहा है कि आयोग के आदेश का याचिकाकर्ता और देश के सभी विश्वविद्यालयों के लिए ‘दूरगामी प्रतिकूल परिणाम’ होंगे, जिन के पास करोड़ों छात्रों की डिग्री है. यह एक गंभीर मुद्दा है जिस पर हमें ध्यान देना होगा.

इसलिए, हमें आरटीआई कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह कानून हमारे देश में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिए उपयोग किया जाता है, न कि किसी तीसरे पक्ष की जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए.

यहां यह समझने वाली बात है कि प्रधानमंत्री एक सार्वजनिक व्यक्ति होने के नाते, उन की कई जानकारियां सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होती हैं. लेकिन, यह भी महत्वपूर्ण है कि कुछ जानकारियां, व्यक्तिगत और संवेदनशील हो सकती हैं, जिन्हें सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाइट पर उन के बारे में कई जानकारियां उपलब्ध हैं, जैसे कि उन के कार्यकाल, उन की उपलब्धियां, और उन के सार्वजनिक भाषण. लेकिन, उन की व्यक्तिगत जानकारियां जैसे उन के स्वास्थ्य स्थिति के बारे में, या उन के व्यक्तिगत वित्तीय मामलों के बारे में, सार्वजनिक नहीं की जाती हैं. यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में कई जानकारियां सार्वजनिक नहीं की जाती हैं क्योंकि वे राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति, या अन्य संवेदनशील मामलों से संबंधित हो सकती हैं. इसलिए, कुछ जानकारियां व्यक्तिगत और संवेदनशील हो सकती हैं.

अगर शिक्षा संदर्भित जानकारी को व्यक्तिगत माना जाएगा, तो यह फर्जीवाड़ा और धोखाधड़ी को बढ़ावा दे सकता है. लोग अपनी योग्यता और डिग्री के बारे में झूठ बोल सकते हैं और इस का फायदा उठा सकते हैं.

यह एक बड़ा खतरा है क्योंकि इस से न केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि समाज और देश के लिए भी नुकसान हो सकता है. अगर कोई व्यक्ति फर्जी डिग्री के साथ डाक्टर या इंजीनियर बन जाता है, तो इस से लोगों की जान जोखिम में पड़ सकती है.

इसलिए, यह जरूरी है कि शिक्षा संदर्भित जानकारी को सार्वजनिक किया जाए ताकि लोगों को अपनी योग्यता और डिग्री के बारे में सही जानकारी मिल सके. इस से फर्जीवाड़ा और धोखाधड़ी को रोकने में मदद मिलेगी और समाज में विश्वास और पारदर्शिता बढ़ेगी.

अगर कोई व्यक्ति वकील होने का दावा करता है और उस की वकालत की डिग्री कोई नहीं देख सकता, तो इस से कई समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं.

यह न्यायपालिका की विश्वसनीयता को कम कर सकता है. अगर कोई व्यक्ति वकील होने का दावा करता है और उस की योग्यता की जांच नहीं की जा सकती, तो इस से न्यायपालिका की विश्वसनीयता कम हो सकती है. यह समाज में अव्यवस्था और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकता है.

इसलिए, यह जरूरी है कि वकालत की डिग्री और अन्य योग्यताओं की जांच की जा सके. इस से न्यायपालिका की विश्वसनीयता बढ़ेगी, लोगों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं होगा और समाज में अव्यवस्था और भ्रष्टाचार को रोकने में मदद मिलेगी.

अगर प्रधानमंत्री की डिग्री को नहीं बताया जाएगा, तो इस से कई परेशानियां उत्पन्न हो सकती हैं. लोगों को अपने नेताओं की योग्यता और शैक्षिक पृष्ठभूमि के बारे में जानने का अधिकार है, और अगर यह जानकारी छिपाई जाती है तो इस से लोगों का विश्वास टूट सकता है. लोग अपनी योग्यता और डिग्री के बारे में झूठ बोल सकते हैं और इस का फायदा उठा सकते हैं.

दरअसल, विपक्षी दलों और कुछ मीडिया संगठनों ने आरोप लगाया था कि मोदी ने अपनी शैक्षिक योग्यता के बारे में झूठ बोला है. विवाद का केंद्र बिंदु यह था कि मोदी ने अपने चुनावी हलफनामे में दावा किया था कि उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की है. हालांकि, जब विपक्षी दलों और मीडिया संगठनों ने दिल्ली विश्वविद्यालय से मोदी की डिग्री की प्रति मांगी तो विश्वविद्यालय ने कहा कि वह इस जानकारी को सार्वजनिक नहीं कर सकता है.

इस के बाद, केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने दिल्ली विश्वविद्यालय को निर्देश दिया कि वह मोदी की डिग्री की जानकारी सार्वजनिक करे. हालांकि, दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस आदेश को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की. उच्च न्यायालय ने इस मामले में सुनवाई की और कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय को मोदी की डिग्री की जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए. हालांकि, यह मामला अभी भी न्यायालय में लंबित है.

इस विवाद के बारे में बात करते हुए, यह कहा जा सकता है कि यह एक राजनीतिक मुद्दा है जिसे विपक्षी दलों और मीडिया संगठनों ने उठाया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वयं सामने आ कर के अपनी सारी जानकारी सार्वजनिक कर देनी चाहिए और यह उदाहरण पेश करना चाहिए कि प्रधानमंत्री देश का होता है उस का एकएक पैसा और सभी जानकारियां कोई भी देख और समझ सकता है.

Best Hindi Story : तेरी सास तो बहुत मौडर्न है

Best Hindi Story : शादी के समय ही रिश्तेदारों व जानपहचान वालों ने कहना शुरू कर दिया कि तेरी सास तो बड़ी मौडर्न है. पर नियति ही जानती है कि उस की सास उस के लिए कितनी केयरिंग है. सास के कहने पर जब नियति मायके आई तो क्या वह अपनी उन के प्रति मां की सोच बदल पाई…?

आज सुबहसुबह जैसे ही नियति का फोन श्रीकांतजी के मोबाइल पर आया, उन की पत्नी लीला ने उन्हें फोन स्पीकर पर डालने का इशारा किया और उन्होंने स्पीकर औन कर दिया.

नियति हंसती हुई बोली, “हैलो पापा, आप ने स्पीकर औन कर लिया हो और मम्मी आ गई हों तो मैं अपनी बात शुरू करूं.”

पिछले 2 महीनों से यही चल रहा है. नियति का फोन जब भी आता है, श्रीकांतजी स्पीकर औन कर देते हैं क्योंकि नियति और उस की मां लीला की बातचीत तब से बंद है, जब से नियति ने अपना निर्णय सुनाया है कि वह शादी अपने कलिग और स्कूल फ्रैंड विकल्प से ही करना चाहती है. यह बात जानते ही दोनों मांबेटी के बीच अबोलेपन ने अपना स्थान ले लिया. लेकिन जब भी नियति का फोन आता है, लीला अपने सारे काम छोड़ कर फोन के करीब आ जाती है, यह जानने के लिए कि नियति क्या कह रही है.

नियति की बातों को सुन कर लीला के चेहरे के हावभाव बनतेबिगड़ते रहते हैं, क्योंकि लीला किसी हाल में नहीं चाहती कि उन की बेटी किसी विजातीय लड़के से ब्याह करे.

वैसे, लीला क‌ई दफा विकल्प की मां मिसेज चंद्रा से नियति के स्कूल फंक्शन और पैरेंट्स टीचर मीटिंग में मिल चुकी है. मिसेज चंद्रा मौडर्न और स्वतंत्र विचारधारा की महिला है.

लीला को लगता है कि मिसेज चंद्रा जरूरत से ज्यादा ही मौडर्न है. मिस्टर चंद्रा इंडियन नेवी में वरिष्ठ अधिकारी के पद पर थे. उन का घर ग्वालियर के पौश एरिया में है और काफी आलीशान भी है. नौकरचाकर सब हैं. किसी चीज की कोई कमी नहीं है. उन के घर का वातावरण, रहनसहन थोड़ा भिन्न है, जो लीला को शुरू से ही अटपटा लगता आया है. क्योंकि लीला जहां रहती है, वहां की औरतें ना तो मिसेज चंद्रा की भांति बिना आस्तीन का ब्लाउज पहनती हैं और ना ही बिना सिर पर पल्लू लिए घर से बाहर निकली हैं. ऊपर से इन का पूरा परिवार शुद्ध शाकाहारी और उन के घर पर बिना अंडा, मांस, मछली के काम ही नहीं चलता.

श्रीकांतजी एक सुलझे हुए और सरल व्यक्तिव के धनी हैं. उन्हें इस रिश्ते से कोई एतराज नहीं, क्योंकि उन के लिए तो नियति की खुशी ही सब से बड़ी है. उन का मानना है कि जातिपांति, धर्म कुछ नहीं होता, मनुष्य की बस एक ही जाति है और एक ही धर्म होता है और वह है मानवता का धर्म. श्रीकांतजी को मिसेज चंद्रा के मौडर्न होने से भी कोई तकलीफ नहीं है.

श्रीकांतजी ने भी हंसते हुए कहा, “हां बोलो, तुम्हारी मम्मी आ गई हैं.”

“पापा, कल मैं और विकल्प ग्वालियर आ रहे हैं, फिर शाम को विकल्प के मौमडैड आप और मम्मी से हमारी शादी की बात करने आएंगे.”

श्रीकांतजी नियति को आश्वस्त करते हुए बोले, “तुम चिंता मत करो. सब ठीक होगा.”

यह सुनने के बाद नियति ने कहा, “थैंक्यू पापा, मुझे आप से एक बात और शेयर करनी है. मैं ने और विकल्प ने कंपनी चेंज कर ली है. हमारी न‌ई कंपनी का सबडिविजनल औफिस ग्वालियर में भी है तो शादी के बाद हम दोनों ग्वालियर आ जाएंगे.”

“यह तो और भी अच्छी बात है. हमारी बेटी शादी के बाद भी इसी शहर में रहेगी, हमें और क्या चाहिए. यह खबर सुनते ही तुम्हारी भाभी बहुत खुश हो जाएगी.”

भाभी का नाम सुनते ही नियति चहकती हुई बोली, “पापा, भाभी कहां है. बात तो कराइए.”

“इस वक्त तो वह किचन में व्यस्त है.”

नियति थोड़ा नाराज होती हुई बोली, “पापा, मैं ने मम्मी से कितनी बार कहा है कि एक फुल टाइम मैड रख लो, सुबह से ले कर रात तक भाभी बेचारी घर के कामों में ही उलझी रहती है. यहां तक कि उन के पास अपने खुद के लिए भी समय नहीं होता. और मम्मी हैं कि कुछ समझती ही नहीं. उन्हें लगता है कि घर का सारा काम बहू का ही है. ऊपर से भाभी को सारे काम साड़ी पहन कर करने पड़ते हैं. उन्हें काम करने में कितनी असुविधा होती है.

“पापा आप मम्मी को समझाइए, वक्त तेजी से बदल रहा है. अब मम्मी को भी थोड़ा बदलना होगा. अच्छा पापा, अब मैं फोन रखती हूं.”

ऐसा कह कर नियति ने फोन रख दिया.

नियति के फोन रखते ही लीला के चेहरे का रंग गुस्से से लाल हो गया और वह बड़बड़ाती हुई कहने लगी, “लो… अब ये छोरी सिखाएगी मुझे बहू से क्या काम करवाना है और क्या नही. खुद को तो ढेलेभर की अक्ल नहीं. एक ऐसी औरत की बहू बनने को उतावली हुए जा रही है, जिसे हमारी संस्कृति का जरा सा भी ज्ञान नहीं. ना तो वह अपने सिर पर पल्लू लेती है और ना ही उसे छोटेबड़े का लिहाज है. शादी हो जाने दो, फिर पता चलेगा मौडर्न सास कैसी होती है.”

लीला को अपनी स्वयं की बेटी के लिए इस प्रकार मुंह से आग उगलता देख श्रीकांतजी बोले, “अब बस भी करो लीला, मिसेज चंद्रा मौडर्न हैं, इस का मतलब यह नहीं कि वे बुरी हैं या फिर बुरी सास ही साबित होगी, कम से कम अपनी बेटी के लिए तो अच्छा सोचो और अच्छा बोलो. विकल्प अपने पैरेंट्स के साथ हम से मिलने आ रहा है. कल न‌ए रिश्तों की नींव पड़ने वाली है. मैं नहीं चाहता कि किसी भी रिश्ते की शुरुआत खटास से हो.”

श्रीकांतजी के ऐसा कहते ही लीला कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए बगैर वहां से चली गई.

दूसरे दिन नियति आ गई. शाम की पूरी तैयारियां जोरों पर थीं. वह वक्त भी आ गया, जब विकल्प अपने पैरेंट्स के साथ नियति के घर पहुंचा.

मिसेज चंद्रा की खूबसूरती आज भी बरकरार थी. उसे देखते ही लीला मन ही मन कुड़कुड़ाने लगी. जवान बेटे की मां और ये साजोसिंगार, अपनी उम्र तक का लिहाज नहीं. आग लगे ऐसे मौडर्ननेस को, लेकिन मिसेज चंद्रा इन सब से बेखबर, घर के सभी सदस्यों के साथ बड़ी आत्मीयता से मिल रही थी. बातों ही बातों में मिसेज चंद्रा ने कहा, “मैं बड़ी खुश किस्मत हूं, जो मुझे नियति जैसी खूबसूरत और समझदार बहू मिल रही है. मैं ढूंढ़ने भी निकलती तो नियति जैसी बहू मुझे नहीं मिलती.”

मिसेज चंद्रा के ऐसा कहने पर लीला व्यंग्यात्मक लहजे में बोली, “खूबसूरत, समझदार के साथसाथ कमाऊ बहू भी मिल रही है मिसेज चंद्रा, ये कहना भूल ग‌ईं आप.”

लीला का ऐसा कहना श्रीकांतजी, नियति और उस के भैयाभाभी को बड़ा अटपटा और बुरा लगा, लेकिन मिसेज चंद्रा बड़े सहज भाव से लीला की बातों को हंसी में उड़ा गई. उस के कुछ सप्ताह बाद नियति और विकल्प की शादी बड़े धूमधाम से हो गई.

शादी में आए सभी मेहमानों द्वारा शादी में किए गए शानदार इंतजाम को ले कर खूब तारीफ हुई, साथ ही साथ नियति व विकल्प की भी काफी प्रशंसा हुई. इन सब के अलावा सभी की जबान पर एक और बात की चर्चा जोरों पर थी और वह थी मिसेज चंद्रा की लेटेस्ट ज्वेलरी, स्टाइलिस साड़ी और हेयर स्टाइल.

लीला के सभी सगेसंबंधी और सहेलियां उस से यह कहने से नहीं चूकीं कि लीला बहन तुम ने तो दामाद के संग समधन भी बड़ी जोरदार पाई है. नियति की सास तो बड़ी मौडर्न है. इस उम्र में इतना स्टाइल, कमाल है… तुम्हारी समधन तो काफी स्टाइलिश है.

सभी के मुंह से बस एक ही बात सुन कर कि नियति की सास तो बड़ी मौडर्न है, लीला के कान पक गए और जब नियति शादी के बाद पहली बार घर आई तो लीला नियति की खैरखबर लेने के बजाय उस से कहने लगी, “कैसी है तेरी मौडर्न सास..? सजनेसंवरने के अलावा भी कुछ करती है या बस सारा दिन केवल आईने के सामने ही बैठी रहती है.”

अपनी मां का इस तरह बातबेबात नियति को उस की सास के मौडर्न होने का ताना देना उसे अच्छा नहीं लगता, इसलिए धीरेधीरे अब नियति अपने मायके आने से कतराने लगी. बस फोन पर ही अपने पापा और भाभी से बात कर लेती.

औफिस का भी यही हाल था. नियति के हर फैंड्स और कलीग्स को बस यही जानना होता है कि उस की सास का उस के साथ व्यवहार कैसा है..? उसे परेशान तो नहीं करती है…? नियति अपनी सास के होते हुए इतना फ्री कैसे रहती है…? क्योंकि सभी को लगता है कि नियति की सास बड़ी तेजतर्रार, स्टाइलिश और मौडर्न है.

नियति को यह बात समझ ही नहीं आ रही थी कि लोग सभी को एक ही तराजू पर क्यों तौलते हैं. ऐसा जरूरी तो नहीं कि जो महिला स्टाइलिश हो, मौडर्न हो, वह तेजतर्रार और बुरी सास ही होगी और जो देखने में सिंपल हो, सीधीसादी लगती हो, वह अच्छी सास ही होगी.

एक शनिवार नियति अपने मायके में फोन कर अपनी मम्मी से बोली, “मम्मी, इस वीकेंड पर हम पिकनिक पर जा रहे हैं. मौम कह रही थीं कि आप सब भी हमारे साथ चलते तो एक अच्छा फैमिली पिकनिक हो जाएगा. आप भैयाभाभी से भी चलने को कह देना.”

नियति का इतना कहना था कि लीला भड़क उठी और कहने लगी, “हमें कहीं नहीं जाना तेरी मौडर्न सास के साथ और ना ही हमारी बहू जाएगी तुम लोगों के साथ. तुम सासबहू दोनों घूमो जींसपेंट घटका कर पूरे शहर में. तुम्हें ना सही, पर हमें तो है लोकलाज का खयाल.

“वैसे भी तुम्हारी भाभी अपने मायके इंदौर गई है और तुम्हारा पत्नीभक्त भाई उस के साथ ही गया है. दोनों यहां होते भी तो हम में से कोई ना जाता तुम्हारे मौडर्न परिवार के साथ कहीं, क्योंकि उस दिन मेरे गुरुजी का जन्मदिन है, इसलिए हमारी समिति की ओर से इस अवसर पर भव्य सत्संग रखा है. उस दिन गुरुजी सभी को दर्शन और आशीर्वाद देंगे, जो जीवन की सद्गति के लिए बहुत जरूरी है. यह सब तेरी मौडर्न सास क्या समझेगी.”

लीला का इतना कहना था कि नियति ने गुस्से में फोन काट दिया.

निर्धारित दिन पर नियति अपने पूरे परिवार के साथ इधर पिकनिक के लिए निकल पड़ी, उधर लीला और श्रीकांतजी भी गुरुजी से आशीष लेने सत्संग के लिए निकल पड़े.

आज पूरा दिन परिवार के संग इतना अच्छा समय बिता कर नियति काफी खुश थी. उसे बस इस बात का अफसोस था कि आज की इस खुशी का हिस्सा उस के अपने मम्मीपापा केवल उस की मौम की संकुचित मानसिकता की वजह से नहीं बन पाए थे.

पिकनिक से लौटते वक्त नियति इन्हीं सब बातों में गुम थी कि अचानक उस का मोबाइल बजा. फोन किसी अनजान नंबर से था. फोन रिसीव करते ही नियति की आंखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी.

यह देख नियति की सास ने उस से कारण जानना चाहा, तो नियति रोती हुई बोली, “मम्मी का फोन था. सत्संग से लौटते हुए मम्मीपापा का एक्सीडेंट हो गया है. पापा गंभीर रूप से घायल हो गए हैं. मम्मी को ज्यादा चोटें नहीं आई हैं. मोबाइल भी टूट गया है, इसलिए उन्होंने किसी दूसरे के मोबाइल से फोन किया था. भैयाभाभी भी शहर से बाहर हैं और वहां सिटी अस्पताल में पुलिस प्रक्रिया में देर होने की वजह से पापा का इलाज शुरू नहीं हो पा रहा है. मम्मी बहुत घबराई हुई हैं और परेशान हैं.”

इतना सुनते ही मिसेज चंद्रा बोलीं, “तुम्हें रोने या परेशान होने की जरूरत नहीं बेटा, शहर के डीएसपी से मेरा बहुत अच्छा परिचय है. मैं अभी उन्हें फोन कर देती हूं और अस्पताल में भी फोन कर देती हूं. वहां भी मेरी पहचान के काफी सीनियर डाक्टर हैं, वे सब संभाल लेगें. तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं और कुछ घंटों में तो हम भी शहर पहुंच ही जाएंगे.”

ऐसा कहती हुई मिसेज चंद्रा ने अपने क‌ई मित्रों और पहचान के नामीगिरामी हस्तियों को फोन कर नियति के मम्मीपापा को हर संभव मदद करने को कह दिया.

जब नियति अपने पूरे परिवार के साथ अस्पताल पहुंची, तो उस के मम्मीपापा का इलाज शुरू हो गया था. पुलिस और अस्पताल के डाक्टर व स्टाफ अपना पूरा सहयोग दे रहे थे.

यह देख एक बार फिर नियति की आंखें नम हो गईं और उस के चेहरे पर अपनी सास के प्रति आदर और कृतज्ञता के भाव उभर आए.

नियति की मम्मी 3 दिनों तक अस्पताल में एडमिट रहीं और उस के पापा 15 दिनों तक, मिसेज चंद्रा पूरी आत्मीयता से हर रोज अस्पताल में मिलने जाती. उन की वजह से नियति के मम्मीपापा को अस्पताल में कभी कोई परेशानी नहीं हुई. वहां उन का विशेष ध्यान रखा गया और अस्पताल के डाक्टरों व स्टाफ के द्वारा भरपूर सहयोग मिला. उस के बावजूद मिसेज चंद्रा के प्रति लीला के विचार और बरताव में कोई फर्क नहीं आया.

लीला अब भी अपने स्वस्थ होने और सही समय पर इलाज मिलने का श्रेय अपने गुरुजी की कृपा और आशीर्वाद को ही दे रही थी.

मिसेज चंद्रा को लीला अपने गुरुजी के द्वारा भेजा गया केवल एक माध्यम समझ रही थी, जबकि गुरुजी का इस बात से कोई वास्ता ही नहीं था.

लीला की इस प्रकार अंधभक्ति देख और बारबार अपनी ही मां से अपनी सास के लिए अपमान भरे शब्द सुनसुन कर नियति ने यह तय कर लिया कि वह अब ना तो अपने मायके जाएगी और ना ही अपनी मम्मी को फोन करेगी.

काफी दिनों तक जब नियति अपने मायके नहीं गई, तो एक दिन नियति की सास ने उस से कहा, “नियति बेटा, तुम बहुत दिनों से अपने मायके नहीं गई हो, इस संडे समय निकाल कर उन से मिल आओ. उन्हें तुम्हारी चिंता होती होगी.”

नियति अपनी सास की बात टालना नहीं चाहती थी और ना ही उन्हें सच बता कर उन का दिल दुखाना चाहती थी, इसलिए वह बोली, “जी. इस संडे चली जाऊंगी.”

संडे को जब नियति अपने मायके पहुंची, तो पापा उसे वरांडे में आरामकुरसी पर बैठे किताब पढ़ते मिल गए. काफी देर पापा के पास बैठने के बाद जब नियति अंदर गई तो उस ने देखा कि उस की मम्मी अपनी सहेलियों के साथ बैठी हंसीठिठोली कर रही है और उस की भाभी भागभाग कर सब के लिए चायनाश्ता और पानी की व्यवस्था कर रही है.

यह देख नियति अपनी भाभी का हाथ बंटाने किचन की ओर बढ़ी ही थी कि वहां बैठी उस की मम्मी की सहेलियों में से एक ने कहा, “अरे नियति, तुम कब आई? इधर आ… हमारे पास बैठ. मैं ने तो सुना है कि तेरी सास बड़ी मौडर्न है, तुम अपनी सास के साथ ससुराल में कैसे निभा रही हो?”

नियति चुप रही, फिर क्या था एक के बाद एक सभी ने नियति की सास का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया. कोई उन की लिपिस्टिक पर फिकरे कसने लगा, तो कोई हेयर स्टाइल पर, किसी को उन का इस उम्र में जींस पहनना गलत लग रहा था, तो किसी को उन के लहराते हुए आंचल से आपत्ति थी.

सभी की अनर्गल बातें सुन कर नियति से रहा नहीं गया और वह सब पर बरस पड़ी और कहने लगी, “हां, मेरी सास बड़ी मौडर्न है. वह केवल मौडर्न ड्रेस ही नहीं पहनती, उन की सोच भी मौडर्न है. वे अपनी बहू को चारदीवारी में घूंघट के पीछे घुटनभरी जिंदगी नहीं, खुली हवा में आजादी की सांस लेने देती है.

“यहां आप में से कितनी सास अपनी बहू को उन की मरजी से जीने देती है…?अपनी बहू का बेटी की तरह मां बन कर ध्यान रखती है..? लेकिन मेरी मौडर्न सास मेरा खयाल अपनी बेटी की तरह रखती है और मुझे उन के मौडर्न होने पर गर्व है. क्योंकि वह मुझे केवल बेटी बुलाती ही नहीं, अपनी बेटी समझती भी हैं. और सब से बड़ी बात यह कि बुरे वक्त में साथ खड़ी रहती हैं. ऊपर वाले की इच्छा कह कर अपना पल्ला नहीं झाड़ लेती हैं.”

नियति की बातें सुन कर सब की आंखें शर्म से झुक गईं और नियति के पापा वरांडे में बैठे मंदमंद मुसकरा रहे थे.

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