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हल्ला करने का नतीजा रेप जैसी घटनाओं के डर के कारण लड़कियों को घर की कैद

कोलकाता में महिला डाक्टर से रेप की वारदात ने सभी को झकझोर कर रख दिया है, जो कुछ भी हुआ वह वाकई में दर्दनाक था. लेकिन अब उस का फायदा उठा कर महिलाओं को घर में कैद करने की साजिश ने जोर पकड़ लिया है. ताकि महिलाएं घर में रह कर सिर्फ चूल्हा चौका संभालें. पुरुषों के साथ कंधें से कंधा मिला कर न चल पाएं. पहले भी यही कह कर महिलाओं को डराया जाता था कि घर से बाहर जाओगी तो लूट ली जाओगी, रेप का डर है और न जाने क्याक्या कह कर उन्हें धमकाया जाता रहा है. इस से तो अच्छी भली औरतें डर ही जाएंगी कि बाहर पता नहीं क्या हो रहा है, हमारा घर से बाहर निकलना सेफ नहीं है.

जबकि सच यह है कि बहुत थोड़े से लोगों में इतनी हिम्मत होती है कि वह लड़की के साथ जबरदस्ती संबंध बनाएं. लेकिन इस तरह की घटनाएं होने पर हल्ला इस तरह मचा दिया जाता है कि बाहर का माहौल बहुत खतरनाक है जगहजगह दरिंदगी हो रही है. नतीजन लोग डर जाते हैं.

रिस्क तो हर जगह है

जहां तक बाहर जाने पर रिस्क की बात है वो तो हर जगह है. जो लोग सेना में होते हैं उन्हें भी कभी भी लड़ाई करते वक्त उन के हाथपैर टूटने का डर होता है, गोली लगने और मारे जाने का रिस्क होता है, यही बात पुलिस वालों के साथ भी है, तो क्या इस डर से वे अपनी नौकरी करना छोड़ देंगे, नहीं न, तो फिर लड़कियों को आप क्यों कहते हैं कि हाय तुझे कुछ हो न जाए.

महिलाओं का नौकरी करना धर्म के खिलाफ

2017 में भी देवबंद के मौलाना व तंजीम उलेमा-ए-हिंद के प्रदेश अध्यक्ष नदीम उल वाजदी ने मुसलिम महिलाओं की नौकरी को ले कर विवादित बयान दिया था, जिस का काफी विरोध किया गया था.

वाजदी ने कहा था कि महिलाओं को सरकारी या गैर सरकारी, किसी भी तरह की नौकरी नहीं करनी चाहिए. वाजदी के मुताबिक महिलाओं का नौकरी करना इसलाम के खिलाफ है. घर का खर्चा उठाने की जिम्मेदारी मर्द की होती है, जबकि महिलाओं का काम घर और बच्चों की देखभाल करना है.

वाजदी का कहना है कि महिलाओं का नौकरी करना उसी सूरत में जायज है जब घर का खर्च उठाने वाला कोई मर्द न हो, वह चेहरे सहित खुद को ढक कर काम करे.

नौकरी ऐसी जगह होनी चाहिए जो केवल महिलाओं के लिए हो और गैर-महरम पुरुषों के साथ मेलजोल नहीं होना चाहिए. काम के दौरान उसे पूर्णतः शरई हिजाब का पालन करना चाहिए. काम पर जाते समय उसे कोई निषिद्ध कार्य नहीं करना चाहिए, जैसे ड्राइवर के साथ अकेले रहना, या परफ्यूम लगाना, जहां गैर-महरम उसे सूंघ सकें.

सिर्फ मुसलिम नहीं बल्कि हिंदू धर्म के ठेकेदार भी महिलाओं को घर बैठने और बच्चों गृहस्थी की गाड़ी चलने पर जोर देते हैं. क्योंकि अगर महिलाएं काम गई तो इन की दुकानदारी चौपट हो जाएगी. फिर कहां महिलाओं इतना समय होगा की इन बाबाओं के पास जा कर चक्कर काटें. इसलिए ये लोग खुद नहीं चाहते महिलाएं घर से बाहर निकललें. इसलिए ऐसी घटनाओं के होने के बाद महिलाओं को घर में कैद करने की साजिश ये लोग करते हैं और अच्छे पढ़ेलेखे लोग इन की बातों में आ कर बेटियों को बाहर भेजने से कतराने लगते हैं.

श्रम बल में पिछड़ती महिलाएं

धर्म के ठेकेदारों के द्वारा इस तरह का माहौल बना दिया जाता है कि पारंपरिक तय भूमिका, लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता के कारण महिलाओं के लिए घर से बाहर निकल कर काम करना बहुत चुनौतीपूर्ण है. ये सब बाधाएं भारतीय महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी को सीमित करती है. चाहते हुए भी वे नौकरी नहीं कर पाती है या फिर पूर्णरूप से उस से जुड़ी नहीं रह पाती है.

द वायर में छपी जानकारी के अनुसार पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएलएस जुलाई 2021-जून 2022) के आंकड़े बताते हैं कि 29.4 प्रतिशत महिलाएं (15-49 उम्र) ही भारतीय श्रम बल में योगदान दे रही हैं. पुरुषों में यह दर 80.7 फीसदी है. भारत में ऐतिहासिक रूप से महिलाओं की श्रम बल में कमी रही है और इस का एक बड़ा कारण महिलाओं के लिए निर्धारित जेंडर रोल्स हैं. जेंडर के आधार पर तय की गई भूमिका के कारण महिलाओं से वे घरपरिवार को ज्यादा महत्व देने की अपेक्षा की जाती है.

हाल ही में 2024 में यूनिसेफ के द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चला है कि भारतीय महिलाएं शिक्षा के तुरंत बाद शादी के बजाय नौकरी करना चाहती हैं पर उन की इच्छाओं को समझने वाला कोई नहीं है. यूनिसेफ के यूथ प्लेटफौर्म ‘युवाह’ और यू रिपोर्ट के द्वारा किए गए सर्वे में देश के 18-29 साल के 24,000 से अधिक युवाओं ने अपनी राय सामने रखीं. आउटलुक में प्रकाशित खबर के मुताबिक सर्वे के परिणाम में 75 फीसदी युवा महिलाएं और पुरुषों का मानना है कि पढ़ाई के बाद नौकरी हासिल करना महिलाओं के लिए सबसे जरूरी कदम है. इस से अलग 5 फीसदी से भी कम उत्तरदाताओं ने पढ़ाई के तुरंत बाद शादी की वकालत की है.

बाहर जौब करने व पढ़नेलिखने पर पाबंदी

इस तरह इन्हीं धर्म के ठेकेदारों की साजिश का नतीजा कि लड़कियों के बाहर जौब करने व पड़नेलिखने पर पाबंदी लगा है. इस बारे में उत्तर प्रदेश के बड़ौत की रहने वाली आस्था का कहना है, “मैं अपने आगे की पढ़ाई के लिए बेंगलुरु जाना चाहती थी और मेरे घरवाले मान भी गए थे लेकिन अब इस घटना के बाद उन्होंने साफ कह दिया है कि पढ़ाई करनी है तो या तो अपने ही शहर में करो या फिर किसी रिश्तेदार के यहां रह कर करो. हम तुम्हे इतने दूर अकेले भेजने का रिस्क नहीं ले सकते.” आस्था मायूस हो कर कहती हैं कि शायद मेरे सपने पूरे होने से पहले ही दब गए.

वहीँ अलीगढ़ के रहने वाले संदीप का कहना है कि “यह सच है हमें अपने बच्चों को बाहर भेजने से डर लगता है. हमें लड़कियों की शादी भी करनी है कुछ उल्टासीधा हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगें. और हां मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि इस तरह की घटनाओं का असर हम पर पड़ता है. बड़े शहरों वालों के लिए ये आम बात होती होगी लेकिन हमें डरा देती हैं ऐसी खबरें.

लड़केलड़कियों की मदद करने से भी घबराते हैं

इस तरह का माहौल देख कर कोई लड़की किसी भी आदमी से बात करने में घबराती है. वही आदमी भी घबराता कि अगर मैं ने लड़की की हेल्प करने की कोशिश की और इस ने डर कर शोर मचा दिया तो मैं तो बेवजह ही मारा जाऊंगा. आज की तारीख में अगर कोई लड़की कहीं जा रही है या सड़क पर परेशान खड़ी है, तो आप उसे लिफ्ट देने के लिए भी नहीं पूछ सकते क्योंकि हो सकता है वह इस का कुछ और ही मतलब निकाल ले ओर शोर मचा दे.

समाज में आपसी विशवास कम होता जा रहा है

लोग आपस में एकदूसरे पर भरोसा नहीं करते, एकदूसरे को और उन के बच्चों को शक नजर से देखते हैं. लोग सगे रिश्तेदारों के यहां अपनी लड़कियों को छोड़ने से पहले 10 बार सोचते हैं. क्या यह सही है.

सैक्स वर्कर्स के पास जाने में शर्म कैसी

यह बात हम नहीं बल्कि खुद सैक्स वर्कर्स सामने आ कर कह रही हैं. आजकल सोशल मीडिया पर कुछ सैक्स वर्कर्स सामने आ कर अपील कर रही हैं कि बाहर काम पर जाने वाली लड़कियों के साथ इस तरह की हरकत करना सही नहीं है. आप हमारे पास आएं यह हमारा काम है. इस के बदले में हम कुछ पैसे ही तो लेते हैं. लेकिन हम आप के साथ सहयोग करने को तैयार हैं. वाकई वह सही कह रही है और खुद ऐसा कहने की पहल करना एक सराहनीय कदम है. जब इन लोगों को ऐसी दरिंदगी करते शर्म नहीं आती तो फिर सैक्स वर्कर्स के पास जा कर अपनी हवस मिटने में शर्म कैसी.

बेटों में बचपन से डाले संस्कार

लड़कियों के साथ बुरा होने की सजा आप लड़कियों को ही घर में बंद कर के क्यों दे रहे हैं. उन के बजाय एक बार जरा अपने लड़कों को घर में बंद कर के देखिए और उन्हें कहें तुम्हारे वजह से लड़कियां सुरक्षित नहीं है इसलिए तुम बाहर नहीं जाओगे. क्या आप ऐसा कर पाओगे. यह भी छोड़िए आप इतना ही कर लीजिए कि बचपन से अपने बेटों को लड़कियों की इज़्ज़त करना सिखाएं लेकिन उस के लिए आप को पहले खुद अपनी बीवी की इज्जत करनी पड़ेगी. क्योंकि आप को देख कर ही तो आप का बेटा तय करेगा कि उसे महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करना है. तो क्यों न इस के लिए शुरआत अपने ही घर से करें. जब आप के अपने घर की ही नींव कमजोर है तो सजा बेटियों को क्यों. सच तो यह है कि अगर समस्या की जड़ में जाएंगे तो दीवारें अपनी ही कमजोर निकलेंगी.

लड़कियों को नहीं, लड़कों को कंट्रोल करने जरुरत

महिलाओं को घर में कैद करना या उन के मन में डर बैठा देना कोई हल नहीं है. उन्हें बाहर जाने से रोकने से कोई हल नहीं निकलेगा क्योंकि कंट्रोल उन्हें नहीं लड़कों को करना है और वो काम आप के अपने घर से ही हो सकता है.

सब को अपने बच्चे के बारे में पता होता है कि वह कैसी प्रवृति का है, वह हिंसक है, महिलाओं पर गंदी नजर रखता है, गलत कामों में इन्वोल्व रहता है तो क्या आप इतनी हिम्मत जुटा पाएंगे कि अपने बेटों के खिलाफ कुछ बड़ा घटित होने से पहले ही पुलिस कंप्लेंट करा पाएं.

हिम्मत नहीं है, तो पैदा कीजिए. और अगर यह नहीं पता कि खुद का बेटा कैसा है तो पता करें बेटियों पर नज़र रखने से पहले बेटों पर नजर रखें और उन्हें खुद सही रास्ते पर लाएं. समस्या का हल बेटियों को घर में कैद करने से नहीं बल्कि अपने ही घर के बेटों पर नजर रख कर उन्हें सुधारने से निकलेगा.

कानूनों को भी सख्त करे सरकार

दूसरे, दरिंदगी हो रही है तो कानूनों को सख्त करें. लेकिन सरकारों को एकदूसरे पर आरोप लगा कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने से फुर्सत मिले तो वह कुछ ओर करें. यहां तक कि मौजूदा सरकार अपराधियों के साथ मिल कर उन के अपराध को छिपाने में उन का पूरा साथ देती है.

अब इस की वजह वोट बटोरना हो या कुछ और पर ऐसा हमेशा से होता आया है. तभी तो सबूतों से छेड़छाड़ कर इतनी आसानी से ये अपराधी कानून के चुंगल से बच निकलते हैं और हम अगली इसी तरह की कोई घटना होने का इन्तजार करते हैं ताकि फिर इसी तरह का रोना पीटना मचा कर लड़कियों की सुरक्षा पर सवाल उठा कर उन्हें डराधमका के घर में कैद कर दे.

जहां तक बात है कानूनों को सख्त करने की तो जब इन सरकारों के बिगड़े लाडले ही इस तरह की घटनाओं में इन्वोल्व होते हैं, तो फिर कानूनों को सख्त कर के अपने ही घर पर गाज थोड़े ही न गिराएंगे ये राजनेता.

औनलाइन शौपिंग की लत और ग्राहकों को ठगती कंपनियां

भागदौड़ भरी जिंदगी में आजकल ज्यादा से ज्यादा लोग घर बैठे औनलाइन शौपिंग पर निर्भर होने लगे हैं. आजकल ज्यादातर लोग औनलाइन चीजें खरीदते हैं. इंटरनेट और हर हाथ में फोन आ जाने से लोगों को औनलाइन शौपिंग का चस्का लग चुका है. औनलाइन शौपिंग करना भी एक तरह का एडिक्शन है और ये सब से ज्यादा एक्सेप्टेबल एडिक्शन में से एक माना जाता है.

हाल तो यह है कि घर में 100 ग्राम धनिया या एक ब्रेड भी चाहिए हो तो लोग औनलाइन और्डर करते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कैसे औनलाइन खरीदारी के इस चस्के का फायदा उठा कर कंपनियां ग्राहकों के दिमाग से खेल कर उन की जेब खाली कर रही हैं?

लोकल सामान भी औनलाइन खरीदना नहीं है कोई समझदारी

गोबर के उपले, सब्जियां, मिट्टी के बर्तन, फूल, फल जैसे लोकल सामान जो आप के घर के आसपास आसानी से और कम दाम में मिल जाता है उन्हें भी औनलाइन और फटाफट डिलीवरी के साथ आप के घर पहुंचाने के पीछे भी कंपनियों की साजिश है. इस तरह के सामान को औनलाइन प्लेटफौर्म पर ज्यादा पैसे खर्च कर के खरीदना कोई समझदारी नहीं है.

सेल और डिस्काउंट का खेल

फेस्टिव सीजन में ई-कौमर्स वेबसाइट्स पर बेहतरीन सेल और औफर दिए जाते हैं. फेस्टिव सीजन के नाम पर सेल सब को अट्रैक्ट करती है. त्योहारों के आने के पहले ही औनलाइन शौपिंग प्लेटफौर्म पर सेल सेल ही सेल दिखाई देने लगती है. लेकिन इन सेल्स और डिस्काउंट से सिर्फ कंपनियों का ही फायदा होता है. कंपनियां अपने प्रोडक्ट की एमआरपी बढ़ा कर डिस्काउंट देने का दिखावा करती हैं. जैसे- कोई प्रोडक्ट 1000 रुपए का है तो पहले उस की एमआरपी 2000 रुपए कर दी जाएगी फिर उस पर 500 रुपए का डिस्काउंट मिलेगा.

इस तरह कंपनी को न सिर्फ 500 रुपए का फायदा होगा बल्कि डिस्काउंट के चक्कर में ज्यादा लोग उस प्रोडक्ट को खरीदेंगे. इस के अलावा सेल के नाम पर भी कंपनियां अपना पुराना और जल्द एक्सपायर होने वाला माल भी बेचती हैं. डिस्काउंट और सेल देख कर कस्टमर उन सामानों को भी खरीद लेते हैं जिन की उन्हें उस समय जरूरत नहीं होती.

यूजर का भरोसा जीतने की तकनीक

कंपनियां कभी भी सीधेसीधे प्रोडक्ट या सर्विस नहीं बेचती हैं बल्कि ऐसा करने के लिए वो कैशबैक, ईजी रिटर्न जैसी पौलिसी के बारे में बता कर यूजर का भरोसा जीतती हैं. प्रोडक्ट की क्वालिटी से जुड़े रिव्यूज दिखाना या ये बताना कि कितने लोगों ने उन की सर्विसेज को खरीदा है ये यूजर का भरोसा जीतने की तकनीक है. ज्यादातर सिर्फ उन चीजों पर भारी छूट होती है जिन की बिक्री कम होती है.

ऐसे छूट सिर्फ त्योहारी सीजन में ही देखने को मिलती है. क्योंकि इस वक्त लोग सामान खरीदना पसंद करते हैं और तो और बंपर छूट का समय फिक्स कर दिया जाता है ताकि लोग उस समय में सामान खरीदने में देरी न करें. जैसे- किसी सामान में छूट दिवाली तक ही रहेगी उस के बाद इस की कीमत बढ़ जाएगी. ऐसा होने पर लोग तय तारीख तक उस सामान को खरीद लेते हैं और कंपनियों का मतलब पूरा हो जाता है.

औनलाइन टैक्सी ट्रांसपोर्ट कंपनियों की लूट

औनलाइन टैक्सी ट्रांसपोर्ट कंपनियां भी लूट मचा कर कस्टमर की जेब खाली कर रही हैं. ओला, उबर जैसी कंपनियां बरसात में लोगों से 4 से 5 गुना ज्यादा किराया वसूल रही हैं. कई बार ओला उबर में जब सवारी अपने पिकअप प्वाइंट से सवार होती हैं तो उन्हें कम किराया दिखा कर बैठा लिया जाता है, लेकिन जैसे ही ड्रोप प्वाइंट आता है कंपनियां सरचार्ज जोड़ कर 80 से 100 रुपए ज्यादा की डिमांड करने लगती हैं.

‘Price May Vary’ या ‘Fare May Vary’लिख कर वेटिंग टाइम, ट्रैफिक, बीच राइड एड्रैस में बदलाव या फिर तयशुदा रूट से अलग कोई और रास्ता ले कर मनमाने दाम ले कर ग्राहकों को लूटा जा रहा है. बेंगलुरु की एक घटना में एक कालेज छात्र को बेंगलुरु एयरपोर्ट से शहर की एक लोकेशन तक का ओला कैब का किराया शुरू में 730 रुपए दिखाया गया लेकिन बाद में यह बढ़ कर 5,194 रुपए हो गया.

सोचीसमझी रणनीति से दिखाए जाते हैं एड

आपने नोटिस किया होगा औनलाइन सर्फिंग करते वक्त आप को ऐसी चीजों के विज्ञापन दिखाई देते हैं जिन्हें आप लेने की सोच रहे हैं या महज जानकारी जुटाने भर के लिए आपने जिन्हें देखा है. बारबार इस तरह के विज्ञापन देखने से आप के दिमाग को ये लगने लगता है कि आप को उस की जरूरत है और आप वो सामान खरीद लेते हैं.

मेल, मैसेज और नोटिफिकेशन का गेम

ईकौमर्स कंपनियां ग्राहकों को फंसाने के लिए बारबार मैसेज नोटिफिकेशन भेजती हैं कि “आप की मनपसंद ड्रैस अब कम कीमत पर या आपने जिस ड्रैस को देखा था उसे 200 लोगों ने खरीद लिया लास्ट पीस बचा है. जैसे मेल मैसेज और नोटिफिकेशन भेज कर भी कस्टमर को बेवकूफ बनाया जाता है और ग्राहक इन के झांसे में आ कर ऐसे वक्त में तुरंत उस प्रोडक्ट को खरीद लेते हैं.

इसी तरह ट्रैवल साइट पर भी ग्राहकों की जेब खाली करने के लिए भी इसी तरह की ट्रिक्स लगाई जाती हैं जैसे कि फलां होटल में सिर्फ 4 या 5 कमरे बचे हैं जल्दी बुकिंग कराएं. ये डील जल्द ही खत्म होने वाली है.

कंपनियों के कौम्बो औफर की ट्रिक

कंपनियों के कौम्बो औफर देने का मकसद ज्यादा से ज्यादा मात्रा में सामान को बेचना होता है. अगर कंपनी हर सामान पर छूट देंगे तो ग्राहक सिर्फ एक सामान खरीदेगा, लेकिन अगर कंपनी बाय वन गेट टू और थ्री का कौम्बो औफर देती है तो अपने फायदे के लिए कस्टमर एक की जगह कौम्बो औफर का सामान खरीद लेता है और इस तरह ग्राहक अपनी जरूरत के हिसाब से नहीं बल्कि इन कंपनियों की चालाकी के कारण ज्यादा शौपिंग करता है और अपना बजट बिगाड़ लेता है.

औनलाइन शौपिंग और पैसे खर्च नहीं होने का इल्यूजन

चूंकि हम औनलाइन शौपिंग में कैश नहीं देते बैंक से पैसे डेबिट होते हैं इसलिए कस्टमर को ये इल्यूजन होता है कि उस के पैसे खर्च नहीं हुए जबकि यह इल्यूजन आप की इनकम का एक बड़ा हिस्सा खाली कर रहा होता है और घर में गैर जरूरी सामान आ रहा होता है.

अतुल्य भारत : सच्ची तसवीर देख कर क्या हुआ आम आदमी का हाल

मुंबई रूट के एक व्यस्त रेलवे जंक्शन मनमाड का दृश्य. मैंअपनी पत्नी के साथ ‘पुष्पक ऐक्सप्रैस’ ट्रेन का इंतजार कर रहा हूं. मैं शिरडी से सड़कमार्ग से लौटते समय यहां ट्रेन आने के डेढ़ घंटे पहले आ पहुंचा हूं. अब इंतजार के अलावा कोई और चारा नहीं होने से वातानुकूलित वेटिंगरूम के एक कक्ष में आ कर बैठ गया हूं. 10-15 यात्री यहां पहले से इंतजार करते बैठे हैं, चेहरे मायूस हैं. इंतजार करते लोगों के चेहरे मायूस हो ही जाते हैं. सोच रहा हूं कि मुझे भी मेरी टे्रन लेट आ कर मायूस कर सकती है. एसी का कहीं पता नहीं है.

मेरी नजर सामने की दीवार पर लगे ‘इनक्रैडिबल इंडिया’ के पोस्टर पर चली गई. कितना आकर्षक लगता है पोस्टर में इंडिया? ‘इनक्रैडिबल’ के बाद और ‘इंडिया’ के पहले ‘आई’ का परिवर्तित रूप ऊपर मुगदर व नीचे एक गोलबिंदु जैसा और भी आकर्षक है. मैं फ्रेम किए हुए दीवार पर लगे पोस्टर को ध्यान से देख रहा हूं. वाराणसी के एक घाट का आकर्षक, सुहाना व चकाचौंध भरा रात्रिकालीन दृश्य है. मैं ‘अतुल्य भारत’ के इस दृश्य को एकटक देख रहा हूं. जबकि मेरे सामने की ओर कुरसियों पर बैठी 3 महिलाओं में से एक मुझे देख रही है. किसी चीज को एकटक देखने में भी समस्या हो सकती है. मेरा ध्यान तो अतुल्य भारत पर है लेकिन उस का मेरे पर.

मुझे अचानक ध्यान आया, नए कानून के हिसाब से घूरना एक अपराध है लेकिन यहां तो महिला मुझे घूर रही है और महिला भी यदि कोई सुंदर युवती होती तो मुझे भी अच्छा लगता. वैसे, सारे शादीशुदा पुरुष यही सोचते होंगे. लेकिन यह तो कोई आंटी से दादी की वय में बढ़ रही महिला थी. अब मुझे ध्यान आया कि वह सोच रही है कि मैं उसे क्यों एकटक घूर रहा हूं. वह तो मैं विश्वस्त हूं कि पत्नी बाजू में बैठी है तो मेरे चालचलन पर कोई यदि आक्षेप करेगा तो पत्नी शेरनी की तरह मेरे सपोर्ट में गरज सकती है. मतलब, कोई खतरा नहीं है.

लेकिन उस की आखें शायद जैसे कुछ कहना चाह रही हों कि ओ मिस्टर, क्या बात है? इसी समय मेरे मुंह से निकल गया कि मैं आप को नहीं ‘इनक्रैडिबल इंडिया’ को देख रहा हूं. मेरे यह कहते ही उस ने भी सामने के पोस्टर की ओर देखा. अब उस को शायद समझ में आया कि सभी पुरुष सारे समय महिलाओं को ही नहीं घूरते हैं, और भी काम करते हैं. यदि मैं अकेला होता तो भी क्या मेरी सोच ऐसी कंफर्टेबल रहती, मिनटों में यह शोचनीय हो सकती है?

‘अतुल्य भारत’ की पेंटिंग से मेरी नजर अब हट कर ‘अतुल्य भारत’ के जीवंत दृश्य पर आ गई. 2 महिलाएं, जो मेरे दाईं ओर बैठी हैं, ओम व चक्र के निशान वाला गेरुए रंग का कुरता पहने हैं तथा दोनों बौबकट हैं. वेटिंगरूम की एक टेबल को अपनी पर्सनल प्रौपर्टी समझ कर पैर फैलाए ट्रेन का इंतजार कर रही हैं. इन में एक अतुल्य ढंग से खर्राटे भी ले रही है, दूसरी जाग रही है, शायद टे्रन के आने पर इसे जगाने हेतु. इसी टेबल पर कई अन्य लोग खाना खाते होंगे? मेरी फिर ‘अतुल्य भारत’ की तसवीर पर नजर चली गई. 

इस के बाद मेरी नजर इस कक्ष में भिनभिना रही सैकड़ों मक्खियों पर चली गई, फिर अतुल्य भारत पर गई. अब नजर एक सामने रखे बड़े से कूलर पर चली गई क्योंकि यह शीतलता की जगह गरमी दे रहा था. मैं ने जा कर देखा तो इस में पानी नहीं था, तली पर लग गया है. किसी यात्री को भी कोई मतलब नहीं है, गरम हवा फेंक रहा है तो इसे नियति मान बैठे हैं. अब मेरे अंदर का जिम्मेदार व सचेत नागरिक जाग गया. मैं ने बाहर जा कर महिला अटैंडैंट को कूलर में पानी डालने के लिए बोला. उस ने कहा कि यह ठेकेदार का काम है.

मैं ने कहा कि वह नहीं आएगा तो क्या पानी नहीं डलेगा? उस ने बड़े आत्मविश्वास से ‘हां’ में सिर हिला दिया. मुझे लगा कि वास्तव में रेलवे ने अच्छी प्रगति कर ली है, कम से कम कर्मचारियों में डिनाई (इंकार) करने का कौन्फीडैंस तो आ गया है. उस ने अब बोला कि ऐंट्री कर दो रजिस्टर में?

मैं ने कहा, ‘‘पानी कूलर में?’’

उस ने अनसुनी करते हुए दोहराया, ‘‘ऐंट्री करो.’’

मैं ने झक मार कर पानी वाली बात भूल कर ऐंट्री कर दी उस के रजिस्टर में. मैं ने फिर पानी को बोला तो उस ने कहा कि ठेकेदार के आदमी के आने पर उस को बोलती हूं. चलो, मैं ने सोचा कम से कम कुछ जिम्मेदारी तो इस ने समझी. मेरी नजर फिर ‘अतुल्य भारत’ पर चली गई. लेकिन दूसरे ही क्षण उन 3 लोगों पर चली गई जो कहीं से आए थे और इस कक्ष में पड़ी एक दूसरी टेबल को अपनी कुरसियों के सामने लगा कर उस पर अपने ‘चरण कमल’ रख कर आराम की नीयत से लंबे हो गए थे. मेरे सिर के पीछे लगा एक स्पीकर कान फोड़े दे रहा है.

यह अंगरेजी में लिखे ‘इनक्रैडिबल इंडिया’ के पोस्टर, जिस में नीचे हिंदी में ‘अतुल्य भारत’ लिखा है, की तर्ज पर हिंदी व अंगरेजी दोनों में बारीबारी से आनेजाने वाली ट्रेनों की उद्घोषणाएं कर रहा है. भुसावल, मुंबई, अप डाउन, निर्धारित समय पर या देर से. असुविधा के लिए खेद है. आप की यात्रा मंगलयमय हो आदि जैसे वाक्यांश बारबार सुनाई पड़ रहे हैं. अब तो यह असहनीय हो रहा है. असहनीय तो कक्ष के फर्श की गंदगी का दृश्य भी हो रहा है. मेरे बाईं ओर एक खिड़की प्लेटफौर्म 3 की ओर है. यह बंद है. उस पर कांच है.

एक अतुल्य भारतीय उस पर टिका है. मेरी नजर ‘अतुल्य भारत’ के पोस्टर पर गई, मेरा सिर ऊंचा हो गया. लेकिन इस ‘अतुल्य भारतीय’ ने मेरा ध्यान भंग कर दिया. उस ने पलट कर खिड़की पर अपने मुंह में भरी पान की पीक दे मारी थी. बाकी दृश्य मुझ से देखा नहीं गया, मेरा सिर नीचा हो गया. आदमी अपना अपमान जल्दी ही भूल जाता है. मेरी नजर फिर ‘अतुल्य भारत’ पर चली गई और मुझे फिर सिर ऊंचा उठा लगने लगा. बाथरूम से आ रही बदबू हाथ रूमाल सहित नाक पर रखने को मजबूर कर रही है. कुछ थोड़ीबहुत कमी इस एक और यात्री महिला की ऐंट्री से पूरी हुई लगती है. थोड़ी देर में ही यह मेरे बाजू में बैठी 2 महिलाओं से वार्त्तालाप में मशगूल हो गई है.

लेकिन उद्घोषिका की आवाज की पिच से इन की पिच अधिक है. लगता है दोनों में कौन तेज है, का कंपीटिशन हो रहा है. मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है कि कौन क्या बोल रहा है. इसी समय प्लेटफौर्म 2 व 3 दोनों पर टे्रनें आ गई हैं. यह वेटिंगरूम प्लेटफौर्म नंबर 2 पर है. खोमचे वालों की चांवचांव, इस महिला की कांवकांव व उद्घोषिका की लगातार उद्घोषणा-ये तीनों आवाजें मिल कर अजीब सा कोलाहल पैदा कर रही थीं.

मुझे तो लगा कि कोई अपराधी यदि अपराध न उगल रहा हो तो उसे यहां ला कर बैठा दो. थोड़ी ही देर में वह हाथ जोड़ लेगा कि मुझे यहां से ले चलो, मैं सब सचसच बताता हूं. दरवाजे से आई ट्रेन के स्लीपर कोच की खिड़की पर एक लड़का बनियान पहने बैठा दिख रहा है और उस ने भारतीय अतुल्यता दिखा दी, पिच्च से नीचे प्लेटफौर्म पर थूक दिया. मेरा सिर फिर से नीचा हो गया. ट्रेन इस यात्री के इस सतकर्म के बाद रवाना हो गई. अतुल्य भारत पर फिर नजर गई तो मैं फिर सिर उठा समझने लगा. अब एक महिला, जो नीली साड़ी पहने थी, 3 जुड़ी हुई सीट वाली कुरसी पर लंबी हो गई है, उस की साड़ी से बाहर लटक रहा पेट व उस के खर्राटों के कारण उस के ऊपरनीचे को हो रहे ‘अतुल्य मूवमैंट’ पर नजर गई. सचमुच भारत अतुल्य है. मुझे लगा ऐसे जेनरिक लक्षण वाले तोंद लिए कितने ‘अतुल्य’ पुरुष व स्त्री भारत में हैं. सिर फिर नीचा हो गया. अब मेरी ‘शिकायती पूछताछ’ काम कर गई थी. एक लड़का जरूरत से ज्यादा मोटा कूलर का मुआयना करने आया था. मैं ने उस का मुआयना किया तो वह सफेद पाजामा व शर्ट, जो कीट से काले दिख रहे थे, पहने था. मुझे लगा कि यही ठेकेदार का आदमी होना चाहिए. वह बाथरूम के अंदर गया. शायद बालटी की खोज में था. नहीं मिली तो उस ने एक मग से ही 2-4 बार कूलर में पानी डाला और खानापूर्ति के बाद रवानगी डाल ही रहा था कि मैं ने टोका, ‘‘इतने पानी से क्या होगा? इतने बड़े कूलर को कम से कम पानी से आधा भरो?’’

वह अनमना सा अंदर गया और शायद टायलेट से ही एक बड़ी बालटी ला कर कूलर में कुछ बालटी पानी पलट कर बाहर रवानगी डालने को पलट गया. यह सिद्ध हो गया कि इस कूलर में रोज पानी नहीं डाला जाता. मैं थोड़ा मुसकराया तो उस के माथे पर बल पड़ गए. मेरी गलती यह रही कि मैं उस के चेहरे पर मुसकराहट नहीं ला पाया. वह शायद यह सोच रहा था कि यह मेरा मजाक उड़ाने के मूड में है. उसे आज इस में पानी डालने की मेरी ड्यूटी करनी अच्छी नहीं लग रही थी. निकम्मापन भी कुछ समय बाद अधिकार की भावना बलवती कर देता है. उसे क्या मालूम कि मेरा मूड तो ‘अतुल्य भारत’ की खोज इस वेटिंगरूम में ही करने में रम गया है.

मेरी नजर फिर ‘अतुल्य भारत’ के पोस्टर पर गई और मेरा सिर अपने आप ऊंचा हो गया है. लेकिन कितनी देर रहता? अभीअभी एक बुजुर्ग सज्जन का दाखिला हुआ है. वे आ कर एक चेयर पर बैठ गए हैं. आते ही उन्होंने एक ओर को थोड़ा उठ कर ऐसा धमाल कर दिया है कि उन के सामने की कुरसियों पर बैठे परिवार के साथ के 3 बच्चे खिलखिला कर हंस पड़े हैं. दरअसल, उन्होंने जोर की आवाज के साथ निसंकोच भाव से हवा के दबाव को बाहर कर शारीरिक पटाखा चला दिया था. मेरी नजर फिर ‘अतुल्य भारत’ पर चली गई. मुझे लगा कि ‘अतुल्य भारत’ से ज्यादा ‘अतुल्य भारतीय’ हैं और ये ‘बाहुल्य भारतीय’ हैं. अतुल्य भारत की तसवीर भी लगाने के पहले बहुत सोचविचार करना पड़ेगा कि कहा लगाएं, कहां नहीं लगाएं क्योंकि ‘अतुल्य भारतीय’ पलपल में इस की हवा निकाल देने में कोई कसर बाकी नहीं रखते हैं.

चारित्रिक हमलों पर उतारू डोनाल्ड ट्रम्प क्या कमला हैरिस से डरे हुए हैं

पिछले दिनों डैमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने इलिनौइस में शिकागो के यूनाइटेड सेंटर में डैमोक्रेटिक नैशनल कन्वेन्शन में भाग लिया और राष्ट्रपति पद का नामांकन स्वीकार किया. अमेरिका में नवंबर में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने वाले हैं. इस चुनाव में डैमोक्रेटिक पार्टी की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस और रिपब्लिकन पार्टी के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच कड़ी टक्कर है. इस दौरान उन्होंने ट्रम्प पर निशाना साधा और कहा कि वे वह धीर गम्भीर व्यक्ति नहीं हैं और उन का फिर से एक बार राष्ट्रपति बनने के परिणाम गंभीर होंगे.

 

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रास्ता नहीं आसान

कमला हैरिस के जबरदस्त भाषण ने बता दिया है कि रिपब्लिकन नेता डोनाल्ड ट्रम्प का दोबारा राष्ट्रपति बनने का सपना इतना आसान नहीं होगा, जितना उन्होंने सोचा था, क्योंकि कमला हैरिस चुनावी दौड़ में अब उन से आगे निकल गई हैं. उन्होंने अपने भाषण में अमेरिका की नेतृत्व, सुरक्षा और महिलाओं के अधिकारों पर अधिक जोर दिया है. फलस्वरूप कमला हैरिस की ये रणनीति अमेरिका की जनता को काफी रास आ रही है जिस की वजह से ट्रम्प की दावेदारी कमजोर पड़ती हुई दिखाई पड़ रही है और वे ट्रम्प को छोड़ कर कमला हैरिस को अपना राष्ट्रपति बनाने में बेहतर महसूस कर रहे हैं.

जो बाइडेन के उम्मीदवारी वापस लेने के बाद से ही डोनाल्ड ट्रम्प की जीत शक के दायरे में आ गई थी इसलिए अब वे घबरा कर कमला हैरिस के चरित्र को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो परवान नहीं चढ़ पा रही है. 18 अगस्त को हैरिस पर नस्लीय कमेंट करने के बाद 28 अगस्त को उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफौर्म ट्रुथ सोशल पर लिखा, “हैरिस ने शारीरिक संबंधों का इस्तेमाल कर राजनीति में अपने कैरियर को आगे बढ़ाया है. दरअसल में अब से कोई 23 साल पहले कमला हैरिस सैन फ्रांसिस्को के पूर्व मेयर विली ब्राउन के साथ रिलेशनशिप में थीं तब ब्राउन कैलिफोर्निया स्टेट असैम्बली के स्पीकर थे. गौरतलब यह भी है कि ब्राउन उम्र में कमला हैरिस से 30 साल बड़े हैं.

हैरानी तो इस बात कि है कि खुद सैक्स स्कैंडल में फंस चुके ट्रम्प सच्चरित्रता का पाठ पढ़ा रहे हैं. इस बयान से साबित यह भी होता है कि औरत कहीं की भी हो किसी भी देश या धर्म की हो उसे बदनाम करने में मर्द कोई कसर नहीं छोड़ते. सभी धर्मों ने इस बात की इजाजत और सहूलियत उन्हें दे रखी हैं कि मर्द के पांव चरण होते हैं और औरत के पांवपांव ही होते हैं.

वैसे भी अमेरिकी चुनाव में लड़ाई इस बार खुले तौर पर पूरी तरह कट्टरवाद और उदारता के बीच है. 29 जुलाई को अपनी ट्रम्प चाल चलते ट्रम्प ने फ्लोरिडा में बहुत स्पष्ट कहा था कि अगर इसाई नवंबर में उन्हें वोट देंगे तो उन्हें दोबारा कभी वोट देने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इस बयान की तुलना भारत से इन मानो में की जा सकती है कि अगर सभी हिंदू एकजुट हो कर भाजपा को वोट दें तो भारत को हिंदू राष्ट्र बनने से कोई नहीं रोक सकता.

इसी तर्ज पर अमेरिका को ईसाई राष्ट्र बनाने का वादा कर रहे ट्रम्प ने ईसाईयों से अपील की थी कि वे घरों से निकल कर वोट डालें. उन्होंने कहा, “इस के बाद अगले 4 साल में मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा. मैं खुद भी ईसाई हूं और सभी ईसाईयों से प्यार करता हूं.”

इतना कहना था कि सोशल मीडिया पर ट्रम्प का घिरना शुरू हो गया था. अधिकांश अमेरिकी यूजर्स की प्रतिक्रिया यह थी कि ट्रम्प खुद को तानाशाह घोषित कर देंगे और अमेरिका में फिर कभी राष्ट्रपति पद का चुनाव नहीं होने देंगे, यानी खुद इस पद पर आजीवन जबरिया काबिज रहेंगे जो कि अमेरिका के लिए बेहद खतरनाक बात होगी क्योंकि इस से वो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा जिस के चलते अमेरिका दुनिया का सिरमोर बना हुआ है. इस के पहले पिछले साल दिसम्बर में ट्रम्प ने अवैध प्रवासियों को एलियन कहते उन पर रोक लगाने की बात कही थी.

लेकिन इन दकियानूसी बातों का कोई निर्णायक असर पड़ता नहीं दिख रहा है, जाहिर है वहां के लोग भी लोकतंत्र चाहते हैं. हर देश में मुट्ठी भर लोग ही हैं जो लोकतंत्र विहीन यानी धर्म का शासन चाहते हैं. दूसरी तरफ कमला हैरिस सधे खिलाड़ी की तरह मुद्दों की बात करती नजर आ रही हैं. मसलन ग्रीन एनर्जी को बढ़ाबा, गन सेफ्टी रेगुलेशन का समर्थन, महंगाई पर काबू, एबौर्शन का समर्थन, पेड़ फैमिली लीव और सस्ते घर सहित वे एक ऐसी अर्थव्यवश्ता का नक्शा जनता के सामने पेश कर चुकी हैं जिस में सभी के लिए प्रतिस्पर्धा करने और आगे बढ़ने के मौके हों. हालांकि प्रवासी संकट पर वे अपनी राय बदलती रही हैं जो अमेरिका के अहम चुनावी मुद्दों में से एक हमेशा ही रहा है.

10 सितम्बर को फोक्स न्यूज द्वारा आयोजित हैरिस और ट्रम्प के बीच बहस यानी प्रेसिडेंसियल डिबेट होना है. उस में मुमकिन है हैरिस को इस मुद्दे पर अपनी स्पष्ट राय देनी पड़े. इस दिन तय है वे रूस यूक्रेन युद्ध में यूक्रेन का पक्ष लेंगी.

वोटर्स की राय

विस्कोन्सिन की रहने वाली दिशा को आज कमला हैरिस पर भरोसा है और वह उन्हें ही वोट देना चाहती हैं, ट्रम्प को नहीं. हालांकि पहले वह इस बात से दुखी थीं कि उन के पास ट्रम्प को वोट देने के अलावा कोई औप्शन नहीं है, लेकिन अब वह खुश हैं कि कमला हैरिस ने अपनी दावेदारी एक लीडर के रूप में अच्छी तरह से पेश की है, जिस से अमेरिका में नस्लवादी और गन शूट की समस्या को काबू में किया जा सकेगा.

ओरेगन के रहने वाले और फूड ट्रक चलाने वाले जौन स्मिथ को भी कमला हैरिस पर काफी भरोसा है और उन्हें ही अपना राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहते हैं. उन्हें ट्रम्प की बातों पर विश्वास नहीं होता है, क्योंकि वे कहते कुछ हैं, लेकिन करते कुछ और हैं.

प्रभावी विषयों पर जोर

असल में कमला हैरिस ने भाषण में अपनी ताकत और आत्मविश्वास का प्रदर्शन करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के लिए एक अभियोजक की तरह अपनी बात रखी, जो प्रभावी, संक्षिप्त और मध्यम वर्ग को ध्यान में रख कर बढ़ाया गया कदम था, जिन की संख्या अधिकतर सभी देशों में होती है और उन्हें उद्देश्य बनाते हुए कोई भी रणनीति सब से अधिक सफल होती है.

यहां हम आप को बता दें कि हैरिस डैमोक्रेट्स द्वारा सब से ऊंचे पद के लिए नामांकित होने वाली दूसरी महिला हैं. इस से पहले हिलेरी क्लिंटन वर्ष 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुकी हैं, लेकिन तब उन्हें हार का सामना करना पड़ा था. इस बार काफी समझदारी से हैरिस ने अपने महिला होने या फिर अपनी मूल विरासत को मुद्दा नहीं बनाया, बल्कि दोनों का उपयोग अमेरिका की संभावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए किया. यह क्लिंटन के नजरिये से अलग है. हिलेरी क्लिंटन जेंडर के मुद्दों में उलझ गई थीं, जिस से उन्हें नुकसान उठाना पड़ा.

जेंडर का कोई काम नहीं

हैरिस ने कहा है कि उन्हें राष्ट्रपति बनने का अधिकार है और इस में जेंडर आड़े नहीं आना चाहिए. यही सोच उन के राष्ट्रपति बनने में अहम रणनीति साबित हो सकती है. इतना ही नहीं उन्होंने अपने भाषण में अपनी मां श्यामला गोपालन को एक शानदार, 5 फुट लंबी, ब्राउन महिला के रूप में श्रद्धांजलि दी, जो मजबूत और साहसी थीं, जिस की वजह से आज वह यहां तक पहुंची हैं.

हैरिस ने अपनी मां की कहानी को संक्षेप में बताने के लिए पर्याप्त विवरण दिया, जिस में माइग्रेशन, भेदभाव, संकल्प और सफलता की कहानी छिपी थी, जिस से जनता का प्रेरित होना स्वाभाविक था.

मिली है बढ़त

हैरिस को इस सम्मेलन के बाद सर्वेक्षणों में उल्लेखनीय बढ़त मिली है. सिर्फ एक महीने में उन्होंने न केवल ट्रंप के साथ मुकाबला बराबर का कर लिया है बल्कि राष्ट्रीय और कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में थोड़ी बढ़त भी हासिल कर ली है. न्यूयौर्क टाइम्स ने बताया है कि कमला हैरिस को डैमोक्रेटिक मतदाताओं का 70 प्रतिशत संमर्थन प्राप्त है और करीब 46 प्रतिशत लोगों ने हैरिस को अपना लोकप्रिय उम्मीदवार बताया है. अब तक की चुनावी प्रक्रिया में इसे सब से बेहतर माना गया है. इतना ही नहीं हैरिस को गर्भपात संबंधी मामले में निपटने और लोगों की देखभाल करने में भी सब से अच्छा बताया गया है.

चिंतित है ट्रम्प

एक पोल ट्रैकर FiveThirtyEight ने दिखाया है कि हैरिस 47 प्रतिशत के साथ आगे है. जबकि ट्रंप 43.7 प्रतिशत पर हैं. हैरिस की लोकप्रियता की रेटिंग नीचे से चढ़ कर एक सम्मानजनक 45 प्रतिशत तक पहुंच गई है, जबकि ट्रंप की पहले के मुकाबले घट गई है. इसलिए डोनाल्ड ट्रम्प भी अब अपनी रणनीति को ले कर असमंजस में हैं कि कमला हैरिस पर व्यक्तिगत हमले करें या नीतिगत मुद्दों ध्यान केंद्रित करें, जिस में उन्होंने वेटरों और सेवा कर्मचारियों द्वारा दिए जाने वाले टिप पर टैक्स को समाप्त करने की योजना पर बात की.

इतना ही नहीं ट्रम्प नेवादा में हिस्पैनिक और लैटिन मतदाताओं को लुभाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि पिछले राष्ट्रपति चुनावों में इन की भागीदारी उम्मीदवार को जिताने में अधिक रही है.

पहले ट्रम्प, कमल हैरिस की शक्ल, अश्वेत, बुद्धिमता आदि पर लगातार प्रहार करते रहे थे, लेकिन अब उन के सलाहकार आर्थिक एजेंडे को भुनाने का दबाव बना रहे हैं. सलाहकारों का मानना है कि कमला हैरिस पर व्यक्तिगत हमले करने से उदारवादी वोटर उन से दूर हो सकते हैं, जिस से उन की जीत में समस्या आ सकती है. इधर ट्रम्प भी लगातार कोशिश कर रहे हैं कि कमला हैरिस से मीडिया का ध्यान हटे, क्योंकि मीडिया की लगातार कवरेज उन्हें डरा रही है. लेकिन पूर्वाग्रहों के चलते वे कमला हैरिस पर व्यक्तिगत और चारित्रिक हमलों पर जोर दे रहे हैं जिन से उन के समर्थक ही सहमत नहीं.

इस प्रकार इस सम्मेलन ने साबित कर दिया है कि एक हतोत्साहित पार्टी को प्रेरित किया जा सकता है. थके हुए में फिर से जोश भरा जा सकता है, अगर आप की राजनीतिक सोच और परिपक्वता देश के हित लिए हो.

लिंग के आकार से जुडे 3 मिथक

सैक्स हमारे लाइफ का ऐसा रूटीन है जिसे हम हर दिन बेहतर बनाना चाहते हैं. सैक्स से जुड़े ऐसे कई मिथ्स हैं जिसे ले कर कपल्स के बीच तनाव बना रहता है और इसे सुधारने के लिए वे कुछ ऐसे उपाए करने लगते हैं जिस से उन को और भी ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है.

तो आइए, जानते हैं सैक्स से जुड़ी कुछ खास बातें जिसे पढ़ कर आप की सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी :

साइज (Size)

कई पुरुष इस बात से परेशान रहते हैं कि क्या उन के लिंग का साइज सही है और वे अपने पार्टनर को संतुष्ट कर पा रहे हैं? क्योंकि ऐसा देखा गया है कि कई कपल्स एकदूसरे से सैक्स की बातें करने में शरमाते हैं और अंदर ही अंदर इस बात से परेशान रहते हैं कि कहीं उन में किसी बात की कोई कमी तो नहीं है.

पुरुषों को हमेशा इस बात की चिंता रहती है कि वे अपनी पत्नी को अच्छी तरह संतुष्ट कर पाएं ताकी उन की पत्नी अपनी सैक्स डिजायर पूरा करने के लिए किसी और के साथ संबंध न बना ले.

जरूरी नहीं है कि अगर आप के लिंग का साइज छोटा है तो आप अपने पार्टनर को संतुष्ट नहीं कर पाएंगे. सामान्य भारतीय पुरुषों के लिंग का साइज इतना होता ही है कि वे अपने पार्टनर को संतुष्ट कर सकें.

अकसर हम पोर्न मूवी में देखते हैं कि उन के लिंग के साइज काफी बड़े होते हैं और सैक्स काफी देर तक किया जाता है। इस से दिमाग में यह बात बैठ जाती है कि बड़े आकार का लिंग से ही पार्टनर को संतुष्ट किया जा सकता है पर ऐसा नहीं है.

सचाई यही है कि अपने सैक्स पार्टनर को ओरल सैक्स से भी संतुष्ट किया जा सकता है. फीमेल पार्टनर को बस इतना चाहिए होता है कि उन का पार्टनर सिर्फ सैक्स पर फोकस न करे बल्कि सैक्स से पहले जम कर रोमांस और ओरल सैक्स करे.

अपने पार्टनर की पूरी बौडी पर जम कर किसिंग करें और इस प्रोसेस में बिलकुल भी जल्दबाजी न करें. सैक्स को हमेशा धीरेधीरे ऐंजौय करना चाहिए जिस से दोनों को चरमसुख मिले.

ड्यूरेशन यानि समय

जैसाकि हम ने आप को बताया कि पुरुषों को ऐसा लगता है कि लंबे समय तक सैक्स करने से ही उन का पार्टरन संतुष्ट हो सकता है. ऐसी सोच हमारे अंदर पोर्न देखने से भी आती है क्योंकि पोर्न में यह दिखाया जाता है कि जितनी देर सैक्स करेंगे उतना ही पार्टनर संतुष्ट होगा। मगर यह सचाई नहीं है. अगर आप सैक्स के दौरान अपने पार्टनर के प्राईवेट पार्ट्स के साथ थोड़ी छेड़छाड़ करें, अपनी जीभ उन की बौडी पर फेरें और अपने लिप्स से उन की बौडी पर इस कदर किस करें कि वे आप को अपनी बांहों में कस कर जकङ लें तो इस से भी आप अपने पार्टनर को चरमसुख का आनंद दे सकते हैं.

हमेशा सैक्स से पहले ओरल सैक्स जरूर ट्राई करना चाहिए जिस से कि दोनों पार्टनर्स जम कर ऐंजौय कर सकें. कई लोग अपनी सैक्स लाइफ इसी वजह से बोरिंग बना लेते हैं क्योंकि वे सिर्फ सैक्स पर फोकस करते हैं और कुछ ही देर में वे इजैक्यूलेट हो कर अपने पार्टनर से अलग हो जाते हैं जिस से दोनों को असल सुख की प्राप्ति नहीं हो पाती.

प्री मैच्योर इजैक्यूलेशन (Pre Mature Ejaculation)

प्री मैच्योर इजैक्यूलेशन के बारे में तो आप ने सुना ही होगा. इस में पुरुषों का समय से पहले ही इजैक्यूलेट यानि स्खलित हो जाता है. इस वजह से कई पुरुष काफी परेशान रहते हैं पर किसी को बता नहीं पाते क्योंकि उन के लिए यह बहुत शर्मनाक बात होती है. ऐसे में हम आप को बता दें कि प्री मैच्योर इजैक्यूलेशन कोई बहुत बड़ी बीमारी नहीं है.

आप सैक्स स्पैशलिस्ट से मिल सकते हैं, जिसे इन सब बातों का अनुभव हो. ऐक्सपर्ट से छिपा कर अगर आप बाहर से या नीमहकीम से कोई ऐसीवैसी दवाई ले लेंगे तो यह आप के लिए और भी ज्यादा गलत साबित हो सकता है और बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकता है.

अच्छा तो यही है कि पहले अपने सैक्स पार्टनर से बात करनी चाहिए कि क्या उन्हें आप के अंदर कोई कमी नजर आती है और अगर पार्टनर संतुष्ट है तो आप को किसी बात की टैंशन लेने की जरूरत नहीं है। पर अगर आप का पार्टनर आप की किसी कमी के बारे में बताता है तो आप को शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है बल्कि किसी अच्छे डाक्टर से मिल कर सलाह लें.

सैक्स के बारे में बात करने से कभी न शरमाएं और खासतौर पर अपने पार्टनर से सैक्स से जुड़ी सारी बातें करें ताकी आप दोनों एकदूसरे को और एकदूसरे की शारीरिक जरूरतों को समझ सकें.

नुपूर शर्मा के बाद कंगना रनौत से पल्ला झाड़ रही है बीजेपी, कहीं पार्टी के अंदर ही न पड़ जाए फूट

साल 2022 में भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नुपूर शर्मा की ओर से इसलाम के आखिरी पैंगबर पर दिए बयान पर जैसे ही पूरे विश्व में बवाल हुआ, उस समय दस से भी अधिक देशों ने इस पर आपत्ति जताई थी, भारतीय मुसलिमों में भी उन के बयान को ले कर काफी गुस्सा था. पार्टी ने तुरंत नुपूर शर्मा से अपना पल्ला झाड़ लिया. उन्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्‍या से सस्पेंड कर दिया गया.

पहले नुपूर अब कंगना पर बीजेपी का प्रहार

इतना ही नहीं पार्टी की ओर से एक बयान जारी किया गया कि किसी धर्म या संप्रदाय के खिलाफ का अपमान करने वाली विचारधारा के हम खिलाफ हैं. उस समय नुपूर बिलकुल अलगथलग पड़ गई थी. उन्‍हीं दिनों भारतीय जनता पार्टी ने नवीन जिंदल को भी पैंगबर मोहम्‍म्‍द को ले कर किए गए कंट्राेवशर्यिल ट्वीट पर पार्टी से बाहर का रास्‍ता दिखा दिया गया था. कंगना रनौत के नए बयान के बाद भाजपा आज फिर नुपूर शर्मा के मामले की तरह रिएक्ट कर रही है. कंगना रनौत के बयान से खुद को पूरी तरह अलग कर लिया है. एक टीवी चैनल को दिए अपने बयान में कंगना ने किसान आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि आंदोलन के दौरान कई हत्याएं हुई और बलात्कार की घटना भी हुई.

न घर की न घाट की भाजपा

कंगना की बात में कितना दम है यह मुद्दा विचारनीय है लेकिन कंगना के इस बयान के बाद भाजपा को यह डर सताने लगा कि किसान आंदोलन का भूत फिर से कंगना रनौत के बहाने उस से चिमट नहीं जाए. पहले ही वह लोकसभा के अपने रिजल्ट से पूरी तरह निकल नहीं पाई है. उधर पहले ही लीडर औेफ अपोजिशन राहुल गांधी ने किसानों को अपनी तरफ कर रखा है, पिछले दिनों मानसून सत्र के दौरान बहुत सारे किसान नेताओं ने संसद में राहुल गांधी से मुलाकात करनी चाही थी, तब ऐसा कहा जा रहा था कि ये सभी नेता राहुल गांधी को प्राइवेट मेंबर बिल लाने को कहेंगे. कहा जाता है कि इसी बैठक के बाद 15 अगस्त के दिन देश भर में ट्रैक्टर रैली निकालने का फैसला लिया गया. इसी बैठक में इस बात पर भी चर्चा हुई कि किसान नए अपराधिक कानूनों का विरोध करने के लिए इस की कौपियां जलाएगी. अब ऐसी स्थिति हो तो लोकसभा चुनाव में अपनी घमंड की वजह से चारों खाने चित हुई भाजपा भला किसानों से क्यों पंगा ले.

पूरी तरह से दिग्भ्रमित नजर आ रही है बीजेपी

सच कहा जाए तो फिलहाल मोदी सरकार किसी नए पचड़े में नहीं पड़ना चाहती है, चाहे वह मामला देश का हो या विदेश का. यही वजह है कि उन्हें मास्को से भी गला मिलना पड़ता है और कीव से भी. भाजपा फिलहाल हर मुद्दे पर दिग्भ्रमित नजर आ रही है इसलिए वह कंगना के रूप में विपक्ष से पंगे लेने का नया मोर्चा नहीं खोलना चाह रही है.

पार्टी ने स्पष्ट कह दिया है कि बीजेपी पूरी तरह से कंगना के बयान से असहमत है. भाजपा की ओर से यह भी कहा गया कि पार्टी के नीतिगत विषयों पर बयान देने के लिए कंगना अधिकृत नहीं है. पार्टी ने कंगना को भी कड़े शब्दों में यह दिया गया है कि वह फिलहाल अपनी बड़बोली जबान को बंद ही रखें.

हिंदू हितों और हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को ध्यान में बोलने पर भी अगर पार्टी से जुड़े लोगों को भी भाजपा इसी तरह से दरकिनार करती रही या उन से पिछा छुड़ाती रही तो जल्दी ही पार्टी दो खेमों में बंटती नजर आ सकती है, एक जो हालिया चुनावी नतीजों के बाद यह मानने लगी है कि अब मोदी का जादू नहीं चल रहा, दूसरा जिसे अब योगी हिंदू हितों का उभरता चेहरा लग रहे हैं, अब कंगना को ही ले लें, जिस के अनुसार वे योगी आदित्‍यनाथ की उस आइडियोलौजी से प्रभावित हैं, जिस के कारण वह बुलडोजर बाबा के नाम से जाने जाते हैं. कोलकाता हत्या रेप मामले को शर्मनाक बताते हुए कंगना ने कहा कि उन्हें योगी आदित्यनाथ का न्याय मौडल सही लगता है.

इमरजैंसी और इंदिरा पर कंगना की बातें

कंगना की मूवी इमरजैंसी 6 सितंबर को रिलीज हो रही है, यह फिल्म इंदिरा गांधी की ओर से साल 1975 में लगाए गए आपातकाल पर बनी है, फिल्म को बनाने वाली कंगना ने एक टीवी को दिए इंटरव्यू के दौरान यह स्वीकारा कि प्रियंका गांधी बिलकुल अपनी दादी इंदिरा गांधी जैसी नहीं है. उन्होंने यह भी माना कि राहुल गांधी कभी भी इंदिरा गांधी की तरह पौपुलर नहीं हो पाएंगे. जब कंगना से यह पूछा गया कि संविधान का सब से बड़ा हत्यारा कौन है, तो कंगना ने कहा इंदिरा गांधी. कंगना ने इस प्रोग्राम में यह भी स्वीकारा कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी इस देश का सब से बड़ा तानाशाह नेता रहे हैं, इंदिरा गांधी पर बनी इस फिल्म का काफी विरोध हो रहा है, कंगना को सोशल मीडिया पर जान से मारने की धमकियां भी मिल रही है, ऐसे में कंगना की यह मूवी रिलीज होने तक न जाने क्याक्या होगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा.

उधर कंगना ने किसान आंदोलन वाले अपने बयान पर यह कहा है कि आने वाले समय में वह पार्टी के सोच के अनुसार ही बयान देंगी और भविष्य में अपने शब्दों के चयन को ले कर सावधान रहेंगी. ऐसे में सवाल यह उठता है क‍ि क्‍या अपने ही लोगों को नाराज कर बीजेपी खुश रह पाएगी, क्‍या इससे पार्टी के नेताओं में असंतोष का अंकुर नहीं फुटेगा, जो पार्टी की जमीन में दरार पैदा कर दें.

बहु के आते ही एटिकेट्स के सांचे में ढलते ससुरालवाले

लेकिन क्या आपने कभी सोचा है एक घर में दो भाई एक बहन एक मातापिता रहते हैं. बड़े भाई की शादी के बाद मातापिता, भाईबहन की जिंदगी पर क्या असर आएगा. नई बहु के आने के बाद ससुरालवालों की ज़िंदगी कितनी बदल जाती है. वे अपने ही घर में अजनबी से हो जाते हैं, चाहते हुए भी बहुत से ऐसे काम होते हैं जो पहले वे बिंदास कर लिया करते थे लेकिन अब घर में बहु है तो सोचना पड़ता है. इसलिए ऐसा नहीं है कि शादी के बाद बहु की जिंदगी में ही बदलाव आता है बल्कि बदलाव तो ससुराल वालों की जिंदगी में भी आता है.

बस फर्क इतना है बहु अपना घर छोड़ कर आती है तो उस की बातें ज्यादा की जाती है और ससुराल वालों की छोटीमोटी परेशानियों की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता है. इसलिए आज हम आप को बताते हैं कि बेटे की शादी के बाद ससुरालवालों की जिंदगी कितनी बदल जाती है और वे भी बहु के साथ कितना एडजस्ट और कम्प्रोमाइज करते हैं.

अपने किचन को बहु के साथ बांटना सास के लिए होता है बहुत मुश्किल

सास बहु का सब से ज्यादा झगड़ा जहां होता है घर में वो सो कोल्ड पवित्र स्थान है किचन. आप जानते हैं ऐसा क्यों होता है, क्योंकि सास की भावनाएं उस किचन से जुड़ी होती हैं. यही वह जगह है जहां उस ने काम करतेकरते अपनी आधी जिंदगी निकाल दी. उस किचन में हमेशा से ही एकछत्र राज सास का ही होता था, उसी के बनाए नियमकायदे हमेशा से चलते आए होते हैं. वे अपने ही हिसाब से किचन चलाती आई है.

लेकिन अचानक से बहु के आने पर सास को किचन बहु से शेयर करनी पड़ती है जोकि उस के लिए बहुत मुश्किल भरा काम है. वह बहु को अपने किचन में काम करने के तौरतरीके सिखाना चाहती है पर बहु ने अपने घर जैसा किया है वो वैसा करना चाहती है. सास की रोकटोक उसे पसंद नहीं आती, तो सास अपने किचन को किसी दूसरे के हिसाब से चलता देख मन मसोस कर रह जाती है. कुछ कहे तो लड़ाई, न कहे तो देखदेख कर गुस्सा आए पर लाचार इतनी की गुस्सा निकाल भी नहीं सकती.

पहननेओढ़ने तक के एटिकेट्स बदलने पड़ते हैं ससुरालवालों को

पहले पिता बनियान और लुंगी पहन कर पूरे घर में घूमते रहते थे, तोलिया बांध कर देवर और ससुर कभी भी बाहर आ जाते थे लेकिन बहु के आने के बाद उन का पहनावा बदल जाता है. भले ही कुछ समय के लिए ही लुंगी और बनियान की जगह कुरतापजामा ले लेता है, देवर भी बाथरूम से ही तैयार हो कर निकलता है नहीं तो भाभी छोड़ो, भाई की घूरती नजरें ही दिल चीर देती हैं. सास भी अपने पुराने कपड़ों के बजाए कुछ नए अच्छे कपड़े पहनने लगती है कि कहीं बहु ये न कह दे कि सास में तो फैशन एटिकेट्स है ही नहीं.

अपने किसी मेहमान को बुलाने से पहले 10 बार सोचते हैं सासससुर

पहले जहां ससुर के पुराने दोस्तों का जमावाड़ा लगा रहता था. वक्त बेवक्त घर में चायनाश्ते का दौर चलता रहता था वहीँ अब इन सब पर मानो पाबंदी सी लग गई हो. किसी को बालने से पहले बेटे की प्राइवेसी के बारे में भी सोचना पड़ता है. उन के टाइम के हिसाब से ही किसी को बुलाना पड़ता है. ससुर के दोस्त भी बहु के सामने आने से शरमाते हैं.

वहीँ पहले देवर के चार दोस्त आ कर होहल्ला करते थे, कोई कुछ नहीं कहता था बल्कि घर में रौनक आ जाती थी लेकिन बहु के आने के बाद वही दोस्त आसानी से नहीं आ सकते. मातापिता को तो अब अपना बेटा बेटा ही नहीं लगता वो किसी का पति ज्यादा लगता है.

भाई बहन का रिश्ता भी बदल गया

पहले भाईबहन का रिश्ता ही अलग था. पहले हर रोज नई फरमाईश थी. ‘आज लौटते हुए मेरे लिए केक लाना, आज आइसक्रीम का मन है, बाहर ही खाने चलेंगे.’ लेकिन अब रोजरोज भाई से फरमाइश करना संभव नहीं है. अब भाईभाभी के नखरे उठाएगा बहन के नहीं. अब भाईभाभी अकेले घूमने जाने लगते हैं बहन की एंट्री तो कभीकभी होती है.

शादीशुदा ननद भी पहले की तरह बिंदास मायके नहीं आ पाती

शादीशुदा ननद कभी भी मायके आ जाया करती थी लेकिन अब हर कभी आना कहीं भाभी को अच्छा न लगे इस बात का भी धयान रखना पड़ता है. नन्दोई के आने पर भाभी को भी किचन में लगना पड़ेगा वो अलग. रोजरोज ऐसा करना भी अच्छा नहीं लगता. इस के आलावा पहले अपनी मां के घर खाली हाथ आने पर कभी सोचना नहीं पड़ता था लेकिन अब भाभी क्या सोचेगी की इतनी बड़ी ननद खाली हाथ आ गई, ये सोच कर कुछ लाना भी पड़ता है. उसी हिसाब से ढंग से तैयार भी हो कर आना पड़ता है, नहीं तो भाभी को लगेगा की ननद का ससुराल तो बहुत हल्का है पहननेओढ़ने के भी ढंग नहीं हैं.

खानेपीने तक की आदतें बदलनी पड़ती हैं

पहले जहां घर में हर दूसरे दिन लौकी की सब्जी बनती थी, क्योंकि सब को बचपन से लौकी खाने की आदत पड़ी है. जैसे कि पतिपत्नी को लौकी खाने की आदत है तो बच्चों में अपनेआप आदत बन जाती है. पर अब बहु कहती है की अरे यहां तो रोज ही लौकी बन जाती है. अरे भई! कभी पनीर भी तो बनाओ. लेकिन पनीर है महंगा. अब बहु को कैसे कहें कि हमारे यहां तो मेहमानों के आने पर ही पनीर बनता है. बहु का लिहाज कर अपनी रोज लौकी खाने की आदत को भी तिलांजलि देनी पड़ती है.

घर में पार्टीज का दौर शुरू हो जाता है

बहु अगर शौकीन आ गई तो वह सबके बर्थडे, एनिवर्सरी मनाने पर जोर देगी अपने सब रिश्तेदारों को बुलाएगी उसे मन भी नहीं कर सकते पहलीपहली बार. मुश्किल यह कि बहु को अभी किचन संभालना आता नहीं तो सारी जिम्मेदारी चाहेअनचाहे सास की हो जाती है. पहली बार बहु के मायके वाले आएंगे तो तैयारी भी उसी हिसाब से करनी पड़ेगी.

बहु नकचढ़ी आ गई तो उस के नखरे अलग सहन करो

बहु अगर जरा भी नकचढ़ी आ गई तो डर लगा रहेगा कि कोई बात बुरे लग गई और इस ने हल्ला काट दिया तो इतने सालों की बनीबनाई इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी. और अगर रूठ कर मायके चली गई, हम पर केस कर दिया तो हम तो लम्बा फंस जाएंगे.

जाली नोट : एक परेशान आदमी की कहानी

एक दिन मैं बैंक गया. मुझे कुछ रुपयों की जरूरत थी. मैं ने अपने खाते से 2 हजार रुपए निकाले. कैशियर ने मुझे 5 सौ के 2 नोट और एक सौ के 10 नोट दिए. रुपए ले कर मैं घर चला आया. दूसरे दिन जब मैं रुपए देने दुकानदार के पास गया तो दुकानदार ने सौ रुपए के नोट तो ले लिए, पर 5 सौ रुपए के नोट लेने को वह तैयार न हुआ.

मैं ने उसे समझाया, ‘‘भैया, मैं ने ये नोट कल ही बैंक से निकाले हैं. आप बेवजह क्यों शक कर रहे हैं?’’ जवाब में उस ने मेरे सामने एक अखबार खोल कर रख दिया. ऊपर ही मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘एक आदमी से 5 सौ रुपए के 15 जाली नोट पाए गए’. अब मैं क्या कहता.

उसी समय मैं बैंक की ओर चल पड़ा. जिस खिड़की से मैं ने ये नोट लिए थे, वहां जा कर कैशियर से बोला, ‘‘भाई साहब, मुझे कल ये नोट दिए गए थे. कृपया इन्हें वापस ले कर सौ या 50 के नोट दे दें. इन्हें तो जाली होने के डर से कोई ले ही नहीं रहा है.’’ कैशियर नोट को बगैर देखे ही बोला, ‘‘इस का क्या सुबूत है कि यही नोट आप को दिए गए हैं?’’

अब मैं सुबूत कहां से लाता. यह सुबूत तो था कि मुझे 5 सौ रुपए के 2 नोट दिए गए हैं, पर यही नोट दिए गए हैं, यह सुबूत देना मुमकिन न था.

मैं सीधे उस बैंक के मैनेजर के पास गया और उन को अपनी बात बताई. मैनेजर ने मुझे राय दी कि मैं इन नोटों को अपने खाते में जमा करा दूं. उन्होंने मुझे पैसे जमा करने की परची पकड़ाते हुए उसे भरने को कहा.

मैं ने परची भर कर उन्हें दे दी. वे परची की जांच करने लगे. जांच कर के उन्होंने मुझे नोटों के नंबर लिखने को कहा. मैं ने उन से कहा कि भाई आप ने नोट की जांच तक नहीं की, फिर यह नंबर नोट करने की बात क्यों?

मैनेजर ने मुझे बताया कि इस बार के जाली नोट इस तरह के बने हैं कि उन में जाली और असली की पहचान करना मुश्किल काम है. मैं क्या करता. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. आखिर में मैं ने सोच लिया कि फिलहाल मैं नोट जमा न कर के अपने पास रखूं और मैं वापस घर आ गया.

काफी सोचविचार करने पर मुझे प्रदीप बाबू का खयाल आया, जो कटेफटे नोट बदलने का धंधा करते हैं. मैं ने सोचा कि चल कर उन से ही बात की जाए. मैं उन के घर की ओर चल पड़ा. प्रदीप बाबू घर पर ही मिल गए.

मैं ने उन्हें 5 सौ वाले दोनों नोट दिखाते हुए कहा, ‘‘आप तो नोट का कारोबार करते हैं, जरा देख कर बताएं कि ये नोट असली हैं या नकली? बैंक वाले तो इन्हें जमा करने पर नोट का नंबर व नामपता नोट कर रहे हैं. कहीं नकली निकले, तो पुलिस का झमेला. ‘‘आप तो जानते ही हैं कि पुलिस के पास मामला पहुंचने के बाद क्या होता है. पुलिस वाले तो अपराधियों का सारा गुस्सा कमजोरों पर ही निकालते हैं.’’

प्रदीप बाबू ने दोनों नोट अपने हाथ में लिए और उन पर जगहजगह उंगली फेरने लगे. एक जगह पर हाथ फेर कर उन्होंने कहा, ‘‘नकली हैं.’’ फिर दूसरी जगह पर हाथ फेर कर कहा, ‘‘असली मालूम पड़ते हैं.’’

इसी तरह वे नोटों पर हाथ फेर कर कभी असली तो कभी नकली है कहते रहे और मैं कभी खुश, तो कभी दुखी होता रहा. आखिर में प्रदीप बाबू ने उठ कर बल्ब का बटन दबाया. बल्ब जल

उठा. एक नोट को बल्ब की ओर कर के देखा और बोले, ‘‘जलचिह्न दिख तो रहा है, पर साफ नहीं है. रक्षाधागा है तो, पर ठीक नहीं है. रक्षाधागे पर भारत तो लिखा है, पर आरबीआई नहीं लिखा है.’’

और भी न जाने वे क्याक्या बड़बड़ाते रहे. आखिर में उन्होंने कहा, ‘‘नोट तो असली ही लग रहा है.’’ अब प्रदीप बाबू अपने घर के भीतर जा कर एक टौर्च ले आए. एक सफेद कागज पर नोट रखा और नोट के उस पार से टौर्च जला कर उसे देखने लगे.

थोड़ी देर तक गौर से देखने के बाद उन्होंने फैसला सुनाया, ‘‘यह नोट बिलकुल नकली है.’’ मैं ने सकते में ही पूछा, ‘‘अभीअभी तो आप कह रहे थे कि नोट असली हैं, फिर एकाएक नकली कैसे हो गए?’’

‘‘यह देखिए, जब नोट पर टौर्च की रोशनी डाली जाती है, तो जलचिह्न सामने दिखना चाहिए, जो नहीं दिख रहा है,’’ प्रदीप बाबू ने कहा. उन की ओर देखते हुए मैं ने पूछा, ‘‘प्रदीप बाबू, क्या विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि बगैर टौर्च को जलाए ही रोशनी और परछाईं दिखने लगे?’’

प्रदीप बाबू ने चौंकते हुए टौर्च को जला कर देखा. वह जल नहीं रही थी. उन्होंने टौर्च का ढक्कन खोला. बैटरी सीधी की, तो इस बार उन्हें नोट के अंदर का रक्षाधागा दिख गया. प्रदीप बाबू बोले, ‘‘असली ही मालूम पड़ता है. बस एक जांच और बच रही है, उसे भी देख लूं,’’ इतना कह कर वे भीतर के कमरे में गए और एक बड़ा सा शीशा ले कर नोट को ध्यान से देखने लगे. ‘‘असली है,’’ कह कर वे खुश हुए.

मैं ने पूछा, ‘‘कैसे और क्या देखा आप ने इस शीशे से?’’ उन्होंने शीशे से मुझे महात्मा गांधी के फोटो के पीछे देखने को कहा. मैं ने देखा कि 5 सौ और भारत साफ लिखे हुए दिख रहे थे.

‘‘तो प्रदीप बाबू, मैं इस नोट को असली मान सकता हूं?’’ मैं ने पूछा. ‘‘अगर आप को फिर एतराज हो, तो चलिए एक और जांच कर लेता हूं,’’ प्रदीप बाबू ने कहा.

मैं ने कहा, ‘‘जरूर जांच कर लीजिए, पर इतनी जांच तो मैं ने किसी सुनार को भी करते नहीं देखा है.’’ अब प्रदीप बाबू मुझे साथ ले कर अपने एक परिचित बिजली वाले की दुकान पर ले गए और उस से पराबैंगनी लैंप मांगा. उसे जला कर उस के सामने नोट किया और बोले, ‘‘देखिए, ये नंबर कैसे चमक रहे हैं. बिलकुल ही असली नोट हैं,’’ प्रदीप बाबू ने आखिर में अपना फैसला सुनाया. मुझे इस फैसले से खुशी हुई. खैर, नोट असली पा कर मैं उसे बैंक में जमा कर आया. अब मुझे नोट के नंबर लिखने में कोई एतराज भी नहीं था. नोट जमा कर मैं बेफिक्र हो गया. लेकिन यह बेफ्रिकी सिर्फ एक हफ्ते की मेहमान थी.

एक हफ्ते के बाद मुझे बैंक में बुलाया गया. मैं भागाभागा बैंक गया. वहां कोई दारोगा भी बैठे थे. मुझे देखते ही वे बोले, ‘‘तो आप ही हैं रमेशजी.’’

मैं ने कहा, ‘‘जी, मैं ही हूं. बताइए, मुझे किसलिए बुलाया गया है?’’ वैसे तो पुलिस वालों से मैं बहुत डरता हूं और कोशिश करता हूं कि इन से बच कर रहूं, पर यहां क्या बचना था. दारोगा 5 सौ रुपए के 2 नोट मुझे दिखा कर बोला, ‘‘ये नोट आप ने जमा किए हैं?’’ मैं ने नोट के नंबर देखे और कहा, ‘‘जी हां, मैं ने ही जमा किए हैं.’’

‘‘क्या आप को मालूम है कि ये दोनों नोट नकली हैं?’’ दारोगाजी ने कहा. मैं ने कहा, ‘‘जी नहीं, ये दोनों नोट बिलकुल असली हैं.’’

दारोगाजी ने फिर पुलिसिया अंदाज में पूछा, ‘‘क्या सुबूत है कि ये दोनों नोट असली हैं?’’ मैं ने कहा, ‘‘क्या सुबूत है कि ये नोट नकली हैं?’’

दारोगाजी ने मैनेजर से कहा, ‘‘अब आप ही बताइए कि नकली नोट की क्या पहचान है?’’ मैनेजर साहब पहले तो हड़बड़ा गए, फिर बोले, ‘‘हमें ठीक से कुछ मालूम नहीं, पर हमारे महकमे से तो अभी तक सिर्फ यही आदेश आया है कि 5 सौ रुपए के जाली नोट काफी तादाद में आ रहे हैं, इसलिए नोट लेते समय सावधानी बरतें. सावधानी के तौर पर हम सभी नोट जमा करने वालों के नामपते लिख लेते हैं.’’ दारोगाजी के पास भी नोट जाली साबित करने का कोई उपाय नहीं था. उन्होंने नरमी से कहा, ‘‘विदेशी खुफिया वालों ने इतनी सही नकल की है कि असली और नकली नोट की पहचान करना मुश्किल है.’’

मुझे लगा कि दारोगा साहब विदेशी खुफिया वालों की तारीफ कर रहे हैं. मेरा पूछने का दिल हुआ कि साहब हमारे देशी खुफिया वाले क्या करते हैं? पर बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए जो हिम्मत होनी चाहिए, वह मुझ में नहीं थी. असली नोट की जो पहचान मैं ने प्रदीप बाबू से जानी थी, उसे उन सब को बताया, तब जा कर मेरा पीछा छूटा और मुझे घर जाने की इजाजत मिल पाई.

देशी मेम

हवाई जहाज से उतर कर जमीन पर पहला कदम रखते ही मेरा अंगअंग रोमांचित हो उठा. सामने नजर उठा कर देखा तो दूर से मम्मी और पापा हाथ हिलाते नजर आ रहे थे. इन 7 वर्षों में उन में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ था. हां, दोनों ने चर्बी की भारीभरकम चादर जरूर अपने शरीर पर लपेट ली थी.

पापा का सिर रनवे जैसा सपाट हो गया था. दूर से बस, इतना ही पता चला. पास पहुंचते ही दोनों मुझ से लिपट गए. उन के पास ही एक सुंदर सी लड़की हाथ में फूलोें का गुलदस्ता लिए खड़ी थी.

‘‘मधु, कितनी बड़ी हो गई तू,’’ कहते हुए मैं उस से लिपट गया.

‘‘अरे, यह क्या कर रहे हो? मैं तुम्हारी लाड़ली छोटी बहन मधु नहीं, किनी हूं,’’ उस ने मेरी बांहों में कुनमुनाते हुए कहा.

‘‘बेटा, यह मंदाकिनी है. अपने पड़ोसी शर्माजी की बेटी,’’ मां ने जैसे मुझे जगाते हुए कहा. तभी मेरी नजर पास खडे़ प्रौढ़ दंपती पर पड़ी. मैं शर्मा अंकल और आंटी को पहचान गया.

‘‘लेट मी इंट्रोड्यूस माइसेल्फ. रौकी, आई एम किनी. तुम्हारी चाइल्डहुड फ्रेंड रिमेंबर?’’ किनी ने तपाक से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘रौकी? कौन रौकी?’’ मैं यहांवहां देखने लगा.

टाइट जींस और 8 इंच का स्लीवलेस टौप में से झांकता हुआ किनी का गोरा बदन भीड़ का आकर्षण बना हुआ था. इस पर उस की मदमस्त हंसी मानो चुंबकीय किरणें बिखेर कर सब को अपनी ओर खींच रही थी.

‘‘एक्चुअली किनी, रौकी अमेरिका में रह कर भी ओरिजिनल स्टाइल नहीं भूला, है न रौकी?’’ एक लड़के ने दांत निपोरते हुए कहा जो शर्मा अंकल के पास खड़ा था.

‘‘लकी, पहले अपनी आईडेंटिटी तो दे. आई एम श्योर कि रौकी ने तुम्हें पहचाना नहीं.’’

‘‘या…या, रौकी, आई एम लकी. छोटा भाई औफ रौश.’’

‘‘अरे, तुम लक्ष्मणशरण से लकी कब बन गए?’’ मुझे वह गंदा सा, कमीज की छोर से अपनी नाक पोंछता हुआ दुबलापतला सा लड़का याद आया जो बचपन में सब से मार खाता और रोता रहता था.

‘‘अरे, यार छोड़ो भी. तुम पता नहीं किस जमाने में अटके हुए हो. फास्ट फूड और लिवइन के जमाने में दैट नेम डजंट गो.’’

इतने में मुझे याद आया कि मधु वहां नहीं है. मैं ने पूछा, ‘‘मम्मी, मधु कहां है, वह क्यों नहीं आई?’’

‘‘बेटा, आज उस की परीक्षा है. तुझे ले कर जल्दी आने को कहा है. वरना वह कालिज चली जाएगी,’’ पापा ने जल्दी मचाते हुए कहा.

कार के पास पहुंच कर पापा ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठ गए. मंदाकिनी उर्फ किनी मां को पहले बिठा कर फिर खुद बैठ गई. अब मेरे पास उस की बगल में बैठने के अलावा और कोई चारा न था. रास्ते भर वह कभी मेरे हाथों को थाम लेती तो कभी मेरे कंधों पर गाल या हाथ रख देती, कभी पीठ पर या जांघ पर धौल जमा देती. मुझे लगा मम्मी बड़ी बेचैन हो रही थीं. खैर, लेदे कर हम घर पहुंचे.

घर पहुंच कर मैं ने देखा कि माधवी कालिज के लिए निकल ही रही थी. मुझे देख कर वह मुझ से लिपट गई, ‘‘भैया, कितनी देर लगा दी आप ने आने में. आज परीक्षा है, कालिज जाना है वरना…’’

‘‘फिक्र मत कर, जा और परीक्षा में अच्छे से लिख कर आ. शाम को ढेर सारी बातें करेंगे. ठीक है? वाई द वे तू तो वही मधु है न? पड़ोसियों की सोहबत में कहीं मधु से मैड तो नहीं बन गई न,’’ मैं ने नकली डर का अभिनय किया तो मधु हंस पड़ी. बाकी सब लोग सामान उतारने में लगे थे सो किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया. किनी हम से कुछ कदम पीछे थी. शायद वह मेरे सामान को देख कर कुछ अंदाज लगा रही थी और किसी और दुनिया में खो गई थी.

नहाधो कर सोचा सामान खोलूं तब तक किनी हाथ में कोई बरतन लिए आ गई. वह कपडे़ बदल चुकी थी. अब वह 8-10 इंच की स्कर्ट जैसी कोई चीज और ऊपर बिना बांहों की चोली पहने हुए थी. टौप और स्कर्ट के बीच का गोरा संगमरमरी बदन ऐसे चमक रहा था मानो सितारे जडे़ हों. मानो क्या, यहां तो सचमुच के सितारे जड़े थे. किनी माथे पर लगाने वाली चमकीली बिंदियों को पेट पर लगा कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही थी. मैं ने अपने कमरे में से देखा कि वह अपनी पेंसिल जैसी नोक वाली सैंडिल टकटकाते रसोई में घुसी जा रही है. मैं कमरे से निकल कर उस की ओर लपका…

‘‘अरे, किनी, यह क्या कर रही हो? रसोई में चप्पलें?’’

‘‘यार रौकी, मुझे तो लग रहा है कि तुम अमेरिका से नहीं बल्कि झूमरीतलैया से आ रहे हो. बिना चप्पलों के नंगे पैर कैसे चल सकती हूं?’’

जी में आया कह दूं कि नंगे बदन चलने में जब हर्ज नहीं है तो नंगे पैर चलने में क्यों? पर प्रत्यक्ष में यह सोच कर चुप रहा कि जो अपनेआप को अधिक अक्लमंद समझते हैं उन के मुंह लगना ठीक नहीं.

सारा दिन किनी घंटे दो घंटे में चक्कर लगाती रही. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. अपने ही घर में पराया सा लग रहा था. और तो और, रात को भी मैं शर्मा अंकल के परिवार से नहीं बच पाया, क्योंकि रात का खाना उन के यहां ही खाना था.

अगले दिन मुंहअंधेरे उठ कर जल्दीजल्दी तैयार हुआ और नाश्ता मुंह में ठूंस कर घर से ऐसे गायब हुआ जैसे गधे के सिर से सींग. घर से निकलने के पहले जब मैं ने मां को बताया कि मैं दोस्तों से मिलने जा रहा हूं और दोपहर का खाना हम सब बाहर ही खाएंगे तो मां को बहुत बुरा लगा था.

मां का मन रखने के लिए मैं ने कहा, ‘‘मां, तुम चिंता क्यों करती हो? अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना. शाम को खूब बातें करेंगे और सब साथ बैठ कर खाना खाएंगे.’’

दिन भर दोस्तों के साथ मौजमस्ती करने के बाद जब शाम को घर पहुंचा तो पाया कि पड़ोसी शर्मा अंकल का पूरा परिवार तरहतरह के पश्चिमी पकवानों के साथ वहां मौजूद था.

किनी ने बड़ी नजाकत के साथ कहा, ‘‘रौकी, आज सारा दिन तुम कहां गायब रहे, यार? हम सब कब से तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं कि इवनिंग टी तुम्हारे साथ लेंगे.’’

कल से मैं अपने पर नियंत्रण रखने की बहुत कोशिश कर रहा था मगर आते ही घर में जमघट देख कर मैं फट पड़ा.

‘‘सब से पहले तो किनी यह रौकीरौकी की रट लगानी बंद करो. विदेश में भी मुझे सब राकेश ही कहते हैं. दूसरी बात, मैं इतना खापी कर आया हूं कि अगले 2 दिन तक खाने का नाम भी नहीं ले सकता.’’

मां ने तुरंत कहा, ‘‘बुरा न मानना मंदाकिनी बेटे, मैं ने कहा न कि राकेश को बचपन से ही खानेपीने का कुछ खास शौक नहीं है.’’

पिताजी ने भी मां का साथ दिया.

मैं चुपचाप बाथरूम में घुस गया. आराम से नहायाधोया और तैयार हो कर बाहर निकला तो चारों ओर सन्नाटा था. शायद वे लोग जा चुके थे.

बाद में मां ने बताया कि आज रात का खाना मिश्रा अंकल के यहां है. मैं निढाल हो कर सोफे में धंस गया. कहां तो मैं अपने परिवार के साथ हंसीखुशी समय बिताना चाहता था, ढेर सारी बातें करना चाहता था और छोटी बहन मधु को घुमाने ले जाना चाहता था, कहां मैं एक पल भी उन के साथ चैन से नहीं बिता पा रहा हूं.

मिश्राजी के घर आ कर मुझे लगा जैसे बहुत कीमती फिल्मी शूटिंग के सेट पर आ गया हूं. दीवारों पर कीमती पेंटिंग्स तो कहीं शेर की खाल टंगी थी. कमरे में हलकाहलका पाश्चात्य संगीत और वातावरण में फैला रूम फ्रेशनर पूरे माहौल को मदहोश बना रहा था. ऐसे रोमानी वातावरण में जाने क्यों मेरा दम घुट रहा था. इतने में एक लड़की हाथ में ट्रे ले कर आई और सब को कोल्ड ड्रिंक देने लगी.

‘‘शी इज माइ डाटर, पमी. शी इज वर्किंग एज ए कंप्यूटर इंजीनियर,’’ मिश्राजी ने परिचय कराया.

‘‘बेटा, अंकल और आंटी को तो तुम जानती ही हो. यह इन के बेटे मि. राकेश कुमार हैं. अमेरिका में पढ़ाई पूरी कर के वहीं जाब कर रहे हैं. छुट्टियों में भारत आए हैं.’’

लड़की बस, बार्बी डौल थी. तराशे हुए नैननक्श, बोलती आंखें, छोटे से चुस्त काले लिबास में कुदरत ने उस के शरीर के किस उतारचढ़ाव को कैसे तराशा था यह साफ झलक रहा था. होंठों और गालों का गुलाबी रंग उसे और भी गोरा बना रहा था. उस ने ट्रे को तिपाई पर रख कर तपाक से मेरी ओर हाथ बढ़ाया. पता नहीं क्यों मुझे सूसन की याद आ गई.

बातों का सिलसिला जो शुरू हुआ तो पता ही नहीं चला कि हम पहली बार मिल रहे हैं. गपशप में ज्यादातर अमेरिका की ही बातें चलीं. उस के कौनकौन से दोस्त अमेरिका में हैं, कौन कितना कमाता है, कौनकौन क्याक्या तोहफे लाता है. यानी हम सब थोड़ी देर के लिए अमेरिका चले गए थे.

मैं ने गौर किया कि मिश्राजी और उन के बच्चे आपस में अंगरेजी में ही बातचीत कर रहे थे. उन के बोलने का अंदाज, भाषा और बातचीत से ऐसा लग रहा था जैसे वे अभीअभी विदेश से लौटे हैं और बडे़ दुर्भाग्य से यहां फंस गए हैं. मैं ने मन ही मन सोचा, मैं यह कहां आ गया हूं? क्या यही मेरा भारत महान है? मुझे ढंग का भारतीय खाना तो मिलेगा न कि यहां भी मंदाकिनी नहीं किनी के घर की तरह फ्रैंकी टोस्ट, पैटीज आदि ही मिलेंगे. भारत में आए 2 दिन हो गए हैं पर अब तक भारतीय खाना नसीब नहीं हुआ है.

‘‘पमी बेटे, राकेश को अपना घर तो दिखाओ.’’

पमी और उस का भाई बंटी सारा घर दिखाने के बाद मुझे अपने पर्सनल बार में ले गए जो तरहतरह की रंगीन बोतलों और पैमानों से भरा हुआ था. पमी ने उन में से चुन कर एक बोतल और 3 खूबसूरत पैमाने निकाले और उन्हें उस हलके गुलाबी रंग के द्रव से भरा. फिर दोनों ने अपने पैमानों को चियर्स कहते हुए मुंह से लगा लिया.

कौन कहता है कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश है? आंख के अंधो, देख लो, क्या बोलचाल, क्या खानपान, क्या रहनसहन, क्या पहननाओढ़ना… किसी भी मामले में भारतीय किसी से कम नहीं हैं, बल्कि दो कदम आगे ही हैं.

‘‘अरे, यार, तुम तो ले ही नहीं रहे हो. अगर यह वैरायटी पसंद नहीं है तो दूसरा कुछ खोल लें?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. वास्तव में आज सुबह भी दोस्तों के साथ एक बड़ी भारी पार्टी हुई थी. हम सब ने छक कर खायापिया, इसलिए अब खानेपीने की बिलकुल इच्छा नहीं हो रही है,’’ मैं ने बहाना बनाया.

‘‘अरे, यह तो ठीक नहीं हुआ. हम किसी और दिन फिर से मिलेंगे,’’ पमी ने कहा.

मैं ने खाने की रस्म निभाई. तब तक रात के साढे़ 11 बज गए थे. वहां से निकले तो रास्ते में मैं ने पिताजी से पूछ लिया, ‘‘पापा, क्या कल सचमुच कहीं जाना है?’’

‘‘हां, बेटे. कल इंदौर जाना है. तेरे बडे़ मामा की बेटी को देखने लड़के वाले आ रहे हैं. उन लोगों के साथ हमारे ऐसे संबंध हैं कि हम हर सुखदुख में एकदूसरे के साथ होते हैं और फिर चांदनी के बडे़ भाई होने के नाते तुम्हारा फर्ज बनता है कि तुम इस अवसर पर उस के साथ रहो,’’ पापा ने कहा.

मुझे अच्छा लगा. बचपन से ही मेरा मामाजी के परिवार के साथ बड़ा लगाव था. मधु और चांदनी में मुझे कोई अंतर नजर नहीं आता. चांदनी इतनी बड़ी हो गई है कि उस के लिए रिश्ते भी आ गए. इस का अर्थ है कि अब मधु के लिए भी एक अच्छा सा लड़का ढूंढ़ना पडे़गा. यह सोचने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे अचानक मेरी उम्र बढ़ गई है और मैं एक जिम्मेदार बड़ा भाई हूं.

चांदनी के लिए जो रिश्ता आया था वे बडे़ अच्छे लोग थे. सब लोग थोडे़ ही समय में ऐसे घुलमिल गए थे मानो लंबे समय से जानपहचान हो.

हंसीमजाक और बातों में समय कैसे बीता पता ही नहीं चला. खानेपीने के बाद जब गपशप हो रही थी तब लड़के ने मेरे और मेरी नौकरी के बारे में रुचि दिखाई, तो मैं ने उसे विस्तार से अपने काम के बारे में बताया. अंत में मैं ने कहा, ‘‘हम सोचते हैं कि सारी दुनिया में अमेरिका से बढ़ कर कोई नहीं है. वही सर्वश्रेष्ठ या कामयाब देश है. मगर क्या आप जानते हैं कि वास्तव में उस की तरक्की या कामयाबी का कारण क्या है या कौन लोग हैं?’’

लड़के ने कहा, ‘‘हम प्रवासी लोग.’’

मैं ने सिर हिलाया, ‘‘बिलकुल सही. आप जानते हैं कि वास्तव में अमेरिका का अस्तित्व ही हम जैसे अनेक विदेशियों से है. सारी दुनिया के कुशाग्र लोगों को उस ने पैसों के दम पर अपने वश में कर रखा है और उन्हीं के सहारे आज वह आसमान की बुलंदियों को छू रहा है.’’

अजय ने मेरी बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. क्या नहीं है हमारे पास एक दृढ़ संकल्प के अलावा?’’ उस की बातों में कड़वा सच था.

मेहमानों के जाने के बाद मैं ने एक समोसा उठा कर खट्टीमीठी चटनी में डुबो कर खाते हुए कहा, ‘‘मामीजी, इसी प्रकार के स्वादिष्ठ व्यंजन खाने के लिए तो मैं भाग कर भारत आया पर जहां जाता हूं पश्चिमी पकवान ही खाने को मिलते हैं.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया? तुम्हें आए तो आज 5 दिन हो गए हैं.’’

‘‘जाने भी दीजिए मामीजी…क्या सुनाऊं मैं अपने दुखों की दासतां,’’ मैं ने नाटकीय अंदाज में कहा.

मधु ने जब सारा हाल अभिनय के साथ लोगों को सुनाया तो सब का हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया.

‘‘चिंता न करो, रात को मैं ऐसी बढि़याबढि़या चीजें बनाऊंगी कि तुम भी क्या याद करोगे अपनी मामी को.’’

‘‘ये हुई न बात. मामीजी, आप मुझ से कितना प्यार करती हैं,’’ मैं ने उन के हाथों को चूम लिया.

‘‘अब आप लोग थोड़ा आराम कर लीजिए,’’ मामी बोलीं, ‘‘शाम को कुछ मेहमान आने वाले हैं और मैं रसोई में शाम के नाश्ते व खाने की तैयारी करने जा रही हूं.’’

‘‘मामी, शाम को भी कोई दूसरे लड़के वाले चांदनी को देखने के लिए आने वाले हैं क्या…चांदनी, मेरी मान तो यह लड़का जो अभीअभी यहां से गया है, उस के लिए हां कर दे. बड़ा सुशील, शांत और सुलझे हुए विचारों का लड़का है. तुझे धन के ढेर पर बिठाए या न बिठाए पर सारी जिंदगी पलकों पर बिठा कर रखेगा.’’

मैं ने कहा तो चांदनी शर्म से लाल हो गई. सब लोग मेरी इस बात से पूरी तरह सहमत थे. तभी मामाजी बोले, ‘‘राकेश बेटा, हमारे बडे़ अच्छे दोस्त हैं गौतम उपाध्याय. वह आज शाम सपरिवार खाने पर आ रहे हैं.’’

‘‘यह क्या, मामाजी, आज का ही दिन मिला था उन्हें बुलाने को? कल हम वापस जा ही रहे हैं. कल शाम हमारे जाने के बाद उन्हें बुला लेते.’’

‘‘लो, सुन लो, कल बुला लेते. पहली बात तो यह है कि कल तुम लोग जा नहीं रहे हो, क्योंकि कल किसी के यहां तुम्हारे साथ हमें खाने पर जाना है.’’

मेरे दिमाग में अचानक लाल बत्ती जल उठी. यानी जो कुछ हो रहा था वह केवल एक संयोग नहीं था…दिल ने कहा, ‘अरे, यार राकेश, तुम नौजवान हो, सुंदर हो, अमेरिका में तुम्हारी नौकरी है. तुम से अधिक सुयोग्य वर और कौन हो सकता है? लड़कियों का तांता लगना तो स्वाभाविक है.’

मैं चौंक उठा. तो मेरे खिलाफ षड्यंत्र रचा जा रहा है. पता लगाना है कि इस में कौनकौन शामिल हैं. मगर कैसे? हां, आइडिया. मैं ने मधु को अकेले में बुलाया और उसे उस की पसंद की अंगरेजी मूवी दिखाने का वचन दिया. उसे कुछ कैसेट खरीदने के लिए पैसे भी दिए तब कहीं मुश्किल से राज खुला.

‘‘भैया, जिस दिन सुसन के बारे में तुम्हारा पत्र आया था उस दिन से ही घर में हलचल मची हुई है. दोस्तों, नातेरिश्तेदारों में यह खबर फैला दी गई है कि तुम भारत आ रहे हो और शायद शादी कर के ही वापस जाओगे.’’

तो यह बात है. सब ने मिल कर मेरे खिलाफ षड्यंत्र रचा और सब अपना- अपना किरदार बखूबी निभा रहे हैं. तो अब आप लोग भी देख लीजिए कि मैं अकेले अभिमन्यु की तरह कैसे आप के चक्रव्यूह को भेदता हूं,’’ मन ही मन मैं ने भीष्म प्रतिज्ञा ली और अगले ही क्षण से उस पर अमल भी करने लगा.

मधु और चांदनी ने मिल कर घर का नक्शा ठीक किया. मम्मी और मामीजी ने मिल कर तरहतरह के पकवान बनाए. मेहमानों की अगवानी के लिए मैं भी शानदार सूट पहन कर अभीअभी आए अमेरिकन छैले की तरह तैयार हो गया.

दोनों बहनों ने मुझे चने के झाड़ पर चढ़ाया, ‘‘वाह, क्या बात है भैया, बहुत स्मार्ट लग रहे हो. असली बात का असर है, गुड लक. अमेरिका जाने से पहले लगता है आप का घर बस जाएगा.’’

बाहर गाड़ी रुकने की आवाज आई. दोनों बहनें बाहर की ओर भागीं. जाने से पहले उन्होंने मुझ से वादा किया कि यह बात मैं किसी को न बताऊं कि उन्होंने मुझे सबकुछ बता दिया है.

खैर, अतिथियों का आगमन हुआ. मम्मी और पापा को तो आना ही था पर साथ में एक बेटा और एक बेटी नहीं थे जैसा कि अब तक होता आया है. बल्कि इस बार 2 लड़कियां थीं. भई वाह, मजा आ गया. जुड़वां आनंद, एक टिकिट से सिनेमा के दो शो. मैं ने स्वयं अपनी पीठ थपथपाई.

सब ने एकदूसरे का अभिवादन हाथ मिला कर किया. मगर बुजुर्ग औरतों ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया. मैं खड़ाखड़ा सोचने लगा कि आज की युवा पीढ़ी अगर एक कदम आगे बढ़ना चाहे तो ये बडे़बूढे़ लोग, खासकर दकियानूसी औरतें, उन्हें दस कदम पीछे धकेल देती हैं. देश के प्रगतिशील समर्थकों का वश चलता तो वे इन सब को किसी ओल्ड होम में रख कर बाहर से ताला लगा देते.

‘‘आप किन विचारों में खो गए?’’ कोयल सी मीठी आवाज से मैं चौंक उठा.

‘‘लगता है 2 बिजलियों की चमक को देख कर शाक्ड हो गए,’’ दूसरी बिजली हंसी की आवाज में चिहुंकी.

‘‘यू आर राइट. आई वाज लिटिल शाक्ड,’’ मैं ने अब पूरी तरह अमेरिकन स्टाइल में पेश आने का निश्चय कर लिया था. तपाक से एक के बाद एक दोनों से बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया. दोनों हाथों से दोनों के हाथ थामे मैं मकान के अंदर इस अंदाज में आया जैसे किसी फाइव स्टार होटल में घुस रहा हूं. ड्राइंगरूम में आते ही थोड़ा झुक कर उन्हें बैठाया. मैं ने देखा कि शिल्पा शेट्टी और मल्लिका शेरावत के अंदाज में एक ने जगहजगह से फटी हुई, सौरी फाड़ी गई जींस और गहरी कटाई वाला टौप पहन रखा था तो दूसरी, सी थ्रू टाइट्स पहने हुई थी. ऐसे में जवान मनचले तो क्या बूढे़ भी फिसल जाएं. हां, दोनों की आंखों के लैंसों का रंग अलगअलग था. इन रंगों के कारण ही मुझे पता चला कि दोनों ने आंखों में लैंस लगा रखे थे.

अगले 3-4 घंटे किस तरह बीत गए कुछ पता ही न चला. हम ने धरती और आकाश के बीच हर उस चीज पर चर्चा की जो अमेरिका से जुड़ी हुई है. जैसे वहां के क्लब, पब, डांसेस, संस्कृति, खान- पान, पहनावा, आजादी, वैभव संपन्नता आदि.

अगले दिन ही मेहमाननवाजी के बाद हम सब मामा के यहां से वापस आ गए. पर मेरे अमेरिका जाने से पहले तक मेरे घर में यह कार्यक्रम जारी रहा था. मैं ने भी अपना किरदार खूब निभाया. कभी किसी को क्लब, डिस्को, पिकनिक आदि ले जाता तो कभी किसी से हाथ मिला कर हंसहंस कर बातें करता, तो कभी किसी की कमर में हाथ डाल कर नाचता.

अब तक सब लोग अपनेअपने तरीके से मेरी हां का इंतजार कर रहे थे. उस दिन खाने की मेज पर बात छिड़ ही गई. पापा नाश्ता कर के अपने काम पर जा चुके थे. मम्मी ने पूछ ही लिया, ‘‘देखनादिखाना तो बहुत हो चुका. अब तक तू ने बताया नहीं कि तेरा निश्चय क्या है. तुझे कौन सी लड़की पसंद आई?’’

मैं भी सीधे मुद्दे पर आ गया, ‘‘मम्मी, यह आप ने ठीक नहीं किया. मैं ने पहले ही पापा और आप को चिट्ठी लिख दी थी कि मेरे विचार क्या हैं.’’

‘‘तू भी अजीब बात करता है. एक से एक सुंदर पढ़ीलिखी और आधुनिक लड़कियों से मिल चुका है फिर भी अपना ही आलाप लिए बैठा है. भला ये किस बात में कम हैं तेरी अमेरिका की उन लटकझटक वाली छोकरियों से?’’ मां गुस्से से बोलीं.

अब मैं उन के मनोविज्ञान को आईने में तसवीर की तरह साफसाफ देख रहा था. इस डर से कि कहीं किसी विदेशी मेम को मैं घर न ले आऊं, इन लोगों ने मेरे इर्दगिर्द देशी मेमों की भीड़ लगा दी थी.

मुझे लगा कि मम्मी मेरा निर्णय आज सुन कर ही दम लेंगी, इसीलिए उन्होंने फिर से पूछ लिया, ‘‘अब तो तेरे जाने का समय आ चुका है. तू ने बताया नहीं कि तुझे कौन सी भा गई.’’

मैं ने उन के प्रश्न को अनसुना करते हुए कहा, ‘‘फिक्र क्यों करती हो, मां? एकाध दिन में अंतिम फैसला खुद ब खुद आप लोगों के सामने आ जाएगा.’’

मां न कुछ समझीं. न कुछ बोलीं, और न ही शायद अध्यक्ष महोदय से सलाह करना चाहती थीं. हुआ भी वही. अगले दिन मैं पिताजी के निशाने पर था. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा पाया कि बस, आप एक दिन और रुक जाइए.

‘‘मगर परसों तो तू जा रहा है,’’ मां ने परेशान स्वर में कहा.

‘‘हां, मां, बिना यह मामला तय हुए मैं नहीं जाऊंगा, बस?’’ संदेह भरी नजरों से देखती हुई मां चुप हो गईं.

पिताजी सोच में पड़ गए.

अगले दिन शाम को पिताजी घर पर ही थे. मधु अपने पिकनिक के फोटो मां और पिताजी को दिखा रही थी. मैं बनठन कर बाहर निकलने ही वाला था कि पिताजी की आवाज आई, ‘‘राकेश, यहां आओ.’’

मैं आज्ञाकारी बच्चे की तरह उन के पास आ कर खड़ा हो गया तो मां बोलीं, ‘‘सचसच बता, तू ने क्या खेल रचाया?’’ मम्मी ने मेरे बैठने से पहले ही गुस्से से पूछा.

‘‘कैसा खेल, मां?’’ मैं ने बडे़ भोलेपन से पूछा.

‘‘इन लड़कियों से तू ने क्या कहा है कि वे बिदक गईं. अब न पूछना कि कौन सी लड़कियां? मैं जानती हूं कि तू सब समझता है.’’

‘‘मां, मेरा विश्वास कीजिए. मैं ने उन से ऐसा कुछ नहीं कहा.’’

‘‘देखो राकेश, बात को घुमाने के बजाय साफ और सीधी करो तो सभी का समय बचेगा,’’ पिताजी ने कहा.

‘‘इस ने जरूर कुछ उलटासीधा किया है वरना सारे के सारे रिश्ते इस तरह पलट नहीं जाते. कोई कहती है आगे पढ़ना है, किसी की कुंडली नहीं जमी तो कोई मंगली है….वाह, 9 के 9 रिश्ते अलगअलग बहाने बना कर छिटक गए. रिश्ते लड़कों की तरफ से मना होते हैं पर लड़कियों की तरफ से ना होना कितने अपमान की बात है. वह भी एक सुंदर, पढे़लिखे, अमेरिका में नौकरीशुदा नौजवान के लिए. बोल, क्या शरारत की तू ने? सचसच बता, वरना तू वापस अमेरिका नहीं जाएगा. हमारी तो नाक ही कट गई,’’ मां को इतना बिफरते हुए किसी ने कभी नहीं देखा था.
मैं मां की साथ वाली कुरसी पर बैठ गया और उन के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, ‘‘मां, क्या तुम्हें अपने बेटे पर विश्वास नहीं है? मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया है. वे जब अमेरिका में मेरी गर्ल फ्रेंड्स के बारे में पूछ रही थीं तब मैं ने सूसन के बारे में बताया था.’’

पिताजी ने कहा, ‘‘हूं,’’ और उस एक ‘हूं’ में हजार अर्थ थे.

मां ने कहा, ‘‘अब समझी, यह बात क्या कम है?’’

‘‘नहीं मां, आप गलत समझ रही हैं. उन में से किसी भी लड़की को इस बात पर एतराज नहीं है.’’

पिताजी गरजे, ‘‘बकवास बंद कर. तू कैसे जानता है कि तेरे सूसन से परिचय में इन लड़कियों को कोई एतराज नहीं है?’’

‘‘क्योंकि उन में से एक ने कहा कि अमेरिकन कल्चर में यह आम बात है. दूसरी ने कहा कि वहां तो सुबह शादी होती है और शाम को डिवोर्स. तीसरी बोली कि मैं सती सावित्री की पुण्य भूमि में जन्मी हूं. मैं उस के चंगुल से आप को छुड़ा लूंगी.’’

मैं ने देखा कि पिताजी के होंठों पर मुसकराहट थी. मां का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘इसी तरह सभी ने इस बात को घास के तिनके की तरह उड़ा दिया था.’’

‘‘अगर किसी को इस बात पर एतराज न था तो समस्या कहां आई,’’ पिताजी ने असमंजस में भर कर पूछा.

अब मेरे सामने सच बोलने के सिवा कोई रास्ता नहीं था सो मैं ने तय कर लिया कि मुझे साफसाफ सबकुछ बताना ही होगा.

‘‘हर किसी ने मुझ से यही पूछा कि इस समय मेरी तनख्वाह क्या है और आगे चल कर कितनी बढ़ सकती है और मुझे ग्रीन कार्ड कब मिलेगा?

इस पर मैं ने केवल इतना कहा कि मेरा वीजा मुझे 1 साल और वहां रहने की इजाजत देता है. मैं इस समय जो एसाइनमेंट कर रहा हूं वह ज्यादा से ज्यादा 6 महीने के अंदर खत्म हो जाएगा. उस के बाद मैं भारत आ कर यहीं बसना चाहता हूं,’’ मैं ने बडे़ भोलेपन से मां और पिताजी की ओर देख कर जवाब दिया.

सामाजिक वेदना तले दबी दलित स्त्रियों की सौंदर्य चेतना

ऐसा नहीं है कि दलित समुदायों में सुंदर लड़कियां नहीं होतीं लेकिन वे सुंदर दिखने से बचती हैं क्योंकि सुंदरता उन के लिए अभिशाप ही साबित होती है. दूसरे सामाजिक तौर पर उन की जिंदगी बहुत बदसूरत होती है. धर्म ने भी मान रखा है कि दलित स्त्री सुंदर नहीं होती और जो होती हैं वे ऊंची जाति वाले पुरुषों की हवस पूर्ति के लिए जन्मी हैं.

एक दलित औरत की जिंदगी का फसाना और अफसाना इस से ज्यादा कुछ और हो ही नहीं सकता कि उस की सामाजिक स्थिति आम समाज से बहुत बदतर और जानवरों से थोड़ी बेहतर होती है. धर्म ग्रंथों की यह बकवास कभीकभी सच के बहुत नजदीक लगती है कि शूद्र योनि में जन्म पूर्व जन्मों के पापों का फल है. शूद्र स्त्री के बारे में तो यह एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा वाली कहावत जैसी लागू होती है.
बिना दलित स्त्री हुए दलित स्त्री की पीड़ा समझना कोई आसान काम नहीं है. उस की एक तकलीफ बीते दिनों लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने यह सवाल पूछते उजागर की कि कोई दलित आदिवासी या पिछड़े वर्ग की महिला आज तक मिस इंडिया क्यों नहीं बनी. प्रयागराज के जिस आयोजन में उन्होंने यह बात उठाई उस का नाम संविधान सम्मान सम्मेलन था. लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान से ही संविधान की प्रति सीने से लगाए घूम रहे राहुल गांधी के इस बयान को भले ही अमित मालवीय और किरण रिजिजू जो दूसरी तीसरी पंक्ति के नेता बालक बुद्धि कह कर मजाक बनाने की नाकाम कोशिश करते नजर आए. लेकिन हकीकत में हर किसी की तरह हैरानी उन्हें भी हुई होगी कि बात तो सही है. आज तक कोई गैर सवर्ण महिला मिस इंडिया नहीं बन पाई है.
जवाब तो भाजपा नेताओं के पास राहुल गांधी के इस सवाल का भी नहीं होगा कि कुछ लोग क्रिकेट या बौलीबुड के बारे में बात करेंगे, कोई मोची या प्लम्बर को नहीं दिखाएगा. यहां तक कि टौप एंकर भी 90 फीसदी से नहीं हैं. जातिगत जनगणना की मांग को बारबार अलगअलग तरीकों से दोहरा रहे राहुल का 90 फीसदी से मतलब गैरसवर्ण समुदायों की आबादी से था. अगर राहुल गांधी का मूल सवाल या एतराज बचपना होता तो कोई वजह नहीं थी कि भाजपा के एक प्रवक्ता प्रदीप भंडारी मिस इंडिया की लिस्ट खंगाल कर रिया एक्का का नाम सामने लाते कि ज्यादा नहीं महज 2 साल पहले छत्तीसगढ़ के जशपुर की एक आदिवासी लड़की मिस रिया एक्का ने मिस इंडिया का ख़िताब जीता था. लेकिन कोई भी मुख्यधारा में 90 फीसदी आबादी की भागीदारी का सच ढूंढ कर नहीं ला सका.

कई बार कई रिपोर्टों के जरिए यह साबित हो चुका है कि मीडिया और बौलीबुड पर कुलीनों का कब्जा है. फिल्म इंडस्ट्री के सवा सौ सालों के इतिहास में ढूंढे से जो चंद नाम दलित कलाकारों के मिलते हैं उन में उमा देवी यानी टुनटुन, भगवान दादा, राखी सावंत, जौनी लीवर और शुभांगी अत्रे ही प्रमुख हैं. इन की इंडस्ट्री में हैसियत क्या रही है यह बताने की जरूरत नहीं कि ये सब के सब सी और डी ग्रेड आर्टिस्ट रहे हैं.राहुल गांधी ने भाजपा या सरकार पर कोई सीधा आरोप नहीं मढ़ा था और न ही उन से सवाल किया था. उन के सवालों में नया कुछ खास था भी नहीं. इस के बाद भी भाजपाई बौखलाए और तिलमिलाए नजर आए तो दो टूक कहा जा सकता है कि चोर की दाढ़ी में तिनका जाने क्यों वे इस के लिए खुद को दोषी मान रहे हैं. एक नया सवाल जरुर मिस इंडिया की लिस्ट में दलित महिलाओं के नाम न होने का था जिस पर सोचा जाना लाजिमी है.

देश ही नहीं दुनिया की हर औरत को सजनेसंवरने और सुंदर दिखने का शौक जूनून की हद तक होता है. लेकिन दलित महिलाएं इस की अपवाद कहीं जा सकती हैं. वे सजसंवर कर सुंदर दिखने से खौफ खाती हैं, वजह पौराणिक काल से ही उन का शारीरिक शोषण होता रहा है. वे अकसर सवर्ण पुरुषों की हवस का शिकार हुई हैं.
महाभारत की एक पात्र मत्स्यगंधा इस की बेहतर मिसाल है जो निषाद समुदाय से थी. मुसाफिरों को यमुना नदी पार लगाने वाली इस सुंदर दलित स्त्री पर पराशर ऋषि का दिल आ गया था और उन्होंने नाव में ही उस से सहवास ( हकीकत में बलात्कार ) कर डाला था. मत्स्यगंधा पराशर ऋषि की कहानी बड़ी दिलचस्प है जिसे पढ़ कर लगता है कि कौरव और पांडव वर्णसंकर थे. भीष्म के अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा के चलते सभी एक दलित स्त्री के वंशज थे.
दलित औरतों को बदसूरत दिखाने की साजिश तो पौराणिक काल से ही शुरू हो गई थी. शूर्पनखा, त्रिजटा, हिडिम्बा आदि को इतना वीभत्स और बदसूरत बताया गया है जिस से पढ़ने वालों के मन में उन के प्रति नफरत पैदा हो. इतना ही नहीं इन औरतों को कामुक दिखाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई है. उलट इस के ब्राह्मण समुदाय के रावण की पत्नी मंदोदरी और उन के बेटे मेघनाथ की पत्नी सुलोचना को न केवल अति सुंदर बताया गया है बल्कि उन्हें सती की उपाधि भी दी गई है. अगर राक्षस कुल की मंदोदरी और सुलोचना खूबसूरत और पतिव्रता थीं तो उसी कुल की शूर्पनखा कैसे कुरूप और कामुक हो गई?

यह साजिश आज भी साफसाफ दिखती है जिस का सार यह है कि आज भी दलित स्त्री बदसूरत ही होती है. मत्स्यगंधा उर्फ़ सत्यवती की तरह वह अभिशप्त और भोग की वस्तु है. दक्षिण भारत के मंदिरों में देवदासियां दलित समुदाय की ही औरतें होती थीं ( और आज भी हैं ) जो कुलीन पुरुषों की सैक्स की हवस पूरी करने के काम में आती थीं. हो तो आज भी सभ्य समाज में यही रहा है बस तरीका बदल गया है. देवदासियां हमेशा से ही जिज्ञासा का विषय रही हैं. अंगरेजों और मुगलों की राय उन के और इस प्रथा के बारे में क्या थी यह बहुत ज्यादा अहम नहीं लेकिन भारतीयों की राय काफी माने रखती है.

समालोचन नाम की वेब मैगजीन में एक लेखिका गरिमा श्रीवास्तव लिखती हैं, मध्य युग आतेआते स्त्रियों की दशा हीनतर होती गई. शूद्र और निम्न जातियों की स्त्रियों की दशा और भी बदतर होती गई. स्त्रियां अशिक्षित और असहाय थीं. वे भोग विलास की सामग्री बन कर रह गईं. दिन के उजाले में उच्चवर्गीय व्यक्ति शूद्र स्त्रियों की छाया से भी बचते थे, वही रात के अंधेरे में अस्पृश्य स्त्रियां उन की वासना की पूर्ति का साधन बनती थीं. समय और परिस्थितियां बदली हैं लेकिन स्त्री समानता और स्त्री अधिकारों के इस सूचना युग में भी राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार आज भी हजारों की संख्या में दलित स्त्रियां देवदासियां बनने बाध्य हैं. महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर ढाई लाख दलित देवदासियां मौजूद हैं.

इस सच को व्यवसायिक कहानियों की शक्ल में 90 के दशक से दिल्ली प्रैस की ही लोकप्रिय पत्रिका सरस सलिल में बहुत सरल भाषा में प्रकशित किया गया कि कैसे दबंगों और रसूखदारों सहित जमींदार ठाकुर या पंडेपुजारी दलित स्त्रियों का यौन शोषण करते हैं. ये कहानियां देश भर के गैर पेशेवर लेखकों की थी जो कल्पना से ज्यादा आसपास हो रही सच्ची घटनाओं को आधार बना कर कहानियां लिखते हैं. लेकिन जब वक्त थोड़ा बदला तो सरस सलिल की कुछ कहानियों की दलित नायिका इन शोषकों से कैसे निबटने लगी यह भी कहानियों के जरिये बताया गया.

जब यौन शोषण होना ही है तो कैसे दलित स्त्रियों में सौंदर्य चेतना विकसित होती या होगी. इस सवाल का जवाब किरण रिजिजू या अमित मालवीय तो दूर की बात हैं खुद राहुल गांधी भी नहीं बतला पाएंगे. लोचा क्या है इसे बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कौलर रहे राहुल कुमार यादव के शोध प्रबंध भारतीय समाज में दलित महिलाओं की स्थिति का एक समाजशास्रीय अध्ययन के इस सारांश से ही आसानी से समझा जा सकता है –
भारत में दलित महिलाएं सदियों से मौन की संस्कृति में जी रही हैं. वे अपने शोषण उत्पीड़न और अपने विरुद्ध बर्बरता की मूकदर्शक बनी रहीं. उन का अपने शरीर, कमाई और जीवन पर कोई अधिकार व नियंत्रण नहीं है. उन के विरुद्ध हिंसा, शोषण और उत्पीड़न की चरम अभिव्यक्ति, भूख, कुपोषण, बीमारी, शारीरिक और मानसिक यातना बलात्कार के रूप में दिखाई देती है. अशिक्षा, अस्वस्थता, बेरोजगारी, असुरक्षा और अमानवीय व्यवहार तथा सामंतवाद जातिवाद और पितृसत्ता की सामूहिक ताकतों ने उन के जीवन को बद से बदतर बना दिया है.

चंद शब्दों में राहुल कुमार यादव ने दलित स्त्री की हालत की परतें उधेड़ कर रख दी हैं जो राहुल गांधी के बचकाने सवाल को जस्टिफाई करती हैं. जस्टिफाई करने के कुछ आंकड़े भी काफी हैं जिन से सभ्य शहरी यानी अभिजात्य वर्ग एक और यानी यह कि सवर्ण सहमत होंगे जिन के इर्दगिर्द कुछ दलित महिलाएं आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों में आ गई हैं. आइए कुछ आंकड़ों पर नजर डालें –
– दलित महिलाओं की अगुवाई करने वाले एक संगठन स्वाभिमान सोसाइटी और अंतर्राष्ट्रीय महिला अधिकार संगठन इक्वालिटी नाउ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दलित महिलाओं के खिलाफ 80 फीसदी यौन हिंसा उच्च जाति के पुरुषों द्वारा की जाती है.
– राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के इसी साल पेश किए गए एक आंकड़े के मुताबिक साल 2015 से ले कर साल 2020 ( जाहिर है मोदी राज ) तक दलित महिलाओं के खिलाफ बलात्कार के मामलों में 45 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.
– यही आंकड़े यह भी बताते हैं कि एक दिन में औसतन 10 दलित महिलाओं का बलात्कार होता है. ये तो वे मामले हैं जो दर्ज हुए. दर्ज न होने वाले मामलों की तादाद इस से 100 फीसदी भी ज्यादा हो, बात कतई हैरानी की नहीं होगी क्योंकि दलित समाज में औरतों की इज्जत आबरू को गंभीरता से नहीं लिया जाता. दूसरे वे दबंगों से खौफ भी खाते हैं कि पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर कौन ले.
– संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दलित महिला ऊंची जाति की महिला के मुकाबले 14.6 साल कम जीती है. सवर्ण महिलाओं की औसत उम्र 54.1 तो दलित महिलाओं की औसत उम्र 39.5 साल है.
– यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दलित बच्चे ऊंची जाति के शिक्षकों द्वारा दुर्व्यवहार अपमान और उत्पीड़न के चलते स्कूल जाने से कतराते हैं. आदिवासी समुदाय के 37 फीसदी और दलित समुदाय के 51 फीसदी बच्चे प्राईमरी कक्षाओं से ही बाहर हो जाते हैं. बात लड़कियों की करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक 1.2 फीसदी ही दलित लड़कियां ग्रेजुएट हो पाती हैं. गौरतलब है कि देश में दलित महिलाओं की आबादी कुल आबादी का 8 फीसदी के लगभग है यानी तकरीबन 11 करोड़.
अब इन में से कोई मिस इंडिया नहीं बन पाई तो उस की वजहें साफ हैं कि दलित महिला बचपन से ही मजदूर होती हैं और आखिरी सांस तक मजदूर ही रहती हैं. उस के पास न तो इतना वक्त होता है और न ही इतने पैसे होते हैं कि वह सौंदर्य प्रसाधन खरीद सके. बिलाशक शहरी दलित महिलाएं अब थोड़ा सजनेसंवरने लगी है क्योंकि वे शिक्षित हैं और इस से भी ज्यादा अहम बात सुरक्षित हैं. लेकिन गांवदेहातों और कस्बों की तस्वीर कुछ और है.

28 अगस्त को इस प्रतिनिधि ने भोपाल से महज 45 किलोमीटर दूर बैरसिया कसबे के दुकानदारों से चर्चा की तो उन्होंने स्वीकार किया कि दलित महिलाएं आमतौर पर लिपस्टिक जैसा आइटम भी नहीं खरीदतीं. हां स्किन केयर के लिए सस्ती क्रीम वगैरह जरुर खरीदती हैं. इसी कसबे की चार ब्यूटीपार्लर संचालिकाओं ने माना कि उन के क्लाइंट्स में दलित महिलाएं न के बराबर होती हैं. दलित दुल्हनें भी मेकअप कराने कभीकभार ही आती हैं और जो आती हैं उन के पिता सरकारी नौकर होते हैं.
देवदासियों के अलावा कोठों और नौटंकियों में भी दलित महिलाओं की भरमार होती है. ये लड़कियां ऐक्टिंग से ज्यादा देह व्यापार से पैसा कमाती हैं. पहले में धर्म के नाम पर वेश्यावृति होती है तो दूसरे में तथाकथित कला के नाम पर जिस में स्तन और नितम्ब मटका कर आम लोगों का मनोरंजन किया जाता है.
तो क्या अब राहुल गांधी जिन पर भाजपाई जातिगत विभाजन का आरोप लगा रहे हैं क्या ऐसी कोई पहल पर अमल करेंगे जिस में दलित युवतियों की अलग से सवर्ण युवतियों की तरह सौंदर्य प्रतियोगिता हो?

 

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