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युवा होता भारत

नरेंद्र ( स्वामी विवेकानंद) का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ. उनके जन्म दिवस को ही हम युवा दिवस के रूप में मनाते हैं. बालक नरेंद्र बचपन से ही बहुत जिज्ञासु स्वभाव के थे और हर वक़्त सवाल करते रहते थे, इस पर कुछ लोग हंसते थे और कुछ मौन हो जाते हैं.

इत्तेफाक से एक दिन स्वामी परमहंस जी से उनकी मुलाकात हुई.. उन्होंने नरेंद्र के सभी प्रश्नों का जवाब दिया.  स्वामी जी से धर्म, वेदांत, संस्कृति की शिक्षा लेकर प्रचार प्रसार करने निकल पड़े. इस बीच उनकी मुलाकात राजस्थान के राजा अजित सिंह से हुई, उन्होंने ही “विवेकानंद” नाम दिया और शिकागो में हो रहे विश्व धर्म सम्मेलन में भेजा. स्वामी विवेकानंद को शून्य काल में बोलने के लिए समय दिया गया था, मगर जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो वहां मौजूद सभी देशों के लोग मंत्र मुग्ध हो गए. इसी विश्व धर्म सम्मेलन से उन्होंने बहुत ही कम उम्र में भारत को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई , इसलिए उनका जन्म दिवस “युवा दिवस” के रूप में मनाया जाता है. स्वामी विवेकानंद में गजब की वाक पटुता और तर्क शक्ति थी. स्वामी विवेकानंद युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत रहे हैं.. उनके आदर्श समाज, युवाओं के लिए मिशाल है. स्वामी विवेकानंद ने युवा शक्ति का केन्द्र शरीर के बजाय मन को माना है और मानसिक शक्तियों के विकास पर जोर दिया है. इसके लिए उन्होनें युवाओं को पथ प्रदर्शन भी किया है.

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उनका कहना है कि “महसूस करो कि तुम महान हो और महान बन जाओगे”. भारत सर्वाधिक युवाओं वाला देश है और देश की दशा दिशा को बदलने के लिए युवाओं की सक्रियता बहुत जरूरी है.  युवाओं को स्वामी विवेकानंद के मूल्यों, आदर्शों को समझने और प्रेरित होनी की जरूरत है.

युवा शब्द वास्तव में आयु, रूप से परे सक्रियता, उत्साह, स्फूर्ति और सकारात्मकता का प्रतीक है.  हम हर वर्ष 12 जनवरी को युवा दिवस के अवसर पर युवाओं के बीच तरह तरह के प्रोग्राम, भाषण, परेड व लेखन द्वारा स्वामी विवेकानंद के विचारों से अवगत कराया जाता है और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.

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शुभारंभ: क्या रानी की खुशियों के लिए उसके ही ससुराल में चोरी करेगा उत्सव?

कलर्स के शो, ‘शुभारंभ’ में शादी के बाद राजा-रानी की नई जिंदगी का शुभारंभ हो गया है. धीरे-धीरे दोनों के बीच प्यार और नज़दीकियाँ बढ़ रही हैं. वहीं राजा की माँ, आशा ने राजा और रानी को हनीमून पर भेजने का मन बना लिया है, लेकिन क्या कीर्तिदा, आशा की इस चाहत को पूरा होने देगी? आइए आपको बताते हैं क्या होगा शो में आगे…

हनीमून पर स्विट्जरलैंड भेजेगी आशा

RANI

अब तक आपने देखा कि शादी के बाद राजा-रानी की पहली रात आ चुकी है, जिसमें दोनों पहली बार करीब आने वाले होते हैं. दूसरी तरफ कीर्तिदा और गुणवंत ये सुनकर हैरान हो जाते हैं कि आशा ने राजा और रानी के हनीमून के लिए स्विजरलैंड की टिकट बुक कर दी है. वहीं रानी, राजा को बताती है कि उसे हवाई जहाज में बैठने से डर लगता है, तब राजा, रानी का डर मिटाने की एक प्यारी सी कोशिश करता है. 

RAJA 

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पगफेरे के लिए मायके जाएगी रानी

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आने वाले एपिसोड में आप देखेंगे कि, राजा और रानी दोनों पगफेरे के लिए रानी के मायके जाएंगे. वहीं राजा की माँ को पैसे देने का डर रानी के भाई, उत्सव को सताएगा, जिसके लिए उत्सव का दोस्त रानी के ससुराल से पैसे चुराने की सलाह देता है. अपनी माँ से ससुराल की बातें करते वक्त जब रानी उन्हें चाबियाँ दिखाती है, उत्सव के मन में चोरी का ख्याल घर करने लगता है.

अब देखना ये है कि क्या उत्सव अपनी बहन, रानी की खुशियों के लिए उसके ही ससुराल में चोरी करेगा? जानने के लिए देखते रहिए शुभारंभ, सोमवार से शुक्रवार रात 9 बजे, सिर्फ कलर्स पर.

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अपनी तस्वीरों के जरिए फैंस का दिल जीत रही हैं  ये नागिन एक्ट्रेस

मशहूर टीवी अभिनेत्री करिश्मा तन्ना लगातार सुर्खियों में बनी रहती हैं. कभी अपनी एक्टिंग से तो कभी अपनी आदाओं से.. पर इन दिनों करिश्मा अपनी  खूबसूरत तस्वीरों की वजह से चर्चा में है. जी हां, करिश्मा तन्ना की बेहद खूबसूरत तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. फैंस इन तस्वीरों को खुब पसंद कर रहे हैं.

 

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हाल ही में करिश्मा ने अपनी तस्वीरों को इंस्टाग्राम पर शेयर किया है. करिश्मा इन तस्वीरों में पीले रंग की बिकिनी में नजर आ रही हैं. करिश्मा की ये तस्वीरें खुब वायरल हो रही है. इन तस्वीरों पर खुब सारे कमेंट्स भी आए है. मशहूर प्रोड्यूसर एकता कपूर भी खुद को कंमेंट करने से नहीं रोक पाईं. उन्होंने करिश्मा की इन तस्वीरों पर कमेंट किया, ‘माई गाड’.

करिश्मा तन्ना के काम की बात करे तो करिश्मा कुछ दिनों पहले टीवी शो ‘कयामत की राम’ में नजर आईं थीं. इस सीरीज में उनके काम को काफी सराहा गया था. सीरीज में करिश्मा के अपोजित अभिनेता विवेक दहिया नजर आए थे.

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Hello Weekend ? . #love #throwback

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सीरीज में दोनों की केमिस्ट्री को लोगों ने काफी पसंद भी किया था. फिलहाल करिश्मा कलर्स के मशहूर शो ‘नागिन’ के तीसरे सीजन में लीड रोल में नजर आ रही हैं.

‘जनतंत्र एवं संसदीय संवाद’

बुक रिव्यू : ‘जनतंत्र एवं संसदीय संवाद’

संसद से जुड़ी, उसकी कार्यप्रणाली को उजागर करती हुईं किताबें वैसे तो कई हैं लेकिन ‘डा. राकेश कुमार योगी’ की लिखी हुई यह किताब ‘जनतंत्र एवं संसदीय संवाद’ अपनी तरह की एक अलग किताब है. यह न केवल यह संसद की बाहरी दुनिया से परिचय कराती है बल्कि संसद के पूर्व अध्यक्षों के माध्यम से संसद के आंतरिक रूप, मुद्दे, देशविदेश की नीतियों की सही समीक्षा और व्यवस्थाओं का सही ब्योरा भी देती है. डा. योगी ने लोकसभा और राज्यसभा के कार्यों और  नीतियों को समीप से देखने वाले ‘शिवराज पाटिल’, ‘डा. मनोहर जोशी’, ‘डा. नजमा हेप्तुल्ला’, ‘करिया मुंडा’, ‘हरिवंश और सुभाष कश्यप’ से साक्षात्कारों के माध्यम से किताब को लिखा है. सत्य की पराकाष्ठा पर खरी उतरती यह किताब न केवल संसद को समझने का एक माध्यम है बल्कि संसद के दोनों सदनों की आवश्यकता से सरोकार भी रखती है.

नई दिल्ली की संसद रहीं ‘मीनक्षी लेखी’ पुस्तक की भूमिका को लिखते हुए कहती हैं, “पार्लियामेंट में जो बातचीत होती है उसे पार्लियामेंटरी डिबेट कहते हैं, लेकिन हम इस पुस्तक का नाम संसदीय संवाद यानी पार्लियामेंटरी डाइलाग रख रहे हैं.” बकौल मीनाक्षी लेखी संसदीय बातचीत असल में वाद-विवाद न हो कर बातचीत होनी चाहिए जो एक निश्चित मुद्दे को आगे ले जाए. संसद को इतने समीप से देखने और समझने के बाद जब व्यक्ति उसका आकलन कर लोगों तक पहुंचाता है तो लोग भी इसे भलीभांति समझने में सक्षम होते हैं.

किताब के लेखक ‘डा. राकेश कुमार योगी’ ने ‘लेखक की बात’ के माध्यम से अपना नजरिया लोगों के सामने रखा है. लेखक के किताब लिखने के पीछे का कारण उनके संसद को लेकर विचारों का सटीक न होना था और न ही वह उस की असल संरचना से वाकिफ थे, इसलिए उन्होंने अपने प्रश्नों के समाधान के लिए इस पुस्तक के लेखन को प्रारम्भ किया. लेकिन, अन्य लेखकों की तरह उन्होंने अपने विचार पाठकों पर थोपने की बजाए उन लोगों की विचारधारा का समावेश इस पुस्तक के माध्यम से किया है. जिनके पास संसद का अनुभव भी है और जिन्होंने असल में संसद को करीब से देखा, जाना, समझा और कार्य किया हैं. यह काबिलेतारीफ होने के साथ साथ सराहनीय भी है.

पहला अध्याय ‘अपनी बात को ही ठीक मानना है सबसे बड़ी बाधा’  में महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष, केंद्रीय वाणिज्य मंत्री और छह बार लगातार लोकसभा सांसद रहे शिवराज पाटिल से बातचीत कर पार्लियामेंटरी डिस्कशन, नगरपालिका, विधानसभा का कार्य अनुभव, वाजपेयी, चंद्रशेखर, वी. पी. सिंह, शरद यादव जैसे नेताओं के समय स्पीकर का दृष्टिकोण आदि को बताया गया है. दूसरा अध्याय डा. मनोहर जोशी द्वारा ‘संसदीय संवाद की शक्ति को समझा आना अभी शेष है’ की तर्ज पर लिखा गया है. डा. मनोहर जोशी देश की राजनीति का एक अहम हिस्सा रह चुके हैं. महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन की सरकार आने पर उन्होंने दो बार मुख्यमंत्री पद संभाला. 2002 में लोकसभा अध्यक्ष चुने गए. सदन के सदस्य, विपक्षी नेता, मुख्यमंत्री और अध्यक्ष की भूमिकाओं में रहकर संसद के बहुआयामी व भीतरी अनुभव से संसदीय संवाद पर उनकी टिप्पणी सटीक व उपयुक्त है. जोशी ने न केवल अपने कार्यकाल के अंतर्गत हुई विभिन्न कार्यवाहियों को साझा किया है बल्कि अनेक विधेयकों के पास होने न होने के कारणों की समीक्षा भी की है.

अगले चार अध्याय ‘बोलना ही नहीं सुनना भी है जरूरी’ ‘महत्वाकांक्षाओं के संघर्ष के लिए नहीं है संसद,’ ‘मतभेद और असहमतियों के बीच भी आवश्यक संवाद’ व ‘जरूरी है व्यवस्था परिवर्तन’ क्रमानुसार डा. नजमा हेप्तुल्ला, करिया मुंडा, हरिवंश तथा सुभाष कश्यप से बातचीत पर आधारित हैं. उपर्युक्त अध्यायों की खास बात यह है कि यह संसद के विभिन्न सत्रों के साथ ही साथ देश के इतिहास के अतिमहत्वपूर्ण नेताओं और प्रधानमंत्रियों के संवादों को भी पाठक तक पहुंचाते हैं. एक पाठक के रूप में इन चार अध्यायों को मैंने खासतौर पर दिलचस्पी लेते हुए पढ़ा है. इन अध्यायों की दो या तीन पंक्तियों में समीक्षा करना मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा है. व्यवस्था परिवर्तन पर सुभाष कश्यप की टिप्पणी कि “हमारी संसदीय व्यवस्था न ही ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था है न ही राष्ट्रपति व्यवस्था है, यह मिश्रित व्यवस्था है,” तर्कसम्मत है. इसी तरह जब नजमा हेप्तुल्ला कहती हैं, “सवाल यहां (संसद में) लिटररी स्पीच देने का नहीं है, यहां पर लोगों के इश्यूज को उठाने का सवाल है, और जिस तरीके से कोई इश्यूज को उठाता है, वह अपना तरीका है,” तो तार्किकता सिद्ध होती है.

मेरे अनुसार इस किताब को लिखने का मूल उद्देश्य लोगों तक इस संदेश को पहुंचाना है कि जनतंत्र में संवाद का क्या महत्व है और संसद इसमें क्या भूमिका निभाती है. किताब यकीनन अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में सफल हुई है. राजनीति में रुचि रखने या उसे सही तरह से समझने व सम्मत रखने वाले लोगों को इसे जरूर पढ़ना चाहिए. वे लोग जो संसद के गहन अध्ययन की इच्छा रखते हैं उनके लिए यह किताब काफी सहायक हो सकती है.

मरते दम तक एक्टिंग करूंगी : करीना कपूर

करीना कपूर ने अपने कैरियर की शुरुआत साल 2000 में आई फिल्म ‘रिफ्यूजी’ से की थी. इसी फिल्म से अभिषेक बच्चन का भी कैरियर शुरू हुआ था. ‘रिफ्यूजी’ फ्लौप हो गई थी, लेकिन करीना कपूर और अभिषेक बच्चन स्टार किड होने की वजह से चल निकले.

रिफ्यूजी के बाद करीना कपूर 63 फिल्मों में काम कर चुकी हैं, जिन में उन की फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’, ‘3 इडियट्स’, ‘बौडीगार्ड’, ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘गोलमाल-3’ ब्लौकबस्टर फिल्में थीं. जबकि ‘मुझे कुछ कहना है’, ‘हलचल’, ‘चुप चुपके’, ‘जब वी मेट’, ‘गोलमाल’, ‘सिंघम रिटर्न’ और ‘हीरोइन’ सुपरहिट फिल्में थीं.

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वैसे करीना का कहना है कि उन का कैरियर फ्लौप फिल्मों ने बनाया है. 20 सालों का मेरा फिल्मी सफर बड़े कमाल का रहा है. इस बीच मैं ने कई कमाल के लोगों के साथ काम किया. मेरे अंदर वो पैशन है कि मैं मरते दम तक एक्टिंग करती रहूंगी.

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six yards of pure grace ! ? #danceindiadance

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सच तो यह कि मैं ने अपनी हर फ्लौप फिल्म से कुछ न कुछ सीखा और उन्हें अपने कैरियर की सीढ़ी मान कर ऊपर चढ़ती गई.

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गौरतलब है कि करीना कपूर ने 2012 में सैफ अली खान से शादी के बाद भी अपनी एक्टिंग का सफर जारी रखा और दिसंबर 2016 में बच्चा पैदा होने के बाद भी. ऐसे में अगर वह ताउम्र एक्टिंग की बात करें तो गैरवाजिब नहीं है.

नागरिकता के हवनकुंड में विकास की आहुति

देश में हिंदूमुसलिम विभाजन और हिंदुओं के ध्रुवीकरण का गंदा खेल शुरू हो चुका है. मोदी सरकार के नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के कारण पूरे देश में आग लगी हुई है. नोटबंदी और जीएसटी के बाद एक बार फिर जनता हलकान व परेशान है. इस से हो यह रहा है कि जनता की रोजीरोटी से जुड़े सवाल नेपथ्य में चले गए हैं.

अब तक भारत में केवल कश्मीर को ही सब से ज्यादा समस्याग्रस्त क्षेत्र माना जाता था, लेकिन आज पूरा पूर्वोत्तर तो सुलग ही रहा है, आग धीरेधीरे पूरे देश में भी फैल रही है और इस आग को भड़काने में पाकिस्तान या अलगाववादियों का हाथ नहीं है. इस का श्रेय सिर्फ और सिर्फ हमारी केंद्र सरकार और उस की अगुवाई करने वाली मोदीशाह की भाजपा को जाता है.

आज दुनियाभर के देशों की सरकारें अपने देश, समाज और जनता की बेहतरी के लिए काम कर रही हैं. वे जनता के कल्याण और उन्हें अधिक से अधिक सुविधाएं प्रदान करने में जुटी हैं. वे राजामहाराजाओं और तानाशाहों की तरह लोगों का सुखचैन नहीं छीन रही हैं, उन्हें परेशान नहीं कर रही हैं, उन्हें किसी समस्या में नहीं उल झा रही हैं. लेकिन भारत की वर्तमान निर्वाचित केंद्र सरकार ने अपने देश की जनता को उत्पीडि़त करने में रिकौर्ड कायम कर डाला है. नागरिकों का कल्याण करने के बजाय मोदी सरकार लगातार उसे बेहाल, बेचैन और बेबस करने में जुटी है.

2016 में इस सरकार ने देश की जनता पर नोटबंदी थोप कर उस पर बेपनाह जुल्म ढाए. मात्र 10 दिनों के अंदर बैंकों के आगे लगी लंबीलंबी लाइनों में 100 से ज्यादा लोग मर गए. जीएसटी के बाद देश की अर्थव्यवस्था तहसनहस हो चुकी है. महंगाई आसमान छू रही है. प्याज के दाम पैट्रोल के दाम से ऊपर उड़ रहे हैं. रुपए की कीमत लगातार गिर रही है. देश के विश्वविद्यालयों में हाहाकार मचा हुआ है.

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गांवकस्बों के प्राइमरी स्कूल बंद हो रहे हैं. अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैं, दवाएं नहीं हैं, सबकुछ प्राइवेट हाथों को बेचा जा रहा है. देश हत्याओं और बलात्कारों से सहमा हुआ है. अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे महिलाओं का सरेआम रेप कर उन्हें आग के हवाले कर रहे हैं. पूरा समाज सिहरा हुआ है और ऐसे भयावह दौर में मोदी सरकार जनता को एक और भयावह फंदे में उल झाने जा रही है और यह फंदा है नागरिकता संशोधन विधेयक कानून यानी कैब.

मोदी सरकार का कैब लोकसभा और राज्यसभा में पास होने के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हस्ताक्षर के बाद अंतत: कानून के तौर पर देश को भेंट कर दिया गया है. लेकिन यह भेंट जनता को मंजूर नहीं है. इस कानून से पूर्वोत्तर के लोग जहां सामाजिक और सांस्कृतिक असुरक्षा महसूस कर रहे हैं, वहीं धर्म आधारित यह कानून देश के 18 फीसदी नागरिकों के भीतर भय पैदा करने की कोशिश करता जान पड़ रहा है. लिहाजा, इस नए कानून के खिलाफ देशभर में आंदोलन हो रहे हैं.

पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों में भारी आगजनी, तोड़फोड़, नारेबाजी और गोलीबारी हो रही है. कई आंदोलनकारी पुलिस की गोलियों से मारे जा चुके हैं. असम में तो रेलवे स्टेशन तक फूंक दिया गया. सरकारी दफ्तरों में आग लगा दी गई. भाजपा विधायकों के घरों पर तोड़फोड़ हुई. हवाई उड़ानें रोक दी गईं. इंटरनैट और फोन सेवाएं ठप रहीं. कई जगह कर्फ्यू लग गया. जनता के जबरदस्त विरोधप्रदर्शन के बीच भारतजापान के बीच होने वाली शिखर बैठक तक टालने की नौबत आ गई.

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने भारत आने से मना कर दिया. अमेरिका ने अपने नागरिकों को चेताया कि भारत में पूर्वोत्तर की यात्रा पर न जाएं. यह देश के लिए कितने शर्म की बात है.

इन सब बातों से भी ज्यादा शर्म की बात 15 दिसंबर को देश की राजधानी दिल्ली के जामिया नगर इलाके से सामने आई. इस दिन रविवार था और कैब का विरोध करने के लिए लोग सुबह से ही मथुरा रोड और सराय जुलेना में इकट्ठे होने लगे थे. दोपहर तक विरोधप्रदर्शन सामान्य और शांतिपूर्ण रहा, लेकिन सूरज ढलतेढलते तेजी से खबर उड़ी कि प्रदर्शनकारियों ने न्यू फ्रैंड्स कालोनी में डीटीसी की 3 बसों सहित कई और वाहनों को आग लगा दी.

खबर मिलते ही बड़ी तादाद में अर्धसैनिक बल और पुलिस बल मौके पर जा पहुंचे. लेकिन असल बवंडर तब मचा जब हिंसा की यह आग जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कैंपस के भीतर तक जा पहुंची. इस दौरान पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस के गोले छोड़े और लाठीचार्ज भी किया, लेकिन पुलिसिया बर्बरता की हद तब पार हो गई जब वे यूनिवर्सिटी कैंपस में जा घुसे और लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्रों पर कहर ढाना शुरू कर दिया. छात्रों को जम कर धुना गया. यहां तक कि उन्हें वाशरूम में भी नहीं बख्शा गया. पुलिसिया कहर के चलते दर्जनों छात्र जिन में कुछ लड़कियां भी शामिल थीं, बुरी तरह घायल हो गए.

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इस पर गुस्साए छात्रों ने पुलिस हैडक्वार्टर पहुंच कर विरोध जताया और देखते ही देखते आम लोग भी छात्रों के साथ आ कर खड़े हो गए. जामिया के छात्रों से ज्यादती की खबर न्यूज चैनल्स के जरिए आग की तरह देशभर में फैली और जगहजगह लोग इकट्ठा होने लगे. अलीगढ़, मेरठ और सहारनपुर में भी प्रदर्शन हुए लेकिन कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ तो यह युवाओं की सम झदारी ही कही जाएगी जिन की यह दलील काबिलेगौर थी कि हमें संविधान ने किसी भी ज्यादती के खिलाफ विरोध करने का हक दिया है, लेकिन पुलिस को मनमानी करने का हक किस ने दिया?

दूसरे दिन देशभर के छात्रों ने जामिया विश्वविद्यालय में हुई ज्यादती के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया जिस में बीएचयू का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है. छात्रों ने साबित कर दिया कि उन के लिए धर्म और जाति से ऊपर उन की एकता, जागरूकता और वह संविधान है जिस की धज्जियां खुलेआम 6 महीने से उड़ रही हैं. 17 दिसंबर को दिल्ली के मुसलिम बहुल इलाके जाफराबाद, सीलमपुर इलाके में नागरिकता कानून के विरोध में हिंसा हुई. 19 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के लखनऊ में विरोध प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया और आगजनी भी हुई.

इन घटनाओं में मीडिया का भी दोहरापन उजागर हुआ. हिंसा का ठीकरा प्रदर्शनकारियों पर फोड़ने की भक्त चैनलों की कोशिश साफसाफ दिखी तो कुछ चैनलों ने सीधे दिखाया कि दिल्ली पुलिस हैडक्वार्टर के सामने विरोध जता रहे सभी छात्र मुसलमान नहीं थे बल्कि हिंदू छात्र भी उन के साथ थे. ये सभी छात्र मोदीशाह की जोड़ी को कोसते पूछ रहे थे कि उन के राज में यह क्या हो रहा है मगर जो हो रहा था और हो चुका था वह 15 दिसंबर की देर रात देखने वालों ने न्यूज चैनल्स पर देखा कि केवल पश्चिम बंगाल, असम या पूर्वोत्तर राज्यों में ही नहीं बल्कि दिल्ली और उत्तर भारत में भी कैब का दांव उल्टा पड़ा है.

नाराज पड़ोसी

नागरिकता कानून को ले कर देश में ही बवाल नहीं मच रहा है, भारत के पड़ोसी देशों ने भी मोदी सरकार की कारगुजारी और मंशा पर अपना रोष प्रकट किया है. पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा, ‘हम इस नए संशोधित कानून की निंदा करते हैं. यह प्रतिगामी और भेदभावपूर्ण है और सभी संबद्ध अंतर्राष्ट्रीय संधियों और मानदंडों का उल्लंघन करता है. यह पड़ोसी देशों में दखल का भारत का दुर्भावनापूर्ण प्रयास है.’

अफगानिस्तान ने भी इस कानून पर कड़ी आपत्ति जाहिर करते हुए कहा, ‘हमारा देश ऐसा नहीं है जहां सरकार अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करती हो. हम अपने अल्पसंख्यक भाइयों का पूरा सम्मान करते हैं. संसद में उन के लिए सीटें भी रिजर्व हैं.’

वहीं बंगलादेश की बात करें तो वहां की अर्थव्यवस्था आज हम से दोगुनी बेहतर है. रोजीरोटी की तलाश में जो बंगलादेशी भागभाग कर भारत आते थे, वे अपने देश की समृद्ध हालत को देख कर वापस जा चुके हैं. वर्ष 1971 में बंगलादेश दुनिया के सामने एक छोटे से मुल्क के रूप में आया था और आज यह रेडीमेड गारमैंट्स निर्यात के क्षेत्र में चीन के बाद दूसरे पायदान पर खड़ा है तथा भारतीय रेडीमेड गारमैंट इंडस्ट्री को कड़ी टक्कर दे रहा है.

बंगलादेश को रेडीमेड गारमैंट्स निर्यात से सालाना 30 अरब डौलर से ज्यादा मिलते हैं, जबकि इस की तुलना में भारत से रेडीमेड गारमैंट्स का निर्यात 17 अरब डौलर का है. बंगलादेश की करीब 80 प्रतिशत निर्यात की आमदनी इस उद्योग से होती है. बंगलादेश में टैक्सटाइल और रेडीमेड गारमैंट्स 2 सब से बड़े निर्यातक और रोजगार प्रदान करने वाले सैक्टर हैं. इस में करीब 40 लाख लोगों को रोजगार मिला है. बंगलादेश को अपने उद्योग के लिए और ज्यादा श्रमिकों की आवश्यकता है. 4 माह पूर्व बंगलादेश ने अपने श्रमिकों के वेतनमान में 51 प्रतिशत की वृद्धि भी की है. ऐसे में जब बंगलादेश में रोजगार के इतने उन्नत अवसर मौजूद हैं, तो वहां से भाग कर भारत कौन आएगा?

हिंदुओं के ध्रुवीकरण की कोशिश

गौरतलब है कि मोदी सरकार ने नागरिकता कानून में 3 देशों-पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान में हिंसा और उत्पीड़न का शिकार हो कर भारत आने वाले 6 धर्मों – हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई और पारसी शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की बात कही है, जिन्हें अभी तक अवैध शरणार्थी माना जाता था. उस ने मुसलिम शरणार्थियों को नागरिकता देने की बात नहीं कही. मोदी सरकार कहती है कि इन देशों में हिंदू सताए जा रहे हैं. फिर इन देशों से कूटनीतिक संबंध क्यों हैं यह सवाल भी उठता है.

उल्लेखनीय है कि जिन 6 धर्मों के लोगों को नागरिकता दी जाएगी, उन में वे सभी लोग शामिल होंगे जो वैध दस्तावेज के बिना भारत आए हैं या जिन के दस्तावेजों की समयसीमा समाप्त हो गई है.

अगर कोई व्यक्ति इन 3 देशों में से आया है और उस के पास अपने मातापिता का जन्म प्रमाणपत्र भी नहीं है, तब भी 6 साल के निवास के बाद उसे भारत की नागरिकता मिल जाएगी, जबकि अभी तक भारतीय नागरिकता लेने के लिए 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था. लेकिन अब उपरोक्त धर्मों के ऐसे लोग जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 की निर्णायक तारीख तक भारत में प्रवेश कर लिया है, वे सब भारतीय नागरिकता के लिए सरकार के पास आवेदन कर सकेंगे और उन्हें आसानी से नागरिकता हासिल हो जाएगी.

यह भी व्यवस्था की गई है कि उन के विस्थापन या देश में अवैध निवास को ले कर उन पर पहले से चल रही कोई भी कानूनी कार्रवाई स्थायी नागरिकता के लिए उन की पात्रता को प्रभावित नहीं करेगी.

जाहिर है ऐसा कर के मोदी सरकार समाज में विभाजन का बेहद गंदा खेल खेल रही है. मुसलमानों को छोड़ कर अन्य धर्मों के लोगों को नागरिकता दे कर मोदी सरकार हिंदू मतों का ध्रुवीकरण कर के अपने वोटबैंक में इजाफा करना चाहती है. जिन लोगों को नागरिकता दी जाएगी, जाहिर है कि उन के दिल भाजपा सरकार के प्रति एहसान से भर जाएंगे और उन के वोट भाजपा की  झोली में ही गिरेंगे. वहीं देश के हिंदू मोदी सरकार की इस दयालुता के कायल हो कर उस के और भक्त हो जाएंगे.

अयोध्या के राममंदिर प्रकरण, कश्मीर में अनुच्छेद 370 का खात्मा, तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाने से मुसलमान भाजपा से खिन्न हैं. उन के वोट भाजपा की  झोली में हरगिज नहीं जाएंगे. यहां तक कि मुसलिम औरतों के लिए तीन तलाक का खात्मा कर के भाजपा ने अपने सिर जो सेहरा सजाया था, उस के फूल भी अब बदबू मारने लगे हैं. ‘सब का साथ सब का विकास’ जैसे लौलीपौप के सहारे अन्य पार्टियों के हिंदू भी, जिन का  झुकाव भाजपा की तरफ हुआ था, उन में से भी काफी लोग बीते 6 सालों में मोदी सरकार की कारगुजारियों को देख कर बिदके हुए हैं.

अब 2024 के आम चुनाव में इस की भरपाई कैसे हो? लिहाजा, अब कैब और एनआरसी जैसे कानूनों से भाजपा हिंदुओं को आकर्षित करने और हिंदुत्व की भावना व हिंदू राष्ट्र के प्रचार से डैमेज कंट्रोल करेगी. पर यह पक्का नहीं है. हमारे देश में यह आम है कि जब प्राकृतिक, सरकारी या पारिवारिक आपदा आती है तो नीबूमिर्च लटकाने जैसे टोटके किए जाते हैं.

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यह अवश्य है कि संघ और सरकार जानते हैं कि मुसलमानों में भय पैदा करने से हिंदुओं में उत्साह पैदा होता है, फिर यह उत्साह भाजपा के लिए वोट का रूप ले लेता है. मोदी सरकार की इस ‘फूट डालो राज करो’ की कुटिल चाल से विपक्षी पार्टियां भी हलकान हैं और बुद्धिजीवी वर्ग में भी खासी चिंता व्याप्त है. देशभर में इन नए कानूनों को ले कर चर्चाओं का चक्र जारी है.

नागरिकता कानून का राष्ट्रव्यापी विरोध हो रहा है. संविधान विरोधी और एक धर्म विशेष के प्रति घोर उपेक्षा, नफरत और अपमान को प्रदर्शित करने वाले इस कानून के खिलाफ अदालतों में कई याचिकाएं दाखिल हो चुकी हैं.

कानूनविदों का कहना है कि यह कानून संविधान की धारा 14, 15, 21, 25, 26 का खुला उल्लंघन है. हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता प्रदान करना संविधान का उल्लंघन है, लेकिन संघ और भाजपा सत्ता में कायम रहने की लोलुपता में हिंदुओं को रि झाए रखना चाहते हैं. उन की यह सोच है कि मुसलमानों के प्रति नफरतभरा रवैया अपना कर ही वे बहुसंख्यक हिंदुओं को लुभा सकते हैं और इस के लिए संविधान को ताक पर रखना पड़े तो उन्हें कोई गुरेज नहीं है. जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आ रहा है और जो रुख राममंदिर के मामले में अपनाया गया है उस से यह पक्का नहीं कि संविधान की भावना की सुरक्षा हो ही.

सनातनी संस्कारों पर सत्ता हावी

संघ और भाजपा यह भूल गई है कि वसुधैव कुटुम्बकम् सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है, जो महाउपनिषद सहित कई ग्रंथों में लिपिबद्ध है और जिस का अर्थ है-धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्). यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है. तो क्या ऐसी विचारधारा को सदियों से पोसने वाला भारत अपने घर आने वाले परेशान, हताश और विवश लोगों को धर्म के आधार पर एंट्री देगा?

सवाल यह है कि क्या सिर्फ 3 देशों – पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश में ही हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई प्रताडि़त हो रहे हैं? और कहीं नहीं? क्या अमेरिका से प्रताडि़त हो कर शरण लेने आए व्यक्ति को भारत की नागरिकता नहीं मिलेगी? क्या मालदीव और श्रीलंका में वहां के अल्पसंख्यक तमिल हिंदू प्रताडि़त नहीं हैं? अगर वे भारत में शरण लिए हुए हैं या यहां शरण लेना चाहेंगे तो क्या उन्हें खदेड़ दिया जाएगा? श्रीलंका में तमिलों के प्रति होने वाली क्रूरता से मोदी सरकार अनभिज्ञ कैसे है?

हजारों की संख्या में तमिल श्रीलंका से भाग कर दक्षिण भारत में रह रहे हैं, उन्हें भारत की नागरिकता क्यों नहीं मिलनी चाहिए? आखिर वे भी तो हिंदू या ईसाई धर्म को मानने वाले हैं.

उबल रहा है असम

नागरिकता कानून के विरोध में पूरा असम सड़क पर है. लोगों ने चक्का जाम कर दिया है. जगहजगह भयंकर आगजनी और गोलीबारी हो रही है. कई प्रदर्शनकारी पुलिस की गोलियों से मारे जा चुके हैं,

लेकिन केंद्र सरकार के दबाव के चलते मीडिया हाउसेज के भीतर से खबरें सैंसर हो कर चलाई जा रही हैं.

पूर्वोत्तर के लोगों को यह डर सता रहा है कि नागरिकता कानून के तहत जब पिछले कुछ दशकों में अन्य देशों से आए हिंदूबंगाली लोगों को भारत की नागरिकता दे दी जाएगी तो वे पूर्वोत्तर राज्यों के मूल निवासियों के जल, जंगल, जमीन, व्यापार, संसाधनों, नौकरियों आदि सब पर कब्जा करने लगेंगे. असम के लोगों का यह डर बिलकुल वैसा ही है जैसा कि महाराष्ट्र के लोगों को उत्तर प्रदेश और बिहार से रोजगार की तलाश में आए लोगों से रहा है, जिन के लिए कहा जाता रहा है कि उन्होंने वहां मराठी लोगों से रोजगार और व्यवसाय के अवसर छीन लिए हैं.

इसी को ले कर महाराष्ट्र भर में शिवसेना तांडव मचाती रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार के गरीब दिहाड़ी मजदूरों से बदसलूकी करती रही है. उन्हें सरेआम दौड़ादौड़ा कर डंडों से पीटती रही है. और आज जब नागरिकता संशोधन विधेयक कानून से वैसी ही समस्या और असुरक्षा असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के लोग महसूस कर के आंदोलनरत हैं तो शिवसेना में चुप्पी पसरी हुई है. यहां तक कि जब लोकसभा के पटल पर विधेयक रखा गया तब विपक्ष में खड़े होने और बिल का विरोध करने की जगह शिवसेना ने सदन से वौकआउट कर भाजपा को ही आधा सहयोग प्रदान किया.

सास अच्छी तो बहू भी अच्छी

साल 1980 में प्रदर्शित फिल्म ‘सौ दिन सास के’ में ललिता पवार द्वारा निभाया गया भवानी देवी का किरदार हिंदी फिल्मों की सासों का प्रतिनिधित्व किरदार था. ललिता पवार एक नहीं बल्कि कई फिल्मों में क्रूर सास की भूमिका में दिखी थीं.

एक दौर में तो वे क्रूर सास का पर्याय बन गई थीं और आज भी जिस किसी बहू को अपनी सास की बुराई करनी होती है, वह ये पांच शब्द कह कर अपनी भड़ास निकाल लेती है ‘वह तो पूरी ललिता पवार है.’

60 साल बाद भी यह फिल्म प्रासंगिक है तो महज इस वजह के चलते कि पहली बार एक क्रूर सास को सबक सिखा कर सही रास्ते पर लाने वाली बहू मिली थी. ललिता पवार अपनी बड़ी बहू आशा पारेख पर बेइंतहा अत्याचार करती रहती है.

क्योंकि वह गरीब घर की थी और बिना दहेज के आई थी. छोटी बहू बन कर रीना राय घर आती है तो उस से जेठानी पर हो रहे अत्याचार बरदाश्त नहीं होते और वह क्रूरता का बदला क्रूरता से लेती है.

फिल्म पूरी तरह पारिवारिक मामलों से लबरेज थी जिस में ललिता पवार बहुओं को प्रताडि़त करने के लिए बेटी दामाद को भी मिला लेती है. नीलू फुले इस फिल्म में एक धूर्त और अय्याश दामाद के रोल में थे, जो ललिता पवार को बहलाफुसला कर उन की सारी जायदाद अपने नाम करवा कर उन्हें ही गोदाम में बंद कर देते हैं.

चूंकि हिंदी फिल्म थी, इसलिए अंत सुखद ही हुआ. सास को अक्ल आ गई, अच्छेबुरे की भी पहचान हो गई और क्रूर सास को बहुओं ने मांजी मांजी कहते माफ कर दिया.

लेकिन अब ऐसा नहीं होता. आज की बहू सास की क्रूरता और प्रताड़ना को न तो भूलती है और न ही उसे माफ करती है. बदले दौर में सासें भी हालांकि समझदार हो चली हैं और जो ललिता पवार छाप हैं, उन्हें समझदार हो जाना चाहिए नहीं तो बुढ़ापे में या अशक्तता में बहू कोई रहम न कर के अपने साथ हुए दुर्व्यवहार का सूद समेत बदला लेने से नहीं चूकेगी.

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ऐसा ही एक दिलचस्प मामला इंदौर का है, जिस में सासबहू की लड़ाई थाने तक जा पहुंची. रिटायर्ड सीएसपी प्रभा चौहान का अपनी सबइंसपेक्टर बहू श्रद्धा सिंह से विवाद हो गया. सास ने थाने में रिपोर्ट लिखाई तो बहू ने अपनी बहन और मां के साथ एक दिन देर रात घर में आ कर उन्हें पीटा और हाथ में काटा भी.

अब बहू भी भला क्यों खामोश रहती, उस ने भी सास के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी कि सास ने अपने बेटे यानी उस के पति और ननद के साथ मिल कर उस की मां और बहन को घर में घेर कर मारापीटा.

बकौल श्रद्धा घटना की रात जैसे ही वह घर में दाखिल हुई तो सास के गालियां देने पर विवाद हुआ. मैं ने उन्हें शालीलता से बात करने को कहा तो विवाद घर की दहलीज पार कर थाने तक जा पहुंचा. बात सिर्फ आज की नहीं है बल्कि सास शादी के बाद से ही उसे प्रताडि़त करती थी.

इस मामले में दिलचस्पी वाली एकलौती बात यही है कि बहू ने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार पर सास को माफ नहीं किया.

मुमकिन है कि कुछ गलती उस की भी रही हो, लेकिन इंदौर की ही एक काउंसलर की मानें तो आजकल की बहुएं आशा पारेख और रीना राय की तरह सास को माफ नहीं करतीं बल्कि ऐसे टोनेटोटकों से परेशान कर देती हैं कि उसे छठी का दूध याद आ जाता है. उसे पछतावा होता है कि काश शुरू में बहू को परेशान न किया होता तो आज ये दिन नहीं देखने पड़ते और बुढ़ापा चैन से कट रहा होता.

भोपाल की एक प्रोफेसर सविता शर्मा (बदला नाम) की मानें तो उन की शादी कोई 25 साल पहले हुई थी. शादी के बाद सास का व्यवहार ललिता पवार जैसा ही रहा. वह बातबात पर टोकती थी और हर काम में मीनमेख निकालती थी.

पति के प्यार और उन के मां से लगाव होने के कारण वह अलग नहीं हो पाई और सास के बर्ताव से समझौता कर लिया लेकिन शुरुआती दिनों के दुर्व्यवहार को वे भूल नहीं पाईं.

सविता के मुताबिक मैं ने उस की (उन की नहीं) हर ज्यादती बरदाश्त की लेकिन जब वह मेरे मम्मीपापा को भलाबुरा कहतीं तो मेरा खून खौलता कि जो कुछ कहना है मुझ से कहो, मांबाप को तो बीच में मत घसीटो.

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अब हालत यह है कि उन की सास पैरालिसिस के चलते बिस्तर में पड़ी कराहती रहती हैं और चायपानी तक के लिए उन की मोहताज रहती हैं. सविता कहती हैं, ‘उन की इस हालत को देख कर मुझे खुशी भी होती है और कभीकभी दुख भी होता है. मैं चाह कर भी उन की वैसी सेवा नहीं कर पाती जैसी कि एक बहू को करनी चाहिए.’

यूं पति ने मां की सेवा के लिए नौकरानी रखी है लेकिन वह चौबीसों घंटे तो नहीं रह सकती. जब वे मुझ से चाय मांगती हैं तो मुझे शादी के बाद के वे शुरुआती दिन याद हो आते हैं, जब मैं खुद की चाय बनाने के लिए उन की इजाजत की मोहताज रहती थी.

कई बार तो बिना चाय पिए ही कालेज चली जाती थी. अब जब वे 4-5 बार आवाज लगा कर चाय मांगती हैं तब कहीं जा कर उन के पलंग के पास स्टूल पर चाय रख कर पांव पटक कर चली आती हूं, ताकि उन्हें अपना किया याद आए. मैं समझ नहीं पा रही कि ऐसा करने से सुख क्यों मिलता है और मैं बीती बातों को भुला क्यों नहीं पा रही.

यानी सविता वही कर रही हैं जो सास ने उन के साथ किया था. इस से साफ लगता है कि वे अभी तक आहत हैं और सास को अपने किए की सजा नहीं दे रहीं तो अहसास तो करा ही रही हैं कि जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे.

सविता के बेटे की भी 2-3 साल में शादी हो जाएगी. वे कहती हैं मैं ने अभी से तय कर लिया है कि अपनी बहू के साथ वैसा व्यवहार नहीं करूंगी जो मेरी सास ने मेरे साथ किया था. जाहिर है सविता अपनी सास की हालत को देख कर कहीं न कहीं दुखी भी हैं कि अगर वे कांटे बोएंगी तो उन्हें भी कांटों का ही गुलदस्ता मिलेगा.

समाजशास्त्र की प्रोफेसर सविता मानती हैं कि आजकल की बहुएं ज्यादा बंदिशें बरदाश्त नहीं करतीं. वे आजाद खयालों की होती हैं. बहू चाहेगी तो उसे मैं जींसटौप पहनने दूंगी. बेटे के साथ घूमनेफिरने जाने देने से रोकूंगी नहीं, क्योंकि यह उस का हक भी है और इच्छा भी.

भावुक होते वे कहती हैं कि मैं उसे इतना प्यार दूंगी कि अगर कभी मुझे पैरालिसिस का अटैक आ जाए तो मांगने के पहले वह खुद चाय दे और कुछ देर मेरे पास बैठ कर बतियाए भी.

इंदौर की प्रभा और श्रद्धा की तरह आए दिन सासबहू के विवाद कलह और मारापीटी के मामले हर थाने में दर्ज होते हैं जिन की असल वजह अधिकतर मामलों में सास का वह व्यवहार होता है जो उस ने शादी के बाद बहू से किया होता है.

इसलिए सविता जैसी सास बनने जा रही महिलाओं ने अच्छी बात यह सीख ली है कि उन्हें अपनी बहू के साथ वह व्यवहार नहीं करना है, जिस से बुढ़ापे में उन्हें बहू की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ें.

जाहिर है अच्छी सास बनने के लिए आप को बहू का खयाल रखना पड़ेगा. बहू जब शादी कर घर में आती है तो उस के जेहन में सास की इमेज ललिता पवार या शशिकला जैसी होती है, जबकि वह चाहती है कि निरुपा राय, कामिनी कौशल, उर्मिला भट्ट और सुलोना जैसी सास जो हर कदम पर बहू का खयाल रखते हुए उस का साथ दें.

इसलिए अगर बुढ़ापा सुकून से काटना है तो बहू को सुकून से रखना ही बेहतर भविष्य सुखशांति और सेवा की गारंटी है. वैसे भी आजकल एकल होते परिवारों में सास का एकलौता सहारा आखिर में बहू ही बचती है. अगर उस से भी संबंध शुरू से ही खटास भरे होंगे तो उन का अंत हिंदी फिल्मों जैसा सुखद तो कतई नहीं होगा.

इस में कोई शक नहीं कि सासें अब बदल रही हैं. क्योंकि उन्हें अपने बुढ़ापे की चिंता है और यह भी मालूम है कि बहू ही वह एकलौता सहारा होगी जो उसे सुख आराम दे पाएगी. तो फिर खामख्वाह क्यों ललिता पवार जैसा सयानापन दिखाते हुए बेवजह का पंगा लिया जाए.

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यानी बहू बुढ़ापे और अशक्तता के दिनों के लिए एक ऐसा इंश्योरेंस है, जिस में प्रीमियम प्यार और अपनेपन के अलावा आत्मीयता का भरना है, इस से रिटर्न अच्छा मिलेगा. हालांकि हर मामले में ऐसा होना जरूरी नहीं लेकिन बहू से अच्छा व्यवहार करना कोई हर्ज की बात नहीं. यह वक्त की मांग भी है जिस से घर में सुखशांति बनी रहती है और बेटा भी खुश और बेफिक्र रहता है. शादी के बाद के शुरुआती दिन बहू के लिए तनाव भरे होते हैं, वह सास के व्यवहार को ले कर स्वभावत: आशंकित रहती है.

ऐसे में अगर आप उसे सहयोग और प्यार दें तो वह यह भी नहीं भूलती कि सास कितनी भली है, लिहाजा बुढ़ापे में वह पैर भले ही न दबाए, लेकिन पैर तोड़ेगी नहीं, इस की जरूर गारंटी है.

प्रभा सिंह और सविता की सास ने अगर शुरू में बहू को अच्छे से रखा होता तो आज वे एक सुखद जिंदगी जी रही होतीं, प्यार दिया होता तो प्यार ही मिलता.

राजनीति की तरह घर की सत्ता भी पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है लेकिन जो सासें इमरजेंसी लगा कर तानाशाही दिखाती हैं, उन्हें जेल की सी ही जिंदगी जीना पड़ती है इसलिए जरूरी है कि परिवार में भी लोकतंत्र हो, आजादी हो, अधिकारों पर अतिक्रमण न हो और कमजोर पर अत्याचार न हों.

क्योंकि जो बहू आज कमजोर है कल को सत्ता हाथ में आते ही ताकतवर हो जाएगी और बदला तो लेगी ही. इसलिए अभी से संभल जाइए और बहू को बजाए क्रूरता के प्यार से अपने वश में रखिए.

यह इनवैस्टमेंट अच्छे दिनों की गारंटी है खासतौर से उस वक्त की जब आप अशक्त, असहाय बीमार और अकेली पड़ जाती हैं, तब वह बहू ही है जो उसी तरह आप का ध्यान रखेगी जैसा शादी के बाद आप ने उस का रखा था.

कामयाब : भाग 2

हर समस्या का समाधान पा कर रमा संतुष्ट हो जाती. शिवम और सुहासिनी को तो मानो कोई खिलौना मिल गया, स्कूल से आ कर जब तक वे उस से मिल नहीं लेते तब तक खाना ही नहीं खाते थे. वह भी उन्हें देखते ही ऐसे उछलता मानो उन का ही इंतजार कर रहा हो. कभी वे अपने हाथों से उसे दूध पिलाते तो कभी उसे प्रैम में बिठा कर पार्क में घुमाने ले जाते. रमा भी शिवम और सुहासिनी के हाथों उसे सौंप कर निश्ंिचत हो जाती.

धीरेधीरे रमा का बेटा चित्रा से इतना हिलमिल गया कि अगर रमा उसे किसी बात पर डांटती तो मौसीमौसी कहते हुए उस के पास आ कर मां की ढेरों शिकायत कर डालता और वह भी उस की मासूमियत पर निहाल हो जाती. उस का यह प्यार और विश्वास अभी तक कायम था. शायद यही कारण था कि अपनी हर छोटीबड़ी खुशी वह उस के साथ शेयर करना नहीं भूलता था.

पर पिछले कुछ महीनों से वह उस में आए परिवर्तन को नोटिस तो कर रही थी पर यह सोच कर ध्यान नहीं दिया कि शायद काम की वजह से वह उस से मिलने नहीं आ पाता होगा. वैसे भी एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे अपनी ही दुनिया में रम जाते हैं तथा अपनी समस्याओं के हल स्वयं ही खोजने लगते हैं, इस में कुछ गलत भी नहीं है पर रमा की बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. इतने जहीन और मेरीटोरियस स्टूडेंट के दिलोदिमाग में यह फितूर कहां से समा गया?

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बेटी सुहासिनी की डिलीवरी के कारण 1 महीने घर से बाहर रहने के चलते ऐसा पहली बार हुआ था कि वह रमा और अभिनव से इतने लंबे समय तक मिल नहीं पाई थी. एक दिन अभिनव से बात करने के इरादे से उस के घर गई पर जो अभिनव उसे देखते ही बातों का पिटारा खोल कर बैठ जाता था, उसे देख कर नमस्ते कर अंदर चला गया, उस के मन की बात मन में ही रह गई.

वह अभिनव में आए इस परिवर्तन को देख कर दंग रह गई. चेहरे पर बेतरतीब बढ़े बालों ने उसे अलग ही लुक दे दिया था. पुराना अभिनव जहां आशाओं से ओतप्रोत जिंदादिल युवक था वहीं यह एक हताश, निराश युवक लग रहा था जिस के लिए जिंदगी बोझ बन चली थी.

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समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा हंसता, खिलखिलाता रहने वाला तथा दूसरों को अपनी बातों से हंसाते रहने वाला लड़का अचानक इतना चुप कैसे हो गया. औरों से बात न करे तो ठीक पर उस से, जिसे वह मौसी कह कर न सिर्फ बुलाता था बल्कि मान भी देता था, से भी मुंह चुराना उस के मन में चलती उथलपुथल का अंदेशा तो दे ही गया था. पर वह भी क्या करती. उस की चुप्पी ने उसे विवश कर दिया था. रमा को दिलासा दे कर दुखी मन से वह लौट आई.

उस के बाद के कुछ दिन बेहद व्यस्तता में बीते. स्कूल में समयसमय पर किसी नामी हस्ती को बुला कर विविध विषयों पर व्याख्यान आयोजित होते रहते थे जिस से बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके. इस बार का विषय था ‘व्यक्तित्व को आकर्षक और खूबसूरत कैसे बनाएं.’ विचार व्यक्त करने के लिए एक जानीमानी हस्ती आ रही थी.

आयोजन को सफल बनाने की जिम्मेदारी मुख्याध्यापिका ने चित्रा को सौंप दी. हाल को सुनियोजित करना, नाश्तापानी की व्यवस्था के साथ हर क्लास को इस आयोजन की जानकारी देना, सब उसे ही संभालना था. यह सब वह सदा करती आई थी पर इस बार न जाने क्यों वह असहज महसूस कर रही थी. ज्यादा सोचने की आदत उस की कभी नहीं रही. जिस काम को करना होता था, उसे पूरा करने के लिए पूरे मनोयोग से जुट जाती थी और पूरा कर के ही दम लेती थी पर इस बार स्वयं में वैसी एकाग्रता नहीं ला पा रही थी. शायद अभिनव और रमा उस के दिलोदिमाग में ऐसे छा गए थे कि  वह चाह कर भी न उन की समस्या का समाधान कर पा रही थी और न ही इस बात को दिलोदिमाग से निकाल पा रही थी.

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आखिर वह दिन आ ही गया. नीरा कौशल ने अपना व्याख्यान शुरू किया. व्यक्तित्व की खूबसूरती न केवल सुंदरता बल्कि चालढाल, वेशभूषा, वाक्शैली के साथ मानसिक विकास तथा उस की अवस्था पर भी निर्भर होती है. चालढाल, वेशभूषा और वाक्शैली के द्वारा व्यक्ति अपने बाहरी आवरण को खूबसूरत और आकर्षक बना सकता है पर सच कहें तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का सौंदर्य उस का मस्तिष्क है. अगर मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, सोच सकारात्मक नहीं है तो ऊपरी विकास सतही ही होगा. ऐसा व्यक्ति सदा कुंठित रहेगा तथा उस की कुंठा बातबात पर निकलेगी. या तो वह जीवन से निराश हो कर बैठ जाएगा या स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए कभी वह किसी का अनादर करेगा तो कभी अपशब्द बोलेगा. ऐसा व्यक्ति चाहे कितने ही आकर्षक शरीर का मालिक क्यों न हो पर कभी खूबसूरत नहीं हो सकता, क्योंकि उस के चेहरे पर संतुष्टि नहीं, सदा असंतुष्टि ही झलकेगी और यह असंतुष्टि उस के अच्छेभले चेहरे को कुरूप बना देगी.

अगले भाग में पढ़ें- क्या अभिनव के मन का फितूर निकल पाया ?

कामयाब : भाग 3

मान लीजिए, किसी व्यक्ति के मन में यह विचार आ गया कि उस का समय ठीक नहीं है तो वह चाहे कितने ही प्रयत्न कर ले सफल नहीं हो पाएगा. वह अपनी सफलता की कामना के लिए कभी मंदिर, मसजिद दौड़ेगा तो कभी किसी पंडित या पुजारी से अपनी जन्मकुंडली जंचवाएगा.

मेरे कहने का अर्थ है कि वह प्रयत्न तो कर रहा है पर उस की ऊर्जा अपने काम के प्रति नहीं, अपने मन के उस भ्रम के लिए है…जिस के तहत उस ने मान रखा है कि वह सफल नहीं हो सकता.

अब इस तसवीर का दूसरा पहलू देखिए. ऐसे समय अगर उसे कोई ग्रहनक्षत्रों का हवाला देते हुए हीरा, पन्ना, पुखराज आदि रत्नों की अंगूठी या लाकेट पहनने के लिए दे दे तथा उसे सफलता मिलने लगे तो स्वाभाविक रूप से उसे लगेगा कि यह सफलता उसे अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण मिली पर ऐसा कुछ भी नहीं होता.

वस्तुत: यह सफलता उसे उस अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण नहीं मिली बल्कि उस की सोच का नजरिया बदलने के कारण मिली है. वास्तव में उस की जो मानसिक ऊर्जा अन्य कामों में लगती थी अब उस के काम में लगने लगी. उस का एक्शन, उस की परफारमेंस में गुणात्मक परिवर्तन ला देता है. उस की अच्छी परफारमेंस से उसे सफलता मिलने लगती है. सफलता उस के आत्मविश्वास को बढ़ा देती है तथा बढ़ा आत्मविश्वास उस के पूरे व्यक्तित्व को ही बदल डालता है जिस के कारण हमेशा बुझाबुझा रहने वाला उस का चेहरा अब अनोखे आत्मविश्वास से भर जाता है और वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल होता जाता है. अगर वह अंगूठी या लाकेट पहनने के बावजूद अपनी सोच में परिवर्तन नहीं ला पाता तो वह कभी सफल नहीं हो पाएगा.

इस के आगे व्याख्याता नीरा कौशल ने क्या कहा, कुछ नहीं पता…एकाएक चित्रा के मन में एक योजना आकार लेने लगी. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि उसे एक ऐसा सूत्र मिल गया है जिस के सहारे वह अपने मन में चलते द्वंद्व से मुक्ति पा सकती है, एक नई दिशा दे सकती है जो शायद किसी के काम आ जाए.

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दूसरे दिन वह रमा के पास गई तथा बिना किसी लागलपेट के उस ने अपने मन की बात कह दी. उस की बात सुन कर वह बोली, ‘‘लेकिन अभिजीत इन बातों को बिलकुल नहीं मानने वाले. वह तो वैसे ही कहते रहते हैं. न जाने क्या फितूर समा गया है इस लड़के के दिमाग में… काम की हर जगह पूछ है, काम अच्छा करेगा तो सफलता तो स्वयं मिलती जाएगी.’’

‘‘मैं भी कहां मानती हूं इन सब बातों को. पर अभिनव के मन का फितूर तो निकालना ही होगा. बस, इसी के लिए एक छोटा सा प्रयास करना चाहती हूं.’’

‘‘तो क्या करना होगा?’’

‘‘मेरी जानपहचान के एक पंडित हैं, मैं उन को बुला लेती हूं. तुम बस अभिनव और उस की कुंडली ले कर आ जाना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

नियत समय पर रमा अभिनव के साथ आ गई. पंडित ने उस की कुंडली देख कर कहा, ‘‘कुंडली तो बहुत अच्छी है, इस कुंडली का जाचक बहुत यशस्वी तथा उच्चप्रतिष्ठित होगा. हां, मंगल ग्रह अवश्य कुछ रुकावट डाल रहा है पर परेशान होने की बात नहीं है. इस का भी समाधान है. खर्च के रूप में 501 रुपए लगेंगे. सब ठीक हो जाएगा. आप ऐसा करें, इस बच्चे के हाथ से मुझे 501 का दान करा दें.’’

प्रयोग चल निकला. एक दिन रमा बोली, ‘‘चित्रा, तुम्हारी योजना कामयाब रही. अभिनव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया. जहां कुछ समय पूर्व हमेशा निराशा में डूबा बुझीबुझी बातें करता रहता था, अब वही संतुष्ट लगने लगा है. अभी कल ही कह रहा था कि ममा, विपिन सर कह रहे थे कि तुम्हें डिवीजन का हैड बना रहा हूं, अगर काम अच्छा किया तो शीघ्र प्रमोशन मिल जाएगा.’’

रमा के चेहरे पर छाई संतुष्टि जहां चित्रा को सुकून पहुंचा रही थी वहीं इस बात का एहसास भी करा रही थी, कि व्यक्ति की खुशी और दुख उस की मानसिक अवस्था पर निर्भर होते हैं. ग्रहनक्षत्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. अब वह उस से कुछ छिपाना नहीं चाहती थी. आखिर मन का बोझ वह कब तक मन में छिपाए रहती.

‘‘रमा, मैं ने तुझ से एक बात छिपाई पर क्या करती, इस के अलावा मेरे पास कोई अन्य उपाय नहीं था,’’ मन कड़ा कर के चित्रा ने कहा.

‘‘क्या कह रही है तू…कौन सी बात छिपाई, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

‘‘दरअसल उस दिन तथाकथित पंडित ने जो तेरे और अभिनव के सामने कहा, वह मेरे निर्देश पर कहा था. वह कुंडली बांचने वाला पंडित नहीं बल्कि मेरे स्कूल का ही एक अध्यापक था, जिसे सारी बातें बता कर, मैं ने मदद मांगी थी तथा वह भी सारी घटना का पता लगने पर मेरा साथ देने को तैयार हो गया था,’’ चित्रा ने रमा को सब सचसच बता कर झूठ के लिए क्षमा मांग ली और अंदर से ला कर उस के दिए 501 रुपए उसे लौटा दिए.

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‘‘मैं नहीं जानती झूठसच क्या है. बस, इतना जानती हूं कि तू ने जो किया अभिनव की भलाई के लिए किया. वही किसी की बातों में आ कर भटक गया था. तू ने तो उसे राह दिखाई है फिर यह ग्लानि और दुख कैसा?’’

‘‘जो कार्य एक भूलेभटके इनसान को सही राह दिखा दे वह रास्ता कभी गलत हो ही नहीं सकता. दूसरे चाहे जो भी कहें या मानें पर मैं ऐसा ही मानती हूं और तुझे विश्वास दिलाती हूं कि यह बात एक न एक दिन अभिनव को भी बता दूंगी, जिस से कि वह कभी भविष्य में ऐसे किसी चक्कर में न पड़े,’’ रमा ने उस की बातें सुन कर उसे गले से लगाते हुए कहा.

रमा की बात सुन कर चित्रा के दिल से एक भारी बोझ उठ गया. दुखसुख, सफलताअसफलता तो हर इनसान के हिस्से में आते हैं पर जो जीवन में आए कठिन समय को हिम्मत से झेल लेता है वही सफल हो पाता है. भले ही सही रास्ता दिखाने के लिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा पर उसे इस बात की संतुष्टि थी कि वह अपने मकसद में कामयाब रही.

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