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Lonliness : अपनों के शहर में अकेली

बहुत देर से कोई बस नहीं आई. मैं खड़ेखड़े उकता गई. एक अजीब सी सुस्ती ने मुझे घेर लिया. मेरे आसपास लोग खड़े थे, बतिया रहे थे, कुछ इधरउधर विचर रहे थे. मैं उन सब से निर्विकार अपने अकेलेपन से जूझ रही थी. निगाह तो जिधर से बस आनी थी उधर चिपक सी गई थी. मन में एक प्रश्न यह भी उठ रहा था कि मैं जा क्यों रही हूं? न अम्मा, न बाबूजी, कोई भी तो मेरा इंतजार नहीं कर रहा है. तो क्या लौट जाऊं? पर यहां अकेली कमरे में क्या करूंगी. होली का त्योहार है, आलमारी ठीक कर लूंगी, कपड़े धो कर प्रैस करने का समय मिल जाएगा. 4 दिनों की छुट्टी है. समय ही समय है. सब अपने घरपरिवार में होली मना रहे होंगे. किसी के यहां जाना भी अजीब लगेगा…नहीं, चली ही जाती हूं. क्या देहरादून जाऊं शीला के पास? एकाएक मन शीला के पास जाने के लिए मचल उठा.

शीला, मेरी प्यारी सखी. हमारी जौइनिंग एक ही दिन की है. दोनों ने पढ़ाई पूरी ही की थी कि लोक सेवा आयोग से सीधी भरती के तहत हम इंटर कालेज में प्रवक्ता पद पर नियुक्त हो गए. प्रथम तैनाती अल्मोड़ा में मिली.

अल्मोड़ा एक सुंदर पहाड़ी शहर है जहां कसबाई संस्कृति की चुलबुलाहट है. सुंदर आबोहवा, रमणीक पर्यटन स्थल, खूबसूरत मंदिर, आकार बदलते झरने, उपनिवेश राज के स्मृति चिह्न, और भी बहुत कुछ. खिली धूप और खुली हवा. ठंडा है किंतु घुटा हुआ नहीं. मैदानी क्षेत्रों की न धुंध न कोहरा. सबकुछ स्वच्छनिर्मल. जल्दी ही हमारा मन वहां रम गया.

दोनों पढ़ने वाले थे. शीघ्र ही हमारी दोस्ती परवान चढ़ने लगी. साथ भोजन करने से खाने का रस बना रहा. पहाड़ी जगह, सीधेसरल जन, रंग बदलते मौसम, रसीले फल और शाम को टहलना, सेहत तो बननी ही थी.

स्कूल की बंधीबंधाई दिनचर्या के उपरांत कुछ शौपिंग, कुछ बतियाना, स्फूर्तिपूर्वक लगता था. अन्यथा स्कूल का माहौल, बाप रे, ऐडमिशन, टाइमटेबल, लगातार वादन, होमवर्क, यूनिट टैस्ट, छमाही, सालाना, कौपियां, रिजल्ट, प्रतियोगिता, सांस्कृतिक कार्यक्रम, सदन, पत्रिका, संचयिका, अभिभावक संघ, बैठकें, प्रीबोर्ड, बोर्ड परीक्षा, गृह परीक्षा, प्रैक्टिकल्स…उफ, कहीं कुछ चूक हो जाए तो दुनियाभर की फजीहत. इन सब के बाद सवा महीने की गरमियों की छुट्टी. अधिकांश उड़ जाते अपने स्थायी बसेरों की ओर. मैं भी अल्मोड़ा के शीतल मनोहारी वायुमंडल को त्याग तपते आगरा में अम्माबाबूजी की शीतल छांव में जाने को बेताब रहती.

अम्माबाबूजी की दवा, खुराक, सामाजिक व्यवहार, कपड़ों की खरीदारी में कब ग्रीष्मावकाश फुर्र हो जाता, कुछ पता ही नहीं चलता. आतेआते भी, ‘मैं जल्दी आऊंगी,’ कह कर ही निकल पाती.

बीच में कुछ दिन देहरादून में दीदी और जीजाजी के पास रहती. वे भी इंतजार सा करते रहते. दीदी कमजोर थीं, 3 बच्चे छोटेछोटे. किसी भी जरूरत पर मुझे जाना पड़ता था. मेरे बारबार चक्कर काटने से शीला खीझ जाती. एक दिन तो फट पड़ी.

गजब की ठंड थी. पहाडि़यां बर्फ से लकदक हो गई थीं. रुकरुक कर होती बारिश ने सब को घरों में रहने को मजबूर सा कर दिया था. बर्फीली हवा ने पूरी वादी को अपने आगोश में ले लिया था. मैं छुट्टी की अप्लीकेशन और लैब की चाबी लिए शीला के घर की ओर चल दी. दरवाजा खटखटाया. कुछ देर यों ही खड़ी रही. शीला को आने में समय लगा. बिस्तर में रही होगी. हाथ में बैग देखते ही बोली, ‘इस मौसम में, इतनी ठंड में चिडि़या भी घोंसले में दुबकी है और एक तू है जो बर्फीली हवा की तरह बेचैन है.’‘देहरादून से जीजाजी का फोन आया है. हनी को चोट लग गई है. शायद औपरेशन कराना पड़े.’

‘तेरे तो कई औपरेशन कर दिए इस बुलावे ने,’ शीला ने बात पूरी सुने बिना जिस विद्रूपता से मेरे हाथ से चाबी और अप्लीकेशन झपट कर दरवाजा खटाक से बंद किया, बरसों बाद भी उस का कसैलापन धमनियों में बहते खून में तिरने लगता है. शीला की बात से नहीं, हनी के व्यवहार से.

पिछली बार जब मैं उबाऊ और मैले सफर के बाद देहरादून पहुंची तो बड़ी देर तक हनी और बहू मिलने नहीं आए. हनी के मुख से निकले वाक्य ‘मौसी फिर आ गई हैं’ ने अनायास मुझ से मेरा साक्षात्कार करा दिया. ऐसा नहीं था कि उन की आंखों में धूमिल होती प्रसन्नता की चमक और लुप्त होते उत्साह को मैं महसूस नहीं कर रही थी किंतु मैं अपने भ्रमजाल से बाहर ही नहीं आ पा रही थी. सबकुछ बदल रहा था, केवल मैं रुकी हुई थी. शीला ठीक कहती थी, ‘निकल इस व्यामोह से, सब की अपनी जिंदगी है. किसी को तेरी जरूरत नहीं. सब फायदा उठा रहे हैं. अपनी सुध ले.’

मुझे बेचैनी सी होने लगी. बैग से पानी की बोतल निकाली. कुछ घूंट पिए. इस बीच एक बस आई थी. ठसाठस भरी. मैं अपनी जगह से हिल भी नहीं पाई. लोग सरकती बस में लटकते, चिपकते और झूलते चले गए.

धीरेधीरे मुझे लगने लगा कि अम्माबाबूजी की मुझ पर निर्भरता बढ़ती जा रही थी. वे हर चीज के लिए मेरी राह देखने लगे. मुझे गर्व होने लगा, अपने लंबे भाइयों का कद छोटा होते देख. उन को यह जताने मेंमुझे पुलक का अनुभव होने लगा कि मेरे रहते हुए अम्माबाबूजी को किसी बात की कोई कमी नहीं है, उन्हें बेटों की कोई दरकार नहीं. भाईभतीजे कुछ खिंचेखिंचे रहने लगे थे. भाभियां कुछ ज्यादा चुप हो गईं. पर मैं ने कब परवा की. बीचबीच में बाबूजी मुझे इशारा करते थे परंतु मैं ने बात को छूने की कभी कोशिश ही नहीं की.

आज अम्माबाबूजी नहीं हैं. बादलों का वह झुंड टुकड़ेटुकड़े हो गया जिसे मैं ने शाश्वत समझ लिया था.

पहले बाबूजी गए. 93 वर्ष की उम्र में भरेपूरे परिवार के बीच जब उन की अरथी उठी तो सब ने उन्हें अच्छा कहा. उसी कोलाहल में एक दबा स्वर यह भी उभरा कि बेटी को अनब्याहा छोड़ गए. कोई और समय होता तो मैं उस शख्स से भिड़ जाती. पर अब लगता है, अम्माबाबूजी बुजुर्ग हो गए थे किंतु असहाय नहीं थे. उन्होंने मेरे रिश्ते की सरगरमी कभी नहीं दिखाई. जैसे उन्होंने यह मान लिया था कि मैं विवाह करूंगी ही नहीं.

मेरी समवयस्का सखी शीला के घर से जबतब उस के लिए रिश्ते के प्रस्ताव आते रहते. एक रूमानियत उस की आंखों में तैरने लगी थी. बोलती तो जैसे परागकण झर रहे हों, चेहरे का आकर्षण दिन पर दिन बढ़ने लगा था. वह मुझ से बहुतकुछ कहना चाहती थी पर मेरे लिए तो जैसे वह लोक था ही नहीं. आखिर, वह मुझ से छिटक गई और अकेले ही अपने कल्पनालोक में विचरने लगी.

फिर एकाएक एक दिन उस ने मेरे हाथ में अपनी शादी का कार्ड रख दिया- शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोऽस्तुते…मैं पंक्ति को पढ़ती जाती और अर्थ ढूंढ़ती जाती. शीला खीझ गई, ‘मेरी शादी है. फुरसत मिले तो आ जाना. मैं आज जा रही हूं.’ मैं उसे देखती रह गई.

शादी के बाद शीला वर्षभर यहां और रही. उस के पति शेखर ने पूरा जोर लगा दिया उस का देहरादून तबादला कराने में. शेखर वहां ‘सर्वे औफ इंडिया’ में अधिकारी थे. कोशिश करतेकरते भी सालभर लग गया. इस बीच वे शीला के पास यहां आते रहे. जब शेखर यहां आते तो मेरी एक सीमारेखा खिंच जाती. परंतु शीला मेरा पहले से भी अधिक खयाल रखने लगती. कोशिश करती कि मैं खाना अकेले न बनाऊं. मैं न जाती तो खाना पहुंचा देती. बहुत मना करती तो दालसब्जी तो जरूर दे जाती. शेखर के स्वभाव में गंभीरता दिखती थी इसलिए मिलने से बचती रही. लेकिन इस गंभीरता के नीचे सहृदयता की निर्मल धारा बह रही है, यह धीरेधीरे पता चला. अपनेआप झिझक कम होती चली गई और उन में मुझे एक शुभचिंतक नजर आने लगा.

इसी दौरान शेखर ने मुझे अरविंद के बारे में बताया, जो उन्हीं के औफिस में देहरादून में कार्यरत था. एक सरकारी कार्य के बहाने उसे अल्मोड़ा बुला कर मेरी मुलाकात भी करा दी. अरविंद ने मुझे आकर्षित किया. अपने प्रति भी उस की रुचि अनुभव की. शेखर और शीला के दांपत्य के शृंगार का सौंदर्य देख चुकी थी. मैं विवाह के लिए उत्कंठित हो गई. शीला का भी आग्रह बढ़ता गया. कई प्रकार से वह मुझे समझाती.

‘अम्माबाबूजी हमेशा नहीं रहेंगे. पीतपर्ण हैं…कभी भी झर जाएंगे. फिर वे अपना जीवन जी चुके हैं. बिंदु, तू बाद में पछताएगी. सोच ले.’

‘ठीक है, अम्माबाबूजी को मैं नहीं छोड़ पाऊंगी पर इस संबंध में तुम मेरे जीजाजी से बात करो,’ मैं ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी स्वीकृति दे दी.

शीला हर्षित हो गई जैसे उसे कोई निधि मिल गई हो. तुरतफुरत उस ने शेखर की जीजाजी से बात करा दी. जीजाजी ने जिस उखड़ेपन से बात की वह शेखर के उत्साह को क्षीण करने के लिए काफी थी. वह बात नहीं थी, कटाक्ष था.

‘अच्छा, तो हमारी साली के रिश्ते की बातें इतनी सार्वजनिक हो गई हैं. आप उस की कलीग शीला के पति बोल रहे हैं न. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है. घर में बिंदु के बहुत हितैषी हैं.’

शीला अपने पति के अपमान से तिलमिला गई. रोंआसी हो कहने लगी, ‘बिंदु, तेरे जीजाजी कभी तेरी शादी नहीं होने देंगे. अम्माबाबूजी के बस की बात नहीं और भाइयों की हद से तू निकल चुकी है. तुझे स्वयं फैसला लेना होगा.’
पर मैं तो अपने बारे में कभी फैसला ले ही नहीं पाई. धीरेधीरे बात काल के गर्भ में समा गई. शेखर और शीला ने फिर कभी मेरे रिश्ते की बात नहीं की. पर हां, उन्होंने मुझे देहरादून में जमीन या फ्लैट खरीदने को दोएक बार अवश्य कहा.

‘बिंदु, जमीन के दाम बढ़ते जा रहे हैं. तू समय रहते देहरादून में अपना मकान पक्का कर ले. अपना ठिकाना तो होना चाहिए.’

मैं चौंक गई. मैं और मकान. मैं पलट कर बोली, ‘देहरादून में मेरे दीदीजीजाजी हैं. एक जीजाजी सहारनपुर में हैं. मेरे लिए मकानों की कमी नहीं है.’

अब सबकुछ मेरी आंखों के सामने है. पिछली बार देहरादून गई तो सीधे शीला के पास चली गई थी. शीला प्रसन्न हुई, उस से अधिक हैरान. उस के 2 सुंदर बच्चे हमेशा की तरह मुझ से चिपक गए. उन के लिए जो लाई थी, उन्हें पकड़ा दिया. शीला बिगड़ी. मैं चुप रही. शीला कुछ ढूंढ़ने लगी. बच्चों को लौन में खेलने भेज दिया.

‘बिंदु, कुछ परेशान लग रही है. सब ठीक है न?’

मेरा गला भर आया. स्वयं पर दया आने का यह विचित्र अनुभव था. शब्द नहीं निकल पाए. शीला पानी ले आई.

‘अच्छा, पहले पानी पी ले. थोड़ा आराम कर ले,’ कह कर शीला रसोई की ओर जाने लगी. मैं ने रोक दिया.

‘शीला, शेखर से कहना कि मेरे लिए कोई छोटा सा फ्लैट देख लें…’

शीला फट पड़ी, ‘अब आया तुझे होश. जब पहले कहा था कि अपने लिए मकान देख ले तब तो तू ने कहा था कि मेरे बहुत सारे मकान हैं. कहां गए वे सारे मकान? अब याद आ रही है मकान खरीदने की, वह भी देहरादून में.’

शीला और उस के पति ने मकान ढूंढ़ने की कवायद शुरू कर दी. जमीन भी देखी, जमीन शहर से बहुत दूर थी, अकेली प्रौढ़ा के लिए ठीक नहीं लगा और शहर में फ्लैट बहुत महंगे थे. धीरेधीरे दोनों चीजें मेरी पहुंच से बहुत दूर चली गईं.

अब अम्मा भी नहीं रहीं. बाबूजी के जाने के 6 वर्ष बाद अम्मा भी छोड़ कर चली गईं. ऐसा लगने लगा कि जैसे मेरे जीवन का उद्देश्य ही खत्म हो गया. अब कहां जाऊं? सचमुच एक व्यामोह में कैद थी मैं. अब भ्रम टूटा तो 52 वर्ष की फिसलती उम्र के साथ अकेली खड़ी हूं…

भीड़ में कुछ हलचल हुई. शायद कोई बस आ रही है. बैग संभाल लिए. बस आ गई. रेले में मैं भी यंत्रवत सी बस में चढ़ गई. मंजिल हो न हो, सफर तो है ही.

Divorce : एक गुनाह और सही

सच तो यह है कि मैं ने कोई गुनाह नहीं किया. मैं ने बहुत सोचसमझ कर फैसला किया था और मैं अपने फैसले पर बहुत खुश हूं. मुझे बिलकुल भी पछतावा नहीं है.

मांबाप के घर गई थी. मां ने नजरें उठा कर मेरी ओर देखा भी नहीं. उसी मां ने जो कैलेंडर में छपी खूबसूरत लड़की को देख कर कहती थी कि ये मेरी चंद्रा जैसी है. पापा ने चेहरे के सामने से अखबार भी नहीं हटाया.

‘‘क्या मैं चली जाऊं? साधारण शिष्टाचार भी नहीं निभाया जाएगा?’’ सब्जी काटती मां के हाथ रुक गए.

‘‘अब क्या करने आई हो? मुंह दिखाने लायक भी नहीं रखा. हमारा घर से निकलना भी मुश्किल कर दिया है. लोग तरहतरह के सवाल करते हैं.’’

‘‘कैसे सवाल, मम्मी?’’

‘‘यही कि तुम्हारे पति ने तुम्हें निकाल दिया है. तुम्हारा तलाक हो गया है. तुम बदचलन हो, इसलिए तुम्हारा पति तलाक देने को खुशी से तैयार हो गया.’’

‘‘बदचलन होने के लिए वक्त किस के पास था, मम्मी? सवेरे से शाम तक नौकरी करती थी, फिर घर का सारा काम करना पड़ता था. तुम तो समझ सकती हो?’’

पापा ने कहा, ‘‘तुम ने हमारी राय जानने की कोई परवा नहीं की, सबकुछ अपनेआप ही कर लिया.’’

‘‘इसलिए कि आप लोग केवल गलत राय देते जबकि हर सूरत में मैं राजीव से तलाक लेने का फैसला कर चुकी थी. फैसला जब मेरे और राजीव के बीच में होना था तो आप को किसलिए परेशान करती. मैं नौकरी करतेकरते तंग आ गई थी. हर औरत की ख्वाहिश होती है कि वह अपना घर संभाले. 1-2 बच्चे हों. मां बनने की इच्छा करना किसी औरत के लिए गुनाह तो नहीं है पर राजीव के पास रह कर मैं कुछ भी नहीं बन सकती थी. मैं सिर्फ रुपया कमाने वाली मशीन बन कर रह गई थी.’’

‘‘किसकिस को समझाएं, कुछ समझ नहीं आता.’’

‘‘लोगों को कुछ काम नहीं है. दूसरों पर उंगली उठाना उन की आदत है. उन की अपनी जिंदगी इतनी नीरस है कि वे दूसरों की जिंदगी में ताकझांक कर के अपना मनोरंजन करना चाहते हैं. खैर, मैं ने जो ठीक समझा, वही किया है. नौकरी राजीव के साथ रह कर भी कर रही थी, अब भी करूंगी और शादी से पहले भी करती थी.’’

‘‘शादी से पहले तुम अपनी खुशी से वक्त काटने के लिए नौकरी करती थी.’’

‘‘दूसरों को कहने के लिए ये बातें अच्छी हैं. आप भी जानते हैं और मैं भी जानती हूं कि मेरी शादी से पहले नौकरी कर के लाया हुआ रुपया व्यर्थ नहीं गया, सिर्फ मेरी खुशी पर ही खर्च नहीं हुआ. मेरा रुपया कम से कम एक भाई की इंजीनियरिंग और दूसरे की डाक्टरी की फीस देने के काम आ गया. मैं आप को दोष नहीं दे रही हूं, क्योंकि हम मध्यवर्ग के लोग हैं और यह सच है कि हर एक के शासन में मध्यवर्ग ही पिसा है.

‘‘गरीबों को फायदा हुआ. उन की मजदूरी बढ़ गई. उन की तनख्वाह बढ़ गई पर मध्यवर्ग के लोग बढ़ी हुई महंगाई और बच्चों की शिक्षा के खर्च के बीच पिसते रहे, अपनी इज्जत बनाए रखने के लिए संघर्ष करते रहे. सब ने गरीबों की बात की पर कभी किसी ने भी मध्यवर्गीय लोगों की बात नहीं की. फिर भी आप लोग यह बात कह रहे हैं कि मैं ने सिर्फ अपनी खुशी के लिए, वक्त काटने के लिए नौकरी की. आप की तनख्वाह से सिर्फ घर का खर्च आसानी से चलता था और कुछ नहीं.’’

मैंरुक गई और मैं ने पापा की ओर देखा. उन के चेहरे पर परेशानी साफ झलक रही थी. मां ने जोश में आ कर अपनी उंगली काट ली थी.

‘‘यह वही मध्यवर्ग है जो देश को एक वक्त भूखे रह कर भी, अध्यापक, डाक्टर्स, इंजीनियर्स और वैज्ञानिक देता रहा है. देश की आजादी कायम रखने के लिए भी अपने बेटे फौज में ज्यादातर मध्यवर्गीय लोगों ने ही दिए हैं. यह वही पढ़ालिखा शिक्षित वर्ग है, जो चुपचाप बिना विद्रोह किए सबकुछ सहता आया है.’’

मैं और कुछ कहूं इस के पहले ही पापा ने ताली बजाते हुए कहा, ‘‘शाबाश, स्पीच अच्छी देती हो. मैं देख रहा हूं कि तुम्हें ऊंची शिक्षा दिलाना बेकार नहीं गया.’’ और वे हंसने लगे. मां के चेहरे पर भी मुसकराहट आ गई. वातावरण कुछ हलका होता लगा.

‘‘नौकरी अब मजबूरन करूंगी, अपना पेट भरने के लिए. खैर जो होना था, हो चुका है. तलाक हम दोनों की रजामंदी से हुआ है. हम दोनों ही समझ चुके थे कि अब साथ रहना नहीं हो सकेगा. मैं जा रही हूं, मम्मी. अगर आप लोग इजाजत देंगे तो कभीकभी देखने आ जाया करूंगी.’’

मेरी बात सुन कर जैसे मम्मी होश में आ गईं, बो, ‘‘खाना खा कर जाओ.’’

‘‘नहीं, मम्मी, बहुत थकी हुई हूं, घर जा कर आराम करूंगी.’’

रास्ते में सरला मिल गई. वह बाजार से सामान खरीद कर लौट रही थी. कार रोक कर मैं ने सरला से साथ चलने को कहा.

‘‘दीदी, अभी तो मुझे और भी सामान लेना है.’’

‘‘फिर ले लेना,’’ मैं ने कहा और सरला को कार के भीतर घसीट लिया. कार थोड़ी पुरानी है. मेरे चाचा अमेरिका में बस गए थे और अपनी पुरानी कार मुझे शादी में भेंट दे गए थे.

सरला और मैं ने मिल कर एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले लिया था. सरला मेरे ही दफ्तर में एक कंप्यूटर औपरेटर थी.

रात को अपने कमरे में पलंग पर लेटते ही मम्मीपापा का व्यवहार याद आ गया. उन लोगों ने तो मेरी जिंदगी को नहीं जिया है, फिर नाराज होने का भी उन्हें क्या हक है? जिंदगी के बारे में सोचते ही राजीव का चेहरा आंखों के सामने आ गया.

‘क्यों छोड़ी नौकरी? मैं ने तुम से शादी सिर्फ इसलिए की थी कि मुझे एक कमाने वाली पत्नी मिलने वाली थी. मेरे लिए लड़कियों की क्या कमी थी?’

‘औफिस का काम और ऊपर से घर का काम, दोनों मैं नहीं कर पा रही थी. आप की हर जरूरत नौकरी करने पर मैं कैसे पूरी कर सकती थी? बहुत थक जाती हूं, इसलिए इस्तीफा दे आई हूं.’

‘कल जा कर अपना इस्तीफा वापस ले लेना, तभी मेरे साथ रहना हो सकेगा.’

‘अच्छी बात है, जैसा आप कहेंगे वही करूंगी.’

‘तुम समझती क्यों नहीं, चंद्रा. दो लोगों के कमाने से हम लोग ठीक से रह तो सकते हैं? दूसरों की तरह एकएक चीज के लिए किसी का मुंह तो नहीं देखना पड़ता है? तुम जब चाहती हो साडि़यां खरीद लेती हो, इसलिए कि हम दोनों कमाते हैं. ऊपर से महंगाई भी कितनी है.’

‘क्या शराब और सिगरेट के दाम बहुत बढ़ गए हैं? मैं ने सिर्फ इसलिए पूछा कि आप को गृहस्थी की और चीजों से तो कोई मतलब नहीं है.’

‘ठीक समझती हो,’ राजीव ने हंसते हुए कहा था.

‘मैं सिर्फ आप की तनख्वाह में भी रह सकती हूं अगर आप शराब, जुए और दोस्तों के खर्च में कुछ कटौती कर दें.’

‘नहीं, नहीं. मैं ऐसी ऊबभरी जिंदगी नहीं जी सकूंगा.’

‘मैं भी फिर इतनी थकानभरी जिंदगी कब तक जी सकूंगी?’

‘सुनो, घर के कामों को जरा आसानी से लिया करो. औफिस से आने पर अगर देर हो जाए तो किसी होटल में भी खाना खाया जा सकता है. तुम घर के कामों को बेवजह बहुत महत्त्व दे रही हो.’

‘हम दोनों ने नौकरी कर के कितना रुपया जमा कर लिया है? आमदनी के साथ खर्च बढ़ता गया है.’

‘जोड़ने को तो सारी उम्र पड़ी है. और फिर क्या मैं ही खर्च करता हूं? तुम्हारा खर्च नहीं है?’

‘जरूर है. अन्य औरतों के मुकाबले में ज्यादा भी है. इसलिए कि मुझे नौकरी करने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता है. घर में तो कैसे भी, कुछ भी पहन कर रहा जा सकता है.’

‘इतनी काबिल औरत हो, तुम्हारे बौस भी तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं. एक साधारण औरत की तरह रसोई और घर के कामों में समय बरबाद करना चाहती हो? कल ही जा कर अपना इस्तीफा वापस ले लेना. बड़े ताज्जुब की बात है कि इतना बड़ा कदम उठाने से पहले तुम ने मुझ से पूछा तक भी नहीं.’

‘राजीव, मैं ने निश्चय कर लिया है कि अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी.’

‘क्या मतलब?’

‘मतलब साफ है. हम दोनों अपनी रजामंदी से तलाक का फैसला ले लें तो अच्छा रहेगा. खर्च भी कम होगा.’

‘सवेरे बात करेंगे. इस समय तुम किसी वजह से परेशान हो या थकी हुई हो.’

‘शादी के बाद से मैं ने आराम किया ही कब है? बात सवेरे नहीं, अभी होगी, क्योंकि मैं कल इस घर को छोड़ कर जा रही हूं. मेरा निश्चय नहीं बदलेगा. तलाक के बाद तुम फिर आराम से दूसरी कमाने वाली लड़की से शादी कर लेना.’

‘अच्छी बात है, जैसा तुम कहोगी वैसा ही होगा, पर मुझे अपनी बहन की शादी में कम से कम 4-5 लाख रुपए देने होंगे. अगर तुम 4-5 साल रुक जातीं तो इतने रुपए हम दोनों मिल कर जमा कर लेते. मैं ने सिगरेट और शराब वगैरा का खर्च कम करने का निश्चय कर लिया था.’

‘तब भी नहीं.’

‘मैं तुम्हारी हर बात मानने के लिए तैयार हो गया हूं और तुम मेरी इतनी सी बात भी नहीं मान रही हो. सिर्फ 4-5 लाख रुपयों का ही तो सवाल है.’

‘आप को मालूम पड़ गया है कि मेरे पास बैंक में कितने रुपए हैं. इसीलिए यह सौदेबाजी हो रही है. अगर मुझे आजाद करने की कीमत 5 लाख रुपए है तो दे दूंगी. मेरी दिवंगत दादी के रुपए कुछ काम तो आ जाएंगे.’

और फिर एक दिन तलाक भी हो गया और मैं सरला के साथ अलग फ्लैट में रहने लगी.

अभी मैं राजीव को ले कर पुरानी बातों में ही उलझी हुई थी कि सरला ने आ कर कहा, ‘‘हर समय क्या सोचती रहती हैं, दीदी? आप का खाना टेबल पर रखा है, खा लीजिएगा. मैं बाजार जा रही हूं. घर में सब्जी कुछ भी नहीं है. सवेरे लंच के लिए क्या ले कर जाएंगे?’’

‘‘अरे छोड़ो भी, सरला, कैंटीन से लंच ले लेंगे.’’

‘‘नहीं, नहीं. आप को कैंटीन का खाना अच्छा नहीं लगता है. कल लंच में आलूमटर की सब्जी और कचौडि़यां होंगी. क्यों, दीदी, ठीक है न? आप को उड़द की दाल की कचौडि़यां बहुत अच्छी लगती हैं. मैं ने तो दाल भी पीस कर रख दी है.’’

‘‘सरला, क्यों मेरा इतना ध्यान रखती हो? आज तक तो किसी ने भी नहीं रखा.’’

‘‘दीदी, सुन लो. आप ऐसी बात फिर कभी मुंह से मत निकालिएगा.’’

‘‘कौन से जनम का रिश्ता निभा रही हो, सरला? मांबाप ने तो इस जनम का भी नहीं निभाया. तुम इतने सारे रिश्ते कहां से समेट कर बैठ गई हो?’’

जवाब में सरला ने पास आ कर मेरे गले में बांहें डाल दीं, ‘‘दीदी, मेरा इस दुनिया में आप के सिवा कोई नहीं है. फिर ऐसी बात मत कहिएगा.’’

सरला सब्जी लेने चली गई थी. टेबल पर खाना सजा हुआ रखा था. अकेले खाने को दिल नहीं कर रहा था, पर सरला का मन रखने के लिए खाना जरूरी था. न जाने क्या हुआ कि खातेखाते एकाएक समीर का ध्यान हो आया.

समीर हमारी कंपनी में कानूनी मामलों की देखभाल के लिए रखा गया एक वकील था. जवान और काफी खूबसूरत.

एक दिन बसस्टौप पर मेरे बराबर कार रोक कर खड़ा हो गया और बैठने की खुशामद करने लगा.

मैं ने मना कर दिया.

‘‘मुझे आप से कुछ पूछना है.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘क्या आप कुछ रोमांटिक डायलौग बतला सकती हैं, जो एक आदमी किसी औरत से कह सकता है?’’

‘‘किस औरत से?’’

‘‘जिसे वह बहुत प्यार करता है और जिस से शादी करना चाहता है,’’ समीर ने डरतेडरते कहा.

‘‘मुझे नहीं मालूम. मैं ने इस तरह के डायलौग कभी नहीं सुने हैं. क्यों नहीं आप जा कर कोई हिंदी फिल्म देख लेते हैं, आप की समस्या आसानी से हल हो जाएगी,’’ मैं ने कहा और आगे बढ़ गई.

एक दिन फिर उस ने मुझे रोक  लिया, ‘‘चंद्राजी, इन अंधेरों से  निकल कर बाहर आ जाइए. बाहर का आसमान बहुत खुलाखुला है और साफ है. चारों तरफ रोशनी फैली हुई है. आप बेवजह अंधेरों में भटक रही हैं.’’

‘‘मुझे इन अंधेरों में ही रहने की आदत है. मेरी ये आंखें रोशनी सह न सकेंगी,’’ मैं ने भी मजाक में कह दिया.

‘‘आओ, मेरा हाथ पकड़ लो, मैं आहिस्ताआहिस्ता तुम्हें इन अंधेरों से बाहर ले आऊंगा,’’ समीर ने गंभीर सा चेहरा बनाते हुए कहा.

समीर का डायलौग सुन हंसतेहंसते मेरा बुरा हाल हो गया. समीर भी हंसने लगा.

‘‘ये कौन सी फिल्म के डायलौग हैं, समीर?’’

‘‘बड़ी मुश्किल से याद किए थे, चंद्रा. छोड़ो डायलौग की बात, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. तुम्हें बेहद प्यार करता हूं.’’

‘‘समीर, तुम्हें मेरे बारे में कुछ भी नहीं मालूम है. तुम सिर्फ इतना जानते हो कि मैं बौस की प्राइवेट सैक्रेटरी हूं.’’

‘‘मैं कुछ जानना भी नहीं चाहता. जितना जानता हूं, उतना ही काफी है. मैं तुम से वादा करता हूं कि तुम्हारी पिछली जिंदगी के बारे में कभी भी कोई बात नहीं करूंगा.’’

‘‘करनी है तो अभी कर लो.’’

‘‘मैं तो सिर्फ इतना ही जानता हूं कि मेरी मां घर के दरवाजे पर मेरी होने वाली पत्नी और मेरे होने वाले बच्चों के लिए आंखें बिछाए बैठी रहती हैं.’’

‘‘ले चलो अपनी मां के पास. रोजरोज मेरे रास्ते पर खड़े रहते हो, अब मुझे तुम्हारी इस हरकत से उलझन होने लगी है.’’

और जब समीर मुझे अपनी मां के पास ले गया तो उन्होंने मुझे देखते ही अपने सीने से लगा लिया, ‘‘हर समय समीर बस तेरी ही बातें करता है. मैं तुझे देखने को तरस रही थी.’’ मैं ने मांजी की गोद में सिर रख दिया.

समीर से शादी के बाद फिर एक बार मम्मीपापा से मिलने गई. मां ने चौंक कर मेरी ओर देखा जैसे विश्वास नहीं आ रहा हो. गुलाबी रंग की बनारसी साड़ी, मांग में सिंदूर और उंगली में बड़ेबड़े हीरों की अंगूठी पहने बेटी उन के सामने आ कर खड़ी हो गई थी.

‘‘मां, मैं ने शादी कर ली है. समीर हमारी कंपनी में ही कानूनी सलाह देने के लिए नियुक्त एक वकील हैं.’’

‘‘दूसरी शादी? पहले पति को छोड़ा, वही बड़ा भारी अधर्म का काम किया था और अब…’’

‘‘एक गुनाह और कर लिया, मम्मी. अगर आप लोग इजाजत देंगे तो किसी दिन समीर को आप लोगों से मिलाने के लिए ले आऊंगी.’’

मम्मी कुछ नहीं बोलीं. मुझे लगा कि पापा अपने चेहरे के सामने से अखबार हटाना चाहते हैं, पर हटा नहीं पा रहे हैं. मैं देख रही थी कि अखबार पकड़े हुए उन की बूढ़ी उंगलियां कांप रही हैं.

‘‘अच्छा, मम्मी, अब मैं चलती हूं. समीर इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘बेटी, खाना खा कर नहीं जाओगी?’’ पापा ने अखबार हटाते हुए कहा और न जाने कब उन की आंखों से दो आंसू टप से कांपते हुए अखबार पर गिर पड़े.

caste issue : प्‍यार न जाने जात

caste issue : “लो, तुम्हारी गोरी बहू लाने की तमन्ना पूरी हो गई,” मोबाइल पर आंखें गड़ाए  दिनेश सोफे से उठ कर किचन में सब्जी काट रही शैलजा के पास जा पहुंचा.

दिनेश के शब्दों को सुन शैलजा के हाथ रुक गए. चेहरा उत्सुकता से स्वयं ही दिनेश के मोबाइल की ओर मुड़ गया.

“अरे वाह, यह तो सचमुच गोरी है,” बेटे विशाल द्वारा व्हाट्सएप पर भेजी फोटो देख शैलजा आह्लादित हो उठी.

“होगी क्यों नहीं? गोरी जो है, मतलब विदेशी,” ठहाका लगाते हुए दिनेश अपने शब्दों का उत्तर शैलजा की भावभंगिमाओं में खोजने लगा. शैलजा की आंखों में दिख रही चमक और मुखमंडल की आभा यह बताने के लिए पर्याप्त थी कि उसे विशाल की पसंद पर गर्व सा हो रहा था.

“मैं विशाल से कहना चाहती हूं कि जल्द से जल्द इस गौरवर्णा को मेरी बहू बनाने की तैयारी कर ले. अभी फोन कर लो न.”

“कुछ देर बाद करता हूं. आज संडे है तो वह घर पर ही होगा,” दिनेश उत्सुकता दबा मोबाइल पर अन्य मैसेज पढ़ने में व्यस्त हो गया.

शैलजा को आज अचानक जैसे पंख लग गए. धरती से आसमान में पहुंच गई हो वह. कुछ अकाल्पनिक सा घटित हो रहा है उस के साथ. फ्रांस में रहने वाले 32 वर्षीय बेटे विशाल के लिए कब से वह जीवनसंगिनी की तलाश में थी. कितनी लड़कियों के फोटो देखे थे उस ने. रिश्तेदारों और सहेलियों को बारबार याद दिलाती कि उसे एक मनभावन कन्या की तलाश है. विभिन्न मैरिज साइट्स के माध्यम से भी एक योग्य बहू पाने की उस की तलाश पूरी नहीं हो पा रही थी. कभी उसे लड़की पसंद नहीं आती, तो किसी का बायोडेटा या फोटो देख विशाल बात आगे बढ़ाने से मना कर देता. जहां सब की रजामंदी हुई वहां शैलजा और दिनेश गए भी, लेकिन निराशा हाथ लगी. आदर्श बहू के गुणों में उस का रंग गोरा होना शैलजा की प्राथमिकता थी. दिनेश से वह कहती कि जब किसी लड़की की प्रोफाइल ठीकठाक होती तो न जाने क्यों सांवला रंग चिढ़ाने आ जाता है, लेकिन उस ने भी ठान लिया है कि बहू तो गोरी ही लाएगी वह.

दिन रात एक करने के बाद भी बात न बनने से शैलजा को चिंता सताने लगी थी कि परदेश में बैठे विशाल ने यदि अपने लिए स्वयं ही कोई लड़की पसंद कर ली तो क्या होगा? वह मानदंडों पर खरी न उतरी तो उस की नाक कट जाएगी. पड़ोस में रहने वाली मिसेज तनेजा की बहू का डस्की कौम्प्लेक्शन देख नाकभौं सिकोड़ने वालों में वह भी सम्मिलित थी.

दिनेश के मित्र सिंह साहब के बेटे की सगाई के अवसर पर दबी जबान में मेहमान उस विजातीय विवाह की आलोचना कर रहे थे. ऐसी किसी लड़की का विशाल द्वारा चुन लिया जाना शैलजा के लिए कितना पीड़ादायक होगा, इस की कल्पना कर ही वह सिहर उठती.

आज जब उस ने विशाल द्वारा भेजी तसवीर देखी तो बागबाग हो उठी. गोरे रंग में डूबी काया सभी को चकाचौंध कर देगी और जातिपांति की बात भी कोई नहीं उठाएगा जब बहू विदेशी होगी. उस का मन प्रसन्नता से नाचने लगा. बस एक समस्या उसे थोड़ी चुभन दे रही थी.

“होने वाली बहू न तो हिंदी बोल पाएगी और शायद समझ भी न पाए. यही थोड़ा तकलीफदेह लग रहा है, बाकी तो सब ठीक ही है,” सब सोचनेसमझने के बाद वह दिनेश से बोली.

“हां, हिंदी में उसे दिक्कत होगी, लेकिन इंगलिश का सहारा तो है ही. तुम अपनी पैंतीस साल की नौकरी के दौरान फर्राटेदार न सही कामचलाऊ इंगलिश तो बोल ही लेती हो. फिर क्या सोचना?” बेफिक्री के अंदाज में दिनेश ने जवाब दिया.

“उन लोगों का लहजा कुछ अलग ही होता है. दूसरी बात यह है कि मेरा काम औफिस में कर्मचारियों की छुट्टियों का हिसाब रखना, उन के द्वारा जमा बिलों की सत्यता की जांच और उन की अर्जियों को आगे बढ़ाने का ही है. इंगलिश में बातें करने का मौका न के बराबर ही मिलता है.”

शैलजा फिर सोच में पड़ गई. कुछ देर की माथापच्ची के बाद सिर झटकते हुए वह बोली, “मैं भी क्या ले कर बैठ गई. बहू से ज्यादा बोलने की नौबत आएगी ही कहां? फोन पर तो ज्यादा बातें विशाल से ही होंगी. रही यहां आने की बात तो दो महीने के लिए ही आएगा विशाल. उसी दौरान शादी कर देंगे, कुछ दिन वे साथसाथ घूमेंगे, फिरेंगे, फिर वापस चले जाएंगे.

“चलो ठीक है, बहू के साथ बात हो न हो, बस रिश्तेदारों और अड़ोसपड़ोस में नाक ऊंची हो जाए, इतना ही बहुत है,” मन ही मन होने वाली बहू के प्रति की लोगों की आंखों में प्रशंसा के भावों की कल्पना कर शैलजा गदगद हुए जा रही थी.

कुछ देर बाद उन्होंने विशाल को वीडियो काल किया. थोड़ी घबराई, थोड़ी संकोची सी मुद्रा में लड़की भी विशाल के पास बैठी थी. विशाल ने मम्मीपापा और भावी जीवनसंगिनी इवाना का परस्पर परिचय करवाया.

इवाना बेहद आकर्षक, सौम्य दिख रही थी. हर्षातिरेक से शैलजा व दिनेश एकसाथ “हेलो” बोल खिलखिला कर हंस पड़े.

इवाना के गुलाबी होंठ खिल उठे. चांद से उस के चेहरे पर लाल लिपस्टिक खूब फब रही थी. सुनहरी बालों में खोंसा हुआ उज्जवल डेजी का फूल मोतियों सी दमकती धवल ड्रैस के साथ मैच कर रहा था.

शैलजा का ह्रदय तरंगित होने लगा. स्वयं से कह उठी, ‘अरे वाह, गुलबहार लगाया है बालों में. यह तो मेरा प्रिय फूल है और इस फूल सी खूबसूरत, सलोनी है इवाना.’

दिनेश भी इवाना से प्रभावित हो टकटकी लगाए स्क्रीन की ओर देख रहा था.

उन दोनों को अभी एक और अचरज मिलना बाकी था. बातें शुरू हुईं, तो यह देख उन की प्रसन्नता असीमित हो चली कि इवाना हिंदी में बात कर पा रही है और हिंदी भी ऐसी कि आसानी से समझ में आ जाए.

शैलजा व दिनेश की लगभग हर बात समझते हुए वह पूरे आत्मविश्वास के साथ उत्तर दे रही थी. हिंदी भाषा पर इवाना की इतनी पकड़ का कारण पूछने पर पता लगा कि उस के पिता एक भारतीय हैं.

इवाना ने बताया कि उस की मां इटली की रहने वाली हैं, लेकिन वे भी हिंदी समझती हैं और थोड़ाबहुत बोल भी लेती हैं, क्योंकि उन्होंने कई वर्ष भारत में बिताए हैं. पिता फ्रांस की एंबेसी में एक महत्वपूर्ण पद पर थे.

“तुम्हारे पापा का पूरा नाम क्या है? मैं एजुकेशन डिपार्टमेंट में होने के कारण उस एंबेसी में काम करने वाले लोगों को जानता हूं. भारत में फ्रेंच भाषा के प्रचारप्रसार को ले कर मुझ से वे मशवरा करते रहते हैं,” दिनेश इवाना की बात सुन उत्सुक हो पूछ बैठा

इवाना द्वारा पिता का पूरा नाम लिए जाने पर शैलजा को सांप सूंघ गया. सब के बीच चल रही बातचीत उस के कानों से टकरा कर लौट रही थी. मन में तूफान उठ रहा था, ‘सरनेम तो यही बता रहा है कि इवाना के पिता एक दलित हैं. मां विदेशी हैं, लेकिन पिता तो भारतीय हैं और यदि वे नीची जाति के हैं, तो इवाना भी…’

शैलजा के हृदय में अकस्मात भूकंप आ गया. कुछ देर पहले बनी सपनों की इमारतें पलभर में ढह गईं. बोलीं, ‘विशाल ने यह क्या किया? जिस का डर था वही हो गया.’

वीडियो काल समाप्त होने के बाद इस विषय में वह कुछ कहती, इस से पहले ही दिनेश बोल उठा, “एक ही बेटा है हमारा, वह भी नाम डुबोएगा खानदान का. विदेश जा कर सब भुला दिया. क्या इसलिए ही बाहर भेजा था कि इतने उच्च कुल का हो कर नीचे लोगों से रिश्ता जोड़े?”

“वही तो… गोरी ढूंढ़ी भी, लेकिन किएकराए पर पानी फेर दिया. जल्द ही कुछ करना पड़ेगा. याद है, लखनऊ वाली दीदी ने जो लड़की बताई थी, उस के कामकाजी न होने और केवल बीए पास होने के कारण हम चुप थे. सोच रहे थे कि विशाल न जाने ऐसी पत्नी चाहेगा या नहीं? दीदी कई बार पूछ चुकी हैं. गोरीचिट्टी, सुंदर नैननक्श वाली है वह लड़की. दीदी को फोन कर आज ही बात करती हूं. विशाल को रात में फोन कर के कह देंगे कि इवाना बहू नहीं बन सकती हमारी. कुछ दिन नानुकुर करने के बाद मान ही जाएगा वह. अभी कुछ नहीं किया तो खूब जगहंसाई होगी हमारी.”

‘न जाने इवाना और विशाल का रिश्ता कितना आगे बढ़ चुका होगा? एकदूसरे के साथ कितना समय बिताते होंगे? यदि भावनात्मक रूप से पूरी तरह जुड़ चुके होंगे, तो विशाल उन के मना करने पर मानेगा भी या नहीं?’ इन बातों पर विचार करने लगे दोनों.

शैलजा को अचानक याद आया कि कुछ दिन पहले जब वह अपने भाई के घर गई थी तो एक ज्योतिषी से भेंट हुई थी. उन्होंने विशाल की जन्मतिथि पूछ कर कुंडली बनाई थी और उसे देख कर बताया था कि ग्रह दशा के अनुसार इस के विवाह में थोड़ी बाधा आएगी. कुछ दिनों के पूजापाठ द्वारा यह बाधा दूर हो सकती है और अति उत्तम पत्नी मिलने का योग बन सकता है. आज भाई के घर जा कर ज्योतिषी से मिलना तो संभव नहीं है, किंतु पास वाले मंदिर के पंडितजी से सलाह तो ली जा सकती है.

इस विचार ने शैलजा को कुछ राहत दी. दिनेश को भी बात जंच गई.

शाम को तैयार हो कर दिनेश पार्क में इवनिंग वौक करने और शैलजा उस मंदिर की ओर चल दी, जहां वह कोविड से पहले प्रायः जाती रहती थी. कोरोना के बाद मंदिर खुले बहुत समय नहीं हुआ था. इस बार कई दिनों बाद जा रही थी वहां.

मंदिर में इन दिनों भीड़भाड़ पहले की तरह ही होने लगी थी, लेकिन इस समय ज्यादा लोग नहीं थे. दोपहर को 4 घंटे बंद रहने के बाद संध्याकाल में खुला ही था मंदिर.अहाते के बाहर लगी दुकानों से पुष्प व मिठाई खरीद वह भीतर चली गई.

मूर्ति के पास खड़े पुजारी को जैसे ही उस ने फूलों का दोना थमाया, वह बुरी तरह चौंक गई. पुजारी वह नहीं था, जो पहले हुआ करता था, लेकिन उस पुजारी का चेहरा जानापहचाना सा था. ‘यह तो माधव की तरह दिख रहा है, जो मेरे औफिस में सफाई कर्मचारी है.’

शैलजा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

“आप को पहले कभी इस मंदिर में नहीं देखा था. सुखीराम पंडितजी हुआ करते थे यहां तो. वे दिख नहीं रहे,” शैलजा शंकित स्वर में बोली.

“हां, मैं पहले नहीं था यहां. सुखीरामजी कुछ दिनों के लिए अपने गांव गए हैं,” नए पुजारी ने बताया, तो आवाज सुन शैलजा का संदेह पुख्ता हो गया. ‘यह तो वास्तव में माधव है. क्या माधव उसे पहचान गया होगा? क्या वह चुपचाप चली जाए या और पूछताछ करे?’ एक सफाई करने वाले को पुजारी के स्थान पर देख उसे बहुत अटपटा लग रहा था. माधव मिठाई का भोग लगाकर डिब्बा उसे लौटाने आया तो हाथ आगे बढ़ाने के साथ ही एक प्रश्न भी शैलजा ने आगे कर दिया. “माधव ही हो न तुम? पहचाना मुझे?”

माधव पहचान तो गया था शैलजा को, लेकिन बिना कुछ बोले सिर झुकाए खड़ा रहा.

“मैं फोर्थ फ्लोर पर बैठती हूं. अकसर तुम्हारी ड्यूटी उसी फ्लोर पर लगती है. सुबह जब तुम मेरी टेबल से धूल झाड़ते हो तो मैं आई हुई होती हूं. रोज देखती हूं तुम्हें. मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं.”

“जी मैडम, मैं माधव हूं. आप को पहचानता हूं. मुझे तो यह भी याद है कि एक बार मेरी बेटी की बीमारी के दौरान दवाओं का बिल लंबा हो गया था. सब कह रहे थे कि मुझे पूरा पैसा वापस नहीं मिलेगा. आप ने फाइनेंस सैक्शन को सख़्ती से लिखा था कि मेरा एकएक पैसा रिइम्बर्स हो.”

“माधव, जब तुम सही थे, तो मैं ने साथ दिया था तुम्हारा, लेकिन यह क्या किया तुम ने? मुझे बेहद अफसोस हुआ देख कर कि तुम मंदिर में पुजारी बन कर धोखा दे रहे हो सब को.”

“मैडम, मैं यह काम अपनी इच्छा से नहीं कर रहा हूं. कोविड के कारण सुखीरामजी दो साल से अपने मातापिता से नहीं मिले थे. अब पाबंदियां हटीं और सबकुछ खुला तो वे उन से मिलने गांव चले गए. मुझ से उन्होंने कुछ दिनों के लिए मंदिर की देखभाल करने काआग्रह किया था. इसलिए ही मैं मंदिर का कार्यभार संभाल रहा हूं.”

“लेकिन, तुम सुखीरामजी के इतने करीबी कैसे हो गए कि तुम्हें यहां रख कर वे अपने गांव चले गए?”

“मैडम, सुखीरामजी की कोरोना काल में मंदिर बंद रहने पर क्या दशा हो गई थी, यह जानने कोई भी भक्त नहीं आया, जबकि मंदिर में उस के पहले खूब भीड़ रहती थी. सुखीरामजी के परिवार की भूखों मरने की नौबत आ गई थी. उस समय न तो चढ़ावा आ पा रहा था और न ही किसी प्रकार का दान. मेरा घर मंदिर के बगल में ही है. पंडितजी की ऐसी दशा मुझ से देखी न गई. यों तो मैं भी कोई मोटा वेतन नहीं पाता, किंतु सोचा कि जितना भी पाता हूं, उस में अपने परिवार के अतिरिक्त 4 लोगों का पेट तो भर ही सकता हूं. पंडितजी, उन की पत्नी, 10 वर्षीय पुत्र व 5 वर्षीया पुत्री इन दो वर्षों में मुझ पर ही निर्भर थे. आप बताइए कि मुझ से अधिक कौन निकट हो सकता था उन के?”

शैलजा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि माधव पुनः बोल उठा, “सुखीरामजी का कहना था कि किसी और पंडित को यदि वे यह काम दे कर जाएंगे तो लौटने पर संभव है मंदिर वह हथिया ले.

“उन्होंने बारबार मुझ से यह निवेदन भी किया था कि मैं पुजारी की वेशभूषा धारण कर ही मंदिर में पूजा आदि का कार्य करूं, ताकि कोई हंगामा न खड़ा कर दे.”

शैलजा के रुके शब्द बाहर आ गए. तनिक कुपित स्वर में वह बोली, “क्या तुम संतुष्ट हो ऐसा कर के? अपना यह बहरूपियापन अच्छा लग रहा है क्या तुम्हें?”

“मैडम, आप सच बताइए कि क्या बहरूपिया मैं हूं? मेरे विचार से बहरूपिए तो वे लोग हैं, जो मेरे साथ दोगला व्यवहार करते हैं. जब मैं एक सफाई कर्मचारी के रूप में उन के सामने होता हूं, तो उन का व्यवहार बेहद रूखा और उपेक्षापूर्ण होता है, लेकिन मुझे मंदिर में पुजारी के रूप में देख कर मेरे आगे हाथ जोड़ते हैं, मेरे पैर छूते हैं.”

“लेकिन, वे हाथ तुम्हारे आगे नहीं जोड़ते, बल्कि तुम्हें मंदिर का पुजारी समझ वे ऐसा करते हैं.”

“तब तो वे लोग मूर्ख हुए. जब मैं साफसफाई द्वारा उन की मदद और सेवा करता हूं तो वे मुझे दुत्कारते हैं, लेकिन यहां मैं मूर्ति के आगे खड़ा हुआ केवल उन के लाए प्रसाद और फूल को प्रतिमा के आगे रख वापस लौटा देता हूं तो मेरा सम्मान करते हैं. दरअसल, वे मुझे देख ही नहीं रहे. अलगअलग जगहों पर मैं उन के लिए किसी जाति विशेष का प्रतिनिधित्व कर रहा हूं.

“मैडम, आप ही बताइए कि क्या यह सही है कि किसी व्यक्ति की पहचान उस की जाति या वेशभूषा के आधार पर हो? क्या व्यक्ति के गुण उस की कोई पहचान नहीं है?

“एक बात और है मेरे मन में. यदि ऐसे लोगों से पूछा जाए कि किसी जाति का सम्मान और दूसरी का वे अपमान क्यों कर रहे हैं, तो उन के पास कोई जवाब नहीं होगा.”

अतार्किक सी शैलजा गहरी सोच में डूब गई. कुछ देर बाद वह इतना ही बोल सकी, “माधव, सच है व्यक्ति की पहचान उस के जन्म से नहीं, बल्कि कर्मों से होनी चाहिए. और हां, जाति के भेदभाव को मन से निकालना बहुत जरूरी है.”

मंदिर से वापस आते हुए शैलजा माधव द्वारा कहे शब्दों पर जैसे स्वयं को परख रही थी. घर पहुंच कर दिनेश को सब बताते हुए बोली, “इवाना ने इतनी अच्छी यूनिवर्सिटी से एमएस किया है और अब रिप्युटिड कंपनी में सीनियर एनैलिस्ट की पोस्ट पर काम कर रही है. एक हम हैं कि उसे उस की जाति से जोड़ रहे हैं. उस के पापा ऊंची जाति के होते तो भी क्या होता? न तो तब वे बदले हुए होते और न ही इवाना. तो क्या रखा है इस जातिपांति के फेर में?”

“मेरा मन भी खिन्न सा था. शायद इस का कारण यह बेतुका नजरिया ही था, जो बिना सोचेसमझे हम भी अपनाए थे, आंखें बंद कर चल रहे थे, लोगों ने जिस राह पर धकेल दिया था. चलो, विशाल को फोन कर कहते हैं कि इवाना जैसी बहू का ही सपना देखते थे हम.”

दिनेश के हृदय पर रखा मनों बोझ जैसे आज उतर गया हो.

 

Dental Problem : मेरे दांत टेढ़ेमेढ़े, पीले, आधे टूटे हैं.  मुझे शर्मिंदगी होती है,

मेरे दांतों का शेप और कलर खराब होने की वजह से मैं ठीक से हंस भी नहीं पाता हूं.  मेरे अंदर हीनभावना पैदा हो गई है.    स्कूलटाइम तक तो मैं ने ज्यादा परवाह नहीं की, अब मैं कालेज जाने लगी हूं. मुझे अच्छा नहीं लगता जब कोई मुझे मेरे दांतों के लिए टोकता है. मैं डैंटिस्ट के पास जाने से डरती थी. मैं ने रिमूवेबल वीनिर्स के बारे में विज्ञापनों को देखा है.  मेरे केस में ये ठीक रहेंगे?

 

दांतों से चेहरे की सुंदरता बढ़ती है. सुंदर और साफ दांत मुसकान को आकर्षक बनाते हैं. आप की उम्र अभी कम है. हमारी राय में आप को परमानैंट वीनिर्स लगाने चाहिए. डैंटिस्ट के पास एकदो बार जा कर ड्रिमेंट करवा व थोड़ा दर्द सह कर हमेशा के लिए खूबसूरत दांतों के साथ चेहरे को देखें.

 

वीनिर्स लगाने के लिए दांतों की ऊपरी परत यानी एनामेल का थोड़ा हिस्सा हटाना पड़ता है जिस से दांतों की सतह तैयार हो सके. इस के बाद वीनिर्स को मजबूत चिपकने वाले मैटीरियल की मदद से दांतों पर स्थायी रूप से लगाया जाता है, एक कुशल डैंटिस्ट वीनिर्स को इस तरह डिजाइन कर सकते हैं कि वे नैचुरल दांतों की तरह दिखें, जिस से आप की मुसकान और नैचुरल दिखती है.

 

आप रिमूवेबल वीनिर्स की बात कर रही हैं तो ये हर किसी के दांतों पर फिट नहीं हो पाते और इन्हें खानेपीने के समय हटाना पड़ सकता है ताकि गंदगी या बैक्टीरिया के फंसने से बचा जा सके. लंबे समय तक पहनने में ये थोड़े असहज महसूस हो सकते हैं, खासकर अगर ठीक से फिट न हों. ये परमानैंट वीनिर्स जैसे नैचुरल नहीं लग सकते और इन के साथ थोड़ा मोटा या अननैचुरल फील हो सकता है.

 

विशेष अवसरों, जैसे पार्टी, शादी, फोटोशूट या किसी प्रोफैशनल इवैंट के लिए रिमूवेबल वीनिर्स फायदेमंद हो सकते हैं, खासकर, यदि आप केवल कुछ घंटों के लिए एक शानदार मुसकान चाहते हैं.

 

आप के सामने तो अभी पूरी जिंदगी है. लाइफ में अभी कितने मौके आएंगे जहां आप को प्रेजैंटेबल रहना है. हालांकि अंतिम निर्णय के लिए डैंटिस्ट से परामर्श कर लें.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

Indian Migration : भारतीय गरीबों का गैरकानूनी घुसपैठ

Non Resident Indian : भारत के गरीब पैसा कमाने के लिए कानूनी व गैरकानूनी तरीकों से भारी संख्या में विदेश जा रहे हैं, यह भयावह है. अभी अक्तूबर के अंत में बिना डौक्यूमैंट वाले भारतीयों को अमेरिका ने एक बड़े जहाज में भर कर वापस भारत भेजा है. इन भारतीयों के परिवारों ने अपनी बची हुई जमीनजायदाद को बेच कर अपने युवाओं को दुनिया में कहीं बसने के लिए भेजा था कि भारत में बढ़ती बेरोजगारी, भुखमरी से बचने का उपाय भारत में नहीं है, सो भारत छोड़ कर जाना ही होगा.

 

लेकिन, अब बड़ी तेजी से अमीर लोग भी भारत छोड़ कर विदेशों में बस रहे हैं. उन का कारण दूसरा है. वे भारत की गंदगी, भ्रष्टाचार, बढ़ते प्रदूषण, गंदी हवा, जहरीले पानी, ट्रैफिक की अफरातफरी से परेशान हैं. बहुत से देश 50-60 लाख से 5-7 करोड़ रुपए की खरीद पर अपनी नागरिकता दे देते हैं. भारतीय छोटेबड़े सभी देशों को अपना रहे हैं. वे एक पैर भारत में रखते हैं, एक विदेश में.

 

मजेदार मगर दर्दनाक बात यह है कि ये दोनों वर्ग हिंदूहिंदू (Hindu Hindu) ज्यादा चिल्लाते हैं, ‘महान’ भारत के गुणगान करते हैं, भारत के पुरातन ?ाठे महान होने का गुणगान करते थकते नहीं हैं. ये दोगले अपने साथ सूटकेस में भारतीयता की निशानी, हिंदू अंधविश्वासों की अब चमकदार एल्युमिनियम की स्ट्रिपों में मिलने वाली दवाओं के साथ ले जाते हैं और सुबहशाम उन्हें खाना नहीं भूलते.

 

वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि देश की गरीबी, प्रदूषण, भ्रष्टाचार और गलत राजकाज के कारण हमारे अंधविश्वास, धार्मिक विचार और झूठे अहं हैं. भारत में न टैलेंट की कमी है, न कर्मठ लोगों की. यहां की जमीन खासी उपजाऊ है. यहां आसानी से उद्योग लग जाते हैं, व्यापार जम जाते हैं. यहां की सरकारें उन्हीं उद्योगों, कृषि और सेवाओं से ही तो भारीभरकम पैसा बनाती हैं. दुनिया की तीसरीचौथी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था हम यों ही नहीं हैं. हमारे यहां उत्पादन हो रहा है पर उस का प्रबंध बेहद खराब है, बंटवारा बेहूदा है. नेता, धन्ना सेठ और सरकारी कर्मचारी उसे पूरी तरह नष्ट कर रहे हैं.

 

जो लोग विदेशों में कानूनी या गैरकानूनी ढंग से पहुंच जाते हैं वे वहां रिफ्यूजी कैंपों में नहीं रह रहे. वे वहां काम कर रहे हैं, अच्छा कमा रहे हैं. वे कारखानों में काम कर रहे हैं, सड़क की सफाई के काम से ले कर कंपनियों के सर्वोच्च अफसर तक के काम कर रहे हैं. उन्हें वहां की आम जनता घृणा या डर से नहीं देखती. उन का कालों और मिडिलईस्ट वालों की तरह से बहिष्कार भी नहीं होता. वे शांत रहते हैं, काम से काम रखते हैं. बराबर की इज्जत चाहे न मिले पर उन्हें काफी सहजता से लिया जाता है. और इसीलिए कुछ के अलावा वहां के ज्यादातर नेता उन की कानूनीगैरकानूनी घुसपैठ पर आपत्ति नहीं करते.

 

समस्या तो यह है कि वे भारत के लिए कलंक हैं. वे दर्शाते हैं कि अपने को महान समझने वाले कितने खोखले हैं, उन के दिमाग में किस तरह का कूड़ा भरा है. वे कैसे अपनी गरीबी को अपनी महानता मानते हैं. वे यह समझने को तैयार नहीं हैं कि पौराणिक सोच आज की वैज्ञानिकता पर भारी पड़ रही है. पौराणिक सोच के कारण देश दुर्दशा के दोजख में पड़ा है और हम भारतीय, कीड़ों की तरह, यहां बिलबिला रहे हैं व कीचड़ को शुद्धपवित्र गोबर मान कर उसे ही जन्नत मान रहे हैं

  सरहद पार से

कट्टर हिंदू परिवार के कौस्तुभ को लाहौर इंजीनियरिंग कालिज में गुलाबी सूट में लिपटी उस गोरी युवती में न जाने क्या दिखा जो वह उसे दिलोजान से चाहने लगा. लेकिन धार्मिक कट्टरता व सरहद पार के कारण कौस्तुभ के लिए अपने सपनों की रानी को पाना क्या इतना आसान था?

 

 

‘इंडोपाक कल्चरल मिशन’ के लिए जिन 5 शिक्षकों का चयन हुआ है उन में एक नाम कौस्तुभ का भी है. अभी 2 साल पहले ही तो आई.आई.टी. कानपुर से एम. टेक. करने के बाद प्रवक्ता के पद पर सीधेसीधे यहीं आया था. स्टाफ रूम के खन्ना सर किसी न किसी बहाने लाहौर की चर्चा करते रहते हैं. वह आज तक इतने और ऐसे ढंग से किस्से सुनाते रहे हैं कि लाहौर और खासकर अनारकली बाजार की मन में पूरी तसवीर उतर गई है. इस चयन से कौस्तुभ के तो मन की मुराद पूरी हो गई.

 

सुनयनाजी बेटे कौस्तुभ की शादी के सपने देखने लगी हैं. ठीक भी है. सभी मातापिता की इच्छा होती है बेटे को सेहरा बांधे, घोड़ी पर चढ़ते देखने की. छमछम करती बहू घर में घूमती सब को अच्छी लगती है. सुबहसुबह चूडि़यां खनकाती जब वह हाथ में गरमागरम चाय का प्याला पकड़ाती है तो चाय का स्वाद ही बदल जाता है. फिर 2-3 साल में एक बच्चा लड़खड़ाते कदम रखता दादी पर गिर पड़े तो क्या कहने. बस, अब तो सुनयनाजी की यही तमन्ना है. उन्होंने तो अभी से नामों के लिए शब्दकोष भी देखना शुरू कर दिया है. उदयेशजी उन के इस बचकानेपन पर अकसर हंस पड़ते हैं, ‘क्या सुनयना, सूत न कपास जुलाहे से लट्ठमलट्ठा वाली कहावत तुम अभी से चरितार्थ कर रही हो. कहीं बात तक नहीं चली है, लड़का शादी को तैयार नहीं है और तुम ने उस के बच्चे का नाम भी ढूंढ़ना शुरू कर दिया. लाओ, चाय पिलाओ या वह भी बहू के हाथ से पिलवाने का इरादा है?’

 

‘आप तो मेरी हर बात ऐसे ही मजाक में उड़ा देते हैं. शादी तो आखिर होगी न. बच्चा भी होगा ही. तो नाम सोचने में बुराई क्या है?’

 

यह बोल कर सुनयना किचन में चली गईं और 2 कप चाय ले कर आईं. एक कप उन्हें पकड़ाया और दूसरा अपने सामने की तिपाई पर रखा. प्याला होंठों से लगाते हुए उदयेशजी ने फिर चुटकी ली, ‘अच्छा बताओ, क्या नाम सोचा है?’

 

‘अरे, इतनी जल्दी दिमाग में आता कहां है. वैसे भी मैं नाम रखने में इतनी तेज कहां हूं. तेज तो सुमेघा थी. उस ने तो मेरी शादी तय होते ही मेरे बेटे का नाम चुन लिया था. उसी का रखा हुआ तो है कौस्तुभ नाम.’

 

‘अच्छा, मुझे तो यह बात पता ही नहीं थी,’ उदयेशजी की आवाज में चुहल साफ थी, ‘हैं कहां आप की वह नामकर्णी सहेलीजी. आप ने तो हम से कभी मिलवाया ही नहीं.’

 

‘क्यों, मिलवाया क्यों नहीं, शादी के बाद उस के घर भी हो आए हैं आप. कितनी बढि़या तो दावत दी थी उस ने. भूल गए?’ उलाहना दिया सुनयनाजी ने.

 

‘अरे हां, वह लंबी, सुंदर सी, बड़ीबड़ी आंखों वाली? अब कहां है? कभी मिले नहीं न उस के बाद? न फोन न पत्र? बाकी सहेलियों से तो तुम मिल ही लेती हो. विदेश में कहीं है क्या?’ उदयेशजी अब गंभीर थे.

 

‘वह कहां है, इस की किसी को खबर नहीं.’

 

बचपन की सहेली का इस तरह गुम हो जाना सुनयनाजी की जिंदगी का एक बहुत ही दुखदायी अनुभव है. वह अकसर उन की फोटो देख कर रो पड़ती हैं.

 

 

कौस्तुभ समेत 5 शिक्षकों और 50 छात्रों का यह दल लाहौर पहुंच गया है. लाहौर मुंबई की तरह पूरी रात तो नहीं पर आधी रात तक तो जागता ही रहता है. शहर के बीचोबीच बहती रोशनी में नहाई नहर की लहरें इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं. एक रात मेहमानों का पूरा दल अलमहरा थिएटर में नाटक भी देख आया.

 

लाहौर घूम कर यह दल पाकिस्तान घूमने निकला. हड़प्पा देखने के बाद दल ननकाना साहब भी गया. गुजरांवाला की गलियां और कराची की हवेलियां भी देखी गईं. पाकिस्तान का पंजाब तो उन्हें भारत का पंजाब ही लगा. वही सरसों के लहलहाते खेत और तंदूर पर रोटी सेंकती, गाती हुई औरतें. वही बड़ा सा लस्सी भर गिलास और मक्के की रोटी पर बड़ी सी मक्खन की डली. 55 भारतीयों ने यही महसूस किया कि गुजरे हुए 55 सालों में राजनेताओं के दिलों में चाहे कितनी भी कड़वाहट आई हो, आम पाकिस्तानी अब भी अपने सपनों में अमृतसर के गलीकूचे घूम आता है और हिंदू दोस्तों की खैरखबर जानने को उत्सुक है.

 

कौस्तुभ की अगवाई में 10 छात्रों ने लाहौर इंजीनियरिंग कालिज के 25 चुने हुए छात्रों से मुलाकात की. भारतपाक विद्यार्थी आपस में जितने प्रेम से मिले और जिस अपनेपन से विचारों का आदान- प्रदान किया उसे देख कर यही लगा कि एक परिवार के 2 बिछुड़े हुए संबंधी अरसे बाद मिल रहे हों. और वह लड़की हाथ जोड़ सब को नमस्ते कर रही है. कौस्तुभ के पूछने पर उस ने अपना नाम केतकी बताया. गुलाबी सूट में लिपटी उस लंबी छरहरी गोरी युवती ने पहली नजर में ही कौस्तुभ का दिल जीत लिया था.

 

रात में कौस्तुभ बड़ी देर तक करवटें बदलता रहा. उस की यह बेचैनी जब डा. निरंजन किशोर से देखी नहीं गई तो वह बोल पड़े, ‘‘क्या बात है, कौस्तुभ, लगता है, कहीं दिल दे आए हो.’’

 

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है पर न जाने क्यों उस लड़की के खयाल मात्र से मन बारबार उसी पर अटक रहा है. मैं खुद हैरान हूं.’’

 

‘‘देखो भाई, यह कोई अजीब बात नहीं है. तुम जवान हो. लड़की सुंदर और जहीन है. तुम कहो तो कल चल पड़ें उस के घर?’’ डा. किशोर हलके मूड में थे.

 

 

वह मन ही मन सोचने लगे कि ये तो इस लड़की को ले कर सीरियस है. चलो, कल देखते हैं. हालीडे इन में सभी पाकिस्तानी छात्रछात्राओं को इकट्ठा होना ही है.

 

डा. किशोर गंभीर हो गए. उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस प्रकरण को किसी न किसी तरह अंजाम तक जरूर पहुंचाएंगे.

 

दूसरे दिन डा. किशोर तब सकते में आ गए जब कौस्तुभ ने उन्हें केतकी से सिर्फ मिलवाया ही नहीं बल्कि उस का पूरा पता लिखा परचा उन की हथेली पर रख दिया. डा. किशोर भी उस लड़की से मिल कर हैरान रह गए. उस की भाषा में शब्द हिंदी के थे. वह ‘एतराज’ नहीं ‘आपत्ति’ बोल रही थी. उन्होंने आग्रह किया कि वह उस के मातापिता से मिलना चाहेंगे.

 

अगले दिन वे दोनों केतकी के घर पहुंचे तो उस ने बताया कि पापा किसी काम से कराची गए हैं. हां, ममा आ रही हैं. मिलने तब तक नौकर सत्तू की कचौड़ी और चने की घुघनी ले कर आ चुका था.

 

केतकी की ममा आईं तो उन को देख कर दोनों आश्चर्य में पड़ गए. सफेद सिल्क की चौड़े किनारे वाली साड़ी में उन का व्यक्तित्व किसी भारतीय महिला की तरह ही निखर रहा था. वह मंदमंद हंसती रहीं और एक तश्तरी में कचौड़ी- घुघनी रख कर उन्हें दी. उन्हें देख कर दोनों अभिभूत थे, जितनी सुंदर बेटी उतनी ही सुंदर मां.

 

‘‘देखिए मैडम, मेरे दोस्त को आप की केतकी बेहद पसंद है,’’ डा. किशोर बोले, ‘‘पता नहीं इस के घर वाले मानेंगे या नहीं, लेकिन आप लोगों को एतराज न हो तो मैं भारत पहुंच कर कोशिश करूं. आप कहें तो आप के पति से मिलने और इस बारे में बात करने के लिए दोबारा आ जाऊं?’’

 

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ केतकी की ममा बोलीं, ‘‘मुझे केतकी ने सबकुछ बता दिया है और हम दोनों को कोई एतराज नहीं, बल्कि मैं तो बहुत खुश होऊंगी अगर मेरी बेटी का ब्याह भारत में हो जाए.’’

 

‘‘क्यों? क्या आप लोग उधर से इधर आए हैं?’’ कौस्तुभ ने पूछा.

 

‘‘हां, हम बंटवारे के बहुत बाद में आए हैं. मेरे मातापिता तो अभी भी वहीं हैं.’’

 

‘‘अच्छा, कहां की हैं आप?’’

 

वह बहुत भावुक हो कर बोलीं, ‘‘पटना की.’’

 

डा. किशोर को लगा कि उन्हें अपने अतीत में गोता लगाने के लिए अकेले छोड़ देना ही ठीक होगा. अत: कौस्तुभ का हाथ पकड़ धीमे से नमस्ते कह कर वे वहां से चल दिए.

 

घर में पूरा हंगामा मच गया. एक मुसलमान और वह भी पाकिस्तानी लड़की से कौस्तुभ का प्रेम. सुनयना ने तो साफ मना कर दिया कि एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में ऐसी मिलावट कैसे हो सकती है? डा. किशोर की सारी दलीलें बेकार गईं.

 

‘‘आंटी, लड़की संस्कारी है,’’

 

डा. किशोर ने बताया, ‘‘उस की मां आप के पटना की हैं.’’

 

‘‘होगी. पटना में तो बहुत मुसलमान हैं. केवल इसलिए कि वह मेरे शहर की है, उस से मैं रिश्ता जोड़ लूं. संभव नहीं है.’’

 

डा. किशोर मन मार कर चले गए. सुनयनाजी ने यह सोच कर मन को सांत्वना दे ली कि वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है, उस का भी भर जाएगा.

 

 

उस दिन शाम को उदयेशजी ने दरवाजा खोला तो उन के सामने एक अपरिचित सज्जन खड़े थे.

 

‘‘हां, कहिए, किस से मिलना है आप को?’’

 

‘‘आप से. आप कौस्तुभ दीक्षित के वालिद हैं न?’’ आने वाले सज्जन ने हाथ आगे बढ़ाया. उदयेशजी आंखों में अपरिचय का भाव लिए उन्हें हाथ मिलाते हुए अंदर ले आए.

 

‘‘मैं डा. अनवर अंसारी,’’  सोफे पर बैठते हुए आगंतुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स का प्रोफेसर हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में सिर्फ इसलिए आ गया कि आप से मिल सकूं.’’

 

‘‘हां, कहिए. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ उदयेश बहुत हैरान थे.

 

‘‘मैं अपने चचेरे भाई अहमद की बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं. ये रही उस की फोटो और बायोडाटा. मैं परसों फोन करूंगा. मेरा भाई डाक्टर है और उस की बीवी कैमिस्ट्री में रीडर. अच्छा खातापीता परिवार है. लड़की भी सुंदर है,’’ इतना कह कर उन्होंने लिफाफा आगे बढ़ा दिया.

 

नौकर मोहन तब तक चायनाश्ता ले कर आ चुका था. हक्केबक्के उदयेश को थोड़ा सहारा मिला. सामान्य व्यवहार कर सहज ढंग से बोले, ‘‘आप पहले चाय तो लीजिए.’’

 

‘‘तकल्लुफ के लिए शुक्रिया. बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं तो आप के यहां खानापीना बेअदबी होगी, इजाजत दें,’’ कह कर वह उठ खड़े हुए और नमस्कार कर के चलते बने.

 

सुनयना भी आ गईं. उन्होंने लिफाफा खोला. अचानक ध्यान आया कि कहीं ये वही पाकिस्तान वाले लोग तो नहीं हैं. फिर सीधे सपाट स्वर में उदयेश से कहा, ‘‘उन का फोन आए तो मना कर दीजिएगा.’’

 

तभी कौस्तुभ आ गया और मेज पर चायनाश्ता देख कर पूछ बैठा, ‘‘पापा, कौन आया था?’’

 

‘‘तेरे रिश्ते के लिए आए थे,’’ उदयेशजी ने लिफाफा आगे बढ़ाया.

 

फोटो देख कर कौस्तुभ एकदम चौंका, ‘‘अरे, यह तो वही लाहौर वाली केतकी है. लाहौर से आए थे? कौन आया था?’’

 

‘‘नहीं, इलाहाबाद से उस के चाचा आए थे,’’ उदयेशजी बेटे की इस उत्कंठा से परेशान हुए.

 

‘‘अच्छा, वे लोग भी इधर के ही हैं. कुछ बताया नहीं उन्होंने?’’

 

‘‘बस, तू रहने दे,’’ सुनयना देवी बोलीं, ‘‘जिस गली जाना नहीं उधर झांकना क्या? जा, हाथमुंह धो. मैं नाश्ता भेजती हूं.’’

 

दिन बीतते रहे. दिनचर्या रोज के ढर्रे पर चलती रही, लेकिन 15वें दिन सुबहसुबह घंटी बजी. मोहन ने आने वाले को अंदर बिठाया. सुनयनाजी आईं और नीली साड़ी में लिपटी एक महिला को देख कर थोड़ी चौंकी. महिला ने उन पर भरपूर नजर डाली और बोली, ‘‘मैं केतकी की मां…’’

 

सुनयना ने देखा, अचानक दिमाग में कुछ कौंधा, ‘‘लेकिन आप…तु… तुम…सुमे…’’ और वह महिला उन से लिपट गई.

 

‘‘सुनयना, तू ने पहचान लिया.’’

 

‘‘लेकिन सुमेधा…केतकी…लाहौर… सुनयना जैसे आसमान से गिरीं. उन की बचपन की सहेली सामने है. कौस्तुभ की प्रेयसी की मां…लेकिन मुसलमान…सिर चकरा गया. अपने को मुश्किल से संभाला तो दोनों फूट कर रो पड़ीं. आंखों से झरते आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई सुनयना उन्हें पकड़ कर बेडरूम में ले गईं.

 

‘‘बैठ आराम से. पहले पानी पी.’’

 

‘‘सुनयना, 25 साल हो गए. मन की बात नहीं कह पाई हूं किसी से, मांपापा से मिली ही नहीं तब से. बस, याद कर के रो लेती हूं.’’

 

‘‘अच्छाअच्छा, पहले तू शांत हो. कितना रोएगी? चल, किचन में चल. पकौड़े बनाते हैं तोरी वाले. आम के अचार के साथ खाएंगे.’’

 

सुमेधा ने अपनेआप को अब तक संभाल लिया था.

 

‘‘मुझे रो लेने दे. 25 साल में पहली बार रोने को किसी अपने का कंधा मिला है. रो लेने दे मुझे,’’ सुमेधा की हिचकियां बंधने लगीं. सुनयना भी उन्हें कंधे से लगाए बैठी रहीं. नयनों के कटोरे भर जाएंगे, तो फिर छलकेंगे ही. उन की आंखों से भी आंसू झरते रहे.

 

 

बड़ी देर बाद सुमेधाजी शांत  हुईं. मुसकराने की कोशिश की और बोलीं, ‘‘अच्छा, एक गिलास शरबत पिला.’’

 

दोनों ने शरबत पिया. फिर सुमेधा ने अपनेआप को संभाला. सुनयना ने पूछा, ‘‘लेकिन तू तो उस रमेश…’’

 

‘‘सुनयना, तू ने मुझे यही जाना? हम दोनों ने साथसाथ गुडि़या खेल कर बचपन विदा किया और छिपछिप कर रोमांटिक उपन्यास पढ़ कर यौवन की दहलीज लांघी. तुझे भी मैं उन्हीं लड़कियों में से एक लगी जो मांबाप के मुंह पर कालिख पोत कर पे्रमी के साथ भाग जाती हैं,’’ सुमेधा ने सुनयना की आंखों में सीधे झांका.

 

‘‘लेकिन वह आंटी ने भी यही…’’ सुनयना उन से नजर नहीं मिला पाईं.

 

‘‘सुन, मेरी हकीकत क्या है यह मैं तुझे बताती हूं. तुझे कुलसुम आपा याद हैं? हम से सीनियर थीं. स्कूल में ड्रामा डिबेट में हमेशा आगे…?’’

 

‘‘हां, वह जस्टिस अंसारी की बेटी,’’ सुनयना को जैसे कुछ याद आ गया, ‘‘पापा पहले उन्हीं के तो जूनियर थे.’’

 

‘‘और कुलसुम आपा का छोटा भाई?’’

 

‘‘वह लड्डन यानी अहमद न… हैंडसम सा लड़का?’’

 

‘‘हां वही,’’ सुमेधा बोलीं, ‘‘तू तो शादी कर के ससुराल आ गई. मैं ने कैमिस्ट्री में एम.एससी. की. तब तक वह लड्डन डाक्टर बन चुका था. कुलसुम आपा की शादी हो चुकी थी. उस दिन वह मुझे ट्रीट देने ले गईं. अंसारी अंकल की कार थी. अहमद चला रहा था. मैं पीछे बैठी थी. लौटते हुए कुलसुम आपा अचानक अपने बेटे को आइसक्रीम दिलाने नीचे उतरीं और अहमद ने गाड़ी भगा दी. मुझे तो चीखने तक का मौका नहीं दिया. एकदम एक दूसरी कार आ कर रुकी और अहमद ने मुझे खींच कर उस कार में डाल दिया. 2 आदमी आगे बैठे थे.’’

 

‘‘तू होश में थी?’’

 

‘‘होश था, तभी तो सबकुछ याद है. मुझे ज्यादा दुख तो तब हुआ जब पता चला कि सारा प्लान कुलसुम आपा का था. मैं शायद इसे अहमद की सफाई मान लेती लेकिन अंसारी अंकल ने खुद यह बात मुझे बताई. उन्हें अहमद का यहां का पता कुलसुम आपा ने ही दिया था. वह भागे आए थे और मुझे छाती से लगा लिया था.

 

‘‘यह सच है, अहमद मुझे पाना चाहता था पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे भगाता. एक औरत हो कर कुलसुम आपा ने मेरा जीवन नरक बना दिया. क्या बिगाड़ा था मैं ने उन का. हमेशा मैं ने सम्मान दिया उन्हें लेकिन…’’ और सुमेधा ऊपर देखने लगीं.

 

‘‘जज अंकल गए थे तेरे पास तो अहमद को क्या कहा उन्होंने?’’ बात की तह में जाने के लिए सुनयना ने पूछा.

 

‘‘उन्होंने पहले मुझ से पूछा कि अहमद ने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की. मेरे ‘न’ कहने पर वे बोले, ‘देखो बेटा, यह जीवन अल्लाह की दी हुई नेमत है. इसे गंवाने की कभी मत सोचना. इस के लिए सजा इस बूढ़े बाप को मत देना. तुम कहो तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं.’ लेकिन मैं ने मना कर दिया, सुनयना. मेरा तो जीवन इन भाईबहन ने बरबाद कर ही दिया था, अब मैं नवनीत, गरिमा और मम्मीपापा की जिंदगी क्यों नरक करती. ठीक किया न?’’ सुमेधा की आंखें एकदम सूखी थीं.

 

‘‘तो तू ने अहमद से समझौता कर लिया?’’

 

‘‘जज अंकल ने कहा कि बेटा, मैं तो इसे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा, हो सके तो तू कर दे. उन्होंने अहमद से कहा, ‘देख, यह मेरी बेटी है. इसे अगर जरा भी तकलीफ हुई तो मैं तुम्हें दोनों मुल्कों में कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’ दूसरी बार वह केतकी के जन्म पर आए थे, बहुत प्यार किया इसे. यह तो कई बार दादादादी के पास हो भी आई. दो बार तो अंसारी अंकल इसे मम्मी से भी मिलवा लाए.

 

‘‘जानती है सुनयना, अंसारी अंकल ने कुलसुम आपा को कभी माफ नहीं किया. आंटी उन से मिलने को तरसती मर गईं. आंटी को कभी वह लाहौर नहीं लाए. अंकल ने अपने ही बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया और जायदाद मेरे और केतकी के नाम कर दी. शायद आंटी भी अपने बेटेबेटी को कभी माफ नहीं कर सकीं. तभी तो मरते समय अपने सारे गहने मेरे पास भिजवा दिए.’’

 

सुमेधा की दुखभरी कहानी सुन कर सुनयना सोचती रहीं कि एक ही परिवार में अलगअलग लोग.

 

अंकल इतने शरीफ और बेटाबेटी ऐसे. कौन कहता है कि धर्म इनसान को अच्छा या बुरा बनाता है. इनसानियत का नाता किसी धर्म से नहीं, उस की अंतरात्मा की शक्ति से होता है.

 

‘‘लेकिन यह बता, तू ने अहमद को माफ कैसे कर दिया?’’

 

‘‘हां, मैं ने उसे माफ किया, उस के साथ निभाया. मुझे उस की शराफत ने, उस की दरियादिली ने, उस के सच्चे प्रेम ने, उस के पश्चात्ताप ने इस के लिए मजबूर किया था.’’

 

‘‘अहमद और शराफती?’’ सुनयना चौंक कर पूछ बैठीं.

 

‘‘हां सुनयना, उस ने 2 साल तक मुझे हाथ नहीं लगाया. मैं ने उसे समझने में बहुत देर लगाई. लेकिन फिर ठीक समझा. मैं समझ गई कि कुलसुम आपा इसे न उकसातीं, शह न देतीं तो वह कभी भी ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता. मैं ने उसे बिलखबिलख कर रोते देखा है.

 

‘‘अहमद ने एक नेक काम किया कि उस ने मेरा धर्म नहीं बदला. मैं आज भी हिंदू हूं. मेरी बेटी भी हिंदू है. हमारे घर में मांसाहारी भोजन नहीं बनता है. बस, केतकी के जन्म पर उस ने एक बात कही, वह भी मिन्नत कर के, कि मैं उस का नाम बिलकुल ऐसा न रखू जो वहां चल ही न पाए.’’

 

‘‘तू सच कह रही है? अहमद ऐसा है?’’ सुनयना को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था.

 

‘‘हां, अहमद ऐसा ही है, सुनयना. वह तो उस पर जुनून सवार हो गया था. मैं ने उसे सचमुच माफ कर दिया है.’’

 

‘‘तो तू पटना क्यों नहीं गई? एक बार तो आंटी से मिल आ.’’

 

‘‘मुझ में साहस नहीं है. तू ले चले तो चलूं. मायके की देहली के दरस को तरस गई हूं. सुनयना, एक बार मम्मी से मिलवा दे. तेरे पैर पड़ती हूं,’’ कह कर सुमेधा सुनयना के पैरों पर गिर पड़ी.

 

‘‘क्या कर रही है…पागल हो गई है क्या…मैं तुझे ले चलूं. क्या मतलब?’’

 

‘‘देख, मम्मी ने कहा है कि अगर तू केतकी को अपनाने को तैयार हो गई तो वह अपने हाथों से कन्यादान करेंगी. बेटी न सही, बेटी की बेटी तो इज्जत से बिरादरी में चली जाए.’’

 

‘‘तू लाहौर से अकेली आई है?’’

 

‘‘नहीं, अहमद और केतकी भी हैं. मेरी हिम्मत नहीं हुई उन्हें यहां लाने की.’’

 

‘‘अच्छा, उदयेश को आने दे?’’ सुनयना बोलीं, ‘‘देखते हैं क्या होता है. तू कुछ खापी तो ले.’’

 

 

सुनयना ने उदयेश को फोन किया और सोचती रही कि क्या धर्म इतना कमजोर है कि दूसरे धर्म के साथ संयोग होते ही समाप्त हो जाए और फिर  क्या धार्मिक कट्टरता इनसानियत से बड़ी है? क्या धर्म आत्मा के स्नेह के बंधन से ज्यादा बड़ा है?

 

उदयेश आए, सारी बात सुनी. सब ने साथ में लंच किया. सुमेधा को उन्होंने कई बार देखा पर नमस्ते के अलावा बोले कुछ नहीं.

 

उदयेशजी ने गाड़ी निकाली और दोनों को साथ ले कर होटल पहुंचे. सब लोग बैठ गए. सभी चुप थे. अहमद ने कौफी मंगवाई और पांचों चुपचाप कौफी पीते रहे. आखिर कमरे के इस सन्नाटे को उदयेशजी ने तोड़ा :

 

‘‘एक बात बताइए डा. अंसारी, आप की सरकार, आप की बिरादरी कोई हंगामा तो खड़ा नहीं करेगी?’’

 

अहमद ने उदयेश का हाथ पकड़ा, ‘‘उदयेशजी, सरकार कुछ नहीं करेगी. बिरादरी हमारी कोई है नहीं. बस, इनसानियत है. आप मेरी बेटी को कुबूल कर लीजिए. मुझे उस पाप से नजात दिलाइए, जो मैं ने 25 साल पहले किया था.

 

‘‘सरहद पार से अपनी बेटी एक हिंदू को सौंपने आया हूं. प्लीज, सुनयनाजी, आप की सहेली 25 साल से जिस आग में जल रही है, उस से उसे बचा लीजिए,’’ कहते हुए वह वहीं फर्श पर उन के पैरों के आगे अपना माथा रगड़ने लगा.

 

उदयेश ने डा. अंसारी को उठाया और गले से लगा कर बोले, ‘‘आप सरहद पार से हमें इतना अच्छा तोहफा देने आए हैं और हम बारात ले कर पटना तक नहीं जा सकते? इतने भी हैवान नहीं हैं हम. जाइए, विवाह की तैयारियां कीजिए.’’

 

सुनयनाजी ने अपने हाथ का कंगन उतार कर केतकी की कलाई में डाल दिया.

 

जब ऐसा मिलन हो, दो सहेलियों का, दो प्रेमियों का, दो संस्कृतियों का, दो धर्मों का तो फिर सरहद पर कांटे क्यों? गोलियों की बौछारें क्यों?

Married Life : प्रेम की लंबी तपस्‍या

शिखर ने मातापिता के दबाव में आ कर शैली से शादी कर ली. शादी के बाद भी वह उस से दूरदूर रहने का प्रयास करता लेकिन शैली के संयम, त्याग और मूक तपस्या की गरमाहट पा कर कठोर हृदय शिखर खुदबखुद मोम की मानिंद पिघल गया.

शैली उस दिन बाजार से लौट रही थी कि वंदना उसे रास्ते में ही मिल गई.

‘‘तू कैसी है, शैली? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. आ, चल, सामने रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

वंदना शैली को घसीट ही ले गई थी. जाते ही उस ने 2 कप कौफी का आर्डर दिया.

‘‘और सुना, क्या हालचाल है? कोई पत्र आया शिखर का?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर शैली का मन उदास  हो गया था.

‘‘सच शैली कभी तेरे बारे में सोचती हूं तो बड़ा दुख होेता है. आखिर ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी तेरे पिताजी को जो तेरी शादी कर दी? ठहर कर, समझबूझ कर करते. शादीब्याह कोई गुड्डेगुडि़या का खेल तो है नहीं.’’

इस बीच बैरा मेज पर कौफी रख गया और वंदना ने बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा.

‘‘खैर, जाने दे. मैं ने तुझे और उदास कर दिया. चल, कौफी पी. और सुना, क्याक्या खरीदारी कर डाली?’’

पर शैली की उदासी कहां दूर हो पाई थी. वापस लौटते समय वह देर तक शिखर के बारे में ही सोचती रही थी. सच कह रही थी वंदना. शादीब्याह कोई गुड्डेगुडि़या का खेल थोड़े ही होता है. पर उस के साथ क्यों हुआ यह खेल? क्यों?

वह घर लौटी तो मांजी अभी भी सो ही रही थीं. उस ने सोचा था, घर पहुंचते ही चाय बनाएगी. मांजी को सारा सामान संभलवा देगी और फिर थोड़ी देर बैठ कर अपनी पढ़ाई करेगी. पर अब कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. वंदना उस की पुरानी सहेली थी. इसी शहर में ब्याही थी. वह जब भी मिलती थी तो बड़े प्यार से. सहसा शैली का मन और उदास हो गया था. कितना फर्क आ गया था वंदना की जिंदगी में और उस की  अपनी जिंदगी में. वंदना हमेशा खुश, चहचहाती दिखती थी. वह अपने पति के साथ  सुखी जिंदगी बिता रही थी. और वह…अतीत की यादों में खो गई.

शायद उस के पिता भी गलत नहीं होंगे. आखिर उन्होंने शैली के लिए सुखी जिंदगी की ही तो कामना की थी. उन के बचपन के मित्र सुखनंदन का बेटा था शिखर. जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तभी  उन्होंने  यह रिश्ता तय कर दिया था. सुखनंदन ने खुद ही तो हाथ मांग कर यह रिश्ता तय किया था. कितना चाहते थे वह उसे. जब भी मिलने आते, कुछ न कुछ उपहार अवश्य लाते थे. वह भी तो उन्हें चाचाजी कहा करती थी.

‘‘वीरेंद्र, तुम्हारी यह बेटी शुरू से ही मां के अभाव में पली है न, इसलिए बचपन में ही सयानी हो गई है,’ जब वह दौड़ कर उन की खातिर में लग जाती तो वह हंस कर उस के पिता से कहते.

फिर जब शिखर इंजीनियर बन गया तो शैली के पिता जल्दी शादी कर देने के लिए दबाव डालने लगे थे. वह जल्दी ही रिटायर होने वाले थे और उस से पहले ही यह दायित्व पूरा कर लेना चाहते थे. पर जब सुखनंदन का जवाब आया कि शिखर शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है तो वह चौंक पड़े थे. यह कैसे संभव है? इतने दिनों का बड़ों द्वारा तय किया रिश्ता…और फिर जब सगाई हुई थी तब तो शिखर ने कोई विरोध नहीं किया था…अब क्या हो गया?

शैली के पिता ने खुद भी 2-1 पत्र लिखे थे शिखर को, जिन का कोई जवाब नहीं आया था. फिर वह खुद ही जा कर शिखर के बौस से मिले थे. उन से कह कर शायद जोर डलवाया था उस पर. इस पर शिखर का बहुत ही बौखलाहट भरा पत्र आया था. वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं, यह तक लिखा था उस ने. कितना रोई थी तब वह और पिताजी से भी कितना कहा था, ‘क्यों नाहक जिद कर रहे हैं? जब वे लोग नहीं चाहते तो क्यों पीछे पड़े हैं?’

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

 

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

 

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो? पूरी रात वह सो नहीं सका था.

दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

Romance : लैटर बौक्स

सीढि़यों के नीचे लैटरबौक्स से अपनी डाक निकाल जैसे ही मैं मुड़ा, अचानक हड़बड़ा कर पीछे हट गया. मेरे बिलकुल पीछे एक नवयौवना अपने चकाचौंध करने वाले सौंदर्य के साथ खड़ी थी, जैसे चंद्रमा अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ धरती पर अठखेलियां करने के लिए निकला हो.

अचानक पीछे मुड़ने से मैं उस सौंदर्य की प्रतिमा से टकरातेटकराते बचा था, क्योंकि वह बिलकुल मेरे पीछे खड़ी थी. शायद वह भी अपनी डाक निकालने आई थी. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं ने आज पहली बार उसे देखा था. पता नहीं किस फ्लैट में रहती थी.

हड़बड़ा कर पीछे हटते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘सौरी, आप…’’

उस के चेहरे पर कोई शर्मिंदगी या आश्चर्य के भाव नहीं थे. बड़ी सहजता से मुसकराते हुए बोली, ‘‘इट्स ओके.’’

इस के बाद मैं सिमट कर उस की बगल से निकला, तो ऐसा लगा जैसे सुगंध की एक मधुर बयार मेरे शरीर से टकरा कर गुजर गई हो. बड़ी ही मदहोश कर देने वाली खुशबू थी. उस के शरीर की खुशबू को अपने नथुनों में भरता हुआ मैं सीढ़ी पर पहला कदम रखने वाला ही था कि उस की खनकती आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘सुनिए.’’

मैं पीछे मुड़ा. वह बोली, ‘‘आप 201 नंबर फ्लैट में रहते हैं?’’

‘‘हां,’’ मैं ने उस के चेहरे की सुंदरता में खोते हुए कहा, मेरे फ्लैट का नंबर जानना उस के लिए मुश्किल नहीं था. मैं ने अभीअभी इसी नंबर के डब्बे से डाक निकाली थी और वह मेरे पीछे खड़ी देख रही थी.

 

‘‘मैं 202 नंबर फ्लैट में रहती हूं.’’ वह अभी भी मुसकरा रही थी, जैसे उस के चेहरे पर सदाबहार मुसकान खिली रहती हो.

‘‘अच्छा,’’ मैं ने हैरत से कहा, ‘‘कभी आप को देखा नहीं, जबकि हमारे फ्लैट तो आमनेसामने हैं?’’

‘‘मैं ने भी आप को नहीं देखा. मैं पुणे में रहती हूं, यहां दीदी के पास आई हूं.’’

‘‘तभी तो,’’ मेरे आश्चर्य का समाधान हो गया था, ‘‘ओके, मेरे यहां भी कभी आइएगा.’’ मैं ने उसे निमंत्रण दिया, फिर सीढि़यां चढ़ने लगा. वह भी मेरे पीछेपीछे आने लगी. मैं ने चलते हुए पूछा, ‘‘आप ने अपना लैटरबौक्स नहीं देखा?’’

‘‘मैं इस के लिए वहां नहीं रुकी थी. मैं तो यह देख रही थी कि मोबाइल,  कंप्यूटर और इंटरनैट के जमाने में आजकल पत्र कौन लिखता है? परंतु आप के पास तो बहुत सारे पत्र आते हैं?’’

‘‘हां, मैं कवि और लेखक हूं. मेरे पास पाठकोंसंपादकों के पत्रों के अलावा पत्रपत्रिकाएं आती रहती हैं.’’

‘‘अच्छा, तब तो आप दिलचस्प व्यक्ति होंगे,’’ उस की आवाज में किलकारी सी आ गई थी. मैं ने कुछ नहीं कहा. तब तक हम दूसरे फ्लोर पर पहुंच गए थे. अपने फ्लैट की घंटी बजाते हुए उस ने मुझ से कहा, ‘‘मैं थोड़ी देर में आप के पास आऊंगी, आप को एतराज तो नहीं?’’

मेरे अंदर खुशी की एक लहर दौड़ गई. इतनी सुंदर लड़की मुझ से मिलने के लिए मेरे घर आएगी, मुझे क्या एतराज हो सकता था. मैं ने हलकी मुसकान के साथ कहा, ‘‘ओह, श्योर, व्हाई नौट.’’

घर में घुसते ही मैं ने डाक देखनी शुरू कर दी. इस काम को मैं बाद के लिए नहीं छोड़ता था. तभी मेरी पत्नी नेहा ने पानी का गिलास ला कर मेज पर रख दिया. फिर मेरे सामने बैठ कर बोली, ‘‘चाय अभी बनाऊं, या बाद में?’’

‘‘रहने दो, अभी कोई मिलने के लिए आने वाला है.’’

नेहा ने कोई प्रश्न नहीं किया. वह जानती थी, मुझ से मिलने के लिए लेखक और पत्रकार आते ही रहते थे. परंतु कुछ देर बाद जब उस सुंदर लड़की ने मोहक मुसकान के साथ घर में प्रवेश किया तो नेहा अचंभित रह गई. आज के जमाने में युवावर्ग हिंदी साहित्य को न तो पढ़ता है, न पसंद करता है. युवतियां तो बिलकुल भी नहीं. फिर वह लड़की मेरे पास क्या करने आई थी, संभवतया नेहा यही सोच रही थी, परंतु उस ने खुले दिल से उस का स्वागत किया.

परिचय का आदानप्रदान हुआ. पता चला उस का नाम छवि था. सचमुच वह सौंदर्य की प्रतिमा थी. उस के चांद से दमकते चेहरे पर सौंदर्य जैसे हंसता सा लगता था. आंखें बड़ीबड़ी और चंचल थीं. होंठ कुदरती तौर पर लाल थे और उस के माथे पर बालों की एक छोटी सी लट जैसे उस की सुंदरता को काली निगाहों से बचाने के लिए स्वत: वहां लहरा रही थी.

नेहा के मन में स्त्रीजन्य ईर्ष्याभाव जाग्रत हुआ था. यह उस के चेहरे के भावों से स्पष्ट था. छवि भले ही इसे न भांप पाई हो, परंतु मैं नेहा का पति था. उस के स्वाभाविक गुणों का मुझे पता था. ईर्ष्याभाव होते हुए भी नेहा उस से हंसहंस कर बातें कर रही थी. फिर चाय बनाने के लिए चली गई.

 

तभी छवि ने कहा, ‘‘आप की पत्नी बहुत सुंदर और हंसमुख हैं.’’

‘‘आप से ज्यादा नही,’’  मैं ने खुले मन से उस की प्रशंसा की.

छवि के मुख पर एक शर्मीली मुसकान दौड़ गई. उस ने निगाहों को थोड़ा झुकाते हुए कहा, ‘‘आप मजाक कर रहे हैं.’’

‘‘नहीं, आप अपने मन से पूछ कर देख लीजिए. मेरी बात में एक अंश भी झूठ नहीं है,’’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘‘ओके, मैं मान लेती हूं,’’ उस ने निगाहें उठा कर कहा, ‘‘आप का कोई बेबी नहीं है?’’

‘‘नहीं, अभी तक नहीं,’’ मैं ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘क्या शादी को ज्यादा दिन नहीं हुए?’’ वह बहुत व्यक्तिगत हो रही थी.

मैं ने एक बार किचन की तरफ देखा. नेहा चाय बनाने में व्यस्त थी. मैं ने जवाब दिया, ‘‘नहीं, शादी को तो लगभग 5 साल हो गए हैं. परंतु हम अभी बच्चा नहीं चाहते.’’ यह कहतेकहते मेरी आवाज थोड़ी भारी हो गई.

छवि ने शायद मेरी आवाज का भारीपन महसूस किया. उस की आंखों में आश्चर्य के भाव प्रकट हो गए, फिर अचानक ही हंस पड़ी, ‘‘अच्छा, आप क्या लिखते हैं?’’ उस ने बहुत चालाकी से एक असहज करने वाले विषय को टाल दिया था.

साहित्य पर चर्चा चल रही थी. तभी नेहा चाय, बिस्कुट और नमकीन ले कर आ गई. चाय पीते हुए कई विषयों पर चर्चा चली. छवि  एक बुद्धिमान और जिज्ञासु लड़की थी. उस का सामान्यज्ञान भी काफी अच्छा था. जब खुल कर बातें हुईं तो नेहा के मन से छवि के प्रति पूर्वाग्रह समाप्त हो गया.

छवि अपनी गरमी की छुट्टियां मुंबई में बिताने वाली थी. उस की दीदी और जीजा, दोनों ही सरकारी नौकरी में थे. दिनभर छवि घर पर रहती थी और टीवी देखती थी. कभीकभी आसपास घूमने चली जाती थी. छुट्टी के दिन अपनी दीदी और जीजा के साथ घूमने जाती थी.

मुझ से मिलने के बाद अब वह कहानी, कविता और उपन्यास पढ़ने लगी. मुझ से कई सारी किताबें ले गई थी. दिन का काफी समय वह पढ़ने में बिताती, या मेरी पत्नी के साथ बैठ कर विभिन्न विषयों पर बातें करती. मैं स्वयं एक सरकारी दफ्तर में ग्रेड ‘बी’ अफसर था, इसलिए केवल छुट्टी के दिन छवि से खुल कर बात करने का मौका मिलता था. बाकी दिनों में हम सभी शाम की चाय अवश्य साथसाथ पीते थे.

छवि के चेहरे में अनोखा सम्मोहन था. ऐसा सम्मोहन, जो बरबस किसी को भी अपनी तरफ खींच लेता है. संभवतया हर स्त्री में यह गुण होता है, कुछ में कम, कुछ में ज्यादा, परंतु कुछ लड़कियां ऐसी होती हैं जो पुरुषों को चुंबक की तरह अपनी तरफ खींचती हैं. छवि ऐसी ही लड़की थी. वह युवा थी, पता नहीं उस का कोई प्रेमी था या नहीं, परंतु उसे देख कर मेरा मन मचलने लगता था.

सामाजिक दृष्टि से यह गलत था. मैं एक शादीशुदा व्यक्ति था, परिवार के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां थीं और मैं सामाजिक बंधनों में बंधा हुआ था. परंतु मन किसी बंधन को नहीं मानता और हृदय किसी के लिए भी मचल सकता है. प्यार के  मामले में यह बच्चे के समान होता है, जो हर सुंदर लड़की और स्त्री को पाने की लालसा सदा मन में पालता रहता है.

मैं नेहा को देखता तो हृदय में अपराधबोध पैदा होता, परंतु जैसे ही छवि को देखता तो अपराधबोध गायब हो जाता और खुशी की एक ऐसी लहर तनमन में दौड़ जाती कि जी चाहता, यह लहर कभी खत्म न हो, शरीर के अंगअंग में ऐसी लहरें उठती ही रहें और मैं उन लहरों में डूब जाऊं.

छवि सामान्य ढंग से मेरे घर आती, हमारे साथ बैठ कर बातें करती, चाय पीती और चली जाती. कभी पुस्तकें मांग कर ले जाती और पढ़ कर वापस कर देती. उस ने मेरी भी कहानियां पढ़ी थीं, परंतु उन पर कोईर् प्रतिक्रिया नहीं दी थी. मैं पूछता, तो बस इतना कहती, ‘ठीक हैं, अच्छी लगीं.’ बस, और कोई विश्ेष टिप्पणी नहीं.

 

उस की बातों से नहीं लगता था कि वह मेरे लेखन या व्यक्तित्व से प्रभावित थी. यदि वह मेरे किसी गुण की प्रशंसा करती तो मैं समझ सकता था कि उस के हृदय में मेरे लिए कोई स्थान था, फिर मैं उस के हृदय में प्रवेश करने का कोई न कोई रास्ता तलाश कर ही लेता. मेरी सब से बड़ी कमजोरी थी कि मैं शादीशुदा था. सीधेसीधे बात करता तो वह मुझे छिछोरा या लंपट समझती. मुझे मन मार कर अपनी भावनाओं को दबा कर रखना पड़ रहा था.

मेरे मन में उस से अकेले में मिलने की लालसा बलवती होती जा रही थी, परंतु मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था. इस तरह 15 दिन निकल गए. जैसजैसे उस के पुणे जाने के दिन कम हो रहे थे, वैसेवैसे मेरे मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

फिर एक दिन कुछ आश्चर्यजनक हुआ. मैं औफिस जाने के लिए सीढि़यों से उतर कर नीचे आया, तो देखा, नीचे छवि खड़ी थी. मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप का इंतजार,’’ उस ने आंखों को मटकाते हुए कहा.

‘‘क्या?’’ मुझे हलका सा आश्चर्य हुआ. एक बार दिल भी धड़क कर रह गया. क्या उस के  दिल में मेरे लिए कुछ है? बता नहीं सकता था, क्योंकि लड़कियां अपनी भावनाओं को छिपाने में बहुत कुशल होती हैं.

‘‘हां, आप को औफिस के लिए देर तो नहीं होगी?’’

‘‘नहीं, बोलिए न.’’

‘‘मैं घर में सारा दिन पड़ेपड़े बोर हो जाती हूं. टीवी और किताबों से मन नहीं बहलता. कहीं घूमने जाने का मन है, क्या आप मेरे साथ कहीं घूमने चल सकते हैं?’’

उस का प्रस्ताव सुन कर मेरा मन बल्लियों उछलने लगा, परंतु फिर हृदय पर जैसे किसी ने पत्थर रख दिया. मैं शादीशुदा था और नेहा को घर में छोड़ कर मैं उसे घुमाने कैसे ले जा सकता था. नेहा को साथ ले जाता, तो छवि को घुमाने का क्या लाभ? मैं ने असमंजसभरी निगाहों से उसे देखते हुए कहा, ‘‘आप के दीदीजीजा तो रविवार को आप को घुमाने ले जाते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं आप के साथ जाना चाहती हूं.’’

मेरा दिल फिर से धड़का, ‘‘परंतु नेहा साथ रहेगी?’’

‘‘छुट्टी के दिन नहीं,’’ उस ने निसंकोच कहा, ‘‘आप दफ्तर से एक दिन की छुट्टी ले लीजिए. फिर हम दोनों बाहर चलेंगे.’’

‘‘अच्छा, अपना मोबाइल नंबर दो. मैं दफ्तर जा कर फोन करूंगा.’’ उस ने अपना नंबर दिया और मैं खूबसूरत मंसूबे बांधता हुआ दफ्तर आया. मन में लड्डू फूट रहे थे. अपने केबिन में पहुंचते ही मैं ने छवि को फोन मिलाया. बड़े उत्साह से उस से मीठीमीठी बातें कीं, ताकि उस के मन का पता चल सके.. इस के बावजूद मैं अपने मन की बात उस से नहीं कह पाया. छवि की बातों से भी ऐसा नहीं लगा कि उस के मन में मेरे लिए कोई ऐसीवैसी बात है.

 

हम ने बाहर घूमने की बात तय कर ली. परंतु फोन रखने पर मेरा उत्साह खत्म हो चुका था. शायद मेरे साथ बाहर जाने का छवि का कोई विशेष उद्देश्य नहीं था, वह केवल घूमना ही चाहती थी.

मैरीन ड्राइव के चौड़े फुटपाथ पर धीमेधीमे कदमों से टहलते हुए एक जगह हम रुक गए और धूप में चांदी जैसी चमकती हुई समुद्र की लहरों को निहारने लगे. मेरे मन में भी समुद्र जैसी लहरें उफान मार रही थीं. मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पा रहा था. लहरों को ताकते हुए छवि ने पूछा, ‘‘क्या आप इस बात पर विश्वास करते हैं कि प्रथम दृष्टि में प्यार हो सकता है.’’

मैं ने आश्चर्ययुक्त भाव से उस के मुखड़े को देखा. उस के चेहरे पर ऐसा कोई भाव दृष्टिमान नहीं था जिस से उस के मनोभावों का पता चलता. मैं ने अपनी दृष्टि को आसमान की तरफ टिकाते हुए कहा, ‘‘हां, हो सकता है, परंतु…’’

अब उस ने मेरी ओर हैरत से देखा और पूछा, ‘‘परंतु क्या?’’

‘‘परंतु…यानी ऐसा प्रेम संभव तो होता है परंतु इस में स्थायित्व कितना होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि दोनों व्यक्ति कितने समय तक एकदूसरे के साथ रहते हैं.’’

छवि शायद मेरी बात का सही मतलब समझ गई थी. इसलिए आगे कुछ नहीं पूछा.

मैं ने छवि से कहीं बैठने के लिए कहा तो उस ने मना कर दिया. फिर हम टहलते हुए तारापुर एक्वेरियम तक गए. मैं ने उसे एक्वेरियम देखने के लिए कहा तो उस ने बताया कि वह देख चुकी थी. मुंबई देखने का उस का कोई इरादा भी नहीं था. उस ने बताया कि वह केवल मेरे साथ घूमना चाहती थी.

दोपहर तक हम लोग मैरीन ड्राइव में ही घूमते रहे… निरुद्देश्य. हम दोनों ने बहुत बातें की, परंतु मैं अपने मन की गांठ न खोल सका. उस की बातों से भी ऐसा कुछ नहीं लगा कि उस के मन में मेरे प्रति कोई ऐसावैसा भाव है. मैं शादीशुदा था, इसलिए अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करना चाहता था.

लगभग 2 बजे मैं ने उस से लंच करने के लिए कहा तो भी उस ने मना कर दिया. मुझे अजीब सा लगा, कैसी लड़की है, सुबह से मेरे साथ घूम रही है और खानेपीने का नाम तक न लिया. कब तक भूखी रहेगी. मैं उसे जबरदस्ती पास के एक रेस्तरां में ले गया और जबरदस्ती डोसा खिलाया. आधा डोसा मुझे ही खाना पड़ा.

रेस्तरां में बैठेबैठे मैं ने पहली बार महसूस किया कि वह कुछ उदास थी. क्यों थी, मैं ने नहीं पूछा. मैं चाहता था कि वह स्वयं बताए कि उस के मन में क्या घुमड़ रहा था.

रेस्तरां के बाहर आ कर मैं ने उस की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘अब?’’

‘‘कहीं चल कर बैठते हैं?’’ उस ने लापरवाही के भाव से कहा. आसपास कोई पार्क नहीं था. बस, समुद्र का किनारा था. मैं ने कहा, ‘‘जुहू चलें?’’

‘‘हां.’’

मैं ने टैक्सी की और जुहू पहुंच गए. बीच पर भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी, परंतु उस ने कहीं एकांत में चलने के लिए कहा. मुख्य बीच से दूर कुछ नारियल वाले अपना स्टौल लगाते हैं, जहां केवल प्रेमी जोड़े जा कर बैठते हैं. मैं ने एक ऐसा ही स्टौल चुना और एकएक नारियल ले कर आमनेसामने बैठ गए. यह इस बात का संकेत था कि हम दोनों के बीच प्रेम जैसा कोई भाव नहीं था. वरना हम अगलबगल बैठते और एक ही नारियल में एक ही स्ट्रौ से नारियल पानी सुड़कते.

‘‘आप कुछ उदास लग रही हैं?’’ नारियल पानी पीते हुए मैं ने पूछ ही लिया. मैं उस की मूक उदासी से खिन्न सा होने लगा था. उसी ने घूमने का प्रोग्राम बनाया था और वही इस से खुश नहीं थी. मेरा मकसद अलग था. उस के साथ घूमना मेरे लिए खुशी की बात थी, परंतु उस की नाखुशी में, मेरी खुशी कहां?

उस ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘क्या मेरा आप के साथ घूमना सही है?’’

 

मैं अचकचा गया. यह कैसा प्रश्न था? मैं उसे जबरदस्ती अपने साथ नहीं लाया था. फिर उस ने ऐसा क्यों कहा? शायद वह मेरी परेशानी भांप गई. तुरंत बोली, ‘‘मेरा मतलब है, अगर आप की पत्नी को पता चल गया कि मैं ने आप के साथ पूरा दिन बिताया है, तो उन्हें कैसा लगेगा? क्या वे इसे गलत नहीं समझेंगी?’’

मैं ने एक लंबी सांस ली. क्या सुबह से वह इसी बात को ले कर परेशान हो रही थी? मैं ने उस की तरफ झुकते हुए कहा, ‘‘पहले तो अपने मन से यह बात निकाल दो कि हम कुछ गलत कर रहे हैं. दूसरी बात, अगर हमारे बीच ऐसावैसा कुछ होता है, तो भी गलत नहीं है, क्योंकि जिस प्रेम को लोग गलत कहते हैं, वह केवल एक सामाजिक मान्यता के अनुरूप गलत होता है, परंतु प्राकृतिक रूप से नहीं. यह तो कभी भी , कहीं भी और किसी से भी हो सकता है.’’

‘‘क्या एकसाथ 2 या अधिक व्यक्तियों से प्रेम किया जा सकता है?’’ उस ने असमंजस से पूछा.

‘‘हां, क्यों नहीं? बिलकुल कर सकते हैं, परंतु उन की डिगरी में फर्क हो सकता है,’’ मैं ने बिना किसी संदर्भ के कहा. मुझे पता भी नहीं था कि छवि के पूछने का क्या तात्पर्य था, किस से संबंधित था, स्वयं से या किसी और से.

‘‘क्या शादीशुदा व्यक्ति भी?’’

मेरा दिल धड़का. मैं ने उस की आंखों में झांका. वहां कुतूहल और जिज्ञासा थी. वह उत्सुकता से मेरी तरफ देख रही थी. मैं ने जवाब दिया, ‘‘बिलकुल.’’ मैं ने चाहा कि कह दूं, ‘मैं भी तो तुम्हें प्यार करता हूं, जबकि मैं शादीशुदा हूं,’ परंतु कह न पाया. उस की आंखें झुक गईं. क्या उसे पता था कि मैं उसे प्यार करने लगा था. लड़कियां लड़कों के मनोभावों को शीघ्र समझ जाती हैं, जबकि वे बहुत जल्दी अपने हृदय को दूसरे के समक्ष नहीं खोलतीं.

 

 

फिर एक लंबी चुप्पी…और फिर निरुद्देश्य टहलना, अर्थहीन बातें करना, लहरों के शोर में अपने मन की बात एकदूसरे को कहने का प्रयास करना, कुछ खुल कर न कहना…यह हमारे पहले दिन का प्राप्य था. इस में सुख केवल इतना था कि वह मेरे साथ थी, परंतु दुख इतना लंबा कि रात सैकड़ों मील लंबी लगती. कटती ही न थी. पत्नी की बांहों में भी मुझे कोई सुख नहीं मिलता, क्योंकि मस्तिष्क और हृदय में छवि दौड़ रही थी, जहां उस के कदमों की धमधम थी. उस के सौंदर्य की आभा से चकाचौंध हो कर मैं पत्नी के प्रेमसुख का लाभ उठाने में असमर्थ था. जब मन कहीं और होता है तो तन उपेक्षित हो जाता है.

मेरे हृदय में घनीभूत पीड़ा थी. छवि बिलकुल मेरे पास थी. फिर भी कितनी दूर. मैं अपने मन की बात भी उस से नहीं कह पा रहा था. उस ने भी तो नहीं कहा था कुछ? मेरे साथ वह केवल घूमने के लिए नहीं गई थी, कुछ तो उस के मन में था, जिसे वह कहना चाह कर भी नहीं कह पा रही थी. मैं उसे समझ नहीं पा रहा था.

अगले दिन न तो वह मेरे घर आई, न मेरे मोबाइल पर संपर्क किया. मैं बेचैन हो गया. क्या बात है, सोचसोच कर मैं परेशान हो रहा था, परंतु मैं ने भी उसे फोन करने का प्रयत्न नहीं किया.

मैं नेहा से दुखी नहीं था. वह एक सुंदर स्त्री ही नहीं, अच्छी पत्नी भी थी. सारे काम कुशलता से करती थी. कभी मुझे शिकायत का मौका नहीं देती थी. थोड़ी नोकझोंक तो हर घर में होती थी. मनमुटाव हमारे बीच भी होता था, परंतु इस हद तक नहीं कि हम एकदूसरे को तलाक देने की बात सोचते.

छवि मेरे मन में ही नहीं, हृदय में भी बस चुकी थी, परंतु क्या उस के लिए मैं नेहा को छोड़ दूंगा? संभवतया ऐसा न हो. छवि के साथ मेरा प्यार अभी तक लगभग एकतरफा था. प्यार परवान नहीं चढ़ा था. परवान चढ़ता तो भी क्या मैं छवि के लिए नेहा को छोड़ देता? यह सोच कर मुझे तकलीफ होती है. अपने प्यार की सजा क्या मैं नेहा को दे सकता था. उस का जीवन बरबाद कर सकता था. इतनी हिम्मत नहीं थी.

फिर भी मैं छवि को अपने दिलोदिमाग से बाहर नहीं करना चाहता था.

औरतें पुरुषों की मनोस्थिति बहुत जल्दी भांप लेती हैं. जब से छवि मेरे हृदय में आ कर विराजमान हुई थी, मेरा व्यवहार असामान्य सा हो गया था. पढ़ने में मन न लगता, लिखने का तो सवाल ही नहीं उठता था. घर में ज्यादातर समय  मैं लेट कर गुजारता. ऐसी स्थिति में नेहा का मेरे ऊपर संदेह करना स्वाभाविक था.

उस ने पूछ लिया, ‘‘आजकल आप कुछ खिन्न से रहते हैं? क्या बात है, क्या औफिस में कोई परेशानी है?’’

मैं उसे अपने मन की स्थिति से कैसे अवगत कराता. बेजान सी मुसकराहट के साथ कहा, ‘‘हां, आजकल औफिस में काम कुछ ज्यादा है, थक जाता हूं.’’

‘‘तो कुछ दिनों की छुट्टी ले लीजिए. कहीं बाहर घूम कर आते हैं.’’

‘‘यह तो और मुश्किल है. काम की अधिकता के कारण छुट्टी भी नहीं मिलेगी.’’

 

‘‘तो फिर छुट्टी के दिन बाहर चलेंगे, खंडाला या लोनावाला.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा,’’ मैं ने उस वक्त यह कह कर नेहा को संतुष्ट कर दिया.

तीसरे दिन छवि आई. उदास और थकीथकी सी लग रही थी. मेरे औफिस से आने के तुरंत बाद आ गई थी वह, जैसे वह मेरे आने का इंतजार ही कर रही थी. मैं उस का उदास चेहरा देख कर हैरान रह गया. मुझ से पहले नेहा ने पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ छवि, तुम बीमार थी क्या?’’

वह सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘हां दीदी.’’

‘‘हमें पता ही नहीं चला,’’ नेहा ने कहा, ‘‘बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’ वह चली गई तो मैं ने शिकायती लहजे में कहा, ‘‘आप ने बताया भी नहीं.’’

उस ने कुछ इस तरह मुझे देखा, जैसे कह रही हो, ‘मैं तो तुम्हारे सामने ही बीमार पड़ी थी, फिर देखा क्यों नहीं?’ फिर कहा, ‘‘क्या बताती, आप को स्वयं पता करना चाहिए था. मैं कोई दूर रहती हूं.’’ उस की शिकायत वाजिब थी. मैं शर्मिंदा था.

वह क्यों बताती कि वह बीमार थी. अगर मेरा उस से कोई वास्ता था, तो मुझे स्वयं उस का खयाल रखना चाहिए था.

‘‘क्या हुआ था?’’ मैं ने सरगोशी में पूछा, जैसे मैं कोई गुप्त बात पूछ रहा था. और मुझे डर था कि कोई हमारी बातचीत सुन लेगा.

‘‘मुझे खुद नहीं पता,’’ उस ने दीवार की तरफ देखते हुए कहा. उस की आवाज से लग रहा था, वह अपने बारे में बताना नहीं चाहती थी. मैं ने भी जोर नहीं दिया. उस की उदासी से मैं स्वयं दुखी हो गया, परंतु उस की उदासी दूर करने का मेरे पास कोई इलाज नहीं था.

‘‘डाक्टर को दिखाया था?’’ मैं और क्या पूछता.

‘‘नहीं,’’ उस ने ऐसे कहा, जैसे उस की बीमारी का इलाज किसी डाक्टर के पास नहीं था. कैसी अजीब लड़की है. बीमार थी, फिर भी डाक्टर को नहीं दिखाया था. यह भी उसे नहीं पता कि उसे हुआ क्या था? क्या वह बीमार नहीं थी. उस को कोई ऐसा दुख था, जिसे वह जानबूझ कर दूसरों से छिपाना चाहती थी. वह अंदर ही अंदर घुट रही थी, परंतु अपने हृदय की बात किसी को बता नहीं रही थी.

फिर एक लंबी चुप्पी…तब तक नेहा चाय ले कर आ गई. बातों की दिशा अचानक मुड़ गई. नेहा ने पूछा, ‘‘हां, अब बताओ क्या हुआ था?’’

छवि पहली बार मुसकराई, ‘‘कुछ खास नहीं, बस सर्दीजुकाम था. इसलिए 2 दिन आराम किया.’’ नेहा से वह बड़े सामान्य ढंग से बातें कर रही थी, परंतु मैं जानता था, उस के अंदर बहुतकुछ छिपा हुआ था. वह हम सब को ही नहीं, स्वयं को धोखा दे रही थी.

छवि के व्यवहार में विरोधाभास था. नेहा के साथ वह सामान्य व्यवहार करती थी, जबकि मेरे साथ बात करते समय वह चिड़चिड़ा जाती थी. इस का क्या कारण था, यह तो वही बता सकती थी. परंतु कोई न कोई बात उसे परेशान अवश्य कर रही थी.

इतवार का दिन था. नेहा ने अपनी सहेलियों के साथ वाशी में जा कर शौपिंग का प्रोग्राम बनाया था. वहां अभीअभी 2-3 मौल खुले थे. मैं ने सोचा था कि नेहा के जाने के बाद मैं कुछ लेखनकार्य करूंगा.

नेहा के जाने के बाद मेरा मन लेखनकार्य की तरफ प्रवृत्त तो नहीं हुआ, परंतु छवि की ओर दौड़ कर चला गया. मन हो रहा था, वह आए तो खुल कर उस से बातें कर सकूं. मेरे ऐसा सोचते ही दरवाजे की घंटी बजी. घंटी की तरह मेरा दिल धड़का और दिल के कोने से एक आवाज आई, वही होगी. सचमुच वही थी. मेरे दरवाजा खोलते ही तेजी से अंदर घुस आई और बिना दुआसलाम के पूछा, ‘‘दीदी कहीं गई हैं?’’

उस ने एक पल घूरती नजरों से देखा फिर मुसकरा कर बोली, ‘‘नहीं, मैं आप से नाराज नहीं हूं.’’

‘‘फिर क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

‘‘हूं. सोचती हूं बता ही दूं. आखिर घुटते रहने से क्या फायदा. शायद आप मेरी कुछ मदद कर सकें.’’ मुझे लगा वह मेरे प्रति अपने प्यारका इजहार करेगी. मैं धड़कते दिल से उसे देख रहा था. उस ने आगे कहा, ‘‘यह सही है कि मैं दुखी हूं, परंतु इतनी भी दुखी नहीं हूं कि रातभर रो कर तकिया गीला करूं. मन कभीकभी ऐसी चीज पर अटक जाता है जो उस की नहीं होती. तभी हम दुखी होते हैं.’’

मुझे लगा कि वह मेरे बारे में बात कर रही थी. मैं मन ही मन खुश हो रहा था. तभी उस ने अचानक पूछा, ‘‘क्या आप ने किसी को प्यार किया है?’’

मैं भौचक्का रह गया. उस का सवाल बहुत सीधा था, लेकिन मैं उस के प्रश्न का सीधा जवाब नहीं दे सका. लेकिन उस ने मेरे किस प्यार के बारे में पूछा था, शादी के पहले का, बाद का या अभी का. क्या उस ने भांप लिया था कि मैं उस से प्यार करने लगा था. अगर हां, तब भी मैं उस के सामने स्वीकार करने का साहस नहीं कर सकता था. मैं ने हैरानगी प्रकट करते हुए कहा, ‘‘कौन सा प्यार?’’

उस ने उपहासभरी दृष्टि से कहा, ‘‘आप सब समझते हैं कि मैं कौन से प्यार के बारे में पूछ रही हूं. चलिए, आप बताना नहीं चाहते, मत बताइए, प्यार के बारे में झूठ बोलना आम बात है. आप कुछ का कुछ बताएंगे और समझेंगे कि मैं ने मान लिया. इसलिए रहने दीजिए. ’’

‘‘तो आप ही बता दीजिए आप के मन में क्या है, यहां से दुखी हो कर जाएंगी तो मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा,’’ मैं ने तुरंत कहा.

 

‘‘मेरे दुखी होने से आप को क्या फर्क पड़ेगा,’’ उस ने उपेक्षा के भाव से कहा. उस की बात सुन कर मुझे दुख हुआ. क्या यह जानबूझ कर मेरे मन को दुख पहुंचा रही थी, ताकि उसे पता चल सके कि मैं उस के बारे में कितना चिंतित रहता हूं. किसी के बारे में सोचना, उस का खयाल रखना और उस को ले कर चिंतित होना प्यार के लक्षण हैं. वह शायद इन्हें ही जानना चाहती थी. उस के व्यवहार से मैं इतना तो समझ ही गया था कि वह मेरे बारे में सोचती है, परंतु किसी मजबूरी या कारणवश अपने हृदय को मेरे सामने खोलना नहीं चाहती थी. क्या इस का कारण मेरा शादीशुदा होना था?

‘‘मेरे दुख का तुम अंदाजा नहीं लगा सकती,’’ मैं ने बेचारगी के भाव से कहा.

‘‘15 दिनों के बाद जब मैं चली जाऊंगी, तब देखूंगी कि आप मुझ को ले कर कितना दुखी और चिंतित होते हैं,’’ उस ने लापरवाही से कहा.

‘‘तब तुम मेरा दुख किस प्रकार महसूस करोगी.’’

‘‘कर लूंगी, अपने हृदय से. कहते हैं न कि दिल से दिल की राह होती है. जब आप दुखी होंगे तब मेरे दिल को पता चल जाएगा.’’

कहतेकहते उस की आवाज नम सी हो गई थी. मैं ने देखा उस की आंखों में गीला सा कुछ चमक रहा था, वह अपने आंसुओं को रोकने का असफल प्रयास कर रही थी. अब मेरे मन में कोई शक नहीं था कि वह सचमुच मुझे प्यार करती थी, परंतु खुल कर हम दोनों ही इसे न तो कहना चाहते थे, न स्वीकार करना. मजबूरियां दोनों तरफ थीं और इन को तोड़ पाना लगभग असंभव था.

शाम तक हम दोनों इसी तरह एकदूसरे को बहलातेफुसलाते रहे, परंतु सीधी तरह से अपने मन की बात न कह सके.

15 दिन बहुत जल्दी बीत गए. इस बीच छवि से मेरी मुलाकात नहीं हुई. इस के लिए हम दोनों में से किसी ने प्रयास भी नहीं किया. पता नहीं हम दोनों क्यों एकदूसरे से डरने लगे थे. मैं अपने भय को समझ नहीं पा रहा था और छवि का भय मैं समझ सकता था.

जाने से एक दिन पहले की शाम…वह हंसती हुई हमारे यहां आई और नेहा के गले लगते हुए बोली, ‘‘दीदी, कल मैं जा रही हूं, आप को बहुत मिस करूंगी.’’ नेहा के कंधे पर सिर रखे हुए उस ने तिरछी नजर से मेरी तरफ देखा और हलके से बायीं आंख दबा दी. मैं उस का इशारा नहीं समझ सका.

गले मिलने के बाद दोनों आमनेसामने बैठ गए. नेहा ने पूछा, ‘‘बड़ी जल्दी तुम्हारी छुट्टियां बीत गईं, पता ही नहीं चला. फिर आना जल्दी.’’

मैं चुपचाप दोनों की बातें सुन रहा था. नेहा जैसे मेरे मन की बात कह रही थी. मुझे अपनी तरफ से कुछ कहने की जरूरत नहीं थी.

 

‘‘हां, जल्दी आऊंगी. अब तो आप लोगों के बिना मेरा मन भी नहीं लगेगा,’’ कहतेकहते एक बार फिर छवि ने मेरी तरफ देखा. जैसे उस के कहने का तात्पर्य मुझ से था. अर्थात मेरे बिना उस का मन नहीं लगेगा. क्या यह सच था? अगर हां, तो क्या वह मुझ से जुदा हो सकती थी.

अगले दिन वह चली गई. दिनभर मैं उदास रहा, लेकिन उस को याद कर के रोने का कोई फायदा नहीं था.

शाम को हर दिन की तरह मैं अपने लैटरबौक्स से चिट्ठियां निकाल रहा था. लिफाफों के बीच में एक विश्ेष तरह का लिफाफा देख कर मैं चौंका. यह किसी डाक से नहीं आया था, क्योंकि उस पर न तो कोई टिकट लगा था और न ही उस पर भेजने वाले का नामपता ही था. बस, पाने वाले की जगह पर मेरा नाम लिखा था. लिफाफे में एक खुशबू बसी हुई थी जो मुझे उसे तुरंत खोलने पर मजबूर कर रही थी. मैं ने धड़कते दिल से उसे खोला और बिजली की गति से मेरी आंखें लिफाफे के अंदर रखे कागज पर दौड़ने लगीं.

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं आप को क्या कह कर संबोधित करूं. मेरा आप का क्या संबंध है? मैं समझती हूं संबोधनहीन रहना ही हम दोनों के लिए श्रेष्ठ है. मेरा मानना है कि मेरे हृदय में आप का जो स्थान है उस के सामने सारे संबोधन बेमानी हो जाते हैं.

‘‘मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मुंबई जा कर मैं इस चक्कर में पड़ जाऊंगी. परंतु मन क्या किसी के वश में होता है. आप में पता नहीं मुझे क्या अच्छा लगा, कि बस आप की हो कर रह गई. उस दिन जब मैं ने आप को लैटरबौक्स से चिट्ठियां निकालते देखा था तो अनायास मेरा दिल धड़क उठा. किसी अनजान आदमी को देख कर ऐसा क्यों होता है, यह तत्काल न समझ पाई, परंतु अब समझ गई हूं कि इस एहसास का क्या नाम होता है. मेरे हृदय के एहसास को नाम तो मिल गया, परंतु उस का अंजाम क्या होगा, यह अभी तक अनिश्चित है. इसलिए मैं खुल कर आप से कुछ न कह पाई और अपने एहसास के साथ मन ही मन घुटती रही.

‘‘मैं जानती हूं कि आप के हृदय में भी वही एहसास हैं, परंतु आप भी मुझ से खुल कर कुछ नहीं कह पाए. हम दोनों एकदूसरे से चोरी करते रहे. अच्छा होता हम दोनों में से कोई खुल कर अपनी बात कहता तो हो सकता है दोनों इतने कष्ट में इस तरह घुटते हुए अपने दिन न बिताते. हमारे मन के संकोच हमें आगे बढ़ने से रोकते रहे. मैं डरती थी कि आप का वैवाहिक जीवन न बिखर जाए और आप के मन में संभवतया यह डर बैठा हुआ था कि शादीशुदा हो कर कुंआरी लड़की से प्रेमनिवेदन कैसे करें और क्या वह आप को स्वीकार करेगी.

‘‘परंतु मैं समझ गई हूं कि प्रेम की न तो कोई सीमा होती है न कोई बंधन. प्रेम स्वच्छंद होता है. इसे न तो कोई मूल्य बांध सकता है, न नैतिकता इसे रोक सकती है क्योंकि यह नैसर्गिक होता है. मैं आज भले ही आप से दूर हूं और शारीरिक रूप से भले ही हम नहीं मिल पाएं हैं परंतु मैं जानती हूं कि हम दोनों कभी एकदूसरे से दूर नहीं हो सकते हैं. मैं फिर लौट कर आऊंगी और अगली बार जब मैं आप से मिलूंगी तब मेरे मन में कोई संकोच, कोई झिझक नहीं होगी. तब आप भी अपने बंधनों को तोड़ कर मेरे साथ प्यार की नैसर्गिक दुनिया में खो जाएंगे.

‘‘अब और ज्यादा नहीं, मैं अपने दिल को खोल कर आप के सामने रख रही हूं. आप इसे स्वीकार करेंगे या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा, परंतु मैं आप की हूं, इतना अवश्य जानती हूं.’’

पत्र को पढ़ कर मैं पूरी तरह से रोमांचित हो उठा था. मेरा रोमरोम सिहर उठा. काश, थोड़ी सी और हिम्मत की होती तो हम दोनों इस तरह विरह के आंसू बहाते हुए न जुदा होते.

मैं ने पत्र को कई बार पढ़ा और बारबार उसे सूंघ कर देखता रहा. उस में छवि के हाथों की खुशबू थी. मैं ने उसे अंदर तक महसूस किया.

पत्र को हाथों में थामें हुए मुझे कई पल बीत गए. अचानक एक धमाके की तरह नेहा ने मेरे मन में प्रवेश किया. उस की मुसकान मेरे दिल को बरछी की तरह घायल कर गई. नेहा मेरी पत्नी थी. मुझे उस से कोई शिकायत नहीं थी. वह सुंदर थी, गृहकार्यों में कुशल थी. मुझे जीजान से प्यार करती थी, फिर मैं कौन सा प्यार पाने के लिए उस से दूर भाग रहा था? क्या मैं मृगतृष्णा का शिकार नहीं हो गया था? मानसिक और शारीरिक, दोनों ही प्यार मेरे पास उपलब्ध थे, फिर छवि में मैं कौन सा प्यार ढूंढ़ रहा था?

मेरे मन में चिनगारियां सी जलने लगीं. हृदय में जैसे विस्फोट से हो रहे थे. ऐसे विस्फोट जो मेरे जीवन को जला कर तहसनहस करने के लिए आमादा थे. मैं ने तुरंत मन में एक अडिग फैसला लिया. मैं जानता था, मुझे क्या करना था? मैं अब और अधिक भटकना नहीं चाहता था.

मैं ने छवि के पत्र को फाड़ कर वहीं पर फेंक दिया. उसे सहेज कर रखने का साहस मेरे पास नहीं था. मैं छवि की खूबसूरती और यौवन में खो कर कुछ दिनों के लिए भटक गया था. अच्छा हुआ, हम दोनों ने अपने हृदय को एकदूसरे के सामने नहीं खोला. खोल देते, तो पता नहीं हम वासना की किन अंधेरी गलियों में खो जाते.

छवि सुंदर और नौजवान है, कुंआरी है, उसे बहुत से लड़के मिल जाएंगे प्यार और शादी करने के लिए. मैं उस के घर का चिराग नहीं था. मैं एक भटकता हुआ तारा था. जो पलभर के लिए उस की राह में आ गया था और वह मेरी चमक से चकाचौंध हो गई थी.

मैं एक पारिवारिक व्यक्ति था, एक लेखक था. अपनी पत्नी के साथ मैं खुश था. हमारे संतान नहीं थी, तो क्या हुआ? आज नहीं तो कल, संतान भी होगी. नहीं भी होगी, तो क्या बिगड़ जाएगा? दुनिया में बहुत सारे संतानहीन दंपती हैं, और बहुत सारे संतान वाले दंपती अपनी संतानों के हाथों दुख उठाते हैं.

नेहा के अतिरिक्त मुझे किसी और के प्यार की दरकार नहीं.

मुझे आशा है, अगली बार जब छवि मेरे यहां आएगी, मैं उसे नेहा की छोटी बहन के रूप में ही स्वीकार करूंगा. मैं उस का प्रेमी नहीं हो सकता.

Maharashtra Election : महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव परिणाम किस ने की धर्म की अफीम चटाने वालों की जीतने में मदद

Maharashtra Election : महाराष्ट्र राज्य विधान सभा चुनाव परिणामों ने हर किसी को चौंका दिया है. महाविकास अघाड़ी की बुरी तरह से हुई पराजय और महायुति की प्रचंड जीत ने कई सवाल उठा दिए हैं. ऐसा पहली बार हुआ है, जब इन चुनाव परिणामों को देख कर महाराष्ट्र की जनता भी गुस्से में है. तो वहीं विपक्ष यानी कि ‘महाविकास अघाड़ी’ की तरफ से हार को स्वीकार करने की बजाय चुनाव आयोग व सरकारी मशीनरी पर ही सारा दोश मढ़ा जा रहा है. उधर उद्धव ठाकरे और संजय राउत ने अपनी पार्टी की पार्टी की हार का ठीकरा चुनाव आयोग के साथ ही पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ पर फोड़ा है, मगर कोई भी अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखना चाहता. जबकि ‘महा विकास अघाड़ी की इस पराजय के पीछे सरकारी मशीनरी और चुनाव आयोग की करतूतों के साथ इन दलों के अंदर पल रहे ‘पैरासाइट्स / परजीवी तथा इन दलों की अपनी कार्यशैली कम जिम्मेदार नहीं है. तो वहीं इस बार पूरे महाराष्ट्र में ‘आरएसएस’ जमीनी सतह पर बहुत ही ज्यादा सक्रिय रहा.

भजपा और आरएसएस ने जम कर वोटरों को ढर्म की चाशनी चटाई. चुनाव के दौरान सक्रिय रहे पत्रकार भी विपक्षी दलों की हार से आश्चर्यचकित हैं, मगर किसी ने भी इन की कार्यशैली की कमियों की तरफ इशारा न चुनाव के दौरान किया था और परिणाम आने के बाद कर रहे हैं. किसी को भी दोश देने से पहले जरुरत होती है कि पहले आप अपना घर मजबूत करें, अफसोस विपक्षी दलों के घर के अंदर ही मतभेद और एकदूसरे को नीचा दिखाने की आग धधकती रही.

विपक्षी दल व कुछ राजनैतिक विश्लेशक दावा कर रहे हैं कि भाजपा समर्थित ‘महायुति’ को ‘लाड़ली बहना योजना’, जिस के तहत महिलाओं को हर माह 1500 दिए गए, ने जिताया. यह एक फैक्टर हो सकता है मगर बड़ा फैक्टर नहीं. महज इस योजना के चलते ‘महायुति’ के खाते में 288 में से 230 सीटें और महाविकस अघाड़ी केवल 49 पर सिमट जाए, यह नहीं हो सकता. बहरहाल, महाराष्ट्र राज्य के दल गत चुनाव परिणाम इस प्रकार रहे. भजपा 132, शिवसेना शिंदे गुट 57, एनसीपी अजीत पवार गुट 41 सीट, शिवसेना उद्धव गुट 20, कांग्रेस 16 और एनसीपी शरद पवार गुट 10 सीटें.

महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणामों के विश्लेशण करने से पहले विपक्षी दलों की हार की मूल वजह पर एक नजर डाना जरुरी है. ‘यथा राजा तथा प्रजा.’ यही सच है. 2014 से बौलीवुड और विपक्षी दलों की कार्यशैली एक जैसी हो गई है. इसी वजह से बौलीवुड की हर फिल्म व हर दिग्गज कलाकार बौक्स औफिस पर डूब रहा है, तो वहीं विपक्षी दल हर चुनाव हारते जा रहे हैं.

2014 के बाद बौलीवुड दो खेमों में बंट चुका है. एक खेमा वह है जो कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ या ‘द साबरमती रिपोर्ट’ जैसी सरकार परस्त व धर्म बेचने वाली प्रपोगंडा सिनेमा बना रहा है, जिसे सरकारी मशीनरी से भरपूर मदद मिल रही है तो दूसरी तरफ वह खेमा है जो कि पैरासइट्स / परजीवियों की सलाह पर काम करते हुए घटिया फिल्में बनाने के साथ ही फिल्म के प्रमोशन के लिए जनता व पत्रकारों से दूर हो कर कुछ शहरों के कालेज ग्राउंड या माल्स में जा कर भाड़े की भीड़ बुला कर अपनी फिल्म के सुपरडुपर हो जाने के दावे करते रहते हैं. पर फिल्म बौक्स औफिस पर धराशाही हो जाती है.

वास्तव में जब से बौलीवुड के दिग्गजों ने अपनी कार्यशैली बदली है तब से उन का आम दर्शकों से संबंध विच्छेद हो गया है और अब इन्हें जनता की नब्ज की पहचान नहीं रही कि जनता किस तरह का सिनेमा देखना चाहती है.

ठीक यही हालत राजनीतिक जगत में है. राजनीति में सत्तापक्षा के पास धन बल के साथ ही धर्म भीरू जनता है. सत्ता पक्ष हिंदू धर्म को बचाने व राष्ट्र को मजबूत बनाने के नाम पर आम जनता को मूर्ख बनाते हुए चुनाव दर चुनाव अपनी विजय पताका फहराता जा रहा है. दूसरी तरफ विपक्ष में बैठे पुराने नेता अपनेअपने दलों के मठाधीशों व पैरासाइट्स / परजीवियों की गलत राय पर चलते हुए चुनाव दर चुनाव पराजय का मुंह देखते जा रहे हैं.

अब जब हम इसी तर्ज पर इस बार के महाराष्ट्र चुनाव की जांच पड़ताल करते हैं तो यह बात साफ तौर पर उभर कर आती है कि आम जनता ने इन्हें नहीं हराया बल्कि इन्हें इन के परजीवियों और खुद को खुदा मानने वालों ने ही हराया है. अन्यथा महज ठाणे क्षेत्र की दो तीन सीटों पर प्रभुत्व रखने वाले एकनाथ शिंदे की पार्टी कैसे 57 सीटें जीत गई. अथवा शरद पवार के गढ़ को महज 5 माह पहले संपन्न लोकसभा चुनावों न भेद पाने वाले अजीत पवार ने इस बार कैसे नेस्तानाबूद कर 41 सीट जीत लीं.

इस बार महाराष्ट्र में अमित शाह से ले कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी सभाओं में खाली पड़ी कुर्सियों को देख कर विपक्षी दल और विपक्षी दलों का समर्थन करने वाले पत्रकार गदगद होते रहे और दावा करते रहे कि इस बार भाजपा समर्थित ‘महायुति’ का विस्तार गोल हो जाएगा. मगर विपक्षी दल के नेता और यह पत्रकार इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे थे कि इस बार भाजपा और आरएसएस असली खेल क्या कर रही है.

इस बार महायुति ने चुनावी सभाओं में भाड़े की भीड़ बुलाने पर पैसा खर्च नहीं किए, जबकि विपक्षी पार्टीयां चुनावी सभाओं में भीड़ बुलाने पर ही ध्यान केंद्रित रखा. आम जनता से सीधा संपर्क बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. वहीं भाजपा और आरएसएस हर दरवाजा खटखटाते रहे. सब से पहले आरएसएस व भाजपा के कार्यकर्ता घरघर जा कर दो पन्नों का हिंदी व मराठी भाषा में छपे पम्पलेट बांटे, जिस का शीर्षक है- मतादाताओं से विनम्र अपील’. इस में राष्ट्र निर्माण, देश की आंतरिक सुरक्षा, विकास वगैरह को ध्यान में रख कर वोट देने की बात लिखी है.

आरएसएस के कार्यकर्ता यह पम्पलेंट देने के साथ ही हर घर के सदस्य से कम से कम 5 मिनट तक बात कर उन्हें भाजपा व महायुति के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करने का काम किया. इस के बाद उम्मीदवार की तरफ से हर घर अपनी व अपने नेता की तस्वीर सहित पोस्टर भिजवाने गए. फिर सभी के पास वोटर पर्ची भिजवाई जिस में उम्मीदवार की तस्वीर के साथ ही मतदान केंद्र पर ले कर जाने वाली जानकारी अंकित थी. जबकि चुनाव आयोग की तरफ से हर वोट के पास जानकारी भेजी जा चुकी थी.

उम्मीदवार ने सड़क पर रैली निकालने के साथ ही हर इमारत / सोसायटी के गेट पर रूक कर लोगों से बात की, कुछ सोसायटी के सदस्यों ने गेट पर उस उम्मीदवार की आरती भी उतारी. मतदान से एक दिन पहले 19 नवंबर को आरएसएस के कार्यकर्ता घरघर जा कर सभी से वोट डालने का निवेदन किया. मतदान वाले दिन आरएसएस कार्यकर्ता सुबह 9 बजे और फिर दोपहर 2 बजे घरघर पहुंच कर पूछा कि वोट दिया या नहीं और जिस ने उस वक्त तक नहीं दिया था, उस से कहा कि आप हमारे साथ चले और अपने हक का उपयोग करें.

आरएसएस कार्यकर्ता सिर्फ भाजपा उम्मीदवार ही नहीं बल्कि एकनाथ शिंदे और अजीत पवार के दल के उम्मीदवार के क्षेत्र में भी इसी तरह सक्रिय रहे. इसी के साथ शहरी क्षेत्रों में कुछ भाजपा उम्मीदवारों ने मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई कर चुके लड़केलड़कियों को अपना पीआरओ बना कर घरघर भेजा. मजेदार बात यह है कि इन में से कई तो महज 228 या 500 वोट से जीत गए.

इस के विपरीत कांग्रेस, शिवसेना उद्धव गुट और एनसीपी शरद पवार गुट के उम्मीदवार तो सिर्फ अपने बडे़ नेताओं की रैली में जुट रही भीड़ के बल पर जीत जाने के भ्रम में बैठे रहे. यह सभी पैरासाइट्स / परजीवी ही कहे जाएंगे. इतना ही नहीं महाविकास अघाड़ी के नगर सेवक वगैरह भी अपनेअपने औफिसों को शोभायमान करते रहे. इन सभी में अहम ही नजर आता है.

बतौर उदाहरण हम ‘ओवला माजीवाड़ा’ विधान सभा क्षेत्र की बात कर लें. यहां से महयुति की तरफ से एकनाथ शिंदे के शिवसेना गुट के उम्मीदवार प्रताप बाबू राव सरनाइक थे. जिन की टक्कर उद्धव ठाकरे की शिवसेना के उम्मीदवार नरेश मणेरा से थी. मतदान से पहले तक इस क्षेत्र की जनता को पता ही नहीं था कि नरेश मणेरा उम्मीदवार हैं. नरेश मणेरा तो छोड़िए, उद्धव ठाकरे गुट की नगरसेवक तक ने कोई प्रचार नहीं किया. इसी चुनाव क्षेत्र में एक कालोनी है, जहां 40 इमारतें / सोसायटी हैं. इसी कालेनी के अंदर भाजपा और शिवसेना, उद्धव ठाकरे गुट की नगर सेविका का औफिस हैं. भाजपा कार्यालय दिनभर खुला रहता, चहल पहल बनी रहती थी. जबकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना का औफिस दोपहर 11 से एक बजे तक और शाम को 6 से 8 बजे तक खुलता, नगरसेविका आ कर बैठती थी. औफिस से बाहर वह खड़ी कभी नजर नहीं आई.

उन्होने इस कालोनी की 40 सोसायटी वालों से भी बात कर शिवसेना, उद्धव गुट के उम्मीदवार को जिताने की बात नहीं की. उम्मीदवार नरेश मणेरा खुद भी किसी से नहीं मिले और न ही तो घर घर वोटर पर्ची ही भिजवाई. ऐसे में आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आप चुनाव जीत जाएंगे और अब आप दूसरों पर दोष मढ़ रहे हैं. यदि आप वोटरों के बीच नहीं जाएंगे तो आप वोटर की नब्ज कैसे पहचान सकते हैं. अब वह वक्त गया जब बाला साहेब ठाकरे के नाम पर आप घर बैठे चुनाव जीत सकते थे.

इस चुनाव क्षेत्र में प्रताप सरनाइक को 184178 वोट मिले, जबकि नरेश को महज 76020 वोट मिले. यानी कि प्रताप सरनाइक ने 108158 वोटो से जीत हासिल की. यह महज एक उदाहरण है, मगर इस चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी, शरद पवार की पार्टी और उद्धव ठाकरे की पार्टी के कार्यकर्ता, नगर सेवक आदि इसी तरह से सिर्फ बड़ी रैलियों में नजर आने के अलावा कहीं नजर नहीं आए.

माना कि इन दलों के पास भाजपा की तरह धन बल की कमी है, पर इन के उम्मीदवार, इन के कार्यकर्ता अपने घर से निकल कर आम जनता तक शारीरिक रूप से तो पहुंच कर अपनी बात कह सकते थे. पर ऐसा करना इन लोगों ने अपनी शान के विपरीत समझा. यही वजह है कि अब तक शिवसेना, उद्धव गुट का गढ़ रहा मुंबई की सीटें भी उद्धव ठाकरे नहीं बचा पाए.

क्या रहा स्ट्राइक रेट

अब पहले चुनाव परिणामों के नतीजों का विश्लेषण कर लिया जाए. भाजपा ने 149 सीटों पर चुनाव लड़ा और 132 पर जीत हासिल की, यानी कि भाजपा का स्ट्राइक रेट 89 प्रतिशत रहा. जबकि शिंदे गुट की शिवसेना ने 81 सीटों पर चुनाव लड़ कर 57 पर जीत हासिल की तो इन का स्ट्राइक रेट 70 प्रतिशत रहा, एनसीपी अजीत पवार गुट ने 59 सीटों पर चुनाव लड़ कर 41 सीटें जीत लीं. इन का स्ट्राइक रेट 69 प्रतिशत रहा. कांग्रेस 100 सीटों पर लड़ कर महज 16 सीटें जीती, इन का स्ट्राइक रेट रहा 16 प्रतिशत, शिवसेना, उद्धव ठाकरे गुट 94 सीटों पर लड़ कर 20 सीटें जीती, स्ट्राइक रेट रहा 21.3 प्रतिशत, शरद पवार की एनसीपी 86 सीटों पर लड़ कर केवल 10 पर जीत हासिल की, स्ट्राइक रेट रहा 11.6 प्रतिशत.

शिवसेना, उद्धव गुट ने इसे बेइमानी की जीत व ईमानदारी की हार की संज्ञा दी है. संजय राउत ने ‘सामना’ में लिखा है, ‘‘ महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के परिणाम आ गए हैं. मगर यह जनमत यानी कि जनादेश नहीं है. महायुति को 230 सीटें मिल सकती हैं, इस पर कौन यकीन करेगा. यह नतीजा विचलित करने वाला है. सरकार के खिलाफ प्रचंड आक्रोश फिर भी इतनी सीटें. कैसे?

महाराष्ट्र की धरती पर बंटेंगे तो कटेंगे जैसे जहरीले प्रचार अभियान के तीर चलाए गए, पर चुनाव अयोग ने कोई आपत्ति नहीं उठाई. अब गर पैसे के बल पर चुनाव जीतना है तो फिर लोकतंत्र को ताला ही जड़ देना होगा और यहां पर केवल अडाणी की पार्टी ही चुनाव लड़ सकेगी.’..वगैरह..वगैरह’.

संजय राउत ने जो कुछ सामना में लिखा है, उस के पीछे उन की अपनी बौखलाहट है, क्योंकि अब उन्हें अहसास हो गया है कि अगली बार वह राज्य सभा नहीं पहुंच पाएंगे. अगर उद्धव ठाकरे अपने दल की हार पर गंभीरता से विचार करें, तो उन्हें पता चलेगा कि इस हार के लिए असली दोषी संजय राउत और उन का बड़बोलापन ही है.

चुनाव के वक्त टिकट बंटवारे को ले कर ‘महायुति’ में भी मतभेद रहे होंगे, मगर वह मतभेद बाहर नहीं आए. जबकि महाविकास अघाड़़ी के यहां टिकट बंटवारे के मतभेद बहुत बड़ा मुद्दा बन कर आम लोगों के सामने आता रहा और यह काम संजय राउत ही कर रहे थे हर मीटिंग के बाद संजय राउत बाहर आ कर बेवजह की बयान बाजी करने के साथ ही मुख्यमंत्री शिवसेना, उद्धव गुट का ही होना चाहिए कि रट लगाते रहे. इस तरह देखा जाए तो उद्धव ठाकरे के लिए संजय रउत ने दुष्मन का ही काम किया, पर उद्धव ठाकरे सच को कब समझ पाएंगे पता नहीं.

इस के अलावा चुनावों के दौरान उद्धव ठाकरे के कुछ बयानों का मतलब यह निकाला गया कि वह भाजपा के साथ जा सकते हैं. मगर उद्धव ठाकरे या संजय राउत की तरफ से इस को ले कर स्पष्टीकरण नहीं दिया गया. इस का खामियाजा भी उद्धव ठाकरे की पार्टी को झेलना पड़ा. इतना ही नहीं बाल ठाकरे की आवाज में एक जोश हुआ करता था, उन के भाषण सुन कर लोग उन की तरफ खिंचते थे. मगर उद्धव ठाकरे या आदित्य ठाकरे की आवाज में वह बात नहीं है. संजय राउत बयानबाजी करने में माहिर हैं, पर वह कुछ ज्यादा ही बड़बोले है, जिस का नुकसान पार्टी को हो रहा है. इस के अलावा जब तक बाल ठाकरे जिंदा रहे, तब तक उद्धव ठाकरे ने पार्टी की राजनीति में बहुत ज्यादा सक्रिय भूमिका नहीं निभाई.

150 चुनाव याचिकाएं होगी दाखिलः जीते हुए विधायक देंगें इस्तीफा ?

चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद कांग्रेस, शरद पवार और उद्धव ठाकरे गुट ने जम कर चुनाव आयोग पर वार किया है और इन का आरोप है कि ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की गई. इसी के चलते इन दलों ने योजना बनाई है कि इन के 150 उम्मीदवार प्रति बूथ 47 हजार रूपए भर कर चुनाव आयोग से वीवीपैट की मिलान कराने के लिए कहेंगे. तो वहीं इस पर विचार किया जा रहा है कि सभी विधायक इस्तीफा दें, इस पर कितना अमल होगा, यह कहना मुश्किल है पर यदि ऐसा हुआ तो चुनाव आयोग पर दबाव जरुर बनेगा.

वायनाड और झारखंड की बजाय महाराष्ट्र पर रहा भाजपा का सारा जोर

महाराष्ट्र में आम राय यही बन रही है कि केंद्र सरकार और भाजपा की सरकारी मशीनरी ने वायनाड और झारखंड की बजाय सारा खेल महाराष्ट्र में किया जिस के पीछे कई वजहें हैं. आरोप लगाए जा रहे हैं कि गुजरात से कंटेनर में भर कर 3400 करोड़़ रूपए महाराष्ट्र ला कर चुनाव में बांटे गए. भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े को मतदान से दो दिन पहले 5 करोड़ रूपए नगद के साथ पकड़ा गया. कहा जा रहा है कि भाजपा ने इस नीति पर काम किया कि ‘झारखंड ले लो और महाराष्ट्र दे दो’.

अब यह आरोप भी लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी के अंदर मौजूद कुछ जयचंद तो भाजपा के इशारे पर काम करते हुए कांग्रेस को हराने में अहम भूमिका निभाई. भाजपा के लिए महाराष्ट्र महत्वपूर्ण क्यों है. पहली बात तो इस वक्त 2 लाख करोड़ का धारावी प्रोजेक्ट अहम है. धारावी के रिडेवलपमेंट का कमा अडाणी को दिया गया है और चुनावी सभा में उद्धव ऐलान करते रहे हैं कि चनाव जीतने के बाद उन की सरकार अडाणी से धारावी का प्रोजेक्ट छीन लेगी. अब भला अडाणी दो लाख करोड़ के प्रोजेक्ट को जाने से देने के लिए धन बल सहित हर तरह की मदद भाजपा की की होगी, ऐसे आरोप लग रहे हैं.

इस के अलावा भी महाराष्ट्र में अडाणी के कई प्रोजेक्ट लंबित हैं. दूसरी बात यह है कि भाजपा कुछ समय से देश की आर्थिक राजधानी को मुंबई से अहमदाबाद, गुजरात ले जाने के लिए भी प्रयासरत है. 2014 के बाद कई बड़े प्रोजेक्ट व कई बड़े उद्योगपति महाराष्ट्र से गुजरात पहुंच चुके हैं.

लाड़ली बहना योजना

आज विपक्ष इस बात पर चिल्ला रहा है कि एकनाथ शिंदे की सरकार की 1500 रूपए देने की ‘लाड़की बहना योजना’ ने महायुति को जिता दिया. पहली बात तो हमें इस योजना के चलते दो तीन प्रतिशत से ज्यादा वोटों में फर्क पड़ना नजर नहीं आता. पर अहम सवाल यह है कि इस का फायदा विपक्ष को क्यों नहीं मिला? जबकि उद्धव ठाकरे, शरद पवार आदि ने अपनी चुनावी सभाओं में घोषणा की थी कि वह ‘लाड़ली बहना योजना’ के तहत चुनाव जीतने पर 1500 की बजाय 3 हजार रूपए देंगे, पर महिलाओं ने इन की बातों पर यकीन क्यों नहीं किया. इस की वजह जमीनी सतह पर काम न करना.

जब जुलाई माह में एकनाथ शिंदे की भाजपा समर्थित सरकार ने ‘लाड़ली बहना योजना’ के तहत हर महिला को 1500 रूपए देने की घोषणा की थी और कहा था कि पहली किश्त रक्षा बंधन के अवसर पर दी जाएगी, तो भाजपा, अजीत पवार व शिंदे की पार्टी के कार्यकर्ता औनलाइन फार्म भरने में औरतों की मदद कर रहे थे. पर उद्धव गुट, शरद पवार गुट और कांग्रेस के लोगों ने इस से दूरी बना कर रखी हुई थी. जबकि उस वक्त इन्हें पता था कि यह तो चुनावी छुनछुना है.

ऐसे में इन्हे भी आगे बढ़ कर महिलाओ के फार्म भरने में मदद करनी चाहिए थी. हमें पता है कि उद्धव ठाकरे व कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व नगर सेवकों के पास जब महिलाएं गई कि उन का फार्म भरवा दें, तो इन लोगों ने मदद नहीं की, बल्कि यह कह कर चलता कर दिया कि भाजपा के कार्यायल में जाएं. जबकि फार्म तो इंटरनेट पर भरने थे. अगर शिवसेना, कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भी अपने क्षेत्र के मतदाता महिलाओं के फार्म भरवाए होते तो उन्हें भी रकम मिलती और अब यकीन करते कि कांग्रेस व उद्धव की सरकार आने पर उन्हें 1500 से बढ़ा कर 3 हजार मिलेंगें पर ऐसा नहीं हुआ.

‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का सही जवाब देने में विपक्ष रहा असफल

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने नारा दिया था कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जिस से वह समाज में हिंदू मतों का धुरीकरण कर सके, जिस में वह सफल रहे. इस के जवाब में कांग्रेस ने कहा, ‘एक हैं तो सेफ हैं.’’ पर योगी आदित्यनाथ के नारे के जवाब में विपक्ष मतदाताओं को समझाने में असफल रहा कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ की बात करने वाले ही किस तरह समाज को बांटने का काम कर रहे हैं.

प्रचार में आक्रामता का अभाव

इस के अलावा विपक्षी पार्टियां आम मतदाता, किसानों की समस्याओ को सही ढंग से उठाने में विफल रहीं. यह लोग महंगाई के मुद्दे पर खामोश ही रहे. कांग्रेस चुनाव प्रचार के दौरान आक्रामक नहीं रही. आखिर संविधान की दुहाई देने और खुद को ‘राष्ट्र प्रहरी’ बताने वाली कांग्रेंस ने कैसे धर्म की अफीम चटाने वालों का सच जनता तक नहीं पहुंचा पाई, इस पर गहन विचार करने की जरुरत है.

वास्तव में कांग्रेस के अंदर ही बैठे नाना पटोले व वेणुगोपाल जैसे ही जय चंद हैं. यह तो सिर्फ मुख्यमंत्री बनने के लिए ताल ठोकते रहे, पर वोटरों को कांग्रेस के पक्ष में लाने की दिशा में कोई काम नहीं किया. सब कुछ राहुल गांधी के भरोसे रहे. उद्धव ठाकरे की सब से बड़ी गलती यह रही कि इस चुनाव के दैारान वह खुद चेहरा नहीं बने. उन की पार्टी के तमाम उम्मीदवारों के पोस्टरों में उद्धव व बाल ठाकरे का चेहरा प्रमुख नहीं रहा. इन्हें एकनाथ शिंदे से कुछ तो सीखना चाहिए. रिजल्ट आने के बाद दूसरे दिन विजयी बनाने के लिए मतदाताओं को धन्यवाद देने के विज्ञापन में एकनाथ शिंदे ने खुद को केंद्र में रखा. अपने अगलबगल में अजीत पवार व देवेंद्र फड़नवीस की छोटी तस्वीर रखी और बाला साहेब ठाकरे तथा मोदी की तस्वीर को उपर बड़े आकार में दिया. इस तरह उन्होने मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी दावेदारी भी ठोक दी.

ज्योतिषी की भविष्यवाणी भी कांग्रेस को रही डुबा

कांग्रेस को डुबाने में एक मशहूर ज्येातिषी की भी अहम भूमिका की तरफ कुछ लोग इशारा कर रहे हैं. इन दिनों एक यूट्यूब चैनल पर हर रविवार कांग्रेस व राहुल गांधी के ग्रहों की बात कर उन्हें 2024 के हर चुनाव में प्रचंड जीत हासिल होने व मोदी के बुरे वक्त की भविष्यवाणी करते रहे हैं.

लोकसभा चुनाव से ले कर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा के चुनावों में भी उन्होंने कांग्रेस के ही विजय होने की बात कही थी. पर उन की भविष्यवाणियां गलत निकली, तो सफाई में कह दिया कि फलां ग्रह की वजह से ईवीएम का खेल हो गया. महाराष्ट्र व झारखंड चुनाव से पहले भी इस ज्येतिषी ने कांग्रेस गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिलाया था. अब फिर वह ईवीएम पर सारा दोष मढ़ेगें. कांग्रेस, शरद पवार व उद्धव ठाकरे को कम से कम ऐसे ज्योतिषियों के मायाजाल में फंसने से बचना चाहिए.

शरद पवार, प्रियंका चतुर्वेदी और संजय राउत के लिए राज्यसभा का रास्ता बंद

अब जो महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के परिणाम आए हैं, उन के चलते अब शरद पवार, प्रियंका चतुर्वेदी और संजय राउत के लिए राज्यसभा की राह पकड़ना मुश्किल हो गया. शरद पवार व प्रियंका चतुर्वेदी का राज्यसभा का कार्यकाल 3 अप्रैल 2026 के तथा संजय राउत का कार्यकाल 1 जलुाई 2028 को खत्म होगा. पर अब विधान सभा में ‘महायुति’ के पास इतनी ताकत नहीं रही कि वह इन्हें राज्यसभा में भेज सके.

 

बौक्स आयटम
कहीं 75 तो कहीं 377 वोटों से हुई जीत

बुलढाणा विधानसभा सीट पर एकनाथ शिंदे की शिवसेना के गायकवाड संजय रामभाऊ ने महज 841 वोटों से शिवसेना (यूबीटी) की महिला प्रत्याशी जयश्री सुनील शेलके को हराया.

मलेगांव सेंट्रल में ओवैसी की पार्टी औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रत्याशी मुफ्ती मोहम्मद इस्माइल अब्दुल खलीके ने इंडियन सेकुलर लार्जेस्ट असंबेली औफ महाराष्ट्र के प्रत्याशी आसिफ शेख रशीद को 75 वोटों से हराया.
औरंगाबाद पूर्व से भाजपा प्रत्याशी अतुल मोरेश्वर सेव ने सिर्फ 2161 वोटों से चुनाव जीता.
बेलापुर सीट पर भाजपा की मंदा विजय म्हात्रे ने शरद पवार की पार्टी के प्रत्याशी संदीप गणेश नाईक को 377 वोटों से हराया.
करवी विधानसभा सीट पर शिवसेना के चंद्रदीप शशिकांत सिर्फ 1976 वोटों से विधायक बने.
शाहपुर से एनसीपी के दौलत भीका दरोदा ने 1672 वोटों से जीते
अंबेगांव से दिलीप दत्तात्रेय पाटिल ने 1523 मतों से जीत हासिल की.
जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई से शिवसेना (यूबीटी) के अनंत ने 1541 वोटों से जीत हासिल की.
वर्सोवा से हारून खान ने 1600 से जीत पक्की की.
माहिम, मुंबई से महेश बलिराम सावंत 1316 मतों से सीट अपने कब्जे में की.
नवापुर से कांग्रेस प्रत्याशी शिरीश कुमार नाईक ने 1121 सीट हासिल की.
अकोला पूर्व, मुंबई से साजिद खान 1283 वोटों से जीते.
कर्जत जामखेड से एनसीपी (एसपी) के रोहित पवार 1243 मतों से जीते.

10 सीटों पर 5 हजार से कम अंतर से जीता महाविकास अघाड़ी.
भाजपा ने 9 सीटों पर 5 हजार मतों से कम के अंतर से चुनाव जीता
शिवसेना, शिंदे गुट की 6 और अजित पवार की एनसीपी ने 4 सीटों पर 5 हजार से कम मतों से जीत हासिल की.

एक लाख से अधिक मतों से जीतने वाले प्रत्याशी
शिरपुर से भाजपा के आशीराम वेचन पवारा ने 1,45,944 मतों से चुनाव जीता.
बागलान से भाजपा के दिलीप मंगलू बोरसे ने 1,29,297 मतों से चुनाव जीता.
चिंचवाड़ सीट से भाजपा के जगताप शंकर पांडुरंग 103865 मतों से जीते.
बोरीवली, मुंबई से भाजपा के संजय उपाध्याय 1,00,257 मतों से जीते.
कोथरुड से भाजपा के चंद्रकांत पाटिल ने 1,12,041 मतों से जीत दर्ज की.
सतारा से भाजपा के शिवेन्द्रराजे अभयसिंहराजे भोंसले ने 1,42,124 मतों से चुनाव जीता.
मालेगांव आउटर से शिवसेना प्रत्याशी दादाजी दगडू भूसे ने 1,06,606 मतों से जीत दर्ज की.
ओवाला माजीवाड़ा से शिवसेना के प्रताप बाबूराव सरनाईक 1,08,158 मतों से जीते.
कोपरी – पचपाखड़ी से सीएम एकनाथ शिंदे ने 1,20,717 मतों से चुनाव जीता.
बारामती से अजित पवार ने 1,00,899 मतों से जीत दर्ज की.
मावल से एनसीपी के सुनील शंकरराव शेलके ने 1,08,565 मतों से जीत दर्ज की.
कोपरगांव से एनसीपी के आशुतोष अशोकराव काले 124624 मतों से जीते.
पर्ली से एनसीपी के धनंजय मुंडे 140224 मतों से जीते.

ऐसे हुई पूजा

अंशु के अच्छे अंकों से पास होने की खुशी में मां ने घर में पूजा रखवाई थी. प्रसाद के रूप में तरहतरह के फल, दूध, दही, घी, मधु, गंगाजल वगैरा काफी सारा सामान एकत्रित किया गया था. सारी तैयारियां हो चुकी थीं लेकिन अभी तक पंडितजी नहीं आए थे. मां ने अंशु को बुला कर कहा, ‘‘अंशु, एक बार फिर लखन पंडितजी के घर चले जाओ. शायद वे लौट आए हों… उन्हें जल्दी से बुला लाओ.’’

‘‘लेकिन मां, अब और कितनी बार जाऊं? 3 बार तो उन के घर के चक्कर काट आया हूं. हर बार यही जवाब मिलता है कि पंडितजी अभी तक घर नहीं आए हैं?’’

अंशु ने टका जा जवाब दिया, तो मां सहजता से बोलीं, ‘‘तो क्या हुआ… एक बार और सही. जाओ, उन्हें बुला लाओ.’’

‘‘उन्हें ही बुलाना जरूरी है क्या? किसी दूसरे पंडित को नहीं बुला सकते क्या?’’ अंशु ने खीजते हुए कहा.

‘‘ये कैसी बातें करता है तू? जानता नहीं, वे हमारे पुराने पुरोहित हैं. उन के बिना हमारे घर में कोई भी कार्य संपन्न नहीं होता?’’

‘‘क्यों, उन में क्या हीरेमोती जड़े हैं? दक्षिणा लेना तो वे कभी भूलते नहीं. 501 रुपए, धोती, कुरता और बनियान लिए बगैर तो वे टलते नहीं हैं. जब इतना कुछ दे कर ही पूजा करवानी है तो फिर किसी भी पंडित को बुला कर पूजा क्यों नहीं करवा लेते? बेवजह उन के चक्कर में इतनी देर हो रही है. इतने सारे लोग घर में आ चुके हैं और अभी तक पंडितजी का कोई अतापता ही नहीं है,’’ अंशु ने खरी बात कही.

‘‘बेटे, आजकल शादीब्याह का मौसम चल रहा है. हो सकता है वे कहीं फंस गए हों, इसी वजह से उन्हें यहां आने में देर हो रही हो.’’

‘‘वह तो ठीक है पर उन्होंने कहा था कि बेफिक्र रहो, मैं अवश्य ही समय पर चला आऊंगा, लेकिन फिर भी उन की यह धोखेबाजी. मैं तो इसे कतई बरदाश्त नहीं करूंगा. मेरी तो भूख के मारे हालत खराब हो रही है. आखिर मुझे तब तक तो भूखा ही रहना पड़ेगा न, जब तक पूजा समाप्त नहीं हो जाती. जब अभी तक पंडितजी आए ही नहीं हैं तो फिर पूजा शुरू कब होगी और फिर खत्म कब होगी पता नहीं… तब तक तो भूख के मारे मैं मर ही जाऊंगा.’’

‘‘बेटे, जब इतनी देर तक सब्र किया है तो थोड़ी देर और सही. अब पंडितजी आने ही वाले होंगे.’’

तभी पंडितजी का आगमन हुआ. मां तो उन के चरणों में ही लोट गईं.

पंडितजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘क्या करूं, थोड़ी देर हो गई आने में. यजमानों को कितना भी समझाओ मानते ही नहीं. बिना खाए उठने ही नहीं देते. खैर, कोई बात नहीं. पूजा की सामग्री तैयार है न?’’

‘‘हां महाराज, बस आप का ही इंतजार था. सबकुछ तैयार है,’’ मां ने उल्लास भरे स्वर में कहा.

तभी अंशु का छोटा भाई सोनू भी वहां आ कर बैठ गया. पूजा की सामग्री के बीच रखे पेड़ों को देख कर उस का मन ललचा गया. वह अपनेआप को रोक नहीं पाया और 2 पेड़े उठा कर वहीं पर खाने लगा. पंडितजी की नजर पेड़े खाते हुए सोनू पर पड़ी तो वे बिजली की तरह कड़क उठे, ‘‘अरे… सत्यानाश हो गया. भगवान का भोग जूठा कर दिया इस दुष्ट बालक ने. हटाओ सारी सामग्री यहां से. क्या जूठी सामग्री से पूजा की जाएगी?’’

मां तो एकदम से परेशान हो गईं. गलती तो हो ही चुकी थी. पंडितजी अनापशनाप बोलते ही चले जा रहे थे. जैसेतैसे जल्दीजल्दी सारी सामग्री फिर से जुटाई गई और पंडितजी मिट्टी की एक हंडि़या में शीतल प्रसाद बनाने लगे.

अंशु हड़बड़ा कर बोल उठा, ‘‘अरे…अरे पंडितजी, आप यह क्या कर रहे हैं?’’

‘‘भई, शीतल प्रसाद और चरणामृत बनाने के लिए हंडि़या में दूध डाल रहा हूं.’’

‘‘मगर यह दूध तो जूठा है?’’

‘‘जूठा है. वह कैसे? यह तो मैं ने अलग से मंगवाया है.’’

‘‘लेकिन जूठा तो है ही… आप मानें चाहे न मानें, यह जिस गाय का दूध है, उसे दुहने से पहले उस के बछड़े ने तो दूध अवश्य ही पिया होगा, तो क्या आप बछड़े के जूठे दूध से प्रसाद बनाएंगे? यह तो बड़ी गलत बात है.’’

पंडितजी के चेहरे की रंगत उतर गई. वे कुछ भी बोल नहीं पाए. चुपचाप हंडि़या में दही डालने लगे.

अंशु ने फिर टोका, ‘‘पंडितजी, यह दही तो दूध से भी गयागुजरा है. मालूम है, दूध फट कर दही बनता है. दूध तो जूठा होता ही है और इस दही में तो सूक्ष्म जीव होते हैं. भगवान को भोग क्या इस जीवाणुओं वाले प्रसाद से लगाएंगे?’’ पंडितजी का चेहरा तमतमा गया. भन्नाते हुए शीतल प्रसाद में मधु डालने लगे.

‘‘पंडितजी, आप यह क्या कर रहे हैं? यह मधु तो उन मधुमक्खियों की ग्रंथियों से निकला हुआ है जो फूलों से पराग चूस कर अपने छत्तों में जमा करती हैं. भूख लगने पर सभी मधुमक्खियां मधु खाती हैं. यह तो एकदम जूठा है,’’ अंशु ने फिर बाल की खाल निकाली. पंडितजी ने हंडि़या में गंगाजल डाला ही था कि अंशु फिर बोल पड़ा, ‘‘अरे पंडितजी, गंगाजल तो और भी दूषित है. गंगा नदी में न जाने कितनी मछलियां रहती हैं, जीवजंतु रहते हैं. आखिर यह जल भी तो जूठा ही है और ये सारे फल भी तोतों, गिलहरियों, चींटियों आदि के जूठे हैं. आप व्यर्थ ही भगवान को नाराज करने पर तुले हैं. जूठे प्रसाद का भोग लगा कर आप भगवान के कोप का भाजन बन जाएंगे और हम सब को भी पाप लगेगा.‘‘

‘‘तो फिर मैं चलता हूं… मत कराओ पूजा,’’ पंडितजी नाराज हो कर अपने आसन से उठने लगे.

‘‘पंडितजी, पूजा तो आप को करवानी ही है लेकिन जूठे प्रसाद से नहीं. किसी ऐसी पवित्र चीज से पूजा करवाइए जो बिलकुल शुद्ध हो, जूठी न हो और वह है मन, जो बिलकुल पवित्र है?’’

‘‘हां बेटे, ठीक कहा तुम ने मन ही सब से पवित्र होता है. पवित्र मन से ही सच्ची पूजा हो सकती है. सचमुच, तुम ने आज मेरी आंखें खोल दीं. मेरी आंखों के सामने ढोंग और पाखंड का परदा पड़ा हुआ था. मुझ से बड़ी भूल हुई. मुझे माफ कर दो,’’ उस के बाद पंडितजी ने उसी सामग्री से पूजा करवा दी लेकिन पंडितजी के चेहरे पर पश्चात्ताप के भाव थे.

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