लेखिका- डा. निरुपमा राय

सोफे पर अधलेटी सी पड़ी आभा की आंखें बारबार भीग उठती थीं. अंतर्मन की पीड़ा आंसुओं के साथ बहती जा रही थी. उस के पति आकाश भी भीतरी वेदना मन में समेटे मानो अंगारों पर लोटते सोच में डूबे थे. ‘यह क्या हो गया? क्या अतीत की वह घटना सचमुच हमारी भूल थी? कितनी आसानी से प्रतीक्षा ने सारे संबंध तोड़ डाले. एक बार भी मांबाप की उमंगों, सपनों के बारे में नहीं सोचा. उस का दोटूक उत्तर किस तरह कलेजे को बींध गया था, देखो मम्मी, अब तुम्हारा जमाना नहीं रहा. मैं अपना भलाबुरा अच्छी तरह समझती हूं. वैसे भी अपने जीवन का यह महत्त्वपूर्ण फैसला मैं किसी और को कैसे लेने दूं?’

‘पर प्रतीक्षा, मैं और तुम्हारे पापा कोई और नहीं हैं. हम ने तुम्हें जन्म दिया है,’ आभा ने कहा तो प्रतीक्षा चिढ़ गई, ‘यही तो मुसीबत है, जन्म दे कर जो इतना बड़ा उपकार कर दिया है, उस का ऋण तो मैं इस जन्म में चुका ही नहीं सकती... क्यों?’

‘बेटा, तुम हमारी बात को गलत दिशा में मोड़ रही हो. शादी का फैसला जीवन का अहम फैसला होता है, इस में जल्दबाजी ठीक नहीं. दिल से नहीं दिमाग से निर्णय लेना चाहिए,’ आभा ने समझाया तो प्रतीक्षा बोली, ‘मैं ने कोई जल्दबाजी नहीं की है, मैं अरुण को 2 वर्षों से जानती हूं. आप दोनों अच्छी तरह समझ लें, मैं अरुण से ही शादी करूंगी.’

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‘मुझे अरुण पसंद नहीं है, प्रतीक्षा. वह अभी ठीक से कोई जौब भी नहीं पा सका है और मुझे लगता है कि वह एक जिम्मेदार जीवनसाथी नहीं बन पाएगा. तुम दोनों अभी कल्पना की उड़ान भर रहे हो, जब धरातल से सिर टकराएगा तो बहुत पछताओगी, बेटी,’ आकाश ने कहा.

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