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Hindi Love Stories : लफंगे – क्या थी उन लड़कों की सच्चाई

Hindi Love Stories : ‘‘निधि, यह स्टौल ले ले…’’ आरती की नजरें निधि के चुस्त टौप पर जमी थीं. और निधि के चेहरे पर झुंझलाहट थी.

‘‘रख लो, बाद में अपने बैग में डाल लेना.’’

‘‘ऊफ, बैग में क्या और सामान कम है जो इसे भी ढोती फिरूं.’’

‘‘यहां से निकलते वक्त थोड़ा सा ध्यान रखा करो, बाहर चाय की दुकान पर खड़े वे लफंगे…’’

‘‘अब क्या मैं मनमरजी के कपड़े भी नहीं पहन सकती हूं? और वैसे भी आज तक उन लोगों ने न कुछ कहा है, न कोई ऐसा व्यवहार किया है जिस से मुझे कोई परेशानी हो. और तो और, उस दिन मेरी स्कूटी स्टार्ट नहीं हो रही थी तो उन लड़कों ने ही ठीक कर दी थी वरना मेरा एग्जाम भी मिस हो जाता.’’

‘‘बेवकूफ है तू. जरा अपने सैंसेज को जगा कर रखा कर. सामने वाले हिमेशजी की बेटी को देख, कैसे ढंग के कपड़े पहनती है और आज तक उस ने…’’

‘‘मम्मी, प्लीज…मुझे किसी से कंपेयर मत करो,’’ कहती हुई निधि इतनी तेजी से भागी कि आरती उसे स्टौल पकड़ा ही नहीं पाई.

मांबेटी का लगभग रोज का विवाद और चिकचिक हरीश को अच्छी नहीं लगी, सो बोल उठे, ‘‘तुम क्यों मन खराब करती हो. किसी और की वजह से निधि पर इतनी रोकटोक ठीक नहीं है. महल्ले वालों की वजह से क्या वह अपनी मनमरजी से पहनओढ़ भी नहीं सकती?’’ ‘‘महल्ले वालों की परवा नहीं है, हरीश, मेरा मन तो उस चाय की गुमटी पर खड़े लड़कों को देख कर खराब होता है.’’

‘‘अरे, सुबहशाम ही तो चाय पीने का समय होता है, तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे ये लड़के दिनभर वहीं खड़े रहते हैं.’’ ‘‘दिनभर खड़े रहें तो ठीक है, पर उसी वक्त क्यों खड़े होते हैं जब अपनी निधि कालेज जाती और आती है.’’ आरती के तर्क का जवाब देना हरीश के बस में नहीं था.

‘‘तुम नहीं जानते, हरीश. मुझे उन की हंसी से चिढ़ होती है. आतेजाते लोगों को ताकना और धीरेधीरे बातें कर के हंसना, मेरे गुस्से को बढ़ा देता है.’’ ‘‘अब यह क्या बात हुई, किसी की हंसी से तुम उस के चरित्र पर उंगली कैसे उठा सकती हो?’’

‘‘उन लड़कों की शक्ल ही बताती है कि कितने लफंगे हैं वे.’’

‘‘अब छोड़ो, उन लड़कों की जिंदगी है जैसे बितानी है, बिताएं.’’

‘‘मुझे उन की जिंदगी से कोई लेनादेना नहीं है. लेकिन उन के जीने के ढंग की आंच खुद तक पहुंचने लगे तो कोई क्या करे.’’ बाहर चाय की चुस्कियां लेते और एकदूसरे के हाथों पर हाथ मार कर हंसते उन लड़कों को देख कर आरती का मन घृणा से भर उठा था. बात बदलने की गरज से हरीश बोले, ‘‘आज मैं फ्री हूं, तुम बहुत दिनों से हिमेशजी के यहां जाने को बोल रही थीं.’’

‘‘हां, आज हो आएंगे, बहुत दिनों से बुला रहे हैं. एक वही तो हैं, वरना यहां किसी से बात करने का मन नहीं करता है. मैं ने निधि से भी कहा है कि उन की बेटी से दोस्ती कर ले पर वह सुनती कहां है.’’ पैट्रोल पंप के मालिक हिमेशजी के सभ्य और अभिजात्य परिवार से आरती बहुत प्रभावित थी. 2 महीने पहले जब आरती का परिवार यहां शिफ्ट हो रहा था तो हिमेशजी ने ही नसीहत दी थी, ‘यहां के लोगों से बातचीत और व्यवहार ज्यादा न रखें, खासकर जब घर में लड़की हो. यहां इतना बड़ा और आलीशान मकान बनवा कर हम पछता रहे हैं. भाभीजी, जरा इन लफंगों से सावधान रहना.’ हिमेशजी की कही बात ने आरती के दिमाग में गहरी पैठ बना ली थी. आतेजाते इन लड़कों को कोसती तो हरीश समझाते, ‘इन लड़कों पर नहीं, अपने संस्कारों पर भरोसा करो,’ पर जाने क्या हो जाता था आरती को, जब भी इन लड़कों को बाहर चाय की दुकान पर हंसीमजाक करते देखती तो गुस्से के मारे बदन में आग लग जाती थी.

इधर कुछ दिनों से उन लड़कों का उठनाबैठना ज्यादा बढ़ गया था. ‘‘एक तरफ हम लड़कियों को बराबरी का दरजा दे रहे हैं, दूसरी तरफ उन की सुरक्षा को ले कर चिंतित रहते हैं. इन की वजह से इंसानियत शर्मसार होती है,’’ सहसा आरती के मुंह से निकला शब्द हरीश के कानों में पड़ गया था. ‘‘अब बस करो, आरती. तुम ओवररिऐक्ट कर रही हो. चिंता करने की कोई हद तो तय है नहीं. अब यह तो अपने ऊपर है कि चिंता करें या फिर परिस्थितियों की मांग के हिसाब से उन से मुकाबला करें.’’ ‘‘किसकिस से मुकाबला करें, अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं है कि उस के मन में क्या चल रहा है.’’

‘‘जब लिखा नहीं है तो तुम क्यों अपना दिल जलाती हो.’’

‘‘हरीश, दिल तो जलता ही है, इन लफंगों को तो देख कर कोई भी बता सकता है कि ये कितने कुत्सित विचारों के होंगे. इन के चेहरे पर तो लिखा नजर आता है कि ये सब समाज के नाम पर धब्बा बनेंगे.’’

‘‘अच्छा, अब यह बताओ अभि के लिए कुछ भेज रही हो या नहीं?’’ बात और मूड बदलने की गरज से हरीश ने एक बार फिर बातों के रुख को मोड़ा.

‘‘अरे हां, हरीश, कल ही तो आप को अहमदाबाद जाना है. मैं ने कोई तैयारी भी नहीं की है. आज मठरी और लड्डू बनाऊंगी. क्या बताऊं, निधि को अकेले नहीं छोड़ सकती वरना मेरा भी मन था कि अभि से मिल आती,’’ आरती का मन बेटे अभि को याद कर भीग सा गया था. ढेर सारी चिंता आंखों में समाए आरती उठ खड़ी हुई थी. 9 बज गए लेकिन शन्नो का कुछ पता नहीं था. आज तो उस से राशन भी मंगवाया था, पता नहीं उस ने खरीदा भी होगा या नहीं…सोचती हुई आरती के कानों में दरवाजे की घंटी की आवाज पड़ी तो उस ने जल्दी से दरवाजा खोल दिया. पर यह क्या? बाहर राशन के सामान से लदीफंदी शन्नो के पीछे बाहर चाय के अड्डे पर खड़े होने वाले 2 लफंगे आटे की बोरी पकड़े खड़े थे. ‘नमस्ते आंटी…’ सुन कर लगा जैसे कानों में कोई पिघला सीसा उड़ेल दिया हो. आरती की भावभंगिमा देख कर आटे की बोरी वहीं रख वे लड़के चलते बने. उन के जाते ही आरती शन्नो पर बुरी तरह से फट पड़ी थी, ‘‘देख शन्नो, हम बेटी वाले हैं, ऐसे में किसी को भी घर में ले कर चले आना ठीक नहीं है.’’

‘‘मेमसाब, बेटी वाले हम भी हैं. इतनी तो पहचान हमें भी है, आदमी को आदमी समझना सीखो,’’ शन्नो बड़बड़ा रही थी. उस का मूड खराब कर के आरती अपने काम को बढ़ाना नहीं चाहती थी, सो बात को वहीं छोड़ कर वह नरमी से बोली, ‘‘हमारी किसी से निजी दुश्मनी तो है नहीं, घर में लड़की है, सो चिंता बनी रहती है. तू खुद ही देख, ये लफंगे से लगने वाले लड़के सुबहशाम यहीं खड़े रहते हैं.’’ आटा माड़ते हुए शन्नो ने कहा, ‘‘ये बच्चे भी हमारेआप के जैसे परिवारों से हैं, अकेले रहते हैं, पढ़ाई करते हैं, थोड़ा बाहर हंसबोल लेते हैं तो क्या हुआ?’’

‘‘ये लड़के यहां के नहीं हैं क्या?’’

‘‘नहीं, कोई कोर्स कर रहे हैं.’’

‘‘तू इतना सब कैसे जानती है?’’

‘‘इन के लिए शाम की रोटी मैं ही बनाती हूं.’’ इस खुलासे के बाद तो आरती का मूड ही खराब हो गया. जाने शन्नो ने उन्हें क्याक्या बताया होगा. दूसरे दिन हरीश अहमदाबाद चले गए, तो आरती ने खुद को घर में कैद कर लिया. ऐसे में शन्नो एक ऐसी खबर लाई कि आरती का दिल और दिमाग दहल गया. मुंहअंधेरे नुक्कड़ पर कोई एक लड़की को कार से ढकेल गया था. आधेअधूरे कपड़ों में उस लड़की को तमाशा बना दुनिया देखती रही. इन लड़कों के कहने पर शन्नो ने खुद की ओढ़ी शौल उसे दी. चाय की गुमटी वाले अब्दुल चाचा के आश्वासन पर ही उस लड़की को उन लड़कों ने अस्पताल पहुंचाया. बेचारे डर भी रहे थे. पुलिसथाने का कोई चक्कर न हो, हिमेशजी ने तो दूर से ही हाथ जोड़ दिए थे. ‘‘आप ही बताओ मेमसाब, आदमी ही आदमी की मदद न करे तो उस की बड़ीबड़ी बातें किस काम की. हिमेशजी  के पास 2-2 गाडि़यां खड़ी रहती हैं पर जरूरत के समय साफ मना कर दिया. ऐसे मामले में सब डरते हैं पर इतना भी क्या डरना कि आदमी से गीदड़ बन जाए. सब बातों के शेर हैं, दम किसी में नहीं.’’ शन्नो ने अपने मन की भड़ास निकाली, ‘‘उस बेचारी की दुर्दशा किस के कुकर्मों का नतीजा है, कौन जानता है?’’

आरती का चेहरा पीला हो गया. दूसरे दिन शाम को आरती घर से बाहर निकली तो हिमेशजी मिल गए. हमेशा की तरह चिंता में लीन. देखते ही बोले, ‘‘भाभीजी, सुना आप ने, कल क्या हुआ?’’

‘‘जी, शन्नो ने बताया था.’’ ‘‘मैं कहता था न, आजकल जमाना लड़कियों का बाहर निकलने वाला नहीं है. मुझे देखिए 2-2 गाडि़यां घर में रख छोड़ी हैं, मजाल है जो मेरी बेटी अकेलेदुकेले कहीं निकल जाए. मैं तो कहता हूं, आप भी अपनी बिटिया को यों अकेले बाहर न जाने दिया करें. गाड़ी नहीं है तो कम से कम आटो कर दीजिए. 4-5 दिन पहले उस की स्कूटी भी शायद खराब हो गई थी.’’ आरती समझ गई थी कि उन्होंने उन लड़कों को निधि की स्कूटी स्टार्ट करते देख लिया था और अब वे एक अच्छे पड़ोसी होने का फर्ज उन दबेढके शब्दों में उसे आगाह करने की कोशिश कर निभा रहे थे. आज जाने क्यों आरती को हिमेशजी की बातों से कुछ कोफ्त सी हुई. उन्हें लगभग टालती हुई सामने बने पार्क की बैंच पर बैठ गई. सुबह से जी मिचला रहा था. शायद कल रात हुई घटना ने उस पर असर किया था. हिमेशजी की पत्नी अपनी बेटी सुप्रिया के साथ आती दिखीं. वहां खड़े दोनों लड़कों ने उसे अजीब नजरों से देखा, फिर मुंह घुमा लिया. आरती ने आज तक सुप्रिया को किसी से बातचीत करते नहीं देखा है. हिमेशजी ने बताया था कि उन की बेटी रिजर्व स्वभाव की है.

‘‘अरे भाभीजी, आज अकेले? भाईसाहब नहीं दिख रहे हैं?’’

‘‘अहमदाबाद गए हैं.’’

‘‘चलिए, किसी चीज की जरूरत हो तो बताइएगा,’’ कर्तव्य पूर्ति कर के हिमेशजी की पत्नी अपने घर के भीतर चली गईं. सामने चाय की गुमटी में बैठे उन लड़कों की ओर आरती की नजर गई. लड़के…हां लड़के ही तो थे. जाने क्यों लफंगे शब्द की अनुगूंज सुनाई नहीं दी. पार्क में खिले गुलाब के फूलों की ओर हाथ बढ़ाते बच्चों को माली ने डांटा. आरती की नजर उन फूलों की ओर गई. एक दिन सुबह की सैर करते हुए उस के आंचल में कांटे अटक गए थे तब से वह सावधान हो कर वहां से निकलती है लेकिन आज कांटों से ध्यान हट कर छिपे फूलों की ओर चला गया, जिन की महक उस के मन को छू कर निकली थी. आज शाम कुछ नई सी थी, किसी की हंसी कानों को चुभ नहीं रही थी. आरती ने एक बार फिर ध्यान से उन लड़कों को देखा. कल इन लड़कों द्वारा उस अनजान लड़की के प्रति दिखाई संवेदनशीलता ने साबित किया था कि संवेदना किसी खास चेहरे और स्तर की मुहताज नहीं होती. आरती यों ही बैठी रही. करीब आधे घंटे बाद उठी तो ऐसा चक्कर आया कि कुछ होश न रहा. आंख खुली तो देखा सामने डाक्टर बैठा था.

‘‘चलिए, आप को होश आ गया, अब मैं चलता हूं. चिंता की कोई बात नहीं है,’’ मुसकराते हुए डाक्टर ने आरती से कहा, ‘‘ये लड़के मुझे अपनी बाइक में हवाई जहाज जैसी स्पीड में ले कर आए थे.’’ ‘‘मम्मी, आप की तबीयत ठीक नहीं थी तो बता देतीं, केतन और सुनील नहीं होते तो आज पता नहीं मैं कैसे मैनेज करती. इन बेचारों ने मेरी वजह से खाना भी नहीं खाया है, तब से यहीं भूखे बैठे हैं.’’

‘‘कौन?’’ आरती अवाक् सी उन केतन और सुनील नाम वाले लफंगों को देखती रही. निधि ने धीरे से आरती के हाथ को दबा दिया, उसे डर था, इन बेचारों के प्रति चेहरे पर नफरत न आ जाए. ‘‘आंटीजी, आज हमारा पिक्चर देखने और बाहर खाना खाने का प्रोग्राम था, इसलिए शन्नो दीदी को मना कर दिया था. हम जाने ही वाले थे लेकिन देखा, आप अचानक गिर गईं. सोच ही रहे थे कि क्या करें, तब तक दीदी आ गईं. उन्होंने बताया कि आप को स्पौंडिलाइटिस की वजह से चक्कर आ जाते हैं. गिरने की वजह से आप के सिर पर चोट लग गई तो हम घबरा गए थे.’’

‘‘आज तो तुम लोगों को खाना भी नहीं मिलेगा.’’

‘‘कोई बात नहीं, केतन की मम्मी के बनाए लड्डू हैं. उन्हें खा कर हमारा मस्त काम चलेगा.’’

आरती ने पूछा, ‘‘तुम लोग यहां अकेले रहते हो?’’ ‘‘आंटीजी, यहां पास वाली गली में 4 लड़कों के साथ एक कमरे को साझा कर रहे हैं. हम दोनों बीटेक और वे दोनों लड़के एक टैक्निकल ट्रेनिंग कर रहे हैं. इम्तिहान खत्म हो गए हैं पर घर नहीं गए. यहीं 3-4 घंटे पार्टटाइम नौकरी में समय बिता रहे हैं. जेबखर्च निकल आता है. मतलब किताबों वगैरह के लिए,’’ सुनील ने सफाई दी. आरती हैरानी से उन लफंगों को देख रही थी, ‘‘निधि, देख तो जरा. अभि के लिए बनाया नाश्ता डब्बों में पड़ा है, थोड़ा दे दे, क्या भूखे सोएंगे ये बच्चे?’’ ये बोलती हुई आरती अपने शब्दों पर खुद ही अचकचा गई. आश्चर्य हुआ कि इन लड़कों के लिए ममत्व जागा कैसे? बड़े संकोच से केतन ने निधि के हाथ से पैकेट ले लिया, पर दरवाजे तक आ कर अचकचा कर रुक गया.

‘‘क्या हुआ?’’ निधि ने पूछा तो केतन ने कुछ संकोच से कहा, ‘‘1 मिनट बाद जाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वे हिमेश अंकल अपना गेट बंद कर रहे हैं. हमें यहां देख लिया तो…’’

‘‘तो क्या?’’

‘‘वह आप नहीं समझेंगी,’’ अपने बालों पर हाथ फेरते हुए फर्श की ओर ताकते शर्माते हुए केतन बोला, ‘‘आप लड़की हैं न, हिमेश अंकल ने आप को मेरे साथ देख लिया तो पता नहीं क्या सोचेंगे.’’

‘‘क्या सोचेंगे?’’

‘‘वे हमें लफंगा समझते हैं न इसलिए.’’ उन की मनोदशा से आरती का जी भर आया. बोली, ‘‘चलो, मैं भी चलती हूं. खुली हवा में बैठूंगी तो मन बदलेगा.’’ आरती ने धीरे से पलंग से उतर कर चप्पल पहनी. निधि के साथ बाहर आई तो केतन उस से दूरी बना कर तेज कदमों से चलने लगा. बाहर झुरमुट में हिमेशजी के लौन के पिछवाड़े एक साया देख कर आरती डर गई, तो सुनील ने कहा, ‘‘आंटी, आप घर जाइए.’’ आरती की नजर सामने हिमेशजी के लौन के पिछवाड़े पर टिकी थी. खिड़की से एक साया अंदर जाता साफ दिख रहा था.

‘‘मम्मी, हिमेश अंकल के घर इन्फौर्म करिए, कोई पीछे के रास्ते से घर में घुसने की कोशिश कर रहा है,’’ निधि बोली.

‘‘रहने दीजिए, यह हर दूसरेतीसरे दिन होता है,’’ केतन बोला.

‘‘यह कमरा तो सुप्रिया का है न? कौन है जो यों चोरी से घुस रहा है?’’ ‘‘उस कार का मालिक,’’ एक बड़ी सी कार की ओर इशारा करते हुए सुनील और केतन तेजी से सामने वाली गली में गुम हो गए थे. कुछ दूर अंधेरे में खड़ी कार को देख कर सिहर गई आरती का चेहरा स्याह था. रात की कालिमा से ज्यादा स्याह यह सभ्य लोगों का सच था. घर आ कर निधि ने चाय बना कर दी तो सहसा कानों में चाय की गुमटी में खड़े लड़कों की हंसी की आवाजें सुनाई देने लगीं. जाने क्यों, इस हंसी में खिलंदड़पन की महक आई. सामने खिड़की से हिमेशजी के लौन का कुछ हिस्सा दिख रहा था. आरती ने अपनी सोच पर रोक लगाते हुए अपनी नजर हिमेशजी के बंगले की ओर दौड़ाई तो वहां अंधेरा था. शायद हिमेशजी गहरी नींद में सो रहे थे, अलबत्ता उन की बेटी के कमरे में हलका उजाला दिख रहा था. हिमेशजी  दूसरों को असामाजिक तत्त्वों से बचने की सीख देते हैं जबकि रात के अंधेरे में वे अपने घर में पीछे की ओर से किसी लफंगे के आनेजाने से बेखबर थे. आरती ने चुपचाप अपने कमरे की खिड़की बंद कर दी थी. Hindi Love Stories

Social Story In Hindi : सब से बड़ा रुपया

Social Story In Hindi : ‘‘नहीं खाऊंगी, नहीं खाऊंगी,’’ राशि इतनी जोर से चीखी कि रुक्मिणी देवी कांप उठी थीं.

राशि का हाथ लगने से रुक्मिणी देवी के हाथ से प्लेट गिर कर चकनाचूर हो गई थी. राशि के चीखने और प्लेट गिरने की आवाज सुन कर दालान में काम करते मंगल की भवें तन गई थीं. उस के हाथ एकदम थम गए. वह तेजी से अंदर आया और राशि पर एक भरपूर नजर डाली. उस की आंखों में इतना क्रोध था कि राशि ने सहम कर नजरें झुका ली थीं.

‘‘उठो, थाली लो, उस में खाना निकाल लो. खुद भी खाओ और हार्दिक को भी खिलाओ. यहां कोई नहीं है तुम्हारे नखरे उठाने को,’’ मंगल की चेतावनी सुन कर राशि और उस से एक साल छोटा हार्दिक दोनों ही सहम गए. रुक्मिणी देवी ने कनखियों से मंगल को शांत रहने का इशारा किया.

‘‘मुझे नहीं रहना यहां. मैं तो मम्मीपापा के पास जाऊंगा,’’ बहन को रोते देख कर हार्दिक गला फाड़ कर रो उठा.

‘‘कहीं नहीं जाना है. कहा न, खाना खा लो,’’ कहते हुए मंगल ने मारने के लिए हाथ उठाया.

‘‘रहने दे, बेटा, बहुत छोटा बच्चा है. क्यों सताता है उसे?’’ रुक्मिणी देवी ने मंगल को रोकते हुए कहा.

‘‘छोटा है तो छोटे की तरह रहे, दोनों भाईबहनों ने मिल कर जीना मुश्किल कर रखा है,’’ मंगल बेहद गुस्साए स्वर में बोला.

रुक्मिणी देवी ने हार्दिक को गोद में बिठा कर उस के आंसू पोंछे. उसे देख मंगल की आंखें भी छलछला आई थीं. नीलेश बाबू अपने कमरे में से मांबेटे का यह वार्त्तालाप अपनी थकी आंखों से देख रहे थे.

‘‘मामाजी, मुझे माफ कर दो. हम दोनों ने आप को बहुत दुख पहुंचाया है. अब हमें जो भी मिलेगा, चुपचाप वही खा लेंगे. कभी जिद नहीं करेंगे,” राशि बोली.

रुक्मिणी देवी ने फिर खाना निकाल कर दोनों बच्चों को खिलाया. थोड़ाबहुत खा कर दोनों बच्चे सो गए, तो रुक्मिणी देवी काम में लग गईं. पर मंगल शून्य में ताकता बैठा रहा. उस की बहन उर्मिला का हंसताखिलखिलाता चेहरा उस की आंखों में तैर गया था. कितनी सुखी गृहस्थी थी उस की. किराने की बड़ी सी दुकान से 5-6 लोगों के परिवार का काम अच्छी तरह चल जाता था. दोमंजिला मकान उन की संपन्नता की पहचान था, पर भूकंप के उन कुछ क्षणों ने सबकुछ लील लिया था. नीचे की मंजिल पर उस की बहन उर्मिला, उस का पति रीतेश, छोटा भाई और विधवा मां सब दब गए थे. दोमंजिला घर मानो किसी बड़े से अंधे कुंए में धंसता चला गया था.

उस पर विडंबना यह थी कि दोनों बच्चे राशि और हार्दिक डरेसहमे सुबकते हुए भुज में स्थित अपने घर से ऐसे निकल आए मानो कुछ हुआ ही न हो. उन के शरीर पर खरोंच के निशान तक न थे. नानानानी नीलेश लाल व रुक्मिणी देवी और मामा मंगल के अलावा केवल दूर के रिश्ते की एक बूआ ऋचा थी, जो भाई के परिवार पर आई विपत्ति का समाचार सुन कर वहां पहुंची अवश्य थी, पर बच्चों का भार उठाने में अपनी असमर्थता जता कर चली गई थी.

राशि और हार्दिक को रुक्मिणी देवी बिना कुछ बताए अपने साथ ले आई थीं. पहले से डरेसहमे बच्चों को सचाई बताने का उन का साहस नहीं होता था. वे जब भी मातापिता के बारे में पूछते तो नानानानी और मामा उन्हें यही बताते कि उन के मम्मीपापा ऊना गए हैं जरूरी दवाएं खरीदने.

‘इतने दिन हो गए अभी तक लौटे क्यों नहीं, मम्मीपापा?’ राशि दिन में 3-4 बार पूछ लेती और हार्दिक तो मचल कर, रोरो कर घर सिर पर उठा लेता था. यहां तक कि रुक्मिणी देवी और मंगल, उर्मिला और उस के परिवार को याद कर के फूटफूट कर रो पड़ते थे. नीलेश बाबू धैर्य से सब के आंसू पोंछते रहते थे.

मित्रों, सगेसंबंधियों को समझा दिया गया था कि बच्चों को उन के मम्मीपापा के बारे में कुछ न बताया जाए. उन से ऐसा ही व्यवहार किया जाए मानो उन के मम्मीपापा कहीं बाहर गए हैं और शीघ्र ही लौट आएंगे, पर वृद्ध दंपती को यही चिंता खाए जा रही थी कि बच्चों की देखभाल कैसे होगी. उन दोनों की तो खैर आयु हो चली थी.
उन के बेटे मंगल की लोहे के कलपुरजे बनाने की छोटी सी वर्कशौप थी. अभी तो मंगल गुजरबसर लायक कमा लेता था, पर कल को विवाह होगा तब उस की पत्नी पता नहीं बच्चों की देखभाल करेगी भी या नहीं. इन्हीं बातों को सोच कर रुक्मिणी देवी की रातों की नींद उड़ जाती थी.

‘‘देखो तो, दोनों कैसे चैन की नींद सो रहे हैं, भोलेभाले, निश्छल, निष्कपट मानो केले के पत्ते पर ओस की बूंद,” रुक्मिणी देवी सोते हुए बच्चों को निहारती हुई बोलीं.

‘‘वाह, तुम तो बच्चों को देखते ही कविता करने लगीं. पर सोचो, यह सब कितने दिन चलेगा. जब इन्हें पता चलेगा कि इन के मम्मीपापा इस दुनिया में नहीं रहे तो क्या गुजरेगी इन पर,’’ नीलेश बाबू गंभीर स्वर में बोले.

‘‘यह सब सोच कर तो कलेजा मुंह को आता है. कौन करेगा मांबाप की तरह इन की सारसंभाल…’’ रुक्मिणी देवी की आंखें डबडबा आईं और स्वर भर्रा गया.

‘‘मेरे मन में एक बात आई है. यदि तुम लोग तैयार हो, तो मैं कुछ कहूं,’’ नीलेश बाबू धीरे से बोले.

‘‘अरे, तो कहो न. इस में अनुमति मांगने की कौन सी बात है,’’ रुक्मिणी देवी मुसकराई थीं.

‘‘क्यों न हम इन दोनों बच्चों को संपन्न परिवारों में गोद दे दें. निसंतान दंपतियों को संतान मिल जाएगी और इन अनाथ बच्चों को मातापिता.’’

‘‘कोई ऐसा परिवार है क्या आप की नजरों में?’’

‘‘कल ही एक समाजसेवक मिले थे. कहने लगे, कैसी विडंबना है, कहीं बच्चे मातापिता का प्यार पाने को तरस रहे हैं और कहीं मातापिता एक अदद बच्चे के लिए अपना सबकुछ निछावर करने को तैयार हैं,’’ नीलेश बाबू ने अपनी बात स्पष्ट की, ‘‘बातोंबातों में राशि और हार्दिक की बात निकली थी. वह तो कह रहा था कि एक अत्यंत संपन्न दंपती को जानता है, जहां बच्चे राज करेंगे, राज.’’

‘‘फिर आप ने क्या कहा?’’

‘‘मैं ने तो कह दिया कि घर बुलाओ उन्हें चायनाश्ते पर. बच्चों को उन्हें सौंपने से पहले हम भी तो अपनी तसल्ली कर लें,’’ नीलेश बाबू ने बताया.

‘‘ठीक ही किया आप ने.’’

‘‘क्या खाक ठीक किया, हमारा खून क्या इतना सफेद हो गया है कि उर्मिला के बच्चों को किसी अन्य को सौंप देंगे,’’ रुक्मिणी देवी की बात पूरी होने से पहले ही मंगल चीख उठा था.

‘‘बेटे, कोरे उत्साह से काम नहीं चलता. तुम क्या समझते हो हमें राशि और हार्दिक प्यारे नहीं हैं. पर जीवन केवल भावुकता से नहीं जिया जाता. फिर संपन्न परिवार में जाने से बच्चों का भविष्य भी सुरक्षित हो जाएगा,’’ नीलेश बाबू धीरगंभीर स्वर में बोले.

‘‘साफसाफ क्यों नहीं कहते कि आप का बेटा इतना नालायक है, जो अपनी बहन के बच्चों का भार उठाने लायक ही नहीं है?’’ क्रोधित स्वर में वह बोलता हुआ बाहर निकला.

‘‘आप उस की चिंता न करें. मंगल को तो दुनियादारी की समझ ही नहीं है, पर मेरे जीतेजी बच्चे जीवन में सुव्यवस्थित हो गए तो चैन से आंखें मूंद सकूंगी,’’ रुक्मिणी देवी ने अपना निर्णय सुनाया.

दूसरे ही दिन वह समाजसेवक श्रीधर एक दंपती कमलेश्वर और उस की पत्नी कामायिनी को ले कर आ गया. रुक्मिणी देवी ने राशि और हार्दिक को सजाधजा कर प्रस्तुत किया.

‘‘बहुत ही प्यारे बच्चे हैं,” कामायिनी ने बच्चों को देखते ही कहा.

‘‘बच्चो, आप के मम्मीपापा कहां हैं?” कमलेश्वर ने पूछा.

‘‘ऊना गए हैं, हमारे लिए दवा लेने. यह मेरा छोटा भाई है न, हार्दिक, जब देखो तब बीमार पड़ता रहता है,” राशि बोली.

‘‘ठीक है, आप दोनों अंदर जा कर खेलो. बड़ों के बीच बच्चों का क्या काम,” रुक्मिणी देवी ने प्यार से उन्हें थपथपाते हुए कहा, तो राशि और हार्दिक कमरे में चले गए.

‘‘देखिए, हम तो एक ही बच्चा चाहते हैं, वह भी एक साल से छोटा, जिसे हम अपने समान ढाल सकें,’’ कामायिनी बोली.

‘‘हम आप की बात समझते हैं, पर हम अपने बच्चों को अलग नहीं कर सकते. मातापिता से अलग हो कर उन्हें एकदूसरे के साथ का ही तो सहारा है,’’ नीलेश बाबू दुखी स्वर में बोले.

‘‘वही तो, आप ने तो बच्चों को उन के मातापिता के निधन के बारे में कुछ बताया तक नहीं है. यदि आप उन्हें बता देते तो अब तक तो वे संभल जाते. इस बात को आप कब तक उन से छिपाएंगे.’’

‘‘हो सकता है कि आप ठीक कह रहे हों, पर हमारे विचार आप से पूरी तरह भिन्न हैं. हम नहीं चाहते कि इतने छोटे बच्चों को ऐसी भयानक सचाई बता कर आहत कर दें,’’ रुक्मिणी देवी आहत हो उठीं.

‘‘श्रीधर बाबू, उस संबंध में पूछिए न,’’ कमलेश्वर ने समाजसेवक श्रीधर से कहा.

‘‘आप ही पूछ लीजिए. मैं नहीं चाहता कि दोनों पक्षों के बीच कुछ गुप्त रहे.’’

‘‘बात क्या है,’’ नीलेश बाबू हैरान स्वर में बोले.

‘‘हम पूछना तो नहीं चाहते, पर बच्चों के भविष्य के बारे में कोई निर्णय लेने से पहले यह जानना भी जरूरी है.’’

‘‘हां, कहिए न, हम भी कुछ छिपाना नहीं चाहते.’’

‘‘आप की पुत्री का परिवार अपेक्षाकृत संपन्न ही था न, नीलेश बाबू,’’ कमलेश्वर ने पूछा.

‘‘जी हां, पर आप यह क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘अब, जब उन के परिवार में इन बच्चों के अलावा और कोई नहीं बचा है, तो जोकुछ परिवार की संपत्ति है इन बच्चों के नाम ही की जानी चाहिए,’’ कामायिनी ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया.

‘‘देखिए, खातापीता परिवार था हमारी बेटी का, पर भूंकप में सब स्वाहा हो गया. घर का खंडहर अवश्य खड़ा है. उस भूमि का, जो भी मूल्य हो. उस के अलावा नकदी, गहनों या बैंक में जमा पैसे के बारे में हम कुछ नहीं जानते,’’ इस बार उत्तर रुक्मिणी देवी ने दिया.

‘‘तो पता कीजिए न, नीलेश बाबू. अब संसार में आप के अलावा इन का है ही कौन?’’ कमलेश्वर ने कहा और चलने को उठ खड़े हुए.

मंगल के क्रोधित चेहरे का बदलता रंग नीलेश से छिपा नहीं रहा था. वह कुछ कहता, इस से पहले ही उन्होंने इशारे से उसे शांत रहने को कहा.

कमलेश्वर और कामायिनी श्रीधर के साथ बाहर निकल गए. कुछ देर बाद श्रीधर फिर आया और बोला, ‘‘आप गलत मत समझिएगा, नीलेश बाबू, हाल ही में कमलेश्वरजी को व्यापार में भारी घाटा हुआ है. वे अब ऐसे अनाथ बच्चे को गोद लेना चाहते हैं जिस के नाम कम से कम 10 लाख रुपए तो हों, ताकि उस रकम से उन का व्यापार पटरी पर आ सके.’’

‘‘भूकंप ने कई अभागों को अनाथ बना दिया है. कोई ‘आंख का अंधा, गांठ का पूरा’ मिल ही जाएगा. तो क्षमा ही कीजिए,’’ कहते हुए नीलेश बाबू ने हाथ जोड़ दिए.

‘‘देख लीजिए, परिवार बहुत शालीन व सुसंस्कृत है,” श्रीधर ने सिफारिश की.

‘‘नहीं, श्रीधर बाबू, यह संभव नहीं हो सकेगा. हम बूढ़े व अशक्त ही सही. इन का मामा मंगल इन का लालनपालन बिना किसी लालच के कर सकता है.”

श्रीधर ने 2-4 निसंतान दंपतियों को नीलेश बाबू व रुक्मिणी देवी से और मिलवाया, पर हर जगह किसी न किसी रूप में धनसंपत्ति का प्रश्न आ जाता.

एक दिन मंगल ने स्पष्ट स्वर में घोषणा कर दी थी कि राशि और हार्दिक कहीं नहीं जाएंगे. वे उन के साथ ही रहेंगे. यदि नीलेश बाबू व रुक्मिणी देवी चाहें तो वह आजीवन अविवाहित रहने को भी तैयार है.

“दूसरा भीष्म पितामह बनने की जरूरत नहीं है. हम तुम्हारे लिए ऐसी पत्नी ढूंढ़ेंगे, जो राशि और हार्दिक का भार भी संभालने को तैयार हो,” रुक्मिणी देवी ने मंगल की बात पर अपनी मुहर लगा दी.

जीवन अपने ही ढर्रे पर चलने लगा. राशि और हार्दिक का स्कूल में दाखिला करवा दिया गया. बच्चे भी ननिहाल में घुलनेमिलने लगे. लगता था, कुछ ही समय में सबकुछ सामान्य हो जाएगा, पर एक दिन अचानक ही राशि और हार्दिक की दूर रिश्ते की बूआ ऋचा आ पहुंची. आते ही राशि और हार्दिक को गले लगा कर वह विलाप करने लगी, ‘‘कैसी विपत्ति आई है मेरे बच्चों पर? इतनी कम उम्र में मातापिता, चाचा, दादी सब सिधार गए. मैं ने सोचा, इन बच्चों का भार आगे से मैं ही उठाऊंगी.’’

‘‘मेरी दीदी, जीजाजी को एक तो 6 माह से ऊपर हो गए, आज अचानक ही राशि और हार्दिक की याद कैसे आ गई,’’ मंगल ने व्यंग्य किया.

‘‘बनो मत मंगल, हम भी इसी धरती पर रहते हैं. तुम भी तो इन बच्चों को गोद देने वाले थे, फिर इरादा कैसे बदल दिया. पर यह मत समझना कि 10 लाख रुपए अकेले ही हड़प जाओगे,’’ ऋचा बोली.

‘‘10 लाख रुपए? किस 10 लाख रुपए की बात कर रही हो.’’

‘‘इतने भोले मत बनो, जैसे कि तुम जानते ही नहीं कि राशि और हार्दिक को 10 लाख रुपए बीमे की रकम मिलने वाली है.”

‘‘ओह, तो इसीलिए राशि व हार्दिक के प्रति आप का स्नेह उमड़ पड़ा है,’’ कहता हुआ मंगल व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘मैं आप का अनादर नहीं करना चाहता. पर आप यहां से चली जाएं, इसी में सब की भलाई है,’’ मंगल क्रोधित स्वर में बोला.

‘‘ठीक है, अभी तो मैं चली जाती हूं, पर मैं फिर आऊंगी. रकम तुम्हें अकेले नहीं हजम करने दूंगी,” कहती हुई ऋचा चली गई.

अब सब का ध्यान राशि और हार्दिक की ओर गया था. वे दोनों पत्थर की मूरत बने बैठे थे.

‘‘क्या हुआ?’’ रुक्मिणी देवी ने पूछा.

‘‘मम्मीपापा दवा लेने नहीं गए हैं न, नानीमां. वे अब कभी नहीं आएंगे न,’’ राशि ने रोंआसे स्वर में पूछा और जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही दोनों बच्चे फूटफूट कर रो पड़े. नीलेश बाबू, मंगल और रुक्मिणी देवी उन्हें चुप कराने का प्रयत्न कर रहे थे, तभी फोन की घंटी बज उठी.

‘‘राशि और हार्दिक कैसे हैं? मैं उन का चचेरा चाचा प्रसून बोल रहा हूं.’’

‘‘ओह, काफी जल्दी याद आई है, उन की. स्वयं ही आ कर देख लीजिए न,’’ कह कर मंगल ने रिसीवर पटक दिया.

‘‘लगता है, इन बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए किसी वकील से सलाह लेनी पड़ेगी,’’ कहते हुए नीलेश बाबू बाहर निकल गए. Social Story In Hindi

Family Story : फर्ज की याद – गणेशी के हाथ से सुनील ने क्यों नही पिया पानी

Family Story : जब से सुनील शर्मा इस दफ्तर में प्रमोशन ले कर आए हैं तब से वे कभी चपरासी गणेशी से पानी नहीं मंगाते हैं. वे खुद ही उठ कर पी आते हैं, चाहे मेज पर कितना भी काम हो.

गणेशी कई दिनों से सुनील शर्मा की इस आदत को देख रहा था. आज भी जब वे पानी पी कर अपनी मेज पर आ कर बैठे तब गणेशी आ कर बोला, ‘‘बाबूजी, एक बात कहूं…’’

‘‘कहो,’’ सुनील शर्मा ने नजर उठा कर गणेशी की तरफ देखा.

‘‘जब से आप आए हो, उठ कर पानी पीते हो.’’

‘‘हां, पीता हूं,’’ सुनील शर्मा ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘आप मुझे आदेश दे दिया करें न, मैं पिला दिया करूंगा. आखिर मेरी ड्यूटी पानी पिलाने की ही है,’’ गणेशी ने सवालिया निगाहों से पूछा.

‘‘देखो गणेशी, मेरा उसूल है कि अपना काम खुद करना चाहिए,’’ सुनील शर्मा ने अपनी बात रखी.

‘‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी पीना नहीं चाहते हैं,’’ गणेशी ने यह कह कर गुस्से से सुनील शर्मा को देखा.

सुनील शर्मा तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाए. गणेशी फिर बोला, ‘‘मगर, मैं सब जानता हूं बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पीना चाहते हैं.’’

‘‘क्या जानते हो?’’

‘‘मैं अछूत हूं, इसलिए आप मेरा दिया पानी नहीं पीना चाहते हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है गणेशीजी, मैं छुआछूत को नहीं मानता हूं.’’

‘‘फिर मुझ से पानी मंगा कर क्यों नहीं पीते हो?’’

‘‘देखो गणेशीजी, आप चपरासी हो. मैं जब से इस दफ्तर में आया हूं, किसी को आप ने अपनी मरजी से पानी नहीं पिलाया. जिस बाबू ने पानी पीने के लिए कहा तब कहीं जा कर आप ने पिलाया…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘इसी बात को मैं कई दिनों से देख रहा था, जबकि तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि बाबुओं को बिना मांगे पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘बाबूजी, जब प्यास लगती है तभी तो पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘नहीं, यही तो आप गलती कर रहे हो. बिना मांगे पानी ले कर हर मेज पर पहुंच जाना चाहिए. यही एक चपरासी का फर्ज होता है…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘यही वजह है कि मैं खुद उठ कर पानी पीता हूं. आप ने आज तक अपनी मरजी से मुझे पानी नहीं पिलाया है.’’

‘‘अरे बाबूजी, आप ही पहले ऐसे आदमी हो वरना सभी बाबू मांग कर पानी पीते हैं. आप ही ऐसे हैं जो मुझे अछूत समझ कर पानी नहीं मंगाते हो,’’ गणेशी ने आरोप लगाते हुए कहा.

सुनील शर्मा सोच में डूब गए. गणेशी उन की बात का उलटा मतलब ले रहा है. वे कुछ और जवाब दें, इस से पहले ही साहब की घंटी बज उठी. गणेशी साहब के केबिन में चला गया.

सुनील शर्मा मन ही मन झुंझला उठे. पास की मेज पर बैठे मुकेश भाटी बोले, ‘‘शर्माजी, देख लिए गणेशी के तेवर. आप की बात का उस पर कोई असर नहीं पड़ा.’’

‘‘हां भाटीजी, असर तो नहीं पड़ा,’’ उन्होंने भी स्वीकार करते हुए कहा.

‘‘इसलिए मैं कहता हूं कि अपने उसूल छोड़ दो वरना यह आप पर छुआछूत बरतने का केस दायर कर देगा…’’ समझाते हुए मुकेश भाटी बोले, ‘‘फिर कचहरी के चक्कर काटते रहना क्योंकि कानून भी इस का ही पक्ष लेगा.’’

‘‘देखो भाटीजी, मैं तो उस को अपने फर्ज की याद दिला रहा था.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है शर्माजी. जिस को अपना फर्ज समझना ही नहीं है उसे याद दिलाना फुजूल है. उस से बहस कर के खुद का सिर फोड़ना है. फिर मेरा काम था समझाने का समझा दिया. आप अपने उसूलों पर ही रहना चाहते हो तो रहो. कल को कुछ हो जाए, तो फिर मुझे कुछ मत कहना,’’ कह कर मुकेश भाटी अपने काम में लग गए.

सुनील शर्मा के भीतर इन बातों को सुन कर हलचल मच गई. अब पहले वाला जमाना नहीं है. सरकार भी रिजर्वेशन के तहत सब महकमों में इन की भरती करती जा रही है, इसलिए चपरासी से ले कर अफसर तक ये ही मिलेंगे.

जिस परिवार में सुनील शर्मा का जन्म हुआ है, वह ब्राह्मण परिवार है. 1970 के पहले उन का ठेठ देहाती गांव था. छुआछूत का जोर था. किसी अछूत को छूना भी पाप समझा जाता था, इसलिए वे गांव में ही अलग बस्ती में रहते थे.

सुनील शर्मा के पिता गंगा सागर गांव में शादीब्याह कराने और कथा बांचने का काम करते थे. वे यह काम केवल ऊंची जाति वालों के यहां किया करते थे. निचली जाति के लोगों के यहां कर्मकांड के लिए वे मना कर दिया करते थे.

गांव की दलित बस्ती गंगा सागर से बहुत नाराज रहती थी. मगर वे कर कुछ नहीं पाते थे, क्योंकि उन की चलती ही नहीं थी.

जब कोई दलित किसी काम से गंगा सागर के पास आता था, तो वे उन्हें बाहर बिठा कर संस्कार करा देते थे. बदले में वे कुछ सिक्के देते थे, जिन्हें वे जमीन पर ही रखवा देते थे. तब यजमान मखौल उड़ा कर कहते थे, ‘पंडितजी, यह कैसा नियम. मेरे हाथ से नहीं लिया, मगर हाथ से अपवित्र सिक्के को आप ने ग्रहण कर लिया तो अपवित्र नहीं हुए.’

बदले में गंगा सागर संस्कृत में शुद्धीकरण के श्लोक पढ़ कर उसे शुद्धी का पाठ पढ़ा देते थे.

उस समय दलितों में कूटकूट कर अपढ़ता भरी थी. विरोध करने के बजाय वे सबकुछ सच मान लेते थे. गांव में कोई गंगा सागर को दलित दिख जाता, तो वे उस से बच कर निकलते थे.

मगर जैसेजैसे दिन बीतते रहे, छुआछूत की यह परंपरा शहरों में खत्म होने के साथसाथ गांवों में भी खत्म होने लगी थी. अब तो न के बराबर रही है. अब भी कुछ पुराने लोग हैं जो छुआछूत को मानते हैं क्योंकि वे उसी जमाने में जी रहे हैं.

सुनील शर्मा को आज नौकरी करते हुए 32 साल हो गए हैं. इन 32 सालों में उन्होंने बहुतकुछ देख लिया है. रिटायरमैंट में 3 साल बचे हैं. गणेशी जैसे कितने ही लोग हैं जो इस दलित अवसर को भुनाना चाहते हैं. इन को सामान्य वर्ग के प्रति हमेशा से नफरत थी, जो विष बीज बन कर वट वृक्ष

बन गई है. सरकार ने साल 1989 में इन के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने पर बैन लगा दिया है, तब से ही इन के हौसले बढ़ने लगे हैं.

‘‘अरे शर्माजी, पानी पीयो,’’ इस आवाज से सुनील शर्मा की सारी विचारधारा भंग हो गई.

गणेशी गिलास लिए उन के सामने खड़ा था. उन्होंने गटागट पानी पी कर वापस उसे गिलास थमा दिया.

गणेशी बोला, ‘‘बाबूजी, आप ने मुझे मेरा फर्ज याद दिला दिया.’’

‘‘वह कैसे गणेशीजी?’’ हैरानी से सुनील शर्मा ने पूछा.

‘‘देखिए बाबूजी, अब तक जो मांगता था, उसे ही मैं पानी पिलाता था, मगर आप ने यह कह कर मेरी आंखें खोल दीं कि पानी तो हर मेज पर जा कर पिलाना चाहिए, इसलिए आज से ही मैं ने आप से शुरुआत की है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा काम किया गणेशीजी. चलो, मेरी बात पर आप ने गौर तो किया.’’

‘‘हां बाबूजी, अब मुझे किसी को फर्ज की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ कह कर गणेशी चला गया.

मगर सुनील शर्मा उस में अचानक आए इस बदलाव को देख कर हैरान थे. Family Story

AI Monkey : सोशल मीडिया पर तार्किक एआई बंदर कर रहे पाखंड का भांडाफोड़

AI Monkey : इंस्टाग्राम में एआई बंदर खूब वायरल हो रहे हैं जो तर्क की बातें कर धार्मिक पाखंड पर चोट करते हैं. दिलचस्प यह कि इन की वेशभूषा धार्मिक सरीकी है और बातें ठीक विपरीत.

विज्ञान तकनीक देता है. तकनीक सहूलियत देता है. इस का इस्तेमाल कैसे करना है यह इंसान पर निर्भर करता है. यही इंसान इसी तकनीक का इस्तेमाल विज्ञान को गाली देने में भी कर सकता है.

अकसर सत्संगों, धर्म सभाओं में माइक स्पीकर, एसी कूलर, आरो का पानी पीपी कर तमाम ऐयाशियों में जी रहे कथावाचक व बाबा विज्ञान को कोसते रहते हैं. वे कहते हैं कि सब मोहमाया है और अध्यात्म ही असल सच है, जबकि सब से ज्यादा मोह से यही घिरे रहते हैं. गुची के बैग से ले कर रोल्स रोयस गाड़ी तक, रे बेन के चश्मों से ले कर पराडा के स्नीकर तक, क्याक्या ये इस्तेमाल नहीं करते. मगर जैसे ही बात दूसरों को प्रवचन देने की आती है तो अध्यात्म का चूर्ण बाटने लगते हैं.

हालांकि जैसे को तैसा भी कुछ लोग देते रहते हैं. ऐसे ही सोशल मीडिया पर आजकल इन्हीं पाखंडियों की धोती खोलने वाले एक एआई बंदर बाबा बवाल काटे हुआ है. बंदर लीला योगी नाम से इस एआई बंदर ने अभी तक मात्र 18 पोस्ट की हैं और रीच ऐसी कि मेटा सोफ्टवेयर भी हैरान हो जाए. एआई का ऐसा भी इस्तेमाल हो सकता है यह अपनेआप में अनोखा प्रयोग है.

इस अकाउंट में एक एआई द्वारा निर्मित बंदर है जो इमेजनरी कथावाचक बाबा बना है. इस की रील्स में इस बंदर बाबा का सत्संग चलता है. सत्संग में एआई से ही लोगों की भीड़ हाथ जोड़े दिखाई देती है. जैसे ही बाबा कुछ कहती है ये लोग अपने भाव उसी तरह बनाते हैं, जैसे धार्मिक कथावाचकों के सत्संगों में आई भीड़. भव्य नजारा ऐसा होता है जैसा धीरेंद्र शास्त्री या अनिरुद्धाचार्य के सत्संगों में होता है. पीछे स्क्रीन पर विषय से संबंधित स्लाइड चलती रहती है.

‘बंदर लीला योगी’ नाम के इस बंदर के हाथ में एक माइक है और कपड़े भगवा पहना हुआ है. देख कर लगता है इसे जानबूझ कर भगवा कपड़े पहनाए गए हैं, मगर ज्ञान की ऐसी बातें करता है, जो धर्म में अंधे जाहिलों का सीना चीर दे. दरअसल इस का कांसेप्ट थोड़ा अलग है, यह बाबा धर्म सत्संग लगा कर धार्मिक पाखंड की ही बखियां उधेड़ रहा है.

यही इसे अनोखा और क्रिएटिव भी बना रहा है और लोगों के बीच वायरल भी करा रहा है. जैसे एक रील में यह बंदर कहता है, “जब भगवान को प्रसाद चढ़ाते हैं तो सब में बांटते हैं,’ एआई वाले लोग ‘हां’ कहते हैं. फिर कहता है, ‘जब भगवान को चढ़ाया प्रसाद लोगों में बांटते हैं तो भगवान को चढ़ाया पैसा लोगों में क्यों नहीं बांटते?’ अपनी इस पहली ही रील में इस ने 18 लाख रीच हासिल कर ली.

अपनी एक और वीडियो में यह कहता है, “यह कैसा धर्म है कि सोमवार मंगलवार को मांस खाने पर तो भ्रष्ट होता है मगर मंगलवार को खाया जाए तो कुछ नहीं होता है.” वह कटाक्ष करते आगे कहता है, “भक्तों अब सावन ख़त्म हो गया है अब मुर्गों बकरों को पवित्र आहार में गिन सकते हैं.” वह कहता है, “जो सावन में दूसरों की थाली की हड्डी देख कर अपना धर्म आहात कर लेते थे. सावन ख़त्म होते ही वही भक्त मांस पर ऐसे टूट पड़ा है जैसे उस की सारी भक्ति सारी पवित्रता मांसाहार के लिए बैचेन थी.”

इस की रील्स धर्म और धर्म की दुकान खोले हुए बाबाओं पर चोट करती हैं. क्योंकि जो धार्मिक कथावाचक लोगों को भगवा कपड़े पहन कर भाग्यवादी और अंधविश्वासी बना रहे हैं उसी पोशाक को ओढ़े यह बंदर धार्मिक कर्मकांडों की पोल खोल रहा है. यहां तक कि देश की बेहाल स्थिति पर सरकार से सवाल कर रहा है.

अपनी एक रील में यह कहता है, “जिस देश में सरकारी स्कूलों की छत टपकती हों और मंदिरों की छतें सोने से जड़ी हों उस देश में विकास नहीं हो सकता. अगर मंदिरों में भगवान का पैसा जमा है उस पैसे से सरकारी स्कूलों को ठीक कर दिया जाए तो भारत विकसित हो सकता है लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि कुछ लोगों को डर है आप के बच्चे पढ़लिख गए तो सवाल पूछने लगेंगे.”

यह नहीं भूलना चाहिए, यह बंदर ऐसे समय में ये रीलें बना रहा है जहां सत्ताविरोधी बात करने पर या तो चैनल डब्बा बंद कर दिया जाता है या धारा वारा लगा या डराधमका कर चुप करा दिया जाता है.

हाल में हुए एसएससी छात्रों के विरोध प्रदर्शन पर भी इस ने रील बनाई है. इस में वह छात्रों के समर्थन में कहता है, “हमें ऐसा सिस्टम चाहिए जिस में पेपर लीक न हो और कोई हेरफेर न हो. लोकतंत्र की खूबी यह है कि आप अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं, मगर दिक्कत यह है कि आवाज सुनी नहीं जाती और बात मनवाने के लिए विरोध लंबा करना पड़ता है.

यही नहीं, बिहार में हो रहे चुनाव आयोग के एसआईआर सर्वे पर भी इस बंदर ने सवाल उठाए. बंदर अपनी एक वीडियो में कहता है, “बिहार में इन लोगों ने वोटबंदी लगा दी है. पहले नोटबंदी में लाइन में लगाया अब वोटबंदी में. बिहार की भयानक बारिश और बाढ़ में आप कहते हो कि 50 साल पुराना कागज़ ढूंढ के लाओ. जो आदमी दिनभर में कंस्ट्रक्शन साईट पर ईंट ढो रहा है वो रात को रोटी बनाए या फौर्म भरे. एक पढ़ेलिखे आदमी को भी औनलाइन फौर्म भरने में पसीना छूट जाता है और आप यह गरीब अनपढ़ों से भरने को कह रहे हैं. वह आगे कहता है,v “चुनाव आयोग कहता है वोटर लिस्ट में इमिग्रेंट्स हैं, विदेशी हैं, जब इन से पूछो कि कितने हैं तो कुछ नहीं कहते. यह विपक्ष के वजूद की अंतिम लड़ाई है.”

दिखने में अनोखा और हैरान करने वाला यह बंदर ऐसा नहीं है कि अपनी तकनीक के चलते वायरल हो रहा है. एआई या एनीमेशन का इस्तेमाल आज हर चौथा आदमी कर ही रहा है. लेकिन बड़ी बात यह कि इस बंदर के पीछे बैठा आदमी इस का इस्तेमाल काफी सोचसमझ कर धर्म और सत्ता की काट के लिए कर रहा है.

जाहिर है इन रीलों के पीछे जरूर विज्ञान और तर्क के आधार पर अपनी बात रखने वाला आदमी है. बंदर चूंकि हिंदू धर्म में पूजनीय बना दिया गया है, और बहुत आम सा जानवर है इसलिए उस ने काफी सोच समझ कर बंदर के चेहरे का इस्तेमाल किया है और सत्संग को अपनी बात पहुंचाने का जरिया बनाया है. वही सत्संग जिसे कथावाचक ताकत, पैसा और अय्याशी पाने का जरिया बनाए हुए हैं.

फिलहाल इस ने अपनी पहचान गुप्त रखी हुई है, मगर इंस्टाग्राम पर इस ने एक लिंक दिया है जिस का प्रोफाइल नाम ‘मान सिंह’ है. इस के अलावा यह ट्विटर पर भी इसी नाम से ख़ासा एक्टिव है. जहां इस के 5 हजार फौलोवर्स हैं.

हालांकि ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया पर यह एकलौता ऐसा बंदर है. वर्चुअल बंदर अब ढेरों में दिखने लगे हैं. कुछ व्लौग बना रहे हैं. ऐसा ही एक व्लौगर एआई बंदर ‘व्लौगर बबलू एआई’ के नाम से है. यह बंदर अलगअलग जगह घूमता है. व्लौग बनाता है. इस बंदर की भी पोशाक भगवा है मगर इस की रील्स उतनी सामाजिक नहीं जितनी ‘बंदर लीला’ की हैं. हां बीचबीच में जरूर सामाजिक मुद्दों पर बार करता है. मगर अधिकतर हंसीमजाक वाली वीडियो होती हैं. मगरयह तय है कि इसे बनाने में जरूर दिमाग और मेहनत लग रही है. इस बंदर को बनाने वाला ‘लखन सिंह’ नाम का इंस्टाग्राम यूजर है.

साकेत सचिन नाम से एक अन्य यूजर है जिस के 34 हजार फौलोवर्स हैं. अपने पेज पर वह अधिकतर अम्बेडरवादी पोस्ट करता है. उस ने भी कुछ एआई बंदर की रील्स पोस्ट की हैं. अनोखा यह कि इस में बंदर ने भगवा कपड़े की जगह नीले कपड़े पहने हैं. इसे डा. भीम राव आंबेडकर का एआई बंदर वर्जन कहा जा सकता है, जिस के हाथ में संविधान की प्रति भी है.

इस रील में एआई आंबेडकर कहता है, “दुनिया में इंसान एक तरह से पैदा होते हैं. यह अकेला ऐसा देश है जहां कोई मुख से पैदा हो गया, कोई भुजाओं से पैदा हो गया. जब हमारे देश में ऐसी टैक्नोलौजी है तो फ्रांस से राफेल और रूस से एस400 मंगाने की क्या जरूरत?”

इस के अलावा धर्मेन्द्र कुमार नाम से एक और इंस्टाग्राम यूजर है. इन के इंस्टाग्राम पर 70 हजार के लगभग फौलोवर्स हैं. ये फेसबुक और यूट्यूब पर भी एक्टिव हैं. उम्र में 40-45 साल के दिखाई पड़ते हैं. साधारण से हैं. छोटी सी किराना दुकान चलाते हैं. इन की बायो बताती है कि ये गोरखपुर के हैं. ये भी एआई बंदर का इस्तेमाल करते हैं. बल्कि ये ज्यादा वोकल दिखाई पड़ते हैं.

इन की एक रील में जब एक महिला बंदर से सवाल करती हैं कि लोग कहते हैं गाय का मूत्र सब से पवित्र होता है इस पर क्या जवाब देंगे. तो बंदर जवाब देता है, “यदि गौमूत्र पवित्र होता तो भगवान् को चढ़ाना चाहिए मंदिर में जाके. तो प्रसाद न चढ़ा कर रोज एक लोटा गौमूत्र चढ़ाना चाहिए. इस से वे भी पवित्र हो जाएंगे.”

एक और रील में वह कहता है, “भगवान को सोने का मुकुट चढ़ाने से पहले किसी भूखे को रोटी चढ़ाओ. भक्ति का मतलब भीड़ में धक्का देना नहीं किसी गिरते को संभालना है.”

इन एआई बंदरों के पीछे बैठे दिमागों को देख कर लगता है कि विज्ञान की कृत्रिम बौद्धिकता के पीछे भी बुद्धि की जरूरत होती है. तकनीक का इस्तेमाल हर तरह से किया जा सकता है. यही तकनीक धर्मान्धियों के लिए पाखंड फैलाने का साधन भी बनती है, मगर पाखंड का विरोध करने वालों का जरिया भी बन सकती है. यह इंसान को ही तय करना होता है कि वह इस का कैसे इस्तेमाल करे. एआई का इस्तेमाल कर कुछ तार्किक लोग अपनी बात कह पा रहे हैं यह अच्छी बात है. मगर अभी भी इन वैज्ञानिक प्लेटफौर्मो पर पाखंडियों का ही कब्ज़ा है. AI Monkey

Life Lessons : खाई में न गिर जाएं

Life Lessons : सरकार चलानी हो, जीवन चलाना हो, परिवार चलाना हो, दफ्तर या दुकान चलानी हो, याद रखो कुछ भी सीधा पूर्व निर्धारित नहीं होता. हर क्षण स्थितियां बदलती हैं, बिगड़ती हैं, बनती हैं. यह वह रस्सी नहीं है जिसे पकड़ कर आप सीधे पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाएं. यह वह रास्ता है जिस में सैकड़ों पगडंडियां हैं, हजारों मोड़ हैं और कब कौन सा रास्ता आप को लक्ष्य की ओर ले जाए और कौन सा बीच में फंसा दे, पता नहीं.

जो इस बात को समझ कर अपने लक्ष्य या किसी मुकाम पर पहुंच जाते हैं वे अकसर अपनी गौरवगाथा इस तरह लिखते हैं मानो उन्हें मालूम था कि उन्होंने जो रस्सी पकड़ी, जो पगडंडी चुनी, जिस अवरोध को हटाया उस का अंदाजा उन्हें था. यह केवल संयोग था या उन का परिश्रम. उन्होंने सही रास्ता चुना, हर रुकावट को मेहनत से हटाया. तभी वे लोग प्रधानमंत्री बने, तभी महात्मा गांधी बने, तभी हिटलर बने, तभी मुसोलिनी बने, तभी माओ बने, तभी नेहरू या बराक ओबामा बने.

आम आदमी अकसर ज्ञानियों के चरणों में बैठ कर सही मार्ग पूछते हैं. यह मूर्खता है. मार्ग को तो खुद ढूंढ़ना होता है. ज्ञानी, जो दुकान लगा कर बैठे होते हैं, सिर्फ सपने दिखाते हैं. वे कहते हैं, ‘सही रस्सी ढूंढ़ों, सही रास्ता चुनो, अवरोध को हटाओ.’ पर कैसे, यह उन्हें भी नहीं मालूम. हजारों नहीं, अरबों लोग इन ज्ञानियों के आगे मार्गदर्शन के लिए हाथ फैलाए रहते हैं. अपनी बुद्धि, विवेक, परिश्रम से जो थोड़ाबहुत उन्होंने पाया है, उस को वे उन पर लुटाते रहते हैं और फिर वहीं के वहीं रह जाते हैं.

हर जने में क्षमता है कि वह उस मार्ग को ढूंढ़ सके जो उसे उस के लक्ष्य तक ले जाए. आखिर यों ही मानव ने 5,000 साल पहले बड़ेबड़े निर्माण नहीं कर लिए थे. मेसोपटामिया, इजिप्ट, मोहनजोदड़ो, रोमन साम्राज्य सब मिट्टी से शुरू हुए थे. कोरी मिट्टी, कोरे पत्थरों, कोरी जमीन पर बने विशाल स्ट्रक्चर आज भी भौचक्का कर रहे हैं. उन के निर्माताओं ने सही लक्ष्य चुना. गलतियां की होंगी पर उन्हें सुधारा. वे हमारे लिए अद्भुत धरोहर छोड़ गए हैं.

पिछले 200 सालों में विज्ञान की इस कला ने एक नया मार्ग दिखाया है. टेढ़ी जगह को भी सीधा करो. ऊंचे पहाड़ों में सड़कें बनाओ, फिर उन में गुफाओं को बना कर सड़कों को सीधा करो. पानी पर तैरो, फिर जहाज बनाओ. विज्ञान ने हमेशा नई रस्सी बनाई है. पुरानी रस्सी पर चल कर जहां तक पहुंचे, उस से आगे का रास्ता विज्ञान ने बनाया है. हर जना विज्ञान से सीख सकता है कि कुछ भी अपनेआप नहीं होता. कुछ पकता नहीं, पकाया जाता है. कुछ बनता नहीं, बनाया जाता है.

आप की वह इच्छा कहां है जो कुछ बनाने की हो. नहीं है, तो उसे ढूंढ़ो, उसे पैदा करो. जिस समाज ने कोरी जमीन पर सड़कें बनाईं, वह आगे रहता है. अमेरिका 400 साल में वहां पहुंचा हुआ है जहां एशिया, यूरोप या अफ्रीका के 5,000 साल पुराने देश नहीं पहुंचे. अमेरिका में दरअसल कुछ नया करने की इच्छा थी. आज भी हम पुरानी रस्सी को ढूंढ़ रहे हैं. सो, पक्का है कि पहाड़ से गिर कर खाई में गिरेंगे. Life Lessons

Hindi Love Stories : 20 सालों का लिव इन

Hindi Love Stories : रविवार का दिन था. शकुंतला और कमलेश डाइनिंग टेबल पर बैठ कर नाश्ता कर रहे थे.

“शकुंतला, क्यों न हम शादी कर लें?” कमलेश ने कहा.

चौंक गई शकुंतला. आज 20 सालों से वह कमलेश के साथ लिव इन रिलेशन में रह रही है. आज तक शादी की बात उस ने सोची नहीं फिर आज ऐसा क्या हो गया? पहली बार कमलेश से जब वह मिली थी तो 32 साल की थी. कमलेश उस समय 40 का रहा होगा. परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि दोनों अकेले थे.

“क्यों, ऐसा क्या हुआ कि तुम शादी की सोचने लगे? पिछले 20 सालों से हम बगैर शादी किए रह रहे हैं और बहुत ही इत्मीनान से रह रहे हैं. कभी कोई समस्या नहीं आई. अगर आई भी तो हम ने मिलजुल कर उस का समाधान कर लिया. फिर आज ऐसी क्या बात हो गई?” कुछ देर सोचने के बाद शकुंतला ने कहा.

“ऐसा है, शकुंतला कि हमारी उम्र हो चुकी है. मैं 60 का हो गया और तुम 52 की. यह बात सही है कि हम बिना शादी किए भी बहुत मजे में बड़ी समझदारी और तालमेल के साथ जिंदगी जी रहे हैं. पर मैं कानूनी दृष्टिकोण से सोच रहा हूं. अगर हम दोनों में से किसी को कुछ हो गया तो हमें कानूनन पतिपत्नी होने पर विधिक दृष्टि से लाभ होगा. बस, यही सोच कर मैं ऐसा कह रहा हूं. मुझ पर किसी प्रकार का शक न करो,” कमलेश ने कहा.

“शक नहीं कर रही, कमलेश. तुम मेरे हमसफर रहे हो पिछले 20 सालों से और मैं गर्व के साथ कह सकती हूं कि तुम से ज्यादा प्यारा कोई नहीं मेरी जिंदगी में. बस, मैं यही सोच रही हूं कि जब सबकुछ सही चल रहा है तो क्यों न हम कुछ नया करने की सोचें. हम दोनों ने जो बीमा पौलिसी ली है उस में एकदूसरे को नौमिनी बनाया है. हमारे बैंक खातों में भी हम एकदूसरे के नौमिनी हैं. फिर और क्या आवश्यकता है ऐसा सोचने की. पर तुम ने कुछ सोच कर ही ऐसा कहा होगा.

“ऐसा करते हैं, 1-2 दिनों के बाद इस पर विचार करते हैं. पहले मुझे इस नए प्रस्ताव के बारे में सोच लेने दो,” शकुंतला ने कहा.

“बिलकुल, आराम से सोच लो. जो भी होगा तुम्हारी सहमति से ही होगा,“ कमलेश ने मुसकरा कर कहा.

फुरसत में बैठने पर शकुंतला सोचने लगी थी कि जब पहली बार वह कमलेश से मिली थी. दोनों अलगअलग कंपनियों में काम करते थे. कमलेश जिस कंपनी में काम करता था उस कंपनी से शकुंतला की कंपनी का व्यावसायिक संबंध था. इस नाते दोनों की अकसर मुलाकातें होती रहती थीं. पहले परिचय हुआ फिर दोस्ती. शकुंतला की शादी बचपन में ही हो गई थी और पति से मिलने से पहले ही वह विधवा भी हो गई थी.

उन दिनों विधवा विवाह को सही निगाहों से नहीं देखा जाता था और यही कारण था कि उस का विवाह नहीं हो पाया था. आज भी विधवा विवाह कम ही होते हैं. कमलेश को न जाने क्यों विवाह संस्था में विश्वास नहीं था और शुरुआती दौर में उस ने शादी के लिए मना कर दिया था. बाद में जब 35 से ऊपर का हो गया था तो रिश्ते आने भी बंद हो गए. थकहार कर घर वालों ने भी दबाव देना बंद कर दिया था और कमलेश अकेला रह गया.

दोनों की जिंदगी में कोई नहीं था. दोनों के विचार इतने मिलते थे और दोनों एकदूसरे के लिए इतना खयाल रखते थे कि दिल ही दिल में कब एकदूसरे के हो गए पता ही नहीं चला. शकुंतला जिस किराए के फ्लैट में रहती थी उस का मालिक उसे बेचने वाला था और खरीदने वाले को खुद फ्लैट में रहना था. इसलिए शकुंतला को कहीं और फ्लैट की आवश्यकता थी. जब उस ने कमलेश को इस बारे में बताया तो उस ने कहा कि उस के पास 2 कमरों का फ्लैट है. वह चाहे तो एक कमरे में रह सकती है. हौल और किचन साझा प्रयोग किया जाएगा. थोड़ी झिझकी थी शकुंतला. अकेले परपुरुष के साथ रहना क्या ठीक रहेगा. पर कमलेश ने आश्वस्त किया कि वह पूरी सुरक्षा और अधिकार के साथ उस के साथ रह सकती है, तो वह मान गई थी.

एकदूसरे को दोनों पसंद तो करते ही थे, साथसाथ रहने से और भी नजदीकियां बढ़ गईं और शादीशुदा न होने के बावजूद पतिपत्नी की तरह ही दोनों रहने लगे. आसपास के लोग उन्हें पतिपत्नी के रूप में ही जानते थे. इस लिव इन रिलेशन से दोनों खुश थे. दोनों एकदूसरे से प्यार करते थे. कभी किसी प्रकार की समस्या नहीं आई थी अभी तक.

और इतने सालों के बाद कमलेश ने शादी का प्रस्ताव रख दिया था. शकुंतला के मन में कई बातें उभरने लगीं. क्या इस से मेरा व्यक्तिगत जीवन प्रभावित नहीं होगा? क्या शादी करने के बाद हमारे संबंध वैसे ही रह पाएंगे जैसे अभी हैं? क्या शादी के लिए स्पष्ट रूप से नियम और शर्तें निर्धारित कर लिए जाएं? शकुंतला का एक मन तो कह रहा था कि जिस प्रकार वे रह रहे हैं उसी प्रकार रहें. आखिर जब सबकुछ सही चल रहा है तो नए प्रयोग क्यों किए जाएं भला? पर दूसरा मन कह रहा था कि कमलेश के साथ वह इतने सालों से है और वह हमेशा दोनों के हित की बात ही करता था. कभी उस ने सिर्फ अपने स्वार्थ की बात नहीं की. इतने दिनों से वह उसी के फ्लैट में रह रही है. उस का व्यवहार हमेशा एक हितैषी सा रहा है. उस ने जो कहा है वह भी सही हो सकता है. उस से विस्तार से बात करने की आवश्यकता है. आखिर हम 20 सालों से रह रहे हैं और एकदूसरे के साथ खुशीखुशी रह रहे हैं. हम एकदूसरे के साथ खुल कर अपनी बात साझा भी कर सकते हैं.

इसी प्रकार 6-7 दिन बीत गए. इस बारे में न तो कमलेश ने कुछ कहा न शकुंतला ने. कमलेश के दिल की बात तो शकुंतला नहीं जानती थी पर वह हमेशा इस बात पर विचार करती थी. हो सकता है कि कमलेश भी इस बात पर विचार करता होगा पर उस ने दोबारा कभी इस विषय को नहीं उठाया. शायद वह शकुंतला पर किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाना चाहता था.

आज फिर दोनों की कंपनी में अवकाश का दिन था. आज शकुंतला ने फिर डाइनिंग टेबल पर उस विषय को उठाया,”कमलेश, मैं ने तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार किया पर मुझे लगता है, हम जैसे हैं वैसे ही रहें. शादी का सर्टिफिकेट एक कागज का टुकड़ा ही तो होगा. बगैर सर्टिफिकेट के हम आदर्श जोड़े की तरह रह रहे हैं. मेरे विचार से शादी करने की कोई आवश्यकता नहीं है.”

“मैं हमारी स्थाई संपत्ति के बारे में सोच रहा था. मान लो मेरी मृत्यु हो जाए तो मेरे नजदीक दूर के रिश्तेदार इस फ्लैट पर दावा करेंगे. ऐसे में तुम्हें परेशानी होगी. इसी तरह की बातों को ध्यान में रख कर मैं अपने संबंध को एक कानूनी जामा पहनाना चाह रहा था,” कमलेश बोला.

“कमलेश, तुम मेरा कितना खयाल रखते हो. पर यह काम तो हम वसीयत बना कर भी कर सकते हैं. हम दोनों एकदूसरे के नाम वसीयत बना दें तो कोई तीसरा इस प्रकार का दावा नहीं कर पाएगा. हम क्यों शादी का अनावश्यक रश्म निभाएं…”

“देखो शकुंतला, शादी से कई कानूनी और सामाजिक हक मिल जाते हैं पतिपत्नी को. उदाहरण के लिए पत्नी पति की संपत्ति में बराबर हिस्सा पाने की हकदार होती है. साथ ही पति के पैतृक संपत्ति पर भी पत्नी का अधिकार होता है और कोई भी पत्नी से इस अधिकार को छीन नहीं पाएगा. तुम जानती हो कि मेरी पैतृक संपत्ति काफी मूल्यवान है. कुदरत न करे यदि किसी कारण से हम अलगअलग रहने की योजना बना लें तो शादीशुदा होने की स्थिति में पत्नी को गुजाराभत्ता लेने का अधिकार होता है. फिर संयुक्त संपत्ति में भी पत्नी का अधिकार होता है. यह अधिकार लिव इन रिलेशन में उपलब्ध नहीं है.”

“मैं तुम्हारी सभी बातों से सहमत हूं, पर मुझे इस उम्र में जितनी संपत्ति की आवश्यकता है उतनी है मेरे पास. और मुझे नहीं लगता इतने सालों के बाद हम अलग होंगे. इसलिए मेरी सलाह तो यही है कि अब शादी करने की कोई आवश्यकता नहीं है. हां, हम यह वादा करें एकदूसरे से कि जैसे अभी तक साथसाथ रहते आए हैं वैसे ही साथसाथ रहते रहें,” शकुंतला ने कहा.

“चलो, यह भी सही है,” कमलेश ने अपनी सहमति दी. Hindi Love Stories 

Romantic Story In Hindi : आ अब लौट चलें

Romantic Story In Hindi : गजब का आकर्षण था उस अजनबी महिला के चेहरे पर. उस से हुई छोटी सी मुलाकात के बाद दोबारा मिलने की चाह उसे तड़पाने लगी थी. लेकिन यह एकतरफा चाह क्या मृगमरीचिका जैसी नहीं थी? बसस्टौप तक पहुंचतेपहुंचते मेरा सारा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था. पैंट की जेब से रूमाल निकाल कर गरदन के पीछे आया पसीना पोंछा, फिर अपना ब्रीफकेस बैंच पर रख कर इधरउधर देखने लगा. ऊपर बस नंबर लिखे थे. मुझे किसी भी नंबर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.

फिर भी अनमने भाव से कोई जानापहचाना सा नंबर ढूंढ़ने लगा, 26, 212, 50… पता नहीं कौन सी बस मेरे औफिस के आसपास उतार दे. तभी अचानक वहां आई एक महिला से कुछ पूछना चाहा. स्लीवलैस ब्लाउज और पीली प्रिंटेड साड़ी में लिपटी वह महिला बहुत ही तटस्थ भाव से काला चश्मा लगाए एक ओर खड़ी हो गई. महिला के सिवा और कोई था भी नहीं. सकुचाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘सैक्टर 40 के लिए यहां से कोई बस जाएगी क्या?’’ ‘‘827,’’ उस का संक्षिप्त सा उत्तर था. ‘‘क्या आप भी उस तरफ जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

हालांकि मुझे उस अनजान महिला से इस तरह कुछ पूछना तो नहीं चाहिए था परंतु देर तक कोई बस न आती दिखाई दी तो चुप्पी तोड़ने के लिए पूछ ही बैठा. ‘‘जी,’’ उस ने फिर संक्षिप्त उत्तर दिया. आधा घंटा और खड़े रहने के बाद भी कोई बस नहीं आई. 10 बजने वाले थे. देर से औफिस पहुंचूंगा तो कैसे चलेगा. एकदम सुनसान था बसस्टौप. ‘‘क्या सचमुच यहां से बसें जाती हैं?’’ मैं ने मुसकरा कर कहा. हालांकि मैं ने कुछ उत्तर सुनने के लिए नहीं कहा था, मगर फिर भी उस महिला ने कहा, ‘‘आज शायद बस लेट हो गई हो.’’ बस का इंतजार करना मेरी मजबूरी बन चुका था. आसपास कहीं औटो या रिकशा होता तो शायद एक क्षण के लिए भी न सोचता. तभी वही बस पहले आई जिस का इंतजार था. मुझे 3 महीने हो गए थे इस छोटे से शहर में. बसस्टौप से थोड़ी ही दूर मेरा फ्लैट था.

स्कूटर अचानक स्टार्ट न होने के कारण आज पहली बार बस में जाना पड़ा. बसस्टौप पर भी पूछतेपूछते पहुंच पाया था. स्टेट बैंक की नौकरी में मेरा यह पहला अवसर ही था जब इस छोटे से शहर में, जो कसबा ज्यादा था, रहना पड़ा. बच्चों की पढ़ाई की मजबूरी न होती तो शायद उन्हें भी यहीं ले आता और पत्नी का बच्चों के साथ रहना तो तय ही था. बड़ी लड़की को 10वीं की परीक्षा देनी थी और शहरों की अपेक्षा यहां इतनी सुविधा भी नहीं थी. 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट बैंक की तरफ से ही मिला हुआ था. पिछले मैनेजर की भी यही मजबूरी थी, उसे भी इस फ्लैट में 3 वर्ष तक इसी तरह रहना पड़ा था.

चैक पास करतेकरते उस दिन अचानक कैबिन के दरवाजे की चरमराहट और खनखनाती सी आवाज ने सारा ध्यान तोड़ दिया, ‘‘लौकर के लिए मिलना चाहती हूं,’’ उस महिला ने कैबिन में घुसते ही कहा. मैं ने सिर उठा कर देखा तो देखता ही रह गया. बहुत ही शालीनता से बौबकट बालों को पीछे करती हुई, धूप का चश्मा माथे पर अटकाते हुए उस ने पूछा. ‘‘जी,’’ मैं ने कहा. कोई और होता तो ऊंचे स्वर में 1-2 बातें कर के अपने मैनेजर होने का एहसास जरूर कराता कि देखते नहीं, मैं काम कर रहा हूं. परंतु कुछ कहते न बना. मैं ने एक बार फिर भरपूर नजरों से उसे देखा और उसे सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. ‘‘लगता है, हम पहले भी मिल चुके हैं,’’ उस महिला का स्पष्ट सा स्वर था, पर स्वर में न कोई महिलासुलभ झिझक थी न ही घबराहट. ‘‘याद आया,’’ मैं ने नाटक सा करते हुए कहा, ‘‘शायद उस दिन बसस्टौप पर…’’ वह मुसकरा पड़ी. मैं फिर बोला, ‘‘अच्छा बताइए, मैं क्या कर सकता हूं आप के लिए?’’ मैं ने सीधेसीधे बिना समय गंवाए पूछा. ‘‘लौकर लेना चाहती हूं इस बैंक में, कोई उपलब्ध हो तो…?’’ ‘‘आप का खाता है क्या यहां?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी हां. पिछले 5 साल से हर बार लौकर के लिए प्रार्थनापत्र देती हूं, परंतु कोई फायदा नहीं हुआ. एफडी करने को भी तैयार हूं…’’ ‘‘क्या करती हैं आप?’’ मैं ने पूछा. ‘‘टीचर हूं, यहीं पास के स्कूल में.’’ मुझे लगा, इसे टालना ठीक नहीं. मैं ने उसे एप्लीकेशन फौर्म के साथ कुछ आवश्यक पेपर पूरे कर के कल लाने को कहा. उस असाधारण सी दिखने वाली महिला ने अपने साधारण स्वभाव से ऐसी अमिट छाप छोड़ दी कि मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका. इस छोटी सी पहली मुलाकात से हम दोनों चिरपरिचित की तरह विदा हुए. कितने ही लोग आतेजाते मिलते रहते थे, परंतु इस महिला के आगे सब रंग ऐसे फीके पड़ गए कि मानसपटल पर किसी भी काल्पनिक स्वप्नसुंदरी की छवि भी शायद धूमिल पड़ जाए. दूसरे दिन ही मैं ने उसे लौकर उपलब्ध कराने की जैसे ठान ही ली और सारी औपचारिकताएं पूरी कर लीं. 11 बजे के बाद तो लगातार टकटकी बांधे बेसब्री से निगाहें दरवाजे पर अटकी रहीं. पौने 2 बजे उस के बैंक में आने से ही अटकी निगाहों को थोड़ी राहत मिली.

चेहरे के सभी भावों को छिपा कर दूसरे कामों में अनमने भाव से लगा रहा, परंतु तिरछी निगाहें मेरी अपनी कैबिन की चरमराहट पर ही थीं. ‘‘नमस्ते,’’ हर बार की तरह संक्षिप्त शब्दों में उस ने मुसकरा कर कहा और कागजात देती हुई बोली, ‘‘ये लीजिए सारे पेपर्स, राशनकार्ड, फोटो और जो आप ने मंगवाए थे.’’ ‘‘बैठिए, प्लीज,’’ उस के हाथ से पेपर्स ले कर मैं ने पूछा, ‘‘कुछ लेंगी आप?’’ ‘‘नो, थैंक्यू. बच्चे स्कूल से घर आने वाले हैं, स्कूल में ही थोड़ा लेट हो गई थी. पहले सोचा कि कल आऊंगी. फिर लगा, न जाने आप क्या सोचेंगे.’’ थोड़ीबहुत खानापूर्ति कर उसे लौकर दिलवा दिया और अपना ताला लौकर में लगाने को कहा, जैसा कि नियम था. मुसकरा कर वह आभार प्रकट करती चली गई. एक सवेरे जौगिंग करते हुए मैं पार्क में पहुंचा तो वह लंबे कदमों से चक्कर लगाने में लीन थी.

मुझे देख कर एक क्षण के लिए रुकी भी, शायद पहचानने का प्रयत्न कर रही हो, पर शुरुआत मैं ने ही की, बोला, ‘‘मेरा नाम…’’ ‘‘जानती हूं,’’ मेरी बात काटती हुई हाथ जोड़ कर बहुत ही शिष्ट व्यवहार से वह बोली, ‘‘आप को भला मैं कैसे भूल सकती हूं. 5 साल से जो नहीं हो पाया वह 2 ही दिन में आप ने कर दिया.’’ उस के पहने हुए नीले रंग के ट्रैक सूट और महंगे जूते उस की पसंद और छवि को दोगुना कर रहे थे. इस शहर में तो इन वस्तुओं का उपलब्ध होना संभव नहीं था, परंतु इन सब के बावजूद बिना किसी मेकअप के उस के चेहरे में गजब की कशिश थी. कोई भी साहित्यकार मेरी आंखों से देखता तो शायद तारीफ में इतिहास रच डालता. ‘‘यहां कैसे, आप? कहीं पास ही में रहती हैं क्या?’’ मैं ने पूछा. ‘‘जी, सामने वाली सोसाइटी में. घूमतेघूमते इधर निकल आई. रविवार था. कहीं जाने की जल्दी तो थी नहीं.

एक ही पार्क है यहां.’’ बातोंबातों में ही उस ने बताया कि 2 छोटे बेटे हैं, पति आर्मी में मेजर हैं और दूसरी जगह पोस्टेड हैं. छुट्टियों में आते रहते हैं. समय बिताने के लिए उस ने यह सब शौक रखे हैं, वरना नीरस से जीवन में क्या रखा है. न जाने क्यों, पहले दिन से ही उस के प्रति आकर्षण था और उस का प्रत्येक हावभाव मेरे दिमाग पर अजीब सी मीठी कसक छोड़ता रहा. मुझे उस से मिलने का नशा सा हो गया. रविवार का मैं बहुत ही बेसब्री से इंतजार करता रहता और वह भी पार्क में आती रही. हम दोनों पार्क के 2 चक्कर तेजी से लगाते, फिर तीसरी बार में इधरउधर की बातें करते रहते. मैं बैंक की बताता तो वह अपने स्कूल के शरारती बच्चों के बारे में. उस का इस तरह नियमित समय से आना लगभग तय था. चेहरे की मुसकराहट तथा भाव से उस का भी मेरे प्रति झुकना कोई असामान्य नहीं लगा. एक दिन अपना उम्र प्रमाणपत्र सत्यापित कराने बैंक में आई तो उस में लिखी उम्र देख कर मैं हैरान रह गया.

‘‘1964 का जन्म है आप का, लगता नहीं कि आप 38 की होंगी,’’ मैं ने कहा तो वह मुसकरा कर रह गई. ‘‘क्यों?’’ वह सकुचाती सी बोली, ‘‘क्या लगता था आप को?’’ शायद हर नारी की तरह वह भी 20-22 ही सुनना चाहती हो. मैं बोला, ‘‘कुछ भी लगता हो, परंतु आप 38 की नहीं लगतीं.’’ उस के चेहरे की लालिमा मुझ से छिपी नहीं रही. इस लालिमा को देखने के लिए ही तो मैं लालायित था. ‘‘शायद इसीलिए ही लड़कियां अपनी उम्र बताना पसंद नहीं करतीं,’’ मैं बोला. महिला के स्थान पर लड़की शब्द का प्रयोग पता नहीं मैं किस बहाव में कर गया, परंतु उसे अच्छा ही लगा होगा. मैं ने फिर दोहराया, ‘‘परंतु कुछ भी कहिए, मिसेज शर्मा, आप 38 की लगती नहीं हैं,’’ मेरे द्वारा चुटकी लेते हुए कही गई इस बात से उस के सुर्ख चेहरे पर गहराती लालिमा देखते ही बनती थी. ‘‘आप मर्दों को तो छेड़ने का बहाना चाहिए,’’ उस ने सहज लेते हुए दार्शनिक अंदाज में मुसकराते हुए कहा. मुझे लगा वह बुरा मान गई है,

इसलिए मैं ने कहा, ‘‘माफी चाहता हूं, यदि अनजाने में कही यह बात आप को अच्छी न लगी हो.’’ ‘‘नहीं, मुझे कुछ भी बुरा नहीं लगा. आप को जो ठीक लगा, आप ने कह दिया. मेरे सामने कह कर स्पष्टवादिता का परिचय दिया, पर पीछे से कहते तो मैं क्या कह सकती थी,’’ वह बोली. इतनी गंभीर बात को सहज ढंग से निबटाना सचमुच प्रशंसनीय था. यह सिलसिला जो पार्क से प्रारंभ हुआ था, पार्क में ही समाप्त होता नजर आने लगा, क्योंकि यह क्रम उस दिन के बाद आगे नहीं चल सका. मुझे लगा वह मेरी उस बात का बुरा मान गईर् होगी. अब हर सवेरे मैं उस पार्क में जा कर एक चक्कर लगाता, 1-2 एक्सरसाइज करता और देर तक इधरउधर शरीर हिला कर व्यायाम का नाटक करता. बैंक में कैबिन के बाहर ही गतिविधियों पर पैनी नजरें गड़ाए रहता, परंतु उस से फिर पूरे 2 सप्ताह न बैंक में मुलाकात हो सकी न पार्क में. शाम होती तो सुबह का इंतजार रहता और सैर के बाद तो बैंक में आने का इंतजार.

3 दिन लगातार बसस्टौप पर भी जाता रहा. मेरे मन की स्थिति एकदम पपीहा जैसी हो गई जो सिर्फ बरसात का इंतजार करता रहता है. उस का पता ले कर एक दिन उस के घर जाने का मन भी बनाया पर लगा, यह ठीक नहीं रहेगा. वह स्वयं क्या सोचेगी, उस के बच्चों को क्या कहूंगा. वह क्या कह कर मेरा परिचय कराएगी और कोशिशों के बावजूद नहीं जा पाया. बैंक में उस के पते के साथ फोन नंबर न होने का आज सचमुच मुझे बहुत ही क्षोभ हुआ. कम से कम फोन तो इस मानसिक अंतर्द्वंद्व को कम करता. चपरासी के हाथ अकाउंट स्टेटमैंट के बहाने उस को बैंक में आने का संदेशा भिजवाया. रविवार की इस सुबह ने मुझे बेहद मायूस किया. इस पूरे आवास काल में पहला रविवार था कि घूमने का मन ही नहीं बन सका. दरवाजे पर अचानक बजी घंटी ने दिल के सारे तार झंकृत कर दिए. इतनी सुबह तो कोई नहीं आता. हो न हो मिसेज शर्मा ही होंगी. लगता है कल चपरासी ठीक समय से पहुंच गया होगा,

यही सोचता मैं जल्दी से स्वयं को ठीक कर के जब तक दूसरी बार घंटी बजती, दरवाजे पर पहुंच गया. सामने अपनी पत्नी को पा कर सारा नशा काफूर हो गया. मेरा चेहरा उतर गया. ‘‘क्यों, हैरान हो गए न,’’ वह हांफते हुए बोली, ‘‘बहुत ही मुश्किल से मकान मिला है,’’ वह अपना सूटकेस भीतर रखते हुए बोली. ‘‘अरे, बताया तो होता, कोई फोन, चिट्ठी…’’ मैं ने कहा. ‘‘सोचा, आप को सरप्राइज दूंगी, जनाब क्या करते रहते हैं इस शहर में. अचानक बच्चों की छुट्टियां हुईं तो उन्हें मायके छोड़ सीधी चली आई. बताने का मौका कहां मिला.’’ मेरा मन उस के आने के इस स्वागत के लिए तैयार तो नहीं था परंतु चेहरे के भावों में संयतता बरतते हुए मुझे सामान्य होना ही पड़ा. फिर भी इस स्थिति को पचाते शाम हो ही गई. पत्नी के 3 दिन के इस आवासकाल में मैं ने हरसंभव प्रयास किया कि नपीतुली बातें की जाएं.

जब भी बाहर घूमने के लिए वह कहती तो सिरदर्द का बहाना बना कर टाल जाता. बाहर खाने के नाम पर उस के हाथ का खाना खाने की जिद करता. मुझे भय सा व्याप्त हो चुका था कि कहीं उस के साथ मिसेज शर्मा मिल गईं तो क्या करूंगा. क्या कह कर हमारा परिचय होगा. मेरे मन में अजीब सी शंका ने घर कर रखा था. मेरी पत्नी उस के स्वभाव, रूप को देख कर क्या सोचेगी. इसी भय के कारण मैं ने 3 दिन की छुट्टी ले ली थी. मन का भूत साए की तरह पीछे लगा रहा और यह तब तक सताता रहा जब तक मैं ने अपनी पत्नी को जाते वक्त बस में न बिठा दिया. क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह समझना भी नहीं चाहता था. अगली शाम मन का एकाकीपन दूर करने के लिए मैं टीवी देखता चाय की चुसकियां ले ही रहा था कि दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने मिसेज शर्मा को पाया.

दिल धक से रह गया. इच्छा के अनुकूल चिरपरिचिता को सामने पा कर सभी शब्दों और भावों पर विराम सा लग गया. बहुत ही कठिनाई से पूछा, ‘‘आप…’’ उस के हाथ में रजनीगंधा के फूलों का बना सुंदर सा बुके था. काफी समय बाद उसे देखा था. ‘‘जी,’’ वह भीतर आते हुए बोली, ‘‘कल बैंक गई तो पता चला आप कई दिनों से छुट्टी पर हैं. सोचा, आप से मिलती चलूं,’’ यह कह शालीनता का परिचय देते हुए उस ने मेरे हाथों में बुके पकड़ा दिया. ‘‘वह…क्या है कि…’’ मुझ से कहते न बना, ‘‘आप को मेरा पता कैसे मिला?’’ मैं ने हकलाते हुए बहुत बेहूदा सा प्रश्न पूछा, जिस का उत्तर भी मैं जानता था, ‘‘आइए, मैं ने उस पर भरपूर नजर डालते हुए आगे कहा, ‘‘बैठिए न. कुछ पिएंगी, चाय बनाता हूं. चलिए, थोड़ीथोड़ी पीते हैं.’’ ‘‘नहीं, बस, नीचे मेजर साहब गाड़ी में मेरा इंतजार कर रहे हैं.’’ ‘‘मेजर साहब…’’ मैं ने अचरज से पूछा. ‘‘हां, मेरे पति. उन का तबादला इसी शहर में हो गया है,’’ चेहरे पर बेहद खुशी लाते हुए बोली, ‘‘अब वे यहीं रहेंगे हमारे साथ. पूरा महीना लग गया तबादला कराने में. सुबह से रात तक भागदौड़ में बीत गया,

यहां तक कि सैर, स्कूल सभी को तिलांजलि देनी पड़ी,’’ कह कर वह चली गई. यह देखसुन कर मेरे शरीर का खून निचुड़ गया. स्वयं को संयत करता हुआ सोफे पर जा बैठा. आखिर इतनी तड़प क्यों हो गई थी मन में एक अनजान महिला के प्रति. क्यों इतनी उत्कंठा से टकटकी बांधे इंतजार करता रहा. यह अंतिम आशा भी निर्मूल सिद्ध हुई. क्या है यह सब, मैं पूरी ताकत से लगभग चीखते हुए मन ही मन बुदबुदाया. इतनी मुलाकातें… ढेरों बातें, लगता था वह प्रति पल करीब आती जा रही है. क्यों वह ऐसा करती रही? इतनी शिष्टता और आत्मीयता तो कोई अपने भी नहीं करते.

यदि ऐसे ही छिटक कर दूर होना था तो पास ही क्यों आई? ऐसा संबंध ही क्यों बनाया जिस के लिए मैं अपनी पत्नी से भी ठीक व्यवहार न कर सका तथा जिसे पाने की चाह पत्नी को भेजने की चाह से कहीं अधिक बलवती हो उठी थी? 2-4 बार की चंद मुलाकातों में क्याक्या सपने नहीं बुन डाले. परंतु मुझे लगा यह सब एकतरफा रास्ता था. उस ने कहीं, कुछ ऐसा नहीं किया जो अनैतिक हो, सिर्फ अनैतिकता मेरे विचारों और संवेदनाओं में थी, शायद संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने की. मैं रातभर विरोधाभास के समुद्र में डूबताउतराता रहा और अपने खोए हुए संबंधों को फिर स्थापित करने की दृढ़ इच्छा ने मुझे सवेरे की पहली बस से अपने परिवार के पास भिजवा दिया. Romantic Story In Hindi 

Social Story In Hindi : अधूरी ममता

Social Story In Hindi : अमित अपनी मां के साथ दिल्ली के पटेल नगर वाले मकान में था कि इतने में उस का फोन बजता है. सामने फोन पर प्राची है. अमित कुछ कह पाता, उस से पहले उस की भावभंगिमा बंद होने लगती  है. उस के हाथ कांपने लगते हैं. चेहरे का रंग पीला पड़ जाता है. वह घबरा कर अपनी मां की तरफ देख कर कहता है, ‘‘चिंकू कौन है मां? किस की बात कर रही हैं प्राची दी?’’

बेटे के चेहरे की उड़ी रंगत देख सुलक्षणा घबरा गई. बिस्तर से उठते हुए बेचैन हो कर वह बोली, ‘‘अरे, तेरा बेटा ही तो है चिंकू. और किसी चिंकू को तो मैं जानती नहीं. क्या हुआ, क्या कहा प्राची ने चिंकू के बारे में? कुछ तो बता.‘‘मां, वह नहीं रहा. मेरा बच्चा चिंकू चला गया,’’ कह कर अमित बच्चों की तरह रोने लगा.

‘‘क्या हुआ उसे? ला मेरा फोन दे. शायद प्राची किसी और से बात करना चाह रही थी और तेरा नंबर मिल गया. मैं समता का नंबर लगा लेती हूं. बहू से ही पूछ लेती हूं इस फोन के बारे में. जरूर कुछ गड़बड़ हुई है. हो सकता है तुझ से सुनने में कुछ गलती हुई हो.’’ सुलक्षणा लगातार बोले जा रही थी. टेबल से अपना मोबाइल उठा कर उस ने अपनी बहू समता का नंबर मिला लिया. मोबाइल समता के जीजाजी ने उठाया. सुलक्षणा के कान जो नहीं सुनना चाह रहे थे वही सुनना पड़ा. सचमुच, अमित का 2 वर्षीय बेटा चिंकू इस दुनिया को छोड़ कर जा चुका था.

पिछले सप्ताह ही तो समता अपनी बहन प्राची के घर लखनऊ गई थी. शादी के बाद अमित की व्यस्तता के कारण वह प्राची के पास जा ही नहीं पाई थी. प्राची ही एक बार आ गई थी उस से मिलने. मातापिता तो थे नहीं, इसलिए दोनों बहनें ही एकदूसरे का सहारा थीं. कुछ दिनों पहले फोन पर प्राची ने समता से कहा था कि इस बार अपने बच्चों के स्कूल की छुट्टियों में वह कहीं नहीं जाएगी और समता को उस के पास आना ही पड़ेगा.

समता और चिंकू को लखनऊ छोड़ अमित कल ही दिल्ली वापस आया था. वह गुड़गांव में एक जरमन एमएनसी में मैनेजर के पद पर था. उसे कंपनी का मैनेजमैंट संभालना था, इसलिए वह लखनऊ रुक नहीं पाया और जल्द ही वापस दिल्ली आ गया. घर पहुंच कर उस ने जब समता को फोन किया था तो चिंकू ने समता के हाथ से मोबाइल छीन लिया था. उस की नन्हीं सी ‘एलो’ सुन कर रोमरोम खिल उठा था अमित का. प्यार से उसे ‘लव यू बेटा’ कह कर वह मुसकरा दिया था. चिंकू ने भी अपनी तोतली भाषा में ‘लब्बू पापा’ कह कर जवाब दे दिया था. आखिरी बार अमित ने तभी आवाज सुनी थी चिंकू की. और अब, वह कभी चिंकू की आवाज नहीं सुन पाएगा. कैसे हो गया यह सब.

दुख में डूबा अमित समता के पास जल्दी ही पहुंचना चाहता था. इसलिए उस ने बिना देरी किए फ्लाइट का टिकट बुक करवा लिया और लखनऊ के लिए रवाना हो गया.

अगले दिन ही वह समता को ले कर घर आ गया. उन के घर पहुंचते ही सुलक्षणा फूटफूट कर रोने लगी. अमित मां को कैसे सांत्वना देता, वह तो स्वयं ही टूट गया था. समता चुपचाप जा कर एक कोने में गुमसुम सी हो कर बैठ गई. उस की तो जैसे सोचनेसमझने की शक्ति ही चली गई थी. वह चंचल स्वभाव की थी. वह लोगों के साथ घुलनामिलना पसंद करती थी. लेकिन अब न जाने उस की दुनिया ही लुट गई हो.

धीरेधीरे पड़ोसी एकत्र होने लगे. चिंकू के इस तरह अचानक मौत के मुंह में जाने से सब बेहद दुखी थे.‘‘कैसा लग रहा होगा समता को. खुद स्विमिंग की चैंपियन थी, अपने कालेज में… और बेटे की छोटी सी टंकी में डूब कर मौत,’’ समता की पुरानी सहेली वंदना दुखी स्वर में बोली.

‘‘बच्चे जब इकट्ठे होते हैं, मनमानी भी तो बहुत करने लगते हैं,’’ ठंडी आह भरते हुए सामने के मकान में रहने वाले मृदुल बोले.‘‘हम लोग भी तो एकदूसरे में कभीकभी इतना खो जाते हैं कि बच्चों की सुध लेना ही भूल जाते हैं,’’ समता के पड़ोस में रहने वाली मनोविज्ञान की अध्यापिका, मृदुल को जवाब देने के अंदाज में बोल उठी.‘‘असली बात तो यह है कि मौत के आगे आज तक किसी की नहीं चली. बाद में बस अफसोस ही तो कर सकते हैं. इस के सिवा कुछ नहीं,’’ एक बुजुर्ग महिला के कहने पर सभी कुछ देर के लिए मौन हो गए.

रिश्तेदारों को जब इस दुर्घटना के विषय में पता लगा तो वे प्राची से जानना चाह रहे थे कि आखिर यह सब हुआ कैसे? शोक में डूबी प्राची स्वयं को कुसूरवार समझ रही थी. न ही वह बच्चों को छत पर जाने देती और न ही यह दुर्घटना घटती. क्यों वह समता के साथ बातों में इतनी मशगूल हो गई कि छत पर खेल रहे बच्चों को झांक कर भी नहीं देखा. उस के बच्चे भी तो छोटे ही हैं. बेटी सौम्या 7 वर्ष की और बेटा सार्थक 5 वर्ष का. तभी तो वे समझ ही न पाए कि पानी की टंकी में गिरने के बाद चिंकू हाथपैर मार कर खेल नहीं रहा, बल्कि छटपटा रहा है. खेलखेल में ही क्या से क्या हो गया.

छत के फर्श पर रखी पानी की टंकी का ढक्कन खोल, प्राची के बच्चे उस में हाथ डाल कर मस्ती कर रहे थे. चिंकू ने भी उन की नकल करनी चाही, किंतु वह छोटा था और जब उचक कर उस ने पानी में दोनों हाथ डालने की कोशिश की तो उस का संतुलन बिगड़ गया और अपने को संभाल न पाने के कारण टंकी में ही गिर गया.

प्राची और समता के तब होश उड़ गए थे जब सौम्या ने नीचे आ कर कहा था, ‘‘चिंकू, बहुत देर से पानी में  है, आप निकालो बाहर’’, बेतहाशा दौड़ते हुए वे दोनों छत पर पहुंचीं. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. अपनी बहन समता के दुख में दुखी प्राची के पास आंसुओं के सिवा कुछ नहीं था.

पड़ोसी और रिश्तेदारों का अमित के घर आनाजाना लगातार जारी था. सब की नम आंखें हृदय का दुख व्यक्त कर पा रही थीं. मन को हलका करने के लिए एकदूसरे से बातें भी कर रहे थे वे. किंतु समता सब से दूर बैठी थी. जब कोई पास जा कर उस से बात करना शुरू करता तो वह अपना चेहरा दूसरी ओर मोड़ लेती. न आंखों में आंसू थे और न ही चेहरे पर कोई भाव. चिंकू का नाम सुनते ही वह कानों पर हाथ रख लेती और सब की बातों को अनसुना कर देती थी.

सब की यही राय थी कि समता को रोना चाहिए, ताकि उस का मन हलका हो पाए और वह भी सब के साथ अपना दुख साझा कर पाए, पर समता तो भावहीन चेहरा लिए एकटक शून्य में ताकती रहती थी.

समता की मानसिक स्थिति को देखते हुए अमित ने मनोचिकित्सक से सलाह ली. मनोचिकित्सक ने बताया कि ऐसे समय में कई बार व्यक्ति की चेतना दुख को स्वीकार नहीं करना चाहती, किंतु अवचेतन मन जानता है कि कुछ बुरा घट चुका है. सो, व्यक्ति का मस्तिष्क कुछ भी सोचना नहीं चाहता. समता के विषय में उस ने कहा कि यदि कुछ और दिनों तक उस की यही हालत रही तो उस के दिमाग के सोचनेसमझने की शक्ति हमेशा के लिए खत्म हो सकती है. चिकित्सक ने सलाह दी कि समता को चिंकू के कपड़े दिखा कर रुलाने का प्रयास करना चाहिए.

डाक्टर की सलाह अनुसार, अमित ने समता को चिंकू के कपड़े, खिलौने और फोटो दिखाए. चिंकू के विषय में जानबूझ कर बातें भी करने लगा वह. सुलक्षणा ने भी चिंकू की शैतानियों के किस्से समता को याद दिलाए और उन शैतानियों का नतीजा ही चिंकू की मौत का कारण बना, कह कर रुलाना भी चाहा पर समता पर किसी प्रकार का असर होता दिखाई नहीं दिया.

सुलक्षणा ने अमित को सलाह दी कि सब साथ में अपने गांव चलते हैं. वहां जा कर कुछ दिन इस वातावरण से दूर होने पर समता शायद सबकुछ नए सिरे से सोचने लगे और चिंकू की अनुपस्थिति खलने लगे उसे. संभव है फिर उस के मन का गुबार आंसुओं में निकल जाए. मां की बात मान अमित समता और सुलक्षणा के साथ कुछ दिनों के लिए गांव चला गया.

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के नजदीक ही गांव में उन का बड़ा सा पुश्तैनी मकान था. पास ही आम के बगीचे भी थे. उन सब की देखभाल रणजीत किया करता था. रणजीत बचपन से ही उन के परिवार के साथ जुड़ा हुआ था. यों तो उस की उम्र 40 वर्ष के ऊपर थी, पर परिवार के नाम पर पत्नी रज्जो और 4 वर्षीय इकलौटा बेटा सूरज ही थे. सूरज को उस ने पास के स्कूल में दाखिल करवा दिया था. विवाह के लगभग 20 वर्षों बाद सूरज का जन्म हुआ था. रज्जो और रणजीत चाहते थे कि उन की आंखों का तारा सूरज खूब पढ़ेलिखे और बड़ा हो कर कोई अच्छी नौकरी करे.

अमित का परिवार गांव आ रहा है, यह सुन कर रणजीत ने उन के आने की तैयारी शुरू कर दी. घर खूब साफसुथरा कर, बाजार जा कर जरूरी सामान ले आया. चिंकू के विषय में जान कर वह भी बेहद दुखी था.

गांव पहुंच कर अमित और सुलक्षणा का मन तो कुछ हलका हुआ, पर समता की भावशून्यता वहां भी कम न हुई. अमित उसे इधरउधर ले कर जाता. सुलक्षणा भी गांव की पुरानी बातें बता कर उस का ध्यान दूसरी ओर लगाने का प्रयास करती, पर समता तो जैसे जड़ हो गई थी. न वह ठीक से खातीपीती और न ही ज्यादा कुछ बोलती थी.

उस दिन अमित सुलक्षणा के साथ घर के नजदीक बने तालाब के किनारे टहल रहा था. समता घास पर चुपचाप बैठी थी. कुछ देर बाद पास के खाली मैदान पर बच्चे आ कर क्रिकेट खेलने लगे. उन के पास जो गेंद थी, वह प्लास्टिक की थी, इसलिए अमित ने समता को वहां से हटाना आवश्यक नहीं समझा.

बच्चे गेंद पर तेजी से बल्ला मार, उसे दूर फेंकने का प्रयास कर रहे थे, ताकि गेंद दूर तक जाए और उन्हें अधिक से अधिक रन बनाने का अवसर मिले. उन बच्चों की टोली में एक छोटा सा बच्चा हर बार फुरती से जा कर गेंद ले कर आ रहा था. छोटा होने के कारण बच्चों ने उसे बैंटिंग या बौलिंग न दे कर, फेंकी हुई गेंद वापस ला कर देने का काम सौंपा हुआ था.

इस बार एक बच्चे ने कुछ ज्यादा ही तेजी से बल्ला चला दिया और गेंद तीव्र गति से लुढ़कने लगी. छोटा बच्चा भागता हुआ गेंद को पकड़ने की कोशिश करता रहा, पर गेंद तो खूब तेजी से लुढ़कते हुए तालाब में गिर कर ही रुकी. प्लास्टिक की होने के कारण वह गेंद पानी पर तैरने लगी. गेंद तालाब से निकालने के लिए उस बच्चे ने जमीन पर पड़ी पेड़ की पतली सी टहनी उठाई और गेंद को टहनी से खिसका कर करीब लाने की कोशिश करने लगा. पेड़ की डंडी गेंद तक तो पहुंच रही थी, पर इतनी बड़ी नहीं थी कि गेंद को आगे की ओर धकेल पाए. इधर बच्चा कोशिश कर रहा था, उधर साथी ‘जल्दीजल्दी’ का शोर मचाए हुए थे. गेंद को तेजी से आगे की ओर धकेलने के लिए उस पर डंडी मारते हुए अचानक ही वह बच्चा तालाब में गिर गया.

इस से पहले कि वहां खेल रहे बच्चे कुछ समझ पाते, समता तेजी से दौड़ती हुई वहां पहुंची और तालाब में कूद पड़ी. बच्चे को झटके से पकड़ कर उस ने गोदी में उठा लिया. अमित और सुलक्षणा दूर से यह दृश्य देख रहे थे. अमित भी भागता हुआ वहां पहुंच गया और तालाब के किनारे बैठ कर बच्चे को अपनी गोद में ले लिया. बच्चे को शीघ्र ही उस ने अपने घुटने पर पेट के बल लिटा दिया, ताकि थोड़ा सा पानी भी अंदर गया हो तो बाहर निकल सके. तब तक सभी बच्चे चिल्लाते हुए वहां पहुंच गए. शोर सुन कर आसपास के घरों से भी लोग वहां इकट्ठे होने लगे.

तालाब से बाहर निकलते ही समता अमित के पास आई और उस बच्चे को सकुशल देख अपने गले लगा कर फूटफूट कर रोने लगी. तभी भीड़ को चीरता हुआ रणजीत वहां पहुंच गया. अपने बेटे सूरज को मौत के मुंह से निकला हुआ देख उस की जान में जान आई. गदगद हो कर वह समता से बोला, ‘‘आज आप ने नया जीवन दिया है मेरे बच्चे को. कितने सालों बाद संतान का मुंह देखा था. अगर आज इसे कुछ हो जाता तो… आप का एहसान तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा.’’

भावविभोर समता बाली, ‘‘एहसान कैसा, भैया? मुझे तो लग रहा है जैसे मैं ने अपने चिंकू को बचा लिया हो.’’ और सूरज को गले लगा कर समता फिर से रोने लगी.घर वापस आते हुए सूरज का हाथ थामे वह उस से बातें कर रही थी. समता में आए इस परिवर्तन से अमित और सुलक्षणा बेहद खुश थे. कुछ दिन गांव में गुजारने के बाद वे तीनों वापस दिल्ली लौट आए.

घर वापस आ कर समता नया जीवन जीने को तैयार थी. अनजाने में ही उसे यह एहसास हो गया था कि जिंदगी में गम और खुशी दोनों को ही गले लगाना पड़ता है.उस के अवचेतन मन ने उसे समझा ही दिया था कि सुख और दुख के तानेबाने को गूंथ कर ही जिंदगी की बुनाई होती है. Social Story In Hindi 

Social Story : औरत का बदला

Social Story : यौन दुराचार के आरोप में निलंबन, धूमिल सामाजिक प्रतिष्ठा और एक लंबी विभागीय जांच प्रक्रिया के बाद निर्दोष साबित हो कर फिर बहाल हुए सुशील आज पहली बार औफिस पहुंचे. पूरा स्टाफ उन के सम्मान में खड़ा हो गया, मगर उन्होंने किसी की तरफ भी नजर उठा कर नहीं देखा और चपरासी के पीछेपीछे सीधे अपने केबिन में चले गए. आज उन की चाल में पहले सी ठसक नहीं थी. वह पुराना आत्मविश्वास कहीं खो सा गया था.

कुरसी पर बैठते ही उन की आंखों में नमी तैर गई. उन के उजले दामन पर जो काले दाग लगे थे वे बेशक आज मिट गए थे मगर उन्हें मिटातेमिटाते उन का चरित्र कितना बदरंग हो गया, यह दर्द सिर्फ भुक्तभोगी ही जान सकता है.

कितना गर्व था उन्हें अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा पर, बहुत भरोसा था अपने व्यवहार की पारदर्शिता पर. हां, वे काम में सख्त और वक्त के पाबंद थे. मगर यह भी सच था कि अपने स्टाफ के प्रति बहुत अपनापन रखते थे. वे कितनी बड़ी खुशफहमी पाले हुए थे अपने दिल में कि उन का स्टाफ भी उन्हें बहुत प्यार करता है. तभी तो उन्हें अपने चपरासी मोहन की बातों पर जरा भी यकीन नहीं हुआ था जब उस ने रजनी और शिखा के बीच हुई बातचीत ज्यों की त्यों सुना कर उन्हें खतरे से आगाह किया था. उन्हें आज भी वह सब याद है जो मोहन ने उस दिन दोनों की बातें लगभग फुसफुसा कर कही थीं…

‘इन सुशील का भी न, कुछ न कुछ तो इलाज करना ही पड़ेगा. जब से डिपार्टमैंट में हेड बन कर आए हैं, सब को सीट से बांध कर रख दिया है. मजाल है कि कोई लंचटाइम के अलावा जरा सा भी इधरउधर हो जाए,’ शिखा की टेबल पर टिफिन खोलते हुए रजनी ने अपनी भड़ास निकाली.

‘हां यार, विमल सर के टाइम में कितने मजे हुआ करते थे. बड़े ही आराम से नौकरी हो रही थी. न सुबह जल्दी आने की हड़बड़ाहट और न ही शाम को 6 बजे तक सीट पर बैठने की पाबंदी. अब तो सुबह अलार्म बजने के साथ ही मोबाइल में सुशील का चेहरा दिखाई देने लगता है,’ शिखा ने रजनी की हां में हां मिलाते हुए उस की बात का समर्थन किया.

‘याद करो, कितनी बार हम ने औफिस से बंक मार कर मैटिनी शो देखा है, ब्यूटीपार्लर गए हैं, त्योहारों पर सैल में शौपिंग के मजे लूटे हैं. और तो और, औफिसटाइम में घरबाहर के कितने ही काम भी निबटा लिया करते थे. अब तो बस, सुबह साढ़े 9 बजे से शाम 6 बजे तक सिर्फ फाइलें ही निबटाते रहो. लगता ही नहीं कि सरकारी नौकरी कर रहे हैं,’ रजनी ने बीते हुए दिनों को याद कर के आह भरी.

‘और हां, सुशील सर पर तो तुम्हारी आंखों का काला जादू भी काम नहीं कर रहा, है न,’ शिखा ने जानबूझ कर रजनी को छेड़ा?

‘सही कह रही हो तुम. विमल सर तो मेरी एक मुसकान पर ही फ्लैट हो जाते थे. सुशील को तो यदि बांहोें में भर के चुंबन भी दे दूं न, तब भी शायद कोई छूट न दें,’ रजनी ने ठहाका लगाते हुए अपनी हार स्वीकार कर ली.

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‘शिखा मैडम, आप को साहब ने याद किया है,’ तभी मोहन ने आ कर कहा था.

‘अभी आती हूं,’ कहती हुई शिखा ने अपना टिफिन बंद किया और सुशील के चैंबर की तरफ चल दी.

‘साहब का चमचा,’ कह कर रजनी भी बुरा सा मुंह बनाती हुई अपनी सीट की तरफ बढ़ गई.

सुशील को एकएक बात, एकएक घटना याद आ रही थी. रजनी उन के औफिस में क्लर्क है. बेहद आकर्षक देहयष्टि की मालकिन रजनी को यदि खूबसूरती की मल्लिका भी कहा जाए तो भी गलत न होगा. उस की मुखर आंखें उस के व्यक्तित्व को चारचांद लगा देती हैं. रजनी को भी अपनी इस खूबी का बखूबी एहसास है और अवसर आने पर वह अपनी आंखों का काला जादू चलाने से नहीं चूकती.

मोहन ने ही उन्हें बताया था कि 3 साल पहले जब रजनी ने ये विभाग जौइन किया था तब प्रशासनिक अधिकारी मिस्टर विमल उस के हेड थे. शौकीनमिजाज विमल पर रजनी की आंखों का काला जादू खूब चलता था. बस, वह अदा से पलकें उठा कर उन की तरफ देखती और उस के सारे गुनाह माफ हो जाते थे.

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विमल ने कभी उसे औफिस की घड़ी से बांध कर नहीं रखा. वह आराम से औफिस आती और अपनी मरजी से सीट छोड़ कर चल देती. हां, जाने से पहले एक आखिरी कौफी वह जरूर मिस्टर विमल के साथ पीती थी. उसी दौरान कुछ चटपटी बातें भी हो जाया करती थीं. मिस्टर विमल इतने को ही अपना समय समझ कर खुश हो जाते थे. रजनी की आड़ में शिखा समेत दूसरे कर्मचारियों को भी काम के घंटों में छूट मिल जाया करती थी, इसलिए सभी रजनी की तारीफें करकर के उसे चने के झाड़ पर चढ़ा रखते थे.

लेकिन रजनी की आंखों का काला जादू ज्यादा नहीं चला क्योंकि मिस्टर विमल का ट्रांसफर हो गया. उन की जगह सुशील उन के बौस बन कर आ गए. दोनों अधिकारियों में जमीनआसमान का फर्क. सुशील अपने काम के प्रति बहुत ईमानदार थे और साथ ही, वक्त के भी बहुत पाबंद, औफिस में 10 मिनट की भी देरी न तो खुद करते हैं और न ही किसी स्टाफ की बरदाश्त करते. शाम को भी 6 बजे से पहले किसी को सीट नहीं छोड़ने देते.

जैसा कि अमूमन होता आया है कि लंबे समय तक मिलने वाली सुविधाओं को अधिकार समझ लिया जाता है. रजनी को भी सुशील के आने से कसमसाहट होने लगी. उन की सख्ती उसे अपने अधिकारों का हनन महसूस होती थी. उसे न तो जल्दी औफिस आने की आदत थी और न ही देर तक रुकने की. उस ने एकदो बार अपनी अदाओं से सुशील को शीशे में उतारने की कोशिश भी की मगर उसे निराशा ही हाथ लगी. सुशील तो उसे आंख उठा कर देखते तक नहीं थे. फिर? कैसे चलेगा उस की आंखों का काला जादू? इस तरह तो नौकरी करनी बहुत मुश्किल हो जाएगी. रजनी की परेशानी बढ़ने लगी तो उस ने शिखा से अपनी परेशानी साझा की थी. तभी मोहन ने उन की बातें सुन ली थीं और सुशील को आगाह किया था.

उन्हीं दिनों विधानसभा का मौनसून सत्र शुरू हुआ था. इन सत्रों में विपक्ष द्वारा सरकार से कई तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं और संबंधित सरकारी विभाग को उन के जवाब में अपने आंकड़े पेश करने पड़ते हैं. साथ ही, जब तक उस दिन का सत्र समाप्त नहीं हो जाता,

तब तक उस विभाग के सभी अधिकारियों व उन से जुड़े कर्मचारियों को औफिस में रुकना पड़ता है. हां, देरी होने पर महिला कर्मचारियों को सुरक्षित उन के घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी जरूर विभाग की होती है. इस बाबत सुशील भी हर रोज उन के लिए कुछ टैक्सियों की एडवांस में व्यवस्था करवाते थे.

रजनी के अधिकारक्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं के लिए चलाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण विकास योजनाओं की जानकारी वाली फाइलें थीं. इसलिए सुशील की तरफ से उसे खास हिदायत थी कि वह बिना उन की इजाजत के औफिस छोड़ कर न जाए. और फिर उस दिन जो हुआ उसे भला वे कैसे भूल सकते हैं.

‘साहब ने आज आप को फाइलों के साथ रुकने के लिए कहा है,’ मोहन ने जैसे ही औफिस से निकलने के लिए बैग संभालती रजनी को यह सूचना दी, उस के हाथ रुक गए. उस ने मन ही मन कुछ सोचा और सुशील के चैंबर की तरफ बढ़ गई.

‘सर, आज मेरे पति का जन्मदिन है, प्लीज आज मुझे जल्दी जाने दीजिए. मैं कल देर तक रुक जाऊंगी,’ रजनी ने मिन्नत की.

‘मगर मैडम, हमारे विभाग से जुड़े प्रश्न तो आज के सत्र में ही पूछे जाएंगे. कल रुकने का क्या फायदा? लेकिन आप फिक्र न करें, जैसे ही आप का काम खत्म होगा, हम तुरंत आप को टैक्सी से जहां आप कहेंगी वहां छुड़वा देंगे. अब आप जाइए और जल्दी से ये आंकड़े ले कर आइए,’ सुशील ने उस की तरफ एक फाइल बढ़ाते हुए कहा. रजनी कुछ देर तो वहां खड़ी रही मगर फिर सुशील की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पा कर निराश सी चैंबर से बाहर आ गई.

‘सर, क्या मैं आप के मोबाइल से एक फोन कर सकती हूं? अपने पति को देर से आने की सूचना देनी है, मैं जल्दबाजी में आज अपना मोबाइल लाना भूल गई,’ रजनी ने संकोच से कहा.

‘औफिस के लैंडलाइन से कर लीजिए,’ सुशील ने उस की तरफ देखे बिना ही टका सा जवाब दे दिया.

‘लैंडलाइन शायद डेड हो गया है और शिखा भी घर चली गई. पर

खैर, कोई बात नहीं, मैं कोई और व्यवस्था करती हूं,’ कहते हुए रजनी वापस मुड़ गई.

‘यह लीजिए, कर दीजिए अपने घर फोन. और हां, मेरी तरफ से भी अपने पति को जन्मदिन की शुभकामनाएं दीजिएगा,’ सुशील ने रजनी को

अपना मोबाइल थमा दिया और फिर से फाइलों में उलझ गए. रजनी उन

का मोबाइल ले कर अपनी सीट पर आ गई. थोड़ी देर बाद उस ने मोहन के साथ सुशील का मोबाइल वापस भिजवा दिया और फिर अपने काम में लग गई.

‘रजनीजी, आज आप अभी तक औफिस नहीं आईं?’ दूसरे दिन सुबह लगभग 11 बजे सुशील ने रजनी को फोन किया.

‘सर, कल आप के साथ रुकने से मेरी तबीयत खराब हो गई. मैं 2-4 दिनों तक मैडिकल लीव पर रहूंगी, रजनी ने धीमी आवाज में कहा.

‘क्या हुआ?’ सुशील के शब्दों में चिंता झलक रही थी.

‘कुछ खास नहीं, सर. बस, पूरी बौडी में पेन हो रहा है. रैस्ट करूंगी तो ठीक हो जाएगा. मैं अलमारी की चाबियां शिखा के साथ भिजवा रही हूं. शायद आप को कुछ जरूरत पड़े,’ कह कर रजनी ने अपनी बात खत्म की.

2 दिनों बाद सुशील के पास महिला आयोग की अध्यक्ष सुषमा का फोन आया जिसे सुन कर सुशील के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई. रजनी ने उन पर यौन दुराचार का आरोप लगाया था. रजनी ने अपने पक्ष में सुशील द्वारा भेजे गए कुछ अश्लील मैसेज और एक फोनकौल की रिकौर्डिंग उन्हें उपलब्ध करवाई थी. सुशील ने लाख सफाई दी, मगर सुषमा ने उन की एक  न सुनी और रजनी की लिखित शिकायत व सुबूतों को आधार बनाते हुए यह खबर हर अखबार व न्यूज चैनल वालों को दे दी. सभी समाचारपत्रों ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया.

चूंकि खबर एक बड़े प्रशासनिक अधिकारी से जुड़ी थी और वह भी ऐसे विभाग का जोकि खास महिलाओं की बेहतरी के लिए ही बनाया गया था, सो सत्ता के गलियारों में भूचाल आना स्वाभाविक था. न्यूज चैनलों पर गरमागरम बहस हुई. महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था पर खामियों को ले कर विपक्ष द्वारा सरकार को घेरा गया. सुशील के घर के बाहर महिला संगठनों द्वारा प्रदर्शन किया गया. सरकार से उन्हें बरखास्त करने की पुरजोर मांग की गई.

सरकार ने पहले तो अपने अधिकारी का पक्ष लिया मगर बाद में जब रजनी के मोबाइल में भेजे गए सुशील के अश्लील संदेश और फोनकौल की रिकौडिंग मीडिया में वायरल हुए तो सरकार भी बैकफुट पर आ गईर् और तुरंत प्रभाव से सुशील को सस्पैंड कर के एक उच्चस्तरीय जांच कमेटी का गठन किया गया. मामले की निष्पक्ष जांच के लिए एक महिला प्रशासनिक अधिकारी उपासना खरे को जांच अधिकारी बनाया गया.

उपासना की छवि एक कर्मठ और ईमानदार अधिकारी की रही थी. उसे इस से पहले भी ऐसी कई जांच करने का अनुभव था. साथ ही, एक महिला होने के नाते रजनी उस से खुल कर बात कर सकेगी, शायद उसे जांच अधिकारी नियुक्त करने के पीछे सरकार की यही मंशा रही होगी.

इधर सुशील के निलंबन को रजनी अपनी जीत समझ रही थी. उस ने एक दिन बातों ही बातों में शेखी मारते हुए शिखा के सामने सारे घटनाक्रम को बखान कर दिया तो शिखा को सुशील के लिए बहुत बुरा लगा. उधर शर्मिंदगी और समाज में हो रही थूथू के कारण सुशील ने अपनेआप को घर में कैद कर लिया.

उपासना ने पूरे केस का गंभीरता से अध्ययन किया. सुशील और रजनी के अलगअलग और एकसाथ भीबयान लिए. दोनों के पिछले चारित्रिक रिकौर्ड खंगाले. पूरे स्टाफ से दोनों के बारे में गहन पूछताछ की और सुशील के पिछले कार्यालयों से भी उन के व्यवहार व कार्यप्रणाली से जुड़ी जानकारी जुटाई.

मोहन और शिखा से बातचीत के दौरान अनुभवी उपासना को रजनी की साजिश की भनक लगी और उन्हीं के बयानों को आधार बनाते हुए उस ने रजनी को पूछताछ के लिए दोबारा बुलाया. इस बार जरा सख्ती से बात की. थोड़ी ही देर के सवालजवाबों में रजनी उलझ गई और उस ने सारी सचाई उगल दी.

‘मैं ने औफिस के लैंडलाइन फोन की पिन निकाल कर उसे डेड कर दिया. फिर बहाने से सुशील का मोबाइल लिया और उस से अपने मोबाइल पर कुछ अश्लील मैसेज भेजे. दूसरे दिन जब सर ने मुझे फोन किया तो मैं ने उन की बातों के द्विअर्थी जवाब देते हुए उस कौल को रिकौर्ड कर लिया और फिर उन्हें सबक सिखाने के लिए सारे सुबूत देते हुए महिला आयोग से उन की शिकायत कर दी. नतीजतन, वे सस्पैंड हो गए. इस कांड से सबक लेते हुए नए अधिकारी भी मुझ से दूरदूर रहने लगे और मुझे फिर से मनमरजी से औफिस आनेजाने की आजादी मिल गई,’ रजनी ने उपासना से माफी मांगते हुए यह सब कहा. अब यह केस शीशे की तरह बिलकुल साफ हो गया.

‘रजनी, तुम्हें शर्म आनी चाहिए. तुम ने ऐसी गिरी हुई हरकत कर के महिलाओं का सिर शर्म से नीचा कर दिया. तुम ने अपने महिला होने का नाजायज फायदा उठाने की कोशिश कर के महिला जाति के नाम पर कलंक लगाया है. तुम्हें इस की सजा मिलनी ही चाहिए…’ उपासना ने रजनी को बहुत ही तीखी टिप्पणियों के साथ

दोषी करार दिया और सुशील को बहाल करने की सिफारिश की. उपासना ने अपनी जांच रिपोर्ट में रजनी को बतौर सजा न सिर्फ शहर बल्कि राज्य से भी बाहर स्थानांतरण करने की अनुशंसा की.

मामला चूंकि सरकार के उच्चस्तरीय प्रशासनिक अधिकारी से जुड़ा था और आरोप भी बहुत संगीन थे, इसलिए मुख्य सचिव ने व्यक्तिगत स्तर पर गुपचुप तरीके से भी मामले की जांच करवाई और आखिरकार, उपासना की जांच रिपोर्ट को सही मानते हुए सुशील को बहाल करने के आदेश जारी हो गए, हालांकि उन का विभाग जरूर बदल दिया गया था. रजनी का ट्रांसफर दिल्ली से लखनऊ कर दिया गया.

रजनी ने कई बार मौखिक व लिखित रूप से विभाग में अपना माफीनामा पेश किया, मगर आरोपों की गंभीरता को देखते हुए विभाग ने उस का प्रार्थनापत्र ठुकरा दिया और आखिरकार रजनी को लखनऊ जाना पड़ा.

आज भले ही सुशील अपने ऊपर लगे सभी आरोपों से बरी हो चुके हैं मगर महिलाओं को ले कर एक अनजाना भय उन के भीतर घुस गया है. महिलाओं के प्रति उन के अंदर जो एक स्वाभाविक संवेदना थी उस की जगह कठोरता ने ले ली. वे शायद जिंदगीभर यह हादसा न भूल पाएं कि महज काम के घंटों में छूट न देने की कीमत उन्हें क्याक्या खो कर चुकानी पड़ी.

सुशील ने मुख्य सचिव को पत्र लिख कर अपील की कि या तो

उन के अधीन कार्यरत सभी महिलाओं को दूसरे विभाग में ट्रांसफर कर दिया जाए या फिर उन्हें ही ऐसे सैक्शन में लगा दिया जाए. जहां महिला कर्मचारी न हों. आखिर दूध का जला छाछ भी फूंकफूक कर पीता है.

स्वाभाविक है यह मांग नहीं मानी गई और सालभर बाद सुशील ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और अपना छोटा सा कंसल्ंिटग का व्यवसाय शुरू कर दिया. एक औरत ने इस तरह उन की कमर तोड़ दी कि अब वे पत्नी व बेटी से भी आंख नहीं मिला पाते हैं. Social Story 

Family Story In Hindi : प्रेम की सीमा

Family Story In Hindi : वे नए शहर में आए हैं. निशा खुश दिख रही है. कारण एक आवासीय सोसायटी में उन्हें एक छोटा सा फ्लैट भी जल्दी मिल गया था. निशा और पीर मोहम्मद पहले दिल्ली में रहते थे, जहां पीर एक छोटे से कारखाने में पार्टटाइम अकाउंटैंट की नौकरी में था. इसी तरह वह 1-2 और दुकानों में अकाउंट्स का काम देखता था. लेकिन कोरोनाकाल में वह काफी परेशानियों से गुजरा था. पीर मोहम्मद ने भी उस दौरान व्हाट्सऐप ग्रुप बना कर कुछ जरूरतमंदों की सहायता की थी. लोगों को राशन दिलाने में भी लगा रहा, लेकिन कोरोना का दूसरा वर्ष अप्रैल माह और भी भयावह था.

वजीर ए आजम के भाषण से मुल्क में इतनी आत्मनिर्भरता फैल चुकी थी, जहां प्रत्येक व्यक्ति अपनी रक्षा स्वयं करता दिखा, जहां अपनी जान की रक्षा स्वयं के कंधों पर थी. लोगों की मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा था. कोरोना रोकथाम का पहले साल का लौकडाउन कम भयावह न था. सड़कों पर लोग अपने परिवार के साथ मीलों पैदल चल रह रहे थे. सांसद, विधायक, पार्षद सब नदारद दिखे थे. तब पीर मोहम्मद ने अपने मित्र पैगंबर अली से कहा था,”भाई साहब, बस स्टैंड, बिजली के खंभों, चौराहों पर जो आएदिन बड़ेबड़े फ्लैक्स लगा कर लोगों को ईद, बकरीद, दीवाली, होली, रक्षाबंधन, क्रिसमस, बुधपूर्णिमा, डा.अंबेडकर जयंती की मुबारकबाद देते थे आखिर अब वे सभी कहां चले गए? मंदिर और मसजिद के नाम पर चंदा लेने वाले नहीं दिखते, जो सुबहसुबह गलियों में मंदिर निर्माण के लिए चंदा इक्कठा करते घूमते थे? ऐसे जुझारू नेता और स्वयंसेवक सामाजिक कार्यकर्ता आखिर कहां हैं इस वक्त?”

तब पैगंबर अली ने कहा था, “भाई, लगता है, सब कोरोना वायरस से निबट गए.”

मुल्क में औक्सीजन, बैड, दवाइयों के कारण लोग मर रहे थे, जिस से श्मशान और कब्रिस्तान में लंबीलंबी लाइनें लग रही थीं. हालात यह था कि श्मशान में अधजली बौडी पड़ी रहती थीं क्योंकि लोगों के पास साधन न थे, न थीं लकड़ियां. ऐसी स्थितियां लोगों को विचलित कर देती थीं. बहुतेरे मृत शरीर गंगा नदी के रेत में दफन दिख रहे थे जिन्हें जानवर खा रहे थे. बहुत भयानक मंजर. ऐसी खबरें देख कर निशा बहुत दुखी होती थी. घबराहट होता था उस के मन में.
पीर मोहम्मद जब भी फोन उठाते कोई न कोई अप्रिय घटना उसे व्हाट्सऐप से मिल ही जाती थी. अब तो उसे अपना फोन उठाने में भी डर लगने लगा था.

अप्रैल में ही पीर मोहम्मद के बहुत करीब फादर जौय का इंतकाल हो गया था. पीर मोहम्मद को उन से एक लगाव सा था. जब पीर मोहम्मद दिल्ली में था तो फादर जौय ने उस के बच्चे के स्कूल ऐडमिशन में उस की मदद की थी. फादर जौय की कोरोना से मौत की खबर सुन कर पीर मोहम्मद बहुत रोया था.

अप्रैल तक पूरे मुल्क में करोना से 2 लाख से ज्यादा लोग मर चुके थे. मई 2022 में ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा कि भारत में कोरोना से 47 लाख लोगों की मौत हुई है.

पीर मोहम्मद निशा से कहता, “समाज कितना असंवेदनशील हो गया है, तभी तो हम इन मौतों को रुपए की गिनती से देख रहे हैं. ₹2 लाख कम हो सकते हैं, लेकिन 2 लाख लोगों का मर जाना बहुत भयावह है. इन दोनों में बहुत अंतर है. कोरोना बहुत बड़ी त्रासदी बना. इस से लड़ने में हमारा सिस्टम पूरी तरह नाकाम दिख रहा है. क्या इस सिस्टम की जवाबदेही नहीं है? इस सरकार की जवाबदेही नहीं है?

जब सरकार पूरे मुल्क में लौकडाउन लगा सकती है, तो संसाधनों की उपलब्धता क्यों नहीं कर सकती? कोरोना ने दिखाया है कि हमारी सरकार और हम लोगों की नैतिकता बिलकुल समाप्त हो चुकी है. एक सांसद जिन को 1 महीने में लगभग ₹2 लाख से अधिक वेतन मिलता है, तो आखिर किसलिए? दूसरी तरफ सत्ता आंदोलनकारियों को जेलों में ठूंस चुकी थी. सरकार तानाशाही तरीके से कोरोनाकाल में ही 3 नए कृषि कानून को ले आई थी. कोरोनाकाल में ही किसान आंदोलन में सक्रिय हो गए, क्योंकि यह उन के लिए जीने और मरने की बात थी.

भारतीय समाज से लोककल्याणकारी व्यवस्था का लगभग अंत होता सा दिखा. यह तो नवउदारवाद है जहां सरकारी नीति में पूंजीपतियों जैसी सोच हावी हो जाना. जहां सरकार कहे कि हम ने मुफ्त में कोरोना के टीके लगाए हैं.

निशा और पीर मोहम्मद के लिए यह शहर तो नया था. आसपास के घरों की कुछ महिलाओं से निशा की हायहैलो तो हो ही चुकी है जबकि समाज में एक सोशल डिस्टैंस नामक तत्त्व स्थापित हो चुका था. वैसे सामाजिक दूरियां तो पहले भी थीं पर उन में कुछ कानूनी अंकुश था. लेकिन अब तो स्वस्थ्यतौर पर लोग एकदूसरे से दूरी रख सकते हैं. यहां पीर मोहम्मद को कुछ बेहतर नौकरी मिल गई थी. बेचारे ने बड़ी मेहनत की थी, लेकिन उम्र तेजी से भागता है. उस ने तो सरकारी नौकरी प्राप्त करने की बहुत दिनों तक आशा की थी. इस नए शहर में उन्होंने अपने बेटे बबलू का ऐडमिशन वहीं के एक कौन्वेंट स्कूल में करा दिया था.

निशा यहां खुश इसलिए भी थी क्योंकि लगभग 8 वर्षों बाद उसे अपना एक फ्लैट मिला था जिसे वह अपना तो कह ही सकती थी. वैसे, वह किराए पर भी खुश थी, लेकिन अपने स्वयं के फ्लैट की बात ही अलग होती है. निशा किराए के घर को भी चमका कर रखती थी. पहले वाली मकानमालकिन कहती कि अरे, पीर मोहम्मद, तेरी बींदणी बहुत अच्छी है. साफसफाई पर ज्यादा ध्यान देती है. निशा पीर मोहम्मद के प्रति एक समर्पित और शिक्षित गृहिणी थी. शादी के 9 वर्ष होने वाले थे, लेकिन निशा के चेहरे की त्वचा आज भी 24 की ही लगती थी. अब तो उस का बेटा बबलू भी 7 वर्ष का हो चुका है.

चूंकि अब वे नए शहर में आए हैं, पीर मोहम्मद की नौकरी पहले से कुछ बेहतर जरूर थी. निशा को पार्क और पेड़पौधे बड़े प्रिय लगते. वह अकसर सोचती थी कि अपना घर होने पर बागवानी करेगी. लेकिन उस ने अपने नए फ्लैट को काफी अच्छे से सजा दिया था. अब नियमित तो नहीं, लेकिन एक रोज छोड़ कर सोसायटी से कुछ दूर एक बहुत बड़े सिटी पार्क में बबलू को ले कर जाती. बबलू खुश होता. उस को दौड़नेकूदने का एक बड़ा सा स्पेस मिल जाता था. निशा के साथ कभीकभी सोसायटी की कुछ महिलाएं भी साथ जाती थीं. लेकिन उन में एक सामाजिक दूरी रहती थी. एक तो कोरोना और दूसरा धार्मिक और जातीयता का क्योंकि एक महिला ने निशा से उस के धर्म के बारे में पूछा था, तब निशा ने कहा था हम मुसलमान हैं.

एक दूसरी मुसलिम महिला ने उस से उस की धार्मिक जाति भी पूछी, तब निशा ने उसे बताया था कि हम ‘शाह’ हैं, तब उस ने उसे कमतर दृष्टि से देखा था. निशा सोचती है कि हिंदू वर्ग में मुसलमानों के नाम से भेदभाव है. लेकिन मुसलिम समुदाय में भी क्या जाति को ले कर भेद नहीं है? निशा सोचती है कि क्या पसमांदा मुसलमान दोहरी मार के शिकार नहीं हैं?

उस दिन से सोसाइटी में और भी सोशल डिस्टैंस बढ़ गया था. वैसे, कोई न कोई महिला पार्क में घूमते जाते वक्त दिख ही जाती. कुछ का साथ न सही, दूसरी तरफ कोरोनाकाल में पार्क में भीड़ भी कम ही दिखती थी.

एक रोज निशा बबलू को ले कर पार्क गई थी. बबलू अन्य बच्चों के साथ लुकाछिपी खेलने लगा. कुछ बच्चों की मांएं आवश्यक काम होने की वजह से घर चली गईं. लेकिन बबलू घर चलने को तैयार नहीं था. वह कहता, “मम्मी, खेलो न…”

निशा ने कहा, “ठीक है, छिप जाओ.” इस तरह वह खेलने लगी.

जब निशा की दोबारा बारी आई और वह बबलू को खोजने लगी, तो पता नहीं कहां जा कर छिप गया, मिल ही नहीं रहा था.

बबलू कहां हो…बबलू…बबलू… लेकिन कहीं से कोई आवाज ही नहीं आई. शाम ढलने लगी थी. निशा ने देखा कि बगल में एक पार्क और है, जो कुछ छोटा है और जिस में बंदर, शेर, हिरन, भालू की आकृति भी बनी हुई थी. निशा सोचने लगी कि क्या पता उस के अंदर तो नहीं चला गया है. निशा ने उस छोटे पार्क में जा कर आवाज लगाई “बबलू… बबलू…” लेकिन कुछ पता नहीं.

अब उसे बहुत घबराहट होने लगी थी. सोचने लगी कि पीर मोहम्मद को फोन करूं या न करूं. पीर मोहम्मद तो काफी गुस्सा होंगे और वह रोने लगी क्योंकि पार्क भी खाली हो रहा था. वैसे ही उस में कम लोग थे. पार्क में सन्नाटा पसर रहा था जहां कुछ देर पहले कुछ शोरगुल और बच्चों की किलकारियां वातावरण में गूंज रही थीं, वहीं शाम ढलने को थी. लाइटें कुछ कुछ दूरी पर थीं. एक बड़ी ऊंची लाइट भी थी पर पार्क में सन्नाटा पसर गया था.

निशा ने सब जानवरों की आकृतियों के पास जा कर देखा, लेकिन बबलू नहीं मिला. अब वह रोने लगी. तभी पीछे से किसी आदमी ने आवाज दी कि क्या हुआ मैडम? निशा ने उसे बताया कि मैं अपने बेटे बबलू को खोज रही हूं, जो उस बड़े पार्क में खेल रहा था, मिल ही नहीं रहा है.

उस आदमी ने कहा,”आप उसे वहीं खोजें. बच्चा बाहर तो नहीं गया होगा.”

वह निशा के साथ बड़े पार्क में गया. निशा ने देखा कि बबलू बेंच पर बैठा रो रहा है. उधर से एक सुरक्षाकर्मी भी आता दिखा. निशा बबलू को देख कर जोरजोर से रोने लगी थी. उस ने उसे चूमा और सीने से लगा लिया था,”कहां चला गया था?”

बबलू ने कहा, “मैं तो यहीं था,” वह भी हिचकियां लेले कर रो रहा था.

“मैं तो हाइड ऐंड सिक खेल रह था,” बबलू पता नहीं क्यों अकेले में बातें किया करता है. निशा अकसर यह बात पीर मोहम्मद से पूछती थी. बबलू ने उसी पार्क में एक कुआं दिखाया जो लगभग 4 फुट ऊंचे ईंटों से घेरा गया था और लोहे के ग्रिल से ढंका हुआ था ताकि कोई बच्चा उस में न गिर जाए और न कोई उस पर चढ़ पाए. बबलू उस कुएं के पीछे छिप गया था.

निशा ने कहा,”बेटा, ऐसा नहीं करते. अकेले बच्चों को राक्षस ले जाता है. जब मम्मी आवाज लगा रही थी तो क्या आप ने सुना नहीं?”

“नहीं मम्मी, मैं तो हाइड ऐंड सिक खेल रहा था.”

इस के बाद निशा बबलू को ले कर पार्क से बाहर आई. साथ में वह आदमी भी आया था. उस की उम्र लगभग 40 की होगी. निशा ने उस से कहा,”आप का एहसान है, मुझे तो उस समय कुछ समझ ही नहीं आ रहा था आखिर मैं करूं तो क्या? एक तो नया शहर है. पता नहीं क्या उलटासीधा दिमाग में घूमने लगा था.”

व्यक्ति ने कहा, “आप नए हैं यहां?”

“जी…” निशा ने उसे बताया कि वह सैक्टर-बी में नई बनी सोसायटी में रहती है.

निशा ने उसे अपना फोन नंबर भी दिया. वह कुछ आगे बढ़ गई तभी उसे याद आया कि अरे, मैं ने तो उन का नाम भी नहीं पूछा.

उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो वह आदमी जा रहा था. उस ने आवाज लगाई और जब उस ने देखा तो निशा ने उस को हाथ हिलाया. वह ज्यादा दूर नहीं गया था. वह उस के पास आया तो निशा बोली,”सौरी, मैं ने तो आप का नाम ही नहीं पूछा, क्या नाम है आप का?”

“सरफराज खान.”

पीर मोहम्मद घर पहुंच चुका था. वह निशा पर कोई पाबंदी नहीं चाहता था. दूसरी बात यह भी थी कि वह घर से ज्यादा निकलती भी नहीं थी. दिल्ली शहर में जब वे रहते थे तो वहां उन के कुछ रिश्तेदार भी रहते थे. अगर निशा उन के घर जाती तो जाने से पहले वह पीर मोहम्मद को बता देती थी. औफिस से आने के बाद पीर मोहम्मद अगर सिंक में किचन के जूठे बरतन देखता तो उसे साफ कर देता था. चाय भी बना कर पी लेता था. आज जब निशा नहीं आई थी तो वह समझ गया था कि कुछ काम होगा उसे, क्योंकि निशा ने उन्हें बता दिया था कि वह बबलू को पार्क में ले जा रही है. निशा एक जिम्मेदार औरत है.

दरअसल, वह अपनी उम्र से ज्यादा समझदार हो गई थी. शादी कर के आई तो उस के कम खर्चे को ले कर पीर मोहम्मद अकसर दुखी भी हो जाता था. जब कभी दोनों बाजार जाते तो वह अपने लिए कुछ न खरीदती. पीर मोहम्मद उसे बारबार कहता कि कुछ तो खरीद लो, लेकिन वह नहीं खरीदती. पीर मोहम्मद को अंदर से रोने जैसा भाव हो जाता था.

निशा ने उसे देख कर कहा,”कब आए?”

“थोड़ी देर हुआ है. क्यों बबलू, आज तो मजा आया होगा?”

निशा ने कहा, “आप ने कुछ लिया?”

“हां, चाय बनाई थी, लेकिन तुम तो जानती हो कि तुम्हारे हाथ की चाय पीए बगैर लगता ही नहीं है कि चाय पी है.”

निशा और पीर मोहम्मद का विवाह अरैंज्ड से लव मैरिज बन गया था. जब दोनों की शादी की बात चली तो दोनों ने एकदूसरे से मिले बगैर ही शादी कर ली. पीर मोहम्मद और निशा का एकदूसरे से फोन पर बातचीत से ही बहुत लगाव हो गया था. इतना लगाव कि उन्होंने एकदूसरे को देखना भी मुनासिब नहीं समझा था. पीर मोहम्मद के साथ रहतेरहते निशा के सालों गुजर गए थे. इन वर्षों में निशा ने पीर मोहम्मद से कुछ डिमांड न की, क्योंकि वह पीर मोहम्मद की माली हालात को अच्छी तरह समझती थी. दूसरी तरफ वह बहुत संकोची थी. उसे लगता कि कोई उस बात को बोल न दे. कोई ताना न मार दे. वह किसी बात को ले कर गंभीर हो जाती है. वह किसी भी बात को बहुत जल्दी दिल पर लगा लेती. बहुत संवेदनशील रहती थी वह.
साल 2 साल में कभी कपड़े खरीद लिए नहीं तो कोई डिमांड नहीं. कहीं घूमना भी नहीं जाना होता.

निशा को याद है जब उस की शादी हुई थी, तो पीर मोहम्मद ने कहा था कि वह उसे आगरा ले कर जाएगा, लेकिन उस के पास इतने पैसे ही नहीं हुए कि ले कर जाए. 3 महीने बाद वह अपने मायके चली गई थी. जब वापस आई तो 1 साल के बाद पीर मोहम्मद उसे घुमाने ले गया था. उस समय निशा 2 महीने से पेट से थी. पीर मोहम्मद दहेज तो नहीं लेना चाहता था, लेकिन सामाजिक रूढ़ियों में वह दवाब में आ गया था. उस के अंदर भी कुछ दहेज को ले कर एक लालच समा गया था था फिर भी अपनी तरफ से कुछ भी डिमांड नहीं कर सका. लेकिन शादी के बाद उस ने निशा के मातापिता को सरेआम बेइज्जत किया, पारिवारिक व सामाजिक रूढ़ियों के दबाव में क्योंकि कोई कितना भी आदर्शवादी बने, लेकिन इस व्यवस्था से निकलना मुश्किल हो जाता है. ऐसा नहीं है कि लोग नहीं निकले हैं. पीर मोहम्मद परिवर्तनवादी प्रक्रिया में जरूर था. सब से बड़ी बात तो यह थी कि उस ने कुछ मांगा भी नहीं था, लेकिन घर वालों की तानाकशी के प्रभाव में आ ही गया था. लेकिन वह एक अच्छा इंसान है जो केयर तो करता है लेकिन उस में व्यक्ति को पहचानने की समझ नहीं. वह निशा से कहता कि किसी चीज की आवश्यकता है तो उसे कह दे. लेकिन निशा कहती कि जैसे मैं आप की दिल की बात समझ जाती हूं तो आप क्यों नहीं समझ पाते? यह दोनों का बहुत बड़ा विरोधाभाष लगता है.

शादी के बाद बाद वे 2-3 बार ही लोकल घूमने गए थे. इतने सालों में वे पीर मोहम्मद के साथ 2 बार ही सिनेमा देखने गई थी. लेकिन निशा पीर मोहम्मद को बहुत प्यार करती थी जबकि पीर मोहम्मद उस से उतना प्यार नहीं करता था. लेकिन वह उस के बगैर रह भी नहीं सकता था. जब निशा उस से नाराज हो जाती या बात करना बंद कर देती तब पीर मोहम्मद बैचन हो जाता.

प्यार बिलकुल अंधा होता है, जो व्यक्ति उस के अंदर उस में समाहित हो जाता है उस से निकलना एक सच्चे और संवेदनशील व्यक्ति के लिए बहुत मुश्किल होता है. शादी से पहले एक बार फोन पर पीर मोहम्मद ने निशा से कहा था, “इस बार जब तुम्हारे पापामम्मी आए तो अपना फोटो जरूर भेज देना.”

लेकिन जब उस के मम्मीपापा आए, तो फोटो नहीं ले कर आए थे. इस पर पीर मोहम्मद ने निशा से अपनी नाराजगी जाहिर की थी. सच्चा प्यार वही कर सकता है, जो संवेदनशील है. देश, अपने और समाज के प्रति इस के विपरीत कोई नहीं. प्यार किसी की जान नहीं लेता. प्यार न ही किसी के शरीर का भूखा होता है. प्यार तो समर्पण है एकदूसरे के लिए. प्यार किसी के प्रति इर्ष्या भी नहीं है. अगर कोई किसी को प्यार करता तो वह उस को दुख नहीं दे सकता. न उस को हानि पहुंचा सकता है. प्यार किसी का रूपरंग भी नहीं देखता है, लेकिन इस को जीवन में ढाल लेना ही जीवन को समझ लेना होता है. इसी प्रकार समाज और देश है. इस के प्रति सच्चा समर्पण किसी व्यक्ति को किसी भी स्तर से दुखी न करना है.

लेकिन जब शादी में पीर मोहम्मद ने निशा को पहली बार देखा तो उसे लगा कि कैसी लड़की से शादी हो रही है, इस के तो सिर के बाल झङ गए हैं. निशा अपने बालों को सामने से ढंक कर रखती थी, जोकि उस पर बहुत भद्दा लगता था. शुरू में निशा में पीर मोहम्मद को कुछ विशेष आकर्षण नहीं दिखा था. लेकिन वह कुछ कर नहीं सकता था क्योंकि शादी हो चुकी थी. अब वह उस के बंधन में बंध चुका था, अगर वह उस को पहले देख लेता तो शायद शादी न करता. लेकिन वह उस से बेहद प्रेम करने लगा था, निशा उस से ज्यादा प्रेम करती थी.

पीर मोहम्मद को स्त्रियों के घने बाल बहुत अच्छे लगते थे. अपनी शादी के बाद वह सोचता है चि क्या उपाय करें, जिस से निशा के बाल घने हो जाएं. तब वस बाजार से अपनी हैसियत के अनुसार बाल घने और गंजापन दूर करने के लिए तरहतरह के तेल खरीद कर लाने लगा. उस के सिर पर मलिश भी करता. वह मालिश करता तो निशा को बुरा लगता था. लेकिन पीर मोहम्मद ने उसे बता दिया था कि उसे घने बाल अच्छे लगते हैं और छोटे बौब कट जैसे.

एक बात और थी कि पीर मोहम्मद भी कोई बहुत विशेष न था. लेकिन समाज हमेशा सुंदर बहू की कामना करता है चाहे लड़का कैसा भी हो. लेकिन निशा दब्बू लड़की नहीं थी. यह चाहत तो पीर मोहम्मद में थी. पर निशा सुंदर थी. दूसरी बात यह भी थी कि निशा उसे बहुत खराखरा सुना भी देती थी, उस के फुजूलखर्ची जोकि वह नहीं करता था लेकिन अनावश्यक कोई सामान मंगा ले आना. अपने खर्चे को ताक पर रख कर दूसरों को दे देना. पीर मोहम्मद दिखावटी भी था.

एक दिन निशा ने उस से कहा,”तुम्हारे साथ इतने वर्ष हो गए कभी कुछ डिमांड न की. क्या तुम बच्चे की ख्वाहिश भी पूरी नहीं कर सकते हो?”

लेकिन अब दोनों की स्थितियां बदल चुकी थीं. अब पीर मोहम्मद के पास पहले से बेहतर नौकरी थी. पीर अब 40 का हो गया था और निशा 34 की, लेकिन सचाई तो यह भी थी कि निशा ने उस के साथ बहुत समझौता किया था. पीर मोहम्मद एक अच्छा इंसान तो था लेकिन उस में शुरूशुरू में मेल ईगो भी था, कुछ घमंडी भी, जबकि उस के पास कुछ न था. पर उस ने अपने मेल ईगो धीरेधीरे समाप्त कर लिया.

निशा जब पार्क से आई, तो बबलू को ले कर बाथरूम में चली गई थी, क्योंकि भारत में जब से कोरोना फैला, लोगों में एक दूरी सी बन गई. अब सोशल डिस्टैंस ज्यादा ही हो गया है. हाथ धोना, मुंह धोना, कपड़े बदलना… खासकर बाहर से आने के बाद तो यह एक नियमित दिनचर्या है. निशा सोचती कि क्या यह सामाजिक दूरी पहले कम थी, जो कोरोना की आड़ में और ज्यादा हुई है? मुसलमानों से मिलनेजुलने में खासतौर पर शहरी वर्ग में एक संशय पहले ही था जो अब ज्यादा बढ़ गया है. सीएए और एनसीआर के विरोध के बाद खासतौर पर मुसलिम मोहल्लों को मुल्क विरोधी गतिविधियों के तौर पर जानना कुछ लोगों की मनोस्थिति थी जबकि कोरोना को रोकने का उपाय सरकार ढूंढ़ नहीं पा रही थी.

जल्दीजल्दी बबलू के हाथमुंह धो कर बाथरूम से निशा ने उसे बाहर भेज दिया था और पीर मोहम्मद ने उसे दूसरे कपड़े पहना दिए थे. अब बबलू उस के साथ खेलने लगा था.

कुछ देर के बाद निशा पीर मोहम्मद के लिए चाय ले कर आई. वह बबलू के साथ खेल रहा था. बबलू को दूध और कुछ बिस्कुट दिए थे. दोनों चाय पीने लगे, तब निशा ने पीर मोहम्मद को पार्क वाली घटना बताई कि बबलू कैसे गुम हो गया था, गुम क्या उस की शरारत थी.

एक आदमी ने मदद की, सहयोग किया खोजने में. इस पर पीर मोहम्मद गुस्सा हुआ, लेकिन जल्दी ही शांत हो गया क्योंकि वह जानता था कि उस का गुस्सा निशा के सामने नहीं चल सकता. चलेगा तो उसे ही सौरी बोलना पड़ेगा नहीं तो निशा गुमशुम हो जाएगी. घर का सब काम करेगी लेकिन उस से पहले जैसा व्यवहार नहीं करेगी. निशा ने अपने को पहले से बहुत बदल लिया है फिर पीर मोहम्मद उस को समझ ही चुका था.

उस ने कहा “देखो यार, नया शहर है, हम किसी को ज्यादा जानते नहीं हैं. तुम ने मुझे फोन क्यों नहीं किया?”

निशा ने कहा, “मैं काफी डर गई थी और कुछ समझ ही नहीं आ रहा था.”

“चलो, कोई बात नहीं, अब खुश हो जाओ. क्या नाम था उस आदमी का?”

“सरफराज खान….”

“छुट्टी वाले दिन उस को खाने पर बुलाना. मेरे पास तो उस का फोन नंबर भी नहीं है,” पीर मोहम्मद ने कहा.

2 दिन के बाद सरफराज ने निशा को फोन किया और मिलने की इच्छा जाहिर की. निशा संकोच करते हुए उसे टाल न सकी, क्योंकि उस दिन का एहसान था. निशा ने उसे अगले दिन मिलने की बात कही. कहा कि वह सुबह बच्चे को स्कूल वैन तक छोड़ने आती है, उस के बाद मिलेगी. क्योंकि वह भी सैक्टर-बी में ही रहता था. निशा बबलू को छोड़ने के बाद उस से मिली. सरफराज बहुत खुश हुआ और वह उस के लिए चाय बना कर भी लाया. निशा ने देखा कि उस के फ्लैट में बहुत सी पैंटिंग थी. निशा ने पूछा,”क्या आप आर्टिस्ट हैं?”

उस ने कहा,”जी, पहले मैं विदेश में रहता था अब फिर कुछ वर्षों से यहां हूं. वहां कुछ व्यापर भी करता था. उस ने निशा की भी पैंटिंग दिखाई जो उस ने बनाई थी, जब उस के आंखों में आंसू आ गए थे जो बहुत आकर्षित कर रह था. निशा की बड़ीबड़ी आंखें जो बिलकुल दूध की भांति सफेद दिखती थी, अपनी सचाई को बखान कर रही थी. निशा ने जब वे पैंटिंग्स देखी तो बहुत ज्यादा खुश हुई.

निशा ने उस से पूछा,’यह कब की पैंटिंग हैं?”

उस ने कहा,”जब आप बबलू को खोज रही थीं और आप के आंखों में आंसू थे तब मैं ने फोटो लिया था.”

निशा ने कहा,”आप ने कब फोटो ले ली.”

उस ने कहा, “उसी शाम को. हम तो कलाकार हैं, चेहरा देख कर याद कर लेते हैं फिर भी फोटो ले लेते हैं ताकि कुछ गलत न हो. मैं एक फोटोग्राफर भी हूं.”

निशा ने कल्पना भी न की थी कि कोई व्यक्ति उस की इतनी अच्छी पैंटिंग बनाएगा. अब चाय खत्म हो चुकी थी.

सरफराज ने पूछा,”चाय कैसी लगी?”

निशा ने कहा, “पैंटिंग के मुकाबले तो बिलकुल रद्दी थी. सही बता रही हूं. मैं झूठी तारीफ नहीं करती.”

“फिर तो आप की हाथ की चाय पीनी पड़ेगी.”

“क्यों नहीं?”

“कभी हमारे घर आएं. पीर मोहम्मद भी आप से मिलना चाहते हैं?”

“लेकिन मुझे तो अभी पीनी है. प्लीज…प्लीज…”

निशा ने समय देखा, अभी सुबह के 9 बजे थे. बबलू की स्कूल वैन तो दोपहर 1 बजे आती है. सरफराज के आग्रह में बहुत आकर्षण था. उस में एक अनुरोध था, निशा मना नहीं कर पाई.

निशा को लगा कि यह ऐसे कह रहा है जैसे कल यह यहां नहीं होगा. निशा ने उस से पूछा, “आप अकेले रहते हैं?”

उस ने कहा, “जी, अब कोई नहीं करीबी हैं, मगर नाम के.”

निशा ने उस की ओर देखा. उस ने कहा,” चलिए, मैं आप को अपना किचन दिखता हूं,” फिर उस ने निशा को दूध, चीनी और चायपत्ती दी.

निशा ने उस से कहा, “आप के पास अदरक नहीं है क्या?”

उस ने कहा,”नहीं.”

“अदरक से स्वाद बढ़ जाता है,” निशा ने कहा.

चाय पीने के बाद सरफराज ने कहा,”अद्भुत, ऐसी चाय मैं ने अपने जीवन में आज तक नहीं पी है.”

निशा ने सरफराज से कहा, “कोरोना महामारी के पहले वर्ष हम दिल्ली में थे. बहुत बुरा दौर था. सब्जी वाले, फल वाले गलीगली भटकते थे. पीर मोहम्मद बगैर राशनकार्ड धारक जोकि राशन कूपन प्राप्त करने की प्रतीक्षा में रहते, उन्हें राशन दिलाने में लगे रहते थे. बहुत चिंतित रहते थे कि उन्हें कैसे राशन मिले?”

सरफराज ने कहा,”जी, यहां भी यही हाल था. पुलिस वाले सब्जी बाजार और थोक मंडी में लोगों को पीटते. उस दौरान मैं ने बहुत सी फोटो ली हैं. लोगों की कुछ सहायता की. लेकिन सरकार नाकाम दिखी. इस सैक्टर-बी कालोनी को जब आप पार करेंगी तो एक लेबर चौक है, वहां के दिहाड़ी मजदूर बदहाल एवं परेशान थे. सस्ती दरों में सब्जी भी बिक रही थी. कुछ राशन दुकानदार फायदा भी उठा रहे थे. इस महामारी में गरीब ज्यादा परेशान और बदहाल था, दूसरी तरफ भक्त कह रहे थे सरकार सभी जमातियों के पिछवाड़े को लाल कर देगी. खैर, सब मुद्दों को छोङ कर, जनता थाली उत्सव के बाद, कोरोना दीपोत्सव…”

निशा ने कहा, “क्या मूर्खता चरम पर नहीं पहुंच गई है? लेकिन सरकार संविदा में कार्यरत लोग, बेरोजगार दिव्यांग और दृष्टिबाधितों के लिए कुछ नहीं करती दिखी. बहुत से लोगों के हिसाब से कोरोना वायरस, मुसलिम आतंकवादियों ने भारत के खिलाफ एक साजिश रची थी, जो हिंदुओं को खत्म कर देना चाहते थे और भारत में तबाही फैलाना चाहते थे. इसलिए उन का मानना था कि उन्हें मुसलमानों से संपर्क नहीं रखना चाहिए. ऐसी बातें गांवों, कसबों में सांप्रदायिक तत्त्वों द्वारा फैलाई जा रही थीं, जिस सें मीडिया ने अहम भूमिका अदा की थी.”

एक दिन लोकल मार्केट में पीर मोहम्मद और निशा की मुलाकात सरफराज से हुई. निशा ने पीर मोहम्मद को बताया कि यही हैं सरफराज, जो उस दिन बबलू को खोजने में मदद की थी.”

तभी पीर मोहम्मद ने कहा,”कल रविवार है. शाम को आइए न खाना साथ खाएं.”

रविवार को सरफराज निशा के घर पर आया. पीर मोहम्मद ने उस का खुले दिल से स्वागत किया. उस ने पीर मोहम्मद को बताया कि यह शहर उस के लिए पुराना है, लेकिन मैं अब बिलकुल अकेला रह गया हूं. हमारा घर इसी शहर में था और दशकों पहले मम्मीपापा का इंतकाल हो चुका है. कुछ रिलेटिव हैं, लेकिन वे दूरदूर रहते हैं. कुछ दूसरे शहर में हैं. पहले मैं कनाडा में रहता था, अब यही हूं. वहां से आने के बाद ही मैं ने यहां फ्लैट लिया था. जब से यहां हूं नहीं तो कुछ दिनों में ही बहुत दूर चला जाऊंगा.”

पीर मोहम्मद ने पूछा,”मतलब कहां?”

“कनाडा, और कहां…”

उस रोज सरफराज निशा की पैंटिंग भी ले कर आया था, जिसे देख कर पीर मोहम्मद भी बहुत खुश हुआ,”अरे जनाब, आप तो मकबूल फिदा हुसैन जैसे कलाकार हैं. क्या पैंटिंग बनाई है. इस में जीवंतता है. ऐसा लगता है कि कब बोल पड़ेगी पैंटिंग.”

इस के बाद सरफराज जब भी उधर से गुजरता वह उस से मिल लेता था.
निशा बबलू को जब स्कूल छोड़ने जाती तो सरफराज फोन कर देता. निशा उस के घर चली जाती. जब निशा सरफराज के घर जाती तो उस की डिमांड रहती की चाय बना कर पिला दे. अब तो सरफराज ने अदरक भी खरीद कर रख ली थी.

निशा सोचती कि आखिर वह उस की बात मना क्यों नहीं कर पाती है. निशा के न मना करने का कारण यह भी था कि सरफराज छोटी उम्र में ही अनाथ हो चुका था. दूसरी बात यह भी थी कि निशा को उस से कुछ लगाव सा हो गया था. कोई था ही नहीं उस का इस दुनिया में जिस से वह अपने दिल की बात कह सके.

निशा जब उस के घर जाती तो वह कुछ नई पैंटिंग्स दिखाता. कुछ फोटो दिखाता. उस रोज निशा को जब उस ने फोन किया और घर आने की बात कही तो निशा ने मना कर दिया था. निशा ने उस से कहा था कि दूसरे दिन देखेगी. मगर फिर दूसरे दिन निशा उस के घर गई.

सरफराज ने अपनी आदतानुसार चाय पीने की ख्वाहिश जाहिर की. निशा जब चाय बना कर लाई तो उस रोज सरफराज ने उस को उपहारस्वरूप झुमके देने की ख्वाहिश जाहिर की. निशा ने कहा कि यह क्या है? इस का मतलब यह नहीं है कि मैं आप को चाय बना कर दे रही हूं या आप से बात कर ले रही हूं, तो आप मुझे यह सब देंगे. लेकिन वह बहुत रिक्वैस्ट करने लगा कि उसे पहन ले. यह उस की आखिरी इच्छा है.

निशा ने कहा,”मैं इसे नहीं लूंगी लेकिन पहन लेती हूं, आप की खुशी के लिए. वैसे, आप की आखिरी इच्छा क्या है?”

सरफराज बोला,”यही कि कलपरसों मैं कनाडा जा सकता हूं.”

निशा को उस के इस व्यवहार से बहुत आश्चर्य हो रहा था और अपनेआप पर गुस्सा भी. पर सरफराज का अनुरोध वह टाल न पाई थी.

जब निशा वे झुमके पहन कर आई तो सरफराज बहुत खुश दिख रहा था, जैसे उस की अंतिम इच्छा पूरी हो गई हो. वे झुमके निशा पर बहुत खिल रहे थे.

निशा ने सरफराज से कहा, “खुश…”

वह चाहता था कि वह निशा की फोटो इस झुमके के साथ बनाए. इस के लिए उस ने निशा की फोटो ली. निशा का रंग सावंला जरूर था, लेकिन चेहरे पर बहुत चमक और तेज था. लगता ही नहीं था कि निशा एक बच्चे की मां है.

निशा ने पूछा,”आप मेरी फोटो क्यों बनाना चाहते हैं? अरे आप अभी तो जवान हैं, शादी क्यों नहीं कर लेते? मैं आप के लिए कोई अच्छी सी लड़की देखती हूं.”

सरफराज ने कहा,”नहीं, अब बहुत देर हो चुकी है. मतलब कि अब कौन शादी करेगा?”

झुमके के संदर्भ में निशा झेंप जरूर गई थी. उसे कुछ समझ नहीं आया था कि आखिर यह है क्या? दोस्ती का अर्थ यह तो नहीं होता. लेकिन दोस्ती का अर्थ बहुत कुछ भी होता है.
निशा ने कहा,”अब मुझे चलना चाहिए,” वह झुमके निकालने के लिए हाथ ऊपर उठाई तो सरफराज ने कहा,”नहीं, यह आप के लिए ही हैं.”

“क्यों?”

“आप अच्छी लगती हैं मुझे,” सरफराज ने कहा.

सरफराज ने कहा,”एक बात कहूं, आप बुरा तो नहीं मानोगी?”

“क्या?”

“मुझे आप से प्यार हो गया है, पता ही नहीं चला आप कब दिल के करीब आ गईं? कहते हैं न कि प्यार तो प्यार है, जो किसी बंधन में नहीं बंधा होता. मुझे पता है आप शादीशुदा हैं फिर भी आप से प्यार हो गया है.”

निशा का गुस्सा फूट पड़ा,”आखिर यह क्या है? मैं जिसे केवल दोस्त समझती हूं, जिस का दुनिया में कोई नहीं है. कुछ साथ एक सहानुभूति का दे रही थी. उसे अपना समझ कर चाय बना दे रही हूं, तो इस का आशय यह नहीं होना चाहिए. आइंदा आप मुझ से न मिलें और न ही मैं आप से मिलूंगी. हद है…अजीब आदमी हैं.”

निशा उस के दरवाजे से बाहर निकल चुकी थी. वह अपने घर आ चुकी थी लेकिन उसे सरफराज से कुछ लगाव तो जरूर हो गया था. निशा ने यह बात पीर मोहम्मद को नहीं बताई. वह जानती है कि पीर मोहम्मद भले ही खुले विचारों का है फिर भी वह जानती थी कि किसी भी पुरुष को यह बुरा लगेगा क्योंकि मेल ईगो भी तो कुछ चीज होता है. लेकिन 2 रोज बाद सरफराज ने निशा को फोन किया. उस ने मिलने की इच्छा जाहिर की. उस ने कहा कि वह अब यहां से जा रहा है फिर कभी वापस नहीं आएगा.

निशा मिलने से पहले हिचकी लेकिन उस रोज गुस्से से वहां निकल आई थी, जो झुमके उस ने पहनी थी उसे वापस करना था इसलिए वह सरफराज से मिलने उस के घर जा पहुंची.

जब निशा सरफराज से मिली तो उस ने उस दिन के लिए माफी मांगी.
उस ने कहा, “क्या करे वह, उस के वश में नहीं रहा. क्या आप मुझे अपने हाथ की चाय नहीं पिलाएंगी?”

निशा ने संकोच करते हुए कहा,”आखिरी बार.”

उस ने कहा,”बिलकुल, आखिरी बार.”

निशा ने चाय बना कर सरफराज को दी. निशा ने झुमके निकाल कर उस के टेबल पर रख दिए.

उस ने कहा,”प्लीज, इसे तो ले लीजिए. एक यादगार रहेगा, जरूरी नहीं है कि अब मैं कभी मिलूंगा. निशानी के तौर पर रख लीजिए.”

निशा उस की तरफ देख रही थी. उस ने निशा के हाथ में झुमके रखे और निशा के माथे पर किस कर दिया. तभी निशा ने उसे झटका दिया. सरफराज ने फिर निशा के माथे को किस किया.

निशा को उस का किस और उस के पकड़ने में एक ऐसा आकर्षण लगा कि वह उस के कंट्रोल में कब चली गई उसे पता ही नहीं चला और वे एकदूसरे में समाहित हो गए. ऐसा लग रहा था कि वे एकदूसरे के लिए ही बने हों. जैसे निशा को एक सच्चे प्रेमी और सरफराज को एक प्रेमिका की तलाश थी. दोनों अब एकदूसरे के प्रति समर्पित दिख रहे थे.

सुबह के 12 बजने वाले थे. 1 बजे बबलू को स्कूल से भी लाना था. वह जल्द से जल्द वहां से निकली. उसे दरवाजे तक छोड़ने भी आया था सरफराज.

निशा उसे भूल नहीं पा रही थी. वह अंदर से बहुत परेशान थी, सोच रही थी कि आखिर ऐसा कैसे हो गया? निशा इस बात पर हैरान थी कि सरफराज कैसे उस की दिल की बात को समझ लेता था, जो पीर मोहम्मद आज तक न समझ सका. क्या यह आसान है एक स्त्री के लिए? वह पूरी रात सोचती रही.

3-4 दिन गुजर गए न सरफराज का फोन आया और न ही निशा ने उस को फोन किया था. चौथे दिन निशा स्वयं सरफराज के घर गई तो देखा दरवाजा बंद था. कुछ देर वह वहीं खड़ी रही. वह घंटी बजा रही थी कि तभी बगल से एक औरत आई. उस ने कहा,”सरफराजजी ने इस फ्लैट की चाबी दी थी, उन्होंने कहा था कि निशा नाम की कोई आएगी तो उन्हें यह चाबी दे देना. क्या आप का नाम निशा है?”

निशा ने कहा, “जी.”

“सरफराज कब गए कनाडा?”

उस ने कहा, “पता नहीं.”

निशा फ्लैट खोल कर सरफराज के घर में घुसी. घर में कुछ अधूरी पैंटिंग थी, उसे वहां एक खत भी मिला. लिखा था :

“अजीज निशा,

“जब खत आप को मिलेगा, शायद मैं इस दुनिया में न रहूं. आप से मिल कर जीने की चाह बढ़ गई थी, जिस से मैं कुछ महीने और जीवित रहा. मैं ने तो आप को पार्क में देखा था, आप को देख कर ही प्रेम हो गया था. आप की बड़ीबड़ी आंखें. उन आखों में सचाई, बात करने का तरीका. आप के अपनत्व ने मुझे आप की ओर आकर्षित कर दिया था. मेरा इलाज सिटी अस्पताल में चल रहा था. मैं ने आप को बताया नहीं, उस के लिए माफी. मुझे कैंसर है, अब मेरे पास समय नहीं बचा है. डाक्टर हर बार कुछ महीने का समय बताते थे. लगता है, वह समय पूरा हो गया है.”

घर आने पर निशा ने पीर मोहम्मद को अपने साथ घटित और सरफराज के साथ शारीरिक संबंध वाली बात सचाई के साथ बता दी थी. उस ने सोचा था कि पीर मोहम्मद उसे छोड़ देगा. सब सुन कर पीर मोहम्मद सिटी अस्पताल पहुंचा फिर उस के कुछ रिश्तेदारों का पता किया. फोन कर के बताया की सरफराज अब नहीं रहे. लेकिन उन्होंने अपनी असमर्थता बताई. बाद में पीर मोहम्मद ने लोकल लोगों के साथ मिल कर उस का सुपुर्देखाक करवाया. फिर वह घर आया और पहले दिन तो उस ने निशा से बात न की, दूसरे दिन कुछ देर सोचता रहा पीर मोहम्मद, फिर उस ने निशा से कहा,”चलो, कोई नहीं, इसे एक सपना समझ कर भूल जाओ. मैं तुम से बैगर बात किए रह ही नहीं सकता.”

पीर मोहम्मद ने निशा से कहा, “दूसरी तरफ जब एक पुरुष किसी औरत के साथ शारीरिक संबंध बना लेता है, किसी दूसरी महिला को प्राप्त करने के बारे में सोच सकता है या किसी के प्रति आकर्षित हो सकता है तो महिला क्यों नहीं हो सकती? मैं इसे कोई अपराध नहीं है मानता कि तुम ने कुछ गलत किया. यह तुम्हारे वश में था ही नहीं.

“एक मरते हुए व्यक्ति में प्यार की एक तड़प थी. एक बात मैं कहूं, सच में वह तुम से मुझ से कहीं अधिक प्यार करता था वह. किसी व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध बन जाना एक स्वाभाविक घटना है. यह जरूरी नहीं है कि औरत इस बंधन में बंधे. पर यह जरूर है कि तुम सरफराज को भूल जाओ, लेकिन तुम्हारा शरीर उसे कभी नहीं भूल पाएगा, ऐसा मुझे लगता है.” Family Story In Hindi 

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