संकरी सी बंद गली का वह आखिरी मकान था. खूब खुला. खूब बड़ा. लाल पत्थर का बना. खूब सुविधाजनक. मकान का नाम था ‘जफर मंजिल’. आजादी के कुछ वर्षों बाद यहीं हमारा जन्म हुआ. ‘जफर मंजिल’ हमारा घर था. मां को घर का मुसलमानी नाम बिलकुल नापसंद था पर घर के मुख्यद्वार के ऊपर एक बडे़ से पत्थर पर खूब सजावट सहित उर्दू हर्फों में खुदा था, ‘जफर मंजिल-1907.’
डाक के पत्र भी ‘जफर मंजिल’ लिखे पते पर ही मिलते थे. वही नाम घर की पहचान थी.
मां का बस चलता तो वे उस पत्थर को उखड़वा देतीं. डाकखाने में नए बदले नाम की अरजी डलवा देतीं. उन्होंने तो नाम भी सोच रखा था, ‘कराची कुंज’. लेकिन तब आर्थिक हालात इतने खराब थे कि एक पत्थर उखड़वा कर नया लगवाना महल खड़ा करने के समान था. फिर भी मां को यह उम्मीद थी कि भविष्य में वे यह काम अवश्य करेंगी. जबतब वे इस बात की चर्चा करती रहती थीं.
मां को भले ही घर का मुसलमानी नाम पसंद न हो पर आज सोचती हूं तो लगता है कि कैसेकैसे तो अचरज थे उस घर में. छोटी मुंडेर वाली लंबी छत पर दादी द्वारा बिखेरे चुग्गे पर कैसे झुंड के झुंड पंछी उमड़ते थे.
ऊंची दीवारों वाली बड़ी चौकोर छत गरमियों की रातों में सोने के काम आती. चांदनी रातों में पूरी की पूरी छत धवल दूध का दरिया बन जाती. मां, दादी की कहानियों पर हुंकारे भरते हम नींद के सागर में गुम हो जाते. अमावस्या की यहां से वहां तक तारे ही तारे.