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Sonu Sood : कमजोर पटकथा और बिना सिरपैर की कहानी, हॉलीवुड फिल्म की नकल है ‘फतेह’

Sonu Sood : रेटिंग:: एक स्टार
निर्माता : सोनल सूद, जी स्टूडियो और शक्ति सागर प्रोडक्शन
लेखक : सोनू सूद व अंकुर पजनी
निर्देशक : सोनू सूद
कलाकार : सोनू सूद, जैकलीन फर्नांडीस, नसीरूद्दीन शाह, विजय राज, दिव्येंदु भट्टाचार्य, प्रकाश बेलावड़ी, शिव ज्योति राजपूत, सूरज जुमान
अवधिः 2 घंटे 10 मिनट

51 वर्षीय सोनू सूद ने अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत 1999 में तमिल फिल्म में अभिनय करते हुए की थी. 2001 तक वह तमिल, तेलुगु फिल्में ही करते रहे. 2002 में उन्होंने फिल्म ‘जिंदगी खूबसूरत’ से हिंदी फिल्मों में कदम रखा था. 2009 तक सोनू सूद ने 29 हिंदी फिल्मों में अभिनय कर लिया पर उन की कोई खास पहचान नहीं बनी. 2010 में सोनू सूद ने सलमान खान के साथ फिल्म ‘दबंग’ में विलेन छेदी सिंह का किरदार निभाया और स्टार बन गए. उस के बाद वह बतौर विलेन दक्षिण की ही फिल्मों में ज्यादा व्यस्त हो गए. आज भी वह दक्षिण की ही फिल्में कर रहे हैं.

सोनू सूद ने कोविड के दौरान लोगों की मदद कर निजी जीवन में एक मददगार इंसान की इमेज के साथ उभरे. लेकिन शायद सोनू सूद अभिनय भूल गए हैं, इस का संकेत उन्होंने 2022 की असफल फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ में अभिनय कर दे चुके थे. पर अब लगभग 3 साल बाद वे सिर्फ अभिनेता ही नहीं बल्कि बतौर लेखक, निर्देशक, निर्माता फिल्म ‘फतेह’ ले कर आए हैं जोकि एक नहीं कई बौलीवुड और हौलीवुड फिल्मों का मिश्रण है.

जिन लोगों ने हौलीवुड फिल्म ‘द इक्वलाइजर’ देखी है, उन्हें एहसास होगा कि यह तो 90% हौलीवुड फिल्म की ही नकल है जबकि फिल्म ‘फतेह’ के ट्रेलर लांच ईवेंट में जोर दे कर दावा किया गया था कि इस फिल्म की कहानी, स्क्रिप्ट और इस का एकएक दृश्य उन के अपने दिमाग की उपज है, जिस पर उन्होेंने 2 साल से ज्यादा मेहनत की है.

लेकिन ‘फतेह’ देखने के बाद एहसास हुआ कि वह उस दिन मीडिया से सफेद झूठ बोल रहे थे.

कहानी : एक पूर्व विशेष औपरेशन अधिकारी फतेह सिंह (सोनू सूद) पंजाब के मोंगा गांव में बहुत शांतपूर्ण जीवन जीता है. वह एक डेरी फौर्म में बैठता है जबकि उस का अतीत अंधकारमय है. उस की पड़ोसिन निमृत कौर (शिव ज्योति राजपूत) एक लोन देने वाले एप की कंपनी में काम करती है और खतरनाक साइबर अपराध सिंडिकेट का शिकार बन जाती है. निमृत कौर की तलाश में फतेह सिंह दिल्ली पहुंचता है और एक एथिकल हैकर खुशी शर्मा (जैकलीन फर्नाडिस) से मुलाकात होती है. यह खोज अंततः उसे साइबर अपराध सिंडिकेट के स्वामी रजा (नसीरुद्दीन शाह) तक ले जाती है. लेकिन वास्तव में फतेह कौन है? जब तक वह खुशी शर्मा को अपनी अतीत की कहानी नहीं बताता, वह कुछ समय पहले भंग हुई एक गुप्त इकाई का सदस्य था. इसी ईकाई के सदस्य रजा भी थे. खैर,अंततः फतेह राष्ट्रव्यापी धोखे के जाल को उजागर करने और न्याय के लिए लड़ने के लिए अपने संयुक्त कौशल का उपयोग करता है.

समीक्षा : फिल्म ‘फतेह’ साइबर अपराध माफिया के खिलाफ युद्ध के साथ नए जमाने की ऐक्शन थ्रिलर फिल्म होने का वादा करती है. मगर अफसोस यह फिल्म कई फिल्मों की नकल करते हुए महज अति रंजित हिंसा और खूनखराब ही परोसती है. एक ऐसी हिंसा या यों कहें कि फिल्म का ऐक्शन सिरदर्द के अलावा कुछ नहीं देता. माना कि ऐक्शन में नयापन है, मगर यह ऐक्शन पूरी तरह से मशीनी लगता है. इस तरह की फिल्म तो बच्चे वीडियोगेम के रूप में खेलने में ही आनंद लेते हैं. पर इस फिल्म से बच्चे दूर ही रहें, क्योंकि इसे सेंसर बोर्ड ने ‘ए’ प्रमाणपत्र दिया है.

10 जनवरी, 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज हुई 2 घंटे 10 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘फतेह’ कमजोर दिल वालों को देखने से दूर ही रहना चाहिए. अति कमजोर पटकथा वाली इस फिल्म में कहानी का कोई सिरपैर ही नहीं है. साइबर क्राइम को ले कर हर आम इंसान व गांव के गरीबों तक के मन में बहुत बड़ा डर पैदा करने के अलावा यह फिल्म कुछ नहीं करती.

सोनू सूद की फिल्म की कहानी का केंद्र पंजाब का एक गांव है। शायद सोनू सूद को पता ही नहीं है कि साइबर क्राइम के शिकार शहरवासी ज्यादा आसानी से हो रहे हैं. लेकिन सोनू सूद भी उन्हीे में से हैं, जिन्हें खुद कहानी कहने की खुजली है, पर उस कहानी या विषय पर शोधकार्य करना गंवारा नही. साइबर अपराध माफिया के खिलाफ युद्ध को छोड़ कर, सोनू सूद की ‘फतेह’ में कुछ भी नया नहीं है, लेकिन अफसोस वह इस पर भी ठीक से बात नहीं कर पाए. सच तो यह है कि फिल्म ‘फतेह’ में ‘जय हो’, ‘पठान’, ‘एनीमल’,‘मार्को’ ,‘किल’ व हौलीवुड फिल्म ‘द इक्वलाइजर’,मार्टिन स्कौर्सेस की फिल्म ‘आइरिशमैन’, कियानू रीव्स की ‘जौन विक’ और जैसन स्टेथम की आधा दर्जन फिल्मों का अति घटिया नकल ही है. फिल्म ‘फतेह’ के ऐक्शन दृश्य 2014 में प्रदर्षित हौलीवुड फिल्म ‘द इक्वलाइजर’ की याद दिलाते हैं. इतना ही नहीं ‘फतेह’ देखते वक्त बीचबीच में सलमान खान की फिल्म ‘जय हो’, शाहरुख खान की ‘पठान’ तक की याद आ जाती है.

याद रखने वाली बात तो यह है कि फिल्म ‘एनिमल’ का एक मैराथन ऐक्शन दृश्य 2003 में प्रदर्षित कोरियाई फिल्म ‘ओल्डबौय’ से प्रेरित था.

सोनू सूद ही लेखक, निर्देशक अभिनेता हैं,तो उन्होंने सब कुछ अपने ही इर्दगिर्द रखते हुए फिल्म का गुड़गोबर कर डाला. सोनू सूद का सारा ध्यान खुद को परदे पर बनाए रखने व इंटरनेशनल स्तर का ऐक्शन परोसने में ही रहा. मगर वह यह भूल गए कि ऐक्शन के साथ कहानी में इमोशंस, मानवीय संवेदनाएं भी चाहिए. पर इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है. फिल्म में कहानी तो छोड़िए, किरदार भी ठीक से परिभाषित नहीं किए गए. सोनू सूद उर्फ फतेह दोनों हाथ में बंदूक से गोली चलाए जा रहे हैं। सैकड़ों लोग मर रहे हैं, मरते समय इंसान के जो भाव होते हैं, जो आह निकलती है, वैसा कुछ भी नहीं है. घायल इंसान भी चुप रहता है. सब कुछ मशीन जैसा नजर आता है.

पूरी फिल्म में दर्शक को परेशान कर देने वाली भयंकर हिंसा व खून ही खून है.फिल्म का वीएफएक्स भी बहुत खराब है. सिर्फ लेखक ही नहीं निर्देशक के तौर पर भी सोनू सूद बुरी तरह से मात खा गए हैं.

अभिनय : 51 साल की उम्र में सोनू सूद ने शुरुआत में बेहतरीन ऐक्शन दृश्य अंजाम दिए हैं. पर फिर वह पस्त नजर आने लगते हैं और ऐसा तब से होता है, जब उन के सिर से हौलीवुड फिल्म ‘द इक्वलाइजर’ का खुमार उतर जाता है. फतेह सिंह के किरदार में सोनू सूद का अभिनय कुछ ठीकठाक है। कई दृश्य ऐसे हैं जहां सोनू सूद का चेहरा एकदम सपाट भावशून्य नजर आता है. कई दृश्यों मे तो वह वाशिंगटन के बहुत अधिक प्रखर अभिनेता रौबर्ट मैक्कल के एक हलके देसी संस्करण बन कर रह गए. जैकलीन के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. वैसे भी जैकलीन फर्नाडिस को अभिनय नहीं आता. अपनी सुंदरता के बल पर फिल्में पा जाती हैं. नई लड़की शिव ज्योति राजपूत छोटे किरदार में अपनी अभिनय की छाप छोड़ जाती हैं. दिव्येंदु भट्टाचार्य, विजय राज, नसिरूद्दीन शाह जैसे कलाकारों की प्रतिभा को जाया किया गया है.

New Trend : अलग बिस्तर पर सोना कहीं स्लीप डिवोर्स की वजह तो नहीं

New Trend : हाल के दिनों में शादी टूटने के मामले बढ़ रहे हैं. इस में स्लीप डिवोर्स का ट्रैंड आग में घी का काम कर रहा है. जानते हैं क्या है यह कान्सैप्ट और कैसे यह पति पत्नी के रिश्ते में दूरियां लाने का काम कर रहा है.

“पति की गैरमौजूदगी में पत्नी मोबाइल पर करती थी. मायके में बात, टूटने की कगार पर पहुंचा रिश्ता”, “पति-पत्नी के बीच ‘कबाब में हड्डी’ बना डॉगी, विदेशी नस्ल के पालतू के लिए शादीशुदा घर टूटने की कगार पर”

हाल के दिनों में शादी टूटने के मामले बढ़ रहे हैं और सात जन्मों का बंधन माने जाने वाला यह रिश्ता अलगाव की कगार पर है. जो पतिपत्नी हमेशा एकदूसरे के साथ रहने की कसम खाते हैं, छोटी-छोटी वजहों से अपनी शादी को अलविदा कह रहे हैं.

ऐसे में हाल ही में प्रचलित स्लीप डिवोर्स का ट्रैंड आग में घी का काम कर रहा है. ‘स्लीप डिवोर्स’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि ये ‘नींद के लिए आपसी अलगाव’ का एक कान्सेप्ट है. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अच्छी नींद पाने के लिए पति-पत्नी अलग कमरों, अलग बिस्तर पर या फिर अलगअलग समय पर सोते हैं. पार्टनर के खर्राटे की आवाज, एसी के तापमान, पंखे की गति या कुछ और चीजों को लेकर पार्टनर्स में बहस उन की नींद को प्रभावित न करे इसलिए भारत समेत कई अन्य देशों में भी ये चलन तेजी से बढ़ता हुआ देखा जा रहा है.

रिलेशनशिप एक्स्पर्ट्स के अनुसार लेकिन अगर लंबे वक्त तक इसी रूटीन को फौलो किया जाए, तो इस का खामियाजा आपसी रिश्तों को उठाना पड़ सकता है. इस रूटीन से न केवल कपल्स के बीच की रोमांटिक लाइफ खत्म होती है पार्टनर के साथ इमोशनल अटैचमेंट में भी कमी आती है.

आम बोलचाल की भाषा में ‘साथ सोना’ का मतलब सैक्सुअल रिश्ते से लगाया जाता है लेकिन रिश्ते और प्यार की साइकोलौजी में साथ सोना सिर्फ सैक्सुअल एक्टिविटी तक सीमित नहीं है. पतिपत्नी के रिश्ते में , मन मिलाने इमोशनल अटैचमेंट के लिए कडलिंग, साथ सोना भी बेहद जरूरी है.

मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठित जर्नल ‘Current Directions in Psychological Science’ की एक रिपोर्ट बताती है कि बिना सैक्सुअल रिलेशन भी कपल्स साथ सोएं तो उन का रिश्ता काफी मजबूत होता है. वे इमोशनली एकदूसरे के करीब आते हैं और उन की बौन्डिंग मजबूत होती जाती है. अगर किसी शख्स के साथ उस का पार्टनर बेफिक्र हो कर, यानी घोड़े बेच कर सोए तो इस का मनोवैज्ञानिक मतलब है कि पार्टनर उस की मौजूदगी में सेफ और कंफर्टेबल महसूस कर रहा है, रिश्ते की यह पहली शर्त है.

इस रिसर्च की को-औथर एमिली इंपेट के अनुससर “ जब पार्टनर एक-दूसरे के फिजिकल टच में आते हैं तो हैप्पी हौर्मोन रिलीज होता है. पार्टनर्स को खुशी महसूस होती है. उन का दिमाग संकेत करता है कि पार्टनर की मौजूदगी अच्छी और खुशी देने वाली है. दोनों में प्यार अपने आप गहरा हो जाता है.” ध्यान रहे कि फिजिकल टच का मतलब सिर्फ सैक्सुअल रिलेशन नहीं है.

मनोविज्ञान की रिसर्च और रिश्ते की स्टडी के अनुसार कपल्स का साथ सोना उन के रिश्ते की मजबूती के लिए बेहद जरूरी है. बिस्तर अलग होते ही कपल्स के रिश्ते में भी एक दीवार-सी खिंच जाती है.

स्लीप डिवोर्स के साइड इफैक्ट्स –

इमोशनल कनेक्शन का ब्रेकअप

दिनभर की दौड़ भाग के बाद रात को सोते समय कपल्स एकदूसरे के साथ अपनी दिनचर्या को शेयर करते हैं लेकिन स्लीप डिवोर्स के चलते अकेले सोने से कपल्स उन सभी चीजों से वंचित रह जाते हैं. जब आप का पार्टनर, आप को सुनने वाला व्यक्ति आप के आसपास नहीं रहता है तो दो लोगों के बीच बनने वाला इमोशनल कनैक्शन भी खत्म होने लगता है.

इंटिमेसी की कमी

टचिंग, किसिंग, कडलिंग और स्पूनिंग पार्टनर के साथ रिश्ते को मज़बूत बनाते हैं. स्लीप डिवोर्स के दौरान व्यक्ति शुरुआत में अपने पार्टनर को मिस करने लगता है और फिर उसी रूटीन को फौलो करने लगता है. इस से सैक्सुअल लाइफ प्रभावित होती है, जिस से कपल्स के बीच इंटिमेसी की कमी होने लगती है.

अकेलापन का एहसास

स्लीप क्वालिटी को बढ़ाने की चाहत में स्लीप डिवोर्स को अपनाने वाले कपल्स दूरदूर सोने से खुद को अकेला महसूस करने लगते हैं. इस से संबधों में दूरियां बढ़ने लगती हैं और ये उन के बीच मिसअंडरस्टैंडिग का कारण भी बन जाता है और वे खुद को इनसिक्योर समझने लगते हैं.

रिश्ते में फिजिकल टच इंप्रूव करने के तरीके

पतिपत्नी के रिश्ते में मजबूती के लिए दोनों पार्टनर का एक छत के नीचे रहते हुए एकदूसरे की मौजूदगी और भावनात्मक लगाव का एहसास कराना बेहद जरूरी है.

• गले लगाना, हाथ मिलाना, लिपट कर सोना, साथ बैठ कर भी रिश्ते में फिजिकल टच को इंप्रूव किया जा सकता है.
• बात करते हुए या कहीं घूमते पार्टनर का हाथ अपने हाथों में थाम कर भी रिश्ते में इमोशनल अटैचमेंट को बढ़ाया जा सकता है.
• अगर पूरी रात साथ नहीं सोया जा सकता तो कम से कम कुछ घंटों की नींद पार्टनर के साथ कडलिंग करते हुए जरूर ली जा सकती है.
• खुशी हो या गम, पार्टनर को गले लगा कर, साथ में बैठ कर टीवी देख कर, कुछ साथ में पढ़ते हुए फिजिकल टच को बढ़ाया जा सकता है.

साथ सोना कल्चरली और इमोशनली कपल्स के रिश्ते में बेहद जरूरी है. ऐसे में किसी भी कारण से अगर रोमांटिक पार्टनर्स अलगअलग सोएं तो उन के रिश्ते में दूरियां आना स्वाभाविक है.

Kolkata Rape case : “बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ”के साथ बेटी को न्याय भी दिलाओ

Kolkata Rape case : कोलकाता के एक मैडिकल कालेज के कैंपस के अंदर ड्यूटी कर रही एक महिला डाक्टर की रेप कर के उन की हत्या कर दी गई. मारी गई डाक्टर की गरदन की हड्डी टूटी हुई थी, दोनों आंखों, मुंह और हाथों पर चोट के निशान थे. अंदरूनी अंगों में गंभीर चोट पाई गई थी.

पर लगता है कि सरकार को कोई फर्क नही पड़ता है. सब अपनी-अपनी राजनीति कर रहे हैं, क्योंकि नेताओं के साथ रेप जैसी वारदात नहीं होती है न, बल्कि बहुत से तो खुद इस में लिप्त पाए जाते हैं.

तो फिर क्यों बनेंगे सख्त कानून, जब रखवाले ही गलत नीयत रखते हैं. दुष्कर्म की सजा काट रहे बाबाओं को आसानी से पैरोल मिल जाती है. ‘एनिमल’ जैसी फिल्म, जिस में औरत को पीटा जाता है, उस से यौन हिंसा की जाती है, को अवार्ड दिया जाता है.

आज भी जब पूरा देश किसी न किसी रेप कांड के खिलाफ कैंडल मार्च कर रहा होता है, तब भी कोई न कोई दरिंदा देश के किसी न किसी कोने में खुलेआम रेप कर रहा होता है.

यह सरकार की आधी आबादी के खिलाफ साजिश सी लगती है. लड़कियों को घर में बंद रखने और न पढ़नेलिखने देने की साजिश लगती है. दरअसल, लड़कियां और औरतें घर में बंद हो जाएं, ये रात को अकेली बाहर न निकलें , उन नौकरियों में न जाएं, जहां रात को काम करना पड़े, भले ही वे कितनी ही पढ़ीलिखी और काबिल क्यों न हों.

‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ तो सरकार ने बताया है, लेकिन पढ़ने के बाद बेटी बच पाएगी इस की कोई गारंटी है, यह सरकार ने नहीं बताया.

दरअसल, सरकार चाहती है कि लड़कियां घर बैठ कर सिर्फ पूजापाठ, व्रतउपवास कर के भूखी रहें. साल के 365 दिन कोई न कोई व्रत करें, धर्म का पालन करें , सिर्फ पति की सेवा करें, पति को परमेश्वर मानें. वे शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से कमजोर और खोखली हो जाएं.

वैसे, जो अपराध लड़कियों के साथ हो सकते हैं, वे लड़कों के साथ भी हो सकते हैं, फिर लड़कों को देर रात घर से बाहर न निकलने की ताकीद क्यों नहीं की जाती?

साल 2014 के बाद औरतों की सिक्योरिटी के लिए कोई कानून नहीं बने हैं. आज भी उन्हें मर्दों के मुकाबले केवल दोतिहाई कानूनी अधिकार हासिल हैं, जो साफतौर पर उन के प्रति सरकार की उदासीनता को दिखाता है.

देशभर में रात्रि जागरण हो सकते हैं, देर रात गरबा, डांडिया के कार्यक्रम हो सकते हैं, पर वहां भी लड़कियों और औरतों के साथ अपराध होते हैं, फिर उन पर रोक क्यों नहीं लगाई जाती?

आखिर सरकार यह लैंगिक असमानता क्यों कर रही है? औरतों के साथ आखिर यह भेदभाव क्यों? अगर धर्मग्रंथों में भी देखा जाए तो अहल्या हो या सीता… औरतों के साथ वहां भी मर्दों द्वारा छलकपट, नाइंसाफी और शोषण किया गया है.

दुख की बात तो यह है कि कभी लेडी पुलिस के साथ, कभी महिला शिक्षक के साथ, कभी महिला अधिकारी के साथ, कभी महिला कर्मचारी के साथ तो कभी महिला डाक्टर के साथ बलात्कार और शोषण की खबरें आती ही रहती हैं.

वे कहीं भी महफूज नहीं हैं. न मां की कोख में, न किसी अस्पताल में, न चलती बस में, न स्कूल की वैन में, न स्कूल के किसी कमरे में, न औफिस से ड्यूटी करते देर रात, न कैब के इंजतार में, न हाल में, न मौल के बाथरूम में, न अपने भविष्य के सपनों को पूरा करने के लिए लंबी दूरी की ट्रेन में, न घर में, न आसपड़ोस में, न पार्क में, न मेट्रो में, न आसमान के ऊपर उड़ते हुए हवाईजहाज में, न पढ़लिख कर इंजीनियरिंग करने का सपना देखते हुए देश के टौप आईआईटी संस्थान में, न पिता के घर में, न पति के घर में, न अनाथालय में, न बालिका सुधारगृह में, न किसी बाबा के आश्रम में, न मीडिया के संस्थान में, न मेले में, न खेल के अखाड़े में.

इस के अलावा वे किसी भी दिन महफूज नहीं हैं. न आजादी के उत्सव के दिन, न दीवाली और होली के दिन, न दुर्गापूजा के दिन, न नवरात्र के दिन, न गंगा किनारे, न मंदिर के द्वारे. आज देश की बेटियों की अस्मत हर जगह हर दिन लूटी जा रही है.

सोशल मीडिया पर, ओटीटी पर बेहूदगी की हद को पार करती अनगिनत फिल्में, सीरियल, म्यूजिक वीडियो, रील्स, जहां आसानी से किसी भी बच्चे, नौजवान और अधेड़ के दिमाग में यौन हिंसा करने के लिए फ्री का कंटैंट भरा जा रहा है.

आजकल की पीढ़ी को मांबहन की गाली देना, रेव पार्टी करना, ड्रग्स लेना, पूल पार्टी करना, यौन अपराध करना नौर्मल और कूल लगता है. फ्री की बस, फ्री का राशन, फ्री की दवा… नतीजा जिन हाथों को मजदूरी या कोई दूसरा काम कर के अपने परिवार का पेट भर कर थकहार कर घर आ कर चैन से सोना था, वे हाथ आज निठल्ले बैठे फेसबुक, इंस्टा पर अश्लील रील और पोर्न फिल्मों को देख रहे हैं और नतीजा यह है कि आज के समाज में बेटियों पर बुरी नजर रखने वाले लोग हर जगह मौजूद हैं. लड़कियों को मांबहन की गाली देने वाला एल्विश यादव आजकल की युवा पीढ़ी का फेवरेट बना हुआ है.

एक ऐसे समाज की रचना हो चुकी है जहां हम इन सब खबरों के इतने आदी हो चुके हैं कि अब हमें ऐसी घटनाये ज्यादा विचलित नहीं करती हैं, जो बेहद दुखद है.

आखिर सरकार द्वारा बलात्कार के बाद पीड़ित के साथ क्रूरतम अमानवीय व्यवहार कर के बलात्कारियों का मनोबल क्यों बढ़ाया जा रहा है? बलात्कारियों के समर्थन में रैलियां निकाल कर महिमामंडन किया जा रहा है. जब से बलात्कारियों को छद्म तरीके से कोर्ट को अंधेरे में रख कर रिहाई कराई जा रही है, तब से इन बलात्कारी दरिंदों के जोश सातवें आसमान पर हैं.

जब से किसी बलात्कारी को जेल से रिहा होने पर फूल माला पहनाते हुए तिलक टीका लगा कर और मिठाई खिलाकर स्वागत किया जाने लगा है, तब से ये बलात्कारी बिलकुल ही निश्चिंत हो गए हैं कि कोई न कोई तो बचा ही लेगा. यह सब सरकार का सिखाया हुआ महसूस होता है.

Allu Arjun को जेल, उधर तिरुपति मंदिर में भी भगदड़, दोषी कौन ?

Allu Arjun : एक तरह के हादसे पर कानून दो तरह से कैसे काम कर सकता है? क्या यह न्याय और संविधान दोनों का अपमान नहीं?

तिरुपति बालाजी मंदिर में टोकन लेने के दौरान हुई भगदड में 6 लोगों की मौत हो गई और दूसरे 25 लोग घायल हो गए. टोकन लेने के लिए 4 हजार से अधिक लोग यहां जुटे थे. तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) द्वारा 10 जनवरी से 19 जनवरी तक वैकुंठ एकादशी और वैकुंठ द्वार दर्शनम कार्यक्रम चलता है. 10 दिन तक चलने वाले इस विशेष दर्शन में लोगों को टोकन लेना पड़ता है. दर्शन करने के लिए हजारों की संख्या में लोग जाते हैं. इस को व्यवस्थित करने के लिए टोकन सिस्टम शुरू किया गया.
टोकन काउंटर सुबह 5 बजे से खुलता है. उसी दिन के दर्शन के लिए टोकन जारी किया जाता है. इस के जरिए कोई भी व्यक्ति 50 रुपए का टोकन ले कर दर्शन करने जा सकता है. टोकन सिस्टम में एक वीआईपी कैटेगरी सिस्टम भी है. जिस में 300 रुपए का टोकन लेना पड़ता है. इस से जल्दी दर्शन करने की संभावना भी बढ़ जाती है. टोकन के लिए कांउटर विश्नु निवासम तिरुपति रेलवे स्टेशन के सामने, श्रीनिवासम कौम्प्लेक्स तिरुपति मुख्य बस स्टेशन के सामने, गोविंदराज सतराम तिरुपति रेलवे स्टेशन के पीछे बने हैं.
दर्शन के लिए टोकन लेने के लिए आधार कार्ड आवश्यक है. एक बार टोकन लेने के बाद, अगला टाइम स्लौट दर्शन 30 दिनों के बाद ही लिया जा सकता है. 12 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए टोकन जारी नहीं किया जाता उन के लिए प्रवेश निशुल्क है. टोकन जारी करते समय भक्त की फोटो ली जाती है. जारी किए गए दर्शन टोकन दूसरों परिवार के सदस्यों सहित किसी को भी नहीं दे सकते. बुजुर्गों और विकलांगों के लिए स्पैशल दर्शन की व्यवस्था भी की गई है. मंदिर के पास एक अलग प्रवेश द्वार से रोज दो अलगअलग स्लौट में सुबह करीबन 9 बजे और दूसरे स्लौट में दोपहर 3 बजे एंट्री मिलती है.

घटना के दिन क्या हुआ ?

10 जनवरी से 19 जनवरी 2025 में दर्शन के लिए टोकन बांटने का काम 9 जनवरी से शुरू होना था. 8 जनवरी की शाम को ही टोकन लेने वालों की भीड़ लग गई. भीड़ बढ़ने से भभगदड़ मच गई. जिस में 6 की मौत और 25 घायल हो गए. रोज 40 हजार टोकन बांटने की व्यवस्था के अनुसार पहले 3 दिन में सवा लाख लोगों को टोकन बांटने थे. इस के लिए 9 केंद्रों पर 94 सेंटर बनाए गए थे. इन में श्रीनिवासम, विष्णु निवासम, रामचन्द्र पुष्करणी, अलीपीरी भूदेवी कौम्पलैक्स, एमार पल्ली जेडपी हाईस्कूल, बैरागी पटेठा रामनायडू हाई स्कूल, सत्यनारायण पुरम जेडपी हाईस्कूल और इंदिरा मैदान में टोकन जारी करने की व्यवस्था थी.
तिरुपति मंदिर के खास वैकुंठ द्वार दर्शनम के लिए टोकन लेने के बाद ही अंदर जा सकते हैं. वैकुंठ द्वार दर्शनम के लिए मंदिर परिसर में कुल 8 जगहों पर टोकन बांटे जाने थे. एक दिन पहले से ही टोकन के लिए श्रद्धालुओं की लंबी लाइन थी. दर्शन के लिए टोकन मिल जाए इस के लिए खूब चढ़ाऊपरी लगी थी. जैसे ही गेट खुला भक्त अपना धैर्य खो बैठे. पहले टोकन पाने के लिए वे आगे बढ़े और देखते ही देखते स्थिति बिगड़ गई. अचानक भगदड़ मची और देखते ही देखते लाशें बिछ गईं.
भगदड़ एमचीएम स्कूल के काउंटर पर पर मची. भगदड़ तब मची जब टोकन बांटना शुरू भी नहीं हुआ था. पुलिस उपाधीक्षक ने जैसे ही गेट खोले तुरंत ही सभी लोग आगे बढ़ने लगे. इस से भगदड़ मच गई. सोशल मीडिया पर दिखाई पड़ रहे वीडियो में भीड़ एकदूसरे पर धक्का मुक्की करती दिखाई दे रही थी. इस के बाद पुलिस, मंदिर प्रबंधन और नेताओं का आना जारी हो गया.

भगवान जिम्मेदार नहीं ?

तिरुपति में हुई घटना में सब से अलग बात यह दिखी कि पुलिस द्वारा किसी को दोषी नहीं ठहराया गया. घटना की वजह जिन भगवान की मूर्ति थी उन को जिम्मेदार क्यों नहीं माना गया ? सामान्य तौर पर इस तरह के हादसों के लिए पुलिस किसी न किसी को जिम्मेदार ठहरा कर जेल भेज देती है, भले ही वह इंसान वहां मौजूद भी न रहा हो. ताजा मामला फिल्म अभिनेता अल्लू अर्जुन का था.
हैदराबाद में 4 दिसंबर को संध्या थिएटर में ‘पुष्पा 2‘ की स्क्रीनिंग थी. फिल्म देखने के लिए पहले से ही वहां भारी भीड़ इकट्ठा हुई थी. इस बीच अभिनेता अल्लू अर्जुन भी वहां पहुंच गए थे. उन को देखने के लिए वहां भगदड़ मच गई. अल्लू अर्जुन की एक झलक पाने को दर्शक अंदर घुसने की कोशिश करने लगे. इस से लोगों को सांस लेने में परेशानी होने लगी. वहां भगदड़ मच गई. पुलिस ने भीड़ को काबू करने के लिए लाठीचार्ज भी किया.
इस में रेवती नाम की महिला की मौत हो गई, जिस की उम्र 39 साल थी. वह पति और दो बच्चों बेटी सान्विका और बेटे श्रीतेज के साथ ‘पुष्पा 2‘ देखने गई थी. अचानक हुई दर्शकों की धक्कामुक्की में रेवती और उन का बेटा दब गए. पुलिस ले अल्लू अर्जुन, उन की सिक्योरिटी एजेंसी और थिएटर के मालिक के खिलाफ धारा-105 (गैर-इरादतन हत्या) और 118(1) (जानबूझकर चोट पहुंचाना) के तहत मुकदमा कायम कर जेल भेज दिया.
हैदराबाद पुलिस ने अल्लू अर्जुन को महिला की मौत का आरोपी बनाया. उन के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का भी केस दर्ज किया. 13 दिसंबर को चिक्कड़पल्ली पुलिस ने अल्लू अर्जुन को उन के घर से हिरासत में लिया. इस के बाद उन्हें चिक्कड़पल्ली पुलिस स्टेशन ले गई. जहां उन से पूछताछ के बाद बयान दर्ज कर मेडिकल चेकअप के लिए उस्मानिया अस्पताल ले जाया गया. इस के बाद उन को 14 दिनों के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था.
अल्लू अर्जुन ने इस हादसे पर गहरा दुख जताया था और परिवार को 25 लाख रुपए की मदद का ऐलान किया था. अल्लू अर्जुन ने कहा था कि वह महिला की मौत से आहत हैं और उन के परिवार की मदद के लिए हमेशा खड़े हैं. इस के बाद भी पुलिस ने अल्लू अर्जुन सहित थिएटर के मालिक संदीप, थिएटर के मैनेजर नागराजू और बालकनी के सुपरवाइजर को भी हिरासत में लिया था. अल्लू अर्जुन को पुलिस ने जिस तरह से गिरफ्तार किया वह पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया था. गिरफ्तारी के समय वह घर में चाय पर रहे थे. उन को चाय खत्म नहीं करने दिया गया. पत्नी स्नेहा रेड्डी रोने लगीं.

बच जाते हैं नेता और भगवान

मंदिरों में भगवान के नाम पर दर्शकों की भीड़ को बुलाया जाता है. फिल्म देखने के लिए दर्शक अपने मन से टिकट लेकर आते हैं. जब अल्लू अर्जुन पर मुकदमा कायम हो सकता है तो तिरूपति में भगवान पर मुकदमा कायम क्यो नहीं हो सकता ? नेता और भगवान तो इस तरह के मामले मे बच जाते हैं. दूसरी तरफ ऐक्टर, सिनेमाघर का मालिक और मकान मालिक को जेल भेज दिया जाता है. नेता और भगवान बच जाते हैं.
13 जून 1997 को सन्नी देओल, सुनील शेट्टी की फिल्म बौर्डर रिलीज हुई थी. भारतपाकिस्तान युद्ध पर बनी इस फिल्म को देखने के लिए देशभर में थिएटर्स के दर्शकों की भीड़ जुट गई थी. साउथ दिल्ली के उपहार सिनेमाघर में 160 लोगों की क्षमता वाला हौल खचाखच भरा था. 3 बजे वाला शो था. कोई 4 बजे सिनेमाघर की पार्किंग में आग लगी, जिस का धुआं हौल में भर गया. लोगों के निकलने के लिए एक ही दरवाजा था, जो गेटकीपर बंद कर के कहीं निकल गया था क्योंकि शो छूटने में पूरे 2 घंटे बाकी थे. हौल में धुआं भरता गया, लोगों का दम घुटता गया. लोग निकलने की पुरजोर कोशिश करते रहे लेकिन बाहर नहीं जा पाए. एक के बाद एक 59 लोगों ने दम तोड़ दिया.
सिनेमा घर चलाने वाले सुशील अंसल और प्रणव अंसल पर गैर इरातन हत्या का मामला तो दर्ज हुआ कि सिनेमा घर को भी सीज कर दिया गया. कई सालों तक केस चला. जांचें हुईं. पूरा परिवार तबाह हो गया. देखें तो उन की कोई गलती नहीं थी. कोई भी मालिक अपनी संपत्ति जला कर किसी की हत्या करना चाहेगा क्या ? इस तरह की बहुत सारी घटनाओं में उन लोगों को जिम्मेदार माना जाता है जो उस के मालिक होते हैं. इस के विपरीत लखनऊ में साड़ी कांड हुआ था. जिस में 22 महिलाओं की भगदड़ में मौत हो गई. 12 अप्रैल को भाजपा नेता लालजी टंडन के जन्मदिन पर महानगर के चन्द्रशेखर आजाद पार्क में साड़ी वितरण कार्यक्रम रखा गया था. इस में भगदड मची. जिस में 22 औरतों की मौत हो गई कई अन्य घायल हो गई.
नेता के खिलाफ कोई मुकदमा कायम नहीं हुआ था. इसी तरह से 2013 में इलाहाबाद में आयोजित महाकुंभ में रेलवे स्टेषन पर रेलगाडी का प्लेटफौर्म बदले जाने के बाद इधर से उधर पहुंचने में भगदड़ मच गई. रेलवे के फुटबिज पर ही लोगों के गिरने से बड़ा हादसा हो गया था. जिस में 35 लोगों की मौत हो गई थी. इस के बाद भी उस समय के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और नगर मंत्री आजम खान पर कोई मुकदमा कायम नहीं हुआ. नेता और भगवान को बचा लिया जाता है. 2025 के कुंभ के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निमंत्रण तो बांट रहे हैं पर क्या वह सुरक्षा की जिम्मेदारी भी ले रहे हैं ?
मंदिरों और मेले में हादसे कोई नई बात नहीं है. लोग मंदिर और मेले में अपनी खुशी के लिए प्रार्थना करने जाते हैं. यहां उन को जब मौत मिलती है तो इस के लिए मंदिर के भगवान और नेता को जिम्मदार नहीं माना जाता है. जबकि किसी कारखाने, सिनेमा, घर निर्माण के समय कोई हादसा हो जाता है तो उस के मालिक को जिम्मेदार मान लिया जाता है. सिनेमा घर में फिल्म देखने आई महिला के लिए अल्लू अर्जुन को जिम्मेदार मान लिया गया लेकिन तिरूपति में भगवान की मूर्ति को जिम्मेदार क्यों नहीं माना जा सकता ? उस जगह के वही तो मालिक हैं.

दरअसल, सुबह से ही हजारों श्रद्धालु वैकुंठद्वार दर्शन टोकन के लिए तिरुपति के विभिन्न टिकट केंद्रों पर कतार में खड़े थे. तभी श्रद्धालुओं को बैरागी पट्टीडा पार्क में कतार में लगने की अनुमति दी गई. वैकुंठद्वार दर्शन दस दिन के लिए खोले गए हैं, जिस के चलते टोकन के लिए हजारों की संख्या में लोग जुट रहे हैं. भगदड़ मचने से वहां अफरातफरी मच गई, जिस में 6 लोगों की मौत हो गई.
इस में मल्लिका नाम की एक महिला भी शामिल है. घटना के पश्चात हालात बिगड़ता देख स्थानीय पुलिस ने मोर्चा संभाला और स्थिति को नियंत्रित किया. बताया जा रहा है कि दर्शन के लिए टोकन की लाइन वैकुंठद्वार दर्शन के लिए 4000 लोग लाइन में खड़े थे. स्थिति को ले कर मंदिर समिति के चेयरमैन बीआर नायडू ने आपातकालीन बैठक की मगर बात वही ढाक के तीन पात है.
मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भगदड़ में छह श्रद्धालुओं की मौत पर औपचारिक गहरा दुख जताया है. मुख्यमंत्री ने कहा- “वे इस घटना से बहुत दुखी हैं.” यह घटना उस समय हुई जब बड़ी संख्या में श्रद्धालु टोकन लेने के लिए एकत्र हुए थे. मुख्यमंत्री ने घटना में घायलों को दिए जा रहे उपचार के बारे में अधिकारियों से फोन पर बात की.
मुख्यमंत्री समयसमय पर जिला और टीटीडी अधिकारियों से बात कर के मौजूदा स्थिति से अवगत हैं. मुख्यमंत्री ने उच्च अधिकारियों को घटना स्थल पर जा कर राहत उपाय करने का आदेश दिया है, ताकि घायलों को बेहतर उपचार मिल सके. आप को बताते चलें कि तिरुपति बालाजी मंदिर में पहले भी कई भगदड़ की घटनाएं हुई हैं. यहां कुछ प्रमुख घटनाओं की जानकारी दी जा रही है:
1. 2013: तिरुपति बालाजी मंदिर में भगदड़ की घटना में 8 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे.
2. 2008: तिरुपति बालाजी मंदिर में भगदड़ की घटना में 2 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे.
3. 2005: तिरुपति बालाजी मंदिर में भगदड़ की घटना में 4 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे.
4. 1997: तिरुपति बालाजी मंदिर में भगदड़ की घटना में 10 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे.
इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि तिरुपति बालाजी मंदिर और अन्य मंदिरों में भगदड़ की घटनाएं पहले भी हुई हैं और अब इन्हें रोकने के लिए मंदिर प्रशासन और पुलिस को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए.

मंदिरों, सभागृह में भगदड़ की घटनाएं कई कारणों से होती हैं

दरअसल कुछ प्रमुख तीर्थस्थल हैं, जहां हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं. भारी भीड़ के कारण भगदड़ की घटनाएं हो जाती हैं. मंदिर प्रशासन और पुलिस को सुरक्षा इंतजामों को बढ़ाना चाहिए, लेकिन कई बार यह इंतजाम पर्याप्त नहीं होते हैं.
कई श्रद्धालु भगदड़ की घटनाओं के लिए खुद जिम्मेदार होते हैं. वे भीड़ में शामिल होने के लिए जल्दबाजी करते हैं और सुरक्षा नियमों का पालन नहीं करते हैं. मंदिर की व्यवस्था में कमी के कारण भगदड़ की घटनाएं हो सकती हैं. मंदिर प्रशासन को भी व्यवस्था में सुधार के लिए सतर्क होना चाहिए.
इन कारणों को देखते हुए, यह कहा जा सकता है कि भगदड़ की घटनाओं के लिए एक ही व्यक्ति या संस्था जिम्मेदार नहीं है. इस के लिए मंदिर प्रशासन, पुलिस, श्रद्धालु और सरकार सभी जिम्मेदार हैं. इस समस्या का समाधान करने के लिए, मंदिर प्रशासन और पुलिस को सुरक्षा इंतजामों को बढ़ाना चाहिए, श्रद्धालुओं को सुरक्षा नियमों का पालन करना चाहिए और सरकार को मंदिर की व्यवस्था में सुधार करना चाहिए.
स्मरण रहे कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग रहते हैं. लेकिन यहां धर्म, धार्मिकता और आस्था के बीच में अंधविश्वास भी बहुत ज्यादा है. यह अंधविश्वास कई बार लोगों को गलत दिशा में ले जाता है और समाज में कई समस्याएं पैदा करता है.
धर्म और धार्मिकता की बात करें तो भारत में बहुत सारे धर्म हैं और हर धर्म के अपने अनुयायी हैं. लेकिन यहां धर्म के नाम पर कई बार लोगों को गलत जानकारी दी जाती है और उन्हें अंधविश्वास की ओर धकेला जाता है.
आस्था की बात करें तो यह एक अच्छी चीज है, लेकिन जब आस्था अंधविश्वास में बदल जाती है तो यह समाज के लिए हानिकारक हो जाती है. भारत में बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो अंधविश्वास के कारण अपने जीवन को बर्बाद कर लेते हैं.

अंधविश्वास के कारण भारत में कई समस्याएं हैं जैसे कि:

– लोगों को गलत जानकारी दी जाती है और उन्हें अंधविश्वास की ओर धकेला जाता है.
– लोग अपने जीवन को बर्बाद कर लेते हैं और अपने परिवार को भी बर्बाद कर लेते हैं.
– समाज में कई समस्याएं पैदा होती हैं जैसे कि गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा की कमी.
– लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती है और वे अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर पाते हैं.
इस समस्या का समाधान करने के लिए, हमें अपने समाज में जागरूकता फैलानी चाहिए. हमें लोगों को अंधविश्वास के बारे में जानकारी देनी चाहिए और उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी देनी चाहिए. हमें अपने समाज में शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए ताकि लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी हो और वे अपने जीवन को बेहतर बना सकें.
मंदिरों में जमघट भीड़ लगने की अपेक्षा अपनेअपने गांव, शहर या घर में ही पूजा पाठ कर के भी ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है. यह एक अच्छा विकल्प हो सकता है क्योंकि मंदिरों में भीड़ के कारण कई बार लोगों को परेशानी होती है और वे अपनी पूजापाठ को शांति से नहीं कर पाते हैं.

 

लेखक : शैलेन्द्र सिंह, सुरेशचंद्र रोहरा 

OYO Hotels बना प्यार का दुश्मन, कुंवारों की एंट्री बंद

 OYO Hotels  : संविधान का अनुच्छेद 21 हर तरह की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करता है. इसी कड़ी में अनुच्छेद 301 बहुत साफ करता है कि दो बालिगों को रजामंदी से देश में कहीं भी सैक्स करनी की आजादी है. कैसे Oyo कानून और संविधान का खुला उल्लंघन कर रहा है, आप भी जानिए –

शुरुआत मेरठ से हुई है, खात्मा कहां होगा कहा नहीं जा सकता क्योंकि इस मामले पर यह धार्मिक कहावत लागू नहीं होती कि ऊपर वाला एक दरवाजा बंद करता है तो दूसरे कई खोल भी देता है. यहां तो नीचे वाले ही प्यार पर पहरे बिठाने उतारू हो आए हैं जिस में उपर वाला भी कुछ नहीं कर सकता. करना तो अब प्रेमियों को ही पड़ेगा क्योंकि शुरुआत हो चुकी है दिल्ली और एनसीआर सहित कई दूसरे शहरों में भी मेरठ वाली धमक सुनाई देना शुरू हो गई है.

समझें बजरंग दल का मंसूबा और उसकी मंशा

बेंगुलुरु इस कहर या ज्यादती का अगला पड़ाव है वहां प्यार के शास्वत दुश्मन कट्टर संगठन बजरंगदल ने बीबीएमपी यानी बृहद बेंगुलुरु महानगर पालिका के कमिश्नर तुषार गिरिनाथ और बेंगुलुरु शहर के पुलिस आयुक्त बी दयानंद से एक्शन लेने कहा है. इस हिंदूवादी संगठन द्वारा दिए ज्ञापन में मांग की गई है कि बेंगलुरु शहर में भी मेरठ जैसा नियम लागू किया जाना चाहिए. अर्थात अविवाहित जोड़ों को होम स्टे, लाज, सर्विस अपार्टमेंट और अन्य होटलों में भी कमरे नहीं दिए जाने चाहिए. बजरंग दल के मंसूबे और मंशा तो इस से आगे भी कुछ और हैं लेकिन बात पहले मेरठ की जहां से सदाचार की क्रांति शुरू हुई जिस से उत्साहित तमाम छोटे बड़े शहरों में कट्टरवादी संगठन मुगले ए आजम के जिल्लेलाही के रोल में न दिखें तो बात हैरत वाली होगी.
मेरठ में होस्पिटेलिटी कम्पनी ओयो ने एलान किया है कि अब कुंवारे कपल्स को रूम नहीं दिए जाएंगे. ओयो होटल्स में रुकने वाले कपल्स को रिलेशनशिप सर्टिफिकेट देना होगा. इस फैसले के पीछे ओयो ने बड़ा सात्विक कारण यह बताया है कि मेरठ के लोगों ने अविवाहित कपल्स को कमरा न देने की अपील की थी. इस के अलावा देश भर के खिलाफ कई याचिकाएं भी दायर की गई हैं.

कुछ दिन पहले ही ट्रेवल पीडिया 2024 द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में बताया गया था कि अनमैरिड कपल्स ओयो के जरिये ज्यादा रूम बुक करते हैं. यह और बात है कि इतनी मामूली बात के लिए किसी सर्वे की जरूरत नहीं थी. हर किसी को यह सच मालूम था. ऐसा लगता है कि प्यार करने वालों से आजादी और सहूलियत छीनने एक आधार तैयार किया जा रहा है. नहीं तो कहा तो यह भी जा सकता था कि ओयो का सब से ज्यादा इस्तेमाल युवा करते हैं. रिपोर्ट में यह इशारा भी किया गया है कि होटल से आएदिन आपत्तिजनक वीडियो वायरल होते रहते हैं. ( गोया कि अब खत्म हो जाएंगे.)
ओयो के नए दिशानिर्देशों के मुताबिक विवाहित जोड़े रूम बुक करा सकते हैं लेकिन इस के लिए उन्हें औनलाइन या औफलाइन अपने पतिपत्नी होने का प्रमाण देना पड़ेगा. यानी असली पतिपत्नी के यह कह देने भर से काम नहीं चलेगा कि वे वाकई पतिपत्नी हैं. अब अपने पतिपत्नी होने का कौन सा सबूत वे पेश करेंगे यह भगवान जाने क्योंकि देश में 95 फीसदी शादियां परम्परागत तरीके से होती हैं जिस का मैरिज सर्टिफिकेट विदेश जाने के लिए पासपोर्ट जैसे दस्तावेज की जरूरत न हो तो नहीं बनवाया जाता. समाज और कानून उन के कहने भर से ही उन्हें पतिपत्नी मान लेते हैं हां कोई एक एतराज जताए या कोई विवाद हो तो जरुर शादी होने का सबूत पेश करना पड़ता है अब ओयो अपनी इमेज चमकाते बड़ी मासूमियत से कह रहा है कि इस से यानी चेक इन नियमों को बदलने से होटल में रूम लेने वाले परिवारों छात्रों और धार्मिक यात्रियों को सुरक्षित अनुभव मिलेगा.

ऐसा कतई नहीं था कि अब तक ओयो रूम लेने वाले अनमैरिड कपल्स जिन्हें और जिन के पवित्र प्यार को एक झटके में ओयो द्वारा पाप और नाजायज करार दे दिया गया है कोई गदर करते थे बल्कि वे तो चुपचाप कमरे में बंद हो कर अपने प्यार को परवान चढ़ा रहे होते थे जिस में किसी को डिस्टर्ब करने की बात की कोई गुंजाईश ही नहीं थी. उलटे उन का डर या मंशा तो यह रहती थी कि कोई उन्हें डिस्टर्ब न करे.
यह झमेला कैसे कानून और संविधान का खुला उल्लंघन कर रहा है इसे जानने से पहले थोड़ा सा ओयो के बारे में जान लें कि कैसे इस ने कानून और संविधान का ही सहारा ले कर अरबों का आर्थिक साम्राज्य खड़ा किया और अब यह सोचना बेमानी है कि वही इसे ध्वस्त कर रहा है बल्कि इस के पीछे ओयो के फाउंडर और मुखिया रीतेश अग्रवाल की मंशा और पैसा समेटने की है.

31 वर्षीय रीतेश ओडिशा के कटक के एक गांव में पैदा हुआ थे जिन के पिता की किराने की छोटी सी दुकान हुआ करती थी. रीतेश पढ़ाई के लिए कोटा होते हुए दिल्ली पहुंचे लेकिन मन न लगने या कमजोर होने के कारण बीटेक की पढ़ाई उन्होंने बीच में छोड़ दी और दिल्ली में सिम कार्ड बेचने लगे.
व्यवसायिक बुद्धि के धनी इस युवा ने 2013 में ओयो की स्थापना की और ऐप के जरिये कारोबार चलाया और फैलाया जो आज लगभग 800 करोड़ रु का है. इस बाबत उन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तारीफ प्रोत्साहन और पुरुस्कार तीनों मिले. देखते ही देखते ओयो के जरिये लोगों को सस्ते और किफायती रूम मिलने लगे. इन में हर तरह के लोग थे, छात्र, बिजनेसमेन धर्मिक यात्री, शौकीन घुमक्कड़, सैलानी और इन से भी ज्यादा और अहम ये कपल्स जिन्हें प्यार रोमांस और सैक्स के लिए एकांत सुरक्षित जगह की दरकार रहती थी.
देखते ही देखते ओयो की पहचान कुंवारे कपल्स से होने लगी जो बिना किसी डर से बेहद सस्ते में कमरा बुक कराते थे और अपने तन मन की जरूरत पूरी करने के बाद अपनेअपने ठिकानों या घर लौट जाते थे. यह कोई हर्ज की या गैरकानूनी बात नहीं थी बल्कि एक नया कांसैप्ट और व्यवस्था थी जिस में सब कुछ कानून के तहत चल रहा था इसलिए ओयो ने जम कर नोट छापे.
लेकिन अब खुलेआम कानून को धता रीतेश बता रहे हैं. कोई कानून उन्हें यह फैसला लेने या व्यवस्था करने की इजाजत नहीं देता कि अनमैरिड कपल्स को होटल में कमरा नहीं दिया जाएगा. यह ठीक वैसी ही बात है कि दलितों का मंदिर में प्रवेश वर्जित है जबकि कोई कानून इस की भी इजाजत नहीं देता.

ऐसा भी नहीं है कि रीतेश को एकाएक ही धर्म, संस्कृति और समाज का लिहाज हो आया हो बल्कि वे अब चाहते यह हैं कि कुंवारे कपल्स 2 रूम बुक कराएं जिस से ओयो की आमदनी दोगुनी हो. अगर ऐसा नहीं है तो सामाजिक संगठनों के अपील की दलील बेहद खोखली है क्योंकि कहीं कोई सार्वजनिक विरोध या प्रदर्शन ओयो के विरोध में नही हुआ था. छिटपुट जो हुआ वह कतई इतना असर डालने वाला नहीं था जितना कि मासूमियत से वे जाहिर कर रहे हैं.
अब प्यार करने वाले क्या करेंगे और कहां जाएंगे यह सवाल भी बेमानी है क्योंकि ओयो के पहले भी युवा प्यार कर रहे थे और सैक्स भी कर रहे थे. गांव देहातों में ओयो नहीं हैं लेकिन वहां के युवा झाड़ियों, खेत खलिहानों और मंदिरों, खंडहरों तक में प्यार की जगह और मौके ढूंढे लेते हैं.
हां इतना जरुर है कि इस में उन्हें कई दुश्वारियों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है. अब ओयो के इस फैसले के बाद शहरी युवाओं को भी दिक्कत होगी लेकिन वे खुद अपना रास्ता बना और ढूंढे लेंगे. हालांकि बेहतर विकल्प खुद ओयो अघोषित रूप से दे चुका है कि अब 2 कमरे बुक करो और हमें दोगुना पैसा दो

Emotional Story : रोबीली सास

Emotional Story :  मां के फोन वैसे तो संक्षिप्त ही होते थे पर इतना महत्त्वपूर्ण समाचार भी वह सिर्फ 2 मिनट में बता देंगी, मेरी कल्पना से परे ही था. ‘‘शुचिता की शादी तय हो गई है. 15 दिन बाद का मुहूर्त निकला है, तुम सब लोगों को आना है,’’ बस, इतना कह कर वह फोन रखने लगी थीं.

‘‘अरे, मां, कब रिश्ता तय किया है, कौन लोग हैं, कहां के हैं, लड़का क्या करता है?’’ मैं ने एकसाथ कई प्रश्न पूछ डाले थे. ‘‘सब ठीकठाक ही है, अब आ कर देख लेना.’’

मां और बातें करने के मूड में नहीं थीं और मैं कुछ और कहती तब तक उन्होंने फोन रख दिया था. लो, यह भी कोई बात हुई. अरे, शुचिता मेरी सगी छोटी बहन है, इतना सब जानने का हक तो मेरा बनता ही है कि कहां शादी तय हो रही है, कैसे लोग हैं. अरे, शुचि की जिंदगी का एक अहम फैसला होने जा रहा है और मुझे खबर तक नहीं. ठीक है, मां का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं रहता है, फिर शुचिता की शादी को ले कर पिछले कई सालों से परेशान हो रही हैं. पिताजी के असमय निधन से और अकेली पड़ गई हैं. भाई कोई है नहीं, हम 3 बहनें ही हैं. मैं, नमिता और शुचिता. मेरी और नमिता की शादी हुए काफी अरसा हो गया है पर पता नहीं क्यों शुचिता का हर बार रिश्ता तय होतेहोते रह जाता था. शायद इसीलिए मां इतनी शीघ्रता से यह काम निबटाना चाह रही हों.

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जो भी हो, बात तो मां को पूरी बतानी थी. शाम को मैं ने फिर शुचिता से ही बात करनी चाही थी पर वह तो शुरू से वैसे भी मितभाषी ही रही है. अभी भी हां-हूं ही करती रही. ‘‘दीदी, मां ने बता तो दिया होगा सबकुछ…’’ स्वर भी उस का तटस्थ ही था.

‘‘अरे, पर तू तो पूरी बात बता न, तेरे स्वर में भी कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है,’’ मैं तो अब झल्ला ही पड़ी थी. ‘‘उत्साह क्या, सब ठीक ही है. मां इतने दिन से परेशान थीं, मैं स्वयं भी अब उन पर बोझ बन कर उन की परेशानी और नहीं बढ़ाना चाहती. अब यह रिश्ता तो जैसे एक तरह से अपनेआप ही तय हो गया है, तो अच्छा ही होगा,’’ शुचिता ने भी जैसेतैसे बात समाप्त ही कर दी थी.

राजीव तो अपने काम में इतने व्यस्त थे कि उन को छुट्टी मिलनी मुश्किल थी. मेरा और बच्चों का रिजर्वेशन करवा दिया. मैं चाह रही थी कि 4-5 दिन पहले पहुंचूं पर मैं और नमिता दोनों ही रिजर्वेशन के कारण ठीक शादी वाले दिन ही पहुंच पाए थे. मेरी तरह नमिता भी उतनी ही उत्सुक थी यह जानने के लिए कि शुचि का रिश्ता कहां तय हुआ और इतनी जल्दी कैसे सब तय हो गया पर जो कुछ जानकारी मिली उस ने तो जैसे हमारे उत्साह पर पानी ही फेर दिया था.

जौनपुर का कोई संयुक्त परिवार था. छोटामोटा बिजनेस था. लड़का भी वही पुश्तैनी काम संभाल रहा था. उन लोगों की कोई मांग नहीं थी. लड़के की बूआ खुद आ कर शुचिता को पसंद कर गई थीं और शगुन की अंगूठी व साड़ी भी दे गई थीं.

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‘‘मां,’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘जब इतने समय से रिश्ते देख रहे हैं तो और देख लेते. आप को जल्दी क्या थी. ऐसी क्या शुचि बोझ बन गई थी? अब जौनपुर जैसा छोटा सा पुराना शहर, पुराने रीतिरिवाज के लोग, संयुक्त परिवार, शुचि कैसे निभेगी उस घर में.’’ ‘‘सब निभ जाएगी,’’ मां बोलीं, ‘‘अब मेरे इस बूढ़े शरीर में इतनी ताकत नहीं बची है कि घरघर रिश्ता ढूंढ़ती रहूं. इतने बरस तो हो गए, कहीं जन्मपत्री नहीं मिलती, कहीं दहेज का चक्कर… और तुम दोनों जो इतनी मीनमेख निकाल रही हो, खुद क्यों नहीं ढूंढ़ दिया कोई अच्छा घरबार अपनी बहन के लिए.’’

मां ने तो एक तरह से मुझे और नमिता दोनों को ही डपट दिया था. यह सच भी था, हम दोनों बहनें अपनेअपने परिवार में इतनी व्यस्त हो गई थीं कि जितने प्रयास करने चाहिए थे, चाह कर भी नहीं कर पाए.

खैर, सीधेसादे समारोह के साथ शुचिता ब्याह दी गई. मैं और नमिता दोनों कुछ दिन मां के पास रुक गए थे पर हम रोज ही यह सोचते कि पता नहीं कैसे हमारी यह भोलीभाली बहन उस संयुक्त परिवार में निभेगी. हम लोग ऐसे परिवारों में कभी रहे नहीं. न ही हमें घरेलू काम करने की अधिक आदत थी. पिताजी थे तब काफी नौकरचाकर थे और अभी भी मां ने 2 काम वाली बाई लगा रखी थीं और खाना भी उन्हीं से बनवा लेती थीं.

फिर शुचि का तो स्वभाव भी सरल सा है. तेजतर्रार सास, ननदें, जेठानी सब मिल कर दबा लेंगी उसे. जब चचेरा भाई रवि विदा कराने गया तब हम लोग यही सोच कर आशंकित थे कि पता नहीं शुचि आ कर क्या हालचाल सुनाए. पर उस समय तो उस की सास ने विदा भी नहीं किया. रवि से यह कह कर कि महीने भर बाद भेजेंगी, अभी किसी बच्चे का जन्मदिन है, उसे भेज दिया था.

उधर रवि कहता जा रहा था, ‘‘दीदी, शुचि दीदी को आप ने कैसे घर में भेज दिया, वह घर क्या उन के लायक है. छोटा सा पुराने जमाने का मकान, उस में इतने सारे लोग…अब आजकल कौन बहुओं से घूंघट निकलवाता है, पर शुचि दीदी से इतना परदा करवाया कि मेरे सामने ही मुश्किल से आ पाईं. ‘‘ऊपर से सास, ननदें सब तेजतर्रार. सास ने तो एक तरह से मुझे ही झिड़क दिया कि बहू से घर का कामकाज तो होता नहीं है, इतना नाजुक बना कर रख दिया है लड़की को कि वह चार जनों का खाना तक नहीं बना सकती, पर गलती तो इस की मां की है जो कुछ सिखाया नहीं. अब हम लोग सिखाएंगे.

‘‘सच दीदी, इतनी रोबीली सास तो मैं ने पहली बार देखी.’’ रवि कहता जा रहा है और मेरा कलेजा बैठता जा रहा था कि इतने सीधेसादे ढंग से शादी की है, कहीं लालची लोग हुए तो दहेज के कारण मेरी बहन को प्रताडि़त न करें. वैसे भी दहेज को ले कर इतने किस्से तो आएदिन होते रहते हैं.

शुचि से मिलना भी नहीं हो पाया. मां से भी इस बारे में अधिक बात नहीं कर पाई. वैसे भी हृदय रोग की मरीज हैं वे.

शुचि से फोन पर कभीकभार बात होती तो जैसा उस का स्वभाव था हांहूं में ही उत्तर देती. बीच में दशहरे की छुट्टियों में फिर मां के पास जाना हुआ था. सोचा कि शायद शुचि भी आए तो उस से भी मिलना हो जाएगा पर मां ने बताया कि शुचि की सास बीमार हैं…वह आ नहीं पाएगी.

‘‘मां, इतने लोग तो हैं उस घर में फिर शुचि तो नईनवेली बहू है, क्या अब वही बची है सास की सेवा को, जो चार दिन को भी नहीं आ सकती,’’ मैं कहे बिना नहीं रह पाई थी. मुझे पता था कि उस की ननदें, जेठानी सब इतनी तेज हैं तो शुचि दब कर रह गई होगी. उधर मां कहे जा रही थीं, ‘‘सास का इलाज होना था तो पैसे की जरूरत पड़ी. शुचि ने अपने कंगन उतार कर सास के हाथ पर धर दिए…सास तो गद्गद हो गईं.’’

मैं ने माथे पर हाथ मारा. हद हो गई बेवकूफी की भी. अरे, छोटीमोटी बीमारी का तो इलाज यों ही हो जाता है फिर पुश्तैनी व्यापार है, इतने लोग हैं घर में… और सास की चतुराई देखो, जो थोड़ा- बहुत जेवर शुचि मायके से ले कर गई है उस पर भी नजरें गड़ी हैं. उधर मां कहती जा रही थीं, ‘‘अच्छा है उस घर में रचबस गई है शुचि…’’

मां भी आजकल पता नहीं किस लोक में विचरण करने लगी हैं. सारी व्यावहारिकता भूल गई हैं. शुचि के पास कुछ गहनों के अलावा और है ही क्या. मेरा तो मन ही उचट गया था. घर आ कर भी मूड उखड़ाउखड़ा ही रहा. राजीव से यह सब कहा तो उन का तो वही चिरपरिचित उत्तर था.

‘‘तुम क्यों परेशान हो रही हो. सब का अपनाअपना भाग्य है. अब शुचि के भाग्य में जौनपुर के ये लोग ही थे तो इस में तुम क्या कर सकती हो और मां से क्या उम्मीद करती हो? उन्होंने तो जैसे भी हो अपना दायित्व पूरा कर दिया.’’ फोन पर पता चला कि शुचि बीमार है, पेट में पथरी है और आपरेशन होगा. दूसरी कोई शिकायत हो सकती है तो पहले सारे टेस्ट होंगे, बनारस के एक अस्पताल में भरती है.

‘‘तुम लोग देख आना, मेरा तो जाना हो नहीं पाएगा,’’ मां ने खबर दी थी. नमिता भी छुट्टी ले कर आ गई थी. वहीं अस्पताल के पास उस ने एक होटल में कमरा बुक करा लिया था.

‘‘रीता, मैं तो 2 दिन से ज्यादा रुक नहीं पाऊंगी, बड़ी मुश्किल से आफिस से छुट्टी मिली है,’’ उस ने मिलते ही कहा था. ‘‘मैं भी कहां रुक पाऊंगी, छोटू के इम्तहान चल रहे हैं, नौकर भी आजकल बाहर गया हुआ है. बस, दिन में ही शुचि के पास बैठ लेंगे, रात को तो जगना भी मुश्किल है मेरे लिए,’’ मैं ने भी अपनी परेशानी गिना दी थी.

सवाल यह था कि यहां रुक कर शुचि की देखभाल कौन करेगा? कम से कम 10 दिन तो उसे अस्पताल में ही रहना होगा. अभी तो सारे टेस्ट होने हैं. हम दोनों शुचि को देखने जब अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि उस की दोनों ननदें आई हुई हैं. बूढ़ी सास भी उसे संभालने आ गई हैं और उन लोगों ने काटेज वार्ड के पास ही कमरा ले लिया था.

दबंग सास बड़े प्यार से शुचि के सिर पर हाथ फेर रही थीं. ‘‘फिक्र मत कर बेटी, तू जल्दी ठीक हो जाएगी, मैं हूं न तेरे पास. तेरी दोनों ननदें भी अपनी ससुराल से आ गई हैं. सब बारीबारी से तेरे पास सो जाया करेंगे. तू अकेली थोड़े ही है.’’

उधर शुचि के पति चम्मच से उसे सूप पिला रहे थे, एक ननद मुंह पोंछने का नैपकिन लिए खड़ी थी. ‘‘दीदी, कैसी हो?’’ शुचि ने हमें देख कर पूछा था. मुझे लगा कि इतनी बीमारी के बाद भी शुचि के चेहरे पर एक चमक है. शायद घरपरिवार का इतना अपनत्व पा कर वह अपनी बीमारी भूल गई है. पर पता नहीं क्यों मेरे और नमिता के सिर कुछ झुक गए थे. कई बार इनसानों को समझने में कितनी भूल कर देते हैं हम. मैं ऐसा ही कुछ सोच रही थी.

लेखिका- डॉ कासमा चतुर्वेदी

Hindi Stories : पान खाए सैयां हमारो

Hindi Stories :  शाम के 6 बजे जब सब 1-1 कर घर जाने के लिए अपनाअपना बैग समेटने लगे तो सिया ने चोरी से एक नजर अनिल पर डाली. औफिस में नया आया सब से हैंडसम, स्मार्ट, खुशमिजाज अनिल उसे देखते ही पसंद आ गया था. वह मन ही मन उस के प्रति आकर्षित थी.

अनिल ने भी एक नजर उस पर डाली तो वह मुसकरा दी. दोनों अपनीअपनी चेयर से लगभग साथ ही उठे. लिफ्ट तक भी साथ ही गए. 2-3 लोग और भी उन के साथ बातें करते लिफ्ट में आए. आम सी बातों के दौरान सिया ने भी नोट किया कि अनिल भी उस पर चोरीचोरी नजर डाल रहा है.

बाहर निकल कर सिया रिकशे की तरफ जाने लगी तो अनिल ने कहा, ‘‘सिया, कहां जाना है आप को मैं छोड़ दूं?’’‘‘नो थैंक्स, मैं रिकशा ले लूंगी.’’‘‘अरे, आओ न, साथ चलते हैं.’’‘‘अच्छा, ठीक है.’’

अनिल ने अपनी बाइक स्टार्ट की, तो सिया उस के पीछे बैठ गई. अनिल से आती परफ्यूम की खुशबू सिया को भा रही थी. दोनों को एकदूसरे का स्पर्श रोमांचित कर गया. बनारस में इस औफिस में दोनों ही नए थे. सिया की नियुक्ति पहले हुई थी.

अचानक सड़क के किनारे होते हुए अनिल ने ब्रेक लगाए तो सिया चौंकी, ‘‘क्या हुआ?’’‘‘कुछ नहीं,’’ कहते हुए अनिल ने अपनी पैंट की जेब से गुटका निकाला और बड़े स्टाइल से मुंह में डालते हुए मुसकराया.‘‘यह क्या?’’ सिया को एक झटका सा लगा.‘‘मेरा फैवरिट पानमसाला.’’‘‘तुम्हें इस की आदत है?’’

‘‘हां, और यह मेरी स्टाइलिश आदत है, है न?’’ फिर सिया के माथे पर शिकन देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’‘‘तुम्हें इन सब चीजों का शौक है?’’‘‘हां, पर क्या हुआ?’’‘‘नहीं, कुछ नहीं,’’ कह कर वह चुप रही तो अनिल ने फिर बाइक स्टार्ट कर ली.धीरेधीरे यह रोज का क्रम बन गया. घर से आते हुए सिया रिकशे में आती, औफिस से वापस जाते समय अनिल उसे उस के घर से थोड़ी दूर उतार देता. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे से खुलते गए.

अनिल का सिया के प्रति आकर्षण बढ़ता गया. मौडर्न, सुंदर, स्मार्ट सिया को वह अपने भावी जीवनसाथी के रूप में देखने लगा था. कुछ ऐसा ही सिया भी सोचने लगी थी. दोनों को विश्वास था कि उन के घर वाले उन की पसंद को पसंद करेंगे.

अनिल तो सिया के साथ अपना जीवन आगे बढ़ाने के लिए शतप्रतिशत तय कर चुका था पर सिया एक पौइंट पर आ कर रुक जाती थी. अनिल की लगातार मुंह में गुटका दबाए रखने की आदत पर वह जलभुन जाती थी. कई बार उस ने इस से होने वाली बीमारियों के बारे में चेतावनी भी दी तो अनिल ने बात हंसी में उड़ा दी, ‘‘यह क्या तुम बुजुर्गों की तरह उपदेश देने लगती हो. अरे, मेरे घर में सब खाते हैं, मेरे मम्मीपापा को भी आदत है, तुम खाती नहीं न, इसलिए डरती हो. 2-3 बार खाओगी तो स्वाद अपनेआप अच्छा लगने लगेगा. पहले मेरी मम्मी भी पापा को मना करती थीं. फिर धीरेधीरे वे गुस्से में खुद खाने लगीं और अब तो उन्हें भी मजा आने लगा है, इसलिए अब कोई किसी को नहीं टोकता.’’

सिया के दिल में क्रोध की एक लहर सी उठी पर अपने भावों को नियंत्रण में रखते हुए बोली, ‘‘पर अनिल, तुम इतने पढ़ेलिखे हो, तुम्हें खुद भी यह बुरी आदत छोड़नी चाहिए और अपने मम्मीपापा को भी समझाना चाहिए.’’

‘‘उफ सिया. छोड़ो यार, आजकल तुम घूमफिर कर इसी बात पर आ जाती हो. हमारे मिलने का आधा समय तो तुम इसी बात पर बिता देती हो. अरे, तुम ने वह गाना नहीं सुना, ‘पान खाए सैयां हमारो…’ फिर हंसा, ‘‘तुम्हें तो यह गाना गाना चाहिए, देखा नहीं कभी क्या कि वहीदा रहमान यह गाना गाते हुए कितनी खुश होती हैं.’’‘‘वे फिल्मों की बातें हैं. उन्हें रहने दो.’’

अनिल उसे फिर हंसाता रहा पर वह उस की इस आदत पर काफी चिंतित थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अनिल की इस आदत को कैसे छुड़ाए.एक दिन सिया अपने मम्मीपापा और बड़े भाई राहुल से मिलवाने अनिल को घर ले गई. अनिल का व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि देखने वाला तुरंत प्रभावित होता था. सब अनिल के साथ घुलमिल गए. बातें करतेकरते जब ऐक्सक्यूज मी कह कर अनिल ने अपनी जेब से पानमसाला निकाल कर अपने मुंह में डाला, तो सब उस की इस आदत पर हैरान से चुप बैठे रह गए.

अनिल के जाने के बाद वही हुआ जिस की उसे आशा थी. सिया की मम्मी सुधा ने कहा, ‘‘अनिल अच्छा लगा पर उस की यह आदत …’’ सिया ने बीच में ही कहा, ‘‘हां मम्मी, मुझे भी उस की यह आदत बिलकुल पसंद नहीं है. क्या करूं समझ नहीं आ रहा है.’’

थोड़े दिन बाद ही अनिल सिया को अपने परिवार से मिलवाने ले गया. अनिल के पापा श्याम और मम्मी मंजू अनिल की छोटी बहन मिनी सब सिया से बहुत प्यार से पेश आए. सिया को भी सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा. मंजू ने तो उसे डिनर के लिए ही रोक लिया. सिया भी सब से घुलमिल गई. फिर वह किचन में ही मंजू का हाथ बंटाने आ गई. सिया ने देखा, फ्रिज में एक शैल्फ पान के बीड़ों से भरी हुई थी.

‘‘आंटी, इतने पान?’’ वह हैरान हुई.‘‘अरे हां,’’ मंजू मुसकराईं, ‘‘हम सब को आदत है न. तुम तो जानती ही हो, बनारस के पान तो मशहूर हैं.’’‘‘पर आंटी, हैल्थ के लिए…’’‘‘अरे छोड़ो, देखा जाएगा,’’ सिया के अपनी बात पूरी करने से पहले ही मंजू बोलीं.किचन में ही एक तरफ शराब की बोतलों का ढेर था. वह वौशरूम में गई तो वहां उसे जैसे उलटी आने को हो गई. बाहर से घर इतना सुंदर और वौशरूम में खाली गुटके यहांवहां पड़े थे. टाइल्स पर पड़े पान के छींटों के निशान देखते ही उसे उलटी आ गई. सभ्य, सुसंस्कृत दिखने वाले परिवार की असलियत घर के कोनेकोने में दिखाई दे रही थी. ‘अगर वह इस घर में बहू बन कर आ गई तो उस का बाकी जीवन तो इन गुटकों, इन बदरंग निशानों को साफ करते ही बीत जाएगा,’ उस ने इन विचारों में डूबेडूबे ही सब के साथ डिनर किया.

डिनर के बाद अनिल सिया को घर छोड़ आया. घर आने के बाद सिया के मन में कई विचार आ जा रहे थे. अनिल एक अच्छा जीवनसाथी सिद्ध हो सकता है, उस के घर वाले भी उस से प्यार से पेश आए पर सब की ये बुरी आदतें पानमसाला, शराब, सिगरेट के ढेर वह अपनी आंखों से देख आई थी. घर आ कर उस ने अपने मन की बात किसी को नहीं बताई पर बहुत कुछ सोचती रही. 2-3 दिन उस ने अनिल से एक दूरी बनाए रखी. सिया के इस रवैए से परेशान अनिल बहुत कुछ सोचने लगा कि क्या हुआ होगा पर उसे जरा भी अंदाजा नहीं हुआ तो शाम को घर जाने के समय वह सिया का हाथ पकड़ कर जबरदस्ती कैंटीन में ले गया, वहां बैठ कर उदास स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ है, बताओ तो मुझे?’’

सिया को जैसे इसी पल का इंतजार था. अत: उस ने गंभीर, संयत स्वर में कहना शुरू किया, ‘‘अनिल, मैं तुम्हें बहुत पसंद करती हूं, पर हम इस रिश्ते को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे.’’अनिल हैरानी से चीख ही पड़ा, ‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे परिवार को जो ये कुछ बुरी आदतें हैं, मुझ से सहन नहीं होंगी, तुम एजुकेटेड हो, तुम्हें इन आदतों का भविष्य तो पता ही होगा. भले ही तुम इन आदतों के परिणामों को नजरअंदाज करते रहो पर जानते तो हो ही न? मैं ऐसे परिवार की बहू कैसे बनूं जो इन बुरी आदतों से घिरा है? आई एम सौरी, अनिल, मैं सब जानतेसमझते ऐसे परिवार का हिस्सा नहीं बनना चाहूंगी.’’

अनिल का चेहरा मुरझा चुका था. बड़ी मुश्किल से उस की आवाज निकली, ‘‘सिया, मैं तो तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’‘‘हां अनिल, मैं भी तुम से दूर नहीं होना चाहती पर क्या करूं, इन व्यसनों का हश्र जानती हूं मैं. सौरी अनिल,’’ कह उठ खड़ी हुई.अनिल ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘अगर मैं यह सब छोड़ने की कोशिश करूं तो? अपने मम्मीपापा को भी समझांऊ तो?’’

‘‘तो फिर मैं इस कोशिश में तुम्हारे साथ हूं,’’ मुसकराते हुए सिया ने कहा, ‘‘पर इस में काफी समय लगेगा,’’ कह सिया चल दी.आत्मविश्वास से सधे सिया के कदमों को देखता अनिल बैठा रह गया.आदतन हाथ जेब तक पहुंचा, फिर सिर पकड़ कर बैठा रह गया.

Online Hindi Story : दो चेहरे वाले लोग

Online Hindi Story :  रश्मि जीजाजी का दोगलापन देख हैरान रह गई थी. बेटों जैसी पलीबढ़ी बेटी पर तो उन्हें फख्र था परंतु बहू को आजादी देने के पक्ष में वे न थे. दो चेहरों वाले इस इंसान का कौन सा चेहरा असली था, कौन सा नकली, क्या कोई जान सका? वैसे, जीजी मेरी सगी बहन तो नहीं, लेकिन अम्मा और आपा ने उन्हें हमेशा अपनी बेटी के समान ही माना. इसलिए जब मेरे पति ने मुंबई की नौकरी छोड़ कर हैदराबाद में काम करने का निश्चय किया,

तब आपा ने नागपुर से चिट्ठी में लिखा, ‘अच्छा है, हमारे कुछ पास आओगे तुम लोग. और हां, जीजी के हैदराबाद में होते हुए फिर हमें चिंता कैसी.’ जीजी बड़ी सीधीसादी, मीठे स्वभाव की हैं. दूसरों के बारे में सोचतेसोचते अपने बारे में सबकुछ भूल जाने वाले लोगों में वे सब से आगे गिनी जा सकती हैं. अपने मातापिता, भाईबहन, कोई न होने पर भी केवल निस्वार्थ प्रेम के बल पर उन्होंने सैकड़ों अपने जोड़े हैं. ‘लेकिन, तुम्हारे जीजाजी को वे जीत नहीं पाई हैं,’ मुकुंद मेरे पति ने 2-3 बार टिप्पणी की थी. ‘जीजाजी कितना प्यार करते हैं जीजी से,’ मैं ने विरोध करते हुए कहा था, ‘घर उन के नाम पर, गाड़ी उन के लिए, साडि़यां, गहने…

सबकुछ.’ मुकुंद ने हर बार मेरी तरफ ऐसे देखा था जैसे कह रहे हों, ‘बच्ची हो, तुम क्या सम?ागी.’ हैदराबाद आने के बाद मेरा जीजाजी के घर आनाजाना शुरू हुआ. घरों में फासला था पर मैं या जीजी समय निकाल कर सप्ताह में एक बार तो मिल ही लेतीं. अब तक मैं ने जीजी को मायके में ही देखा था. अब ससुराल में जिम्मदारियों के बो?ा से दबी, लोगों की अकारण उठती उंगलियों से अपने भावनाशील मन को बचाने की कोशिश करती जीजी मु?ो दिखाई दीं, कुछ असुरक्षित सी, कुछ घबराई सी और मैं केवल उन्हें देख ही सकती थी. जीजी की बेटी शिवानी कंप्यूटर इंजीनियर थी. वह मैनेजमैंट का कोर्स करने के बाद अब एक प्रतिष्ठित फर्म में अच्छे पद पर काम कर रही थी. जीजाजी उस के लिए योग्य वर की तलाश में थे. मैं ने कुछ अच्छे रिश्ते सु?ाए भी पर जीजाजी ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘क्या तुम भी रश्मि, शिवानी की योग्यता का कोई लड़का बताओ तो जानें.’’

‘‘लेकिन जीजाजी, उमेश बहुत अच्छा लड़का है. होशियार, सुदर्शन, स्वस्थ, अच्छा कमाता है. कोई बुरी आदत नहीं है.’’ ‘‘पर, उस पर अपनी 2 छोटी बहनों के विवाह की जिम्मेदारी है और उस का अपना कोई मकान भी नहीं,’’ जीजाजी ने एकएक उंगली मोड़ कर गिनाना चाहा. ‘‘यह तो दोनों मिल कर आराम से कर सकते हैं. शिवानी भी तो कमाती है,’’ मैं ने उन की बातों को काटते हुए कहा. ‘‘देखो रश्मि, मैं ने अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है. उसे उस की काबिलीयत का पैसा मिल रहा है. इतने सालों की उस की कड़ी मेहनत, मेरा मार्गदर्शन अब जा कर रंग लाया है. वह सब किसी दूसरे के लिए क्यों फूजूल में फेंक दिया जाए?’’ मैं स्तब्ध रह गई, जीजी की कितनी ही चीजें जीजाजी की बहनें मांग कर ले जाती थीं. हम लोगों की तरफ से दिए गए उपहार ‘उफ’ तक मुंह से न निकालते हुए जीजी ने अपने देवरों को उन के मांगने पर दे दिए थे. मां कभी पूछतीं, ‘‘आरती,

वह पेन कहां गया जो तुम्हें पिछली दीवाली में भैया ने दिया था.’’ जीजी बेहद विनम्रता के साथ कहतीं, ‘‘रमन भैया ने परीक्षा के लिए लिया था, पसंद आ गया तो पूछा कि मैं रख लूं, भाभी. मैं मना कैसे करती, मां.’’ एक बार भैया दीदी के लिए भैयादूज पर एक बढि़या धानी साड़ी लाए थे. तब जीजी की सहेली अरुणा दीदी भी उन से मिलने के लिए आई थीं. उन्होंने छूटते ही कहा, ‘‘मत दो इस पगली को कुछ भी. साड़ी भी ननद ने मांग ली तो दे देगी.’’ तब जीजी ने अपनी मुसकान बिखेरते हुए कहा था, ‘‘वे भी तो मेरे अपने हैं. जैसे मेरे भैया, मेरी रश्मि, मेरी अरुणा.’’ अब उसी जीजी की बेटी को पिता से क्या सीख मिल रही थी. मैं ने जीजा की ओर देखा. वह काम में मगन थे.

जैसे उन्होंने सुना ही न हो. मुकुंद कहते हैं, ‘‘मैं कुछ ज्यादा ही आशावादी हूं, दीवार से सिर टकराने के बाद भी दरवाजे की टोह लेती रहती हूं.’’ जीजी के बारे में मैं कुछ ज्यादा भावुक भी तो हूं. शिवानी, हालांकि कुछ नकचढ़ी है, फिर भी बचपन से उसे देखने के कारण उस से लगाव भी तो हो गया है. इसलिए बारबार प्रस्ताव ले कर आती हूं. ‘‘क्या रश्मि, तुम ने बताया था न पता. वहां चिट्ठी भेजी थी,’’ एक दिन जीजाजी बोले, ‘‘कौन, वह बेंगलुरु वाला.’’ मैं कुछ उत्साहित हो गई. ‘‘हां, वही महाशय, उन की यह लंबीचौड़ी चिट्ठी आईर् है. मैं इसे पढ़ कर तुम्हें सुना देता पर ऐसी मूर्खताभरी बातों का मैं फिर से उच्चारण नहीं करना चाहता.’’ ‘‘इस में उन की क्या गलती है,’’ जीजी ने पहली बार चर्चा में भाग लिया, ‘‘वे लोग चाहते हैं कि उन की बहू को गाना आना चाहिए. वे सब गाते हैं.’’

‘‘तुम चुप रहो, आरती,’’ जीजाजी की आवाज में कड़वाहट थी, ‘‘शिवानी को गाना ही सीखना होता तो कंप्यूटर इंजीनियर क्यों बनती. अरे, घंटेभर के गाने के लिए 1,000-1,200 रुपए दे कर वह जब चाहे 10-12 गाने वालों का गाना सुनवा सकती है. तुम भी आरती…’’ ‘‘लेकिन जीजाजी, उन्होंने तो अपनी अपेक्षाएं आप को बता दी हैं. वह भी आप ने संपर्क किया तब,’’ मैं ने कहा. ‘‘तुम दोनों बहनें पूरी गंवार मनोवृत्ति वाली बन रही हो,’’ शिवानी ने कहा, ‘‘लड़की है, इसलिए उसे रंगोली बनाना, गाना गाना, खाना बनाना आदि आना ही चाहिए. यह सब विचार कितने दकियानूसी भरे हैं. अब हम लड़कियां बैंक, औफिस आदि हर जगह मर्दों की तरह कुशलता से सबकुछ संभालती हैं तो सिलाईबुनाई अब मर्द क्यों नहीं सीखते.’’ ‘‘शिवानी, अगर तुम्हें कोई लड़का पसंद नहीं है तो मना कर दो पर किसी की अपेक्षाओं की खिल्ली उड़ाना कहां तक उचित है,’’ जीजी का स्वर जरा ऊंचा था. ‘‘तुम मेरी बेटी पर किसी तरह का दबाव नहीं डालोगी,’’ जीजाजी ने एकएक शब्द अलग करते हुए सख्त आवाज में कहा, ‘‘मैं ने देखा है, रश्मि साथ होती है तब तुम्हें कुछ ज्यादा ही शब्द सू?ाते हैं.’’ मैं दंग रह गई और जीजी चुप.

हम क्या शिवानी की या जीजी के ससुराल वालों की दुश्मन थीं, जो दोनों साथ मिल कर शब्दयुद्ध छेड़तीं. मुकुंद को मैं ने यह सब बताया ही नहीं. शायद वह जीजी के घर से संबंध कम करने के लिए कहते. जीजी की दुनिया में मैं शीतल छाया बन कर रहना चाहती थी. कितना कुछ ?ोला होगा जीजी ने आज तक. जीजाजी के सभ्य, सुसंस्कृत चेहरे के पीछे इतना जिद्दी, इतना स्वकेंद्रित व्यक्ति होगा, यह किसे पता था. मेरी जीजी से सारे परिवार के लिए स्वेटर बुनवाने वाले जीजाजी अपनी बेटी के बारे में इतना अलग दृष्टिकोण क्यों अपनाते होंगे. आएदिन अपने दोस्तों के लिए मेहमाननवाजी के बहाने जीजी को रसोई में व्यस्त रखते थे, जीजाजी. क्या खाना बनाना सुशिक्षित लड़कियों के लिए ‘बिलो डिग्निटी’ है. जीजी भी तो पढ़ीलिखी हैं. पढ़ाने की क्षमता रखती हैं.

अपने बच्चों की पढ़ाई में कई सालों तक सहायता करती रहती हैं. बाहर की दुनिया में कदम रखते ही अगर औरत ही घर को भुला देगी तो घर सिर्फ ईंटों का, लोहे का, सीमेंट का एक ढांचा ही तो रहेगा. उस का घरपन कैसे टिक पाएगा? करीब 2 साल के बाद शिवानी का विवाह हो गया. ससुराल के लोग बड़े अच्छे हैं. दामाद तो हीरा है पर अमेरिका में नौकरी कर रहा है, जहां शिवानी को खाना भी बनाना पड़ता है. ?ाड़ू, बरतन, कपड़े सबकुछ करती है वह. उस से अधिक पढ़ेलिखे, अधिक कमाने वाले जमाई राजा भी उस का हाथ बंटाते हैं. सुखी दांपत्य के लिए पतिपत्नी को एकदूसरे के कामों में हाथ तो बंटाना ही पड़ता है. जीजाजी जा कर सबकुछ देख आए हैं. मैं ने एक दिन नौकरों के बारे में पूछ ही लिया. ‘‘क्या पागलों जैसे सवाल करती हो रश्मि,’’ उन्होंने डांटा, ‘‘वहां नौकर नहीं मिलते.

हर व्यक्ति को अपना काम स्वयं करना पड़ता है. भई, अपना काम खुद करने में वहां के लोग संकोच नहीं करते. उन का मानना है कि व्यक्ति को आत्मनिर्भर होना चाहिए. फिर मेरे दामाद मदद भी तो करते हैं, अमेरिका में महिलाओं की बड़ी इज्जत है.’’ मैं ने चुप रहना ही उचित सम?ा. अमेरिका में महिलाओं की इज्जत किस प्रकार होती है, इस बारे में कौन क्या कह सकता है. काम में हाथ बंटा कर, वक्त आने पर पत्नियों को मारने वाले, पत्नी को छोड़ कर दूसरी स्त्री के साथ जाने वाले या छोटे से कारण से तलाक देने वाले अमेरिकी पतियों की संख्या के बारे में कौन नहीं जानता है. फिर उन की संस्कृति की प्रशंसा करने वाले जीजाजी अपने घर में एक गिलास पानी भी खुद हाथों से ले कर नहीं पीते, यह क्या मैं ने देखा नहीं. खैर, दो चेहरे वाले लोगों के ?ां?ाट में कौन सिर खपाए.

‘‘अविनाश के लिए अब ढेरों रिश्ते आ रहे हैं,’’ चाय पीते हुए जीजाजी बोले, ‘‘लड़की वालों को पता है कि ऐसा अच्छा घरवर और कहीं तो बड़ी मुश्किल से मिलेगा.’’ उन्होंने गर्व से जीजी की तरफ देखा. जीजी प्लेट में बिस्कुट सजाने में मगन थीं. ‘‘आप की बात सौ फीसदी सच है, जीजाजी,’’ मैं ने कहा, ‘‘रूप, गुण, शिक्षा, वैभव क्या कुछ नहीं है हमारे अविनाश के पास और जीजी जैसी ममतामयी सास,’’ इतना कह कर मैं ने प्यार से जीजी के गले में अपनी बांहें डाल दीं. ‘‘क्या चाहिए, रश्मि,’’ जीजा ने पूछा, ‘‘इतना मस्का क्यों लगा रही हो जीजी को.’’ ‘‘अविनाश की तसवीर और बायोडाटा दे दो. तुम्हारे लिए 2-4 अच्छी बहुएं लाऊंगी, जिन में से शायद एक तुम्हें पसंद भी आ जाए.’’ ‘‘जरा देखपरख के लाना रिश्ते,’’ जीजाजी ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘आजकल की लड़कियां बहुत तेजतर्रार हो गई हैं.’’ ‘‘मतलब…’’ ‘‘अरे, 4 दिनों पहले एक लड़की के मातापिता मिलने आए थे.

वैसे तो वे हैदराबाद किसी की शादी में आए थे, लेकिन जब अविनाश के बारे में उन्हें पता चला तो अपनी बेटी के लिए रिश्ता ले कर मिलने आ गए.’’ ‘‘अच्छी थी लड़की?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा. ‘‘फोटो लाए नहीं, पर हां, जानकारी तो प्रभावित करने वाली थी,’’ जीजाजी ने बताया, ‘‘उन की बेटी ने एमबीए किया है और पिछ?ले 6 सालों से पुणे में नौकरी कर रही है. अगर अविनाश पुणे में कोई नौकरी कर ले तो काम हो सकता है.’’ ‘‘अच्छा, और अविनाश का यहां का काम.’’ ‘‘वही तो मैं कह रहा हूं. आजकल तो लड़की वालों के बातविचार ही सम?ा में नहीं आते. उन की लड़की एक एमबीए डिगरी को छोड़ कर और किसी चीज में निपुण नहीं है और 8 साल से यहां काम जमा कर बैठा हुआ मेरा बेटा शहर छोड़ कर वहां जाए.’’ ‘‘मना कर देते आप,’’ जीजी ने धीरे से कहा. ‘‘वही तो किया. लेकिन आरती, इन इंजीनियर, डाक्टर लड़कियों के मातापिता सोचते हैं कि उन्होंने जैसे आकाश छू लिया है.

अगर लड़की उन्नीस है तो लड़का भी तो बीस या इक्कीस वाला ही ढूंढ़ेंगे न? फिर इतनी शर्तें, इतना घमंड क्यों.’’ जीजी बोलीं, ‘‘आजकल लोग लड़कालड़की की परवरिश में फर्क नहीं करते. उन्हें भी अपनी अपेक्षाएं बताने का हक है.’’ ‘‘अरे भई, शिक्षादीक्षा, खानापीना, लाड़प्यार सभी में लड़केलड़की बराबर होंगे तब भी फर्क तो रहेगा न,’’ जीजाजी बोले, ‘‘बहू इस घर में आएगी, अविनाश उस घर को नहीं जाने वाला.’’ बातों से लगा कि जीजाजी अब चिढ़ गए हैं. ‘‘लेकिन जीजाजी, आजकल दोनों की कमाई में फर्क नहीं है. समान अधिकार हैं स्त्रीपुरुष के.’’ ‘‘देखो रश्मि, हम लोगों को बहू चाहिए, नौकरी नहीं. इस घर को एक कुशल गृहिणी की जरूरत है, अफसर की नहीं. अगर लड़की होशियार है, कोई काम कर रही है तो इस घर से उसे पूरा सहयोग मिलेगा, लेकिन अगर वह घर से ज्यादा महत्त्व अपने कैरियर को देना चाहती है तो उसे शादी नहीं करनी चाहिए.’’ ‘‘जीजाजी, आप ने मेरे सामने यह अभिप्राय बता दिया तो ठीक है, लेकिन किसी आधुनिक विचारों वाली लड़की के सामने मत बोलिएगा.

?ागड़ा हो जाएगा.’’ ‘‘होने दो, लेकिन अपने अनुभव की बातें बताने से मु?ो कोई नहीं रोक पाएगा,’’ जीजाजी की आवाज कुछ ऊंची उठ गई, ‘‘उस दिन एक महाशय पत्नी के साथ आए थे. कहने लगे कि उन की बेटी को विदेश जाने का मौका मिलने वाला है तो क्या अविनाश उस के साथ अपने खर्च से जा पाएगा?’’ ‘‘फिर…’’ ‘‘मैं ने कह दिया कि महाशय, मेरे बेटे को विदेश जाने का मौका मिलता तो पत्नी का खर्चा वह खुद देता और उसे साथ ले जाता. उन की बेटी भी तो मेरे बेटे का टिकट खरीद सकती है. दोनों की कमाई में फर्क नहीं. अधिकार समान है, फिर यह दोहरा मानदंड क्यों?’’ मैं चुप्पी लगा गई. अगर कहती कि जीजाजी, दोहरे मानदंड वाले तो आप हैं. शिवानी की शादी के समय आप के विचार कुछ अलग थे और आज बेटे की शादी के समय में कुछ अलग हैं. जीजी ने कितनाकुछ खो कर घरपरिवार को, संस्कृति के मूल्यों को बरकरार रखा था. जीजाजी सम?ादार होते तो जीजी अपने व्यक्तित्व को गरिमामय रख कर भी वह सबकुछ कर सकती थीं. कोई काम भी कर सकती थीं.

जीजी को खरोंचने का काम अकेले जीजाजी करते थे. बेटी और बहू में फर्क करने वाली सास पर अनेक धारावाहिक देखने और दिखाने वाले समाज में जीजाजी जैसे कई पुरुष भी हैं जो पत्नी और बेटी के सम्मान में जमीनआसमान का अंतर रखते हैं. मैं जब सीधीसादी पर सम?ादार नंदिनी का रिश्ता ले कर गई, तब मु?ो जीजाजी की पसंद पर कोई खास भरोसा नहीं था. मेरे मन में जीजी के लिए एक अच्छी, प्यार और सम्मान देने वाली बहू लाने की इच्छा इतनी प्रबल न होती तो मैं जीजाजी के सामने इतने सारे प्रस्ताव न रखती. मु?ो पता था कि अविनाश को नंदिनी पसंद आएगी, क्योंकि वह मां के संस्कारों के सांचे में ढला था. मैं यह भी जानती थी कि शिवानी की मुंहफट बातों को स्मार्टनैस सम?ाने वाले जीजाजी को कम बोलने वाली नंदिनी कैसे पसंद आएगी.

घर संभाल कर अनुवाद और लेखन करने वाली लड़की किसी डाक्टर या इंजीनियर लड़की जितनी बोल्ड कैसे हो सकती है. शिवानी बिजली है. उस के सामने नंदिनी एक दीपक की छोटी सी लौ की तरह मंद, आलोकहीन लगेगी. लेकिन मेरी सोच गलत साबित हुई. अपनी मधुरता से नंदिनी ने सब को मोह लिया. विवाह हो गया. बहुत खुश है अविनाश. जीजी को मेरी तरह एक शीतल छाया मिल गई है. जब मैं जीजाजी को बड़े शौक से खाना खाते और नंदिनी को कोई खास बनाई गई चीज परोसते हुए देखती हूं, तब मेरे मन में संदेह जागता है कि मैं ने नंदिनी के साथ अन्याय तो नहीं किया. शायद जीजाजी को जीजी जैसी स्नेहिल, घर को प्यार करने वाली ही बहू चाहिए थी ताकि उन का,

उन के बेटे का घर अक्षुण्ण रहे. उन के चैन और आराम बने रहें. लेकिन मेरा मन खुद से प्रश्न करता है, दो चेहरे वाले इंसानों की असलियत कौन जान सकता है. क्या पता अविनाश भी कुछ सालों बाद जीजाजी की तरह… मैं राह देख रही हूं जीजी के पोतेपोतियों की. पोती आएगी, तभी पता चलेगा कि जीजाजी का दूसरा चेहरा सचमुच उतर चुका है या मौका मिलते ही वह फिर उन के आजकल के चेहरे को ढ?कने आ पहुंचेगा. मेरा आशावादी मन कल्पना में देख रहा है, उस उतरे हुए चेहरे की धज्जियां और अब चढ़े हुए चेहरे पर ?ालकती तंदुरुस्ती की गुलाबी चमक. द्य इन्हें आजमाइए ? अपने घर के लिए कुछ खरीदें तो स्पेसिफिक जगह को दिमाग में रखें. ड्राइंगरूम का कारपेट रूम के साइज के अनुसार होना चाहिए. अगर अपने बैडरूम में कपल फोटो लगाना है तो वौल का साइज चेंज कर के ही फ्रेम का साइज चुनें क्योंकि चीजें स्पेस के अनुसार जंचती हैं. ? प्रैग्नैंसी के दौरान आप का उठना,

बैठना और सोना ये तीनों चीजें आप के पेट में पल रहे शिशु पर असर डाल सकती हैं. इसलिए अपने शरीर की पोजीशन का हमेशा ध्यान रखें. सही तरीके से उठें, बैठें और सोएं ताकि शिशु पर किसी तरह का कोई प्रभाव न पड़े. ? वजन कम करने के चक्कर में बाहर के पैकेट प्रौडक्ट्स का सेवन ज्यादा करने लगते हैं जो सेहत के लिए काफी हानिकारक होता है. वजन को कम करने के लिए घर का बना खाना खाएं, जो हैल्दी और प्रिजर्वेटिव फ्री होता है. ? महिलाएं इसे नजरअंदाज करती हैं, लेकिन सही ब्रैस्ट शेप के लिए सही ब्रा बहुत जरूरी है. अगर आप अपनी ब्रा को ले कर श्योर नहीं हैं तो एक बार एक्स्पर्ट से बात जरूर कर लें. ? यदि आप जिम से वर्कआउट करने के बाद प्रोटीन पाउडर लेते हैं तो यह आप को एनर्जी देने वाला तथा आप की मसल्स में ग्रोथ करने वाला साबित होगा.

Hindi Kahani 2025 : महिला अफसर की जीत

 Hindi Kahani 2025 : विद्युत विभाग में जूनियर इंजीनियर प्रियंका जब विभागीय प्रमोशन के बाद पहली बार अधिकारी की कुरसी पर बैठी तो लगा मानो सारे विभाग की पावर उस के हाथों में आ गई. एक नई ऊर्जा, नए जोश और ईमानदार सोच के साथ जब उस ने 7 साल पहले जूनियर इंजीनियर के रूप में जौइन किया था तो कुछ ही दिनों में विभाग में फैले भ्रष्टाचार व कर्मचारियों में फैली कामचोरी की आदत ने उस के कोमल मन को बेहद आहत कर दिया था.

जूनियर होने के नाते उस के पास अपने फैसले लेने के अधिकार नहीं थे और नई होने या फिर शायद महिला होने के नाते भी उसे अधिक जिम्मेदारी वाले काम भी नहीं दिए जाते थे, इसलिए भी वह मन मसोस कर रह जाती थी. उन्हीं दिनों उस ने ठान लिया था कि जिस दिन उस के पास अधिकार और फैसले लेने की पावर आ जाएगी उसी दिन से वह आम लोगों में अति भ्रष्ट विभाग की छवि के नाम से कुख्यात इस विभाग की कालिख को धोने का प्रयास करेगी.

7 साल के लंबे इंतजार के बाद उसे यह प्रमोशन मिला है और सीट भी वह जिसे विभागीय भाषा में मलाईदार कहा जाता है. जाहिर सी बात है कि घर में खुशी का माहौल था. पति शेखर ने अपने खास दोस्तों और नजदीकी रिश्तेदारों के लिए एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया. सभी यारदोस्त बधाइयों के साथसाथ विद्युत विभाग में अटके अपने काम करवाने के लिए सिफारिश भी कर रहे थे. साथ ही साथ, विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों व कर्मचारियों को भी कोस रहे थे.

रात को शेखर ने प्रियंका को बाहों में भरते हुए कहा, ‘‘तो भई, हम भी अफसर बीवी के पति हो गए अब. हमारा भी कुछ तो रुतबा बढ़ा ही होगा. आप को मलाई मिलेगी तो कुछ खुरचन हमारे भी हिस्से में आएगी ही.’’

पति की महत्त्वाकांक्षा और ऊंचे सपने देख कर प्रियंका सोच में पड़ गई, ‘लगता है युद्ध की शुरुआत घर से ही करनी पड़ेगी.’ यह सोचतेसोचते उसे नींद आ? गई.

सुबह साढ़े 9 बजे तक औफिस की गाड़ी नहीं आई तो प्रियंका ने ड्राइवर को फोन लगाया तो ड्राइवर बोला, ‘‘बस मैडम, रास्ते में ही हूं. अभी पहुंच रहा हूं.’’

‘पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है,’ ड्राइवर का उत्तर सुन कर प्रियंका खीझ उठी. लगभग 10 बजे ड्राइवर गाड़ी ले कर आया तो प्रियंका ने सख्ती से कहा, ‘‘विभाग ने यह गाड़ी 24 घंटे के लिए अनुबंधित की है. मुझे 9 बजे गाड़ी घर के सामने चाहिए, याद रहे, वरना सिर्फ एक नोटिस पर गाड़ी हटा दूंगी.’’

औफिस में, जैसा कि वह शुरू के दिनों से देखती आई थी, अभी तक कोई कर्मचारी नहीं पहुंचा था. मगर तब उस के पास अधिकार नहीं था उन पर सख्ती करने का. आज वक्त बदल चुका था. उस ने चपरासी से हाजिरी रजिस्टर अपने पास मंगवा लिया. 11 बजतेबजते कर्मचारियों का एकएक कर आना शुरू हुआ. जब सब आ चुके तो उस ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी, ‘‘चूंकि आज मेरे साथ आप का पहला दिन है इसलिए समझा रही हूं. कल से जिसे औफिस टाइम में अगर कोई पर्सनल काम हो तो कैजुअल लीव ले कर आराम से अपने काम करे और जिसे ड्यूटी करनी है वह समय से औफिस आ जाए.’’

अब तक सरकारी कार्यालय को आरामगाह समझते आए कर्मचारियों के लिए यह 440 वोल्ट का झटका था. कुछ वरिष्ठ कर्मचारी तो यह भी हजम नहीं कर पा रहे थे कि इतनी कम उम्र की बौस और वह भी एक महिला. सभी तिलमिला गए. रोष में भरे कामचोर कर्मचारी प्रियंका के खिलाफ गुटबाजी करने लगे. ऐसा नहीं था कि सभी लोग भ्रष्ट और कामचोर थे, कुछ ईमानदार लोग भी थे मगर उन्हें दूसरे कर्मचारी ‘विभाग का चमचा’ कह कर पथभ्रष्ट करने की कोशिश करते थे, उन्हें चिढ़ाते थे. उन्होंने प्रियंका की निष्ठा और लगन का सम्मान किया. शायद, वे बरसों से ऐसे ही किसी अधिकारी की तलाश कर रहे थे जिस के साथ काम कर के वे अपने जमीर को जवाब दे सकें, मन की संतुष्टि पा सकें.

प्रियंका के औफिस का तकनीकी सहायक राकेश भी उन्हीं में से एक था. तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त राकेश अपने काम में बेहद होशियार था. यही नहीं, औफिस के अन्य रूटीन काम भी वह बखूबी कर लेता था. एक सौम्य मुसकान हमेशा उस के चेहरे पर रहती थी. उस के पास काम करने के कई तरीके होते थे, न करने का कोई बहाना नहीं. जल्दी ही प्रियंका का भरोसा जीत लिया था उस ने.

धीरेधीरे सारा स्टाफ 2 खेमों में बंट गया. एक काम करने वालों का और एक काम को अटकाने वालों का. मगर राकेश का साथ मिलने से प्रियंका का हौसला मजबूत होता गया और काम न करने वालों को अकसर मुंह की खानी पड़ती.

एक दिन प्रियंका के पास एक फोन आया. उस व्यक्ति ने अपनी परेशानी बताते हुए कहा, ‘‘मैडम, पिछले एक महीने से आप के कर्मचारी मेरी फैक्टरी को विद्युत कनैक्शन नहीं दे रहे. मैं रिश्वत नहीं देता, इसलिए वे फाइल पर बारबार औब्जैक्शन लगा कर वापस भेज देते हैं. अगर मैं रिश्वत नहीं दूंगा तो क्या मेरा काम नहीं होगा?’’

‘‘आप कल सुबह अपनी फाइल ले कर मेरे औफिस आइए,’’ प्रियंका ने संयत स्वर में कहा.

प्रियंका ने पूरी फाइल को ध्यान से पढ़ा और उस में जो औपचारिक कमियां थीं वे उसे समझाईं. साथ ही, कहा कि इन्हें दूर कर के फाइल मेरे पास लाइए. आप का काम हो जाएगा.

2 दिनों बाद वह व्यक्ति फाइल कंपलीट कर के हाजिर हुआ. प्रियंका ने स्टाफ को कनैक्शन जारी करने के आदेश दिए मगर चूंकि स्टाफ पहले भी इस तरह के काम के लिए रिश्वत लेता रहा है इसलिए बिना पैसे काम करना उन्हें बहुत अखर रहा था. एक तरह से उस व्यक्ति के सामने वे अपनेआप को बेइज्जत सा महसूस कर रहे थे. स्टाफ में किसी ने तबीयत खराब होने का बहाना बनाया तो किसी ने जरूरी काम का बहाना बना कर आधे दिन की छुट्टी ले ली. प्रियंका परेशान हो गई. तभी राकेश ने कहा, ‘‘आप फिक्र न करें, मैं हूं न. मैं करवा दूंगा.’’

‘‘मगर तुम अकेले कैसे करोगे? जानते हो न कि कितना रिस्की काम है. बिजली किसी की दोस्त नहीं होती, जरा सी चूक जान पर भारी पड़ सकती है,’’ प्रियंका ने कहा.

‘‘मैं पूरी सेफ्टी के साथ काम करूंगा,’’ राकेश ने उसे आश्वस्त किया.

पता नहीं क्यों जब तक राकेश का फोन नहीं आया कि काम हो गया है तब तक उस की सांसें अटकी रहीं. जैसे ही राकेश का फोन आया, उस ने राहत की सांस ली. काम होने के बाद प्रार्थी ने प्रियंका को धन्यवाद देते हुए फोन किया और कहा, ‘‘मैं ने इस विभाग में पहली बार ऐसा अफसर देखा है. आप अपनी यह सोच बनाए रखें.’’ सुन कर प्रियंका मुसकरा दी.

ऐसे न जाने कितने ही नाजुक मौकों पर राकेश प्रियंका के विश्वास पर खरा उतरा था. प्रियंका उसे थैंक्यू कहती और राकेश बस मुसकरा देता. एक बेनाम से रिश्ते की कोंपलें फूट रही थीं दोनों के दिलों में.

नया काम, नई जिम्मेदारियां, औफिस का पहले से बिगड़ा हुआ ढर्रा और स्टाफ के असहयोगात्मक रवैये से प्रियंका परेशान हो जाती थी. घर पहुंचते ही बच्चों की फरमाइशें और फिर रात में पति की इच्छाएं. सबकुछ इतना थका देने वाला होता था कि कभीकभी सोचने लगती, ‘प्रमोशन के नाम पर अच्छी मुसीबत गले पड़ गई. इस से तो जूनियर ही ठीक थी. कम से कम दिल का सुकून तो था.’ मगर अगले ही दिन फिर उसी जोश और हिम्मत के साथ काम पर जुट जाती.

औफिस में काफीकुछ व्यवस्थित हो चला था. हर रिकौर्ड, हर फाइल अपडेट हो गई थी. सिर्फ एक कर्मचारी रामदेव के अलावा सब अपनाअपना काम भी जिम्मेदारी से करने लगे थे. कुल मिला कर प्रियंका को संतोषजनक लग रहा था.

दीवाली का त्योहार नजदीक आ गया. सभी विद्युत लाइनों और ट्रांसफौर्मरों की सालाना मेंटेनैंस करवानी थी. दिनभर शहर में घूमतेघूमते प्रियंका थक जाती थी.

एक दिन वह अपनी टीम को साइट पर भेज कर खुद औफिस के आवश्यक कागजात निबटा रही थी. अपनी मदद के लिए उस ने राकेश को भी रोक लिया था. काम निबटातेनिबटाते बाहर अंधेरा सा हो गया. वह अपने चैंबर में थी और राकेश अपनी सीट पर. तभी राकेश

2 कप कौफी ले आया. उसे सचमुच इस की बहुत जरूरत थी. राकेश ने कहा, ‘‘आप इतना टैंशन न लिया करें. सरकारी कामकाज ऐसे ही चलते रहते हैं. यों बेवजह परेशान होती रहीं तो कोई बीमारी पाल लेंगी. अगर आप को मुझ पर भरोसा हो तो बाहर के काम आप मुझे सौंप सकती हैं.’’

अचानक राकेश उठा और स्नेह से उस के कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘‘आप घर जाइए, सुबह आप को ये सारे कागजात तैयार मिलेंगे.’’ न जाने क्या था उन आंखों में कि प्रियंका ने अपना सिर उस भरोसेमंद हाथ पर टिका दिया.

दीवाली वाले दिन सुबहसुबह ही शिकायत मिली कि वाल्मीकि बस्ती में ट्रांसफौर्मर जल गया. प्रियंका इस इमरजैंसी को अटैंड कर के घर लौटी तो डाइनिंग टेबल पर ढेर सारे पटाखे, मिठाइयां और कई गिफ्ट देख कर चौंक गई. शेखर ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘भई, इतने दिनों में आज पहली बार लग रहा है कि सरकारी अफसर के अलग ही ठाठ होते हैं. तुम्हारे जाते ही ठेकेदारों की लाइन लग गई. और देखो, घर गिफ्ट से भर गया.’’

‘‘हमें इस में से कुछ भी नहीं रखना है,’’ कहते हुए प्रियंका ने एकएक कर सारे ठेकेदारों को फोन कर के सारा सामान वापस ले जाने की सख्त हिदायत दे दी. शेखर को पत्नी से ऐसी उम्मीद न थी. उस ने उसे काफी भलाबुरा सुना दिया. बच्चों के मुंह उतर गए, सो अलग. त्योहार का सारा मजा किरकिरा हो गया. बच्चे तो खैर थोड़ी देर में सबकुछ भूल गए मगर शेखर ने अगले कई दिनों तक उस से सीधेमुंह बात नहीं की.

दीवाली निबटते ही मौजूदा वित्तीय वर्ष के बकाया टारगेट पूरे करने का प्रैशर बनने लगता है. प्रियंका को भी स्पैशल विजिलैंस चैकिंग के टारगेट दिए गए. राकेश भी उस के साथ ही होता था. एक दिन चैकिंग करतेकरते शहर से बाहर बने एक बड़े से फार्महाउस के बाहर उन्होंने गाड़ी रोकी. साफसाफ बिजली चोरी का केस था. प्रियंका ने विजिलैंस शीट भर कर 5 लाख रुपए का जुर्माना लगा दिया. फार्महाउस का मालिक शहर के विधायक का रिश्तेदार था. विधायक ने फोन पर प्रियंका को मामला

रफादफा करने के लिए दबाव डाला. प्रियंका ने इनकार कर दिया. बात उच्च अधिकारियों तक पहुंची तो उन्होंने भी प्रियंका को समझाया कि पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर ठीक नहीं. शेखर ने भी डराया कि कहीं दूरदराज ट्रांसफर न हो जाए. मगर उस पर तो ईमानदारी का जनून सवार था.विधायक के रिश्तेदार ने पैनल्टी जमा नहीं करवाई तो प्रियंका ने फार्महाउस का कनैक्शन काटने का आदेश जारी कर दिया. कर्मचारियों ने विधायक के डर से वहां जाने से मना कर दिया तो राकेश के साथ पुलिस प्रोटैक्शन ले कर प्रियंका स्वयं गई. वहां मौजूद विधायक के आदमियों ने प्रियंका से बदतमीजी करने की कोशिश की. पुलिस चुपचाप खड़ी उन की आपसी बहस देख रही थी. तभी एक गुंडाटाइप आदमी आगे बढ़ा और प्रियंका के दुपट्टे की तरफ हाथ बढ़ाया. राकेश ने उसे प्रियंका तक पहुंचने से पहले ही मजबूती से पकड़ लिया. प्रियंका को जीप में बैठने का इशारा किया और ड्राइवर के साथ गाड़ी रवाना कर दी. प्रियंका की आंखें छलछला उठीं मगर उन आंसुओं में राकेश के प्रति अनुराग भी शामिल था.

यह केस अभी लोगों में चर्चा का विषय बना ही हुआ था कि अचानक जैसे प्रियंका की जिंदगी में तूफान आ गया. उस का कर्मचारी रामदेव एक ठेकेदार की टैंडर फाइल पास करने के एवज में रिश्वत लेते हुए रंगेहाथों पकड़ा गया. पुलिस को दिए अपने बयान में उस ने कहा कि यह काम वह प्रियंका मैडम के लिए करता है. उस के बयान के आधार पर प्रियंका को भी गिरफ्तार कर लिया गया. विभागीय नियमानुसार उसे निलंबित कर दिया गया. अखबारों ने सुर्खियों में इस खबर को प्रकाशित किया. महल्ले वाले कनखियों से देखदेख कर मुसकराते. सामने तो सहानुभूति दिखाते मगर पीठपीछे कई तरह की बातें करते. कोई कहता, ‘बड़ी ईमानदार बनती थी, आ गई न असलियत सामने.’ किसी ने कहा, ‘जितना रिश्वत ले कर कमाया था, सारा कोर्टकचहरी की भेंट चढ़ जाएगा, बदनामी हुई सो अलग.’ जितने मुंह उतनी बातें. कहते हैं न कि ‘मारने वाले का हाथ पकड़ा जा सकता है मगर बोलने वाले की जबान नहीं.’

बच्चों के दोस्त उन्हें स्कूल में चिढ़ाते. शेखर के औफिस में भी सब चटकारे लेले कर बातें करते. प्रियंका बुरी तरह से आहत थी. तन से भी और मन से भी. कुल मिला कर अब वह खुद भी इसे अपनी ईमानदारी और काम के प्रति निष्ठा की सजा मानने लगी थी. शेखर को भी सारा दोष उसी में दिखाई देता था. आएदिन उसे ताना देता था कि क्या जरूरत थी हरिशचंद्र की औलाद बनने की. अच्छीभली घर में आती कमाई का अपमान किया. यह उसी का नतीजा है. आपसी नाराजगी के चलते शेखर और उस के रिश्ते में भी ठंडापन आ गया था. आजकल उन में आपस में भी बहुत कम बात होती थी.

दम तोड़ती हुई मछली सी प्रियंका के लिए राकेश जैसे पानी की बूंद बन कर आया. शेखर के लाख मना करने के बावजूद, एक बड़े वकील से मिल कर उस ने प्रियंका से उस के निलंबन के खिलाफ कोर्ट में याचिका दाखिल करवाई. व्यक्तिगत प्रयास कर के उन तमाम उपभोक्ताओं और ठेकेदारों से प्रियंका के पक्ष में गवाही दिलवाई जिन के अटके हुए काम और लटके हुए बिलों का भुगतान प्रियंका ने बिना रिश्वत लिए करवाए थे. उसी के समझाने पर स्टाफ में भी कई लोगों ने अपनी अधिकारी के पक्ष में बयान दिए.

उन्हीं बयानों में यह बात भी निकल कर सामने आई कि रामदेव आदतन इस तरह की हरकतें करता है. वह अकसर मैडम के खिलाफ साजिशें रचता रहता था. यही नहीं, प्रियंका से पहले भी वह कई अधिकारियों को परेशान कर चुका था. स्वयं रामदेव अदालत में प्रियंका के खिलाफ सुबूत नहीं पेश कर सका. काफी लंबी कानूनी लड़ाई चली. सभी गवाहों को सुनने और सुबूतों को देखने के बाद कोर्ट की कार्यवाही तो पूरी हो गई थी मगर कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.

आज प्रियंका की याचिका पर फैसले का दिन है. राकेश ने उसे कोर्ट जाने के लिए मना कर दिया क्योंकि वह जानता था कि अगर कोर्ट का फैसला प्रियंका के हक में नहीं आया तो वह बिखर जाएगी. सचाई और ईमानदारी पर से उस का विश्वास उठ जाएगा. राकेश वकील के साथ कोर्ट गया.

दोपहर के लगभग 3 बजे दरवाजे की घंटी बजने पर प्रियंका ने सेफ्टीहोल से झांक कर देखा. राकेश का उतरा हुआ चेहरा देख कर उस के पांव वहीं जम गए. दोबारा घंटी बजने पर उस ने बुझे मन से दरवाजा खोला. राकेश चुपचाप खड़ा था. उस ने कोर्ट का फैसला उसे थमा दिया. प्रियंका ने कांपते हाथों में पकड़ कर डबडबाई आंखों से उसे पढ़ा. यह क्या, कोर्ट ने मुझे बेकुसूर मानते हुए बाइज्जत बरी कर दिया. पढ़तेपढ़ते प्रियंका फूटफूट कर रो पड़ी. राकेश ने उसे बांहों में थाम लिया. प्रियंका ने भी आज अपनेआप को रोका नहीं. न जाने कितना दर्द, कितना लावा था जिसे आज बहना था. आज जीत हुई थी, सचाई की, विश्वास की, ईमानदारी की, दोस्ती की.

Short Stories : अपने तो अपने होते हैं

Short Stories : ‘‘आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? तुम्हारी इस आमदनी में तो जिंदगी पार होने से रही. मैं ने डाक्टरी इसलिए तो नहीं पढ़ी थी, न इसलिए तुम से शादी की थी कि यहां बैठ कर किचन संभालूं,’’ रानी ने दूसरे कमरे से कहा तो कुछ आवाज आनंद तक भी पहुंची. सच तो यह था कि उस ने कुछ ही शब्द सुने थे लेकिन उन का पूरा अर्थ अपनेआप ही समझ गया था. आनंद और रानी दोनों ने ही अच्छे व संपन्न माहौल में रह कर पढ़ाई पूरी की थी. परेशानी क्या होती है, दोनों में से किसी को पता ही नहीं था. इस के बावजूद आनंद व्यावहारिक आदमी था. वह जानता था कि व्यक्ति की जिंदगी में सभी तरह के दिन आते हैं. दूसरी ओर रानी किसी भी तरह ये दिन बिताने को तैयार नहीं थी. वह बातबात में बिगड़ती, आनंद को ताने देती और जोर देती कि वह विदेश चले. यहां कुछ भी तो नहीं धरा है.

आनंद को शायद ये दिन कभी न देखने पड़ते, पर जब उस ने रानी से शादी की तो अचानक उसे अपने मातापिता से अलग हो कर घर बसाना पड़ा. दोनों के घर वालों ने इस संबंध में उन की कोई मदद तो क्या करनी थी, हां, दोनों को तुरंत अपने से दूर हो जाने का आदेश अवश्य दे दिया था. फिर आनंद अपने कुछ दोस्तों के साथ रानी को ब्याह लाया था. तब वह रानी नहीं, आयशा थी, शुरूशुरू में तो आयशा के ब्याह को हिंदूमुसलिम रंग देने की कोशिश हुई थी, पर कुछ डरानेधमकाने के बाद बात आईगई हो गई. फिर भी उन की जिंदगी में अकेलापन पैठ चुका था और दोनों हर तरह से खुश रहने की कोशिशों के बावजूद कभी न कभी, कहीं न कहीं निकटवर्तियों का, संपन्नता का और निश्ंिचतता का अभाव महसूस कर रहे थे.

आनंद जानता था कि घर का यह दमघोंटू माहौल रानी को अच्छा नहीं लगता. ऊपर से घरगृहस्थी की एकसाथ आई परेशानियों ने रानी को और भी चिड़चिड़ा बना दिया था. अभी कुछ माह पहले तक वह तितली सी सहेलियों के बीच इतराया करती थी. कभी कोईर् टोकता भी तो रानी कह देती, ‘‘अपनी फिक्र करो, मुझे कौन यहां रहना है. मास्टर औफ सर्जरी (एमएस) किया और यह चिडि़या फुर्र…’’ फिर वह सचमुच चिडि़यों की तरह फुदक उठती और सारी सहेलियां हंसी में खो जातीं. यहां तक कि वह आनंद को भी अकसर चिढ़ाया करती. आनंद की जिंदगी में इस से पहले कभी कोई लड़की नहीं आई थी. वह उन क्षणों में पूरी तरह डूब जाता और रानी के प्यार, सुंदरता और कहकहों को एकसाथ ही महसूस करने की कोशिश करने लगता था.

आनंद मास्टर औफ मैडिसिन (एमडी) करने के बाद जब सरकारी नौकरी में लगा, तब भी उन दोनों को शादी की जल्दी नहीं थी. अचानक कुछ ऐसी परिस्थितियां आईं कि शादी करना जरूरी हो गया. रानी के पिता उस के लिए कहीं और लड़का देख आए थे. अगर दोनों समय पर यह कदम न उठाते तो निश्चित था कि रानी एक दिन किसी और की हो जाती.

फिर वही हुआ, जिस का दोनों बरसों से सपना देख रहे थे. दोनों एकदूसरे की जिंदगी में डूब गए. शादी के बाद भी इस में कोई फर्क नहीं आया. फिर भी क्षणक्षण की जिंदगी में ऐसे जीना संभव नहीं था और रानी की बड़बड़ाहट भी इसी की प्रतिक्रिया थी.

आनंद ने यह सब सुना और रानी की बातें उस के मन में कहीं गहरे उतरती गईं. रानी के अलावा अब उस का इतने निकट था ही कौन? हर दुखदर्द की वह अकेली साथी थी. वह सोचने लगा, ‘चाहे जैसे भी हो, विदेश निकलना जरूरी है. जो यहां बरसों नहीं कमा सकूंगा, वहां एक साल में ही कमा लूंगा. ऊपर से रानी भी खुश हो जाएगी.’ आखिर वह दिन भी आया जब आनंद का विदेश जाना लगभग तय हो गया. डाक्टर के रूप में उस की नियुक्ति इंगलैंड में हो गई थी और अब उन के निकलने में केवल उतने ही दिन बाकी थे जितने दिन उन की तैयारी के लिए जरूरी थे. जाने कितने दिन वहां लग जाएं? जाने कब लौटना हो? हो भी या नहीं? तैयारी के छोटे से छोटे काम से ले कर मिलनेजुलने वालों को अलविदा कहने तक, सभी काम उन्हें इस समय में निबटाने थे.

रानी की कड़वाहट अब गायब हो चुकी थी. आनंद अब देर से लौटता तो भी वह कुछ न कहती, जबकि कुछ महीनों पहले आनंद के देर से लौटने पर वह उस की खूब खिंचाई करती थी. अब रात को सोने से पहले अधिकतर समय इंगलैंड की चर्चा में ही बीतता, कैसा होगा इंगलैंड? चर्चा करतेकरते दोनों की आंखों में एकदूसरे के चेहरे की जगह ढेर सारे पैसे और उस से जुड़े वैभव की चमक तैरने लगती और फिर न जाने दोनों कब सो जाते.

चाहे आनंद के मित्र हों या रानी की सहेलियां, सभी उन का अभाव अभी से महसूस करने लगे थे. एक ऐसा अभाव, जो उन के दूर जाने की कल्पना से जुड़ा हुआ था. आनंद का तो अजीब हाल था. आनंद को घर के फाटक पर बैठा रहने वाला चौकीदार तक गहरा नजदीकी लगता. नुक्कड़ पर बैठने वाली कुंजडि़न लाख झगड़ने के बावजूद कल्पना में अकसर उसे याद दिलाती, ‘लड़ लो, जितना चाहे लड़ लो. अब यह साथ कुछ ही दिनों का है.’ और फिर वह दिन भी आया जब उन्हें अपना महल्ला, अपना शहर, अपना देश छोड़ना था. जैसेजैसे दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ने का समय नजदीक आ रहा था, आनंद की तो जैसे जान ही निकली जा रही थी. किसी तरह से उस ने दिल को कड़ा किया और फिर वह अपने महल्ले, शहर और देश को एक के बाद एक छोड़ता हुआ उस धरती पर जा पहुंचा जो बरसों से रानी के लिए ही सही, उस के जीने का लक्ष्य बनी हुई थी.

लंदन का हीथ्रो हवाईअड्डा, यांत्रिक जिंदगी का दूर से परिचय देता विशाल शहर. जिंदगी कुछ इस कदर तेज कि हर 2 मिनट बाद कोई हवाईजहाज फुर्र से उड़ जाता. चारों ओर चकमदमक, उसी के मुकाबले लोगों के उतरे या फिर कृत्रिम मुसकराहटभरे चेहरे. जहाज से उतरते ही आनंद को लगा कि उस ने बाहर का कुछ पाया जरूर है, पर साथ ही अंदर का कुछ ऐसा अपनापन खो दिया है, जो जीने की पहली शर्त हुआ करती है. रानी उस से बेखबर इंगलैंड की धरती पर अपने कदमों को तोलती हुई सी लग रही थी और उस की खुशी का ठिकाना न था. कई बार चहक कर उस ने आनंद का भी ध्यान बंटाना चाहा, पर फिर उस के चेहरे को देख अकेले ही उस नई जिंदगी को महसूस करने में खो जाती.

अब उन्हें इंगलैंड आए एक महीने से ऊपर हो रहा था. दिनभर जानवरों की सी भागदौड़. हर जगह बनावटी संबंध. कोई भी ऐसा नहीं, जिस से दो पल बैठ कर वे अपना दुखदर्द बांट सकें. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी, पर अपनेपन का काफी अभाव था. यहां तक कि वे भारतीय भी दोएक बार लंच पर बुलाने के अलावा अधिक नहीं मिलतेजुलते जिन के ऐड्रैस वह अपने साथ लाया था. जब भारतीयों की यह हालत थी, तो अंगरेजों से क्या अपेक्षा की जा सकती थी. ये भारतीय भी अंगरेजों की ही तरह हो रहे थे. सारे व्यवहार में वे उन्हीं की नकल करते. ऐसे में आनंद अपने शहर की उन गलियों की कल्पना करता जहां कहकहों के बीच घडि़यों का अस्तित्व खत्म हो जाया करता था. वे लंबीचौड़ी बहसें अब उसे काल्पनिक सी लगतीं. यहां तो सबकुछ बंधाबंधा सा था. ठहाकों का सवाल ही नहीं, हंसना भी हौले से होता, गोया उस की भी राशनिंग हो. बातबात में अंगरेजी शिष्टाचार हावी. आनंद लगातार इस से आजिज आता जा रहा था. रानी कुछ पलों को तो यह महसूस करती, पर थोड़ी देर बाद ही अंगरेजी चमकदमक में खो जाती. आखिर जो इतनी मुश्किल से मिला है, उस में रुचि न लेने का उसे कोई कारण ही समझ में न आता.

कुछ दिनों से वह भी परेशान थी. बंटी यहां आने के कुछ दिनों बाद तक चौकीदार के लड़के रामू को याद कर के काफी परेशान रहा था. यहां नए बच्चों से उस की दोस्ती आगे नहीं बढ़ सकी थी. बंटी कुछ कहता तो वे कुछ कहते और फिर वे एकदूसरे का मुंह ताकते. फिर बंटी अकेला और गुमसुम रहने लगा था. रानी ने उस के लिए कई तरह के खिलौने ला दिए, लेकिन वे भी उसे अच्छे न लगते. आखिर बंटी कितनी देर उन से मन बहलाता.

और आज तो बंटी बुखार में तप रहा था. आनंद अभी तक अस्पताल से नहीं लौटा था. आसपास याद करने से रानी को कोई ऐसा नजर नहीं आया, जिसे वह बुला ले और जो उसे ढाढ़स बंधाए. अचानक इस सूनेपन में उसे लखनऊ में फाटक पर बैठने वाले रग्घू चौकीदार की याद आई, जो कई बार ऐसे मौकों पर डाक्टर को बुला लाता था. उसे ताज्जुब हुआ कि उसे उस की याद क्यों आई. उसे कुंजडि़न की याद भी आई, जो अकसर आनंद के न होने पर घर में सब्जी पहुंचा जाती थी. उसे उन पड़ोसियों की भी याद आई जो ऐसे अवसरों पर चारपाई घेरे बैठे रहते थे और इस तरह उदास हो उठते थे जैसे उन का ही अपना सगासंबंधी हो. आज पहली बार रानी को उन की कमी अखरी. पहली बार उसे लगा कि वह यहां हजारों आदमियों के होने के बावजूद किसी जंगल में पहुंच गई है, जहां कोई भी उन्हें पूछने वाला नहीं है. आनंद अभी तक नहीं लौटा था. उसे रोना आ गया.

तभी बाहर कार का हौर्न बजा. रानी ने नजर उठा कर देखा, आनंद ही था. वह लगभग दौड़ सी पड़ी, बिना कुछ कहे आनंद से जा चिपटी और फफक पड़ी. तभी उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘कितने अकेले हैं हम लोग यहां, मर भी जाएं तो कोई पूछने वाला नहीं. बंटी की तबीयत ठीक नहीं है और एकएक पल मुझे काटने को दौड़ रहा था.’’

आनंद ने धीरे से बिना कुछ कहे उसे अलग किया और अंदर के कमरे की ओर बढ़ा, जहां बंटी आंखें बंद किए लेटा था. उस ने उस के माथे पर हाथ रखा, वह तप रहा था. उस ने कुछ दवाएं बंटी को पिलाईं. बंटी थोड़ा आराम पा कर सो गया. थका हुआ आनंद एक सोफे पर लुढ़क गया. दूसरी ओर, आरामकुरसी पर रानी निढाल पड़ी थी. आनंद ने देखा, उस की आंखों में एक गलती का एहसास था, गोया वह कह रही हो, ‘यहां सबकुछ तो है पर लखनऊ जैसा, अपने देश जैसा अपनापन नहीं है. चाहे वस्तुएं हों या आदमी, यहां केवल ऊपरी चमक है. कार, टैलीविजन और बंगले की चमक मुझे नहीं चाहिए.’

तभी रानी थके कदमों से उठी. एक बार फिर बंटी को देखा. उस का बुखार कुछ कम हो गया था. आनंद वैसे ही आंखें बंद किए हजारों मील पीछे छूट गए अपने लोगों की याद में खोया हुआ था. रानी निकट आई और चुपचाप उस के कंधों पर अपना सिर टिका दिया, जैसे अपनी गलती स्वीकार रही हो.

 

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