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कौन करता है इंतजार यहां

उस शाम मैं जब औफिस से घर पहुंची तो उड़ती नजर आंगन में डालते हुए अपने कमरे में दाखिल हो गयी. आंगन में तुषार और उसके कुछ दोस्त जमा थे. कुछ खुसुर-पुसुर चालू थी. मैंने आते ही तुषार को आवाज लगायी. वह भागा-भागा कमरे के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया. मैंने अलमारी खोलते हुए उसे झिड़की लगायी, ‘सारा दिन खेलते-खेलते दिल नहीं भरा, घर में भी धम्मा चौकड़ी मची हुई है? ये तेरे सारे दोस्त यहां क्यों जमा हैं?’

तुषार एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ मेरे पास आया. मैंने सोचा कि अभी कहेगा कि मां मैगी बना दो, मेरे और मेरे दोस्तों के लिए. भूख लगी है.

मगर पास आकर उसने धीरे से कहा, ‘मां, आपको कुछ दिखाना है…’

मैंने पर्स अलमारी में डालते हुए पलट कर पूछा, ‘क्या…?’

तुषार बोला, ‘आप आंगन में तो चलो, वहां कुछ दिखाना है….’ वह मेरी साड़ी का पल्ला पकड़ कर खींचते हुए मुझे आंगन में ले आया, जहां उसके चार दोस्त अपने बीच कुछ लिए बैठे थे. मैंने पास जाकर देखा तो मिट्ठू के पिंजरे में एक छोटी सी मैना बंद थी.

मैंने तुषार से पूछा, ‘यह कहां से आयी?’

उसने खुशी-खुशी बताया, ‘यहां कमरे की खिड़की पर बैठी थी, हमने कपड़ा डाल कर पकड़ लिया और मिट्ठू के पिंजरे में रख दिया.’

मिट्ठू को मरे तो साल भर हो गया. उसका पिंजरा मैंने गोदाम में रख दिया था. इन बच्चों ने उसे निकाल कर झाड़पोंछ कर उसमें मैना को कैद कर रखा था.

मैंने थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए पूछा, ‘कब पकड़ा इसे?’

एक बच्चा बोला, ‘आंटी, चार घंटे हो गये, पर यह कुछ खाती ही नहीं है. अब तो अंधेरा भी हो रहा है, इसको दिखायी भी नहीं देगा, फिर यह कैसे खाएगी?’

मैंने बच्चों को घुड़कते हुए कहा, ‘हर चिड़िया को पिंजरे में बंद नहीं करते हैं. तुमने चार घंटे से इसे बंद कर रखा है, इसके घरवाले परेशान हो रहे होंगे. इसकी मां रो रही होगी. खोलो पिंजरे को. जाने दो इसको.’

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तुषार ने डांट खाते ही पिंजरा खोल दिया. नन्हीं मैना चीं-चीं करती उड़ कर सामने की मुंडेर पर जा बैठी.

मैं सोच रही थी कि इस धुंधलके में पता नही बेचारी अपने घोंसले तक लौट भी पाएगी या नहीं, इतने में पास के पेड़ से छह-सात मैना उड़ कर उस छोटी मैना के पास मुंडेर पर आ बैठीं. आंगन चीं-चीं की आवाज से गूंज उठा. बच्चे अवाक होकर मुंडेर की ओर ताकने लगे. थोड़ी ही देर में उन चिड़ियों के साथ छोटी मैना उड़ चली.

मैं हैरान थी यह देखकर कि नन्ही मैना के इंतज़ार में ये तमाम चिड़ियां पिछले चार घंटे से इन पेड़ों पर बैठी थीं कि कभी न कभी तो पिंजरा खुलेगा और उनकी साथी चिड़िया उनको वापस मिल जाएगी. कितना प्यार है इनके बीच. कितना इंतजार है एक दूसरे के लिए कि रात होने के बाद भी बाकी की चिड़ियां अपने घोंसलों को वापस नहीं गयीं, अपनी साथी चिड़िया के जेल से छूटने का इंतजार करतीं वहीं डेरा जमाये रहीं. मगर हम इंसान कितनी जल्दी में होते हैं, किसी का इंतजार नहीं करते, किसी से प्यार नहीं करते, किसी पर विश्वास नहीं करते, कोई स्नेह, कोई लगाव, कोई भाईचारा, कोई रिश्ता नहीं… बस सब अपने-अपने स्वार्थ के तहत एक दूसरे के साथी हैं.

तुषार के पिता ने भी कहां इंतजार किया मेरा… मैं उनसे नाराज होकर मायके आयी थी… तुषार तब सिर्फ दो साल का था… उसकी देखभाल के लिए मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी थी… नौकरानी उसकी देखभाल में लापरवाही करती थी… अम्मा को अपनी किटी पार्टियों से फुर्सत नहीं थी… बच्चा दिन भर रोता रहता था… भूखा रहता था… फिर बीमार रहने लगा तो मैंने नौकरी छोड़ दी. घर में आने वाले पैसे कम हो गये…. मैंने सोचा था कि दो साल में तुषार स्कूल जाने लायक हो जाएगा, तब मैं फिर कोई नौकरी ज्वाइन कर लूंगी… मगर नहीं… उनको तो घर में आने वाली मेरी मोटी तनख्वाह मुझसे और बेटे से ज्यादा प्यारी थी… अम्मा को किटीपार्टी में उड़ाने वाले पैसे कम पड़ने लगे थे… उनके सूटों की संख्या कम हो गयी थी… बहू के पैसे पर सब मौज कर रहे थे… मगर घर के चिराग की देखभाल में किसी का कोई योगदान नहीं था… बहू ने नौकरी छोड़ी तो सब दुश्मन बन गये… हर बात में ताना… हर बात में गुस्सा… आखिर आयेदिन की खिचखिच से परेशान होकर मैं तुषार को लेकर मायके चली आयी… वो चाहते तो मुझे फोन कर लेते… लेने आ जाते… मैं लौट जाती… मगर वो मुझे छोड़ कर आगे बढ़ गये… एक और नौकरीपेशा औरत के साथ… मेरा इंतजार किये बगैर…

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Yogi Aditynath : बुलडोजर जस्टिस पर सुप्रीम कोर्ट का एक्‍शन

पिछले आठ सालों में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने न जाने कितने मासूम परिवारों का आशियाना छीना, अपने चंद वोटरों को खुश करने मीडिया की वाहवाही लूटने के लिए बुलडोजर एक्शन चलाया. मगर अब सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर पॉलिटिक्स पर जो सख्त एक्शन लिया है उसने भाजपा को बता दिया है कि देश मनुवाद से नहीं संविधान से चलेगा.

लखनऊ के अकबरनगर में यूपी का सबसे बड़ा बुलडोजर एक्शन : अकबरनगर में उत्तर प्रदेश सरकार ने 1800 मकानों पर बुलडोजर चलाया, जो एशिया का सबसे बड़ा ध्वस्तीकरण अभियान माना गया. इसमें लगभग 35,000 लोग बेघर हुए, जिनमें से 1800 को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत नए घर मिले. लोगों ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन कोई राहत नहीं मिली.

विधायक शहजिल इस्लाम का पेट्रोल पंप ध्वस्त : बरेली के भोजीपुरा से सपा विधायक शहजिल इस्लाम पर मुख्यमंत्री के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी का आरोप लगा था. इसके बाद उनका पेट्रोल पंप बुलडोजर की कार्रवाई में ध्वस्त कर दिया गया. इस एक्शन पर सपा ने बदले की राजनीति का आरोप लगाया था.

वाराणसी में दो होटल जमींदोज : वाराणसी में वरुणा नदी के किनारे बने दो आलीशान होटलों पर भी बुलडोजर चलाया गया. प्रशासन के अनुसार, ग्रीन बेल्ट में बने इन होटलों को हटाने के लिए 5 बुलडोजर लगाए गए थे. कार्रवाई के दौरान होटल मालिकों और प्रशासन के बीच बहस भी हुई, जिसमें ADM सिटी आलोक कुमार का हेडशॉट विवाद में रहा.

प्रयागराज में हिंसा के आरोपी जावेद के पंप और मकान पर चला बुलडोजर : प्रयागराज हिंसा के बाद मुख्य आरोपी जावेद अहमद का मकान बुलडोजर से गिरा दिया गया. जावेद की पत्नी परवीन फातिमा ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें दावा किया गया कि मकान उनके नाम पर था, फिर भी इसे अवैध तरीके से ध्वस्त किया गया. प्रशासन का कहना था कि मकान बिना नक्शे के बनाया गया था.

आजम खान की जौहर यूनिवर्सिटी का उर्दू गेट तोड़ा गया : सपा नेता आजम खान की जौहर यूनिवर्सिटी का उर्दू गेट 9 मार्च 2019 को ध्वस्त किया गया. आरोप था कि आजम खान ने अपने कार्यकाल में सरकारी जमीन पर गेट बनवाया था, जो सार्वजनिक रोड को कब्जे में ले रहा था. गेट बनाने में 40 लाख रुपये खर्च हुए थे, जिसे बीजेपी के सत्ता में आने के बाद ध्वस्त किया गया.

गोरखपुर में चला बुलडोजर : गोरखपुर के सुबा बाजार में डॉ. अश्विनी अग्रवाल की बाउंड्री वॉल, सत्यवीर यादव का सीमेंट गोदाम, अनुपम अग्रवाल की पौधशाला की बाउंड्री वाल एवं मुर्गी फार्म की बाउंड्री वॉल समेत 15 एकड़ भूमि बिना नोटिस और बिना वक़्त दिए यह कह कर खाली करवाई गयी कि इस पर अवैध कब्जा है.

फर्रुखाबाद में 23 मकान जमींदोज : उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में रविवार, 29 सितंबर को बंजर भूमि पर बने 23 मकान बुल्डोजर से जमींदोज कर दिए गए. नवाबगंज क्षेत्र के उखरा गांव में यह मकान 1990 में पंचायत की अनुमति पर बने थे. लोग पिछले 24 साल से यहां मकान बनाकर रह रहे थे, लेकिन प्रशासन ने चंद घंटे में उन्हें बेघर कर दिया. नवाबगंज क्षेत्र के उखरा गांव में 105 बीघा जमीन बंजर भूमि है। 1990 में ग्राम पंचायत ने अनिल कुमार, कृष्ण कुमार, राजकुमार, बृजपाल सिंह, सुरेश चंद्र, ब्रह्म किशोर, भूप सिंह, रामप्रकाश, राम अवतार, चरन सिंह, जितेंद्र, राजीव, गुन्नू, बृजकिशोर, ब्रह्मानंद, किशोर राम, सनोज, बलराम सिंह, गंगा सिंह, रामकिशन, रामनिवास और रामचंद्र को यह भूमि मकान बनाने के लिए दी थी। तभी से यह लोग पक्के मकान बनाकर रह रहे थे.

Satire: दालप्याज से ऊपर उठ

हे जीव, भरी जवानी में भी पपीहे की तरह दालदाल क्यों पुकार रहा है? ले, रेल नीर पी, कुछ अपने रोने को विराम दे. जमाखोरी कर गरीबों के पेट पर लात मारने वालों को मन से सलाम दे. एक गुप्त रहस्य सुन, दाल मिथ्या है, दाल भ्रम है. दाल घमंडी है, दाल बेशर्म है. ऐसी दाल न खाना सत्कर्म है. ऐसी दाल खाना नीच कर्म है. जो दाल खाते हैं वे नरक को जाते हैं. जो बिन दाल के रोटी खाते हैं वे अमरत्व पाते हैं.

दाल खाने से बौडी में प्रोटीन बढ़ता है. दाल खाने से जोड़ों में दर्द होता है. जोड़ों में दर्द होने से जीव दिनरात रोता है. तब वह घर में घर वालों की गालियां सुनता है. न जाग पाता है न हौस्पिटल में चैन से सोता है. इसलिए दालदाल मत रट. रामराम रट. दाल से ज्यादा बलशाली राम हैं. दाल से बड़ा राम का नाम है. भवसागर पार हो जाएगा. वहां जा कर तू हरदम दाल ही दाल खाएगा. तब तू दाल के टोटे से शरीर में हुई हर कमी पर विजय पाएगा. झूमेगा, गाएगा.

रोटी के साथ दाल खाना पाप है. पाप से बचने के लिए घीया खा, पालक खा, करेले खा, केले खा, सरसों का साग खा, मेरे बनाए शुगरफ्री बिस्कुट खा. मेरे नूडल्स खा. अमरत्व पा. दाल को परे छोड़. योग कर. आगे बढ़. योग आटादाल से मुक्ति दिलाता है. योग, बिन दालप्याज जीना सिखाता है. अभाव पर भाव को विजय पाने दे. दाल, प्याज के प्रति अपना भाव बदल. सरकार के प्रति अपना भाव बदल. लोकतंत्र के प्रति अपना भाव बदल. जि गी के प्रति अपना भाव बदल. जीने का सब से बेहतर तरीका अभाव नहीं, भाव है. सोच ले, दाल का अस्तित्व ही नहीं. फिर जो है ही नहीं, उस का अभाव कैसा? राम ने जैसे रावण पर विजय पाई, तू वैसे ही जिंदगी की हर अति आवश्यक जरूरत पर विजय पा. मंगल पर कदम रखने के बाद भी कोई रोता है पगले?

पता नहीं, तू दाल के लिए इतना बावला क्यों हुआ जा रहा है? सब्र कर. धैर्य रख. सरकार के कहने पर विदेशी दाल का गौना हो गया है. वह तेरे घर दुलहन बन आने को पालकी में सवार है. बस, कहारों का इंतजार है. उस के स्वागत के लिए घर में दरी बिछा. रुदालियों को बुला. हे दाल के इंद्रजाल के मारे, इस बाजार में किसी की सदा एक सी कहां रही है? जो ऊपर चढ़ा है, वह एक दिन नी

चे जरूर गिरा है. चाहे अपने कारनामों से या यारदोस्तों की मेहरबानी से. ऐसे में दाल के चढ़े रेट एक दिन जरूर नीचे आएंगे. तब हम सब मिल कर जश्न मनाएंगे. जीभर दाल खाएंगे. दाल में डट कर प्याज का तड़का लगाएंगे. दाल बंदरों को खिलाएंगे. दाल भैंसों को खिलाएंगे. इसे सबक सिखाएंगे. सब्र का फल मीठा होता है. बुरे वक्त में सरकार का साथ दे. जो बुरे वक्त में सरकार का साथ नहीं देता वह अदना होता है. अरे पगले, दाल में ऐसा क्या रखा है जो तू ने दाल न मिलने पर आसमान सिर पर उठा लिया. दाल के लिए रोना छोड़. माल के लिए रो. क्या रखा है दाल खाने में, क्या रखा है प्याज खाने में. आधी जिंदगी कट गई उल्लू बनने में, शेष जिंदगी काट उल्लू बनाने में. उल्लू बन, उल्लू बना, खुद भी हंस, औरों को भी हंसा.

दाल के सिवा और सबकुछ तो है तेरे पास. जवान बीवी है. उस से ज्यादा जवान प्रेमिका है. बिना लोन की कार है. अपने पद के अनुरूप लूटने को लोन पर चल रही सरकार है. सुन, इस संसार में सुखी कोई नहीं. सभी रो रहे हैं. क्या गृहस्थी, क्या संन्यासी, क्या धर्म, क्या जाति. कोई नाम को रो रहा है तो कोई दाम को. कोई सलाम को रो रहा है तो कोई इनाम को. कोई पुरस्कार पाने की जुगाड़ में है तो कोई पुरस्कार लौटाने की चिंघाड़ में. कोई कुरसी को रो रहा है तो कोई भात को. कोई घूंसे को रो रहा है तो कोई लात को. रोना ही हम सब की नियति है रे जीव, इसलिए चल, अपनी आंखें पोंछ और दाल के लिए रोना छोड़. रोने के लिए और भी कई आइटम हैं इस देश में दाल के सिवा. रोना है तो उन के लिए रो जो जबान को दिनरात धार दिए जा रहे हैं. खंजर से भी पैनी अपनी जबान किए जा रहे हैं. जिन के लिए जबान फूलों का गुलदस्ता नहीं, अचूक हथियार है. रोना है तो उन के लिए रो जो दिमाग से बीमार हैं. रोना है तो उन के लिए रो जो अपनेआप दो कदम तक नहीं चल सकते और दावा यह कि उन के कंधों पर ही इस देश का भार है. इसलिए, ये ले मेरा रूमाल, पों अपनी आंखों के आंसू. दाल से ऊपर उठ. प्याज से ऊपर उठ. फील कर दाल के बिना मिलने वाला परम सुख, फील कर प्याज के बिना मिलने वाला परम सुख. तू भी खुश, सरकार भी खुश. मेरी खुशी तो दोनों की खुशी में ही छिपी है.

Hindi Story : भेडि़या और भेड़ एक थाली में नहीं खाते

‘‘मां, मां…’’ लगभग चीखती हुई रूबी अपना बैग जल्दीजल्दी पैक करने लगी. मिसेज सविता उसे बैग पैक करते देख अचंभित हो बोलीं, ‘‘यह कहां जा रही है तू?’’

‘‘मां, बेंगलुरु में जौब लग गई है, वह भी 4 लाख शुरुआती पैकेज मिल रहा है. कल की फ्लाइट से निकल रही हूं.’’

सविता बोलीं, ‘‘अकेली कैसे रहेगी इतनी दूर? कोईर् और भी जा रहा है क्या?’’

रूबी मुसकराती हुई बोली, ‘‘पता है तुम क्या पूछना चाह रही हो. हां, रविश की जौब भी वहीं है. उस से बहुत सहारा मिलेगा मुझे.’’

इस पर सविता बोलीं, ‘‘तू रहेगी कहां? कोई फ्लैट या किराए का घर देख लिया है या नहीं?’’

अब रूबी की चंचल मुसकान गायब हो गई और मां को पलंग पर बैठाते हुए वह बोली, ‘‘मां, मैं और रविश वहां साथ ही रहेंगे.’’ यह सुन कर तो मां ऐसे उछल पड़ीं जैसे कि पलंग पर स्ंिप्रग रखी हो और उन के मुंह से बस यही निकला, ‘‘क्या? पागल तो नहीं हो गई तू, लोग क्या कहेंगे?’’

रूबी बोली, ‘‘जिन लोगों को तुम जानती हो, उन में से कोई बेंगलुरु में नहीं रहता, टैंशन नौट.’’

सविता ने कहा, ‘‘मति मारी गई है तेरी, भेडि़या और भेड़ कभी एक थाली में नहीं खा सकते. क्योंकि भेड़ के मांस की खुशबू आ रही हो तो भेडि़या घासफूस खाने का दिखावा नहीं करता.’’

इस पर रूबी बोली, ‘‘मां, इस भेड़ को भेडि़यों को काबू में रखना आता है. हम साथ रहेंगे अपनीअपनी शर्तों पर, शादी नहीं कर रहे हैं.’’

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गुस्से में सविता बोलीं, ‘‘अरे नालायक लड़की, छुरी सेब पर गिरे या सेब छुरी पर, नुकसान सेब का ही होता है, जवानी की उमंग में तू यह क्यों नहीं समझ रही है?’’

रूबी बोली, ‘‘मां, मैं तुम से वादा करती हूं, जब तक उसे पूरी तरह समझ नहीं लेती, उस को हाथ भी नहीं लगाने दूंगी.’’

सविता ने कहा, ‘‘भाड़ में जा, ऐसी बातें तेरे मामा से तो कह नहीं सकती. काश, आज तेरे पिता जिंदा होते.’’

रूबी बोल पड़ी, ‘‘जिंदा होते तो गर्व करते कि बेटी ने दहेज की चिंता से मुक्त कर दिया.’’

रूबी बेंगलुरु पहुंची तो रविश ने उस का गर्मजोशी से स्वागत किया. रूबी मां को तो आश्वस्त कर आई मगर वह रविश के आचार, विचार और व्यवहार को बहुत ही बारीकी से तोल रही थी. रविश ने उसे छूने की तो कोशिश नहीं की मगर उस के उभारों पर उस की ललचाई नजर वह भांप सकती थी. उस दिन तो हद हो गई जब रविश अपने स्लो नैटवर्क के कारण टैलीकौम कंपनी की मांबहन भद्दीभद्दी गालियों के साथ एक कर दे रहा था.

चरित्र और आचार की परीक्षा को जब तक रूबी भुला पाती, रविश ने टीवी देखते हुए सनी लिओनी पर अपने विचार भी जाहिर कर दिए. अब तो रूबी के सपनों की दुनिया मानो ताश के पत्तों की तरह बिखर गई. दूसरे ही दिन रूबी अपना बोरियाबिस्तर बांध अपनी कलीग के घर जाने लगी, तो रविश ने उस का रास्ता रोकते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

रूबी ने उस के आचार, विचार और व्यवहार पर लंबाचौड़ा भाषण दे दिया. रविश ने सबकुछ शांति से सुना और बोला, ‘‘अरे, इतनी सी बात, यह तो मेरे अंदर का पुरुष जब मुझ पर हावी हो जाता है, तब होता है, हमेशा ऐसा नहीं होता.’’

रूबी ने कहा, ‘‘मगर रविश, मैं ने सोचा था कि तुम बाकी मर्दों से अलग होगे.’’

रविश ने कहा, ‘‘रूबी, जो पुरुष अपने को ऐसा दिखाते हैं वे झूठे होते हैं. सच तो यह है कि हर पुरुष सुंदर स्त्री को देखते ही लालायित हो उठता है. यह नैसर्गिक आदत है उस की. मैं भी पुरुष हूं, झूठ नहीं बोलूंगा. मगर मैं भी तुम्हें मन ही मन…लेकिन तुम्हारी मरजी के बिना नहीं. अब भी तुम अलग रहना चाहती हो तो मैं नहीं रोकूंगा.’’

रूबी उस की साफसाफ बोलने की आदत और नियंत्रण देख अपने कपड़े बैग से निकाल वापस अलमारी में रखने लगी. तभी लाइट चली गई और रविश बोल पड़ा, ‘‘इस को भी अभी जाना था.’’ रूबी के घूर कर देखने पर रविश जीभ दांतों में दबा उठकबैठक लगाने लगा. और रूबी ने इस बचकानेपन पर उसे चूम लिया. आज उस ने अपने अंदर की स्त्री के संयम के किनारे को भी तोड़ दिया क्योंकि आज वह भेडि़या और भेड़ की नैसर्गिकता को समझ चुकी थी.

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एक इंजीनियर की मौत

महज 70-80 घरों वाले उस छोटे से गांव के छोटे से घर में मातम पसरा हुआ था. गिनती के कुछ लोग मातमपुरसी के लिए आए हुए थे. 28 साल की जवान मौत के लिए दिलासा देने के लिए लोगों के पास शब्द नहीं थे. मां फूटफूट कर रो रही थी. जब वह थक जाती तो यही फूटना सिसकियों में बदल जाता. बाप के आंसू सूख चुके थे और वह आसमान में एकटक देखे जा रहा था. ज्यादा लोग नहीं थे. वैसे भी गरीब के यहां कौन जाता है.

‘‘पर, विजय ने खुदकुशी क्यों की?’’ एक आदमी ने पूछा.

‘‘पता नहीं… उस ने 3 साल पहले इंजीनियरिंग पास की थी. नौकरी नहीं मिली शायद इसीलिए,’’ पिता ने जैसेतैसे जवाब दिया.

‘‘चाचा, इस सिस्टम, इन सरकारों ने जो सपने दिखाने के कारखाने खोले हैं यह मौत उसी का नतीजा है.

‘‘आप को याद होगा कि 10 साल पहले जब विजय ने इंटर पास की थी, तब वह इस गांव का पहला लड़का था जो 70 फीसदी अंक लाया था. सारा गांव कितना खुश था.

‘‘गांव के टीचरों ने भी अपनी मेहनत पर पहली बार फख्र महसूस करते हुए उसे इंजीनियरिंग करने की सलाह दी थी. तब क्या पता था कुकुरमुत्ते की तरह खुले ये कालेज भविष्य नहीं सपने बेच रहे हैं.

‘‘यह तो आप लोग भी जानते हैं कि विजय के परिवार के पास 8 एकड़ जमीन ही थी. दाखिले के समय विजय के पिताजी ने अपनी बरसों की जमापूंजी लगा दी. उस के अगले साल भी जैसेतैसे जुगाड़ हो ही गया. पर आखिरी 2 साल के लिए उन्हें अपनी 2 एकड़ जमीन भी बेचनी पड़ी.

‘‘सभी को यह उम्मीद थी कि इंजीनियरिंग होते ही 4-6 महीने में विजय की नौकरी लग जाएगी. कालेज भी नामीगिरामी है और कैंपस सिलैक्शन के लिए भी कई कंपनियां आती हैं. कहीं न कहीं जुगाड़ हो ही जाएगा.

‘‘यह किसे पता था कि आने वाली सभी कंपनियां प्रायोजित होती हैं और उन्हीं छात्रों को चुनती हैं जिन का नाम कालेज प्रशासन देता है.

‘‘कालेज प्रशासन भी उन्हीं छात्रों के नाम देता है जो उन के टीचरों से कालेज टाइम के बाद कोचिंग लेते हैं.

‘‘विजय अपने घर के हालात को बखूबी जानता था. वह फीस ही मुश्किल से भर पाता था, ऐसे में कोचिंग लेना उस के लिए मुमकिन नहीं था. ऊपर से दिक्कत यह कि उस के पास होने के एक साल पहले से उन प्रायोजित कंपनियों ने भी आना बंद कर दिया था. शायद दूसरे कालेज वालों ने ज्यादा पैसे दे कर उन्हें बुलवा लिया था.

‘‘इतने सारे इंजीनियरों के इम्तिहान पास करने के बाद सरकार के खुद के पास नौकरी के मौके नहीं थे. विजय को अपने लैवल की नौकरी मिलती कैसे?

‘‘पिछले 3 सालों से उस क्षेत्र की कोई कंपनी नहीं बची थी जहां पर विजय ने नौकरी के लिए अर्जी न दी हो. अब तो हालत यह हो गई थी कि उन कंपनियों के सिक्योरिटी गार्ड और चपरासी भी उसे पहचानने लगे थे. दूर से ही उसे देख कर वे हाथ जोड़ कर मना कर दिया करते थे.

‘‘एक दिन एक साधारण सी फैक्टरी का सिक्योरिटी गार्ड गेट पर नहीं था तो विजय मौका देख कर उस के औफिस में घुस गया और वहां बैठे उस के मालिक को अर्जी देते हुए नौकरी की गुजारिश करने लगा.

‘‘तब उस के मालिक ने कहा, ‘मेरी फैक्टरी में इंजीनियर, सुपरवाइजर, मैनेजर सबकुछ वर्कर ही है जो 50 किलो की बोरियां अपने कंधों पर उठता भी है, 200 किलो का बैरल धकाता भी है और प्रोडक्शन के लिए मशीनों को औपरेट भी करता है. शायद तुम अपनी डिगरी के चलते ये सब काम न कर पाओ.

मैं तो सरकार को सलाह दूंगा कि वह इंजीनियर बनाने के बजाय मल्टीपर्पज वर्कर बनाने के लिए इंस्टीट्यूट खोले. यह देश के फायदे में होगा.’

‘‘कारखानों, कंपनियों और सरकारी महकमों में चपरासी तक की नौकरी न मिलते देख विजय ने टीचर बनने की सोची. पर मुसीबतों ने उस का साथ यहां भी नहीं छोड़ा. सरकारी स्कूलों में उसे अर्जी देने की पात्रता नहीं थी. प्राइवेट स्कूलों में जब इंटरव्यू के लिए वह गया तो सभी इस बात से डरे हुए थे कि जब उसे अपनी फील्ड की नौकरी मिलेगी तो वह स्कूल की नौकरी बीच में ही छोड़ देगा और स्कूल के बच्चों का भविष्य अधर में लटक जाएगा.

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‘‘गांव के रीतिरिवाजों के मुताबिक, विजय की शादी भी उस के इंजीनियरिंग में दाखिला लेते ही तय कर दी गई थी. लड़की पास ही के गांव की थी. विजय जब भी गांव आता तो उस से मिलने जरूर जाता था.

‘‘विजय के इंजीनियर बनने के साथ ही उस ने भी अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर ली थी. पर पिछले 3 सालों से विजय का कुछ होता न देख कर लड़की के घर वालों ने कहीं और शादी करने का फैसला ले लिया.

‘‘उस लड़की ने भी विजय को यह कहते हुए छोड़ दिया था कि वह जानबूझ कर जद्दोजेहद की दुनिया में नहीं जा सकती.

‘‘उस लड़की ने कहा था, ‘याद करो विजय, हम ने सुखद भविष्य के जो भी सपने देखे हैं उन में कोई संघर्ष नहीं है तो मैं अब कैसे संघर्षों को चुन सकती हूं? मैं आंखों देखी मक्खी नहीं निगल सकती.’

‘‘विजय गांव वापस आ कर खेती इसलिए भी नहीं कर सकता था, क्योंकि 2 एकड़ खेती बिकने का कुसूरवार वह अपनेआप को मानता था. वैसे भी बची हुई 6 एकड़ खेती से 3 लोगों का खर्चा निकलना मुश्किल ही था. विजय चाहता था अगर वह परिवार की कुछ मदद न कर सके तो कोई बात नहीं, पर कम से कम परिवार के लिए बोझ न बने.

‘‘मैं उसे फोन लगा कर रोज बातें किया करता था ताकि उस की हिम्मत बनी रहे. पर पिछले 15 दिनों से हालात बहुत खराब हो गए थे. जिन लोगों के साथ वह रूम शेयर कर के रहता था उन्होंने 6 महीने से पैसा न दे पाने के चलते रूम से निकाल दिया था. मैं हजार 5 सौ रुपए की मदद जरूर करता था पर वह मदद पूरी नहीं पड़ती थी.

‘‘पेट भरने के लिए वह अकसर रात में सब्जी मंडी बंद होने के बाद चला जाता था और विक्रेताओं द्वारा फेंकी गई सड़ी हुई सब्जियों और फलों के अच्छे हिस्से निकाल कर खा लेता था.

‘‘लेकिन परसों हुई घटना ने न सिर्फ उस की उम्मीदों को तोड़ दिया था, बल्कि तथाकथित इनसानियत पर से भी उस का थोथा विश्वास हमेशा के लिए उठ गया था.

‘‘रूममेट्स द्वारा निकाले जाने के बाद विजय अलगअलग फुटपाथों पर अपनी रातें बिताया करता था. परसों वह ऐसे ही किसी फुटपाथ के किनारे बैठा था. पिछले 2 दिनों से सड़ी हुई सब्जियों के अलावा उस ने कुछ खाया भी नहीं था.

‘‘तभी एक बड़ी सी कार में से एक अमीर औरत उतरी. उस के हाथों में कुछ रोटियां थीं. वह अपनी पैनी निगाहों से कुछ खोज रही थी. उसे सामने कुछ ही दूरी पर एक काला कुत्ता दिखाई पड़ा. शायद वह उसी को खोज रही थी. उस औरत ने उस कुत्ते को अपनी तरफ बुलाने की बहुत कोशिश की. रोटियां शायद वह उस काले कुत्ते को खिलाना चाहती थी.

‘‘कुत्ते ने उस औरत की तरफ देखा जरूर, पर आया नहीं. शायद उस का पेट भरा हुआ था. हार कर वह औरत उन रोटियों को वहीं रख वापस अपनी गाड़ी की तरफ चली गई.

‘‘जब विजय ने देखा कि कुत्ता रोटी नहीं खा रहा?है तो उस ने वह रोटी खुद के खाने के लिए उठा ली. कार में बैठते समय उस औरत ने सारा कारनामा देखा तो वह तुरंत कार में से उतर कर आई और विजय से रोटी छीनते हुए बोली, ‘यह रोटी मैं ने शनि महाराज की पूजा के लिए बनाई है और इसे काले कुत्ते के खाने से ही मेरी शनि बाधा दूर होगी, तुम जैसे आवारा के खाने से नहीं.’

‘‘भूखा विजय कब तक सिस्टम से, समाज से और अपनी भूख से इंजीनियरिंग की डिगरी के दम पर लड़ता? आखिरकार उस ने जिंदगी से हार मान ली और पानी में डूब कर खुदकुशी कर ली.’’

मातमपुरसी के लिए आए सब लोग चुप थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसे कुसूरवार समझें. बिना भविष्य की योजनाएं लिए चल रही सरकारों को या पकवानों के साथ पेट भर कर एयरकंडीशंड कमरों में बैठे सपने बेचने वाले अफसरों को या उन भोलेभाले लोगों को जो इन छलावों में आ कर अपना आज तो खराब कर ही रहे हैं, भविष्य के बुरे नतीजों से भी बेखबर हैं.

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Hindi Story कातिल : पैसे की हवस

‘‘हां मुकेश… बोलो…’’ सुनील ने फाइल से नजरें उठा कर देखते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं सर, वह कल वाला फिटनैस सर्टिफिकेट देने का हिसाब देना था. ये जीनियस स्कूल की 10 बसों के 5 लाख रुपए हैं. 50,000 के हिसाब से, 60,000 के लिए वे नहीं माने. कह रहे थे कि साहब का बच्चा पढ़ता है हमारे स्कूल में, तो इतनी छूट तो मिलनी ही चाहिए, तो मैं ने भी ले लिए,’’ कहते हुए मुकेश ने एक बड़ा सा लिफाफा अपने बैग से निकाल कर सुनील के हाथ में दे दिया.

‘‘यार, फिर तुम एजेंट किस काम के हो… जब पहले ही बात हो गई थी तो पूरे ही लेने थे न… चलो, ठीक है.

‘‘अच्छा, आज मैं 3 बजे निकल जाऊंगा. मेरे बेटे का बर्थडे है… तो कल मुलाकात होगी,’’ सुनील लिफाफा सूटकेस में रखते हुए बोला और अपने काम में लग गया.

3 बजे सुनील अपनी कार से घर के लिए चल दिया. जैसे ही उस ने हाईवे पर मोड़ काटा, तो थोड़ी ही दूरी पर उसे जीनियस स्कूल की बस नजर आई.

‘अरे… 18 नंबर… यह तो चंकी की बस है…’ सुनील सोच ही रहा था कि बस को रुकवा कर उसे अपने साथ ले जाए कि अचानक बस लहराती हुई दूसरी तरफ उछली और सामने से आने वाले ट्रक से उस की जोरदार टक्कर हो गई. बच्चों की चीखों से आसमान जैसे गूंज उठा.

सुनील का कलेजा कांप उठा. वह गाड़ी को ब्रेक लगा कर रुका और जल्दी से बस के अंदर घुसा.

अंदर का सीन देख कर सुनील के होश उड़ गए. बुरी तरह से जख्मी बच्चों की चीखें उस के कलेजे पर हथौड़े की तरह लग रही थीं. जैसे उस से कह रही हों कि तुम्हीं ने हमें मारा है. उस की नजरें तलाशती हुई जैसे ही चंकी पर पड़ीं, उस के तो मानो हाथपैर ठंडे पड़ गए.

चंकी के सिर और हाथों से खून बह रहा था. उस की सारी यूनीफौर्म खून से लथपथ हो चुकी थी और वह सिर पकड़ कर तड़पता हुआ जोरजोर से ‘मम्मीमम्मी’ चिल्ला रहा था.

सुनील ने तुरंत अपनी शर्ट उतार कर उस के सिर पर बांधी और उसे गोद में ले कर कार की तरफ दौड़ लगा दी. उसे कार में बिठा कर पास के ही अस्पताल की ओर तेजी कार से बढ़ा दी.

अस्पताल पहुंचते ही चंकी को स्ट्रैचर पर लिटा कर इमर्जैंसी में ले जाया गया.

सुनील ने कांपते होंठों से डाक्टर को हादसे की जानकारी दी… तुरंत ही इलाज शुरू हो गया.

 

सुनील जरूरी कार्यवाही पूरी कर के बैठा ही था कि 2 एंबुलैंस आ कर रुकीं और उन में से ड्राइवर, कंडक्टर और कुछ बच्चों को निकाल कर स्टै्रचर पर लिटा कर अस्पताल के मुलाजिम उन्हें अंदर ले आए.अस्पताल में अफरातफरी का माहौल हो गया. नर्स ने बताया कि 8 बच्चों सहित ड्राइवर की मौत हो गई है. यह सुन कर सुनील पसीने से तरबतर हो गया.‘तेरी रुपयों की हवस ने ही इन्हें मारा है… अगर तू उन खराब बसों को फिटनैस सर्टिफिकेट नहीं देता तो यह हादसा नहीं होता… तू ने ही अपने बेटे को जख्मी कर मौत के हवाले कर दिया है. तू ही कातिल है इन सब मासूम बच्चों का…’सुनील की पैसे की हवस जैसे पिघल कर उस की आंखों से बह रही थी.

महिला आयोग की अध्यक्ष बन गई धर्मगुरु

देश में महिला आयोग का गठन महिलाओं की सशक्तिकरण के लिए हुआ था. अपने उद्देश्यों को भूल महिला आयोग राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति का जरीया बन कर रह गया है. सरकारों ने अपनी विचारधारा की महिलाओं को महिला आयोग का अध्यक्ष बनाने लगी जिस के कारण महिला आयोग की अध्यक्ष महिलाओं के मुद्दों से अधिक पार्टी की विचारधारा पर चलने लगती है.

आज के दौर में जरूरत इस बात की है कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर कंधे से कंधा मिला कर चलना चाहिए. महिला आयोग महिलाओं को छुईमुई बना कर रखना चाहता है.

जिन कामों में मसल्स पावर की वजह कभी पुरुषों का बोलबाला होता था, आज वहां काफी काम टैक्नोलौजी से हो रहे हैं. जहां मसल्स की नहीं ब्रेन की जरूरत होती है उन कामों को महिलाएं कर रही हैं. 2 देशों के बीच लडाई में पैदल सेना की जरूरत सीमित दायरे में काम करती है. अब युद्ध में कंप्यूटर गाइडेड मिसाइल का प्रयोग होता है. राकेट लौंच करने के बाद निशाना लगाने के लिए सैनिकों को मैदान में नहीं जाना होता है. वाररूम में बैठी महिला भी उसी तरह से कंप्यूटर के जरीए हथियारों को चला सकती है जैसे कोई पुरुष सैनिक.

बात केवल युद्ध के मैदान की ही नहीं है, अब घरों में काम करने के लिये मशीनें हैं. कपड़े धोने, बरतन धोने, मसाला पीसने, आटा गूंधने और चावल कूटने जैसा काम मशीनें करती हैं. इस तरह से मशीनें औरतों की ताकत बन गई हैं.

दकियानूसी विचारधारा क्यों

आधी आबादी कोई भी काम करने में सक्षम है. जरूरत पङने पर वह बस, ट्रेन और मैट्रो तक चला लेती है. दकियानूसी विचारधारा के लोग महिलाओं को छुईमुई बना कर रखना चाहते हैं जिस से वह पुरुषवादी सत्ता की गुलाम बनी रहे.

उत्तर प्रदेश महिला आयोग की अध्यक्ष डाक्टर बबिता सिंह चैहान के फैसलों पर सवाल उठने लगे हैं. उत्तर प्रदेश महिला आयोग की अध्यक्ष क्या इस तरह की व्यवस्था चाहती है जहां हर महिला केवल महिला के साथ काम करे? क्या वह इस तरह की विधानसभा चाहती है जहां केवल महिला मुख्यमंत्री हो? देश में केवल महिला प्रधानमंत्री होगी तभी महिलाएं सुरक्षित होंगी? क्या पुरुष डाक्टरों से ही महिलाओं को इलाज कराना चाहिए? कल को यह भी कहा जा सकता है कि लड़कियों को केवल महिला टीचर ही पढाएं? हर जगह महिलापुरुष का भेदभाव समाज के विकास में बाधक होगा.

महिला आयोग का तुगलकी फैसला

यूपी महिला आयोग ने महिलाओं की निजता को बनाए रखने के लिए महिलाओं के कपड़ों की नाप महिलाओं द्वारा ही लेने की बात कही है. महिलाओं की सुरक्षा और उन के अधिकारों के संरक्षण को ले कर महिला आयोग की बैठक की गई. बैठक के बाद सभी जिलाधिकारियों को महिला जिम, योगा सैंटर, विद्यालयों, नाट्यकला केंद्रों, बुटीक सैंटर और कोचिंग सैंटरों पर महिलाओं और बालिकाओं की सुरक्षा और सम्मान को सुनिश्चित करने के निर्देश दिए.

महिला आयोग की अध्यक्ष डाक्टर बबीता सिंह चैहान ने अन्य पदाधिकारियों और सदस्यों के साथ बैठक कर महिला सुरक्षा और उन के अधिकारों के संरक्षण पर बैठक में निर्णय लिया कि महिला जिम और योगा सैंटर में महिला ट्रेनर का होना अनिवार्य है. साथ ही महिला जिम का सत्यापन भी होना चाहिए. ऐसे सैंटर में सीसीटीवी सक्रिय होना चाहिए और अभ्यर्थियों को पहचानपत्र देख कर ही प्रवेश दिया जाए.

अजीबोगरीब तर्क

महिला आयोग ने निर्देश दिए कि विद्यालयों की बसों में महिला सुरक्षाकर्मी या महिला शिक्षिका का होना अनिवार्य है. नाट्यकला केंद्रों में महिला डांस ट्रेनर और सीसीटीवी की व्यवस्था होनी चाहिए. बुटीक सैंटरों पर महिला परिधानों की नाप लेने के लिए महिला टेलर ही होना चाहिए. कोचिंग सैंटर पर सीसीटीवी और वाशरूम की सुविधा अनिवार्य है. महिला परिधानों के बिक्री केंद्रों पर महिला कर्मचारियों का होना आवश्यक है.

महिला आयोग का उद्देश्य

1993 में उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग के गठन का कानून बना. इस के बाद उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग अधिनियम, 2001 पारित किया गया. महिला आयोग का उद्देश्य महिलाओं के कल्याण, सुरक्षा और संरक्षण के अधिकारों की रक्षा करना होता है. इस के अलावा आयोग का काम महिलाओं के शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए काम करना होता है. आयोग महिलाओं को दिए गए संवैधानिक और विधिक अधिकारों से जुड़े मामलों में राज्य सरकार को सुझाव देने का काम करता है.

आयोग महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर जांच करना और राज्य सरकार को सिफारिशें करने का काम करता है. इस के अलावा महिलाओं के अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में समय पर हस्तक्षेप करना भी है. इस के अलावा आयोग महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर जागरूकता फैलाने का काम भी करता है.

सरकार देती है दखल

महिला आयोग की अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति में सरकार का पूरा दखल होता है. वह अपनी विचाराधारा से जुडे लोगों को ही इस में जगह देती है. उत्तर प्रदेश में 2017 में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी और उस के मुखिया योगी आदित्यनाथ को बनाया गया तब महिला आयोग की अध्यक्ष बिमला बाथम को बनाया गया. बिमला बाथम 16वीं विधानसभा में एमएलए रही हैं. भाजपा की विधायक बिमला बाथम को महिला आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. वैसे, उन का कार्यकाल 3 साल में पूरा हो गया.

सरकार की उदासीनता रही कि वे 2024 तक महिला आयोग की अध्यक्ष बनी रहीं. 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में करारी हार का सामना करना पडा. भाजपा लोकसभा चुनाव में 33 सासंद लाने के बाद दूसरे नंबर की पार्टी बनी. पहले नंबर पर समाजवादी पार्टी पहुंच गई. उस के 37 सासंद चुनाव जीत गए. भाजपा ने अपनी हार की समीक्षा के बाद आयोगों में नई नियुक्तियां करने लगी. इस के चलते 2024 में महिला आयोग की नई अध्यक्ष डाक्टर बबिता सिंह चैहान बनीं जिन्होंने अपने पहले ही फैसले से जता दिया कि वह महिलाओं की तरक्की को ले कर किस तरह की सोच रखती हैं?

महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष जरीना उस्मानी कहती हैं,”आज के समय में महिलाओं के कपडे बुटीक में ही सिले जाते हैं. बुटीक का संचालन महिलाएं करती हैं. वे जेंटस टेलर केवल सिलाई के लिए रखती हैं. वैसे भी महिलाएं अपने पुराने कपड़े दे कर ही अपने कपङों की सिलाई करवाती हैं. उस में अच्छी फिटिंग आती है. महिला आयोग की अध्यक्ष के आदेश का क्या प्रभाव पड़ता है यह आगे देखने को मिलेगा।”

कौन है महिला आयोग की अध्यक्ष बबिता सिंह चैहान

बबिता सिंह चैहान आगरा जिले के सिविल लाइन प्रोफैसर कालोनी की रहने वाली हैं. बबीता सिंह राजनीति शास्त्र से एमए, एलएलबी तक शिक्षित हैं. समाजसेवा के कार्यों के लिए फ्रांस की यूनिवर्सिटी ने उन्हें डाक्टरेट की मानद उपाधि दी. वे भारतीय जनता पार्टी में लंबे समय से सक्रिय रही हैं. वे भाजपा महिला मोरचा की प्रदेश उपाध्यक्ष और यूपी भाजपा कार्यकारिणी में सदस्य हैं. वे खेरागढ़ में जिला पंचायत सदस्य भी रही हैं. इन के पति जितेंद्र चौहान लांयस क्लब इंटरनैशनल के डाइरैक्टर रहे हैं और कई संस्थाओं से जुडे रहे हैं. बबिता सिंह चैहान राजनीति के साथसाथ समाजसेवा में भी सक्रिय रही हैं. 2023 में भाजपा ने बबिता सिंह चैहान को शिकोहाबाद में जिले की जिम्मेदारी दी. इस के बाद वह प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हुईं और महिला आयोग की अध्यक्ष बनीं.

आजादी के 75 साल बाद भी जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, महिला आयोग महिलाओं के लिए कपड़े की नाप लेने के लिए महिलाओं को ही रखने की बात कर रहा है. देश के इतिहास में महिलाएं हमेशा पुरुषों जैसी ताकत और हिम्मत रख कर काम करती रही हैं. आज भी पढ़ाई के क्षेत्र में टौप करने वाली लड़कियों की संख्या अधिक है. क्या वे अपने काम इसलिए न करें क्योंकि उन के साथ पुरुष काम कर रहे हैं? क्या महिलाओं को केवल वही काम करने चाहिए जहां पुरुष न हों. अगर महिलाएं इस का इंतजार करेगी तो वह पीछे रह जाएंगी.

बदलनी होगी सोच

पंचायती राज अधिनियम लागू होने के बाद महिलाओं को 33% का आरक्षण दिया गया. इस के बाद भी महिलाओं के नाम पर प्रधानपति, पार्षदपति बन कर पुरुष ही महिलाओं के नाम पर काम कर रहे हैं. अब संसद और विधानसभा में भी महिला आरक्षण कानून बन चुका है. 2029 के बाद संसद और विधानसभा में भी महिलाओं को आरक्षण मिल जाएगा. अगर महिलाओं ने अपने अधिकार का पालन नहीं किया तो सांसद पति और विधायक पति बन कर पुरुष ही राज करेंगे.

जरूरत इस बात की है कि महिलाएं खुद की ताकत को पहचानें. वे इसलिए कार्यस्थल पर जाने से न डरें कि उन के साथ कोई घटना घट जाएगी.

कोलाकाता में अस्पताल में जो हुआ वह एक दुर्घटना थी. दिल्ली में निर्भया कांड दुर्घटना थी. इन घटनाओं से डर कर महिलाओं को घर में कैद नहीं होना है. उन को सावधानी के साथ अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए काम करना है. अगर महिलाएं केवल उन स्थानों पर काम करेंगी जहां केवल महिलाएं ही होंगी तो वे काफी पिछड जाएंगी.

सरकार, अदालत, महिला आयोग का काम महिलाओं के लिए सुरक्षित काम का माहौल देना है, उन को डराना नहीं. कल को पुलिस यह तय करे कि महिलाएं बाजार में दिन के समय ही जाएं रात को न जाएं तो क्या यह संभव और व्यवहारिक है? महिलाओं को खुद अपना खयाल और सुरक्षा रखनी चाहिए. पुरुषवादी सोच महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा उठा कर उन को काम करने से डराना और रोकना चाहती है जिस से वे चारदीवारी में कैद हो कर रह जाएं. केवल पुरुषों पर ही निर्भर रहें और अपनी बात को न कह सकें.

किसान त्रस्त सरकार मस्त, दूर नहीं हो रही खाद की कमी

लखनऊ रायबरेली हाइवे पर मुख्यमार्ग के 4 किलोमीटर अंदर बघौना गांव पङता है. यहां सड़क किनारे गुप्ताजी की चाय की दुकान है. दुकान पर रामदासपुर, नंदौली, बघौना, जमोरिया और लालताखेङा गांव के करीब 25-30 किसान बैठे थे. सब की परेशानी का एक ही कारण था, डीएपी खाद. किसानों का कहना था कि न तो सरकारी दुकान से और न ही प्राइवेट दुकान से उन को खेत में डालने के लिए डीएपी खाद मिल रही है. किसानों की शिकायत थी कि बड़े किसान तो फैक्टरी और खाद एजेंसी से ही खाद उठवा ले रहे हैं. जिन को 1 बोरी या आधी बोरी खाद की जरूरत होती है वे मारेमारे फिर रहे हैं. उन को गेहूं की बोआई में देरी हो रही है.

सभी किसान शिक्षक और समाजसेवी आईपी सिंह से अपनी व्यथा कह रहे थे. असल में गांव में धान की कटाई के बाद गेहूं बोआई का काम तेजी से चल रहा है. ऐसे में खाद की कमी से किसान परेशान है. खाद और बीज के लिए निगोहां और लालपुर में सरकारी और प्राइवेट दुकानें भी हैं. यहां देर रात से लाइन लग जाती है. कई बार किसानों का नंबर आतेआते खाद खत्म हो जाती है.

सिर्फ भरोसा

उत्तर प्रदेष के कृषिमंत्री सूर्यप्रताप शाही ने किसानों को भरोसा दिलाया कि खाद की कमी नहीं होने दी जाएगी. इस के बाद भी पूरे प्रदेश में डीएपी खाद की कमी बनी हुई है.

डीएपी खाद की कीमत 50 किलोग्राम बैग के लिए ₹1,350 है. हालांकि, बिना सब्सिडी के डीएपी की एक बोरी की कीमत ₹2,433 हो जाती है. सरकार की ओर से डीएपी पर ₹1,083 की सब्सिडी दी जाती है. ऐसे में सरकार यह भी कहती है कि वह किसानों को कम कीमत पर खाद दे रही है. खुले बाजार में डीएपी खाद की कीमत 50 किलोग्राम के बैग के लिए ₹15 सौ से अधिक की कीमत वसूल की जा रही है.

वादे हैं वादों का क्या

2014 में जब भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता संभाली थी तो वादा किया था कि किसानों की फसल दोगुनी की जाएगी. 10 साल बीत गए है. तीसरी बार नरेंद्र मोेदी देश के प्रधानमंत्री बने हैं लेकिन किसानों की आय दोगुनी नहीं हुई है. खाद की कमी हर साल की तरह बनी हुई है. किसान सम्मान निधि के रूप में जितना पैसा साल में मिलता है उस से अधिक पैसा खाद की खरीद में खर्च हो जा रहा है. ऐसे में किसान सरकार से खफा हैं. उन का दर्द सुनने वाला सरकार में कोई नहीं है.

क्या है डीएपी खाद

‘डीएपी’ खाद पीले रंग की बोरी में आती है. इस को डाई अमोनियम फास्फेट यानि ‘डीएपी फर्टिलाइजर’ के नाम से भी जाना जाता है. यह एक छारीय प्रकृति का रासायनिक उर्वरक है जिस के इस्तेमाल की शुरुआत साल 1960 में हुई थी.

डाई अमोनियम फास्फेट दुनिया की सब से लोकप्रिय फास्फोटिक खाद है जिस का सब से ज्यादा इस्तेमाल हरित क्रांति के बाद देखने को मिला. छारीय प्रकृति वाला यह रासायनिक उर्वरक पौधों में पोषण के लिए और उन के अंदर नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी को पूरा करने के लिए किया जाता है. इस में 18% नाइट्रोजन और 46% फास्फोरस होता है.

यह खाद पौधों के पोषक तत्त्वों के लिए सब से बढ़िया माना जाता है. जब इस खाद को मिट्टी में मिलाया जाता है तो यह उस में अच्छी तरह से मिक्स हो जाता है और पौधों की जड़ों के विकास में अपना पूरा योगदान देता है. इस के साथ ही यह खाद पौधों की कोशिकाओं के विभाजन में भी बहुत शानदार तरीके से काम करता है.

किसानों की चिंता

डीएपी खाद का उपयोग करने का सब से सही समय फसल की बुआई का समय होता है. कुछ किसान डीएपी का प्रयोग बुआई के समय न कर के पहली या दूसरी सिंचाई के समय करते हैं. अगर 1 एकड़ में डीएपी के सही इस्तेमाल की बात करें तो इस खाद को प्रति एकड़ में 50 किलोग्राम तक ही इस्तेमाल करना चाहिए.

डीएपी की कमी का कारण

देश में डीएपी खाद की कमी से किसानों को जूझना पड़ रहा है. देश में डीएपी खाद की लगातार कमी बनी हुई है. ऐसे में किसानों को इस खाद की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति नहीं हो पा रही है. खाद की कमी ने किसानों की चिंता को बढ़ा दिया है. डीएपी खाद की कमी के कारण अंतराष्ट्रीय बाजार में इस की कीमत बढ़ने लगी है.

भारत में बाहर से डीएपी का आयात किया जाता है. जरूरत के मुताबिक देश में डीएपी का आयात नहीं हो पाने से इस की कीमतों में बढोत्तरी हो रही है. बिचैलिए खाद की सप्लाई में देरी कर के इस की कालाबाजारी को बढ़ा रहे हैं.

अब किसान जरूरत से अधिक डीएपी खाद पर निर्भर होने लगा है जिस से डीएपी की मांग बढ़ गई है. अगर किसान डीएपी की जगह पर दूसरे उर्वरकों का प्रयोग करें तो उस की उपज में कमी नहीं आएगी.

सरकार पर भरोसा नहीं

किसान इस बात पर भरोसा नहीं कर पा रहा है. सरकार का प्रचारतंत्र, कृषि विज्ञान केंद्र सफेद हाथी बन कर रह गए हैं. कृषि वैज्ञानिक अपने मोटे वेतन से मतलब रख रहे हैं. केंद्र और प्रदेश के कृषि विभाग, मंत्री, अफसर और वैज्ञानिकों में कोई तालमेल नहीं रह गया है. प्रचार के नाम पर लाखों का बजट जेबी एनजीओं के खातों में जा रहा है.

सरकारी कृषि संस्थान किसानों तक सरकारी सुविधा पंहुचाने की जगह मंत्री अफसर की अगुवाई में लगे रहते हैं.

किसानों की अगर उपज की लागत घटानी है तो खाद का प्रयोग सही तरह से करना होगा. वर्मी कंपोस्ट खाद को तैयार करने के लिए गोबर और धान के पुआल को सङा कर तैयार करना होगा. इस की लागत कम आती है. आज किसान पूरी तरह से कैमिकल खाद के प्रयोग पर निर्भर हो गया है जिस की वजह से कारोबारी और बिचैलियए को कालाबाजारी करने का मौका मिल रहा है.

छोटे किसान को कैमिकल खाद और कीटनाशक का प्रयोग कम से कम करना चाहिए. इस से खेती की लागत बढ़ने के साथसाथ पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान होता है.

पर्यावरण में नुकसान का प्रभाव सब से अधिक उन पक्षियों पर पङ रहा है जो कीडेमकौडों को खाते थे. अब यह कीटनाशक के प्रभाव से कम होते जा रहे हैं. लगातार जंगल और पेङ कटने से पक्षियों के रहने, खाने और प्रजनन की कमी आती जा रही है जिस की वजह से ग्लोबल वार्मिंग बढने लगी है. इस को बचा कर ही सेहत और पर्यावरण को सुधारा जा सकता है.

जरूरत है कि इन का सही तरह से प्रचारप्रसार हो, किसान जागरूक हो. अपने हितों को समझे, सही तरह से खाद और कीटनाशक का प्रयोग करे जिस से खेती की लागत कम हो सकेगी. किसानों का मुनाफा बढ़ सकेगा. सरकार के भरोसे आने वाले 100 सालों में भी किसानों की आय दोगुनी नहीं होगी क्योंकि जितनी आय बढ़ेगी उस से अधिक महंगाई बढ जाएगी.

नेमप्लेट

लेखिका – आर्या झा

‘‘मम्मा, मैं ने अंकित को टिकट और विजिटिंग वीजा मेल कर दिया है, आप को लेने एयरपोर्ट आ जाऊंगी. बस, आप जल्दी से जल्दी मेरे पास आ जाओ.’’

‘‘पहले से कुछ बताया नहीं, कैसे जल्दी आ जाऊं. पहली बार तेरे घर आना है, कुछ तो तैयारियां करनी होंगी.’’

‘‘कैसी तैयारी, पापड़ बड़ी कोई खाता नहीं. इंडियन कपड़े मैं पहनती नहीं. बाकी सबकुछ अटलांटा में मिलता है, मां. बस, सुबह उठना और तैयार हो कर फ्लाइट में बैठ जाना.’’

आशना का यह कहना था कि निधि ने तैयारियां शुरू कर दीं. बच्चों का क्या है, कुछ भी बोलेंगे. वह मां है, वह तो बेटी के लिए उस की पसंद की सारी चीजें ले कर जाएगी. बेटे अंकित से उस की पसंद की मिठाइयां मंगाईं तो एक साल पहले की सारी तैयारियां याद हो आईं. कैसे घर को दुलहन सा सजाया था, घर के हर दरवाजे पर आम के पल्लव का तोरण लगाया था. बहू के आने और बेटी को विदा करने के सफर में हर बार पति की कमी कितनी खली थी पर खुद को संभालती हुई ऐसे तैयारी की कि उस की जिंदगी में जो खुशी का मौका आया है उसे ऐसे न जाने देगी, फिर अचानक सबकुछ बदल गया.

उस सुबह की याद आते ही उस का दिल कांप जाता है मगर आज उसी बेटी ने स्वयं उसे प्यार से बुलाया तो जरूर कोई न कोई अच्छी बात होगी. यही सब सोचती उस के बचपन में पहुंच गई.

‘प्रैक्टिस मेक्स मैन परफैक्ट, क्यों मम्मा. प्रैक्टिस मेक्स ह्यूमन परफैक्ट क्यों नहीं?’

मात्र 10 वर्ष की थी जब स्कूल से आते ही बैग फेंक कर वह जटिल प्रश्नों के बौछार कर रही थी और उस के पास कोई उत्तर न था सिवा समझने के. ‘इस में क्या है, मतलब से मतलब रखो न.’

‘मतलब यह है कि वुमन परफैक्ट नहीं होती. पूरा पक्षपात है पर जाने दो, तुम नहीं समझोगी.’

‘अरे बाबा, ये पुरानी बातें हैं. तुम्हारा जमाना अलग है, मेरी बन्नो. खुश रहा करो.’

‘व्हाट बन्नो, मैं कभी बन्ना-बन्नी नहीं बनूंगी, मम्मा. ये सब अपने बेटे को बना लो.’

अंकित जो उस से 5 साल बड़ा था, चुपचाप मां और बहन की बातें सुन रहा था और मां के अरमानों पर पानी फिरता देख कह उठा- ‘मैं बनूंगा बन्ना और बन्नी भी ला दूंगा, मम्मा.’

‘मेरा बच्चा,’ बोल कर निधि ने उसे सीने से लगा लिया. वाकई कभीकभी अंकित के लिए फिक्रमंद हो जाती थी. वैसे तो दोनों बच्चों को उस ने एक सा पालनपोषण दिया मगर बेटी अपने अधिकार के प्रति खूब सजग थी और बेटा उतना ही शांत था. यह शायद नए जमाने की नई लहर ही थी.

बच्चों के बचपन की बातें चलचित्र सी आंखों में घूम गईं. सच ही कहते हैं- होनहार बिरवान के होत चिकने पात. बेटे ने जो कहा, कर दिखाया. सचमुच उस के पसंद की बहू ले आया जो नौकरी के साथ घर की देखभाल भी करती है. उस के आने के बाद कभी लगा ही नहीं कि वह किसी पराए घर की परवरिश है. शायद बेटे का उस के प्रति लगाव ही ऐसा था कि बहू ने भी सास पर अपना खूब लाड़ लुटाया.

पिता के किडनी फेलियर से हुई असमय मृत्यु ने ही अंकित को जिम्मेदार बना दिया था. उस ने परिवार का बिजनैस बखूबी संभाला. इस के विपरीत आशना हमेशा उस से रूठीरूठी ही रही. घर से दूर ही रही. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए होस्टल गई, फिर उस का आनाजाना मेहमानों की तरह होता रहा. मां होने के नाते वह अपनी विद्रोही बेटी को खूब पहचानती थी. वह जितनी ही जहीन पढ़ाई में थी उतनी ही कड़वी जबान की भी स्वामिनी थी. मगर निधि के अंदर एक विश्वास था कि सारी कड़वाहट मिठास में बदल जाएगी जब उसे प्यार होगा. मगर प्यार के लिए भी तो उसे खुद को तैयार करना होगा.

2 वर्ष पहले सब से बड़ी खुशी भी उस ने ही दी कि उस की नौकरी एक इंटरनैशनल कंपनी में लग गई है. बेसिक तनख्वाह 60 लाख रुपए सालाना है. ऊपर से कुछ वैरिएबल अमाउंट और बोनस अलग. उस का अमेरिकन वीजा भी प्रोसैस हो गया है. इस बात पर पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. आज भी महीने के 60 हजार रुपए में घर चलाने वाली गृहिणी की बेटी अगर साल के 60 लाख से ऊपर कमाने लगे तो वाकई अपनी पैदाइश पर गर्व होने लगता है.

उस की अप्रत्याशित सफलता से उस के प्रति निधि का रवैया ही बदल गया. उस के स्वतंत्र विचारधारा व नई सोच के प्रति आदर का भाव पैदा होने लगा. बेटी के दिमाग में कुछ तो बात होगी जो उसे इतने सम्मानित कंपनी में इतना अच्छा जौब मिला है और साथ ही, उस ने एक और खुशखबरी दी कि अपने ही सहपाठी अविनाश को जीवनसाथी बनाने का फैसला किया है. इस बात पर निधि को लगा जैसे उस की लौटरी निकल गई. उसे तो यकीन ही नहीं था कि कभी उस की बेटी शादी के लिए किसी को पसंद भी करेगी. वह तो कब से इस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी. खूब धूमधाम से शादी कराने की ठानी.

गोवा में डैस्टिनेशन वैडिंग की तैयारी की. होटल बुक कर एडवांस दे दिया गया. रिश्तेदारों ने अपने हवाई टिकट बुक कर लिए. कपड़े बन गए.

शादी को बस एक हफ्ता रह गया था. आशना औफिस से छुट्टी ले कर घर आ गई. रातदिन दोनों लवबडर्स की तरह फोन पर बातें करने लगे. शुभकार्य था तो घर को भी लाइट और तोरण से सजा लिया. जब 90 प्रतिशत तैयारियां हो गईं और अगली सुबह हलदी व लेडीज संगीत के लिए गोवा की फ्लाइट पकड़नी थी तो आशना ने शादी से इनकार कर दिया.

निधि को कुछ समझ में नहीं आ रहा था. आखिर इस की वजह क्या हो सकती है. सबकुछ ठीक जा रहा था मगर अचानक कहीं उस से कोई भूल तो नहीं हुई है जो बेटी हत्थे से उखड़ गई है. न तो शादी के लिए तैयार है और न ही इस विषय में कुछ सुनना चाहती है. हिम्मत कर पूछ बैठी, ‘मेरे बच्चे, बताओ तो सही, आखिर ऐसी क्या बात हो गई जो ये…’

‘कुछ भी नहीं. तुम सोचो, कुछ हुआ ही नहीं.’

‘सुन बच्चे, अगर हमारी ओर से लेनदेन में कोई कमी रह गई तो बता, मैं उन लोगों से माफी मांग लूंगी?’

‘तुम सचमुच बिना रीढ़ की हो, मां. अभी तक लगता था पर बगैर बात माफी का क्या मतलब है. शादी वे लोग नहीं, मैं टाल रही’ हंसती हुई बोली तो कुछ तसल्ली हुई और फिर कहा, ‘एक और बार कारण पूछा तो घर छोड़ दूंगी मैं और लौट कर कभी नहीं आऊंगी.’

‘हां, पर मेहमान जो परसों से आने लगेंगे उन्हें क्या कह कर रोकूं?’

‘बोल दो, कोई मर गया.’

‘छीछी, ऐसी मनहूस बातें नहीं कहते.’

‘क्या फर्क पड़ता है, मम्मा. कोई पहले मरे या बाद में. पापा सारी जिंदगी अपने घरवालों के पीछे मरते रहे. तुम ने बगैर उफ किए सारे त्याग किए. पहले कैरियर का त्याग, फिर मायके का, दादी के लिए पोते की ख्वाहिश में अबौर्शन करा कर शरीर का त्याग, फिर पापा के बिजनैस ट्रिप के बहाने खुद को शराब में डुबोने से किडनी खराब होने पर उन की असमय मृत्यु पर अपने शृंगार का त्याग. माफ करना, तुम्हें देख कर मुझे यही प्रेरणा मिली है कि मैं अपना जीवन त्याग के बिना बिताऊं और यही मेरा अंतिम निर्णय है.’

निधि उस के इस रूप से परिचित तो थी ही, उसे तो यही आश्चर्य हो रहा था कि आखिर वह अविनाश से शादी के लिए मानी कैसे. जननी से ज्यादा अपनी जायी को और कौन समझता. इस विद्रोहिनी को अपने हाथों ही बड़ा किया था. यही सब सोचती कब सुबह हो गई, पता न लगा. मालूम होता था रात आंखों में कट गई. ‘फ्लाइट में सो लेगी’ यह सोच कर बचीखुची पैकिंग की और हार्ट्सफील्ड – जैक्सन अटलांटा इंटरनैशनल एयरपोर्ट पर उतरी तो बेटी के हाथ प्रैम पर थे.

एक बार को लगा कि शायद गलती से किसी बच्चे के प्रैम को पकड़ लिया है मगर उस ने बोला, ‘‘तेरे बेटे से फास्ट हूं मैं. शादी उस ने पहले की पर तुझे नानी मैं ने पहले बनाया. कैसा लगा मेरा सरप्राइज, मम्मा.’’

निधि निशब्द थी. कुछ सूझ न रहा था, तो आंखें बहने लगीं.

‘‘आई हेट टियर्स,’’ कह कर हंस पड़ी.

उफ, सचमुच अपने बाप पर गई है. उसे जो करना है वही करेगी. दूसरे क्या सोचते हैं, इस से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. ‘‘तुम ने शादी कब की, कुछ बताया नहीं?’’

‘‘नहीं की, बाकी बातें घर पर करेंगे, मौम.’’

उस ने कार में न केवल उस का सामान लोड किया बल्कि बच्चे को कार सीटर के बैल्ट में बिठा कर उस का हाथ पकड़ कर कार के अंदर बैठाया. एक नई मां का ऐसा ऐक्टिव रूप निधि के लिए दुनिया का आठवां अजूबा था.

घर पहुंच कर उस ने बगैर किसी मदद के खुद ही बच्चे को और उस के सामान को निकाला और निधि मूकदर्शक सी अपलक उसे निहारती रह गई. मन की बात मन में दबाए बेटी के घर में प्रवेश किया तो एकदम करीने से सुसज्जित घर में एक हाउसहैल्पर के अलावा और कोई न था.

आखिरकार हिम्मत कर पूछ बैठी, ‘‘इस का पिता कौन है, कहां है?’’

‘‘मां, इस का पिता वही शख्स है जिस से मैं ने प्यार किया था. मगर उसे अपने ऊपर अधिकार नहीं दिया वरना मुझ से कम तनख्वाह पाने वाला, मुझ से कम आईक्यू वाला अपने कैरियर में मुझ से आगे निकल अपने दोस्तों में शान से मेरे बच्चे का बाप कहलाने का गौरव पाता.’’

‘‘बेटू, सिर्फ इतनी सी बात के लिए तुम ने शादी नहीं की?’’

‘‘चिल्ल ममा, इतनी सी बात नहीं है. शरीर के कुछ हिस्सों के सिवा मुझ में उस में क्या अंतर है, बोलो? सिर्फ इतने के लिए मैं उसे छाती पर नहीं बिठा सकती थी.’’

‘‘फिर उस का ही बच्चा क्यों?’’ इस बार निधि ने तीर निशाने पर लगाया.

‘‘मैं ने उस से प्यार किया था.’’

एक इस बात से निधि को तसल्ली हुई कि बेटी चाहे जितने भी विरोधी नारे लगा ले मगर उस ने मन को मलिन नहीं किया था. उस का कहना किसी हद तक सही था. कई पीढि़यों से महिलाएं अकेली, अपने दम पर घरगृहस्थी खींचती हुई अपनी मेहनत पर दूसरे का यशगान करती नहीं थकती हैं. अपने खूनपसीने से सजाए आशियाने पर पति के नाम की नेमप्लेट खुशीखुशी बरदाश्त करती हैं तो स्वेच्छा से अपनी ही नेमप्लेट के साथ जीना कोई गलत तो नहीं. उस की बेटी के घर, बैंक बैलेंस और यहां तक कि बच्चे पर सिर्फ और सिर्फ उस की नेमप्लेट थी.

एक खंडित प्रेमकथा

‘‘शु चि, ‘सा’ निकल रहा है, ‘सा’ क्यों छूटता है तुम्हारा, ऊपर, थोड़ा और ऊपर लो. ‘सा’ को पकड़ो तो सारे सुर अपनेआप पास रहेंगे.’’

संगीत क्लास में मेहुल की 18 वर्षीया छात्रा शुचि से यह कहते ही पास के कमरे से एक तीखा व्यंग्य तीर की तरह आ कर इन की पूरे क्लास को धुआंधुआं कर गया : ‘सा’ जिस का निकला जा रहा उसे तो अपना होश नहीं, किसी और का ‘सा’ पकड़ने चले हैं.’’

थोड़ी देर के लिए एक विकृत मौन पसर गया. मेहुल ने स्थिति संभाली, ‘‘राजन और दिव्या, तुम लोग शुचि के सम से अंतरा लो.’’

किसी के दिल में आग लगी थी. जन्नत से लटकती रोशनियों के गुच्छों से जैसे चिनगारियां फूटी पड़ती थीं. सांभवी कमरा समेटना छोड़ मुंह ढांप बिस्तर पर पड़ गई.

मन ही मन ढेरों उलाहने दिए, हजार ताने मारे, जी न भरा तो अपना फोन उठा लिया और स्वप्निल को टैक्स्ट मैसेज किया- ‘एक नई कहानी लिखना चाहती हूं, प्लौट दे रही हूं, बताएं.’ यही सूत्र था प्रख्यात मैगजीन एडिटर स्वप्निल सागर से जुड़े रहने का. और कैसे जिया जाए, कैसे जिया भरमाया जाए, कैसे भुलाए वह अपनी परेशानियों को?

टैक्स्ट देखापढ़ा जा चुका था, जवाब आया, ‘भेजो.’

लिखना शुरू किया उस ने. निसंदेह आज के समय की कमाल की लेखिका है वह.

कल्पना, भाषा, विचार और कहानियों की बुनावट में असाधारण सृजन करने की कला. पल में प्लौट भेजा और ओके होते ही लिखना शुरू.

सांभवी : 5 फुट हाइट, सांवलीसलोनी, हीरे कट का चेहरा, शार्प और स्मार्ट. उम्र करीब 28 वर्ष.

मेहुल को सोचते हुए उस के अंदर आग सी भड़क उठी, ‘वही मेहुल, वही आत्मकेंद्रित संगीतकार और वही उस के सिमटेसकुचे चेहरे की अष्टवक्र मुद्राएं, तनी हुई भौंहों और होंठों के बंद कपाट में फंसे हुए कभी न दिखने वाले दांत. मन तो हो रहा था उठ कर जाए और विद्यार्थियों के सामने ही वह मेहुल की पीठ पर कस कर एक मुक्का जमा आए. वह उठ कर गई मगर उस कमरे के बगल से निकल कर रसोई में जा कर चाय के बरतन पटकने लगी, यानी चाय बनाने का यत्न करते हुए गुस्सा निकालने की सूचना देने लगी किसी को.

हद होती है सहने की. महीनों से उस ने अपनी इच्छा जता रखी है कि मेहुल कहीं भी हो मगर उस के साथ चले, उस के साथ कुछ रूमानी पल बिताए, एक शाम सिर्फ ऐसा हो जो सिर्फ उन दोनों के लिए हो, दैनिक चालीसा से हट कर हो.

जब इतने दिनों तक यथार्थ के देवता से इतना भी न हुआ तो कम से कम बाजार ही साथ चलें. इसी बहाने सही वह अपने लिए कुछ महक गुलाब के निचोड़ ही लेगी, अलमारी खुलेगी, ड्रैस निकलेंगे- कुछ वह सजेगी तो कुछ मेहुल संवेरगा, दोनों बहुत दिनों बाद एकदूसरे पर कुछ पल अपलक नजर रखेंगे और सांभवी अब तक नकचढ़ी इमोशन के गुब्बारों को समर्पण की सूइयों से छेद कर उस के गले से लिपट जाएगी थोड़ी शरमा कर और थोड़ी बेहया सी.

इज्जत ताक पर रख सांभवी सुबह से 4 बार मेहुल को याद दिला चुकी थी कि आज क्लास की छुट्टी कर देना, बाजार चलना है. दरअसल सांभवी के लिए यह बड़ी बात थी कि आगे बढ़ कर वह अपनी खुशी के लिए किसी से कुछ मांगे, चाहे क्यों ही न वह मेहुल हो.

मगर मेहुल, स्कूल से आ कर वही रैगुलर रूटीन में बच्चों को ले कर संगीत क्लास में बैठा है. एक दिन की चाय भी सांभवी को मेहुल के साथ नसीब नहीं होती. वह हड़बड़ी में चाय बना कर देती है और वह अपने चायनाश्ते की प्लेट ले कर क्लास में घुस बैठता है. हां, बच्चों के लिए अलग से बीचबीच में नाश्ता भिजवाने की मांग करते समय हक देखते ही बनता है उस का. चिढ़े न भला क्यों सांभवी.

चार वर्षों में कहीं घूमने तो क्या, जिंदगी की सब से हसीं याद भी उस के पास नहीं है. हां, हनीमून की हसीन याद जिस के बिना वैवाहिक जीवन जैसे पानी के बिना सूखा ताल. कैसे होता उस का हनीमून, उस वक्त तो बच्चों के संगीत की वार्षिक परीक्षाएं चल रही थीं.

उस ने अपनी चाय बनाई और वापस अपने कमरे में आ गई. चाय और कलम की जुगलबंदी रात 8 बजे तक चलती रही.

क्लास खत्म कर के मेहुल बैडरूम में आ कर उस के सामने खड़ा हो गया.

‘‘अब तो देर हो गई है, दुकानें तो बंद ही हो रही होंगी, क्या सामान लाना है बता दो, जल्द पास ही से कहीं से ले आऊंगा.’’

कलम छोड़ सांभवी ने मेहुल को देखा. उस की नीरस, निर्लिप्त आंखों को देख घायल सर्पिणी की तरह सांभवी तड़प उठी, क्रोध ने उसे कुछ देर मौन कर दिया-

कैसा इंसान है, एक तो इसे साथी के क्रोध से कुछ लेना है न देना, न ही साथी के प्रेमनिवेदन से कोई वास्ता, न उसे साथी से मानमनौवल आता है, न साथी में डूब कर दुनिया में जीने का सुख लेना, कब्र से निकला मुर्दा कहीं का.

इस मौन में दिल की लगी बुझ लेने के बाद उस ने मेहुल से कहा, ‘‘तुम्हें जल्दी होगी, मुझे कोई जल्दी नहीं. अब तुम खाना खा कर सो जाना, सामान लाना हुआ तो मैं ही कल ले आऊंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ सपाट सा उत्तर दे कर मेहुल ड्राइंगरूम में न्यूजपेपर पढ़ने चला गया और सांभवी कहानी में डूबने की कोशिश के बावजूद सतह पर ही उतराती रह गई.

एक चेहरा रहरह उस की आंखों में घूम रहा था. वह चेहरा था स्वप्निल सागर का. वे तब सबएडिटर थे जब सांभवी ने इस मैगजीन में लिखना शुरू किया था.

उस वक्त वह 21 साल की थी और ग्रेजुएशन के बाद पत्रकारिता व एमए में दाखिला लिया था. मुलाकात भी बड़ी रोचक ही कही जाएगी उन दोनों की.

एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए वह जाना चाहती थी लेकिन मैटर पहले संपादक से अप्रूव हो जाए तो छपने की कुछ गारंटी रहे, ऐसा सोच उस ने संपादक को फोन किया. इस वक्त तक वह मैगजीन में अपनी रचनाएं डाक द्वारा भेजा करती थी, कभी रूबरू नहीं हुई थी. इस बार इंटरव्यू के लिए परमिशन मिले तो तैयार मैटर ले वह खुद जाए, इसी मंशा से सांभवी ने फोन पर मिलने का समय निर्धारित कर लिया.

कुछ दिनों में तैयार मैटर ले कर मैगजीन के औफिस पहुंची. कहानी और आलेख सैक्शन संभालने वाले संपादक स्वप्निल से मिलने की कोशिश करने लगी.

केबिन में पहुंची तो स्वप्निल नहीं थे. वह इंतजार करती रही. जब स्वप्निल आए तो बहुत हड़बड़ी में थे. सांभवी को देख एक पल ठिठक तो गए लेकिन तुरंत ही कहा, ‘आज तो मैं समय नहीं दे पाऊंगा, क्या आप लिखने के सिलसिले में आई हैं?’

‘जी, मैं सांभवी, आप से फोन पर बात हुई थी, मैं जिस इंटरव्यू…’

‘मतलब, अब तक हमारी मैगजीन की सब से छपने वाली राइटर. साहित्य दर्शन और विचारों पर आप की पकड़ देख मैं तो आप को 50 से ऊपर की कोई महिला समझता था. तो आप हैं वो सांभवी.’ अब तक जाने की हड़बड़ी में खड़ा सा शख्स अपनी कुरसी पर जा बैठा था. उस ने सांभवी का लिखा हुआ मैटर लिया और एक सरसरी निगाह डाल अपनी मेज की डैस्क में रख कर कहा, ‘पहले की तरह असरदार.’

इस बीच सांभवी ने उस की आंखों में देखा और देखती ही रह गई. गजब की रोमानी और बोलती आंखें, चेहरे पर नटखटपन और घनी सी छोटी मूंछ अल्हड़ से पौरुष की गवाही देती. सांभवी ने अनुमान लगाया 30 से ऊपर के होंगे.

स्वप्निल उठ खड़े हुए. भागती सी लेकिन बड़ी गहरी नजर डाल सांभवी से कहा, ‘सांभवी आज मैं जरा जल्दी में हूं, लेकिन जल्दी ही आप से लंबी बातचीत का दौर निकालूंगा.’

स्वप्निल निकल तो गए लेकिन सांभवी के लिए पीछे एक अदृश्य डोर छोड़ गए. पता नहीं कब क्यों वह उस अदृश्य डोर को पकड़े स्वप्निल के पीछे चलने लगी थी. खुशगवार लगी गरमी की उमसभरी शाम जैसे अचानक ठंडी हवा के झोंके आ गए हों.

इस बीच, वह कई बार स्वप्निल से मिली. स्वप्निल के व्यस्तताभरे समय से उसे जो भी पल मिले वे किसी फूल के मध्य भाग की खुशबू से कम नहीं थे.

दो महीने के अंदर उस ने न जाने कितनी ही रचनाएं लिख डाली थीं और न जाने कितनी बार वह स्वप्निल के दफ्तर जा चुकी थी.

इस बार जब वह गई तो दफ्तर में अलग तरह की गहमागहमी थी. सारे लोग काम के बीच काफी मस्तीभरे मूड में थे. पता चला आज स्वप्निल कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. लड़की से प्रेम इसी दफ्तर में हुआ था. वह यहां आर्टिकल आदि लिखती थी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी साथ ही कर रही थी.

लोग खुश थे, बहुत खुश, इतने कि खुद के खर्चे पर मिठाई बांट रहे थे. लेकिन जाने क्यों सांभवी के अंदर क्याक्या चटक गया. ईर्ष्या, अभिमान, संताप आंसू बन कर आंखों के कोरों में जमा होने की जिद करने लगे और वह वहां से चुपचाप निकल आई. किस पर जताए अभिमान, संताप? कोई वजूद तो नहीं उस सूरत का, कोई निशान भी नहीं उस मूरत का दिल में.

इस बीच ऊंची डिग्री लेते 4 साल और गुजरे. सांभवी के घर में अब सभी फिक्रमंद थे सांभवी की शादी को ले कर. वह भी किस का बाट जोहे? स्वप्निल सागर अब पूरे मैगजीन के एडिटर बन चुके थे, अपने पारिवारिक जीवन और कैरियर में पूरी तरह व्यस्त. सांभवी कौन थी- सिवा एक लेखिका के.

मुलाकात करवाई गई मेहुल से उस की. पांच फुट नौ इंच की अच्छी हाइट में शांत, शिष्ट, भला सा नौजवान और आंखों में गहरी कोई बात. दोनों ने आंखें मिलाईं और जैसे गहरी एक संधि हो गई अनकहे संवाद में.

सांभवी को नया संसार मिला, रचनेगढ़ने को नया रिश्ता मिला, एक सखा मिला प्रेमपुष्प से सजाने को.

मेहुल की बात लेकिन कुछ अजीब रही.

मेहुल एक पब्लिक स्कूल में संगीत शिक्षक था, घरवापसी उस की 5 बजे होती.

कुछ चायनाश्ता, जो अब सांभवी बनाने लगी थी, के बाद शाम 6 बजे से 8 बजे तक संगीत क्लास में बच्चों के साथ बैठता. रविवार छुट्टी के माहौल का भी ऐसा नक्शा था कि सांभवी के सब्र की इंतहा हो जाती. इस दिन वह किसी न किसी संगीत की महफिल का हिस्सा होता या कहीं स्टेज प्रोग्राम कर रहा होता.

सांभवी एक बंधेबंधाए मशीन के पुर्जे में आ फंसी थी और इस पूरे कारखाने को उखाड़ फेंकने की कोई सूरत उसे नजर नहीं आती थी.

संगीत में नितनए धुन रचे जाते, नए सुरों का संगम होता. लेकिन सांभवी के लिए इस में अकेलेपन का बेसुरा आलाप ही था, किसी अलग हवा, अलग रोशनी, अलग मेघ ले कर वह इस मेहुल नाम के बिन दरवाजे के किले में कैसे प्रवेश करे?

रात का अंधेरा कुछ पल को प्यार की रश्मियों के लिए भले अवसर रचता लेकिन ज्यादातर वह भी या तो मेहुल के सांसारिक कर्मों के लेखेजोखे में या सांभवी के शरीर की ऊष्मा नापने में ही बीत जाता. रागअनुराग, खेलीअठखेली, मानमनुहार, प्रेम के इन शृंगारों से अछूते ही रह जा रहे थे सांभवी के यौवन के सपने.

34 साल के मेहुल का पतझर सा निर्मोही रूप सांभवी के कुम्हलाते जाने का सबब बन गया था. 4 साल से ऊपर हो गए थे मेहुल से शादी को लेकिन अब तक ऐसी कोई सूरत नहीं बन पाई कि सांभवी स्वप्निल को अपनी काल्पनिक दुनिया से पूरी तरह मिटा पाए.

मेहुल को अपनी दुनिया में डूबा देख वह भी खुद को लगातार लेखन में व्यस्त रखती और स्वप्निल उस के जेहन से ले कर कागज के पन्नों तक लगातार फैल रहा था.

वह नहीं जानती थी कि स्वप्निल अपनी बीवी से कितना प्यार करता था, शायद बहुत, तभी तो जमाने की परवा न करते हुए उस ने विजातीय विवाह किया. वह यह भी नहीं जानती कि स्वप्निल अपने बेटे से कितना प्यार करता है, पर हां, आज की तिथि में वह ये बातें जानना भी नहीं चाहती. वह अपनी यात्रा में खुश है.

अच्छा लगता है सांभवी को स्वप्निल के बारे में सोचना. अगर मेहुल इन 4 सालों में उस की परवा को मोल देता तो शायद यह न होता. उस के रार ठानने, तकरार करने को बचकानी हरकत कह कर नजरअंदाज नहीं करता, उस के प्रेमविलास को अनावश्यक मान कर उस की अनदेखी न करता तब शायद सांभवी स्वप्निल की दुनिया को वास्तव तक न ले आती.

अब मेहुल के आगे झोली नहीं फैलाएगी सांभवी. मेहुल अगर उस के बिना दुरुस्त है तो वह भी सामाजिक दायित्व निभा कर खुद के सपनों को सींचेगी.

कहानी के नए प्लौट पर विचारते हुए शाम को सांभवी मार्केट से घर आई तो मेहुल का क्लास चल रहा था. उस की नजर उठी उधर और वह परेशान व हैरान रह गई.

सारे बच्चे दूर से मेहुल को घेरे हुए थे, मेहुल अपनी कौपी में उन्हें कुछ दिखा रहा था लेकिन शुचि… उस की हिम्मत देख सांभवी अवाक रह गई. मेहुल भी कुछ नहीं कहता, क्या इस में खुद उस की शह नहीं? अगर ऐसा नहीं होता तो 18 साल की इस लड़की की सब के सामने इतनी हिम्मत कैसे होती?

सांभवी कोफ्त से भर उठी. कहीं इसलिए तो मेहुल उस की तरफ से उदासीन नहीं, कहीं यही तो कारण नहीं कि वह क्लास की छुट्टी कर कभी उस के साथ घूमने नहीं जाता?

शुचि मेहुल के शरीर पर पूरी तरह लदी हुई उस से ताल समझ रही थी. यहां बाकी सारे बच्चे भी हैं जो वही ताल समझ रहे हैं, फिर शुचि को मेहुल के शरीर पर ढुलकने की क्या जरूरत पड़ी?

उसे याद आया, बिस्तर पर मेहुल कैसे उसे पल में रौंद कर पीछे घूम जाता है. प्रेम से ज्यादा देह में विचरण करने वाला कहीं शुचि के नरम, नाजुक, कोमल, किशोर शरीर पर… छिछि.

फिर से स्वप्निल सागर में डूबने की तैयारी कर ली उस ने. वह स्वप्निल को संदेश लिखने लगी थी.

अब उसे स्वप्निल से बातें करने के लिए यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि कहानी का प्लौट दे रही हूं. अब सागर के किनारों की बंदिशें उस ने भेद ली हैं.

‘‘आहत हूं बहुत.’’ व्हाट्सऐप में टैक्स्ट किया. दो पल में सीन हो कर प्रत्युत्तर आया, ‘‘क्यों, क्या हुआ? तुम्हारी 2 कहानियां आ रही हैं अगले महीने.’’

‘‘बस, कहानी ही बन गई है जिंदगी मेरी.’’ उधर एक प्रश्नसूचक चुप्पी लेकिन सहानुभूति का स्पर्श पा रही थी सांभवी, लिखा, ‘18 साल की एक लड़की से बहुत क्लोज हो रहा है मेहुल.’’ लहजा शिकायती होने के साथ सागर को करीब पाने की छटपटाहट कम न थी.

‘‘सांभवी, तब तो मेरी पत्नी को भी तुम से गुस्सा होना चाहिए, काम के सिलसिले में पुरुषों के लिए यह नई बात नहीं.’’

सांभवी की ओर से सन्नाटा, विद्रूप और पश्चात्ताप के निशब्द पदचाप स्वप्निल को सुनते देर नहीं लगी, तुरंत उस ने बात संभाली, कहा, ‘‘अपने यौवन, सौंदर्य और टैलेंट की कद्र करो, जैसे मैं करता हूं तुम्हारी. तुम मेरी लकी चार्म हो. बी हैप्पी. मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

टूटते हुए को फिर भी दिलासा हुई, गरम रेत पर स्वप्निल मेघ सा बरस गया था. मेहुल के रवैए की वजह से स्वप्निल के निकट जाने की उत्कंठा पर अब उसे कोई शिकवा नहीं.

रविवार को मेहुल का स्टेज प्रोग्राम था. मेहुल ने खुद आगे बढ़ सांभवी को अपने प्रोग्राम में साथ चलने को कहा था. यह दिन उस के लिए खास था. वह भी तो रहना चाहती है उस के संग, चाहती तो है कि मेहुल के संगीत में उस की खुशबू रहे और उस के साहित्य में मेहुल की.

सांभवी की चपल काया में इंडोवैस्टर्न ड्रैस खूब फब रही थी. सब की नजर उस की ओर अनायास ही उठ रही थी. प्रोग्राम खत्म होने के बाद सांभवी ग्रीनरूम में मेहुल के पास पहुंची.

अब यह तो उम्मीद न थी. उसे बेहद बुरा लगा, जैसे कि अभी एक बच्चे की तरह सांभवी जोरजोर से रो पड़े.

यहां भी शुचि पहले से मौजूद. मेहुल के आगेपीछे वह यहां क्या कर रही है?

घृणा और कोफ्त से भर गई सांभवी. मेहुल ने देखा सांभवी को, एक सहज दृष्टि, न प्रशंसा के भाव न संकोच का. कैसा छिपा रुस्तम है यह मेहुल. सांभवी के मन में लगातार मंथन चल रहा था .

‘‘आओ चलेंगे, बाहर आयोजकों ने गाड़ी तैयार रखी है, आओ शुचि,’’ सांभवी की ओर बढ़ते हुए मेहुल ने शुचि को साथ चलने का इशारा करते हुए कहा.

यह क्या, मतलब शुचि हमारे साथ? क्रोध ने सांभवी को मन ही मन जड़ कर दिया था. सबकुछ भूल कर एक बार फिर कोशिश करने का मन जो हुआ था उस का, उस पर क्यों मिट्टी डाल रहा है, मेहुल. रोना आ रहा है सांभवी को, काश, यहां एक बिस्तर मिल जाता और वह उलटेमुंह धम्म से गिर कर जोर से रो पड़ती.

काफी मशक्कत के बाद इतना बोल पाई सांभवी, ‘‘ये हमारे साथ?’’

‘‘हां, तो इसे अकेली कैसे छोड़ूं? यह तो मेरा ही प्रोग्राम सुनने आई है, अकेली इतनी दूर से?’’

‘‘तो आई कैसे थी?’’ प्रश्न पूछ लेना भी उसे कचोट रहा था लेकिन खुद को रोक भी तो नहीं पाई वह. आखिर मेहुल इतना भी निर्लज्ज कैसे हो सकता है.

‘‘वह आई थी अकेले औटो से, तब दिन था मगर अब इतनी रात गए उसे अकेले कैसे छोड़ दूं? मेहुल जैसे आंखें तरेर रहा हो कि आगे और कोई सवाल नहीं.

सांभवी ने खूब समझा था. अपने पति की दिल की बात क्या सांभवी न समझे.

ठीक है मेहुल, तुम्हें पतिपत्नी के रिश्ते की गरिमा और अनुभूतियां समझ नहीं आतीं तो मैं भी हूं चपला प्रेम कामिनी, मुझे रोक न सकोगे. जब मैं स्वयं सलीके से जीना चाहती हूं तो तुम भटक जाना चाहते हो. फिर यही सही, मेहुल. सांभवी विस्फोट के मुहाने पर खुद को दबाए खड़ी थी.

गाड़ी में 2 लोग और थे जिन के उतरने के बाद पिछली सीट पर बीच में मेहुल के साथ अगलबगल शुचि और सांभवी हो गए थे. अब शुरू थी शुचि की प्रश्नलीला- सरसर करते दुनियाभर के सवाल. ‘‘आप ने इस में कोमल गांधार के साथ तीव्र ‘म’ लगाया, तार सप्तक पर जा कर पंचम को बीच में क्यों छोड़ दिया, हमें इस तरह तो नहीं बताया था?’’ सांभवी समझ रही थी सब. जायज सवालों के जरिए नाजायज अधिकार जता रही थी शुचि.

सांभवी को तीव्र वेदना ने आ घेरा और वह माइग्रेन की शिकार हो गई.

शुचि का घर गली के अंदर था, बाहर ही जीप रुकी और मेहुल शुचि को घर तक छोड़ने गया.

बेहयाई की हद नहीं कोई. अब अकेले अंधेरे में इतना सारा रास्ता उस बेशर्म लड़की के साथ. पता नहीं अकेले में क्याक्या गुल खिला दें दोनों.
याद आता है शादी का वह शुरुआती दौर. अपना बनाने के लिए सांभवी ने मेहुल को ले कर क्याक्या यत्न किए थे. कोई उत्सव या अवसर हो तो विशेष उपहार विशेष तरीके से देती, चुहल, हंसी, गुदगुदी, ठिठोली, खेलखेल में प्रेमनिवेदन, आंखों में मस्ती की भाषा आदि क्या कुछ न करती वह ताकि मेहुल के साथ अपनापन बढ़े, जीवंत अनुभूतियां दिनोंदिन फलेफूलें.

मेहुल शांत रहता, जैसे जमी हुई बर्फीली नदी. कितने ही कंकड़ फेंको, कोई हलचल नहीं. ऐसे शांत रहता जैसे सांभवी के मानसिक विकास पर उसे कोई शक हो, जैसे कि पतिपत्नी के बीच इन बातों का कोई महत्त्व ही नहीं. ये बातें बचकाना हरकत थीं मेहुल के लिए.

अब तो मेहुल के प्रति वाकई उस के मन में घृणा की कठोर काई जम गई है.

मेहुल शुचि को घर तक छोड़ वापस सांभवी के पास बैठ गया और ड्राइवर को रास्ते का निर्देश दे सांभवी की ओर देखा. वह आंखें बंद किए हुए माइग्रेन से जूझने की भरसक कोशिश में थी.

मेहुल ने पूछा, ‘‘कैसा लगा प्रोग्राम?’’

‘‘कौन सा प्रोग्राम? शुचि वाला या स्टेज वाला?’’

‘‘क्या कह रही हो, समझ कर कहो?’’ मेहुल का स्वर गंभीर हो गया था.

‘‘क्या इस लड़की का तुम्हारे बदन में लोटपोट होना जरूरी है? क्या बाकी बच्चे नहीं सीख रहे हैं तुम से? तुम मना नहीं कर सकते हो? पर मना करने के लिए तुम्हें भी तो उस की यह हरकत गलत लगनी चाहिए.’’

सांभवी को उम्मीद थी कि मेहुल उसे डांट कर चुप करा देगा जैसा कि अकसर लोग अपनी गलतियां छिपाने के लिए करते हैं.

मेहुल एक कठोर मौन साध गया. घर जा कर भी चुप और फिर सुबह स्कूल जाने तक, बस, चुप ही.

सुबह मेहुल के स्कूल चले जाने के बाद सांभवी ने स्वप्निल को फोन लगा दिया.

शायद, अब बांध टूट ही जाना था. परवा नहीं कि साथ में क्याक्या बह जाएंगे.

‘‘स्वप्निल,’’ एक कांपती, तरसती, दर्दभरी आवाज स्वप्निल पहली बार सुन रहे थे जिस में ‘जी’ के बिना एक अनकही निकटता पैदा हो गई थी.

‘‘अरे, क्या हुआ?’’ उधर से चिंतित स्वर.

‘‘अभी कहूं?’’

‘‘हां, कहो, मैं औफिस के लिए निकलने वाला था, रानू निकल गई है, बोलो?’’

सांभवी स्वप्निल की पत्नी रानू की अनुपस्थिति की सूचना से कुछ आश्वस्त हुई और बोली, ‘‘स्वप्निल.’’

‘‘कहो सांभवी.’’

‘‘मैं आप को देखना चाहती हूं, स्वप्निल. बहुत साल हो गए. मैं और कुछ नहीं सुनना चाहती.’’

‘‘मेहुल ने सताया,’’ स्वप्निल ठिठोली करते हुए सांभवी को शायद सचाई का आईना दिखाना चाहते हों, लेकिन सांभवी अपने मन के बिखरे कांच को इस वक्त अलगअलग नाम देने में समर्थ नहीं थी. उस ने शिद्दत से कहा, ‘‘स्वप्निल, मैं आप से मिलने को कह रही हूं. मेहुल की बात मत करो.’’

‘‘अच्छा, ठीक है. तुम्हारे शहर आऊंगा अगले महीने, एक साहित्यिक पत्रिका का उद्घाटन समारोह है. होटल ड्रीम टावर में ठहरूंगा, वहीं मिलेंगे हम. मैं वक्त पर सारा डिटेल दे दूंगा तुम्हें.’’

‘‘नहीं जानती यह महीना कैसे बीतेगा लेकिन इंतजार करूंगी, स्वप्निल.’’

स्वप्निल ने फोन रख दिया था और सांभवी दर्दभरे ग्लेशियर से फिसलतीबहती जाने कहां गिरती जा रही थी. उस से रहा नहीं गया, दोबारा फोन किया, कहा, ‘‘मैं क्यों टूटी जा रही हूं, स्वप्निल? क्या आप सुनना नहीं चाहेंगे? मैं आप से अपना दिल साझा करना चाहती हूं.’’

स्वप्निल सांभवी को टटोल चुके थे, कहा, ‘‘डियरैस्ट, तुम एक राइटर हो, जो झेल रही हो उसे तुम एक बार खुद क्रिएट करो. वह राइटर खुशनसीब होता है जो संघर्ष झेल कर, आग से गुजर कर कुछ नया रचता है. अब जो लिखोगी वह बेहतरीन होगा. प्लीज, इसी वक्त तुम प्लौट तैयार करो. तुम अपनी इसी मानसिक दशा को पकड़ो. जरूरत पड़े तो मुझे अपनी चाहतों में ढालो, तुम स्वतंत्र हो. मगर अभीअभी क्रिएट करो.

सारे दर्द, सारी सुप्त वासनाओं में रंग भरो. पूरी आजादी के साथ. अभी कई सारी बेहतरीन कहानियां चाहिए मुझे. और मैं जब आऊंगा तो तुम्हारे अंदर और कई कहानियां पैदा कर जाऊंगा.

‘‘बी अ स्मार्ट प्लेयर, अ डांसिंग प्लेयर. समझ गई न मेरी बात, डियरैस्ट.’’

सम्मोहित सी सांभवी ने कलम पकड़ ली. कहानियों के रूप में मन के उथलपुथलभाव जिंदा होने लगे. एक के बाद एक, लगातार कई दिन, कई कहानियां- ‘जिंदा आग’, ‘बर्फ का अंटार्टिक’, ‘ज्वलंत प्रश्न’, ‘जागृत कामनाएं’.

यहीयही चाहिए था स्वप्निल को लेकिन सांभवी को?

कहानी दे कर सांभवी ने संदेश भेजा स्वप्निल को- ‘‘मैं आप को खुश कर पाई न, स्वप्निल?’’

‘‘हां, बेहद.’’

‘‘हया की दीवारों ने मुझे मरोड़ रखा है, स्वप्निल. मेरा दम घुट रहा है. मैं तब से क्याक्या कहना चाहती थी आप से जब हमारी पहली मुलाकात थी.’’

‘‘क्या बात, कभी बताया नहीं. खामखां कितना ही वक्त बरबाद हुआ. चलो फिर भी जिंदगी नहीं गुजार दी कहने से पहले. शुरू होगी अब एक नई कहानियों की शृंखला. गुजर कर दरिया ए फना से. क्यों, है न?

‘‘मोहब्बत में तो मौत का दरिया भी बाढ़ ए बहारां हो जाता है. कहानियां क्या जबरदस्त होंगी सांभवी. मैं तुम से मिलने को उत्सुक हूं, सच.’’

‘‘सिर्फ कहानियों के लिए?’’

‘‘किस ने कहा?’’

‘‘तुम से ही तो मेरी कहानियां हैं. तुम तो मेरे लिए सब से महत्त्वपूर्ण हो. क्या मैं जिसतिस से यह बात कह सकता हूं?’’ स्वप्निल डुबो ले जा रहा था सांभवी को.

तीन रातों से मेहुल पास बर्फ सा पड़ा रहता है. वह तड़पती है बगल में आग सी. तीन रातों से लगातार वह स्वप्न देखती है. आज भी देख रही है. बंद पलकों से दर्द उछल कर बाहर आ रहा है. वह चिंहुकती है. मेहुल उसे धीरे से छूता है. उस के ललाट पर अपना हाथ रखता है. वह अचानक चीख उठती है, ‘‘स्वप्निल, नहींनहीं, आह, बचो, उड़, चला दिया उस ने ट्रक तुम्हारे ऊपर. मार डाला मेहुल ने तुम्हें. आह, मैं तुम्हें बचा नहीं पाई. एक बार तुम से मिल नहीं पाई. प्यासी बंदिनी मैं. न प्रेम दिया उस ने, न करने ही दिया.’’

मेहुल उठ कर बैठ गया था. पास आ कर उस के सिर को सहलाते हुए उस ने धीरेधीरे बुलाया, ‘‘सांभवी, उठो. तुम ठीक हो. घबराओ नहीं, सब ठीक है. किसी को कुछ नहीं हुआ.’’

उस ने आंखें खोलीं जो खुली ही रह गईं, सामने साक्षात मेहुल. सुबह की लाली फूटने को थी. मेहुल को देख अफसोस और क्रोध से वह टूटी जा रही थी. वह पीछे घूम मुंह फेर कर लेट गई. उसे बुखार था. पीछे मेहुल लेट गया.

एक मौन पश्चात्ताप का सागर दोनों के बीच बह रहा था. दोनों डूबे पड़े थे उस में. लेकिन निकलने की कोशिश किसी में नहीं थी.

सुबह के 8 बज रहे थे. कोई हलचल नहीं दिखी सांभवी में तो मेहुल चाय बना लाया. हौले से पुकारा उसे जैसे खुद की खुशी के लिए अपने दर्द को भुला कर सांभवी को माफ कर देना चाहता है वह.

सूरज की तेज रोशनी जैसे अब सब स्पष्ट कर देने पर आमादा थी.

‘‘क्या तुम स्वप्निल के पास जाना चाहती हो?’’

‘‘क्या तुम मुझे जाने के लिए कहना चाहते हो?’’

‘‘सांभवी…’’

‘‘ताकि शुचि…’’

‘‘सांभवी?’’ इस बार मेहुल का स्वर काफी तीक्ष्ण था.

‘‘क्या हुआ?’’ सांभवी के चेहरे पर व्यथा और विद्रूप के मिश्रित भाव उभर आए थे, ‘‘बहुत प्यारा नाम है न, उस के बारे में कोई बात अच्छी कैसे लगेगी?’’

‘‘तुम से इतनी नीचता की आशा मैं ने कभी नहीं की थी. तुम ने अगर पहले ही पूछा होता, मैं बता देता अब तक लेकिन लगातार तुम ने बिना समझे व्यंग्य और आघात का सहारा लिया. जानने की कोशिश किए बिना ही सब समझ चुकी थी तुम.

‘‘शुचि के पिता की सालभर पहले कैंसर से मौत हुई. वे मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे. हम से 3 साल बड़े थे. गांव से शहर हम एकसाथ स्कूल आते थे. फिर मैं शहर आ गया और वे गांव में ही खेतीकिसानी करते रहे. शुचि की मां की अचानक मृत्यु के बाद शुचि को उन्होंने इस शहर में अपने छोटे भाई के परिवार में भेज दिया और मुझे शुचि के एडमिशन से ले कर पढ़ाई व संगीत सिखाने का दायित्व दिया. सालभर पहले एक बार मैं गांव गया था, तुम्हें याद होगा, उस वक्त शुचि मेरे साथ ही गई थी क्योंकि मेरा दोस्त और उस के पापा मौत के कगार पर खड़े हम दोनों को साथ बुला रहे थे. मेरे जाते ही शुचि को मेरे हाथ में सौंप कर कहा, ‘अब से ये तेरी बेटी, भले तेरा अपना घरपरिवार रहे, तू पिता भी बने, यह अपने चाचा के पास रहे. लेकिन अब से यह तेरी बेटी हुई.’’

मैं ने दोस्त की ओर देख कर कहा, ‘‘शुचि मेरी बेटी और मेरी ही बेटी है.’’ दोस्त ने आंखें मूंद लीं.’’

सांभवी को अपने व्यवहार पर अफसोस तो खूब हुआ लेकिन जरा अहं आड़े आ गया, कहा, ‘‘जब ऐसी बात थी तो इतनी चुप्पी की क्या जरूरत थी? पहले ही कह देते.’’

‘‘चलो, अब कह देता हूं. तुम स्वप्निल के पास जाना चाहती हो तो आजाद हो.’’

पिघलती सी सांभवी फिर से अचानक जम गई. मेहुल क्या वाकई उसे नहीं चाहता, चाहता तो सुधरती हुई बात को बिगाड़ता क्यों भला? वह उठ कर चली गई.

सांभवी ने मेहुल को चुभोने के लिए स्वप्निल को मेहुल के सामने ही फोन किया, ‘‘स्वप्निल, क्या मैं ही आ जाऊं तुम्हारे पास हमेशा के लिए?’’

‘‘डियरैस्ट, कुछ अच्छा पाने के लिए सब्र की जरूरत होती है. तुम क्यों नहीं तब तक अपने लेखन पर ध्यान लगाती?’’

सांभवी को दिमाग में दर्द के गरम सीसे पिघलते से लगे. कई तरह की भावनाओं के जोड़घटाव, गुणाभाग में उलझ कर वह पस्त हो गई और बिस्तर पर निढाल पड़ गई.

दो दिनों तक मेहुल और सांभवी पतझर से बिखरे रहे.

तीसरे दिन मेहुल आ कर सोफे पर सांभवी के पास बैठ गया. वह दीवारों को ताकती शून्य सी बैठी थी.

‘‘तो क्या सोचा, कब जा रही हो स्वप्निल के पास?’’

‘‘क्या बात क्या है? जाना जरूरी है क्या?’’

‘‘क्यों नहीं, मेरे पास रह कर तो तुम प्यासी बंदिनी हो.’’

‘‘हां, हूं. उस से ज्यादा क्या हूं? तुम ने जाना है कभी खुद को?’’

‘‘मैं बुरा हूं तो तुम किसी के पास भी चली जाओगी?’’

‘‘तुम कैसे जानते हो वह कैसा है? सोनोग्राफी करवाई उस के आंत की?’’

‘‘हां करवाई.’’

‘‘क्यों, तुम उस के पास जाना चाहती हो इसलिए.’’

‘‘क्यों, तुम्हें क्या?’’

‘‘क्यों नहीं, उसे बिना परखे कैसे जाने दूं तुम्हें?’’

‘‘क्यों, बताओ?’’

‘‘क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम ऐसे हाथ में पड़ो जहां तुम्हारी कद्र नहीं. वह अपने परिवार और बच्चे के आगे तुम्हारा मोल कौड़ी का भी नहीं रखता. उस के लिए तुम कहानियों की एक मशीन हो, बस. क्या तुम कुछ भी नहीं समझती? उस के लिए उस की बीवी सब है, तुम नशे की हालत में हो.’’

‘‘जहन्नुम में जाने दो मुझे, मैं ने खुद को तुम पर थोप कर देख लिया बहुत.’’

‘‘नहीं,’’ मेहुल लिपट गया उस से. सांभवी का चेहरा उस के हाथों में था. मेहुल के होंठ सांभवी की आंखों के उन भारी पलकों पर आ कर रुक गए थे जहां जाने किन सदियों से अभिमान के घने मेघ जमे थे.

सांभवी ने मेहुल के कंधे पर सिर रख दिया.

पूरी तरह निढाल हो कर वह जैसे पहली बार सुकून की सांस लेने लगी और शोख हवाओं को अभी ही मस्ती सूझ पड़ी. इन के गुदगुदाते स्पर्श ने उन्हें इस कदर बेकाबू कर दिया कि वे दोनों हरसिंगार के फूलों की तरह एकदूसरे पर बिछबिछ गए. अब मेहुल समझ रहा था कि पतिपत्नी बन जाने के बाद भी शोखियों की कारगुजारियां कितनी मदमस्त और जिंदादिल होती हैं और रिश्तों की मजबूत बुनावट के लिए कितना जरूरी भी.

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