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Beautiful Story : उम्र के उस मोड़ पर

Beautiful Story :  आज रविवार है. पूरा दिन बारिश होती रही है. अभी थोड़ी देर पहले ही बरसना बंद हुआ था. लेकिन तेज हवा की सरसराहट अब भी सुनाई पड़ रही थी. गीली सड़क पर लाइट फीकीफीकी सी लग रही थी. सुषमा बंद खिड़की के सामने खोईखोई खड़ी थी और शीशे से बाहर देखते हुए राहुल के बारे में सोच रही थी, पता नहीं वह इस मौसम में कहां है.

बड़ा खामोश, बड़ा दिलकश माहौल था. एक ताजगी थी मौसम में, लेकिन मौसम की सारी सुंदरता, आसपास की सारी रंगीनियां दिल के मौसम से बंधी होती हैं और उस समय सुषमा के दिल का मौसम ठीक नहीं था.

विशाल टीवी पर कभी गाने सुन रहा था, तो कभी न्यूज. वह आराम के मूड में था. छुट्टी थी, निश्चिंत था. उस ने आवाज दी, ‘‘सुषमा, क्या सोच रही हो खड़ेखड़े?’’

‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही बाहर देख रही हूं, अच्छा लग रहा है.’’

‘‘यश और समृद्धि कब तक आएंगे?’’

‘‘बस, आने ही वाले हैं. मैं उन के लिए कुछ बना लेती हूं,’’ कह कर सुषमा किचन में चली गई.

सुषमा जानबूझ कर किचन में आ गई थी. विशाल की नजरों का सामना करने की उस में इस समय हिम्मत नहीं थी. उस की नजरों में इस समय बस राहुल के इंतजार की बेचैनी थी.

सुषमा और विशाल के विवाह को 20 वर्ष हो गए थे. युवा बच्चे यश और समृद्धि अपनीअपनी पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त हुए तो सुषमा को जीवन में एक रिक्तता खलने लगी. वह विशाल से अपने अकेलेपन की चर्चा करती, ‘‘विशाल, आप भी काफी व्यस्त रहने लगे हैं, बच्चे भी बिजी हैं, आजकल कहीं मन नहीं लगता, शरीर घरबाहर के सारे कर्त्तव्य तो निभाता चलता है, लेकिन मन में एक अजीब वीराना सा भरता जा रहा है. क्या करूं?’’

विशाल समझाता, ‘‘समझ रहा हूं तुम्हारी बात, लेकिन पद के साथसाथ जिम्मेदारियां भी बढ़ती जा रही हैं. तुम भी किसी शौक में अपना मन लगाओ न’’

‘‘मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता है. मन करता है कोई मेरी बात सुने, मेरे साथ कुछ समय बिताए. तुम तीनों तो अपनी दुनिया में ही खोए रहते हो.’’

‘‘सुषमा, इस में अकेलेपन की क्या बात है. यह तो तुम्हारे हाथ में है. तुम अपनी सोच को जैसे मरजी जिधर ले जाओ. अकेलापन देखो तो कहां नहीं है. आजकल फर्क बस इतना ही है कि कोई बूढ़ा हो कर अकेला हो जाता है, कोई थोड़ा पहले. इस सचाई को मन से स्वीकारो तो कोई तकलीफ नहीं होती और हां, तुम्हें तो पढ़नेलिखने का इतना शौक था न. तुम तो कालेज में लिखती भी थी. अब समय मिलता है तो कुछ लिखना शुरू करो.’’ मगर सुषमा को अपने अकेलेपन से इतनी आसानी से मुक्त होना मुश्किल लगता.

इस बीच विशाल ने रुड़की से दिल्ली एमबीए करने आए अपने प्रिय दोस्त के छोटे भाई राहुल को घर आने के लिए कहा तो सुषमा राहुल से मिलने के बाद खिल ही उठी.

होस्टल में रहने का प्रबंध नहीं हो पाया तो विजय ने विशाल से फोन पर कहा, ‘‘यार, उसे कहीं अपने आसपास ही कोई कमरा दिलवा दे, घर में भी सब लोगों की चिंता कम हो जाएगी.’’

विशाल के खूबसूरत से घर में पहली मंजिल पर 2 कमरे थे. एक कमरा यश और समृद्धि का स्टडीरूम था, दूसरा एक तरह से गैस्टरूम था, रहते सब नीचे ही थे. जब कुछ समझ नहीं आया तो विशाल ने सुषमा से विचारविमर्श किया, ‘‘क्यों न राहुल को ऊपर का कमरा दे दें. अकेला ही तो है. दिन भर तो कालेज में ही रहेगा.’’

सुषमा को कोई आपत्ति नहीं थी. अत: विशाल ने विजय को अपना विचार बताया और कहा, ‘‘घर की ही बात है, खाना भी यहीं खा लिया करेगा, यहीं आराम से रह लेगा.’’

विजय ने आभार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘ठीक है, उसे पेइंगगैस्ट की तरह रख ले.’’

विशाल हंसा, ‘‘क्या बात कर रहा है. जैसे तेरा भाई वैसे मेरा भाई.’’

राहुल अपना बैग ले आया. अपने हंसमुख स्वभाव से जल्दी सब से हिलमिल गया. सुषमा को अपनी बातों से इतना हंसाता कि सुषमा तो जैसे फिर से जी उठी. नियमित व्यायाम और संतुलित खानपान के कारण सुषमा संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी. राहुल उस से कहता, ‘‘कौन कहेगा आप यश और समृद्धि की मां हैं. बड़ी बहन लगती हैं उन की.’’

राहुल सुषमा के बनाए खाने की, उस के स्वभाव की, उस की सुंदरता की दिल खोल कर तारीफ करता और सुषमा अपनी उम्र के 40वें साल में एक नवयुवक से अपनी प्रशंसा सुन कर जैसे नए उत्साह से भर गई.

कई दिनों से विशाल अपने पद की बढ़ती जिम्मेदारियों में व्यस्त होता चला गया था. अब तो बस नाश्ते के समय विशाल हांहूं करता हुआ जल्दीजल्दी पेपर पर नजर डालता और जाने के लिए बैग उठाता और चला जाता. रात को आता तो कभी न्यूज, कभी लैपटौप, तो कभी फोन पर व्यस्त रहता. सुषमा उस के आगेपीछे घूमती रहती, इंतजार करती रहती कि कब विशाल कुछ रिलैक्स हो कर उस की बात सुनेगा. वह अपने मन की कई बातें उस के साथ बांटना चाहती, लेकिन सुषमा को लगता विशाल की जिम्मेदारियों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. उसे लगता एक चतुर अधिकारी के मुखौटे के पीछे उस का प्रियतम कहीं छिप सा गया है.

बच्चों का अपना रूटीन था. वे घर में होते तो भी अपने मोबाइल पर या टीवी में लगे रहते या फिर पढ़ाई में. वह बच्चों से बात करना भी चाहती तो अकसर दोनों बच्चों का ध्यान अपने फोन पर रहता. सुषमा उपेक्षित सी उठ कर अपने काम में लग जाती.

और अब अकेले में वह राहुल के संदर्भ में सोचने लगी. लेकिन कौन, कब, बिना कारण, बिना चेतावनी दिए इंसान के भीतर जगह पा जाता है, इस का आभास उस घटना के बाद ही होता है. सुषमा के साथ भी ऐसा ही हुआ. राहुल आया तो दिनबदिन विशाल और बच्चों की बढ़ती व्यस्तता से मन के एक खाली कोने के भरे जाने की सी अनुभूति होने लगी.

विशाल टूर पर रहता तो राहुल कालेज से आते ही कहता, ‘‘भैया गए हुए हैं. आप बोर हो रही होंगी. आप चाहें तो बाहर घूमने चल सकते हैं. यश और समृद्धि को भी ले चलिए.’’

सुषमा कहती, ‘‘वे तो कोचिंग क्लास में हैं. देर से आएंगे. चलो, हम दोनों ही चलते हैं. मैं गाड़ी निकालती हूं.’’

दोनों जाते, घूमफिर कर खाना खा कर ही आते, सुषमा राहुल को अपना पर्स कहीं निकालने नहीं देती. राहुल उस के जीवन में एक ताजा हवा का झोंका बन कर आया था. दोनों की दोस्ती का दायरा बढ़ता गया. वह अकेलेपन की खाई से निकल कर नई दोस्ती की अनुभूति के सागर में गोते लगाने लगी. अपनी उम्र को भूल कर किशोरियों की तरह दोगुने उत्साह से हर काम करने लगी. राहुल की हर बात, हर अदा उसे अच्छी लगती.

कई दिनों से अकेलेपन के एहसास से चाहेअनचाहे अपने भीतर का खाली कोना गहराई से महसूस करती आ रही थी. अब उस जगह को राहुल के साथ ने भर दिया था. कोई भी काम करती, राहुल का ध्यान आता रहता. उस का इंतजार रहता. वह लाख दिल को समझाती कि अब किसी और का खयाल गुनाह है, लेकिन दिल क्या बातें समझ लेता है? नहीं, यह तो सिर्फ अपनी ही जबान समझता है, अपनी ही बोली जानता है. उस में जो समा जाए वह जरा मुश्किल ही से निकलता है.

अब तो न चाहते हुए भी विशाल के साथ अंतरंग पलों में भी वह राहुल की चहकती आवाज से घिरने लगती. मन का 2 दिशाओं में पूरे वेग से खिंचना उसे तोड़ जाता. मन में उथलपुथल होने लगती, वह सोचती यह बैठेबैठाए कौन सा रोग लगा बैठी. यह किशोरियों जैसी बेचैनी, हर आहट पर चौंकना, कभी वह शीशे के सामने खड़ी हो कर अपनी मनोदशा पर खुद ही हंस पड़ती.

अचानक एक दिन राहुल कालेज से मुंह लटकाए आया. सुषमा ने खाने के लिए पूछा तो उस ने मना कर दिया. वह चुपचाप ड्राइंगरूम में ही गुमसुम बैठा रहा. सुषमा ने बारबार पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आज कालेज में मेरा मोबाइल खो गया है. यहां आते समय विजय भैया ने इतना महंगा मोबाइल ले कर दिया था. भैया अब बहुत गुस्सा होंगे.’’

सुषमा चुपचाप सुनती रही. कुछ बोली नहीं. लेकिन अगले ही दिन उस ने अपनी जमापूंजी से क्व15 हजार निकाल कर राहुल के हाथ पर जबरदस्ती रख दिए. राहुल मना करने लगा, लेकिन सुषमा के जोर देने पर रुपए रख लिए.

कुछ महीने और बीत गए. विशाल भी फुरसत मिलते ही राहुल के हालचाल पूछता, वैसे उस के पास समय ही नहीं रहता था. सुषमा पर घरगृहस्थी पूरी तरह से सौंप कर अपने काम में लगा रहता था. सुषमा मन ही मन पूरी तरह राहुल की दोस्ती के रंग में डूबी हुई थी. पहले उसे विशाल में एक दोस्त नजर आता था, अब उसे विशाल में एक दोस्त की झलक भी नहीं दिखती.

यह क्या उसी की गलती थी. विशाल को अब उस की कोमल भावनाएं छू कर भी नहीं जाती थीं. राहुल में उसे एक दोस्त नजर आता है. वह उस की बातों में रुचि लेता है, उस के शौक ध्यान में रखता है, उस की पसंदनापसंद पर चर्चा करता है. उसे बस एक दोस्त की ही तो तलाश थी. वह उसे राहुल के रूप में मिल गया है. उसे और कुछ नहीं चाहिए.

 

एक दिन विशाल टूर पर था. यश और समृद्धि किसी बर्थडे पार्टी में गए थे. अंधेरा हो चला था. राहुल भी अभी तक नहीं आया था. सुषमा लौन में टहल रही थी. राहुल आया, नीचे सिर किए हुए मुंह लटकाए ऊपर अपने कमरे में चला गया. सुषमा को देख कर भी रुका नहीं तो सुषमा को उस की फिक्र हुई. वह उस के पीछेपीछे ऊपर गई. जब से राहुल आया था वह कभी उस के रूम में नहीं जाती थी. मेड ही सुबह सफाई कर आती थी. उस ने जा कर देखा राहुल आंखों पर हाथ रख कर लेटा है.

सुषमा ने पूछा, ‘‘क्या हो गया, तबीयत तो ठीक है?’’

राहुल उठ कर बैठ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘तो रोनी सूरत क्यों बनाई हुई है?’’

‘‘भैया ने बाइक के पैसे भेजे थे, मेरे दोस्त उमेश की बहन की शादी है, उसे जरूरत पड़ी तो मैं ने उसे सारे रुपए दे दिए. अब भैया बाइक के बारे में पूछेंगे तो क्या कहूंगा, कुछ समझ नहीं आ रहा है. वही उमेश याद है न आप को. यहां एक बार आया था और मैं ने उसे आप से भी मिलवाया था.’’

‘‘हांहां याद आया,’’ सुषमा को वह लड़का याद आ गया जो उसे पहली नजर में ही कुछ जंचा नहीं था. बोली, ‘‘अब क्या करोगे?’’

‘‘क्या कर सकता हूं? भैया को तो यही लगेगा कि मैं यहां आवारागर्दी कर रहा हूं, वे तो यही कहेंगे कि सब छोड़ कर वापस आ जाओ, यहीं पढ़ो.’’

राहुल के जाने का खयाल ही सुषमा को सिहरा गया. फिर वही अकेलापन होगा, वही बोरियत अत: बोली, ‘‘मैं तुम्हें रुपए दे दूंगी.’’

‘‘अरे नहींनहीं, यह कोई छोटी रकम नहीं है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास बच्चों की कोचिंग की फीस रखी है. मैं तुम्हें दे दूंगी.’’

‘‘लेकिन मैं ये रुपए आप को जल्दी लौटा दूंगा.’’

‘‘हांहां, ठीक है. मुझ से कल रुपए ले लेना. अब नीचे आ कर खाना खा लो.’’

सुषमा नीचे आ गई. अपनी अलमारी खोली. सामने ही रुपए रखे थे. सोचा अभी राहुल को दे देती हूं. उसे ज्यादा जरूरत है इस समय. बेचारा कितना दुखी हो रहा है. अभी जा कर पकड़ा देती हूं. खुश हो जाएगा. वह रुपए ले कर वापस ऊपर गई. राहुल के कमरे के दरवाजे के बाहर ही उस के कदम ठिठक गए.

वह फोन पर किसी से धीरेधीरे बात कर रहा था. न चाहते हुए भी सुषमा ने कान उस की आवाज की तरफ  लगा दिए. वह कह रहा था, ‘‘यार उमेश, मोबाइल और बाइक का इंतजाम तो हो गया. सोच रहा हूं अब क्या मांगूगा. अमीर औरतों से दोस्ती करने का यही तो फायदा है, उन्हें अपनी बोरियत दूर करने के लिए कोई तो चाहिए और मेरे जैसे लड़कों को अपना शौक पूरा करने के लिए कोई चाहिए.’’

‘‘मुझे तो यह भी लगता है कि थोड़ी सब्र से काम लूंगा तो वह मेरे साथ सो भी जाएगी. बेवकूफ तो है ही… सबकुछ होते हुए भटकती घूमती है. मुझे क्या, मेरा तो फायदा ही है उस की बेवकूफी में.’’

सुषमा भारी कदमों से नीचे आ कर कटे पेड़ सी बैड पर पड़ गई. लगा कभीकभी इंसान को परखने में मात खा जाती है नजरें. ऐसे जैसे कोई पारखी जौहरी कांच को हीरा समझ बैठे.

 

तीखी कचोट के साथ उसे स्वयं पर शर्म आई. इतने दिनों से वह राहुल जैसे चालाक इंसान के लिए बेचैन रहती थी, सही कह रहा था राहुल. वही बेवकूफी कर रही थी. अकेलेपन के एहसास से उस के कदम जिस राह पर बढ़ चले थे, अगर कभी विशाल और बच्चों को उस के मन की थाह मिल जाती तो क्या इज्जत रह जाती उस की उन की नजरों में.

तभी विशाल की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘अकेलेपन से हमेशा दुखी रहने और नियति को कोसने से तो अच्छा है कि हम चीजों को उसी रूप में स्वीकार कर लें जैसी वे हैं. तुम ऐसा करोगी तभी खुल कर सांस ले पाओगी.’’

इस बात का ध्यान आते ही सुषमा को कुछ शांति सी मिली. उस ने कुदरत को धन्यवाद दिया, उम्र के इस मोड़ पर अभी इतनी देर नहीं हुई थी कि वह स्थिति को संभाल न सके. वह कल ही राहुल को यहां से जाने के लिए कह देगी और यह भी बता देगी वह इतनी बेवकूफ नहीं कि अपने पति की कमाई दूसरों की भावनाओं से खेलने वाले लड़के पर लुटा दे.

वह अपने जीवन की पुस्तक के इस दुखांत अध्याय को सदा के लिए बंद कर रही है ताकि वह अपने जीवन की नई शुरुआत कर सके. कुछ सार्थक करते हुए जीवन का शुभारंभ करने का प्रयत्न तो वह कर ही सकती है. अब वह नहीं भटकेगी. क्रोध, घृणा, अपमान और पछतावे के मिलेजुले आंसू उस की आंखों से बह निकले लेकिन अब सुषमा के मन में कोई दुविधा नहीं थी. अब वह जीएगी अपने स्वयं के सजाएसंवरे लमहे, अपनी खुद की नई पहचान के साथ अचानक मन की सारी गांठें खुल गई थीं. यही विकल्प था दीवाने मन का.

उस ने फोन उठा लिया, राहुल के भाई को फोन कर दिए गए पैसों की सूचना देने के लिए और उन्हें वापस मांगने के लिए.

Funny Story : व्यथा दो घुड़सवारों की

Funny Story : जो  भी घोड़ी पर बैठा उसे रोता हुआ ही देखा है. घोड़ी पर तो हम भी बैठे थे. क्या लड्डू मिल गया, सिवा हाथ मलने के. एक दिन एक आदमी घोड़ी पर चढ़ रहा था. मेरा पड़ोसी था इसलिए मैं ने जा कर उस के पांव पकड़ लिए और बोला, ‘‘इस से बढि़या तो बींद राजा, सूली पर चढ़ जाओ. धीमा जहर पी कर क्यों घुटघुट कर मरना चाहते हो?’’

मेरा पड़ोसी बींद राजा, मेरे प्रलाप को नहीं समझ सका और यह सोच कर कि इसे बख्शीश चाहिए, मुझे 5 का नोट थमाते हुए बोला, ‘‘अब दफा हो जा, दोबारा घोड़ी पर चढ़ने से मत रोकना मुझे,’’ यह कह कर पैर झटका और मुझ से पांव छुड़ा कर वह घुड़सवार बन गया. बहुत पीड़ा हुई कि एक जीताजागता स्वस्थ आदमी घोड़ी पर चढ़ कर सीधे मौत के मुंह में जा रहा है.

 

मैं ने उसे फिर आगाह किया, ‘‘राजा, जिद मत करो. यह घोड़ी है बिगड़ गई तो दांतमुंह दोनों को चौपट कर देगी. भला इसी में है कि इस बाजेगाजे, शोरशराबे तथा बरात की भीड़ से अपनेआप को दूर रखो.’’

बींद पर उन्माद छाया था. मेरी ओर हंस कर बोला, ‘‘कापुरुष, घोड़ी पर चढ़ा भी और रो भी रहा है. मेरी आंखों के सामने से हट जा. विवाह के पवित्र बंधन से घबराता है तथा दूसरों को हतोत्साहित करता है. खुद ने ब्याह रचा लिया और मुझे कुंआरा ही देखना चाहता है, ईर्ष्यालु कहीं का.’’

मैं बोला, ‘‘बींद राजा, यह लो 5 रुपए अपने तथा मेरी ओर से यह 101 रुपए और लो, पर मत चढ़ो घोड़ी पर. यह रेस बहुत बुरी है. एक बार जो भी चढ़ा, वह मुंह के बल गिरता दिखा है. तुम मेरे परिचित हो इसलिए पड़ोसी धर्म के नाते एक अनहोनी को मैं टालना चाहता हूं. बस में, रेल में, हवाईजहाज में, स्कूटर पर या साइकिल पर चढ़ कर कहीं चले जाओ.’’

बींद राजा नहीं माने. घोड़ी पर चढ़ कर ब्याह रचाने चल दिए. लौट कर आए तो पैदल थे. मैं ने छूटते ही कहा, ‘‘लाला, कहां गई घोड़ी?’’

 

‘‘घोड़ी का अब क्या काम? घोड़ी की जहां तक जरूरत थी वहीं तक रही, फिर चली गई.’’

‘‘इसी गति से तुम्हें साधनहीन बना कर तुम्हारी तमाम सुविधाएं धीरेधीरे छीन ली जाएंगी. कल घोड़ी पर थे, आज जमीन पर. कल तुम्हारे जमीन पर होने पर आपत्ति प्रकट की जाएगी. तब तुम कहोगे कि मैं ने सही कहा था.’’

इस बार भी बींद ने मेरी बात पर गौर नहीं फरमाया तथा ब्याहता बींदणी को ले कर घर में घुस गया. काफी दिनों बाद बींद राजा मिले तो रंक बन चुके थे. बढ़ी हुई दाढ़ी तथा मैले थैले में मूली, पालक व आलूबुखारा ले कर आ रहे थे. मैं ने कहा, ‘‘राजा, क्या बात है? क्या हाल बना लिया? कहां गई घोड़ी. इतना सारा सामान कंधे पर लादे गधे की तरह फिर रहे हो?’’

‘‘भैया, यह तो गृहस्थी का भार है. घोड़ी क्या करेगी इस में.’’

‘‘लाला, दहेज में जो घोड़ी मिली है, उस के क्या हाल हैं. वह सजीसंवरी ऊंची एड़ी के सैंडलों में बनठन कर निकलती है और आप चीकू की तरह पिचक गए हो. भला ऐसे भी घोड़ी से क्या उतरे कि कोई सहारा देने वाला ही नहीं रहा?’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. इस बीच मुझे पुत्र लाभ हो चुका है तथा अन्य कई जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. बाकी विशेष कुछ नहीं है,’’ बींद राजा बोले.

‘‘अच्छाभला स्वास्थ्य था राजा आप का. किस मर्ज ने घेरा है कि अपने को भुरता बना बैठे हो.’’

‘‘मर्ज भला क्या होगा. असलियत तो यह है, महंगाई ने इनसान को मार दिया है.’’

‘‘झूठ मत बोलो भाई, घोड़ी पर चढ़ने का फल महंगाई के सिर मढ़ रहे हो. भाई, जो हुआ सो हुआ, पत्नी के सामने ऐसी भी क्या बेचारगी कि आपातकाल लग जाता है. थोड़ी हिम्मत से काम लो. पत्नी के रूप में मिली घोड़ी को कामकाज में लगा दो, तभी यह उपयोगी सिद्ध होगी. किसी प्राइवेट स्कूल में टीचर बनवा दो,’’ मैं ने कहा.

‘‘बकवास मत करो. तुम मुझे समझते क्या हो? इतना कायर तो मैं नहीं कि बीवी की कमाई पर बसर करूं.’’

‘‘भैया, बीवी की कमाई ही अब तुम्हारे जीवन की नैया पार लगा सकती है. ज्यादा वक्त कंधे पर बोझ ढोने से फायदा नहीं है. सोचो और फटाफट पत्नी को घोड़ी बना दो. सच, तुम अब बिना घुड़सवार बने सुखी नहीं रह सकते,’’ मैं ने कहा.

पर इस बार भी राजा बनाम रंक पर मेरी बातों का असर नहीं हुआ और हांफता हुआ घर में जा घुसा तथा रसोईघर में तरकारी काटने लगा.

एक दिन बींद राजा की बींदणी मिली. मैं ने कहा, ‘‘बींदणीजी, बींद राजा पर रहम खाओ. दाढ़ी बनाने को पैसे तो दिया करो और इस जाड़े में एक डब्बा च्यवनप्राश ला दो. घोड़ी से उतरने के बाद वह काफी थक गए हैं?’’

बींदणी ने जवाब दिया, ‘‘लल्ला, अपनी नेक सलाह अपनी जेब में रखो और सुनो, भला इसी में है कि अपनी गृहस्थी की गाड़ी चलाते रहो. दूसरे के बीच में दखल मत दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘दूसरे कौन हैं. आप और हम तो एकदूसरे के पड़ोसी हैं. पड़ोसी धर्म के नाते कह रहा हूं कि घोड़े के दानापानी की व्यवस्था सही रखो. उस के पैंटों पर पैबंद लगने लगे हैं. कृपया उस पर इतना कहर मत बरपाइए कि वह धूल चाटता फिरे. किस जन्म का बैर निकाल रही हैं आप. पता नहीं इस देश में कितने घुड़सवार अपने आत्मसम्मान तथा स्वाभिमान के लिए छटपटा रहे हैं.’’

बींदणी ने खींसें निपोर दीं, ‘‘लल्ला, अपना अस्तित्व बचाओ. जीवन संघर्ष में ऐसा नहीं हो कि आप अपने में ही फना हो जाओ.’’

वह भी चली गई. मैं सोचता रहा कि आखिर इस गुलामी प्रथा से एक निर्दोष व्यक्ति को कैसे मुक्ति दिलाई जाए. अपनी तरह ही एक अच्छेभले आदमी को मटियामेट होते देख कर मुझे अत्यंत पीड़ा थी. एक दिन फिर राजा मिल गए. आटे का पीपा चक्की से पिसा कर ला रहे थे. मैं ने कहा, ‘‘अरे, राजा, तुम चक्की से पीपा भी लाने लगे. मेरी सलाह पर गौर किया?’’

‘‘किया था, वह तैयार नहीं है. कहती है हमारे यहां प्रथा नहीं रही है. औरत गृहशोभा होती है और चारदीवारी में ही उसे अपनी लाज बचा कर रहना चाहिए.’’

‘‘लेकिन अब तो लाज के जाने की नौबत आ गई. उस से कहो, तुम्हारे नौकरी करने से ही वह बचाई जा सकती है. तुम ने उसे घोड़ी पर बैठने से पहले का अपना फोटो दिखाया, नहीं दिखाया तो दिखाओ, हो सकता है वह तुम्हारे तंग हुलिया पर तरस खा कर कोई रचनात्मक कदम उठाने को तैयार हो जाए. स्त्रियों में संवेदना गहनतम पाई जाती है.’’

इस पर पूर्व घुड़सवार बींद राजा बिदक पड़े, ‘‘यह सरासर झूठ है. स्त्रियां बहुत निष्ठुर और निर्लज्ज होती हैं. तुम ने घोड़ी पर बैठते हुए मेरा पांव सही पकड़ा था. पर मैं उसे समझ नहीं पाया. आज मुझे सारी सचाइयां अपनी आंखों से दीख रही हैं.’’

‘‘घबराओ नहीं मेरे भाई, जो हुआ सो हुआ. अब तो जो हो गया है तथा उस से जो दिक्कतें खड़ी हो गई हैं, उन के निदान व निराकरण का सवाल है.’’

 

इस बार वह मेरे पांव पड़ गया और रोता हुआ बोला, ‘‘मुझे बचाओ मेरे भाई. मेरे साथ अन्याय हुआ है. मैं फिल्म संगीत गाया करता था, तेलफुलेल तथा दाढ़ी नियमित रूप से बनाया करता था. तकदीर ने यह क्या पलटा खाया है कि तमाम उम्मीदों पर पानी फिर गया.’’

मैं ने उसे उठा कर गले से लगाया और रोने में उस का साथ देते हुए मैं बोला, ‘‘हम एक ही पथ के राही हैं भाई. जो रोग तुम्हें है वही मुझे है. इसलिए दवा भी एक ही मिलनी चाहिए. परंतु होनी को टाले कौन, हमें इसे तकदीर मान कर हिम्मत से काम करना चाहिए.’’

दोनों घोड़ी से उतरे और जमीन से जुड़े आदमी अपने घरों की ओर देखने लगे. अंधेरा वहां तेजी से घना होता जा रहा था. हम ने एकदूसरे को देखा और टप से आंसू आंखों से ढुलक पड़े. भारी मन से अपनेअपने घरों में जा घुसे.

 

Hindi Kahani : सहेली का बौयफ्रेंड

Hindi Kahani : लेखक – रमेश चंद्र सिंह

रात के साढ़े 10 बज रहे थे. तृप्ति खाना खा कर पढ़ने के लिए बैठी थी. वह अपने जरूरी नोट रात में 11 बजे के बाद ही तैयार करती थी. रात में गली सुनसान हो जाती थी. कभीकभार तो कुत्तों के भूंकने की आवाज के अलावा कोई शोर नहीं होता था.

तृप्ति के कमरे का एक दरवाजा बनारस की एक संकरी गली में खुलता था. मकान मालकिन ऊपर की मंजिल पर रहती थीं. वे विधवा थीं. उन की एकलौती बेटी अपने पति के साथ इलाहाबाद में रहती थी.

नीचे छात्राओं को देने के लिए 3 छोटेछोटे कमरे बनाए गए थे. 2 कमरों के दरवाजे अंदर के गलियारे में खुलते थे. उन दोनों कमरों में भी छात्राएं रहती थीं.

 

दरवाजा बाहर की ओर खुलने का एक फायदा यह था कि तृप्ति को किसी वजह से बाहर से आने में देर हो जाती थी तो मकान मालकिन की डांट नहीं सुननी पड़ती थी.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. तृप्ति किसी अनजाने डर से सिहर उठी. उसे लगा, कोई गली का लफंगा तो नहीं. वैसे, आज तक ऐसा नहीं हुआ था. रात 10 बजे के बाद गली की ओर खुलने वाले दरवाजे को किसी ने नहीं खटखटाया था.

कभीकभार बगल वाली छात्राएं कुछ पूछने के लिए साइड वाला दरवाजा खटखटा देती थीं. उन दोनों से वह सीनियर थी, इसलिए वे भी रात में ऐसा कभीकभार ही करती थीं.

पर जब ‘तृप्ति, दरवाजा खोलो… मैं माधुरी’ की आवाज सुनाई पड़ी, तो तृप्ति ने दरवाजे की दरार से झांक कर देखा. यह माधुरी थी. उस के बगल के गांव की एक सहेली. मैट्रिक तक दोनों साथसाथ पढ़ी थीं. बाद में तृप्ति बनारस आ गई थी. बीए करने के बाद बीएचयू की ला फैकल्टी में एडमिशन लेने के लिए वह एडमिशन टैस्ट की तैयारी कर रही थी.

 

माधुरी बगल के कसबे में ही एक कालेज से बीए करने के बाद घर बैठी थी. पिता उस की शादी करने के लिए किसी नौकरी करने वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘अरे तुम… इतनी रात गए… कहां से आ रही हो?’’ हैरान होते हुए तृप्ति ने पूछा.

‘‘बताती हूं, पहले अंदर तो आने दे,’’ कुछ बदहवास और चिंतित माधुरी आते ही बैड पर बैठ गई.

‘‘एक गिलास पानी तो ला… बहुत प्यास लगी है,’’ माधुरी ने इतमीनान की सांस लेते हुए कहा. ऐसा लग रहा था मानो वह दौड़ कर आई थी.

तृप्ति ने मटके से पानी निकाल कर उसे देते हुए कहा, ‘‘गलियां अभी पूरी तरह सुनसान नहीं हुई हैं… वरना अब तक तो इस गली में कुत्ते भी भूंकना बंद कर देते हैं,’’ फिर उस ने माधुरी की ओर एक प्लेट में बेसन का लड्डू बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ खा ले, फिर पानी पीना. लगता है, तुम दौड़ कर आ रही हो?’’

माधुरी ने लड्डू खाते हुए कहा, ‘‘इतनी संकरी गली में कमरा लिया है कि तुम्हारे यहां कोई पहुंच भी नहीं सकता. यह तो मैं पिछले महीने ही आई थी इसलिए भूली नहीं, वरना जाने इतनी रात को अब तक कहां भटकती रहती.’’

‘‘पहले मैं गर्ल्स होस्टल में रहना चाहती थी, पर अगलबगल में कोई ढंग का मिल नहीं रहा था, महंगा भी बहुत था. यह बहुत सस्ते में मिल गया. यहां बहुत शांति रहती है, इसलिए इम्तिहान की तैयारी के लिए सही लगा. बस, आ गई. अगर मेरा एडमिशन बीएचयू में हो जाता है, तो आगे से वहीं होस्टल में रहूंगी.

‘‘अच्छा, अब तो बता कैसे आई हो? इतना बड़ा बैग… लगता है, काफी सामान भर रखा है इस में. कहीं जाने का प्लान है क्या?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘हां, बताती हूं. अब एक कप चाय तो पिला,’’ माधुरी बोली.

‘‘खाना खाया है या बनाऊं… लेकिन, तुम ने खाना कहां से खाया होगा. घर से सीधे आ रही हो या…’’

‘‘खाना तो नहीं खाया है. मौका ही नहीं मिला, लेकिन रास्ते में एक दुकान से ब्रैड ले ली थी. अब इतनी रात को खाने की चिंता छोड़ो. ब्रैडचाय से काम चला लूंगी मैं,’’ माधुरी ने कहा.

चाय और ब्रैड खाने के बाद माधुरी की थकान तो मिट गई थी, पर उस के चेहरे पर अब भी चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थीं.

माधुरी बोली, ‘‘तृप्ति, तुम्हें याद है, जब हम लोग 9वीं जमात में थे, तब सौरभ नाम का एक लड़का 10वीं जमात में पढ़ता था. वही लंबी नाक वाला, गोरा, सुंदर, जो हमेशा मुसकराता रहता था…’’

‘‘हां, जिस के पीछे कई लड़कियां भागती थीं… और जिस के पिता की गहनों की मार्केट में बड़ी सी दुकान थी,’’ तृप्ति ने याद करते हुए कहा.

 

‘‘हां, वही.’’

‘‘पर, बात क्या है… तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘वही तो मैं बता रही हूं. वह 2 बार मैट्रिक में फेल हुआ तो उस के पिता ने उस की पढ़ाई छुड़वा कर दुकान पर बैठा दिया. पिछले साल भैया की शादी थी. मां भाभी के लिए गहनों के लिए और्डर देने जाने लगीं तो साथ में मुझे भी ले लिया.

‘‘मैं गहनों में बहुत काटछांट कर रही थी, इसलिए उस के पिता ने गहने दिखाने के लिए सौरभ को लगा दिया, तभी उस ने मुझ से पूछा था, ‘तुम माधुरी हो न?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘हां, पर तुम कैसे जानते हो?’

‘‘उस ने बताया, ‘भूल गई क्या… हम दोनों एक ही स्कूल में तो पढ़ते थे.’

‘‘मैं उसे पहचानती तो थी, लेकिन जानबूझ कर अनजान बन रही थी. फिर उस ने मेरी ओर देखा तो शर्म से मेरी आंखें झुक गईं. उस दिन गहनों के और्डर दे कर हम लोग घर चले आए, फिर एक हफ्ते बाद मां के साथ मैं भी गहने लेने दुकान पर गई थी.

‘‘मां ने मुझ से कहा था, ‘दुकानदार का बेटा तुम्हारा परिचित है, तो दाम में कुछ छूट करा देना.’

‘‘मैं ने कहा था, ‘अच्छा मां, मैं उस से बोल दूंगी.’

‘‘पर, दाम उस के पिताजी ने लगाए. उस ने पिता से कहा, तो कुछ कम हो गया… घर आने पर मालूम हुआ कि भाभी के लिए जो सोने की अंगूठी खरीदी गई थी, वह नाप में छोटी थी. मां बोलीं, ‘माधुरी, कल अंगूठी ले जा कर बदलवा देना, मुझे मौका नहीं मिलेगा. कल कुछ लोग आने वाले हैं.’

 

‘‘मैं दूसरे दिन जब दुकान पर पहुंची तो सौरभ के पिताजी नहीं थे. मुझे देख कर वह मुसकराते हुए बोला, ‘आओ माधुरी, बैठो. आज क्या और्डर करना है?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘कुछ नहीं… बस, यह अंगूठी बदलवानी है. भाभी की उंगली में नहीं आएगी. नाप में बहुत छोटी है.’‘‘वह बोला था, ‘कोई बात नहीं,

इसे तुम रख लो. भाभी के लिए मैं दूसरी दे देता हूं.’

‘‘मैं ने छेड़ते हुए कहा था, ‘बड़े आए देने वाले… दाम तो कम कर नहीं सकते… मुफ्त में देने चले हो.’

‘‘यह सुन कर उस ने कहा था, ‘कल पिताजी मालिक थे, आज मैं हूं. आज मेरा और्डर चलेगा.’

‘‘सचमुच ही उस ने वही किया, जो कहा. मैं ने बहुत कोशिश की, लेकिन उस ने अंगूठी वापस नहीं ली. भाभी के नाप की वैसी ही दूसरी अंगूठी भी दे दी.

‘‘मैं ने डरतेडरते कहा था, ‘इस को वापस लेने से इनकार कर दिया मां.’

‘‘यह सुन कर मां ने कठोर आवाज में पूछा था, ‘किस ने? उस छोकरे ने या उस के बाप ने?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘उस के पिताजी नहीं थे, आज वही था.’

‘‘मां ने कहा था, ‘अंगूठी निकाल दे. कल मैं लौटा आऊंगी. बेवकूफ लड़की, तुम नहीं जानती, यह सुनार का छोकरा तुझ पर चारा डाल रहा है. उस की मंशा ठीक नहीं है. अब आगे से उस की दुकान पर मत जाना.’

‘‘मां की बात मुझे बिलकुल नहीं सुहाई. पिछली बार जब मैं उस की दुकान पर गई थी तब तो दाम कम कराने के लिए उसी से पैरवी करवा रही थीं. अब जब इतना बड़ा उपहार अपनी इच्छा से दिया तो नखरे कर रही हैं.

‘‘सच कहूं तृप्ति, मां के इस बरताव से मेरा सौरभ के प्रति और झुकाव बढ़ गया. उस दिन के बाद से मैं उस की दुकान पर जाने का बहाना ढूंढ़ने लगी.

 

‘‘एक दिन मौका मिल ही गया. बड़े वाले जीजाजी घर आए थे. मां ने जब भाभी के लिए खरीदे गए गहनों को दिखाया तो वे बोले, ‘सुनार ने वाजिब दाम लगाया है. मुझे भी उपहार में देने के लिए एक अंगूठी की जरूरत है. सलहज की उंगली का नाप आप के पास है ही, इस से थोड़ी अलग डिजाइन की अंगूठी मैं भी उसी दुकान से ले लेता हूं.’

‘‘मां ने कहा था, ‘माधुरी साथ चली जाएगी. दुकानदार का लड़का इस का परिचित है. कुछ छूट भी कर देगा.’

‘‘मां ने अंगूठी लौटाने वाली बात को जानबूझ कर छिपा लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि मुझ पर किसी तरह का आरोप लगे. मेरी शादी के लिए बाबूजी किसी नौकरी वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘दूसरे दिन जीजाजी के साथ जब मैं उस की दुकान पर पहुंची तब सौरभ किसी औरत को अंगूठी दिखा रहा था. मुझे देखते ही वह मुसकराया और बैठने के लिए इशारा किया. जब जीजाजी ने अंगूठी दिखाने को कहा तो उस के पिताजी ने उसी की ओर इशारा कर दिया.

‘‘तभी कोई फोन आया और उस के पिताजी बोले, ‘2-3 घंटे के लिए मैं कुछ जरूरी काम से बाहर जा रहा हूं. ये लोग पुराने ग्राहक हैं, इन का ध्यान रखना.’

‘‘यह सुन कर सौरभ के चेहरे पर मुसकान थिरक गई. वह बोला, ‘जी बाबूजी, मैं सब संभाल लूंगा.’’

‘‘जीजाजी ने एक अंगूठी पसंद की और उस का दाम पूछा. मैं ने कहा, ‘मेरे जीजाजी हैं.’

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‘‘मेरा इशारा समझ कर सौरभ ने कहा, ‘फिर तो जो आप दे दें, मुझे मंजूर होगा.’

‘‘जीजाजी ने बहुत कहा, लेकिन वह एक ही रट लगाए रहा, ‘आप जो देंगे, ले लूंगा. आप लोग पुराने ग्राहक हैं. आप लोगों से क्या मोलभाव करना है.’

‘‘जीजाजी धर्मसंकट में थे. उन्होंने अपना डैबिट कार्ड बढ़ाते हुए कहा, ‘अब मैं भी मोलभाव नहीं करूंगा. आप जो दाम भर देंगे, स्वीकार कर लूंगा.’

‘‘खैर, जीजाजी ने जो सोचा था, उस से कम दाम उस ने लगाया. उस ने हम लोगों के लिए मिठाई मंगाई और जब जीजाजी मुंह धोने वाशबेसिन की ओर गए तो वही पुरानी अंगूठी मुझे जबरन थमाते हुए कहा था, ‘अब फिर न लौटाना… नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा.’

‘‘जीजाजी देख न लें, इसलिए मैं ने उस अंगूठी को ले कर छिपा लिया.

‘‘उस दिन के बाद हम दोनों मौका निकाल कर चोरीछिपे एकदूसरे से मिलते रहे. सौरभ से मालूम हुआ कि उस के पिताजी ने पिछले साल उस की शादी एक अमीर लड़की से दहेज के लालच में करा दी थी. लड़की तो सुंदर है, लेकिन गूंगीबहरी है. वह अपने मातापिता की एकलौती बेटी है. मां का देहांत हो चुका है. पिता ने अपनी जायदाद लड़की के नाम कर दी है. शहर में एक तिमंजिला मकान भी उस की नाम से है. उस मकान से हर महीने अच्छा किराया मिलता है. रुपयापैसा उसी के अकाउंट में जमा होता है. पिताजी ने भी गहनों की यह दुकान उस के नाम कर दी है.

‘‘तृप्ति, सौरभ मुझ पर इतना पैसा खर्च करने लगा कि मैं उसी की हो कर रह गई.’’

‘‘यानी तुम ने अपना जिस्म भी उसे सौंप दिया?’’ तृप्ति ने हैरान होते हुए पूछ लिया.

‘‘क्या करती… कई बार हम लोग होटल में मिले. कोई न कोई बहाना बना कर मैं सुबह निकलती और उस के बुक कराए होटल में पहुंच जाती. शुरू में तो काफी हिचकिचाई, पर बाद में उस के आग्रह के आगे झुक गई.’’

‘‘फिर…?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘फिर क्या… मैं हर वक्त उसी के बारे में सोचने लगी. उस ने मुझे भरोसा दिलाया कि कुछ दिनों बाद वह अपनी पत्नी को तलाक दे देगा और मुझ से शादी कर लेगा.’’

‘‘और तुम्हें विश्वास हो गया?’’

‘‘उस ने शपथ ले कर कहा है. मुझे विश्वास है कि वह धोखा नहीं देगा.’’

‘‘अब बताओ कि तुम यहां कैसे आई हो?’’ तृप्ति ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘एक हफ्ता पहले जीजाजी आए थे. उन्होंने बाबूजी के सामने एक लड़के का प्रस्ताव रखा था. लड़का एक सरकारी दफ्तर में है, लेकिन बचपन से ही उस का एक पैर खराब है, इसलिए लंगड़ा कर चलता है. वह मुझ से बिना दहेज की शादी करने को तैयार है.

‘‘बाबूजी तैयार हो गए. मां ने विरोध किया तो कहने लगे, ‘एक पैर ही तो खराब है. सरकारी नौकरी है. उसे कई रियायतें भी मिलेंगी.

‘‘जब मां भी तैयार हो गईं तो मैं ने मुंह खोला, पर उन्होंने मुझे डांटते हुए कहा, ‘तुम्हें तो नौकरी मिली नहीं, अब मुश्किल से नौकरी वाला एक लड़का मिला है, तो जबान चलाती है.’

‘‘लेकिन, बात यह नहीं थी. किसी ने मां के कान में डाल दिया था कि मेरा सौरभ से मिलनाजुलना है. मां को तो उसी समय शक हो गया था, जब मैं अंगूठी बिना लौटाए आ गई थी.

‘‘इधर सौरभ मेरे लिए कुछ न कुछ हमेशा खरीदता रहता था. अब घर में क्याक्या छिपाती मैं. कोई न कोई बहाना बनाती, पर मां का शक दूर न होता. वे भी चाहती थीं कि किसी तरह जल्द से जल्द मेरी शादी हो जाए, ताकि समाज में उन की नाक न कटे.

‘‘मां का मुझ पर भरोसा नहीं रहा था. उन्होंने मुझे गांव से बाहर जाने की मनाही कर दी. उधर बाबूजी ने जीजाजी के प्रस्ताव पर हामी भर दी.

लड़के ने मेरा फोटो और बायोडाटा देख कर शादी करने का फैसला मुझ पर छोड़ दिया. बिना मुझ से सलाह लिए मांबाबूजी ने अगले महीने मेरी शादी की तारीख भी पक्की कर दी है.

‘‘मांबाबूजी का यह रवैया मुझे नागवार लगा, इसलिए मैं  सौरभ से इस संबंध में बात करना चाहती थी. मैं उस के साथ कहीं भाग जाना चाहती थी.

‘‘बहुत मुश्किल से किसी तरह दवा लाने का बहाना कर के मैं गांव से निकली. फोन पर सौरभ को सारी बातें बताईं. उस ने कहा कि मैं रात में बनारस पहुंच जाऊं. सुबह वहीं से मुंबई के लिए ट्रेन पकड़ लेंगे. उस ने रिजर्वेशन भी करा लिया है. उस का एक दोस्त वहां रहता है. मुझे दोस्त के पास रख कर वह लौट आएगा, फिर पत्नी को तलाक दे कर मुझ से शादी कर लेगा.’’

‘‘ओह… तो तुम मुंबई जाने की तैयारी कर के आई हो?’’ तृप्ति ने कहा.

‘‘हां.’’

‘‘माधुरी, तुम समझदार हो, इसलिए तुम को मैं समझा तो नहीं सकती… और फिर अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का हक सभी को है, पर हम आपस में इस बारे में बात तो कर ही सकते हैं, जिस से सही दिशा मिल सके और तुम समझ पाओ कि जानेअनजाने में तुम से कोई गलत फैसला तो नहीं हो रहा है.’’

 

‘‘बोल तृप्ति, समय कम है, मुझे सुबह निकलना भी है. यह तो मुझे भी एहसास हो रहा है कि मैं कुछ गलत कर रही हूं. पर मेरे सामने इस के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है,’’ माधुरी की चिंता उस के चेहरे से साफ झलक रही थी.

‘‘अच्छा माधुरी, सौरभ के पिता से गहनों की कीमत में छूट कराने के लिए तुम्हें सौरभ से कहना पड़ा था न?’’

‘‘हां.’’

‘‘सौरभ से तुम्हारी जानपहचान भी नहीं थी. सिर्फ इतना ही कि तुम्हारे साथ सौरभ भी एक ही स्कूल में पढ़ता था.’’

‘‘हां.’’

‘‘सौरभ के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. काफी सारा पैसा उस के बैंक अकाउंट में था, जिसे खर्चने के लिए उसे अपने पिता की इजाजत लेने की जरूरत नहीं थी.’’

‘‘यह भी सही है.’’

‘‘सौरभ की शादी उस की मरजी से नहीं हुई थी. गूंगीबहरी होने के चलते अपनी पत्नी को वह पसंद नहीं करता था. कहीं न कहीं उस के मन में किसी दूसरी सुंदर लड़की की चाह थी.’’

‘‘तुम्हारी बातों में सचाई है. कई बार उस ने ऐसा कहा था. लेकिन तुम जिरह बहुत अच्छा कर लेती हो. देखना, तुम अच्छी वकील बनोगी.’’

‘‘वह खुद जवान और सुंदर है और तुम भी उस की सुंदरता की ओर खिंचने लगी थी.’’

‘‘यह भी सही है.’’

 

‘‘फिर अब तो तुम मानोगी कि तुम से ज्यादा तुम्हारी शारीरिक सुंदरता उसे अपनी ओर खींच रही थी और पहली ही झलक में उस ने तुम में अपनी हवस पूरी की इच्छा की संभावना तलाश ली होगी. और जब तुम ने उस की सोने की महंगी अंगूठी स्वीकार कर ली तब वह पक्का हो गया कि अब तुम उस के जाल में आसानी से फंस सकती हो.

‘‘फिर वही हुआ, अपने पैसे का उस ने भरपूर इस्तेमाल किया और तुम पर बेतहाशा खर्च किया, जिस के नीचे तुम्हारा विवेक भी मर गया. तुम्हारी समझ कुंठित हो गई और तुम ने अपनी जिंदगी का सब से बड़ा धन गंवा दिया, जिसे कुंआरापन कहते हैं.’’

माधुरी के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.

‘‘बोल तृप्ति बोल, अपने मन की बात खुल कर मेरे सामने रख,’’ माधुरी उत्सुकता से उस की बातें सुन रही थी.

‘‘माधुरी, अब जिस सैक्स सुख के लिए मर्द शादी तक इंतजार करता है, वही उसे उस के पहले ही मिल जाए और उसे यह विश्वास हो जाए कि अपने पैसों से तुम्हारी जैसी लड़कियों को आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है, तो वह अपनी पत्नी को तलाक देने और दूसरी से शादी करने का झंझट क्यों मोल लेगा?

‘‘फिर वह अच्छी तरह जानता है कि उस की पत्नी की बदौलत ही उस के पास इतनी दौलत है और उसे तलाक देते ही उस को इस जायदाद से हाथ धोना पड़ जाएगा. मुकदमे का झंझट होगा, सो अलग.

 

‘‘मुझे तो लगता है, तुम किसी बड़ी साजिश की शिकार होने वाली हो. तुम से उस का मन भर गया है. अब वह तुम्हें अपने दोस्त को सौंपना चाहता है.’’

‘‘नहींनहीं…’’ अचानक माधुरी के मुंह से चीख सी निकली.

‘‘पर, इस सब में केवल सौरभ ही कुसूरवार नहीं है, तुम भी हो. तुम ने क्या सोच कर अंगूठी अपने जीजाजी और मां से छिपाई.

‘‘जीजाजी के सामने ही क्यों नहीं कहा कि सौरभ, यह अंगूठी तुम्हें उपहार में दे रहा है. मां को भी क्यों नहीं बताया कि लाख मना करने पर भी सौरभ ने अंगूठी नहीं ली.

‘‘अगर तुम ने ऐसा किया होता तो फिर सौरभ समझ जाता कि उस ने गलत जगह अपनी गोटी डाली है और वह आगे बात न बढ़ाता. जवानी और पैसे के लालच में तुम्हारी मति मारी गई थी. तुम गलत को सही और सही को गलत समझने लगी थी.

‘‘तुम्हारी मां गहनों में छूट चाहती थीं. हर ग्राहक की चाहत सस्ता खरीदने की होती है, उन की भी थी. लेकिन वे नाजायज कुछ नहीं चाहती थीं. उन्होंने धूप में अपने बाल सफेद नहीं किए हैं. उन को सौरभ की अंगूठी देने के पीछे की मंशा पता चल गई थी, इसीलिए ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दी थी.

‘‘अब तुम्हारी शादी जिस लड़के से तय हुई है, तुम उस से बात करती. उस के स्वभाव, व्यवहार और चरित्र का पता लगाती. अगर पसंद नहीं आता तो साफ इनकार कर देती. यह एक सही कदम होता. इस के लिए कई लोग तुम्हारी मदद में आगे आ जाते. तुम्हारा आत्मविश्वास बना रहता और मनोबल भी ऊंचा रहता.’’

माधुरी बोली, ‘‘एक गिलास पानी पिला तृप्ति. अब मैं सब समझ गई हूं. कल घर लौट जाऊंगी. मां से बोल दूंगी, आगे की पढ़ाई के लिए समझने मैं तृप्ति के पास आई थी. मां पूछेंगी तो तुम भी यही कह देना.’’

तृप्ति ने कहा, ‘‘कल सुबह मैं चाची को फोन कर के बता दूंगी. सौरभ को अभी तुम बोल दो. अभी वह भी सोया न होगा. बनारस आने की तैयारी में लगा होगा. उस से कहो कि मैं अब गांव लौट रही हूं. मांबाबूजी का दिल दुखाना नहीं चाहती. तुम्हारा घर तोड़ कर किसी की आह नहीं लेना चाहती.

‘‘मुझे पूरा भरोसा है कि सौरभ खुश होगा कि बला उस के सिर से टलेगी.’’

तृप्ति ने सच ही कहा था. सौरभ अभी जाग रहा था और थोड़ी देर पहले ही मुंबई वाले अपने दोस्त से कहा था, ‘यार, अब इस बला को तुम संभालो. वह सुंदर है. खर्च करोगे तो तुम्हारी हो जाएगी. जब मन भर जाएगा तो कुछ दे कर उस के गांव वाली ट्रेन पर बिठा देना. अब मुझे एक दूसरी मिल गई है.’

सौरभ ने एक छोटा सा जवाब दिया था, ‘जैसी तुम्हारी इच्छा. मैं रिजर्वेशन कैंसिल करा देता हूं.’

माधुरी का मन अब हलका था, ‘‘तृप्ति, अब एक काम और कर दे. कल क्यों आज ही घर में फोन कर दे. अभी रात के 12 बजे हैं. मांबाबूजी बहुत चिंतित होंगे. मैं चुपके से यहां आ गई हूं.’’

‘‘अच्छा, बोलती हूं…’’ तृप्ति माधुरी की मां को समझा रही थी, ‘‘चिंता न करें आंटीजी. माधुरी मेरे पास आ गई है. वह आगे पढ़ना चाहती है. आप ने उस को घर से निकलने पर बंदिश लगा दी थी न, इसलिए… हां, उसे बता कर निकलना चाहिए था… अच्छा प्रणाम, माधुरी सो गई है, कल सुबह बात कर लेगी.’’

फोन कट गया. माधुरी को अपने किए पर पछतावा तो था, पर आगे साजिश में फंसने से बच जाने की खुशी भी थी. साथ ही, अपनी सहेली तृप्ति पर गर्व भी था. दोनों सहेलियां बात करतेकरते सो गईं.

 

Sad Story : यादों के पन्‍ने


Sad Story : विभा ने झटके से खिड़की का परदा एक ओर सरका दिया तो सूर्य की किरणों से कमरा भर उठा.

‘‘मनु, जल्दी उठो, स्कूल जाना है न,’’ कह कर विभा ने जल्दी से रसोई में जा कर दूध गैस पर रख दिया.

मनु को जल्दीजल्दी तैयार कर के जानकी के साथ स्कूल भेज कर विभा अभी स्नानघर में घुसी ही थी कि फिर घंटी बजी. दरवाजा खोल कर देखा, सामने नवीन कुमार खड़े मुसकरा रहे थे.

‘‘नमस्कार, विभाजी, आज सुबहसुबह आप को कष्ट देने आ गया हूं,’’ कह कर नवीन कुमार ने एक कार्ड विभा के हाथ में थमा दिया, ‘‘आज हमारे बेटे की 5वीं वर्षगांठ है. आप को और मनु को जरूर आना है. अच्छा, मैं चलूं. अभी बहुत जगह कार्ड देने जाना है.’’

 

निमंत्रणपत्र हाथ में लिए पलभर को विभा खोई सी खड़ी रह गई. 6-7 दिन पहले ही तो मनु उस के पीछे पड़ रही थी, ‘मां, सब बच्चों की तरह आप मेरा जन्मदिन क्यों नहीं मनातीं? इस बार मनाएंगी न, मां.’

‘हां,’ गरदन हिला कर विभा ने मनु को झूठी दिलासा दे कर बहला दिया था.

जल्दीजल्दी तैयार हो विभा दफ्तर जाने लगी तो जानकी से कह गई कि रात को सब्जी आदि न बनाए, क्योंकि मांबेटी दोनों को नवीन कुमार के घर दावत पर जाना था.

घर से दफ्तर तक का बस का सफर रोज ही विभा को उबा देता था, किंतु उस दिन तो जैसे नवीन कुमार का निमंत्रणपत्र बीते दिनों की मीठी स्मृतियों का तानाबाना सा बुन रहा था.

मनु जब 2 साल की हुई थी, एक दिन नाश्ते की मेज पर नितिन ने विभा से कहा था, ‘विभा, जब अगले साल हम मनु की सालगिरह मनाएंगे तो सारे व्यंजन तुम अपने हाथों से बनाना. कितना स्वादिष्ठ खाना बनाती हो, मैं तो खाखा कर मोटा होता जा रहा हूं. बनाओगी न, वादा करो.’

नितिन और विभा का ब्याह हुए 4 साल हो चुके थे. शादी के 2 साल बाद मनु का जन्म हुआ था. पतिपत्नी के संबंध बहुत ही मधुर थे. नितिन का काम ऐसी जगह था जहां लड़कियां ज्यादा, लड़के कम थे. वह प्रसाधन सामग्री बनाने वाली कंपनी में सहायक प्रबंधक था. नितिन जैसे खूबसूरत व्यक्ति के लिए लड़कियों का घेरा मामूली बात थी, पर उस ने अपना पारिवारिक जीवन सुखमय बनाने के लिए अपने चारों ओर विभा के ही अस्तित्व का कवच पहन रखा था. विभा जैसी गुणवान, समझदार और सुंदर पत्नी पा कर नितिन बहुत प्रसन्न था.

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विलेपार्ले के फ्लैट में रहते नितिन को 6 महीने ही हुए थे. मनु ढाई साल की हो गई थी. उन्हीं दिनों उन के बगल वाले फ्लैट में कोई कुलदीप राज व सामने वाले फ्लैट में नवीन कुमार के परिवार आ कर रहने लगे थे. दोनों परिवारों में जमीन- आसमान का अंतर था. जहां नवीन कुमार दंपती नित्य मनु को प्यार से अपने घर ले जा कर उसे कभी टौफी, चाकलेट व खिलौने देते, वहीं कुलदीप राज और उन की पत्नी मनु के द्वारा छुई गई उन की मनीप्लांट की पत्ती के टूट जाने का रोना भी कम से कम 2 दिन तक रोते रहते.

एक दिन नवीन कुमार के परिवार के साथ नितिन, विभा और मनु पिकनिक मनाने जुहू गए थे. वहां नवीन का पुत्र सौमित्र व मनु रेत के घर बना रहे थे.

अचानक नितिन बोला, ‘विभा, क्यों न हम अपनी मनु की शादी सौमित्र से तय कर दें. पहले जमाने में भी मांबाप बच्चों की शादी बचपन में ही तय कर देते थे.’

नितिन की बात सुन कर सभी खिलखिला कर हंस पड़े तो नितिन एकाएक उदास हो गया. उदासी का कारण पूछने पर वह बोला, ‘जानती हो विभा, एक ज्योतिषी ने मेरी उम्र सिर्फ 30 साल बताई है.’

विभा ने झट अपना हाथ नितिन के होंठों पर रख उसे चुप कर दिया था और झरझर आंसू की लडि़यां बिखेर कर कह उठी थी, ‘ठीक है, अगर तुम कहते हो तो सौमित्र से ही मनु का ब्याह करेंगे, पर कन्यादान हम दोनों एकसाथ करेंगे, मैं अकेली नहीं. वादा करो.’

बस रुकी तो विभा जैसे किसी गहरी तंद्रा से जाग उठी, दफ्तर आ गया था.

लौटते समय बस का इंतजार करना विभा ने व्यर्थ समझा. धीरेधीरे पैदल ही चलती हुई घंटाघर के चौराहे को पार करने लगी, जहां कभी वह और नितिन अकसर पार्क की बेंच पर बैठ अपनी शामें गुजारते थे.

 

सभी कुछ वैसा ही था. न पार्क बदला था और न वह पत्थर की लाल बेंच. विभा समझ नहीं पा रही थी कि उस दिन उसे क्या हो रहा था. जहां उसे घर जाने की जल्दी रहती थी, वहीं वह जानबूझ कर विलंब कर रही थी. यों तो वह इन यादों को जीतोड़ कोशिशों के बाद किसी कुनैन की गोली के समान ही सटक कर अपनेआप को संयमित कर चुकी थी.

हालांकि वह तूफान उस के दांपत्य जीवन में आया था, तब वह अपनेआप को बहुत ही कमजोर व मानसिक रूप से असंतुलित महसूस करती थी और सोचती थी कि शायद ही वह अधिक दिनों तक जी पाएगी, पर 3 साल कैसे निकल गए, कभी पीछे मुड़ कर विभा देखती तो सिर्फ मनु ही उसे अंधेरे में रोशनी की एक किरण नजर आती, जिस के सहारे वह अपनी जिंदगी के दिन काट रही थी.

उस दिन की घटना इतना भयानक रूप ले लेगी, विभा और नितिन दोनों ने कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की थी.

एक दिन विभा के दफ्तर से लौटते ही एक बेहद खूबसूरत तितलीनुमा लड़की उन के घर आई थी, ‘‘आप ही नितिन कुमार की पत्नी हैं?’’

‘‘जी, हां. कहिए, आप को पहचाना नहीं मैं ने,’’ विभा असमंजस की स्थिति में थी.

उस आधुनिका ने पर्स में से सिगरेट निकाल कर सुलगा ली थी. विभा कुछ पूछती उस से पहले ही उस ने अपनी कहानी शुरू कर दी, ‘‘देखिए, मेरा नाम शुभ्रा है. मैं दिल्ली में नितिन के साथ ही कालिज में पढ़ती थी. हम दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते थे. अचानक नितिन को नौकरी मिल गई. वह मुंबई चला आया और मैं, जो उस के बच्चे की मां बनने वाली थी, तड़पती रह गई. उस के बाद मातापिता ने मुझे घर से निकाल दिया. फिर वही हुआ जो एक अकेली लड़की का इस वहशी दुनिया में होता है. न जाने कितने मर्दों के हाथों का मैं खिलौना बनी.’’

 

विभा को तो मानो सांप सूंघ गया था. आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया था. उस ने झट फ्रिज से बोतल निकाल कर पानी पिया और अपने ऊपर नियंत्रण रखते हुए अंदर से किवाड़ की चटखनी चढ़ा कर उस लड़की से पूछा, ‘‘तुम ने अभी- अभी कहा है कि तुम नितिन के बच्चे की मां बनने वाली थीं…’’

‘‘मेरा बेटा…नहीं, नितिन का बेटा कहूं तो ज्यादा ठीक होगा, वह छात्रावास में पढ़ रहा है,’’ युवती ने विभा की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘तुम अब क्या चाहती हो? मेरे विचार से बेहतर यही होगा कि तुम फौरन  यहां से चली जाओ. नितिन तुम्हें भूल चुका होगा और शायद तुम से अब बात भी करना पसंद नहीं करेगा. तुम्हें पैसा चाहिए? मैं अभी चेक काट देती हूं, पर यहां से जल्दी चली जाओ और फिर कभी इधर न आना?’’ विभा ने 10 हजार रुपए का चेक काट कर उसे थमा दिया.

 

‘‘इतनी आसानी से चली जाऊं. कितनी मुश्किल से तो अपने एक पुराने साथी से पैसे मांग कर यहां तक पहुंची हूं और फिर नितिन से मुझे अपने 6 साल का हिसाब चुकाना है,’’ युवती ने व्यंग्य- पूर्वक मुसकराते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद घंटी बजी. विभा ने दौड़ कर दरवाजा खोला. नितिन ने अंदर कदम रखते हुए कहा, ‘‘शुभ्रा, तुम…तुम यहां कैसे?’’

विभा की तो रहीसही शंका भी मिट चुकी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे. युवती ने अपनी कहानी एक बार फिर नितिन के सामने दोहरा दी थी.

विभा के अंदर जो घृणा नितिन के प्रति जागी थी, उस ने भयंकर रूप ले लिया था. नितिन बारबार उसे समझा रहा था, ‘‘विभा, यह लड़की शुरू से आवारा है. मेरा इस से कभी कोई संबंध नहीं था. हर पुराने सहपाठी या मित्र को यह ऐसे ही ठगती है. विभा, नासमझ न बनो. यह नाटक कर रही है.’’

पर विभा ने तो अपना सूटकेस तैयार करने में पलभर की भी देरी नहीं की थी. वह नितिन का घर छोड़ कर चली गई. कोशिश कर के नवीन कुमार के दफ्तर में उसे नौकरी भी मिल गई. कुछ समय मनु के साथ एक छोटे से कमरे में गुजार कर बाद में विभा ने फ्लैट किराए पर ले लिया था.

 

घर छोड़ने के 5-6 माह बाद ही विभा को पता चला कि वह लड़की धोखेबाज थी. उस ने डराधमका कर नितिन से बहुत सा रुपया ऐंठ लिया था. उस हादसे से वह एक तरह से अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठा था. चाह कर भी विभा फिर नितिन से मिलने न जा सकी.

नवीन कुमार के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में विभा नहीं गई. जब विभा घर पहुंची तो मनु सो चुकी थी. विभा कपड़े बदल कर निढाल सी पलंग पर जा लेटी. उस दिन न जाने क्यों उसे नितिन की बेहद याद आ रही थी.

रात के 11 बजे कच्ची नींद में विभा को जोरजोर से किवाड़ पर दस्तक सुनाई दी. स्वयं को अकेली जान यों ही एक बार तो वह घबरा उठी. फिर हिम्मत जुटा कर उस ने पूछा, ‘‘कौन है?’’

बाहर से कुलदीप राज की आवाज पहचान उस ने द्वार खोला. पुलिस की वर्दी में एक सिपाही को देख एकाएक उस के पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई.

‘‘आप ही विभा हैं?’’ सिपाही ने पूछा.

‘‘ज…ज…जी, कहिए.’’

‘‘आप के पति का एक्सीडेंट हो गया है. नशे की हालत में एक टैक्सी से टकरा गए हैं. उन की जेब में मिले कागजों व आप के पते तथा फोटो से हम यहां तक पहुंचे हैं. आप तुरंत हमारे साथ चलिए.’’

 

‘‘कैसे हैं वह?’’

‘‘घबराएं नहीं, खतरे की कोई बात नहीं है,’’ सिपाही ने सांत्वना भरे स्वर में कहा.

विभा का शरीर कांप रहा था. हृदय की धड़कन बेकाबू सी हो गई थी. एक पल में ही विभा सारी पिछली बातें भूल कर तुरंत मनु को पड़ोसियों को सौंप कर अस्पताल पहुंची.

नितिन गहरी बेहोशी में था. काफी चोट आई थी. डाक्टर के आते ही विभा पागलों की भांति उसे झकझोर उठी, ‘‘डाक्टर साहब, कैसे हैं मेरे पति? ठीक तो हो जाएंगे न…’’

डाक्टर ने विभा को तसल्ली दी, ‘‘खतरे की कोई बात नहीं है. 2-3 जगह चोटें आई हैं, खून काफी बह गया है. लेकिन आप चिंता न करें. 4-5 दिन में इन्हें घर ले जाइएगा.’’

विभा के मन को एक सुखद शांति मिली थी कि उस के नितिन का जीवन खतरे से बाहर है.

5वें दिन विभा नितिन को ले कर घर आ गई थी. अस्पताल में दोनों के बीच जो मूक वार्त्तालाप हुआ था, उस में सारे गिलेशिकवे आंसुओं की नदी बन कर बह गए थे.

 

बचपन में विभा के स्कूल की एक सहेली हमेशा उस से कहती थी, ‘विभा, एक बार कुट्टी कर के जब दोबारा दोस्ती होती है तो प्यार और भी गहरा हो जाता है.’ उस दिन विभा को यह बात सत्य महसूस हो रही थी.

नितिन ने विभा से फिर कभी शराब न पीने का वादा किया था और उन की गृहस्थी को फिर एक नई जिंदगी मिल गई थी.

इतने वर्ष कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला था. उस दिन विभा की बेटी मनु की शादी हो रही थी.

‘‘नितिन, वह ज्योतिषी कितना ढोंगी था, जिस ने तुम्हें फुजूल मरनेजीने की बात बता कर वहम में डाला था. चलो, मनु का कन्यादान करने का समय हो रहा है,’’ विभा ने मुसकराते हुए कहा.

विदाई के समय विभा ने मनु को सीख दी थी, ‘‘मनु, कभी मेरी तरह तुम भी निराधार शक की शिकार न होना, वरना हंसतीखेलती जिंदगी रेगिस्तान के तपते वीराने में बदल जाएगी.’’

 

Beautiful Story : बुरके वाली का दीदार

Beautiful Story : अपनी कंजूसी की आदत पर अब अमन को गुस्सा आने लगा था. जब कंपनी ने पहले दर्जे के टिकट का खर्चा दिया था, तो वह नाहक ही दूसरे दर्जे के डब्बे में सफर क्यों कर रहा था?

‘और पिसो मक्खीचूस…’ खुद को कोसते हुए अमन ने एक नजर पूरे डब्बे में डाली. एक से बढ़ कर एक गंवार किस्म के लोग बैठे हुए थे. न बैठने की तमीज, न खानेपीने की.

सामने बैठा धोती वाला आदमी आधे घंटे से ‘चबरचबर’ की तेज आवाज करते हुए चने खाए जा रहा था. खाए तो ठीक, लेकिन खाने का यह भी कोई ढंग हुआ?

चने खाते हुए अचानक उस आदमी को जोर से छींक आ गई. बगैर मुंह पर हाथ रखे उस ने जो छींका, तो मुंह में पिसते चनों का आधा हिस्सा सीधे अमर के झक सफेद कुरते पर आ गिरा.

गुस्सा तो ऐसा आया कि उठ कर

2-4 तमाचे लगा दे, लेकिन उस की बड़ी उम्र देख कर अमन रुक गया

और तेज आवाज में कहा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है?’’

अमन सोच रहा था, शायद वह माफी मांगेगा, पर यह क्या? वह तो…

‘‘इस में बदतमीजी की क्या बात है? छींक आ गई, तो इस में मैं क्या कर सकता हूं? जानबूझ कर तो नहीं छींका है,’’ उस आदमी ने दलील दी.

‘‘लेकिन, छींकते वक्त मुंह पर हाथ तो रखा जा सकता है,’’ अमन तमीज सिखाने की गरज से बोला.

धोती वाला आदमी बहाना करने लगा, ‘‘आप की बात ठीक है, पर मैं हाथ रखता उस से पहले ही…’’

‘‘पहले क्या…? मेरे कुरते की तो ऐसी की तैसी हो गई न,’’ अमन बिफरते हुए बोला.

‘‘इस में गुस्सा करने की क्या जरूरत है? लाइए, मैं साफ कर दूं,’’ रूमाल से कुरता साफ करने के लिए वह अमन की तरफ झुका. उस के ऐसा करने में भी दिखावटीपन साफ झलक रहा था.

‘‘बसबस, ठीक है,’’ अमन के ऐसा कहते ही वह आदमी दोबारा अपनी सीट पर पसर गया और उसी अंदाज में चने चबाने लगा.

डब्बा दूसरे दर्जे का था. हर स्टेशन पर मुसाफिर भी दर्जे के हिसाब से ही चढ़तेउतरते. तकरीबन 2 घंटे से कोई भली सूरत नजर नहीं आई थी. कुछ नहीं तो एकाध जनाना शक्ल ही दिख जाए. बीड़ी पर बीड़ी फूंकते इन अक्खड़ मर्दों की शक्लें देखदेख कर तो अमन का मन ऐसा होने लगा, जैसे अगले स्टेशन पर उतर कर पहले दर्जे के डब्बे में चढ़ जाए. जाना भी बहुत दूर था.

गाड़ी प्रीतमपुर स्टेशन पर खड़ी थी. चाय, समोसा और ठंडा वगैरह की तेज आवाजों से किसी तरह अपना ध्यान हटाते हुए अमन नजरें उपन्यास पर गड़ाए था. अचानक इत्र की भीनी

खुशबू उस के नथुनों से टकराई. चौंकना लाजिमी था. नजरें उठा कर इधरउधर देखा, तो रेशमी बुरका पहने हुए एक औरत उस की तरफ चली आ रही थी.

वह सीधे आई और ‘धम’ से अमन के पास पड़ी खाली जगह पर बैठ गई. इत्र की खुशबू से आसपास का माहौल सराबोर हो उठा. उस ने हाथ के बैग को अपनी जांघों पर रखा और दोनों हाथों का घेरा बनाते हुए उसे पकड़ लिया.

न जाने क्यों, उस का आना अमन को अच्छा लगा. अच्छा क्यों नहीं लगता? उस बदबूदार बदसूरत लोगों के डब्बे में रेशमी कपड़े पहने, इत्र लगाए और उस पर कोई औरत, जो उस के पास बैठी हुई थी.

गाड़ी चल चुकी थी. अब अमन का मन उपन्यास पढ़ने में बिलकुल नहीं लग रहा था. लेकिन वह उसे बंद भी नहीं कर सकता था. उस के बाईं तरफ वह बुरके वाली औरत बैठी थी. दाईं ओर खिड़की थी. पढ़ना बंद करने के बाद यही चारा रहता कि खिड़की के बाहर का नजारा देखता रहे. बाईं तरफ चेहरा घुमाता तो उस बुरके वाली पर अच्छा असर नहीं पड़ता.

‘क्या पता, वह कुछ और ही सोचने लगे. चेहरे पर गिरे परदे की जाली से कहीं उस की तिरछी निगाहों ने मेरे चेहरे को उस की ओर ताकते देख लिया तो क्या सोचेगी? यही कि बदमाश है, मेरी सूरत देखने की कोशिश कर रहा है. लेकिन देखने में मैं कोई बदमाश थोड़े ही लगता हूं. बदमाश लगता तो वह मेरे पास ही क्यों बैठती? और जगहें भी तो खाली थीं…?’

पन्ने पर आंखें गड़ाए अमन यह सब सोचे जा रहा था. लेकिन इस तरह कब तक चलेगा? हिम्मत कर के उस ने उपन्यास बंद किया और उसे बैग के हवाले कर खिड़की के बाहर की तरफ देखने लगा.

बाहर देखते हुए अमन इस ताक में था कि किसी तरह एक बार उस ओर के हालात का जायजा ले ले, जहां वह औरत बैठी थी. 5 मिनट तक यों ही बाहर देखने के बाद अमन ने तेजी से अपना चेहरा बाईं तरफ घुमाया और कुछ इस तरह का स्वांग करने लगा, जैसे वह उसे नहीं, बल्कि डब्बे में बैठे दूसरे मुसाफिरों की ओर देख रहा है.

अचानक अमन की नजरें बैग थामे उस औरत की हथेलियों पर पड़ीं. पलभर को वह ठगा सा रह गया. गोरीगोरी, नरममुलायम हथेलियां व उन पर सोने की अंगूठी. कुलमिला कर नजारा देखने लायक व आंखों को अच्छा लगने वाला था. जब उस की हथेलियां यह गजब ढा रही थीं तो शक्लसूरत के लिहाज से वह… 2 मिनट तक उस की हथेलियों पर टकटकी लगाए जाने क्या सोचता रहा… उस के बाद अचानक अमन के सोचने की कड़ी तब टूटी, जब उस औरत ने अपना हाथ साथ लाए बैग में डाला.

अमन ने झटपट अपनी नजरें खिड़की की तरफ फेर लीं. उसे ऐसा लगा कि शायद उस के देखते रहने के चलते

ही उस ने हाथ बैग में डाल कर उस

का ध्यान कहीं और बंटाने की कोशिश की थी.

अमन को अपनेआप पर थोड़ा गुस्सा भी आया. क्यों वह उस की हथेलियों को एकटक निहारता रहा था?

‘सचमुच बुरा लगा होगा उसे. कहीं यह तो नहीं सोच लिया उस ने कि मेरी नजर उस के सोने की अंगूठी पर है.

‘नहींनहीं, मैं भी अजीब हूं. इतनी देर से न जाने क्या उलटासीधा सोचे जा रहा हूं? हो सकता है कि उस ने मेरी हरकतों  पर गौर ही न किया हो. लेकिन, उस के गोरे रंग और कोमल हथेलियों की याद न चाहते हुए भी बारबार दिल पर बिजली गिरा रही है,’ यह सोच कर भी अमन का मन खुश हो रहा था कि यह सुंदरी जरूर एक न एक बार परदा उठाएगी और उस का चांद सा चेहरा देखने को मिलेगा.

उस औरत के आने से पहले दूसरे दर्जे के सफर को अमन कोस रहा था. अब वही सफर उसे अपार खुशी का एहसास करा रहा था.

अमन फिर उसे देखने का मौका ढूंढ़ने लगा. अब की बार उस ने डब्बे में बैठे दूसरे मुसाफिरों की ओर नजर दौड़ाई. देखते ही वह चौंक गया. तकरीबन हर आदमी की निगाह उस बुरके वाली की तरफ थी. तिरछी निगाहों से उस की ओर देखा तो वह किताब पढ़ रही थी. यकीनन, लोगों की घूरती नजरों से बचने के लिए उस ने किताब खोली होगी.

अब आदमी तो आदमी है, दूसरों की गलतियों को ढूंढ़ने में अकसर अपनी गलतियों की ओर ध्यान नहीं देता. अमन भी तो उस बुरके वाली का चेहरा देखने की फिराक में था.

ऐसा लग रहा था कि अगले ही

पल उस के चेहरे से अमन धीरे से परदा उठा कर कहेगा, ‘वाह, क्या खूबसूरती पाई है.’

जवाब में वह सिर झुका कर शरमाते हुए कहेगी, ‘जी, तारीफ के लिए शुक्रिया.’

उसी अंदाज में अमन का सिर भी नीचे झुका तो आंखें चुंधिया गईं. क्या बेजोड़ रेशमी जूतियां पहनी थीं उस ने. चिलचिल करता बुरका, चमकती अंगूठी, कढ़ाईदार जूतियां पहने उस की मनमोहक वेशभूषा देख कर चेहरे की खूबसूरती के बारे में अमन की सोच और भी बढ़ती जा रही थी.

‘लेकिन, इस का चेहरा देखें तो कैसे? कमबख्त परदा भी तो नहीं हटाती. अच्छा है नहीं हटाती. हटा दे तो शायद कयामत आ जाए. क्या 2-4 गश खा कर गिर पड़ें.’

इधरउधर की बातें सोचने का अमन का सिलसिला टूटा तो देखा कि गाड़ी रायपुर स्टेशन पर खड़ी थी. प्यास लगने के बावजूद वह अपनी जगह से नहीं उठा. क्या पता, इधर वह उठे, उधर कोई और आ कर इस अनमोल जगह पर कब्जा कर ले जाए.

‘‘क्या आप यह पानी की बोतल भर कर ले आएंगे,’’ उस बुरके वाली ने अमन से कहा.

आवाज क्या थी, मानो शक्कर घोल रखी हो. अमन के मना करने का सवाल ही नहीं था.

‘‘अभी लाया, आप जगह का ध्यान रखिए,’’ कहते हुए अमन उठ खड़ा हुआ.

‘‘चिंता मत कीजिए, ज्यादा हुआ तो कह दूंगी कि आप मेरे साथ हैं,’’ उस ने सलीके से कहा.

‘मेरे साथ हैं’ सुन कर मन ही मन अमन इतना खुश हो गया कि होंठों पर बरबस गीत आ गया और बोतल ले कर डब्बे से नीचे उतरा.

पानी लेने जाने से ले कर आने तक उस की मीठी आवाज कानों में रस घोलती रही.

‘‘यह लीजिए,’’ भरी बोतल देते हुए अमन ने कहा.

‘‘बहुतबहुत शुक्रिया,’’ उस ने अमन की ओर देखते हुए कहा. लेकिन परदा नहीं हटाया. बड़ा गुस्सा आया. कुछ कहना है तो कम से कम परदा तो हटा देती. कौन सी नजर लग रही है?

गाड़ी चल पड़ी थी. वह औरत फिर से किताब पढ़ने में मगन हो गई. अमन उस से बात करने का जुगाड़ बैठाने की फिराक में था.

‘कैसे शुरुआत करूं? यह कहूं कि किस लेखक का उपन्यास है? नहींनहीं, कुछ इस तरह से कि आप को उपन्यास पढ़ने का शौक है?’ मेरे पूछने पर उसे अच्छा नहीं लगा तो…? या वह यही कह दे, कि ‘आप को इस से क्या? अपना काम कीजिए.’

‘लेकिन, पिछले स्टेशन पर जब पानी मंगाया था, तब तो बड़े अपनेपन से बोली थी,’ इसी उधेड़बुन में अमन उंगलियां चटकाने व बारबार दांतों से नाखून काटने लगा था.

हिम्मत कर के अमन बोलने ही वाला था कि उस की रसभरी आवाज कानों से टकराई, ‘‘आप को किताबें पढ़ने का शौक नहीं है क्या?’’

एकदम से पूछे जाने के चलते अमन  से जवाब देते नहीं बना, ‘‘हांहां, हैहै,’’ कहते हुए बैग से उस ने उपन्यास निकाल लिया.

‘‘पूरा पढ़ चुके हो, तभी अंदर रखे हुए थे?’’ कुछ सवालिया लहजे में उस ने कहा.

अमन ने कहा, ‘‘बस यों ही अच्छा नहीं था.’’

‘‘लाइए, दिखाइए तो,’’ कहते हुए उस ने बेझिझक उपन्यास अमन के हाथों से खींच लिया. इस दौरान उस की नाजुक उंगलियां अमन की हथेली से छू गईं. एक पल को शरीर में झुरझुरी दौड़ गई और पूरा बदन रोमांचित हो उठा.

पन्ने पलटते हुए बुरके वाली ने कहा, ‘‘आप को दिक्कत न हो, तो मैं यह उपन्यास पढ़ लूं.’’

अमन ने कहा, ‘‘जरूर पढि़ए. वैसे भी अभी मेरी इच्छा नहीं है,’’ लेकिन

साथ ही यह भी जोड़ दिया कि कोई खास नहीं है.

अमन नहीं चाहता था कि बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह उसे उपन्यास पढ़ने में डूब जाने के चलते खत्म हो जाए.

‘‘लग तो दिलचस्प ही रहा है,’’ शुरुआती 2-4 लाइनें पढ़ने के बाद वह बुरके वाली औरत बोली.

दरअसल, वह था ही दिलचस्प, फिर भी अमन ने कहा, ‘‘मुझे तो खास नहीं लगा. खैर, पसंद अपनीअपनी.’’

उस के बाद जो उस औरत ने पढ़ना शुरू किया, तो बोलने का नाम ही नहीं लिया. अमन खाली बैठा खिड़की के बाहर टुकुरटुकुर ताकता रहा. बीच में एकबारगी सोचा कि खाली बैठे बोर होने से अच्छा है, उस का उपन्यास मांग ले. लेकिन यह सोच कर अमन से मांगा नहीं गया कि कहीं वह यह न समझ बैठे

कि वह उस से बात करने का बहाना ढूंढ़ रहा है.

दीमापुर स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो उपन्यास से नजरें हटाते हुए कुछ चौंकने की मुद्रा में उस ने कहा, ‘‘जी, कौन सा स्टेशन आ गया है.’’

‘‘दीमापुर,’’ अमन ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘सुना है, यहां की रसमलाई बड़ी मशहूर है,’’ कुछ जिज्ञासा के अंदाज में उस ने कहा.

‘‘क्या यह वही दीमापुर है?’’ अब चौंकने की बारी अमन की थी. दरअसल, उस के दोस्त ने इस बारे में जिक्र किया था.

अमन खड़ा हुआ, तो वह बोली, ‘‘कहां जा रहे हो?’’

अमन ने कहा, ‘‘रसमलाई लेने. दोस्त ने कहा था. उधर से निकलो तो एकाध किलो लेते आना.’’

‘‘अच्छा ऐसा करिए, किलो भर मेरी भी बंधवाते लाइए,’’ कह कर उस ने पर्स से 500 रुपए का नोट निकाला.

अमन बोला, ‘‘छुट्टे दे दीजिए, दिक्कत होगी.’’

‘‘जी, छुट्टे नहीं हैं. खैर, आप दे दीजिए. अभी किसी से नोट तुड़वा कर दे दूंगी.’’

इस बीच वह हाथों को जरा भी ऊपर ले जाती तो अमन को लगता, अब चेहरे से परदा हटा, अब हटा. लेकिन कमबख्त ने फिर भी परदा नहीं हटाया.

अमन का धीरज टूटनेटूटने को हो गया. लगा कि तेजी से परदा खींचते हुए कहे, ‘अब हटा भी लीजिए, आखिर इस चांद में क्या राज छिपा है,’ पर ये बातें सोचने तक ही रहीं, जबान से बाहर नहीं निकल सकीं.

अमन मिठाई ले कर आया, तो वह बोली, ‘‘कितने हुए?’’

अमन ने तुरंत कहा, ‘‘400 रुपए.’’

‘‘जी, छुट्टे होते ही दे दूंगी,’’ उस ने कुछ इस तरह से कहा कि अमन के मुंह से निकल गया, ‘‘कोई जल्दी नहीं.’’

प्लेटफार्म छूटते ही अचानक उस ने कहा, ‘‘आप बुरा न मानें, तो मैं आप की जगह पर आ जाऊं. सफर में खिड़की के पास न बैठूं, तो जी मिचलाने लगता है.’’

‘जी नहीं मिचलाएगा तो और क्या होगा? घंटों से चेहरे के आगे परदा जो चढ़ा रखा है,’ अमन ने गुस्से से तकरीबन बुदबुदाते हुए मन ही मन कहा. मन मार कर उसे जगह बदलनी पड़ी.

बाहर का सुंदर नजारा देखते हुए अनायास उस बुरके वाली ने टूटी सलाखों वाली खिड़की से चेहरा बाहर निकाला और तकरीबन पूरी तरह गरदन को पिछले डब्बे की दिशा में मोड़ते हुए चेहरे से परदा हटा दिया.

अमन बरसों से जैसे इसी इंतजार में बैठा था. बिजली की रफ्तार से खिड़की की ओर झपटा. चेहरा देखने के लिए झुका, लेकिन उस से पहले ही बेरहम ने परदा डालते हुए सिर डब्बे के अंदर खींच लिया.

गुस्से में आ कर अमन ने अपनी मुट्ठी हथेली पर इस तरह मारी, जैसे कोई बहुत बड़े फायदे का मौका उस के हाथ से निकल गया हो.

‘‘बड़ा खूबसूरत पेड़ था,’’ उस औरत ने कहा.

चेहरा देखने का मौका चूक जाने के चलते अमन तमतमाया हुआ था. जल्दबाजी में अमन के मुंह से निकल गया, ‘‘होगा, सारे पेड़ ऐसे ही होते हैं.’’

शायद उसे अमन के कहने का ढंग अच्छा नहीं लगा. पलट कर वह फिर खिड़की से बाहर देखने लगी. इतने में नोट गिनते सामने बैठे सज्जन पर अमन की निगाह पड़ी, तो बुरके वाली से रसमलाई के पैसे लेने का खयाल दिमाग में आ गया, ‘अरे, मैं तो भूल ही गया था. अभी मांगू लूं, 500 का नोट तुड़वाने के लिए परदा जरूर उठाएगी और मैं चेहरा देख लूंगा.’

उस का छिपा चेहरा देखने की अमन की इच्छा इतनी जोर पकड़ती जा रही थी कि अमन हर बात में यही सोचता कि कैसे उस का चेहरा सामने आ जाए.

मांग तो ले, लेकिन उसे ठीक नहीं लगेगा. सोचेगी, ‘बड़ा अजीब आदमी है, एकाध घंटे के लिए भी धीरज नहीं रख सकता है. पैसे ले कर कोई भागे थोड़े ही जा रही हूं…’

‘ठीक है, नहीं मांगता. पर फिर भूल गया और वह अपने स्टेशन पर उतर गई, तो मुफ्त में 400 रुपए की चपत लग जाएगी… ऐसे कैसे उतर जाएगी? धोखा देगी क्या?’ अमन के दिमाग में उस के चेहरे की ऐसी खूबसूरती का खयाल समा गया था कि उस को सुंदरियों की रानी से कम नहीं समझता था.

लेकिन, एक बात अमन को अब खटकने लगी. आखिर बात क्या है, जो वह अपने चेहरे से परदा नहीं हटा रही? एकाध बार परदा उठा भी ले तो कौन सी आफत आ जाएगी. कहीं यह बदसूरत तो… नहींनहीं, यह बिलकुल नहीं हो सकता. उस की गोरी, नाजुक हथेलियों व रेशमी जूतियां चढ़ाए पैरों के लुभावने खयाल ने अमन की सोचनेसमझने की ताकत ही छीन ली थी.

गाड़ी की रफ्तार धीमी होते देख बुरके वाली ने खिड़की से सिर बाहर निकाल कर देखा और फिर जल्दजल्दी अपना बैग जमाने लगी. अमन को उस का स्टेशन आने का शक हुआ.  पूछा

तो सामान समेटते हुए उस ने जवाब दिया, ‘‘सुलतानगंज आ गया है, मैं यहीं उतरूंगी.’’

‘तो क्या मैं इस का चेहरा नहीं देख पाऊंगा?’ मन में निराशा सी छा गई. ‘चीं’ की तेज आवाजों के साथ ब्रेक लगे और गाड़ी सुलतानगंज स्टेशन पर आ कर खड़ी हो गई.

‘‘आइए, मैं आप को छोड़ दूं,’’ उस के उठने से साथ ही अमन भी खड़ा हो गया. हालांकि उस के पीछे अमन का लालच था कि हो सकता है, इस बीच वह चेहरे से परदा हटा दे.

‘‘आप क्यों तकलीफ कर रहे हैं? बैठिए,’’ वह तहजीब से बोली.

‘‘नहींनहीं, इस में तकलीफ की क्या बात है,’’ कहते हुए अमन उस के पीछेपीछे चलने लगा.

अब की बार अमन ने पक्का इरादा कर लिया कि चेहरा देखने की जिस इच्छा को घंटों से सजाए था, उसे यों ही खाक नहीं होने देगा. ज्यों ही वह दरवाजे के पास आई, हिम्मत बटोर कर शायराना अंदाज में अमन ने कहा, ‘‘आप बुरा न मानें, तो आप के खूबसूरत चेहरे का दीदार कर मैं अपने को खुशकिस्मत मानूंगा.’’

एक पल के इंतजार के बाद झटके से उस ने परदा ऊपर खींच लिया. चेहरा देख कर अमन हक्काबक्का रह गया. हद से बदसूरत, दाग वाली, कंजी आंखों वाला चेहरा उस के सामने था.

अलविदा की औपचारिकता निभा कर उस ने परदा गिराया और स्टेशन के मेन गेट की ओर बढ़ गई. डब्बे के दरवाजे पर बदहवास सा खड़ा अमन उसे जाते हुए देखता रहा.

गाड़ी चलने के बाद अमन लड़खड़ाते कदमों से भीतर आया, तो कुछ याद आते ही दिल पर एक बड़ा सा झटका महसूस हुआ. उस के चांद सरीखे खूबसूरत चेहरे के खयालों में मिठाई के 400 रुपए व अधूरे पढ़े उपन्यास के 100 रुपयों की बलि चढ़ गई थी. अमन निढाल हो कर अपनी सीट पर आ गिरा.

Stories : प्रश्‍नचिह्न

Stories : आयुष का बिलखने का स्वर सुन कर अंबिका लपक कर अपने ड्राइंगरूम में आई थी.

‘‘क्या हुआ, बेटे?’’ उस ने आयुष से पूछा.

‘‘पापा ने मारा,’’ आयुष गाल सहलाते हुए बोला.

‘‘यश, क्यों मारा तुम ने? 4 साल के बच्चे पर हाथ उठाते तुम्हें शर्म नहीं आई?’’ अंबिका गुस्से में पलटी, पर उस का स्वर तो मानो किसी पत्थर से टकरा कर लौट आया था. यश तक तो उस का स्वर शायद पहुंचा ही नहीं था.

एक क्षण के लिए अंबिका का मन हुआ कि बुरी तरह बिफर कर यश को इतनी खरीखोटी सुनाए कि वह फिर कभी नन्हे मासूम आयुष पर हाथ उठाने की बात सोच भी न सके. पर कुछ सोच कर चुप रह गई थी.

आयुष अब भी सिसक रहा था.

उस पर जान छिड़कने वाले पिता ने उसे क्यों मारा, यह बात उस की समझ से परे थी.

यश अपना फोन कान से लगाए न जाने किस से बातचीत में उलझा था. उस के लिए तो मानो अंबिका और आयुष हो कर भी नहीं थे वहां.

अंबिका ने आयुष को शांत कर के खिलापिला कर सुला तो दिया था पर उस के मुख पर चिंता की स्पष्ट रेखाएं थीं.

‘क्या हो गया था यश को? ऐसा तो नहीं था वह,’ अंबिका सोच में डूब गई.

परिवार का हीरेजवाहरात का पुराना कारोबार था जिसे यश और उस के बड़े भाई रतनराज मिल कर संभालते थे. उन के पिता ने घर और व्यापार का बंटवारा दोनों बेटों के बीच इतनी सावधानी से किया था कि दोनों के बीच मनमुटाव की गुंजाइश ही नहीं थी.

कारोबार में कुशल यश को जीवन की हर आकर्षक वस्तु से लगाव था. पार्टियां देना और पार्टियों में जाना हर रोज लगा ही रहता था, पर पिछले 3-4 माह से यश में आ रहे परिवर्तनों को देख कर वह हैरान थी. कभीकभी उसे लगता कि कहीं कुछ नहीं बदला, पर दूसरे ही क्षण वह कुछ घटनाओं को याद कर के घबरा उठती. हर क्षण उसे आभास होता कि यश अब पहले जैसा नहीं रहा, लेकिन बहुत सोचने पर भी उसे इस परिवर्तन का कारण समझ में नहीं आ रहा था.

कार स्टार्ट होने की आवाज सुनते ही अंबिका की तंद्रा टूटी थी. फोन पर हुई लंबी बातचीत के बाद यश कहीं चला गया था.

आयुष को उस के बिस्तर में सुला कर अंबिका बाहर निकली. वहां ड्राइवर माधव को चौकीदार से हंसीठिठोली करते देख हैरान रह गई.

‘‘तुम यहां बैठे हो, माधव? साहब की कार कौन चला कर ले गया है?’’

‘‘साहब अपनेआप चला कर ले  गए हैं. मुझे बुलाया ही नहीं,’’ माधव का उत्तर था.

‘‘तुम यहां रहते ही कब हो? पान खाने या सिगरेट पीने गए होगे. साहब कब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करते?’’ अंबिका का सारा गुस्सा माधव पर ही उतरा था.

‘‘मैं तो यहीं चौकीदार के पास बैठा था. कार स्टार्ट होने की आवाज सुन कर भाग कर उन के पास पहुंचा, पर साहब ने मेरी ओर देखा तक नहीं.’’

‘‘ठीक है,’’ अंबिका अंदर चली गई.

सोफे पर बैठ कर अंबिका देर तक शून्य में ताकती रही. यही सब बातें तो हैं जो उस के मन को खटकती हैं. यश का इस तरह उसे बिना बताए चले जाना, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ. भीड़भाड़ वाली सड़कों पर स्वयं कार चलाने से यश सदा बचता था. यदि माधव जरा भी इधरउधर चला जाए तो वह चीखचिल्ला कर घर सिर पर उठा लेता था. आज वही यश माधव को छोड़ कर स्वयं ही चला गया. अंबिका को चिंता होने लगी. उस ने यश को कौल किया पर यश ने मोबाइल फोन स्विच औफ कर रखा था.

अंबिका को अब पूरा विश्वास हो चला था कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. वह किसी से बात कर के अपने मन का बोझ हलका करना चाहती थी. अपने मातापिता को असमय फोन कर के वह परेशान नहीं कर सकती थी. यश के बड़े भाई रतनराज का विचार भी आया मन में, पर उन से फोन पर कुछ कहना ठीक न समझा. आखिर में उस ने अपनी प्रिय सहेली हर्षिता को फोन लगाया. हर्षिता उस की सब से करीबी सहेली तो थी ही, संकट की घड़ी में उस पर आंख मूंद कर विश्वास भी किया जा सकता था.

हर्षिता से फोन पर बात करते हुए अंबिका का गला भर आया, आवाज भर्रा गई.

‘‘क्या बात है, अंबिका? तुम इतनी परेशान हो और मुझे बताया तक नहीं. ये सब बातें फोन पर नहीं होतीं. तुम इंतजार करो. मैं 5 मिनट में तुम्हारे घर पहुंचती हूं,’’ हर्षिता ने आश्वासन दिया.

कुछ ही देर में हर्षिता उस के घर में थी. आते ही बोली, ‘‘अब विस्तार से बता, बात क्या है?’’

उत्तर में अंबिका उस के गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘पता नहीं हमारे हंसतेखेलते घर को किस की नजर लग गई, हर्षिता. यश को न अब मेरी चिंता है न आयुष की.’’

‘‘तुम ने उस से बात करने का प्रयत्न किया?’’

‘‘कई बार, पर यश कुछ बोलता ही नहीं. बस, मूक बन कर बैठा रहता है.’’

‘‘सारे लक्षण तो वही हैं, तुझे बहुत सावधानी से काम लेना पड़ेगा,’’ हर्षिता किसी बड़े विशेषज्ञ की तरह बोली.

‘‘कैसे लक्षण?’’

‘‘प्रेमरोग के लक्षण. मैं तो तुझे बहुत समझदार समझती थी, पर तू तो निरी बुद्धू निकली. मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि यश के जीवन में कोई और स्त्री आ गई है. उसी ने तुम लोगों के जीवन में उथलपुथल मचा दी है.’’

‘‘मैं नहीं मानती. यश में चाहे कितनी भी बुराइयां हों पर उस के चरित्र में कोई खोट नहीं है.’’

‘‘बड़ी भोली हो तुम. ऐसी स्त्रियां बहुत फरेबी होती हैं. इन के प्रभाव से तो विश्वामित्र जैसे ऋषिमुनि भी नहीं बच सके थे. यश तो फिर भी मनुष्य है.’’

‘‘ठीक है. मैं कल ही यश से बात करूंगी.’’

‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी. मैं ने कहा न, तुम्हें सावधानी से काम  लेना पड़ेगा.’’

‘‘तो क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें यश की हर गतिविधि पर नजर रखनी होगी. अच्छा होगा कि एक डायरी बना लो और उस में प्रतिदिन की घटनाएं लिखती जाओ.’’

‘‘पर कौन सी घटनाएं?’’

‘‘यही कि यश कब आता है, कब जाता है, किसकिस से मिलताजुलता है. घर आने पर उस की हर चीज का ध्यान से निरीक्षणपरीक्षण करो. सब से बड़ी बात कि यश के विरुद्ध कुछ सुबूत इकट्ठा करो.’’

‘‘उस से क्या होगा, मैं कौन सा उस के विरुद्ध कोर्टकचहरी के चक्कर लगाऊंगी?’’ अंबिका बोली.

‘‘तुम कुछ समझती नहीं हो. जब तुम यश पर किसी और स्त्री के चक्कर में होने का आरोप लगाओगी तो सुबूत तो पेश करने ही होंगे.’’

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी. मुझे पूरा विश्वास है कि यश बेवफा हो ही नहीं सकता. तुम्हें तो स्वयं पता है कि यश किस तरह हमारा खयाल रखता था.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो. हम सब यश का उदाहरण देते थकते नहीं थे, पर अब तुम खतरे की घंटी स्वयं सुन रही हो तो तुम क्या अपने परिवार को सुरक्षित नहीं रखना चाहोगी?’’ हर्षिता ने प्रश्न किया.

‘‘क्यों नहीं, इसीलिए तो तुम्हें फोन किया था. पर मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती कि स्थिति और बिगड़ जाए.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. तुम्हें केवल थोड़ा सावधान रहना होगा. तुम कहती हो कि यश लंबे समय तक फोन पर बात करता है. कम से कम फोन नंबर पता करो. एक दिन जैसे ही यश घर से निकले, तुम पीछा करो. पता तो लगे कि सचाई क्या है?’’

‘‘मैं कोशिश करूंगी, हर्षिता, पर कोई वादा नहीं करती.’’

‘‘मेरे चाचाजी पुलिस में बड़े अफसर हैं. तुम चाहो तो हम उन की मदद ले सकते हैं. वे यश से बातचीत कर के कोई न कोई समाधान अवश्य निकाल लेंगे,’’ हर्षिता ने सुझाव दिया था.

‘‘नहीं, हर्षिता, यह परिवार के सम्मान की बात है. रतन भैया को सूचित किए बिना मैं ने ऐसा कुछ किया तो वे नाराज होंगे.’’

‘‘ठीक है, तुम अच्छी तरह सोचविचार लो. क्या करना है, यह निर्णय तो तुम्हें ही लेना होगा. पर तुम्हें जब भी मेरी मदद की जरूरत हो, मैं तैयार हूं. स्वयं को कभी अकेला मत समझना,’’ हर्षिता ने आश्वासन दे कर विदा ली.

अंबिका देर तक अकेली बैठी सोचती रही. कहीं से कोई प्रकाश की किरण नजर नहीं आ रही थी. तभी अचानक उसे याद आया कि 3 दिन बाद ही आयुष का जन्मदिन है. हर वर्ष आयुष का जन्मदिन वे बड़ी धूमधाम से मनाते रहे हैं. उसे लगा कि इतनी सी बात भला उसे समझ में क्यों नहीं आई. पिछले जन्मदिन पर सब ने कितना धमाल किया था.

पांचसितारा होटल में ऐसी शानदार थीम पार्टी का आयोजन किया था यश ने कि सब ने दांतों तले उंगली दबा ली थी.

अंबिका को बड़ी राहत मिली थी. यश अवश्य ही आयुष के जन्मदिन पर ‘सरप्राइज पार्टी’ का आयोजन कर रहा है. तभी तो उस ने कुछ बताया नहीं. आज आने दो घर, खूब खबर लूंगी. कम से कम गेस्ट लिस्ट के बारे में तो उस से सलाह लेनी ही चाहिए थी.

इसी ऊहापोह में कब आंख लग गई, अंबिका को पता ही नहीं लगा. पर जब नींद खुली और यश का बिस्तर खाली देखा तो वह धक् से रह गई. यश रात को घर लौटा ही नहीं था. यदि वह घर नहीं लौटा तो उसे वह कहां ढूंढ़ने जाए. फूटफूट कर रोने का मन हो रहा था पर इस कठिन समय में आंसू भी उस का साथ छोड़ गए थे.

उस ने मशीनी ढंग से आयुष को तैयार कर स्कूल भेजा. तभी यश की कार की आवाज आई तो वह लपक कर मुख्यद्वार पर पहुंची.

‘‘कहां थे अब तक? कम से कम एक फोन ही कर दिया होता. चिंता के कारण मेरा बुरा हाल था. कल शाम से खाना तो क्या, मुंह में पानी की बूंद तक नहीं गई है,’’ अंबिका एक ही सांस में बोल गई थी पर यश बिना कोई उत्तर दिए अंदर चला गया.

‘‘मैं कुछ पूछ रही हूं, यश. मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर चाहिए.’’

‘‘बाहर नौकरों के सामने तमाशा करने की क्या जरूरत है? ये प्रश्न घर में आ कर भी पूछे जा सकते हैं,’’ यश बोला.

‘‘तो अब बता दो, यश. रातभर कहां थे तुम? और यह भी कि मुझ से ऐसा क्या अपराध हो गया है कि तुम ने इस तरह मुंह फेर लिया है? तुम बहुत बदल गए हो, यश.’’

‘‘समय के साथ हर व्यक्ति बदल जाता है. तुम्हें नहीं लगता कि तुम आजकल इतने प्रश्न पूछने लगी हो कि स्वयं एक प्रश्नचिह्न बन कर रह गई हो. बारबार मैं कहां गया था, क्यों गया था जैसे प्रश्न मत किया करो, क्योंकि मेरे पास इन के उत्तर हैं ही नहीं. तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. कल से पानी भी नहीं पिया, जैसे ताने दे कर अपनी निरीहता भी मुझे मत दिखाओ. घर में क्या खाने का सामान नहीं है? मेरी 10 से 5 की नौकरी नहीं है. तुम लोगों के ऐशोआराम के लिए बहुत खटना पड़ता है. हर समय इन बातों का ब्योरा मत मांगा करो,’’ यश ने टका सा उत्तर दिया था. हालांकि मीठा बोल बोलने वाले यश ने अपना स्वर ऊंचा नहीं किया, पर उस की बातों से अंबिका का दिल छलनी हो गया.

अगले दिन आयुष का जन्मदिन था. सुबह से ही उसे शुभकामनाएं देने वालों के फोन आने लगे थे. पर यश भोर में ही उठ कर कहीं चला गया था. आयुष कई बार पूछ चुका था कि उस के जन्मदिन की पार्टी कहां होगी?

‘सरप्राइज पार्टी’ की प्रतीक्षा करते हुए शाम घिर आई थी. आयुष कंप्यूटर गेम्स खेलने में व्यस्त था. अपने जन्मदिन की बात शायद अब वह भूल ही गया था.

‘‘आयुष, कहां हो तुम? अंबिका, यश, घर में कोई है या नहीं?’’ जैसे प्रश्नों से सारा घर गूंज उठा था. यश के बड़े भाई रतनलाल, उन की पत्नी अंजलि व उन के दोनों बच्चे आए थे.

‘‘तुम लोग तो हमें याद करते नहीं, हम ने सोचा हम ही मिल आएं. आयुष बेटे, जन्मदिन मुबारक हो,’’ रतन ने बड़ा सा डब्बा आयुष को पकड़ा दिया.

‘‘इस की जरूरत नहीं थी, भाईसाहब. हम कोई पार्टी नहीं कर रहे,’’ अंबिका उदास स्वर में बोली.

‘‘पार्टी नहीं भी कर रहे तो क्या हुआ? आयुष को जन्मदिन का उपहार तो मिलना ही चाहिए,’’ अंजलि ने प्यार से आयुष का माथा चूम लिया.

‘‘यश कहां है? तुम लोग आजकल रहते कहां हो, महीनों से यश घर नहीं आया? तुम भी हमें भूल ही गई हो,’’ अंजलि ने उलाहना दिया.

उत्तर में अंबिका के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला. वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकी और फफक कर रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ?’’ अंजलि और रतन ने हैरानपरेशान स्वर में पूछा. बच्चे भी टकटकी लगा कर अंबिका को ही घूर रहे थे.

‘‘तुम लोग अंदर जा कर खेलो,’’ रतन ने बच्चों से कहा.

अंबिका ने आंसुओं को संभालते हुए रतन और अंजलि को सबकुछ बता दिया.

‘‘यश के रंगढंग बदले हुए हैं, यह तो मुझे भी लगा था. आजकल उस की किसी काम में रुचि नहीं रही, पर तुम लोगों के घरेलू जीवन में ऐसी उथलपुथल मची हुई है, इस की तो हम ने कल्पना भी नहीं की थी.

‘‘चिंता मत करो, अंबिका. मैं एकदो दिन में सब पता कर लूंगा. पहले तो मैं कल ही बच्चू से सब उगलवा लूंगा. तुम जल्दी से तैयार हो जाओ. आज आयुष के जन्मदिन की पार्टी हम ‘इंद्रप्रस्थ रिजोर्ट’ में करेंगे,’’ रतन ने कहा.

इंद्रप्रस्थ रिजोर्ट में आयुष का जन्मदिन मना कर रात में देर से लौटी थी अंबिका. आयुष प्रसन्नता से झूम रहा था.

अगली सुबह अंबिका पर मानो वज्रपात हुआ. फोन की घंटी बजी तो उनींदी सी अंबिका ने फोन उठाया.

‘‘हैलो, क्या मैं अंबिका राज से बात कर सकती हूं?’’ दूसरी ओर से किसी स्त्री का स्वर गूंजा था.

‘‘बोल रही हूं,’’ अंबिका बोली.

‘‘तुम से अधिक बेशर्म स्त्री मैं ने दूसरी नहीं देखी. जब यशराज तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता तो क्यों उस के गले पड़ी हो? छोड़ क्यों नहीं देतीं उसे?’’

‘‘कौन हो तुम? और मुझ से इस तरह बात करने का साहस कैसे हुआ तुम्हारा?’’ अंबिका की नींद हवा हो गई थी. वह ऐसे तड़प उठी मानो किसी ने बिजली का नंगा तार छुआ दिया हो.

‘‘मैं कौन हूं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, मैं जो कह रही हूं वह महत्त्वपूर्ण है. यशराज तुम्हारे साथ नहीं, मेरे साथ जीवन बिताना चाहता है. अपना और अपने बेटे का भला चाहती हो तो तुरंत बिस्तर बांधो और मुक्त कर दो मेरे यश को.’’

‘‘नहीं तो क्या कर लोगी तुम?’’ अंबिका चीखी.’’

‘‘यह तो समय आने पर ही पता चलेगा,’’ दूसरी ओर से अट्टहास सुनाई दिया.

काफी देर तक अंबिका पत्थर की मूर्ति की भांति बैठी रह गई. धीरेधीरे दिन बीता, शाम आई. देर रात गए यश घर लौटा और सोफे पर ही पसर गया. वह अब भी गहरी नींद में था.

पर आज अंबिका के संयम का बांध टूट गया. उस ने झिंझोड़ कर यश को जगाया. हैरान यश आंखें मलते हुए उठ बैठा.

‘‘तुम्हारी प्रेमलीला इस सीमा तक पहुंच जाएगी यह तो मैं ने सोचा भी नहीं था. पर मेरे जीवन में जहर घोल कर तुम इस तरह चैन से नहीं सो सकते,’’ अंबिका बिफर उठी.

‘‘बात क्या है, अंबिका? इस तरह रोष में क्यों हो?’’

‘‘मेरे रोष का कारण जानना चाहते हो तुम? मुझ से मुक्ति चाहते हो? एक बार कह कर तो देखते, मैं यह उपकार भी कर देती. पर तुम ने तो अपनी प्रेमिका से कहलवा कर मुझे अपमानित करना ही उचित समझा.’’

‘‘किस ने अपमानित किया तुम्हें, अंबिका?’’ यश सन्न रह गया.

‘‘सबकुछ जानते हुए बनने का प्रयत्न मत करो. तुम्हारी सहमति के बिना किसी का मुझ से इस तरह बात करने का साहस नहीं हो सकता.’’

‘‘आओ, अंबिका, यहां बैठो मेरे पास. मैं तुम्हें सब सच बताऊंगा. मैं ने आज तक तुम्हें कुछ नहीं बताया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि जिस नर्क की आग में मैं जल रहा था, वह मेरे हंसतेखेलते परिवार को भस्म कर दे. पर अब शायद पानी सिर से गुजर गया है.’’

‘‘कौन है वह? मुझे इस तरह धमकी देने का साहस कैसे हुआ उस का?’’

‘‘वह एक डांसर है. बार में, होटलों में और छोटेमोटे उत्सवों में नाचगा कर अपना काम चलाती है. मेरा परिचय उस से मेरे मित्र तेजाश्री ने कराया था. मैं भी शराब के नशे में शायद बहक गया था. तब से वह मुझे यह कह कर ब्लैकमेल करती रही कि मेरे संबंध के बारे में वह तुम्हें बता देगी, पत्रपत्रिकाओं में फोटो छपवा देगी. अब तक वह मुझ से लाखों रुपए ऐंठ चुकी है और अब उस ने मुझ पर दबाव डालना शुरू कर दिया कि तुम्हें छोड़ कर उस से विवाह कर लूं वरना अपने गुंडों से हमारे पूरे परिवार को तबाह करवा देगी.’’

‘‘इतना कुछ हो गया और तुम ने मुझे हवा तक नहीं लगने दी. पतिपत्नी यदि सुखदुख के साथी न हों तो दांपत्य जीवन का अर्थ ही क्या है?’’ अंबिका क्रोधित स्वर में बोली.

‘‘मुझे लगा था कि इस समस्या से मैं स्वयं निबट लूंगा पर मैं जितना इसे सुलझाने का प्रयत्न करता उतना ही उलझता जाता. अब यह नाराजगी छोड़ो और सोचो कि आगे क्या करना है,’’ यश याचनाभरे स्वर में बोला.

‘‘मैं रतन भैया को फोन कर के बुलाती हूं. रतन भैया और अंजलि भाभी कल आए थे. हम सब साथ गए थे आयुष का जन्मदिन मनाने. मैं ने उन्हें सब बता दिया था.’’

रतनराज तुरंत चले आए थे. सारी बातें विस्तार से सुन कर उन के आश्चर्य की सीमा नहीं रही. यश ऐसी मुसीबत में फंस सकता है, यह उन की समझ से परे था. अंबिका ने हर्षिता को भी बुला लिया था. वे सब मिल कर हर्षिता के चाचाजी से मिलने गए.

‘‘यह तो सीधासादा ब्लैकमेल का चक्कर है. हमारे पास तो हरदिन ऐसी सैकड़ों शिकायतें आती हैं. आप मेरी मानें तो पुलिस में रपट कर दें. इन लोगों का साहस इतना बढ़ गया है कि अब ये बड़े मुरगों को फंसाने की ताक में रहते हैं,’’ हर्षिता के अंकल ने सलाह देते हुए कहा.

रतनराज और यशराज जैसे रसूख वाले परिवार के साथ ऐसा हो सकता है, यह सोच कर सभी हैरान थे.

रतन की सलाह से यश अपने परिवार के साथ विएना चला गया.

‘‘मैं यहां सब संभाल लूंगा. तुम वहां के कार्यालय की जिम्मेदारी संभालो. वैसे भी मैं तुम्हें कुछ समय के लिए विएना भेजने की सोच रहा था,’’ रतनराज ने कहा.

हवाई जहाज में बैठने के बाद यश ने चैन की सांस ली थी. आज उसे एहसास हुआ कि अपनी परेशानियों को परिवारजनों से न बांट कर न केव?ल उस ने भूल की थी बल्कि उन पर अन्याय भी किया था. अब उसे लग रहा था कि यह तो अक्षम्य अपराध था जिस ने उसे बरबादी के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया था.

 

Best Hindi Story : छोटी बेटी कुहू

 

Best Hindi Story : वह अपने मातापिता का एकलौता बेटा था. 3 बहनें उस से बड़ी थीं. हम लोग उस के पड़ोस में रहते थे. उस के लालनपालन को देख कर बचपन से ही मैं उस से जलता था.

वह मुझ से 5 साल छोटा था, पर उसे वे सारी सुविधाएं मुहैया थीं, जिन की चाह अकसर हर बच्चे को होती है.

उस के पास खेलने के लिए महंगे खिलौने थे, पहनने को एक से एक मौडर्न पोशाकें थीं, पढ़ने के लिए तरहतरह की पत्रिकाएं और कहानियों की ढेरों किताबें थीं.

कम आमदनी के बावजूद भी उस के पिता उस की तमाम जायज और नाजायज जरूरतों को पूरा करने में खुशी महसूस करते थे, जिस की भरपाई बहनों से होती थी. उन की तो आम जरूरतें ही पूरी नहीं होती थीं.

वे तीनों एक जोड़ी कपड़े में साल निकाल देती थीं. पढ़नेलिखने के लिए किताबें और कौपियां भी नहीं होती थीं. लड़कियां पढ़लिख लें, इस की चिंता मांबाप को कतई नहीं थी. लड़कियां घर के कामकाज में लगी रहती थीं और मांबाप बेटे की देखभाल में.

दोनों बड़ी बहनों की पढ़ाई 5वीं-6ठी क्लास तक ही सिमट कर रह गई. उन्हें इस की कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि उन्होंने तो छोटी उम्र से ही  झाड़ूपोंछा से ले कर चौकाबरतन तक सभी कामों में अपनेआप को ढाल लिया था, घर का सारा काम संभाल लिया था, बल्कि ऐसा करने पर उन्हें मजबूर किया गया था, क्योंकि नौकरचाकर को तो खर्च में कटौती के लिए हटाया जा चुका था. तकलीफें तो बहनों को सहनी पड़ी थीं.

लेकिन, जो सब से ज्यादा अनदेखी की शिकार हुई थी, वह थी कुहू. बस, इसी के चलते उसे बचपन से ही पढ़ाईलिखाई में बेहद दिलचस्पी थी. घर के कामकाज से उसे न कोई लगाव था और न ही कोई इच्छा थी. वह दिनभर पढ़नेलिखने में ही लगी रहती थी, जिस का खमियाजा उसे मां की डांटफटकार से भुगतना पड़ता था.

मां से डांट पड़ती… वे कहतीं, ‘‘क्या कर लेगी पढ़लिख कर. लड़की जात है, कुछ भी कर ले, चूल्हाचौका में सिमट कर रह जाएगी. बेहतर है कि अभी से घरगृहस्थी के काम सम झ ले, नहीं तो बाद में पछताएगी. फिर न कहना कि मां ने यह सब सिखाया नहीं था.’’

कभीकभी उसे मार भी पड़ती थी. बड़ी दोनों बहनें काम करती थीं, इसलिए उन्हें मार नहीं पड़ती थी. ये सब बातें कुहू के दिलोदिमाग पर इस तरह से रचबस गई थीं कि बरसों बाद आज जब मैं उस से मिला, तो आगबबूला हो कर अपनी भड़ास निकालते हुए मु झे बताने लगी.

दरअसल, मैं उस की बड़ी बहन की शादी में शरीक होने आया था. इधरउधर की बातों के बाद जब मैं ने उस के भाई संतु के बारे में जानने की इच्छा जाहिर की, तो वह भड़क गई और अनापशनाप बकने लगी.

गुस्से में कुहू न जाने क्याक्या कह गई, ‘‘तीसरी बेटी के रूप में पैदा होना जैसे मेरे लिए एक कलंक था… शायद मांबाप की इच्छा के खिलाफ मैं पैदा हो गई थी. एक साल के बाद ही संतोष उर्फ संतु पैदा हुआ था. बेटे के आते ही घर में रौनक का माहौल बन गया था. मांबाप का उस के प्रति जरूरत से ज्यादा लाड़प्यार से मैं असहज महसूस करती. अपनेआप को मातापिता की नजरों में हमेशा गिरा हुआ पाती. अपने प्रति मां के भेदभाव को तब मैं अच्छी तरह सम झने लगी थी. मेरे पैदा होते ही गुस्से से पिता ने भगवान की फोटो को नदी में फेंक कर घर में पूजापाठ पर रोक लगा दी थी,’’ ऐसा बताते हुए कुहू फूटफूट कर रो पड़ी थी.

संतु के पैदा होते ही भगवान को घर में फिर से प्रतिष्ठित किया गया था और घर में पूजापाठ फिर से शुरू हो गया था. ऐसा कुहू ने सुना था और भी उस ने बताया कि किस तरह खानेपहनने में उन की मां उन के साथ भेदभाव किया करती थीं… ‘‘सुबह नाश्ते में अकसर हम बहनों के लिए बासी रोटी होती थी और वे भी रूखीसूखी, जबकि संतु के लिए परांठे और मक्खन. दूध, दही, फल वगैरह के लिए तो हम बहनें तरस ही जाती थीं.

‘‘संतु के खाने के बाद अगर कुछ बचता तो ही हमें नसीब होता था. एक जोड़ी स्कूल के कपड़ों से हफ्ता निकाल देती थीं… पसीने की बदबू आती थी, सहेलियां फब्तियां कसती थीं, जबकि संतु की पोशाक हमेशा लौंड्री से धुली हुई होती थी.

‘‘इस्तरी वाले पोशाक हम बहनें सिर्फ किसी खास मौके पर, जैसे गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस पर ही पहनती थीं, जिस के लिए हम शाम को स्कूल के बाद खुद अपने कपड़े धोतीं और पंखे के नीचे सुखाया करतीं…

‘‘बड़ी दीदी कपड़ों पर इस्तरी कर देतीं. कभीकभी कपड़े सूख नहीं पाते और गीले कपड़ों में ही स्कूल जाना पड़ता था… और वहीं संतु… जिसे मांबाप ने सिर पर बिठा रखा था, आज..’’  कहतेकहते कुहू दोबारा फफक कर रो पड़ी.

कुहू की इन बातों से कुछ पता चले या न चले, पर इतना तो साफ हो गया था कि संतु के किसी गैरजिम्मेदाराना बरताव से उसे गहरा सदमा पहुंचा है और वह दुखी है. ऐसे समय में मैं ने उसे कुरेदना ठीक नहीं सम झा. मैं ने उसे हिम्मत बंधा कर चुप कराया.

शादी में काफी लोग थे. पर न जाने क्यों चहलपहल में कमी कहीं न कहीं मु झे डरा रही थी. मैं 10 साल बाद इस परिवार से मिल रहा था.

मेरी 10वीं जमात के बाद पिताजी का तबादला हो गया और उस के बाद कभी कोई ऐसा मौका नहीं आया कि हम मिलते. कुहू से कालेज में बातचीत हो जाती थी… पर सीमित रूप से. कई पुराने दोस्तों से वहां मुलाकात हुई. उन लोगों से ही संतु के बारे में जानकारी मिली और उस के वहां न होने की वजह साफ हो गई.

दरअसल, कालेज में फर्स्ट ईयर के दौरान संतु पिंकी के प्रेमपाश में फंस गया था, जिस पर कुहू ने एतराज जताया था, क्योंकि कुहू पिंकी के चरित्र से अच्छी तरह वाकिफ थी.

पिंकी कुहू की हमउम्र थी. दोनों एक ही क्लास में पढ़ती थीं. पिंकी को डांस में दिलचस्पी थी. वह बचपन से ही कथक डांस की तालीम ले रही थी. स्कूल हो या कालोनी… सभी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में डांस करने के लिए उसे कहा जाता था. डांस के सिलसिले में उसे अपने ग्रुप के साथ शहर से बाहर भी जाना पड़ता था.

कुहू और पिंकी दोनों अच्छी सहेली हुआ करती थीं. दोनों का एकदूसरे के घर पर आनाजाना था. उन का एकसाथ पढ़नालिखना और घूमनाफिरना भी था. तब पिंकी के कई बौयफ्रैंड हुआ करते थे, जो शायद पिंकी के मुताबिक डांस ग्रुप से ही जुड़े थे, इसलिए कुहू उन से अनजान थी.

स्कूल जाते हुए या कभी शाम को टहलते हुए उन दोस्तों में से कोई न कोई पिंकी से मिलने आ जाता था. कई बार कुहू को उन के मिलनेजुलने का ढंग अच्छा नहीं लगता था. वह पिंकी से इस की शिकायत भी करती, पर वह किसी न किसी बहाने सबकुछ टाल जाती.

कई बार तो पिंकी रातरात भर घर से बाहर रहती, पर अपने घर पर बता कर आती कि वह कुहू के घर जाएगी गणित की प्रैक्टिस करने. कभीकभी तो किसी कार्यक्रम के लिए डांस की प्रैक्टिस करने का बहाना बना कर रातभर घर से नदारद रहती थी.

पिंकी की मां के पूछने पर कुहू वैसा ही बताती, जैसा कि उसे पिंकी के द्वारा कहने को कहा जाता था. उस के लिए कुहू को बेवजह ही  झूठ बोलना पड़ता था, जो वह नहीं चाहती थी. उन लड़कों के चालचलन पर उसे शक होने लगा था. यकीनन, ये आवारा लड़के ही थे, जिन से पिंकी का मेलजोल था.

पूछने पर पहले तो कुहू ने आनाकानी की, पर असलियत का पता चलते ही फौरन कुहू ने पिंकी से दूरी बना ली. फिर भी पिंकी कहीं न कहीं किसी रैस्टोरैंट में, पार्क में या सड़क पर किसी पेड़ की आड़ में लड़कों के साथ मटरगश्ती करती दिख ही जाती. कभी किसी के साथ तो कभी कोई और होता था. खुले आसमान में चिडि़या अपने पंख फैला कर उड़ रही थी… न कोई दिशा थी और न ही कोई मंजिल.

अब संतु की बारी थी. वह भी पिंकी के प्यार के चंगुल से बच नहीं पाया. वह पिंकी पर फिदा हो चुका था. सरेआम दोनों का मिलनाजुलना होता था.

पिंकी के साथ संतु का मेलजोल कुहू को बिलकुल बरदाश्त नहीं था, क्योंकि पिंकी की कोई भी बात उस से छिपी तो थी नहीं.

कुहू नहीं चाहती थी कि उस का भाई पिंकी के साथ रह कर बिगड़ जाए. उस की पढ़ाई में कहीं बाधा न हो.

जब कुहू ने अपना कड़ा एतराज जताया, तो संतु ने अपनी बहन को ही भलाबुरा कह डाला. तमतमाए चेहरे से अपनी बहन को ओछी सोच वाला बताया और यह भी कह डाला कि वह पिंकी से जलती है.

कुहू संतु को साफसाफ कहना चाहती थी, ‘गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड का होना हर किसी का निजी मामला है. किसी को उस में दखल देने का कोई हक नहीं है. फिर किसी के तुम्हारी गर्लफ्रैंड होने से भला मु झे कोई शिकायत या परेशानी क्यों होगी. दरअसल, परेशानी की बात यह है कि पिंकी की बुरी संगति से एतराज है.’

पर कुहू ने चुप रहना ही उचित सम झा, क्योंकि उसे यकीन था कि जल्दी ही पिंकी आदतन संतु को भी अपने हाल पर छोड़ कर किसी और को फंसा लेगी.

आखिर हुआ भी वही…  संतु को ठुकरा कर पिंकी पैसों के लिए किसी और के साथ अठखेलियां करने लगी

थी. पर एक पागल प्रेमी की तरह संतु अपनेआप को पिंकी से अलग होने की बात सोच भी नहीं सकता था.

वह पिंकी के पीछे हाथ धो कर पड़ गया. उस ने दाढ़ी बढ़ा ली और पिंकी के इर्दगिर्द चक्कर काटने लगा, ताकि पिंकी उस पर तरस खा कर फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ा ले.

पर पिंकी तो पुरानी खिलाड़ी निकली. उस ने अपना पुराना नुसखा आजमाया. नतीजतन, संतु चोटिल हालत में अस्पताल के बैड पर कराहता मिला. इन सब बातों के बावजूद अपनी बहन के साथ उस का संबंध बिगड़ा ही रहा.

संतु का पिंकी की निजी जिंदगी में दखल पिंकी और उस के बौयफ्रैंड को गवारा न हुआ. संतु से छुटकारा पाने के लिए पिंकी और उस के बौयफ्रैंड ने कोर्टमैरिज कर ली. इस में शायद उस के बौयफ्रैंड की ही पहल रही होगी.

अब तो संतु पढ़ाई वगैरह छोड़ पागलों की तरह भटकने लगा. उसे शराब की लत लग गई थी. घर पर वह कभीकभार ही आता था.

संतु की बदहाली पर घर के सभी सदस्य परेशान थे. जिस लड़के को मांबाप ने बेटियों की सामान्य जरूरतों की अनदेखी कर लाड़प्यार से पालापोसा, उस की परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ी.

आज संतु दरदर भटक रहा है. किस मांबाप से यह सब सहन होगा… घर पर पहली शादी थी और घर का एकलौता बेटा इस खुशी के मौके पर नहीं था. खुशी के माहौल में वहां मातम सा पसरा था.

संतु कुछेक साल यों ही गुमशुदा रहा. हुआ यों कि आखिरी बार जब वह घर आया था और मांबाप ने उस की शादी की बात चलाई थी, तो उस ने साफ मना कर दिया था.

संतु ने कहा था कि वह शादी नहीं करेगा और अगर करेगा भी तो किसी विधवा से करेगा. शादी और विधवा से? ऐसे बेतुके लगने वाले प्रस्ताव पर किसी की रजामंदी नहीं थी.

पहले कुहू ने ही अपना विरोध जताया था, मातापिता ने बस कुहू के फैसले पर हामी भरी थी, पर उन के अंदर की सुगबुगाहट किसी से छिपी नहीं थी. आखिर बेटा जो ठहरा.

दरअसल, उन्हें अपने बेटे के द्वारा लिए गए फैसले को किसी क्रांतिकारी कदम से कम नहीं सू झा. पर, खुल कर कुछ कहने से बचे रहे. वे कुहू के खिलाफ जा कर उसे नाराज नहीं करना चाहते थे. कुहू ही तो एकमात्र सहारा थी. वैसे भी दोनों बड़ी बहनें शादी के बाद ससुराल में थीं. संतु अपने फैसले पर अडिग रहा.

जातेजाते संतु ने इसे अपना फैसला बताते हुए कहा कि चाहे कुछ भी हो, वह ऐसा कर दिखलाएगा. संतु के मुंह से विधवा विवाह वाली बात सभी की समझ से परे थी.

संतु कहीं बाहर चला गया. किसी ने भी उसे ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की. सुनीसुनाई खबर थी कि आजकल वह हरिद्वार के किसी आश्रम में रह रहा है और योग सिखा रहा है. इस बात से पता नहीं क्यों मु झे बड़ा सुकून मिला.

मु झे महसूस हुआ कि शायद अब संतु सुधर गया है, वरना किसी विधवा से विवाह की बात उस के मन में क्यों आई. उस में मु झे समाजसुधारक की छवि नजर आने लगी. उस से मिलने की इच्छा मेरे मन में जाग गई, पर सिर्फ मन मसोस कर रह जाना पड़ा. सिवा इस के मेरे पास कोई उपाय नहीं था.

बूढ़े मांबाप के साथ अब अकेली कुहू ही रह गई. अपने मांबाप को साथ लिए इलाहाबाद आ गई. वहां वह कालेज में टीचिंग का काम कर रही है.

कुहू को दुख इस बात का था कि मांबाप की हर खुशी का ध्यान रखते हुए भी उस के लिए उन्हें कोई फिक्र न थी, बल्कि बातबात में संतु को याद कर के वे परेशान होते.

इसी सदमे में पिताजी चल बसे. संतु का कोई ठिकाना नहीं था. उसे यह खबर नहीं दी जा सकी. मैं पहुंच गया था.

कुहू की मां को अब अपने पति के खोने का गम सताने लगा था. वे कुछ ज्यादा ही बेचैन रहने लगी थीं. उन्हें शायद यह डर था कि कुहू शादी कर लेगी, तो उन का क्या होगा? वे कहां रहेंगी? इस शक से तो वह शायद पति के रहते हुए भी चिंतित थीं, लेकिन कभी खुलासा नहीं किया था.

आजकल मां के हावभाव से कुहू सम झने लगी है. कभीकभार तो अनायास ही इशारेइशारे में कुछ कह जाती हैं. अब पहले की तरह कोसती नहीं. बचपन में बातबात पर कोसती थीं. पढ़नेलिखने में बाधा पैदा करती थीं.

कितनी छोटी सोच थी कि बेटा पढ़लिख कर मांबाप के बुढ़ापे का सहारा बनेगा. बेटी पढ़ेगी तो क्या कर लेगी, आखिर ससुराल ही तो जाएगी. अपने मांबाप के लिए तो पराई ही होगी…

तभी तो बचपन से कुहू ने अपने घर में पराई होने जैसी दुखद घडि़यों को जिया है. बचपन से ही उसे पढ़ने की जिद रही है. माहौल न होने के बावजूद भी उस ने पढ़ाई जारी रखी. बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती और उन्हीं पैसों से पढ़ाई का खर्च निकालती.

एमए के बाद कुहू टीचिंग में आ गई. साथसाथ पीएचडी भी कर रही है. अपनी हैसियत पर हर टारगेट को हासिल किया है उस ने. दोनों बहनों की शादी में हाथ बंटाया, वरना उस के पिताजी की आमदनी ही कितनी थी. उस ने अपनी जिम्मेदारी से कभी मुंह नहीं मोड़ा. अब इस हालत में मां को छोड़ कर अपनी शादी की बात कैसे सोच सकती थी वह.

बचपन से ही हम एकदूसरे को चाहते थे. बड़े हुए तो बड़ी सादगी से मिलते थे. रिश्ते को निभाने में शुरू से हम ने कभी ऐसी कोई फूहड़ हरकत नहीं की, जिस से हमारे संबंध की भनक तक किसी को पड़ती.

हम दोनों के रिश्ते की बात सिर्फ हम ही जानते थे. हम एकदूसरे की तकलीफों और मजबूरियों को बखूबी सम झते थे. किसी ने भी कभी कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई, तभी तो हमारे संबंध मजबूत थे.

कुहू ने बताया कि एक दिन अचानक संतु मां को लेने आ गया. उस ने शादी कर ली थी. यही बताया था संतु ने मां को. मां तो जैसे बेटे के इंतजार में बिलकुल तैयार बैठी थीं. बेटे के साथ ऐसी गईं, मानो अचानक तय समय से पहले किसी कैदी की सजा माफ कर दी गई हो. ऐसा लगा जैसे वह यहां कैदी

की जिंदगी जी रही थीं और छुटकारा मिलते ही भाग खड़ी हुईं. कुछ कह कर भी नहीं गईं.

कुहू उन्हें जाते हुए देखती रह गई. मुड़ कर भी पीछे नहीं देखा था उन्होंने. यहां से चले जाने के बाद वह अकेली कैसे रहेगी, पूछा तक नहीं.

कुहू की 10 साल की तपस्या एक पल में भंग हो गई, मानो इस जमाने में लड़की के रूप में जन्म लेना ही पाप है. रोरो कर कुहू का बुरा हाल था. उसे दिलासा देने वाला कोई भी साथ नहीं था. उस के कहने पर एक परची में संतु अपना पता छोड़ गया था.

अचानक एक दिन कुहू ने मु झे आने को कहा. आननफानन में ही हम दोनों ने आर्य समाज विधि से शादी कर ली. सिर्फ मेरे घर के लोग शादी में थे.

कुहू ने किसी को भी नहीं बुलाया था. मां, बहनें और भाई किसी को भी नहीं. जब किसी को उस की फिक्र नहीं है, तो वह क्यों उन्हें बुलाए.

उन लोगों के प्रति कुहू के मन में गुस्सा होना मुझे लाजिमी लगा. मेरे घर के लोग इस शादी से बेहद खुश लगे.

कई महीने बीत गए. पता नहीं अचानक कुहू को मां की याद आने लगी. हम दोनों ने उन से मिलने का मन बनाया. हरिद्वार के किसी आश्रम का पता परची में लिखा था.

जब हम वहां आश्रम में पहुंच कर संतु के बारे में पूछताछ कर रहे थे, तो मैलीकुचैली साड़ी में लिपटी एक दुबली सी बुढि़या कुहू से लिपट कर रोने लगीं.

वे मां हो सकती हैं, हम ने कल्पना भी नहीं की थी. वे सूख कर कांटा हो चुकी थीं, पहचानना मुश्किल हो रहा था.

मां की हालत पर कुहू भी बिलख कर रोने लगी थी. उन्हें शांत कराया. मां हमें संतु के घर पर ले गईं. वहां संतु नहीं था और न ही उस की पत्नी. वे कई दिनों से शहर से बाहर किसी योग शिविर में गए हुए थे.

मां ने बताया कि महीने में 20 दिन वे लोग घर से बाहर रहते हैं. हमें मां की बदहाली की वजह सम झते देर नहीं लगी. वहां दीवार पर टंगी फोटो में संतु के साथ पिंकी थी.

पिंकी के पति की मौत में हत्या का जो शक जताया जा रहा था, उस की तसदीक तो नहीं हो पाई थी, पर संतु को जिस विधवा विवाह की बात पर जिद थी, उस के पीछे की कहानी साफ हो गई थी.

तकरीबन घंटाभर रहने के बाद जब हम निकलने लगे, तो मां एक साफ साड़ी में तैयार हो कर बड़ी बेबसी से कुहू के चेहरे पर उभरते भावों को अपनी सूनी निगाहों से टोह रही थीं. कुहू ने विनम्र आंखों से मेरी रजामंदी मांगी थी. मां को साथ ले कर हम वहां से वापस आ गए.

लेखक – प्रदीप कुमार रॉय 

Best Hindi Story

Online Hindi Story : देवरानी की मुहिम

Online Hindi Story : संयुक्त परिवार की छोटी बहू बने हुए रचना को एक महीना ही हुआ था कि उस ने घर के माहौल में अजीब सा तनाव महसूस किया. कुछ दिन तो विवाह की रस्मों व हनीमून में हंसीखुशी बीत गए पर अब नियमित दिनचर्या शुरू हो गई थी. निखिल औफिस जाने लगा था. सासूमां राधिका, ससुर उमेश, जेठ अनिल, जेठानी रेखा और उन की बेटी मानसी का पूरा रुटीन अब रचना को समझ आ गया था. अनिल घर पर ही रहते थे. रचना को बताया गया था कि वे क्रौनिक डिप्रैशन के मरीज हैं. इस के चलते वे कहीं कुछ काम कर ही नहीं पाते थे. उन्हें अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था. यह बीमारी उन्हें कहां, कब और कैसे लगी, किसी को नहीं पता था.वे घंटों चुपचाप अपने कमरे में अकेले लेटे रहते थे.

जेठानी रेखा के लिए रचना के दिल में बहुत सम्मान व स्नेह था. दोनों का आपसी प्यार बहनों की तरह हो गया था. सासूमां का व्यवहार रेखा के साथ बहुत रुखासूखा था. वे हर वक्त रेखा को कुछ न कुछ बुराभला कहती रहती थीं. रेखा चुपचाप सब सुनती रहती थी. रचना को यह बहुत नागवार गुजरता. बाकी कसर सासूमां की छोटी बहन सीता आ कर पूरा कर देती थी. रचना हैरान रह गई थी जब एक दिन सीता मौसी ने उस के कान में कहा, ‘‘निखिल को अपनी मुट्ठी में रखना. इस रेखा ने तो उसे हमेशा अपने जाल में ही फंसा कर रखा है. कोई काम उस का भाभी के बिना पूरा नहीं होता. तुम मुझे सीधी लग रही हो पर अब जरा अपने पति पर लगाम कस कर रखना. हम ने अपने पंडितजी से कई बार कहा कि रेखा के चक्कर से बचाने के लिए कुछ मंतर पढ़ दें पर निखिल माना ही नहीं. पूजा पर बैठने से साफ मना कर देता है.’’ रचना को हंसी आ गई थी, ‘‘मौसी, पति हैं मेरे, कोई घोड़ा नहीं जिस पर लगाम कसनी पड़े और इस मामले में पंडित की क्या जरूरत थी?’’

इस बात पर तो वहां बैठी सासूमां को भी हंसी आ गई थी, पर उन्होंने भी बहन की हां में हां मिलाई थी, ‘‘सीता ठीक कह रही है. बहुत नाच लिया निखिल अपनी भाभी के इशारों पर, अब तुम उस का ध्यान रेखा से हटाना.’’ रचना हैरान सी दोनों बहनों का मुंह देखती रही थी. एक मां ही अपनी बड़ी बहू और छोटे बेटे के रिश्ते के बारे में गलत बातें कर रही है, वह भी घर में आई नईनवेली बहू से. फिर वह अचानक हंस दी तो सासूमां ने हैरान होते हुए कहा, ‘‘तुम्हें किस बात पर हंसी आ रही है?’’

‘‘आप की बातों पर, मां.’’

सीता ने डपटा, ‘‘हम कोई मजाक कर रहे हैं क्या? हम तुम्हारे बड़े हैं. तुम्हारे हित की ही बात कर रहे हैं, रेखा से दूर ही रहना.’’ सीता बहुत देर तक उसे पता नहीं कबकब के किस्से सुनाने लगी. रेखा रसोई से निकल कर वहां आई तो सब की बातों पर बे्रक लगा. रचना ने भी अपना औफिस जौइन कर लिया था. उस की भी छुट्टियां खत्म हो गई थीं. निखिल और रचना साथ ही निकलते थे. लौटते कभी साथ थे, कभी अलग. सुबह तो रचना व्यस्त रहती थी. शाम को आ कर रेखा की मदद करने के लिए तैयार होती तो रेखा उसे स्नेह से दुलार देती, ‘‘रहने दो रचना, औफिस से आई हो, आराम कर लो.’’

‘‘नहीं भाभी, सारा काम आप ही करती रहती हैं, मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘कोई बात नहीं रचना, मुझे आदत है. काम में लगी रहती हूं तो मन लगा रहता है वरना तो पता नहीं क्याक्या टैंशन होती रहेगी खाली बैठने पर.’’ रचना उन का दर्द समझती थी. पति की बीमारी के कारण उस का जीवन कितना एकाकी था. मानसी की भी चाची से बहुत बनती थी. रचना उस की पढ़ाई में भी उस की मदद कर देती थी. 6 महीने बीत गए थे. एक शनिवार को सुबहसुबह रेखा की भाभी का फोन आया. रेखा के मामा की तबीयत खराब थी. रेखा सुनते ही परेशान हो गई. इन्हीं मामा ने रेखा को पालपोस कर बड़ा किया था. रचना ने कहा, ‘‘भाभी, आप परेशान मत हों, जा कर देख आइए.’’

‘‘पर मानसी की परीक्षाएं हैं सोमवार से.’’

‘‘मैं देख लूंगी सब, आप आराम से जाइए.’’

सासूमां ने उखड़े स्वर में कहा, ‘‘आज चली जाओ बस से, कल शाम तक वापस आ जाना.’’

रेखा ने ‘जी’ कह कर सिर हिला दिया था. उस का मामामामी के सिवा कोई और था ही नहीं. मामामामी भी निसंतान थे. रचना ने कहा, ‘‘नहीं भाभी, मैं निखिल को जगाती हूं. उन के साथ कार में आराम से जाइए. यहां मेरठ से सहारनपुर तक बस के सफर में समय बहुत ज्यादा लग जाएगा. जबकि इन के साथ जाने से आप लोगों को भी सहारा रहेगा.’’ सासूमां का मुंह खुला रह गया. कुछ बोल ही नहीं पाईं. पैर पटकते हुए इधर से उधर घूमती रहीं, ‘‘क्या जमाना आ गया है, सब अपनी मरजी करने लगे हैं.’’ वहीं बैठे ससुर ने कहा, ‘‘रचना ठीक तो कह रही है. जाने दो उसे निखिल के साथ.’’ राधिका को और गुस्सा आ गया, ‘‘आप चुप ही रहें तो अच्छा होगा. पहले ही आप ने दोनों बहुओं को सिर पर चढ़ा रखा है.’’ निखिल पूरी बात जानने के बाद तुरंत तैयार हो कर आ गया था, ‘‘चलिए भाभी, मैं औफिस से छुट्टी ले लूंगा, जब तक मामाजी ठीक नहीं होते हम वहीं रहेंगे.’’ रचना ने दोनों को नाश्ता करवाया और फिर प्रेमपूर्वक विदा किया. अनिल बैठे तो वहीं थे पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी. दोनों चले गए तो वे भी अपने बैडरूम में चले गए. शनिवार था, रचना की छुट्टी थी. वह मेड अंजू के साथ मिल कर घर के काम निबटाने लगी.

शाम तक सीता मौसी फिर आ गई थीं. उन के पति की मृत्यु हो चुकी थी और अपने बेटेबहू से उन की बिलकुल नहीं बनती थी इसलिए घर में उन का आनाजाना लगा ही रहता था. उन का घर दो गली ही दूर था. दोनों बहनें एकजैसी थीं, एकजैसा व्यवहार, एकजैसी सोच. सीता ने आराम से बैठते हुए रचना से कहा, ‘‘तुम्हें समझाया था न अपने पति को जेठानी से दूर रखो?’’

 

रचना मुसकराई, ‘‘हां मौसी, आप ने समझाया तो था.’’

‘‘फिर निखिल को उस के साथ क्यों भेज दिया?’’

‘‘वहां अस्पताल में मामीजी और भाभी को कोई भी जरूरत पड़ सकती है न.’’

सीता ने माथे पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘दीदी, छोटी बहू को तो जरा भी अक्ल नहीं है.’’

राधिका ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, ‘‘क्या करूं अब? कुछ भी समझा लो, जरा भी असर नहीं है इस पर. बस, मुसकरा कर चल देती है.’’ रचना घर का काम खत्म कर सुस्ताने के लिए लेटी तो सीता मौसी वहीं आ गईं. रचना उठ कर बैठ गई और बोली, ‘‘आओ, मौसी.’’ आराम से बैठते हुए सीता ने पूछा, ‘‘तुम कब सुना रही हो खुशखबरी?’’

‘‘पता नहीं, मौसी.’’

‘‘क्या मतलब, पता नहीं?’’

‘‘मतलब, अभी सोचा नहीं.’’

‘‘देर मत करो, औलाद पैदा हो जाएगी तो निखिल उस में व्यस्त रहेगा. कुछ तो भाभी का भूत उतरेगा सिर से और आज तुम्हें एक राज की बात बताऊं?’’

‘‘हां बताइए.’’

‘‘मैं ने सुना है मानसी निखिल की ही संतान है. अनिल के हाल तो पता ही हैं सब को.’’ रचना भौचक्की सी सीता का मुंह देखती रह गई, ‘‘क्या कह रही हो, मौसी?’’

‘‘हां, बहू, सब रिश्तेदार, पड़ोसी यही कहते हैं.’’ रचना पलभर कुछ सोचती रही, फिर सहजता से बोली, ‘‘छोडि़ए मौसी, कोई और बात करते हैं. अच्छा, चाय पीने का मूड बन गया है. चाय बना कर लाती हूं.’’ सीता हैरानी से रचना को जाते देखती रही. इतने में राधिका भी वहीं आ गई. सीता को हैरान देख बोली, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘अरे, यह तुम्हारी छोटी बहू कैसी है? इसे कुछ भी कह लो, अपनी धुन में ही रहती है.’’ राधिका ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, ‘‘हां, धोखा खाएगी किसी दिन, अपनी आंखों से देख लेगी तो आंखें खुलेंगी. हम बड़े अनुभवी लोगों की कौन सुनता है आजकल.’’ रचना ने टीवी देख रहे ससुरजी को एक कप चाय दी, फिर जा कर रेखा के बैडरूम में देखा, अनिल गहरी नींद में था. फिर राधिका और सीता के साथ चाय पीनी शुरू ही की थी कि रचना का मोबाइल बज उठा. निखिल का फोन था. बात करने के बाद रचना ने कहा, ‘‘मां, भाभी के मामाजी को 3-4 दिन अस्पताल में ही रहना पड़ेगा. ये छुट्टी ले लेंगे, भाभी को साथ ले कर ही आएंगे.

‘‘मैं ने भी यही कहा है वहां आप दोनों देख लो, यहां तो हम सब हैं ही.’’ राधिका ने डपटा, ‘‘तुम्हें समझ क्यों नहीं आ रहा. जो रेखा चाहती है निखिल वही करता है. तुम से कहा था न निखिल को उस से दूर रखो.’’

‘‘आप चिंता न करें, मां. मैं देख लूंगी. अच्छा, मानसी आने वाली है, मैं उस के लिए कुछ नाश्ता बना लेती हूं और मैं भाभी के आने तक छुट्टी ले लूंगी जिस से घर में किसी को परेशानी न हो.’’ दोनों को हैरान छोड़ रचना काम में व्यस्त हो गई.

सीता ने कहा, ‘‘इस की निश्चिंतता का आखिर राज क्या है, दीदी? क्यों इस पर किसी बात का असर नहीं होता?’’

‘‘कुछ समझ नहीं आ रहा है, सीता.’’ निखिल और रेखा लौट आए थे. रेखा और रचना स्नेहपूर्वक लिपट गईं. उमेश वहां के हालचाल पूछते रहे. अनिल ने सब चुपचाप सुना, कहा कुछ नहीं. उन का अधिकतर समय दवाइयों के असर में सोते हुए ही बीतता था. उन्हें अजीब से डिप्रैशन के दौरे पड़ते थे जिस में वे कभी चीखतेचिल्लाते थे तो कभी घर से बाहर भागने की कोशिश करते थे. सासूमां को रेखा फूटी आंख नहीं सुहाती थी जबकि वे खुद ही उसे बहू बना कर लाई थीं. बेटे की अस्वस्थता का सारा आक्रोश रेखा पर ही निकाल देती थीं. घर का सारा खर्च निखिल और रचना ही उठाते थे. उमेश रिटायर्ड थे और अनिल तो कभी कोई काम कर ही नहीं पाए थे. उन की पढ़ाई भी बहुत कम ही हुई थी. 3 साल बीत गए, रचना ने एक स्वस्थ व सुंदर पुत्र को जन्म दिया तो पूरे घर में उत्सव का माहौल बन गया. नन्हे यश को सब जीभर कर गोद में खिलाते. रेखा ने ही यश की पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी. रचना के औफिस जाने पर रेखा ही यश को संभालती थी. कई पड़ोसरिश्तेदार यश को देखने आते रहते और रचना के कानों में मक्कारी से घुमाफिरा कर निखिल और रेखा के अवैध संबंधों की जानकारी का जहर उड़ेलते चले जाते. कुछ औरतें तो यहां तक मजाक में कह देतीं, ‘‘चलो, अब निखिल 2 बच्चों का बाप बन गया.’’

रचना के कानों पर जूं न रेंगती देख सब हैरान हो, चुप हो जाते. रेखा और रचना के बीच स्नेह दिन पर दिन बढ़ता ही गया था. रचना जब भी बाहर घूमने, डिनर पर जाती, रेखा और मानसी को भी जरूर ले जाती. रचना के कानों में सीता मौसी का कथापुराण चलता रहता था, ‘‘देख, तू पछताएगी. अभी भी संभल जा, सब लोग तुम्हारा ही मजाक बना रहे हैं.’’ पर रचना की सपाट प्रतिक्रिया पर राधिका और सीता हैरान हुए बिना भी न रहतीं. वे दोनों कई बार सोचतीं, यह क्या राज है, यह कैसी

औरत है, कौन सी औरत इन बातों पर मुसकरा कर रह जाती है, समझदार है, पढ़ीलिखी है. आखिर राज क्या है उस की इस निश्ंिचतता का? एक साल और बीत रहा था कि एक अनहोनी घट गई. मानसी के स्कूल से फोन आया. मानसी बेहोश हो गई थी. निखिल और रचना तो अपने आौफिस में थे. यश को राधिका के पास छोड़ रेखा तुरंत स्कूल भागी. निखिल और रचना को उस ने रास्ते में ही फोन कर दिया था. मानसी को डाक्टर देख चुके थे. उन्होंने उसे ऐडमिट कर कुछ टैस्ट करवाने की सलाह दी. रेखा निखिल के कहने पर मानसी को सीधा अस्पताल ही ले गई. स्कूल में फर्स्ट ऐड मिलने के बाद वह होश में तो थी पर बहुत सुस्त और कमजोर लग रही थी. निखिल और रचना भी अस्पताल पहुंच गए थे. निखिल ने घर पर फोन कर के सारी स्थिति बता दी थी.

मानसी ने बताया था, सुबह से ही वह असुविधा महसूस कर रही थी. अचानक उसे चक्कर आने लगे थे और वह शायद फिर बेहोश हो गई थी. हैरान तो सब तब और हुए जब उस ने कहा, ‘‘कई बार ऐसा लगता है सिर घूम रहा है, कभी अचानक अजीब सा डिप्रैशन लगने लगता है.’’ रेखा इस बात पर बुरी तरह चौंक गई, रोते हुए बोली, ‘‘रचना, यह क्या हो रहा है मानसी को. अनिल की भी तो ऐसे ही तबीयत खराब होनी शुरू हुई थी. क्या मानसी भी…’’

‘‘अरे नहीं, भाभी, पढ़ाई का दबाव  होगा. कितना तनाव रहता है आजकल बच्चों को. आप परेशान न हों. हम सब हैं न,’’ रचना ने रेखा को तसल्ली दी. मानसी के सब टैस्ट हुए. राधिका और उमेश भी यश को ले कर अस्पताल पहुंच गए थे. सीता मौसी अनिल की देखरेख के लिए घर पर ही रुक गई थीं. रात को निखिल ने सब को घर भेज दिया था. अगले दिन रचना अनिल को अपने साथ ही सुबह अस्पताल ले गई. वहां वे थोड़ी देर मानसी के पास बैठे रहे. फिर असहज से, बेचैनी से उठनेबैठने लगे तो रचना उन्हें वहां से वापस घर ले आई. रेखा मानसी के पास ही थी.

राधिका ने रचना को डपटा, ‘‘अनिल को क्यों ले गई थी?’’

‘‘मां, मानसी की बीमारी का पता लगाने के लिए भैया का डीएनए टैस्ट होना था,’’ कह कर रचना किचन में चली गई. रचना ने थोड़ी देर बाद देखा राधिका और सीता की आवाजें मानसी के कमरे से आ रही थीं. सीता जब भी आती थीं, मानसी के कमरे में ही सोती थीं. रचना दरवाजे तक जा कर रुक गई. सीता कह रही थीं, ‘‘अब पोल खुलने वाली है. रिपोर्ट में सच सामने आ जाएगा. बड़े आए हर समय भाभीभाभी की रट लगाने वाले, आंखें खुलेंगी अब, कब से सब कह रहे हैं पति को संभाल कर रखे. निखिल पिता की तरह ही तो डटा है अस्पताल में.’’ राधिका ने भी हां में हां मिलाई, ‘‘मुझे भी देखना है अब रेखा का क्या होगा. निखिल मेरी भी इतनी नहीं सुनता है जितनी रेखा की सुनता है. इसी बात पर गुस्सा आता रहता है मुझे तो. जब से रेखा आई है, निखिल ने मेरी सुनना ही बंद कर दिया है.’’ बाहर खड़ी रचना का खून खौल उठा. घर की बच्ची की तबीयत खराब है और ये दोनों इस समय भी इतनी घटिया बातें कर रही हैं. अगले दिन मानसी की सब रिपोर्ट्स आ गई थीं. सब सामान्य था. बस, उस का बीपी लो हो गया था.

डाक्टर ने मानसी की अस्वस्थता का कारण पढ़ाई का दबाव ही बताया था. शाम तक डिस्चार्ज होना था, निखिल और रेखा अस्पताल में ही रुके. रचना घर पहुंची तो सीता ने झूठी चिंता दिखाते हुए कहा, ‘‘सब ठीक है न? वह जो डीएनए टैस्ट होता है उस में क्या निकला?’’ यह पूछतेपूछते भी सीता की आंखों में मक्कारी दिखाई दे रही थी. रचना ने आसपास देखा. उमेश कुछ सामान लेने बाजार गए हुए थे. अनिल अपने रूम में थे. रचना ने बहुत ही गंभीर स्वर में बात शुरू की, ‘‘मां, मौसी, मैं थक गई हूं आप दोनों की झूठी बातों से, तानों से. मां, आप कैसे निखिल और भाभी के बारे में गलत बातें कर सकती हैं? आप दोनों हैरान होती हैं न कि मुझ पर आप की किसी बात का असर क्यों नहीं होता? वह इसलिए कि विवाह की पहली रात को ही निखिल ने मुझे बता दिया था कि वे हर हालत में भाभी और मानसी की देखभाल करते हैं और हमेशा करेंगे. उन्होंने मुझे सब बताया था कि आप ने जानबूझ कर अपने मानसिक रूप से अस्वस्थ बेटे का विवाह एक अनाथ, गरीब लड़की से करवाया जिस से वह आजीवन आप के रौब में दबी रहे. निखिल ने आप को किसी लड़की का जीवन बरबाद न करने की सलाह भी दी थी, पर आप तो पंडितों की सलाहों के चक्कर में पड़ी थीं कि यह ग्रहों का प्रकोप है जो विवाह बाद दूर हो जाएगा.

‘‘आप की इस हरकत पर निखिल हमेशा शर्मिंदा और दुखी रहे. भाभी का जीवन आप ने बरबाद किया है. निखिल अपनी देखरेख और स्नेह से आप की इस गलती की भरपाई ही करने की कोशिश  करते रहते हैं. वे ही नहीं, मैं भी भाभी की हर परेशानी में उन का साथ दूंगी और रिपोर्ट से पता चल गया है कि अनिल ही मानसी के पिता हैं. मौसी, आप की बस इसी रिपोर्ट में रुचि थी न? आगे से कभी आप मुझ से ऐसी बातें मत करना वरना मैं और निखिल भाभी को ले कर अलग हो जाएंगे. और इस अच्छेभले घर को तोड़ने की जिम्मेदार आप दोनों ही होगी. हमें शांति से स्नेह और सम्मान के साथ एकदूसरे के साथ रहने दें तो अच्छा रहेगा,’’ कह कर रचना अपने बैडरूम में चली गई. यश उस की गोद में ही सो चुका था. उसे बिस्तर पर लिटा कर वह खुद भी लेट गई. आज उसे राहत महसूस हो रही थी. उस ने अपने मन में ठान लिया था कि वह दोनों को सीधा कर के ही रहेगी. उन के रोजरोज के व्यंग्यों से वह थक गई थी और डीएनए टैस्ट तो हुआ भी नहीं था. उसे इन दोनों का मुंह बंद करना था, इसलिए वह अनिल को यों ही अस्पताल ले गई थी. उसे इस बात को हमेशा के लिए खत्म करना था. वह कान की कच्ची बन कर निखिल पर अविश्वास नहीं कर सकती थी. हर परिस्थिति में अपना धैर्य, संयम रख कर हर मुश्किल से निबटना आता था उसे. लेटेलेटे उसे राधिका की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे, तुम कहां चली, सीता?’’

‘‘कहीं नहीं, दीदी, जरा घर का एक चक्कर काट लूं. फिर आऊंगी और आज तो तुम्हारी बहू की निश्‍चिंतता का राज भी पता चल गया. एक बेटा तुम्हारा बीमार है, दूसरा कुछ ज्यादा ही समझदार है, पहले दिन से ही सबकुछ बता रखा है बीवी को.’’ कहती हुई सीता के पैर पटकने की आवाज रचना को अपने कमरे में भी सुनाई दी तो उसे हंसी आ गई. पूरे प्रकरण की जानकारी देने के लिए उस ने मुसकराते हुए निखिल को फोन मिला दिया था.

 

चंडीगढ़ में चर्चित रहा गृहशोभा एम्पावर हर इवेंट

कलाग्राम चंडीगढ़ में 7 दिसम्बर 2024 को दिन में 11 बजे से दिल्ली प्रेस पब्लिकेशन की तरफ से ‘ गृहशोभा एम्पावर हर ‘ इवेंट शानदार आगाज हुआ. प्रतिभागी  महिलाएं बहुत उत्साह में नजर आ रही थीं. हों भी क्यों न गृहशोभा के साथ जुड़ कर उन्हें प्रेरित होने, सीखने और सशक्त बनने का मौका जो मिल रहा था.

गृहशोभा के द्वारा कराए जा रहे ‘ गृहशोभा एम्पावर हर ‘  इवेंट्स का उद्देश्य महिलाओं को स्वास्थ्य, सौंदर्य और फाइनेंसियल प्लानिंग के क्षेत्र में आगे बढ़ने में मदद करना है. स्किनकेयर और हेल्थ टिप्स से लेकर स्मार्ट सेविंग आइडियाज से परिचित कराना है. यह कार्यक्रम महिलाओं को अपना सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने के लिए सशक्त बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया . दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, लखनऊ और बैंगलोर , लुधियाना जैसे शहरों के बाद यह इवेंट चंडीगढ़ में आयोजित किया गया.

इस इवेंट के सहयोगी प्रायोजक डाबर खजूर प्राश, ब्यूटी पार्टनर ग्रीन लीफ ब्रिहंस , स्किन केयर पार्टनर ला शील्ड और होम्योपैथी पार्टनर SBL होम्योपैथी थे. इवेंट के दौरान इन के द्वारा  कई तरह के सेशन और गेम्स आयोजित किए गए जिन में प्रतिभागियों को गिफ्ट हैंपर्स भी मिले. .

12 बजे तक पूरा हाल भर गया था. महिलाओं का स्वागत स्नैक्स और चाय के साथ हुआ. इसके बाद कार्यक्रम की शुरुआत वंदना ने अपने खूबसूरत अंदाज में किया और पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा से दर्शकों को रूबरू कराया.

फर्स्ट सेशन : वुमन हेल्थ और वेलनेस

सबसे पहले डाबर खजूर प्राश द्वारा लाया गया वुमन हेल्थ और वेलनेस सेशन की शुरुआत हुई. इस के तहत डा. मधु गुप्ता ने महिलाओं में आयरन की कमी पर विस्तार से बात की. महिलाओं में आयरन की कमी एक आम लेकिन अक्सर अनदेखी की जाने वाली स्वास्थ्य समस्या है. डा. मधु गुप्ता  20 वर्षों से अधिक समय से एक अत्यधिक अनुभवी आयुर्वेदिक डौक्टर हैं जो वर्तमान में शक्ति भवन, पंचकुला में कार्यरत हैं। उन्होंने हिमाचल प्रदेश के आरजीजीपीजीए कौलेज से काया चिकित्सा (चिकित्सा) में एमडी और श्री धनवंतरी आयुर्वेदिक कौलेज, चंडीगढ़ से आयुर्वेदिक चिकित्सा में स्नातक की डिग्री हासिल की है. वह जीवनशैली संबंधी बीमारियों और आटोइम्यून बीमारियों के इलाज में माहिर हैं। उन्होंने महिलाओं में आयरन की कमी की समस्या पर बात की और इसे दूर करने के उपाय भी बताए.

महिलाओं के लिए फाइनेंशियल प्लानिंग और इन्वेस्टमेंट सेशन

इस सेशन में एक्सपर्ट थे देवेंद्र गोस्वामी जिन्हें मनी मैनेजमेंट और फाइनेंसियल प्लानिंग में  21 से अधिक वर्षों का अनुभव है. उन के पास SCD गवर्नमेंट कॉलेज से स्नातक की डिग्री और PCTE से फाइनेंसियल प्लानिंग में मास्टर डिग्री है. उन्होंने शीर्ष बैंकों और बड़ी कंपनियों के साथ काम किया है. वे ब्लूरॉक वेल्थ प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक हैं.

उन्होंने बताया कि महिलाओं के लिए पैसे कमाना और उसे मैनेज करना करना सीखना क्यों जरूरी है. अपनी सैलरी का एक हिस्सा बचाना और उसे सही जगह निवेश करना आर्थिक स्वतंत्रता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है. निवेश के लिए ‘म्यूचुअल फंड’ में सिस्टेमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान एसआईपी के माध्यम से हर महीने एक छोटी राशि का निवेश किया जा सकता है.  इसके साथ ही साथ जीवन बीमा और चिकित्सा बीमा का महत्व समझाया. इस तरह महिलाएं आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकती हैं और अपने जीवन को बेहतर बना सकती हैं.
एसबीएल सेशन

होम्योपैथी के क्षेत्र में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से बीएचएमएस में गोल्ड मेडलिस्ट और ग्रीस से विशेषज्ञता के साथ होम्योपैथी में एमडी पूरा करने वाली डॉ. श्वेता गोयल 5 वर्षों से अधिक समय से होम्योपैथी के माध्यम से पुरानी बीमारियों के रोगियों का इलाज कर रही हैं और बीमारियों को जड़ से ठीक करने पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं। वह पंजाब में दो क्लीनिक चलाती हैं. डॉ श्वेता ने महिलाओं को रजोनिवृत्ति यानी मेनोपॉज से जुड़ी महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियां दीं और बताया कि इस दौरान आने वाली समस्याओं में होम्योपैथी किस तरह कारगर है.

ला शील्ड द्वारा ब्यूटी और स्किन केयर सेशन

इस सेशन के लिए ब्यूटी और स्किन केयर के क्षेत्र में एक्सपर्ट डॉ. बेट्टी नांगिया( बेट्टी होलिस्टिक और स्किन केयर की संस्थापक) ने महिलाओं को जरुरी जानकारियां दीं। डॉ. बेट्टी ने प्राकृतिक रूप से चमकदार, स्वस्थ त्वचा पाने के टिप्स दिए.

इस के साथ इवेंट अपने अंतिम चरण में पहुँच गया. महिलाओं ने भोजन का आनंद लेने के बाद पंजीकरण डेस्क से अपने गुडी बैग लिए और शानदार दिन बिता कर अपने घरों को चली गई .

Story in Hindi : क्यों, आखिर क्यों

Story in Hindi : आज लगातार 7वें दिन भी जब मालती काम पर नहीं आई तो मेरा गुस्सा सातवां आसमान छू गया, खुद से बड़बड़ाती हुई बोली, ‘क्या समझती है वह अपनेआप को? उसे नौकरानी नहीं, घर की सदस्य समझा है. शायद इसीलिए वह मुझे नजरअंदाज कर रही है…आने दो उसे…इस बार मैं फैसला कर के ही रहूंगी…यदि वह काम करना चाहे तो सही ढंग से करे वरना…’ अधिक गुस्से के चलते मैं सही ढंग से सोच भी नहीं पा रही थी.

मालती बेहद विश्वासपात्र औरत है. उस के भरोसे घर छोड़ कर आंख मूंद कर मैं कहीं भी आजा सकती हूं. मेरी बच्चियों का अपनी औलाद की तरह ही वह खयाल रखती है. फिर यह सोच कर मेरा हृदय उस के प्रति थोड़ा पसीजा कि कोई न कोई उस की मजबूरी जरूर रही होगी वरना इस से पहले उस ने बिना सूचित किए कभी लंबी छुट्टी नहीं ली.

मेरे मन ने मुझे उलाहना दिया, ‘राधिका, ज्यादा उदार मत बन. तू भी तो नौकरी करती है. घर और दफ्तर के कार्यों के बीच सामंजस्य बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करती है. कई बार मजबूरियां तेरे भी पांव में बेडि़यां डाल कर तेरे कर्तव्य की राह को रोकती हैं…पर तू तो अपनी मजबूरियों की दुहाई दे कर दफ्तर के कार्य की अवहेलना कभी नहीं करती?’

दफ्तर से याद आया कि मालती के कारण मेरी भी 7 दिन की छुट्टी हो गई है. बौस क्या सोचेंगे? पहले 2 दिन, फिर 4 और अब 7 दिन के अवकाश की अरजी भेज कर क्या मैं अपनी निर्णय न ले पाने की कमजोरी जाहिर नहीं कर रही हूं?

तभी धड़ाम की आवाज के साथ ऋचा की चीख सुन कर मैं चौंक गई. मैं बेडरूम की ओर भागी. डेढ़ साल की ऋचा बिस्तर से औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी थी. मैं ने जल्दीजल्दी उसे बांहों में उठाया और डे्रसिंग टेबल की ओर लपकी. जमीन से टकरा कर ऋचा के माथे की कोमल त्वचा पर गुमड़ उभर आया था. दर्द से रो रही ऋचा के घाव पर मरहम लगाया और उसे चुप कराने के लिए अपनी छाती से लगा लिया. मां की ममता के रसपान से सराबोर हो कर धीरेधीरे वह नींद के आगोश में समा गई.

फिर मुझे मालती की याद आ गई जिस की सीख की वजह से ही तो मैं अपनी दोनों बेटियों को स्तनपान का अधिकार दे पाई थी वरना मैं ने तो अपना फिगर बनाए रखने की दीवानगी में बच्चियों को अपनी छाती से लगाया ही न होता…सोच कर मेरी आंखों से 2 बूंदें कब फिसल पड़ीं, मैं जान न पाई.

ऋचा को बिस्तर पर लिटा कर मैं अपने काम में उलझ गई. हाथों के बीच तालमेल बनाती हुई मेरी विचारधारा भी तेजी से आगे बढ़ने लगी.

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मां से ही जाना था कि जब मेरा जन्म हुआ था तब मां के सिर पर कहर टूट पड़ा था. रंग से तनिक सांवली थीं. अत: दादीजी को जब पता चला कि बेटी पैदा हुई है तो यह कह कर देखने नहीं गईं कि लड़की भी अपनी मां जैसी काली होगी, उसे क्या देखना? चाचीजी ने जा कर दादी को बताया, ‘मांजी, बच्ची एकदम गोरीचिट्टी, बहुत ही सुंदर है, बिलकुल आप पर गई है…सच…आप उसे देखेंगी तो अपनेआप को भूल जाएंगी.’

‘फिर भी वह है तो लड़की की जात…घर आएगी तब देख लूंगी,’ दादी ने घोषणा की थी.

मेरे भैया उम्र में मुझ से 3 साल बड़े थे…सांवले थे तो क्या? आगे चल कर वंश का नाम बढ़ाने वाले थे…अत: उन का सांवला होना क्षम्य था.

ज्योंज्यों मैं बड़ी होती गई, त्योंत्यों मेरी और भैया की परवरिश में भेदभाव किया जाने लगा. उन के लिए दूध, फल, मेवा, मिठाई सबकुछ और मेरे लिए सिर्फ दालचावल. यह दादी की सख्त हिदायत थी. वह मानती थीं कि लड़कियां बड़ी सख्त जान होती हैं, ऐसे ही बड़ी हो जाती हैं. लड़के नाजुक होते हैं, उन की परवरिश में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. आखिर वही हमारे परिवार की शान में चार चांद लगाते हैं. बेटियां तो पराया धन होती हैं… कितना भी खिलाओपिलाओ, पढ़ाओ- लिखाओ…दूसरे घर की शोभा और वंश को आगे बढ़ाती हैं.

मम्मी और चाचीजी दोनों ही गांव की उच्चतर माध्यमिक पाठशाला में शिक्षिका थीं. वे सुबह 11 बजे जातीं और शाम साढ़े 6 बजे लौटतीं. मेरी देखभाल के लिए कल्याणी को नियुक्त किया गया था, लेकिन दादी उस से घर का काम करवातीं. बहुत छोटी थी तब भी मुझे एक कोने में पड़ा रहने दिया जाता. कई बार कपड़े गीले होते…पर कल्याणी को काम से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह मेरे गीले कपड़े बदल दे. एक बार इसी वजह से मैं गंभीर रूप से बीमार भी हो गई थी. बुखार का दिमाग पर असर हो गया था. मौत के मुंह से मुश्किल से बहार आई थी.

इस हादसे की बदौलत ही मम्मी को पता चला था कि दादी के राज में मेरे साथ क्या अन्याय किया जा रहा था. तब मां दादी से नजरें बचा कर एक कोने में छिप कर खूब रोई थीं…पापा 1 महीने के दौरे पर से जब लौटे तब मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया. अपनी बच्ची के प्रति मां द्वारा किए गए अन्याय ने उन्हें बहुत दुख पहुंचाया था किंतु मम्मीपापा के संस्कारों ने उन्हें दादी के खिलाफ कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी.

कुछ समय बाद पता चला कि मां ने सूरत के केंद्रीय विद्यालय में अर्जी दी थी. साक्षात्कार के बाद उन का चयन हो जाने पर पापा ने भी अपना तबादला सूरत करवा लिया. मैं मम्मी के साथ उन के स्कूल जाने लगी और भैया अन्य स्कूल में.

दादी मां द्वारा खींची गई बेटेबेटी की भेद रेखा ने मुझे इतना विद्रोही बना दिया था कि मैं अपने को लड़का ही समझने लगी थी. शहर में आ कर मैं ने मर्दाना पहनावा अपना लिया. मेरी मित्रता भी लड़कों से अधिक रही.

मम्मी कहतीं, ‘बेटी, तुम लड़की बन कर इस संसार में पैदा हुई हो और चाह कर भी इस हकीकत को झुठला नहीं सकतीं. मेरी बच्ची, इस भ्रम से बाहर आओ और दुनिया को एक औरत की नजर से देखो. तुम्हें पता चल जाएगा कि दुनिया कितनी सुंदर है. सच, दादी की उस एक गलती की सजा तुम अपनेआप को न दो, अभी तो ठीक है, लेकिन शादी के बाद तुम्हारे यही रंगढंग रहे तो मुझे डर है कि पुन: तुम्हें कहीं मायका न अपनाना पड़े.’

मम्मी के लाख समझाने के बावजूद मैं चाह कर भी अपनेआप को बदल नहीं पाती. सौभाग्य से मुझे वेदांत मिले जिन्हें सिर्फ मुझ से प्यार है, मेरी जिद से उन्हें कोई सरोकार नहीं. उन्होंने कभी मेरे लाइफ स्टाइल पर एतराज जाहिर नहीं किया.

टेलीफोन की घंटी कानों में पड़ते ही मैं फिर वर्तमान में आ पहुंची. दूसरी तरफ अंजलि भाभी थीं. उन्होंने बताया कि तेजस लोकल टे्रन से गिर गया था. इलाज के लिए उसे अस्पताल में दाखिल करवाया गया है. मैं ने उसी वक्त वेदांत को एवं आलोक भैया को फोन द्वारा सूचित तो कर दिया लेकिन मैं अजीब उलझन में पड़ गई. न तो मैं ऋचा को अकेली छोड़ कर जा सकती थी और न ही उसे अस्पताल ले जाना मेरे लिए ठीक रहता. अब क्या करूं…एक बार फिर मुझे मालती की याद आ गई…उफ, इस औरत का मैं क्या करूं?

डोरबेल बजने पर जब मैं ने दरवाजा खोला तो दरवाजे के बाहर मालती को खड़ा पाया. उसे सामने देख कर मेरा सारा गुस्सा हवा हो गया क्योंकि उस की सूजी हुई आंखें और चेहरे पर उंगलियों के निशान देख कर मैं समझ गई कि वह फिर अपने पति के जुल्म का शिकार हुई होगी.

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‘‘क्या हुआ, मालती? तुम्हारे चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही हैं?’’ लगातार रो रही मालती उत्तर देने की स्थिति में कहां थी. मैं ने भी उसे रोने दिया.

मालती ने रोना बंद कर बताना शुरू किया, ‘‘भाभी, मैं तुम से माफी मांगती हूं. बंसी ने मुझे इतना पीटा कि मैं 3 दिन तक बिस्तर से उठ नहीं पाई.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ मुझे रहरह कर उस के पति पर गुस्सा आ रहा था. मन कर रहा था कि उसे पुलिस के हवाले कर दूं. पर अभी तो अस्पताल जाना ज्यादा जरूरी है.

‘‘मालती, मेरे खयाल से तुम काफी थकी हुई लग रही हो. थोड़ी देर आराम कर लो. मुझे अभी अस्पताल जाना है,’’ मैं ने उसे संक्षेप में सब बता दिया और बोली, ‘‘मेरे लौटने तक तुम्हें यहीं रुकना पड़ेगा. हम बाद में बात करेंगे…करिश्मा स्कूल से आए तो उस के लिए नाश्ता बना देना.’’

मैं अस्पताल पहुंची. मुझे देखते ही अंजलि मेरे कंधे से लग कर बेतहाशा रोने लगी. मेरी भी आंखें छलछला आईं. मेडिकल कालिज का मेधावी छात्र, लेकिन पिछले 6 महीनों से दूरदर्शन के एक मशहूर धारावाहिक में प्रमुख किरदार निभा रहा था. अभी तो उस के कैरियर की शुरुआत हुई थी, लोग उसे जानने, पहचानने और सराहने लगे थे कि शूटिंग से लौटते वक्त लोकल टे्रन से गिर कर ब्रेन हैमरेज का शिकार

हो गया. मां, पिताजी और मैं भाभी

को संभालतेसंभालते खुद भी हिम्मत हारने लगे थे. सभी एकदूसरे को

ढाढ़स बंधाने का असफल प्रयास कर रहे थे.

काफी रात हो चुकी थी. बच्चोें के कारण मुझे बेमन से घर जाना पड़ा. मालती की गोद में ऋचा तथा होम वर्क के दिए गए गणित के समीकरण को सुलझाने का प्रयास करती हुई करिश्मा को देख मेरी आंखें भर आईं.

मैं निढाल सी सोफे पर लेट गई. मेरे दिल और दिमाग पर तेजस की घटना की गहरी छाप पड़ी थी. थोड़े समय बाद जब कुछ सामान्य हुई तो यह सोच कर कि आज जितने हादसों से साक्षात्कार हो जाए अच्छा होगा, कम से कम, कल का सूरज आशाओं की कुछ किरणें हमारे उदास आंचल में डालने को आ जाए. यही सोच कर मैं ने मालती से उस की दर्दनाक व्यथा सुनी.

‘‘भाभी, मैं चौथी बार पेट से हूं. बंसी मेरे पीछे पड़ गया है कि मैं जांच करवा लूं और लड़की हो तो गर्भपात करा दूं. मैं इस के लिए तैयार नहीं हूं, इस बात पर वह मुझे मारतापीटता और धमकाता है कि अगर इस बार लड़की हुई तो मुझे घर से निकाल देगा, वह जबरदस्ती मुझे सरकारी अस्पताल भी ले गया था लेकिन डाक्टर ने उसे खूब डांटा, धमकाया कि औरत पर जुल्म करेगा, जांच के लिए जबरदस्ती करेगा तो पुलिस में सौंप दूंगी क्योंकि गर्भपरीक्षण कानूनी अपराध होता है. मैं ने तो उसे साफ बोल दिया कि वह मुझे मार भी डालेगा तो भी मैं गर्भपात नहीं कराऊंगी.’’

‘‘तो क्या तुम यों ही मार खाती रहोगी? इस तरह तो तुम मर जाओगी.’’

‘‘नहीं, भाभी, मैं ने उस को बोल दिया कि बेटा हुआ तो तुम्हारा नसीब वरना मैं अपनी चारों बच्चियों को ले कर कहीं चली जाऊंगी. हाथपैर सलामत रहे तो काम कहीं भी मिलेगा, वैसे भी बंसी तो सिर्फ नाम का पति है, वह कहां बाप होने का धर्म निभाता है? उस को भी तो मैं ही पालती हूं. मैं मां हूं और मां की नजर सिर्फ अपने बच्चे को देखती है, बेटी, बेटे का भेद नहीं. फिर लड़का या लड़की पैदा करना क्या मेरे हाथ में है?’’

कितनी कड़वी मगर सच्ची बात कह दी इस अनपढ़ औरत ने. एक मां अपने बच्चे के लिए बड़ी से बड़ी कुरबानी दे सकती है पर शायद यह पुरुष प्रधान भारतीय समाज की मानसिकता है कि वंश को आगे बढ़ाने के लिए और अर्थी को कांधा देने के लिए बेटे की जरूरत होती है…अत: अगर परिवार में बेटा न हो तो परिवार को अधूरा माना जाता है.

मेरी दादी मां क्यों औरत की कदर करना नहीं जानतीं? वह क्यों भूल गईं कि वह खुद भी एक औरत ही हैं? दादी की याद आते ही मेरा हृदय कड़वाहट से भर उठा. लेकिन अगले ही पल मेरे मन ने मुझे टोका कि तू खुद भी संकुचित मानसिकता में दादी मां से कम है क्या? अगर मालती चौथी बार मां बनने वाली है तो तेरे उदर में भी तो तीसरा बच्चा पल रहा है. तीसरी बार गर्भधारण के पीछे तेरा कौन सा गणित काम कर रहा है…? 2 बेटियों की मां बन कर तू खुश नहीं? क्या जानेअनजाने तेरे मन में भी बेटा पाने की लालसा नहीं पनप रही?

मैं सिर से पैर तक कांप उठी. यह मैं क्या करने जा रही हूं? दादी को कोसने से मेरा यह अपराधबोध क्या कम हो जाएगा? नहीं, कदापि नहीं. उसी वक्त मैं ने फैसला ले लिया कि तीसरे बच्चे के बाद मैं आपरेशन करवा लूंगी. यह फैसला करते ही मेरे दिमाग की तंग नसें धीरेधीरे सामान्य होती चली गईं.

चैन से सो रही मालती के चेहरे पर निर्दोष मुसकान खेल रही थी. जल्द ही मैं भी नींद के आगोश में समा गई. सुबह जब आंख खुली तब मैं अपने को हलका महसूस कर रही थी.

मालती पहले ही उठ कर घर के कामों को पूरा कर रही थी. उस ने करिश्मा को नाश्ता बना कर दे दिया था और वह स्कूल जाने को तैयार थी.

मैं ने करिश्मा के कपोल चूमते हुए उसे विश किया तो लगा कि वह कुछ बुझीबुझी सी थी.

‘‘क्यों बेटी, क्या आप की तबीयत ठीक नहीं?’’

‘‘नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं.’’

‘‘मम्मी आप के चेहरे की हर रेखा पढ़ सकती है, बेटा, जरूर कोई बात है… मुझ से नहीं कहोगी?’’ सोफे पर बैठ कर मैं ने उसे अपनी गोद में खींच लिया.

ममता भरा स्पर्श पा कर उस की आंखें भर आईं. मैं ने सोचा शायद पढ़ाई में कोई मुश्किल सवाल रहा होगा, जिस का हल वह नहीं ढूंढ़ पा रही होगी.

‘‘बेटा, क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’

‘‘नो, थैंक्स मम्मा,’’ उस के शब्द गले में ही अटक गए.

‘‘चलो, मैं प्रियंका को फोन कर देती हूं. वह आप की समस्या का कोई हल ढूंढ़ पाएगी, क्या उस से झगड़ा हुआ है?’’ मैं फोन की ओर बढ़ी, ‘‘उसे मैं कह देती हूं कि वह जल्दी आ जाए ताकि मैं आप दोनों को स्कूल में ड्राप कर दूं.’’

‘‘मम्मा,’’ वह चीख उठी, ‘‘प्रियंका अभी नहीं आ सकेगी.’’

‘‘क्यों…?’’ मुझे धक्का लगा.

‘‘सौरी, मम्मा,’’ वह धीरे से बोली, ‘‘प्रियंका लाइफ लाइन अस्पताल में है.’’

आश्चर्य का इतना तेज झटका मैं ने महसूस किया कि मैं संभल नहीं पाई, ‘‘क्या हुआ है उसे?’’

हमारे पड़ोस में ही निर्मल परिवार रहता है जिन की बड़ी बेटी प्रियंका  करिश्मा की खास सहेली है. दोनों एकसाथ 7वीं कक्षा में पढ़ती हैं.

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पता चला कि प्रियंका ने मिट्टी का तेल छिड़क कर खुद को जलाने की कोशिश की थी जिस में उस का 80 प्रतिशत बदन आग की लपेट में आ गया था. मेरा दिमाग सुन्न हो गया. मेरी नजरों के सामने प्रियंका का चेहरा उभर आया. इतनी कम उम्र और इतना भयानक कदम…? इतना सारा साहस उस फू ल सी बच्ची ने कहां से पाया होगा? न जाने किस पीड़ादायी अनुभव से वह गुजर रही होगी जिस से छुटकारा पाने के लिए उस ने यह अंतिम कदम उठाया होगा? लगातार रोए जा रही करिश्मा को बड़ी मुश्किल से चुप करा कर उसे स्कूल के गेट तक छोड़ दिया. फिर मैं प्रियंका को देखने अस्पताल के लिए चल पड़ी.

अस्पताल के गेट पर ही मुझे मेरी एक अन्य पड़ोसिन ईराजी मिल गईं. उन से जो हकीकत पता चली उसे जान कर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए, कल्पना से परे एक हकीकत जिसे सुन कर पत्थर दिल इनसान का भी कलेजा फट जाएगा.

प्रियंका की मम्मी को एक के बाद एक कर के 4 बेटियां हुईं. जाहिर है, इस के पीछे बेटा पाने की भारतीय मानसिकता काम कर रही होगी. धिक्कार है ऐसी घटिया सोच के साथ जीने वाले लोगों को…मेरे समग्र बदन में नफरत की तेज लहर दौड़ गई.

उन की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं चल रही थी. इस महंगाई के दौर में 4 बेटियां और आने वाली 5वीं संतान की, सही ढंग से परवरिश कर पाना उन के लिए मुश्किल था. ऐसे में राजनजी के किसी मित्र ने उन की चौथी बेटी सोनिया को गोद लेने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने मान लिया. क्या सोच कर उन्होंने ऐसा निर्णय किया यह तो वही जानें लेकिन प्रियंका इस बात के लिए हरगिज तैयार नहीं थी. उस ने साफ शब्दों में मम्मीपापा से कह दिया था कि यदि उन्होंने सोनिया को किसी और को सौंपने की बात सोची भी  तो वह उन्हें माफ नहीं करेगी.

प्रियंका बेहद समझदार और संवेदनशील बच्ची थी. वह उम्र से कुछ पहले ही पुख्ता हो चुकी थी. घर के उदासीन माहौल ने उसे कुछ अधिक ही संजीदा बना दिया था. बचपन की अल्हड़ता और मासूमियत, जो इस उम्र में आमतौर पर पाई जाती है, उस के वजूद से कब की गायब हो चुकी थी.

अपने को आग की लपटों के हवाले करने से पहले उस ने अपने हृदय की सारी पीड़ा शब्दों के माध्यम से बेजान कागज के पन्ने पर उड़ेल दी थी, अपने खून से लिखी उस चिट्ठी ने सब का दिल दहला दिया :

‘‘श्रद्धेय मम्मीपापा, अब मुझे माफ कर दीजिए, मैं आप सब को छोड़ कर जा रही हूं. वैसे मैं आप के कंधों से अपनी जिम्मेदारी का कुछ बोझ हलका किए जा रही हूं ताकि आप के कमजोर कंधे सोनिया का बोझ उठाने में सक्षम बन सकें. अपनी तीनों बहनों को मैं अपनी जान से भी ज्यादा चाहती हूं. किसी को भी परिवार से अलग होते हुए मैं नहीं देख पाऊंगी. सोनिया न रहे उस से अच्छा है कि मैं ही न रहूं…अलविदा.’’

आप की लाड़ली बेटी,

प्रियंका.’’

4 दिन तक जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करती हुई प्रियंका आखिर हार गई और जिंदगी का दामन छोड़ कर वह मौत के आगोश में हमेशा के लिए समा गई पर वह मर कर भी एक मिसाल बन गई. उस की कुरबानी ने हमारे परंपरागत, दकियानूसी समाज पर हमेशा के लिए कलंक का टीका लगा दिया, जिसे अपने खून से भी हम कभी न मिटा पाएंगे.

प्रियंका की मौत के ठीक एक हफ्ते बाद मेरे भतीजे तेजस ने भी बेहोशी की हालत में ही दम तोड़ दिया. तेजस हमारे परिवार का एकमात्र जीवन ज्योति था, जो अपनी उज्ज्वल कीर्ति द्वारा हमारे परिवार को समृद्धि के उच्च शिखर पर पहुंचाता. हमारे समाज के फलक पर रोशन होने वाला सूर्य अचानक ही अस्त हो गया फिर कभी उदित न होने के लिए.

दिनरात मेरी नजर के सामने उन दोनों के हंसते हुए मासूम चेहरे छाए रहते. हर पल अपनेआप से मैं एक ही सवाल करती, क्यों? आखिर क्यों ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी स्वीकार नहीं कर पाते? उन की मौत क्या हमारे समाज के लिए संशोधन का विषय नहीं?

दादीमां की पीढ़ी से ले कर प्रियंका के बीच कितने सालों का अंतराल है? दादीमां 85 वर्ष की हो चली हैं. तेजस सिर्फ 20 वसंत ही देख पाया और प्रियंका सिर्फ 12. इस लंबे अंतराल में क्या परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं थी?

दादीमां औरत थीं फिर भी मानती थीं कि संसार पुरुष से ही चलता है. हर नीतिनियम, रीतिरिवाज सिर्फ पुरुष के दम से है फिर मालती का पति तो पुरुष है. उस का यह मानना लाजमी ही था कि जो पुरुष बेटा न पैदा कर पाए वह नामर्द होता है. प्रियंका के मातापिता भी तो इसी मानसिकता का शिकार हैं कि वंश की शान और नाम आगे बढ़ाने के लिए बेटा जरूरी है. क्या सोनिया की जगह अगर उन्होंने बेटा पैदा किया होता तो उसे किसी और की गोद में डालने की बात सोच सकते थे? या उस के बाद और बच्चा पैदा करने की जरूरत को स्वीकार कर पाते? नहीं, कभी नहीं….

भला हो मालती का जिस ने मेरी आंखें खोल दीं वरना जानेअनजाने मैं भी इन तमाम लोगों की तरह ही सोचती रह जाती. अपनी कुंठित मान्यताओं के भंवर से बाहर निकालने वाली मालती का मैं जितना शुक्रिया अदा करूं कम ही है.

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तेजस की अकाल मौत ने दादी मां को यह सोचने पर मजबूर किया कि जिस कुलदीपक की चाह में उन्होंने अतीत में एक मासूम बच्ची के साथ अन्याय किया था उस कुलदीपक की जीवन ज्योति को अकाल ही बुझा कर नियति ने उन की करनी की सजा दी थी.

प्रियंका भी पुकारपुकार कर पूछ रही है, हर नारी और हर पुरुष यही सोचे और चाहे कि उन के घर बेटा ही पैदा हो तो भविष्य में कहां से लाएंगे हम वह कोख जो बेटे को पैदा करती है?

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