लेखक- कंवल भारती

दिनेश्वर प्रसाद दुबे अपने नवनिर्मित मकान के सामने खड़े थे. तीनमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था. अब केवल पेंटिंग का काम बाकी था. बाहरभीतर कौन सा कलर होना है, यह वे मजदूरों को समझा रहे थे कि उसी समय उन्हें अपने निकट किसी स्कूटर के रुकने की आवाज आई. उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा, उन के कालेज के बड़े बाबू हरीश थे. वे स्कूटर पर बैठे हुए ही जोर से बोले- ‘नमस्कार दिनेश्वर जी,’ जवाब में दिनेश्वर जी ने भी नमस्कार कहा. फिर बोले, ‘अरे हरीश जी, सब कुशल तो है. इधर कैसे?’

‘बस जी, फ़िलहाल तो कुशल है, आगे की नहीं कह सकते,’  हरीश जी बोले. ‘अरे हरीश जी, आगे की किसे पता है? बस, वर्तमान ही ठीक रहना चाहिए. और इस कालोनी  में कैसे?’ ‘दिनेश्वर जी, इस कालोनी में एक आईटीओ रहते हैं, उन्हीं से कुछ काम है.’  फिर बोले, ‘क्या यही मकान बनवाया है आप ने?’

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‘हां, एक छोटा सा प्लौट इस कालोनी में पहले से ही ले रखा था. रिटायरमैंट के बाद बनवा लिया. पूरी जिंदगी तो किराए के मकानों में कट गई. अब कहीं जा कर अपना घर नसीब हुआ है.’ ‘हां, अपना घर तो अपना ही होता है. बड़ा सकून मिलता है,’ हरीश जी ने हंस कर आगे पूछा, ‘तो कब गृहप्रवेश कर रहे हैं?’

‘बस, पेंट का काम पूरा हो जाए. उस के बाद...’  दिनेश्वर जी ने कहा. ‘कब का मुहूर्त निकला है?’ हरीश जी ने पूछा. दिनेश्वर जी ने उत्तर दिया, ‘अरे काहे का मुहूर्त?  मेरे लिए सब दिन बराबर हैं. एक बात बताओ, क्या बच्चा मुहूर्त देख कर पैदा होता है?’

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