Download App

साक्षी के बाद – भाग 1 : संदीप की दूसरी शादी के लिए जल्दबाजी के पीछे क्या वजह थी?

लेखक- कमल कपूर

भोर हुई तो चिरैया का मीठासुरीला स्वर सुन कर पूर्वा की नींद उचट गई. उस की रिस्टवाच पर नजर गई तो उस ने देखा अभी तो 6 भी नहीं बजे हैं. ‘छुट्टी का दिन है. न अरुण को दफ्तर जाना है और न सूर्य को स्कूल. फिर क्या करूंगी इतनी जल्दी उठ कर? क्यों न कुछ देर और सो लिया जाए,’ सोच कर उस ने चादर तान ली और करवट बदल कर फिर से सोने की कोशिश करने लगी. लेकिन फोन की बजती घंटी ने उस के छुट्टी के मूड की मिठास में कुनैन घोल दी. सुस्त मन के साथ वह फोन की ओर बढ़ी. इंदु भाभी का फोन था.

‘‘इंदु भाभी आप? इतनी सुबह?’’ वह बोली.

‘‘अब इतनी सुबह भी नहीं है पुरवैया रानी, तनिक परदा हटा कर खिड़की से झांक कर तो देख, खासा दिन चढ़ गया है. अच्छा बता, कल शाम सैर पर क्यों नहीं आई?’’

‘‘यों ही इंदु भाभी, जी नहीं किया.’’

‘‘अरी, आती तो वे सब देखती, जो इन आंखों ने देखा. जानती है, तेरे वे संदीप भाई हैं न, उन्होंने…’’

और आगे जो कुछ इंदु भाभी ने बताया उसे सुन कर तो जैसे पूर्वा के पैरों तले की जमीन ही निकल गई. रिसीवर हाथ से छूटतेछूटते बचा. अपनेआप को संभाल कर वह बोली, ‘‘नहीं इंदु भाभी, ऐसा हो ही नहीं सकता. मैं संदीप भाई को अच्छी तरह जानती हूं, वे ऐसा कर ही नहीं सकते. आप से जरूर देखने में गलती हुई होगी.’’

‘‘पूर्वा, मैं ने 2 फुट की दूरी से उस मोटी खड़ूस को देखा है. बस, लड़की कौन है, यह देख न पाई. उस की पीठ थी मेरी तरफ.’’

इंदु भाभी अपने खास अक्खड़ अंदाज में आगे क्या बोल रही थीं, कुछ सुनाई नहीं दे रहा था पूर्वा को. रिसीवर रख कर जैसेतैसे खुद को घसीटते हुए पास ही रखे सोफे तक लाई और बुत की तरह बैठ गई उस पर. सुबहसुबह यह क्या सुन लिया उस ने? साक्षी के साथ इतनी बड़ी बेवफाई कैसे कर सकते हैं संदीप भाई और वह भी इतनी जल्दी? अभी वक्त ही कितना हुआ है उस हादसे को हुए. बमुश्किल 8 महीने ही तो. हां, 8 महीने पहले की ही तो बात है, जब भोर होते ही इसी तरह फोन की घंटी बजी थी. वह दिन आज भी ज्यों का त्यों उस की यादों में बसा है…

उस रात पूर्वा बड़ी देर से अरुण और सूर्य के साथ भाई की शादी से लौटी थी. थकान और नींद से बुरा हाल था, इसलिए आते ही बिस्तर पर लेट गई थी. आंख लगी ही थी कि रात के सन्नाटे को चीरती फोन की घंटी ने उसे जगा दिया. घड़ी पर नजर गई तो देखा 4 बजे थे. ‘जरूर मां का फोन होगा… जब तक बेटी के सकुशल पहुंचने की खबर नहीं पा लेंगी उन्हें चैन थोड़े ही आएगा,’ सोचते हुए वह नींद में भी मुसकरा दी, लेकिन आशा के एकदम विपरीत संदीप का फोन था.

‘पूर्वा भाभी, मैं संदीप बोल रहा हूं,’ संदीप बोला.

वह चौंकी, ‘संदीप भाई आप? इतनी सुबह? सब ठीक तो है न?’

‘कुछ ठीक नहीं है पूर्वा भाभी, साक्षी चली गई,’ भीगे स्वर में वह बोला था.

‘साक्षी चली गई? कहां चली गई संदीप भाई? कोई झगड़ा हुआ क्या आप लोगों में? आप ने उसे रोका क्यों नहीं?’

‘भाभी… वह चली गई हमेशा के लिए…’

‘क्या? संदीप भाई, यह क्या कह रहे हैं आप? होश में तो हैं? कहां है मेरी साक्षी?’ पागलों की तरह चिल्लाई पूर्वा.

‘पूर्वा, वह मार्चुरी में है… हम अस्पताल में हैं… अभी 2-3 घंटे और लगेंगे उसे घर लाने में, फिर जल्दी ही ले जाएंगे उसे… तुम समझ रही हो न पूर्वा? आखिरी बार अपनी सहेली से मिल लेना…’ यह सुनंदा दीदी थीं. संदीप भाई की बड़ी बहन.

फोन कट चुका था, लेकिन पूर्वा रिसीवर थामे जस की तस खड़ी थी. तभी अपने कंधे पर किसी हाथ का स्पर्श पा कर डर कर चीख उठी वह.

‘अरेअरे, यह मैं हूं पूर्वा,’ अरुण ने सामने आ कर उसे बांहों में भर लिया, ‘बहुत बुरा हुआ पूर्वा… मैं ने सब सुन लिया है. अब संभालो खुद को,’ उसे सहारा दे कर अरुण पलंग तक ले गए और तकिए के सहारे बैठा कर कंबल ओढ़ा दिया, ‘सब्र के सिवा और कुछ नहीं किया जा सकता है पूर्वा. मुझे संदीप के पास जाना चाहिए,’ कोट पहनते हुए अरुण ने कहा तो पूर्वा बोली, ‘मैं भी चलूंगी अरुण.’

‘तुम अस्पताल जा कर क्या करोगी? साक्षी तो…’ कहतेकहते बात बदल दी अरुण ने, ‘सूर्य जाग गया तो रोएगा.’

अरुण दरवाजे को बाहर से लौक कर के चले गए. कैसे न जाते? उन के बचपन के दोस्त थे संदीप भाई. उन की दोस्ती में कभी बाल बराबर भी दरार नहीं आई, यह पूर्वा पिछले 9 साल से देख रही थी. पिछली गली में ही तो रहते हैं, जब जी चाहता चले आते. यों तो संदीप अरुण के हमउम्र थे, लेकिन विवाह पहले अरुण का हुआ था. संदीप भाई को तो कोई लड़की पसंद ही नहीं आती थी. खुद तो देखने में ठीकठाक ही थे, लेकिन अरमान पाले बैठे थे स्वप्नसुंदरी का, जो उन्हें सुनंदा दीदी के देवर की शादी में कन्या पक्ष वालों के घर अचानक मिल गई. बस, संदीप भाई हठ ठान बैठे और हठ कैसे न पूरा होता? आखिर मांबाप के इकलौते बेटे और 2 बहनों के लाड़ले छोटे भाई जो थे. लड़की खूबसूरत, गुणवान और पढ़ीलिखी थी, फिर भी मां बहुत खुश नहीं थीं, क्योंकि उन की तुलना में लड़की वालों का आर्थिक स्तर बहुत कम था. लड़की के पिता भी नहीं थे. बस मां और एक छोटी बहन थी.

बिना मंगनीटीका या सगाई के सीधे विवाह कर दुलहन को घर ले आए थे संदीप भाई के घर वाले. साक्षी सुंदर और सादगी की मूरत थी. पूर्वा ने जब पहली बार उसे देखा था, तो संगमरमर सी गुडि़या को देखती ही रह गई थी.

संदीप भाई के विवाह के 18वें दिन बाद सूर्य का पहला जन्मदिन था और साक्षी ने पार्टी का सारा इंतजाम अपने हाथों में ले लिया था.

संदीप भाई बहुत खुश और संतुष्ट थे अपनी पत्नी से, लेकिन घोर अभावों में पली साक्षी को काफी वक्त लगा था उन के घर के साथ सामंजस्य बैठाने में. फिर 5 महीने बाद जब साक्षी ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो संदीप भाई खुशी से नाच उठे थे. पलकों पर सहेज कर रखते थे उसे.

सुंदरता- भाग 1 : ट्रेन में क्या घटना हुई थी

लेखक-ब्रजकिशोर पटेल

सुशील चंद्र को ‘अपडाउन’ शुरू किए हुए आज यह चौथा ही दिन था. 58 वर्ष की उम्र में जीवन में पहली बार वे ट्रेन से अपडाउन करते हुए अपनी सरकारी ड्यूटी निभा रहे थे.

नौकरी के आरंभ से अभी तक अपने ही शहर में पदस्थ रहने वाले सुशील चंद्र का पहली बार शहर से काफी दूर तबादला हुआ था. इसलिए अपडाउन करते हुए कुछ अजीब सा लगना स्वाभाविक था. पर सब से ज्यादा असहज वे उस महिला के कारण हो रहे थे, जो उसी ट्रेन से हर दिन आतीजाती है. वह इतनी सुंदर है कि उस का सौंदर्य बरबस ही उन का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है, और वे असहज हो जाते हैं.

आज भी सुशील चंद्र खिड़की वाली सीट पर बैठे ही थे तभी उस सुंदर महिला ने भी उसी डब्बे में प्रवेश किया. हर दिन की तरह वह आज भी 3 अन्य अध्यापिकाओं के साथ ही आई थी. 25 से 45 साल की उम्र की इन चारों महिला अध्यापिकाओं में लगभग 35 साल की यह एक महिला ही अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण सुशील चंद्र के आर्कषण का केंद्र थी.

बड़ा अजीब सा लगता सुशील चंद्र को. क्या इतनी सुंदर महिला उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी? गोरा रंग, गोल चेहरा, तीखी नाक, बड़ीबड़ी हिरणी जैसी आंखें, सुराहीदार गरदन, सलीके से पहनी हुई साड़ी, गुंधी हुई वेणी के साथ उन्नत ललाट पर सुहाग की बड़ी बिंदी उस के सौंदर्य में सुगंध भरते हुए उसे और भी आकर्षक बना देती. वह किसी अनाम चुंबक की तरह उन की दृष्टि को अपनी तरफ खींच लेती.

आज भी सुशील चंद्र ने उसे देखा, तो वे उसे देखते ही रह गए. अचानक उस ने भी उन की ओर देखा. सुशील चंद्र को लगा कि उन की चोरी पकड़ी गई है. झेंप कर उन्होंने अपनी आंखें झुका लीं. कुछ देर बाद फिर उधर देखा तो पाया कि वह अब भी उन्हीं की तरफ  देख रही है. कहीं ऐसा तो नहीं, उसे उन का इस तरह घूरघूर कर देखना नागवार लगा हो. और अब वह उन के इस तरह किसी अनजान महिला को घूरघूर कर देखने के पीछे छिपी मंशा की पड़ताल करना चाह रही हो. वे आत्मग्लानि और संकोच से भर गए. अपनेआप को धिक्कारा. उन्होंने कहा कि 58 साल की उम्र में किसी अनजानी महिला की सुंदरता के आकर्षण में बंधना उन के लिए उचित है? कहीं वह 60 का होने से पहले ही सठिया तो नहीं गए हैं? अगर आज उन की बेटी जीवित होती तो वह भी लगभग इतनी ही उम्र की होती. इतनी ही सुंदर. तो क्या अपनी बेटी की उम्र की उस महिला की तरफ उन का आकर्षित होना उन का चारित्रिक पतन है…? नहींं, इसे चारित्रिक पतन नहीं कहा जा सकता. इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उस महिला के प्रति वे एक अनाम, किंतु पवित्र आर्कषण महसूस कर रहे थे.

सुशील चंद्र का विवाह 25 वर्ष की उम्र में हुआ था. 32 वर्ष का होतेहोते उन की 2 संतानें हुईं. पहली बेटी, दूसरा बेटा. जब बेटी 6 वर्ष की थी और बेटा 4 वर्ष का था, तभी आकस्मिक बीमारी के कारण उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी को खो दिया था. अब अपने नन्हेमुन्ने बच्चों के लिए वे ही उन की मां थे.बच्चों का लालनपालन करतेकरते सुशील चंद्र को पता ही ना चला कि उन का पितृत्व कब और कहां खो गया. अब वे केवल ‘‘मां’’ थे, अपने बच्चों की मां. मां जब होती है तो अलग से पिता की जरूरत भी नहीं रहती. मां के भीतर पिता की भूमिका भी खुद ब खुद समाहित ही रहती है.

मां बन कर वे ना केवल अपना पितृत्व अपितु अपना पुरुषत्व भी भूल चुके थे. इसलिए तो ना उन्होंने कभी दूसरे विवाह के बारे में सोचा और न ही कभी किसी परस्त्री की तरफ कामातुर दृष्टि से देखा. कामातुर तो वे अभी भी नहीं हैं, परंतु वे खुद नहीं समझ पा रहे हैं कि वह कौन सा आर्कषण है, जो उन्हें एक अनजान महिला के साथ बांध रहा है.जिन दिनों बच्चे छोटे थे, सुशील चंद्र सहायक शिक्षक के पद पर अपने ही शहर की एक शासकीय शाला में पदस्थ थे. उन्होंने हमेशा अपनी मां की भूमिका और शिक्षक के दायित्व के बीच सुंदर समन्वय रखा. वे शहर की ही शाला में पदस्थ और इतने लोकप्रिय शिक्षक थे कि संपूर्ण शासकीय सेवा में अपने शहर में ही पदस्थ रहे.अलबत्ता, उच्च श्रेणी शिक्षक के पद पर पदोन्नति के कारण उन्हें शाला बदलना पड़ा था. किंतु तब शहर के इस महल्ले से बदल कर वे शहर की ही उस महल्ले की शाला में पदस्थ हो गए थे. अब उन की फिर पदोन्नति हुई है और अब वे हायर सेकेंडरी स्कूल के प्राचार्य हो गए हैं.

हायर सेकेंडरी स्कूल के प्राचार्य का पद ना शहर की किसी शाला में रिक्त था, और न ही आसपास के गांव की किसी शाला में ही रिक्त था. इसलिए उन की नई पदस्थापना दूरस्थ जगह पर हुई. जहां उन की पदस्थापना हुई, वहां ड्यूटी के लिए ट्रेन से अपडाउन ही एकमात्र उपाय था.सुशील चंद्र का बेटा आईआईटी इंजीनियर है और बहुत ऊंचे पैकेज पर बड़ी कंपनी में पदस्थ हो गया है. पिछले साल उस की शादी उस की अपनी सहकर्मी इंजीनियर के साथ हो गई है.

सुशील चंद्र को शिक्षित ही नहीं, अपितु उन्हें संस्कारवान पुत्रवधू मिली है. बहूबेटे दोनों चाहते हैं कि अब वे नौकरी से त्यागपत्र दे कर उन के पास ही हैदराबाद में रहें. परंतु सुशील चंद्र सेवानिवृत्ति तिथि के पूर्व ही सेवा से त्यागपत्र देने का मन नहीं बना पाए. दरअसल, अध्यापन करना उन के लिए शासकीय नौकरी ही नहीं, पूजा है, इबादत है. वे एक आदर्श शिक्षक हैं. पारिवारिक त्रासदी के बावजूद वे कर्मयोगी की तरह अपनी कर्म साधना ‘अध्यापन’ के काम में लीन रहे हैं.

हैप्पी एंडिंग : भाग 3

मां मेरे गले लगने आई मैं एक कदम पीछे हट गई, आसपास रिश्तेदारों की भीड़ थी इसलिए थोड़ा पास आ कर मैं ने उन से कहा ‘‘आज कसम ले कर जा रही हूं, पीछे मुड़ कर नहीं देखूंगी, आज के बाद आप लोग मुझ से मिलने की कोशिश मत करना, खत्म हुआ इस घर से

मेरा रिश्ता.’’

फिर मैं ने मुड़ कर नहीं देखा, हेमंत ने शादी तो की लेकिन पति बनने की कोशिश नहीं की… मुझ से दूर रहते थे… पहले तो मुझे लगा शायद मेरी बेरुखी और उदास रवैए की वजह से मुझ से दूर है, मगर मेरी यह गलतफहमी अमेरिका जाने के बाद दूर हुई… वहां पता चला हेमंत पहले से शादीशुदा है, मुझ से शादी उस ने घर वालों के लिए किया है, मुझे ये सुन कर बहुत खुशी हुई क्योंकि मैं खुद इस रिश्ते के बंधन से आजादी चाहती थी, मैं सिर्फ सुमित की थी मरते दम तक उसी की रहूंगी लेकिन मेरी मजबूरी थी कि मैं हेमंत के साथ रहूं, उस की पत्नी जेनी का मेरे साथ व्यवहार अच्छा था.

कुछ दिनों के बाद उस ने तलाक देने की बात कर मुझे इस मुश्किल परिस्थिति से अपना रास्ता निकालने का उपाय दे दिया… मैं ने एक शर्त रखी, ‘‘तलाक देने के लिए मैं तैयार हूं, बस मुझे यहां रहने और अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए सपोर्ट करो. लेकिन सपोर्ट मुझे लोन की तरह चाहिए क्योंकि मैं वापस भारत नहीं जाना चाहती, मेरी पढ़ाई पूरी होते ही सारे पैसे चुका दूंगी.’’

वे दोनों मान गए और शुरू हुई मेरी एक नई कहानी… वह कहते हैं जो होता है अच्छे के लिए होता है, यह मेरे लिए अच्छा था… चार्टड एकाउंटैंट बनने का मेरा सपना पूरा हुआ, अमेरिका में मेरा खुद का लौ फर्म है, कुछ साल काम करने के बाद हेमंत का एकएक पैसा मैं ने वापस कर दिया था, लेकिन उस का एहसान नहीं भूल सकती. जब सारे रास्ते बंद थे तब हेमंत और जेनी ही मेरे साथ थे… बीते इन सालों में हेमंत का परिवार ही मेरा परिवार था, उस की पत्नी जेनी मेरी बैस्ट फ्रैंड बन गई थी. सुमित की बहुत याद आती थी. उस से बात करने के लिए न जाने कितनी बार फोन उठाया पर हिम्मत नहीं कर पाई… अनजाने में ही सही मैं अपनी प्रेम कहानी में गलत बन गई.

सालों के बाद काम की वजह से भारत आई तो यहां आने से खुद को रोक नहीं

पाई. खुद को दी कसम मैं भूलना चाहती हूं.

‘‘रीवा… तुम रीवा हो न, कितनी खूबसूरत हो गई हो, सुंदर पहले से थी लेकिन अब नूर टपक रहा है तुम पर’’ बीना आंटी सब्जियों की थैलियों को संभालते हुए मेरे सामने खड़ी थीं.

‘‘जी, आंटी… रीवा हूं. कैसी हैं आप’’ उन को देख कर मुझे कोई खुशी नहीं हुई जो उन्हें समझ आ गया था.

‘‘रीवा, मैं जानती हूं तुम मुझे कभी माफ नहीं करोगी, सुमित ने भी आज तक मुझे माफ नहीं किया, तुम दोनों के बीच संवाद का सूत्र मैं थी लेकिन तुम्हारे दिए गए खत सुरेखा भाभी के कहने पर मैं ने भेजना बंद कर दिया और सुमित को कुछ नहीं बताया.’’

‘‘आंटी, अब इन सभी बातों का कोई फायदा नहीं… जो मेरी किस्मत में था वह मिला मुझे’’

‘‘रीवा… तू यहां… कितनी बदल गई है.’’

बड़ी चाची भी सब्जी ले कर आ रही थीं.

‘‘चाची नमस्ते… आप सब्जी लेने आई हैं?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अब सब बदल गया बिटिया. घर के 6 हिस्से हो गए सब अपनी जिंदगी अपने अनुसार जीते हैं, अब कोई रोकटोक नहीं, तुम्हारी शादी की सचाई सुन कर भाभी तो जैसे पत्थर हो गई हैं, माताजी का रौब धीरेधीरे खत्म हो गया, अब तो बेटा… सब बदल गया’’ चाची ने एक सांस में घर की सारी कहानी बता दी.

‘‘अच्छा… चाची, बीना आंटी… मुझे कुछ काम है, कल घर आऊंगी.’’

मुझे निकलना था वहां से, अभी मां को फेस करने की हिम्मत नहीं थी मुझ में, आज मुझे अपनी गलती का एहसास हो रहा था. उस समय मेरा दिल टूटा था, गुस्से में थी लेकिन बाद में कई मौके थे जब मैं मां से बात कर सकती थी, गुस्से में लिए मेरे एक फैसले के कारण मेरी मां अपराधबोध में जीवन जी रही है… तड़प उठी मैं, मां से मिलने की इच्छा तीव्र हो रही थी, किसी तरह रात गुजरी, सूरज की किरणों के निकलने से पहले मैं हवेली के गेट के सामने खड़ी थी. मेरे आने की सूचना घर के अंदर पहुंच चुकी थी, सभी नींद से उठ कर बाहर निकल आए थे… ड्योढ़ी में दादी मिल गईं. मुझे अपनी बाहों में ले कर रोने लगी… यह मेरे लिए नया अनुभव था, आज तक मुझे कभी दादी की गोद नसीब नहीं हुई और अब इतना प्यार… सच कहा था चाची ने… सब बदल गया है.

मेरी आंखें मां को ढूंढ़ रही थी, पिताजी के पास गई उन्होंने सिर पर हाथ रखते हुए कहा ‘‘अच्छा किया बिटिया… घर आ गई, सुना है बड़ी अफसर बन गई है… जीती रहो, दुनिया भर की खुशियां मिलें तुम्हें.’’

‘‘पिताजी, मां कहां है?’’

‘‘बिटिया… वह अपने कमरे से बाहर नहीं निकलती, जाओ उस के पास, हो सकता है तुम्हें देख कर ठीक हो जाए.’’

मैं भारी कदमों से कमरे में पहुंची… मां बिस्तर के एक कोने में सिर टिकाए छत को घूर रही थी, निस्तेज आंखें, उन का गोरा सुंदर चेहरा फीका पड़ा था. मां को ऐसे देख मेरा दिल तड़प उठा.

‘‘मां… देखो मैं आ गई, तुम मुझे कैसे भूल गई. माना मैं नाराज थी, तुम ने भी कभी मिलने की कोशिश नहीं की, ऐसे यहां आराम से बैठी हो. इतनी दूर से आई हूं, अपनी रीवा को कुछ खिलाओगी नहीं.’’

जैसेतैसे खुद को सयंत करते हुए मां से बात करने लगी.

‘‘रीवा… मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची… बहुत अन्याय किया मैं ने तेरे साथ.’’

मां ने कहा.

मेरी आंखें आज वर्षों बाद आंसुओं से भीग गईं. दोनों गले लग कर खूब रोए… आंसुओं के साथ गिलेशिकवे दूर हो रहे थे, 10 वर्षों के बाद आज मांबेटी का मिलन हो गया, मेरी मां आज मुझे वापस मिल गई. जिन रिश्तों से मुंह मोड़ कर में चली गई थी आज वो रिश्ते पहले से कहीं ज्यादा प्यार के साथ एक सुखद बदलाव के साथ मिले. कुछ नए रिश्ते भी… इस घर में आई बहुएं जो आजाद थीं, अपनी मर्जी की जिंदगी जी रही थीं, वे खुश थीं… जिंदगी में बदलाव हर लिहाज से अच्छा होता है.

शाम को सब से नजरें छिपाते मैं फिर मुंडेर पर आ गई… सब से मिल कर भी मेरे दिल का एक कोना उदास था.

‘‘सुमित… इतने वर्ष बीत गए अब तो तुम मुझे भूल गए होगे’’ बुदबुदाते हुए मैं मुंडेर पर बैठ गई.

‘‘ऐसा सोच भी कैसे लिया रीवा… तुम्हारा सुमित तुम्हें भूल जाएगा’’ सुमित की आवाज सुन कर मैं मुंडेर से कूद पड़ी.

‘‘संभल कर उतरो, चोट लग जाएगी.’’

सुमित ही है… मेरे सुमित, कितने बदल गए हैं. लड़कपन की छवि से निकल कर धीरगंभीर बेहद खूबसूरत प्रभावशाली व्यक्ति के मालिक सुमित मेरे सामने है. मैं स्तब्ध थी. वाकई क्या

वही है या मेरी आंखों को छलावा हुआ. मुझे

न मेरी आंखों पर भरोसा था न कानों पर. वो मुसकान कैसे भूल सकती हूं जिस के सहारे इतने वर्ष बिता दिए, मेरा वजूद उस के पास होने के अनुभव मात्र से परिपूर्ण हो रहा था. रिक्तता भरने लगी, दिल के उस दर्द भरे हिस्से को जैसे अमृत मिल गया हो.

‘‘रीवा… तुम ठीक हो, बूआ ने फोन किया कि तुम वापस आ गई हो. मैं जानता था एक न एक दिन तुम मेरे पास आओगी. जब प्रेम सच्चा हो तो मिलन जरूर होता है देर से ही सही,’’ मेरा हाथ उस ने अपने हाथों में ले लिया. उस की बातें, उस के स्पर्श से मैं भीग रही थी.

‘‘तुम सच में मेरे पास हो’’मेरे शब्दों में कंपन था, चेतना खो रही थी… मैं बेसुध हो उस की बाहों में झूल गई.

आंख खुली तो सभी घरवाले मुझे घेर कर खड़े थे, बीना आंटी, मां एकदूसरे का

हाथ थामे मुसकरा रही थीं.

सुमित मेरे सिरहाने बैठे थे.

मैं ने हैरत से सब को देखा सब के चेहरे पर सहमति दिख रही थी, सुमित का हाथ मैं ने अपने हाथों में थाम लिया… आखिरकार मेरे प्यार की हैप्पी ऐंडिंग हो ही गई.

 उत्तर प्रदेश  में पुलिस बनी ‘वर्दी वाला गुंडा’     

पुलिस का काम कानून का राज स्थापित कर जनता को भयमुक्त करना है. अपराध रोकने के नाम पर पुलिस जनता का उत्पीडन कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क्षेत्र गोरखपुर में पुलिस की हिरासत में व्यापारी मनीष की मौत और उसके बाद उस पर लीपापोती बताती है कि उत्तर प्रदेश पुलिस बदलने को तैयार नहीं है. 2019 में इसी तरह से लखनऊ में विवेक तिवारी की हत्या हुई थी. जांच के नाम पर नागरिको के साथ ऐसी घटनाएं पुलिस को वर्दी वाला गंुडा बनाती है.

गोरखपुर में चंदन सैनी सिकरीगंज के महादेवा बाजार में रहते है. वह बिजनेस मैन है. चंदन सैनी ने अपने कानुपर और गुरूग्राम में रहने वाले बिजनेस मैन दोस्तो को गोरखपुर घूमने के लिये बुलाया. वह यह दिखाना चाहता था कि योगी के राज में गोरखपुर कितना बदल गया है.   कानपुर के रहने वाले प्रौपर्टी डीलर 35 साल के मनीष गुप्ता अपने दो साथियों गुरूग्राम से प्रदीप चौहान उम्र 32 साल और हरदीप सिंह चौहान उम्र 35 साल के साथ गोरखपुर आ गया. यह तीनों दोस्त गोरखपुर के थाना रामगढ क्षेत्र में एलआईसी बिल्डिंग के पास कृष्णा पैलेस के कमरा नम्बर 512 में रूक गये. सोमवार 27 सितंबर की रात 12 बजकर 30 मिनट पर रामगढ पुलिस होटल चेकिग करने पहंुची. इसमें इंसपेक्टर जेएन ंिसह और अक्षय मिश्रा के अलावा थाने के कुछ सिपाही थे.

ये भी पढ़ें- नीतीश कुमार: पीएम मैटेरियल या पलटीमार

पुलिस ने होटल चेकिंग के नाम पर कमरा खुलवाकर सोते लोगों को जगाकर उनसे आईडी यानि परिचय पत्र दिखाने को कहने लगी. मनीष के दो दोस्तों ने अपनी आईडी दिखा दी. जब मनीष को अपनी आईडी दिखाने को कहा तो वह बोला ‘रात में सोते हुये लोगो को जगाकर आईडी देखने का यह कौन सा समय है.’ मनीष का इतना कहना वर्दी के रौब धारी पुलिस को सहन नहीं हुआ. वह भडक उठी.

मनीष को कमरे के बाहर लेकर जाने लगी. इस दौरान मनीष ने कानपुर मे रहने वाले अपने भांजे को फोन कर मदद करने की गुहार लगाते कहा कि ‘पुलिस होटल के कमरे में चेकिग करने के नाम पर उसके साथ अपराधियांे सा व्यवहार कर रही है.’ मनीष का भांजा कानपुर में भारतीय जनता पार्टी का नेता भी है. मनीष को उम्मीद थी कि वह कुछ मदद कर सकता है. इसके पहले की भांजा कुछ प्रयास करता पुलिस मनीष को अपराधी की तरह ट्रीट करने लगी. घायल हालत में पुलिस मनीष को अस्पताल ले गई जहां उसकी मौत हो गई.

गोरखपुर के ने अपने अधिकारिक बयान मंे कहा कि ‘पुलिस ने होटल के कमरे की जांच की. तीन लोग थे. दो के पास आईडी थी. तीसरे के पास नहीं थी. पुलिस को देखकर तीसरा आदमी भागा. और हडबडाकर गिर गया. और उसकी मौत हो गई.’ कमरे के फोटो और मनीष की अपने भांजे से फोन पर कानपुर बात करने का सबूत सामने आने के बाद यह साफ है कि मनीष हडबडा कर भागा नहीं. उसे पुलिस कमरे से बाहर ले गई. बाद में उसके दोस्तो ने उसे खून से लथपथ देखा और पुलिस उसको अस्पताल ले गई.

ये भी पढ़ें- राजनीतिक मुद्दा: जातीय जनगणना- क्या एकजुट होंगे पिछड़े

इस दौरान पुलिस ने मनीष के परिजनांे पर दबाव डाला कि वह मुकदमा कायम ना कराये. मामला तूल पकड गया. जिसके बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की चारो तरफ आलोचना होने लगी. मनीष की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद पुलिस की कहानी में छेद ही छेद नजर आने लगे. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मनीष के सिर में चोट के गहने निषान एकदम बीच ओ बीच है. यह केवल गिरने से नहीं आ सकते. चोट काफी गहरी है. दहिने हाथ की कोहनी, कोहनी के उपर और कोहनी के नीचे चोट के निशान मिले है. बाई आंख की पुतली के उपर भी चोट के निशान है. इसके अलावा पेट के अंदरूनी हिस्से में भी चोट के निशान हैॅ. ऐसे चोट के निशान केवल गिरकर चोट खाने से नहीं आ सकते है.

गोरखपुर का मामला होने से विपक्ष भी हमलावर हो गया. बचाव की मुद्रा में आई योगी सरकार ने एक बार फिर से सरकारी सहायता देकर पीडित की पत्नी को राहत देने का काम किया. मनीष की पत्नी मीनाक्षी को कानपुर में सरकारी नौकरी और 10 लाख नकद मदद का भरोसा दिलाया. विपक्षी नेताओं के साथ ही साथ पीडित परिवार की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात कराई गई. हो सकता है कि यह मामला ठंडा पड जाये. पर क्या इससे प्रदेश की पुलिस बदलेगी ? इस सवाल का उत्तर ‘ना’ है. इसका कारण यह है कि पिछले 4 सालों में ऐसे तमाम मामले देखे गये है.

2019 में ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश  की राजधानी लखनऊ मंे घटित हुआ. एपल कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर विवेक तिवारी रात में औफिस के काम को खत्म करके घर वापस जा रहे थे. गाडी में उनके साथ कंपनी की महिला अधिकारी भी थी. गोमतीनगर इलाके में पुलिस ने विवके तिवारी को रूकने के लिये हाथ दिया. विवेक न गाडी रोकने में कुछ पल की देरी कर दी. इतने में एक सिपाही ने अपनी बाइक गाडी के आगे खडी कर कार को रोक लिया और फिल्मी अंदाज में रिवाल्वर निकाल कर विवेक तिवारी के सीधे माथे पर गोली मार कर मार डाला. मनीष गुप्ता जैसा ही हंगामा मचा. योगी सरकार ने विवेक की पत्नी को नौकरी दे कर मामले को ठंडा कर दिया.

सरकारी सहायता देकर मामले भले ही ठंडे हो जाये पर इससे पुलिस का चेहरा नहीं बदलने वाला. कानपुर का विकास दुबे कांड भी इसका उदाहरण है. जहां पुलिस ने विकास दुबे सहित उसके कई साथियों का एनकाउंटर किया. तमाम निर्दोष लोगों को जेल भेज रखा है. विकास दुबे अपराधी था. उसने भी पुलिस पर हमला की कई पुलिस वालों को मार दिया था. पर पुलिस कमजोर लोगों पर भी अत्याचार करती है. वह पीडित के साथ कम पीडा देने वाले के साथ अधिक रहती है. उन्नाव के भाजपा के विधायक कुलदीप सेंगर को रेप के मामले से बचाने के लिये पुलिस ने पीडित लडकी के परिवार पर जुल्म किये.

शाहजहांपुर में भाजपा के पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद के द्वारा अपने ही कोलज के लडकी से मसाज कराने और यौन शोषण का मसला सामने आया तो पुलिस ने पीडित का साथ ने देकर उसके खिलाफ ब्लैकमेल करने का मुकदमा दर्ज कराया गया. ऐसे मामलो की लंबी लिस्ट है. जहां पुलिस के उत्पीडन के मामले देखने को मिलते है. सामान्य मामलों में भी ऐसे बहुत से प्रमाण है. बस्ती जिल में दरोगा दीपक सिंह ने एक लडकी को अष्लील मैसेल भेजना शुरू किया. जब लडकी ने इस बात की शिकायत अपने परिवार के लोगों से की तो दारोगा ने उसके घर वालो कुछ लोगो से मिलकर पर मुकदमे करा दिये. ऐसे मामले बहुत सारे है.

नहीं बदल रही पुलिस की छवि:  उपन्यासकार वेदप्रकाश  शर्मा का उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’1993 में प्रकशित हुआ था. इसकी तैयारी में उनको लंबा समय लगा था. वेद प्रकाश शर्मा 80 के दशक पुलिस अत्याचार को देखा था. इसी को आधार लेकर इस उपन्यास को लिखा. 8 करोड प्रतियां इसकी बिक चुकी है. इसको सफलतम उपन्यास माना जाता है. इसका मूल विषय वर्दी पहन कर अपराध करने वाली पुलिस की कार्यशैली  थी. जिस समय वेद प्रकाश शर्मा इस उपन्यास की भूमिका बना रहे थे पुलिस एंकाउटर करने में सबसे आगे थी. इस पर सबसे बडा कारण यह था कि अपराधियों के एंकाउटर करने वाले पुलिस कर्मियों को ‘आउट औफ टर्न प्रमोशन’ मिलता था. इसके लालच में तमाम फर्जी एंकाउटर होने लगे थे. धीरेधीरे सरकार ने एंकाउटर पर रोक लगाने के लिये इसकी मजिस्ट्रेट जांच षुरू की. इसके अलावा ‘आउट औफ टर्न प्रमोशन’ को भी रोका गया.

पिछले 20-25 सालों में पुलिस की कार्यशैली  में सुधार के तमाम प्रयास किये गये. पुलिस को मित्र पुलिस बनाने उसको प्रोफेशनल बनाने के तमाम काम किये गये. इसके बाद भी पुलिस अभी भी वर्दी वाला गुंडा ही बनी हुई है. इसके एक नहीं तमाम उदाहरण देखने का मिल सकते है. उत्तर प्रदेश में जब योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभाला तो उन्होने पुलिस से कहा कि ‘प्रदेष को अपराधमुक्त करना है. अपराधी या तो जेल में रहे या उत्तर प्रदेश के बाहर रहे.’ इसके लिये पुलिस को ‘ठोंक दो’ का हथियार भी दे दिया. मुख्यमंत्री की छूट का नतीजा यह हुआ कि पुलिस बेलगाम हो गई. अपराध तो वह रोक नहीं सकी लोगों के घर गिराने और एंकाउटर करने के साथ ही साथ पुलिसिया उत्पीडन करने लगी.

बडी संख्या में गुंडा एक्ट लोगांे पर लगाया जाने लगा. मुख्यमंत्री ने अपराधियों के खिलाफ सख्ती करने का आदेष दिया था पुलिस आम लोगों को परेशान करने लगी. इसकी सबसे ताजी मिसाल मुख्यमंत्री के ही गृह जनपद गोरखपुर में घट गई. पुलिस के काम करने की शैली मुख्यमंत्री की छवि खराब हर रही है. इसकी सबसे बडी वजह यह कि पुलिस गृह विभाग के अंदर आती है. जिसके प्रमुख मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद है. पुलिस को तमाम छूट और सुविधाएं देने के बाद पुलिस अपना फेस बदलने को तैयार नहीं है.

आंकडे बताते है कि योगी राज में 21 मार्च 2017 से 15 फरवरी 2021 के बीच प्रदेश में पुलिस और अपराधियों के बीच 7500 मुठभेड हो चुकी है. 132 अपराधी मारे जा चुके है. 2900 से अधिक घायल हो चुके है. विकास दुबे के द्वारा मारे गये पुलिस वालों की संख्या जोडने के बाद 14 पुलिस के लोग शहीद हुये और 1100 घायल हो गये. पुलिस का काम कानून के राज को स्थापित करना है. लोगांे को सजा देने का काम कानून का है. उत्तर प्रदेश में पुलिस ने सजा देने का काम भी अपने हाथों में ले लिया. जिसकी वजह से सरकार की छवि खराब हो रही है. जिसका प्रभाव उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर पड सकता है.

Karan Mehra ने किया बड़ा खुलासा , Nisha Rawal को बताया गलत

टीवी सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में नैतिक का किरदार निभाने वाले करण मेहरा इन दिनों अपनी निजी लाइफ को लेकर चर्चा में बने हुए हैं. एक्टिंग से सभी के दिलों पर राज करने वाले करण मेहरा कि पत्नी निशा रावल ने उनपर मारपिट के आरोप लगाएं हैं.

कुछ महीने पहले ही निशा रावल मीडिया के सामने आईं थी, और उन्होंने बताया था कि किस तरह करण मेहरा ने उनके साथ मारपिट किया है. जिसके बाद से लगातार कई तरह कि खबरे आनी शुरू हो गई, कुछ लोग निशा के चोट के निशान को देखकर हैरान थें, तो वहीं कुछ लोग करण मेहरा के सपोर्ट में खड़े थें.

ये भी पढ़ें- The Kapil Sharma Show : Navjot Singh Sidhu के लिए अपनी कुर्सी

हाल ही में एक्टर ने एक टीवी चैनल को इंटरव्यू देते हुए निशा रावल को गलत बताया  है, उन्होंने कहा है कि निशा रावल ने मुझपर गलत इल्जाम लगाया था, मैं उनके साथ कोई मारपिट जैसी हरकत नहीं कि थी.

करण ने निशा के बारे में बात करते हुए कहा कि रात को निशा और रोहित साठिया उनके घर पर आएं और उन्हें धमकाएं और डराने की कोशिश किए साथ ही उनके परिवार को भी गाली दिया, लेकिन मैंने अपना आपा नहीं खोया, दोनों की बातों से परेशान होकर मैं बॉशरूम चला गया और जब मैं बाहर आया तो निशा का सर पटा हुआ था. खून निकल रहा था.

ये भी पढ़ें- Bigg Boss 15 Promo : धमाकेदार होगी Tejasswi Prakash की एंट्री,

उसने अपने सर पर खुद चोट मारी और इल्जाम मुझपर लगा दिया, मैंने रोहित से कहा कि इसका खून बंद करो तो वह फोन से फोटो लेने लगा, आगे करण ने कहा कि निशा ने जो मीडिया के सामने बात बताई और एफआईआर में जो रिपोर्ट दर्ज करवाई है वो दोनों बिल्कुल अलग है.

निशा रावल और करण मेहरा का मामला अब कोर्ट में है दोनों बच्चों को लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं.

इस महीने दुल्हन बनेंगी Mouni Roy जानें कौन है दूल्हा

टीवी एक्ट्रेस  मौनी रौय (Mouni Roy) लंबे समय से अपने पर्सल लाइफ को लेकर चर्चा में बनी हुईं है, इन दिनों मौनी रौय का नाम दुबई के जाने मानें बैंकर सूरज  नांबियार  (Suraj Nambiar ) के साथ जुड़ रहा है. पिछले कई महीनों से यह खबर आ रही थी कि जल्द ही मौनी रौय (Mouni Roy ) रॉय सूरज के साथ शादी करने वाली हैं.

हालांकि अब इस खबर पर मौनी रौय के कजिन ने मोहर लगा दिया है कि मौनी रौय जल्द शादी के बंधन में बंधेगी, खबर है कि  मौनी रौय की शादी की रस्में दुबई या फिर इटली में होगी इसके अलावा वह कुछ फंक्शन अपने होम टाउन में भी करेंगी.

ये भी पढ़ें- The Kapil Sharma Show : Navjot Singh Sidhu के लिए अपनी कुर्सी

इसी साल  मौनी रौय ने अपनी खास दोस्त मंदिरा बेदी के घर पर सूरज नांबियार की फैमली से मुलाकात की थी, मौनी रौय  के कजिन विद्यूत रॉय सरकार ने एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया है कि मौनी रौय  की शादी जनवरी 2022 में होगी, वह अपने पूरे परिवार के साथ मॉनी की शादी को अटेंड करने वाले हैं.

ये भी पढ़ें- Bigg Boss 15 Promo : धमाकेदार होगी Tejasswi Prakash की एंट्री,

सूरज से पहले भी मौनी रौय का नाम कई लोगों के साथ जुड़ चुका है, सीरियल देवों के देव महादेव के समय में  मौनी रौय  का नाम मोहित रैना के साथ जुड़ा था, लंबे समय तक यह एक-दूसरे को डेट करते रहे थें, सोशल मीडिया पर भी एक दूसरे के साथ फोटो शेयर करते थें, लेकिन ब्रेकअप के बाद इन दोनों ने एक-दूसरे को इग्नोर करना शुरू कर दिया था.

अगर  मौनी रौय  की वर्कफ्रंट की बात करें तो  मौनी रौय को आखिरी समय जी5 के शो लंदन कॉन्फिडेंशियल में देखा जा चुका है, ये सितम्बर 2020 में रिलीज हुई थी, इसके अलावा जल्द ही मौनी रौय बॉलीवुड कि बिग बजट फिल्म ब्रह्मशास्त्र में नजर आने वाली हैं.

एक जहां प्यार भरा : भाग 3

उस के पापा ने नाराज होते हुए कहा, ‘‘लड़की की भाषा, रहनसहन, खानपान, वेशभूषा सब बिलकुल अलग होगा. कैसे निभाएगी वह हमारे घर में? रिश्तेदारों के आगे हमारी कितनी बदनामी होगी.’’ इत्सिंग ने उन्हें भरोसा दिलते हुए कहा, ‘‘डौंट वरी पापा, रिद्धिमा सब कुछ संभाल लेगी. यह खुद को बदलने के लिए तैयार है. यह चाइनीज कल्चर अडौप्ट करेगी.’’

‘‘पापा वह चाइनीज जानती है. उस ने चाइनीज लैंग्वेज में ही ग्रैजुएशन की है. वह बहुत अच्छी चाइनीज बोलती है,’’  इत्सिंग ने अपनी बात रखी. यह सुन कर उस के पापा के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई. थोड़ी नानुकुर के बाद उस के मम्मीपापा ने भी मुझे अपना लिया. उस के पिता हमारी शादी के लिए तैयार तो हो गए, मगर उन्होंने हमारे सामने एक शर्त रखते हुए कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि तुम दोनों की शादी चीनी रीतिरिवाज के साथ हो. इस में मैं किसी की नहीं सुनूंगा.’’

‘‘जी पिताजी,’’ हम दोनों ने एकसाथ हामी भरी. बाद में जब मैं ने अपने मातापिता को यह बताई तो वे अड़ गए. वे मुझे अपने घर से विदा करना चाहते थे और वह भी पूरी तरह भारतीय रीतिरिवाजों के साथ. मैं ने यह बात इत्सिंग को बताई तो वह भी सोच में डूब गया. हम किसी को भी नाराज नहीं कर सकते थे, पर एकसाथ दोनों की इच्छा पूरी कैसे करें, यह बात समझ नहीं आ रही थी.

तभी मेरे दिमाग में एक आइडिया आया, ‘‘सुनो इत्सिंग क्यों न हम बीच का रास्ता निकालें?’’ ‘‘मतलब?’’ ‘‘मतलब हम चाइनीज तरीके से भी शादी करें और इंडियन तरीके से भी.’’‘‘ऐसा कैसे होगा रिद्धिमा?’’

‘‘आराम से हो जाएगा. देखो हमारे यहां यह रिवाज है कि दूल्हा बरात ले कर दुलहन के घर आता है. तो तुम अपने खास रिश्तेदारों के साथ इंडिया आ जाना. इस के बाद हम पहले भारतीय रीतिरिवाजों को निभाते हुए शादी कर लेंगे. उस के बाद अगले दिन हम चाइनीज रिवाजों को निभाएंगे. तुम बताओ कि चाइनीज वैडिंग की खास रस्में क्या हैं, जिन के बगैर शादी अधूरी रहती है?’’

‘‘सब से पहले तो बता दूं कि हमारे यहां एक सेरेमनी होती है जिस में कुछ खास लोगों की उपस्थिति में कोर्ट हाउस या गवर्नमैंट औफिस में लड़केलड़की को कानूनी तौर पर पतिपत्नी का दर्जा मिलता है. कागजी कार्यवाही होती है.’’

‘‘ठीक है यह सेरेमनी तो हम अभी निबटा लेंगे. इस के अलावा बताओ और क्या होता है?’’‘‘इस के अलावा टी सेरेमनी चाइनीज वैडिंग का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इसे चाइनीज में जिंग चा कहा जाता है, जिस का अर्थ है आदर के साथ चाय औफर करना. इस के तहत दूल्हादुलहन एकदूसरे के परिवार के प्रति आदर प्रकट करते हुए पहले पेरैंट्स को, फिर ग्रैंड पेरैंट्स को और फिर दूसरे रिश्तेदारों को चाय सर्व करते हैं. बदले में रिश्तेदार उन्हें आशीर्वाद और तोहफे देते हैं.’’

‘‘वह तो ठीक है इत्सिंग पर इस मौके पर चाय ही क्यों?’’ ‘‘इस के पीछे भी एक लौजिक है.’’ ‘‘अच्छा वह क्या?’’ मैं ने इंट्रैस्ट के साथ पूछा.‘‘देखो यह तो तुम जानती ही होगी कि चाय के पेड़ को हम कहीं भी ट्रांसप्लांट नहीं कर सकते. चाय का पेड़ केवल बीजों के जरीए ही बढ़ता है. इसलिए इसे विश्वास, प्यार और खुशहाल परिवार का प्रतीक माना जाता है.’’

‘‘गुड,’’ कह कर मैं मुसकरा उठी. मुझ इत्सिंग से चाइनीज वैडिंग की बातें सुनने में बहुत मजा आ रहा था.मैं ने उस से फिर पूछा, ‘‘इस के अलावा और कोई रोचक रस्म?’’‘‘हां एक और रोचक रस्म है और वह है गेटक्रशिंग सैशन. इसे डोर गेम भी कह सकती हो. इस में दुलहन की सहेलियां तरहतरह के मनोरंजनक खेलों के द्वारा दूल्हे का टैस्ट लेती हैं और जब तक दूल्हा पास नहीं हो जाता वह दुलहन के करीब नहीं जा सकता.’’

इस रिवाज के बारे में सुन कर मुझे हंसी आ गई. मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘थोड़ीथोड़ी यह रस्म हमारे यहां की जूताछिपाई रस्म से मिलतीजुलती है.’’‘‘अच्छा वही रस्म न जिस में दूल्हे का जूते छिपा दिए जाते और फिर दुलहन की बहनों द्वारा रिश्वत मांगी जाती है.’’

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘हां यही समझ लो. वैसे लगता है तुम्हें भी हमारी रस्मों के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी है.’’‘‘बिलकुल मैडम यह गुलाम अब आप का जो बनने वाला है.’’उस की इस बात पर हम दोनों हंस पड़े.‘‘तो चलो यह पक्का रहा कि हम न तुम्हारे पेरैंट्स को निराश करेंगे और न मेरे पेरैंट्स को,’’ मैं ने कहा.

‘‘बिलकुल.’’और फिर वह दिन भी आ गया जब दिल्ली के करोलबाग स्थित मेरे घर में जोरशोर से शहनाइयां बज रही थीं. हम ने संक्षेप में मगर पूरे रस्मोंरिवाजों के साथ पहले इंडियन स्टाइल में शादी संपन्न की जिस में मैं ने मैरून कलर की खूबसूरत लहंगाचोली पहनी. इत्सिंग ने सुनहरे काम से सजी हलके नीले रंग की बनारसी शाही शेरवानी पहनी थी जिस में वह बहुत जंच रहा था. उस ने जिद कर के पगड़ी भी बांधी थी. उसे देख कर मेरी मां निहाल हो रही थीं.

अगले दिन हम ने चीनी तरीके से शादी की रस्में निभाईं. मैं ने चीनी दुलहन के अनुरूप खास लाल ड्रैस पहनी जिसे वहां किपाओ कहा जाता है. चेहरे पर लाल कपड़े का आवरण था. चीन में लाल रंग को खुशी, समृद्धि और बेहतर जीवन का प्रतीक माना जाता है. इसी वजह से दुलहन की ड्रैस का रंग लाल होता है.

सुबह में गेटक्रशिंग सैशन और टी सेरेमनी के बाद दोपहर में शानदार डिनर रिसैप्शन का आयोजन किया गया. दोनों परिवारों के लोग इस शादी से बहुत खुश थे. इस शादी को सफल बनाने में हमारे रिश्तेदारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. दोनों ही तरफ के रिश्तेदारों को एकदूसरे की संस्कृति और रिवाजों के बारे में जानने का सुंदर अवसर भी मिला था.

इसी के साथ मैं ने और इत्सिंग ने नए जीवन की शुरुआत की. हमारे प्यारे से संसार में 2 फूल खिले. बेटा मा लोंग और बेटी रवीना. हम ने अपने बच्चों को इंडियान और चाइनीज दोनों ही कल्चर सिखाए थे. आज दीवाली थी. हम बीजिंग में थे, मगर इत्सिंग और मा लोंग ने कुरतापाजामा और रवीना ने लहंगाचोली पहनी हुई थी.

व्हाट्सऐप वीडियो कौल पर मेरे मम्मीपापा थे और बच्चों से बातें करते हुए बारबार उन की आंखें खुशी से भीग रही थीं.सच तो यह है कि हमारा परिवार न तो चाइनीज है और न ही इंडियन. मेरे बच्चे एक तरफ पिंगपोंग खेलते हैं तो दूसरी तरफ क्रिकेट के भी दीवाने हैं. वे नूडल्स भी खाते हैं और

आलू के परांठों के भी मजे लेते हैं. वे होलीदीवाली भी मनाते हैं और त्वानवू या मिड औटम फैस्टिवल का भी मजा लेते हैं. हर बंधन से परे यह बस एक खुशहाल परिवार है. यह एक जहान है प्यार भरा.

मां का दिल

इलाज के लिए राजू का डीएनए टेस्ट कराया जाना जरूरी था, मगर उस के पिता दिनेश खुद इस टेस्ट के लिए राजी नहीं हो रहे थे. आखिर क्यों… 2साल के राजू को गोद में खेलाते हुए माला ने अपनी बहन सोनू से कहा, ‘‘सोनू, पता नहीं क्यों मु झे कभीकभी ऐसा लगता है जैसे राजू हमारी संतान नहीं.’’? ‘‘पगला गई हो क्या दीदी, यह क्या कह हो? राजू आप की संतान नहीं तो क्या बाजार से खरीदा है जीजू ने?’’ कह कर 16 साल की सोनू जोरजोर से हंसने लगी. मगर माला के चेहरे की शिकन कम नहीं हुई. राजू के चेहरे को गौर से देखती हुई बोली, ‘‘जरा इस की आंखें देख. न तेरे जीजू से मिलती हैं, न मु झ से. आंखें क्यों पूरा चेहरा ही हमारे घर में किसी से नहीं मिलता.’’ ‘

‘मगर दीदी, बच्चे का चेहरा मांबाप जैसा ही हो, यह जरूरी तो नहीं. कई बार किसी दूर के रिश्तेदार या फिर जिसे आप ने प्रैगनैंसी के दौरान ज्यादा देखा हो, उस से भी मिल सकता है. वैसे यह अभी बहुत छोटा है, बड़ा होगा तो अपने पापा जैसा ही दिखेगा.’’ ‘‘बाकी सबकुछ छोड़. इस का रंग देख. मैं गोरी, मेरी बेटी दिशा गोरी, मगर यह सांवला. तेरे जीजू भी तो गोरे ही हैं न. फिर यह…’’ ‘‘अरे दीदी, लड़कों का रंग कहां देखा जाता है. वैसे भी यह 21वीं सदी का बच्चा है. जनवरी, 2001 की पैदाइश है. इस की बर्थडेट खुद में खास है. 11/1/2001 को जन्म लेने वाला यह तुम्हारा लाड़ला जरूर जिंदगी में कुछ ऐसा काम करेगा कि तुम दोनों का भी नाम हो जाएगा,’’ सोनू ने प्यार से राजू को दुलारते हुए कहा.

ये भी पढ़ें- म्लेच्छ : क्यों मुस्लिम किराएदार से परेशान थे सोसायटी वाले

‘‘वह तो मैं मानती हूं सोनू कि लड़कों का रंग नहीं देखते और फिर मां के लिए तो अपने बच्चे से प्यारा कुछ हो ही नहीं सकता पर यों कभीकभी कुछ बातें दिमाग में आ जाती हैं.’’ ‘‘याद है दीदी, इस के जन्म वाले दिन जीजू कितने खुश थे. इसे बांहों में ले कर झूम उठे थे. बेटा हुआ है, इस बात की खुशी उन के चेहरे पर देखते ही बनती थी. मु झे तो लगता है जैसे जीजू इस पर जान छिड़कते हैं और एक तुम हो जो इसे…’’ ‘‘देख सोनू, जान तो मैं भी छिड़कती हूं पर कभीकभी संदेह सा होता है. मैं तो बच्चे को जन्म दे कर बेहोश हो गई थी. बाद में तेरे जीजू ने ही इसे मेरी बांहों में डाला था.’’ तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सोनू ने दरवाजा खोला तो सामने अपने जीजा दिनेश को देख कर मुसकरा उठी. दिनेश की आवाज सुनते ही नन्हा राजू मां की गोद से छिटक कर बाहर भागा और बाप की बांहों में झूल गया.

दिनेश ने तुरंत चौकलेट उस के नन्हे हाथों में थमा दिया. सोनू मुसकराते हुए बोली, ‘‘यह है बापबेटे का मिलन. दीदी, देख लो अपनी आंखों से तुम्हारा राजू अपने पिता से कितना प्यार करता है.’’ माला ने एक ठंडी आह भरी और पुराने खयालों में खो गई. उसे याद आ रहा था वह दिन जब दिशा पैदा हुई थी. घरभर में एक अनकही सी उदासी पसर गई थी. सास ने बुरा सा मुंह बना लिया था. उस पर दिनेश भी खुश नहीं थे. बच्ची को गोद में उठा कर चूमा भी नहीं. बस, दूर से ही देख कर चले गए थे. माला मानती है कि घर में सब लड़के की बाट जोह रहे थे. मगर इस का मतलब यह तो नहीं कि बेटी को प्यार ही न करें, उस के साथ सौतेला व्यवहार किया जाए. आज दिशा 5 साल की हो गई है, पर मजाल है कि कभी दिनेश उस के लिए चौकलेट ले कर आए हों. बेटे के पीछे ऐसा भी क्या पागलपन कि बेटी को बिलकुल ही इग्नोर कर दिया जाए. वक्त यों ही गुजरता रहा. माला को 2 बेटियां और हुईं. हर बार सास और पति का मुर झाया चेहरा उसे अंदर तक तोड़ देता.

ये भी पढ़ें- लौकडाउन और अपराध : भाग 2

राजू दीदी और पापा की आंखों का तारा था. वह अब स्कूल जाने लगा था और जिद्दी भी हो गया था. स्कूल से उस की बदमाशियों की शिकायतें अकसर आने लगी थीं. माला अकसर सोचती कि उस का बेटा तीनों बेटियों से कितना अलग है. कभीकभी मन में शक गहराता कि क्या वाकई वह उस का बेटा है? फिर मन को सम झा लेती कि हो न हो, ये सब उसे मिलने वाले हद से ज्यादा प्यारदुलार का नतीजा हो. दिनेश इन शिकायतों के प्रति आंख मूंद लेता. माला कुछ कहती तो हंस कर कहता, ‘‘माला, जरा सोचो, हमारा एक ही बेटा है. इसे ही अपना सारा प्यारदुलार देना है. आखिर बुढ़ापे में यही तो हमारे काम आएगा.’’ ‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो? तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि बेटियां काम नहीं आएंगी?’’ ‘‘क्यों माला, क्या तुम कभी अपनी मां के काम आ सकीं? तुम तो इतनी दूर हो मायके से, बताओ कैसे काम आओगी? इसी तरह हमारी बच्चियां भी कल को ब्याह कर बहुत दूर चली जाएंगी.

जमाने की रीत है यह. फिर हम चाहेंगे तो भी उन्हें अपने पास नहीं बुला सकेंगे. हमारे लिए अपना राजू ही खड़ा होगा.’’ दिनेश की बात सुन कर माला का दिल रो पड़ा. सचमुच वह अपनी मां के लिए कुछ भी नहीं कर पाई थी. उस की मां का पैर टूट गया था. वे महीनों बिस्तर पर पड़ी रहीं. मगर सास ने उसे बच्चों को छोड़ कर जाने की अनुमति नहीं दी. वैसे भी तब राजू कुल 4 महीने का था. वह चाह कर भी नहीं जा सकी. दिनेश भले ही कड़वा बोल रहा था मगर कहीं न कहीं यही सच था. समाज ने बेटियों के पैरों में बेडि़यां जो डाल रखी हैं. माला अकसर राजू को पढ़ाते हुए सोचती कि वह अपनी बेटियों को भी खूब पढ़ाएगी. बड़ी बेटी को दिनेश ने 8वीं के बाद घर पर बैठा लिया था और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू कर दी थी. मगर दोनों छोटी बेटियों को आगे पढ़ाने के लिए माला अड़ गई.

वक्ता गुजरता गया. राजू ने 12वीं कक्षा पास कर ली. बाकी विषयों में साधारण होने के बावजूद वह मैथ में काफी तेज निकला. पूरे खानदान में कोई भी मैथ में कभी इतने अच्छे नंबर नहीं लाया था. राजू के नंबर इतने अच्छे थे कि दिनेश ने उसे इंजीनियरिंग पढ़ाने की ठान ली. एक अच्छे कालेज में दाखिले और फीस के लिए बाकायदा उस ने रुपयों का इंतजाम भी कर लिया था. मगर कुछ समय से राजू को कई तरह की शारीरिक परेशानियां महसूस होने लगी थीं. उसे आजकल आंखों से धुंधला दिखने लगा था. एक आंख की रोशिनी काफी कम हो गई थी. बारबार हाथपैर सुन्न होने लगे थे. बोलने में भी कई बार कठिनाई होने लगती. उस ने घर वालों को ये सारी बातें बताई थीं. इंजीनियरिंग ऐंट्रैंस टैस्ट से ठीक एक दिन पहले वह अचानक लड़खड़ा कर गिर पड़ा. माला ने हड़बड़ा कर उसे उठाया तो वह रोने लगा. ‘‘क्या हुआ बेटे?’’ माला ने घबरा कर पूछा तो उस ने बड़ी मुश्किल से अपनी सारी तकलीफों के बारे में विस्तार से बताया. अब तक दिनेश भी आ गया था.

उस ने देर नहीं की और तुरंत बेटे को डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने कई तरह के टैस्ट लिख दिए. जांच के बाद पता चला कि उसे मल्टीपल स्क्लेरोसिस की समस्या है. मल्टीपल स्क्लेरोसिस एक औटोइम्यून डिजीज है, जिस में सैंट्रल नर्वस सिस्टम प्र्रभावित होता है. इस में देखने, बात करने, चलने और ध्यान एकाग्र करने से जुड़ी समस्याएं पैदा होती हैं. इंसान अपना संतुलन खो बैठता है. इस से पीडि़त व्यक्ति कई बार लकवे का शिकार भी हो जाता है. डाक्टरों के मुताबिक, राजू के शरीर का एक हिस्सा आंशिकरूप से लगवाग्रस्त भी हो गया था. यह बीमारी कभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हो पाती. राजू की बीमारी काफी गंभीर हालत में पहुंच चुकी थी और लाखों रुपयों का खर्च आना था. राजू पूरी तरह ठीक हो सकेगा या नहीं, इस बारे में भी श्योर नहीं कहा जा सकता था.

इस बीच डाक्टर ने दिनेश और माला का डीएनए टैस्ट कराने की बात की. यह टैस्ट की बीमारी बेहतर ढंग से सम झने और सही इलाज के लिए जरूरी था. माला तो तुरंत तैयार हो गई, मगर दिनेश टैस्ट कराने से आनाकानी करने लगा. माला ने लाख कहा मगर वह तैयार नहीं हो रहा था. बाद में जब डाक्टर ने इस टैस्ट की आवश्यकता बताते हुए दिनेश को सम झाया तो वह हार कर टैस्ट कराने को तैयार हो गया. जब टैस्ट की रिपोर्ट आई तो सब दंग रह गए. रिपोर्ट के मुताबिक, दिनेश और माला राजू के मांबाप नहीं थे. माला ने सवालिया नजरों से पति की तरफ देखा तो दिनेश अनजान बनते हुए वहां से चला गया. शाम को घर लौटा तो माला ने एक बार फिर पति से राजू के जन्म का राज पूछा, तो दिनेश फूटफूट कर रोने लगा. माला ने उसे सहारा दिया तो उस के कंधों पर सिर रखते हुआ बोला, ‘‘माला, मां की बहुत इच्छा थी कि हमारा भी एक बेटा हो. ऐसा ही कुछ मैं भी चाहता था. मगर दूसरी बेटी को जन्म दे कर जब तुम बेहोश हो गईं तो मैं ने देखा कि उसी वार्ड में एक महिला ने बेटे को जन्म दिया था.

उस के 2 बेटे पहले से थे. मेरा मन डोल गया. मैं ने उस बच्चे के बाप से बात की. बेटी के बदले बेटा लेना चाहा तो उस ने साफ इनकार कर दिया. फिर मैं ने एक मोटी रकम का लालच दिया. थोड़ा सोचविचार कर वह तैयार हो गया. हम दोनों ने जल्दीजल्दी अपने बच्चे बदल लिए. ‘‘मेरी गोद में राजू आ गया. उसे पा कर मैं बहुत खुश था. मु झे न उस की जाति की परवा थी और न खानदान की. मेरे लिए तो इतना ही काफी था कि वह एक लड़का है और अब से मेरा बेटा कहलाएगा,’’ यह कहतेकहते दिनेश फिर से रोने लगा और माफी मांगते हुए आगे बोला, ‘‘माला, मु झे माफ कर दो. बेटे की चाह में मैं बावला हो गया था. अपनी बिटिया किसी और को सौंप कर दूसरे का बच्चा घर ले आया. शायद इसी बात की सजा मिली है मु झे.’’ ‘‘ऐसा मत कहो दिनेश, अब जो हो गया सो हो गया.

शायद इसी वजह से मु झे अकसर संदेह होता था कि यह बच्चा मेरा नहीं. बचपन में इसे सीने से लगाने पर वह दिली तृप्ति नहीं मिलती थी जो अपने बच्चे को लगाने पर मिलती है. तुम ने जो भी किया सासूमां की खुशी के लिए किया. मगर याद रखो, खुशी खरीद कर नहीं मिल सकती. जो हमें मिला है हमें उसी में खुश रहना चाहिए.’’ मांबाप की ये सारी बातें कमरे के बाहर खड़ी माला की छोटी बिटिया ने सुन लीं. उस ने बड़ी बहन को भी सारी बातें बता दीं. दोनों बेटियां चुपकेचुपके कमरे में दाखिल हुईं. दिनेश ने पत्नी को अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘माला, जो हुआ उसे भूल जाओ. मगर मैं अब अपने किए का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. अब तक अपनी दोनों बेटियों का हक मारता रहा, मगर अब और नहीं. राजू के इलाज पर लाखों रुपए खर्च होंगे. वे रुपए हमारी बच्चियों के हक के हैं. वह कभी ठीक हो सकेगा या नहीं, यह भी श्योर नहीं कहा जा सकता.

हमें राजू को अपनी जिंदगी से निकाल देना चाहिए, यही सब के लिए अच्छा होगा.’’ ‘‘चुप कर, नैना,’’ अचानक माला चीखी. फिर पति की तरफ देखती हुई बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हो तुम? एक गलती सुधारने के लिए उस से बड़ी गलती करना चाहते हो? इतना बड़ा अपराध करना चाहते हो? क्या ऐसा करने पर तुम्हारा दिल तुम्हें कोसेगा नहीं? जिस बच्चे को आज तक हम अपना बच्चा मान कर इतने लाड़प्यार से पालते आ रहे हैं, आज अचानक वह पराया हो गया? क्या उस की बीमारी का बहाना बना कर हम उसे अकेला छोड़ देंगे?’’ बड़ी बेटी ने कंधे उचकाते हुए कहा, ‘‘देखो न मां, आज तक हमारे हिस्से का लाड़प्यार और सुखसुविधाएं भी भाई को मिलती रहीं. भाई को आप ने अलग कमरा दिया. अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाया. ट्यूशन लगवाई. उस की हर जरूरत बढ़चढ़ कर पूरी की. मगर सब बेकार गया न. अब तो वह उम्रभर उठ ही नहीं सकेगा. फिर इलाज का क्या फायदा? जाने दो भाई को.

कहीं छोड़ आओ उसे. वह आप का खून भी नहीं, फिर बेकार घर में रख कर इलाज में रुपए लगाने का क्या फायदा?’’ ‘‘वाह बेटे, आप तो इतने बड़े हो गए कि हर चीज में फायदा देखने लगे. मैं भी फायदा देखती तो बेटियों को पढ़ाती ही नहीं. फायदा क्या है, वे तो ससुराल चली जाएंगी न. बचपन से जिस भाई की कलाई में राखी बांधती आ रही हो, आज वह पराया हो गया? रिश्ते क्या केवल खून के होते हैं? भाई से तुम लोगों का दिल का कोई रिश्ता नहीं?’’ बेटी की बातें माला के कानों में जहर जैसी चुभ रही थीं. बेटी के गालों पर एक तमाचा जड़ती हुई वह चीखी, ‘‘खबरदार जो किसी ने मेरे बेटे के खिलाफ एक शब्द भी कहा, वह मेरे पास रहेगा और मेरे दिल का टुकड़ा बन कर रहेगा.’’ ‘‘पैसा है या नहीं, हम उस की सेवा करेंगे. उस का खयाल रखेंगे. वैसे बहुत सी बीमारियां प्राकृतिक जड़ीबूटियों या घरेलू उपायों से भी ठीक हो जाती हैं. जरूरत पड़ी तो किसी बड़े नहीं, छोटे अस्पताल में तो इलाज करा ही लेंगे.

लेकिन इस तकलीफ के समय उसे अकेला नहीं छोड़ेंगे. यदि राजू सच में हमारा बच्चा होता तो भी क्या तुम उसे ऐसे छोड़ देते? नहीं न? तो फिर अब क्यों? राजू मेरी बेटियों का हक नहीं मार रहा. उसे अब तक अपना बच्चा मान कर पालापोसा है, तो आगे भी वह मेरा बेटा रहेगा. भूले से भी मु झे मेरे बच्चे से जुदा करने की बात न सोचना और हां, तुम में से कोई भी राजू से इस सचाई के बारे में नहीं बताएगा,’’ माला ने अपना फैसला सुना दिया. दूसरे कमरे में लेटा राजू सबकुछ सुन रहा था. एक तरफ आत्मग्लानि, दूसरी तरफ बीमारी का दर्द और उस पर पिता व बहनों की इस सोच ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था. वह खुद को बहुत असहाय महसूस कर रहा था. मगर मां की बातें उसे जख्मों पर मरहम लगाने का काम कर रही थीं. सारा दर्द उस की आंखों से पानी बन कर बह निकला था. उसे बचपन से अब तक की अपनी जिंदगी के लमहे याद आ रहे थे… छोटा सा था वह जब मां के आंचल में छिप कर शरारतें करता. जैसेजैसे बड़ा हुआ वैसेवैसे जिद्दी होता गया. जो भी जिद करता, घर वाले उसे पूरा करते. घर में अपनी मरजी चलाता.

बहनों को डांटता, तो कभी प्यार भी करता. आज वे सारे रिश्ते बेगाने हो चले थे. वह अचानक चीखा, ‘‘मां, इधर आओ.’’ माला दौड़ी गई. पीछेपीछे पिता और बहनें भी उस के कमरे में आ गए. राजू मां का हाथ थाम कर रोते हुए बोला, ‘‘मां, आज तक मैं ने जितनी भी गलतियां कीं उन के लिए आप सब मु झे माफ कर दो और मां, मेरी बहनों पर आप नाराज न होना. मेरी बहनें जो कह रही हैं और पापा ने जो कहा है वह सही है. कहीं छोड़ आओ मु झे. किसी धर्मशाला या आश्रम में पड़ा रहूंगा. आप लोगों को परेशान नहीं करना चाहता. मेरी बहनों को हर खुशी मिलनी चाहिए. उन के रास्ते में मैं बाधा नहीं बनना चाहता.’’ ‘‘चुप हो जा मेरे बच्चे,’’ मां ने प्यार से उस का माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘तू बड़ा भाई है. तेरी बहनों को खुशी तभी मिलेगी जब उन के पास तेरा प्यार और आशीर्वाद रहेगा. तू वादा कर हमेशा मेरी आंखों के आगे रहेगा.’’ दोनों बहनें भी भाई के प्यार को महसूस कर रही थीं.

दोनों बेटियां मां के गले लग गईं और बोलीं, ‘‘मां, आप बिलकुल सही हैं, हम अपने भाई को कहीं भी जाने नहीं देंगे.’’ दिनेश को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था. उस ने माला का हाथ थामते हुए कहा, ‘‘माला, मां के दिल जैसा कोई दिल नहीं होता. मु झे गर्व है कि तुम मेरी पत्नी हो. आज के बाद ऐसी बात मेरे जेहन में नहीं आएगी. हम सब मिल कर हमेशा राजू का साथ देंगे. मु झे माफ कर दे राजू बेटा. मैं बहुत स्वार्थी हो गया था, पर तेरी मां ने मेरी आंखें खोल दीं.’’ बेटियों ने भी हामी में सिर हिलाया, तो माला की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. द्य ‘‘दूसरे कमरे में लेटा राजू सबकुछ सुन रहा था. एक तरफ आत्मग्लानि, दूसरी तरफ बीमारी का दर्द और उस पर पिता व बहनों की इस सोच ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था…’’

अंतिम फैसला

मुद्दा: लाठी डंडे नहीं समाधान मांगता है युवा

लेखक- रोहित

मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार ने नौकरी मांग रहे बेरोजगार युवाओं पर लाठीडंडे चला कर यह साबित कर दिया है कि वह इन मुद्दों पर संवेदनशील नहीं है. भारत देश में बात अगर लाठी और लाठीचार्ज के अंतर की हो तो लाठी हमारे सामाजिक परंपरा का हिस्सा रही है जबकि लाठीचार्ज राजनीतिक परंपरा. सरकारें आईं और गईं, लेकिन लाठी हर दौर की राजनीति का अंतिम सत्य रही. लाठी का जिस ने जितना प्रयोग किया, उतना उस ने पार पा लिया. न जाने कितनी ही आवाजें लाठी के लठेड़ों से निकलती चीख के साथ उठते ही अगले पल दब जाती हैं. यह लाठी ही है जो भूखे को भूखा रहना सिखाती है,

बेरोजगार को बेगारी सिखाती है और आमजन को महंगाई की मार झेलना. भूख, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, पानी इत्यादि जो भी मांग जनता की तरफ से उठती है, उसे यह सब छोड़ भेंट में तड़तड़ाती लाठी प्राप्त होती है. आजादी से पहले तो यह ‘उपहारस्वरूप’ अंगरेजों से मिलती थी, पर आजादी के बाद इस परंपरा को जस का तस बरकरार रखा गया. तभी नौकरी की मांग कर रहे युवाओं से ले कर कानून वापसी की मांग कर रहे किसानों पर यह लाठी बरस पड़ती है. वहीं, सरकारों की भी अपनी कुछ मजबूरियां होती हैं, जिम्मेदारियां होती हैं जिन्हें वे निभाती चलती हैं. शायद तभी हताश जनता पर पड़ती लाठियां इन्हीं जिम्मेदारियों और मजबूरियों से कमाल का फ्यूजन क्रिएट कर जाती हैं, जिसे लोग तानाशाही कहते हैं. सरकार के ही पिछले 7 सालों के ‘रामराज्य’ रूपी शासन को देखें तो आमजनों की पीड़ा और लाठी के अनुभव गजब तालमेल से बैठते रहे हैं.

ये भी पढ़ें- ‘निर्भया-एक पहल’ 75,000 महिलाओं के लिए जागरूकता कार्यक्रम

जबजब बात मुद्दों पर आई, तबतब लपलपाती लाठी पीठ पर छप गई. मध्य प्रदेश में लाठीचार्ज ऐसे ही 18 अगस्त को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रोजगार की मांग कर रहे बेरोजगार युवाओं पर शिवराज सरकार ने जम कर लाठियां भांजीं. प्रदर्शनकारी प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से आए युवाओं द्वारा भोपाल में ‘मूवमैंट अगेंस्ट अनएम्प्लौयमैंट’ के बैनर तले प्रदर्शन कर रहे थे. सभी युवा अपनी जायज मांगों के साथ इकट्ठा हुए थे, जिस का सपना दिखा कर भाजपा जीती है. शिवराज सरकार पर युवाओं का आरोप था कि सरकार ने बीते 4 सालों में खाली पड़े पदों पर न तो भरतियां निकालीं, न ही कोई तय घोषणा की थी. बैकलाग पदों पर 17 सालों से प्रदेश में भरती नहीं की गई थी. बीते 4 सालों से प्रदेश में कोई भी बड़ी भरती नहीं निकली. इसे ले कर बेरोजगार युवा भोपाल में शांतिपूर्ण ढंग से रैली निकाल रहे थे.

विरोध प्रदर्शन में लाठीचार्ज का वाकेआ तब हुआ जब युवा नीलम पार्क से अपना आंदोलन आगे बढ़ा रहे थे. वहां पुलिस ने बल प्रयोग करते हुए युवाओं को दौड़ादौड़ा कर पीटा. इस से 25 से ज्यादा बेरोजगार युवा घायल हो गए. इन में 100 से अधिक युवाओं के ऊपर कई धाराओं 341, 149 एवं 353 के तहत मामले दर्ज किए गए. इन में वे लोग भी धरना दे रहे थे जो शिक्षक भरती परीक्षा पास कर चुके थे. पुलिस ने उन्हें भी बल प्रयोग कर हटा दिया. पीछे कुआं, आगे खाई युवाओं द्वारा सरकार को सौंपे ज्ञापन में कहा गया था कि ‘प्रदेश में सरकारी विभागों में भरती न होने पर लाखों शिक्षित युवा बेरोजगारी के चलते हताश हैं. इस से वे तनाव में आत्मघाती कदम भी उठा रहे हैं. बीते दिनों राजगढ़ के एक युवा ने सुसाइड नोट में प्रदेश के मुख्यमंत्री को संबोधित करते हुए सरकारी नौकरी नहीं मिलने का जिक्र कर आत्महत्या कर ली थी.

ये भी पढ़ें- बोल कि लब आजाद हैं तेरे

ठीक इसी दिन एसएससी जीडी परीक्षा में उत्तीर्ण उम्मीदवारों ने नियुक्तिपत्र जारी करने की मांग करते हुए दिल्ली के जंतरमंतर पर प्रदर्शन किया था. उस दौरान पुलिस ने उन पर भी लाठीजार्च किया और कई लोगों को हिरासत में ले लिया. यह कोई इकलौता मामला नहीं. इसी साल जून माह में बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान में कई बेरोजगार युवा नौकरी की मांग के लिए इकट्ठा हुए थे. वे सभी नीतीश सरकार से बिहार में रुकी भरतियों की बहाली की मांग कर रहे थे. रोजगार की मांग को ले कर युवाओं ने गांधी मैदान से विधानसभा तक का मार्च रखा हुआ था. प्रदर्शनकारी जैसे ही विधानसभा की तरफ कूच करने लगे, पुलिस के साथ उन की झड़प होनी शुरू हुई, जिस के बाद पुलिस ने लाठियां बरसानी शुरू कर दीं. युवाओं और पुलिस में यह टसल इतनी बढ़ गई कि पुलिस ने प्रदर्शन कर रहे युवाओं पर वाटर केनन और आंसू गैस के गोले भी छोड़े.

इसी प्रकार पिछले वर्ष सितंबर महीने में ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ के आह्वान पर इकट्ठा हुए युवाओं पर पुलिस द्वारा बल प्रयोग किया गया. प्रदर्शन कर रहे युवाओं के समूह अलगअलग इलाकों से निकल कर सड़क पर आए थे और ‘संविदा नहीं, रोजगार चाहिए’ के नारे के साथ प्रदर्शन कर रहे थे. इस प्रदर्शन में अलगअलग युवा संगठनों के बैनर तले युवा एकजुट हुए. प्रशासनिक अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों को महामारी का हवाला दे कर प्रदर्शन खत्म करने को कहा. जब प्रदर्शनकारी नहीं माने तो पुलिस ने प्रदर्शन कर रहे युवाओं पर लाठीचार्ज शुरू कर दिया जिस से कई प्रदर्शनकारी गंभीर तौर पर घायल हुए. ऐसा ही हाल देहरादून से भी सामने आया था जहां बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं का गुस्सा उत्तराखंड की भाजपा सरकार पर फूट पड़ा. ‘रोजगार दो या गद्दी छोड़ दो’ नारे के साथ प्रदेशभर से आए सैकड़ों बेरोजगारों ने सचिवालय कूच किया.

ये भी पढ़ें- 50 साल आगे की दुनिया देखने वाले एलन मस्क

बेरोजगार युवाओं के रेले को पुलिस ने ईसी रोड पर सैंट जोजेफ्स एकैडमी के बाहर रोक लिया. जहां पर रुक कर युवाओं ने सभा की. मौके पर किसी अधिकारी के न पहुंचने से हंगामे की स्थिति बनी तो पुलिस ने बेरोजगारों को गिरफ्तार कर लिया. जब युवाओं ने गिरफ्तारी का विरोध किया तो पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया. इस से कई बेरोजगार युवा घायल हो गए. वहीं, उसी समय पिथौरागढ़ में भी बड़ी संख्या में बेरोजगार युवाओं ने रैली निकाल कर नौकरी देने की मांग की. ऐसे कई मामले हैं जहां युवाओं को रोजगार के बदले सरकार/प्रशासन की लाठियां खानी पड़ी हैं. युवाओं को रोजगार का सपना दिखाने वाली भाजपा सरकार ने आज देश के युवाओं को ऐसी हालत में ला कर छोड़ दिया है जहां से पार पाना मुश्किल हो चला है. 2014 में सत्ता में आने से पहले युवाओं को अच्छे दिनों के सपने दिखाए थे.

युवा बेहतर रोजगार और विकास के सपने संजोने लगे थे, पर युवाओं की उम्मीद वहीं टूट गई जब पकौड़े तलने को ही युवाओं के लिए रोजगार की श्रेणी में डाल दिया. आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार, विश्व में औसत रोजगार दर 57 फीसदी है. जबकि, भारत की औसत रोजगार दर 47 फीसदी है. यहां तक कि हम से नीचे माने जाने वाले पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका और बंगलादेश भी भारत से इस मामले में आगे हैं. पाकिस्तान और श्रीलंका की रोजगार दर कमश: 50 और 51 फीसदी है, जबकि बंगलादेश में रोजगार दर 57 फीसदी है. आज देश अभूतपूर्व बेरोजगारी देख रहा है. यही कारण है कि पिछले वर्ष 17 सितंबर को युवाओं ने प्रधानमंत्री के 70वें जन्मदिन को ‘बेरोजगार दिवस’ और ‘जुमला दिवस’ घोषित कर दिया था.

यह मामला अनोखा इसलिए भी था कि एक तरफ पूरे देश में भाजपा मोदी के जन्मदिन को साप्ताहिक दिवस के तौर पर मना रही थी और मोदी के लिए 70 किलो का लड्डू चढ़ाया जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर इस दिन को युवाओं द्वारा हैशटैग ‘राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस’ के तौर पर ट्रैंड किया जा रहा था. इसी प्रकरण में युवाओं ने देश की अलगअलग जगहों पर धरनेप्रदर्शन भी किए थे, जिन पर सरकार द्वारा लाठियां भी भांजी गई थीं. क्या कहते हैं आंकड़े सीएमआईई ने जनवरी 2019 में एक आंकड़ा जारी किया जिस के अनुसार नोटबंदी और जीएसटी के चलते 2018 में 110 लाख लोगों की नौकरियां चली गईं, ये मोदी सरकार के ‘मास्टर स्ट्रोक’ थे जिन का क्या फायदा देश की जनता को हुआ, यह अभी तक सरकार बता नहीं पाई है.

हां, इन के नुकसान, आंकड़ों के रूप में आज सब के सामने हैं ही. सरकार की एनएसएसओ की लीक्ड रिपोर्ट के अनुसार, भारत की बेरोजगारी दर 2017-18 में 45 वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी. सीएमआईई के अनुसार, 2020-21 में नौकरी या जौब मिलने में 98 लाख की गिरावट हुई है. इसी रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना की दूसरी लहर में अप्रैलमई के महीने में 2.27 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए. तब बेरोजगारी दर 12 प्रतिशत तक पहुंच गई. आज युवा सरकारी नौकरी के लिए लाठियां खाने को मजबूर हैं क्योंकि विगत 7 सालों में सरकार की पौलिसी सरकारी सैक्टर को खत्म करने की रही है. मोदी सरकार की मार सरकारी सैक्टर पर बेहद पड़ी है, सरकार ने कई सरकारी कंपनियां नीलामी पर लगा दी हैं या बेचने की पूरी योजना बना चुकी है.

सरकारी रोजगार के हालात बद से बदतर होते गए हैं क्योंकि जिन हाथों से सरकार कमाती थी, युवाओं को रोजगार देती थी उन्हीं हाथों को उस ने काट दिया है. यही कारण है कि एसएससी सीजीएल में 2013 में कुल 16,114 वेकैंसियां हुआ करती थीं जो साल 2020 में गिर कर 6 हजार रह गईं. यानी, साल 2020 की तुलना साल 2013 से करें तो लगभग 56 फीसदी की गिरावट देखने को मिली है. इस के अलावा बैंकिंग क्षेत्र की बात करें तो साल 2013 में आईबीपीएस पीओ की 21,680 वेकैंसियां हुआ करती थीं जो साल 2020 में महज 1,167 रह गईं. तुलना करें तो इस में तकरीबन 95 फीसदी की भारी गिरावट हुई. रोजगार के मामले पहले ही डराने वाले थे. साल 2019 में लोकसभा चुनाव जीतने के लिए सरकार ने लभगग डेढ़ लाख रेलवे में बंपर नौकरियां तो निकालीं, लेकिन आज 3 वर्षों बाद भी 2.4 करोड़ युवा अपने पहले एग्जाम के लिए तरस रहे हैं. इन्हीं सब कारणों के चलते कई युवा अपने जीवन में बेचैनी के शिकार हो रहे हैं.

राजनीतिक दलों द्वारा जनता को रि झाने के लिए दिए गए ‘अच्छे दिन’ के लौलीपौप बेरोजगार युवाओं पर भारी पड़ रहे हैं. शिक्षादीक्षा के बाद भी सरकारी नीतियों के कारण तेजी से खत्म हो रहे रोजगार, बेहतरीन शिक्षादीक्षा के बाद भी युवाओं को मौत की आगोश में धकेल रहे हैं. युवाओं की बेचैनी उत्तराखंड के रामगगर में पिछले महीने ही एक 24 वर्षीय युवक सोनू को बेरोजगारी के दानव से बचने के लिए फांसी का फंदा चूम कर अपनी जान गंवानी पड़ी. युवा बेरोजगारी से तंग था, इस का सुबूत यह रहा कि दुनिया छोड़ने से पहले उस ने अपनी उम्मीदों के चिराग बने शैक्षिक प्रमाणपत्रों को जला कर बेशर्मी की गर्त में जा चुके नीतिनियंताओं को बेरोजगार युवाओं की बेचैनी और बेबसी का संदेश देने की कोशिश भी की.

एनसीआरबी द्वारा 2020 की शुरुआत में जारी किए आंकड़ों के मुताबिक, बेकारी और बेरोजगारी से तंग आ कर खुदकुशी करने वालों की संख्या किसानों की आत्महत्या की तादाद से ज्यादा है. साल 2018 में कुल 12,936 युवाओं ने आत्महत्या की थी. यह किसानों की सालाना आत्महत्या से अधिक थी. आंकड़े के अनुसार, हर दिन औसतन 35 युवा बेरोजगारी के चलते आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं. यह आंकड़ा 2017 के मुकाबले बड़ा ही था. लेकिन सरकार इन मसलों को सम झने की जगह उलटा हक मांग रहे युवाओं पर ही लाठियां भांजने का काम कर रही है. देशवासियों पर महंगाई की मार तो है ही, ऊपर से युवाओं पर बेरोजगारी की भी. ये दोनों एकसाथ चलती हैं तो युवाओं की आत्महत्या जैसा कदम उठाने की संभावना बढ़ जाती है, खासतौर से तब जब सरकार समस्या के निबटान की जगह उन पर लाठी चलाने में विश्वास रखती हो.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें