‘‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ है, समय लिखेगा उन के भी अपराध.’’
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये कालजयी पंक्तियां अन्याय को अनदेखा करने की हमारी उसी आदत की ओर इशारा करती हैं, समाज में हमारी उसी चुप्पी की बात करती हैं जो आजकल हम ने साध रखी है. हम चाहे अपने परिवार की बात करें, देश की करें या समाज की करें, भीष्म की तरह हमारी चुप्पी का दुष्परिणाम देश की तारतार होती व्यवस्था के रूप में दिखाई देने लगा है. फौज में रह चुके मशहूर शायर फैज अहमद ‘फैज’ को अगर बेकुसूर होने पर भी कैद किया गया तो उन की कलम से यही आना ही था जो इन दिनों आप बहुत पढ़ व सुन रहे होंगे. ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे बोल जबां अब तक तेरी है बोल कि सच जिंदा है अब तक बोल जो कुछ कहना है कह ले.’ फैज साहब पर मार्क्सवादी विचारों ने गहरा असर डाला था और उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा की एलिस से निकाह किया था.
यहीं से उन के लिखे गए शब्दों को मार्क्सवादी और कम्युनिस्ट विचारधारा से जोड़ कर देखा जाने लगा. 1951 में लियाकत अली खान की सरकार के तख्तापलट करने के जुर्म में उन्हें जेल हो गई थी. जेल में उन के लिखने पर पाबंदी लगा दी गई थी और उस पाबंदी के खिलाफ उन की आवाज आग ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे…’ बन कर निकली, जो आजकल खूब सुनी व सुनाई जा रही है. पूरी नज्म में शुरू से आखिर तक फ्रीडम औफ एक्सप्रैशन की ही बात है, एक तरह का बागी रवैया है, ‘बोल कि थोड़ाबहुत वक्त है जिस्म ओ जबां की मौत से पहले.’ कलम के धनी फैज ने जेल में बैठेबैठे भी कैसे जोश की बात की. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि ‘बोल…’ नज्म को जेल में नहीं लिखा गया. खैर, बात यहां यह नहीं है कि कहां लिखा गया. बात यह है कि ‘बोल…’ नज्म आज भी कितनी प्रासंगिक है. आज भी जब इस की बात हो रही है तो इस नज्म को सुननेसुनाने वालों को ही गलत ठहरा दिया जा रहा है.
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आजकल जब अभिव्यक्ति की आजादी की बात होती है तो फैज की इस कालजयी रचना को याद किया जाता है. लेकिन इस नज्म का अभिव्यक्ति की आजादी से इतना संबंध नहीं है जितना कि जटिल परिस्थितियों में अपनी चुप्पी तोड़ने की बात इस में हो रही है. आप को लगेगा कि इस में खास बात क्या है, बोलने की ही तो बात हो रही है तो क्या हो गया, जिसे जब बोलना होगा, वह बोल लेगा. पर सच में हम तब बोल रहे हैं जब, जहां हमारा बोलना जरूरी है. कभीकभी किसी बात में चुप रहने को सम?ादारी भी कहा जाता रहा है पर आज के जो हालात हैं, वहां मौन रह कर अन्याय होते देखना और सहना एक बड़ी गलती है जिस का खमियाजा हम औरतें ही ज्यादा भुगतती आई हैं. हमें बचपन से ही सिखायापढ़ाया जाता रहा है कि एक चुप्पी सौ को हराए, एक चुप्पी सौ को सुख दे जाए. यह मान सकते हैं कि एक मूर्ख व्यक्ति के सामने चुप रहना सम?ादारी होती है पर जीवन में हमेशा चुप रह जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं होता है.
कभीकभी हमारे सामने कोई ऐसी ताकत खड़ी होती है जिस के सामने हम चुप रहना ठीक सम?ाते हैं, यहां चुप रहना हमें किसी समस्या से बचने का एक आसान हल लगता है. हो सकता है चुप रह कर हम किसी परेशानी से बच भी जाएं पर ऐसे में हमारा चुप रहना सामने खड़े इंसान को समर्थन दे देता है और वह अपनेआप को और बड़ी ताकत व बड़ा इंसान सम?ाने लगता है. यहीं से शुरुआत होती है हमारे दमन की, हम पर होने वाले जुल्मों की, अत्याचारों की. फिर यह बात यहीं नहीं रुकती. एक सिलसिला शुरू हो जाता है और हम हर अन्याय में न चाहते हुए भी सम्मिलित होते चले जाते हैं जो आगे चल कर परिवार, देश और समाज में एक बड़ी समस्या उत्पन्न कर देता है. तो फिर क्या किया जाए? खुद ही अपने बारे में यह सोचना होगा कि कौन सी बात है जो हमें कोई विरोध करने से रोक लेती है.
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क्या हम सामने वाले की ताकत से डर जाते हैं? या यह हमारे मन में बैठा एक डर है जो हमें चुप्पी नहीं तोड़ने देता और हम महिलाएं दिन ब दिन इस डर में ही अपना जीवन बिताए चली जाती हैं. एक बार मन से डर को निकाल कर चुप्पी तोड़ना बहुत जरूरी है. हम कहां बोल रहे हैं? कहीं तानाशाही के डर से तो कहीं धर्म और परंपराओं के डर से हम चुप नहीं रहते? सरकार की आलोचना पर देशद्रोही कह दिया जाता है, किसी नेता का कार्टून बना देना मुसीबत बन जाता है. पत्रकारों को एक रिपोर्ट के कारण इस्तीफा देना पड़ जाता है, सोशल मीडिया पर ट्रौलिंग शुरू हो जाती है. यह सिर्फ हमारे देश की बात नहीं है, सब जगह ऐसा ही हो रहा है, रूढि़वादी आवाजें कहीं ज्यादा बुलंद होती जा रही हैं. हमें बोलना होगा, हमारी चुप्पी टूटनी चाहिए, हमें अपनी चुप्पी तोड़नी ही होगी.
जिस लड़की को कहा जाए कि उसे पीरियड के समय किचन में नहीं जाना है, वह सवाल उठाए कि क्यों नहीं जाना है? जिसे भीड़ घेर कर मार रही हो, उस भीड़ के सामने बोलना होगा. किसानों के बच्चों के भविष्य के लिए बोलना होगा. जो बच्चे पड़ोस में तेज आवाज में चल रहे लाउडस्पीकर के कारण पढ़ नहीं पा रहे, उन्हें बोलना होगा. किसी सिपाही को घटिया खाना मिलने के खिलाफ बोलिए, देश की रक्षा में खड़े जांबाज को क्यों मिले खराब खाना. फाइलों में घूमते भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना होगा. हर अन्याय, ?ाठ के खिलाफ बोलिए. उदाहरण अनंत हैं. बोलने की आजादी आप को कुदरत ने, संविधान ने दी है. आप बोलिए, बोलने पर सजा मिल सकती है, फिर भी बोलिए. मार्टिन निमोलियर ने अपनी जरमन कविता में चेतावनी दी थी- ‘‘पहले वे समाजवादियों के लिए आए और मैं नहीं बोला क्योंकि मैं समाजवादी नहीं था, फिर वे ट्रेड यूनियन वालों के लिए आए और मैं नहीं बोला क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन वाला नहीं था,
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फिर वे यहूदियों के लिए आए और मैं नहीं बोला क्योंकि मैं यहूदी नहीं था, फिर वे मेरे लिए आए और कोई नहीं बचा था मेरे हक में बोलने के लिए,’’ जो आधुनिक मिडिल क्लास के लोग ऐसे विचारविमर्श से खुद को तटस्थ रखते हैं उन्हें यह सम?ा लेना चाहिए कि उन की यह चुप्पी और उदासीनता उन के बच्चों के लिए अभिशाप बन जाएगी. आज देश में ?ाठ और अफवाहों का बाजार गरम है. ?ाठ की जबरदस्त मार्केटिंग हो रही है. लेकिन सच जिंदा है, सच को जिंदा रखने के लिए चुप्पी तोड़ दीजिए. अगर आप सच नहीं जानते तो सच जानने के लिए बोलिए. मिर्चमसाले खाने और फिल्मों में तो अच्छे लगते हैं पर इतिहास और ?ाठी खबरों में मिर्चमसाला न देखें. आप की सोचने की शक्ति को खत्म कर दिया गया है.
आप, बस, फौरवर्ड और लाइक करने में लगे रहते हैं, आप सच को ढूंढ़ना ही भूल गए हैं. बोलिए, समय कम है. आज हम किस मोड़ पर खड़े हैं, किस तरफ जा रहे हैं. समय सचमुच कम है. पर आप के बोलने के लिए यह थोड़ा समय भी बहुत है. ‘क्यों बोलूं? किसे बोलूं? बोलने से कुछ फायदा है क्या? किसी की कोई सुनता है क्या आजकल? नहीं न? फिर क्या बोलना, छोड़ो…’ ये सब बातें मन से निकाल कर चुप्पी तोड़नी ही होगी. एक चुप्पी टूटेगी तो साथ में सौ और चुप्पी भी टूटेंगी, यह मान कर चलें. इतिहास गवाह है कि पापियों की उद्दंडता ने समाज को उतना नुकसान नहीं पहुंचाया जितना कि सज्जनों के मौन ने पहुंचाया. यदि कोई मूर्ख बोल रहा हो तो बेशक चुप रहिए पर यदि कहीं छल हो रहा हो, अपराध हो रहा हो तो उठिए और विरोध कीजिए. अपने लिए न सही, आने वाली पीढ़ी के लिए बोलिए. वरना, आप का मौन घातक हो सकता है.