लेखक-कुशलेंद्र श्रीवास्तव
लेखक-कुशलेंद्र श्रीवास्तव
लेखक-कुशलेंद्र श्रीवास्तव
‘मैं तो वैसे ही तुम से कहूंगा कि इन को रुपए दे दो, पर तुम देना नहीं.’ उन के चेहरे पर हमेशा रहने वाली कुटिल मुसकान फैल गई थी.तब से ले कर आज तक मुनीमजी ही सारे रिश्तेदारों को मना करते रहे हैं और विलेन बनते रहे हैं.
मुनीमजी ने बैग में से पैसे निकाल कर अपनी अलमारी में रख दिए थे. ऐसा करते समय उन की पत्नी सुमन ने उन्हें देख भी लिया था, ‘‘अरे, आप सेठजी से पैसे मांग लाए. अच्छा किया. देखो, हमें पैसों की कितनी जरूरत है. अब आप कल ही बैंक में जमा कर अपना कर्जा चुकता कर देना.‘‘और सुनो, चिंटू की फीस भी देनी है.
10 हजार रुपए तो उस में लग ही जाएंगे.’’पत्नी के चेहरे पर राहत ?ालक रही थी. हो भी क्यों न, वह तो पिछले कई दिनों से रोज उस से कह रही थी कि वह सेठजी से लाखपचास हजार रुपए ले लें, बैंक वाले भी जान खाए जा रहे हैं और घर के कई जरूरी काम भी होने हैं. उसे भी लगता था कि सुमन कह तो सही रही है. सेठजी से कुछ एडवांस ले लूं और अपना पिछला हिसाब भी कर लूं. उस से भी कुछ पैसे आ जाएंगे. सेठजी ने तो अभी उस का हिसाब किया ही नहीं है. जब भी उन से हिसाब की कहो, तो ‘हां कर देंगे, ऐसी भी क्या जल्दी है,’ कह कर बात काट देते.
वैसे तो मुनीमजी हर महीने सेठजी से पैसा लेते रहते पर सेठजी हमेशा उन के निर्धारित वेतन से कम पैसे ही उन्हें देते हुए कहते, ‘बाकी का जमा रहा. अरे, जमा रहने दो, वक्तबेवक्त काम आएगा.’सेठजी जानबू?ा कर ऐसा कह कर उस का पैसा जमा कर लेते. मुनीमजी ने हिसाब लगा कर देखा था. उसे तो सेठजी से अपने ही लाखों रुपए लेना बैठ रहा है. उस ने अपनी पत्नी के कहने पर सेठजी से पैसे मांगे भी थे.
‘सेठजी, मु?ो पैसों की सख्त जरूरत है. आप मेरा हिसाब कर दें और जितना पैसा मेरा निकलता है, वह दे दें. कुछ पैसा एडवांस भी दे दें.’‘अरे मुनीमजी, अभी हमारे पास पैसा है ही कहां? कितनी कड़की चल रही है. अभी तो मैं तुम्हें पैसा दे ही नहीं सकता.’
जबकि मुनीमजी जानते थे कि सेठजी ?ाठ बोल रहे हैं. सारा हिसाब तो उस के ही पास है और वह जानता है कि इस समय सेठजी लाखों रुपयों के फायदे में चल रहे हैं पर वह बोला कुछ नहीं. वह जानता था कि वह कितना भी गिड़गिड़ा ले पर सेठजी उसे पैसे नहीं देंगे.सेठजी के पैसों को अलमारी में रखते हुए पत्नी सुमन ने देख लिया था. इस कारण उस की पत्नी के चेहरे पर उत्साह आ गया था पर मुनीमजी इस से ज्यादा सशंकित हो गए थे.
‘‘अरे, ये सेठजी की वसूली के पैसे हैं. आज मैं उन्हें दे नहीं पाया. कल जा कर दे दूंगा,’’ कह कर वह हाथपैर धोने बाथरूम में चला गया.दरअसल, वह अपनी पत्नी सुमन के चेहरे के बदलते रंग को नहीं देखना चाह रहा था. उस ने कुछ नहीं सुना. हो सकता है कि सुमन बड़बड़ाई हो.
बाथरूम से आ कर वह पलंग पर लेट गया और टैलीविजन चालू कर लिया. यह उस का रोज का नियम था. वह दिनभर में इतनी देर ही टैलीविजन देख पाता था. टैलीविजन भी पुराना ही था. वह तो उसे शादी में मिल गया था, इसलिए है भी, वरना वह अपनी कमाई से तो कभी नहीं खरीद पाता. उस ने टैलीविजन चालू कर अपनी आंखें बंद कर लीं. उसे तो केवल समाचार सुनना है.
‘‘आज के मुख्य समाचार- बढ़ते कोरोना के मामलों को देखते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री ने एक बार फिर से लौकडाउन लगा दिया है. आज आधी रात से ही लौकडाउन लग जाएगा. मुख्यमंत्री ने सभी से अनुरोध किया है कि लौकडाउन का पालन करें और अपने घरों में ही रहें.’’ यह खबर सुन कर उस की आंखें अपनेआप ही खुल गई थीं. वह समाचार को बड़े ही ध्यान से देखने लगा. उस की चिंता बढ़ती जा रही थी. उस के पास सेठजी के ढेर सारे पैसे रखे हैं और तिजोरी की चाबी भी उस के पास ही है. उस की सम?ा में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. पिछली बार भी लौकडाउन में वह ऐसे ही फंस गया था. 2 महीने तक वह घर से नहीं निकल पाया था. कहीं अब की बार भी ऐसा न हो. वैसे, इस बार प्रधानमंत्री ने तो लौकडाउन घोषित नहीं किया है. हो सकता है कि जल्दी खत्म हो जाए.मुनीमजी के माथे से पसीने की बूंदें ?ाल?ाला रही थीं. उन का मन हुआ कि वे सेठजी को फोन लगा कर बता दे कि उस के पास वसूली और दिनभर की आवक के पैसे सुरक्षित रखे हैं और तिजोरी की चाबी भी उसी के पास है.
‘अब रहने दो. रात हो गई है. सुबह देखते हैं,’ सोच कर उस ने करवट बदल ली.सुबह उस की नींद अपने नियमित समय पर ही खुल गई थी. उसे सुबह जल्दी दुकान पर जाना होता था, इसलिए वह जल्दी उठ कर तैयार हो जाता.सुमन उस के सामने नाश्ते की प्लेट रख देती और भोजन का डब्बा भी. वह भोजन दुकान पर ही दोपहर को कर लेता था. कई बार तो उस का डब्बा खुल ही नहीं पाता था. ज्यों का त्यों वापस घर आ जाता.
सुमन भरे डब्बे को देखती तो नाराज होती, ‘मैं इतनी सुबह उठ कर तुम्हारे लिए खाना बनाती हूं और आप के पास इतना भी समय नहीं होता कि खाना खा लें.’वह कुछ न बोलता, चुप ही रहता. सेठजी उस से कभी खाने को न पूछते. उलटे, यदि वह कहे कि सेठजी मैं खाना खा लूं, तो भी वे नाकभौं सिकोड़ लेते.
आज वह दुकान पर जाने को तैयार तो हो गया, पर उसे कहीं जाना ही नहीं था. लौकडाउन लग चुका था, सामने चौराहे पर पुलिस बैठी थी. उसे सेठजी के पैसे का ध्यान आया. उस ने अलमारी खोल कर पैसे टटोले, फिर इतमीनान से बैठ गया. उस का मन हुआ कि वह सेठजी को फोन लगा ले, पर ‘रहने दो, उन का फोन आने दो’ सोच कर रह गया.सेठजी का फोन शाम को आया.‘‘मुनीमजी, तिजोरी की चाबी नहीं मिल रही है. कहां रख दी?’’‘‘चाबी तो मेरे पास है,’’ कहते हुए वह घबरा गया था.
‘‘अरे, तुम चाबी अपने पास क्यों रखे हो?’’ सेठजी ने पूछा.‘‘कल आप नहीं थे न, इसलिए अपने साथ ले आया था.’’यह सुनते ही सेठजी आगबबूला हो गए. वे डपटते हुए बोले, ‘‘तिजोरी की चाबी अपने साथ ले गए. तुम्हारी तो थाने में रिपोर्ट लिखवानी पड़ेगी,’’ उन्हें शायद ज्यादा ही गुस्सा आ रहा था.
‘‘इस में रिपोर्ट लिखाने की क्या बात है सेठजी. मैं तो कई बार चाबी अपने साथ ले कर आया हूं.’’मुनीमजी की सम?ा में कुछ नहीं आ रहा था कि सेठजी इतने नाराज क्यों हो रहे हैं?सेठजी ने शायद गाली दी थी, ‘‘तिजोरी में लाखों रुपए होते हैं और चाबी तुम रखे हो. कुछ भी गोलमाल हुआ तो तुम्हारी खैर नहीं.’’
‘‘आप किस तरह से बात कर रहे हैं सेठजी. चाबी मेरे पास है और आज यदि लौकडाउन नहीं लगा होता तो मैं चाबी और पैसे ले कर आप के पास आता ही.’’‘‘तुम्हारे पास पैसे भी हैं?’’‘‘हां, कल की आवक और वसूली के.’’‘‘तुम तत्काल सारा कुछ ले कर मेरे पास आओ.’’‘‘लौकडाउन लगा है. मैं नहीं आ सकता. पुलिस मारती है.’’‘‘तुम्हारे तो बाप को भी आना पड़ेगा,’’ सेठजी का गुस्सा कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था.
लेखक- उमेश त्रिवेदी
सौजन्या- मनोहर कहानियां
8 अगस्त, 2021 की बात है. दक्षिणपूर्वी दिल्ली के न्यू फ्रैंड्स कालोनी पुलिस को क्षेत्र के नाले में एक बड़ा सूटकेस मिला. उस सूटकेस में से हाथ निकला हुआ था. इस से यह बात समझने में देर नहीं लगी कि जरूर इस में किसी की लाश है. लिहाजा तुरंत ही मौके पर क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम को बुला लिया.
जब बैग खोला गया तो उस में 35-37 साल के एक व्यक्ति की लाश निकली जो फूली हुई थी. उस के दाढ़ी थी. उस की गरदन पर घाव था, जिस पर तौलिया लपेटा हुआ था. लाश के नीचे एक चादर भी थी. उस के दाहिने हाथ पर अंगरेजी में ‘नवीन’ नाम का टैटू गुदा था. पुलिस ने मौके की काररवाई कर के लाश एम्स की मोर्चरी में सुरक्षित रखवा दी और इस की सूचना दिल्ली के सभी थानों को दे दी. इस के 5 दिन बाद खानपुर की रहने वाली मुसकान नाम की 22 वर्षीय युवती ने थाना नेब सराय में अपने पति नवीन के गायब होने की सूचना दर्ज कराई. उस ने बताया कि उस का पति 8 अगस्त से घर से लापता है. गुमशुदगी दर्ज कराने के बाद वह अपने घर चली गई. इस की जांच एएसआई सुरेंद्र को सौंपी गई.
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मुसकान के थाने से चले जाने के बाद एएसआई सुरेंद्र को न्यू फ्रैंड्स कालोनी क्षेत्र में 5 दिन पहले मिली अज्ञात युवक की लाश का ध्यान आया. एम्स में रखी उस लाश को दिखाने के मकसद से उन्होंने मुसकान को फोन किया, लेकिन उस ने कौंटैक्ट के लिए जो फोन नंबर दिए थे, वह नाट रिचेबल मिले. वह कांस्टेबल नितिन और रोहित के साथ लाश के बारे में सूचना देने के लिए मुसकान के पते पर ही खानपुर चले गए. घनी आबादी वाले इलाके में मकान तलाशने में पुलिस को ज्यादा दिक्कत नहीं आई, लेकिन वहां कमरे के दरवाजे पर ताला लगा देख कर झटका जरूर लगा.
मुसकान ने कमरा किराए पर ले रखा था. पुलिस ने उस के बारे में मकान के दूसरे किराएदारों और आसपास के लोगों से पूछताछ की. मालूम हुआ कि मुसकान कुछ दिन पहले ही कमरे को छोड़ कर कहीं और जा चुकी है. मुसकान क्या करती थी, कहां आतीजाती थी, इस बारे में किसी को भी विशेष जानकारी नहीं थी.उस के बाद मकान मालिक प्रदीप से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि मुसकान डेढ़ महीने पहले ही यहां रहने आई थी और अचानक कहीं दूसरी जगह शिफ्ट हो गई. उस के साथ एक 2 साल की बच्ची भी रहती थी. बीचबीच में खानपुर के ही दूसरे मोहल्ले में रहने वाली उस की मां मीनू भी उस के पास आती थी, लेकिन वह साथ में नहीं रहती थी.
आखिर मुसकान के पास पहुंच गई पुलिस
48 वर्षीय मीनू को मोहल्ले के कई लोग जानते थे. आजीविका के लिए वह घरेलू नर्स का काम करती थी. बताते हैं कि उस की अपने पति विजय से नहीं बनती थी. अब पुलिस के सामने नई समस्या आ गई कि अपने लापता पति की शिकायत करने वाली ही लापता हो चुकी थी. मुसकान को तलाशने के लिए पुलिस टीम ने तसवीरें दिखा कर और हुलिया बता कर डोरटूडोर पूछताछ शुरू कर दी. थोड़े प्रयास के बाद पुलिस को सफलता मिल गई. उस का ठौरठिकाना तो नहीं मालूम हुआ, लेकिन एक नई बात की जानकारी जरूर मिल गई. वह यह कि उस के पास एक फैशनपरस्त जमालुद्दीन नाम का एक लड़का आताजाता है. पुलिस को पता चला कि वह 18-19 साल का लड़का है. स्टाइलिश फटी जींसटीशर्ट पहनता है और स्पाइकी हेयर कट रखता है. पड़ोसियों को उस की गतिविधियां संदिग्ध लगी थीं.
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वैसे तो जमालुद्दीन के बारे में पड़ोसियों से और अधिक जानकारी नहीं मिल पाई. सिर्फ इतना मालूम हुआ कि उस की बोली में बिहारी टोन था और मुसकान के कमरा छोड़ने से एक दिन पहले आधी रात को उस के कमरे से झगड़ने की काफी तेज आवाजें आई थीं. इसी दौरान पुलिस को मुसकान का दूसरा मोबाइल नंबर 9540833333 मिल गया. उस पर काल करने पर लोकेशन खानपुर गांव की मिली. पुलिस टीम तुरंत वहां जा पहुंची. वहीं मुसकान अपनी मां मीनू और 2 साल की बच्ची तृषा के साथ मिल गई.
पुलिस टीम को घर की चौखट पर देख कर पहले तो मुसकान सकपकाई, फिर जल्द ही सहमती हुई तन कर खड़ी हो गई. पुलिस ने मुसकान से सीधा सवाल किया, ‘‘क्या तुम्हारे पति के दाएं हाथ पर नवीन नाम का टैटू गुदा हुआ था?’’ जवाब में मुसकान कुछ नहीं बोली. पुलिस ने दोबारा पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे लापता पति के दाएं हाथ पर उस के नाम का कोई टैटू था?’’ ‘‘क्यों, क्या बात है?’’ मुसकान धीमे से बोली.
‘‘बात यह है कि हमें एक युवक की लाश मिली है, जिस के दाहिने हाथ पर ‘नवीन’ गुदा हुआ है. और तुम ने भी पति का नाम नवीन ही लिखवाया है.’’ पुलिस ने बताया.
‘‘मैं उस बारे में कुछ नहीं जानती.’’ मुसकान बोली और इधरउधर झांकने लगी. पुलिस टीम ने महसूस किया कि मुसकान कुछ छिपाने की कोशिश कर रही है. तभी एक कांस्टेबल ने मुसकान के हाथ से उस का मोबाइल फोन ले लिया. गैलरी खोल कर उस में डाउनलोड तसवीरें खंगालने पर नवीन की हाथ उठाए हुए तसवीर मिल गई. उस से लाश की तसवीर पूरी तरह मेल खा रही थी. उस तसवीर में भी नवीन के दाएं हाथ पर ‘नवीन’ नाम का टैटू दिख रहा था. बाद में उस की पुष्टि नवीन के भाई संदीप ने भी कर दी.
पुलिस टीम ने मुसकान से पूछा, ‘‘तुम्हारे लापता पति की लाश मिली है और तुम्हें जरा भी दुख नहीं हो रहा है? आखिर बात क्या है?’’
‘‘क्या करूंगी दुखी हो कर, वह लौट तो नहीं आएगा न!’’ मुसकान बोली.‘‘फिर भी, तुम्हारी बहुत सारी यादें जुड़ी होंगी उस के साथ? 2-4 बूंद आंसू ही बहा लो उस के नाम के.’’‘‘फिर भी क्या सर, कैसी यादें, कैसे आंसू. कुछ भी तो नहीं. उस ने जीते जी मुझे कम दुख दिए थे, जो उस की मौत के बाद गम मनाऊं?’’ वह बोली.‘‘मैं समझ सकता हूं तुम्हारी अभी की स्थिति. लेकिन तुम्हें नवीन के बारे में जो भी बातें मालूम हैं बता दो, ताकि उस की मौत का कारण मालूम हो सके. उस की किसी के साथ दुश्मनी या दोस्ती के बारे में… जो भी हो साफसाफ बताओ,’’ एएसआई सुरेंद्र ने पूछा.
‘‘मैं कुछ और नहीं जानती हूं सिवाय इस के कि वह मेरा पति था. और मैं ने एक गलत आदमी के साथ प्रेम किया, मम्मी के मना करने के बावजूद उस से शादी की. आज वह हमें और बच्ची को अनाथ छोड़ गया.’’ कहती हुई मुसकान रोने लगी. उस वक्त तो एसआई ने मुसकान से कुछ और नहीं पूछा, लेकिन उन्हें नवीन की हत्या के सिलसिले में एक संदिग्ध जरूर मान लिया. उन्होंने उस के बारे में जल्द ही कुछ और जानकारियां हासिल कर लीं.एक महत्त्वपूर्ण जानकारी घटना की तारीख को रात के समय नवीन से झगड़ने वाले लड़के जमालुद्दीन के बारे में भी थी. वह भी खानपुर गांव में रहता था. पढ़ालिखा नहीं था. उस के पास कोई कामधंधा भी नहीं था. लौकडाउन खत्म होने के बाद 2 महीने पहले ही वह बिहार से आया था.
एएसआई सुरेंद्र ने सारी जानकारी थानाप्रभारी सुमन कुमार को दे दी. मामला गंभीर लग रहा था, इसलिए डीसीपी आर.पी. मीणा ने एसीपी अविनाश कुमार के नेतृत्व में एक टीम गठित कर दी.
ऐसे खुली मर्डर मिस्ट्री
टीम में थानाप्रभारी सुमन कुमार, इंसपेक्टर जितेंद्र कश्यप, अनिल प्रकाश, एसआई विष्णुदत्त, महावीर, कांस्टेबल सुरेंद्र, रामकिशन, नितिन, रोहित, जानी, अनिल, विक्रम आदि को शामिल किया.
पुलिस टीम गंभीरता से इस केस को खोलने में जुट गई. इस का परिणाम यह निकला कि पुलिस ने कुछ सबूतों के आधार पर 7 लोगों को गिरफ्तार कर लिया. उन से हुई पूछताछ से कई राज परत दर परत खुलते चले गए.घटना की रात 7 अगस्त, 2021 को जमालुद्दीन मुसकान के घर पर ही था. उन दिनों नवीन कहीं और रहता था. जबकि मुसकान उस से झगड़ कर अपनी बच्ची को ले कर खानपुर में अपनी मां के घर से थोड़ी दूरी पर अलग कमरा ले कर रहती थी. वहीं पास में ही जमालुद्दीन भी रहता था.
अकेली लड़की को देख कर पहले तो वह उस के इर्दगिर्द मंडराता रहा, फिर जल्द ही मुसकान ने ही उस से जानपहचान कर ली. उसे कोई काम तलाशने के लिए कहा. हालांकि जमालुद्दीन भी काम की तलाश में था. आठवीं पास मुसकान डिलीवरी गर्ल का काम कर चुकी थी.मर्डर मिस्ट्री का राज खुल जाने के बाद पहली गिरफ्तारी मुसकान की हुई थी. उस ने अपने पति की हत्या के बारे में विस्तार से बताया कि किस तरह से नवीन की गरदन में चाकू घोंप कर हत्या की गई.
उस की मौत के बाद कैसे जमालुद्दीन ने बाथरूम में उस की लाश को नहलाधुला कर खून के दागधब्बे साफ किए थे और उस ने खुद कमरे में फैले खून को साफ किया.मुसकान ने बताया कि यह सब करते हुए सुबह होने वाली थी. जमाल ने अपने एक दोस्त राजपाल को नवीन की लाश वहां से हटाने में मदद के लिए बुलाया. नवीन और जमाल ने खून सने कपड़े चिराग दिल्ली के नाले में फेंक दिए थे. तब तक दिन निकल आया था. जमाल उसी दिन अपने घर से एक ट्रौली बैग लाया. उस में नवीन की लाश ठूंसठूंस कर पैक कर दी. उस बैग को जमाल अपने दोस्त के साथ आटो से ले जा कर सुखदेव विहार के नाले में फेंक आया.
मुसकान की गिरफ्तारी के बाद पुलिस टीम को मोबाइल नंबरों की काल डिटेल्स मिल गई, जिस में जमाल का साथ देने वालों में विवेक उर्फ बागड़ी और कौशलेंद्र का भी नाम आ गया.
विवेक (20 वर्ष) को देवली की नई बस्ती से गिरफ्तार करने में पुलिस को सफलता मिल गई. उस ने नवीन की हत्या में शामिल होने का जुर्म कुबूल कर लिया. तीसरी गिरफ्तारी जमाल की मुरादाबाद शहर से हुई. लाश को नाले में फेंकने के बाद वह दिल्ली से फरार हो गया था. उस ने अपना मोबाइल फोन बंद कर लिया था. वह मोबाइल नंबर बिहार का था. उस नंबर को पुलिस सर्विलांस में लगा दिया गया. पता चला कि वह सप्तक्रांति ट्रेन से अपने घर जा रहा है. सफर के दौरान उस का नंबर तब ट्रैक हो गया, जब उस ने टीटीई को अपना कन्फर्म टिकट का मैसेज दिखाने के लिए कुछ समय के लिए मोबाइल औन किया. उस समय उस की लोकेशन मुरादाबाद की थी. वह सप्तक्रांति एक्सप्रैस से बिहार जा रहा था. दिल्ली पुलिस ने उसी समय मुरादाबाद की जीआरपी से संपर्क किया तो जीआरपी ने ट्रेन रुकवा कर तलाशा और उसे वहीं हिरासत में ले लिया. फिर दिल्ली पुलिस उसे मुरादाबाद से दिल्ली ले आई.
प्यारमोहब्बत ने जरूरतों को लगा दिए पंख
इसी तरह से विशाल की गिरफ्तारी देवली खानपुर से और कौशलेंद्र की बरेली से करने में पुलिस को सफलता मिली. छठे और सातवें अभियुक्त के रूप में राजकुमार और मुसकान की मां मीनू को भी खानपुर से हिरासत में ले लिया गया. मीनू ने बताया कि नवीन की हत्या के समय वह कमरे में ही मौजूद थी. उस की हत्या के बाद वह अपने कमरे पर वापस आ गई थी. अभियुक्तों की निशानदेही पर हत्या में इस्तेमाल सबूत भी बरामद कर लिए. नवीन की हत्या का राज तो खुल गया था, लेकिन मुसकान और नवीन के संबंध में आई कड़वाहट का राज खुलना अभी बाकी था. आखिर क्या वजह थी कि जिसे मुसकान ने दिलोजान से चाहा, उस की हत्या करवा दी? यह बदलते हुए महानगरिया सामाजिक परिवेश की काली सच्चाई को भी उजागर करता है.
आठवीं पास मुसकान ने जब अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश शुरू की, तब उसे जोमैटो के फूड सेक्शन में एक काम मिल गया. थोड़ी सी तनख्वाह में खर्च चलाना मुश्किल हो गया. ऊपर से उम्र की नजाकत और प्यारमोहब्बत ने उस की जरूरतों को पंख लगा दिए. वहीं उस की मुलाकात नवीन से हुई. उस ने बेहतर जिंदगी जीने के सपने दिखाए और जल्द ही उस के रूपसौंदर्य की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. यह सब करीब साढ़े 4 साल पहले की बातें हैं. उन दिनों नवीन दक्षिणपुरी में रहता था.
मुसकान अपने प्रेम की खातिर नवीन के साथ रहने लगी. अपनी अलग दुनिया बसा ली. 2 साल बाद एक बच्ची की मां भी बन गई. संयोग से उस के एकडेढ़ साल बाद ही कोरोना महामारी का कहर उस पर भी टूटा, जिस से उस की आमदनी बंद हो गई. दांपत्य जीवन में तनाव ही तनाव आ गया. हर रोज नवीन से उस का झगड़ा होने लगा. नवीन भी कामधंघा छूटने के चलते काफी डिप्रेशन में आ गया था. अपना गम दूर करने के लिए जो कमाता था, उसे शराब में उड़ाने लगा था. मुसकान इस का विरोध करती, तब वह मारपीट पर उतारू हो जाता था. करीब 7 महीने पहले जनवरी में एक दिन मुसकान अपनी बच्ची को ले कर मां मीनू के पास देवली खानपुर आ गई. वहां भी नवीन बारबार आने लगा. लेकिन जब भी आता था, नशे में धुत रहता था और मुसकान को गालियां बकता था.
एक दिन ऊब कर मीनू ने उसे अपने घर से अलग कमरा दिलवा दिया ताकि नवीन की नजरों से वह दूर रहे. वहीं मुसकान की मुलाकात जमालुद्दीन से हुई. मुसकान को वह मन ही मन चाहने लगा था. मुसकान भी उसे अपनी घरेलू मदद के लिए कमरे पर आने से नहीं रोकती थी. हालांकि मुसकान के दिल में उस के प्रति अधिक जगह नहीं थी. एक बार नवीन खानपुर के उस कमरे पर भी आ गया. मुसकान को आश्चर्य हुआ कि उसे उस के कमरे का पता कैसे चला. इस पर जमाल ने बताया कि एक बार उस ने बच्ची के साथ उसे दूध की दुकान पर देख लिया था. वहां भी उस के साथ झगड़ने लगा था. वह बारबार पूछ रहा था कि बच्ची उस के पास कैसे है? वह तो उस की बेटी है. उसी समय वह पीछा करता हुआ गली के कोने तक आया था.
बात यहीं खत्म नहीं हुई. 7 अगस्त की रात को नवीन नशे ही हालत में सीधा मुसकान के कमरे पर आ धमका. उस वक्त कमरे पर जमालुद्दीन भी था. उसे देखते ही नवीन आगबबूला हो गया और झगड़ने लगा.
इसी बीच मीनू भी आ गई. मीनू ने नवीन को समझाने की कोशिश की, लेकिन वह कुछ भी सुनने को राजी नहीं था. मुसकान ने भी उसे समझाने की कोशिश की तो नवीन ने मुसकान के मुंह पर घूंसा मारा. उस के मुंह से खून निकलने लगा. तभी जमालुद्दीन ने नवीन को रोकने की कोशिश की. फिर कमरे में नवीन और जमाल के बीच तूतूमैंमैं हाथापाई में बदल गई. नवीन ने जमाल को भद्दीभद्दी गालियां तक देनी शुरू कर दी. यहां तक कि उस के मांबाप और कौम को ले कर भी भलाबुरा कहना शुरू किया.
कौम और मांबाप पर बात आते ही जमाल ने भी झट कमरे में छिपा कर रखा चाकू निकाला और नवीन की गरदन पर वार कर दिया. नशे की हालत में नवीन संभल नहीं पाया. जख्म भी काफी गहरा था. उस की मौत कुछ समय में ही हो गई. जमाल लाश को देख कर पसीनेपसीने हो गया. तभी मुसकान वहां आई. पहले तो वह भी घबराई फिर जल्द ही खुद को संभाला. अपनी बच्ची को मां के हवाले किया और उसे अपने घर ले जाने के लिए कहा. उस के बाद दोनों ने लाश को ठिकाने लगाने और सबूत मिटाने के काम किए. पुलिस ने सभी आरोपियों से पूछताछ करने के बाद उन्हें कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया.
लेखक-कुशलेंद्र श्रीवास्तव
कंजूस सेठ अपने कर्मचारियों को हमेशा कड़की का हवाला दे कर कम तनख्वाह देता पर लौकडाउन के चलते मुनीम की पत्नी सुमन ने ऐसा पासा फेंका कि सेठजी का सारा कांइयांपन रखा रह गया.
वैसे तो मुनीमजी हर दिन शाम को अपने घर लौटते समय सेठजी को दिनभर का सारा हिसाब सम?ा, रुपए उन्हें दे कर और साथ में तिजोरी की चाबी उन की गद्दी के पास रख कर आते थे पर आज वे ऐसा कर नहीं पाए थे.
एक तो जब मुनीमजी घर लौट रहे थे, तब सेठजी दुकान पर थे नहीं और दूसरे, आज वे भी वसूली के लिए गए हुए थे. वसूली करतेकरते उन्हें शाम हो गई थी. इस जल्दबाजी में वे न तो रुपए तिजोरी में रख पाए और न ही तिजोरी की चाबी सेठजी को दे पाए. रुपए काफी ज्यादा थे. इतने रुपए वे दुकान पर देखते तो रोज ही थे पर अपने घर में वे पहली बार देख रहे थे. उन का दिल जोरों से धड़क रहा था. उन्होंने सारे रुपए अपनी अलमारी में किताबों के नीचे रख दिए थे.
‘किसी को क्या मालूम कि इस टूटी हुई अलमारी में किताबों के नीचे रुपए होंगे,’ यह सोच कर मुनीमजी ने गहरी सांस ली. उन के सामने सेठजी का कांइयां चेहरा घूम गया.यदि सेठजी को मालूम होता कि उन के पास इतने सारे रुपए हैं तो वे उसे कभी भी अपनी दुकान से हिलने तक न देते.
सेठजी एक नंबर के कंजूस हैं. पैसा बचाने के चक्कर में वे अपने काम करने वाले मजदूरों तक से भी ?ाठ बोल जाते हैं. ‘देख भई, तू ने इस हफ्ते 4 दिन ही काम किया है तो उतने ही दिन के पैसे मिलेंगे.’
‘नहीं हुजूर, मैं ने तो 5 दिन काम किया है. आप ध्यान कीजिए. आप को याद आ जाएगा,’ मजदूर गिड़गिड़ाते हुए कहता, पर वे उस की ओर देखते तक नहीं थे.‘जब मैं ने कह दिया कि काम 4 दिन ही किया है तो किया है. कोई चिकल्लस नहीं चाहिए.’
ऐसा कहते हुए वे नोटों को गिनने में लगे रहते.‘नहीं माईबाप, आप को ध्यान नहीं आ रहा है, मैं ने 5 दिन काम किया है.’‘क्यों मुनीमजी, इस ने कितने दिन काम किया है, जरा बताओ?’मुनीमजी को सेठजी आंख से इशारा करते. मुनीमजी न चाहते हुए भी सेठजी की हां में हां मिलाते.मु?ो तो अब याद नहीं. पर, सेठजी कह रहे हैं तो 4 दिन ही काम किया होगा.’
मुनीमजी की नजरें सफेद ?ाठ बोलने के कारण नीचे ?ाक जातीं. वे चाह कर भी सेठजी से पंगा नहीं ले सकते थे. अच्छीभली नौकरी है. इस आमदनी से ही तो परिवार पल रहा है. यदि उस ने सेठजी की हां में हां न मिलाई तो वे उसे ही नौकरी से निकाल देंगे. पर सच कहो तो उन का जमीर ऐसे ?ाठ बोलने पर उन को ही शर्मिंदा कर देता था.
सेठजी के पास इतने रुपए हैं पर औलाद के नाम पर एक बिगड़ैल बेटा है, बस. फिर भी सेठजी की तृष्णा खत्म नहीं हो रही थी. वे एक मजदूर तक की मजदूरी के पैसे काट लेते हैं.यह सोच कर मुनीमजी का मन नफरत से भर जाता. पर, वे मजबूर थे.
मजदूर मुनीमजी की हां सुन कर चुप हो जाता. उसे सेठजी से ज्यादा भरोसा मुनीमजी पर था. जब मुनीमजी ने ही हां बोल दिया तो अब उस की रहीसही आस भी खत्म हो गई.‘सेठजी पिछले सप्ताह भी आप ने एक दिन की मजूरी ऐसे ही काट ली थी. अब आप रोज लिख लिया करें, ताकि हिसाब में गड़बड़ न हो.’
मजूदर को अपनी एक दिन की मजूरी काटे जाने की पीड़ा हो रही थी, जो उस के माथे पर उभर आई थी.मुनीमजी तिरछी निगाहों से उस मजदूर की ओर देखते, ‘मु?ो माफ करना भाई.’ उन के चेहरे पर भी दर्द उभर आता.
मजदूर मन ही मन कुछ बोलता सा बाहर निकल जाता और सेठजी कुटिल मुसकान लिए काम पर लग जाते.मुनीमजी सेठजी के यहां सालों से काम कर रहे हैं. मुनीमी का काम करते रहने के कारण ही उन का नाम ही मुनीम हो गया है.वैसे तो उन का नाम विजय है, पर उन का असली नाम थोड़ेबहुत लोगों को ही पता था. वे खुद अपना असली नाम भूल चुके थे. यदि उन्हें कोई विजय नाम से पुकार ले तो वे उस की ओर देखते तक नहीं.
मुनीमजी दिनभर सेठजी की दुकान पर बैठ कर काम करते रहते. वैसे तो उन का काम केवल हिसाबकिताब रखना होना चाहिए था, पर वे सेठजी का सारा काम करते.‘अरे दुकान के हिसाबकिताब में कितना टाइम लगता है. बाकी समय तुम क्या करोगे, सो दुकान के बाकी काम भी किया करो,’ सेठजी ने शुरू में ही मुनीमजी से बोल दिया था.
‘पर सेठजी, हिसाबकिताब का काम कितना महत्त्वपूर्ण होता है, आप नहीं जानते क्या. मैं दूसरे कामों में लग गया तो हिसाबकिताब में गड़बड़ भी हो सकती है,’ मुनीमजी ने सेठजी की ओर पासा फेंका.‘नहीं भाई, मु?ो हिसाबकिताब में कोई गड़बड़ नहीं चाहिए पर ऐसा सम?ा लो कि दुकान पर जो कुछ भी काम हो रहा है, वह तुम्हारे हिसाबकिताब का ही तो काम है. तुम्हें यह पता होना चाहिए कि कौन सा सामान बिक चुका है और उसे कितना मंगवाना है तो यह तुम्हारा ही काम हुआ न.’
‘इस के लिए तो मैनेजर रखा जाता है, सेठजी.’‘उस को भी तो पैसे देने पड़ेंगे. मैं सारे पैसे ऐसे ही कर्मचारियों पर लुटाता रहूंगा तो मु?ो बचेगा क्या?’ सेठजी के चेहरे पर नाराजगी के भाव उभर रहे थे.मुनीमजी खामोश हो गए. उन्हें खामोश देख सेठजी ने एक अंतिम बाण और छोड़ दिया, ‘अच्छा रहने दो, तुम से न हो पाएगा. मैं ऐसा मुनीम रख लेता हूं जो यह सारा काम भी कर सके.’एकाएक सेठजी के चेहरे से विनम्रता गायब हो गई. उन का चेहरा पथरीला दिखाई देने लगा. मुनीमजी को लगा कि उन की नौकरी खतरे में पड़ रही है. सो, वे मान गए. उन के पास और कोई चारा भी तो न था.
सेठजी के चेहरे पर कुटिल मुसकान खिल गई. मुनीमजी सेठ की चाल में फंस चुके थे. अब वे वेतन तो केवल मुनीमी का लेते थे, पर काम मुनीमी और मैनेजर दोनों का करते थे. उन्हें दुकान पर आते ही सारी दुकान का सामान चैक करना होता, फिर नए सामान का और्डर देना होता, कितने मजूदर काम कर रहे हैं, उस का भी हिसाबकिताब रखना होता.
सेठजी ने तो उन्हें अपने घर का भी काम सौंप दिया था. वे उन के बच्चे की कौपीकिताब से ले कर स्कूल की फीस तक का हिसाब रखते, उन की पत्नी की जरूरतों का भी ध्यान रखते. घर में क्याक्या सामान चाहिए, इस का ध्यान रखना भी उन की ही जिम्मेदारी में आ चुका था.
मुनीमजी का काम अब बढ़ चुका था. वे दिनभर चकरी बने रहते और शाम को दिनभर का हिसाब करते, खाताबही लिखते, सेठजी को रुपए गिनवा कर तिजोरी में रखते. इन रुपयों को दूसरे दिन बैंक में जमा करने का काम भी उन का ही रहता. वे बैंक की परची सेठजी को दिखाते, फिर उसे अपनी फाइल में रख देते.
सेठजी अपने रिश्तेदारों को भी नहीं छोड़ते थे, कहते, ‘अरे भैया, पैसों से कोई रिश्तेदारी नहीं. बगैर पैसों से रिश्ता रखना है तो रखो, वरना रामराम.’
उन्होंने मुनीमजी को भी हिदायत दे रखी थी, ‘देख भाई, मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है. रिश्तेदार ही क्यों, मेरी बीवी भी यदि पैसे मांगे तो देना नहीं, वरना मैं तुम्हारे वेतन से पैसे काट लूंगा और हां, सुनो, मैं तो अपने रिश्तेदारों से मना करने से रहा तो तुम ही मेरी तरफ से मना कर दिया करो.
उम्मीद तो नहीं थी कि 2020 की फरवरी में उत्तरी दिल्ली में कराए गए मुसलिमों के खिलाफ दंगों, आगजनी और हत्याओं पर किसी हिंदू को भी सजा मिलेगी पर पहली कोर्ट ने एक दिनेश यादव को गुनाहगार मान ही लिया है. वह एक घर जलाने का अपराधी माना गया है जिस में 73 साल की मुसलिम औरत जल कर मर गई.
पुलिस और गवाहों की मिलीभगत से कई दशकों से सत्ता में बैठी पार्टी के गुर्गों के लिए कुकर्मी पर सजा कम है, मिल पाती है. 1984 के दंगों में 2-4 को सजा मिली, मेरठ के ङ्क्षहदूमुसलिम दंगों में नहीं मिली, 2002 के गुजरात के दंगों में नहीं मिली और उत्तरी दिल्ली के दंगों में बीसियों मुसलिम आज भी गिरफ्तार है. पर हिंदू दंगाई आजाद है और एकदो को पहली अदालत ने सजा दी है और शायद ऊंची अदालतों तक यह भी खत्म हो जाएगी.
हमारी क्रिमीनल कानून व्यवस्था ही ऐसी है कि गुनाहगारों को अगर सजा देती है तो अदालत में मामला जाने से पहले दे दो, जमानत न दो. इस चक्कर में गुनाहगाहर और बेगुनाह दोनों फंस जाते हैं. 200-300 की हिंदूओं की भीड़ में से केवल एक को अपराधी मान कर न्याय का कचूमर निकाला गया है. इस भीड़ ने मकानों पर हमला किया, लूटा और फिर वहां दुबके छिपे लोगों के साथ मकान को बिना डरे आग लगा दी और फैसला अभी झोल लिए हुए है कि वह अपराधी भीड़ का हिस्सा था और भीड़ के लूट व हत्या की. यह फैसला ऐसा है जो अपील में बदला जाए तो बड़ी बात नहीं.
आज भी इस इलाके में डर का माहौल यह है कि भीड़ में चेहरे पहचानने वाले केवल पुलिस वाले गवाह है, आम आदमी नहीं. जो मरे उन के रिश्तेदार भी चुप हैं. क्योंकि वे जानते हैं कि इस तरह के दंगों में किसी को सजा न देने का पुरानी परंपरा है और इक्केदुक्के मामलों में सजा पहली अदालत ने दे भी दी तो बाद में छूट जाएंगे.
हिंदूमुसलिम दंगों या हिंदू सिख दंगों में खुलेआम हत्याएं हुर्ई और लूट व आगजनी हुई पर गिरफ्तार मुट्ठीभर लोग हुए और वे भी एकएक कर के छूट गए. हां उन में से कुछ को लंबे समय अदालतों के चक्कर काटने पड़े जो अपनेआप में किसी सजा से कम नहीं है. पर यह तो लाखों बेगुनाहों को करना होता जिन्हें जैसेतैसे पुलिस के हां करने पर जमानत मिल ही जाती है.
धर्म किसी को सुधारता है, आदमी बनाता है, सच बोलना सिखाता है, अच्छे काम करने का रास्ता दिखाता है, गलत कामों से रोकता है, यह सब ख्याली पुलाव है और धाॢमक दंगे इसकी पोल खोलते हैं. आज नहीं हमेशा से, भारत में ही नहीं दुनिया भर में, औरत, जमीन और पैसे पर नहीं धर्म पर ज्यादा मारकाट हुई है और मारने और लूटनेवालों के हमेशा अपने धर्म से धर्म की रक्षा करने की वाहवाई मिली है. हर धाॢमक नेता के पीछ कोई बड़ा अपराध या बड़ा अपराधी है. फिर भी लोगों को कहा जाता है कि धर्म के सहारे ही समाज टिका है.
उत्तरी दिल्ली के कई मामलों में फैसले आने हैं पर वे कुछ अच्छा फैसला देंगे या आरोप पैदा करेंगे, इस का भरोसा कम है. अदालत तो वही देखेंगी न जो दिखाया जाएगा.
सर्दियों के मौसम में अक्सर लोग साग खाना पसंद करते हैं और वो भी सरसो का साग… आप भी इस साग को बनाने की ट्राई कर सकती है.
पालक (250 ग्राम)
4 प्याज़ (बारीक कटा हुआ)
5 टमाटर (मोटे टुकड़ों में कटे हुए)
कम मात्रा में अदरक के टुकड़े
5 कलियां लहसुन (बारीक कटा हुआ)
1 हरी मिर्च
स्वादानुसार नमक
लाल मिर्च पाउडर (1/2 छोटा चम्मच)
मक्का का आटा (3 छोटा चम्मच)
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बनाने की विधि
सबसे पहले सरसों की टहनियों को टहनियों, पत्तियों और पालक को मोटा मोटा काट लीजिये.
कूकर में कटा हुआ साग, टमाटर, अदरक, हरी मिर्च, नमक और थोड़ा सा पानी डालकर मध्यम आंच पर 3 सीटी आने तक पका लीजिये.
जब कूकर अपने आप ठंडा हो जाये तो ये उबला हुआ साग़ ग्राइन्डर में डालकर दरदरा पीस लीजिये.
अब एक कड़ाही में घी गर्म कर लीजिये.
इस गर्म घी में कटा हुआ लहसुन और प्याज डालिये और सुनहरा भूरा होने तक पकाइये.
सुनहरा भूरा होने पर इसमें पिसा हुआ साग़ डालकर अच्छी तरह मिला लीजिये.
अब इसमें लाल मिर्च पाउडर और मक्का का आटा डालिये और 10 मिनट तक मध्यम आंच पर पकने दीजिए.
इसे थोड़ी थोड़ी देर में चलाते रहिये ताकि इसमें गुठले नहीं पड़ें.
लीजीए, तैयार है स्वादिष्ट सरसों का साग़.
समय बीतता गया. नीरा की लापरवाहियां बढ़ती ही जा रही थीं. कभी कपड़े
धुले न होते, तो कभी घर अस्तव्यस्त होता. अमन ने दबे स्वर में आगाह भी किया. पर नीरा ने कोई ध्यान न दिया.
नीरा रात को भी कभी सिरदर्द, तो कभी थका होने का बहाना कर जल्दी सो जाती. अमन की नींदें गायब होने लगीं. उसे ऐसा लगने लगा कि वह ठगा गया है. अपनी शरण में आई लड़की का मान रखने के लिए उस ने अपने घरबार, मांबाप, बहनों सब को छोड़ दिया पर उसे क्या मिला? यही सोचतेसोचते पूरी रात करवटें लेते बीत जाती.
वैसे तो अमन के जीवन में चिंताओं और तनाव के बादल हमेशा के लिए छा गए थे, परंतु एक दिन तो ऐसा तूफान आया कि उस के जीवन का सारा सुखचैन उड़ा ले गया.
एक दिन डा. जावेद के साथ अमन एक होटल में गया. होटल में कौफी का और्डर दे कर वे बैठे ही थे कि अचानक हौल के कोने में बैठे एक जोड़े पर अमन की निगाह रुक गई. एक गोरा सुंदर सा युवक अपनी महिला साथी के हाथों को पकड़े बैठा था. कभी बातें करता तो कभी ठहाके लगाता.
अचानक उस युवक ने उस युवती के हाथों को चूम लिया. युवती जोर से खिलखिला कर हंस पड़ी. उस के हंसते ही सारे राज खुल गए. दरअसल युवती और कोई नहीं नीरा ही थी. ध्यान से देखा तो उस की साड़ी भी पहचान में आ गई. यही साड़ी तो आज कालेज जाते समय नीरा पहन कर गई थी.
अमन का चेहरा सफेद पड़ गया. यह देख कर डा. जावेद ने भी पलट कर उधर देखा, वे भी नीरा को पहचान गए. होटल में कुछ अनहोनी न हो जाए, इसलिए वे गुस्से में कांपते अमन को लगभग खींचते हुए होटल से बाहर ले आए. लड़खड़ाती टांगों से किसी तरह अमन कार में बैठ गया. गुस्से से वह अभी तक कांप रहा था.
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डा. जावेद उसे अपने घर ले आए. अमन के दिल पर गहरी चोट लगी थी. वह डा. जावेद से आंखें नहीं मिला पा रहा था. जब वह थोड़ा नौर्मल हुआ तो डा. जावेद ने बड़े भाई की तरह उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए समझाया, ‘‘अमन, नीरा से मैं खुद बात करूंगा. उस ने ऐसा क्यों किया, सब कुछ पूछूंगा. अमन लव मैरिज में दोनों ओर से पूर्ण समर्पण होना जरूरी होता है. 1 महीने में तुम नीरा को कितना जान पाए? और नीरा तुम्हें कितना जान पाई? बस यहीं पर तुम अपने जीवन की सब से बड़ी भूल कर बैठे. मैं ने तुम्हें आगाह भी किया था पर तब तुम पर शरणागत का मान रखने, रक्षा करने का भूत सवार था.’’
अमन लज्जित सा उठ खड़ा हुआ. डा. जावेद अमन को उस के घर तक पहुंचा आए.
अमन बड़ी बेचैनी से नीरा का इंतजार करने लगा. वह अंदर ही अंदर सुलग रहा था. उस ने सोच लिया कि आज नीरा से आरपार की बात करेगा. बहुत धोखा दे चुकी है.
नीरा रोज की तरह दोपहर बाद घर आई. अमन को घर में देख हैरान हो गई. बोली, ‘‘अरे, आज बहुत थक गई. तुम खाना खा लेना. मैं नहा कर आती हूं.’’
अमन के सब्र का बांध टूट गया. उस ने नीरा से दोटूक पूछा, ‘‘तुम आज कालेज के बाद कहीं गई थी?’’
नीरा सफेद झूठ बोल गई, ‘‘अरे, आज तो सभी प्रोफैसर आए थे. एक के बाद एक लैक्चर होते रहे.’’
अमन का क्रोध बढ़ता जा रहा था. नीरा उठ कर जाने लगी तो अमन ने उस का हाथ पकड़ लिया. पूछा, ‘‘होटल आकाशदीप में कौन बैठा था तुम या तुम्हारी कोई हमशक्ल?’’
यह सुन कर नीरा घबरा गई. बौखला कर चिल्लाने लगी, ‘‘अच्छा तुम मेरी जासूसी भी करने लगे हो? तुम्हारी सोच इतनी ओछी है, मैं सोच भी नहीं सकती थी. प्रोफैसर के साथ कौफी पीने चली गई तो कौन सा आसमान गिर गया?’’
‘‘अच्छा, कौफी पीतेपीते प्रोफैसर हाथ चूमने लगते हैं?’’ अमन बोला.
चोरी पकड़ी जाने पर नीरा गुस्से में चीजें उठाउठा कर पटकने लगी. वह चिल्लाते चिल्लाते बोली, ‘‘मैं ने भी कितने संकीर्ण विचारों वाले व्यक्ति से शादी कर ली… वास्तव में तुम मेरे योग्य नहीं हो. मैं ने जल्दबाजी में गलत व्यक्ति को चुन लिया,’’ कह झटके से उठी और अपने कुछ कपड़े एक बैग में डाल खट से दरवाजा खोल बाहर निकल गई.
अमन कुछ देर तक तो बुत बना बैठा रहा, फिर अचानक उसे होश आया तो बाइक उठा कर नीरा को देखने निकल गया.
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नीरा की बातें अमन के दिमाग पर ऐसे लग रही थीं जैसे कोई हथौड़ों से वार कर रहा हो. वह बाइक चला रहा था पर उस का ध्यान कहीं और था. अयोग्य व्यक्ति, संकीर्ण विचारों वाला, जासूसी करना, छोटी सोच यही बातें उस के दिमाग से टकरा रही थीं. तभी उस की बाइक सामने से तेजी से आ रही कार से जा टकराई और वह छिटक कर दूर जा गिरा. उस के बाद क्या हुआ उसे नहीं पता. अब अस्पताल में होश आया.
अचानक किसी आवाज से अमन की तंद्रा टूटी तो उस ने देखा सामने उस की बहन और डा. जावेद खड़े थे. डा. जावेद ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘अमन, गनीमत है इतना बड़ा ऐक्सिडैंट होने पर भी तुम खतरे से बाहर हो… अब तुम नीरा के बारे में सोच कर परेशान न होना. अगर उसे अपनी गलती का एहसास हो गया तो वह माफी मांग कर लौट आएगी और अगर ऐसा नहीं करती तो समझ लो वह तुम्हारे योग्य ही नहीं है. तुम उसे उस के हाल पर छोड़ दो. बस जल्दी ठीक हो जाओ.’’
बहन ने भी डा. जावेद के सुर में सुर मिलाया. बोली, ‘‘हां अमन, अभी तो तुम्हें घर भी ठीक करवाना है, क्लीनिक भी खोलना है.’’
यह सुन कर अमन तेज दर्द में भी मुसकरा दिया.
वंदना सोचती जा रही थी, कि कभी धर्म, कभी मानमर्यादा के नाम पर क्यों औरत से ही हर कुर्बानी की उम्मीद की जाती है. क्या नैतिकता, धर्मशीलता, उदारता का सारा ठेका स्त्रियों ने ही ले रखा है? क्यों एक स्त्री के आगे बढ़ने से पुरुषों का स्वाभिमान आहत होने लगता है. क्यों एक स्त्री से मिली हार को यह मर्द आसानी से पचा नहीं पाता और इस की मर्दानगी चोटिल हो जाती है?
विचारों के उग्र और तर्कयुक्त प्रवाह ने वंदना को सोने न दिया. आख़िरकार उस ने बड़े ही जतन से सहेज कर रखा हुआ कागजों का एक पुलिंदा अपनी अलमारी से निकाला. अभी वह इसे खोल ही रही थी कि कुछ परेशान तृषा ने कमरे में प्रवेश किया.
‘मां, आखिर प्रौब्लम क्या है आप की, सालों से ये सब क्यों सहती चली आ रही हो?’ मां से प्रश्न करते हुए उस की नज़र अचानक उन कागज़ों के पुलिंदे पर ठहर गई. ‘यह क्या है?’
‘ये…बस, ऐसे ही.’ तृषा को यों अचानक आया देख वंदना कुछ असहज हो गई. तृषा ने उस के हाथ से कागज़ों का वह पुलिंदा ले लिया. जैसेजैसे वह उसे पढ़ती गई, उस के चेहरे पर विस्मय के भाव आते चले गए.
‘सच बताओ मां, क्या है यह सब?’ तृषा हैरान थी.
‘ये मेरे जीवन की सचाई है बेटा, जिस में मेरी अब तक की सारी कहानी दर्ज़ है. अपने दर्द को पन्नों पर उतार कर मेरा मन हलका हो जाता था, अन्यथा यह सब सहते हुए मेरा जीना मुश्किल था.’ वंदना समझ गई कि तृषा से अब कुछ भी छिपाना गलत होगा.
‘मैं पढ़ना चाहती हूं ये सब,’ तृषा ने गंभीरता से कहा और चल दी.
‘अरे, लेकिन तू तो कुछ कह रही थी, बता न?’
‘किसी और दिन सही, अभी मैं सोने जा रही,’ कहती हुई तृषा ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया.
तृषा के जाने के बाद वंदना सोच में पड़ गई. अभी तो तृषा ने कुछ ही पन्ने पढ़े हैं, पता नहीं उस के बारे में पूरा सच जान कर उस की क्या प्रतिक्रिया होगी. क्या वह मानस और उस के रिश्ते की गहराई समझ पाएगी, आखिर है तो अभी बच्ची ही. कहीं प्रशांत की तरह उस ने भी इस रिश्ते के बारे में कुछ उलटासीधा अनुमान लगाया तो वह तो जीतेजी मर जाएगी. वंदना का मन बहुत घबरा रहा था.
कुछ दिनों तक तृषा ने उस बारे में मां से कोई बात न की और न ही कुछ जानने की कोशिश की. वंदना बारबार उस के चेहरे को पढ़ती, कुछ समझना चाहती पर समझ न पाती, क्योंकि बातव्यवहार में तृषा बिलकुल सहज नज़र आ रही थी. वंदना ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था. आखिर अब उस के हाथ में कुछ बचा भी न था. पर उस के मन की बेचैनी बरकरार थी.
इस घटना के लगभग एक हफ्ते बाद तृषा ने चहकते हुए घर में प्रवेश किया, ‘मां, मां, कहां हो आप, एक खुशखबरी है आप के लिए.’
‘हां आई तृषा,’ तृषा के चिल्लाने से हड़बड़ाई वंदना आटे से सने हाथ ले कर किचन से बाहर आते हुए बोली. आंखों में कुतूहल लिए उस ने तृषा पर एक प्रश्नवाचक निगाह डाली.
‘अब जितना जी चाहे, लिखो. अपने टैलेंट को वेस्ट नहीं करना. मालूम है आप को, मेरे फ्रैंड ऋतिक के पापा का पब्लिशिंग हाउस है. उन्होंने आप की पूरी कहानी पढ़ी और उन्हें यह इतनी पसंद आई कि वे उसे निशुल्क छापने पर राज़ी हो गए हैं. है न ख़ुशी की बात,’ तृषा ने मम्मी के गले में अपनी बांहें डाल उन्हें चूमते हुए कहा.
‘लेकिन बेटा, तूने पढ़ लिया इसे. मेरा मतलब, तुझे कुछ ग़लत तो नहीं लगा. दरअसल, वह मानस…’
‘हां मां, पूरा पढ़ा, सिर्फ़ पढ़ा ही नहीं बल्कि अपनी मां की हर पीड़ा, हर दर्द को शिद्दत से महसूस भी किया. सच मां, आप ने बहुत सहा. और फिर, प्रेम तो व्यक्ति के निष्पाप हृदय की धड़कन है, यह गलत कैसे हो सकता है? आप ने अपनी वेदना को जैसे कागज़ पर उतारा वह काबिलेतारीफ़ है. आप तो बहुत टैलेंटेड हैं. कहां से सीखी लिखने की यह कला?’ हर्षातिरेक में तृषा बोले जा रही थी. वंदना की आंखों के सामने मानस का चेहरा साकार हो उठा. पर फिर प्रशांत के खौफ़ से उस का मन कांप उठा.
‘लेकिन बेटा, तेरे पापा…मेरा मतलब यह सब कैसे होगा? मैं ने तो यह सोच कर नहीं लिखी थी. वह तो अपना दर्द भुलाने की कोशिश में उसे पन्नों पर उतार दिया करती थी.’
‘आप की इसी वेदना ने तो ऋतिक के पापा के दिल को छू लिया है. उन्होंने कहा कि इसे पढ़ते हुए वे आप की पीड़ा को अनुभव कर पा रहे थे. स्त्रियों के प्रति समाज की सोच को बदलने के लिए आप की यह कहानी मील का पत्थर साबित होगी. बस, आप को इसे अब एक खूबसूरत अंजाम देना है.’
‘क्या मतलब, मैं समझी नहीं?’
‘यही कि मैं ने आप के बारे में कुछ सोचा है. यहां बैठो मेरे पास,’ मां का हाथ थाम तृषा ने उन्हें वहीं सोफे पर बिठा लिया और कुछ समझाने लगी. वह मां की कहानी को एक नौवेल का रूप देना चाहती थी. पर वंदना अभी भी असमंजस में थी.
‘लेकिन बेटा, क्या तुम्हें लगता है मैं यह काम कर पाउंगी? मेरा मतलब, मैं ने लिखने के बारे में कभी सोचा ही नहीं.’
लेखक- डा. नीरजा श्रीवास्तव
‘नीरू’ देवेश के छिछोरेपन के कारण उस की पत्नी उमा परेशान हो गई थी. महल्ले में सब के सामने उसे जिल्लत उठानी पड़ती. अपनी उम्र और जिम्मेदारियां जानतेबू?ाते भी मानो देवेश की अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे…उमा अपने पति देवेश के छिछोरेपन से परेशान थी. ‘छि:, यह भी कोई उम्र है इन की. सारे बाल सफेद होते जा रहे हैं और 5-6 साल में सेवामुक्त भी हो जाएंगे, फिर भी लड़कियों, औरतों को देख कर छेड़छाड़ करने से बाज नहीं आते हैं,’ वह बड़बड़ाए जा रही थी, ‘2 बेटों का ब्याह कर दिया. वे अपनीअपनी नौकरी पर रहते हैं. छुट्टियों में कभीकभी आते हैं, साथ में बहुएं और बच्चे भी होते हैं. उन के सामने ऐसावैसा कुछ भी कर जाते हैं, इन्हें जरा भी शर्म नहीं आती.’
पड़ोसी रामलाल की 27-28 साल की कुंआरी बहन विमला से देवेश की आजकल खूब पट रही है. उन से कुछ कहने पर वे कहते, ‘अपनी तो वह बहनबेटी जैसी है. विजय की जगह कहीं अपनी लड़की होती तो ठीक इसी उम्र की होती. अच्छीभली है पर रामलाल जाने क्यों अभी तक उस की शादी नहीं कर पाया. जब देखो तब, मनहूस कह कर कोसता ही रहता है. भला उस का क्या कुसूर? बेचारी, बिन मांबाप की लड़की, आंसू ही बहाती रहती है. मु?ो अच्छा नहीं लगता. बेहद तरस आता है.’ अकसर ऐसी ही दलीलें उन से सुनने को मिलतीं.
देवेश जबतब उस की सेवा में लगे रहते. घर में खाने की कोई भी चीज आती, उस में से जरूर कुछ दौड़ कर विमला को दे आते और नहीं तो अलग से ही खरीद कर दे आते. यह देख कर उमा का दिल जल जाता. छुट्टियों में चुन्नू, मोना और बंटी के साथ देवेश का ज्यादा समय बीत जाता तो विमला शिकायत करती, रूठ जाती, ‘अब अंकल हमें पहले जैसा प्यार नहीं करते.’
उस समय देवेश हाथ पकड़ कर उसे अपने पास बिठा लेते, उस की चुन्नी और बाल संवारते हुए उसे दुलारते, मनाते. बच्चे के सामने भी रूठनेमनाने का यह सिलसिला चलता ही रहता. यह देख कर उमा का खून खौल जाता.अजय, विजय तो नौकरी के बहाने चले गए हैं, उमा का मन करता कि वह भी कहीं दूर भाग जाए या जहर खा ले, पर उस के तीसरे बेटे जय का क्या होगा जो अभी पढ़ रहा है और उस के साथ ही रहता है. ‘मेरे जाने से तो इन्हें और छूट मिल जाएगी. जय के पीएमटी का क्या होगा, कैसे पढ़ पाएगा?’ वह सोचती रहती.
‘हाय, क्या करूं मैं. कुछ तो सद्बुद्धि आए इन में. मैं तो सम?ासम?ा कर थक गई,’ बड़बड़ाते हुए उमा की आंखों में आंसू छलछला आए. वह अपना माथा थामे बैठ गई. तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.‘कौन हो सकता है? जय को कोचिंग के लिए निकले 10 मिनट हुए हैं, कहीं वह फिर किसी से ?ागड़ा कर के तो नहीं आ गया… मु?ा से भी फिर लड़ेगा,’ सोच कर आशंका से उस का दिल धड़कने लगा.
उस ने दरवाजा खोला तो जय ही था, वह बरस पड़ा, ‘‘घर से निकलना दूभर हो गया है, अम्मा. आप पापा को सम?ाती क्यों नहीं. आज उन्होंने फिर रश्मि के साथ छेड़छाड़ की. बब्बन ने (रश्मि का भाई) फिर पापा के लिए गंदीगंदी बातें बोलीं. उस ने पापा को पीटने की धमकी दी है. मैं ने भी कहा कि जरा हाथ लगा के दिखाना तो उस ने मेरे माथे पर पत्थर दे मारा,’’ तेज सांसों से बोलते हुए जय ने अपने माथे पर दबा रखा हाथ हटा दिया तो खून रिसने लगा था.
‘‘जब तेरे पापा ऐसे हैं ही तो तू क्यों लड़ता है पापा के लिए. सम?ाने पर भी उन पर कोई असर नहीं होता. चल, वाशबेसिन पर धो ले, मैं दवा ले कर आई…’’ अलमारी से दवा निकालते हुए वह बोले जा रही थी, ‘‘आने दे आज, अच्छी तरह सम?ाऊंगी. तू ?ागड़ा मत किया कर. तु?ो कुछ हो गया तो मैं… अपनी मां के लिए सोचा है… तू लड़ा मत कर. बोलने दे लोगों को, चुपचाप चला जाया कर. पढ़ाई में ध्यान दे, मैं कुछ करूंगी, तू पट्टी कर के जा,’’ कहते हुए उमा ने उस के कंधे पर हाथ रखा.
‘‘कैसे जाऊं, अम्मा. पापा को कोई गंदा बोले तो सहन नहीं होता. मन करता है मुंह तोड़ दूं उस का,’’ जय बोला.‘‘नहीं, तू ऐसा कुछ भी नहीं करेगा. बब्बन को मैं सम?ा दूंगी, वह तु?ो कुछ नहीं बोलेगा. अब तू जा. अभी भी समय रहते क्लास में पहुंच जाएगा. मैं तेरे पापा से बात करूंगी, सब ठीक हो जाएगा,’’ उमा ने जय को आश्वासन देते हुए कोचिंग भेज दिया, मगर खुद को वह आश्वस्त नहीं कर पाई.
वह बब्बन को सम?ाने गई और बोली, ‘‘तू मेरे बेटे जैसा ही है. जय से क्यों लड़ता है? अंकल के बारे में उस से क्यों कहता है, अंकल से ही कहा कर. मैं भी सम?ाऊंगी उन्हें.’’‘‘क्या करूं आंटी, रश्मि के बारे में कोई और लड़का बोलता तो यकीनन मैं उस की जबान खींच लेता,’’ वह फिल्मी हीरो के अंदाज में बोला, ‘‘रश्मि ने कई बार मु?ा से कहा कि सामने वाले अंकल मु?ो श्रीदेवी कह कर छेड़ते हैं. मैं ने उसे सम?ाया कि तू छोटी सी है, प्यारी सी है, प्यार से कहते होंगे, मगर उस ने बताया कि अंकल उसे आंख भी मारते हैं और कल तो हद ही हो गई…’’ बब्बन कहने में हिचकिचा रहा था, पर उमा सुनने से पहले ही शर्मिंदा हो रही थी. वह कोशिश कर के बोला, ‘‘आंटी, अंकल ने रश्मि का हाथ पकड़ लिया और गंदा सा गाना गाने लगे… वही, माधुरी दीक्षित वाला, ‘एक तो जुल्मी ने… फंसी गोरी, चने के खेत में…’’
‘‘मैं बात करूंगी अंकल से. जाने क्या हो गया है उन्हें. सठिया गए हैं शायद पर तू जय को कुछ मत बोला कर. वह बहुत परेशान हो जाता है. उस का पीएमटी नजदीक आ गया है, वह कैसे पढ़ पाएगा? अंकल की हरकत के लिए मैं तु?ा से माफी मांगती हूं,’’ उमा बोली थी.‘‘माफी…? आप उन्हें सम?ा देना, वरना मेरे सामने किसी दिन ऐसी हरकत की तो मैं लिहाज नहीं कर पाऊंगा,’’ बब्बन ने चेतावनी देते हुए कहा तो अपनी बहुत ही बेइज्जती महसूस करते हुए उमा अपने घर चली आई.
रात करीब 8 बजे देवेश का स्कूटर रुकने की आवाज आई, साथ ही दूसरे लोगों की भी कुछ आवाजें, ‘‘संभाल कर भाई,’’ तभी उमा ने दरवाजा खोला तो… ‘‘भाभीजी, इस मोड़ पर घूमते ही इन का स्कूटर नीम के पेड़ से टकरा गया था. हम लोगों ने देखा तो ले आए. शुक्र है, जो उन्हें चोट नहीं आई,’’ महल्ले का चौकीदार बोला.
‘‘आप इन्हें रोकती क्यों नहीं? इतनी शराब पी कर ऐसी हालत में कोई स्कूटर, गाड़ी चलाता है? मेन रोड पर तो कुछ भी हो सकता था,’’ देवेश को लाने वाले पड़ोसी रमेशजी बोले थे.‘‘अरे, मु?ो कुछ नहीं हुआ, रमेश. कंकड़ पर पहिया स्लिप हो गया था, बस. आप लोग बैठिए. उमा, इन सब के लिए चाय बनाओ,’’ देवेश जोर से बोला, मानो उमा कहीं दूर कमरे में बैठी हो. इस से देवेश पर नशे का असर साफ ?ालक रहा था.
‘‘नहींनहीं, हम चलते हैं. आप आराम कीजिए और अपनी उम्र और बीवीबच्चों का खयाल कीजिए,’’ रमेशजी बोले.‘‘सारा दिन तो पीते ही हैं पर हर महीने की तनख्वाह या बोनस वाला दिन इन के लिए जश्न वाला दिन होता है, भाईसाहब,’’ उमा ने देवेश की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘सुबह ही मैं ने इन से मना किया था कि आज तनख्वाह मिलेगी, स्कूटर से मत जाओ, क्योंकि पीने से तो बाज नहीं आएंगे. कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए कि हम सारी जिंदगी रोने लिए ही रह जाएं.’’
रमेशजी और चौकीदार चले गए. देवेश बिस्तर पर पसर कर बोला,
लेखक- रोहित और शाहनवाज
अगर उलटा हुआ होता यानी किसानों ने अपना आंदोलन वापस ले लिया होता तो तय है उठाने वाले देश सिर पर उठा लेते, जगहजगह पटाखे फोड़े जा रहे होते, गुलालअबीर उड़ रही होती, मिठाइयां बांटी जा रही होतीं, जुलूस निकल रहे होते, जश्न मन रहे होते और कहा यह जाता कि देखो, मोदी की एक और जीत, फर्जी किसान मुंह छिपा कर भाग गए, राष्ट्रद्रोही ताकतों ने घुटने टेक दिए और देश एक बार फिर टूटने से बच गया.
लेकिन, हुआ यह कि खुद नरेंद्र मोदी को, किसी कृषि मंत्री के मुंह से नहीं, गलती मानते हुए माफी मांगनी पड़ी. इस जीत पर किसानों व उन के नेताओं ने किसी तरह का कोई हुड़दंग नहीं मचाया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ?ाकने पर ताने नहीं मारे. हां, यह जरूर स्पष्ट संदेश दे दिया कि वे इस सरकार पर अब रत्तीभर भी भरोसा नहीं करते. उन का मकसद और मैसेज कुछ और है. निश्चित रूप से यह किसानों की ऐसी जीत है जिस पर किसान फौरीतौर पर खुश लेकिन तात्कालिक रूप से आशंकित ज्यादा हैं क्योंकि इस से उन की समस्याएं हल नहीं हो गई हैं, कुछ नई परेशानियां दूर हो गई हैं जिन्हें सरकार, अपने बनाए नए कानूनों की आड़ ले कर, खड़ी करना चाह रही थी.
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बिना किसी विद्वान या ज्ञानी के सम?ाए किसानों ने सरकार की नीयत को सूंघ लिया तो उन के सामने सदियों पुराना शोषण का इतिहास मुंहबाए खड़ा हो गया और वे एकजुट हो, कफन सिर पर बांधे सड़कों पर आ गए ताकि सवर्णवादी ताकतें हावी न हो जाएं. इस से इतिहास की एक ?ालक दिखती है. आज से तकरीबन 114 साल पहले 1907 में जब अय्यनकली ने ‘साधु जन परिपालन संगम’ नामक संगठन की नींव डाली थी. इस संगठन ने सब से पहला काम दलितों की संतानों के लिए शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने का काम किया था.
इस के लिए अय्यनकली के आह्वान पर पुलया तथा अन्य जाति के दलित खेतमजदूरों ने ऐतिहासिक हड़ताल शुरू की थी, जिस में उन की प्रमुख मांगें थीं कि दलित बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित किया जाए, खेतमजदूरों के साथ मारपीट बंद की जाए व उन्हें ?ाठे मामलों में फंसाना बंद किया जाए, स्तन ढकने के टैक्स को निरस्त किया जाए, दुकानों में दलितों को अलग सकोरों में पानी व चाय देने की प्रथा बंद की जाए, काम के दौरान आराम का वक्त और अनाज या अन्य मोटी चीजों के बजाय मजदूरी का भुगतान नकद में दिया जाए. यह हड़ताल कई मानो में अहम थी.
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एक, इसे भारत के पहले शूद्र दलित किसान मजदूर नेतृत्व द्वारा शुरू किया गया था जिस में लाखों दलित खेतमजदूरों ने भाग लिया था. दूसरे, यह सीधा वर्णव्यवस्था और वर्गव्यवस्था के खिलाफ उठा विद्रोह था जिस में फ्री फंड के सेवक सम?ो जाने वाले किसानमजदूर अपनी मेहनत का हिसाब मांगने लगे थे. हड़ताल काफी दिनों तक जारी रही. जमींदारों को लगा कि भुखमरी का शिकार होने पर पुलया लोग काम पर लौट आएंगे, मगर हड़ताली अडिग रहे. आंदोलनकारियों को भुखमरी से बचाने के लिए अय्यनकली ने इलाके के मछुआरों से संपर्क किया तथा उन से सहयोग मांगा.
सवर्णों के उत्पीड़न से परेशान मछुआरों ने खुशीखुशी उन की मदद की. स्थिति बिगड़ती देख कर रियासत के दीवान की मध्यस्थता में दलित आंदोलनकारियों के साथ जमींदारों का सम?ाता हुआ, जिस में उन्होंने दलितों की मजदूरी बढ़ाने तथा स्कूल में प्रवेश दिलाने और आजादी से घूमनेफिरने की मांग मान ली. नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रवाद शब्द हर स्तर पर खूब परवान चढ़ा जिस का सीधा सा असल मतलब ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद था. कृषि कानूनों के जरिए इस ढांचे को और पुख्ता बनाने की कोशिश की गई तो किसान तिलमिला उठे जिसे एक नई चेतना पैदा होना कहना अतिशयोक्ति न होगी. यह सोचना बेमानी है कि किसान आंदोलन सिर्फ नए कृषि कानूनों को वापस ले लेने की जिद था, बल्कि हकीकत में इस के पीछे सदियों से होते आ रहे जातिगत व आर्थिक शोषण के खिलाफ एक हुंकार थी जिसे इस बार सरकार दबा नहीं पाई तो माफी मांगते ?ाक गई.
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किसान आंदोलन की जीत 19 नवंबर की सुबह पहली बार ऐसा हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन से सही मानो में जनता के चेहरों पर मुसकान देखने को मिली. संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल देश के किसानों पर थोपे हुए तीनों कृषि कानूनों, कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून 2020, कृषि (सशक्तीकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून 2020, आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून 2020, को वापस लेने की घोषणा की. इस संबोधन के साथ देश के सभी किसानों और दिल्ली के अलगअलग बौर्डरों पर सालभर से आंदोलन कर रहे किसानों की आंशिक जीत हो गई. किसानों की सब से पहली मांग यही थी कि कृषि सुधार के नाम पर केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया जाए, पर किसानों का संघर्ष यहीं समाप्त नहीं हुआ. वे अपनी दूसरी अहम मांगों पर भी सरकार से जवाब चाहते हैं,
जिन में एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) पर कानून बनाना, विद्युत अधिनियम संशोधन विधेयक 2020-21 को वापस लेना, शहीद किसानों को मुआवजा दिया जाना, किसानों पर चलाए मुकदमों को वापस लिया जाना व लखीमपुर कांड में किसानों को न्याय दिलाना मुख्य हैं. किसानों की यह जीत कोई आम जीत नहीं है जिस पर छोटीमोटी चर्चा कर या सुर्खियों के धागों में पिरो कर भुला दिया जाए. इस जीत के माने दूर तक देखे जा सकते हैं. यह जीत न सिर्फ किसानों की है बल्कि देश के उन समस्त नागरिकों की जीत है जो अन्न का उपभोग करते हैं. यह जीत देशवासियों की खाद्य सुरक्षा को बचाने की जीत है. यह जीत उस विश्वास को बल देने की है जिस ने एक मजबूत, संगठित और सशक्त आंदोलन के जरिए बड़े से बड़े अहंकारी शासक को ?ाकाने का काम किया है, यह जीत सीमित हो रहे लोकतंत्र को बचाए जाने की भी है.
इस जीत की खुशी ने पिछले एक वर्ष से अनगिनत विपदाओं, भीषण सर्दीगरमी, बारिशतूफान और मेनस्ट्रीम मीडिया व सोशल मीडिया में दुष्प्रचार ?ोल रहे किसानों की पीड़ा को कम करने का काम किया. यह जीत सरकार की उन बर्बरताओं जिन में, लाठीडंडे, वाटर कैनन, आंसू गैस के गोले, फर्जी मुकदमे, रोड़ापत्थर, कंटीली तारों के रास्तों के खिलाफ है. ऐसा कोई हथकंडा नहीं बचा था जिसे सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए अपनाया न हो. इस जीत ने उन सभी घिनौने आरोपों का सच सब के सामने ला दिया है जिन में किसानों को खालिस्तानी, देशद्रोही, आतंकवादी, माओवादी, टुकड़ेटुकड़े गैंग और पाकिस्तान समर्थित कहा जा रहा था. यह जीत देश में चल रहे भगवा कृत्य के खिलाफ है जो समाज को भी पुरुष धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर बांटने की कोशिश कर रहा है.
रस्सी जल गई, बल नहीं गया देश के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा, ‘‘मैं आज देशवासियों से क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी, जिस के कारण दीए के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को हम सम?ा नहीं पाए. आज मैं आप को, पूरे देश को यह बताने आया हूं कि हम ने 3 कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है.’’ प्रधानमंत्री की इस घोषणा ने पिछले एक साल से आंदोलन पर मंडराते उन बादलों को छांटने का काम किया जो किसानों की किसानी पर ही सवाल खड़ा कर रहे थे. ‘सच्चे मन’ और ‘पवित्र हृदय’ का तो पता नहीं, पर इस आंदोलन ने प्रधानमंत्री को यह मानने पर जरूर मजबूर किया कि आंदोलन में बैठे लोग सच्चे किसान हैं, वरना तो वे इन्हें ‘आंदोलनजीवी’ जैसे खुद के गड़े नाम से संबोधित कर चुके थे.
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि वे ‘दीये के प्रकाश जैसे सत्य को कुछ किसानों को सम?ा नहीं पाए’, दरअसल, सचाई यह है कि इन कृषि कानूनों की बुनियाद ही एक बड़े ?ाठ पर टिकी हुई थी, जिस में किसानों के साथ धोखे के अलावा और कुछ न था. जिस समय देश लौकडाउन के चलते बंद पड़ा था उस दौरान केंद्र ने बिना किसान यूनियनों की सहमति लिए इन अध्यादेशों को कैबिनेट में पास करा अध्यादेश का रूप दिया. यह न सिर्फ किसानों को अंधेरे में रखने जैसा था बल्कि किसी जालसाजी से भी कम न था. इसी प्रकार, सितंबर में आननफानन एक हफ्ते में ही तीनों बिलों को दोनों सदनों में बगैर खास चर्चा के जैसेतैसे पास करा कर राष्ट्रपति की मुहर भी लगवा दी. राज्यसभा में तो विपक्षी नेताओं को सदन से बाहर कर ध्वनिमत से बिलों को पास कराया गया.
अगर ये कानून दीये के प्रकाश के सामान सत्य थे तो प्रधानमंत्री को अंधेरे में इसे पास कराने की जरूरत क्यों पड़ गई? आखिर इतनी क्या हड़बड़ी थी? जहां तक बात इन तीनों कानूनों को सम?ाने की है, तो यह जानना भी जरूरी है कि आज का किसान पहले जैसा फटेहाल नहीं रहा. यदि वह अपने हिसाबों का बहीखाता मांग रहा है तो उसे पढ़ना व सम?ाना आता है. जो लोग 70 सालों का रोना आएदिन रोते रहते हैं वे यह कभी नहीं बताते कि इन सालों में किसानों को क्या मिला सिवा इस के कि उन के तन पर सलीके के कपड़े दिखने लगे, उन के कच्चे ?ांपड़े अधपक्के हो गए, कुछ जगह हल की जगह ट्रैक्टर दिखने लगे. लेकिन क्या यह बहुत बड़ी बात या उपलब्धि है. इस सवाल का जवाब शायद ही कोई कानून या सरकार दे पाए जबकि ट्रैक्टर खेतीकिसानी और ट्रांसपोर्टिंग का एक जरूरी उपकरण है. पिछले 7 सालों में मोदी सरकार क्या हाहाकारी बदलाव किसानों के हक में ले आई सिवा बातों के बताशे फोड़ने के.
मसलन, किसानों की आय दोगुनी कर दी जाएगी और हम यह कर देंगे वह कर देंगे आदिआदि. किसानों की औसत मासिक आमदनी 6 हजार रुपए है और उन का खर्च भी लगभग इतना ही है तो फिर, हुआ क्या है? और जो हुआ है, वह किसानों ने अपने दम पर, अपनी लगन व मेहनत से हासिल किया है. उस में किसी सरकार की नीतियों, कानूनों या धर्म का कोई योगदान नहीं है. यहां यह गौरतलब है कि 80 फीसदी किसान छोटी जोत और छोटी जातियों वाले हैं जिन्हें बेदखल और कमजोर करने की मंशा से कृषि कानून लाए गए थे. धार्मिक किस्सेकहानियों, जिन से रोज हर किसी को रूबरू होना पड़ता है, में कहीं इस बात का जिक्र नहीं है कि अनाज के एक दाने से सैकड़ोंहजारों दाने पैदा होते हैं. लेकिन इस बात को चमत्कार कहा जाता है कि एक गांधारी के सौ बेटे मांस के एक लोथड़े या घड़े से पैदा हुए थे.
यह भी एक स्थापित सच है कि सनातन धर्म और वैदिक सभ्यता कभी उत्पादन और उत्पादकता पर जोर नहीं देते क्योंकि उत्पादक यानी मजदूर किसान तो हमेशा से ही वे शूद्र रहे हैं जिन्हें कथित लोकतंत्र के इस दौर में एससी, एसटी और ओबीसी वाला कहा जाता है. इस दौर के मशहूर दलित लेखक कांचा इलैया ने अपनी किताब ‘द शूद्राज : विजन फौर ए न्यू पाथ’ में विस्तार से इस स्याह पहलू पर दीये का नहीं, बल्कि ज्ञान और तथ्यों का प्रकाश डाला है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय खेती व पशुपालन तथा दूसरे उत्पादक कार्यों से पूरी तरह दूर थे. कुछ वैश्य जरूर श्रमजीवी संस्कृति का हिस्सा थे लेकिन धीरेधीरे वे भी उत्पादक कार्यों से दूर हो गए. तपस्या किस की गीता के अध्याय 3 में लिखा है, अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥ (3 : 14) ‘अर्थात, संपूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है और वृष्टि यज्ञ से होती है और वह यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होने वाला है.’ जिन कानूनों को किसानों ने नामंजूर कर दिया था, आखिर प्रधानमंत्री उन के बारे में क्या सम?ाना चाहते थे किसानों को? क्या गीता के श्लोक से यह बताने की कोशिश चल रही थी कि ‘देखो, तुम्हारी मेहनत तो असल में दो कौड़ी की भी नहीं है, असल मेहनत तो यज्ञ करने वालों की है. इसलिए तुम्हारा इस मसले पर बोलने का कोई अधिकार नहीं.
अन्न पैदा करने वाला किसान भूखा सोए तो यह तुम्हारे पाप कर्मों का फल है जो वह किसान यानी शूद्र योनि में पैदा हुआ.’ दरअसल, इस और ऐसे कई श्लोकों से यह जताने की भी कोशिश की जाती रही है कि श्रम का कोई मूल्य या महत्त्व नहीं होता. महत्त्व है यज्ञ और हवन का जिन्हें श्रेष्ठि वर्ग संपन्न कराता है. इस से ज्यादा धूर्तता वाली कोई और बात हो भी नहीं सकती कि मेहनत कोई और करे जबकि उस का श्रेय उन निकम्मों के खाते में डाल दिया जाए जो परजीवी हुआ करते थे.
ऐसे ऋषिमुनि आज भी पूंजीपतियों की शक्ल में हैं जिन के भले के लिए कृषि कानूनों को थोपने के लिए 7 वर्षों से तपस्या की जा रही थी. प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में तपस्या का जिक्र किया. लेकिन वे यह बताना भूल गए कि सरकार ने किसानों को किस तपस्या से सम?ाने की कोशिश की. क्या सालभर चले इस आंदोलन में प्रधानमंत्री का किसानों के साथ एक बार भी चर्चा नहीं करना इसी तपस्या का हिस्सा था? क्या किसानों पर लाठीडंडों की मार ही सरकार की तपस्या थी? क्या वाटर कैनन की बौछार ही वह तपस्या थी? सरकार बताए कि किसानों को दिल्ली में न घुसने देना, सड़कों पर गहरे गड्ढे खोद देना, बड़ेबड़े कंटेनरों को लगाना, मोटी दीवारें खड़ी करना, रास्तों पर नुकीली कीलें, सरिए व सरहदों पर लगने वाली कंटीली तारें और फौज को खड़ी करना क्या इसी तपस्या का हिस्सा थीं?
तपस्या और त्याग किसे कहते हैं, यह शायद प्रधानमंत्री मोदी सही व सनातनी माने अच्छे से जानते हैं पर असल में त्याग किसानों ने किया. सयुंक्त किसान मोरचा के अनुसार, नवंबर में दिल्ली के बौर्डरों पर आंदोलन शुरू होने के बाद पहले महीने के भीतर प्रदर्शन के दौरान आंदोलन में जान गंवा देने वाले किसानों की संख्या 50 तक पहुंच गई थी. अगले 3 महीनों में यानी मार्च तक आतेआते यह संख्या 248 तक पहुंच गई. जुलाई आतेआते आंदोलन में जान गंवा देने वाले किसानों की संख्या 537 तक पहुंच गई. वहीं नवंबर तक आंदोलन के दौरान मरने वाले किसानों की किसानों 750 हो गई. पिछले एक साल से किसान अपने खेतों को बचाने के लिए अपनी जान की परवा किए बगैर शांतिपूर्ण तरीके से सड़कों पर बैठे रहे, अपने घरपरिवार, खेतखलिहान सबकुछ त्याग कर किसान अनिश्चितकाल के लिए बौर्डर पर डटे रहे,
वह भी ऐसी सरकार से मांग मनवाने के लिए जो उन्हें किसान सम?ाने को ही तैयार न थी. किसानों पर गोदी मीडिया और भगवा प्रचार के माध्यम से प्रहार किए गए, ठंडबारिश ?ोलना तो एक तरफ था, आरोपों, जिन में किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, पाकिस्तानी और तरहतरह के घटिया, बेसिरपैर वाले इलजाम लगते रहे, को शांतिपूर्ण तरह से ?ोलना दूसरी तरफ. असलियत में उन सभी आरोपों को ?ोलते हुए, अपनी मांगों को ले कर शांतिपूर्ण तरीके से डटे रहने की तपस्या किसानों ने की. भला, इस से बड़ी तपस्या और क्या हो सकती है. पिछले एक साल से किसानों ने अपने घरों में खुशियां नहीं मनाईं. शादीब्याह के कार्यक्रम तक उन्हें टालने पड़ गए. किसानों ने अपने जीवन की पाईपाई कमाई को इस आंदोलन में लगा दिया.
प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सरिता पत्रिका की टीम सिंघु बौर्डर पर किसानों के अनुभव जानने के लिए पहुंची. पंजाब के फतेहगढ़ साहिब के गांव जलखेड़ा खीरी के रहने वाले 67 वर्षीय जरनैल सिंह बीते एक साल से चल रहे आंदोलन के अपने अनुभव सा?ा करते हैं. वे बताते हैं कि वे अपने गांव के लोगों के साथ यहां आंदोलन के लिए पहुंचे हैं. ‘‘इस एक साल में उन्होंने बहुतकुछ देखा है, बहुतकुछ सहा है. लोगों के मन में डर देखा, आने वाले कल के लिए उन के मन में असुरक्षा की भावना को पनपता हुआ महसूस किया. लोगों के घरों में शादियों को टलते हुए देखा, बच्चों की पढ़ाई रुक गई.’’ जब उन से पूछा कि अब तो वापस चले जाएंगे, आप की मांग तो पूरी हो गई, तो वे कहते हैं,
‘‘सरकार ने हम पर ये कृषि कानून जबरन थोपे थे. इन्हें वापस कराना हमारा हक था. हमारी मांगें एमएसपी पर गारंटी, बिजली की कीमतों में कटौती इत्यादि हैं, जो मिलनी बाकी है. इस आंदोलन में गरीब से गरीब किसान ने अपनी जमापूंजी खर्च कर दी है. किसी ने अनाज दे कर मदद की तो किसी ने चंदा दे कर. हर किसी ने अपनी क्षमता के अनुसार मदद की.’’ ‘कुछ किसानों’ से डरी सरकार? आदिकाल से ही किसानों का शोषण धर्म की आड़ में किया जाता रहा है. राजेरजवाड़ों के दौर में ज्यादा या कम बारिश के चलते फसल नहीं होती थी तब भी उन्हें लगान देना ही पड़ता था. इतिहास में शोषित होने वाले ये किसान लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी कोई राहत नहीं पा सके हैं, उलटे उन के भले के नाम पर बिना उन की रायशुमारी के उलटेसीधे कानून बना उन्हें फिर से संपत्ति से बेदखल कर धन्नासेठ और व्यापारी बिरादरी की तिजोरियों को भरने के काम में लगाया जा रहा है. यह एक तथ्य है कि सरकार द्वारा लागू किए गए कृषि कानूनों के खिलाफ सब से पहले पूरे पंजाब राज्य से आवाज बुलंद हुई थी.
लेकिन यह भी एक तथ्य है कि जिस आंदोलन का नेतृत्व पंजाब के किसानों ने किया उस आंदोलन में समय के साथसाथ भारत के अन्य राज्यों के किसान भी एकजुट हो गए. जिन ‘कुछ किसानों’ की बात प्रधानमंत्री अपने संबोधन में कर गए, वे असल में वे फर्जी किसान थे जिन से सरकार इस प्रमुख आंदोलन को खत्म करने के लिए समानांतर में आंदोलन चलवा रही थी. याद हो तो सरकार ने किसान आंदोलन के खिलाफ किसान सम्मलेन के जरिए अपने किसान खड़े करने का प्रयास किया था. सरकार ने किसान आंदोलन के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रचारयुद्ध छेड़ा था. राज्यसभा में कांग्रेस सांसद नासिर हुसैन और राजमणि पटेल के सवाल के जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि सितंबर 2020 से जनवरी 2021 तक, केवल 5 महीने में सवा 7 करोड़ 25 लाख की राशि इसी प्रचार में खर्च कर दी गई थी.
इस कोशिश में सरकार ने करीब 68 लाख रुपए की लागत से फिल्में तक बनाईं ताकि किसानों के आंदोलन की छवि बिगाड़ी जा सके. किसान आंदोलन की शुरुआत भले पंजाब के किसानों ने ही की हो, लेकिन इसी आंदोलन में किसानों ने देशभर के उन गरीब किसानों का भी मुद्दा उठा दिया जो देश के बहुसंख्यक किसानों की मांग थी. जिन में से एक है किसानों की फसलों की खरीद पर एमएसपी की गारंटी और बिजली की कीमतों में कटौती. इन्ही मांगों को देखते हुए देशभर के किसानों का समर्थन इस आंदोलन को हासिल हुआ. जिस आंदोलन को सरकार शुरुआत में एक (पंजाब) राज्य का आंदोलन कह रही थी वह धीरेधीरे अपनी जमीन देश के बाकी राज्यों में बनाने लगा.
अगर यह केवल कुछ ही किसानों का आंदोलन था तो कैसे हरियाणा के गांवकसबों तक यह पहुंच गया? यदि यह केवल कुछ ही किसानों का आंदोलन था तो फिर कैसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल इत्यादि राज्यों में किसानों की महापंचायतें हुईं और उन में हजारों की तादाद में लोग इकट्ठे होने लगे, कैसे देशभर के अलगअलग इलाकों के टोल प्लाजा पर किसानों के प्रदर्शन होने लगे, कैसे भारत बंद सफल हो पाया? कैसे देशभर की रेलें और सड़कें जाम हो पाईं? याद हो तो पिछले साल बंगाल के विधानसभा चुनावों में जो भाजपा 200 पार की बात कर रही थी, उसे बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था. सिर्फ बंगाल ही नहीं, भाजपा की हालत स्थानीय स्तर के नगरनिगम चुनावों में भी लचर हो गई. जनता ने भाजपा को साफ रिजैक्ट करने का काम किया.
हालिया उपचुनाव के नतीजे सब के सामने हैं. राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी. इस में कोई शक नहीं कि पिछले एक साल से चल रहे किसान आंदोलन का इन चुनावों पर सीधा असर रहा है. भाजपा की हालत आज के समय यह है कि जिन 5 राज्यों में अगले साल चुनाव होने वाले हैं उन में चुनावप्रचार के लिए भाजपा को गांवकसबों में घुसने तक नहीं दिया जा रहा था. लखीमपुर और करनाल की घटना इस का सब से बड़ा उदाहरण है, जहां किसान भाजपा के बड़ेबड़े नेताओं का विरोध कर रहे थे और इसी हताशा में आ कर किसानों के सिर फोड़ने व गाडि़यों से कुचलने वाली घटनाएं घटीं, यह हताशा और गुस्सा इसलिए भी था कि कल तक ये किसान भगवा गैंग के लिए वोटबैंक हुआ करते थे. भगवा गैंग के लिए ये बस, खेती करने वाले शूद्र थे,
लेकिन आज ये उन्हीं का विरोध कर रहे हैं. पुरातनवादियों के मंसूबे निरस्त इतिहास सभ्यता का ऐसा दर्पण है जो सतह से ऊपर ही देखता रहा है. इस में ताकतवर लोगों, राजामहाराजाओं की आपसी जीतहार के किस्से, रणनीति और राजनीतिक षड्यंत्र सब दिखाई देते रहे हैं. उन के स्वाभिमान, बलवानता पर पोथियां गड़ी गई हैं. उन की वीरता की गाथाएं रोचक तरीके से पेश की जाती रही हैं. उन्हें महान और भगवान दिखाने की कोशिशें होती रही हैं.
बस, नहीं दिखाया जाता रहा तो उन लोगों का संघर्ष, बलिदान और त्याग जो सतह से नीचे अपनी गुलामी के खिलाफ लड़ रहे होते हैं और हुकूमत को चुनौती दे रहे होते हैं. महाभारत युद्ध के आरंभ होने से ठीक पहले श्रीकृष्ण अर्जुन को कई उपदेश देते हैं. गीता में श्रीकृष्ण जीवन का सच बताते हुए अर्जुन से कहते हैं, अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥ (20) अर्थात, ‘हे अर्जुन, मैं समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूं और मैं ही सभी प्राणियों की उत्पत्ति का, मैं ही सभी प्राणियों के जीवन का और मैं ही सभी प्राणियों की मृत्यु का कारण हूं.’ सार यह कि कृष्ण खुद को सृष्टि का आदि और अंत बताते हैं. समाज के कणकण में होने वाली हलचल के पूर्ण जिम्मेदार वही हैं. मोदी के संबोधन के बाद चारों तरफ से एकतरफा बात आग की तरह लगातार सामने आने लगी कि कृषि कानूनों की वापसी किसान आंदोलन के कारण नहीं हुई है बल्कि यह तो उन के युगपुरुष मोदी की किसान आंदोलन को मात देने की एक नायाब चाल है. यानी कानून लाए तो मास्टरस्ट्रोक और कानून हटाए तो मास्टरस्ट्रोक, भला ऐसे कैसे संभव हो सकता है?
इस प्रचार से प्रधानमंत्री मोदी की ब्रैंडिंग बड़े स्केल पर की जा रही है. इस प्रोपगंडा को न सिर्फ भाजपा और आरएसएस प्रायोजित प्रचारतंत्र फैलाने में लगा है, बल्कि यह कि कई ऐसे दूसरे पक्ष के धुरंधर बुद्धिजीवी भी हैं जो इन के जाल में फंस कर इस जीत का श्रेय किसान आंदोलन से छीन रहे हैं. मसलन, वे भी यह साबित करने की कोशिश करने में लगे पड़े हैं कि मोदी का यह निर्णय तो आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर लिया गया है. यानी, वे इस पूरे खेल के कर्ताधर्ता मोदी को ही मान कर बैठे हैं. इस तर्क से न सिर्फ वे इस बड़े आंदोलन को सीमित कर देख रहे हैं बल्कि उन 750 किसानों का उपहास भी उड़ा रहे हैं जिन्होंने इस आंदोलन में अपनी शहादत दी. जाहिर है, अगर किसान आंदोलन न होता तो भाजपा को इतने बड़े स्तर पर राजनीतिक खतरा भी न दिखता और वह ऐसा निर्णय लेने के लिए मजबूर न होती.
परंतु मसला इस से कहीं बड़ा है. यह सिर्फ 2022 या 2024 के चुनाव के खींचतान का मसला नहीं है यह देश में फैल रहे भगवा आंदोलन, जिसे साजिश कहना ठीक होगा, के विफल होने का मसला है, जो भाजपा की सब से बड़ी दीर्घकालिक हार साबित हो सकती है. ध्यान हो तो, आंदोलन की शुरुआत में किसान नेता राकेश टिकैत ने एक महापंचायत में किसानों को संबोधित करते हुए कहा था कि, ‘‘मंदिरों को रोज पूजा जा रहा है, लेकिन मंदिर वाला एक भी कोई दिखाई नहीं दे रहा. हर किसी ने मंदिरों में लाइन लगा रखी है. हमारी मांबहनें वहां (मंदिरों में) जा कर दूध दे रही हैं, लेकिन किसान आंदोलन में एक कप चाय नहीं दी इन्होंने. गाय ब्याहती है, भैंस ब्याहती है लेकिन सब से पहले दूध पंडितजी को.’’ इस बयान के कई बड़े दूरदर्शी माने थे जिन का तुरंत विरोध भगवा खेमों ने करना शुरू कर दिया था.
राकेश टिकैत ने यह बात यों ही नहीं कह दी थी. पिछड़ों का यही तबका था जो सवर्णों के बनाए नियमकानूनों में जकड़ा हुआ है और टिकैत ने इसी पर चोट की थी. किसान आंदोलन का स्वरूप सिर्फ सरकार के काले कानूनों के विरोध सहित बाकी मांगों के लिए नहीं उठा, बल्कि पिछले कुछ सालों से देश में तेजी से चल रहे भगवा मुहिम के विरोध में भी सामानांतर चलने लगा था. किसान आंदोलन का कृषि कानूनों के खिलाफ उठना, वह भी ब्राह्मण नेता के बगैर, यह साबित कर रहा है कि किसान अब सवर्णों का पिछलग्गू नहीं हैं और वे अब पौराणिक रीतिनीतियों से भी टकराने की हिम्मत रखते हैं. चुनावों में वोट न पड़ना, यह 5-10 साल तक की ही बात रहती है. इस पर आरएसएस एक हद तक ही परेशान रह सकता है,
पर यदि दान देने वाला सेवक हाथ से निकल गया तो भगवा आंदोलन/ मुहिम/साजिश ही खत्म हो जाएगा, शूद्रसेवक को सवर्णों के खिलाफ विद्रोह करने की आदत पड़ जाएगी और उलटा, कहीं यह न हो जाए कि यह आंदोलन अपना स्वरूप तीखा कर व्यापारी, सवर्णों और धार्मिक दुकानदारों के खिलाफ न हो जाए. सरकार ने किसान आंदोलन के आगे अपने हथियार डाले क्योंकि इन्हीं लोगों से ही सरकार को टैक्स मिलता है और यदि ये भगवा कानून मानने से ही मना कर देंगे तो उन्हें फिर कभी भगवा खेमे में भगवा गैंग वापस नहीं ला पाएगा. साफ कहें तो भगवा दल अब इस बदलाव को जैसेतैसे रोकने के प्रयास में है. आज बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और कोरोना लापरवाही के चलते राममंदिर का मुद्दा ठंडा पड़ता दिख रहा है,
ऐसे में किसान आंदोलन इन मुद्दों में जुड़ कर बड़ा प्रहार कर रहा था. महंगाई और कोरोना लापरवाही को कंट्रोल करना तो सरकार के बस की बात नहीं है. इसी तरह से कोविड के समय में सरकार ने मिसमैनेजमैंट किया, वह उसे कंट्रोल नहीं कर पाई. ऐसे में सरकार के पास एक ही रास्ता बचता था, वह था कृषि कानूनों को वापस लेना और अपने खिलाफ निरंतर उठ रही आवाज को शांत करना. कानून वापसी सिर्फ अगले साल विभिन्न राज्यों के चुनावों में जीत हासिल करने के लिए नहीं हुई क्योंकि इन कानूनों को वापस लेने के बाद भाजपा को चुनावों में कोई खास फायदा होगा, ऐसा दिखता नहीं, बल्कि वजह यह जरूर है कि भगवा खेमा अपने सेवकों को विद्रोही नहीं बनने देना चाहता है.
ऐसे बहुत कम मौके आते हैं जब ऐसे दबेकुचले लोग इतिहास की करवट को बदल रहे होते हैं और ताकतवर लोग अपने घुटने के बल दिखाई देते हैं, वरना अधिकतर समय वे इस तरह के किसी इतिहास को या तो कुचल देते हैं या अंकित ही नहीं होने देते. अय्यनकली द्वारा शुरू किए खेतमजदूरों के संघर्ष से ले कर मौजूदा समय में चल रहे किसानों के विरले संघर्षों ने शासकों को घुटने के बल ला खड़ा किया है. ये वे शासक हैं जो अपनी गाथाओं और किस्सों से खुद को महान दिखाने की कोशिश करते रहे हैं. –साथ में भारत भूषण द्य नेताओं की बोली
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी : 8 फरवरी, 2021 ‘‘मैं देख रहा हूं कि पिछले कुछ समय से इस देश में नई जमात पैदा हुई है. एक नई बिरादरी सामने आई है और वह है आंदोलनजीवी.’’
मनोज तिवारी : 2 दिसंबर, 2020 ‘‘जिस तरह से कुछ गुट यहां एनआरसी व सीएए के खिलाफ शाहीन बाग में इकट्ठे हुए थे, उस से साफ है कि टुकड़ेटुकड़े गैंग एक बार फिर से शाहीन बाग 2.0 के जरिए किसानों के प्रदर्शन को उग्र करना चाहते थे. द्य भाजपा नेता राव साहब दानवे : 9 दिसंबर, 2020 ‘‘दिल्ली में जो किसान आंदोलन चल रहा है, वह किसानों का नही है. इस के पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ है. यह दूसरे देशों की साजिश है.’’
पूर्व कानून और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद : 14 दिसंबर, 2020 ‘‘किसानों के आंदोलन की आड़ में भारत को तोड़ने वाले लोग, टुकड़ेटुकड़े लोग पीछे हो कर आंदोलन के कंधे से गोली चलाएंगे तो इस के खिलाफ बहुत कड़ी कार्यवाही भी की जाएगी.’’
पूर्व रेलमंत्री और कोयला मंत्री पीयूष गोयल : 12 दिसंबर, 2020 ‘‘मैं सम?ाता हूं कि अगर यह किसान आंदोलन माओवादी और नक्सल ताकतों से मुक्त हो जाए तो हमारे किसान भाईबहन यह जरूर सम?ोंगे कि किसान के बिल उन के हित में हैं. यह आंदोलन किसानों के हाथों से निकल चुका है. उन के कंधे से माओवादी नक्सल ताकतें इस आंदोलन को चला रही हैं.’’
राष्ट्रीय महासचिव बी एल संतोष : 29 नवंबर, 2020 ‘‘अराजकतावादी योजनाओं के लिए किसानों को गिनी पिग बनने की अनुमति न दें.’’ द्य राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी : 2 दिसंबर, 2020 ‘‘किसानों के आंदोलन को टुकड़ेटुकड़े गैंग और सीएए विरोधी ताकतों ने हाईजैक करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.’’
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर : 28 नवंबर, 2020 ‘‘हमारे पास इनपुट हैं कि कुछ अवांछित तत्त्व इस भीड़ के अंदर घुसे हुए हैं. हमारे पास इस की रिपोर्ट्स हैं. अभी इस का खुलासा करना ठीक नहीं है. उन्होंने सीधे नारे लगाए हैं. जो औडियो और वीडियो सामने आए हैं उन में इंदिरा गांधी को ले कर साफ नारे लगाए जा रहे हैं और कह रहे हैं कि जब इंदिरा के साथ यह कर दिया तो मोदी क्या चीज है.’’ द्य राज्यसभा सदस्य दुष्यंत कुमार गौतम : 29 नवंबर, 2020 ‘‘वहां पर खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं. ऐसे लोगों के नारे लग रहे हैं जो राष्ट्रविरोधी हैं.’’
भाजपा राष्ट्रीय सचिव वाई कुमार : 3 अक्तूबर, 2021 ‘‘आतंकवादी भिंडरांवाले किसान तो नहीं था? उत्तर प्रदेश में जिस तरह गुंडे तथाकथित किसान बन कर हिंसक आंदोलन कर रहे हैं, वह कोई संयोग नहीं बल्कि एक सुनियोजित प्रयोग लगता है. जिहादी और खालिस्तानी अराजक तत्त्व प्रदेश में अशांति फैलाना चाहते हैं.’’
लोकसभा सदस्य जसकौर मीना : 20 जनवरी, 2021 ‘‘ये आतंकवादी बैठे हुए हैं और आतंकवादियों ने एके47 रखी हुई है. खालिस्तान का ?ांडा लगाया हुआ है.’’ द्य गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी : 25 सितंबर, 2021 ‘‘जिस दिन मैं ने उस चुनौती को स्वीकार कर के काम कर लिया उस दिन बलिया नहीं, लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा, यह याद रहे. सामना करो आ कर, हम आप को सुधार देंगे, 2 मिनट लगेगा केवल.’’