देश का भगवा गैंग चाहता है कि सरकार चलाने के लिए कुरसी पर चाहे जो बैठा हो पर सरकार ऋषिमुनियों के इशारे पर चले. इसलिए 5 राज्यों के चुनावों में उस की राजनीतिक इकाई भाजपा की जीत, खासकर योगी आदित्यनाथ की जीत, उस के सपनों की जीत साबित होगी.
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार उन के काल में राजा को राजकाज चलाने के लिए ऋषिमुनियों से सलाह लेना जरूरी माना जाता था. महाभारत, रामायण और अन्य पौराणिक कथाओं में इस के तमाम उदाहरण मिलते हैं. महाभारत काल में धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे. ऐसे में वे राजा नहीं बन सकते थे. ऋषिमुनियों के आदेश पर धृतराष्ट्र की जगह उन के छोटे भाई पांडु को राजा बनाया गया. पांडु शिकार के शौकीन थे. जब वे शिकार पर जाते थे, गुरुओं और ऋषिमुनियों के आदेश पर राजकाज चलता था. एक बार पांडु शिकार करने वन में गए थे. शिकार करते हुए उन्होंने एक हिरन के जोड़े को उस समय मार दिया जब वह हिरनी के साथ क्रिया में था. कथा के अनुसार, वह मृग के रूप में कोई ऋषि कुमार था.
मृग रूपधारी निर्दोष ऋषि कुमार ने पांडु को श्राप दिया कि जब भी वे अपनी रानी कुंती और माद्री के साथ क्रिया की अवस्था में होंगे तो उन की मृत्यु होगी.
श्राप से दुखी पांडु ने ऋषि कुमार की बात को आधार बना कर फैसला किया कि वे राजपाट त्याग कर अपनी पत्नियों से अलग वन में ही रहेंगे. इस से वे अपनी पत्नियों के साथ क्रिया नहीं कर सकेंगे और जिंदा रह पाएंगे. पांडु की पत्नी कुंती और माद्री ने भी वन में रहने का फैसला कर लिया. वे उन के साथ ही रहने लगीं.
एक दिन पांडु ने ऋषिमुनियों को ब्रह्मा के दर्शन करते जाते देखा तो उन का भी मन हुआ कि वे भी जाएं. तब उन को यह बताया गया कि निसंतान पुरुष ब्रह्मलोक में जाने के अधिकारी नहीं होते.
इस के बाद पांडु चिंताग्रस्त रहने लगे. संतान के लिए पत्नी के साथ संबंध बनाते तो हिरनरूपी ऋषि कुमार को श्राप फलीभूत हो जाता, जिस से उन के मरने का डर था. पति को चिंता में देख कुंती ने बताया कि उस के पास ऐसा वर है जिस से वह किसी भी देवता का स्मरण कर उस के पुत्र की मां बन सकती है. पति पांडु की आज्ञा से कुंती सब से पहले धर्म के देवता का स्मरण कर उन के पुत्र युधिष्ठिर की मां बनी.
कुछ समय बाद पांडु ने गलतीवश एक दिन पत्नी के साथ संबंध स्थापित कर लिया. ऐसा करने से ऋषि कुमार का श्राप फलीभूत हो गया और उन की मृत्यु हो गई. पत्नी माद्री अपने पति पांडु के साथ सती हो गई.
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ऋषिमुनियों के कहने पर कुंती अपने बच्चों की देखभाल के लिए जीवित रही. सभी ने पांचों बच्चों को पांडु का पुत्र मान लिया. ऋषिमुनियों के कहने पर धृतराष्ट्र ने अपने भाई पांडु की जगह राजकाज संभाल लिया. यह तय हुआ कि जैसे ही पांडुपुत्र युधिष्ठिर राजा बनने के योग्य होंगे, यह राजपाट उन को दे दिया जाएगा. ऋषिमुनियों के कहने पर जब धृतराष्ट्र ने ऐसा नहीं किया तो महाभारत हुआ, जिस को धर्मयुद्ध कहा गया.
महाभारत की यह कहानी टीवी सीरियल के जरिए घरघर तक पहुंच चुकी है. घरों में रहने वाले सभी लोग कुंती और माद्री को जानते हैं. जनता को यह सम?ाया जाता है कि जो राजकाज ऋषिमुनियों के आदेश पर चलता है, बेहतर होता है. राजकाज चलाने में ऋषिमुनियों का प्रभाव किस तरह से था, यह बात महाभारत की इस कथा के जरिए सम?ा जा सकती है.
रामायण में ऋषिमुनियों के कहने पर ही अपने दोनों बेटों राम और लक्ष्मण को असुरों को मारने के लिए जंगल में भेजा गया था. जबकि कहा गया कि राजा दशरथ का राजकाज बहुत अच्छा था. जब सब अच्छा था तो असुर कहां से आए? इस की जिम्मेदारी राजा दशरथ की नहीं ठहराई गई. अगर राजकाज की व्यवस्था अच्छी होती तो असुर कैसे परेशान कर सकते थे? ऋषिमुनियों ने जो कह दिया, उस पर सवाल उठाने की परंपरा नहीं है. यही वजह है कि आज के दौर में जो लोग सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं, उन को राष्ट्रद्रोही मान लिया जाता है.
आज ऋषिमुनि नहीं हैं, लेकिन उन की कहानियां सुना कर वर्तमान नेता अपना राजकाज करते हैं. गलतियों से बचाव के लिए पौराणिक कथाओं का ही सहारा लेते हैं. राजकाज से पहले भगवान (यदि कहीं है) को खुश करने के काम करते हैं, जिस से जनता को यह लगे कि नेता पौराणिक ग्रंथों में बताए गए धर्म के रास्ते पर ही चल रहा है. आज के दौर में बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी को खत्म करने से पहले राममंदिर और भव्य काशी बनाना जरूरी हो गया है.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है जिस में वे बेरोजगारी के विरोध में धरना प्रदर्शन करने और सिर मुंड़वाने के लिए पिछले जन्म के कर्म को जिम्मेदार बता रहे हैं.
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, वे बिना किसी पौराणिक कथा के अपना भाषण पूरा नहीं करते. गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पास बने सर्किट हाउस का उद्घाटन प्रधानमंत्री ने वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के जरिए किया. अपने भाषण की शुरुआत प्रधानमंत्री ने एक श्लोक से की, जिस का मतलब था, ‘भगवान सोमनाथ की कृपा अवतीर्ण होती है. कृपा से भंडार खुल जाते हैं.’
पौराणिक ग्रंथों में बारबार राजाओं की कहानियों के सहारे यह बताया गया है कि राजा का काम ऋषिमुनियों की सलाह पर सरकार चलाना होता है. जब भी राजा ऋषिमुनियों का कहना नहीं मानता तो धर्म की सत्ता को बनाए रखने के लिए युद्ध जरूरी हो जाता है. ऐसे युद्ध को धर्मयुद्ध माना जाता है. श्रीमद्भगवतगीता के अध्याय 4 के श्लोक 7 और 8 कहते हैं, ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम’. इस का अर्थ है कि ‘जबजब वास्तव में धर्म की हानि होती है, तबतब अधर्म को रोकने के लिए मैं अर्थात भगवान लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं.’
इन पौराणिक कथाओं को सुन कर जनता मानती है कि उन के नेता अवतारी पुरुष हैं. ये ऋषिमुनियों की सलाह पर राजकाज चलाते हैं. आज ऋषिमुनियों की जगह आरएसएस जैसे संगठनों ने ले ली है. उन की सलाह पर धार्मिक कर्मकांड से राजकाज चलता है.
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एक छोटा सा उदाहरण उत्तर प्रदेश की राजधानी का है. पहले भी तमाम सरकारी गैस्टहाउस बनते रहे हैं. उन के धार्मिक नाम नहीं होते थे. एक नया सरकारी गैस्टहाउस लखनऊ के डौलीबाग इलाके में बना है जिस का नाम धार्मिक स्थल नैमिषारण्य के नाम पर रखा गया.
इस के अलावा इलाहाबाद का नाम बदल का ‘प्रयागराज’ और फैजाबाद का नाम बदल कर ‘अयोध्या’ जैसे रखने के उदाहरण इसी दौर में मौजूद हैं. इस की वजह केवल इतनी है कि जनता को यह लगे कि राजकाज ऋषिमुनियों और पौराणिक कथाओं के बताए रास्ते पर चल रहा है. धीरेधीरे जनता को यह बात सम?ा आ रही है.
कमजोर पड़ता हिंदुत्व का जोश
असल में राजा और ऋषिमुनि जनता को यह बहकाने की कोशिश करते हैं कि वे उस के लिए ही सत्ता को अपने पास रखना चाहते हैं. उन का अपना सत्ता से कोई मोह नहीं है. 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों को भी धर्म के मुद्दे पर लड़ने का प्रयत्न किया जा रहा है. इस को सोशल मीडिया पर धर्म की रक्षा के लिए युद्ध बताया जा रहा है और धर्म की रक्षा के लिए जरूरी है कि हिंदुत्व की रक्षा की जाए.
भारतीय जनता पार्टी ने खुद को धर्म का रक्षक मान लिया है. परेशानी की बात यह है कि पिछले 8 वर्षों के शासन में दलित और पिछड़ों के साथ सत्ता में हिस्सेदारी को ले कर जो अन्याय हुआ, उस के कारण दलित और पिछड़े हिंदुत्व की इस लड़ाई में अलग खड़े दिख रहे हैं. इस वजह से 8 सालों में जो हिंदुत्व का जोश पूरे देश में फैला, वह अब कमजोर पड़ने लगा है. पश्चिम बंगाल चुनाव के साथ भाजपा का विजयरथ रुक गया है. 5 राज्यों में जनता का फैसला इसी बात पर होगा.
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया. यह बदलाव आरएसएस के बदलते राजनीतिक रुख को दिखाता है. पौराणिक कथाओं में जिस तरह से राजा को ऋषिमुनियों के आदेश पर राजकाज करते सुना जाता है, आज की सरकार आरएसएस के इशारे पर राजकाज कर रही है.
केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद आरएसएस ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे पर काम करना तेज किया. 2014 के बाद तमाम विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में अपनी विचारधारा के लोगों को स्थापित करने की शुरुआत की गई, जिस का विरोध करने वालों को अवार्ड वापसी गैंग कह कर नकारने का काम किया गया.
2017 में उत्तर प्रदेश में जीत के बाद हिंदुत्व का चेहरा मान कर योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया. जैसे ही भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल की, कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया. इसी के बाद अयोध्या में राममंदिर की लड़ाई भी हिंदुओं ने जीत ली.
इस के अलावा नागरिकता संशोधन कानून को ले कर भी पूरे देश में काम शुरू हुआ. आरएसएस पहले धैर्यपूर्वक अपनी विचारधारा को आगे बढ़ा रहा था, लेकिन अब उसे लक्ष्य पाने की जल्दी हो रही है. जिस के कारण ही भाजपा में उस का दखल बढ़ता जा रहा है.
ड्राइविंग सीट पर आरएसएस
2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद आरएसएस अपने एजेंडे को पूरा करने में लग गया. तमाम आपसी टकराव के बाद भी आरएसएस और भाजपा ऊपर से एकसाथ दिखने का प्रयास कर रहे थे. भाजपा बारबार आरएसएस को दरकिनार कर आगे निकलना चाह रही थी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कद को कम करने का प्रयास शुरू किया गया. केंद्र सरकार ने पीएमओ में काम करने वाले आईएएस आर के शर्मा को उत्तर प्रदेश में एमएलसी (सदस्य, विधान परिषद) बना कर डिप्टी सीएम बनाने का प्रयास किया. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ब्राह्मणविरोधी और ठाकुर समर्थक बता कर मुख्यमंत्री की कुरसी से उतारने की योजना पर काम शुरू हुआ.
योगी के बचाव में आरएसएस
उत्तर प्रदेश में भाजपा के अंदर ही सत्ता के लिए टकराव होने लगा. ‘मोदीशाह’ की टीम द्वारा आरएसएस को यह सम?ाया गया कि योगी आदित्यनाथ को अगर 2022 में मुख्यमंत्री चेहरा बना कर चुनाव में उतारा गया तो ब्राह्मण, पिछड़े और दलित भाजपा को वोट नहीं करेंगे.
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मोदीशाह को यह लगने लगा था कि आरएसएस के दबाव से छुटकारा पाने के लिए यही सही अवसर है. मोदीशाह की जोड़ी के दबाव में पूरी भाजपा योगी आदित्यनाथ के विरोध में एकतरफ
खड़ी हो गई. योगी आदित्यनाथ अलगथलग पड़ गए. यहां तक कि वे व्यथित हो कर कोपभवन में चले
गए. उन का सभी नेताओं से संपर्क टूट गया.
भाजपा के योगीविरोधी खेमे में जश्न का माहौल बन गया था. यह मान लिया गया कि कोरोना की नाकामी को मुद्दा बना कर योगी को मुख्यमंत्री की कुरसी से हटा दिया जाएगा. दिल्ली में योगी आदित्यनाथ ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व से बात कर चिंता जताई, तब आरएसएस की लखनऊ में मौजूद सहसरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले से बात हुई.
अचानक पूरा घटनाक्रम बदला.
24 घंटे के अंदर आरएसएस पूरी ताकत के साथ योगी आदित्यनाथ के बचाव में आई है. भाजपा और आरएसएस के पदाधिकारियों के बीच समन्वय बैठक हुई. वहां यह तय किया गया कि आर के शर्मा को सरकार में कोई पद नहीं दिया जाएगा, न ही योगी सरकार का कोई मंत्रिमंडल विस्तार होगा. योगी ही मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे.
आरएसएस का यह संदेश मोदीशाह और उन की टीम को दे दिया गया. आरएसएस ने यह भी साफ कर दिया कि योगी के मुकाबले कोई चेहरा स्वीकार नहीं है. इस के पीछे वजह यह है कि योगी ने अपने कार्यकाल में आरएसएस के एजेंडे को प्रभावी तरह से लागू किया है. इस में धार्मिक स्थलों के विकास, कुंभ की व्यवस्था, गंगा का साफ होना, संघ की शाखाओं और उस से जुड़े संगठनों को मजबूत करना, मुसलिम बाहुबलियों पर शिकंजा कसना जैसे काम शामिल हैं.
नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों के खिलाफ कड़े कदम उठाने से आरएसएस योगी से खुश है. आरएसएस योगी को हिंदुत्व के राष्ट्रीय फेस के रूप में स्थापित करना चाहता है. यह बात मोदीशाह को पसंद नहीं आ रही.
चेहरे बदलने का डर
भारतीय जनता पार्टी के भगवा एजेंडे के साथ सब से बड़ी कठिनाई है कि सदियों की परंपराओं के कारण वह पिछड़ों और दलितों, जो हिंदुओं की आबादी में 80-85 प्रतिशत हैं, दलित और पिछड़े वर्ग 1947 में संवैधानिक और वर्ष 1878 के मंडल आयोग के कारण अब सत्ता व बराबरी के लिए छटपटा रहे हैं पर पिछले 7-8 सालों में वोट देने के बावजूद, उन्हें न सम्मान मिला न संतुष्टि. नौकरी और पैसा तो उन के लिए दूरदूर तक कहीं नहीं है. हां, शिक्षा अवश्य मिल गई. हालांकि, वह आधीअधूरी है. अब किसान आंदोलन और नौकरियों के लिए किए जा रहे धरनेप्रदर्शनों से यह बात सामने आ रही है और भगवा गुट के पास फिलहाल इस का कोई उत्तर नहीं है. 5 राज्यों के हो रहे चुनाव साबित करेंगे कि क्या पिछड़ों का नेतृत्व वास्तव में अपनी विशेष राजनीतिक जगह बना कर उपेक्षित वर्गों के युवाओं की आशाओं और सपनों को पूरा करेगा.
5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सब से बड़ी लड़ाई उत्तर प्रदेश में है. उत्तर प्रदेश को आरएसएस ने अपनी प्रयोगशाला के रूप में विकसित किया है. योगी आदित्यनाथ आरएसएस के लिए भविष्य का चेहरा हैं. आरएसएस और मोदीशाह के बीच टकराव की मूल वजह यही है.
आरएसएस के लिए भाजपा एक रास्ता है, वह आरएसएस का लक्ष्य नहीं है. आरएसएस का अपना सीधा निशाना लक्ष्य पर है. भाजपा की राजनीति और उस के नेता आरएसएस के लिए केवल राजनीतिक शतरंज के मोहरे भर हैं. 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी ने आरएसएस को नकार कर खुद अपना रास्ता बनाना तय किया.
अटल को अपने पर हद से अधिक गुमान था. उस ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया. आत्मविश्वास के साथ उस ने सरकार का कार्यकाल पूरा होने के 6 माह पहले ही लोकसभा के चुनाव करा दिए. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अटल, आडवाणी और जोशी आरएसएस को अपने मुद्दे पूरे करते नहीं दिख रहे थे. इस वजह से आरएसएस ने अपने हाथ पीछे खींच लिए.
अटल, आडवाणी और जोशी जैसे न हो जाएं मोदी, शाह और योगी
अटल, आडवाणी और जोशी की तिकड़ी के हाशिए पर जाने के बाद आरएसएस ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा बना कर भाजपा की राजनीति में आगे किया.
नरेंद्र मोदी के 2 कार्यकालों में आरएसएस के 3 प्रमुख मुद्दे अनुच्छेद 370ए, राममंदिर, समान नागरिकता कानून के मुद्दे हल होते दिख गए. अब वह हिंदुत्व को आगे ले जाना चाहता है जिस में सारा नियंत्रण ऋषिमुनि जैसे नीति निर्धारकों का हो, नेताओं और प्रशासकों का नहीं. मोदी, शाह और योगी की तिकड़ी इस का रास्ता हो सकती है, लक्ष्य नहीं. आरएसएस साफतौर पर मानता है कि वह अपने लक्ष्य के लिए इंतजार कर सकता है. ऐसे में उत्तर प्रदेश के चुनाव बड़ा संकेत दे देंगे.
आरएसएस वह हिंदुस्तान चाहता है जहां सरकार चलाने के लिए कुरसी पर चाहे जो बैठा हो, पर सरकार ऋषिमुनियों के इशारे पर चले. पौराणिक कहानियों में ऐसे तमाम राजाओं का जिक्र है. जहां राजा राजपाट चलाने के लिए ऋषिमुनियों से सलाह लेता है. उस के हर आदेश में धर्म का जिक्र होता है. पुनर्जन्म की बात होती है. अगर सफलता न मिले तो पिछले जन्म का पाप सम?ा कर खामोश रहा जाए. यही वजह है कि आरएसएस यह कहता है कि उस का राजनीति से कोई संबंध नहीं है. वह एक सांस्कृतिक संगठन है. पिछले 8 सालों में उस की यह भूमिका बदल चुकी है. अब भाजपा उस का मात्र संगठन नहीं, उस का ‘ड्राइवर’ है.
आरएसएस के दबाव में वापस हुआ किसान बिल
बात केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है. केंद्र सरकार के कृषि कानूनों को देखें तो वहां भी आरएसएस मोदी सरकार के इन कानूनों से सहमत नहीं था. उस की 2 वजहें थीं. एक तो इस में कौर्पोरेट ताकत बढ़ रही थी. दूसरे, कृषि कानूनों के खिलाफ जो विरोध शुरू हुआ उस ने सिख, पंजाबी और जाट को हिंदुत्व के खिलाफ करना शुरू किया.
भाजपा का बचाव करने वाली सोशल मीडिया और उस की आईटी सैल ने जिस तरह से किसान आंदोलन को सिख और पंजाबी से जोड़ा उस के बाद हिंदुओं से वे अलग दिखने लगे. आरएसएस इस बात को सही नहीं मान रहा था. केंद्र की मोदी सरकार कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थी. ऐसे में एक साल से अधिक समय आंदोलन चल गया.
आरएसएस का साफ मानना था कि ये कानून वापस हुए बिना 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव में जाना आत्महत्या करने जैसा होगा. आरएसएस के अलग खड़े होने के खतरे को देखते हुए मोदी सरकार को ये कानून वापस लेने पड़े. आरएसएस केवल अपने 80 बनाम 20 के वोटबैंक पर मजबूती से कायम रहना चाहता है. इस के लिए कृषि कानूनों का वापस होना जरूरी था.
अगर ये कानून वापस न होते तो उत्तर प्रदेश में चुनाव एकदम भाजपा के खिलाफ होता. अब उत्तर प्रदेश के चुनाव वापस 80 बनाम 20 की लड़ाई में बदल रहे हैं. जीत और हार केवल उत्तर प्रदेश को ही नहीं बदलेगी, इस के बाद आरएसएस की रणनीति भी बदल सकती है और जो भाजपा की 2024 की लड़ाई के लिए चुनौतीभरी होगी.
डबल इंजन सरकारों की परीक्षा
2014 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के कुशासन और भ्रष्टाचार पर जनता का फैसला था. कांग्रेस को हराने वाली भारतीय जनता पार्टी ने ‘सब का साथ सब का विकास’ की बात की. विदेशों में जमा कालाधन ला कर देश में गरीबी मिटाने का वादा किया. सरकारी सिस्टम में रिश्वतखोरी को खत्म करने का भरोसा दिलाया. कृषि प्रधान देश के किसानों को 2022 तक उन की आय दोगुनी करने का भरोसा दिलाया. सरकार ने जनता को यह भरोसा दिलाया कि देश का विकास होगा. देश की सीमाएं सुरक्षित होंगी.
पिछले 8 सालों में सरकार अपने किसी वादे पर खरी नहीं उतरी है. 2024 में उस को जनता के बीच जाना है. अभी जिन 5 राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां 4 में भाजपा की सरकार है. केवल पंजाब में कांग्रेस की सरकार है. ऐसे में जो जनादेश आएगा, वह प्रदेश सरकार के साथ ही साथ केंद्र सरकार के कामकाज पर भी होगा, क्योंकि भाजपा ने डबल इंजन को महत्त्व दिया है.
2024 के लोकसभा चुनाव के पहले 2022 में 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. इन चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनाव का सैमीफाइनल माना जा रहा है. उत्तर प्रदेश, पंजाब उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा के विधानसभा चुनाव बड़ा महत्त्व रखते हैं. 5 राज्यों में 690 विधानसभा सीटों पर चुनाव हो रहे हैं. इन में उत्तर प्रदेश 403, उत्तराखंड 70, पंजाब 117, मणिपुर 60 और गोवा की 40 सीटें शामिल हैं. पंजाब को छोड़ कर बाकी 4 राज्यों में भाजपा की सरकार है.
2017 के चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में 312, उत्तराखंड में 56, मणिपुर में 24 और गोवा में 13 सीटें मिली थीं. कांग्रेस गोवा में 15 सीटें पा कर भी सरकार नहीं बना पाई थी. पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनी थी. वहां भाजपा तीसरे नंबर की पार्टी रही थी.
भाजपा ने डबल इंजन की सरकार का नारा दिया था. अब ये चुनाव तय करेंगे कि जनता को डबल इंजन की सरकार ने क्या दिया है? हालांकि विधानसभा के चुनाव राज्य सरकारों का रिपोर्ट कार्ड बनाते हैं लेकिन चूंकि भाजपा ने डबल इंजन की सरकार का दावा किया था, इस कारण ये चुनाव भाजपा की राज्य सरकारों के साथ ही साथ केंद्र की मोदी सरकार का रिपोर्ट कार्ड भी पेश करेंगे.
जनता कह रही है कि 5 साल हम ने सरकार के हर हुक्म को माना, चाहे वह नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना में तालाबंदी, नागरिकता संशोधन कानून, कृषि कानून, अनुच्छेद 370 या तीन तलाक जैसा कुछ भी रहा हो. अब फैसला देने की बारी जनता की है.
गोवा में उभर रहा नया चेहरा
भारतीय जनता पार्टी इस बार गोवा विधानसभा का चुनाव सत्ताविरोधी लहर के बीच लड़ेगी. भाजपा के बड़े नेता मनोहर पर्रिकर नहीं हैं. गोवा दलबदल को ले कर हमेशा से चर्चा में रहा है. पार्टी बदलने वालों में सब से ज्यादा विधायक कांग्रेस से रहे हैं. तृणमूल कांग्रेस, गोवा फौरवर्ड पार्टी और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी भी ऐसी पार्टियां है जहां से कई विधायकों ने बीजेपी का रुख कर लिया. अलीना सलदान्हा ने बीजेपी में उपजे मतभेद के बाद पार्टी छोड़ दी. वे आम आदमी पार्टी में शामिल हो गईं. भाजपा के नेता मनोहर पर्रिकर के बेटे उत्पल पर्रिकर को भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो वे निर्दलीय तौर पर चुनाव मैदान में उतर गए.
गोवा की राजनीति 5 साल से उथलपुथल से गुजर रही है. राज्य के 40 विधायकों में से 23 विधायकों ने अपनी उस पार्टी को छोड़ दिया है जिस पार्टी से उन्होंने 2017 का चुनाव लड़ा था.
साल 2017 में गोवा विधानसभा की 17 सीटों पर कांग्रेस और 13 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की थी. भाजपा ने सियासी उठापटक के बाद महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी, गोवा फौरवर्ड पार्टी और 2 निर्दलीय विधायकों का सहयोग ले कर 21 विधायकों के साथ अपनी सरकार बना ली. दलबदल का ऐसा जोर था कि बहुमत के बावजूद कांग्रेस सरकार नहीं बना सकी. मनोहर पर्रिकर के निधन के बाद प्रमोद सावंत गोवा के मुख्यमंत्री बने.
2022 के चुनाव में गोवा में आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में उभर रही हैं. तृणमूल कांग्रेस भी इस बार एक अच्छा विकल्प साबित हो सकती है. गोवा में तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा ने पार्टी के जनाधार को बढ़ाने के
लिए बहुत मेहनत की है. भाजपा के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर के कारण वहां विपक्ष भाजपा के मुकाबले एकजुट हो रहा है.
तृणमूल कांग्रेस ने जब से महुआ मोइत्रा को गोवा विधानसभा चुनाव का प्रभारी बनाया है, वे वहां का सब से चर्चित चेहरा बन कर उभरी हैं. उन के स्टेटमैंट, स्टाइल और सुंदर सन ग्लासेस ने गोवा के लोगों को महुआ मोइत्रा के प्रति आकर्षित किया है. महुआ मोइत्रा विपक्ष को एकजुट कर के गोवा में नए समीकरण बना सकती हैं.
मणिपुर में मुश्किलभरा सफर
मणिपुर में कांग्रेस और भाजपा के अलावा कई क्षेत्रीय दल मैदान में हैं. 2017 में वहां के विधानसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला था. कांग्रेस सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी. इस के बाद भी सरकार बनाने में भाजपा सफल रही थी.
मणिपुर में विधानसभा की 60 सीटें हैं. 2017 में मणिपुर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 28 सीटें जीत कर सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी, जबकि भाजपा ने 21 सीटों पर जीत दर्ज की थी. चुनाव में नैशनल पीपल्स पार्टी और नगा पीपल्स फ्रंट को 4-4 और एलजेपी, टीएमसी को एकएक सीट मिली थी. मणिपुर में बहुमत का आंकड़ा 31 है.
भाजपा ने एनपीपी, एलजेपी और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार बनाई. एन बीरेंद्र सिंह वहां के सीएम बने. अब भाजपा के लिए सत्ताविरोधी वोट मुश्किल खड़ी करने वाले हैं. भले ही मणिपुर छोटा प्रदेश हो पर वहां से निकला संदेश बड़ा होगा. भाजपा ने वहां भी डबल इंजन की सरकार के लाभ बताए और कहा कि भाजपा के राज में यहां कोई बंदी नहीं हुई.
देवभूमि में नाराज हैं वोटर देवता
धर्म की राजनीति को फोकस कर के चुनाव मैदान में उतरी भाजपा के लिए सब से मुश्किलभरा दौर देवभूमि, उत्तराखंड में है. मतदाताओं की नाराजगी को दूर करने के लिए भाजपा वहां लगातार मुख्यमंत्री बदलती रही.
युवा चेहरा पुष्कर सिंह धामी भी मुख्यमंत्री बनने के बाद कोई प्रभाव नहीं डाल सके. कांग्रेस के हरीश रावत के मुकाबले वे सब से कमजोर चेहरा हैं. भाजपा ने वहां पर अधिकांश पहले के ही विधायकों को टिकट दिया है. इस की वजह यह भी है कि वहां भाजपा के पास नेताओं का अभाव है. सब से अधिक नाराजगी भाजपा के ही खेमे में दिखाई दे रही है. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक भी चुनाव लड़ रहे हैं.
उत्तराखंड में ब्राह्मण और व्यापारी भाजपा के पारंपरिक समर्थक रहे हैं. उत्तराखंड की आबादी का 35 फीसदी ठाकुर और 25 फीसदी ब्राह्मण मतदाता हैं. कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इसी आधार पर टिकट देते हैं. सामान्यरूप से देखें तो वहां एक बार भाजपा दूसरी बार कांग्रेस की सरकार बनती है. इस आधार पर भी 2022 में कांग्रेस का पलड़ा भारी दिखता है. भाजपा नेता हरक सिंह रावत की बहू, पूर्व मिस इंडिया, अनुकृति भी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं.
राजनीति के लिए अनुकृति ने ग्लैमर से भरी मौडलिंग की दुनिया को बीच में ही छोड़ दिया है. अनुकृति राजनीति को सामाजिक कार्यों को पूरा करने का एक बड़ा जरिया मानती हैं. अनुकृति 2018 से न सिर्फ लैंसडाउन बल्कि पूरे राज्य में सामाजिक कार्यों में लगी हुई हैं. हरक सिंह रावत की कांग्रेस वापसी से कोटद्वार सहित इन 5 विधानसभा सीटों पर असर पड़ेगा.
अनुकृति गोसाईं एक मौडल रही हैं. अनुकृति ने साल 2013 में मिस इंडिया दिल्ली का खिताब जीता था. मिस इंडिया प्रतियोगिता में वे 5वें स्थान पर रहीं. साल 2013 में उन्होंने ब्राइड औफ द वर्ल्ड इंडिया का खिताब अपने नाम किया. अनुकृति ने 2014 में मिस इंडिया पैसिफिक वर्ल्ड और साल 2017 में मिस इंडिया ग्रैंड इंटरनैशनल में भारत का प्रतिनिधित्व किया. अनुकृति महिला उत्थान एवं बाल कल्याण संस्थान नाम की संस्था चला रही हैं.
पूर्व मंत्री हरक सिंह रावत और दीप्ति रावत के बेटे तुषित रावत के साथ 2018 में अनुकृति की शादी हुई. तुषित शंकरपुर स्थित दून इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस संभालते हैं. उन की राजनीति में दिलचस्पी नहीं है.
उत्तराखंड में कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल और सदन में नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह की तिकड़ी कांग्रेस की असली ताकत है. उन के बल पर कांग्रेस उत्तराखंड में सरकार बनाने की दिशा में आगे चल रही है.
इस का मतलब यह है कि डबल इंजन की सरकार वहां भी परीक्षा में पास नहीं हो रही. कर्नल अजय कोठियाल को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर चुनावी मैदान में उतरने वाली ‘आप’ भी चुनाव मैदान में है. कांग्रेस में गुटबाजी नहीं है. अनुभवी नेता हैं और भाजपा में गुटबाजी के साथ ही साथ कुरसी के दावेदारों की लाइन लगी है, जिस की वजह से दिक्कतें अधिक हैं.
पंजाब में आई किसानों की बारी
चुनाव वाले 5 राज्यों में पंजाब अकेला ऐसा राज्य है जहां भाजपा सत्ता में नहीं थी. पंजाब में भाजपा का कोई बड़ा आधार पहले भी नहीं था. इसी वजह से कृषि कानूनों को लागू करते समय भाजपा को चुनावी चिंता नहीं थी. कृषि कानूनों के विरोध में उठे किसान आंदोलन ने हिंदुओं को बांटने का काम किया, जिस की चिंता आरएसएस को हुई. उसे लगा कि ये कानून उस के एजेंडे को प्रभावित कर सकते हैं. इस वजह से उसे केंद्र सरकार पर दबाव बना कर इन कानूनों को वापस कराना पड़ा. किसान आंदोलन के खत्म होने के बाद भी भाजपा के पक्ष में पंजाब में कोई बदलाव नहीं होने वाला.
पंजाब में सत्ता चला रही कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटा कर दलित चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया. कांग्रेस को उम्मीद है कि नया चेहरा 2022 के विधानसभा चुनाव जीतने में मदद कर सकता है. पंजाब में अकाली दल को यह उम्मीद है कि बहुजन समाज पार्टी गठबंधन के साथ वह सत्ता में वापसी कर लेगा.
पंजाब के चुनाव में एक बड़ा फैक्टर आम आदमी पार्टी भी है. सत्ता का सफर तय करने के लिए वह भी कोई कसर नहीं छोड़ रही है. कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई राजनीतिक पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस भी है जो भारतीय जनता पार्टी और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखदेव सिंह ढींढसा की शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के साथ मिल कर चुनावी मैदान में है.
किसान आंदोलन में शामिल
22 किसान संगठनों ने मिल कर एक नई पार्टी बनाई है. वरिष्ठ किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल की अगुआई में वह चुनावी मैदान में है. ऐसे में पंजाब में किसी भी एक दल को बहुमत मिलता नहीं दिख रहा. यहां दलबदल के सहारे चुनाव के बाद ही मुख्यमंत्री का चेहरा तय हो सकेगा. भाजपा के लिए मजे की बात यह है कि वह खेल खेलने में नहीं, बनता खेल बिगाड़ने में रुचि रख रही है.
उत्तर प्रदेश में फंसी धर्म की राजनीति
उत्तर प्रदेश आरएसएस की प्रयोगशाला है. 2017 में हिंदुत्व का मौडल बनाने के लिए आरएसएस ने यहां योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया. भाजपा के बड़े विरोध के बाद 5 साल योगी सरकार चली. उत्तर प्रदेश में भाजपा की पहली सरकार है जिस ने अपना कार्यकाल पूरा किया. 2022 का चुनाव भी भाजपा योगी के चेहरे को आगे रख कर लड़ रही है.
5 सालों के कामकाज को देखें तो योगी सरकार की सब से बड़ी उपलब्धि बुल्डोजर संस्कृति रही है. यह ठीक वैसी ही छवि है जो पौराणिक कथाओं में उन ऋषिमुनियों की होती थी जो राजाओं के ऊपर राज करते थे. राजा उन के इशारे पर ही फैसले करते थे. आरएसएस चाहता है कि हिंदुत्व का ऐसा ही मौडल हर जगह विकसित हो.
उत्तर प्रदेश में अयोध्या है. अदालत के फैसले के बाद अयोध्या में राममंदिर बन रहा है. इस के बाद भी प्रदेश की जनता में उत्साह की कोई लहर नहीं है. यह बात भाजपा और आरएसएस दोनों को बेचैन कर रही है. यह पहला चुनाव है जिस में राममंदिर मुद्दे से बाहर है. राममंदिर से अधिक चर्चा वाराणसी के भव्य काशी और मथुरा के कृष्ण मंदिर की हो रही है.
इस के अलावा चुनावी प्रचार में योगी आदित्यनाथ की ‘बुल्डोजर संस्कृति’ की चर्चा भी हो रही है. अब योगी आदित्यनाथ की जीत आरएसएस के सपनों की जीत है. आरएसएस ने पूरी ताकत यहां पर ?ांक दी है. वह अपनी हिंदुत्व की प्रयोगशाला को सफल होते देखना चाहता है. अगर सफलता नहीं मिली तो मोदी, शाह और योगी की तिकड़ी को दरकिनार करने में आरएसएस देर नहीं लगाएगा.
योगी की छवि से अलग भाजपा संगठन अपनी तैयारी भी कर रहा है. इस के चलते ही दूसरे दलों के विधायकों और नेताओं को पार्टी में शामिल किया जा रहा है.
भाजपा के लिए सब से बड़ा खतरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश है जहां किसान आंदोलन से नाराज लोग उस के साथ खड़े होने को तैयार नहीं हो रहे. यही वजह है कि भाजपा को अब मथुरा की बात करनी पड़ रही है. इस के साथ ही साथ वह पिछड़ी जातियों के नेताओं और मुसलिमों को भी सम?ाने का प्रयास कर रही है कि उस के राज में दंगा नहीं हुआ.
नए आवरण में सपा
वैसे तो उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुकाबले समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी प्रमुख रूप से चुनाव लड़ रही हैं लेकिन असली लड़ाई सपा और भाजपा के बीच ही है. समाजवादी पार्टी भी अपने पुराने तौरतरीकों से अलग नए समीकरणों के साथ चुनाव मैदान में है. समाजवादी पार्टी ने अपने ‘एमवाई’ समीकरण को नई तरह से परिभाषित करना शुरू किया है.
अखिलेश यादव कहते हैं, ‘‘एमवाई का मतलब मुसलिम और यादव नहीं, ‘युवा और महिला’ हैं.’’ इस के साथसाथ अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के परिवारवा के दाग को धोना चाहते हैं. इसी वजह से अपने छोटे भाई प्रतीक यादव की पत्नी अपर्णा यादव को विधानसभा चुनाव लड़ने का टिकट नहीं दिया, जिस की वजह से अपर्णा यादव भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गईं.
अखिलेश यादव 2022 के चुनाव में सपा को नए आवरण में पेश कर रहे हैं. वे खुद को जमीनी नेता साबित करने के लिए विधानसभा का चुनाव पहली बार लड़ रहे हैं. अखिलेश यादव एक बड़ा बदलाव कर रहे हैं कि सपा पर से यादव पार्टी का दाग हट जाए. यही वजह है कि वे ओमप्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य को अपने साथ रख रहे हैं.
सावधानी के तौर पर पहली बार अखिलेश यादव सपा के मुसलिम नेताओं को अपने साथ मंच पर जगह नहीं दे रहे हैं. नए आवरण में सपा कितना कमाल दिखाएगी, यह चुनाव के बाद तय होगा. अखिलेश ने अपनी सू?ाबू?ा से उत्तर प्रदेश की लड़ाई को योगी बनाम अखिलेश बनाने में सफलता हासिल कर ली है. बड़ेबड़े चुनावी योद्धाओं, नएनए हथियारों से घिरे अखिलेश यादव महाभारतरूपी इस चुनावी युद्ध में अभिमन्यु की तरह रथ का पहिया ले कर अकेले ही युद्ध कर रहे हैं.
चुनाव के बाद भी होगा दलबदल
कांग्रेस और बसपा में तीसरे और चौथे नंबर के लिए लड़ाई होगी. कांग्रेस ने महिलाओं को 40 फीसदी टिकट दे कर क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत की है. इस का असर भविष्य की राजनीति पर जरूर पड़ेगा. प्रियंका गांधी के इस मुद्दे के सहारे कांग्रेस का वोटबैंक धीरेधीरे उस की तरफ वापस लौटना शुरू करेगा. राजनीति की एक नई फसल इस के सहारे तैयार होगी.
2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का लक्ष्य अपनी सरकार बनाने के लिए नहीं, बल्कि भाजपा को हराने के लिए है. कांग्रेस की तरफ जो भी वोटबैंक वापस आएगा, वह अपरकास्ट वोट ही होगा जो भाजपा को नुकसान करेगा. बसपा के पास जाटव वोट अभी भी है. उस की मुश्किल है कि वह चुनाव मैदान से पूरी तरह से बाहर है. इस का कुछ हिस्सा कांग्रेस को जा सकता है.
छोटेछोटे दलों के जो विधायक चुनाव जीत कर आएंगे उन को लाभ तभी मिलेगा जब किसी एक दल को बहुमत न मिले. तब सरकार बनाने के लिए दलबदल होगा. विधायक महंगे दामों पर खरीदे जाएंगे. उत्तर प्रदेश चुनाव के सर्वे भाजपा की सरकार बनते बता रहे हैं लेकिन जिस हिसाब से सीटों की संख्या 200 से 240 के करीब बता रहे हैं उस से अंदाजा यही लग रहा कि किसी एक दल को बहुमत मिलता नहीं दिख रहा. ऐसे में जिस तरह का दलबदल चुनाव के पहले दिख रहा है वैसा ही दलबदल चुनाव के बाद दिखेगा. एक तरह से देखें तो चौथे प्रदेश में भी डबल इंजन की सरकार परीक्षा में पास होती नहीं दिख रही है.
धर्म का प्रभाव केवल राजकाज ही नहीं बल्कि घरपरिवार, रोजीरोजगार और जीवनशैली के हर स्तर पर पहुंच गया है. नेताओं की ही तरह कथा और प्रवचन करने वाले लोग भी पौराणिक कथाओं से बात को शुरू करते हमारे घर की परेशानियों तक ले आते हैं, जिस से हम अपनी हर परेशानी का हल पौराणिक कथाओं में तलाश करने लगते हैं. यही वजह है कि विधानसभा चुनाव के दौरान आजकल बड़े स्तर पर धर्म की बातें और कथाएं नेता बारबार दोहरा रहे हैं.
असल में जनता को सम?ाना चाहिए कि उस की परेशानियों का हल धर्म में नहीं, कर्म में है. कर्म का मतलब हमारे पूर्वजन्म के कर्म नहीं, हमारे द्वारा किया जाने वाला काम है. अगर जनता अपने मुद्दों व जरूरतों पर सरकार चुनेगी तो ही देश व समाज का भला होगा.