रेटिंग: डेढ़ स्टार
निर्माताः टी सीरीज
लेखकः सुदीप निगम , अतुल कुमार राय और सृजित मुखर्जी
निर्देशकः सृजित मुखर्जी
कलाकारः पंकज त्रिपाठी, सयानी गुपत, नीरज काबी व अन्य
अवधिः दो घंटे
जानवर, जंगल,पर्यावरण,बाघ के शिकार के साथ इंसान द्वारा जानवरों के स्वच्छंद विचरने वाले स्थल जंगलों पर अधिपत्य जमाने के चलते पैदा होने वाली समस्याओं पर रवि बुले निर्देशित कम बजट की फिल्म ‘‘आखेट’’ के अलावा विद्या बालन के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘शेरनी’’ पहले भी आ चुकी हैं. स्थापित कलाकार न होने और कम बजट में बनी फिल्म ‘आखेट’ सही -सजयंग से दर्शकों तक पहुंच न सकी.जबकि घटिया फिल्म ‘शेरनी’ को दर्शकों ने नकार दिया था. अब इसी तरह के कथानक पर राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता सृजित मुखर्जी फिल्म ‘शेर दिल’ लेकर आए हैं, जो कि उनके कम ज्ञान की ओर इशारा करती है.‘आखेट’ की ही तरह ‘शेरदिल’ भी गरीबी व भुखमरी की भी बात करती है,मगर इस फिल्म का लेखन करने से पहले सृजित मुखर्जी ने गांवों में जाकर शोध नहीं किया. पिछले दस वर्षों के अंतराल में जो बदलाव आए हैं, उसकी तरफ ध्यान नही दिया. जिसके चलते फिल्म ‘‘शेरदिल’’ बोझील होने के साथ साथ कई जगह अतार्किक भी लगती है.
कहानीः
फिल्म ‘‘शेरदिल’’ की कहानी पीलीभीत की सत्य घटना से प्रेरित है.यह कहानी टाइगर रिजर्व से सटे गांव-गांव की कहानी है, जहां भुखमरी व गरीबी का बोलबाला है.गांव के मुखिया गंगाराम (पंकज त्रिपाठी) गांव की भलाई और गांव की सुख व समृद्धि के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं. गंगाराम के परिवार में बू-सजय़ी मां,पत्नी लज्जो (सयानी गुप्ता), एक बेटा व एक बेटी है. गांव-गाव टाइगर रिजर्व के पास है, जिसके चलते बाघ और जंगली जानवरों ने भी गांव वालों का जीना हराम कर दिया है.यह जंगली जानवर व बाघ अक्सर अपने जंगल की सीमा से बाहर आकर खेत में घुसकर फसल काटने के साथ-साथ गांव के लोगों को भी अपना शिकार बनाते रहते हैं. तो वहीं खेती पर बा-सजय़ की मार भी पड़ी है.इसी के चलते गांव वाले गरीबी और भुखमरी के दंश को झेलते हुए अपना जीवन बिताने को मजबूर हैं. गांव के मुखिया गंगाराम अपने गांव को गरीबी से निजात दिलाने के लिए शहर जाकर सरकारी दफ्तरों में सरकारी मदद की असफल गुहार लगाते हैं.फिर उनकी नजर एक नोटिस पर पड़ती है, जिसके अनुसार टाइगर रिजर्व के आस पास के गांव के किसी निवासी पर खेत में काम करते समय बाघ उसका शिकार करेगा, तो सरकार उसके आश्रितों को दस लाख रूपए देगी.
इस सरकारी नोटिस को पढ़ने के बाद गंगाराम अपने गांव को गरीबी से निजात दिलाने और अपनी आने वाली पीढ़ियो के उज्जवल भविष्य के लिए एक योजना बनाता है. उसके बाद गंगाराम गांव पहुंचते ही सबसे पहले अपने परिवार के सदस्यों को झूठी कहानी बनाकर बताता है कि डाक्टरों ने बताया है कि वह खून के कैंसर का मरीज है और अब उसके पास सिर्फ तीन माह की ही जिंदगी बची है.फिर वह अपने परिवार के अलावा गांव वालों से कहता है कि वह मरने से पहले गांव और परिवार का उद्धार करना चाहता है,इसलिए वह बाघ का शिकार बनने के लिए जंगल जा रहा है.जंगल में गंगाराम को भटकते हुए सात दिन बीत जाते हैं,पर बाघ नजर ही नही आता.फिर गंगाराम की जंगल बाघ का शिकार करने वाले शिकारी जिम अहमद (नीरज काबी) से होती है. गंगाराम खुद जिस बाघ का शिकार होने पहुंचा है, उसे यह शिकारी अपना शिकार बना कर तस्करी के धंधे में खूब पैसे कमाने की चाह रखता है.दोनों के बीच तय होता है कि दोनों एक साथ बाघ की तलाश करेंगे,फिर पहले गंगाराम ,बाघ का षिकार बनेंगें,उसके बाद शिकारी बाघ का शिकार करेगा. अब आगे क्या होगा, इसे फिल्म में देखना ही ठीक रहेगा.
लेखन व निर्देशनः
राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्मकार सृजित मुखर्जी ने अति आवश्यक मुद्दे को अपनी फिल्म में उठाया है, मगर फिल्म के लेखन व निर्देशन से पहले उन्होंने अपनी तरफ से षोधकार्य करने की जहमत नही उठायी. जिसके चलते फिल्म अतार्किक और बोझिल हो गयी है.यदि फिल्मकार सृजित मुखर्जी ने थोड़ी सी भी मेहनत की होती तो यह एक बेहतरीन व्यंग फिल्म बन सकती थी. फिल्म के शुरूआती में ही यह बात उजागर हो जाती है कि यह पीलीभीत नकली है.इसके गांव और उनकी बोलियां भी नकली हैं.शायद सफलता के मद में चूर सृजित मुखर्जी ने इस फिल्म को पूरी इमानदारी से नही बनायी.वह भी अब नोट छापने में लग गए हैं.
फिल्म की शुरूआत बहुत धीमी गति से होती है.इंटरवल से पहले फिल्म इतनी सुस्त है कि दर्षक का फिल्म देखने का मोहभंग हो जाता है.
गरीबी, भुखमरी व पर्यावरण की बात महज संवादों में है.लेखक व निर्देशक भुखमरी, गरीबी आदि को दिखाने में पूरी तरह से असफल रहे हैं. फिल्म में जिस तरह का गांव का अनप-सजय़ व मूर्ख सरपंच दिखाया गया है, वैसा सरपंच अब नहीं रहा. इसके अलावा कई जगह मुंबइया शब्द ‘संडास’ का उपयोग किया जाना भी खलता है.
इतना ही नही किस तरह व-ुनवजर्याों से विकास के नाम पर जंगलों को खत्म कर बड़ी बड़ी फैक्टरी खड़ी की जा रही है,किस तरह इंसान जानवरों की दुनिया यानी कि जंगल में घुस कर अतिक्रमण कर रहा है, जिसके परिणामस्वरुप जानवर, इंसान के खेतों और जिंदगी में हाहाकार मचाने को मजबूर हो गया है. जैसे संवेदनशील मुद्दे को भी ठीक से नही उठाया गया.पूरी फिल्म में एक भी दृश्य ऐसा नहीं है, जिससे यह स्थापित होता हो कि जानवर ,इंसानो को परेशान कर रहा है.सरकारी योजनाओं की बखिया जरुर उधेड़ी गयी है.फिल्म में हिंदू मुस्लिम को लेकर भी बात की गयी है.वहीं कई जगह फिल्म उपदेशात्मक हो गयी है.इसके अलावा बाघ के षिकारी के किरदार और जंगली जानवरों की तस्कारी का मुद्दा भी ठीक से चित्रित नही किा गया.बेवजह क्लायमेक्स में सोशल मीडिया को जोड़कर निर्देशक ने गलती कर दी.
अभिनयः
सशक्त अभिनेता पंकज त्रिपाठी को हर किरदार में खुद को संजोना बखूबी आता है.पंकज त्रिपाठी ने गंगाराम के किरदार को जीवंतता प्रदान करने में अपनी जान लगा दी. मगर कहानी में दम नही है.किरदार भी ठीक से विकसित नहीं किया गया है. पंकज त्रिपाठी को इस तरह की अधपकी फिल्में करने से दूरी बनाकर रखना चाहिए. लेकिन अपनी शोहरत को भुनाते हुए जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा फिल्में कर धन संचित कर लेने की दौड़ का हिस्सा बनकर वह अपने आपको अभिनय के स्तर पर दोहराने लगे हैं.इस तरह वह ‘लंबी रेस’ का घोड़ा बनने से वंचित रह जाएंगे.
अभिनय जगत में लंबे समय तक टिके रहने के लिए अभिनेता पंकज त्रिपाठी को अपनी कार्यशैली पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है. लज्जो के छोटे किरदार में सयानी गुप्ता का अभिनय षानदार है.वह अपने अभिनय की छाप छोड़ जाती हैं.
नीरज काबी के हिस्से करने को कुछ खास रहा ही नही.क्योंकि उनका किरदार ही ठीक से नही गढ़ा गया.