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सिसकी- भाग 4: रानू और उसका क्या रिश्ता था

रीना की सांसें सब से पहले थमीं थीं. पति को देखते हुए उस ने अंतिम सांस ली. सहेंद्र को तो तब ही पता चला जब उस ने रीना का बैड खाली देखा. उस की ?ापकी लग गई थी. उस बीच में रीना ने अंतिम सांस ली थी. नर्स ने बताया था कि सामने वाले बैड वाली महिला की मुत्यु अभीअभी हुई है. नर्स को पता नहीं था कि वह उस की पत्नी थी. पत्नी की मुत्यु का समाचार सुन कर सहेंद्र को गहरा धक्का लगा और शाम तक वे भी चल बसे. दोनों की डैडबौडीज शवगृह में रख दी गई थीं.

रीना के फोन से मिले नंबर पर अस्पताल के स्टाफ ने फोन कर दोनों की मृत्यु की सूचना दी थी. रीना के मोबाइल में सब से ऊपर महेंद्र का ही नंबर था, इस कारण महेंद्र को फोन लगाया गया पर उस ने फोन नहीं उठाया. दूसरा नंबर मुन्नीबाई का था जिस पर घंटी गई तो फोन तुरंत रिसीव हो गया.

मुन्नीबाई रीना के मोबाइल नंबर को जानती थी. जब से दोनों अस्पताल गए हैं तब से रीना रोज ही उस से बात करती रहती थी और अपने बच्चों के हालचाल जानती रहती थी. इस बार मुन्नीबाई ने जो कुछ सुना, उस से वह दहल गई. उस की सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. बच्चों को और पिताजी को इस की सूचना दे या नहीं.

बच्चे वैसे भी जब से पापामम्मी गए हैं तब से ही उदास बैठे हैं. वे तो अभी मृत्यु का मतलब भी नहीं जानते. उस ने खामोशी से दोनों की मृत्यु का समाचार सुना. उस की आंखों से आंसू बह निकले. चिंटू जब भी मम्मी का फोन कामवाली काकी के पास आता था तो मम्मी उस से बात करेंगी, यह सोच कर मुन्नीबाई के पास आ जाता था. रीना मुन्नीबाई से सारा हाल जान लेने के बाद चिंटू से बात करती भी थी और हिदायत देती थी कि मुन्नीबाई को परेशान न करे. आज भी जब फोन की घंटी बजी तो चिंटू मुन्नीबाई के पास आ कर बैठ गया था इस उम्मीद में कि उस की मम्मी उस से भी जरूर बात करेंगी. पर आज मुन्नीबाई ने ही बात नहीं की थी केवल फोन सुना था और फिर बंद कर दिया था.

‘मेरी बात कराओ न, मम्मी से,’ चिंटू ने जैसे ही मुन्नीबाई को फोन बंद करते देखा तो हड़बड़ा गया, ‘प्लीज काकी, मु?ो मम्मी से बात करनी है.’ चिंटू ने मुन्नीबाई का मोबाइल ?ापटने का प्रयास किया, पर जैसे ही उस ने मुन्नीबाई की आंखों से आंसू बहते देखे, वह सहम गया.

मुन्नीबाई ने किसी को कुछ नहीं बताया. उस ने दोतीन बार महेंद्र को फोन लगाया, तब जा कर महेंद्र से ही बात की, ‘मैं कामवाली बाई बोल रही हूं. आप के भाई सहेंद्र साहब और भाभी रीना साहिबा का कोरोना के चलते निधन हो गया है. अभी अस्पताल से फोन आया था.’

‘तो, मैं क्या करूं?’ दोटूक जवाब दे दिया महेंद्र ने.

‘साहबजी, यहां तो केवल बच्चे ही हैं और पिताजी की तबीयत वैसे भी ठीक नहीं हैं, इसलिए मैं ने उन्हें कुछ नहीं बताया है.’

‘हां, तो बता दो,’ महेंद्र के स्वर में अभी भी कठोरता ही थी.

‘आप कैसी बात कर रहे हैं साहबजी, मैं अकेली बच्चों को संभालूंगी कि पिताजी को? आप आ जाएं तो फिर हम बता देंगे.’

‘मैं नहीं आ रहा. तुम को जो अच्छा लगे, सो कर लो,’ महेंद्र ने फोन काट दिया. मुन्नीबाई की सम?ा में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे. उस के पास सहेंद्र की बहन का फोन नंबर भी था. उस ने उन से भी बात कर लेना बेहतर सम?ा. ‘दीदी, सहेंद्र साहब और रीनाजी का निधन अस्पताल में हो गया है.’

‘तुम कौन बोल रही हो?’

‘मैं कामवाली बाई हूं, बच्चों की देखभाल के लिए यहीं रुकी हूं.’

‘ओह अच्छा, कहां मौत हुई है उन की- घर में कि अस्पताल में?’

‘अस्पताल में हुई है, वहीं से अभी फोन आया था.’

‘अच्छा, सुन कर बहुत दुख हुआ,’ उस के स्वर में दुख ?ालका भी.

‘मैडमजी, अभी मैं ने यहां किसी को बताया नहीं है. आप आ जाएं तो बता देंगे.’

‘मैं कैसे आ सकती हूं, मैं नहीं आ पा रही, कोरोना चल रहा है.’

‘फिर, मैं क्या करूं?’ मुन्नीबाई के स्वर में निराशा ?ालक रही थी.

‘वह मैं कैसे बता सकती हूं कि तुम क्या करो.’

‘मैडमजी, अभी तो साहब की डैडबौडी भी अस्पताल में ही है.’

‘कोरोना मरीजों की डैडबौडी परिवार को देते कहां हैं.’

‘पर वे तो कह रहे थे कि अंतिम संस्कार कर लो आ कर.’

‘कहने दो, हम नहीं जाएंगे तो वे अंतिम संस्कार कर देंगे. वैसे, तुम ने महेंद्र भैया से बात की थी क्या?’

‘हां, की थी. उन्होंने भी मना कर दिया है.’

‘तो फिर रहने दो, जैसी प्रकृति की मरजी.’

‘पर मैडमजी के भाई भी हैं और आप बहन भी हैं, आप लोगों को आ कर अंतिम क्रियाकर्म करना चाहिए,’ मुन्नीबाई की ?ां?ालाहट बढ़ती जा रही थी.

‘अब तुम मु?ो मत सिखाओ कि हमें क्या करना चाहिए.’ और बहन ने फोन काट दिया था.

मुन्नीबाई बहुत देर तक मोबाइल पकड़े, ‘हैलो… हैलो…’ करती रही.

मुन्नीबाई ने पिताजी को सारा

घटनाक्रम बता दिया था और वह

करती भी क्या, उस के पास कोई विकल्प रह ही नहीं गया था. पिताजी ने सुना तो वे दहाड़ मार कर रोने लगे. उन्हें रोता देख चिंटू भी रोने लगा. उसे अभी तक कुछ सम?ा में नहीं आ रहा था. वह बहुत देर से मुन्नीबाई के कंधों से चिपका सारी बातें तो सुन रहा था पर सम?ा कुछ नहीं पा रहा था. रानू दूर खेल रही थी. उस ने जब रोने की आवज सुनी तो वह दौड़ कर मुन्नीबाई की गोद में जा कर बैठ गई. अस्पताल से फिर फोन आया. मुन्नीबाई ने सारी परिस्थितियां उन्हें बता दीं.

‘साहबजी, हमारे घर में कोई नहीं है जो अंतिम संस्कार कर सके.’

‘पर अस्पताल को पैसे भी लेने हैं, तुम कौन बोल रही हो?’

‘मैं तो कामवाली बाई बोल रही हूं.’

‘‘घर में और कोई नहीं है?’

‘2 छोटेछोटे बच्चे हैं, बस.’

‘देखो, हम बगैर अपना पैसा लिए डैडबौडी तो देंगे नहीं और न ही उस का क्रियाकर्म करेंगे. वे ऐसे ही रखी रहेंगी.’

‘अब वह आप जानें. आप डैडबौडी से ही पैसा वसूल लें,’ कह कर मुन्नी ने फोन काट दिया. दोबारा फोन की घंटी बजी पर मुन्नीबाई ने फोन नहीं उठाया.

मुन्नीबाई को सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह बच्चों को और पिताजी को कैसे संभाले.

अस्पताल से फिर फोन आया. अब की बार उन्होंने दूसरे नंबर से फोन किया था. मुन्नीबाई को लगा कि हो सकता है कि साहबजी ने किया हो, किसी रिश्तेदार का फोन हो, इसलिए उठा लिया.

‘देखो, आप को अस्पताल के पैसे तो देने ही होंगे.’

‘नहीं दे सकते, साहबजी और मेमसाहब दोनों का देहांत हो चुका है तो पैसे कौन देगा.’

‘उन के परिवार में और कोई नहीं है क्या, उन से बात कराओ?’

‘कोई नहीं हैं. जो हैं वे भी मर गए, सम?ा लो,’ मुन्नीबाई की आवाज में तल्खी थी.

‘देखो, वह हम नहीं जानते. आप लोग आ जाएं और हमारा हिसाब चुकता कर दें.’

‘वो मैं ने बताया न, कि मैं तो यहां काम करने वाली बाई हूं, घर में कोई

नहीं है.’

‘हमें इस से कोई मतलब नहीं है. आप पैसे दो और डैडबौडी उठाओ यहां से.’

मुन्नीबाई कुछ नहीं बोली. उसे सम?ा में ही नहीं आ रहा था कि वह जवाब क्या दे.

प्रीत किए दुख होए: भाग 5

बड़ा घर देख कर मांबेटी दोनों बड़ी खुश हुईं और ठेकेदार को चाय पिलाई. मां ने ठेकेदार से गांव का हालचाल पूछा, खासकर बाबू लोगों का.

‘‘गजब की खबर है. पंडित रमाकांत के बेटे सुंदर को 2 दिन पहले दूर गांव के कोई मिश्राजी मास्टर के हथियारबंद लोग अपहरण कर के ले गए. सभी बाबू लोगों ने मिश्राजी के यहां दबिश दे दी. आखिरकार मिश्राजी ने हथियार डाल दिए और पंडित रमाकांत के बेटे सुंदर को मुखिया के हवाले कर दिया. चेतावनी देते हुए सभी लोग वापस गांव आ गए. यह सुन कर काजल परेशान हो गई और छत पर टहलने लगी, तभी उस की नजर सड़क पर जाती अपनी सहेली ममता पर पड़ी, जो मुखियाजी की बेटी थी. काजल ने ऊपर से ही अपनी सहेली ममता को अंदर आने का इशारा किया और दनदनाते हुए नीचे आ कर दरवाजा खोल दिया. दोनों सहेलियां गले मिलीं.

‘‘शहर में कैसी पढ़ाई चल रही है तुम्हारी?’’ ममता ने पूछा. ‘‘अच्छी, लेकिन तू बता कि उंगली में चमक रही अंगूठी कब से है? कहीं टांका भिड़ गया क्या?’’ काजल ने ममता से पूछा और अपनी परेशानी भूल गई.

‘‘अब समझ ही गई है तो कहना क्या? ‘‘मुझे क्यों भूल गई?’’

‘‘नहीं भूली काजल, चाहे जिस की कसम दे दो. लेकिन तुम तो जान रही हो न हमारी बिरादरी को. पापा मुखिया हैं. भी बदनाम हो जाते.’’ ‘‘खैर, तू बस जीजाजी से मिलवा दे, ताकि मैं देख सकूं कि मेरी चालाक सहेली ने कैसी बाजीगरी दिखाई है.’’

‘‘अभी तो वे कालेज में होंगे. क्या तू चलेगी वहां?’’ ‘‘तू साथ चलेगी तब न? मैं कैसे पहचानूंगी?’’

‘‘अभी चल. घर जा कर आना मुमकिन नहीं.’’ ‘‘तो चल.’’

काजल ने आननफानन कपड़े बदले और आटोरिकशा में सवार हो कर दोनों सहेलियां कालेज पहुंच गईं. लंच की घंटी बजने में 10 मिनट की देरी थी, सो दोनों सहेलियां कालेज कैंपस में लगे नीम के घने पेड़ के नीचे इंतजार करने लगीं.

‘‘देख, जब घंटी बजेगी तब मैं क्लास के सामने जा कर खड़ी हो जाऊंगी. तब तक तुम मुझ पर ही नजर गड़ाए रखना. जैसे ही वे मिलेंगे, मैं उन्हें कालेज के पिछवाड़े में ले जाऊंगी. तुम तेजी से हमारे पीछे आना,’’ ऐसा कह कर ममता क्लास के सामने जा कर खड़ी हो गई. घंटी बजी. वैसा ही हुआ. काजल ने तेजी से ममता का पीछा किया. वह ज्यों ही कालेज के पिछवाड़े की ओर मुड़ी कि उसे सांप सूंघ गया. ममता का वह मंगेतर कोई और नहीं, बल्कि काजल का सुंदर था.

‘‘रुक क्यों गई काजल, आओ न. मिलो तुम मेरे मंगेतर से,’’ यह कह कर ममता मुसकरा दी. काजल की आंखों में खून उतर आया. वह बोली, ‘‘धोखेबाज, तो यही है तेरा असली रूप?’’

सुंदर कुछ बोलना चाह रहा था, लेकिन काजल अपनी रौ में थी, ‘‘मैं दलितों व कमजोर लोगों को समाज में इज्जत दिलाने की हसरत लिए चल रही थी और इस में तुम ने भी साथ

देने की कसमें खाई थीं… कहां गया वह जज्बा?’’ ममता की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. वह हैरानी से दोनों को देख   रही थी. काजल बोले जा रही थी, ‘‘तुम ऐसे इनसान हो, जो खुद अशुद्ध रह कर यजमानों का शुद्धीकरण कराते हैं और पंडित होने का ढोंग रचते हैं. क्या किया है तुम लोगों ने? दलितों और कमजोरों की जायदाद हड़प कर उन्हें बेघर कर गांव निकाले जाने की सजा दे दी है.

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‘‘झूठ, फरेब व वादाखिलाफी कर तू ने मेरे दिल के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मैं कैसे और कहां जीऊंगी सुंदर? तेरे लिए मैं ने अपनी बिरादरी के ही होनहार, स्मार्ट डीएसपी का औफर ठुकराया. तू ने मुझे तो कहीं का न रखा.

‘‘कान खोल कर सुन ले. मेरी जिंदगी को हराम कर के तुम भी नहीं जी सकोगे. मेरी जगह तो अब गंगा की गोद में हैं. मैं चली,’’ और काजल बेतहाशा भागी. पास ही में गंगा नदी बहती थी. ‘‘काजल सुनो तो… रुको तो,’’ कह कर जब तक सुंदर पीछा करते हुए उसे पकड़ता, तब तक वह गंगा में कूद पड़ी.

सुंदर ने भी छलांग लगा दी. अब ममता को पूरी बात समझ में आई. उस ने इस घटना को वहां नहा रहे लड़कों को बताया. जो तैरना जानते थे, वे कूद पड़े. सुंदर और काजल बीच गंगा में डूबतेउतरा रहे थे. कुछ लड़कों ने हिम्मत दिखाई और दोनों को बाहर निकाल लिया.

सुंदर रोए जा रहा था, वहीं काजल बेहोश थी. कुछ लड़के दौड़ कर डाक्टर को बुला लाए. उन्होंने काजल की सांस चैक की जो धीमेधीमे डूबती जा रही थी. दोनों को तुरंत गाड़ी में लाद कर नर्सिंगहोम ले आए. पेट का पानी निकालने के बाद औक्सिजन लगा दी गई.

2 घंटे के इलाज के बाद काजल होश में आई. यह सब देख ममता के भी आंसू नहीं सूख रहे थे. ‘‘काजल, तू ने जरा भी बताया होता कि तुम सुंदर से बचपन से प्यार करती हो तो मैं इस दबंग समाज से लड़ जाती और तेरा ब्याह सुंदर से ही करवाती. लेकिन तू ने कभी इस बारे में बात

नहीं की. मुझे माफ कर दे काजल,’’ और ममता ने सगाई की अंगूठी निकाल सुंदर को देते हुए कहा, ‘‘सुंदर, पहना दे काजल को.’’ सुंदर झिझका, लेकिन लड़कों के हुजूम में से एक ने हिम्मत दी, ‘‘पहना दे काजल भाभी को अंगूठी. मरते दम तक हम सब तेरे साथ हैं. भाभी होश में आ गई हैं. तेरी शादी अभी होगी. हमारे कुछ साथी जरूरी सामान व पंडित को लाने चले गए हैं. बस, आने की देरी है.’’

सुंदर ने काजल को वह अंगूठी पहना दी. सब ने तालियां बजाईं, तभी पंडितजी व सारा सामान आ गया. ममता ने काजल को सजाया. तभी उन्हें भनक मिली कि मिश्राजी के गुंडों ने घेराबंदी कर दी है. लड़कों ने भी नर्सिंगहोम घेरे रखा. कोई अनहोनी न हो जाए, इसलिए ममता ने कोतवाली और अपने पिता को फोन कर दिया. मुखियाजी ने तुरंत आ कर अपनी दोनाली तान दी, ‘‘बच्चो, हट जाओ. नादानी मत करो. मारे जाओगे. अंदर क्या हो रहा है?’’ मुखियाजी ने घुसने की कोशिश की. अंदर से शादी कराने के मंत्र सुनाई पड़ रहे थे.

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‘‘सुन नहीं रहे हैं चाचा. अंदर सुंदर और काजल की शादी हो रही है,’’ एक लड़के ने बताया. ‘‘खबरदार मुखियाजी, एक भी गोली चली तो…’’ कोतवाली से डीएसपी अंजन कुमार ने आ कर अपनी रिवाल्वर मुखियाजी की कनपटी से सटा दी. तब तक एसटीएफ के जवानों ने भीड़ की कमान अपने हाथ में ले ली थी. मिश्राजी के गुरगे भाग चुके थे.

लेखक की पत्नी: भाग 2

‘हटाओ, ये सब बेबुनियादी विचार,’ प्रतिभा ने फुजूल शक पैदा किया मन में. प्रतिभा डाक्टरेट करेगी और मैं बेवजह उन की किताबों में, फाइलों में उलझी रहूंगी. वह रसोईघर की ओर लपकी. फ्रिज में जो मिला, वही खा कर विश्राम करने लगी. पर वहम ने सुखचैन छीन लिया था.

घंटी बजी, रामप्यारी आई. अनु चाय बनाने लगी, ‘‘रामप्यारी, चाय चलेगी?’’

‘‘हां, मैडम, लेकिन शक्कर ज्यादा और दो बूंद दूध.’’

‘‘कितनी काली और कड़क चाय पीती हो तुम.’’

‘‘सर तो बगैर शक्करदूध की चाय लेते थे.’’

‘‘अरे, पसंद अपनीअपनी.’’

‘‘मैडम, साहब के पुराने गरम कपड़े दे देना मेरे बूढ़े के लिए.’’

‘‘रामप्यारी, किस्मत ऊंची है तेरी.’’

‘‘हां, मैडम, मेरा आदमी शराब पीना, पिटाई करना जैसा कुछ नहीं करता परंतु हमारी जात में मर्द का यही काम है, कमाना कुछ भी नहीं, आवारागर्दी करना, शराब पीना और औरत की पिटाई करना. इतना ही काम रहता है. चाहे कितना भी बूढ़ा हो जाए, मेरे सिवा उसे कुछ सूझता नहीं. उसे बच्चे जैसा संभालना पड़ता है.’’

थोड़ा रुक कर वह आगे बोली, ‘‘मैडम, आदमीऔरत का रिश्ता शक्करपानी जैसा है. अपने आदमी को पहचानना जरूरी है,’’ चाय पीते हुए रामप्यारी का टेप चल रहा था.

अनपढ़ रामप्यारी का जंगली तत्त्वज्ञान सुन कर अनु को प्रतिभा का वक्तव्य याद आया. शक का कीड़ा दिमाग में फिर से घूमने लगा, एक सिरदर्द फिर से उभरा.

इतने में फिर से घंटी बजी. अनु ने दरवाजा खोल कर देखा, एक अजनबी युवती खड़ी थी. तीखे नैननक्श, सुडौल शरीर, आधुनिक पोशाक, आकर्षक चेहरा, हाथ में भारी पर्स.

‘‘मैं सोनाली. काम था आप से,’’ कुरसी पर बैठ कर वह बोली.

‘‘मुझ से? मैं आप को तो…’’

‘‘आप मुझे पहचानती नहीं हैं लेकिन सहाय साहब जानते थे मुझे. आप के बारे में उन्होंने इतना बताया था कि भीड़ में भी मैं आप को पहचान लेती. आप खाना अच्छा बना लेती हैं, साहब रहते तो मैं मेहमान बन कर खाने के लिए आती.’’

अनु इस बकवास से नाराज हो कर बोली, ‘‘आप अपनी पहचान बताइए, सर ने आप के बारे में कभी कुछ बताया नहीं और आप तो रसोई तक पहुंच गईं.’’

‘‘एक ही बात है. हमारी क्लब की दोस्ती ताश की वजह से थी. उन की कंपनी निराली थी, रंग लाती थी. विविध मसलों पर विचार करने और वक्तव्य देने में उन्हें महारत हासिल थी.’’

‘‘मुझ से क्या काम है?’’ अनु ने पूछा.

‘‘बात यह है कि सहाय साहब ने मुझे पत्र लिखा था. जवाब मैं देने वाली थी पर आप लोग विदेश गए हुए थे. बाद में साहब की मौत का सुना तो दुखी इतनी हुई कि क्लब गई ही नहीं. सोचा, ऐसा अचानक कैसे हुआ?’’

‘‘हां, अचानक हुआ. सुबह रोज की तरह घूम कर आए. चाय पी और अखबार ले कर बैठ गए. थोड़ी देर बाद देखा, कुरसी में धंसेधंसे चिरनिद्रा में सो गए. उन्हें दिल का दौरा पड़ा था.’’

‘‘पहले से कोई ऐसी तकलीफ थी?’’

‘‘कभी गौर नहीं किया था.’’

‘‘ऐसे व्यक्ति की अचानक मौत व्यक्तिगत हानि के साथसाथ समाज की भी हानि होती है, मैडम. उन की सही देखरेख करनी चाहिए थी, श्रीमती सहाय.’’

‘‘आप के कहने का मतलब…?’’ अनु ने खीज कर कहा.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं,’’ सोनाली ने पर्स खोल कर एक पत्र निकाला और बोली, ‘‘इसे पढ़ो.’’

अनु ने पत्र खोला कि नाक में सुगंध भर गई. सहाय साहब का मनपसंद इत्र.

सोनाली ने सतर्क हो कर सफाई दी, ‘‘करचिफ का इत्र लगा होगा.’’

पत्र मामूली था, 3-4 किताबों की सूची थी.

‘‘सहाय साहब ने मेरे लिए किताबें खरीदी थीं, उन्हें लेने आई हूं. उन की आखिरी यादगार मेरे पास रहेगी.’’

‘‘रुको, देखती हूं,’’ कह कर अनु सहाय साहब के कक्ष में प्रविष्ट हुई. यह कक्ष उन की मौत के बाद से सूना पड़ा था. अनु को उन के कमरे में जाने की हिम्मत ही नहीं होती थी. किंतु आज वह गई. कपाट झट से खोल कर 4 अंगरेजी उपन्यासों की आकर्षक पैकिंग का पार्सल उस ने खोला.सोनाली का अस्तित्व भूल कर अनु ने हर किताब की कीमत देखी. उस के पति ने इस स्त्री के लिए हजार रुपए खर्च किए? इस विचार से उस का हृदय छलनी हो गया. किताब के प्रथम पृष्ठ पर लिखा था, ‘मेरी प्रिय दोस्त को अर्पण. सोनाली, जिस ने  मुझे जाना, पहचाना और सुखमय अभिसार दिया.’

अनु की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. वह कुछ क्षण स्तब्ध बैठी सोचती रही, ‘इतना बड़ा धोखा…’

‘‘अंदर आ जाऊं क्या?’’ सोनाली की आवाज से अनु ने किताबें कपाट के अंदर पटकीं और बताया, ‘‘किताबें दिखती नहीं.’’

सोनाली उदास स्वर में बोली, ‘‘कोई बात नहीं, आराम से देखना. मैं फिर कभी आऊंगी. मुझे किताबें मिलनी चाहिए. मैं ने उन किताबों पर बहुत चर्चा की है. कृपया ठीक से देखना.’’

‘‘अपना फोन नंबर देना,’’ मन संयत कर अनु ने कहा.

सोनाली ने फोन नंबर लिख दिया.

‘‘सहाय साहब की यह आखिरी भेंट मुझे मिलनी चाहिए.’’

‘‘जरूर, किंतु किताबें मिलने पर.’’

सोनाली चली गई. अपमान और क्षोभ से अनु दोहरी हुई जा रही थी. ‘मैं कहां कम पड़ी थी? सोनाली के संबंध में कभी बातचीत नहीं हुई थी. गुप्त रखने लायक रिश्ते थे क्या? अकसर बताते थे, क्लब में तरहतरह के लोग मिलते हैं. उन के बोलने का अंदाज, हावभाव का निरीक्षण करने में आनंद आता है. स्वभाव के अलगअलग पहलू नजर आते हैं, उस का इस्तेमाल साहित्य सृजन में मददगार होता है. यह रंभा बताती है, अंतरंग दोस्ती थी उन से. और न जाने क्याक्या?

‘मेरी तो चेतना ही बंद होने लगी. किताबें देनी थीं क्या? मैं ने बहाना क्यों किया? किसी के लिए बेवफाई तो किसी के लिए बेहद आनंद.’ खुद के बरताव पर अनु संदर्भ नहीं लगा सकी. आस्तीन में पल रहे सांप की उसे खबर कहां थी जो उसे ही डंक मार रहा था.

सोनाली ने 2-4 बार फोन किया और अनु ने वही जवाब दिया. कुछ दिन के बाद सोनाली अचानक खुद आई और बोली, ‘‘अनु दीदी, चलो, बाहर खाना खाते हैं.’’

‘‘खाना घर में तैयार है.’’

‘‘फ्रिज में रख दो. एक ही ढंग का खाना खा कर आदमी बोर हो जाता है. घर का स्वादिष्ठ खाना खा कर भी कभी ढाबे की पानीपूरी या चटपटी चाट स्वाद बदलने के लिए अच्छी होती है. अनु दीदी, जिंदगी भी वैसी ही है.’’

टैक्सी को हाथ दिखा कर रोका और अनु को जबरदस्ती खींच कर वह होटल में ले गई.

एक शांत कोना चुन कर सोनाली ने पूछा, ‘‘बियर चलेगी?’’

‘‘मैं ने कभी चखी नहीं,’’ अनु झटक कर बोली.

‘‘ठीक है, मैं ले रही हूं. आप नीबूपानी ले लो.’’

टॉक्सिक मैरिज अच्छी या डाइवोर्स पेरेंट्स

Writer- रोहित

लड़कियों को बचपन से ही आदर्श पत्नियों के रूप में खुद को डैवलप करने की शिक्षा दी जाती है. उन्हें सिखाया जाता है कि उन की आकांक्षा एक अच्छे आदमी के साथ जीवन गुजारने व एक खुशहाल व स्वस्थ परिवार का पालनपोषण करने की हो. यह सीख बचपन से उन्हें हर कदम पर दी जाती है.

दूसरी ओर लड़कों को सिखाया जाता है कि परिवार में एक सुशील दुलहन लाना, बेटा पैदा कर के घर का वंश आगे बढ़ाना और अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से निभाना उन का कर्तव्य है. इस प्रकार शादी करना और बच्चे पैदा करना ही किसी भी युवा पुरुष या महिला की चैकलिस्ट में 2 सब से जरूरी काम होते हैं.

तीसरा होता है पारिवारिक जीवन को किसी भी हाल में बनाए रखना और अपने रिश्ते को सफल बनाना. भारतीय परंपरा में मैरिज को एक पवित्र संस्था माना जाता है. आप वादा करते हैं 7 जन्मों का रिश्ता निभाएंगे. महिला के दिमाग में, खासकर, यह बात कूटकूट कर डाली जाती है कि ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है.’

पर सोचा है, अगर महिला सबकुछ न सह कर पति को अपना देवता न माने? क्या होता है जब शादी विफल हो जाती है? खासकर तब, जब आप न सिर्फ पतिपत्नी हों, बल्कि मातापिता भी बन चुके हों. बात आती है कि यदि अलग हो जाएं तो कहीं बच्चों पर बुरा असर तो नहीं पड़ेगा और यदि न पड़े तो क्या बच्चों के लिए एक लवलैस रिलेशनशिप में बंधे रहें?

हाल ही में नैटफ्लिक्स पर ‘डीकपल्ड’ नाम की एक वैब सीरीज आई. इस में लगभग मिडिल एज के हो चुके शादीशुदा कपल अब डीकपल्ड (विवाह विच्छेद) होने की राह पर हैं. वे एकदूसरे के साथ टौक्सिक रिलेशन से तंग आ चुके हैं, तलाक लेना चाहते हैं. उन्हें इस बात का न दुख है न किसी प्रकार की पीड़ा. वे खुशीखुशी अपने रिश्ते को पब्लिकली खत्म कर देना चाहते हैं. बस, दिक्कत है तो उन की टीनऐजर बेटी, जिस का उन्हें डर है कि वह अपने पेरैंट्स को इस तरह अलग होते देखेगी तो उस पर क्या बीतेगी.

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यह कई लोगों के लिए एक मुश्किल सवाल हो सकता है, खासकर ऐसे समाज में जहां हम बच्चों को हर चीज से अधिक प्राथमिकता देते हैं. जहां बच्चे हो जाने के बाद हम खुद को पहले मातापिता मानते हैं और फिर जीवनसाथी या व्यक्ति, जिस का एक अर्थ यह भी है कि बहुत से पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों की खातिर टौक्सिक मैरिज रिलेशनशिप ?ोलते रहते हैं, ताकि उन्हें पारिवारिक दिशानिर्देशों का पालन करते हुए अच्छी परवरिश दी जा सके, जिस का तथाकथित सिर्फ एक तरीका है कि एक छत के नीचे रह कर अपने बच्चे की परवरिश की जाए.

माना कि मातापिता का तलाक होना बच्चों के लिए एक खराब अनुभव होता है. किसी भी बच्चे के लिए अपने मातापिता को अलग होते देखना पीड़ादायक होता है. जैसे एक शोध में पाया गया है कि अपने मातापिता के अलग होने के समय

7 से 14 साल की उम्र के नाबालिगों में 16 प्रतिशत इमोशनल प्रौब्लम्स की वृद्धि हुई, पर क्या एक खराब शादी में जिंदगीभर फंसना इस का समाधान है?

देहरादून की रहने वाली 40 वर्षीया आरती रावत (बदला नाम) अपने 3 टीनऐजर बच्चों के साथ पिछले 4 साल से अकेली रह रही है. शादी के कुछ सालों बाद ही आरती की अपने पति के साथ अनबन होने लगी. आरती का पति दारू और जुए की लत का ऐसा

आदी हुआ कि कभी उबर न पाया. चलताफिरता काम भी इस चक्कर में डूब गया. रोजरोज घर में ?ागड़ाफसाद, पति का नशा कर के गली में होहल्ला मचाना, आरती से मारपीट करना बरदाश्त के बाहर होने लगा. घरखर्च चलाने के लिए आरती को डोमैस्टिक वर्कर का काम करना पड़ा.

लेकिन ‘शादी संस्था की पवित्रता’ और बच्चों की खातिर आरती यह सब सहती रही. उन के रिश्ते में न तो

किसी प्रकार की इंटिमेसी रह गई थी, न विश्वास और न फीलिंग्स. बिस्तर दूरियां कम कर पाए, ऐसा भी माहौल एक समय के बाद बन नहीं पाया. सबकुछ बस, एक ढर्रे से चलता रहा. शादी बस, निभानाभर रह गई, पारिवारिक भाव खत्म हो गए. रोजरोज के ?ागड़ों ने उन के बच्चों पर बुरा असर डालना शुरू कर दिया. वे चिड़चिड़े होने लगे.

फिर एकाएक 4 साल पहले आरती का पति सबकुछ छोड़छाड़ पहले तो हरिद्वार चला गया, फिर वहां से कोटद्वार शहर चला गया. पति के छोड़ कर जाने के बावजूद आज भी आरती इसी बात से आश्वस्त है कि वह एक शादीशुदा जीवन में रह रही है. इस कारण न तो वह कोई दूसरी शादी कर पा रही है और न ही इस उम्र में सोच रही है.

जाहिर है कि जब एक जोड़ा खराब रिश्ते को निभाने का फैसला करता है तो वे वास्तव में व्यक्तिगत खुशी का त्याग करते हैं. वे लगातार एकदूसरे के प्रति दुश्मनी महसूस करते हैं. इस के अलावा, आप कल्पना करें कि एक बच्चा उन

2 लोगों को देख रहा है जो उसे सब से ज्यादा प्यार करते हैं, जो लगातार असंतुष्ट और एकदूसरे के साथ लगातार ?ागड़ रहे हैं. यह एक बच्चे को किस तरह प्रभावित कर सकता है, इस की गणना नहीं की जा सकती?

साथ ही क्या यह हकीकत नहीं कि अपने शुरुआती सालों में बच्चे अपने मातापिता को देख कर अपने एडल्ट रिलेशनशिप की समझ विकसित करते हैं. संभव है कि वे यह सम?ा सकते हैं कि शादीशुदा जोड़ों के लिए लगातार लड़ना या एकदूसरे के साथ संवाद नहीं करना या बिस्तर सा?ा नहीं करना सामान्य बात है. क्या यह सम?ा बच्चे को बड़े होने पर और भविष्य में उन की अपनी शादी को प्रभावित नहीं करेगी?

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इस के अलावा बच्चों की को-पेरैंटिंग का मतलब यह नहीं कि मातापिता के बीच यह अनुबंध है कि वे एकसाथ ही रहें. को-पेरैंटिंग का मतलब होता है कि अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी सा?ा करना. इसे आप अलगअलग रह कर भी कर सकते हैं. अगर तलाक आप को मानसिक शांति व खुशी देता है तो भी यह आप को एक बेहतर मातापिता बना देगा? जाहिर है एक दुखी महिला या पुरुष पतिपत्नी रहने की जगह अलगअलग बढि़या अच्छे, सुखी मातापिता बन कर बच्चों को ज्यादा खुशी दे सकते हैं.

विवाहित जीवन, अच्छा घरपरिवार, बच्चे, यकीनन यह सब जीवन का हिस्सा हैं, मगर जरूरी नहीं हैं कि लाइफ में सबकुछ परफैक्ट है. यदि आप एक ऐसी शादी में हैं जो अनहैल्दी है या टौक्सिक है तो इस से छुटकारा पाना ही बेहतर है, क्योंकि मातापिता के आपसी संबंध यदि हैल्दी न हों तो बच्चों पर बहुत बुरा असर पड़ सकता है. लगभग 13 फीसदी बच्चे एंग्जाइटी के शिकार होते हैं यदि उन के आसपास का वातावरण अनहैल्दी हो. यदि ऐसी स्थिति बनती है तो ऐसे में यहां कुछ टिप्स हैं जो आप को टौक्सिक रिलेशन से निकलने में मदद करेंगे और बच्चे को स्वस्थ माहौल दे पाएंगे.

  • विवाह विच्छेद करना आसान नहीं है.
  • महिलाओं के लिए, यह काफी जटिल होता है.
  • जरूरी है कि महिला खुद को फिजिकली, मैंटली और फाइनैंशियली मजबूत बनाए. इस से उसे निर्णय लेने में आसानी रहेगी और वह अपने दम पर अपने बच्चों की परवरिश का जिम्मा उठा सकेगी.
  • जरूरी यह भी है कि बच्चे अगर टीनऐजर हैं और आप विवाह विच्छेद करना चाहते हैं तो उन्हें इस बारे में बताएं.
  • जरूरी नहीं कि पूरी डिटेल में बात की जाए लेकिन मूल जानकारी पता चल जाए.
  • इस के अलावा कोशिश करें कि बच्चों के हर संभव सवालों का उपयुक्त जवाब दें.
  • बच्चों को यह न लगे कि उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता.
  • बच्चों की परवरिश के बारे में होमवर्क करें.
  • कैसे इस स्थिति को मैनेज किया
  • जा सकता है, जानकारों से गाइडैंस अवश्य लें.

भाषाई फिल्में: हिंदी क्षेत्र में साउथ सिनेमा के जमते पैर

Writer-  रोहित

मुंबई के कट्टरपंथी और पुरातनी सिनेमा निर्माता तो सामाजिक चुनौतियों को लेने को तैयार नहीं हैं पर डबिंग के सहारे दक्षिण के निर्माता पिछड़ों व दलितों के इर्दगिर्द बनने वाली फिल्मों को 1970 के दशक के बाद एक बार फिर हिंदी परदे पर ला रहे हैं.

दौर था 70 के दशक का. देश में भारी उथलपुथल की स्थिति थी. लोगों में सरकार के कामकाज को ले कर निराशा थी. एक तरफ कम्युनिस्टों के प्रभाव में शहरों में मजदूर आंदोलन जोर पकड़ रहे थे, दूसरी तरफ कांग्रेस शासित सरकार के विरोधी खेमे लामबंद हो रहे थे.

यह वह समय भी था जब देश के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना की आसमान छूती ऊंचाई का फिल्मी ग्राफ नीचे की तरफ गिर रहा था और सामानांतर रूप से अमिताभ बच्चन का फिल्मी ग्राफ तेजी से ऊपर बढ़ रहा था, क्योंकि उस समय नायक का सौफ्ट रोमांटिक होना काफी नहीं था, बल्कि प्रतिशोध लेना और विद्रोही स्वभाव होना पहली मांग थी. नायक कमजोर तबके का रिप्रैजेंटेशन करे और ताकतवर लोगों से न डरे, यह फिल्म की मूल मांग थी. यही कारण था कि 1972 में आई फिल्म ‘जंजीर’ ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन का टैग दिलवाया.

अमिताभ की कई फिल्में आईं जिन में नायक निचले तबके से था और फिल्म आम पब्लिक को अपील कर रही थी, उन से जुड़ी थी. ‘दीवार’, ‘नसीब’, ‘काला पत्थर’, ‘लावारिस’, ‘शोले’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘कुली’ जैसी कई फिल्में आईं. इन फिल्मों में अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के कैरेक्टराइजेशन में दर्शकों के गुस्से व हताशा की आवाज थी, मानो निचले, पिछड़े, गरीब, मजदूरों के मनोभावों को डायलौग के रूप में अमिताभ बच्चन के मुंह से कहलवा दिया गया हो. यानी फिल्म देखते हुए दर्शक वह भाव महसूस कर रहे थे जो वे असल जीवन में कभी नहीं कर पाए हों, लेकिन करने की तीव्र उत्तेजना हो.

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ऐसा ही पिछले साल 2021 के अंत में रिलीज हुई क्षेत्रीय भाषाई तेलुगू फिल्म ‘पुष्पा पार्ट – 1’ में देखने को मिला. ठीक वही एंग्री तेवर नायक के हावभाव में आते हैं जो कभी अमिताभ बच्चन के कैरियर की नींव बनने में काम आए थे. यह फिल्म पुष्पाराज (अल्लू अर्जुन) नाम के एक मजदूर के बड़े सिंडिकेट माफिया बनने की कहानी दिखाती है, जिस में फिल्म के नायक पर नाजायज होने का ठप्पा लगा हुआ है, जिस के चलते उस की मां और उसे हर समय शर्मिंदा होना पड़ता है. उस का सपना दुनिया पर राज करने का है और सम्मान के लिए किसी के आगे भी नहीं ?ाकना चाहे उस का मालिक हो या बड़ा माफिया.

‘पुष्पा’ फिल्म ने कोविड पीरियड और मंद पड़े थिएटर बाजार में कमाई के बड़े आयाम खड़े कर दिए. दक्षिण भारत में फिल्म ने अच्छा कारोबार किया ही, साथ में उत्तर भारत में भी फिल्म ने अच्छीखासी कमाई कर डाली, वह भी तब जब सामने भारी शोशा वाली फिल्म ‘83’ खड़ी थी, जिसे फिल्म ‘पुष्पा’ ने अपने से काफी पीछे धकेल दिया. हिंदी पट्टी में आ कर हिंदी मूल की बड़ी फिल्म को पटखनी देना बड़ी बात है. सब से बड़ी बात जो हुई इस फिल्म के साथ वह यह कि इस ने अब 2022 के लिए एक बड़ी बहस छेड़ दी है और यह बहस बौलीवुड की सुप्रीमेसी के खात्मे की है और क्षेत्रीय फिल्म इंडस्ट्री, खासकर दक्षिण सिनेमा के उत्थान की है.

दक्षिण भारत का सिनेमा सामूहिक रूप से तेलुगू, तमिल, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा के 4 अलगअलग फिल्म उद्योगों को रिप्रैजैंट करता है, जो पूरी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का लगभग 40 प्रतिशत रैवेन्यू जनरेट करता है. इस में कोई शक नहीं कि पिछले 2-3 सालों में इस ने अपना रैवेन्यू प्रतिशत बढ़ाया ही होगा.

मीडिया कंसल्ंिटग फर्म ओरमेक्स इंडिया के सीईओ शैलेश कपूर कहते हैं, ‘‘अक्तूबर 2020 से मार्च 2021 के बीच जब थिएटर ओपन थे, तब साउथ की फिल्में धड़ाधड़ रिलीज हो रही थीं, जबकि उस दौरान हिंदी क्षेत्र की फिल्में सही समय के इंतजार में थीं. उन के निर्माता फिल्म रिलीज करने से बच रहे थे.’’ उन्होंने अनुमान लगाया कि 2022 तक रीजनल सिनेमा 50 प्रतिशत बौक्स औफिस कलैक्शन पर कब्जा जमा लेगा, वहीं हौलीवुड का रैवेन्यू 20 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा और यह सिर्फ बौक्स औफिस कलैक्शन का ही नहीं, बल्कि सदर्न चैनल हिंदी पट्टी के चैनलों के मुकाबले मजबूत होंगे.

ऐसा सिर्फ ‘पुष्पा’ सरीखी एक फिल्म के प्रति लोगों या जानकारों के रु?ान की बात नहीं, पिछले कुछ सालों से खासकर कोविड महामारी के बाद, साउथ सिनेमा निरंतर हिंदी पट्टी पर खुद को एक्सपैंड कर रहा है, दर्शकों के बीच जगह बना रहा है और दर्शकों में साउथ सिनेमा का क्रेज बनता दिख भी रहा है, जो लगातार उत्तर भारत के हिंदी क्षेत्र की इंडस्ट्री से एक सवाल पूछ रहा है कि आगे आने वाले समय में इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में कौन बड़े भाई का किरदार निभाएगा?

ऐसा सवाल इसलिए खड़ा हो गया है क्योंकि पिछले कुछ समय से साउथ और नौर्थ सिनेमा में तीखी बैटल देखने को मिल रही है. हिंदी सिनेमा का एकक्षत्रीय राज हिंदी बैल्ट पर कम होता जा रहा है या यह कह सकते हैं कि इस में रीजनल, खासकर साउथ सिनेमा एक बड़े हिस्सेदार के तौर पर उभर गया है.

यह आंकड़ा हैरान करता है कि हाल ही में इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में रिलीज हुई 11 ब्लौकबस्टर फिल्मों में 2 हिंदी क्षेत्र की थीं, बाकी 9 साउथ सिनेमा की थीं. हिंदी क्षेत्र की 2 में से एक रोहित शेट्टी की ‘सूर्यवशीं’ थी जोकि साउथ सिनेमा से निकली सूर्या स्टारर ‘सिंघम’ फिल्म का अपडेटेड या इंस्पायर्ड वर्जन थी. जबकि बड़े स्केल की फिल्मों के साथ ही साउथ की छोटीछोटी बजट की फिल्मों को भी काफी सराहा जा रहा है. इस में ‘जय भीम’, ‘मिन्नल मुरूली’, ‘करनन’ जैसी फिल्में शामिल हैं.

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क्यों पसंद की जा रही हैं साउथ इंडियन फिल्में

इस बैटल में एक फायदा साउथ के लिए इस तौर पर आंका जा सकता है कि उस के लिए हिंदी पट्टी में खोने को कुछ नहीं है. उसे राम के अश्वमेध घोड़े की तरह खुले मैदान में दौड़ लगानी है जिस का मतलब आगे सबकुछ पाना ही है. जबकि हिंदी क्षेत्र में आपसी तोड़फोड़, लोगों में खान, कपूर और जौहर विरोधी भावनाएं, नैपोटिज्म की बहस इसे बैकफुट पर धकेल रही हैं.

लेकिन इस से अलग जो बुनियादी चीज है वह यह कि आखिर क्यों साउथ सिनेमा को नौर्थ इंडिया में इतना पसंद किया जा रहा है? दरअसल 1970 की तरह आज का पिछड़ा और दलित कामगार वर्ग फिर से कसमसाने लगा है. आज धर्म से सपोर्टेड जाति की राजनीति उन्हें आगे बढ़ने नहीं दे रही. यह तबका पढ़लिख तो चुका है, पर अपनी स्थिति को ले कर एक खी?ा इस वर्ग के अंदर उभर रही है, जिस का असर फिल्मों के पसंद में भी दिखाई दे रहा है. मौजूदा स्थिति को ले कर जो गुस्सा और भाव

70 के दशक में दर्शकों के मन में था वह फिर से उभर रहा है, जिसे ‘पुष्पा’ फिल्म की सफलता से आंका जा सकता है.

इस में एक जवाब इस रूप में भी सामने है कि विशेष रूप से तमिल और तेलुगू सिनेमा ने अपने दर्शकों को अलगथलग नहीं किया है कि जब वे दर्शकों के लिए बड़ा जाल बुनते हैं, उन के जीवन के पहलुओं को नाटकीय रूप में परोसते हैं. वे उन बिंदुओं को परदे पर दिखाते हैं जिन के बारे में दर्शक सोच सकते हैं लेकिन करना उन के वश में नहीं, जैसे पारिवारिक रिश्तों की अहमियत फिल्म में कहीं न कहीं फिट कर दी जाती है, अपने एथिक्स को ऊपर रखा जाता है. ऐसी बहुत कम सुपरस्टार अभिनीत दक्षिण फिल्म होंगी जो खास दर्शकों के लिए बनाई गई हों. आप रजनीकांत की फिल्म ‘काला’, ‘दरबार’ या ‘काबली’ देख सकते हैं या थालापति विजय की ‘मास्टर’, ‘बीस्ट’ या ‘बिजिल’ देख सकते हैं, या हाल ही में बनी सूर्या की ‘जय भीम’, ‘सूराराई पोत्रू’ और टोबिनो की ‘मिन्नल मुरूली’ हों.

वहीं दूसरी तरफ हिंदी सिनेमा से निचले तबके का आम आदमी खुद को अलगथलग महसूस कर रहा है. इस के अलावा बौलीवुड का निर्देशन स्टाइल वैस्टर्न से ज्यादा प्रेरित नजर आ रहा है, जो क्रीमी लेयर या मल्टीप्लैक्स औडियंस के मतलब की फिल्मों को सिनेमाघरों में रिलीज कर रहा है. इस का तार्किक कारण यह भी हो सकता है कि इस समय बौलीवुड में इंग्लिश मीडियम निर्देशकों का बड़ा धड़ा विदेश से सिनेमाई पढ़ाई कर के इस इंडस्ट्री में आ रहा है, फिल्मों में भले ही कमी न हो लेकिन उस की स्टोरीटेलिंग से दर्शक खुद को जुदाजुदा महसूस कर रहे हैं.

फिल्म ट्रेड एनालिस्ट अक्षय राठी कहते हैं, ‘‘बौलीवुड मल्टीप्लैक्स दर्शकों के लिए फिल्में बना रहा है. इस में कुछ भी गलत नहीं है लेकिन हम सिंगल स्क्रीन, मास बैल्ट, हार्टलैंड को भूल रहे हैं. इसलिए वे दक्षिण भारतीय फिल्मों को ले रहे हैं.’’ अब जाहिर है अगर दर्शकों को अपने मतलब का सिनेमा नहीं दिखेगा तो वह अपने मतलब का सिनेमा कहीं से भी ढूंढ़ लेंगे, खासकर ऐसे समय में जब उन तक पहुंचने के अनेक माध्यम आज सब के पास मौजूद हैं.

हालांकि फिल्म ‘पुष्पा’ से पहले 2015 में आई ‘बाहुबली’ ने बौलीवुड के लिए पहले ही खतरे की घंटी बजा दी थी, लेकिन बहुत कम लोग ही यह जानते होंगे कि इस खतरे की शुरुआत ‘बाहुबली’ जैसी कल्ट फिल्म से नहीं, बल्कि 2003 में गुणाशेखर द्वारा निर्देशित ‘ओक्काडू’ से हो गई थी. वह साउथ फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक गेम चेंजर फिल्म साबित हुई, जिस में तेलुगू सुपरस्टार महेश बाबू मुख्य भूमिका में थे. फिल्म ने पैसे तो कमाए ही, साथ ही वह फिल्म कई भाषाओं में बनी, जिस का हिंदी रीमेक हमें 2015 में आई ‘तेवर’ के रूप में दिखाई दिया, हालांकि इस फिल्म का बिजनैस ज्यादा खास नहीं रहा.

फिल्म ‘ओक्काडू’ के बाद भारतीय सिनेमा में वह समय आया जब बौलीवुड भी साउथ की फिल्मों की रीमेक करने लगा था, जो बौक्स औफिस में खासा कामयाब भी हो रही थीं. इन में सलमान खान की ‘वांटेड’ फिल्म को कौन भूल सकता है, जो 2006 में आई महेश बाबू स्टारर तेलुगू फिल्म ‘पोक्किरी’ की रीमेक थी, जिस ने सलमान खान के कैरियर को फिर से रिवाइव किया था और उन्हें पूरे देश के ‘भाईजान’ का टैग दिलवाया था. इसी तरह 2006 में ही आई रवि तेजा की फिल्म ‘विक्रमाकुडू’ की रीमेक बनी अक्षय कुमार की फिल्म ‘राउडी राठौर’, 2008 में राम चरण की ‘रेडी’ बनी सलमान खान की ‘रेडी’, मलयालम फिल्म ‘रामोजी राव स्पीकिंग’ बनी ‘हेराफेरी’ और ‘मणिचित्राथा?ा’ बनी ‘भूलभूलैया’. इस की फेहरिस्त काफी लंबी है.

बौलीवुड के लिए दूसरा बड़ा ?ाटका तब आया जब साउथ की फिल्में 2010 के बाद धड़ल्ले से हिंदी में डब होने लगीं. जाहिर है, भाषा की सीमाओं में बंध कर दक्षिण का उत्तर से सीधा संबंध बन नहीं पाता था, सिवा इस के कि उत्तर के कलाकार दक्षिण में काम करें (जोकि कैरियर खत्म होने और शर्मिंदा वाली बात मानी जाती थी) और दक्षिण के कलाकार उत्तर में. लेकिन जैसे ही फिल्में डब हुईं, इस ने भाषा का बांध तोड़ दिया और दर्शकों के बीच साउथ की डब फिल्मों का दौर चल पड़ा.

साउथ फिल्मों का बोलबाला

लोगों को हर रोज सोनी मैक्स पर तेलुगू फिल्म ‘शिवाजी द बौस’, नागार्जुन की ‘मास’ जैसी कई फिल्में देखने को मिलती रहीं. यह संयोग नहीं है कि शुरुआत उन चर्चित दक्षिण के कलाकारों से हुई जिन की शुरू में फिल्में हिट हुईं और जिन्हें उत्तर भारत में पहले से ही पहचान हासिल थी. रजनीकांत जो पहले से जानेपहचाने चेहरा थे, उन के साथ मिल कर निर्देशक शंकर ने ‘शिवाजी द बौस’ फिल्म बनाई थी, जिस ने साउथ में धुआंधार कारोबार किया था. उस ने साल के कई बौक्स औफिस रिकौर्ड तोड़ डाले थे. हिंदीभाषी राज्यों के लोगों को इस फिल्म ने काफी आकर्षित किया. इसी तरह 2007 में आई बड़े बजट की कमल हासन की फिल्म ‘दसअवथारम’ थी.

रजनीकांत की पैन इंडिया पौपुलैरिटी को देखते हुए निर्देशक शंकर ने फिर से रजनीकांत के साथ कोलाबोरेट कर 2010 में एक बड़े स्केल की मसाला फिल्म एथिरन (रोबोट) बनाई, जिसे हिंदी के अलावा तेलुगू और कन्नड़ में रिलीज किया गया. जिस ने उस साल सब से ज्यादा बिजनैस किया. कहा जाता है कि रजनीकांत की पौपुलैरिटी को देखते हुए इस फिल्म के लिए उस समय रजनीकांत को बौलीवुड के बादशाह कहे जाने वाले शाहरुख खान से ज्यादा पेमैंट मिला था.

ठीक इसी तरह एस एस राजामोली की भव्य फिल्म ‘मगधीरा’ भी बड़े स्केल पर बनी, जिस ने तेलुगू बौक्स औफिस में काफी कमाई की. यह फिल्म उस साल की हाईएस्ट ग्रौसर फिल्म बनी. ऐसे ही मलयालम सिनेमा के सुपरस्टार मोहनलाल की फिल्म ‘पुली मुरगन’ और ‘लूसिफर’ ने भारी कमाई की. इसी तरह निष्क्रिय पड़ा कन्नड़ सिनेमा बाजार ‘केजीएफ पार्ट  1’ के बाद बड़े स्केल पर खुलने लगा. जैसेजैसे मार्केट एक्सपैंड होता गया, तेलुगू और तमिल मसाला फिल्मों को बड़े स्केल पर लाया जाने लगा, साथ ही फिल्मों को हिंदी में डब भी किया जाने लगा.

आज इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि साउथ सिनेमा के कई कलाकार, बौलीवुड के बड़े कलाकारों जितने उत्तर भारत में पौपुलैरिटी हासिल करने में कामयाब हो चुके हैं. सोने पर सुहागा ओटीटी ने कर दिया है, जिस ने रीजनल सिनेमा को घरघर पहुंचाने का काम किया. इस में काम करने वाले नायकनायिकाओं को पहचान हासिल हो रही है. यही कारण है कि तेलुगू फिल्म इंडस्ट्री से अल्लू अर्जुन, प्रभाष, महेश बाबू, जूनियर एनटीआर, रवि तेजा, राम चरण, विजय देवराकोंडा, रश्मिका, अनुष्का इत्यादि का जबकि तमिल से अजिथ, सूर्या, धनुष, विजय सेथुपथी, प्रकाश राज, विक्रम इत्यादि और मलयालम से मोहनलाल, ममूटी, दिलीप, टोविनो थौमस, फहाद फाजिल इत्यादि का उत्तर भारत के दर्शकों के बीच में क्रेज देखा जा सकता है.

इस के अलावा जिस बात का जिक्र पहले किया गया था कि उत्तर भारत का जो कलाकार पहले साउथ की फिल्म में काम करने से हिचकता था, वह उसी शर्त पर नीचे काम करने जाता था जब उस का कैरियर उत्तर में खत्म होने को होता था या उसे काम नहीं मिल रहा होता था. आज दक्षिण के कलाकारों का उत्तर में आने की तुलना में, ढेरों उत्तर भारत के कलाकार साउथ में काम करने जा रहे हैं. कई बड़े नाम पहचान वाले भी हैं, जिन में अगर तुरंत नाम एड किया जाए तो एसएस राजामोली की आने वाली फिल्म ‘आरआरआर’ है जिस में अजय देवगन और आलिया भट्ट भी भूमिका में हैं. वहीं, ‘केजीएफ पार्ट 2’ में रवीना टंडन और संजय दत्त जैसे नामी कलाकार शामिल हैं. ऐसे ही कई साउथ के कलाकार भी नौर्थ की फिल्मों में अपनी अच्छी जगह बना रहे हैं.

अब इसे एक सकारात्मक प्रतिस्पर्धा कहा जाए या बौलीवुड पर मंडराता खतरा, जो भी है, पर हिंदी सिनेमा के पास भी उसी प्रकार का भरपूर मौका है कि वह भी साउथ में अपनी फिल्मों को एक्सपैंड करे, ताकि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री अपनी पूरी क्षमता के साथ कारोबार कर सके और रैवेन्यू जनरेट करे.

पंच प्यारे बनेंगे सियासी शतरंज के नए सितारे

01इतिहास खुद को दोहराता है. 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ऐतिहासिक बहुमत के साथ 414 सीटें मिली थीं. देश में इतना प्रबल बहुमत पहले किसी पार्टी को नहीं मिला था. ‘मिस्टर क्लीन’ की छवि वाले राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने. लोकसभा में विपक्ष के पास केवल 130 सीटें थीं. इन में से भाजपा के पास केवल 2 थीं. 3 वर्षों के बाद ही कांग्रेस से निकल कर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स घोटाला का मुद्दा उठा कर 1989 के लोकसभा चुनाव में अपनी सरकार बना ली. गैरकांग्रेसवाद के नाम पर विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ अलगअलग राजनीतिक विचारधारा और क्षेत्र के वामपंथी व दक्षिणपंथी पार्टियां यानी भाजपा एक मंच पर आ गई थीं.

2024 में इतिहास खुद को दोहराता दिख रहा है. इस बार मुद्दा गैरभाजपावाद का है. ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे और स्टालिन भले ही अलगअलग पार्टी व विचारधारा के हों पर इन के आपस में मिलने पर परेशानी नहीं है.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को ममता बनर्जी ने समर्थन दिया. लखनऊ के 19 विक्रमादित्य मार्ग स्थित सपा कार्यालय में ममता बनर्जी ने मंच से फुटबौल उछाल कर ‘खेला हौबे’ का नारा देते देश की राजनीति के भविष्य की नींव रखते कहा, ‘‘आप यूपी से भाजपा को हटाओ, हम 2024 में दिल्ली से हटा देंगे. अगर भाजपा रही तो देश खत्म हो जाएगा.’’ उत्तर प्रदेश की विधानसभा के लिए हो रहे चुनाव के बहाने ममता ने 2024 की अपनी रणनीति का खुलासा करते कहा कि धर्मनिरपेक्ष सोच के दलों को एक मंच पर आना होगा.

मुद्दा बन रहा गैरभाजपावाद

देश की राजनीति एक नए मोड़ पर खड़ी है. गैरकांग्रेसवाद की लड़ाई अब गैरभाजपा में बदल गई है. 2014 के बाद वोटबैंक की राजनीति ने धर्म के नाम पर जिस तरह से आपस में दूरियां पैदा की हैं उस से देश की धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान हुआ है. वहीं, विपक्ष को पूरी तरह से खत्म करने के लिए देश की सवैंधानिक संस्थाओं का प्रयोग किया जा रहा है जो इमरजैंसी युग की याद दिलाता है.

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जिन प्रदेशों में गैरभाजपाई सरकारें हैं उन के सामने मुश्किलें पैदा की जा रही हैं. पिछले 8 वर्षों में पूरे देश में सत्ता के खिलाफ बोलने वाले पर राजद्रोह तक के मुकदमे लाद दिए गए. विपक्ष के नेताओं की छवि को नुकसान पहुंचाने के लिए भाजपा की आईटी सैल द्वारा मिथ्या प्रचार किया गया, जिस से विपक्षी नेता जो भी बोलें उस को जनता गंभीरता से न ले.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ‘पप्पू,’ समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव को ‘टोटी चोर,’ ममता बनर्जी को मुसलिमपरस्त, उद्धव ठाकरे के खिलाफ नशे की मुहिम और स्टालिन के खिलाफ वंशवाद का आरोप लगा कर प्रचार किया गया. इस का मकसद यह है कि जनता इन नेताओं की कही बात को गंभीरता से न ले.

भाजपा इन पंच प्यारे यानी ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे और स्टालिन को हर तरह से पीछे ढकेलने के लिए पूरा दमखम लगा रही है. उस का कारण यह है कि ये नेता आने वाले सालों में देश की राजनीति को बदलने का दमखम रखते हैं. उस की वजह यह है कि ये नेता अपनेअपने प्रदेशों में भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं. इन के राजकाज करने का तरीका बेहतर है. ये अमीर लोगों की जगह देश के गरीब समाज को सामने रख कर योजनाएं बनाते हैं.

अखिलेश यादव ने साधा उत्तर प्रदेश

देश के सब से बड़े प्रदेश में भाजपा को अकेले अखिलेश यादव से लड़ने में छक्के छूट रहे हैं. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा बड़ी जीत की उम्मीद कर रही है. उस की योजना है कि वह न केवल अपनी सरकार बनाए बल्कि 350 से अधिक विधानसभा की सीटें जीत कर यह बता दे कि जनता उस के साथ है.

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने भाजपा के मंसूबों पर पानी फेरने की पूरी योजना बना ली है. अखिलेश यादव ने भाजपा के अंदर सेंधमारी कर के उन के सहयोगी ओमप्रकाश राजभर और कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य को तोड़ लिया है. अखिलेश यादव के दबाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय लोकदल नेता चौधरी जयंत सिंह के साथ जिस तरह से विधानसभा चुनाव लड़ने का चक्रव्यूह तैयार किया उसे भेद पाने में भाजपा असफल हो रही है. राज्य के पश्चिम इलाके को उत्तर प्रदेश की राजनीति का प्रवेशद्वार कहा जाता है. पहले चरण का मतदान यहीं पर हुआ है. अखिलेश और जयंत यहां ‘दो लड़कों की जोड़ी’ के नाम से मशहूर हो गए हैं.

यही नहीं, अखिलेश यादव ने बाकी प्रदेश के लिए भी अलगअलग चुनावी रणनीति तैयार कर ली है. जनता का समर्थन जिस तरह से उन को मिल रहा है वह बेहद महत्त्वपूर्ण है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी लखनऊ आईं और अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का समर्थन समाजवादी पार्टी को दिया. यहां से देश की राजनीति में बदलाव का रास्ता खुलता है. उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव केवल भाजपा के लिए ही नहीं, पूरे विपक्ष के लिए भी बेहद महत्त्वपूर्ण है.

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ममता की लड़ाकू छवि बनेगी सहारा

तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की छवि जमीन से जुड़ी लड़ाकू नेता की है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा की ‘चतुर्णी सेना’ का मुकाबला जिस तरह से ममता ने किया उस से विपक्षी दलों के तमाम नेताओं के अंदर एक हौसला बढ़ा.

ममता बनर्जी ने कुशल सेनापति के रूप में चुनाव का पूरा संचालन किया और फिर मुख्यमंत्री बनने में सफल रहीं. मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने जिस तरह से भाजपा में तोड़फोड़ की, वह उन की हिम्मत को ही दर्शाता है. ‘दो मई आई, दीदी गई’ का नारा देने वाली भाजपा को ममता ने पश्चिम बंगाल से खदेड़ने का काम किया. ममता विरोधी दलों की मुख्य धुरी बन गई हैं. राष्ट्रीय स्तर पर शरद पवार के बाद ममता बनर्जी अकेली ऐसी नेता हैं जो सभी दलों और नेताओं के बीच अच्छे संबंध रखती हैं.

2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष के सामने वे सब से बड़ा चेहरा होंगी. ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतने में सफल रही हैं. इस के अलावा वे केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुकी हैं. राज्य से ले कर देश के स्तर पर सरकार चलाने का अनुभव उन के पास है. अगर विपक्ष का साथ उन को मिला तो वे नरेंद्र मोदी के सामने सब से प्रमुख चेहरा बनेंगी. ममता बनर्जी हर दल के साथ तालमेल कर सकती हैं. देश की राजनीति में बदलाव करने वाले ‘पंच प्यारे’ नेताओं राहुल गांधी, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे और स्टालिन में ममता बनर्जी सब से ज्यादा लोकप्रिय भी हैं. जरूरत इस बात की है कि गैरभाजपाई दल इस दिशा में सही योजना बना कर काम करें.

राहुल की मुखर और बुलंद आवाज

भाजपा के लाख प्रयासों के बाद भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी की मुखर और बुलंद आवाज लोगों को पसंद आ रही है. संसद से ले कर सड़क तक राहुल गांधी को लोग सुनते हैं. राहुल गांधी की बातें तथ्यों/आंकड़ों पर आधारित होती हैं. इसी कारण ये भाजपा को चुभती हैं. कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर सब से बड़ी पार्टी है. उस के नेता की आवाज को देश ही नहीं, विदेशों तक में सुना जाता है. राहुल गांधी के पास देश चलाने और सभी वर्गों को साथ ले कर चलने का दृष्टिकोण भी है. कांग्रेस की दिक्कत है कि आज उस के पास मजबूत संगठन नहीं है. उस का वोटबैंक छितर गया है. कांग्रेस पहले गठबंधन की राजनीति नहीं करना चाहती थी. सोनिया गांधी ने कांग्रेस की इस सोच को बदला और यूपीए बना कर गठबंधन की राजनीति को आगे बढ़ाया, जिस के सहारे 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव जीते भी.

10 वर्षों बाद 2024 में एक बार फिर से कई दल एकजुट हो कर भाजपा के सामने चुनौती पेश कर सकते हैं. इन में से कई दल चुनाव के बाद भी गठबंधन में शामिल हो सकते हैं. भाजपा के हिंदुत्व का मुद्दा केवल हिंदी बोली वाले प्रदेशों में ही चल रहा है. बाकी देश से भाजपा सिमटती जा रही है. महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के चुनावों में हार के बाद भाजपा का ग्राफ गिरने लगा है.

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भाजपा को कड़ी चुनौती मिल रही है. अभी भाजपा 4 राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में सत्ता में है. इन 4 राज्यों में उस को अपनी वापसी होती नहीं दिख रही है. राम के प्रदेश में उस की हालत फंसी हुई है. राममंदिर बनने के बाद भी जनता में उत्साह नहीं है. यही वजह है कि भाजपा को काशी और मथुरा की बात करनी पड़ रही है.

नहीं ?ाके उद्धव ठाकरे

शिवसेना और भाजपा का बहुत पुराना गठबंधन रहा है. उद्धव ठाकरे ने इस गठबंधन को तोड़ कर खुद की अपनी अलग राह चुनी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने. इस के बाद वे भाजपा के दुश्मन नंबर एक बन गए. भाजपा के समर्थक और आईटी सैल के लोग कभी राज ठाकरे की पत्नी रश्मि ठाकरे को राबड़ी देवी कहते हैं तो कभी उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे को बदनाम करने वाले बयान देते हैं.

महाराष्ट्र में शिवसेना को दबाने के लिए ईडी और नारकोटिक्स विभाग का प्रयोग किया गया. शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे कभी भी डरे और ?ाके नहीं. उद्धव ठाकरे यह मानते हैं कि केंद्र सरकार अपनी ताकतों का दुरुपयोग कर रही है. शिवसेना की पकड़ महाराष्ट्र में बहुत मजबूत है. भाजपा हमेशा उसे कम महत्त्व देती रही है. उद्धव ठाकरे ने भाजपा से अलग होने का फैसला कर के सही राजनीतिक कदम उठाया और महाराष्ट्र की कमान अपने हाथों में ली.

उद्धव ठाकरे भी 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात देने के लिए पूरा दमखम लगा देंगे. वे अकेले ऐसे नेता हैं जिन को भाजपा हिंदूवाद का विरोधी नहीं कह सकती. ऐसे में उन की ताकत बढ़ जाती है. भाजपा के हिंदुत्व की सब से बड़ी काट शिवसेना ही है. जो बिना डरे व ?ाके भाजपा का विरोध कर रही है.

महाराष्ट्र देश का सब से बड़ा औद्योगिक प्रदेश है. भाजपा वहां से तमाम उद्योगों को बाहर निकालना चाहती है. फिल्म उद्योग इस का एक बड़ा उदाहरण है. भाजपा के बहुत सारे प्रयासों के बाद भी उत्तर प्रदेश में फिल्मनगरी नहीं बन पाई है. उद्धव ठाकरे भी यह नहीं चाहते कि भाजपा की तानाशाही चलती रहे. इस कारण गैरभाजपा के नाम पर वे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की ताकत को बढ़ावा दे सकते हैं.

दक्षिण में बड़ी चुनौती हैं एम के स्टालिन

2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को उत्तर भारत के राज्यों से बड़ी सफलता मिली थी. यहां अब भाजपा का ग्रोथ रुक चुका है. भाजपा का प्रयास यह है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में उस को दक्षिण भारत के राज्यों से उतनी सीटें मिल जाएं जितनी उत्तर भारत में कम हो रही हैं, तभी वह सरकार बनाने में सफल हो पाएगी.

महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में जिस तरह से उद्धव ठाकरे, ममता बनर्जी और अखिलेश यादव ने भाजपा को रोक रखा है उसी तरह से द्रविड मुनेत्र कषगम यानी द्रमुक के नेता मुथुवेल करुणानिधि स्टालिन यानी एम के स्टालिन तमिलनाडु में घुसने नहीं दे रहे हैं. दक्षिण भारत के इस नेता का नाम सब से ताकतवर नेताओं में शुमार किया जाता है. मेयर से ले कर मुख्यमंत्री तक का उन्हें प्रशासनिक अनुभव है.

तमिलनाडु में लोकसभा की 39, उत्तर प्रदेश 80, महाराष्ट्र 48 और पश्चिम बंगाल में 41 सीटें हैं. इन 4 राज्यों की 208 लोकसभा सीटों पर भाजपा के सामने सब से बड़ी चुनौती है. ऐसे में यह साफ है कि अगर इन प्रदेशों में भाजपा को रोक लिया गया तो उस के लिए 2024 की राह कांटोंभरी हो जाएगी जिसे पार करना नामुमकिन सा हो जाएगा.

इन दलों को जब कांग्रेस का साथ मिलेगा तो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को बड़ी चुनौती पेश की जा सकेगी. राहुल गांधी और ममता बनर्जी के रूप में 2 बड़े चेहरे भी सामने हैं जिन के नाम को आगे कर के विपक्ष गैरभाजपावाद के खेमे को मजबूत कर सकता है. आने वाले लोकसभा चुनाव की नजर से ये ‘पंच प्यारे’ यानी ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे और स्टालिन खासे महत्त्वपूर्ण हैं.

ममता बनर्जी यह बात जानती हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर वे अकेली भाजपा से लड़ाई में सफल नहीं होंगी. ऐसे में वे अपने साथ दूसरे दलों को लेना चाहती हैं. सत्ता से किसी दल को हटाने के लिए अलगअलग विचाराधारा के लोग पहली बार एकजुट नहीं हो रहे हैं. 1977 में इमरजैंसी के बाद सभी दलों ने मिल कर जनता पार्टी सरकार बनाई और कांग्रेस को हराया. 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ भाजपा और वामपंथी एक सरकार में हिस्सा बने और कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया. 2004 में कांग्रेस ने यूपीए का गठबंधन बनाया और भाजपा की अटल सरकार को हराया जिस ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दे कर वक्त से 6 माह पहले लोकसभा के चुनाव कराने का जोखिम उठा लिया था.

2014 में 10 साल पुरानी कांग्रेस सरकार को हटाने के लिए भाजपा ने भी एनडीए गठबंधन का सहारा लिया था. पंच प्यारे यानी ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे और स्टालिन अगर एकजुट हो कर भाजपा की मोदी सरकार को हटाने के लिए एक मंच पर आते हैं तो वह चौंकाने वाली बात नहीं होगी.

इतिहास खुद को दोहराता है. अब राजनीतिक दलों को गठबंधन की राजनीति करनी आ गई है. अलगअलग विचारधारा व क्षेत्र के लोग भी एक मंच पर आ कर सफल राजनीति कर सकते हैं. उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र में इस की मिसाल पेश कर के भाजपा को कुरसी से उतारने में सफल भी रहे हैं. ताकतवर मोदी को कुरसी से हटाने के लिए व गैरभाजपावाद के नाम पर ये ‘पंच प्यारे’ सफल हो सकते हैं.

व्यंग्य: सांभर वड़ा की यू-ट्यूब विधि

‘अच्छे दिन’ तो बस एक मुहावरा ही है, जो सुनने में तो अच्छा लगता पर अच्छे दिन कभी आते नहीं. श्रीमतीजी का सांभरवड़ा बना कर खिलाने का अच्छे दिन का वादा प्रधानमंत्री के जैसा ही रहा.

मिस्टर पति ने उस दिन जब अपनी श्रीमती फलानीजी को यूट्यूब में सांभरवड़ा बनाने की विधि को गंभीरता के साथ देखते हुए पाया तो गदगद हो गए. सोचने लगे, आज शाम को दक्षिण भारत का यह स्वादिष्ठ व्यंजन खाने को मिलेगा. लेकिन शाम हुई और फिर रात भी गहरा गई, सांभरवड़ा का पता न चला तो पति महोदय ने पूछ लिया, ‘‘क्यों भागवान, तुम सुबह सांभरवड़ा बनाने की विधि देख रही थीं न, उस का क्या हुआ?’’

पत्नीजी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘एकदो बार और देख लूं, उस के बाद जरूर बनाऊंगी, आप की कसम.’’

पति महोदय, मजबूरी में ही सही, परम संतोषी किस्म के जीव थे. पहले भी पत्नी उन से अलगअलग पकवानों के बारे में यही कहती रहीं कि बनाने की विधि अच्छे से सम?ा लूं, फिर जल्द बना कर खिलाऊंगी. लेकिन कभी कुछ खिलाया नहीं, सिवा चावल, दाल और सब्जी के.

बहुत दिनों बाद पत्नी को एक बार फिर सांभरवड़ा बनाने की विधि देखते हुए उन्हें बड़ा अच्छा लगा. उन्हें इस बार पूरा विश्वास था कि अब पकवान खाने के मामले में अच्छे दिन आ ही जाएंगे, लेकिन उन्हें क्या पता था कि अच्छे दिन, बस एक मुहावरा बन कर रह गया है. यह सुनने में अच्छा लगता है मगर अच्छे दिन आते नहीं. सो, उन की पत्नी भी सांभरवड़ा बनाने की विधि देख तो रही थीं, पर उसे बनाने का मुहूर्त अभी नहीं आया था. खैर, कभी न कभी तो जरूर बनाएगी. आखिर, पहलवान रामभरोसे की बीवी है, हिम्मत न हारेगी.

दोचार दिन बीते ही थे कि एक दिन मिस्टर पति ने देखा, पत्नीजी इस बार फिर बड़े ध्यान से यूट्यूब में उत्तपम बनाने की विधि देख रही हैं. वे गदगद हो गए कि आज शाम को या फिर एकदो दिन बाद उत्तपम का आनंद मिलेगा. लेकिन कुछ दिन ऐसे ही निकल गए, उत्तपम नहीं बनाया तो उन्होंने पत्नीजी से पूछ लिया, ‘‘क्यों डियर उस दिन तो तुम उत्तपम बनाने की विधि सीख रही थीं, अब बनाओगी कब?’’

पत्नीजी मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘बना दूंगी, जल्दी क्या है. एकदो बार और देखना पड़ेगा. दिमाग में उसे बिठाना पड़ेगा, तब तो बना पाऊंगी. वरना वैसा ही होगा, जैसा एक बार हुआ था. गुलाबजामुन बनाने बैठी थी लेकिन वह तो कुछ का कुछ बन गया था.’’

पति महोदय को याद आया, ‘‘हां, तुम ने मु?ो जबरन खिलाया था और पहली बार हुआ था कि गुलाबजामुन को खाने के बजाय पीना पड़ा था.’’

पति की बात सुन कर पत्नीजी मुसकराईं, फिर बोलीं, ‘‘तुम ने वह गीत सुना है न, होंगे कामयाब एक दिन… तो हम भी यूट्यूब के सहारे व्यंजन बनाने की विधियां देखते रहते हैं और सोचते हैं कभी न कभी हम कोई न कोई पकवान ठीकठाक बनाने में सफल हो ही जाएंगे. लेकिन पता नहीं क्यों, मैं सफल नहीं हो पाती.’’

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पति ने हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘हिम्मते जनाना, मदद ए खुदा.’’

पति सम?ादार था. उस ने कहावत में हिम्मत ए मर्दां की जगह हिम्मत ए जनाना कर दिया. कुछ दिन बीते ही थे कि एक दिन पत्नी ने ऐलान किया, ‘आज शाम जब आप घर लौटोगे तो मैं आप को पेड़े खिलाऊंगी. यह वादा रहा.’

पति को अच्छा लगा. खोये के पेड़े खाने को मिलेंगे. वे अतिउत्साह के साथ शाम को घर पहुंचे तो देखा, पत्नीजी किचन में बड़े मनोयोग के साथ कुछ बना रही हैं. वे सम?ा गए कि पेड़ा ही बन रहा होगा. कुछ देर बाद पत्नी एक थाल में सजा कर कुछ पेड़े ले आईं

और कहा, ‘लो, मेरे हाथ का बना

पेड़ा खाओ.’

फलानेजी खुश हो गए. उन्होंने एक पेड़ा उठाया. वह कुछकुछ गीला था. उन्होंने उसे मुंह में डाला और कुछ अजीब सा मुंह बनाते हुए बोले, ‘‘यह तो पेड़ा नहीं, केवल खोया है. पेड़ा कहां है?’’

पत्नीजी बोली, ‘‘अरे, यह पेड़ा ही तो है. खोये में शक्कर मिला कर ही तो पेड़ा बनता है.’’

पति ने सिर पीटते हुए कहा, ‘‘अरी भागवान, पेड़ा बनाने की पूरी एक प्रक्रिया है. तुम ने यूट्यूब में ठीक से देखा नहीं, शायद.’’

पत्नी मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘देखा तो था लेकिन समय कम था, इसलिए शुरू का ही एक किलो खोया लाई, उस में उसी अनुपात में डट कर शक्कर मिलाई. तब तक सहेली आ गई, उस के साथ गप मारने लगी. मु?ो लगा कि खोए में शक्कर मिला कर गोलगोल बनाने से पेड़ा बन जाता है.’’

पति महोदय मन ही मन भुनभुना रहे थे लेकिन किसी भी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘धन्य हो तुम. पहली बार ऐसा अद्भुत पेड़ा खाया है.’’

पत्नीजी ?ाठ की चाशनी में सजी अपनी तारीफ सुन कर गदगद हो रही थी. उस ने भी पेड़ा खाया तो उस ने महसूस किया, यह तो पेड़े की तरह बिल्कुल ही नहीं लग रहा है. लेकिन वह मौन रही. मन ही मन सोचने लगी, अच्छा हुआ, इन को कुछ पता ही नहीं चला. मेरी मेहनत बरबाद नहीं हुई.

उधर पति महोदय सोच रहे थे कि भविष्य में अब इस महान कलाकार से किसी भी तरीके का पकवान बनाने का आग्रह बिलकुल नहीं करूंगा. लेकिन सब दिन होत न एक समान. कुछ दिनों के बाद पति महोदय ने फिर देखा कि पत्नी यूट्यूब में भुजिया सेव बनाने की विधि देख रही है. लेकिन इस बार वे किसी भी उम्मीद में बिलकुल नहीं रहे. उलटे, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जैसे मनोरंजन के लिए हम लोग यूट्यूब में गाने, फिल्म, प्रवचन या कुछ और चीजें देख लेते हैं, उसी तरह कुछ महिलाएं भी अपना मन बहलाने के लिए तरहतरह के व्यंजन बनाने की विधियां देखती रहती हैं. बनाएं चाहे न बनाएं, लेकिन किसी भी चीज का ज्ञान अर्जित करने में कौनो बुराई नहीं है, बंधु.

लेकिन उस दिन तो चमत्कार हो गया. पत्नी ने सुबहसुबह फरमाया, ‘‘आज शाम को मैं आप को सांभरवड़ा खिलाऊंगी.’’

पति ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जोक मत करो. जानू.’’

पत्नी बोली, ‘‘तुम्हारी कसम, आज मैं तुम्हें सांभरवड़ा जरूर खिलाऊंगी.’’

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पति घबराया, पत्नी मेरी कसम खा रही है, लेकिन उसे यकीन था कि जब कसम खा रही है तो जरूर खिलाएगी. शाम को पति महोदय जल्दी घर आ गए. थोड़ी देर बाद पत्नी ने प्लेट में सजा कर सांभरवड़ा परोस दिया. पति महोदय तो गदगद, बोल पड़े, ‘‘आखिर, तुम्हारी यूट्यूब पर व्यंजन बनाने की विधि देखने वाली मेहनत सफल हो ही गई, बधाई.’’

पत्नी बोली, ‘‘जो वादा किया था, उसे निभाया. मैं ने कहा था न, शाम को सांभरवड़ा खिलाऊंगी तो खिला रही हूं. कौफीहाउस वाले को फोन किया था, वह अभी थोड़ी देर पहले ही पहुंचा कर गया है.’’ पति महोदय की शक्ल देखने लायक थी…

चूक गया अर्जुन का निशाना: भाग 2

रात 9 बजे पुलिस दिनेश के घर पहुंची. पुलिस जीप के रुकते ही आसपास के लोग उत्सुकता से देखने लगे. एक पुलिस वाले ने जीप से उतर कर दिनेश को दरवाजे के बाहर से आवाज लगाई, ‘‘दिनेश… ओ दिनेश.’’

पुलिस वाले की आवाज सुन कर दिनेश बाहर आया. पुलिस वाले को देख कर बोला, ‘‘क्या बात है साहब?’’

‘‘चलो, जीप में बैठो.’’ पुलिस वाले ने रौब से कहा.

डरासहमा दिनेश चुपचाप जीप में बैठ गया. जीप वापस थाने के लिए चल पड़ी. थोड़ी ही देर में यह खबर पूरे गांव में फैल गई कि दिनेश को पुलिस थाने ले गई है.

मोहन और दिनेश पक्के दोस्त थे. एकदूसरे के बिना घड़ी भर नहीं रह सकते थे. मोहन की शादी को साल भर ही हुआ था कि एक दिन वह खेत में घास काट रहा था, तभी उसे जहरीले सांप ने काट लिया. तमाम कोशिशों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका.

एक अच्छा दोस्त होने की वजह से मोहन के मरने के बाद दिनेश उस की पत्नी सविता की घर या खेतों के काम में मदद करने लगा.

दिनेश अकेला ही था. उस की पत्नी किसी बात से नाराज हो कर उसे पहले ही छोड़ कर मायके चली गई थी. सविता और दिनेश की निकटता देख कर गांव वाले तरहतरह की बातें करते थे.

सविता के ससुर अर्जुन को दिनेश का सविता के पास आनाजाना जरा भी पसंद नहीं था. इसलिए गांव वालों को यह मानने में जरा भी देर नहीं लगी थी कि सविता की हत्या के पीछे दिनेश का हाथ हो सकता है. इसलिए अर्जुन ने दिनेश के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा कर उसे गिरफ्तार करा दिया था.

थाने ला कर दिनेश से पूछताछ शुरू हुई. थानाप्रभारी भोपाल सिंह ने उसे अपने पैरों के पास बैठा कर हाथ में बेंत ले कर पूछा, ‘‘तू ने उस औरत की हत्या क्यों की, उस की लाश कहां छिपाई?’’

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‘‘साहब, आप चाहे जिस की कसम खिला लीजिए, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता.’’

‘‘तू  इस तरह नहीं मानेगा. अभी चार डंडे पिछवाड़े पर पड़ेंगे तो सब कुछ बक देगा.’’ थानाप्रभारी ने हाथ में लिया डंडा उस की आंखों के सामने घुमाते हुए कहा.

‘‘तेरे कहने का मतलब यह है कि तू ने सविता की लाश देखी नहीं है?’’

‘‘साहब, ऐसा मैं ने कब कहा है. पर रात को मैं ने जो लाश देखी थी, वह किस की थी, मुझे पता नहीं. मैं निर्दोष हूं साहब,’’ रुआंसे हो कर दिनेश ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा.

अगले दिन थाना भादरवा पुलिस ने दिनेश को अदालत में पेश कर के पूछताछ के लिए 8 दिनों के पुलिस रिमांड पर ले लिया. दिनेश ने जहां लाश देखी थी, पुलिस दिनेश को ले जा कर लगातार 3 दिनों तक लाश ढूंढती रही. पुलिस ने आसपास का एकएक कोना छान मारा, पर लाश का कुछ पता नहीं चला.

चौथे दिन बगल के गांव मालपुर के प्रधान ने थाना भादरवा पुलिस को फोन कर के सूचना दी कि गांव के बाहर स्थित एक कुएं में किसी औरत की लाश पड़ी है. पुलिस तुरंत उस कुएं पर पहुंची और गांव वालों की मदद से लाश बाहर निकलवाई. लाश अब तक काफी हद तक सड़ चुकी थी. उस से बहुत तेज दुर्गंध आ रही थी.

लाश का सिर इस तरह कुचल दिया गया था कि उस की शिनाख्त नहीं की जा सकती थी. चूंकि 4 दिन पहले ही सविता के गायब होने की  रिपोर्ट दर्ज हुई थी, इसलिए पुलिस को पूरा विश्वास था कि यह लाश उसी की होगी. इसलिए पुलिस ने लाश की शिनाख्त के लिए अर्जुन को बुलवा लिया.

लाश देखते ही अर्जुन सिसकसिसक कर रोने लगा. रोते हुए वह कह रहा था, ‘‘बहू, तुम ने भी मोहन की राह पकड़ ली. मुझे अकेला छोड़ कर चली गई. अब इस दुनिया में मेरा कोई नहीं रहा.’’

थानाप्रभारी ने जोर से रो रहे अर्जुन को सांत्वना दी, ‘‘काका धीरज रखो, अपराधी हमारे कब्जे में है. हम आप को न्याय दिला कर रहेंगे.’’

‘‘साहब, उस राक्षस को छोड़ना मत. उस ने मेरे बुढ़ापे का सहारा छीन लिया.’’ रोते हुए अर्जुन ने कहा.

गांव वाले अर्जुन को संभाल कर वापस ले आए. 8 दिनों का रिमांड समाप्त होने पर पुलिस ने दिनेश को दोबारा कोर्ट में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया. दिनेश ने सविता के साथ दुष्कर्म करने और उस की हत्या का अपराध स्वीकार कर लिया था.

उस के दोस्तों ने उस की जमानत के लिए काफी प्रयास किया, पर उस पर दुष्कर्म के साथसाथ हत्या का भी आरोप था, इसलिए निचली अदालत से उस की जमानत नहीं हो सकी.

यह मामला काफी उछला था, इसलिए सरकार ने इस मामले की सुनवाई लगातार करने के आदेश दे दिए थे. लगातार सुनवाई होने की वजह से 3 महीने में ही दिनेश को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई थी.

दिनेश के अपराध स्वीकार करने के बाद उस की गांव में थूथू हो रही थी. लोगों का कहना था कि देखने में वह कितना भोला और भला आदमी लगता था. पर निकला कितना नालायक.

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भाई जैसे दोस्त की पत्नी की इज्जत लूट कर उसे मौत के घाट उतार दिया. उस की पत्नी को लगता है पहले ही पता चल गया था कि यह आदमी ठीक नहीं है, इसीलिए वह छोड़ कर चली गई.

गांव में लगभग रोज ही इस बात की चर्चा होती थी. पर कान्हा, करसन और उस के अन्य दोस्तों के गले यह बात नहीं उतर रही थी. पर दिनेश ने थाने में ही नहीं, अदालत में भी अपना अपराध स्वीकार कर लिया था, इसलिए कान्हा के मन में थोड़ा शक जरूर हो रहा था.

अर्जित तनेजा ने दंगल टीवी के शो ‘‘नथः जेवर या जंजीर’’ को कहा अलविदा, शॉकिंग है वजह

‘‘दंगल टीवी’’ पर प्रसारित हो रहे सीरियल ‘‘नथः जेवर या जंजीर’’ में ठाकुर अवतार के बेटे शंभू का किरदार निभा रहे अभिनेता अर्जित तनेजा ने अंततः इस सीरियल को अलविदा कह दिया. इतना ही नहीं अर्जित ने तुरंत इस बात की जानकारी उसी मीडिया को दी, जिसके संग कुछ दिन पहले वह बदतमीजी के साथ पेश आ चुके थे.

अर्जित ने दिया ये बयान…

अर्जित तनेजा ने सीरियल ‘‘नथ: जेवर या जंजीर’’ को अलविदा करने की वजह बताते हुए कहा है -‘‘जब मुझे शंभू के किरदार के लिए अनुबंधित किया गया था, उस वक्त मुझे इस किरदार में काफी अच्छी संभावनाएं नजर आयी थीं. सीरियल का कांसेप्ट काफी दमदार है और आज भी मेरा मानना है कि इसमें दर्शकों को जोड़ने का दम है. लेकिन पिछले कुछ माह से मेरा किरदार उस ढंग से विकसित नहीं हो रहा था, जिस ढंग से मैने कल्पना की थी. मैं रचनात्मक को लेकर कोई दोषारोपण नहीं करना चाहता. पर पूरे सम्मान के साथ कहना चाहूंगा कि मैंने जेसा सोचा था, उस तरह से शंभू का किरदार विकसित नहीं हो रहा था. इसलिए मैने इससे खुद को अलग करने का निर्णय लिया.

ऐसा काम करने का कोई मतलब नहीं होता, जिसे करने के लिए आपका दिल गवाही न दे रहा हो. लेकिन, इसमें अभिनय करने का मेरा अनुभव अच्छा रहा.’’

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सीरियल ‘‘नथः जेवर या जंजीर’’ के सेट पर मीडिया के संग अर्जित तनेजा कई बार मीडिया के साथ बदतमीजी से पेश आए, मगर अर्जित ने अब इस सीरियल को छोड़ने की जो वजह बतायी है, उसमें सच्चाई जरुर है. सीरियल का कांसेप्ट देश के कुछ हिस्से में चली आ रही ‘‘नथ उतराई’’ की कुप्रथा के समूल नाश के लिए इस कुप्रथा के प्रति जागरूकता लाना है.

भटकी शो की कहानी…

जब इस शो का प्रसारण शुरू हुआ था, तब इसका स्वागत किया गया था और यह बात उभरकर आयी थी कि ‘दंगल टीवी’  सामाजिक मुद्दों पर सीरियल परोस रहा है. मगर बहुत जल्द वह भटक गए और सीरियल में ‘नथ उतराई’ प्रथा के नाम पर वही घिसा पिटा पारिवारिक ड्रामा परोसा जाने लगा.

दो बहने एक दूसरे के मात देने पर आमादा है. औरतें साजिश रच रही हैं. हत्याएं होने लगी. मृत इंसान कुछ समय बाद परिवार में जिंदा वापस आने लगा. वगैरह वगैरह.. एक ही इंसान को कई शादिया करते दिखाया गया. मगर कहानी में इतनी अधिक नाटकीयता है कि यह सीरियल ‘दंगल’ टीवी का नंबर वन सीरियल बना हुआ है.

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सेट पर सही नहीं अर्जित का बर्ताव…

लोकप्रियता में ‘दंगल’ टीवी के कई सीरियल इससे पीछे हैं,जिनके चलते कुछ बंद भी किए गए. तो वही कटु सतय यह भी है कि बतौर अभिनेता अर्जित तनेजा का सेट पर व्यवहार सही नहीं रहा. उनके अंदर विनम्रता का घोर अभाव है, जबकि हर कलाकार के अंदर विनम्रता अवश्य होनी चाहिए.

सेट पर मौजूद लोगों की बात माने तो अर्जित की वजह से सेट पर सदैव तनाव का माहौल बना रहता है. हालात यह है कि सेट पर सीन को अपने हिसाब से अर्जित मोड़ देते हैं और निर्देशक भी उनकी हां में हां मिलाते रहते है. लगभग ढाई माह पहले जब ‘नथ:जेवर या जंजीर’ के सौ एपीसोड पूरे हुए थे, तब सेट पर केक कटिंग समारोह आयोजित किया गया था, जिसकी कवरेज के लिए पत्रकारों और प्रेस फोटोग्राफरों को भी बुलाया गया था.

तब अर्जित की वजह से मीडिया को पूरे चार घंटे इंतजार करना पड़ा था. इसके बावजूद अर्जित ने प्रेस फोटोग्राफरों को केक कटिंग की तस्वीर खींचने से मना करने के साथ ही बदतमीजी के साथ अर्जित तनेजा ने कहा था -‘‘केक खाइए और यहां से जाइए.’’

मजेदार बात यह है कि अर्जित तनेजा के इस व्यवहार पर निर्देशक के साथ ही सेट पर मौजूद वरिष्ठ कलाकार मूक दर्शक बने रहे थे. अब जब अर्जित ने सीरियल को अलविदा कह दिया है, तो देखना है कि ‘दंगल’ टीवी या सीरियल के निर्देशक क्या कहते हैं. फिलहाल सभी चुप हैं.

खेती में लाभकारी जैविक उर्वरक

हमारे यहां खेती में रासायनिक खादों के लगातार व अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन व वातावरण पर बुरा असर पड़ रहा है. मिट्टी की उपजाऊ ताकत घटती जा रही है. साथ ही, पोषक तत्त्वों की कमी को पूरा करने के लिए व रासायनिक खादों के बुरे असर को कम करने के लिए जैविक उर्वरकों के प्रयोग से इस प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

वैज्ञानिकों की राय है कि खेत पर उपलब्ध सभी तरह के पदार्थ जैसे कि गोबर की खाद, केंचुए की खाद, हरी खाद व जैविक खाद का इस्तेमाल करें और रासायनिक खादों पर निर्भरता कम करें. जैविक उर्वरकों का प्रयोग रासायनिक खादों के साथ पूरक के रूप में करें.

जैव उर्वरक सूक्ष्म जीवाणुयुक्त टीका है, जिस के इस्तेमाल से खेती में अच्छी पैदावार मिलती है.

किसान राईजोबियम

किसान राईजोबियम जैविक उर्वरक मुख्य रूप से सभी दलहनी व तिलहनी फसलों में सहजीवी के रूप में रह कर पौधों को नाइट्रोजन की पूर्ति करता है.

किसान राईजोबियम को बीजों के साथ मिश्रित करने के बाद बो देने पर, जीवाणु जड़ों में प्रवेश कर के छोटीछोटी गांठें बना लेते हैं. इन गांठों में जीवाणु बहुत ज्यादा मात्रा में रहते हुए प्राकृतिक नाइट्रोजन को वायुमंडल से ग्रहण कर के पोषक तत्त्वों में बदल कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं. पौधे की जड़ों में जितनी अधिक गांठें होती हैं, पौधा उतना ही सेहतमंद होता है. इस का इस्तेमाल दलहनी व तिलहनी फसलों जैसे अरहर, चना, मूंग, उड़द, मटर, मसूर, सोयाबीन, मूंगफली, सेम इत्यादि में किया जाता है.

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किसान एजोटोबैक्टर

किसान एजोटोबैक्टर भूमि व जड़ों की सतह में मुक्त रूप से रहते हुए वायुमंडलीय नाइट्रोजन को पोषक तत्त्वों में बदल कर पौधों को उपलब्ध कराता है. किसान एजोटोबैक्टर सभी गैरदलहनी फसलों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

किसान पीएसबी (फास्फोरस विलयक जीवाणु)

किसान पीएसबी भूमि के अंदर की अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील फास्फोरस में बदल कर पौधों को उपलब्ध कराता है. किसान पीएसबी का इस्तेमाल सभी फसलों में किया जा सकता है. यह फास्फोरस की कमी को पूरा करता है.

जिंक विलयक जीवाणु (जैडएसबी)

जैडएसबी मृदा में उपस्थित जिंक को पौधों को उपलब्ध कराने में मदद करता है, जिस से अनाज में जिंक की गुणवत्ता बढ़ती है.

जैडएसबी 6.5 से 8.5 पीएच मान वाली विभिन्न प्रकार की मिट्टी के लिए सही है.

जिंक औक्साइड, जिंक फास्फेट और जिंक कार्बोनेट जैसे विभिन्न स्रोतों के लिए जिंक को घोल देता है.

इस का इस्तेमाल अनाज, मोटे अनाज, दालें, सब्जियां, फाइबर और तिलहन की फसलों में किया जा सकता है.

एसीटोबैक्टर

एजोटोवैक्टर की तरह इन्हें भी गैरदलहनी फसलों का असहजीवी सूक्ष्मजीव कहते हैं. यह जीवाणु बहुत ज्यादा अम्लीय दशाओं में भलीभांति काम कर सकता है. गन्ने की फसल में इस का इस्तेमाल बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इस के इस्तेमाल से शर्करा की वृद्धि होती है.

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नीलहरित शैवाल (ब्ल्यू ग्रीन अलगल बीजीए) :

ये गैरदलहनी फसलों के असहजीवी सूक्ष्मजीव होते हैं. ये मृदा में स्वतंत्र रूप से रहने वाले जीवाणु होते हैं, जो अपना भोजन खुद बनाते हैं.

इतना ही नहीं, ये जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने के अतिरिक्त विटामिन व वृद्धिकारक हार्मोन भी स्रवित करते हैं. धान के खेतों में इस का इस्तेमाल बहुत ही लाभकारी होता है.

अजोला

यह एक तैरने वाला जलीय फर्न है, जो नील हरित शैवालों की पत्तियों के छिद्र में रह कर नाइट्रोजन का योगीकरण करता है.

अजोला के इस्तेमाल से ज्यादा मात्रा में जीव पदार्थ (क्चद्बशद्वशह्य) उत्पन्न होते हैं, जो मृदा संरचना में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं. पानी की उचित व्यवस्था होने पर इस का प्रयोग हरी खाद के रूप में किया जा सकता है.

माइकोराईजा

सूक्ष्मजीवी एक फंजाई वर्ग में आता है, जो पौधे की जड़ों के साथ संबंध बना कर फास्फोरस अवशोषण में मदद करते हैं, इसलिए इन्हें फास्फेट अवशोषक जैव उर्वरक भी कहा जाता है.

माइकोराईजा पौधे के बाहरी जड़ तंत्र का विकास करने में सहायक है. इस से पौधों को मृदा में उपस्थित अनेक तरह के पोषक तत्त्व ग्रहण करने में मदद मिलती है. पौधों को रोगग्रस्त होने से बचाता है. पौधों का अच्छा विकास होता है.

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जैविक उर्वरकों के इस्तेमाल में सावधानियां

* जैव उर्वरक को छाया में सूखे स्थान में रखें.

* फसल के अनुसार ही जैव उर्वरक का चुनाव करें.

* जैव उर्वरक का उचित मात्रा में इस्तेमाल करें.

* जैव उर्वरक खरीदते समय उर्वरक का नाम, बनाने की तारीख व फसल का नाम आदि ध्यान से देख लें.

* जैव उर्वरक का इस्तेमाल समाप्ति की तारीख के बाद न करें.

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