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गरमी में भिंडी की खेती

राइटर- प्रो. रवि प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक

भिंडी की खेती गरमी और खरीफ दोनों मौसम में की जाती है, लेकिन सिंचाई सुविधा होने पर गरमी में खेती करना ज्यादा लाभकारी होगा. भिंडी के हरे, मुलायम फलों का प्रयोग सब्जी, सूप फ्राई व अन्य रूपों में किया जाता है, जो कैंसर, डायबिटीज, एनीमिया और पाचन तंत्र के लिए लाभदायक है.

पौधे का तना व जड़, गुड़ और खांड़ बनाते समय रस साफ करने में इस का प्रयोग किया जाता है.

भिंडी ग्रीष्म और वर्षा दोनों मौसम में उगाई जाती है. इस के लिए पर्याप्त जीवांश और उचित जल निकास वाली दोमट भूमि सही रहती है. खेत की तैयारी के समय 3 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद प्रति कट्ठा (एक हेक्टेयर का 80वां भाग यानी 125 वर्गमीटर के हिसाब से)े बोआई के 15-20 दिन पहले खेत में मिला देना चाहिए. मिट्टी जांच के उपरांत ही उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए.

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गरमी में भिंडी की फसल लेने के लिए फरवरी से मार्च महीने तक और खरीफ की फसल लेने के लिए जून से 15 जुलाई तक बोआई की जाती है.

बोआई से पहले बीजों को पानी में 12 घंटे भिगो कर बोना ज्यादा लाभप्रद है. गरमी में 250 ग्राम और वर्षा में 150 ग्राम बीज प्रति बिस्वा/ कट्ठा में जरूरत पड़ती है.

समतल क्यारियों में गरमी में कतारों से कतारों की आपसी दूरी 30 सैंटीमीटर और पौधों से पौधों की दूरी 15-20 सैंटीमीटर और  वर्षा में 45-50 सैंटीमीटर कतार से कतार और पौधे से पौधे की दूरी 30 सैंटीमीटर पर रखनी चाहिए.

2 सैंटीमीटर की गहराई पर यह बोनी चाहिए.

भिंडी की किस्मों में काशी सातधारी, काशी क्रांति, काशी विभूति, काशी प्रगति, अर्का अनामिका, काशी लालिमा आदि प्रमुख हैं, जो सभी 40-45 दिन में फल देने लगती हैं. खरीफ की फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, पर वर्षा न होने पर सिंचाई जरूर करें.

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गरमी में सप्ताह में एक बार सिंचाई करने की आवश्यकता होती है. खेत में सदैव नमी बनी रहनी चाहिए. देर से सिंचाई करने पर फल जल्दी सख्त हो जाते हैं और पौधे व फल की बढ़वार कम होती है.

खरपतवार को नष्ट करने के लिए गुड़ाई जरूर करें. कीट व रोगों का भी ध्यान रखें. उन्नत तकनीक का खेती में समावेश करने पर प्रति कट्ठा (एक हेक्टेयर का 80 वां भाग) 120-150 किलोग्राम तक उपज हासिल कर सकते हैं.

पहल: शीला ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए क्या किया?

धनबाद बर्दवान के बीच चलने वाली लोकल ईएमयू टे्रनों की सवारियों को दूर से ही पहचाना जा सकता है. इन रेलगाडि़यों में रोज अपडाउन करते हैं ग्रामीण मजदूर, सरकारी व निजी संस्थानों में लगे चतुर्थ श्रेणी के बाबू, किरानी, छोटीछोटी गुमटियों वाले व्यवसायी, यायावर हौकर्स और स्कूलकालेजों के छात्रछात्राएं. उस रोज दोपहर का वक्त था. लोकल टे्रन में भीड़ न थी. यात्रियों की भनभनाहट, इंजनों की चीखपुकार और वैंडरों की चिल्लपों का लयबद्ध संगीत पूरे वातावरण में रसायन की तरह फैला हुआ था. आमनेसामने वाली बर्थों पर कुछ लोग बैठे थे. उन में एक नेताजी भी थे. अभी ट्रेन छूटने में कुछ समय बाकी था कि  एक भरीपूरी नवयुवती सीट तलाशती हुई आई. कसा बदन, धूसर गेहुआं रंग, तनिक चपटी नाक. हाथ में पतली सी फाइल. उस की चाल में आत्मविश्वास की तासीर तो थी पर शहरी लड़कियों सा बिंदासपन नहीं था. एक किस्म का मर्यादित संकोच झलक रहा था चेहरे से और यही बात उस के आकर्षण को बढ़ा रही थी.

उसे देखते ही नेताजी हुलस कर तुरंत ऐक्शन में आ गए. गांधी टोपी को आगेपीछे सरका कर सेट किया और खिड़की के पास जगह बनाते हुए हिनहिनाए, ‘‘अरे, यहां आओ न बेटी. खिड़की के पास हवा मिलेगी.’’

युवती एक क्षण को ठिठकी, फिर आगे बढ़ कर नेताजी के बगल में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गई.

सामने की बर्थ पर बैठे प्रोफैसर सान्याल का मन ईर्ष्या से सुलग उठा. थोड़ी देर तक तो वे चोर नजरों से लड़की के मासूम सौंदर्य को निहारते रहे. फिर नहीं रहा गया तो युवती से बातों का सूत्र जोड़ने की जुगत में बोल उठे, ‘‘कालेज से आ रही हैं न?’’

‘‘जी हां, नया ऐडमिशन लिया है,’’ युवती हौले से मुसकराई तो प्रोफैसर  निहाल हो गए.

फिर बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘‘मुझे पहचान रही हैं? मैं प्रोफैसर शुभंकर सान्याल. नारी सशक्तीकरण व स्वतंत्रता पर मेरे आलेख ने शिक्षा जगत में धूम मचा रखी है. आप ने देखा है आलेख?’’

‘‘न,’’ युवती के इनकार में सिर हिलाते ही प्रोफैसर को कसक का एहसास हुआ. शिक्षा जगत की इतनी महत्त्वपूर्ण घटना से युवती वाकिफ नहीं, प्रोफैसर के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आईं.

नेताजी ने जब देखा कि लड़की प्रोफैसर की ओर ही उन्मुख बनी हुई है तो क्षुब्ध हो उठे और उस का ध्यान आकृष्ट करने के लिए बोल पड़े, ‘‘अरे बेटी, आराम से बैठो न. कोई तकलीफ तो नहीं हो रही है?’’ फिर जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर लड़की को देते हुए उस की उंगलियों को थाम लिया, ‘‘हमरा कार्डवा रख लो. धनबाद क्षेत्र के भावी विधायक हैं हम. अगला चुनाव में उम्मीदवार घोषित हो चुके हैं, बूझी? बर्दवान से ले कर धनबाद तक का हर थाना में हमरा रुतबा चलता है. कभी कोई कठिनाई आए तो याद कर लेना.’’

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युवती की उंगलियां नेताजी के हाथों में थीं. असमंजस से भर कर उस ने झट से हाथ नीचे कर लिया. प्रोफैसर की नजरों से नेताजी की चालाकी छिपी न रह सकी. शर्ट के तले उन की धुकधुकी भी रोमांच से भरतनाट्यम् करने लगी. आननफानन अटैची खोल कर आलेख की जेरौक्स प्रति निकाली और युवती को थमाते हुए उस की पूरी हथेली को अपनी हथेलियों में भर लिया, ‘‘इस आलेख में आप जैसी युवतियों की समस्याओं का ही तो जिक्र किया है मैं ने. नारी स्वावलंबी बने, घर की चारदीवारी से मुक्त हो कर खुले में सांस ले, समाज के रचनात्मक कार्यों से जुड़े. जोखिम तो पगपग पर आएंगे ही. जोखिम से आप युवतियों की रक्षा समाज करेगा. समाज यानी हम सब. यानी मैं, ये नेताजी, ये भाईसाहब, ये… और ये…’’

प्रोफैसर अपनी धुन में पास बैठे यात्रियों की ओर बारीबारी से संकेत कर ही रहे थे कि नजरें घोर आश्चर्य से सराबोर हो कर पास बैठी शकीला पर जा टिकीं.

सांवला रंग, काजल की गहरी रेखा. लगातार पान चबाने से कत्थई हुए होंठ. पाउडर की अलसायी परत. कंधे से झूलती पुरानी ढोलक. अरे, भद्र लोगों की जमात में यह नमूना कहां से घुस आया भाई. अभी तक किसी की नजरें गईं कैसे नहीं इस अजूबे पर.

प्रोफैसर की नजरों की डोर थाम कर अन्य यात्री भी शकीला की ओर देखने लगे.

‘‘तू इस डब्बे में कैसे घुस आई रे?’’ प्रोफैसर फनफना उठे. इसी बीच उस युवती ने कसमसा कर अपनी हथेली प्रोफैसर के पंजे से छुड़ा ली.

‘‘हिजड़े न तीन में होते हैं न तेरह में, हुजूर. सभी जगह बैठने की छूट मिली हुई है इन्हें,’’ पास बैठे पंडितजी ने टिप्पणी की तो जोर का ठहाका फूट पड़ा.

‘‘ऐ जी,’’ शकीला विचलित और उत्तेजित हुए बिना चिरपरिचित अदा से ताली ठोंकती हुई हंस पड़ी, ‘‘अब हम हिजड़ा नहीं, किन्नर कहे जाते हैं, हां.’’

‘‘किन्नर कहे जाने से जात बदल जाएगी, रे?’’ नेताजी ने हथेली पर खैनी रखते हुए व्यंग्य कसा.

‘‘जात न सही, रुतबा तो बदला ही है,’’ शकीला का चेहरा एक अजीब सी ठसक से चमक उठा.

‘‘असल में जब से तुम लोगों की मौसियां विधायक बनी हैं, दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ कर नाचने लगा है, हंह,’’ नेताजी के भीतर एक तीव्र कचोट फुफकारने लगी. उन्हें राजनीति के अखाड़े में कूदे 25 साल हो गए थे. क्याक्या सपने देखे थे. विधायक का गुलीवर कद, लालबत्ती वाली कार, स्पैशल सुरक्षा गार्ड, भीड़ की जयजयकार. पर हाय, 3-3 बार प्रयास के बावजूद विधानसभा तो दूर, स्थानीय नगरनिगम का चुनाव तक नहीं जीत पाए और ये नचनिया सब विधायक बनने लगे. हाय रे विधाता.

‘‘बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप,’’ प्रोफैसर के लहजे में क्षोभ घुला हुआ था, ‘‘क्या होता जा रहा है इस देश की जनता को? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का क्या गौरवपूर्ण समरसता का इतिहास रहा है हमारा. पहले राजा प्रताप, शिवाजी, भामाशाह, कौटिल्य आदि. उस के बाद गांधी, नेहरू, अंबेडकर, शास्त्री वगैरह. देश पूरी तरह सुरक्षित था इन के हाथों में. पर अब जनता की सनक तो देखिए, हिजड़ों के हाथों में शासन की लगाम देने लगी है.’’

‘‘अब छोडि़ए भी ये बातें,’’ शकीला खीखी कर के हंसी. शकीला के वक्ष से छींटदार नायलोन की पारदर्शी साड़ी का आंचल ढलक गया था.

बातों का सिलसिला अभी चल ही रहा था कि टे्रन की सीटी की कर्कश आवाज फिजा में गूंज गई. फिर टे्रन के चक्कों ने गंतव्य की ओर लुढ़कना शुरू कर दिया. ठीक उसी समय 3 युवक भी डब्बे में चढ़ आए. कसीकसी जींस, अजीबोगरीब स्लोगन अंकित टीशर्ट, हाथों में एकाध कौपी या फाइल. एकदूसरे को धकियाते, हल्ला मचाते तीनों डब्बे के उसी हिस्से में आ गए जहां प्रोफैसर और नेताजी बैठे हुए थे. युवती पर नजर जाते ही उन के पांव थम गए और बाछें खिल गईं.

‘‘अतुल, क्यों न यहीं बैठा जाए?’’ पिंटू चहक उठा. फिर युवती से मुखातिब हो कर पूछ बैठा, ‘‘हैलो, आप स्टुडैंट हैं न? किस कालेज में हैं?’’

सवाल इतने आकस्मिक रूप में आया था कि युवती को सोचने का तनिक भी मौका नहीं मिला और वह हड़बड़ा कर बोली, ‘‘जी हां, बीसी कालेज में फर्स्ट ईयर साइंस की स्टुडैंट.’’

‘‘ओह, वंडरफुल,’’ यादव ने उड़ती नजरों से बैठे हुए लोगों का मुआयना किया, ‘‘ई बुढ़वन सब देश का कबाड़ा कर के छोड़ेंगे. हर जगह पर, चाहे सत्ता हो या साहित्य, ई लोग कुंडली मार कर बैठ गए हैं और हिलने का नाम ही नहीं ले रहे, हंह.’’

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‘‘भाईसाहब, आप का परिचय?’’ अतुल प्रोफैसर से संबोधित था.

प्रोफैसर भड़क उठे, ‘‘आप छात्र हैं न? मुझे नहीं पहचान रहे? मैं प्रोफैसर शुभंकर सान्याल. नारी सशक्तीकरण पर उसी परचे का प्रख्यात लेखक जिस की चर्चा आज हर बुद्धिजीवी और हर छात्र की जबान पर है.’’

‘‘प्रोफैसर हैं? चलिए, एगो पहेली बुझिए तो…’’ पिंटू बोली बदलबदल कर बोलने में माहिर था, खालिस बिहारी अंदाज में प्रोफैसर की ओर मुंह कर के हुंकार भर उठा, ‘‘एगो है जो रोटी बेलता है, दूसरा एगो है जो रोटी खाता है. एगो तीसरा अऊर है ससुर जो न बेलता है, न खाता है, बल्कि रोटी से कबड्डी खेलता है. ई तीसरका को कोई भी नय जानत. हमारी संसद भी नहीं. आप जानत हैं?’’

प्रोफैसर चुप. अन्य यात्रीगण भी चुप. युवती मन ही मन खुश हुई. प्रश्न क्लासरूम में किया गया होता तो वह हाथ अवश्य उठा देती. यादव दोनों ओर की बर्थ के भीतर तक चला आया और खिड़की की ओर इशारा कर के प्रोफैसर से बोला, ‘‘यहां बैठने दीजिए तो.’’

प्रोफैसर इन लोगों के व्यंग्य से खिन्न तो थे ही, चीखते हुए फट पड़े, ‘‘कपार पर बैठोगे? जगह दिख रही है कहीं? और ये बोली कैसी है?’’

यादव ने लैक्चर खत्म होने का इंतजार नहीं किया. वह प्रोफैसर को ठेलठाल कर ऐन युवती के सामने बैठ ही गया.

पिंटू बोली में ‘खंडाला’ स्टाइल का बघार डालते हुए नेताजी की ओर मुड़ा, ‘‘ऐ, क्या बोलता तू? बड़े भाई को यहां बैठने को मांगता, क्या? बोले तो थोड़ा सरकने को,’’ पिंटू की आवाज में कड़क ही ऐसी थी कि नेताजी अंदर ही अंदर सकपका गए. लेकिन फिर सोचा, इस तरह भय खाने से काम नहीं चलेगा. यही तो मौका है युवती पर रौब गांठने का.

‘‘तुम सब स्टुडैंट हो या मवाली? जानते हो हम कौन हैं? धनबाद विधानसभा क्षेत्र के भावी विधायक. विधायक से इसी तरह बतियाया जाता है?’’

‘‘विधायक हो या एमपी, स्टुडैंट फर्स्ट,’’ अतुल के बदन पर कपड़े नए स्टाइल के थे. कीमती भी. संपन्नता के रौब से चमचमा रहा था चेहरा. पिंटू ने उसे ‘बडे़ भाई’ का संबोधन यों ही नहीं दिया था. वह इन दोनों का नायक था. अतुल ने आगे बढ़ कर नेताजी की बगलों में हाथ डाला और उन्हें खींच कर खड़ा करते हुए खाली जगह पर धम्म से बैठ गया. नेताजी ‘अरे अरे’ करते ही रह गए. अंदर ही अंदर सभी लोग आतंकित हो उठे थे. ये लड़के ढीठ ही नहीं बदतमीज व उच्छृंखल भी हैं. इन से पंगा लेना बेकार है. शकीला स्वयं ही अपनी सीट से खड़ी हो गई और पिंटू से बोली, ‘‘अरे भाई, प्यार से बोलने का था न कि हम कालेज वाले एकसाथ बैठेंगे. आप यहां बैठो, मैं उधर बैठ जाती.’’

फिर जैसे सबकुछ सामान्य हो गया. तीनों युवती के इर्दगिर्द बैठने में सफल हो गए. गाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ती रही.

‘‘आप का नाम जान सकते हैं? कहां रहती हैं आप?’’ थोड़ी देर बाद अतुल ने युवती को भरपूर नजरों से निहारते हुए सवाल किया. उस का लहजा विनम्रता की चाशनी से सराबोर था.

‘‘जी शीला मुर्मू. काशीपुर डंगाल में रहती हूं. धनबाद से 60 किलोमीटर दूर.’’

‘‘वाह,’’ तीनों लड़के चौंक पड़े.

‘‘कोई उपाय भी तो नहीं. हमारे कसबे में इंटर तक की ही पढ़ाई है.’’

‘‘बहुत खूब. मोगैम्बो खुश हुआ,’’ पिंटू ने नई बोली का नमूना पेश किया.

एक क्षण का मौन.

‘‘जाहिर है, कोई पसंदीदा सपना भी जरूर होगा ही?’’ अतुल उस की आंखों में भीतर तक झांक रहा था, ‘‘ऐसा सपना जो अकसर रात की नींदों में आ कर परेशान करता रहता हो.’’

‘‘बेशक है न,’’ मजाक में पूछे प्रश्न का शीला ने सीधा और सच्चा जवाब दे दिया, ‘‘परिस्थितियों ने साथ दिया तो… तो डाक्टर बनूं.’’

‘‘ऐक्सीलैंट,’’ शीला के उत्तर पर तीनों ने एकदूसरे की ओर देखा. इस देखने में व्यंग्य का पुट घुला था, यह मुंह और मसूर की दाल. फिर तीनों के ठहाके फूट उठे.

फिर कुछ क्षणों का मौन.

तीनों ने देखा, शीला स्मृतियों की धुंध में खोई बाहर के दृश्यों को देख रही है. तीनों की नजरें परस्पर गुंथ गईं. आंखों ही आंखों में मौन संकेत हुए. फिर आननफानन एक मादक गुदगुदा देने वाली योजना की रूपरेखा तीनों के जेहन में आकृति लेने लगी.

‘‘कहां खो गईं आप?’’

‘‘जी?’’ शीला हौले से मुसकरा दी.

‘‘आज पहला दिन था. रैगिंग तो हुई होगी?’’ अतुल ने प्रश्न किया तो शीला एक पल के लिए सकपका गई. दिमाग में आज हुई रैगिंग का एकएक कोलाज मेढक की तरह फुदकने लगा. 3 सीनियरों का उसे घेर कर द्वितीय तल के एक क्लासरूम में ले जाना फिर ऊलजलूल द्विअर्थी यक्ष प्रश्नों का सिलसिला. शीला मन ही मन घबरा रही थी. पर रैगिंग का स्तर खूब नीचे नहीं उतरा था और तीनों छात्र मर्यादा के भीतर ही रहे थे.

‘‘आप न भी बताएंगी तो भी अनुमान लगाना कठिन नहीं कि रैगिंग के नाम पर बेहद घटिया हरकत की गई होगी आप के साथ,’’ अतुल फुफकारा, ‘‘बीसी कालेज के छात्रों को हम अच्छी तरह जानते हैं. इस शहर के सब से ज्यादा बदतमीज और लफंगे छात्र, हंह.’’

शीला मौन रही. क्या कहती भला?

‘‘एकदम ठीक बोल रहा दादा,’’ पिंटू इस बार अपने लहजे में बंगाली टोन का छौंक डालते हुए हिनहिनाया, ‘‘माइरी, अइसा अभद्रो व्यवहार से ही तो हमारा छात्र समुदाय बदनाम हो रहा. इस बदनामी को साफ करने का एक उपाय है, दोस्तो,’’ इसी बीच मादक योजना की रूपरेखा मुकम्मल आकार ले चुकी थी, ‘‘क्यों न हम इस नए दोस्त को नए प्रवेश की मुबारकबाद देने के लिए छोटी सी पार्टी दे दें?’’

‘‘गजब, क्या लाजवाब आइडिया है, अतुल,’’ यादव समर्थन में चहक उठा, ‘‘मुबारकबाद का मुबारकबाद और बदनामी का परिमार्जन भी.’’

‘‘पर बड़े भाई, पार्टी होगी कहां और कब?’’

‘‘पार्टी आज ही होगी यार और अभी कुछ देर बाद,’’ अतुल हंसा. दरअसल, योजना बनी ही इतनी मादक थी कि भीतर का रोमांच लहजे के संग बह कर बाहर टपकना चाह रहा था, ‘‘अगले स्टेशन पर हम उतर जाएंगे. स्टेशन के पास ही बढि़या होटल है, ‘होटल शहनाई.’ वहीं पार्टी दे देंगे. ओके.’’

शीला अतुल के अजूबे और अप्रासंगिक प्रस्ताव पर चकित रह गई. किसी अन्य कालेज के अपरिचित छात्र. अचानक इतनी उदारता.

‘‘नो, नो, थैंक्स मित्रो, मेरे सीनियर्स ने वैसा कुछ भी नहीं किया है अभद्र, जैसा आप सब समझ रहे हैं.’’

‘‘चलिए ठीक है. माना कि आप के सीनियर्स शरीफ हैं पर पार्टी तो हमारी ओर से तोहफा होगी आप को. परिचय और अंतरंगता इसी तरह तो बनती है. हम छात्र किसी भी कालेज के हों, हैं तो एक ही बिरादरी के.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं. अब तो मिलना होता ही रहेगा न. पार्टी फिर कभी,’’ शीला ने दृढ़ता से इनकार कर दिया.

‘‘उफ, 12 बजे हैं अभी. 3:25 बजे की लोकल पकड़वा देंगे. देर नहीं होगी.’’

‘‘सौरी…मैं ने कहा न, मैं पार्टी स्वीकार नहीं कर सकती,’’ शीला ने चेहरा खिड़की की ओर फेर लिया.

कुछ क्षणों का बेचैनी भरा मौन.

‘‘इधर देखिए दोस्त,’’ अतुल की तर्जनी शीला की ठोढ़ी तक जा पहुंची, ‘‘जब मैं ने कह दिया कि पार्टी होगी, तो फिर पार्टी होगी ही. हम अगले स्टेशन पर उतर रहे हैं.’’

अतुल के लहजे में छिपी धमकी की तासीर से शीला भीतर तक कांप उठी.

‘‘आखिर हम भी तो आप के सीनियर्स ही हुए न,’’ तीनों बोले.

शीला ने डब्बे में बैठे यात्रियों का सिंहावलोकन किया. लगभग सभी यात्री अवाक् और हतप्रभ थे. किसी ने सोचा भी न था कि ऊंट इस तरह करवट ले बैठेगा.

‘‘अरे भैया, लड़की का पार्टी के लिए मन नहीं है तो काहे जबरदस्ती कर रहे ससुर?’’ नेताजी ने बीचबचाव की पहल की तो पिंटू तुनक कर खड़ा हो गया, ‘‘ओ बादशाहो, तुसी वड्डे मजाकिया हो जी. त्वाडे दिल विच्च इस कुड़ी के लिए एन्नी हमदर्दी क्यों फड़फड़ा रेहंदी है, अयं?’’

नेताजी की ओर कड़ी दृष्टि से देखते हुए अतुल शीला से मुखातिब हो कर बोला, ‘‘आइए, गेट के पास चलते हैं.’’

‘‘नहींनहीं, मैं नहीं जाऊंगी,’’ शीला की आंखों में भय उतर आया, ‘‘प्लीज…’’

‘‘अब नखरे मत दिखा,’’ यादव और अतुल भी खडे़ हो गए. यादव ने शीला की कलाई थाम ली तो शीला ने झटके से छुड़ाते हुए विनम्र भाव से कहा, ‘‘प्लीज, छोड़ दें मुझे. पार्टी फिर कभी,’’ फिर सहायता के लिए प्रोफैसर से गुहार लगाते हुए चीख पड़ी, ‘‘देखिए न, सर…’’

‘‘आप लोग छात्र हैं या आतंकवादी, अयं? इस तरह जबरदस्ती नहीं कर सकते,’’ प्रतिरोध करने की उत्तेजना में प्रोफैसर सीट से खड़े हो गए.

‘‘शटअप,’’ यादव ने चीखते हुए प्रोफैसर को इतनी जोर से धक्का दिया कि वे लड़खड़ाते हुए धप्प से सीट पर लुढ़क गए.

तभी जीआरपी के 2 जवान गश्त लगाते हुए उधर से गुजरे. शीला को जैसे नई जान मिल गई हो, वह चीख पड़ी, ‘जीआरपी अंकल.’

शिवानंद के आगे बढ़ते कदम ठिठक गए. पीछे मुड़ कर बर्थ के भीतर तक झांका तो दृष्टि सब से पहले अतुल से टकराई. वे खिल उठे, ‘‘अरे, अतुल बाबू, आप? नत्थूराम, ई अतुल बाबू हैं, आईजी रेल, तिवाड़ी साहब के सुपुत्र.’’

‘‘अंकल, आप इस टे्रन में?’’ अतुल शिवानंद से हाथ मिलाते हुए मुसकराया.

‘‘जनता को भी न सरकार और पुलिस विभाग को बदनाम करने में बड़ा मजा मिलता है एकरा माय के. शिकायत किहिस है जे टे्रन में लूटडकैती, छेड़छाड़, किडनैपिंग बढ़ रहा है. बस… आ गया ऊपर से और्डर लोकलवा सब में गश्त लगाने का, हंह. लेकिन अभी तक एक्को केस ऐसा नय मिल सका है.’’

‘‘जनता की बात छोडि़ए,’’ अतुल ने लापरवाही से कंधे झटके. शिवानंद ने युवती की ओर देख कर संकेत से पूछा, ‘‘ई आप के साथ हैं?’’

‘‘जी हां, क्लासफ्रैंड हैं हमारी,’’ अतुल मुसकराया तो शीला का मन हुआ, सारी बात बता दे पर जबान से बोल नहीं फूटे.

‘‘मैडम, अतुल बाबू बड़े सज्जन और सुशील नौजवान हैं. इन की दोस्ती से आप फायदे में ही रहेंगी. अच्छा, अतुल बाबू, सर को हमारा परनाम कहिएगा.’’

शीला की आंखों के आगे सारी स्थिति आईने की तरह साफ हो गई. अतुल आईजी रेल का लड़का है. पावर और पैसा, जब दोनों ही चीजें हों जेब में तो यादव और पिंटू जैसे वफादार चमचे वैसे ही दौड़े आएंगे जैसे गुड़ को देख कर चींटियां. सिपाहियों के जाते ही तीनों एक बार फिर जोरों से हंस पड़े. पिंटू ने आगे बढ़ कर शीला की कलाई थाम ली और खींच कर उसे उठाने का प्रयास करने लगा. शीला की इच्छा हुई, एक झन्नाटेदार तमाचा उस के गाल पर जड़ दे. बड़ी मुश्किल से ही उस ने क्रोध को जज्ब किया. इस तरह रिऐक्ट करने से बात ज्यादा बिगड़ सकती है.

तभी न जाने किस जेब से निकल कर अतुल की हथेली में छोटा सा रिवौल्वर चमक उठा.

‘‘किसी ने भी चूंचपड़ की तो…’’ रिवौल्वर यात्रियों की ओर तानते हुए वह गुर्रा उठा, ‘‘मनीष मिश्रा केस के बारे में तो सुना होगा न?’’

मनीष मिश्रा, वही जिस के तार स्वयं पीएम साहब से जुड़े हुए थे. बदमाशों ने चलती टे्रन से बाहर फेंक दिया था उसे. अपराध? सफर कर रही एक लड़की से छेड़खानी का मुखर विरोध. यात्रियों के बदन भय से कंपकंपाने लगे और रोंगटे खड़े हो गए.

सब से पहले नेताजी उठे, ‘‘थानापुलिस में तो एतना पहचान है कि का कहें ससुर. पर ई छात्र लोग का आपसी मामला न है. पुलिस हस्तक्षेप नहीं कर सकती.’’

फिर प्रोफैसर साहब भी अटैची संभालते हुए उठ खड़े हुए, ‘‘जब इतने प्यार से पार्टी दे रहे हैं ये लोग तो क्या हर्ज है स्वीकारने में? पर घर लौट कर मेरा आलेख पढि़एगा जरूर.’’

धीरेधीरे शकीला के अलावा सभी यात्री डब्बे के दूसरे हिस्सों में चले गए. शकीला वहीं बैठी रही. हिजड़ा होते हुए भी इतना तो समझ चुकी थी कि अकेली लड़की मुसीबत में पड़ गई है. ये लोग इसे जबरदस्ती अगवा करने पर उतारू हैं. पर इस हाल में वह करे भी तो क्या?

‘‘तेरे यार सब तो भाग गए.’’ पिंटू चुटकी बजाते हुए व्यंग्य से बोला, ‘‘तू कौन सा तीर मार लेगी, अयं?’’

‘‘किन्नरों को मामूली न समझियो,’’ शकीला ताली पीटती हुई अदा से खिलखिलाई, ‘‘हमारे 2 किन्नरों ने तो महाभारत का किस्सा ही बदल डाला

था. एक थे शिखंडी महाराज, दूसरे बिरहनला (बृहन्नला).’’

ये नोंकझोंक चल ही रही थी कि तभी उस हिस्से में बूटपौलिश वाला एक लड़का हवा के झौंके की तरह आ पहुंचा. दसेक साल की उम्र. काला स्याह बदन. बाईं कलाई में पौलिश वाला बक्सा झुलाए, दाएं हाथ से ठोस ब्रश को बक्से पर ठकठकाता, ‘‘पौलिश साब.’’

‘‘तू कहां से आ टपका रे? चल फूट यहां से,’’ अतुल ने रिवौल्वर उस की ओर तान दिया. लड़का तनिक भी न घबराया. पूरा माजरा भांपते एक पल भी नहीं लगा उसे. खीखी करता खीसें निपोर बैठा, ‘‘समझा साब, कोई शूटिंग चल रहेला इधर. अपुन डिस्टप नहीं करेगा साब. थोड़ा शूटिंग देखने को मांगता. बिंदास…’’

‘‘इस को रहने दो बड़े भाई,’’ पिंटू ने मसका लगाया, ‘‘तुम लगते ही हीरो जैसे हो.’’

शकीला के रसीले बतरस और पौलिश वाले लड़के के आगमन से तीनों का ध्यान शीला की ओर से कुछ देर के लिए हट गया. शीला के भीतर एक बवंडर जन्म लेने लगा. कैसा हादसा होने जा रहा है यह? इन की नीयत गंदी है, यह तो स्पष्ट हो चुका है, पार्टी के नाम पर अगवा करने की कुत्सित योजना. उफ.

इस तरह की विषम परिस्थितियों में अकेली लड़की के लिए बचाव के क्या विकल्प हो सकते हैं भला? सहायता के लिए ‘बचाओ, बचाओ’ की गुहार लगाने पर सचमुच कोई दौड़ा चला आएगा? डब्बे में बैठे यात्रियों का पलायन तो देख ही रही है वह. फिर? इन निर्मम, नृशंस और संवेदनहीन युवकों के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं. इन के लिए तो हर स्त्री सिर्फ मादा भर ही है. हर रिश्तेनाते से परे. सिर्फ मादा.

शीला सतर्क नजरों से पूरी स्थिति का जायजा लेती है. डब्बे में शकीला और पौलिश वाला लड़का ही रह गए थे. भावावेश में शकीला की ओर देखती है वह. तभी आंखों के आगे धुंध छाने लगती है, ‘अरे, बृहन्नला के भीतर से यह किस की आकृति फूट रही है? अर्जुन, हां, अर्जुन ही हैं जो कह रहे हैं, नारी सशक्तीकरण की सारी बातें पाखंड हैं री. पुरुषवादी समाज नारियों को कभी भी सशक्त नहीं होने देगा. सशक्त होना है तो नारियों को बिना किसी की उंगली थामे स्वयं ही पहल करनी होगी.’

शीला अजीब से रोमांच से सिहर उठती है. नजरें वहां से हट कर पौलिश वाले लड़के पर टिक जाती हैं. पौलिश वाले लड़के का चेहरा भी एक नई आकृति में ढलने लगता है, ‘बचपन में लौटा शम्बूक. होंठों पर आत्मविश्वास भरी निश्छल हंसी, ‘ब्राह्मणवादी, पुरुषवर्चस्ववादी व्यवस्था’ ने नारियों व दलितों को कभी भी सम्मान नहीं दिया. अपने सम्मान की रक्षा के लिए तुम्हारे पास एक ही विकल्प है, पहल. एक बार मजबूत पहल कर लो, पूरा रुख बदल जाएगा.’

शीला असाधारण रूप से शांत हो गई. भीतर का झंझावात थम गया. आसानी से तो हार नहीं मानने वाली वह. मन ही मन एक निर्णय लिया. तीनों युवक शकीला के किसी मादक चुटकुले पर होहो कर के हंस रहे थे कि अचानक जैसे वह पल ठहर गया हो. एकदम स्थिर. शीला ने दाहिनी हथेली को मजबूत मुट्ठी की शक्ल में बांधा और भीतर की सारी ताकत लगा कर मुट्ठी को पास खड़े यादव की दोनों जांघों के संधिस्थल पर दे मारा.

उसी ठहरे हुए स्थिर पल में शकीला के भीतर छिपे अर्जुन ने ढोलक को लंबे रूप में थामा और पूरी शक्ति लगा कर चमड़े के हिस्से वाले भाग से पिंटू के माथे पर इतनी जोर से प्रहार किया कि ढोलक चमड़े को फाड़ती उस की गरदन में फंस गई. और उसी ठहरे हुए स्थिर पल में पौलिश वाले लड़के के भीतर छिपे शंबूक ने दांतों पर दांत जमा कर हाथ के सख्त ब्रश को अतुल की कलाई पर फेंक मारा. इतना सटीक निशाना कि रिवौल्वर छिटक कर न जाने कहां बिला गया और ओहआह करता वह फर्श पर लुढ़क कर तड़पने लगा.

पलक झपकते आसपास के डब्बों से आए यात्रियों की खासी भीड़ जुट गई वहां और लोग तीनों पर लातघूंसे बरसाते हुए फनफना रहे थे, ‘‘हम लोगों के रहते एक मासूम कोमल लड़की से छेड़खानी करने का साहस कैसे हुआ रे?’’

सैक्स को लेकर जातियों को दबाने का काम सदियों से चला आ रहा है!

दिल्ली के जमना पर ईस्ट दिल्ली इलाके में अवैध कही जाने वाली बस्तियों की भरमार है. उत्तर प्रदेश, बिहार ही नहीं देश के लगभग सब जगह मजदूर या गरीब दिल्ली में आ कर अगर कुछ नौकरी वगैरा पा जाते हैं तो झुग्गियों के बाद इन बेहद गंदी, संकरी बस्तियों में रहने आते हैं. ज्यादातर लोग पिछड़ी जातियों के हैं और अपने साथ गांवों से औरतों के साथ छेड़छाड़, रेप, देहव्यापार की आदते  साथ लाते हैं.

हर रोज के अखबार 2-3 रेप की घटनाओं से भरे होते हैं. रेप के आरोपों में कितने दोनों की इच्छा से हुए सैक्स के होते हैं, कितने जबरन कहां नहीं जा सकता. फरवरी के तीसरे सप्ताह में शहरपुर  इलाके में 2 महिलाओं को होटल ले जा कर रेप की शिकायत दर्ज की गई. यह साफ है कि इन औरतों को जबरन होटल तो ले जाया जा नहीं सकता. होटल मनमर्जी से गई पर वहां जब मनचाही बात नहीं बनी तो रेप का मामला बना.

असल में देह की जरूरत को दबाने का जो नकली ओढऩा हम लोग ओढ़े रहते हैं. यह औरतों पर भारी पड़ता है. औरतें और लड़कियां बदन का सुख चाहती हैं पर मामला खुले नहीं, यह डर भी रहता है. अगर समाज उदार हो, बदन की जरूरतों को समझे तो इच्छा से बने संबंधों को रेप का नाम तो नहीं दिया जाएगा.

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रेप का नाम देने पर आदमी या लडक़े की गिरफ्तारी तो हो जाती है. पर लडक़ी भी बदनाम हो जाती है. पुलिस हजार सवाल करती है. पुलिस वाले उसे चालू समझते हैं. बिरादरी में नाक कट जाती है, अगर सैक्स को आम माना जाएगा तो लडक़ा तैयार हो कर आएगा, कंडोम लाएगा, लडक़ी को पिल लेने को कहेगा. किसी साथी के बदन की जो जरूरत होती है वह पूरी होगी पर कोई निशान नहीं छूटेगा.

इन मामलों में न्यूड फोटो भी लिए गए जो जब तक इच्छा न हो सही बन नहीं सकते. इन वीडियो को वायरल किए जाने की धमकी भी बेकार है क्योंकि फिर वीडियों लेने वालों का पकड़ा ही जाएगा.

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असल में सैक्स को ले कर जातियों को दबाने का काम सदियों से चला आ रहा है. ऊंची जातियों के राज महाराज, पुराहित, गुरू नीची जातियों की औरतों और लड़कियों को अपनी जायदाद समझते रहते थे और जब चाहे भोग लेते थे. आज जमाना बदल गया है. सैक्स का हक अब किसी के पास नहीं है, ऊंची जाति के दंबग के पास भी नहीं, अपनी जाति वाले गुंडे के पास भी नहीं. मर्जी हो तो ही खुशीखुशी जो भी जो चाहे करें. इस प्यार का प्यार रहने दें, रेप का नाम न दें.

मेरे पति का नौकरी में मन नहीं लगता, क्या करूं?

सवाल

मेरे पति वैसे तो काफी अच्छे हैं लेकिन उन का नौकरी में बिलकुल मन नहीं लगता. इस कारण परिवार के समक्ष आर्थिक संकट खड़ा हो गया है. परिवार के किसी भी सदस्य की बात उन्हें समझ नहीं आ रही. आप ही बताएं कि कैसे उन्हें सही रास्ता दिखाया जाए?

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जवाब

पति कमाए नहीं तो जिंदगी चलती ही नहीं है. उन के नौकरी न करने से सब बेहाल हो जाएंगे और बिना नौकरी वाले आदमी को न तो घर में इज्जत मिलती है न ही बाहर.ऐसे इंसान के साथ रहने का कोई फायदा नहीं है जो दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर सके. हो सकता है आप का यह सख्त रुख उन्हें सुधरने पर मजबूर कर दे. आप भी खुद को आत्मनिर्भर बनाएं और उन से साफ कह दें कि प्यार एक तरफ है और जिम्मेदारी एक तरफ.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

मधुर मिलन: भाग 5

Writer- रेणु गुप्ता

इस बार दादी की बात पर इनाया सोचमग्न हो गई, कुछ नहीं बोली. अब रिदान  चिल्लाया, “तो दादी, अब पापा और इनाया आंटी की शादी पक्की. इस पर तीनों बच्चे खुशी से झूमते हुए चिल्लाए,  “थ्री चीयर्स टू मम्मा एंड पापा,” और तीनों ने एकदूसरे को हग कर लिया.

दिन बीत रहे थे. लेकिन इनाया के मन में इस विवाह को ले कर जबरदस्त कशमकश चल रही थी.

उस ने कई बार इस  विवाह को ले कर अपनी आशंकाएं जाहिर करने की कोशिश की, लेकिन तीनों बच्चे और तपन के मातापिता उसे कुछ कह पाने का मौका ही न देते.

तपन के मन में भी इस शादी को ले कर बहुत  दुविधाएं थीं, लेकिन इस संबंध  के लिए मातापिता और दोनों बच्चों के बेशर्त समर्थन की वजह से वह  उन से मुक्त हो गया. अलबत्ता, इनाया के मन में इस रिश्ते  को ले कर आखिर तक हिचकिचाहट थी. वह अभी तक अपने मन को इस बंधन के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं कर पाई थी. उसे लग रहा था कि हिंदू समाज उसे अपने समाज में खुले दिल से नहीं अपनाएगा, जिस से उस की मानसिक शांति के साथसाथ उस की बेटी के मन की शांति भी भंग हो सकती है.

उस की यह उलझन भांप कर एक दिन तपन ने उस से एकांत में दोनों के विवाह की चर्चा छेड़ी.

“इनाया, क्या तुम मुझे हस्बैंड के तौर पर  अपनी ज़िंदगी में शामिल करने के लिए पूरे मन से तैयार हो? यह शादी तभी होगी अगर तुम्हें इसे ले कर कोई गंभीर औब्जेक्शन न होगा.”

तपन की इस बात पर वह बोली, “तुम मेरे बेस्ट फ्रैंड हो. मैं निश्चित हूं कि तुम्हारे साथ ज़िंदगी का एकएक लमहा  गुज़ारना मेरे ज़िंदगी को बेहद खूबसूरत बना देगा. डरती हूं तो बस इस दुनिया से और अपने धर्मों के अलग होने से. कहीं इन की वजह से हम दोनों और हमारे बच्चों की ज़िंदगी में जहर न घुल जाए.”

“नहींनहीं इनाया, निश्चिंत रहो. ऐसा कुछ नहीं होगा. मां और पापा हमारे साथ हैं, हमारे बच्चे हमारे साथ हैं, तो हम दोनों को बाकी  फुज़ूल की बातों को ले कर डरने की बिलकुल जरूरत नहीं. मौनी के जाने के बाद बहुत अकेलापन महसूस करने लगा हूं. मेरा हाथ थाम लो, बस. वादा करता हूं, तुम्हें अपने डिसीजन पर पछतावे का  मौका कभी नहीं दूंगा,” यह कहते हुए तपन ने अपना हाथ इनाया की ओर बढ़ाया. नम हो आई आंखों से इनाया ने उस के हाथ में अपना हाथ दे दिया. तपन ने हौले से उस की हथेली चूम ली.

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इनाया की इस मौन स्वीकृति के बाद उन दोनों के विवाह में कोई अड़चन शेष न रही थी. रिदान, रुद्र और  अमायरा ने तपन, इनाया और दादूदादी से सलाह  कर एक रविवार को उन की कोर्टमैरिज तय कर दी.

इधर तीनों बच्चे अपने अपने पेरैट्स के एक नए रिश्ते में बंधने  के ख़याल से बेहद उत्साहित व मगन थे.

दिन बीत रहे थे और आज उन दोनों की कोर्टमैरिज  का बहुप्रतीक्षित दिन आ पहुंचा.

इनाया  और तपन 2 हस्ताक्षरों  के साथ  जन्मजन्म के पवित्र बंधन में बंध गए.

शादी के बाद इनाया के तपन के घर में हमेशा के लिए आ जाने के बाद घर का माहौल बेहद खुशगवार हो चला था.

तपन और इनाया के विवाह को 5-6  माह होने आए, लेकिन इनाया  अभी तक पहले की तरह तपन के  घर के नए बने पोर्शन में रह रही थी और तपन अपने बैडरूम में.

दिन यों ही गुज़रते जा रहे थे कि तभी अमायरा का जन्मदिन पड़ा. रिदान और रुद्र ने उस के जन्मदिन को खास  बनाने के लिए  अमायरा की करीबी  सहेलियों और अपने कौमन दोस्तों के लिए एक बढ़िया पार्टी आयोजित की.

उस के जन्मदिन के फौरन बाद वर्ष 2005 की तरह ईद और दिवाली एक ही सप्ताह में पड़े थे. दोनों पर्वों  के एक ही सप्ताह में पड़ने से दोनों परिवारों की खुशियां  दुगनी हो चली थीं.

इनाया हर वर्ष ईद के दिन शाम को अपने दोस्तों के लिए शानदार पार्टी आयोजित करती थी. तपन ने अपने घर में इनाया की पहली ईद को यादगार बनाने के लिए शाम को अपने घर पर एक जबरदस्त  पार्टी आयोजित की.

ईद वाले दिन तपन, रिदान  और रुद्र तीनों नहाधो कर धवल कुरतेपजामे में सजधज तैयार हो गए. तपन और उस के मातापिता ने इनाया, अमायरा, रिदान और रुद्र सभी को बढ़िया ईदी दी. घरभर में उत्सव की चहलपहल थी.

इनाया तपन  और उस के पूरे परिवार के इस सहयोगपूर्ण और केयरिंग रवैए  से अभिभूत थी.

कदमकदम पर पूरे परिवार का हर सदस्य उसे यह एहसास दिला  रहा था कि वह हर चीज में उस के साथ है और वह उन से कतई अलग नहीं है.

दिन यों ही हंसीखुशी बीत रहे थे. उन सब के जीवन में थोड़ीबहुत कड़वाहट थी तो दोनों तरफ़ के कुछ करीबी रिश्तेदारों की वजह से जो शुरू से इस अंतरधार्मिक विवाह के पूरी तरह से खिलाफ़ थे. कभीकभी इनाया, तपन और तीनों बच्चों के कानों में उन के मातापिता के बड़ी उम्र में विधर्मी से विवाह करने की प्रतिक्रियास्वरूप कटु ताने और व्यंग्यबाण पड़ जाते, लेकिन उन सब के मध्य इतनी गहरी बौन्डिंग थी कि उन से उन सब को कोई फ़र्क न पड़ता.

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तभी उसी सप्ताह दिवाली आ गई. इनाया और अमायरा दिवाली मनाने को ले कर रिदान और रुद्र की तरह बेहद उत्साहित थे.

दिवाली की सुबह तपन मातापिता के साथ चाय पी रहा था कि तभी वह इनाया को सुर्ख लाल साड़ी, गहने,  मांग में दप दप  करते सिंदूर और माथे पर एक बड़ी सी बिंदी में सजीधजी देख कर मंदमंद मुसकरा उठा.

इनाया  को पूरे मन से दिवाली मनाने के मूड में देख कर घरभर  में खुशी की लहर छा गई.  रात को इनाया ने पूरे उत्साह, उमंग के साथ तपन और बच्चों के साथ ख़ुशी मनाई और फिर सासससुर के पैर छू कर उन का आशीर्वाद लिया.

सब ने देररात तक आतिशबाजी का लुत्फ़ उठाया.

देररात बच्चे अपनेअपने कमरों में सोने जा चुके थे.  दादीदादू पहले ही सो  चुके थे. इनाया  घर समेट अपने कमरे में जाने ही वाली थी कि तभी तपन उस के पास आया और बोला, “इनाया, आज मैं बहुत खुश हूं.  मुझे तुम्हें दिवाली गिफ्ट देना है.  जरा चलो तो मेरे रूम में.”

इनाया के कंधों को हौले से थाम वह उसे अपने रूम में ले गया. उस ने उसे अपने बैड पर बिठाते हुए एक बेहद खूबसूरत, बड़े से हीरे की अंगूठी उस की रिंग फिंगर में पहना दी और फिर उस के हाथ थाम उस की हथेली पर एक मयूरपंखी स्नेहचिह्न जड़ आद्र स्वरों  में उस से  कहा, “इनाया,  कब तक मुझ से यों दूरदूर रहोगी? मुझे अब  तुम से यह दूरी सही नहीं जाती,” यह कहते हुए  उस ने  उसे अपनी बांहों में बांध लिया.

दोनों की वह अरमानोंभरी रात आंखों ही आंखों में बीत गई.

2 दिलों के मधुर मिलन की यह अनोखी दास्तान अपने मुकाम तक पहुंच गई.

सिसकी- भाग 4: रानू और उसका क्या रिश्ता था

रीना की सांसें सब से पहले थमीं थीं. पति को देखते हुए उस ने अंतिम सांस ली. सहेंद्र को तो तब ही पता चला जब उस ने रीना का बैड खाली देखा. उस की ?ापकी लग गई थी. उस बीच में रीना ने अंतिम सांस ली थी. नर्स ने बताया था कि सामने वाले बैड वाली महिला की मुत्यु अभीअभी हुई है. नर्स को पता नहीं था कि वह उस की पत्नी थी. पत्नी की मुत्यु का समाचार सुन कर सहेंद्र को गहरा धक्का लगा और शाम तक वे भी चल बसे. दोनों की डैडबौडीज शवगृह में रख दी गई थीं.

रीना के फोन से मिले नंबर पर अस्पताल के स्टाफ ने फोन कर दोनों की मृत्यु की सूचना दी थी. रीना के मोबाइल में सब से ऊपर महेंद्र का ही नंबर था, इस कारण महेंद्र को फोन लगाया गया पर उस ने फोन नहीं उठाया. दूसरा नंबर मुन्नीबाई का था जिस पर घंटी गई तो फोन तुरंत रिसीव हो गया.

मुन्नीबाई रीना के मोबाइल नंबर को जानती थी. जब से दोनों अस्पताल गए हैं तब से रीना रोज ही उस से बात करती रहती थी और अपने बच्चों के हालचाल जानती रहती थी. इस बार मुन्नीबाई ने जो कुछ सुना, उस से वह दहल गई. उस की सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. बच्चों को और पिताजी को इस की सूचना दे या नहीं.

बच्चे वैसे भी जब से पापामम्मी गए हैं तब से ही उदास बैठे हैं. वे तो अभी मृत्यु का मतलब भी नहीं जानते. उस ने खामोशी से दोनों की मृत्यु का समाचार सुना. उस की आंखों से आंसू बह निकले. चिंटू जब भी मम्मी का फोन कामवाली काकी के पास आता था तो मम्मी उस से बात करेंगी, यह सोच कर मुन्नीबाई के पास आ जाता था. रीना मुन्नीबाई से सारा हाल जान लेने के बाद चिंटू से बात करती भी थी और हिदायत देती थी कि मुन्नीबाई को परेशान न करे. आज भी जब फोन की घंटी बजी तो चिंटू मुन्नीबाई के पास आ कर बैठ गया था इस उम्मीद में कि उस की मम्मी उस से भी जरूर बात करेंगी. पर आज मुन्नीबाई ने ही बात नहीं की थी केवल फोन सुना था और फिर बंद कर दिया था.

‘मेरी बात कराओ न, मम्मी से,’ चिंटू ने जैसे ही मुन्नीबाई को फोन बंद करते देखा तो हड़बड़ा गया, ‘प्लीज काकी, मु?ो मम्मी से बात करनी है.’ चिंटू ने मुन्नीबाई का मोबाइल ?ापटने का प्रयास किया, पर जैसे ही उस ने मुन्नीबाई की आंखों से आंसू बहते देखे, वह सहम गया.

मुन्नीबाई ने किसी को कुछ नहीं बताया. उस ने दोतीन बार महेंद्र को फोन लगाया, तब जा कर महेंद्र से ही बात की, ‘मैं कामवाली बाई बोल रही हूं. आप के भाई सहेंद्र साहब और भाभी रीना साहिबा का कोरोना के चलते निधन हो गया है. अभी अस्पताल से फोन आया था.’

‘तो, मैं क्या करूं?’ दोटूक जवाब दे दिया महेंद्र ने.

‘साहबजी, यहां तो केवल बच्चे ही हैं और पिताजी की तबीयत वैसे भी ठीक नहीं हैं, इसलिए मैं ने उन्हें कुछ नहीं बताया है.’

‘हां, तो बता दो,’ महेंद्र के स्वर में अभी भी कठोरता ही थी.

‘आप कैसी बात कर रहे हैं साहबजी, मैं अकेली बच्चों को संभालूंगी कि पिताजी को? आप आ जाएं तो फिर हम बता देंगे.’

‘मैं नहीं आ रहा. तुम को जो अच्छा लगे, सो कर लो,’ महेंद्र ने फोन काट दिया. मुन्नीबाई की सम?ा में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे. उस के पास सहेंद्र की बहन का फोन नंबर भी था. उस ने उन से भी बात कर लेना बेहतर सम?ा. ‘दीदी, सहेंद्र साहब और रीनाजी का निधन अस्पताल में हो गया है.’

‘तुम कौन बोल रही हो?’

‘मैं कामवाली बाई हूं, बच्चों की देखभाल के लिए यहीं रुकी हूं.’

‘ओह अच्छा, कहां मौत हुई है उन की- घर में कि अस्पताल में?’

‘अस्पताल में हुई है, वहीं से अभी फोन आया था.’

‘अच्छा, सुन कर बहुत दुख हुआ,’ उस के स्वर में दुख ?ालका भी.

‘मैडमजी, अभी मैं ने यहां किसी को बताया नहीं है. आप आ जाएं तो बता देंगे.’

‘मैं कैसे आ सकती हूं, मैं नहीं आ पा रही, कोरोना चल रहा है.’

‘फिर, मैं क्या करूं?’ मुन्नीबाई के स्वर में निराशा ?ालक रही थी.

‘वह मैं कैसे बता सकती हूं कि तुम क्या करो.’

‘मैडमजी, अभी तो साहब की डैडबौडी भी अस्पताल में ही है.’

‘कोरोना मरीजों की डैडबौडी परिवार को देते कहां हैं.’

‘पर वे तो कह रहे थे कि अंतिम संस्कार कर लो आ कर.’

‘कहने दो, हम नहीं जाएंगे तो वे अंतिम संस्कार कर देंगे. वैसे, तुम ने महेंद्र भैया से बात की थी क्या?’

‘हां, की थी. उन्होंने भी मना कर दिया है.’

‘तो फिर रहने दो, जैसी प्रकृति की मरजी.’

‘पर मैडमजी के भाई भी हैं और आप बहन भी हैं, आप लोगों को आ कर अंतिम क्रियाकर्म करना चाहिए,’ मुन्नीबाई की ?ां?ालाहट बढ़ती जा रही थी.

‘अब तुम मु?ो मत सिखाओ कि हमें क्या करना चाहिए.’ और बहन ने फोन काट दिया था.

मुन्नीबाई बहुत देर तक मोबाइल पकड़े, ‘हैलो… हैलो…’ करती रही.

मुन्नीबाई ने पिताजी को सारा

घटनाक्रम बता दिया था और वह

करती भी क्या, उस के पास कोई विकल्प रह ही नहीं गया था. पिताजी ने सुना तो वे दहाड़ मार कर रोने लगे. उन्हें रोता देख चिंटू भी रोने लगा. उसे अभी तक कुछ सम?ा में नहीं आ रहा था. वह बहुत देर से मुन्नीबाई के कंधों से चिपका सारी बातें तो सुन रहा था पर सम?ा कुछ नहीं पा रहा था. रानू दूर खेल रही थी. उस ने जब रोने की आवज सुनी तो वह दौड़ कर मुन्नीबाई की गोद में जा कर बैठ गई. अस्पताल से फिर फोन आया. मुन्नीबाई ने सारी परिस्थितियां उन्हें बता दीं.

‘साहबजी, हमारे घर में कोई नहीं है जो अंतिम संस्कार कर सके.’

‘पर अस्पताल को पैसे भी लेने हैं, तुम कौन बोल रही हो?’

‘मैं तो कामवाली बाई बोल रही हूं.’

‘‘घर में और कोई नहीं है?’

‘2 छोटेछोटे बच्चे हैं, बस.’

‘देखो, हम बगैर अपना पैसा लिए डैडबौडी तो देंगे नहीं और न ही उस का क्रियाकर्म करेंगे. वे ऐसे ही रखी रहेंगी.’

‘अब वह आप जानें. आप डैडबौडी से ही पैसा वसूल लें,’ कह कर मुन्नी ने फोन काट दिया. दोबारा फोन की घंटी बजी पर मुन्नीबाई ने फोन नहीं उठाया.

मुन्नीबाई को सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह बच्चों को और पिताजी को कैसे संभाले.

अस्पताल से फिर फोन आया. अब की बार उन्होंने दूसरे नंबर से फोन किया था. मुन्नीबाई को लगा कि हो सकता है कि साहबजी ने किया हो, किसी रिश्तेदार का फोन हो, इसलिए उठा लिया.

‘देखो, आप को अस्पताल के पैसे तो देने ही होंगे.’

‘नहीं दे सकते, साहबजी और मेमसाहब दोनों का देहांत हो चुका है तो पैसे कौन देगा.’

‘उन के परिवार में और कोई नहीं है क्या, उन से बात कराओ?’

‘कोई नहीं हैं. जो हैं वे भी मर गए, सम?ा लो,’ मुन्नीबाई की आवाज में तल्खी थी.

‘देखो, वह हम नहीं जानते. आप लोग आ जाएं और हमारा हिसाब चुकता कर दें.’

‘वो मैं ने बताया न, कि मैं तो यहां काम करने वाली बाई हूं, घर में कोई

नहीं है.’

‘हमें इस से कोई मतलब नहीं है. आप पैसे दो और डैडबौडी उठाओ यहां से.’

मुन्नीबाई कुछ नहीं बोली. उसे सम?ा में ही नहीं आ रहा था कि वह जवाब क्या दे.

प्रीत किए दुख होए: भाग 5

बड़ा घर देख कर मांबेटी दोनों बड़ी खुश हुईं और ठेकेदार को चाय पिलाई. मां ने ठेकेदार से गांव का हालचाल पूछा, खासकर बाबू लोगों का.

‘‘गजब की खबर है. पंडित रमाकांत के बेटे सुंदर को 2 दिन पहले दूर गांव के कोई मिश्राजी मास्टर के हथियारबंद लोग अपहरण कर के ले गए. सभी बाबू लोगों ने मिश्राजी के यहां दबिश दे दी. आखिरकार मिश्राजी ने हथियार डाल दिए और पंडित रमाकांत के बेटे सुंदर को मुखिया के हवाले कर दिया. चेतावनी देते हुए सभी लोग वापस गांव आ गए. यह सुन कर काजल परेशान हो गई और छत पर टहलने लगी, तभी उस की नजर सड़क पर जाती अपनी सहेली ममता पर पड़ी, जो मुखियाजी की बेटी थी. काजल ने ऊपर से ही अपनी सहेली ममता को अंदर आने का इशारा किया और दनदनाते हुए नीचे आ कर दरवाजा खोल दिया. दोनों सहेलियां गले मिलीं.

‘‘शहर में कैसी पढ़ाई चल रही है तुम्हारी?’’ ममता ने पूछा. ‘‘अच्छी, लेकिन तू बता कि उंगली में चमक रही अंगूठी कब से है? कहीं टांका भिड़ गया क्या?’’ काजल ने ममता से पूछा और अपनी परेशानी भूल गई.

‘‘अब समझ ही गई है तो कहना क्या? ‘‘मुझे क्यों भूल गई?’’

‘‘नहीं भूली काजल, चाहे जिस की कसम दे दो. लेकिन तुम तो जान रही हो न हमारी बिरादरी को. पापा मुखिया हैं. भी बदनाम हो जाते.’’ ‘‘खैर, तू बस जीजाजी से मिलवा दे, ताकि मैं देख सकूं कि मेरी चालाक सहेली ने कैसी बाजीगरी दिखाई है.’’

‘‘अभी तो वे कालेज में होंगे. क्या तू चलेगी वहां?’’ ‘‘तू साथ चलेगी तब न? मैं कैसे पहचानूंगी?’’

‘‘अभी चल. घर जा कर आना मुमकिन नहीं.’’ ‘‘तो चल.’’

काजल ने आननफानन कपड़े बदले और आटोरिकशा में सवार हो कर दोनों सहेलियां कालेज पहुंच गईं. लंच की घंटी बजने में 10 मिनट की देरी थी, सो दोनों सहेलियां कालेज कैंपस में लगे नीम के घने पेड़ के नीचे इंतजार करने लगीं.

‘‘देख, जब घंटी बजेगी तब मैं क्लास के सामने जा कर खड़ी हो जाऊंगी. तब तक तुम मुझ पर ही नजर गड़ाए रखना. जैसे ही वे मिलेंगे, मैं उन्हें कालेज के पिछवाड़े में ले जाऊंगी. तुम तेजी से हमारे पीछे आना,’’ ऐसा कह कर ममता क्लास के सामने जा कर खड़ी हो गई. घंटी बजी. वैसा ही हुआ. काजल ने तेजी से ममता का पीछा किया. वह ज्यों ही कालेज के पिछवाड़े की ओर मुड़ी कि उसे सांप सूंघ गया. ममता का वह मंगेतर कोई और नहीं, बल्कि काजल का सुंदर था.

‘‘रुक क्यों गई काजल, आओ न. मिलो तुम मेरे मंगेतर से,’’ यह कह कर ममता मुसकरा दी. काजल की आंखों में खून उतर आया. वह बोली, ‘‘धोखेबाज, तो यही है तेरा असली रूप?’’

सुंदर कुछ बोलना चाह रहा था, लेकिन काजल अपनी रौ में थी, ‘‘मैं दलितों व कमजोर लोगों को समाज में इज्जत दिलाने की हसरत लिए चल रही थी और इस में तुम ने भी साथ

देने की कसमें खाई थीं… कहां गया वह जज्बा?’’ ममता की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. वह हैरानी से दोनों को देख   रही थी. काजल बोले जा रही थी, ‘‘तुम ऐसे इनसान हो, जो खुद अशुद्ध रह कर यजमानों का शुद्धीकरण कराते हैं और पंडित होने का ढोंग रचते हैं. क्या किया है तुम लोगों ने? दलितों और कमजोरों की जायदाद हड़प कर उन्हें बेघर कर गांव निकाले जाने की सजा दे दी है.

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‘‘झूठ, फरेब व वादाखिलाफी कर तू ने मेरे दिल के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मैं कैसे और कहां जीऊंगी सुंदर? तेरे लिए मैं ने अपनी बिरादरी के ही होनहार, स्मार्ट डीएसपी का औफर ठुकराया. तू ने मुझे तो कहीं का न रखा.

‘‘कान खोल कर सुन ले. मेरी जिंदगी को हराम कर के तुम भी नहीं जी सकोगे. मेरी जगह तो अब गंगा की गोद में हैं. मैं चली,’’ और काजल बेतहाशा भागी. पास ही में गंगा नदी बहती थी. ‘‘काजल सुनो तो… रुको तो,’’ कह कर जब तक सुंदर पीछा करते हुए उसे पकड़ता, तब तक वह गंगा में कूद पड़ी.

सुंदर ने भी छलांग लगा दी. अब ममता को पूरी बात समझ में आई. उस ने इस घटना को वहां नहा रहे लड़कों को बताया. जो तैरना जानते थे, वे कूद पड़े. सुंदर और काजल बीच गंगा में डूबतेउतरा रहे थे. कुछ लड़कों ने हिम्मत दिखाई और दोनों को बाहर निकाल लिया.

सुंदर रोए जा रहा था, वहीं काजल बेहोश थी. कुछ लड़के दौड़ कर डाक्टर को बुला लाए. उन्होंने काजल की सांस चैक की जो धीमेधीमे डूबती जा रही थी. दोनों को तुरंत गाड़ी में लाद कर नर्सिंगहोम ले आए. पेट का पानी निकालने के बाद औक्सिजन लगा दी गई.

2 घंटे के इलाज के बाद काजल होश में आई. यह सब देख ममता के भी आंसू नहीं सूख रहे थे. ‘‘काजल, तू ने जरा भी बताया होता कि तुम सुंदर से बचपन से प्यार करती हो तो मैं इस दबंग समाज से लड़ जाती और तेरा ब्याह सुंदर से ही करवाती. लेकिन तू ने कभी इस बारे में बात

नहीं की. मुझे माफ कर दे काजल,’’ और ममता ने सगाई की अंगूठी निकाल सुंदर को देते हुए कहा, ‘‘सुंदर, पहना दे काजल को.’’ सुंदर झिझका, लेकिन लड़कों के हुजूम में से एक ने हिम्मत दी, ‘‘पहना दे काजल भाभी को अंगूठी. मरते दम तक हम सब तेरे साथ हैं. भाभी होश में आ गई हैं. तेरी शादी अभी होगी. हमारे कुछ साथी जरूरी सामान व पंडित को लाने चले गए हैं. बस, आने की देरी है.’’

सुंदर ने काजल को वह अंगूठी पहना दी. सब ने तालियां बजाईं, तभी पंडितजी व सारा सामान आ गया. ममता ने काजल को सजाया. तभी उन्हें भनक मिली कि मिश्राजी के गुंडों ने घेराबंदी कर दी है. लड़कों ने भी नर्सिंगहोम घेरे रखा. कोई अनहोनी न हो जाए, इसलिए ममता ने कोतवाली और अपने पिता को फोन कर दिया. मुखियाजी ने तुरंत आ कर अपनी दोनाली तान दी, ‘‘बच्चो, हट जाओ. नादानी मत करो. मारे जाओगे. अंदर क्या हो रहा है?’’ मुखियाजी ने घुसने की कोशिश की. अंदर से शादी कराने के मंत्र सुनाई पड़ रहे थे.

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‘‘सुन नहीं रहे हैं चाचा. अंदर सुंदर और काजल की शादी हो रही है,’’ एक लड़के ने बताया. ‘‘खबरदार मुखियाजी, एक भी गोली चली तो…’’ कोतवाली से डीएसपी अंजन कुमार ने आ कर अपनी रिवाल्वर मुखियाजी की कनपटी से सटा दी. तब तक एसटीएफ के जवानों ने भीड़ की कमान अपने हाथ में ले ली थी. मिश्राजी के गुरगे भाग चुके थे.

लेखक की पत्नी: भाग 2

‘हटाओ, ये सब बेबुनियादी विचार,’ प्रतिभा ने फुजूल शक पैदा किया मन में. प्रतिभा डाक्टरेट करेगी और मैं बेवजह उन की किताबों में, फाइलों में उलझी रहूंगी. वह रसोईघर की ओर लपकी. फ्रिज में जो मिला, वही खा कर विश्राम करने लगी. पर वहम ने सुखचैन छीन लिया था.

घंटी बजी, रामप्यारी आई. अनु चाय बनाने लगी, ‘‘रामप्यारी, चाय चलेगी?’’

‘‘हां, मैडम, लेकिन शक्कर ज्यादा और दो बूंद दूध.’’

‘‘कितनी काली और कड़क चाय पीती हो तुम.’’

‘‘सर तो बगैर शक्करदूध की चाय लेते थे.’’

‘‘अरे, पसंद अपनीअपनी.’’

‘‘मैडम, साहब के पुराने गरम कपड़े दे देना मेरे बूढ़े के लिए.’’

‘‘रामप्यारी, किस्मत ऊंची है तेरी.’’

‘‘हां, मैडम, मेरा आदमी शराब पीना, पिटाई करना जैसा कुछ नहीं करता परंतु हमारी जात में मर्द का यही काम है, कमाना कुछ भी नहीं, आवारागर्दी करना, शराब पीना और औरत की पिटाई करना. इतना ही काम रहता है. चाहे कितना भी बूढ़ा हो जाए, मेरे सिवा उसे कुछ सूझता नहीं. उसे बच्चे जैसा संभालना पड़ता है.’’

थोड़ा रुक कर वह आगे बोली, ‘‘मैडम, आदमीऔरत का रिश्ता शक्करपानी जैसा है. अपने आदमी को पहचानना जरूरी है,’’ चाय पीते हुए रामप्यारी का टेप चल रहा था.

अनपढ़ रामप्यारी का जंगली तत्त्वज्ञान सुन कर अनु को प्रतिभा का वक्तव्य याद आया. शक का कीड़ा दिमाग में फिर से घूमने लगा, एक सिरदर्द फिर से उभरा.

इतने में फिर से घंटी बजी. अनु ने दरवाजा खोल कर देखा, एक अजनबी युवती खड़ी थी. तीखे नैननक्श, सुडौल शरीर, आधुनिक पोशाक, आकर्षक चेहरा, हाथ में भारी पर्स.

‘‘मैं सोनाली. काम था आप से,’’ कुरसी पर बैठ कर वह बोली.

‘‘मुझ से? मैं आप को तो…’’

‘‘आप मुझे पहचानती नहीं हैं लेकिन सहाय साहब जानते थे मुझे. आप के बारे में उन्होंने इतना बताया था कि भीड़ में भी मैं आप को पहचान लेती. आप खाना अच्छा बना लेती हैं, साहब रहते तो मैं मेहमान बन कर खाने के लिए आती.’’

अनु इस बकवास से नाराज हो कर बोली, ‘‘आप अपनी पहचान बताइए, सर ने आप के बारे में कभी कुछ बताया नहीं और आप तो रसोई तक पहुंच गईं.’’

‘‘एक ही बात है. हमारी क्लब की दोस्ती ताश की वजह से थी. उन की कंपनी निराली थी, रंग लाती थी. विविध मसलों पर विचार करने और वक्तव्य देने में उन्हें महारत हासिल थी.’’

‘‘मुझ से क्या काम है?’’ अनु ने पूछा.

‘‘बात यह है कि सहाय साहब ने मुझे पत्र लिखा था. जवाब मैं देने वाली थी पर आप लोग विदेश गए हुए थे. बाद में साहब की मौत का सुना तो दुखी इतनी हुई कि क्लब गई ही नहीं. सोचा, ऐसा अचानक कैसे हुआ?’’

‘‘हां, अचानक हुआ. सुबह रोज की तरह घूम कर आए. चाय पी और अखबार ले कर बैठ गए. थोड़ी देर बाद देखा, कुरसी में धंसेधंसे चिरनिद्रा में सो गए. उन्हें दिल का दौरा पड़ा था.’’

‘‘पहले से कोई ऐसी तकलीफ थी?’’

‘‘कभी गौर नहीं किया था.’’

‘‘ऐसे व्यक्ति की अचानक मौत व्यक्तिगत हानि के साथसाथ समाज की भी हानि होती है, मैडम. उन की सही देखरेख करनी चाहिए थी, श्रीमती सहाय.’’

‘‘आप के कहने का मतलब…?’’ अनु ने खीज कर कहा.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं,’’ सोनाली ने पर्स खोल कर एक पत्र निकाला और बोली, ‘‘इसे पढ़ो.’’

अनु ने पत्र खोला कि नाक में सुगंध भर गई. सहाय साहब का मनपसंद इत्र.

सोनाली ने सतर्क हो कर सफाई दी, ‘‘करचिफ का इत्र लगा होगा.’’

पत्र मामूली था, 3-4 किताबों की सूची थी.

‘‘सहाय साहब ने मेरे लिए किताबें खरीदी थीं, उन्हें लेने आई हूं. उन की आखिरी यादगार मेरे पास रहेगी.’’

‘‘रुको, देखती हूं,’’ कह कर अनु सहाय साहब के कक्ष में प्रविष्ट हुई. यह कक्ष उन की मौत के बाद से सूना पड़ा था. अनु को उन के कमरे में जाने की हिम्मत ही नहीं होती थी. किंतु आज वह गई. कपाट झट से खोल कर 4 अंगरेजी उपन्यासों की आकर्षक पैकिंग का पार्सल उस ने खोला.सोनाली का अस्तित्व भूल कर अनु ने हर किताब की कीमत देखी. उस के पति ने इस स्त्री के लिए हजार रुपए खर्च किए? इस विचार से उस का हृदय छलनी हो गया. किताब के प्रथम पृष्ठ पर लिखा था, ‘मेरी प्रिय दोस्त को अर्पण. सोनाली, जिस ने  मुझे जाना, पहचाना और सुखमय अभिसार दिया.’

अनु की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. वह कुछ क्षण स्तब्ध बैठी सोचती रही, ‘इतना बड़ा धोखा…’

‘‘अंदर आ जाऊं क्या?’’ सोनाली की आवाज से अनु ने किताबें कपाट के अंदर पटकीं और बताया, ‘‘किताबें दिखती नहीं.’’

सोनाली उदास स्वर में बोली, ‘‘कोई बात नहीं, आराम से देखना. मैं फिर कभी आऊंगी. मुझे किताबें मिलनी चाहिए. मैं ने उन किताबों पर बहुत चर्चा की है. कृपया ठीक से देखना.’’

‘‘अपना फोन नंबर देना,’’ मन संयत कर अनु ने कहा.

सोनाली ने फोन नंबर लिख दिया.

‘‘सहाय साहब की यह आखिरी भेंट मुझे मिलनी चाहिए.’’

‘‘जरूर, किंतु किताबें मिलने पर.’’

सोनाली चली गई. अपमान और क्षोभ से अनु दोहरी हुई जा रही थी. ‘मैं कहां कम पड़ी थी? सोनाली के संबंध में कभी बातचीत नहीं हुई थी. गुप्त रखने लायक रिश्ते थे क्या? अकसर बताते थे, क्लब में तरहतरह के लोग मिलते हैं. उन के बोलने का अंदाज, हावभाव का निरीक्षण करने में आनंद आता है. स्वभाव के अलगअलग पहलू नजर आते हैं, उस का इस्तेमाल साहित्य सृजन में मददगार होता है. यह रंभा बताती है, अंतरंग दोस्ती थी उन से. और न जाने क्याक्या?

‘मेरी तो चेतना ही बंद होने लगी. किताबें देनी थीं क्या? मैं ने बहाना क्यों किया? किसी के लिए बेवफाई तो किसी के लिए बेहद आनंद.’ खुद के बरताव पर अनु संदर्भ नहीं लगा सकी. आस्तीन में पल रहे सांप की उसे खबर कहां थी जो उसे ही डंक मार रहा था.

सोनाली ने 2-4 बार फोन किया और अनु ने वही जवाब दिया. कुछ दिन के बाद सोनाली अचानक खुद आई और बोली, ‘‘अनु दीदी, चलो, बाहर खाना खाते हैं.’’

‘‘खाना घर में तैयार है.’’

‘‘फ्रिज में रख दो. एक ही ढंग का खाना खा कर आदमी बोर हो जाता है. घर का स्वादिष्ठ खाना खा कर भी कभी ढाबे की पानीपूरी या चटपटी चाट स्वाद बदलने के लिए अच्छी होती है. अनु दीदी, जिंदगी भी वैसी ही है.’’

टैक्सी को हाथ दिखा कर रोका और अनु को जबरदस्ती खींच कर वह होटल में ले गई.

एक शांत कोना चुन कर सोनाली ने पूछा, ‘‘बियर चलेगी?’’

‘‘मैं ने कभी चखी नहीं,’’ अनु झटक कर बोली.

‘‘ठीक है, मैं ले रही हूं. आप नीबूपानी ले लो.’’

पति, पत्नी और बिंदास वो

गौरव और नगमा के बीच शुरू हुई हंसीठिठोली बढ़ती जा रही थी. गौरव मर्यादा की लाइन लांघना नहीं चाहता था, लेकिन नगमा तो सरेआम उस का हाथ पकड़ लेती, उसे खींच कर शाम के सिनेमा शो में ले जाती.

गौ?रव सर्दी की ठंड के बावजूद पसीने में भीग गया था. पसीना आने के बावजूद वह इस तरह कांप रहा था मानो मलेरिया बुखार चढ़ा हो. उठ कर देखा तो रात के 12 बजे थे. बिस्तर के दूसरे छोर पर शिवानी बेखबर सो रही थी.

तौलिए से पसीना पोंछा और लेट कर सोचने लगा, कितना भयानक सपना था. गौरव को सब पुरानी बातें याद आने लगीं.

नगमा गौरव की वरिष्ठ अधिकारी थी. जब नई आई थी तो गौरव के अहम ने उसे अपना अधिकारी नहीं माना था. बातबात पर दोनों में बहस होती थी और कभीकभी तो गुस्से में नगमा उसे अपने कमरे से बाहर जाने का आदेश भी दे देती थी. कभी ऐसा भी होता था कि नगमा बुलाती थी और वह नहीं जाता था. जाता था तो फाइल उस के सामने रखता नहीं था, पटक देता था.

अहम के टकराव का एक और खास कारण था. गौरव अपनी मेहनत व लगन से पदोन्नति पाता हुआ इस पद पर पहुंचा था. मगर नगमा स्पर्धा से आई थी. जो परीक्षा पास कर के आते हैं उन में श्रेष्ठ होने की भावना आ जाती है.

लेकिन जब से एक पार्टी में नगमा और गौरव की भेंट हुई, दोनों का एकदूसरे के प्रति नजरिया ही बदल गया था.

कार्यालय की एक लड़की का विवाह था. बहुत से लोग आमंत्रित थे. गौरव अपनी पत्नी के साथ आया था. आते ही सब अपनेअपने परिचितों को या तो ढूंढ़ रहे थे या उन से नजरें बचा कर छिपते फिर रहे थे.

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‘अरे, शिवानी तू,’ नगमा ने आश्चर्य से कहा, ‘मु?ो तो सपने में भी आशा नहीं थी कि तू अब कभी मिलेगी.’

‘पर मेरे सपने में तो तू बारबार आती है,’ शिवानी ने नगमा का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘कितनी चिट्ठियां डाली थीं, पर एक का भी जवाब नहीं दिया.’

‘मैं उस समय कोलकाता में प्रशिक्षण के लिए गई हुई थी. तेरी शादी का तो बाद में पता लगा,’ अचानक शिवानी के पीछे गौरव को सकपकाया सा खड़ा देख नगमा आश्चर्य से बोली, ‘तो क्या ये…’

‘हां, मेरे पति हैं,’ शिवानी हंस पड़ी.

‘बहुत खुशी हुई आप से मिल कर,’  नगमा ने हंस कर नाटकीयता से कहा, ‘तो आप हैं हमारे जीजू.’

शिवानी के मौसा और नगमा के मामा में रिश्ता तो दूर का था, पर अकसर शादीब्याह में मिल जाने से दोनों में अच्छीखासी दोस्ती हो गई थी.

‘चलो, अब तो पता लग गया न,’ गौरव ने व्यंग्य से कहा, ‘मैं आप के लिए शीतल पेय ले कर आता हूं.’

गौरव नगमा से दूर होने के लिए ही शीतल पेय का बहाना बना कर खिसक गया. दरअसल, वह दोनों के बीच अपने को काफी असहज सा अनुभव कर रहा था.

‘पता नहीं नगमा, ऐसा क्यों लग रहा है कि तु?ो गौरव अच्छा नहीं लगा. क्या यह मेरा भ्रम है?’ शिवानी ने पूछा.

नगमा खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘दरअसल, हम दोनों में रोज तूतू मैंमैं होती है. हम लेखा विभाग में एकसाथ हैं और हमारा आंकड़ा 36 का है.’

‘ओह,’ शिवानी ने हाथ फैला कर कहा, ‘पर मु?ो इस बात का पता नहीं.’

‘क्यों, क्या तेरे ये रोज दफ्तर से आ कर मेरी बुराई नहीं करते?’ नगमा ने टेढ़ी मुसकान से पूछा.

‘नहीं. दरअसल, इन्हें दफ्तर की बातें घर में करने की आदत नहीं है,’ शिवानी ने कहा, ‘पर कभीकभी बड़े खराब मूड में घर आते हैं.’

‘कोई बात नहीं, अब ठीक कर दूंगी,’ नगमा ने मुसकरा कर कहा, ‘ये जीजू कहां गायब हो गए.’

गौरव हाथ में 2 गिलास ले कर आ रहा था.

‘बहुत भीड़ है. बड़ी मुश्किल से 2 गिलास हाथ लगे,’ गौरव ने दोनों को गिलास पकड़ाते हुए कहा.

‘जीजू,’ नगमा ने गिलास पकड़ कर अनूठे व्यंग्य से कहा, ‘मुश्किल तो अब बढ़ गई है आप की. अब करिए तकरार.’

‘कोई बात नहीं,’ गौरव भी नहले पर दहला मारते हुए बोला, ‘प्यार का पहला कदम तकरार से ही शुरू होता है.’

शिवानी और नगमा इस विनोद पर ठठा कर हंस पड़ीं. फिर नगमा ने कहा, ‘इस भ्रम में मत रहना, जीजूजी.’

अब जब भी नगमा गौरव को अपने कक्ष में बुलाती थी तो काफी पहले से ही आ जाती थी. धीरेधीरे जब यह एक नियम सा हो गया तो दफ्तर के लोगों की मुसकराहट काफी चौड़ी हो गई.

वित्तीय वर्ष के अंतिम दिन चल रहे थे. इन दिनों लेखाकार बहुत व्यस्त हो जाते हैं. इन का काम देररात तक चलता है. यह कार्यालय भी कोई अलग नहीं था.

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फाइलें इत्यादि लाने, ले जाने में बहुत समय खराब होता था, इसलिए गौरव को अधिकतर नगमा के ही कक्ष में बैठना पड़ता था. इस पर कंप्यूटर भी यहीं था. किसी और से कुछ पूछना या कराना होता था तो उसे भी यहीं बुला लिया जाता था. कुछ सम?ाने या सम?ाने के लिए गौरव को नजदीक आना पड़ जाता था. एक बार जब गौरव फाइल सामने रख कर खोल रहा था तो उस का हाथ नगमा के हाथ पर पड़ गया. गौरव को जैसे ही गलती का एहसास हुआ, हाथ उठाने लगा.

नगमा ने मुसकरा कर हाथ रोक दिया और बोली, ‘रहने दो न, जीजू, अच्छा लगता है.’

नगमा गौरव को जीजू केवल अकेले में ही कहती थी और लोगों को इस रिश्ते के बारे में कुछ पता नहीं था.

‘छोड़ो भी, कोई देख लेगा तो गजब हो जाएगा,’ गौरव ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की.

‘कह देना कि मैं साली हूं और इस रिश्ते में तो यह सब चलता है,’ नगमा ने हंसते हुए गौरव को मुक्त कर दिया.

इस के बाद जो यह खेल शुरू हुआ तो चलता ही रहा.

रात में देर हो जाने से गौरव नगमा को अपनी मोटरसाइकिल पर घर छोड़ने भी जाता था. घर में उस की मां मिलती थीं. पिताजी नागपुर में अपनी दूसरी बेटी के साथ रहते थे. वे अपना काम छोड़ कर नहीं आ सकते थे.

एक छुट्टी पर गौरव शिवानी को भी नगमा के घर ले गया था. मां मिल कर बहुत खुश हुई थीं. इस तरह दोनों के और ज्यादा मिलने के रास्ते साफ हो

गए थे.

‘जीजू, आप के साथ एक दिन पिक्चर चलना है,’ नगमा ने कहा.

‘मरवाओगी क्या,’ गौरव ने सिहर कर कहा, ‘शिवानी को भी साथ ले चलेंगे.’

‘बहुत डरपोक हो, जीजू,’ नगमा हंस पड़ी, ‘एकदम चूहे की तरह.’

‘नहींनहीं, किसी के साथ देख

लिया तो गजब हो जाएगा,’ गौरव ने विद्रोह किया.

‘अरे, देखने दो न,’ नगमा ने कहा, ‘जब कोई देखेगा तो देखा जाएगा. अगर किसी ने देख भी लिया तो कितना मजा आएगा,’ नगमा हंस रही थी.

‘तुम्हें हंसी छूट रही है,’ गौरव ने चिढ़ कर कहा.

नगमा ने सिनेमा के टिकट मंगवा लिए और दोनों ने 6 से 9 वाला शो देखा. पूरे शो में दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े बैठे रहे. बहुत अच्छा लग रहा था. साथ ही, डर भी था कि कहीं पकड़े न जाएं, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं और हंसते हुए दोनों वापस घर आ गए.

लौटते समय गौरव ने शिवानी के लिए फूलों का गजरा और उस की मनपसंद रसमलाई खरीदी. घर पहुंचा तो अपने मनपसंद सामान को देख कर शिवानी मुसकराई.

‘क्या बात है,’ शिवानी ने मीठा व्यंग्य कसा, ‘लगता है आज कुछ खास

बात है.’

‘है तो,’ गौरव हंसा, ‘थोड़ी देर में बताऊंगा, जरा तरोताजा हो जाऊं. वैसे गजरा बेचने वाली ‘चांद सा बेटा’ वाला आशीर्वाद दे रही थी.’

एक दिन नगमा और गौरव ने एक अच्छे वातानुकूलित रैस्तरां में बैठ कर खाना खाया. लगभग अंधेरे कोने में दोनों बैठे थे. गौरव डर रहा था, कोई पहचान न ले, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हौसले और बुलंद हो गए.

नगमा कुछ अधिक ही रोमांटिक हो रही थी. बस, गौरव ही सहमासहमा सा था.

‘चलो, जल्दी चलो,’ मोटरसाइकिल पार्किंग से बाहर लाते हुए गौरव ने कहा, ‘ज्यादा देर ठीक नहीं.’

‘क्या जीजू,’ नगमा ने कहा, ‘कहते हैं न कि गुनाह बेलज्जत. सारा मजा किरकिरा कर रहे हो. चलो, आज किसी होटल में एक कमरा ले लेते हैं.’

‘दिमाग खराब हो गया है क्या?’ गौरव ने डांट कर कहा.

नगमा खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘जीजू, आप का चेहरा देखने लायक है. मु?ो बहुत हंसी आ रही है.’

रास्तेभर नगमा गौरव को पकड़ कर बैठी रही. घर के सामने नगमा को

उतार कर बिना हायहैलो किए वह

चल दिया.

घर पहुंचने से पहले गौरव ने एक पिज्जा पैक करवाया. शिवानी को पिज्जा बहुत अच्छा लगता था. एक सुंदर, मोटा, सुगंधित गजरा भी लिया.

न जाने क्यों आज गौरव के दिल में डर बैठ गया था. धीरेधीरे लगता है नगमा उस पर हावी हो रही है.

‘लो, मैं बहुत दिनों से पिज्जा की याद कर रही थी,’ शिवानी ने पैकेट पकड़ते हुए कहा, ‘अच्छा हुआ आप ले आए. और यह गजरा, हाय राम, बहुत भारी है, मेरा जूड़ा ही गिर जाएगा. वैसे खुशबू अच्छी है.’

‘बस, तुम इसी तरह खुश रहो तो मैं लाता रहूंगा,’ गौरव ने कहा, ‘जल्दी से खा लो, ठंडा हो जाएगा.’

‘क्यों, तुम नहीं खाओगे?’

‘मैं खा कर आया हूं,’ गौरव ने तौलिए से मुंह पोंछते हुए कहा, ‘दरअसल, एक आदमी का काम कर दिया तो वह 2 पिज्जा दे गया. नगमा और मैं ने एक वहीं खा लिया.’

‘ओह, यह नगमा भी बड़ी खाऊ है,’ शिवानी हंस पड़ी, ‘पर है मजेदार

और चुलबुली.’

गौरव इस से सहमत था. गौरव पलंग पर करवटें बदल रहा था. बारबार नगमा की होटल वाली बात सता रही थी. वह सचमुच ही डर गया था. शिवानी को अधिक धोखा नहीं दे सकता. कुछ न कुछ करना पड़ेगा.

‘सोते क्यों नहीं,’ शिवानी ने कुहनी मार कर कहा, ‘न सोते हो, न सोने देते हो.’

गौरव को कुछ समय बाद ?ापकी आ गई. नींद में टटोल कर देखा तो बैड पर शिवानी का सा इकहरा, जानापहचाना बदन नहीं था, नगमा का गुदाज, मांसल शरीर था, कमरा भी नगमा का था.

‘मैं यहां कैसे आ गया?’ गौरव ने आश्चर्य से पूछा.

‘सो जाओ यार,’ नगमा ने कहा, ‘मैं ने तुम्हें शिवानी से खरीद लिया है. वह कुछ नहीं बोलेगी.’

गौरव का सपना टूट गया. सर्दी की ठंडक के बावजूद वह पसीने से भीग गया था. घड़ी में देखा तो रात के 12 बजे थे. शिवानी को बिस्तर के दूसरे छोर पर बेखबर सोता देख आश्वस्त हुआ. यह नगमा का नहीं, उस का अपना कमरा व अपना बिस्तर था.

कितना भयानक सपना था. अब वह पुरानी यादों से बाहर आ गया था.

आज वह अवश्य अपने तबादले के लिए प्रबंध निदेशक से बात करेगा. इस तरह नहीं चलेगा.

दफ्तर पहुंचा तो नगमा से आंखें मिलाने में डर रहा था.

संध्या को उसे मजबूरन नगमा को घर छोड़ने जाना पड़ा. दिनभर गंभीर था और उस समय भी. नगमा अपनी आदत के अनुसार उसे छेड़े जा रही थी.

आज दरवाजे पर मां को प्रतीक्षा में खड़े पाया. देखते ही वह खुश हो गई.

‘‘मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने के लिए खड़ी थी,’’ मां ने कहा, ‘‘नगमा की शादी तय हो गई है. अगले महीने तुम्हें और शिवानी को आना है.’’

सुनते ही गौरव के मुंह से गहरी व लंबी राहत की सांस निकली.

टॉक्सिक मैरिज अच्छी या डाइवोर्स पेरेंट्स

Writer- रोहित

लड़कियों को बचपन से ही आदर्श पत्नियों के रूप में खुद को डैवलप करने की शिक्षा दी जाती है. उन्हें सिखाया जाता है कि उन की आकांक्षा एक अच्छे आदमी के साथ जीवन गुजारने व एक खुशहाल व स्वस्थ परिवार का पालनपोषण करने की हो. यह सीख बचपन से उन्हें हर कदम पर दी जाती है.

दूसरी ओर लड़कों को सिखाया जाता है कि परिवार में एक सुशील दुलहन लाना, बेटा पैदा कर के घर का वंश आगे बढ़ाना और अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से निभाना उन का कर्तव्य है. इस प्रकार शादी करना और बच्चे पैदा करना ही किसी भी युवा पुरुष या महिला की चैकलिस्ट में 2 सब से जरूरी काम होते हैं.

तीसरा होता है पारिवारिक जीवन को किसी भी हाल में बनाए रखना और अपने रिश्ते को सफल बनाना. भारतीय परंपरा में मैरिज को एक पवित्र संस्था माना जाता है. आप वादा करते हैं 7 जन्मों का रिश्ता निभाएंगे. महिला के दिमाग में, खासकर, यह बात कूटकूट कर डाली जाती है कि ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है.’

पर सोचा है, अगर महिला सबकुछ न सह कर पति को अपना देवता न माने? क्या होता है जब शादी विफल हो जाती है? खासकर तब, जब आप न सिर्फ पतिपत्नी हों, बल्कि मातापिता भी बन चुके हों. बात आती है कि यदि अलग हो जाएं तो कहीं बच्चों पर बुरा असर तो नहीं पड़ेगा और यदि न पड़े तो क्या बच्चों के लिए एक लवलैस रिलेशनशिप में बंधे रहें?

हाल ही में नैटफ्लिक्स पर ‘डीकपल्ड’ नाम की एक वैब सीरीज आई. इस में लगभग मिडिल एज के हो चुके शादीशुदा कपल अब डीकपल्ड (विवाह विच्छेद) होने की राह पर हैं. वे एकदूसरे के साथ टौक्सिक रिलेशन से तंग आ चुके हैं, तलाक लेना चाहते हैं. उन्हें इस बात का न दुख है न किसी प्रकार की पीड़ा. वे खुशीखुशी अपने रिश्ते को पब्लिकली खत्म कर देना चाहते हैं. बस, दिक्कत है तो उन की टीनऐजर बेटी, जिस का उन्हें डर है कि वह अपने पेरैंट्स को इस तरह अलग होते देखेगी तो उस पर क्या बीतेगी.

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यह कई लोगों के लिए एक मुश्किल सवाल हो सकता है, खासकर ऐसे समाज में जहां हम बच्चों को हर चीज से अधिक प्राथमिकता देते हैं. जहां बच्चे हो जाने के बाद हम खुद को पहले मातापिता मानते हैं और फिर जीवनसाथी या व्यक्ति, जिस का एक अर्थ यह भी है कि बहुत से पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों की खातिर टौक्सिक मैरिज रिलेशनशिप ?ोलते रहते हैं, ताकि उन्हें पारिवारिक दिशानिर्देशों का पालन करते हुए अच्छी परवरिश दी जा सके, जिस का तथाकथित सिर्फ एक तरीका है कि एक छत के नीचे रह कर अपने बच्चे की परवरिश की जाए.

माना कि मातापिता का तलाक होना बच्चों के लिए एक खराब अनुभव होता है. किसी भी बच्चे के लिए अपने मातापिता को अलग होते देखना पीड़ादायक होता है. जैसे एक शोध में पाया गया है कि अपने मातापिता के अलग होने के समय

7 से 14 साल की उम्र के नाबालिगों में 16 प्रतिशत इमोशनल प्रौब्लम्स की वृद्धि हुई, पर क्या एक खराब शादी में जिंदगीभर फंसना इस का समाधान है?

देहरादून की रहने वाली 40 वर्षीया आरती रावत (बदला नाम) अपने 3 टीनऐजर बच्चों के साथ पिछले 4 साल से अकेली रह रही है. शादी के कुछ सालों बाद ही आरती की अपने पति के साथ अनबन होने लगी. आरती का पति दारू और जुए की लत का ऐसा

आदी हुआ कि कभी उबर न पाया. चलताफिरता काम भी इस चक्कर में डूब गया. रोजरोज घर में ?ागड़ाफसाद, पति का नशा कर के गली में होहल्ला मचाना, आरती से मारपीट करना बरदाश्त के बाहर होने लगा. घरखर्च चलाने के लिए आरती को डोमैस्टिक वर्कर का काम करना पड़ा.

लेकिन ‘शादी संस्था की पवित्रता’ और बच्चों की खातिर आरती यह सब सहती रही. उन के रिश्ते में न तो

किसी प्रकार की इंटिमेसी रह गई थी, न विश्वास और न फीलिंग्स. बिस्तर दूरियां कम कर पाए, ऐसा भी माहौल एक समय के बाद बन नहीं पाया. सबकुछ बस, एक ढर्रे से चलता रहा. शादी बस, निभानाभर रह गई, पारिवारिक भाव खत्म हो गए. रोजरोज के ?ागड़ों ने उन के बच्चों पर बुरा असर डालना शुरू कर दिया. वे चिड़चिड़े होने लगे.

फिर एकाएक 4 साल पहले आरती का पति सबकुछ छोड़छाड़ पहले तो हरिद्वार चला गया, फिर वहां से कोटद्वार शहर चला गया. पति के छोड़ कर जाने के बावजूद आज भी आरती इसी बात से आश्वस्त है कि वह एक शादीशुदा जीवन में रह रही है. इस कारण न तो वह कोई दूसरी शादी कर पा रही है और न ही इस उम्र में सोच रही है.

जाहिर है कि जब एक जोड़ा खराब रिश्ते को निभाने का फैसला करता है तो वे वास्तव में व्यक्तिगत खुशी का त्याग करते हैं. वे लगातार एकदूसरे के प्रति दुश्मनी महसूस करते हैं. इस के अलावा, आप कल्पना करें कि एक बच्चा उन

2 लोगों को देख रहा है जो उसे सब से ज्यादा प्यार करते हैं, जो लगातार असंतुष्ट और एकदूसरे के साथ लगातार ?ागड़ रहे हैं. यह एक बच्चे को किस तरह प्रभावित कर सकता है, इस की गणना नहीं की जा सकती?

साथ ही क्या यह हकीकत नहीं कि अपने शुरुआती सालों में बच्चे अपने मातापिता को देख कर अपने एडल्ट रिलेशनशिप की समझ विकसित करते हैं. संभव है कि वे यह सम?ा सकते हैं कि शादीशुदा जोड़ों के लिए लगातार लड़ना या एकदूसरे के साथ संवाद नहीं करना या बिस्तर सा?ा नहीं करना सामान्य बात है. क्या यह सम?ा बच्चे को बड़े होने पर और भविष्य में उन की अपनी शादी को प्रभावित नहीं करेगी?

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इस के अलावा बच्चों की को-पेरैंटिंग का मतलब यह नहीं कि मातापिता के बीच यह अनुबंध है कि वे एकसाथ ही रहें. को-पेरैंटिंग का मतलब होता है कि अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी सा?ा करना. इसे आप अलगअलग रह कर भी कर सकते हैं. अगर तलाक आप को मानसिक शांति व खुशी देता है तो भी यह आप को एक बेहतर मातापिता बना देगा? जाहिर है एक दुखी महिला या पुरुष पतिपत्नी रहने की जगह अलगअलग बढि़या अच्छे, सुखी मातापिता बन कर बच्चों को ज्यादा खुशी दे सकते हैं.

विवाहित जीवन, अच्छा घरपरिवार, बच्चे, यकीनन यह सब जीवन का हिस्सा हैं, मगर जरूरी नहीं हैं कि लाइफ में सबकुछ परफैक्ट है. यदि आप एक ऐसी शादी में हैं जो अनहैल्दी है या टौक्सिक है तो इस से छुटकारा पाना ही बेहतर है, क्योंकि मातापिता के आपसी संबंध यदि हैल्दी न हों तो बच्चों पर बहुत बुरा असर पड़ सकता है. लगभग 13 फीसदी बच्चे एंग्जाइटी के शिकार होते हैं यदि उन के आसपास का वातावरण अनहैल्दी हो. यदि ऐसी स्थिति बनती है तो ऐसे में यहां कुछ टिप्स हैं जो आप को टौक्सिक रिलेशन से निकलने में मदद करेंगे और बच्चे को स्वस्थ माहौल दे पाएंगे.

  • विवाह विच्छेद करना आसान नहीं है.
  • महिलाओं के लिए, यह काफी जटिल होता है.
  • जरूरी है कि महिला खुद को फिजिकली, मैंटली और फाइनैंशियली मजबूत बनाए. इस से उसे निर्णय लेने में आसानी रहेगी और वह अपने दम पर अपने बच्चों की परवरिश का जिम्मा उठा सकेगी.
  • जरूरी यह भी है कि बच्चे अगर टीनऐजर हैं और आप विवाह विच्छेद करना चाहते हैं तो उन्हें इस बारे में बताएं.
  • जरूरी नहीं कि पूरी डिटेल में बात की जाए लेकिन मूल जानकारी पता चल जाए.
  • इस के अलावा कोशिश करें कि बच्चों के हर संभव सवालों का उपयुक्त जवाब दें.
  • बच्चों को यह न लगे कि उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता.
  • बच्चों की परवरिश के बारे में होमवर्क करें.
  • कैसे इस स्थिति को मैनेज किया
  • जा सकता है, जानकारों से गाइडैंस अवश्य लें.
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