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मेरी बेटी किसी से भी बात नहीं करती, क्या करूं?

सवाल

मेरी बेटी 12वीं के बाद टीचिंग का कोर्स करना चाहती है. लेकिन मेरे पति खुद डाक्टर होने के कारण उस पर भी डाक्टर बनने का दबाव डाल रहे हैं. वह तनाव में है और किसी से भी बात नहीं कर रही. मैं अपनी बेटी को ऐसी स्थिति में नहीं देख सकती?

मेरे पति का नौकरी में मन नहीं लगता, क्या करूं?

जवाब

आजकल मातापिता बच्चों पर जरूरत से ज्यादा कैरियर बनाने का दबाव बना रहे हैं. इस कारण वे तनावग्रस्त हो कर आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने में भी देर नहीं लगाते. बच्चों को वही करने दें जिस में उन की रुचि हो, न कि पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे प्रोफैशन को उन पर थोपें. वैसे शिक्षा के क्षेत्र में भी बहुत प्रतियोगिता है और अच्छी नौकरी मिलनी मुश्किल है. अभी बेटी छोटी है और डाक्टरी की पढ़ाई से भयभीत है, उसे समझाना जरूरी है.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

Review: जानें कैसी है अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘झुंड’

रेटिंग: ढाई स्टार

निर्माताः भूषण कुमार, किषन कमार, सविताराज हीरामठ,राज हीरामठ, मीनू अरोड़ा, संदीप सिंह, नागराज पोपटराव मंजुले

लेखक व निर्देशक: नागराज पोपटराव मंजुले

कलाकार: अमिताभ बच्चन, छाया कदम, अंकुश गेदम, प्रियांषु क्षत्रिय, अलेन पैट्कि, रिषभ बोधले, निखिन गनवीर,रिंकू राजगुरू, आकाश थोसर व अन्य

अवधिः लगभग तीन घंटे

फिल्म ‘‘सैराट’’ फेम मशहूर मराठी भाषी फिल्मकार नागराज पोपटराव मंजुले यानी कि नागराज मंजुले अपने एक तयशुदा ढर्रे का सिनेमा बनाते आ रहे हैं. नागराज मंजुले को कैरियर की पहली लघु फिल्म ‘‘पिस्तुल्या’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.नागराज मंजुले को फिल्में बनाते हुए बारह वर्ष हो गए, मगर वह एक ही ढर्रे की फिल्में बना रहे हैं. मराठी भाषा में ‘फैंडी’, ‘बाजी’,‘हाइवे’,‘सैराट’लघु फिल्म ‘‘पावसाचा निबंध’ के बाद नागराज मंजुले अब हिंदी भाषा की फिल्म ‘‘झुंड’’ लेकर आए हैं. ‘‘झुंड’’ का मतलब होता है जमावड़ा.फिल्म में झोपरपट्टी में रहने वाले तथा ड्ग्स व अन्य आपराधिक गतिविधियों में लिप्त युवा पीढ़ी के इर्द गिर्द घूमती है.

फिल्म ‘‘झुंड’’ नागपुर के ही खेल शिक्षक और ‘स्लम सोसर’ नामक एनजीओ के संस्थापक विजय बारसे पर बायोपिक स्पोर्ट्स फिल्म है.नागपुर में ‘स्लम सोसर’ एनजीओ झोपरपट्टी में रहने वाले बच्चों के जीवन स्तर को उंचा उठाने व उन्हे आपराध्किा गतिविधियो की बजाय खेल की तरफ मुड़ने के लिए प्रोत्साहित करने का काम करती है.

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कहानीः

फिल्म की कहानी नागपुर शाहर के इर्द गिर्द घूमती है. शहर में एक अंग्रेजी माध्यम के बड़े कालजे में खेल शिक्षक के रूप में कार्यरत विजय बोराड़े अपने रिटायरमेंट से कुछ दिन पहले अपने कालेज व घर के बीच पड़ने वाली दलित झुग्गी झोपड़ी के बच्चों को शराब व ड्रग्स बेचते, बगल से गुजरती कोयले की ट्रेन पर कोयला चुराते ,आपस में मार पीट करते देखते हैं.एक दिन बारिश के वक्त उन्ही बच्चों को एक खाली टीन के डिब्बे को पैर से एक दूसरे के पास फेंकते देखकर प्रोफेसर विजय बोराड़े के दिमगा में ख्याल आता है और दूसरे दिन वह उसी -हजयुग्गी बस्ती में फुटबाल लेकर पहुंचते हैं और बच्चों को इस गेंद से आधा घंटा खेलने पर पांच सौ रूपए देने का लालच देते हैं.पांच सौ रूपए के लिए बच्चे राजी हो जाते हैं.फिर प्रोफेसर हर दिन शाम को गेंद लेकर वहां पहुंचने लगे और बच्चों को फुटबाल खेलने के बाद पांच सौ रूपए देने लगे.जब बच्चों की इसकी आदत पड़ गयी,तो पांच सौ रूपए देने से इंकार करते हुए फुटबाल खेलने के लिए गेंद भी नहीं देते.तब बच्चे बिना पैसा लिए फुटबाल खेलना चाहते हैं.अब प्रोफेसर विजय बोराड़े उन बच्चां को एक टीम की तरह फुटबाल खेलना सिखाते हैं.फिर उन बच्चों का कालेज में प-सजय़ रहे बच्चों की फुटबाल टीम के साथ मैच कराते हैं, जिसमें झुग्गी के बच्चो की टीम जीत हासिल करती है.फिर राष्ट्रीय स्तर पर झोपड़पट्टी में रहने वालों का फुटबाल मैच होता है.इसके बाद इस टीम को विदेश में मैच खेलने के लिए निमंत्रण मिलता है.मगर अहम सवाल यह है कि क्या समाज हाशिए पर पड़े इन बच्चों को अपने बीच जगह देता है? इसका जवाब तो फिल्म देखने पर ही मिलेगा.

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लेखन व निर्देशनः

04 मार्च को ओटीटी की बजाय सिनेमाघरो में प्रदर्शित तीन घंटे की अवधि वाली यह फिल्म बोझिल है.बौलीवुड के महानायक कहे जाने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन के कंधे पर इस फिल्म को बाक्स आफिस पर सफल बनाने का बहुत बड़ा बोझ है,जिसमें उन्हे कामयाबी मिलेगी,ऐसी उम्मीद कम है.वास्तव में तीन घंटे की लंबी फिल्म बनाते हुए फिल्म सर्जक नागराज मंजुले यह तय नहीं कर पाए कि वह अमिताभ बच्चन के किरदार विजय बोराड़े को नायक के तौर पर पेश करें अथवा  बच्चों के कठिन जीवन की त्रासदी पर अपना ध्यान केंद्रित करे.परिणामतः फिल्म में तमाम कमियां हैं और यह फिल्म उपेक्षित समाज को हाशिए से बाहर निकालने में असफल रहती है.

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नागराज मंजुले ने अपनी पिछली दो फिल्में ‘फैंडी’ और ‘सैराट’ में जाति विभाजन और अमानवीय सामाजिक रीतिरिवाजों पर कठोर बात की थी.फिल्म झुंड’ में वह काफी डरे व सहमें से नजर आते हैं.‘फैंडी’ और ‘सैराट’ में जिस तरह से प्रखरता व मुखरता से बातें की थी,उतनी मुखरता के साथ वह ‘झुंज’ में नजर नही आते.क्या हिंदी फिल्मकार के रूप में खुद को स्थापित करने के दबाव के चलते उन्होने अपने आपको दबाया? अथवा वह मुख्य किरदार में अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार को लेने के बाद उनके ‘औरा’ के तले दबकर रह गए..?? इसका सही जवाब तो वही जानते होंगे? मगर दोनो ही स्थिति में यह फिल्मकार की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी है. इस कमजोर कड़ी के ही चलते वह फिल्म के मूल मकसद से भटक गए. फिल्म में एक जगह जय भीम के नारे व बाबा साहेब आंबेडकर के पोस्टर व मूर्ति के बीच संगीत की धुन पर कुछ देर लोग थिरकते नजर आए हैं.इससे यह साफ हो जाता है कि इस झुगी बस्ती के पात्र दलित हैं.पर इससे अधिक इस फिल्म में  उपेक्षित समाज के बच्चों या उनके अपराधी बनने पर कुछ खास नही कहा गया है.

नागराज पोपटराव मंजुले की इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि उन्होंने दलित समाज के भटके हुए व वंचित बच्चों को अपनी फिल्म में मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया है. यूं तो इस फिल्म में भी फिल्मकार नागराज मंजुले ने अपनी शैली के अनुरूप इस बात को रेखांकित किया है कि दलित समाज व झुग्गी झोपड़पट्टी में रहने वालों के साथ दूसरे लोग व आर्थिक रूप से संपन्न लोग किस तरह का व्यवहार करते हैं.मगर सब कुछ बहुत सतही रहा. फिल्म के लिए मंजुले ने खुद ही कलाकारों का चयन करते हुए विजय बोराड़े से इतर किरदारों के लिए बौलीवुड कलाकारों से दूरी बनाकर सही कदम उठाया. इन मराठी भाषा कलाकारों की मौजूदगी ने जरुर नागराज मंजुले की मदद की. फिल्मकार ने कहानी में पॉश कालेज के बगल में ही दलित झुग्गी बस्ती को बसाकर काफी कुछ कह दिया है. ‘झुंड’ उत्थान की ऐसी कथा,जिसे कहा जाना अनिवार्य है. मगर नागराज पोपटराव मंजुले अपनी प्रखरता को बरकरार रखते हुए पटकथा पर ध्यान देते,तो यह फिल्म बेहतर बन सकती थी.

वैसे यह फिल्म यह गंदगी से परे देखने का आग्रह करने के साथ एकजुट रहने की अपील करती है.फिल्म इस बात की ओर भी इशारा करती है कि हर इंसान को चाहिए कि वह दूसरे इंसान को उसके काले रंग,जाति,पंथ आदि से परे जाकर स्वीकार करे.

फिल्म काफी लंबी है.इसे कम से कम चालिस मिनट काटकर बनाया जा सकता था. इंटरवल से पहले के मुकाबले इंटरवल के बाद का हिस्सा काफी कमजोर हैं. इंटरवल से पहले बच्चों को फुटबाल का प्रषिक्षण देने के दृष्य को जल्दबाजी में निपटाया गया है.इंटरवल के बाद बच्चों के पासपोर्ट बनाने के सारे दृश्य बेवजह खींचे गए हैं.कोर्ट दृश्य काफी कमजोर है.

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अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो प्रोफेसर विजय बोराड़े के किरदार में अमिताभ बच्चन ने काफी सधा हुआ अभिनय किया है.उनकी पत्नी के किरदार में छाया कदम के लिए करने को कुछ खास रहा ही नही. अंकुश मेश्राम के किरदार में अभिनेता अंकुष गेदम ने काफी बेहतरीन अभिनय किया है.वह अपनी अभिनय शैली व भाव भंगिमा से दर्शकों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल रहे हैं.रिंकू राजगुरू ने कैमियो में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है. अन्य कलाकार ठीक ठाक रहे.

यूक्रेन: आपरेशन गंगा- अपने मुंह मियां मिट्ठू सरकार

रशिया यूक्रेन युद्ध संकट मामले में भारतीय छात्र जो यूक्रेन में फंसे हुए हैं उन्हें सुरक्षित लाने के ऑपरेशन गंगा के संदर्भ में यही दिखाई देता है.

दरअसल, दामोदरदास मोदी सरकार की गलतियों की वजह से हजारों लोग यूक्रेन में फंसे हुए थे जिनमें छात्र बहुतायत संख्या में अब भारत लौट रहे हैं. जब यूक्रेन से छात्र छात्राओं ने वीडियो बनाकर के अपनी पीड़ा को जगजाहिर कर दिया तो नरेंद्र मोदी सरकार हरकत में आई और बचाव काम को तेज कर दिया गया.

सबसे बड़ा सवाल यह है कि लगभग 2 माह से अमेरिका लगातार यह बात कहता आ रहा था कि रूस, यूक्रेन पर हमला करने  ही वाला है, ऐसी स्थिति में संकेत मिल जाने के बाद भी नरेंद्र मोदी सरकार कुंभकरण निद्रा में सोई रही और यूक्रेन में भारतीय जनमानस को भारत लौटने के लिए एडवाइजरी जारी नहीं की.

परिणाम स्वरूप जब युद्ध प्रारंभ हो गया भारत के  हजारों लोग वहां बुरी तरह फंस गए और तब जाकर के भारत सरकार के माथे पर शिकन आई.

भारत के अपने ही नौनिहालों को भारत में लाने के बीच जो गफलते हुई हैं वह दुखद भी है और हास्यास्पद भी. और यह बताता है कि हमारी सरकारें हमारा प्रशासन तंत्र किस तरह खामियों से भरा हुआ है.

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पोल,  वायरल विडियो से खुली

देश में रोमानिया गए मोदी कैबिनेट के नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का एक वीडियो सोशल मीडिया पर खासा वायरल  है.

इस विडियो में रोमानिया के मेयर सिंधिया को टोकते हुए याद दिला रहे हैं कि हमने इन भारतीय छात्रों के खाने और रहने का इंतजाम किया था, आपने नहीं!

हालांकि बाद में झेंप मिटाने के लिए सिंधिया आखिर में कहते हैं कि वो मदद के लिए रोमानिया के अधिकारियों का शुक्रिया अदा करते हैं.

दरअसल, नरेंद्र मोदी सरकार के 4 मंत्री यूक्रेन के आसपास स्थित देशों में भेजे गए हैं. भारत के यह कैबिनेट मंत्री  “ऑपरेशन गंगा” के तहत भारतीय छात्रों को वापस भारत लाने के लिए इंतजाम कर रहे हैं और नागरिक उड्डयन मंत्री सिंधिया रोमानिया में मोर्चा संभाले हुए हैं. और इस वीडियो को देखकर ऐसा लगता है जैसे मोदी सरकार के मंत्री सिर्फ फूल लेकर के मानव स्वागत के लिए चले गए हैं उन्हें यह नहीं पता कि युद्ध के समय फंसे हुए अपने नागरिकों के लिए भोजन और रसद की भी व्यवस्था करनी चाहिए.

ज्योतिरादित्य सिंधिया का एक वीडियो वायरल हो रहा है. जिसमें आप भारतीय छात्रों से बात कर रहे हैं. जब सिंधिया अपनी सरकार की वाहवाही करते हैं तो तभी रोमानिया के मेयर उन्हें टोकते हुए याद दिलाते हैं कि इन छात्रों के रहने और खाने का इंतजाम हमने किया है, आपकी भारत सरकार ने नहीं!

रोमानिया के मेयर कहते हैं – आप सिर्फ अपनी बात कीजिए. वीडियो में दिखता है कि इस पर सिंधिया थोड़ा असहज होते हैं और एक तरह से चिढ़कर कहते हैं कि मैं क्या बोलूंगा यह मैं तय करूंगा. मेयर फिर से उन्हें करारा जवाब देते हुए कहते हैं कि आप अपनी बात कीजिए.वीडियो नें दिखता है कि मेयर की बात पर वहां बैठे छात्र ताली बजाकर उनका समर्थन करते हैं.

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अपनी पीठ ठोंकती सरकार

आज नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार दरअसल अपनी पीठ ठोकने में ज्यादा विश्वास रखती है. कोई भी बात हो चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक हो उसमें नरेंद्र मोदी और उसकी संपूर्ण कैबिनेट भारतीय जनता पार्टी अपनी पीठ स्वयं थपथपाने लगती है.और यह भी नहीं सोचती कि आपका काम सिर्फ अपना काम करना है, आपकी प्रशंसा आपकी पीठ देश की जनता ठोंकेगी , शाबाशी देगी या फिर भला बुरा कहेगी.

2014 के बाद एक नई परीपाटी शुरू हुई है अपना हर काम चाहे वह कितना ही गलत हो उसे सही साबित करने का प्रयास किया जाता है. और  अपनी तारीफ करने में जरा भी गुरेज नहीं है अर्थात अपने मुंह मियां मिट्ठू सरकार है मोदी सरकार.

यूक्रेन संकट के मामले में भी मोदी और उसका कैबिनेट जगह जगह असफलता लिए हुए ही दिखाई देता है.

कारपेंटर का काम करते हुए फिल्म निर्देशक बने शादाब सिद्दिकी

इंसान यदि कुछ बनना चाहे, तो पूरी कायनात उसकी मदद करने के लिए तैयार रहती है. यह महज एक कहावत या फिल्मी संवाद नही है. बल्कि एक कटु सत्य है. इसकी मिसाल हैं मदरसे की प-सजय़ाई और कारपेंटर का काम करते हुए फिल्म निर्देशक बन जाने वाले शादाब सिद्दिकी की. शादाब सिद्दिकी की बतौर लेखक एक फिल्म ‘‘है सलाम तुझे इंडिया’’, ‘‘ हंगामा प्ले ’’ पर स्ट्रीम हो रही है. वह अब तक ‘‘लव इन स्लम’ व ‘व्हेअर इज नजीब’जैसी लघु फिल्मों तथा ‘फखर से कहो हम मुसलमान हैं’, राह का तेरी मुसाफिर’,‘पल पल’ व ‘खुदा के बाद’ सहित पचीस से अधिक म्यूजिक वीडियो निर्देशित कर चुके हैं.

अब वह दिग्गज गायक राहत फतेह अली द्वारा संगीतबद्ध व स्वरबद्ध गीत ‘‘रोंदे नैन हमारे.. ’’ का म्यूजिक वीडियो फिल्माने जा रहे हैं,जिसमें राहत फतेह अली खान भी होंगें.

सवाल-  शादाब,आपको फिल्मों से जुड़ने का नशा कैसे सवार हुआं?अपनी अब तक की यात्रा के संदर्भ में क्या कहेंगें?

जवाब- मैं संतकबीर नगर, उत्तर प्रदेश में कुंदवा गांव का निवासी हूं. मेरी शिक्षा पहले गांव के मदरसे में हुई.फिर बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर स्कूल में हुई. मेरे गांव के एक तरफ गंगा बह रही हैं, दूसरी तरफ छोटी गंगा बह रही हैं और बीच में हमारा खूबसूरत गांव है.संत कबीर का अंतिम समय यही गुजरा. इसलिए यहां गंगा जमुनी तहजीब भी है. स्कूली शिक्षा आठवीं तक हुई. फिर मैं मुंबई आ गया था, क्योंकि पढ़ाई में मन नही लग रहा था. उस उम्र में मैं पढ़ाई के महत्व को समझ नहीं पा रहा था.वास्तव में जब मैं आठ साल का था, तभी से मेरे दिमाग में सिनेमा घुस गया था. मुंबई सपनों की नगरी है. यहां आकर मैं भी अपने पिता व चाचा के फर्नीचर के व्यापार से जुड़ गया. हमारे पास आरा मशीन भी थी.

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जी हां, मेरी अब तक की यात्रा अविश्वसनीय रूप से रोमांचक और भावनात्मक रही.सिनेमा के लिए मेरा जुनून 8 साल की छोटी उम्र में शुरू हुआ था.उसके बाद दुनिया विकसित हो गई. सिनेमा की तकनीक में भी काफी बदलाव आ गया.लेकिन जब मैं सिर्फ एक लड़का था, तो मैं अपने समय की तकनीक से प्रभावित था.सीडी के जरिए फिल्म देखने के मौके ने मेरे अंदर के जोश को सजाया. जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मैं वास्तव में अपने सपने को समझ पाया. अपने विचारों को अपनी वास्तविकता बनाने के लिए, मैंने तय किया कि यह मेरे आराम क्षेत्र से बाहर निकलने और सपनों के शहर मुंबई में अपने जुनून को आगे बढ़ाने का समय है. बहुत जल्द ‘हर कोई संघर्ष से गुजरता है‘ मुहावरा मेरी समझ में आ गया.

मुंबई पहुंचने के बाद कारपेंटर या यूं कहें कि समझ के रूप में काम करने से लेकर अपने चाचा का व्यवसाय चलाने तक, मैंने काफी कुछ किया. बहुत कुछ सीखा. फिर मैंने फिल्मों में बतौर सहायक प्रोडकशन मैनेजर काम किया.फिर मैंने कई फिल्मों का प्रोडक्शन डिजायनर रहा. फिर 2016 में लघु फिल्म ‘‘लव इन स्लम‘‘ का निर्देशन किया,जिसने मुझे काफी शोहरत दी. उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 2017 में मेरी दूसरी लघु फिल्म ‘‘ह्वेयर इज नजीब‘‘ ने तो मुझे स्टार बना दिया. उसके बाद से लगातार काम करते हुए अब तक तकरीबन पचीस म्यूजिक वीडियो निर्देशित कर चुका हूं. इन म्यूजिक वीडियो में ‘फखर से कहो हम मुसलमान हैं’, ‘तिरंगा’,‘एक कदम’‘जाकिर के 40 दिन का निशान’,‘काला दिन’,‘दे गोली’,‘ ख्वाब’,‘शिकवा द अनटोल्ड लव स्टोरी’,‘नवाजिश’,‘राह का तेरी मुसाफिर’ व ‘खुदा के बाद’ का समावेश है. इतना ही नही मैंने फिल्म ‘‘है तुझे सलाम’ का लेखन किया, जो इन दिनों ‘हंगामा प्ले’पर स्ट्रीम हो रही है. अब हम राहत फतेह अली खान के गीत के म्यूजिक वीडियो का निर्देशन करने जा रहे हैं.

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सवाल- फिल्म ‘‘है तुझे सलाम इंडिया’’ के माध्यम से आपने क्या कहने का प्रयास किया है?

जवाब- इस फिल्म में जवान व किसान का मुद्दा है. जवान और किसान दोनों इस देश की रीढ़ की हड्डी है.हमारे देश का जवान सदैव सरहद पर मौजूद रहता है. वह देश सेवा में सदैव तत्पर रहता है. तो वहीं किसान खेतों में काम करता रहता है.वह हमारा अन्नदाता है.हमारी फिल्म में जवानों के परिवार की समस्याओं का चित्रण करने के साथ ही इस बात का संदेश है कि हमें जवानों के परिवार के साथ सदैव खड़े रहना चाहिए.वहीं किसानों की जो बदहाली है, उसे हम सभी अनदेखा करते रहते हैं. हमारी फिल्म का संदेश है कि देश के अन्नदाता यानी कि किसान से हमें बात करनी चाहिए.

सवाल- आपके अनुसार किसान व जवान के साथ क्या होना चाहिए?

जवाब- देखिए,मेरी राय में अन्नदाता को लेकर कोई समझौता वादी रूख नहीं अपनाया जाना चाहिए. भारत की जमीन तो सोना उगलती है.पर सोना सही तरीके से सही जगह पहुंचना चाहिए. उसकी सिस्टमैटिक वैल्यू होनी चाहिए.जो इस सोने को अपनी मेहनत व पसीने से निकाल रहा है, उसका पहला हक इस सोने पर होना चाहिए.ऐसे में सरकार को सबसे पहले किसान के बारे में सोचना चाहिए.किसानों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए. सदियों पुराने कानून को भी बदलना चाहिए. सरकार को देश के लोगों,किसानों के बीच जाना चाहिए और बातें करना चाहिए.उनकी समस्या को समझकर उसका निदान ढूढना चाहिए.

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सवाल- आपने पहले कई सफल म्यूजिक वीडियो बनाए हैं.अब पहली बार आप राहत फतेह अली खान जी के गाने पर काम कर रहे हैं.इस पर कुछ रोशनी डालेंगें?

जवाब- लंबे समय से मैं नए और स्थापित कलाकारों के साथ म्यूजिक बनाता आया हूं. लेकिन राहत फतेह अली खान साहब लीजेंडरी गायक हैं.उनके पूरे खानदान के लोग रसूख वाले हैं.उन पर मां सरस्वती का भरपूर आशिर्वाद है. मैं हमेशा अच्छे कलाकारों के साथ काम करने का प्रयास करता हूं. इस अलबम का निर्माण मेरे दोस्त रजत शर्मा और हिमांषु अग्रवाल ने ‘स्टूडियो 7 रिकार्ड्स’ के अरविंद के साथ मिलकर कर रहे हैं. इन दोंनो ने मुझे राहत फतेह अली खान साहब के गाने ‘‘रोंदे नैन हमारे..’’ का ऑडियो सुनाया था. जिसे करामात जी ने लिखा है. इस गाने के बोल पंजाबी फोक से हैं. इसका ऑडियो पाकिस्तान के तकनीशियनों ने ही बनाया है. इसका रिकार्ड लेबल कनाडा का है.

रजत शर्मा और हिमांशु अग्रवाल इससे पहले रफ्तार सहित कई बड़े गायकों के साथ काम कर चुके हैं. रजत शर्मा ने जब मुझे राहत साहब द्वारा स्वरबद्ध यह गाना सुनाया, तो मैं मंत्रमुग्ध हो गया. इस गाने की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस गाने को राहत साहब ने स्वयं संगीत से भी संवारा है. अब तक हम सभी ने राहत साहब को जो सुना है, उससे यह गाना बहुत ही ज्यादा अलग है. श्रोताओं को भी कुछ नया सुनने को मिलेगा. इतना ही नहीं इस गाने के वीडियो का भी राहत साहब हिस्सा बनेंगे.

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सवाल- इस गाने को संगीत से संवारने व स्वरबद्ध करने के लिए राहत साहब ने क्यों चुना. इस बारे में उनसे कोई बात हुई?

जवाब– राहत साहब के अनुसार यह गाना उनके दिल के काफी करीब है. राहत साहब उन गायको में से हैं जो कि खानदानी हैं और उन पर मां सरस्वती मेहरबान है. राहत साहब जज्बात गाते हैं. अगर आपके पास गीत की पंक्तियां नही है, तो यदि राहत साहब ने आलाप भी ले लिया, तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाएगा. यह गाना राहत साहब के इतना करीब था कि उन्होंने स्वयं इसे संगीतबद्ध करने के साथ गाया भी.

आपने मदरसे में पढ़ाई की है तो आप बताएं कि मदरसे या हिंदी माध्यम की पढ़ाई से आगे कैरियर बनाने में किस तरह की समस्याएं आती हैं?

जवाब– मदरसे से पढ़कर काफी लोग आगे बढ़े हैं. मगर मदरसे में जो पढ़ाया जाता है,वह तो पढ़ाया जाए.मगर मेरा मानना है कि दीन के साथ दुनिया की बातें भी पढ़ाई जानी चाहिए. दुनियावी किताबों को भी मदरसे में पढ़ाये जाने की बहुत जरुरत है. मैंने इस दिशा में अपने गांव में काफी काम किया है. मगर इस पर पूरे देश में काफी काम किए जाने की जरुरत है, जिससे मदरसों की हालत सुधर सके.

मदरसे में हिंदी व अंग्रेजी में भी तालीम दी जानी चाहिए.जिससे लोगों का भविष्य उज्ज्वल हो सके. हमने अपने गांव में एक लड़ाई लड़कर अपने गांव के मदरसे में हिंदी व अंग्रेजी की किताबें रखवाने के साथ ही इन भाषाओं में पढ़ाई शुरू करवाने में सफल रहा.

सवाल- किस तरह के विषयों पर काम करना पसंद हैं?

जवाब– मुझे हर तरह के विषय पर काम करना पसंद है. मैंने विविधतापूर्ण लघु फिल्में व म्यूजिक वीडियो निर्देशित किए हैं. वैसे मुझे सामाजिक व राजनीतिक विषय ज्यादा आकर्शित करती है.मगर मैं सब कुछ वास्तविकता के धरातल पर पेश करने में यकीन करता हूं.

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अब तक का आपका संघर्ष?

जवाब– पहले ही कहा कि हर इंसान को संघर्ष से गुजरना पड़ता है.मैं हर कठिन परिस्थिति में सकारात्मकता के साथ आगे बढ़ता हूं. यह एक यात्रा है, इसलिए यदि मैं विनम्रतापूर्वक कहूं कि जीवन एक बाधा दौड़ है. और भगवान की कृपा से, मेरे सामने इतनी सारी चुनौतियाँ नहीं थीं जिनका मैंने सामना किया. फिल्म इंडस्ट्री में मेरा करियर अभी शुरू हुआ है. और इस शुरूआत में ही लीजेंडरी गायक व संगीतकार राहत फतेह अली साहब के साथ काम करने का अवसर मिलना किसी आशिर्वाद से कम नहीं है.

किंजल की सौतन की होगी एंट्री, शाह परिवार के उड़ जाएंगे होश

टीवी सीरियल अनुपमा में  इन कहानी में दिलचस्प मोड़ दिखाया जा रहा है. जिससे दर्शकों को एंटरटेनमेंट का डबल डोज मिल रहा है. शो में अब तक आपने देखा कि शाह हाउस में ढोल- नगाड़ों के साथ राखी दवे की एंट्री हुई. वह नानी बनने की खबर से काफी खुश है लेकिन शाह हाउस में फिर से बड़ा धमाका करने वाली है. शो के नए एपिसोड में बड़ा ट्विस्ट आने वाला है. आइए बताते हैं, शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो में दिखाया जा रहा है कि परितोष इतना खुश नहीं है कि वह पापा बनने वाला है. इस बात से अनुपमा और किंजल परेशान है. अनुपमा वनराज से कहती है कि पारितोष को इस नए शुरूआत के लिए समझाना पड़ेगा. वनराज भी अनुपमा के इस बात का सपोर्ट करता है.

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तो वहीं शाह परिवार में किंजल के मां बनने की खबर से सभी घरवाले खुश है लेकिन परितोष कहेगा कि मुझे अभी पापा नहीं बनना है. जबकि किंजल मां बनने के लिए तैयार है.

 

शो में आप देखेंगे कि राखी दवे को कुछ गड़बड़ लगेगा कि आखिर परितोष पापा बनने की खबर से इतना खुश क्यों नहीं है. वह परितोष की सच्चाई जानने के लिए पता करेगी. रिपोर्ट के अनुसार, कहानी में एक नया ट्रैक आएगा.जी हां बताया रहा है कि राखी दवे को पता चलेगा कि परितोष की गर्लफ्रेंड है.

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शो के आने वाले एपिसोड में राखी दवे बड़ा ड्रामा करेगी. खबरों के अनुसार,परितोष की गर्लफ्रेंड का कनेक्शन राखी से है. परितोष की गर्लफ्रेंड, राखी दवे की पिछली कंपनी की को-वर्कर है. इससे कहानी में दिलचस्प मोड़ आएगा. वह पारितोष का सच सबके सामने लाएगी. दरअसल यह सच्चाई किंजल के गोद भराई समारोह में सामने आएगा.

कोरा कागज: माता-पिता की सख्ती से घर से भागे राहुल के साथ क्या हुआ?

Writer- Sudha Jugran

राहुल औफिस से घर आया तो पत्नी माला की कमेंट्री शुरू हो गई, ‘‘पता है, हमारे पड़ोसी शर्माजी का टिंकू घर से भाग गया.’’

‘‘भाग गया? कहां?’’ राहुल चौंक कर बोला.

‘‘पता नहीं, स्कूल की तो आजकल छुट्टी है. सुबह दोस्त के घर जाने की बात कह कर गया था. तब से घर नहीं आया.’’

‘‘अरे, कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई. पुलिस में रिपोर्ट की या नहीं?’’ राहुल डर से कांप उठा.

‘‘हां, पुलिस में रिपोर्ट तो कर दी पर 13-14 साल का नादान बच्चा न जाने कहां घूम रहा होगा. कहीं गलत हाथों में न पड़ जाए. नाराज हो कर गया है. कल रात उस को बहुत डांट पड़ी थी, पढ़ाई के कारण. उस की मां तो बहुत रो रही हैं. आप चाय पी लो. मैं जाती हूं, उन के पास बैठती हूं. पड़ोस की बात है, चाय पी कर आप भी आ जाना,’’ कह कर माला चली गई.

राहुल जड़वत अपनी जगह पर बैठा का बैठा ही रह गया. उस के बचपन की एक घटना भी कुछ ऐसी ही थी, जरा आप भी पढ़ लीजिए :

वर्षों पहले उस दिन बस से उतर कर राहुल नीचे खड़ा हो गया था. ‘अब कहां जाऊं?’ वह सोचने लगा, ‘पिता की डांट से दुखी हो कर मैं ने घर तो छोड़ दिया. आगरा से दिल्ली भी पहुंच गया, लेकिन अब कहां जाऊं? घर तो किसी हालत में नहीं जाऊंगा.’ उस ने अपना इरादा पक्का किया, ‘पता नहीं क्या समझते हैं मांबाप खुद को. हर समय डांट, हर समय टोकाटाकी, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, टीवी मत देखो, दोस्तों से फोन पर बात मत करो, हर समय बस पढ़ो.’

उस की जेब में 500 रुपए थे. उन्हें ही ले कर वह घर से चल दिया था. 13 साल के राहुल के लिए 500 रुपए बहुत थे.

दुनिया घर से बाहर कितनी भयानक और जिंदगी कितनी त्रासदीपूर्ण होती है इस का उसे अंदाजा भी नहीं था. नीली जींस और गुलाबी रंग का स्वैटर पहने स्वस्थ, सुंदर बच्चा अपने पहनावे और चालढाल से ही संपन्न घर का लग रहा था.

बस अड्डे पर बहुत भीड़ थी. राहुल एक तरफ खड़ा हो गया. बसों की रेलमपेल, टिकट खिड़की की लाइन, यात्रियों का रेला, चढ़नाउतरना. टैक्सी व आटो वालों का यात्रियों के पीछे पड़ना. यह सब वह खड़ेखड़े देख रहा था.

उस के मन में तूफान सा भरा था. घर तो जाना ही नहीं है. जब वह शाम तक घर नहीं पहुंचेगा तब सब उसे ढूंढ़ेंगे. मां रोएंगी. पिता चिंता करेंगे. बहन उस के दोस्तों के घर फोन मिलाएगी. खूब परेशान होंगे सब. अब हों परेशान. जब पापा हर समय डांटते रहते हैं, मां हर छोटीछोटी बात पर पापा से उस की शिकायत करती रहती हैं तब वह रोता है तो किसी को नहीं दिखता है.

पापा के घर आते ही जैसे घर में कर्फ्यू लग जाता है. न कोई जोर से बोलेगा, न जोर से हंसेगा, न फोन पर बात करेगा, न टीवी देखेगा. उन्हें तो बस बच्चे पढ़ते हुए नजर आने चाहिए. हर समय पढ़ने के नाम से तो उसे नफरत सी हो गई.

छोटीछोटी बातों पर दोनों झगड़ते भी रहते हैं. छोटेमोटे झगड़े से तो इतना फर्क नहीं पड़ता पर जब पापा के दहाड़ने की और मां के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है तो वह दीदी के पहलू में छिप जाता है. बदन में कंपकंपी होने लगती है. अब कहीं उस का भी नंबर न आ जाए पिटने का, वैसे भी उस के रिपोर्ट कार्ड से पापा हमेशा ही खफा रहते हैं.

अगले कुछ दिनों तक घर का वातावरण दमघोंटू हो जाता है. मां की आंखें हर वक्त आंसुओं से भरी रहती हैं और पापा तनेतने से रहते हैं. उसे संभल कर रहना पड़ता है. दीदी बड़ी हैं, ऊपर से पढ़ने में अच्छी, इसलिए उन को डांट कम पड़ती है.

वह घर के वातावरण के ठीक होने का इंतजार करता है. घर के वातावरण का ठीक होना पापा के मूड पर निर्भर करता है. बड़ी मुश्किल से पापा का मूड ठीक होता है. जब तक सब चैन की सांस लेते हैं तब तक किसी न किसी बात पर उन का मूड फिर खराब हो जाता है. तंग आ गया है वह घर के दमघोंटू वातावरण से.

इस बार तिमाही परीक्षा के रिजल्ट पर मैडम ने पापा को बुलाया. स्कूल से आ कर पापा ने उसे खूब डांटा, मारा. उस का हृदय दुखी हो गया. पापा के शब्द अभी तक उस के कानों में गूंज रहे थे, ‘तेरे जैसी औलाद से तो बेऔलाद होना अच्छा है.’

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उस का हृदय तारतार हो गया था. उसे कोई पसंद नहीं करता. उस की समस्या, उस के नजरिए से कोई देखना नहीं चाहता, समझना ही नहीं चाहता. दीदी कहती हैं कि पढ़ाई अच्छी कर ले, सब ठीक हो जाएगा लेकिन उस का मन पढ़ाई में लगता ही नहीं. पढ़ाई उसे पहाड़ जैसी लगती है. उस ने दीदी से कहा भी था कि मैथ्स, साइंस में उस का मन बिलकुल नहीं लगता, उसे समझ ही नहीं आते दोनों विषय, पर पापा कहते हैं साइंस ही पढ़ो. वैसे भी विषय तो वह 10वीं के बाद ही बदल सकता है. राहुल इसी सोच में डूबा था कि एक टैक्सी वाले ने उसे जोर से डांट दिया.

‘अबे ओ लड़के, मरना है क्या? बीचोंबीच खड़ा है, बेवकूफ की औलाद. एक तरफ हट कर खड़ा हो.’

राहुल अचकचा कर एक तरफ खड़ा हो गया. ऐसे गाली दे कर तो कभी किसी ने उस से बात नहीं की थी.

उस की आंखें अनायास ही छलछला आईं पर उस ने खुद को रोक लिया. उसे इस तरह सोचतेसोचते काफी लंबा समय बीत गया था. शाम ढलने को थी. भूख लग आई थी और ठंड भी बढ़ रही थी. उस के बदन पर सिर्फ एक स्वैटर था. उस ने गले का मफलर और कस कर लपेटा और सामने खड़े ठेलीवाले वाले की तरफ बढ़ गया. सोचा पहले कुछ खा ले फिर आगे की सोचेगा. ठेली पर जा कर उस ने कुछ खानेपीने का सामान लिया और एक तरफ बैठ कर खाने लगा.

तभी एक बदमाश किस्म का लड़का उस के चारों तरफ चक्कर काटने लगा. वह बारबार उस की बगल में आ कर खड़ा हो जाता. आखिर राहुल से न रहा गया. वह बोला, ‘क्या बात है, आप इस तरह मेरे चारों तरफ क्यों घूम रहे हैं?’

‘साला, अकड़ किसे दिखा रहा है? तेरे बाप की सड़क है क्या?’ लड़का अपने पीले दांतों को पीसते हुए बोला.

राहुल उस के बोलने के अंदाज से डर गया.

‘मैं तो सिर्फ पूछ रहा था,’ कह कर वह वहां से हट कर थोड़ा अलग जा कर खड़ा हो गया. लड़का थोड़ी देर बाद फिर उस के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘कहां से आया है बे? अकेला है क्या?’ वह आंखें नचाता हुआ राहुल से पूछने लगा. राहुल ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘अबे बोलता क्यों नहीं, कहां से आया है? अकेला है क्या?’

‘आगरा से,’ किसी तरह राहुल बोला.

‘अकेला है क्या?’

राहुल फिर चुप हो गया.

‘अबे लगाऊं एक, साला, बोलता क्यों नहीं?’

‘हां,’ राहुल ने धीरे से कहा.

‘अच्छा, घर से भाग कर आया है,’ उस लड़के के हौसले थोड़े और बुलंद हो गए. तभी वहां उसी की तरह के उस से कुछ बड़े 3 लड़के और आ गए.

‘राजेश, यह कौन है?’ उन लड़कों में से एक बोला.

‘घर से भाग कर आया है. अच्छे घर का लगता है. अपने मतलब का लगता है. उस्ताद खुश हो जाएगा,’ उस ने पूछने वाले के कान में फुसफुसाया.

‘क्यों भागा बे घर से, बाप की डांट खा कर?’ दूसरे लड़के ने राहुल से पूछा.

‘हां,’ राहुल उन चारों को देख कर डर के मारे कांप रहा था.

‘मांबाप साले ऐसे ही होते हैं. बिना बात डांटते रहते हैं. मैं भी घर से भाग गया था, मां के सिर पर थाली मार कर,’ वह उस के गाल सहला कर, उस को पुचकारता हुआ बोला, ‘ठीक किया तू ने, चल, हमारे साथ चल.’

‘मैं तुम लोगों के साथ नहीं जाऊंगा,’ राहुल सहमते हुए बोला.

‘अबे चल न, यहां कहां रहेगा? थोड़ी देर में रात हो जाएगी, तब कहां जाएगा?’ वे उसे जबरदस्ती अपने साथ ले जाना चाह रहे थे.

‘नहीं, मुझे अकेला छोड़ दो. मैं तुम लोगों के साथ नहीं जाऊंगा,’ डर के मारे राहुल की आंखों से आंसू बहने लगे. वह उन से अनुनय करने लगा, ‘प्लीज, मुझे छोड़ दो.’

‘अरे, ऐसे कैसे छोड़ दें. चलता है हमारे साथ या नहीं? सीधेसीधे चल वरना जबरदस्ती ले जाएंगे.’

इस सारे नजारे को थोड़ी दूर पर बैठे एक सज्जन देख रहे थे. उन्हें लग रहा था शायद बच्चा अपनों से बिछड़ गया है.

उन लड़कों की जबरदस्ती से राहुल घबरा गया और रोने लगा. अंधेरा गहराने लगा था. डर के मारे राहुल को घर की याद भी आने लगी थी. घर वालों को मालूम भी नहीं होगा कि वह इस समय कहां है. वे तो उसे आगरा में ढूंढ़ रहे होंगे.

आखिर एक लड़के ने उस का हाथ पकड़ा और जबरदस्ती अपने साथ घसीटने लगा. राहुल उस से हाथ छुड़ाने की कोशिश कर रहा था. दूर बैठे उन सज्जन से अब न रहा गया. उन का नाम सोमेश्वर प्रसाद था, एकाएक वे अपनी जगह से उठ कर उन लड़कों की तरफ बढ़ गए और साधिकार राहुल का हाथ पकड़ कर बोले, ‘अरे, बंटी, तू कहां चला गया था? मैं तुझे कितनी देर से ढूंढ़ रहा हूं. ऐसे कोई जाता है क्या? चल, घर चल जल्दी. बस निकल जाएगी.’

फिर उन लड़कों की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘क्या कर रहे हो तुम लोग मेरे बेटे के साथ? करूं अभी पुलिस में रिपोर्ट. अकेला बच्चा देखा नहीं कि उस के पीछे पड़ गए.’

सोमेश्वर प्रसाद को एकाएक देख कर लड़के घबरा कर भाग गए. राहुल सोमेश्वर प्रसाद को देख कर चौंक गया. लेकिन परिस्थितियां ऐसी थीं कि उस ने उन के साथ जाने में ही भलाई समझी. उम्रदराज शरीफ लग रहे सज्जन पर उसे भरोसा हो गया.

थोड़ी देर बाद राहुल सोमेश्वर प्रसाद के साथ जयपुर की बस में बैठ कर चल दिया.

सोमेश्वर प्रसाद का स्टील के बरतनों का व्यापार था और वे व्यापार के सिलसिले में ही दिल्ली आए थे. सोमेश्वर प्रसाद ने उस के बारे में जो कुछ पूछा, उस ने सभी बातों का जवाब चुप्पी से ही दिया. हार कर सोमेश्वरजी चुप हो गए और उन्होंने उसे अपने घर ले जाने का निर्णय ले लिया.

घर पहुंचे तो उन की पत्नी उन के साथ एक लड़के को देख कर चौंक गईं. उन्हें अंदर ले जा कर बोलीं, ‘कौन है यह? कहां से ले कर आए हो इसे?’

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‘यह लड़का घर से भागा हुआ लगता है. कुछ बदमाश इसे अपने साथ ले जा रहे थे. अच्छे घर का बच्चा लग रहा है. इसलिए इसे अपने साथ ले आया. अभी घबराहट और डर के मारे कुछ बता नहीं रहा है. 2-4 दिन बाद जब इस की घबराहट कुछ कम होगी, तब बातोंबातों में प्यार से सबकुछ पूछ कर इस के घर खबर कर देंगे,’ सोमेश्वर प्रसाद पत्नी से बोले, ‘अभी तो इसे खानावाना खिलाओ, भूखा है और थका भी. कल बात करेंगे.’

सोमेश्वरजी के घर में सब ने उसे प्यार से लिया. धीरेधीरे उस की घबराहट दूर होने लगी. वह उन के परिवार में घुलनेमिलने लगा. रहतेरहते उसे 15 दिन हो गए. राहुल को अब घर की याद सताने लगी. वह अनमना सा रहने लगा. मम्मीपापा की, स्कूल की, संगीसाथियों की याद सताने लगी. महसूस होने लगा कि जिंदगी घर से बाहर इतनी सरल नहीं, ये लोग भी उसे कब तक रखेंगे. किस हैसियत से यहां पर रहेगा? क्या नौकर की हैसियत से? 13-14 साल का लड़का इतना छोटा भी नहीं था कि अपनी स्थिति को नहीं समझता.

और एक दिन उस ने सोमेश्वर प्रसाद को अपने बारे में सबकुछ बता दिया. उस से फोन नंबर ले कर सोमेश्वरजी ने उस के घर फोन किया, जहां बेसब्री से सब उस को ढूंढ़ रहे थे. एकाएक मिली इस खबर पर घर वालों को विश्वास ही नहीं हुआ. जब सोमेश्वरजी ने फोन पर उन की बात राहुल से कराई तो वह फूटफूट कर रो पड़ा.

‘मुझे माफ कर दो पापा, मैं आज से ऐसा कभी नहीं करूंगा, मन लगा कर पढ़ूंगा. मुझे आ कर ले जाओ,’ कहतेकहते उस की हिचकियां बंध गईं. उस की आवाज सुन कर पापा का कंठ भी अवरुद्ध हो गया.

राहुल के घर से भागने के मामले में वे कहीं न कहीं खुद को जिम्मेदार समझ रहे थे. उन की अत्यधिक सख्ती ने उन के बेटे को अपने ही घर में पराया कर दिया था. उसे अपना ही घर बेगाना लगने लगा.

हर बच्चे का स्वभाव अलग होता है. राहुल की बहन उसी माहौल में रह रही थी. लेकिन वह उस घुटन भरे माहौल में नहीं रह पा रहा था. फिर यों भी लड़कों का स्वभाव अधिक आक्रामक होता है.

जब बेटे को खोने का एहसास हुआ तो अपनी गलतियां महसूस होने लगीं. सभी बच्चों का दिमागी स्तर और सोचनेसमझने का तरीका अलग होता है. अपने बच्चों के स्वभाव को समझना चाहिए. किस के लिए कैसे व्यवहार की जरूरत है, यह मातापिता से अधिक कोई नहीं समझ सकता. किशोरावस्था में बच्चे मातापिता को नहीं समझ सकते, इसलिए मातापिता को ही बच्चों को समझने की कोशिश करनी चाहिए.

खैर, उन के बेटे के साथ कोई अनहोनी होने से बच गई. अब वे बच्चों पर ध्यान देंगे. अब थोड़े समय उन के बच्चों को उन के प्यार, मार्गदर्शन व सहयोग की जरूरत है. हिटलर पिता की जगह एक दोस्त पिता कहलाने की जरूरत है, जिन से वे अपनी परेशानियां शेयर कर सकें.

मन ही मन ऐसे कई प्रण कर के राहुल के मम्मीपापा राहुल को लेने पहुंच गए. राहुल मम्मीपापा से मिल कर फूटफूट कर रोया. उसे भी महसूस हो गया कि वास्तविक जिंदगी कोई फिल्मी कहानी नहीं है. अपने मातापिता से ज्यादा अपना और बड़ा हितैषी इस संसार में कोई नहीं. उन्हें ही अपना समझना चाहिए तो सारा संसार अपना लगता है और उन्हें बेगाना समझ कर सारा संसार पराया हो जाता है.

ये 15 दिन राहुल और राहुल के मातापिता के लिए एक पाठशाला की तरह साबित हुए. दोनों ने ही जिंदगी को एक नए नजरिए से देखना सीखा.

राहुल अभी सोच में ही डूबा था कि तभी दुखी सी सूरत लिए माला बदहवास सी आई. वह अतीत से वर्तमान में लौट आया.

‘‘सुनो, जल्दी चलो जरा. बड़ी अनहोनी घट गई, टिंकू की लाश हाईवे पर सड़क किनारे झाडि़यों में पड़ी मिली है, पता नहीं क्या हुआ उस के साथ.’’

‘‘क्या?’’ सुन कर राहुल बुरी तरह से सिहर गया, ‘‘अरे, यह क्या हो गया?’’

‘‘बहुत बुरा हुआ. मातापिता तो बुरी तरह बिलख रहे हैं. संभाले नहीं संभल रहे. इकलौता बेटा था. कैसे संभलेंगे इतने भयंकर दुख से,’’ बोलतेबोलते माला का गला भर आया.

‘‘चलो,’’ राहुल माला के साथ तुरंत चल दिया. चलते समय राहुल सोच रहा था कि टिंकू उस के जैसा भाग्यशाली नहीं निकला. उसे कोई सोमेश्वर प्रसाद नहीं मिला. हजारों टिंकुओं में से शायद ही किसी एक को कोई सोमेश्वर प्रसाद जैसा सज्जन व्यक्ति मिलता है.

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बच्चे सोचते हैं कि शायद घर से बाहर जिंदगी फिल्मी स्टाइल की होगी. घर से भाग कर वे जानेअनजाने मातापिता को दुख पहुंचाना चाहते हैं. उन पर अपना आक्रोश जाहिर करना चाहते हैं. पर मातापिता की छत्रछाया से बाहर जिंदगी 3 घंटे की फिल्म नहीं होती, बल्कि बहुत भयानक होती है. बच्चों को इस बात का अनुभव नहीं होता. उन्हें समझने और संभालने के लिए मातापिता को कुछ साल बहुत सहनशक्ति से काम लेना चाहिए. बच्चों का हृदय कोरे कागज जैसा होता है, जिस पर जिस तरह की इबारत लिख गई, जिंदगी की धारा उधर ही मुड़ गई, वही उन का जीवन व भविष्य बन जाता है.

उस दिन अगर उसे सोमेश्वर प्रसाद नहीं मिलते तो पता नहीं उस का भी क्या हश्र होता. सोचते सोचते राहुल माला के साथ तेजी से कदम बढ़ाने लगा.

इन बातों का रखें ध्यान, हमेशा रहेंगे हेल्दी

अच्छी सेहत सभी की चाहत होती है. अगर आपकी सेहत अच्छी है, आप हेल्दी हैं तो जीवन में कुछ भी हासिल कर सकती हैं. पर आज जिस तरह की लोगों की लाइफस्टाइल हो गई है उनके लिए सेहत का ख्याल रख पाना काफी मुश्किल हो  रहा है. ऐसे में हम आपको बताने वाले हैं कुछ जरूरी बातें जिनको ध्यान में रखते हुए जीवनतर्या में बदलाव कर आप अपने स्वास्थ्य का ख्याल बेहतर रख सकेंगी.

एक्सरसाइज जरूर करें

स्वस्थ रहने के लिए एक्सरसाइज करना बेहद जरूरी है. जानकारों की माने तो एक्सरसाइज करने से बौडी से हैप्पी हार्मोन्स निकलते हैं. इससे आपका मूड बिल्कुल फ्रेश रहेगा. एक्सरसाइज करने से आप लंबे समय तक स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकते हैं.

डाल लें फल और सब्जियों को खाने की आदत

अपनी डाइट में हरी साग सब्जियों, फलों को शामिल करें. ये हमारी सेहत के लिए बेहद जरूरी होते हैं. इनका सेवन स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी है. फलों और सब्जियों में काफी मात्रा में विटामिन और एंटी औक्सिडेंट होते हैं जो हमारे इम्यून को मजबूत करते हैं.

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मानसिक स्वास्थ पर दें ध्यान

अच्छी सेहत के लिए जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ पर ध्यान दें. आपका मन शांत रहेगा तब ही आप बेहतर कार्य कर सकेंगे. इस लिए जरूरी है कि आप अपनों से बात करें, ये मानसिक शांति के लिए काफी जरूरी है. इसके अलावा आप 7 से 8 घंटों की नींद लें. ऐसा करने से आप सकारात्मक ढंग से काम करेंगे.

खूब पिएं पानी

अच्छी सेहत के लिए प्रचूर मात्रा में पानी पीना बहुत जरूरी है. इससे बहुत सी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है. पानी अधिक पीने से शरीर के विषैले पदार्थ बाहर होते हैं. जानकारों की माने तो वजन कम करने के लिए खूब पानी पीना जरूरी है.

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अमीरों की अमीरी गरीबों की गरीबी

Writer- रोहित और शाहनवाज

इंसान की यदि एक उंगली टांग बराबर हो और दूसरी नाखून बराबर तो कैसा लगेगा? जाहिर है इसे विकृति से जोड़ा जाएगा. सच मानो इस समय देश आर्थिक गैरबराबरी वाली इसी विकृति से ग्रसित है. यहां किसी के पास खाने को रोटी नहीं तो किसी दूसरे का उस की रोटी पर कब्जा है.

तकरीबन आधी सदी पहले वर्ष 1974 में कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. इस नारे को आधार बना कर तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बहुमत से चुनाव में जीत हासिल की थी. उन दिनों देश की राजनीति अमीरीगरीबी के इर्दगिर्द ही बुनी जाती थी. हर पार्टी असमानता के खिलाफ मुखर रहती थी. उन के भाषणों व घोषणापत्रों में, कहने को ही सही, अमीरीगरीबी मुद्दा रहता था. सरकार की जनकल्याण की नीतियां चुनावों में हारजीत के नतीजे तय किया करती थीं. देश में गरीबी उन्मूलन चाहे दिखावा भर रहा हो लेकिन चुनावों में असमानता एक राजनीतिक मु्द्दा रहता था.

आज देश में 5 राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, पंजाब और गोवा में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं लेकिन इन चुनावों में चुनावी पार्टियों के लिए तेजी से बढ़ रही असमानता का मुद्दा दूरदूर तक नहीं है. जिस विपक्ष को इस मुद्दे को जनता के बीच रख कर सरकार को घेरना था वह इसे राजनीतिक चर्चा बनाने में पूरी तरह विफल रहा है. असमानता को मुद्दा बनाए जाने की जगह नित्य नए सामाजिक समीकरण बनाए जा रहे हैं. आज तमाम पार्टियों के जातीय व धार्मिक ध्रुवीकरण के शोर में सभी जगह समाज में बढ़ती असमानता के मुद्दे दब से गए हैं. हमारे नेता कभी हमें मंदिरमसजिद के नाम पर भरमाते हैं तो कभी राजपथों की लंबाई व मूर्तियों की ऊंचाई के नए प्रतिमानों से. आर्थिक असमानता और विषमता के प्रतिमान भी हम ने स्थापित कर रखे हैं, लेकिन इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा.

‘‘या तो देश में लोकतंत्र हो सकता है या कुछ के हाथों में केंद्रित धनसंपदा हो सकती है, पर ये दोनों एकसाथ बिलकुल नहीं हो सकते.’’

यह कथन 1856 में अमेरिकी मूल के ज्यूइश परिवार में जन्मे लुईस डी ब्रैंडिश के हैं. लुईस अपने समय में अमेरिका के बड़े वकीलों में से एक थे और 1916 से 1939 के बीच उन्होंने यूएस सुप्रीम कोर्ट में एसोसिएट जस्टिस के तौर पर अपनी सेवाएं भी दी थीं पर ध्यान देने वाली बात यह कि वे अमेरिकी थे, जहां से आधुनिक समय के पूंजीवादी समाज ने अपनी जड़ें मजबूत कीं और दुनिया को पूंजीवादी नेतृत्व प्रदान किया.

अब मसला यह कि इस समय लुईस के जिक्र का क्या मतलब? दरअसल, लुईस के जन्म से ठीक 8 साल पहले 1848 में पूरे विश्व में 2 दर्शनशास्त्री अपनी एक बुकलेट से खासा चर्चा में आ गए थे. उन में से एक का नाम कार्ल मार्क्स था और दूसरे का फेडरिक एंगल. बुकलेट का नाम था ‘कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो’. यह किताब वर्ग संघर्ष की बात कर रही थी. इस किताब के आने के बाद कहा जाता है कि दुनिया में आर्थिक असमानता के खिलाफ संघर्ष को तार्किक बहस के साथ जगह मिलने लगी.

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अब लुईस डी ब्रैंडिश का इन दोनों महानुभावों से सीधे तो कोई संबंध नहीं था पर मार्क्सवाद से मिलतीजुलती बात वे यह सम?ाते हुए कह गए थे कि किसी भी लोकतंत्र को तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक धनसंपदा कुछ मुट्ठीभर लोगों की मोनोपोली से आजाद नहीं हो जाती. लुईस के ये वाक्य उस समय कितने प्रासंगिक रहे होंगे, कहा नहीं जा सकता, पर आज के समय में इन की प्रासंगिकता जरूर है.

अमीरों की एकछत्र अमीरी

पिछले दिनों आई हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2021 के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय अरबपति गौतम अडानी और उन के परिवार की संपत्ति पिछले एक साल में लगभग चौगुनी हो गई है, जो 1.40 लाख करोड़ रुपए से बढ़ कर 5.05 लाख करोड़ रुपए हो गई है. संपत्ति में इस भारी वृद्धि ने उन्हें मुकेश अंबानी के बाद एशिया का सब से अमीर आदमी बना दिया है. वहीं 7 लाख 18 करोड़ रुपए की संपत्ति के साथ मुकेश अंबानी भारत के सब से अमीर व्यक्ति गिने गए. यह हाल तब का है जब दुनिया के सभी देशों की अर्थव्यवस्था धड़ाम से गिरी है.

इस लिस्ट की मानें तो अडानी को अपने व्यापार से प्रतिदिन एक हजार करोड़ रुपए का लाभ होता है. यह अपनेआप में बहुत हैरत वाली बात है. इसी प्रकार साइरस पूनावाला, जिन की वैक्सीन बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया ने भारत में कोविड-19 खुराक की लगभग 90 फीसदी मांग पूरी की है, ने भी पिछले एक वर्ष के दौरान संपत्ति में

74 फीसदी की वृद्धि दर्ज की. इस सूची के अनुसार, उन की सामूहिक संपत्ति 1.63 लाख करोड़ रुपए हो गई है.

इस लिस्ट में शीर्ष 10 में जगह बनाने वाले एचसीएल के शिव नादर, हिंदुजा समूह के एस पी हिंदुजा, आर्सेलर मित्तल के लक्ष्मी मित्तल, एवेन्यू सुपर मार्केट के राधाकिशन दमानी, आदित्य बिड़ला समूह के कुमार मंगलम बिड़ला और जस्केलर के जय चौधरी शामिल हैं. लेकिन इस पूरी लिस्ट में सब से हैरतअंगेज नाम के तौर पर अडानी, जो अहमदाबाद से हैं, ने सब से अधिक 261 फीसदी की वृद्धि के साथ कमाई करने में भारी छलांग लगाई है.

हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2021 में यह भी कहा गया है कि 119 भारतीय शहरों में 1,007 व्यक्तियों की संपत्ति 1,000 करोड़ रुपए या इस से अधिक है. रिपोर्ट में कहा गया है कि संचित संपत्ति में

51 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि औसत संपत्ति में 25 फीसदी की. भारत में 237 से ऊपर खरबपति हैं, जो पिछले वर्ष की तुलना में 58 अधिक हैं.

ब्लूमबर्ग द्वारा जारी हालिया सूची के मुताबिक, विश्व के 25 सब से धनी परिवारों ने पिछले एक साल के दौरान कोरोना जैसी आपदा के समय में भी भरभर कर संपत्ति जुटाई. गौर करने वाली बात है कि यह वह समय रहा जब पूरी दुनिया में लोगों की हालत आर्थिक तौर पर बुरी तरह से चरमराई थी. एमएसएमई वाले छोटे उद्योगों से रोजीरोटी कमाने वाले वर्ग तक सब बेपटरी हो गए.

रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के इन 25 अमीर परिवारों की संपत्ति में इस साल 22 फीसदी का भारी इजाफा हुआ है. अगर इन 25 परिवारों की कुल प्रौपर्टी को एक जगह मिला दिया जाए तो उस पैसे से कई देश खरीदे जा सकते हैं. पूरी दुनिया में सिर्फ इन 25 परिवारों की बात करें तो इन की कुल संपत्ति 1.7 ट्रिलियन डौलर आंकी गई. रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक साल में वंशवादी संपत्ति में काफी तेजी आई है और इस साल इन की कुल संपत्ति में 22 फीसदी का भारी इजाफा हुआ है.

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इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की सब से बड़ी रिटेलर कंपनी वालमार्ट में आधार हिस्सेदारी रखने वाले वाल्टन परिवार की संपत्ति में सब से अधिक इजाफा हुआ है. इस परिवार की कुल संपत्ति 23 बिलियन डौलर से बढ़ कर 238.20 बिलियन डौलर तक पहुंच गई. इस फेहरिस्त में नई एंट्री फ्रांस की एविएशन कंपनी डसौल्ट के मालिक की है. इस के अतिरिक्त अमेरिकन मेकअप एंड कौस्मेटिक कंपनी इस फेहरिस्त में पहली बार शामिल हुई.

वहीं ब्लूमबर्ग की हालिया नई गणना के अनुसार क्रिप्टो एक्सचेंज कंपनी बाईनेन्स के मालिक चेंगपेंग जाऊ दुनिया के शीर्ष अरबपतियों की रैंक में शामिल हुए हैं. उन की अनुमानित कुल संपत्ति 96.5 बिलियन डौलर है.

कंगली होती जनता

यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब भारत में आर्थिक गैरबराबरी की खाई पहले के मुकाबले और अधिक गहरी हुई है. अमीर अल्ट्रा अमीर बन चुके हैं. उन की मोनोपोली देश की धनसंपदा में स्थायी तौर पर जम चुकी है. वहीं, गरीब अत्यधिक गरीब होते जा रहे हैं, इतने कि बहुतों की भुखमरी जैसी हालत हो चुकी है.

7 दिसंबर 2021 को ‘विश्व असमानता रिपोर्ट 2022’ जारी हुई. दुनिया के 100 जानेमाने अर्थशास्त्रियों ने देशों की आर्थिक असमानता का अध्ययन कर यह रिपोर्ट तैयार की. इस रिपोर्ट में भी संकेत साफ थे कि सालदरसाल देश में असमानता बढ़ती जा रही है. शीर्ष 10 प्रतिशत अमीरों की आय देश की कुल आय की 57 प्रतिशत है, वहीं अमीरों की एक प्रतिशत की हिस्सेदारी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक जहां एक तरफ अमीरों की आय में इजाफा हुआ है, वहीं, निचले 50 प्रतिशत आबादी की कमाई 13 प्रतिशत घटी है. इसी प्रकार इस तबके के पास संपत्ति के नाम पर कुछ भी नहीं है.

इस साल मार्च महीने में प्यु रिसर्च सैंटर ने दुनियाभर में फैल रही गैरबराबरी को ले कर अपने आंकड़े पेश किए थे. इस रिसर्च के अनुसार, भारत में मध्यवर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा गरीबीरेखा में जा पहुंचा और गरीब लोगों का एक हिस्सा घनघोर गरीबी तक पहुंच गया. रिपोर्ट कहती है, भारत में पिछले एक साल में कुल 3.2 करोड़ मध्यवर्गीय लोग गरीबी में जा घुसे.

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रिपोर्ट में भारत के ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम और मनरेगा में भागीदारी में वृद्धि का उल्लेख किया गया था. मसलन, पिछले डेढ़ साल के कोरोनाकाल में जहां लोगों के आर्थिक हालात बद से बदतर हो गए, लोगों की नौकरियां बड़े स्तर पर गईं, स्वास्थ्य और महंगाई के चलते सेविंग्स तक खर्च हुईं, वहीं चंद लोग ऐसे भी रहे जिन्होंने इस दौरान अपनी आमदनी को कई गुना बढ़ा लिया. भारत में तो यह बड़े स्तर पर हुआ ही, साथ ही विश्व में भी गैरबराबरी पहले से अधिक फैली.

इस वर्ष औक्सफेम की वार्षिक रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई कि दुनिया के 1000 टौप बिसनैसमैनों ने 9 महीनों के भीतर ही कोरोना वायरस से हुए नुकसान की भरपाई कर ली थी. औक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया कि जहां टौप अमीरों को अपनी स्थिति में पहुंचने में 9 महीने लगे, वहीं गरीबों को अपनी पुरानी

स्थिति में पहुंचने में पूरा एक दशक यानी 10 साल लगेंगे. विश्व आर्थिक मंच की राजनीतिक और वित्तीय नेताओं की बैठक से पहले जारी की गई यह रिपोर्ट आमतौर पर स्विट्जरलैंड के दावोस में जारी की गई. औक्सफैम ने पाया कि महामारी ने लगभग हर देश में एकसाथ आर्थिक असमानता को और भी बढ़ाया है और ऐसा पहली बार हुआ है. औक्सफैम के कार्यकारी निदेशक गैब्रिएला बुचर ने कहा, ‘‘पेंडैमिक शुरू होने के बाद से हम असमानता की सब से बड़ी वृद्धि देखने के लिए खड़े हैं. अमीर और गरीब के बीच गहरा विभाजन घातक साबित हो रहा है.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक अमीर अभिजात्य वर्ग के लिए बड़ी फंडिंग कर रही हैं जो पेंडैमिक में भी अपने लक्जरी जीवन का लुत्फ उठा रहे हैं. जबकि महामारी की अग्रिम पंक्ति में खड़े दुकानदार, सहायक, स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता और बाजार विक्रेता इत्यादि बिलों का भुगतान करने व मेज पर रखे भोजन के लिए संघर्ष कर रहे हैं.’’

पिछले साल अक्तूबर में विश्व बैंक के एक अलग अध्ययन में पाया गया था कि 2020-21 के साल में 6 करोड़ भारतीय अत्यधिक गरीबी में धकेले जा सकते हैं. अब जाहिर है यह स्थिति भारत देश के सामने गंभीर रूप में खड़ी है क्योंकि इस वर्ष सामने आए कई आंकड़ों में यह दिखने भी लगे हैं. आज अमीरों द्वारा अर्जित की गई धनसंपदा को देश का विकास कह दिया गया है. देश में चंद अमीरों को इस तरह से प्रेजैंट किया जा रहा है जैसे इन के अमीर होने से देश के नागरिक अमीर हो रहे हों.

हकीकत यह है कि देश में पिछले 45 वर्षों से सब से अधिक दर से बेरोजगारी चल रही थी. पेंडैमिक के बाद सीएमआईई के मुताबिक करोड़ों लोग अपनी नौकरी से हाथ गंवा बैठे हैं. ऊपर से जले पर नमक यह कि सरकार गिरी अर्थव्यवस्था को मानने की जगह आंकड़ों में ?ाल?ाल कर यह साबित करने में लगी है कि सब ठीक चल रहा है.

इसी संस्था के ताजा आंकड़ों के अनुसार, सितंबर 2021 से दिसंबर 2021 के दौरान देश में बेरोजगारों की कुल संख्या 3.18 करोड़ रही. ध्यान देने वाली बात यह है कि इन में 3.03 करोड़ की उम्र 29 वर्ष तक की है. यह संख्या 2020 में लगे लौकडाउन के दौर से भी ज्यादा है जो 2.93 करोड़ थी.

हाल यह है कि भारत में अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में अरबपतियों की तीसरी सब से बड़ी संख्या है, फिर भी प्यू रिसर्च की 18 मार्च में प्रकाशित रिपोर्ट में भारत में गरीबों की संख्या में 7 करोड़ 50 लाख की वृद्धि होने का अनुमान है जो गरीबी में वैश्विक वृद्धि का लगभग 60 प्रतिशत है.

2017 के वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों, जो 2020 में पब्लिश हुए, के अनुसार, दुनिया के 68 करोड़ 90 लाख अत्यधिक गरीब लोगों में से अकेले भारत में 13 करोड़ 90 लाख लोग अत्यधिक गरीबी की श्रेणी में आते हैं, जोकि कुल अत्यधिक गरीबों की संख्या का 20.17 फीसदी बनता है. वहीं देखें तो भारत की जनसंख्या पूरे विश्व की जनसंख्या का मात्र 17.8 फीसदी ही बनती है. इस का अर्थ यह हुआ कि दुनिया के अत्यधिक गरीबों के अनुपात में सब से बड़ी संख्या भारत में जीने को मजबूर है.

संपत्ति का असमान बंटवारा

1990 के बाद देश में 2 तरह के नैरेटिव चलने लगे, एक ग्रोथ बेस्ड नैरेटिव (विकास आधारित), जिस में जीडीपी, पर कैपिटा इनकम, डैवेलपमैंट इत्यादि की बात की जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ, इनइक्वलिटी बेस्ड नैरेटिव (असमानता आधारित) की डिबेट शुरू हुई. विकास आधारित नैरेटिव की समस्या यह रही कि जबकि गरीबी उन्मूलन जरूरी था, उस समय वह किया ही नहीं गया और सिर्फ एक तबके के विकास पर जोर दिया गया.

मशहूर अर्थशास्त्री थौमस पिकैटी और उन के सहयोगियों द्वारा विकसित ‘वर्ल्ड इनइक्वलिटी डाटाबेस’ के अनुसार, 1990 में नई आर्थिक नीतियों के बाद से भारत में आय असमानता लगातार बढ़ती जा रही है. 1990 में जहां भारत के सब से अमीर 10 फीसदी लोगों की आय का औसत 34.4 प्रतिशत था और निचले 50 प्रतिशत लोगों की आय का औसत 20.3 प्रतिशत था, वह 2020 तक आतेआते फासला बढ़ कर उच्च 10 प्रतिशत का 57.1 प्रतिशत और निम्न 50 का 13.1 प्रतिशत हो गया है. डाटा का विश्लेषण भारत में धन, आय और संपत्ति की असमानता में खतरनाक वृद्धि को दिखाता है.

वहीं, 1961 में आय में शेष एक प्रतिशत की जो हिस्सेदारी 13 प्रतिशत थी, जो 1981 में घट कर 6.9 प्रतिशत हो गई थी, उस में 1990 के दशक से शीर्ष एक प्रतिशत की आय में लगातार इजाफा हुआ.1991 में यह आय 10.4 प्रतिशत से बढ़ कर 2019तक आतेआते 21.7 प्रतिशत हो गई. वहीं दूसरी तरफ कुल आय में निचले 50 प्रतिशत की हिस्सेदारी 1961 और 1981 के बीच में 21 प्रतिशत और 23 प्रतिशत के बीच स्थिर रही लेकिन 1991 के बाद यह लगातार घटती गई. 2019 तक आतेआते निचले 50 की आय में हिस्सेदारी घट कर मात्र 14.7 प्रतिशत रह गई है.

इसी प्रकार जनसंख्या के शीर्ष एक प्रतिशत की कुल संपत्ति का हिस्सा जहां 1961 से 1981 तक 12 प्रतिशत के आसपास काफी स्थिर रहता था, वह 1991 के बाद से नई उदारीकरण नीतियों के बाद लगातार बढ़ा है और 2020 की औक्सफेम की रिपोर्ट कहती है कि उच्च अमीर एक प्रतिशत की संपत्ति का कुल हिस्सा 42.5 प्रतिशत तक पहुंच गया है. यानी और आसान भाषा में सम?ा जाए तो यदि देश के 70 फीसदी गरीबों की संपत्ति को 4 गुना कर दिया जाए तो भी इतनी संपत्ति न बने.

वहीं, नीचे के 50 प्रतिशत की कुल संपत्ति का हिस्सा 1961 से 1981 के बीच 12.3 प्रतिशत से मामूली रूप से गिर कर 10.9 प्रतिशत हो गया था, जोकि 1991 के बाद यह फिर तेजी से घटने लगा और 2020 की औक्सफेम की रिपोर्ट के अनुसार यह केवल 2.8 प्रतिशत ही रह गया है.

भारी असमानता की इस पराकाष्ठा को आसान गणित में गणना की जाए तो मात्र 140 अरबपतियों की कुल संपत्ति को अगर जोड़ दिया जाए और देश की अत्यधिक 13 करोड़ गरीब आबादी में बांट दी जाए तो 3 लाख 22 हजार के आसपास बैठती है. इसे और सिंपल तरीके से सम?ों तो एक गांव का गरीब अपने

18 साल में इतने पैसे जोड़ पाता है और एक शहर में रहने वाला गरीब तकरीबन 12 साल में इतने पैसे जोड़ पाता है.

अगर आय की असमानता में भारत की तुलना अन्य देशों से करें तो पता चलता है कि भारत में शीर्ष एक प्रतिशत लोगों की आय चीन, फ्रांस, कोरिया, रूस, इगलैंड, अमेरिका इन सब से ज्यादा (21.7) है. इन आकड़ों से यह साफ पता चलता है कि 1990 की नई आर्थिक नीतियों के बाद असमानता आसमान छूने लगी और विश्व के अन्य देशों के अनुपात में भारत के पूंजीपतियों ने देश में खासी संपत्ति बनाई.

तथ्य यह भी है कि सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में असमानता भयानक तरीके से बढ़ती जा रही है. डब्ल्यूआईडी 2019 के आंकड़ों, जो 2020 में प्रकाशित किए गए, के अनुसार, अफ्रीकी देशों में सब से अमीर

10 प्रतिशत लोगों की आय राष्ट्रीय आय के आधे के बराबर है, वहीं ईस्टर्न यूरोप में उच्च एक प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्रीय आय का 20 प्रतिशत हिस्सा है जोकि वहां की कुल आबादी के आधे से ज्यादा लोगों की आय के बराबर है. वहीं लैटिन अमेरिका में शीर्ष 10 प्रतिशत अमीर लोगों की आय राष्ट्रीय आय का 54 प्रतिशत है. इसी प्रकार मध्यपूर्व देशों में शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की आय राष्ट्रीय आय का 56 प्रतिशत है.

पूंजीवादी चुनौतियां

बीते कुछ सालों में इस बढ़ती वैश्विक असमानता ने पूंजीवाद पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं. पूंजीवाद में बड़ीबड़ी इमारतें, चमचमाती सड़कें, राज्यों को जोड़ने वाले यातायात के साधन, कनैक्टिविटी और एक सैक्शन की हाई प्रोफाइल चकाचौंध लाइफ तो दिखती है पर असंख्य लोग गरीबी में भी धकेलते हुए देखे जा सकते हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा कालेज में पौलिटिकल इकोनौमिक की स्पैशलाइज्ड प्रोफैसर नंदिनी दत्ता ने सरिता पत्रिका से बात करते हुए कहा, ‘‘पूंजीवादी अंतर्विरोध जिस तरह से बढ़ता जा रहा है, वह खुद पूंजीवाद के लिए खतरनाक है. इसे सम?ाने के लिए आप को मार्क्सवादी बनने की जरूरत नहीं है. मार्क्स ने जिस तरह के अंतर्विरोधों के बारे में बताया था, उस से कहीं ज्यादा अंतर्विरोध अब देखने में आ रहे हैं और पूंजीवाद को भी तुरतफुरत सामने आ रहे इन संकटों से समुन्मुखी होना पड़ रहा है जो खुद उस के लिए काफी खतरनाक है. पूंजीवाद भले ही इस से सतही तौर पर निबट रहा है, लेकिन इस तरह के अंतर्विरोध अगर लगातार सामने आएंगे तो एक समय बड़े बदलाव का भी सामना करना पड़ सकता है.’’

प्रोफैसर नंदिनी दत्ता की बातें भले अतिशयोक्ति लग रही हों पर यह देखने में आ रहा है कि पूंजीवाद का सरगना कहे जाने वाला अमेरिका भी इस से आशंकित दिखाई दे रहा है. वहां अब खुद अमीर लोग अमीरों पर भारी टैक्स लगाए जाने की बातें कर रहे हैं. इसे बड़ा दिल रखने की दृष्टि से देखने की जगह, पूंजीवाद के पुनर्निर्माण के तौर पर सम?ा जाना चाहिए.

नंदिनी दत्ता आगे कहती हैं, ‘‘टैक्स अमीरों पर लगना चाहिए, उन लोगों पर टैक्स लगना चाहिए जो बेशुमार कमा रहे हैं. अमेरिका इन चीजों पर सोच रहा है, अच्छी बात है पर हमारे देश में उलटा हो रहा है. यहां गरीबों को राहत दिए जाने की जरूरत है पर उन्हीं पर अधिक टैक्स लगाया जाता है. पैट्रोलडीजल से ले कर तेल, नमक, गैस सब उसी तरह से खरीदना पड़ता है जिस तरह से एक अमीर खरीदता है.

‘‘इनडायरैक्ट टैक्स सरकार का सब से बड़ा रैवेन्यू का स्रोत है, पर इस स्रोत को गरीबों पर थोप कर सरकार कमा रही है. यहां तर्क इस तरह के चलाए जा रहे हैं कि अगर अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाओगे तो वे निवेश नहीं करेंगे. इसी के मद्देनजर एक ?ाटके में उन का कौर्पोरेट टैक्स कम कर दिया गया है. हालत यह है कि जिस हिस्से को सब्सिडाइज होना चाहिए था वही गरीब तबका आज सब से अधिक टैक्स दे रहा है.’’

टैक्स का भ्रमजाल

यह एक प्रचलित भ्रांति है कि केवल अमीर लोग ही टैक्स का भुगतान करते हैं. यह जानना जरूरी है कि भारत में प्रत्यक्ष कर (व्यक्तिगत आय टैक्स और कौर्पोरेट टैक्स) कुल राजस्व का लगभग आधा ही होता है, बाकी अप्रत्यक्ष टैक्स में जीएसटी, उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क इत्यादि शामिल होते हैं. महामारी के बाद भारत के राजस्व में अप्रत्यक्ष करों की भूमिका को ज्यादा बढ़ा दिया गया. वित्तवर्ष 2021 में केंद्र सरकार ने पिछले वित्तवर्ष की तुलना में 12 प्रतिशत की वृद्धि कर 10.71 फीसदी अप्रत्यक्ष कर वसूल किया. ध्यान देने वाली बात यह है कि इस में जीएसटी से वसूले गए कर में 8 प्रतिशत की गिरावट के बावजूद अप्रत्यक्ष कर में वृद्धि देखी गई.

इस के अतिरिक्त पिछले एक दशक में कुल राजस्व में कौर्पोरेट टैक्स की हिस्सेदारी में कमी आई है और अप्रत्यक्ष करों व आय करों में वृद्धि हुई है. वित्त मंत्रालय की 20 सितंबर, 2019 की प्रैस रिलीज के अनुसार, सरकार ने घरेलू कंपनियों पर कौर्पोरेट टैक्स घटा कर

22 प्रतिशत तक कर दिया है, जोकि साल 2018 में 35 प्रतिशत था. इसी प्रकार यदि हम संपत्ति कर (वैल्थ टैक्स) की बात करें तो भारत में 1950 से शुरू किया गया संपत्ति कर, जोकि 30 लाख से ज्यादा की संपत्ति रखने वालों पर लगा करता था, साल 2015 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हटा दिया था, जिस से सरकार को लगभग सालाना एक हजार करोड़ का रैवेन्यू जेनरेट होता था.

इस की जगह उस समय सरकार ने एक करोड़ से ज्यादा आय वाले अमीरों पर 2 प्रतिशत ‘सुपर रिच सरचार्ज’ लगाया था. लेकिन 2019 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने निवेशकों को प्रोत्साहित करने के नाम पर इस सरचार्ज को भी हटा दिया, जिस से सरकार को 1,400 करोड़ रुपए का रैवेन्यू कासालाना नुकसान लेना पड़ता है.

यहां यह भी देखा जाना चाहिए कि सरकार किस तबके पर अधिक मेहरबान होती है. मनमोहन सरकार की तुलना में मोदी सरकार ने पूंजीपतियों के 3.6 गुना कर्ज माफ किए हैं. सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 से 2019 के दौरान सरकार ने 7 लाख 94 हजार 354 करोड़ रुपए के कर्ज एनपीए में डाल दिए हैं, यानी सीधा कहा जाए तो कर्ज माफ किए गए हैं.

इस के अनुसार, यह साफ देखा जा सकता है कि एक तरफ जहां सुपर अमीरों को टैक्स में सरकार लगातार छूट दे रही है, वहीं दूसरी तरफ गरीबों पर भारीभरकम टैक्स लगा कर सरकार उन्हें और असमानता की तरफ धकेल रही है, जबकि इस समय होना इस के उलटा चाहिए था.

लोकतंत्र के लिए खतरा असमानता

इसे सम?ाने के लिए हम ने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल औफ इकोनौमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफैसर मनीष कुमार से बात की. वे कहते हैं, ‘‘पूंजीवादी व्यवस्था साफसाफ शोषण पर आधारित होती है. कुछ लोगों को काम और कुछ लोगों को बेरोजगार रख कर यह पूरा सिस्टम सरवाइव करता है, यही इस की बुनियाद भी है पर यह सम?ाना जरूरी हो जाता है कि शोषण से पनप रही असमानता की भी अपनी एक लिमिट होती है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘अर्थशास्त्र डिमांड और सप्लाई की सिंपल थ्योरी पर काम करता है. डिमांड है तो सप्लाई है. मान लीजिए अगर देश में नौकरियों का भारी अकाल है, जो काम कर रहे हैं वे भी ठीक से तनख्वाह नहीं पा रहे, लोग अतिशोषित हो रहे हैं, तो ऐसे में लोगों की अपनेआप क्रयशक्ति (खर्च करने की ताकत) कम हो जाती है. जब अधिकतम लोगों की क्रयशक्ति कम होती है तो इस से महामंदी की स्थिति पैदा होती है. जो उत्पाद हुआ होता है उसे कोई खरीदता नहीं, जिस कारण नई नौकरियां पैदा नहीं होतीं और यह चक्र चलता रहता है. इस तरह का उदाहरण हम ने 1929 में वैश्विक महामंदी के तौर पर देखा था.’’

इसी तरह प्रोफैसर नंदिनी दत्ता कहती हैं, ‘‘असमानता दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही है, गरीब गरीब हो रहे हैं या महागरीब बन रहे हैं, तो इस से सोशल फैब्रिक टूटता है. मनुष्य अपने सरवाइवल के लिए कुछ भी करने को तैयार है और जहां एक तरह का तनाव होगा वहां लोगों की कमाई पर असर पड़ेगा.’’

वे आगे कहती हैं, ‘‘असमानता से लोकतंत्र पर बुरा असर पड़ता है, जैसे इकोनौमिक पावर जिन के हाथ में है, सारी नीतियां वही लोग डिक्टैट करते हैं. लोकतंत्र जो ‘फौर द पीपल, बाइ द पीपल है,’ उस में 70-80 प्रतिशत लोग पूरे डैवलपमैंट प्रोजैक्ट से ही बाहर हो जाते हैं. ऐसे में कम्युनल टैंशन ज्यादा बढ़ती है, रिऐक्शनरी पौलिटिक्स ज्यादा बढ़ती है, आइडैंटिटी पौलिटिक्स बढ़ती है, मिसलीडिंग पौलिटिक्स बढ़ती है, क्योंकि सब लोग अपनेअपने हिस्से को मानने लग जाते हैं.’’

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विकृति से कम नहीं

सरकार की नीतियों में भी चंद पूंजीपतियों का आर्थिक विकास ही देश का विकास हो चला है. सरकार की अधिकतर नीतियां बड़े पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं, फिर चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी हो, कृषि कानून हों या कुछ और. कई सरकारी कंपनियां घाटा बता कर एमएनपी के नाम पर लीज पर दी जा रही हैं या निजी हाथों में बेच दी गई हैं.

सरकार इन सभी चीजों से आम लोगों का ध्यान हटाने के लिए अपनी छोटी उपलब्धियों को बड़ा कर के प्रचार कर रही है या जहां छोटी भी उपलब्धि नहीं उसे गैरजरूरी मुद्दों से भ्रमित कर रही है. सीधा देखा जा सकता है कि इस राक्षसी गैरबराबरी ने लोकतंत्र यानी लोगों की आवाज को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है. आज आर्थिक भेदभाव जमीनआसमान जैसा हो चला है.

बचपन में सरकारी स्कूल की 10वीं कक्षा में इंग्लिश के एक अध्यापक हुआ करते थे, जिन के मुंह से एक कहावत अकसर सुनने को मिलती थी कि ‘पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं.’ इस कहावत का प्रयोग अकसर वे कमजोर बच्चे और तेज बच्चे की तुलना करते हुए बोगस तर्क गढ़ते दिया करते थे. यह स्थिति तब थी जब वे खचाखच भरी क्लास में सिर्फ आगे वाली बैंच में बैठे 4-5 बच्चों पर विशेष ध्यान दिया करते थे.

किसी छात्र के प्रति परिस्थितियां जाने बगैर अध्यापक का पहले से ही पूर्वाग्रह बना लेना थोड़ा अटपटा तो लगता था पर चूंकि समाज में फैली असामानता को कुतार्किक तौर से प्रस्तुत करने के लिए इस कहावत की चलती आ रही सामाजिक स्वीकार्यता थी, तो हम भी इसे पचा लिया करते थे. किंतु उन दिनों भी एक बात दिमाग में चलती रहती थी कि कहावत के हिसाब से पांचों उंगलियां बेशक बराबर नहीं होतीं, पर इतनी भी तो गैरबराबर नहीं होनी चाहिए कि एक उंगली टांग बराबर हो और एक नाखून बराबर. आज देशदुनिया में गैरबराबरी इसी अंदाज में बढ़ रही है, जो समाज में फैली किसी विकृति से कम नहीं.

अब सवाल यह उठता है कि बढ़ती असमानता राजनीति का व चुनावों का मुद्दा क्यों नहीं बनती? हैरानी की बात है कि चुनावप्रचार में हमारे राजनेताओं को इस संदर्भ में कुछ कहने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती. चुनाव का सारा गणित जातियों और धर्मों के आधार पर चल रहा है. जातिधर्म के आधार पर वोट मांगे जाते हैं और डाले भी जाते हैं. बढ़ती आर्थिक असमानता व सामाजिक अस्थिरता आखिर चुनावी राजनीति के केंद्र में क्यों नहीं है, यह बहुत ही अहम सवाल देश को ?ाक?ार रहा है.

खीरे की करें उन्नत खेती

वर्षा रानी एवं डा. आरएस सेंगर, जेएस विश्वविद्यालय, शिकोहाबाद

खीरे का वानस्पतिक नाम ‘कुकुमिस स्टीव्स’ है. खीरे का मूल स्थान भारत है. यह एक बेल की तरह लटकने वाला पौधा है, जिस का प्रयोग सारे भारत में गरमियों में सब्जी के रूप में किया जाता है. खीरे को कच्चा, सलाद या सब्जियों के रूप में प्रयोग किया जाता है.

खीरे के बीजों का प्रयोग तेल निकालने के लिए किया जाता है, जो शरीर और दिमाग के लिए बहुत बढि़या है. खीरे में 96 फीसदी पानी होता है, जो गरमी के मौसम में अच्छा होता है.

इस पौधे का आकार बड़ा, पत्ते बालों वाले और त्रिकोणीय आकार के होते हैं और इस के फूल पीले रंग के होते हैं. खीरा एमबी (मोलिब्डेनम) और विटामिन का अच्छा स्रोत है. खीरे का प्रयोग त्वचा, किडनी और दिल की समस्याओं के इलाज और अल्कालाइजर के रूप में किया जाता है.

भूमि और जलवायु

खीरे के लिए शीतोष्ण व समशीतोष्ण दोनों ही जलवायु उपयुक्त होती हैं. इस के फूल खिलने के लिए 13 से 18 डिगरी तापमान उपयुक्त होता है. पौधों के विकास व अच्छी पैदावार के लिए 18 से 24 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान की जरूरत पड़ती है. अच्छे जल निकास वाली दोमट व बलुई दोमट भूमि उत्तम मानी जाती है.

खीरे की खेती के लिए भूमि का पीएच मान 5.5 से 6.8 तक अच्छा माना जाता है. नदियों की तलहटी में भी इस की खेती अच्छी तरह से की जाती है.

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उन्नतशील प्रजातियां

खीरे की प्रजातियां बहुत सी हैं जैसे हिमांगी, जापानी लौंग ग्रीन, ज्वाइंट सेट, पूना खीरा, पूसा संयोग, स्वर्ण शीतल, फाइन सेट, स्टेट 8, खीरा 90, खीरा 75, हाईब्रिड 1 व हाईब्रिड 2, पंजाब खीरा 1, पंजाब नवीन, पूसा उदय, पंत संकर खीरा 1, कल्यानपुर हरा खीरा इत्यादि है.

खेत की तैयारी

खीरे की खेती की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और 3-4 जुताई कल्टीवेटर या देशी हल से कर के खेत को भुरभुरा बना लेना चाहिए. आखिरी जुताई में 200 से 250 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद मिला कर नालियां बनानी चाहिए.

बीज की मात्रा

एक हेक्टेयर में तकरीबन 2 से 2.5 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. बोआई खेत में नाली बना कर की जाती है. बीज शोधन 2 ग्राम केप्टान प्रति लिटर पानी में मिला कर बीज को 3 से 4 घंटे भिगो कर छाया में सुखा कर बीज की बोआई करनी चाहिए.

बोआई का उचित समय

इस की बोआई 2 मौसम में की जाती है. पहली खरीफ में जून से जुलाई महीने में और दूसरी जायद में जनवरी से फरवरी महीने तक. बोआई के लिए खेत की तैयारी के बाद 50 सैंटीमीटर चौड़ी, 1 से 1.5 मीटर की दूरी पर 25 से 30 सैंटीमीटर गहरी नालियां पूर्व से पश्चिम दिशा में तैयार कर के 45 से 50 सैंटीमीटर की दूरी पर 5 से 6 बीज एक जगह बोते हैं. पौध से पौध की दूरी 45 से 50 सैंटीमीटर रखते हैं और नाली के दोनों ओर ऊपर की आधी दूरी पर बोआई की जाती है.

खाद व उर्वरकों का सही इस्तेमाल

सड़ी गोबर की खाद 200 से 250 क्विंटल खेत की तैयारी करते समय आखिरी जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए. इस के साथ ही नाइट्रोजन 40 किलोग्राम (यूरिया 90 किलोग्राम), फास्फोरस 20 किलोग्राम (सिंगल सुपर फास्फेट 125 किलोग्राम) और पोटैशियम 20 किलोग्राम (म्यूरेट औफ पोटाश 35 किलोग्राम)  का  उपयोग बोआई के समय कर दें.

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बिजाई के समय नाइट्रोजन का एकतिहाई हिस्सा और पोटैशियम और फास्फोरस की पूरी मात्रा डालें. एक महीने बाद बचा हुआ यूरिया पौधों को दें.

सिंचाई का उचित समय

गरमी के मौसम में इस को बारबार सिंचाई की जरूरत होती है और बारिश के मौसम में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. इस को कुल 10-12 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है.

बिजाई से पहले एक सिंचाई जरूरी होती है. इस के बाद 2-3 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें. दूसरी बिजाई के बाद, 4-5 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें.

खरपतवारों व निराईगुड़ाई का सही समय

बोआई के 20 से 25 दिन बाद निराईगुड़ाई करनी चाहिए. खेत को साफ रखना चाहिए. यदि खरपतवार ज्यादा जमते हों, तो नालियों के खरपतवार निकलना बहुत जरूरी होगा. उस समय वाइन, जिसे पौधा कहते हैं, को उल?ाने नहीं देना चाहिए, जिस से पैदावार पर बुरा असर न पड़ सके.

जहां पर खरपतवार अधिक उगते हैं, वहां पेंडीमेथेलीन की 3.3 लिटर मात्रा को 1,000 लिटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव बोआई के 1-2 दिन के अंदर कर देना चाहिए, जिस से कि खरपतवारों का जमाव न हो सके.

रोग पर करें नियंत्रण

इस में फफूंदी के रोग लगते हैं जैसे डाउनी मिल्ड्यू फफूंदी, पाउडरी मिल्ड्यू फफूंदी, स्कोरपोरा धब्बा रोग व विषाणु रोग लगते हैं. इन की रोकथाम के लिए प्रमाणिक बीज बोना अति आवश्यक है. उपचारित बीज ही बोना चाहिए. फसल चक्र जरूर अपनाना चाहिए. साथ ही, कोसावेट गंधक 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में या कैरोथिन 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में मिला कर 3-4 छिड़काव 10 से 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए.

विषाणु रोग की रोकथाम के लिए स्ट्रेप्टोमाईसीन 400 पीपीएम का छिड़काव पेड़ों पर 10 दिन में 2 बार करना चाहिए.

कीट नियंत्रण के उपाय

खीरे में कई प्रकार के कीट भी लगते हैं जैसे माहू, बग, पेंटासूमिड़ बग व कुकरबिट माइट, मैलानफ्लाई आदि. रोकथाम के लिए ग्रसित पौधों को उखाड़ कर अलग कर लेना चाहिए. इस के साथ ही पौधों को अवश्य जला देना चाहिए.

माहू कीट के लिए मोनोक्रोटोफास या डेमीक्रोन का छिड़काव करना चाहिए. मैलानफ्लाई की रोकथाम के लिए जहरीली वेट 50 ग्राम मैलाथियान इस के साथ में 200 ग्राम शीरा व 2 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव कर के नष्ट किया जा सकता है.

फलों की तुड़ाई

फसल में जब खाने योग्य फल मिलने लगें, तो सप्ताह में 2 बार तुड़ाई करनी चाहिए. मादा फूल आने के एक सप्ताह में फल खाने योग्य हो जाते हैं. फलों की तुड़ाई लगातार करते रहना चाहिए, ताकि फल मिलते रहें. जितना मुलायम फल बाजार में बेचने के लिए जाता है, उतनी ही अच्छी कीमत मिलती है.

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फलों की पैदावार

तकनीकी की सभी क्रियाएं अपनाने पर फसल से हमें 100 से 120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर खाने योग्य फल प्राप्त होता है.

भंडारण

तुड़ाई के बाद खीरों की ग्रेडिंग कर दें. उस के बाद हवादार प्लास्टिक के केरेट या टोकरी में डाल कर मंडी भेज दें. तुड़ाई सुबह के समय करनी चाहिए.

गोधरा में गोदनामा: किसने उसे जीने का सहारा दिया?

मरने के अलावा उसे और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. जीने के लिए उस के पास कुछ नहीं था. न पत्नी न बच्चे, न मकान, न दुकान. उस का सबकुछ लुट चुका था. एक लुटा हुआ इंसान, एक टूटा हुआ आदमी करे भी तो क्या?

उस का घर दंगाइयों ने जला दिया था. हरहर महादेव के नारे श्रीराम पर भी कहर बरपा चुके थे. वह हिंदू था लेकिन उस की पत्नी शबनम मुसलमान थी. उस के बेटे का नाम शंकर था. फिर भी वे गोधरा में चली नफरत की आग में स्वाहा हो चुके थे.

श्रीराम अपने व्यापार के काम से रतलाम गया हुआ था. तभी अचानक दंगे भड़क उठे. जंगल की आग को तो बुझाया जा सकता है लेकिन आग यदि नफरत की हो और उस पर धर्म का पैट्रोल छिड़का जाता रहे, प्रशासन दंगाइयों का उत्साहवर्द्धन करता रहे तो फिर मुश्किल है उस आग का बुझना. ऊपर से एक फोन आया प्रशासन को. लोगों का गुस्सा निकल जाने दो. जो हो रहा है होने दो. बस, फिर क्या था? मौत का खूनी खेल चलता रहा. जिन दोस्तों ने श्रीराम का विवाह करवाया था वे अब कट्टरपंथी बन चुके थे.

दंगाई जब श्रीराम के घर के पास पहुंचे तो किसी ने कहा, ‘‘इस की पत्नी मुसलमान है. इसे मार डालना जरूरी है.’’

दंगाइयों में श्रीराम के दोस्त भी शामिल थे. उस के एक दोस्त ने कहा, ‘‘नहीं, वह श्रीराम की पत्नी है. इस नाते वह भी हिंदू हुई.’’

दंगाई बोले, ‘‘यह हिंदू नहीं मुसलमान है. यह अब भी नमाज पढ़ती है. रोजे रखती है. इस ने अपना नाम और सरनेम भी नहीं बदला. इस ने अपने बेटे का नाम जरूर शंकर रखा है किंतु उसे शिक्षासंस्कार इस्लाम के ही दिए हैं. इस तरह श्रीराम की पत्नी और बेटा मुसलमान ही हुए.’’

श्रीराम के एक दोस्त ने कहा, ‘‘कृपया यह घर छोड़ दीजिए. यह हमारे दोस्त का घर है. इस में उस की पत्नी और बच्चे रहते हैं. कल जब वह वापस आएगा तो हम उसे क्या जवाब देंगे.’’

दंगाई भड़क उठे, ‘‘श्रीराम जैसे मर्दों को जीने का कोई अधिकार नहीं है. मुसलिम औरत से विवाह किया था तो उसे हिंदू बनाना था. हिंदुओं की तरह रहना सिखाना था. ऐसे ही लोग मुसलमानों को बढ़ावा देते हैं. देखते क्या हो? खत्म कर दो सब को और आग लगा दो घर में.’’

थोड़ी ही देर में उस की पत्नीबच्चा आग के दावानल में घिर जल कर राख हो गए. घर से लगी हुई उस की दुकान लूट कर जला दी गई. जब वह वापस आया तो उस का सबकुछ लुट चुका था. वह बरबाद हो चुका था. वह मरने के लिए घर से निकल पड़ा. पहले उस ने ट्रेन के नीचे आ कर मरने की सोची किंतु भारतीय रेल की लेटलतीफी और दंगों के कारण रेल पुलिस भी सजग हो चुकी थी.

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आत्महत्या करने के अपराध में कहीं उसे गिरफ्तार न होना पड़े, इसलिए उस ने फसलों की सुरक्षा के लिए कीटनाशक की शीशी खरीदी और पूरी की पूरी मुंह में उड़ेल ली. थोड़ी देर बाद उसे चक्कर आने लगे. वह बेहोश हो कर गिर पड़ा. होश आया तो उस ने स्वयं को अस्पताल में पाया. उस के दोस्त शर्मिंदगी के भाव लिए उस के पास खड़े थे. उस से माफी मांग रहे थे. किंतु उन के माफी मांगने से उस का परिवार तो जीवित होने से रहा. उसे कोई शिकायत भी नहीं थी किसी से. वह तो हर हाल में मरना चाहता था.

अस्पताल घायलों की चीखपुकार से गूंज रहा था. श्रीराम सोच रहा था कि रात को वह अपनी नस काट लेगा ताकि उसे इस अकेले और लुटे जीवन से मुक्ति मिल सके. बिना प्यार, बिना सहारे, बिना घर, बिना दुकान के वह जी कर क्या करेगा? उस की पत्नी, उस का बच्चा, घर… सब कितने प्रेम से संजोया था उस ने. शबनम से विवाह के कारण उस का अपना परिवार भी छूट गया था. क्या करेगा वह शबनम और शंकर के बिना जी कर?

जिस बैड पर वह लेटा था उस के बगल में एक मासूम बच्ची थी. घायल, चोटग्रस्त. उफ, दंगाइयों ने इसे भी नहीं छोड़ा. न जाने कैसे बच गई थी. बच्ची को होश आ चुका था. वह रोने लगी. श्रीराम ने उसे सांत्वना दी, सहलाया. उस से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम?’’

बच्ची ने कराहते हुए कहा, ‘‘शबाना, और आप का?’’

‘‘श्रीराम.’’

बच्ची के चेहरे पर घबराहट के भाव आ गए.

वह बोली, ‘‘आप हिंदू हो. मुझे भी मार डालोगे.’’

‘‘मैं तो खुद तुम्हारी तरह अस्पताल में भरती हूं. मैं तुम्हें क्यों मारूंगा?’’

‘‘आप तो हिंदू हैं. फिर आप को क्यों मारा?’’

श्रीराम की आंखों में आंसू आ गए.

उसे रोता देख बच्ची ने कहा, ‘‘सौरी, अंकल, आप को मुसलमानों ने मारा होगा. मेरा पूरा घर जला दिया. मेरे अम्मीअब्बू को भी मार डाला. पता नहीं, मैं कैसे बच गई?’’ यह कह कर 10 वर्ष की मासूम शबाना रोने लगी.

‘अब इस बच्ची का क्या होगा?

इसे कौन सहारा देगा? कौन इसे पालेगापोसेगा?’ श्रीराम सोचने लगा. उस ने डाक्टर से पूछा कि ठीक होने के बाद इस बच्ची का क्या होगा?

डाक्टर ने कहा, ‘‘अभी तक तो कोई रिश्तेदार आया नहीं. एकदो दिन देखते हैं, वरना यतीमखाने भिजवाना पड़ेगा.’’

श्रीराम सोचने लगा कि वह भी इस दुनिया में अकेला है और यह बच्ची भी. क्यों न इसी बच्ची को जीने का सहारा बनाया जाए. श्रीराम को शबाना में अपना बेटा शंकर दिखने लगा. उस का शबाना से मेलमिलाप बढ़ चुका था. उस ने शबाना से पूछा, ‘‘तुम मेरी बेटी बनोगी?’’

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‘‘लेकिन आप तो हिंदू हैं.’’

‘‘ठीक है, तो मैं मुसलमान बन जाता हूं.’’

‘‘नहीं, अंकल, आप मुसलमान मत बनना. नहीं तो आप का भी घर जला देंगे.’’

‘‘तो तुम हिंदू बन जाओ.’’

‘‘नहीं, अंकल, मैं हिंदू नहीं बनूंगी. हिंदू लोग अच्छे नहीं होते. वे लोगों को मार डालते हैं. घर जला देते हैं.’’

‘‘तो फिर तुम्हीं बताओ, मेरी बेटी कैसे बनोगी?’’

शबाना ने दिमाग पर जोर लगाया, फिर कहा, ‘‘अंकल, आप हिंदू मैं मुसलमान. जब मुसलमान दंगे करेंगे तो मैं आप को बचाऊंगी और जब हिंदू दंगे करेंगे तो आप मुझे बचाना. क्यों, ठीक है न अंकल?’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कह कर श्रीराम उदास हो गया. वह कैसे समझाए इस मासूम को कि दंगाइयों का कोई धर्म नहीं होता. होता तो उस की पत्नी शबनम और बेटा शंकर जिंदा होते. शैतानों का कोई ईमान नहीं होता.

बहरहाल, हुआ यों कि श्रीराम ने आत्महत्या का विचार त्याग दिया और शबाना को अपनी गोद में लिए शेष जीवन जीने में जुट गया.

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