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मुट्ठीभर बेर: औलेगा क्यों तड़प रही थी

घने बादलों को भेद, सूरज की किरणें लुकाछिपी खेल रही थीं. नीचे धरती नम होने के इंतजार में आसमान को ताक रही थी. मौसम सर्द हो चला था. ठंडी हवाओं में सूखे पत्तों की सरसराहट के साथ मिली हुई कहीं दूर से आ रही हुआहुआ की आवाज ने माया को चौकन्ना कर दिया.

माया आग के करीब ठिठक कर खड़ी हो गई. घने, उलझे बालों ने उस की झुकी हुई पीठ को पूरी तरह से ढक रखा था. उस के मुंह से काले, सड़े दांत झांक रहे थे. वह पेड़ के चक्र से बाहर देखने की कोशिश करने लगी, लेकिन उस की आंखों को धुंधली छवियों के अलावा कुछ नहीं दिखाई दिया. कदमों की कोई आहट न आई.

शिकारियों की टोली को लौटने में शायद वक्त था. उस ने अपने नग्न शरीर पर तेंदुए की सफेद खाल को कस कर लपेट लिया. इस बार ठंड कुछ अधिक ही परेशान कर रही थी. ऐसी ठंड उस ने पहले कभी नहीं महसूस की. गले में पड़ी डायनासोर की हड्डियों की माला, जनजाति में उस के ऊंचे दर्जे को दर्शा रही थी. कोई दूसरी औरत इस तरह की मोटी खाल में लिपटी न थी, सिवा औलेगा के.

औलेगा की बात अलग थी. उस का साथी एक सींग वाले प्राणी से लड़ते हुए मारा गया था. पूरे 2 पूर्णिमा तक उस प्राणी के गोश्त का भोज चला था. फिर औलेगा मां भी बनने वाली थी. उस भालू की खाल की वह पूरी हकदार थी जिस के नीचे वह उस वक्त लेट कर आग ताप रही थी. पर सिर्फ उस खाल की, माया ने दांत भींचते हुए सोचा.

आग बिना जीवन कैसा था, यह याद कर माया सिहर गई. आग ही थी जो जंगली जानवरों को दूर रखती थी वरना अपने तीखे नाखूनों से वे पलभर में इंसानों को चीर कर रख देते. झाडि़यों से उन की लाल, डरावनी आंखें अभी भी उन्हें घूरती रहतीं.

माया ने झट अपने 5 बच्चों की खोज की. उस से बेहतर कौन जानता था कि बच्चे कितने नाजुक होते हैं. सब से छोटी अभी चल भी नहीं पाती थी. वह भाइयों के साथ फल कुतर रही थी. सभी 3 दिनों से भूखे थे. आज शिकार मिलना बेहद जरूरी था. आसमान से बादल शायद सफेद फूल बरसाने की फिराक में थे. फिर तो जानवर भी छिप जाएंगे और फल भी नहीं मिलेंगे. ऊपर से जो थोड़ाबहुत मांस माया ने बचा कर रखा था, वह भी उस के साथी ने बांट दिया था.

माया परेशान हो उठी. तभी उस की नजर अपने बड़े बेटे पर पड़ी. वह एक पत्थर को घिस कर नुकीला कर रहा था, पर उस का ध्यान कहीं और था. माकौ-ऊघ टकटकी लगा कर औलेगा को देख रहा था सामक-या के धमकाने के बावजूद. क्या उसे अपने पिता का जरा भी खौफ नहीं? पिछले दिन ही इस बात पर सामक-या ने माकौ-ऊघ की खूब पिटाई की थी. माकौ-ऊघ ने बगावत में आज शिकार पर जाने से इनकार कर दिया और सामक-या ने जातेजाते मांस का एक टुकड़ा औलेगा को थमा दिया. वही टुकड़ा जो माया ने अपने और बच्चों के लिए छिपा कर रखा था. माया जलभुन कर रह गई थी.

एक सरदार के लिए सामक-या का कद खास ऊंचा नहीं था. पर उस से बलवान भी कोई नहीं था. एक शेर को अकेले मार डालना आसान नहीं. उसी के दांत को गले में डाल कर वह सरदार बन बैठा. और जब तक वह माया पर मेहरबान था, माया को कोई चिंता नहीं. ऐसा नहीं कि सामक-या ने किसी और औरत की ओर कभी नहीं देखा, पर आखिरकार वापस वह माया के पास ही आता. माया भी उसे भटकने देती, बस, ध्यान रखती कि सामक-या की जिम्मेदारियां न बढ़ें. नवजात बच्चे आखिर बहुत नाजुक होते हैं. कुछ भी चख लेते हैं, जैसे जहरीले बेर.

माया की इच्छा हुई एक जहरीला बेर औलेगा के मुंह में भी ठूंस दे, पर अभी उस के कई रखवाले थे, उस का अपना बेटा भी. पूरी जनजाति उस के पीछे पड़ जाएगी. खदेड़खदेड़ कर उसे मार डालेगी.

कुछ रातों बाद…

बर्फ एक सफेद चादर की भांति जमीन पर लेटी हुई थी. कटा हुआ चांद तारों के साथ सैर पर निकला था. मैमौथ का गोश्त खा कर मर्द और बच्चे गुफा के भीतर सो चुके थे. औरतें एकसाथ आग के पास बैठी थीं. कुछ ऊंघ रही थीं तो कुछ की नजर बारबार बाहर से आती कराहने की आवाज की ओर खिंच जाती. सुबह सूरज उगने से पहले ही औलेगा छोटी गुफा में चली गई थी और अभी तक लौटी नहीं थी. रात गहराती गई. चांद ने अपना आधा सफर खत्म कर लिया. पर औलेगा की तकलीफ का अंत न हुआ. अब औरतें भी सो चली थीं, सिवा माया के.

कदमों की आहट ने उस का ध्यान आकर्षित किया. औलेगा के साथ बैठी लड़की पैर घसीटते हुए भीतर घुसी. वह धम्म से आग के सामने बैठ गई और थकी हुई, घबराई हुई आंखों से माया को देखने लगी. तभी औलेगा की तेज चीख सुनाई दी. माया झट से उठी और मशाल ले कर चल पड़ी. दूसरी मुट्ठी में उस ने बेरों पर उंगलियां फेरीं.

औलेगा का नग्न शरीर गुफा के द्वार पर, आग के सामने लेटा, दर्द से तड़प रहा था. बच्चा कुछ ही पलों की दूरी पर था. और थोड़ी ही देर में एक नन्ही सी आवाज गूंज उठी. पर औलेगा का तड़पना बंद नहीं हुआ. शायद वह मरने वाली थी. माया मुसकरा बैठी और बच्चे को ओढ़ी हुई खाल के अंदर, खुद से सटा लिया. भूखे बच्चे ने भी क्या सोचा, वह माया का दूध चूसने लगा. अचंभित माया के हाथ से सारे बेर गिर गए. वह कुछ देर भौचक्की सी बैठी रही, औलेगा को कराहते हुए देखती रही. उस की नजर सामने की झाडि़यों से टिमटिमाती लाल आंखों पर पड़ी. बस, आग ने ही उन्हें रोक रखा था. और आग ही ठंड से राहत भी दे रही थी. औलेगा की आंखें बंद हो रही थीं. माया ने आव देखा न ताव, मुट्ठीभर मिट्टी आग पर फेंकी, बच्चे को कस कर थामा, मशाल उठाई और चलती बनी. न औलेगा की आखिरी चीखें और न ही एक और बच्चे की पहली सिसकी उसे रोक पाई.

Summer Special: गर्मी को बनाएं कूल-कूल

ग्लोबल वर्मिंग, पर्यावरण की जो दिशा-दशा है, उससे तो यही लगता है कि हर साल गर्मी का पारा नई ऊंचाइयों को छुएगा. कड़कड़ाती हुई गर्मी शुरू होने से पहले सेहत के मद्देनजर कुछ जरूरी कदम उठाना लाजिमी है. कुल मिला कर है, मौसम के मिजाज के अनुरूप लाइफ स्टाइल को बदलना जरूरी है. पर कैसे? आइए देखते हैं:

  1. हम सब जानते हैं कि गर्मी में हमारे शरीर को ज्यादा पानी की जरूरत होती है. गर्मी के दिनों में पसीना निकलता है. कुछ जगहों पर चिपचिपाहट के साथ ज्यादा ही पसीना निकलता है. जहां चिपचिपाहट वाली गर्मी नहीं है, वहां हिट स्ट्रोक के कारण डिहाइड्रेशन होता है. इस कारण शरीर में पानी की कमी हो जाती है. इसीलिऋ पूरे दम पर गर्मी शुरू होने से पहले थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पानी पीने का मात्रा बढ़ाया जाए तो प्रचंड गर्मी थोड़ी राहत रहेगी. गर्मी में कम से कम आठ ग्लास या तीन लीटर पानी जरूरी है. ध्यान रहे ज्यादा पानी भी नुकसान पहुंचाता है. इससे ज्यादा प्यास लगे तो डॉक्टर की सलाह जरूर लें.
  2. नियमित रूप से दिन भर में एक तय समय योगा-कसरत के लिए निकालें. अपनी सेहत के अनुरूप हर रोज हल्के-फुल्के कसरत से लेकर चलने-टहलने का नियम बना लें. इतना भी सेहतमंद रहने में सहायक होगा. और दिन भर स्फूर्ति देने और सक्रिय रखने का काम करेगा. सुबह के समय जब अपेक्षाकृत मौसम जरा कूल होता है, उस समय आउटडोर एक्सारसाइज कर सकते हैं. स्वीमिंग कर सकते हैं. स्वीमिंग से पूरे शरीर का एक्सरसाइज होता है. अगर जिम के लिए सुबह का समय नहीं मिल पाता है तो शाम को जिम जा सकते हैं. दोहपर के समय जिम से दूर रहना ही अच्छा होगा. शरीर को ठंडा रखने के लिए बहुत सारे योगा है. इनका भी सहारा लिया जा सकता है.
  3. गर्मी के दिनों में सन बर्न, हिट स्ट्रोक की आशंका रहती है. इसीलिए घर से बाहर निकलने पर अपने साथ छाता, सनग्लास साथ लेकर निकले. इसके अलावा बाहर निकलने से आधा घंटे पहले सनस्क्रीन क्रीम लगाएं. इसीके साथ अपने लिए पानी का बोतल रखें.
  4. आमतौर पर गर्म के दिनों में कोल्ड ड्रिंक पीने का चलन आम है. इसे पीने से बचें. इनसे फौरी राहत जरूर मिल जाती है. लेकिन अंतत: ये शरीर को नुकसान ही पहुंचाते हैं. इससे अच्छा है नारियल पानी, शिकंजी, दही का घोल, बटर मिल्क, लस्सी, आम पन्ना, बेल का शरबत. ये सभी शरीर को ठंडा रखती है. इनसे गर्मी का एहसास भी कम ही होता है.
  5. गर्मी के मौसम को देखते हुए बहुत ज्यादा चाय या कौफी से बचकर रहें.
  6. अगर अभी से खाने-पीने पर ध्यान देंगे तो गर्मी आराम से निकल जाएगी. सर्दी का मौसम गया तो समझ लीजिए तला, मसालेदार खाना खाने का समय भी बीत गया. अब हल्का-फुल्का खाने पर जोर दें. तली चीजों से दूर रहे. बेहतर होगा, बाहर का खाना खाने से बचें. खासतौर फास्ट फूड और बाजार में मिलनेवाले कटे हुए फल. ऐसे फल व सब्जी रोज के खाने में शामिल करें जिनकी तासीर ठंडी हो. मसलन; गर्मी के दिनों में तरबूत, पपीता, खरबूज, खीरा जैसे भरपूर पानीवाले फल कुदरत की देन हैं. इसी तरह सब्जी भी. घिया, तरोई, नेनुआ, परवल, कद्दू जैसे पानी से भरपूर सब्जी शरीर को भीतर से ठंड रखते हैं. अगर शरीर का तापमान कम हो जाए तो वातावरण की गर्मी का एहसास कम होता है.
  7. गर्मी के दिनों में पसीने के कारण कुछ लोगों को अक्सर फंगल इंफेक्शन की शिकायत हो जाती है. इससे निपटने के लिए जरूरी है कि अपने शरीर के विभिन्न हिस्सों की साफ-सफाई की जाए. बेहतर हो, खुशबूदार साबुन के बजाए मेडिकेटेड साबुन का इस्तेमाल किया जाए.
  8. गर्मी से निपटने के लिए सूती कपड़ों के अलावा हल्के रंग के ड्रेस, साड़ी, सलवार-कुर्त्ता या शर्ट पहना जाए. अंदरुनी कपड़ों के लिए भी सूती मैटेरियल का चुनाव करें. कुछ भी पहने टाइट फिटिंग के बजाए ढीला-ढाला पहना चाए.

इन कुछ उपायों को अपना कर गर्मी के कठिन दिनों को आराम से निकाला जा सकता है.

पापाज बौय : 1

फरवरी का बसंती मौसम था. धरती पीले फूलों की चादर में लिपटी हुई थी. बसंती बयार में रोमांस का शोर घुल चुका था. बयार जहांतहां दो चाहने वालों को गुदगुदा रही थी. मेरे लिए यह बड़ा मीठा अनुभव था. मैं उस समय 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी. यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही शरीर में बदलाव होने लगे थे. सैक्स की समझ बढ़ गई थी. दिल चाहता था कि कोई जिंदगी में आई लव यू कहने वाला आए और मेरा हो कर रह जाए. मैं शुरू से ही यह मानती आई थी कि प्रेम पजैसिव होता है इसीलिए यही सोचती आई थी कि जो जिंदगी में आए वह सिर्फ मेरा और मेरा हो.

शतांश से मेरी मुलाकात क्लास में ही हुई थी. वह गजब का हैंडसम था साथ ही अमीर बाप की एकलौती संतान था. पता नहीं मुझ में ऐसा क्या था जो वह मुझ पर एकदम आकर्षित हो गया. वैसे क्लास और स्कूल में अनेक लड़कियां थीं, जो उस पर हर समय डोरे डालने का प्रयास करती थीं. मैं एक मध्यवर्गीय युवती थी और वह आर्थिक स्थिति में मुझ से कई गुना बेहतर था. पहली मुलाकात के बाद ही हमारी दोस्ती बढ़ने लगी थी. मुझे क्लासरूम में घुसते देख कर ही वह दरवाजा रोक कर खड़ा हो जाता और मुझे अपनी तरफ देखने को मजबूर करता. कभी वह मेरे बैग से लंच बौक्स निकाल कर पूरा खाना खा जाता तो कभी अपना टिफिन मेरे बैग में रख देता. वह मेरे से नितनई छेड़खानियां करता. अब उस की छोटीछोटी शरारतें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. शायद उस दौरान ही हमारे बीच प्रेम का पौधा पनपने लगा था.

मन की सुप्त इच्छाएं उस समय पूर्ण हुईं जब शतांश ने मुझे वैलेंटाइन डे पर लाल गुलाब देते हुए कहा था, ‘आई लव यू.’ मेरे लिए वह पल सुरमई हो उठा था. हृदय में खुशी का सैलाब उमड़ने लगा था. मैं शतांश की हो जाने को बेताब हो उठी थी. कैसे उस के शब्दों के बदले अपने प्रेम का इजहार करूं, अचानक कुछ भी नहीं सूझा था. जिस हाथ से शतांश ने वह फूल दिया था, मैं ने उस हाथ को शरमाते हुए चूम लिया था, बस.

उस दिन के बाद से न ही उस ने कुछ किया और न ही मैं ने. जो कुछ किया रोमांस की हवा के झोंकों ने किया. हमारे बीच प्रेम निरंतर बढ़ता जा रहा था. हम एकदूसरे के और करीब आते गए थे. रेस्तरां में शतांश के इंतजार में बैठी शायनी अपना अतीत उधेड़े जा रही थी. तभी वेटर आ कर उस के सामने कौफी का एक कप रख गया. कौफी का एक घूंट गले में उतारते हुए शायनी फिर अतीत में खो गई. रेस्तरां के शोरशराबे ने भी उस की सोच में कोई खलल नहीं डाला.

स्कूली शिक्षा समाप्त करते ही मैं ने मैडिकल में ऐडमिशन ले लिया था और शतांश ने ग्रैजुएशन के बाद एमबीए करने की चाह में आर्ट्स कालेज जौइन कर लिया था. यह सत्य है कि प्रेम किसी सीमा का मुहताज नहीं होता. वह न जाति में बंधता है, न धर्म में. न ऊंचनीच उसे बांधती है और न ही रंगभेद. कालेज की दूरियां और समय का अभाव कभी भी हमारे प्रेम में कमी नहीं ला पाया. मेरे और शतांश के रिश्तों में रोमांस की खुशबू सदा बनी रही.

मधुर मिलन: भाग 1

Writer- रेणु गुप्त

“हैलो पापा, जल्दी घर आ जाइए. दादी को फिर से अस्थमा अटैक पड़ा है. वे बारबार आप को याद कर रही हैं,” तपन के बड़े बेटे रिदान ने अपने पिता तपन  से कहा, जो कंपनी के टूर पर पुणे गए हुए थे.

“बेटा, बहुत जरूरी मीटिंग है परसो, उसे अटेंड कर ही वापस आ पाऊंगा. तब तक ऐसा करो, डाक्टर सेन  को बुला लो. उन के इंजैक्शन से दादी को फौरन आराम हो जाएगा. घर मैनेज नहीं हो पा रहा हो, तो मेरे आने तक इनाया आंटी को बुला लो.”

“जी पापा, ठीक है. वैसे, दादू की तबीयत भी ठीक नहीं. उन के जोड़ों का दर्द उभर आया है. मेरा पूरा वक्त दादू  और दादी की देखभाल में ही बीत जाता है.  अगले हफ्ते मेरे टर्म एग्जाम हैं.”

“ठीक है बेटा, मैं संडे को आ रहा हूं.”

रिदान से बातें कर तपन कुछ परेशान सा हो गया. जब से उस की पत्नी मौनी की सालभर पहले कैंसर से मौत हुई है, घर घर न रहा था.  सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया था. तभी  उस के फोन पर औफिस का कोई मैसेज आया और वह अपने काम में व्यस्त हो गया.

उस के घर पर रिदान  और रूद्र उस के 2 बेटे दादी की देखभाल में व्यस्त थे, जिन्हें अस्थमा का गंभीर दौरा पड़ा था. उन के लिए फ़ैमिली डाक्टर बुलाया गया था. कुछ ही देर बाद दादी को देख कर वह  जा चुका था. डाक्टर के दिए  इंजैक्शन से दादी को आराम आ गया और वे शांत लेटी थीं.  लेकिन अब दादू  अपने जोड़ों के दर्द से कराहने लगे, रिदान  से बोले, “रिदान बेटा, जरा सेंक की बोतल में गरम पानी भर कर ले आ.”

रिदान सेंक  की बोतल लेने दूसरे कमरे में गया ही था कि तभी रुद्र वहां पहुंच गया और रिदान से बोला, “भैया, परसों मेरा फ़िजिक्स का टर्म एग्ज़ाम है, लेकिन बिलकुल पढ़ाई नहीं हो पा रही. दादी, दादू के साथ पढ़ाई करना बहुत मुश्किल हो रहा है. मम्मा कितनी अच्छी तरह से घर मैनेज कर लेती थी न. मम्मा  की बहुत याद आ रही है, भैया.  यह सबकुछ हमारे साथ ही क्यों हुआ?  हमारी मम्मा हमें छोड़ कर चली गई इतनी जल्दी. मेरे सब फ्रैंड्स की मम्मा हैं.  जब वे लोग अपनी अपनी मम्मा की बातें करते हैं, तब मुझे बहुत फील होता है.”

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“रुद्र, हम दोनों का समय ही खराब है.  चलो, जो चीज हमारे कंट्रोल में नहीं है, हमें उस के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए. बी थैंकफ़ुल, कि पापा और  दादू-दादी हमारे पास हैं. चिंता मत कर, अब सबकुछ मैनेज हो जाएगा. पापा ने इनाया आंटी को बुलाने के लिए कहा है.”

तभी रिदान ने इनाया को फोन कर के कहा, “हैलो इनाया आंटी, गुड आफ्टरनून. आंटी, पापा  टूर पर गए हुए हैं, और यहां दादी को अस्थमा का अटैक पड़ा है. अभी तो खैर डाक्टर ने इंजैक्शन लगा दिया है और उन को आराम आ गया है. दादू के जोड़ों का दर्द भी उभर आया है. इधर रामकली आंटी भी हम से मैनेज नहीं हो पा रहीं.  टाइमबे टाइम आती हैं और उन्हें कुछ कहो, तो जवाब देना शुरू कर देती हैं. दादीदादू भी कुछ कहते हैं, तो उन की भी नहीं सुनतीं. कुछ दिनों के लिए आप प्लीज़, अमायरा के साथ घर आ जाइए न.”

“पापा कहां गए हैं? कब लौटेंगे?”

“पापा संडे तक आएंगे. आंटी प्लीज, आ जाइए.  अमायरा  को साथ में जरूर लाइएगा.”

“ओके बेटा, चिंता मत करो. मैं आती हूं 5 बजे तक.”

5  बजते ही अपने वादे के मुताबिक इनाया तपन के घर अमायरा के साथ आ गई. आते ही उस ने बेहद कुशलता से घर संभाल लिया.

इनाया के सहज, मृदु व्यक्तित्व में अनोखी ऊष्मा थी, जिस से उस के संपर्क में आने वाला हर शख्स अनचाहे उस की ओर खिंचा चला आता और उस की सहृदयता का कायल हो उठता. लेकिन उस के ज़िंदादिल व्यक्तित्व के आवरण में दर्द का अथाह समंदर छिपा था, जो उसे उस के अपनों ने ही दिया था.

उस ने अपनी युवावस्था में अपने मातापिता की मरजी के विरुद्ध उन से विद्रोह कर के एक युवक से विवाह कर लिया था. लेकिन कैरियर में बेहतरी की अपेक्षा में वह उसे और नन्ही अमायरा को छोड़ कर दुबई चला गया. फिर वह कभी लौट कर नहीं आया. वहीं बस गया. सुनने में आया था कि उस ने वहीं किसी और युवती से निकाह  कर लिया था.

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इनाया रिदान और  रुद्र की मृत मां मौनी की कालेज के जमाने की बेस्ट फ्रैंड  थी. मौनी इनाया के जीवन के हर पल की साझेदार थी. मौनी से दांतकाटी दोस्ती के चलते दोनों का एकदूसरे के घर नियमित रूप से आनाजाना, उठनाबैठना था. सो, दोनों  एकदूसरे के पति से भी ख़ासी  करीब थीं  और खुली हुई थीं. इनाया के पति के दुबई चले जाने के बाद मौनी और तपन ने इनाया के  सच्चे दोस्तों की भूमिका निभाते हुए उसे बेइंतहा भावनात्मक सहारा दिया और उन दोनों की वजह से वह बहुत हद तक अपने पति के दिए हुए आघात  से उबर कर वापस सामान्य हो पाई थी.

शाम के 5  बज चुके थे. रिमझिम बारिश हो रही थी.

“इनाया आंटी,  इस सुहाने मौसम में कुछ बढ़िया चटपटा खाने का दिल कर रहा है. आंटी, आप  बहुत बढ़िया चाप बनाती हैं न. प्लीज,  रामकली आंटी से बनवा दीजिए न,” रुद्र ने इनाया से फ़रमाइश की.

“ओके बेटा, अभी बनवाती हूं.”

“इनाया, हम दोनों को तो तुम्हारा यह मरा  चाओ बिलकुल अच्छा न लगे है. कुछ बढ़िया जायकेदार देसी खाना हम दोनों के लिए बनवा दे.”

“अच्छा आंटी, नो प्रौब्लम.  आप दोनों के लिए पकौड़ी  बनवा देती हूं. साथ में, हलवा भी.”

“अरे वाह बेटा, नेकी और पूछपूछ?  तूने तो मेरे दिल की बात कह दी. प्रकृति तुझे सातों सुख दे.”

“अरे आंटी, प्रकृति आप की बात मान ले, तो बात ही क्या थी? सातों सुख तो दूर की बात है, एक सुख ही  दे दे, तो बात बन जाए.”

“इनाया बेटा, ऐसी मायूसी की बातें क्यों करती है. तुझ से तो मौनी कहतेकहते हार गई. उस ने अपने जीतेजी तेरे लिए गठबंधन डौट कौम से कितने रिश्ते ढूंढे, लेकिन तूने किसी रिश्ते के लिए हामी  ही नहीं भरी. और अब जब अकेले रहने का फैसला तेरा है, तो इस के लिए शिकायत कैसी?  हिम्मत से हंसीखुशी जिंदगी जी, बेटा.”

GHKKPM: सई करवाएगी अपनी बु्आ सास की शादी!

सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ की कहानी में एक नया मोड़ आ चुका है. शो में विराट की शिवानी बुआ की जिंदगी में जल्द ही खुशियां आने वाली है. शो में अब तक आपने देखा कि शिवानी बुआ राजीव से मिलने जेल जाती है. राजीव शिवानी से माफी मांगता है. शिवानी राजीव की सारी गलतियों को माफ कर देता है.

तो दूसरी तरफ विराट राजीव को जेल से रिहा कर देता है. इसी बीच सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’  की कहानी में बड़ा ट्विस्ट आने वाला है. शो की कहानी में आगे आप देखेंगे कि सई और विराट शिवानी की शादी करवाने की प्लानिंग करेंगे.

 

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शो में रामनवमी का उत्सव भी दिखाया जाएगा. इस मौके पर शिवानी आग में घिर जाएगी. राजीव अपनी जान पर खेलकर शिवानी की जान बचाएगा तो वहीं सई और विराट भी आग में कूद पडे़ंगे. आग की वजह से राजीव बेहोश हो जाएगा.

 

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शो में आप ये भी देखेंगे कि सई एक्जाम देने से इनकार कर देगी. विराट सई के आगे हाथ पैर जोड़ेगा. विराट कहेगा कि वो अपनी जिम्मेदारी पूरी करके रहेगा. तो दूसरी तरफ सई विराट का हाथ हथकड़ी से बांध देगी. हथकड़ी के दूसरे छोर में सई अपना हाथ डाल लेगी. हथकड़ी लगाते ही सई चाबी कमरे से बाहर फेंक देगी. सई की ये हरकत देखकर विराट हैरत में पड़ जाएगा.

 

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Yeh Rishta फेम मोहिना कुमारी सिंह बनी मां, दिया एक बेटे को जन्म

ये रिश्ता (Yeh Rishta) क्या कहलाता है फेम एक्ट्रेस मोहिना कुमारी सिंह (Mohena Kumari Singh) मां बन चुकी हैं. उनके घर आखिरकार किलकारियां गूंज उठी है. एक रिपोर्ट के अनुसार, एक्ट्रेस ने एक बेटे को जन्म दिया है. बता दें कि कुछ महीने पहले ही मोहिना कुमारी सिंह ने गुड न्यूज सोशल मीडिया पर शेयर की थी कि वह मां बनने वाली हैं.

एक्ट्रेस अपनी प्रेग्नेंसी से जुड़ी हर छोटी से बड़ी जानकारी सोशल मीडिया के जरिये फैंस के साथ शेयर की थी. आखिरकार ये इंतजार खत्म हुआ, और मोहिना कुमारी सिंह के आंगन में किलकारियां गूंज उठी है. ये खबर जानने के बाद फैंस काफी खुश है.

 

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हालांकि अभी तक मोहिना कुमारी सिंह ने सोशल मीडिया के जरिए ये जानकारी अपने फैंस को नहीं दी है. लेकिन खबरों के अनुसार एक्ट्रेस ने एक बेटे को जन्म दिया है. अब देखना ये होगा कि एक्ट्रेस के परिवार से ये न्यूज कब तक कंफर्म हो पाती है.

 

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हाल ही में मोहिना कुमारी सिंह ने वर्चुअल बेबी शावर का वीडियो इंस्टाग्राम पर शेयर था. उन्होंने फैंस को वर्चुअल बेबी शॉवर के लिए शुक्रिया अदा किया था. मोहिना कुमारी सिंह अपनी प्रेग्नेंसी के दौरान काफी एक्टिव रही और सोशल मीडिया पर अपनी दिनचर्या की जानकारी देती रही.

 

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बता दें कि एक्ट्रेस ने साल 2019 में सुयश रावत संग शादी रचाई थी. शादी के 3 साल बाद एक्ट्रेस मां बनी है.

 

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यूक्रेन की महिलाएं: खतरे में खूबसूरती

यूक्रेन की महिलाओं को यूरोप में सब से ज्यादा खूबसूरत समझा जाता है, तभी तो यहां की महिलाएं दुनिया भर के पुरुषों को आकर्षित करती हैं. लेकिन अब मौजूदा युद्ध के दौर में नजाकत से रहने वाली यहां की महिलाओं ने अपने देश की रक्षा के लिए बंदूक उठा ली है. अब यह देशभक्ति का जज्बा दिखाते हुए रूसी सैनिकों के सामने मोर्चा संभाले हुए हैं…

पूरी दुनिया में खासतौर से यूरोप में सब से से ज्यादा सुंदर यूक्रेन की महिलाएं और उस में भी राजधानी कीव की ही क्यों मानी जाती हैं? बारूद के धमाकों और धुएं के बीच यह सवाल पूछा जाना बेमानी नहीं है.

दरअसल, हर कोई देख और समझ भी रहा है कि यह युद्ध भी बहुत सी चीजों के साथसाथ सौंदर्य भी नष्ट कर रहा है. यूक्रेन को कुदरत ने तबियत से नवाजा है. वहां के दिलकश नजारे सचमुच आई कैचर हैं, खूबसूरत बीच और पहाडि़यां, झूमते फूल, इठलाते पेड़ और आलीशान गगनचुंबी इमारतें देख कर दिल वहीं रुक जाने को करता है.

कुछ दिन पहले तक जिंदगी यूक्रेन में बसती और मुसकराती थी. सड़कों पर रंगबिरंगी पोशाकें पहन कर चलते लोग बरबस ही हर किसी का ध्यान अपनी तरफ खींचते थे, इन में भी महिलाओं की तो बात ही निराली थी.

उन के नैननक्श और फिटनैस की मिसाल दी जाती है. पहनावे के मामले में यूक्रेन की महिलाएं बहुत रिजर्व हैं, जिन की ड्रैस पर रंगबिरंगे फूल दिखना आम है.

अजीब रंगत है यूक्रेन की. महिलाओं को मानो कटोरी भर मलाई में चुटकी भर सिंदूर डाल कर उन्हें नहला दिया गया हो. जिस की अपनी अलग ही कशिश होती है. उन की आंखें बोलती भी हैं, मुसकराती भी हैं और एक सौम्य न्यौता देती सी भी लगती हैं.

वे शोख चंचल और अल्हड हैं, चुलबुली हैं, मांसल हैं और नाजुक भी हद से ज्यादा हैं. औरत की परफेक्टनैस क्या होती है, यह यूक्रेन की महिलाओं को देख कर सहज ही समझा जा सकता है.

असल में यूक्रेन की महिलाएं बहुत सी पारिवारिक और सामाजिक बंदिशों से मुक्त हैं. लेकिन वे कतई उतनी उन्मुक्त नहीं हैं कि उन के बारे में कोई गलत खयाल या राय कायम की जाए.

इस में कोई शक नहीं कि वे आमतौर पर जिंदगी अपनी मरजी से जीती हैं. व्यक्तिगत जिंदगी से जुड़े मसलों मसलन शिक्षा, करिअर और शादी के फैसले लेने की उन्हें आजादी है.

वे बिंदास तरीके से शराब भी पीती हैं, लेकिन यह पूरे यूरोप की तरह यूक्रेन का भी कल्चर है, जिसे बुरी नजर से नहीं देखा जाता. यह खुलापन उन का हक है जो खुद उन्होंने हासिल किया है.

जब स्वाभिमान के लिए न्यूड भी हुईं

यूक्रेन की महिलाएं मरजी से सैक्स संबंध बनाती हैं और डेट पर भी जाती हैं. लेकिन इस का मतलब यह बिलकुल नहीं कि वे एकदम स्वच्छंद या ऐसीवैसी हैं. इस आजादी का इस्तेमाल वे अपने रिस्क पर करती हैं और अगर उन के चरित्र पर कोई अंगुली उठाता है तो वे इस का विरोध करते हुए आसमान सिर पर उठा लेती हैं. कैसे आइए इसे जानने के लिए 10 साल पीछे चलते हैं.

वह जनवरी, 2012 का तीसरा सप्ताह था, जब यूक्रेन का तापमान माइनस 4 डिग्री सेल्सियस था. हाड़ कंपा देने वाली इस ठंड में सैकड़ों यूक्रेनी महिलाएं कीव स्थित भारतीय दूतावास की छत पर प्रदर्शन करते नारे लगा रही थीं.

दिलचस्प बात यह कि वे सब टौपलैस थीं, जिन के हाथों में जकड़ी तख्तियों पर लिखा था ‘यूक्रेन इज नौट अ ब्रोथल’ यानी यूक्रेन वेश्यालय नहीं है और ‘वी आर नौट प्रास्टिट्यूट्स’ यानी हम वेश्या नहीं हैं.

मामला भी कम दिलचस्प नहीं था. तब मीडिया के जरिए यह खबर आम हुई थी कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने रूस और किर्गिस्तान सहित यूक्रेन के दूतावासों को निर्देश दिए थे कि 18 से 40 वर्ष की उम्र की महिलाओं के वीजा आवेदनों की बारीकी से जांच की जाए. क्योंकि वे देहव्यापार करने भारत जाती हैं.

इस पर यूक्रेन में महिला अधिकारों के लिए अभियानपूर्वक काम करने वाली संस्था फेमेन ने इसे अपमानजनक बताते हुए अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की दुहाई दी थी.

कुछ दिन बवाल मचने के बाद मामला ठंडा पड़ गया था. जाहिर है यूक्रेनी महिलाओं ने यह साबित कर दिया था कि वे अपने सम्मान और स्वाभिमान के प्रति सजग हैं और इस से कोई समझौता नहीं करेंगी. उन में गुस्सा और भड़ास इस कदर भरे थे कि उन्होंने तिरंगे को कथित रूप से रौंदा भी था.

लेकिन इस से इस सच पर परदा नहीं पड़ जाता कि यूक्रेन की युवतियां देहव्यापार करने भारत भी आती हैं क्योंकि यहां उन की भारी मांग है. कुछ छापों में वे पकड़ी भी गई हैं.

यूक्रेन में भी देहव्यापार प्रतिबंधित है लेकिन पूरी दुनिया की तरह वह वहां भी धड़ल्ले से होता है. यूक्रेनियन इंस्टीटयूट औफ सोशल स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक साढ़े 4 करोड़ की आबादी वाले यूक्रेन में साल 2011 में कोई 50 हजार वेश्याएं थीं, जिन की तादाद अंदाजा है कि अब एक लाख के लगभग हो गई हैं.

इस एजेंसी के मुताबिक वहां हर छठी कालगर्ल नाबालिग है. दुनिया भर की एजेंसियां यूक्रेन को देहव्यापार का एक बड़ा अड्डा कह चुकी हैं और वहां ह्यूमन ट्रैफिकिंग और सैक्स टूरिज्म तेजी से फलफूल रहे हैं.

नाजुक हाथों में हथियार

बहरहाल, गैरत की हिफाजत और वकालात का यही जज्बा युद्ध के दिनों में भी दिखा, जब सारी नजाकत छोड़ते और भूलते जंग में महिलाओं ने भी मोर्चा संभाला. इस के पहले भी वे मर्दों के कंधा से कंधा मिला कर चलती रही हैं.

साल 2019 के आम चुनाव में 87 महिलाएं चुन कर संसद पहुंची थीं, जो कुल सदस्यों का 50 फीसदी होता है. सेना में हालांकि उन की भागीदारी महज 15 फीसदी है लेकिन युद्ध के दौरान यूक्रेन के गलीकूचों तक में हजारों महिलाओं ने रूसी सैनिकों से लोहा लिया.

मिस ग्रैंड इंटरनैशनल ब्यूटी कांटेस्ट 2015 में यूक्रेन की नुमाइंदगी करने वाली बला की खूबसूरत अनस्तलिया जिन्हें यूक्रेन की ब्यूटी क्वीन भी कहा जाता है, ने अपने इंस्टाग्राम हैंडल पर हथियार लिए कुछ तसवीरें पोस्ट कीं, जिस से महिलाओं का हौसला और बढ़ा था.

एक महिला सांसद किरा रुडिक ने भी इसी तरह की अपनी तसवीर अपलोड करते लिखा था कि अब यूक्रेन की महिलाएं पुरुषों की तरह अपनी धरती की रक्षा करेंगी.

देखते ही देखते ल्वीव की 33 वर्षीय केट माचिशिन सहित हजारों नाजुक कलाइयों ने रातोंरात एके 47 जैसे खतरनाक हथियार चलाने की ट्रेनिंग ली और फ्रंटलाइन पर आ कर रूसी सेना का मुकाबला किया.

केट जैसी हजारों महिलाओं का गुस्सा इस बात पर भी था कि रूसी सैनिक मासूम बच्चों की नृशंसता से हत्या कर रहे हैं और औरतों को अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं.

हालांकि यह एक कड़वा सच है कि हरेक युद्ध में सैनिक महिलाओं को किसी सामान की तरह लूटते हैं. उन से सैक्स की अपनी जरूरत पूरी करते हैं और बाद में उन्हें मार देते हैं या मरने के लिए छोड़ देते हैं.

युद्ध औरतों के जिस्म पर ही नहीं, बल्कि उन की रूह पर भी कितनी बर्बरता और अमानवीयता से लड़े जाते हैं, यह भी रूस यूक्रेन की जंग के दौरान उजागर हुआ था. दूसरे विश्वयुद्ध के लोमहर्षक किस्सों में से एक जापान का है.

जापानी सैनिक चीनी, कोरियाई और फिलीपीनी लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाते थे. छावनियों में लड़कियां सैक्स स्लेव की तरह रखी जाती थीं. एक चीनी युवती, जिस का नाम चोंग ओके सन है, का तजुर्बा बेहद भयावह है.

उस के मुताबिक जब वह महज 13 साल की थी, तब खेत पर जाते समय जापानी सैनिक उसे अगवा कर ले गए थे. दरजनों सैनिकों ने उस के मासूम जिस्म को उस के बेहोश हो जाने तक रौंदा. इस के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा हो तो उसे याद नहीं.

दर्द और बेबसी से कराहती चोंग को जब होश आया तो वह कैद में थी. वह यह जान कर हैरान रह गई थी कि इस सैनिक अड्डे पर 400 के लगभग कोरियाई लड़कियां भेड़बकरियों की तरह ठुंसी हुई थीं. उन के शरीर पर नाम मात्र के कपड़े थे, लेकिन जख्म इफरात से थे.

जल्द ही लड़कियों को पता चल गया कि उन्हें कोई 5 हजार जापानी सैनिकों की हवस बुझानी है. औसतन एक लड़की से 40 सैनिकों ने बलात्कार किया.

इन औरतों को कंफर्ट वुमन नाम दिया गया था और जहां इन्हें रखा जाता था, उन्हें कंफर्ट स्टेशन नाम दिया गया. जुल्म की इंतहा यह कि जो लड़की विरोध करती थी, उस का खुले मैदान में गैंगरेप किया जाता था और उन्हें तड़पातड़पा कर मार दिया जाता था.

लड़कियां प्रैगनेंट न हों, इस के लिए उन्हें एक खास कैमिकल वाला इंजेक्शन, जिस का नाम नंबर 606 था, दिया जाता था. इस इंजेक्शन के ढेरों साइड इफेक्ट थे, लेकिन सैनिकों को इस से कोई सरोकार नहीं था. उन के लिए औरतें युद्ध में जीता हुआ माल होती थीं और आज भी कुछ बदला नहीं है.

औरतों की खूबसूरती होनहार ‘बहादुर’ सैनिकों के कदमों तले बेरहमी से रौंदी गई. अपनी मरजी से डेट पर जाने वाली खूबसूरत महिलाओं की मरजीनामरजी के कोई माने नहीं रह गए थे. उन्हें नोचनेखसोटने में रूसी सैनिक जापानी सैनिकों से उन्नीस नहीं रहे, जिन्होंने युद्ध औरत की देह पर लड़ा.

मुमकिन ही नहीं, बल्कि तय है कि सब कुछ शांत हो जाने के बाद कोई यूक्रेनी चोंग बताएगी कि उस के साथ कैसा सुलूक किया गया था.

युद्ध के दौरान मार्च के पहले सप्ताह में यूक्रेन के विदेश मंत्री दिमित्रो कुलेबा ने आरोप लगाया था कि रूसी सैनिक यूक्रेनी औरतों का बलात्कार कर रहे हैं. तब दहशत इतनी थी कि कोई खुल कर कुछ नहीं बोल पा रहा था.

गलत नहीं कहा जाता कि युद्ध में सब से ज्यादा दुर्गति महिलाओं की ही होती है. लड़े कोई भी लेकिन अंतत हारती औरत ही है. अपनी और अपनी अस्मत की हिफाजत के लिए यूक्रेनी औरतों ने हथियार उठाए तो यह भी उन की खूबसूरती का ही एक हिस्सा था.

नजाकत से रहना, मटक कर चलना, अदाएं दिखाना, मेकअप करना और रिझाना वगैरह आम दिनों में अच्छे लगते हैं पर युद्ध के दिनों में ये सब स्त्रियोचित हावभाव खुदबखुद गायब हो गए तो यह एक जरूरी मजबूरी थी, जिस पर यूक्रेनी बालाएं सौ फीसदी खरी उतरी हैं.

मुद्दत तक रहेगी दहशत

युद्ध के बाद लाखों यूक्रेनियनों को देश छोड़ कर पड़ोसी देशों में शरण लेनी पड़ी. इन में भी स्वभाविक रूप से महिलाओं की संख्या ज्यादा थी. उन्हें खानेपीने के लाले पड़ गए थे. वे बेघर हो गईं थीं.

जगहजगह उन के साथ ज्यादतियां हुईं और उन्हें जिस्म भी परोसना पड़ा. कितनी महिलाओं ने अपने पिता, भाई और पति को खोया, इस का हिसाब सालोंसाल चलेगा. कितनी औरतों के बच्चे उन से बिछड़ गए, इस का आडिट जब होगा तब होगा.

लेकिन यह तय है कि होंठों, आंखों और चेहरे सहित पूरे जिस्म से मुसकराने वाली यूक्रेनी महिला मुद्दत तक सदमे और दहशत में रहेगी. इस सूनेपन के रूस सहित सब जिम्मेदार हैं जो युद्धों के दुष्परिणामों को जानते हुए भी राष्ट्र और धर्म के नाम पर खामोश रह जाते हैं जबकि ये दोनों ही चीजें महिलाओं की वजह से हैं. उन के बगैर किसी राष्ट्र या धर्म का कोई अस्तित्व नहीं.

जो यूक्रेन महिलाओं की खूबसूरती की वजह से आकर्षण का केंद्र रहता था, वहां एक मुकम्मल सन्नाटा लंबे वक्त तक पसरा रहेगा. खंडहर केवल इमारतें नहीं हुई हैं, बल्कि यूक्रेन की आत्मा और चेतना भी तारतार हो गई है.

इस लड़ाई ने खूबसूरती की मिसाल बने देश को सदियों पीछे धकेल दिया है. फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि यूक्रेन जल्द ही एक बार फिर आबाद होगा.

वहां की महिलाएं एक बार फिर शोखी से मुसकराती सड़कों, बीच और क्लबों में नाचती इतराती और इठलाती नजर आएंगी और दुनिया भर के लोग उन्हें देखने एक बार फिर यूक्रेन और कीव का रुख करेंगे.

‘द कश्मीर फाइल्स’: सिसकियों पर सियासत

आज कश्मीर का नाम सुनते ही हर किसी के जेहन में वहां की खूबसूरत वादियों की नहीं, बल्कि आतंकवाद की तसवीरें घूमने लगती हैं. ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को ले कर देश में जिस तरह की बहस छिड़ी है, उस से कश्मीरी पंडितों की हालत में तो शायद कोई सुधार होगा नहीं, बल्कि पीडि़तों की सिसकियों पर सियासत जरूर शुरू हो गई है.

बौक्स औफिस पर रिकौर्ड तोड़ कमाई करने का उदाहरण बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ दर्द, आक्रोश और तबाही की एक तल्ख सच्चाई को समेटे हुए है. लेकिन 3 दशक से भी ज्यादा

समय पहले कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म और विस्थापितों को ले कर अब एक नई बहस छिड़ गई है.

फिल्म को विवाद का जरिया बना दिया गया. देश के 2 धड़ों भाजपा और कांग्रेस समर्थकों के बीच मीडिया से ले कर संसद तक में इस की गूंज सुनी गई. सिनेमाप्रेमियों को फिल्म से कहीं अधिक उन के बहस से मनोरंजन मिला. दु:खद यह रहा कि उन से कोई समाधन भी निकलता नजर नहीं आया.

विवेक रंजन अग्निहोत्री की कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक चर्चित हो चुकी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ 11 मार्च को देश के मात्र 600 सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी. इस फिल्म में न कोई हीरो है और न ही कोई हीरोइन. और तो और इस में न ही रूमानियत भरी वैसी कोई कहानी ही है, जिस के लिए कश्मीर की वादियों की भी बात की जाए.

फिल्म में एक बुजुर्ग चर्चित अभिनेता अनुपम खेर हैं, जो सार्वजनिक मंचों से कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का झंडा उठाते रहे हैं. अभिनेत्री के नाम पर 90 के दशक की पल्लवी जोशी हैं. वह विवेक की पत्नी हैं. कुछ भूमिकाओं में मिथुन चक्रवर्ती हैं.

किंतु, इस में विलेन की एक जबरदस्त पृष्ठभूमि बनाई गई है. अधिकतर पात्रों को हिंदू देवीदेवताओं के नाम दिए गए हैं. मुख्य पात्र को नीला रंग और तिलक लगाए हिमालय के शैव प्रतीकात्मक रूप में ढाला गया है. छात्र संगठनों और एक्टिविस्टों के झंडे लहराए गए हैं. वामपंथी विचारधारा का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू (बदला हुआ नाम दे कर) को भुनाया गया है.

प्रचार तंत्र का सहारा

मुसलमान पात्रों के जरिए आतंकवादी हिंसा और जन्मभूमि की भावनाओं का तानाबना बुन कर एक हद तक क्लाइमेक्स तक पहुंचने की कोशिश की गई है, ताकि कोई भी देख कर अपनी नम आंखें बंद कर ले या फिर फूटफूट कर रो पड़े. यही इस फिल्म की खूबी है, जिस में फिल्म के लेखक और निर्देशक सफल हो गए हैं.

फिल्म से संबंधित दूसरा पक्ष फिल्मकार द्वारा दबे हुए सच को सामने लाने की बात को प्रचारित करना रहा. इस के लिए 5 राज्यों में हुए चुनाव के ठीक बाद प्रदर्शित करने की योजना बनाई गई.

शुरुआत एक हास्य व्यंग्य के लिए मशहूर कपिल शर्मा टीवी शो के घसीटने से हुई. उस के द्वारा फिल्म प्रमोशन के लिए शो में जगह नहीं मिलने पर फिल्मकार द्वारा उसे मुद्दा बनाया गया.

जबकि वह यह भूल गए कि कुछ माह पहले ही एक सच्ची घटना से सबंधित अदालती फैसले पर फिल्म ‘जय भीम’ आई थी, जिसे प्रमोट करने के लिए कपिल शर्मा शो की जरूरत ही नहीं महसूस की गई. इस फिल्म ने न केवल सफलता के झंडे गाड़े, बल्कि सकारात्मक प्रभाव छोड़ने में भी कामयाब हुई.

फिल्म के स्पैशल शो रखे गए. लालकृष्ण आडवाणी समेत कई लोगों को स्पैशल शो में फिल्म दिखाई गई. उन की आंखों से बहते आंसुओं को प्रतिक्रिया के तौर पर भावनात्मक प्रचार का माध्यम बनाया गया.

इस सिलसिले में फिल्म के लिए गहन शोध की मेहनत और इस पर आई लागत का हवाला दिया गया. साथ ही फिल्म की शूटिंग के दरम्यान फतवे जारी करने जैसे विरोध के किस्से भी बयां किए गए.

इन तथ्यों के जरिए फेसबुक और इंस्टाग्राम से ले कर सभी तरह के सोशल मंचों पर डिजिटल मार्केटिंग का गहन अभियान चला दिया गया.

इस फिल्म में क्रूरता के फिल्माए गए हिंसक दृश्य दर्शकों की रूह कंपा देने वाले हैं. आतंकियों द्वारा बी.के. गंजू की निर्मम हत्या चावल के कंटेनर के अंदर कर दी गई थी. आतंकी हिंसा यहीं नहीं थमी थी. इस के बाद उन्होंने गंजू की पत्नी को उन के खून से सने चावल खाने को भी मजबूर कर दिया.

वह उस समय की कई घटनाओं में से एक थी, जिन से दर्शक फिल्म के अंत तक उन के पिता की भूमिका निभाने वाले अनुपम खेर के माध्यम से जुड़े रहते हैं. फिल्म का हरेक हिंसक फ्रेम कश्मीरी पंडितों के दर्द की दास्तां कहता है.

बी.के. गंजू की हत्या कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की सैकड़ों दर्दभरी कहानियों में से एक थी. वह श्रीनगर के छोटा बाजार नाम के इलाके में रहते थे. केंद्र सरकार के दूरसंचार विभाग में इंजीनियर थे.

मर्म को झकझोरने की कोशिश

बात 22 मार्च, 1990 की है. उस दिन कर्फ्यू में ढील दी गई थी. बी.के. गंजू घर वापस लौटते समय आतंकियों की नजरों में आ गए थे. आतंकी उन का पीछा करते हुए घर तक आ पहुंचे थे.

बी.के. गंजू को भी इस बात का एहसास हो गया था. किसी तरह से आतंकियों से नजर बचा कर वह घर में घुसते ही ताला लगा देते हैं.  कुछ ही देर में आतंकियों की घर में दस्तक होती है. वे ताला तोड़ कर घर में घुस जाते हैं. इस बीच बी.के. गंजू घर की तीसरी मंजिल पर चावल के एक ड्रम के अंदर छिप जाते हैं.

आतंकी गंजू को घर के अंदर खूब ढूंढते हैं. उन के नहीं मिलने पर आतंकी लौटने लगते हैं. तभी बी.के. गंजू का पड़ोसी आतंकी को उन के चावल के ड्रम में छिपे होने की जानकारी दे देता है.

फिर आतंकी ड्रम के अंदर ही गंजू की हत्या कर देते हैं. उन्हें कंटेनर के अंदर ही गोली मार दी जाती है. उस वक्त गंजू केवल 30 साल के थे.

इस घटना को फिल्म का हिस्सा बनाने की खास वजह थी. वह यह कि 2019 में जानीमानी स्तंभकार सुनंदा वशिष्ठ ने जब जम्मूकश्मीर पर अमेरिकी संसद में जम कर स्पीच दी थी, तब उन्होंने बी.के. गंजू की इस घटना का उल्लेख किया था.

तब उन्होंने कहा था कि बी.के. गंजू जैसे लोगों को पड़ोसियों पर भरोसा करने के बदले में सिर्फ धोखा मिला.

इस के अलावा फिल्म में कई और नरसंहार की घटनाएं फिल्माई गई हैं, जो दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ती है. एक रूह कंपा देने वाला सीन पुष्करनाथ पंडित (अनुपम खेर) की बहू शारदा पंडित का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री भाषा सुबली पर फिल्माया गया है.

कश्मीरी पंडितों को जब उन के घर से पलायन करने को मजबूर कर दिया जाता है और वो कैंप में दर्दभरी जिंदगी बिता रहे होते हैं. तभी दरिंदे आतंकी आर्मी की वरदी में वहां जबरन घुस आते हैं. सुबुली को निर्वस्त्र कर देते हैं.

इसी में उन पर फिल्माया गया आरी से काटने का सीन भी है. एक सीन में 29 लोगों को एक लाइन में खड़ा कर आतंकी अपनी गोली से एकएक कर मार डालते हैं.

राष्ट्रपति शासन को मुख्यमंत्री काल बताया

इस तरह के क्रिएट किए गए सीन के जरिए लोगों के जेहन में तब के कश्मीर में एक खास समुदाय के प्रति वैमनस्य की भावना को बिठाने की कोशिश की गई. यह भी आरोप मढ़ दिया गया कि पिछली सरकारों ने हिंदुओं की अनदेखी की.

समाधान के लिए मौजूदा सरकार पर नजर टिका दी गई. यह फिल्म क्यों देखी जानी चाहिए? इस के तर्क भी दिए गए, लेकिन फिल्म में समस्या का कोई समाधान नहीं निकाला गया, केवल हिंसा की एक पक्षीय बातें हुईं.

यह टिप्पणी फिल्म समीक्षकों के अलावा कई सम्मानित शख्सियतों ने की. उदहारण के तौर पर छत्तीगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने फिल्म को सिरे ने नकारते हुए कहा कि यह फिल्म सिर्फ हिंसा दिखाती है, इस में कोई समाधान नहीं है.

फिल्म में कुछ गलत तथ्य भी डालने के भी आरोप लगे. जैसे उस दौरान कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और राज्यपाल जगमोहन थे. जबकि फिल्म में मुख्यमंत्री की चर्चा की गई.

फिल्म से उपजे विवादों की वजह से इस की गूंज संसद तक में सुनाई दी. बसपा के एक सांसद ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने इस पर टिप्पणी करते हुए फिल्म निर्माण की सराहना की.

फिल्म को टैक्स फ्री करने की मांगों का भी असर हुआ और फिर फिल्म 9 राज्यों में टैक्स फ्री कर दी गई. यानी फिल्मकार का उद्देश्य पूरा हो गया.

2 धड़ों में बंट गए लोग

यह फिल्म रिलीज होने के बाद बहस का मुद्दा बन गई. लोग 2 धड़ों में बंट गए. एक ने कांग्रेस का पक्ष रखते हुए कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की बातें कीं.

साथ ही भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी के दौर की सरकारों को भी आड़ेहाथों लिया. दूसरे पक्ष ने इस फिल्म को भाजपा के दौर में एक कड़वे सच को उजागर करने वाला बताया.

यह कहा जा सकता है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक ऐसी फिल्म बन गई, जिस की बहुत तारीफ हो रही है. एक बड़ा तबका इस फिल्म के सपोर्ट में है तो वहीं कई लोग ऐसे भी हैं, जो फिल्म को प्रोपेगेंडा और भाजपा सरकार का वोट बैंक बता रहे हैं.

अब तक देश के भाजपा शासित 9 राज्यों ने इस फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया है. ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म की सराहना प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी भी कर चुके हैं.

इन्हीं दिनों दक्षिण के सुपर स्टार ‘बाहुबली’ फेम प्रभास की एक फिल्म ‘राधे श्याम’ (हिंदी वर्जन) भी प्रदर्शित हुई. ‘द कश्मीर फाइल्स’ के आगे उस ने बौक्स औफिस पर पानी भी नहीं मांगा. उस के बुरी तरह फ्लौप से प्रभास के एक प्रशंसक ने खुदकुशी तक करने की कोशिश की.

इधर टिकट खिड़की पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ के धुआंधार रफ्तार से आगे बढ़ने का असर यह हुआ कि 16 मार्च तक इसे 2700 परदों पर प्रदर्शित कर दिया गया.

इस के कुछ दिन पहले की बहुचर्चित आलिया भट्ट अभिनीत ‘गंगूबाई’ भी बेअसर हो गई तो अक्षय कुमार की धुआधार ट्रेलर से प्रशंसित हो चुकी ‘बच्चन पांडे’ की सफलता पर भी सवालिया निशान लग गया. एक सप्ताह आतेआते मात्र 12 करोड़ की लागत से बनी  यह फिल्म 80 करोड़ से अधिक की कमाई कर चुकी थी.

एक वर्ग इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश में जुट गया. दिल्ली में जनकपुरी के एक सिनेमाहाल में यह फिल्म लोगों को फ्री दिखाई गई. इस का पूरा खर्च एक यूट्यूबर गौरव तनेजा ने उठाया था. इस की जानकारी उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल के जरिए दी थी.

उन्होंने लिखा था, ‘दिल्ली के जो लोग इस फिल्म को देखना चाहते हैं, लेकिन टिकट खरीदने की क्षमता नहीं है, वे 17 मार्च को दोपहर एक बजे दिल्ली के जनकपुरी में सिनेमाहाल में इस फिल्म को देख सकते हैं.’

इस फिल्म ने ऐसी सच्चाई दिखाई कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों के जख्म हरे हो गए. उन की आंखों में आंसुओं के सैलाब भर गए. इस के विपरीत फिल्म पर एकपक्षीय होने का भी आरोप लग गया और राजनीति की गंध फैल गई. राजनेताओं के बयानों से भी कोई समाधान निकलता नजर नहीं आया.

विवाद कई, तर्क अपनेअपने

जम्मूकश्मीर में नैशनल कौन्फ्रैंस के उपाध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने नाराजगी दिखाते हुए कहा कि फिल्म के जरिए दुनिया भर में एक समुदाय को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है.

32 साल पहले जो हुआ, उस से एक आम कश्मीरी खुश नहीं है. आज एक धारणा बनाई जा रही है कि सभी कश्मीरी सांप्रदायिक हैं, सभी कश्मीरी दूसरे धर्मों के लोगों को सहन नहीं करते हैं. उन का कहना है कि फिल्म निर्माताओं ने मुसलिमों और सिखों के बलिदान को नजरअंदाज किया है, जो आतंकवाद से पीडि़त थे.

अब्दुल्ला का तर्क है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक कमर्शल फिल्म थी तो किसी को कोई समस्या नहीं है, लेकिन अगर फिल्म के निर्माता दावा करते हैं कि यह वास्तविकता पर आधारित है, तब तो तथ्य गलत हैं.

जिन दिनों कश्मीरी पंडितों के पलायन की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुईं, उन दिनों फारुक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री नहीं थे. जगमोहन राज्यपाल थे. केंद्र में वी.पी. सिंह की सरकार थी, जिन्हें बाहर से भाजपा का समर्थन था. इस तथ्य को फिल्म से दूर रखा गया.

बिहार में यह फिल्म टैक्स फ्री कर दी गई है, लेकिन इस पर राजनीतिक विवाद नहीं थम रहा है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के अध्यक्ष जीतनराम मांझी ने भी फिल्म पर बड़े आरोप लगाते हुए उसे आतंकियों की गहरी साजिश कहा है.

इस फिल्म को ले कर जीतन राम मांझी ने अपने ट्वीट में लिखा है कि ‘द कश्मीर फाइल्स आतंकियों की एक गहरी साजिश का परिणाम हो सकता है. इसे दिखा कर आतंकी संगठन कश्मीरी ब्राह्मणों में डर का माहौल बना रहे हैं.’

इस का मकसद यह है कि कश्मीरी ब्राह्मण डर से फिर कश्मीर में वापस नहीं जाएं. मांझी इशारों में फिल्म यूनिट सदस्यों के आतंकी कनेक्शन की बात भी कहते हैं.

वह लिखते हैं कि फिल्म यूनिट सदस्यों के आतंकी कनेक्शन की जांच होनी चाहिए. साथ ही अपने ट्वीट को फिल्म के अभिनेता अनुपम खेर को टैग भी कर दिया है.

इस के पहले बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने  टैक्स फ्री का विरोध किया था. उन्होंने कहा था कि एक फिल्म गोधरा दंगे पर भी बननी चाहिए.

उस वक्त मांझी की पार्टी ने राबड़ी देवी पर तंज कसते हुए चारा घोटाले पर भी फिल्म बनाने की मांग रखी थी. कहा था कि इस से देश को पता लगेगा कि कैसे स्कूटर पर गायभैंस ढोए गए और महज 12 साल की उम्र में तेजस्वी यादव अरबपति बन गए.

उल्लेखनीय है कि इस फिल्म की भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार ने तारीफ की है. खुद प्रधानमंत्री मोदी इस की प्रशंसा कर चुके हैं. दूसरी तरफ एनडीए के नेता जीतन राम मांझी इस फिल्म में आतंकी कनेक्शन व साजिश ढूंढ़ रहे हैं.

इस बीच  निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को फिल्म को ले कर मिल रही धमकियों को देखते हुए सरकार ने उन्हें ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा दी है.

इस से कश्मीर का अलगाववादी नेता यासीन मलिक भी चर्चा में आ गया, जो इन दिनों तिहाड़ जेल में बंद है. उन की पाकिस्तान में रह रही बीवी मुशाल हुसैन मलिक ने फिल्म आने के बाद भारत के बारे में फेक न्यूज फैला कर अलग ही सनसनी पैदा कर दी.

यासीन मलिक की बीवी का रुख

मलिक जम्मूकश्मीर लिबरेशन फ्रंट का अध्यक्ष था और उस ने मूलरूप से कश्मीर घाटी में सशस्त्र उग्रवाद का नेतृत्व किया था. मलिक पर 1990 में एक हमले के दौरान भारतीय वायु सेना के 4 कर्मियों की हत्या का साल 2020 में आरोप लगाया गया था. उस पर रुबैया सईद के अपहरण का भी मुकदमा चल रहा है.

यासीन मलिक की पत्नी मुशाल हुसैन मलिक अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स में जहर उगलने लगी. उस के ट्विटर अकाउंट पर 80,000 से ज्यादा फालोवर्स हैं. उस का अकाउंट वैरीफाइड भी है. उस के फालोवर्स में अधिकांश पाकिस्तानी हैं.

मुशाल ने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा है कि उसे यासीन मलिक की पत्नी होने पर गर्व है और वह खुद को कश्मीरी अलगाववादियों का नेता बताती है.

मुशाल यासीन के बारे में कहा जा रहा है कि अपने सोशल मीडिया अकाउंट के जरिए लगातार कश्मीरी लड़कियों के फोटो इस तरह पोस्ट करती है, जिस से यह लगता है कि भारत में मुसलमानों के ऊपर अत्याचार हो रहे है. मुसलिम महिलाओं पर अत्याचार किए जा रहे हैं.

उस के पोस्ट देखने पर ऐसा लगता है कि भारत में मुसलमानों को प्रताडि़त किया जा रहा है, उन का नरसंहार हो रहा है. मुसलिम महिलाओं के साथ रेप हो रहे हैं.

मुशाल अपने पति को निर्दोष बताते हुए रिहाई की मांग कर रही है. साल 2019 में मुशाल मलिक पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित एक प्रोग्राम में शामिल हुई थी. तब उस ने एक कविता के जरिए कश्मीर के मुसलमानों पर अत्याचार होने का आरोप लगाया था.

यासीन से उम्र में 20 साल छोटी मुशाल को पाकिस्तान में राष्ट्रीय महिला अधिकार पुरस्कार (2018) मिल चुका है. उस के पाकिस्तान में नेताओं और अधिकारियों के साथ संबंध हैं. वैसे मुशाल सेमी न्यूड पेंटिंग बनाने के लिए प्रसिद्ध है. वह पीस ऐंड कल्चर आर्गनाइजेशन, पाकिस्तान की अध्यक्ष है.

फिल्म को अतुलनीय और अविश्वनीय बताने वालों की एक अलग जमात है, जबकि फिल्म के प्रोड्यूसर अभिषेक अग्रवाल ने पीएम नरेंद्र मोदी के साथ अपनी एक तसवीर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी.

यानी कि फिल्म को ले एक कामेडियन की खिंचाई से ले कर कमाई तक के बाद जो नई सच्चाई समाने आई उस में राजनीतिक बवाल लोगों पर हावी हो गया.

सोशल मीडिया पर साफतौर पर इस फिल्म को भाजपा के कई दिग्गज नेताओं का समर्थन मिला, लेकिन उसी पर सवाल भी खड़े किए जा रहे हैं कि उस की सरकार ने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए क्या किया?

सरकारों ने की उपेक्षा

जिन दिनों कश्मीर से हिंसा के शिकार परिवारों का पलायन हो रहा था, उस का एक कारण और भी था. वहां आतंकी गतिविधियों के चरम पर पहुंचने से स्थानीय कारोबार ठप पड़ गया था. टूरिज्म बंद हो चुका था. उस से जुड़े लोगों को दोजून की रोटी कमाना दूभर था.

फिल्मों की शूटिंग पूरी तरह से बंद थी. बड़े कारोबार में अड़चनें आ रही थीं. पूरे इलाके में आबादी की तुलना में सेना के जवानों की चहलकदमी और अधिकतर इलाके में रात के कर्फ्यू ने जनजीवन को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया था.

विकास ठप था. लोग पड़ोसी राज्यों और महानगरों से कट से गए थे. बुनियादी सुविधाओं में घोर कमी थी. शिक्षा, खेतीखलिहानी से ले कर हेल्थ सेक्टर तक चरमरा गया था. ऐसे में पलायन होना स्वाभाविक था.

उन दिनों केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भी बदलाव की राजनीति अंगड़ाई ले रही थी. उन के द्वारा ‘इंडिया शाइनिंग’ तक नारा दे दिया गया था.

इन सब के बावजूद विस्थापित कश्मीरियों को राहत की एक बूंद नहीं हासिल हो रही थी. उल्टे वे अलगाववादी नेताओं के रहमोकरम पर आश्रित थे. तुष्टिकरण की राजनीति का चलन चल पड़ा था. फिल्म में इस पहलू को छूने की भी जरूरत नहीं समझी गई.

इस तरह की तीखी बहस के बीच 2011 में विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए बनी जगती टाउनशिप के करीब 4,000 विस्थापित परिवार सकते में आ गए हैं. उन के मन में अब नए सिरे से भय समा गया है.

फिल्म ने जख्म कुरेद कर मुसलिम समुदाय के खिलाफ भावना को भड़काने का ही काम किया है.

वे नहीं मानते कि फिल्म से उन की घर वापसी का कोई रास्ता निकलेगा. उन का कहना है कि इस से और अधिक अड़चनें पैदा होंगी.

एक कड़वा सच तो यह भी है कि 3 दशक बीत जाने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें कश्मीरी हिंदुओं की घर वापसी तक सुनिश्चित नहीं करा पाईं.

हालांकि जगती टाउनशिप में रहने वाले कुछ विस्थापित फिल्म की प्रशंसा करते तो हैं, लेकिन वे यह भी कहते हैं कि 1990 से ले कर आज तक उन के नाम पर फिल्में तो बहुत बनीं, लेकिन उन के जीवन में स्थिरता नहीं आई है, घर वापसी के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. उन के जीवन में कुछ भी नहीं बदला है.

बहरहाल, कहने का मतलब यह है कि राजनैतिक दल इस फिल्म के जरिए पीडि़तों की सिसकियों पर सियासत करने पर नहीं चूक रहे.

वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं

रंजना नंदू को अपने साथ अश्वित की देखभाल के लिए इलाहाबाद से दिल्ली ले आई थी. नंदू ने सबकुछ यहां अच्छे से संभाल लिया था. नंदू ने इस घर को ही अपना समझ लिया था. इसलिए उस ने शादी नहीं की. अश्वित ने नंदू के दिए पैसों से इंजीनियरिंग कर ली.

वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं: भाग 1

बस में झटका लगा, तो नंदू की आंखें खुल गईं. उस ने हाथ उठा कर कलाई में बंधी घड़ी देखी, “अरे, अभी तो 2 ही बजे हैं. बस तो दिल्ली सुबह साढ़े 7 बजे तक पहुंचेगी. अगर बस पंख लगा कर उड़ जाती, तो यह 5 घंटे का सफर 5 मिनट में कट जाता. तब कितना अच्छा होता.”

घर छोड़े आज पूरे 22 दिन हो गए हैं. पिछले एक सप्ताह से तो अश्वित से बात भी नहीं हुई है. पता नहीं क्या करता रहता है. न तो घर का ही फोन लग रहा है, न ही उस का मोबाइल.

निकलते समय बात हुई थी कि दिन में एक बार जरूर बात करेगा, पर यह लड़का… नंदू को थोड़ी चिंता हुई, अश्वित कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया? पर बीमार होता तो फोन तो लगना चाहिए था. एकदम बेवकूफ लड़का है. नंदू को सहज ही गुस्सा आ गया. उस ने बस में नजर फेरी, हलकी रोशनी में बस की सवारियां गहरी नींद में सो रही थीं. उस ने खिड़की से बाहर की ओर देखा, दुनिया जैसे गहरे अंधकार में डूबी थी. वैसा ही अंधकार उस के जीवन में भी तो समाया हुआ था.

मां की मौत के बाद ही रंजनाजी से उस की मुलाकात हुई थी. रंजना उस समय अश्वित के जन्म के लिए इलाहाबाद अपने मायके आई हुई थीं. रंजना के मायके में नंदू की मामी काम करने आती थी.

मां की मौत के बाद नंदू के मामा उसे अपने घर ले आए थे. उस समय नंदू की उम्र 14-15 साल रही होगी.

रंजनाजी उसे बहुत अच्छी लगती थीं. जब कभी वह रंजना के पास बैठती, रो पड़ती. उस की मां को मरे हुए अभी 6-7 महीने ही हुए थे. मामी के साथ रहना उसे अच्छा नहीं लगता था. दूसरा कोई सगा रिश्तेदार था नहीं. सारे रास्ते बंद हो गए थे. ऐसे में रंजनाजी उस का सहारा बनीं.

बच्चा पैदा होने के बाद जब वह दिल्ली आने लगीं, तो अश्वित के साथ नंदू को भी ले आई थीं.

नंदू दिल्ली का नजारा देख कर दंग रह गई. चौड़ीचौड़ी सड़कें, ऊंचेऊंचे मकान, कतारों में बड़ीबड़ी दुकानें, तमाम मोटरगाड़ियां और रंजना का शहर में उतना बड़ा घर. 5 कमरे नीचे और 4 कमरे ऊपर. उस ने पूछा, ‘‘दीदी, आप यहां अकेली रहती हैं?’’

‘मैं अकेली नहीं, हम दोनों रहते हैं. मैं और तुम्हारे साहब.’’

‘‘सिर्फ 2 लोग. और इतना बड़ा घर…?’’

‘‘पर, अब तो हम 4 लोग हो गए हैं ना.’’

‘‘तो भी तो यह बहुत बड़ा घर है…’’

यह सुन कर रंजनाजी हंस पड़ीं. नंदू को यह घर और दिल्ली, दोनों बहुत अच्छे लगे. धीरेधीरे रंजना ने उसे घर के कामकाज और खाना बनाना सिखा दिया. फिर तो जल्दी ही नंदू ने घर का सारा कामकाज संभाल लिया.

प्रबोधजी उसे प्रेम से रखते थे. फुरसत पाते तो उसे थोड़ाबहुत पढ़ातेलिखाते भी. अश्वित तो पूरी तरह नंदू के सहारे हो गया था. नंदू को भी वह बहुत प्यार करता था. वह जरा भी रोता, नंदू सारे काम छोड़ कर उस के पास आ जाती.

नंदू ने एक बार फिर कलाई पर बंधी घड़ी देखी, ‘यह सूई आगे क्यों नहीं बढ़ रही है?’ उस ने पैर फैलाए. पैर अकड़ गए थे. पीछे सीट पर कोई बच्चा रोया, पर थोड़ी ही देर में शांत हो गया. शायद उस की मां ने थपकी दे कर उसे सुला दिया था.

अश्वित की भी तो ऐसी ही आदत थी. कोई थपकी देता, तभी वह सोता था. और थपकी देने के लिए अकसर नंदू ही आती थी. नींद आती तो वह उस का हाथ पकड़ कर बिस्तर पर ले जाता, ‘‘नंदू थपकी दो न.’’

पूरा दिन नंदू के पीछेपीछे घूमता रहता, ‘‘नंदू नहलाओ, खाना खिलाओ, कपड़े पहनाओ. नंदू मैथ की नोटबुक नहीं मिल रही है. नंदू यहां तो मेरा एक ही मोजा है, दूसरा कहां गया?’’

यही नहीं, कभीकभी नंदू खाना बना रही होती, तो वह आ कर कहता, ‘‘नंदू खेलने चलो न.’’

‘‘कैसे खेलने चलूं? मैं खाना बना रही हूं न.’’

‘‘मम्मी हैं न, वह खाना बनाएंगी. तुम चलो.’’

‘‘जाओ, मम्मी के साथ खेलो, मुझे खाना बनाने दो.’’

‘‘नहीं, उन्हें बौल फेंकना नहीं आता, तुम चलो,’’ एक हाथ में बौल और कंधे पर बैट रखे, जींस और चेक  की शर्ट पहने, पैर पटकते हुए अश्वित की तसवीर नंदू अभी भी जस का तस बना सकती थी.

रंजनाजी हमेशा खीझतीं, ‘‘नंदू, तुम इस की हर जिद मत पूरी किया करो. देखो न, यह जिद्दी होता जा रहा है.’’

नंदू हंस देती. अश्वित रोआंसा हो कर कहता, ‘‘मम्मी, मैं आप से कहां जिद करता हूं. मैं तो नंदू से जिद करता हूं.’’

‘‘मैं देखती नहीें कि हर बात में जिद करता है. जो चाहता है, वही करवाता है.’’

‘‘हां, नंदू से मैं जो चाहूंगा, वही करवाऊंगा.’’

रंजना नंदू को डांटतीं, ‘‘तुम ने इसे बिगाड़ कर रख दिया है. याद रखना, एक दिन पछताओगी.’’

रंजनाजी की बात आखिर इतने दिनों बाद सच निकली. धीरेधीरे वह जिद्दी होता चला गया. आज इतना बड़ा हो गया, फिर भी मन में जो आ गया, वही करवाता है. नंदू के लिए चारधाम की इस यात्रा का पैसा उस ने जिद कर के ही जमा किया था. नंदू ने कितनी बार मना किया, पर वह कहां माना. उस ने कहा,

‘‘नहीं, तुम चारधाम की यात्रा कर आओ. शायद फिर नहीं जा पाओगी.’’

‘‘पर, मैं इस घर और तुम्हें किस के भरोसे छोड़ कर जाऊं? तुम्हारी शादी के बाद…”

“फालतू बात मत करो, अब मैं छोटा नहीं हूं. तुम जाओ. 20-22 दिन तो ऐसे ही बीत जाएंगे.’’

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