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झगड़ातुर घाघ पति: पति-पत्नी के लङ़ाई-झगड़े का है अपना खास महत्व

जिन पतिपत्नियों के बीच झगड़े नहीं होते, उन पर शंका होती है कि वे पतिपत्नी भी हैं या कोई और जीव. भारतीय लड़कों को पति होना सिखाया जाता है. जब वे अच्छेखासे पति हो जाते हैं, तो पत्नी से लड़ने के होने वाले फायदों के मजे लेते हैं. एक घाघ पति वही होता है, जो पत्नी के हमलों का बेसब्री से इंतजार करे. पत्नियों के इन झगड़ों के महत्त्व को समझ कर अंतरराष्ट्रीय पति आयोग ने इन से होने वाले फायदों से हर एक पति को लाभ लेने हेतु आदेशित किया है.

पति आयोग के अध्यक्ष का कहना है कि दुनिया के सारे पति लोगों को पत्नी केंद्रित लड़ाईझगड़ों का जीवन में लाभ उठाना चाहिए. पत्नी से झगड़ने के आनंददायी फायदे हैं :

चंद लमहे सुख के : झगड़ा होते ही चुपचाप बिस्तर पर पड़ जाना होता है. “सुन रहे हो क्या? लाइट बंद करो. पंखा तेज करो. यह चादर इधर दो. सारे तकिए तुम ने ही ले लिए? इधर मुंह करो. खिड़की क्यों खोल दी? जरा बाम लगा दो. व्हाट्सऐप में ही घुसे रहोगे क्या…” जैसे तीखे बाणों से मुक्ति मिल जाती है.

परम आनंद के क्षण : झगड़े के कारण बातचीत बंद हो जाती है. एकदूसरे पर शस्त्र फेंकने का कार्य रुक जाता है. आंसुओं की नदियां सूख जाती हैं. युद्ध मैदान में इसे विराम अवस्था कहते हैं. यहां कोई तनाव नहीं रहता है. सारी किचकिचाहट खत्म हो जाती है. इस समय पति लोगों के जीवन में परम आनंद के क्षण अठखेलियां खेलने लगते हैं.

मस्ती भरी गतिशीलता : झगड़ा पूर्वकाल में पत्नियां पति लोगों पर बारबार ब्रैक लगा देती हैं. झगड़े के कारण इन ब्रैकों से मुक्ति मिल जाती है. फोन, व्हाट्सऐप आदि पर पत्नी के संदेश आने का कोई खतरा नहीं रहता है.

“क्या कर रहे हो? कहां हो? फोन क्यों नहीं उठाया? मुझ से 2 सैकंड और दूसरों से 3 घंटे तक बातें? मन नहीं लग रहा है. आज गरमी बहुत पड़ रही है. साड़ी फौल लेते आना. फ्रिज में सब्जियां भी नहीं हैं. घर जल्दी आना…” जैसे तीखे खंजरों से मुक्ति मिल जाती है. एक बार झगड़ा हो जाने पर 4-5 दिन तो उत्सव बना रहता है.

इज्जत बढ़ती है : प्रायः देखा गया है कि झगड़े के उत्तरार्धकाल में पति लोगों की इज्जत बढ़ जाती है. पति होने का एहसास पत्नियों को उन के खोने के बाद ही होता है. घुटाघुटाया नयापुराना पति निजी पत्नी के क्षेत्र में अपनी इज्जत दोगुना होने पर ही प्रवेश करता है. पत्नियों को एक अच्छे पालतू नौकर खोने का डर सदैव बना रहता है. इस कालखंड में चंद पत्नियां पति लोगों की चिरौरी भी करती हैं.

आत्मनिर्भर पतिदेव : झगड़ा होने के बाद कई प्रकार के कार्य स्वयं पति लोगों को ही करने पड़ते हैं. नहाने के बाद खुद कपड़े धोना. अपने लिए चाय बनाना. उठ कर पानी पीना. अपने मोजे ढूंढ़ना. कपड़ों को प्रेस करना. आंगन में पड़ा अखबार उठा कर लाना…जैसे कई श्रमसाध्य कठिन कार्य पति लोगों को खुद ही करने पड़ते हैं. इस से पति आत्मनिर्भर देश की ओर तेजी से बढ़ने लगते हैं. सियासत में ऐसे कई पति पार्टी बिखरे पड़े हैं. बेचारी जनता इन्हें ढोती रहती है.

आजादी का महामहोत्सव: 75 साल में महिलाएं

आज भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू हैं. बड़ी बात यह है कि वे एक आदिवासी महिला हैं. एक ऐसा समुदाय (संथाल) जिस की 90 फीसदी आबादी आजादी के 75 सालों बाद भी हाशिए पर पड़ी प्रताडि़त, उपेक्षित, गरीब, अशिक्षित और बेबस है. मगर इसी समुदाय की एक लड़की ने सिर्फ अपनी शिक्षा के दम पर आज देश की प्रथम नागरिक होने का गौरव हासिल किया है.

द्रौपदी मुर्मू के मातापिता ने उन्हें शिक्षित करने का ‘दुस्साहस’ दिखाया. खुद द्रौपदी की दृढ़ इच्छाशक्ति ने उन्हें आगे बढ़ाया. उन को पढ़ाने वाले मास्टर बासुदेव बेहरा कहते हैं, ‘‘वे क्लास टौपर थीं. हमेशा सब से ज्यादा नंबर लाती थीं. नियम के मुताबिक मौनिटर उन्हें ही बनना चाहिए था, लेकिन क्लास में लड़कियों की संख्या काफी कम थी. 40 छात्रों में सिर्फ 8 लड़कियां थीं. इस वजह से हमारे मन में शंका थी कि लड़की हो कर वे पूरे क्लास को कैसे संभालेंगी, लेकिन द्रौपदी अड़ गईं. आखिरकार वही मौनिटर बनीं.’’

द्रौपदी ओडिशा के उपरवाड़ा गांव की अकेली लड़की थीं जो गांव के स्कूल में 7वीं कक्षा तक पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए भुवनेश्वर गईं. उन्होंने अपने जीवन के तमाम फैसले खुद लिए और उन पर अड़ी रहीं. टीचर बनीं, अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी की, राजनीति में आने का फैसला किया और आज वे देश की राष्ट्रपति हैं. उन के जीवन में ऐसे बहुत से पल आए जिन्हें ‘भूचाल’ की संज्ञा दी जा सकती है, लेकिन मन को मजबूत रख कर उन्होंने हर संकट का सामना किया.

भारत की सफल महिलाओं में इंदिरा नूई एक जानामाना नाम है. जब भी पावरफुल और कामयाब महिलाओं की बात चलती है तो भारतीय मूल की अमेरिकी नागरिक इंद्रा नूई का नाम सामने आता है. तमिलनाडु में जन्मी नूई पेप्सिको की अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी रह चुकी हैं. साल 2018 में नूई पेप्सिको के सीईओ के पद से रिटायर हुईं. वे 2007 से 2019 तक पेप्सिको की अध्यक्ष रहीं.

इंद्रा नूई को यह कामयाबी यों ही नहीं मिल गई. इस कामयाबी के पीछे है उन की कड़ी मेहनत और लगन. नूई ने स्नातक की पढ़ाई मद्रास विश्वविद्यालय से की. उन्होंने भारतीय प्रबंधन संस्थान, कोलकाता से बिजनैस मैनेजमैंट में पोस्टग्रेजुएशन किया और फिर 1978 में उन्होंने येल स्कूल औफ मैनेजमैंट में दाखिला लिया. नूई जब येल में पढ़ रही थीं तो उन्होंने नाइट शिफ्ट में रिसैप्शसनिस्ट के तौर पर काम भी किया ताकि वे अपने पहले जौब इंटरव्यू के लिए एक वैस्टर्न सूट खरीदने के लिए पैसे जुटा सकें.

साल 2015 में फौर्च्यून ने सब से शक्तिशाली महिलाओं की लिस्ट में नूई को दूसरी सब से शक्तिशाली महिला का स्थान दिया.

भारत में कई महिलाएं हैं जो आज व्यापार व उद्योग जगत का बड़ा नाम हैं. वे देश की प्रतिष्ठित कंपनियों में बड़े पद पर कार्यरत हैं. देश की पहली स्वनिर्मित अरबपति महिला की बात करें तो किरण मजूमदार शा का नाम सब से पहले आएगा. फोर्ब्स सूची में भारत की 5वीं सब से अमीर महिला घोषित किरण मजूमदार शा ने अपने दम पर यह मुकाम बनाया है. किरण मजूमदार शा भारत की सब से बड़ी लिस्टेड बायोफार्मास्युटिकल कंपनी बायोकौन की फाउंडर हैं. यह दवा उत्पादन के क्षेत्र की बड़ी कंपनी है. किरण ने साल 1973 में बेंगलुरु विश्वविद्यालय से बीएससी (जूलौजी औनर्स) की डिग्री हासिल की. इस के बाद उन्होंने वैलेरेट कालेज, मेलबर्न यूनिवर्सिटी, आस्ट्रेलिया से ‘मौल्ंिटग और ब्रूइंग’ विषय पर उच्चशिक्षा हासिल की.

मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ वह नाम है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की फर्स्ट डिप्टी मैनेजिंग डायरैक्टर रहीं. भारतीय मूल का कोई व्यक्ति और वह भी एक महिला पहली बार आईएमएफ में इस पद पर पहुंचीं. गीता गोपीनाथ ने दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कालेज से अर्थशास्त्र में औनर्स की पढ़ाई की. फिर दिल्ली स्कूल औफ इकोनौमिक्स से अर्थशास्त्र में ही मास्टर की पढ़ाई पूरी की. इस के बाद 1994 में वे वाशिंगटन यूनिवर्सिटी चली गईं. साल 1996 से 2001 तक उन्होंने प्रिंसटन यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी की. पोस्टग्रेजुएशन के दौरान उन की मुलाकात इकबाल से हुई. दोनों ने बाद में शादी कर ली.

गीता गोपीनाथ कई साल पढ़ाने के बाद फैडरल रिजर्व बैंक औफ न्यूयौर्क की सलाहकार भी हैं. व्यापार एवं निवेश, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट, मुद्रा नीतियां, कर्ज और उभरते बाजारों की समस्याओं पर उन्होंने लगभग 40 शोधपत्र भी लिखे हैं.

भारतीय फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर आज अपनी बेबाक राजनीतिक टिप्पणियों के लिए ख्यात हैं. उन्हें कई बार जान से मारने की धमकियां मिल चुकी हैं मगर स्वरा के स्वर ठंडे नहीं पड़े. स्वरा भास्कर ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली से समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की. स्वरा ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत 2009 के माधोलाल कीप वाकिंग में एक सहायक भूमिका के साथ की थी. व्यावसायिक रूप से सफल रही फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ (2011) में उन की सहायक भूमिका से उन्हें पहचान मिली और सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के नामांकन के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया. स्वरा भास्कर एक हिम्मती और बेबाक महिला हैं जो सोशल मीडिया पर अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए पहचानी जाती हैं.

वहीं दूसरी ओर फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत भी अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए मशहूर हैं. ये दोनों ही महिलाएं काफी जीवट प्रवृत्ति की, बेखौफ, हिम्मती और बेबाक हैं. वे निजी विचारों को खुल कर सामने रखने में नेताओं को भी आड़े हाथ लेने से संकोच नहीं करती हैं.

एक्सेंचर इंडिया की चेयरपर्सन रेखा एम मेनन को बीते साल नैशनल एसोसिएशन औफ सौफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज (नैसकौम) की चेयरपर्सन नियुक्त किया गया है, जो सौफ्टवेयर लौबी गु्रप के 30 साल के इतिहास में शीर्ष पद प्राप्त करने वाली पहली महिला हैं. मेनन भारत में एक्सेंचर में चेयरपर्सन और वरिष्ठ प्रबंध निदेशक भी हैं.

मल्लिका श्रीनिवासन मैसी फर्ग्यूसन ट्रैक्टर और कृषि उपकरण बनाने वाली कंपनी टैफे (टीएएफई) की अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं. उन्हें उद्योग जगत की आयरन लेडी के नाम से पुकारा जाता है. मल्लिका श्रीनिवासन ने 1986 में 27 वर्ष की उम्र में जब टैफे जौइन किया तब उन के पिता ने उन से कहा था, ‘‘पूरा परिवार तुम्हारे साथ है. कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए कोई भी निर्णय लेने की पूरी आजादी है.’’ उन का नाम एशिया की 50 पावरफुल बिजनैस वुमन में शुमार होता है.

ये तमाम नाम ऐसी भारतीय महिलाओं के हैं जिन्होंने अपनी जीवटता, दृढ़ इच्छाशक्ति, जिद और लगन से उच्चशिक्षा हासिल की और अपने कैरियर में ऊंचा मुकाम प्राप्त कर अपनी शिक्षा व अनुभवों का फायदा देश और दुनिया को दे रही हैं.

मगर यह संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है. 140 करोड़ आबादी वाले भारत देश में ऐसी प्रतिभाशाली महिलाओं की संख्या लाखों में हो सकती थी अगर उन को शिक्षा पाने का समुचित मौका मिलता. लेकिन आजादी के 75वें साल को अमृत महोत्सव के रूप में मनाने वाले राष्ट्र में अगर औरतों की सही और तार्किक शिक्षा और अधिकारों की बात करें तो वह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है. अपने आसपास नजर डालें तो अधिकांश औरतें सिर्फ घरेलू काम करती, शादी कर के बच्चे पैदा करती और पति का घर संभालती ही नजर आती हैं. जो पढ़लिख रही हैं वे भी इसलिए कि उन की अच्छे घरों में शादियां हो जाएं.

सुबहसुबह घर में कामवाली बाई आई तो उस से यों ही पूछ लिया, ‘कुछ पढ़ाईलिखाई की है?’ उस ने ‘न’ में सिर हिला दिया. उस का नाम देवी है. उम्र कोई 22-23 साल. मध्य प्रदेश में जबलपुर के नजदीक के एक गांव की है. परिवार मजदूरी करने दिल्ली आया जब देवी 7-8 साल की थी. उस के मातापिता ने दिल्ली में ठेकेदारों के तहत मजदूरी की. जहांजहां नई बिल्ंिडग बनती, पूरा परिवार उसी जमीन पर तिरपाल डाल कर रहता था. देवी के अन्य परिजन भी दिल्ली के विभिन्न इलाकों में रहते हुए मजदूरी करते हैं. फसल बुआई और कटाई के वक्त कुछ लोग गांव लौट जाते हैं और महीनेदोमहीने खेतों का काम कर के वापस आ जाते हैं.

देवी दिल्ली में बड़ी हुई. मां के साथ गारामिट्टी ढोते या कोठियों में बाई का काम करते हुए जवान हुई. यहीं सगी मौसी के लड़के से उस की शादी हो गई. हालांकि वह रिश्ते में भाई हुआ मगर उन के वहां रिश्तेदारी में शादी का प्रचलन है. (किसी सनातनी हिंदू के लिए यह कान खड़े कर देने वाली बात है मगर देश के कई गांवों में ये बातें नौर्मल हैं.) देवी की मौसी उस की सास भी है. अब देवी के पास 2 बेटे हैं. उस का पति राजकुमार, जो उम्र में देवी के बराबर ही है, दिल्ली के सरकारी स्कूल में 6ठी कक्षा तक पढ़ा है मगर देवी को नहीं पढ़ाया गया. उस के परिवार की किसी लड़की ने पढ़ाई नहीं की है जबकि सभी देश की राजधानी में रहते हैं.

मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, केरल, तमिलनाडु से आ कर दिल्ली में काम करने वाले मजदूर परिवारों की संख्या लाखों में है. दिल्ली में इन की कई बस्तियां और ?ाग्गी?ांपडि़यां हैं. इन बस्तियों में बहुत बड़ी तादाद लड़कियों की है.

गांव में न सही मगर राजधानी में होते हुए तो इन्हें शिक्षा मिलनी चाहिए थी, कम से कम इतनी कि ये बच्चियां अपना नाम लिख सकें, मगर इन लड़कियों ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा. ये घर में रहती हैं और चूल्हाचौका करती हैं, सरकारी नल से प्लास्टिक की बोतलों में जरूरतभर पानी भरभर कर लाती हैं, मां काम पर जाती है तो पीछे से अपनी मांओं के बच्चे पालती हैं, कपड़े धोती हैं, साफसफाई करती हैं. जहां 14-15 साल की हुईं, मां के साथ मजदूरी या कोठियों में बाई का काम करने निकल पड़ती हैं और 17-18 की होतेहोते ब्याह दी जाती हैं.

सुबह घरघर से कचरे की थैलियां उठाने वाली अनुसूचित जाति की 60 वर्षीया कमला भी अनपढ़ है और उस की 35 वर्षीया बहू शकुंतला भी अनपढ़ है. ये दोनों कचरा उठाने के साथसाथ कोठियों में साफसफाई का काम करती हैं.

पास की मंडी में बैठी सब्जी बेचने वाली सावित्री भी अनपढ़ है. सावित्री की उम्र 40 के आसपास होगी. दिल्ली में पैदा हुई, यहीं बड़ी हुई मगर स्कूल का मुंह कभी नहीं देखा. आप अपने आसपास दिखने वाली इन औरतोंबच्चियों से पढ़ाई के विषय में पूछिए, आप को ‘न’ में ही जवाब मिलेगा.

भारत के गरीब तबके में अनपढ़ औरतों और लड़कियों की बहुत बड़ी तादाद है. बचपन से राष्ट्रीय राजधानी में रह रही लड़कियां जब अक्षर ज्ञान से महरूम हैं तो अन्य छोटे शहरों, बस्तियों और गांवों में क्या हाल है, इस का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है.

भारत सरकार स्वतंत्र दिवस की 75वीं वर्षगांठ को ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ के तौर पर मना रही है. मगर आजादी के 75 सालों में भी भारत सरकार अपनी करोड़ों बेटियों के लिए प्राइमरी शिक्षा तक की व्यवस्था नहीं कर पाई. इस से बड़ी शर्म की बात क्या होगी? आप को जान कर हैरानी होगी कि आज भी भारत का हर चौथा बच्चा स्कूली शिक्षा से वंचित है.

जब हमें आजादी मिली थी उस समय 19 फीसदी आबादी साक्षर थी. भारत सरकार कहती है कि 75 साल में यह आंकड़ा 80 फीसदी तक पहुंच गया है, लेकिन इस दावे में कितनी सचाई है, यह बड़े शहरों में रहने वाले आप अपने आसपास काम करने वाले लोगों से, घरों में काम करने वाली औरतों से, बाजार में सब्जी बेचने वालों से, मजदूरों से, रिकशाचालकों से, सड़क की गंदगी साफ करने वालों से, कचरा उठाने वालों से पूछ कर सम?ा सकते हैं कि इस दावे में कितनी सचाई है.

भारत में शिक्षा की दर बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव लगातार बना रहता है. सरकारें शिक्षा नीतियां बनाती हैं, शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने और प्रोत्साहन बढ़ाने के लिए समयसमय पर कुछ योजनाएं भी घोषित करती रहती हैं. फिर भी इतने सालों में अगर अपेक्षित परिणाम नहीं निकल पाए तो निश्चित रूप से इस में सरकारों और समाज की नीयत और नीतियों में बुनियादी खामियां हैं. 75 सालों में शिक्षा का शतप्रतिशत आंकड़ा प्राप्त न करना शासन की नाकामी है.

शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए 11 साल हो गए हैं. इस कानून के तहत 14 साल तक की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने का वादा है. अनिवार्य शिक्षा का मतलब है कि सभी बच्चों को औपचारिक स्कूलों में दाखिला दिलाया जाए. यह दायित्व सरकारी, निजी और सभी धार्मिक संस्थाओं के तहत चलने वाले स्कूलों पर डाला गया है कि वे इस कानून के तहत बच्चों को शिक्षा दें. लेकिन व्यवस्थागत खामियों के चलते बच्चे, खासकर लड़कियां, शिक्षा से दूर ही हैं.

राजनीति गरीबी और अशिक्षा को अपने वोटबैंक के तौर पर भुनाती है. अगर गरीब शिक्षित हो गया तो खड़ा हो कर अपने अधिकार मांगने लगेगा, इसलिए उस के सामने सिर्फ शिक्षा का ?ान?ाना बजाते रहो मगर उस ?ान?ाने तक उस को पहुंचने न दो.

शिक्षा का बंटाधार

गांवकसबों के सरकारी स्कूलों में शिक्षक मोटी तनख्वाह के लालच में अपनी हाजिरी लगाने स्कूल जाते हैं. बच्चों को शिक्षित करने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उन से कोई जवाब मांगने वाला नहीं है.

उत्तर प्रदेश के गांवों से कई बार यह खबर आई कि वहां 5वीं का बच्चा अपना नाम तक लिखना नहीं जानता है. इंग्लिश के शिक्षकों को इंग्लिश पढ़नीबोलनी नहीं आती. अंकगणित का टीचर 4 का पहाड़ा नहीं जानता. ऐसे शिक्षकों से भारत को शिक्षित करने के उपक्रम क्या हास्यास्पद नहीं हैं?

देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में नगरनिगम के विद्यालयों में नर्सरी टीचर की एक क्लास में 100 से 150 बच्चे तक एक कमरे में कीड़ेमकोड़ों की तरह भरे दिखते हैं. एक टीचर के सिर पर सौडेढ़सौ बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी. ऐसे में वे क्या पढ़ेंगे जब चिलचिलाती गरमी में बैठे ये बच्चे इन कमरों में ठीक तरीके से सांस तक नहीं ले पाते हैं. वे अपनी कौपीकिताबों से खुद को पंखा ?ालते दिखाई देते हैं. बच्चों को कमरे में बंद कर टीचर्स स्टाफरूम में चायसमोसे का लुत्फ उठाते नजर आते हैं.

निगम के पुराने टीचर्स की तनख्वाहें आज एक से डेढ़ लाख रुपए महीना हैं, मगर उस के बदले में वे बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं, यह सचाई किसी भी स्कूल में जा कर देखी जा सकती है.

हर साल जुलाई महीने में स्कूल खुलने पर टीचर्स को टारगेट दिया जाता है कि आसपास तीनचार किलोमीटर के दायरे में जो ?ाग्गी?ांपड़ी और गरीब परिवारों, मजदूरों आदि के बच्चे हैं उन को मिड डे मील के बहाने, नकद पैसे देने के बहाने ला कर उन का एडमिशन निगम के स्कूलों में करवाया जाए और इस तरह सरकारी कार्यक्रम पूरा किया जाए. टीचर्स इस टारगेट को पूरा करते हैं मगर जब शिक्षा देने की बात आती है तो व्यवस्थाएं इतनी जर्जर हैं, नीयत इतनी खोटी है कि बच्चे स्कूल आ कर भी शिक्षा से वंचित ही रहते हैं.

खैर, यह एक बहुत बड़ा रिसर्च का विषय है. दिल्ली के सरकारी स्कूलों से ले कर गांवदेहात तक के स्कूलों की पड़ताल करना आसान भी नहीं है. मगर एक सवाल इस से भी ज्यादा अहम है कि अजादी के 75 सालों में मध्यम और उच्च वर्ग की जितनी लड़कियां और महिलाएं पढ़लिख गई हैं, क्या वे अपनी शिक्षा से आज देश को कुछ लौटा रही हैं?

आम राय यह है कि भारतीय परिवार जहां लड़कों को नौकरी करने के उद्देश्य से शिक्षित करते हैं वहीं वे अपनी लड़कियों को ग्रेजुएशन तक सिर्फ इसलिए पढ़ाते हैं ताकि उन की अच्छी शादी हो जाए. एक उच्चशिक्षा प्राप्त लड़की को भी ससुराल में चूल्हाचौके तक ही सीमित रहना पड़ता है. वह एक घरेलू नौकर से ज्यादा कुछ नहीं है.

दशकों से शहरी क्षेत्रों में उच्चवर्ग और मध्यवर्ग की लगभग सभी लड़कियां उच्चशिक्षा प्राप्त कर रही हैं. उच्चवर्ग की तो अधिकांशतया इंग्लिश मीडियम में पढ़ती हैं. मगर उन की शिक्षा राष्ट्र के कामों में, विकास और उन्नति में क्या योगदान देती है? क्या वे पढ़लिख कर नौकरी करती हैं? अधिकारीकर्मचारी बनती हैं? नहीं. अपनी शिक्षा के आधार पर नौकरी प्राप्त कर आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी महिलाओं का प्रतिशत आधी आबादी का शायद 5 फीसदी ही होगा. उस में मध्यम और उच्चमध्य वर्ग की ज्यादा हैं.

उच्चवर्ग में भी लड़कियों से नौकरी कराने की इच्छा न के बराबर ही है. ऊंचीऊंची डिग्रियां पा कर वे बड़े सरकारी अधिकारियों, डाक्टरों, इंजीनियरों, व्यवसायियों से शादी कर के घरों में कैद हो जाती हैं.

उन की हालत रेशमी कपड़े पहने एक घरेलू नौकर की सी ही होती है. सब के खाने का इंतजाम करना, घर की साफसफाई करवाना, गेस्ट को एंटरटेन करना, बुजुर्गों की देखभाल करना, बच्चों की परवरिश करना, बस इसी तरह की जिम्मेदारियों का निर्वहन वे ताउम्र करती हैं, जबकि निम्नवर्ग की 90 फीसदी औरतें घरों से निकल कर काम करती हैं और पैसा कमाती हैं मगर वे अशिक्षित हैं.

देखा जाए तो एक उच्चवर्ग की उच्चशिक्षा प्राप्त गृहिणी और उस के घर में काम करने वाली अशिक्षित बाई दोनों एकजैसी ही हैं. एक पढ़लिख कर किचन संभाल रही है, दूसरी अनपढ़ हो कर उस के किचन के कामों में मदद कर रही है.

रेलवे के एक उच्चाधिकारी की पत्नी बीटैक है. बीटैक यानी इंजीनियर. अपने स्कूलकालेज में थ्रूआउट फर्स्ट डिवीजन रही. मांबाप ने उन की पढ़ाई पर कई लाख रुपए खर्च किए. मगर उन की योग्यताएं देश के काम नहीं आईं. शादी हुई तो अधिकारी पति ने बीवी से नौकरी करवाने में अपना अपमान सम?ा. अब उस बीटैक महिला का कार्यस्थल सिर्फ उस का किचन है जहां वह पति और बच्चों के पसंद के पकवान बनाती रहती है और घर में आने वाले पति के मेहमानों की खातिरदारी में अपना समय व्यतीत करती है.

शिक्षित महिलाएं किसी भी राष्ट्र की आधारशिला होती हैं मगर ध्यान रहे, विवेकहीन, लक्ष्यहीन  और उपयोगहीन शिक्षा पूरे समाज को पतन की ओर ले जाती है. भारत को स्वतंत्र हुए 70 साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन महिलाएं, जो देश की 49 फीसदी आबादी का गठन करती हैं, अभी भी सुरक्षा, गतिशीलता, आर्थिक स्वतंत्रता, पूर्वाग्रह और पितृसत्ता जैसे मुद्दों से जू?ा रही हैं. हिंदू धर्म हो या इसलाम औरतों के अंगूठे के नीचे दिखना चाहता है और संवैधानिक अधिकारों के बावजूद पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों को ही निर्णय लेने की शक्ति देता है लड़कियों को नहीं.

पढ़ने या काम करने के विकल्प से ले कर आर्थिक निर्णय और कमाई के इस्तेमाल तक अकसर महिलाओं को इन अहम मुद्दों पर अपनी राय रखने से मना कर दिया जाता है. उन का पढ़नालिखना उन के जीवन में कभी काम नहीं आता. वे पढ़लिख कर अपने जीवन के फैसले भी नहीं ले सकती हैं. शायद इसलिए, भारत दुनिया में सब से ज्यादा महिलाओं के प्रति हिंसा और कन्याभ्रूण हत्याओं का दोषी है.    द्य

आजादी का महामहोत्सव: आजादी के 75 साल- कुछ पाया, बहुत कुछ बाकी

आम जनता ने आजादी के 75 सालों में बहुतकुछ हासिल किया पर बहुत पाना अभी बाकी है. भारत की तुलना चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर से की जाए तो साबित होगा कि लोगों की हालत तो ठीक ही नहीं. ऐसे में शासन को खंगालने व वर्तमान को टटोलने की जरूरत है.

भारत देश आजादी के 75 साल पूरे कर चुका है. इस साल का आजादी दिवस हर साल की तरह खास इसलिए नहीं कि हम 76वें स्वतंत्रता दिवस को राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मना रहे हैं बल्कि यह दिन अपने इतिहास को खंगालने और वर्तमान को टटोलने का मौका होता है. यह दिन भविष्य की रूपरेखा भी तय करता है. यह गाड़ी में लगे उस साइड मिरर की तरह होता है जो पीछे के दृश्य तो दिखाता ही है साथ ही आगे की दुर्घटनाओं से आगाह भी कराता है.

यह गुलामी के उस काल की याद दिलाता है जिस के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी गई और कई देशवासियों की शहादत हुई. यह एक रिमाइंडर है जो आकलन करता है कि हम अपने कदम किस ओर बढ़ा रहे हैं, कहीं हम रुक तो नहीं गए या उलटी दिशा में तो नहीं जा रहे.

अगर पीछे मुड़ कर देखें तो आजादी का आंदोलन अपनेआप में बलिदानों की गाथा गाता है. कई जननायकों ने अपनी जवानी कालकोठरी में गुजार दी, कई युवाओं ने आजादी के लिए अपनी पढ़ाई व कैरियर दांव पर लगा दिया, कई हंसतेहंसते फांसी के तख्त को चूम गए, कई लाठीगोलियों से शहीद हो गए. यह इसलिए कि इन का एक न्यूनतम एजेंडा यह था कि आजादी के बाद देशवासी अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जी सकें. वे अपनी सरकार, अपने नेताओं को चुन सकें जो जनता को अशिक्षा, बदहाली व गरीबी से छुटकारा दिलाएं और हर स्तर पर मजबूत देश का निर्माण कर सकें. ऐसा देश जहां आर्थिक और सामाजिक उन्नति हो, जहां न कोई रंग और जन के आधार पर राज करने वाला हो न कोई गुलाम, न ऊंचा न नीचा.

आजाद भारत में लोगों का यह सपना केवल राजनीतिक ऊंचनीच से ही संबंधित नहीं था बल्कि लोग आर्थिक तथा सामाजिक बराबरी भी चाहते थे. 1947 में पार्टीशन का कड़वा घूंट पिए लोग धर्म के जंजालों में पड़ना नहीं चाहते थे, वे काफीकुछ खो चुके थे और अब शांति से देश को आगे बढ़ते देखना चाहते थे.

खैर, आजादी के 75 सालों बाद यह देशवासियों के लिए गनीमत रहा कि इतने साल देश का लोकतंत्र वोटतंत्र से ही सही पर चलता जरूर रहा. लोगों ने अपने प्रतिनिधियों को चुन कर संसद व विधानसभाओं में भेजा. उन्होंने अपने अनुसार सहीगलत जो भी फैसले लिए या कानून बनाए, उन फैसलों ने देश को ठोकपीटधकेल कर आगे बढ़ाया.

क्या कुछ हासिल किया

आज जब बीते 75 सालों की बात हो रही है तो यह भूलना नहीं चाहिए कि आजादी के दौरान बंटवारे का घाव और शरणार्थियों की समस्या भारत के लिए बड़ी चुनौती से कम नहीं थी. ऐसे में सब से बड़ी प्राथमिकता देश की एकता और अखंडता बनाए रखने की भी थी. लोग धर्मों में उल झ कर न रह जाएं और देश कई टुकड़ों में न बंट जाए, इस का ध्यान रखना जरूरी था.

इस के अलावा अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और उन में भारत की स्वतंत्र पहचान बनाना एक चुनौती थी. अंगरेजों के शासनकाल में कई लघु कुटीर उद्योग जर्जर हो गए थे. ऐसे में अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी की समस्या, 20वीं सदी में यूरोप और अमेरिका के मुकाबले में औद्योगीकरण में पिछड़ जाने की चिंता, कृषि विकास की समस्या, स्वास्थ्य व शिक्षा की बदहाल स्थिति देश के आगे मुंहबाए खड़ी थीं. देश स्वदेशी पैरों पर खड़ा हो रहा था तो सबकुछ शुरू से शुरू करना था, फिर चाहे वह उद्योगों का निर्माण हो या स्कूल, अस्पतालों, भवनों का निर्माण हो. पहले बहाना था कि हम तो गोरों के गुलाम हैं इसलिए गरीब हैं.

आजादी के बाद 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ तो सारी व्यवस्थाओं को आकृति मिली, जिस में विधायिका देश के लोगों की चिंताओं का ध्यान रखने के लिए बनाई गई जिस का मूल काम कानून बनाने का रहा. कार्यपालिका सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों को लागू करने के लिए बनाई गई तथा सब से ऊपर न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या एवं न्याय देने और संविधान को लागू कराने के लिए बनाई गई.

ऐसा नहीं कि इन 75 सालों में देश ने कुछ हासिल नहीं किया. सब से जरूरी वोटिंग का अधिकार मिला. आज छोटेबड़े शहरों में बड़ीबड़ी चमचमाती इमारतें दिखाई देती हैं. उन इमारतों में कौर्पोरेट मंडियां सजी हुई हैं. कई शहरों में आईटी हब बन गए हैं. सड़कों और रेल पटरियों का जाल लगभग पूरे देश में बिछ चुका है. बिजली तकरीबन हर घरगांव में पहुंच गई है. बड़े महानगरों में मैट्रो सरपट दौड़ने लगी है. देश का डिजिटलाइजेशन हो चुका है. मोबाइल एक्सेस हर हाथ में है. उस के लिए सुदूर इलाकों में नैटवर्क टावर भी लग गए हैं.

बड़े शहरों से ले कर कई छोटे शहरों तक मौल, सिनेमाहौल और रैस्तरां खुल गए हैं. अमेरिका, यूरोप और दुनियाभर की इंटरनैशनल कंपनियां भारत में स्थापित हो गई हैं. इन देशों के बड़ेबड़े शोरूम लोकल इलाकों में भी खुल गए हैं. आयातनिर्यात सुचारु रूप से चलने लगा है. विदेशों से इनवैस्टमैंट भारत आ रहा है. देश में सैकड़ों सफल पूंजीपति और उद्योगपति उभरे हैं जिन में से कुछ दुनिया के टौप में जगह बना चुके हैं.

इस के अलावा इस लंबे अंतराल में देश में उच्चशिक्षा के लिए प्रशिक्षण संस्थान खुले. आईआईएम, आईआईटी और एम्स बने. कई जनकल्याण की नीतियां बनीं. ग्रामीण इलाकों तक में स्कूलों का निर्माण हुआ. बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिला. उन स्कूलों में लड़कियां और दलित, वंचित तबकों के बच्चों को स्वीकार्यता मिली. इन्हीं वंचित तबकों से निकले लोग बड़े अधिकारी पदों पर भी बैठे. ऐसे ही विज्ञान के क्षेत्र में भी इसरो जैसी संस्था का निर्माण हुआ जिस ने विज्ञान के क्षेत्र में अच्छा काम भी किया.

अभी बहुत पाना रह गया

सवाल हैं कि क्या यह सिर्फ हमारे देश में ही संभव हो पाया? तकनीक क्या यहीं आई? डिजिटलाइजेशन क्या यहीं हुआ? चमचमाती इमारतें और आईटी हब क्या हमारे देश में ही बने? सड़क और रेल का जाल क्या भारत में ही बिछा? बिजली क्या यहीं पहुंच पाई? दरअसल, ऊपर गिनाए गए बिंदु, दुनिया के कुछ बेहद पिछड़े गृहयुद्धों के मारे देशों को छोड़ दिया जाए तो लगभग हर देश में संभव हो चुके हैं.

जब हम अपने देश की बड़ाई करते हैं तो चीजें गिनती में आती तो हैं पर असल में भारत को जितना ध्यान तकनीकों के विकास के लिए लगाना चाहिए था वह लगाया ही नहीं गया. नई तकनीक विदेशों से हो कर हम तक तक पहुंचती है. घर में मौजूद किसी भी तकनीकी सामान, फ्रिज, टीवी, एसी, लैपटौप, इंटरनैट, मोबाइल किसी को भी उठा कर देखा जा सकता है, क्या ये खोजें भारत में हुईं? क्या फेसबुक या माइक्रोसौफ्ट, गूगल, यूट्यूब हमारे देश की पैदाइश हैं? जवाब है नहीं.

दरअसल हकीकत यह है कि साइंस और टैक्नोलौजी में जितने बजट की जरूरत होती थी, उतना कभी दिया ही नहीं गया. उलटे, जितना दिया जाता रहा उसे भी घटा दिया गया. इसी साल का आंकड़ा है केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय को 2022-2023 के केंद्रीय बजट में 14,217 करोड़ रुपए दिए गए हैं जो पिछले साल की तुलना में

3.9 प्रतिशत कम है, जो कि कुल केंद्रीय बजट 39,44,908 करोड़ रुपए का केवल 0.3 प्रतिशत ही बनता है.

इस से जुड़े वैज्ञानिकों और जानकारों ने सरकार के इस तरह के बजट को ले कर कई सवाल खड़े किए. शिक्षा के क्षेत्र में लगातार बजट कम किया गया, जो कि टोटल बजट का 2.5 फीसदी के आसपास है. जबकि इस से जुड़े जानकार इसे 10 प्रतिशत बढ़ाए जाने की मांग काफी सालों से करते रहे.

आज जब हम देश की आजादी की बात कर रहे हैं तो इस का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना जरूरी है, क्योंकि ऐसा कर के हम अपनी स्थिति का सही आकलन कर सकते हैं. तुलना उन देशों से जिन्होंने तकरीबन हमारे साथ अपनी यात्रा शुरू की, जो आजादी के समय हमारी ही तरह लगभग एक स्टार्टिंग पौइंट से अपना रास्ता तय कर रहे थे पर उस के बावजूद उन से हमारा फासला कोसों दूर का हो चला है.

1950 में साथ चले हौंगकौंग, मंगोलिया, जापान, ताइवान, साउथ कोरिया की जीडीपी पर कैपिटा इनकम के मामले में भारत से कहीं बेहतर हैं. कुछ लोगों का तर्क रहता है कि ये देश भारत के मुकाबले छोटे व कम जनसंख्या घनत्व वाले हैं पर हकीकत यह भी है कि इन देशों में जिस तरह की उठापटक और युद्ध जैसे हालात बने रहते हैं वैसे भारत में लंबे समय से रहे नहीं. साउथ कोरिया का नौर्थ कोरिया से और ताइवान का चीन से युद्ध जैसे टसल चलते रहते हैं और जहां तक जनसंख्या वाली बात है तो चीन हमारे सामने बड़ा उदाहरण बन कर सामने है जिस की जीडीपी पर कैपिटा भारत से काफी बेहतर है.

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत को चीन से व्यापार के कुछ गुर सीखने की जरूरत है, जो 1990 तक प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में भारत से ‘गरीब’ देश था. आज चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत का 4.6 गुना है. हम इन देशों से अपनी तुलना कभी नहीं करते, हमेशा पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश जैसे देशों को चुनते हैं, क्योंकि ये देश हमें तुलना के लिए सहज दिखाई देते हैं.

कुछ वर्षों पहले खबर आई कि भारत जापान को पछाड़ कर परचेजिंग पावर पैरिटी में अमेरिका, चीन के बाद तीसरे नंबर पर पहुंच गया. इस पर होहल्ला हुआ कि देश तीसरे नंबर की इकोनौमी बन गया पर फैक्ट यह कि यह सिर्फ इसलिए हो पाया कि हमारे देश की जनसंख्या इतनी है कि किसी भी समय वह टौप 5 में ही रहेगी.

कोई यह क्यों नहीं कहता कि हम ने तकनीक के मामले में जापान को पछाड़ दिया है, क्योंकि यह बात हास्यास्पद लगेगी, जो कि दुनिया में तकनीक के मामले में पहले नंबर पर है. स्वतंत्रता से देश को वह मुकाम नहीं मिल पाया जो कोरिया, जापान, चीन, ताइवान सिंगापुर ने पा लिया, जो लगभग एक समय हम जैसे फटेहाल व गरीब थे.

आजादी का मतलब

आजादी होती क्या है? आजादी जैसे विषयों पर तार्किक विचार करना शायद कुछ लोगों को देशविरोधी लगे पर इस प्रश्न से बचा तो नहीं जा सकता.

कितना मुश्किल है इसे सम झना कि देश लोगों से बनता है, इसलिए देश की आजादी का मतलब लोगों की आजादी होनी चाहिए पर हकीकत यह है कि आजाद भारत आज गरीब लोगों का अमीर देश है. हमें दुनिया के टौप अमीरों में हमारे अमीर तो दिखाई देते हैं पर असंख्य गरीब दिखाई नहीं देते. जिन उपलब्धियों की बात ऊपर गिनाई गई, वे उपलब्धियां किन के लिए उपयोगी हो पाईं, इस पर सोचविचार किया जाए तो देश की 80 फीसदी आबादी अभी भी दूर दिखाई देगी.

भारत की आजादी से संसाधनों पर भारत के लोगों का हक कायम हुआ पर हम क्या देख रहे हैं कि आज भी उन संसाधनों पर मुठ्टीभर लोगों का ही अधिकार है. ‘भारत माता की जय’ का नारा तो बराबर लगवाया जा रहा है पर उसी मां के सपूतों में भारी आर्थिक विषमताएं दिखाई देती हैं जो बढ़ती ही जा रही हैं.

इस समय भारत के एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 58.4 प्रतिशत है, वहीं देश की 70 प्रतिशत जनता के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का केवल

7 प्रतिशत ही है. वहीं, 85 फीसदी आबादी 2 डौलर यानी 150-160 रुपए से भी कम में अपना गुजारा कर रही है.

एसबीआई रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना संकट में 2018 के मुकाबले 2021 में आम आदमी का कर्ज दोगुना हो चुका है. अमीरों और गरीबों की संपत्ति में फैलते फर्क को ले कर सरकारी सर्वे कहता है कि भारत की 10 प्रतिशत सब से अमीर आबादी देश की आधी से भी ज्यादा संपत्ति की मालिक है. वहीं

50 प्रतिशत आबादी के पास देश की 10 प्रतिशत से भी कम संपत्ति है. क्या आर्थिक आजादी के माने में देश बेहतर साबित हो पाया? जवाब इस देश की भुखमरी, कुपोषण और गैरबराबरी के कई आंकड़ों से मिल जाएंगे.

आम इंसान के लिए आजादी का मतलब है कि वह अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सके, अपनी इच्छा के अनुसार अपना भोजन चुन सके, पसंद के अनुसार सिनेमा देख सके तथा अपना पहनावा खुद चुन सके और सब से जरूरी यह कि बिना डरे सवाल कर सके. ये सब अधिकार हमें आजादी के बाद हमारे संविधान ने दिए हैं. लेकिन वर्तमान में ये सब अधिकार कूड़ा पेटी में डाल दिए गए हैं. विभिन्न तरीकों से आम नागरिक को पाबंद किया जा रहा है.

सत्ताधारी जनता के नेता नहीं शासक

75 साल देश में कई सरकारें आईंगईं, अधिकतर राजपाट कांग्रेस-भाजपा के हाथ में रहा. तकरीबन 55 साल कांग्रेस और मोदी के 8 साल के कार्यकाल को मिला कर 14 साल भाजपा सत्ता में रही. देश में 15 प्रधानमंत्री बने. कुछ के कार्यकाल 2 या उस से अधिक बार भी रहे पर इतनी स्थिरता के बावजूद देश की स्थिति सतही बढ़ती रही.

जवाहरलाल नेहरू से शुरू हुई प्रधानमंत्रियों की गिनती नरेंद्र मोदी तक पहुंच चुकी है. इस बीच गुलजारीलाल नंदा, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, एच डी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे. फिलहाल नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं.

नेहरू के काल में चुनौतियां जरूर थीं पर उन चुनौतियों को पार पाने व जिस तरह का सुनहरा विजन ले कर वे सत्ता में आए, उस से वे भी बहुत बदलाव लाने में असफल रहे. उस के बाद लालबहादुर शास्त्री कम समय के लिए आए. इंदिरा गांधी काल आया तो ‘जनता का नेता’ कम, शासक वाली छवि भारतीय राजनीति में पनपती दिखाई दी. सत्ता की ललक नेताओं पर हावी होने लगी. राजीव गांधी के बाद राजनीति में टूटफूट, जोड़तोड़ खूब हुई.

इस के बाद जोड़तोड़ राजनीति और देश में धार्मिक चैप्टर के शुरू होने से देश इन्हीं मसलों में उल झा रहा. समस्या यह कि इन मसलों को सुल झाने वाले नेता ही इन्हें उल झाते रहे. ध्यान देने वाली बात यह कि यह वही दौर था जिस समय चीन, जो हम से पिछड़ा था, वह प्रगति पथ पर दौड़ लगा रहा था और हम इन  झमेलों में फंसते रहे.

वी पी सिंह, चंद्रशेखर, नरसिंह राव, एच डी देवगौड़ा व गुजराल कमकम समय के लिए सरकार में आए. 1996 के बाद तो 2 वर्षों के भीतर

3 प्रधानमंत्री बने. अटल बिहारी वाजपेयी, पहले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री, 1999 से 2004 तक अपना कार्यकाल पूरा कर पाए पर उन 5 सालों में वे भी देश को दिशा नहीं दे पाए.

10 साल मनमोहन काल से परेशान जनता ने आखिरकार 2014 में प्रधानमंत्री मोदी को चुना पर जनता के विश्वास के बावजूद चीजें बनने की जगह बिगड़ती चली गईं. मोदी काल के पिछले 8 साल देश फिर उन्हीं धार्मिक और जातीय मसलों में फंसा रह गया. ‘फूट डालो राज करो’ की नीति देश में चलाई जा रही है. हालत यह है कि लोगों में पहले के मुकाबले असुरक्षा की भावना ज्यादा बढ़ी. देश इकोनौमी के मामले में पिछड़ता जा रहा है. गृहयुद्ध जैसे हालात बनने लगे हैं.

समस्याएं जो खत्म होनी चाहिए थीं

आजादी के 75 साल बाद भी आज तक हम उन्हीं समस्याओं से लड़ रहे हैं जो कब की खत्म हो जानी चाहिए थीं. सही मानो में हम ने कभी उन समस्याओं को हल करने की दिशा में काम नहीं किया. हमारे नेता जनता के नेता बनने की जगह उन के शासक बनने लगे हैं. हमारे राजनीतिज्ञ वही करते रहे हैं जो 200 वर्ष तक अंगरेज भारत में किया करते थे.

उन्होंने 2 संप्रदायों के बीच फूट डाली, आजकल हमारे राजनीतिज्ञ भी यही कर रहे हैं. जाति भावना की प्रबलता अभी तक गई नहीं. इन सभी के चलते राजनेताओं की नीतियों ने ऐसे सवाल खड़े कर दिए हैं जिन का जवाब ढूंढ़ा जाना चाहिए. बदलती सरकारों के साथ बस जवाब बदलते रहे हैं, कोई हल नहीं मिला.

दिक्कत यह कि जिन देशों से तुलना में हम सहूलियत महसूस करते भी हैं उन से भी कुछ मामलों में हमारे आंकड़े चिंताजनक हंगर इंडैक्स रिपोर्ट बताती है कि भारत, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देशों के मुकाबले खराब हालत में 101वें स्थान पर है. यह तब की हालत है जब सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दे रही है.

तमाम कानून होने के बावजूद दलितों को सिर उठाने की सजा तो ऊंची जाति के लोग आज भी दे ही देते हैं. यही कारण भी है कि देश में जाति आधारित अपराधों में हर साल बढ़ोतरी दर्ज हो रही है. अल्पसंख्यक विरोधी घटनाओं में वृद्धि हुई है. बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं. स्वास्थ्य को ले कर तैयारियां किस स्तर पर हैं, यह हम कोरोनाकाल में देख ही चुके हैं. बेरोजगारी के आंकड़े किसी से छिपे नहीं.

डैमोक्रेसी इंडैक्स में भी हम कोई बहुत अच्छे पायदान पर नहीं. प्रैस फ्रीडम में देश रिकौर्ड खराब 150वें पायदान पर पहुंच गया है. जाहिर है जिस देश में आर्थिक, सामाजिक चिंताएं खड़ी होती हैं वहां लोग भी खुश नहीं रहते. यही कारण है कि वर्ल्ड हैप्पीनैस इंडैक्स में भी 136वें पायदान पर गिर चुके हैं, जो पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे देशों से भी खराब है.

कर्तव्य जरूरी

यह अच्छी बात है कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस दिन को ग्रैंड बनाने के लिए 21 मार्च, 2021

को अहमदाबाद से ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ कैंपेन की शुरुआत कर चुके हैं, वहीं देशवासियों से अपील भी कर चुके हैं कि 13 से ले कर 15 अगस्त तक अपने घरों में तिरंगा फहराएं. आजादी दिवस एक राष्ट्रीय गर्व का दिन है तो इस का सैलिब्रेशन भी बड़ा होना

चाहिए पर सवाल यह कि जिन घरों में तिरंगा फहराने की बात हो रही है उन घरों को नौकरी देने की बात क्यों नहीं हो रही?

यह बिलकुल सही है, इस आजादी दिवस को जज्बे के साथ मनाना हमारी जिम्मेदारी है क्योंकि यह हमारी आजादी है, हमारे पुरखों ने बेहतर कल के लिए इस आजादी को हासिल किया है पर यह ध्यान रखना होगा कि देश की आजादी का मतलब है लोगों की आजादी. सिर्फ 2 प्रतिशत लोगों की नहीं. जब लोग गरीबी, जाति, मनुवाद, पितृसत्ता के गुलाम रहेंगे तो आजादी का जश्न भी फीका पड़ जाता है. ऐसे में जरूरी है कि सब से पहले इस गुलामी से खुद को आजाद किया जाए.

ऑडिट- भाग 2: क्या महिमा ऑफिस में घपलेबाजी करने से रोक पाई

‘‘छोडि़ए न मैडमजी, आप तो यह गरमागरम चाय पी कर तरोताजा हो जाइए. याद रखेंगी शीतल के हाथ की बनी चाय को,’’ औफिस की लेडी प्यून ने एक कप चाय उस की टेबल पर रख दी तो महिमा मुसकरा उठी.

बेचारी शीतल, अभी कोई उम्र है उस की नौकरी करने की. अभी 20 की ही तो हुई है. लेकिन क्या करे. घर की सारी जिम्मेदारी भी तो उसी के कंधों पर आ गई. सच में, सिर पर पिता का हाथ होना बहुत जरूरी है. महिमा की सोच की सूई अब औडिट से हट कर शीतल की तरफ घूम गई. सलवारसूट पहने हुए शीतल को देख उसे तरस आ गया.

शीतल के पिताजी इसी औफिस में बाबू थे. सालभर पहले एक सड़क दुर्घटना में उन की मृत्यु होने के बाद इसे अनुकंपा के आधार पर यहां चपरासी की नौकरी मिल गई. हालांकि शीतल ने आगे की पढ़ाई जारी रखी हुई है ताकि उसे क्लर्क की पोस्ट मिल जाए लेकिन इन सब कामों में वक्त लगता है.

खूबसूरत, चुलबुली शीतल पूरे औफिस की लाड़ली है. सब उसे अपनी बेटी की तरह प्यार करते हैं. महिमा के भी खूब मुंह लगी है. महिमा चाय पीने लगी. चाय वाकई अच्छी बनी थी. अदरक का अलग स्वाद आ रहा था. उस का दिमाग एक बार फिर से राकेश के हिसाब में उलझ गया.

क्या होगा अगर औडिट में कोई औब्जैक्शन लगा भी तो. जवाब दे दिया जाएगा. यदि वह अपना काम ईमानदारी से कर रही है तो फिर उसे डरने की क्या जरूरत है. आखिर उस ने तय किया कि वह राकेश की इस डील को स्वीकार नहीं करेगी.

उस ने सभी सैक्शन अधिकारियों को निर्देश दिए कि हर एंट्री में पूरी सावधानी बरती जाए. पिछले वर्षों में हुए औडिट के औब्जैक्शन पढ़ कर उन्हें पहले ही दुरुस्त करने की हिदायत भी दी. वह खुद इन सब पर बराबर नजर रखे हुए थी. एक सप्ताह की मेहनत के बाद अब वह पूरी तरह से संतुष्ट थी. कहीं किसी कमी की गुंजाइश उसे नहीं लग रही थी.

‘‘मैडम, मैं औडिट पार्टी से उत्तम बोल रहा हूं. हमारी पार्टी कल सुबह 8 बजे  पहुंच जाएगी. आप स्टेशन पर गाड़ी भिजवा दीजिएगा,’’ महिमा के पास फोन आया.

‘‘आप टैक्सी या औटो ले लीजिए. हमारी गाड़ी तो कल सुबह जल्दी ही साइट पर निकलेगी,’’ महिमा ने दोटूक जवाब दिया. दूसरी तरफ कुछ देर के लिए शांति सी रही.

‘‘चलिए, कोई बात नहीं. आप होटल का ऐड्रेस मेरे नंबर पर व्हाट्सऐप कर दीजिए,’’ उत्तम ने आगे कहा.

‘‘होटल तो नहीं है. आप चाहें तो आप के रुकने की व्यवस्था औफिशियल गैस्टहाउस में करवा सकती हूं. बहुत ही नौर्मल रेट पर अच्छी सुविधा आप को मिल जाएगी,’’ महिमा ने कहा, तो दूसरी तरफ फिर से शांति छा गई.

‘‘धन्यवाद मैडम, आप कष्ट न करें. हम अपनी व्यवस्था देख लेंगे. आप अपनी देख लीजिएगा,’’ उत्तम ने धमकीभरे स्वर में कहा और फोन कट गया. महिमा मानसिक रूप से अपनेआप को औडिट के लिए तैयार करने लगी. उस ने राकेश, विमल सहित सभी कर्मचारियों को समय से औफिस पहुंचने के निर्देश दिए और स्वयं साइट पर जाने की तैयारी करने लगी. शीतल से भी आवश्यक रूप से पूरा समय औफिस में रुकने को कहा गया. उसे हिदायत थी कि वह मेहमानों को 2 समय चायपानी करवा दे.

सुबह ठीक साढ़े 9 बजे उत्तम अपनी टीम के साथ औफिस में मौजूद था. आते ही उस ने कर्मचारियों का हाजिरी रजिस्टर मांगा. महिमा को टूर पर देख कर उस का पारा चढ़ गया. शेष सभी कर्मचारी औफिस में उपस्थित थे. राकेश विनम्रता से झुका हुआ उस के सामने खड़ा था.

‘‘क्या बात है राकेशजी, मैडम नई हैं या उन के लिए यह काम नया है? बहुत अकड़ में रहती हैं,’’ उत्तम ने अपनी कड़वाहट राकेश पर उतारी.

‘‘यह सब नई फसल है साहब, धीरेधीरे सीख जाएंगी. आप तो अपना काम शुरू कीजिए. हम हैं न आप की सेवा में. आप मुझे आदेश कीजिए,’’ राकेश ने उत्तम को खुश करने की कोशिश की. फिर उस ने शीतल को आवाज लगाई, ‘‘अरे शीतल, चायपानी का इंतजाम करो, भई.’’ थोड़ी ही देर में शीतल मुसकराती हुई चाय के साथ समोसे भी ले आई. समोसे देख कर उत्तम का मूड कुछ ठीक हुआ.

‘‘हूं, मैडम को साइट पर जाने का बहुत शौक है न, चलो, औडिट की शुरुआत मैडम की गाड़ी की लौगबुक से ही करते हैं. राकेशजी, पिछले 2 वर्षों की लौगबुक मंगवा दीजिए,’’ उत्तम ने समोसे खा कर एक लंबी सी डकार मारी. शीतल लौगबुक ले आई. उत्तम उस की एकएक एंट्री को बड़े गौर के साथ चैक करने लगा. वह साथसाथ एक सादे कागज पर नोट्स भी बनाता जा रहा था.

लौगबुक के बाद उस ने स्टौक रजिस्टर, बजट का इस्तेमाल, हाजिरी रजिस्टर, फर्नीचर आदि का हिसाब, टैलीफोन का बिल रजिस्टर आदि की जांच की. 2 दिन लगातार इस काम में जूझते उत्तम की मुलाकात महिमा से नहीं हुई. जानबूझ कर या काम की अधिकता, इन 2 दिनों में महिमा लगातार टूर पर ही बनी हुई थी. आज औफिस में औडिट का आखिरी दिन था. राकेश ने महिमा से औफिस में रह कर उत्तम से डिस्कस करने का अनुरोध किया.

ठीक साढ़े 9 बजे महिमा अपनी सीट पर थी. कुछ ही देर में राकेश उत्तम के साथ आता हुआ दिखाई दिया. महिमा ने देखा कि उत्तम नाटे कद का सांवला सा व्यक्ति है जिस की तोंद कुछ बाहर को निकली हुई है. पेट बड़ा होने के कारण पैंट बारबार कमर से लुढ़क कर नीचे आ रही थी जिसे वह बैल्ट से पकड़ कर ऊपर खींच रहा था. उस की यह हरकत देख कर महिमा के होंठों पर बरबस मुसकान आ गई. उसी समय शीतल कुछ फाइलें ले कर वहां आई. उसे उत्तम की हरकत पर मुसकराता देख कर शीतल भी खिलखिला दी.

‘‘नमस्कार मैडमजी, आज आखिर आप के दर्शन हो ही गए. मुझे तो लगा था आप से बिना मिले ही जाना होगा,’’ उत्तम के शब्दों में छिपे व्यंग्य को महिमा आसानी से समझ रही थी. उस ने उस को कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ बैठने का इशारा किया.

‘‘आप के औफिस में तो घपला ही घपला है, मैडमजी. जहां हाथ रखिए, वहीं दर्द है,’’ उत्तम ने एक पुरानी फिल्म के गाने की पंक्ति के साथ बत्तीसी खोल कर अपने पान से रंगे दांत दिखा दिए. उस के साथ ही उस के मुंह से आती गुटखे की गंध पूरे चैंबर में फैल गई. महिमा ने कुछ पल को अपनी सांस रोक कर उस गंध को हवा में लुप्त होने दिया, फिर हाथ को नाक के सामने लहराते हुए सांस ली. उत्तम उस की नाखुशी को समझ गया था. वह बाहर जा कर पीक थूक आया.

‘‘जी, दिखाइए, क्या घपला है,’’ महिमा ने उस से कागज मांगे.

मेरी पत्नी सारे पैसे मायकेवालों पर खर्च करती है, क्या करूं?

सवाल

मैं 39 साल का एक शादीशुदा मर्द हूं. मेरी शादी को 12 साल हो गए हैं. आज भी मेरी पत्नी अपने मायके वालों के कहे मुताबिक चलती है और घर में झगड़े का माहौल बना कर रखती है. वह चोरीछिपे अपने छोटे भाइयों को पैसे देती हैजो उस पैसे को बरबाद कर देते हैं.

मैं इस बात से बहुत ज्यादा परेशान रहता हूंक्योंकि मैं अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता हूं. मैं उसे कैसे अपनी ससुराल वालों के चंगुल से निकालूं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे?

जवाब

पत्नियों का मायके से ज्यादा लगाव होना आम बात है. कई बार इस चक्कर में वे अपनी घरगृहस्थी पर भी ध्यान नहीं देती हैं. पत्नी से प्यार करना अच्छी बात हैलेकिन उस की गलतियों को नजरअंदाज करना यह बताता है कि आप उस के सामने कमजोर पड़ जाते हैं.

अगर वाकई जरूरत हैतो मायके वालों की मदद करना हर्ज की बात नहीं हैलेकिन आप की मेहनत की कमाई को साले ऐयाशी में उड़ाएंतो यह तकलीफदेह बात है.

आप अब पत्नी के सामने पैसों की कमी का रोना शुरू कर दें. ससुराल वालों से दूरी बना कर रखना भी बेहतर होगा. आप थोड़ी सख्ती दिखाएं. इस से समस्या पूरी तरह हल तो नहीं होगीलेकिन कुछ कम जरूर होगी. 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

पंजाबी डिश: डिनर में बनाएं एग मसाला रेसिपी

सामग्री

– अंडे (3)

– नमक (स्वादानुसार)

– हरा धनिया (½ कप)

– गार्निशिंग के लिए पुदिने की पत्तियां

– प्याज (1)

– टमाटर (2)

– हरी मिर्च (मध्यम आकार के)

– ½ कप तेल

– 6 टे​बल स्पून अदरक

– लहसुन का पेस्ट

– 1 टी स्पून हल्दी पाउडर

– ½ टी स्पून जीरा पाउडर

– 1 टी स्पून नमक

– 2 टी स्पून लाल मिर्च पाउडर

– 1 टी स्पून चिकन मसाला पाउडर

– 2 टी स्पून पानी

बनाने की विधि

– एक पैन में अंडे डालें.

– अब इसी पैन में इतना पानी डालें कि अंडे डूब जाए.

– फिर एक टी स्पून नमक डालकर, इसे 15 मिनिट तक अंडों के सख्त होने तक उबाले.

– इसी बीच एक प्याज लेकर उसका ऊपरी और निचला हिस्सा काट लें.

– अब इसे आधे-आधे हिस्से में काट कर मध्यम आकार के टूकड़ों में काट लें.

-एक टमाटर लें और ऊपर का सख्त हिस्सा हटा दें.

– अब आधे हिस्से में कटते हुए मध्यम आकार के टूकड़ें कर लें.

– फिर हरी मिर्च ले और इसे छोटे-छोटे टूकड़ों में काटें.

– अब आधा कप हरा धनिया लेकर, उसे बारिक काटें.

– इसी तरह पुदिने की पत्तियां लेकर उन्हें महिन- महिन काट कर साइड में रख दें.

– अब एक गर्म पैन में तेल डालें.

– फिर कटे हुए प्याज डालकर एक मिनिट के लिए अच्छे से भूनें.

– अब कटी हुई हरी मिर्चों को अदरक और लहसुन के पेस्ट के साथ डालकर बढ़िया से मिक्स कर लें.

– इसके बाद इसमें कटा हुआ पुदिना डालकर हल्का सा भून ताकि पुदिने के कच्चेपन की महक चली जाएं.

– फिर हल्दी और जीरा पाउडर मिक्स करें.

– अब नमक और लाल मिर्च पाडर डालें.

– मसाले को ढंग से फ्राई करें.

– अब कटे हुए टमाटर डालकर, उनके मुलायम होने तक उन्हें पकाएं.

– फिर आधे कप पानी के साथ चिकन मसाला पाउडर डालें.

– मसाले के ग्रेवी बनने तक इसे पकाते रहें

– अब उबले हुए अंडों को छील कर बाउल में निकाल लें.

– फिर अंडों को आधे-आधे हिस्से में काट लें.

– और अब इन अंडों को ग्रेवी में रख दें.

– अब ग्रेवी को हर अंडे के उपर रखते जाए.

– अब एक प्लेट में निकाल लें और हरे धनिए से गार्निंश कर गर्मा-गर्म परोसें.

Anupamaa को कपाड़िया हाउस से बाहर करेगी बरखा, आएगा बड़ा ट्विस्ट

टीवी सीरियल अनुपमा में इन दिनों लगातार बड़ा ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो का ट्रैक काफी दिलचस्प है. शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि अनुपमा अनुज को कपाड़िया हाउस लाई है और घर पर ही उसकी देखभाल कर रही है. तो दूसरी तरफ बरखा और अंकुश नयी चाल चल रहे हैं. शो के अपकमिंग एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते है, शो के नए एपिसोड के बारे में…

शो के लेटेस्ट एपिसोड में दिखाया गया कि अंकुश-बरखा ने अनुज और अनुपमा के बेडरूम में एक सीसीटीवी कैमरा लगवाया. ऐसे में अनुपमा ने खुशी-खुशी उन दोनों को ये काम करने दिया. तो दूसरी ओर अंकुश और बरखा एक वकील से बात कर रहे होंगे ताकि वे अनुपमा को सबक सिखा सके.

 

शो के आने वाले एपिसोड में आप देखेंगे कि, शाह परिवार और कपाड़िया परिवार जन्माष्टमी मनाएगा और बरखा और अंकुश इस दौरान अनुपमा के जीवन में तूफान लाएंगे.

 

शो में आप देखेंगे कि अनुज के तबीयत में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है. अनुपमा, अनुज की ठीक होती तबीयत को देखकर खुश हो रही हैं. शो में दिखाया जाएगा कि बरखा, अनुपमा को बुरी तरह से बेइज्जती करेगी और उसे बतायेगी कि वो अनुज और कपाड़िया मेंशन को संभालने के काबिल नहीं हैं. वह अनुपमा को कपाडिया मेंशन से बाहर निकाल देगी.

 

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शो में आप देखेंगे कि  अनुपमा खुद को सही साबित नहीं कर पायेगी और वो कपाड़िया हाउस छोड़ देगी. तो दूसरी तरफ वनराज खुद को अनुज का गुनाहगार मान रहा है. वनराज अनुपमा से कहेगा कि वह शाह हाउस में वापस आ जाये. शो में अब देखना ये होगा कि अनुपमा शाह हाउस वापस लौटेती है या नहीं?

 

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म्यूजिक वीडियो में रोमांस करके बुरा फंसे विराट-पाखी, देखें टीजर

टीवी सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ फेम विराट और पाखी शो में अपने लवलाइफ को लेकर अक्सर सुर्खियों में छाये रहते हैं. शो में नील भट्ट (Neil Bhatt) और ऐश्वर्या शर्मा (Aishwarya Sharma) देवर भाभी का किरदार में है लेकिन असल जिंदगी में वो दोनों पति-पत्नी हैं. शो में किरदार की वजह से अक्सर इन दोनों को ट्रोलिंग का भी सामना करना पड़ता है.

हाल ही में नील भट्ट और ऐश्वर्या शर्मा ने ऐलान किया था कि वो दोनों पहली बार किसी म्यूजिक वीडियो में काम करने जा रहे हैं. इस म्यूजिक वीडियो ‘मन जोगिया’ का टीजर भी सामने आया है. इस टीजर में आप देख सकते हैं कि नील भट्ट और ऐश्वर्या शर्मा रजवाड़ा शान दिखाने की कोशिश कर रहे हैं.

 

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विराट-पाखी ने पोस्टर शेयर करके फैंस को अपने गाने का नाम बताया था. इस वीडियो में नील भट्ट  और ऐश्वर्या शर्मा जमकर रोमांस करते नजर आ रहे हैं. नील भट्ट और ऐश्वर्या शर्मा का ये गाना 24 अगस्त के रिलीज होने वाला है. इस गाने को यसीर देसाई ने गाया है.

 

कुछ यूजर्स ने नील भट्ट और ऐश्वर्या शर्मा को ट्रोल करना शुरू कर दिया है. यूजर्स का कहना है कि नील भट्ट और ऐश्वर्या शर्मा ने असल जिंदगी में शादी करके सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ की कहानी को बेकार कर दिया है. तो वहीं कुछ यूजर्स नील भट्ट और ऐश्वर्या शर्मा की जोड़ी को शानदार बता रहे है और अपना प्यार लूटा रहे हैं.

 

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पंजाबी डिश: घर पर ऐसे बनाएं दाल मखनी

सामग्री

– काले साबुत उरद (500 ग्राम)

– राजमा (50 ग्राम)

– खाना सोडा (1/4 टी स्पून)

– टमाटर (3)

– हरी मिर्च (3-4)

– अदरक (1 टुकड़ा)

– मक्खन (3-4 टी स्पून)

– देशी घी (2 टी स्पून)

– हींग (1-2 टुकड़े)

– 1-2 टी स्पून जीरा

– मेथी (1/4 टी स्पून)

– हल्दी पाउडर (1/4 टी स्पून)

– लाल मिर्च पाउडर (1/4 टी स्पून)

– गरम मसाला (1/4 टी स्पून)

– नमक (स्वादानुसार)

बनाने की विधि

– सबसे पहले जिस दिन आपको दाल मखनी बनानी है उसे एक रात पहले राजमा और उडद को पानी मे     भिगोकर रख दें.

– अगले दिन जब आपको दाल मखनी बनानी है उस भीगे हुए राजमा उडद को साफ पानी से अच्छे से धो लें.

– अब उसे कुकर मे डाले चाहे तो थोड़ा नमक भी डाल सकते है उसमे आवश्यकता अनुसार पानी डाले और    कुकर को गैस पर रख दें.

– जब सिटी आजाए तो प्रेशर निकलने के बाद कुकर खोले और देखे उड़द राजमा अच्छे से पके है या नहीं     ये  भी देख ले की वो नरम हो गए हो हल्का सा मसल दें.

– इतना करने के बाद एक कढ़ाई ले उसमे तेल डालकर उसमे जीरा डालें जब वो गरम हो जाए तब उसमे     प्याज़ डालकर भूनें जब उसका रंग हल्का सुनहरा हो जाए तब उसमे अदरक लहसून हरी मिर्च आदि     डालकर भूनें.

– जब भून जाए तब उसमे हल्दी, धनिया, नमक, गरम मसाला डाले और भुनें.

– अब सारे मसलो को अच्छे से मिलाए और उसमे टमाटर डालें तब तक भुने जब तक टमाटर गल ना जाए.

– जब टमाटर गल जाए और मिश्रण अच्छे से भून जाए तब उसमे उबले हुए उडद और राजमा डाल दें.

– अब इस मिश्रण मे थोड़ा सा पानी डाले और पकाएं.

– जब थोड़ा पक जाए तब इसमें बटर या क्रीम डाले और अच्छे से मिलाएं.

– कुछ देर ऐसे ही छोड़ने के बाद गैस बंद कर दें.

– आपकी गरमा गरम दाल मखनी तैयार है.

फुटबॉल खिलाड़ी शालिनी की अधूरी प्रेम कहानी

सौजन्य: मनोहर कहानियां

फुटबाल की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी शालिनी उर्फ रोली को फुटबाल खिलाड़ी रवि ठाकुर से प्यार हो गया. दोनों ही एकदूसरे को दिलोजान से चाहते थे. इस के बावजूद भी इन दोनों के बीच ऐसा क्या हुआ कि इस खिलाड़ी की प्रेम कहानी अधूरी ही रह गई ?

20फरवरी, 2022 की शाम. समय यही कोई साढ़े 5-6 बजे के आसपास का रहा होगा. जाड़े की शाम थी. वैसे भी जाड़ों में दिन छोटे और रात बड़ी होती हैं. उस समय भी शाम हो चली थी और शाम के धुंधलके ने प्रयागराज हाईकोर्ट के पास स्थित पोलो ग्राउंड और सड़क को अंधेरे में घेर रखा था.

चूंकि यह सड़क वीआईपी है और लोगों का आवागमन लगा रहता है. खासकर सुबह और शाम को वाक करने वालों का. उसी पोलो ग्राउंड में एक बहुत ही पुराना और गहरा कुआं भी है.

ठंड के बावजूद उस पुराने कुएं से बदबू आ रही थी, जिस की असहनीय दुर्गंध ने वाक करने वालों और राहगीरों को अपने नथुनों पर रुमाल रख कर चलने पर मजबूर कर दिया था.

किसी अनहोनी की आशंका के मद्देनजर कुछ लोगों ने पोलो ग्राउंड का चक्कर लगाया कि आखिर माजरा क्या है.

चूंकि आर्मी एरिया में स्थित पोलो ग्राउंड बहुत बड़े दायरे में फैला हुआ है, इसलिए बदबू कहां से आ रही है, यह जानने के लिए लोग सब से पहले कुएं के पास गए. कुआं मुख्य सड़क से सिर्फ 10 कदम की दूरी पर था.

सब से पहले कुएं के पास ही लोगबाग गए. जैसेजैसे लोग कुएं के पास बढ़ते गए, बदबू उतनी ही तेजी से उन के नथुनों में घुस रही थी.

शक होने पर वहां मौजूद एक वकील साहब ने फौरन 112 नंबर व संबंधित थाना सिविल लाइंस को सूचना दी कि कुएं से लगातार असहनीय दुर्गंध उठ रही है. जरूर उस में किसी की लाश हो सकती है.

हमेशा उस कुएं से लाश ही बरामद की गई है, इसलिए उसे मौत का कुआं ही कहते थे. इस बात में या यह कहनेसमझने में जरा भी समय नहीं लगा कि उस कुएं में किसी का काम तमाम कर के उस की लाश फेंक दी गई है.

बहरहाल, सूचना मिलते ही प्रयागराज के थाना सिविल लाइंस की पुलिस और गश्ती गाड़ी पोलो ग्राउंड के अंदर घुसे और जब कुएं के अंदर झांका तो पाया कि एक सफेद रंग का बोरा उस कुएं में (लगभग सूख चुका है कुआं फिर थोड़ाबहुत पानी उस में अब भी हमेशा रहता है) पड़ा था. कुछ ही देर में एसएसपी अजय कुमार और सीओ संतोष सिंह भी वहां पहुंच गए.

कुआं काफी गहरा था. बोरे को निकालने के लिए इंसपेक्टर वीरेंद्र यादव ने फायर ब्रिगेड को फोन कर दिया. फायर ब्रिगेड कर्मचारियों ने कुएं के अंदर एक लंबी सीढ़ी डाली और अपनेअपने मुंह ढक कर उस के अंदर उतरे. जैसेतैसे बोरे को कुएं से बाहर लाया गया. उसे उठाने में जवानों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि बोरा काफी वजनी था.

बोरे में निकली लड़की की लाश

जब उस बोरे का मुंह खोला तो उस के अंदर एक युवती की लाश देख कर लोग दंग रह गए. अब जबकि बोरे को कुएं से निकाला जा चुका था तो उस में से और भी तेजी के साथ दुर्गंध चारों तरफ फैलने लगी थी.

युवती ने जींस टीशर्ट और पैरों में जूते पहन रखे थे. उस की लाश देख कर पुलिस ने अंदाजा लगाया कि उस की हत्या कोई एक हफ्ता पहले कर के उस की लाश को ठिकाने लगाने के लिए हाथपैर मोड़ कर उसे बोरे में ठूंसठूंस कर भरा गया था. उस के बाद सुतली और सूजे की मदद से बोरे को सिल कर कुएं में फेंका गया होगा.

पानी में पड़ेपड़े उस युवती की लाश लगभग फूल चुकी थी. चेहरा भी पहचानने में नहीं आ रहा था. सिविल लाइंस पुलिस ने वहां मौजूद लोगों से लाश की शिनाख्त करने को कहा, लेकिन वहां मौजूद कोई भी शख्स उसे पहचान पाने में असमर्थ था.

लड़की कौन थी? कहां की रहने वाली थी? यह सब जानने के लिए जब महिला पुलिस ने उस के कपड़ों की तलाशी ली तो उस में कुछ भी नहीं मिला. हां, मृतका की बाईं कलाई पर एक टैटू बना हुआ था और उस पर रवि नाम लिखा हुआ था.

बहरहाल, लाश का पंचनामा भरने के बाद उसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया. एसएसपी अजय कुमार ने हत्या के इस मामले को सुलझाने के लिए सीओ संतोष सिंह के नेतृत्व में एक पुलिस टीम बनाई. टीम में थाना वीरेंद्र सिंह यादव, एसएसआई इंद्रदत्त द्विवेदी, एसआई वजीउल्लाह खान, अरविंद कुमार कुशवाहा, कांस्टेबल राहुल कुमार गोला, राहुल कुमार, महिला कांस्टेबल इंदु आदि को शामिल किया.

अगले दिन कुएं में मिली जवान युवती की लाश की खबर शहर के सभी अखबारों में छपी और साथ ही उस की कलाई पर बने टैटू पर रवि नाम गुदे होने का जिक्र किया गया तो पुलिस को उस की शिनाख्त के लिए ज्यादा भागदौड़ की जरूरत नहीं पड़ी.

मृतका निकली राष्ट्रीय स्तर की फुटबाल खिलाड़ी

प्रयागराज के ही थाना शिवकुटी के मोहल्ला शिलाखाना में रहने वाले राजेंद्र प्रसाद ने अगले दिन यानी 21 अप्रैल को जब अखबार में यह पढ़ा कि एक जवान युवती की डेडबौडी पोलो ग्राउंड के अंदर पुराने कुएं से थाना सिविल लाइंस पुलिस ने बरामद की है, उस के हाथ पर बने टैटू पर ‘रवि’ नाम लिखा हुआ है तो वह थाने पहुंचे और इंसपेक्टर वीरेंद्र यादव से मिले.

वीरेंद्र यादव से उन्होंने डेडबौडी देखने की इच्छा जाहिर की तो बिना एक पल गंवाए इंसपेक्टर ने उन्हें अपने मातहतों के साथ पोस्टमार्टम हाउस भेज दिया.

लाश के चेहरे से जब कफन हटाया गया तो उस के पिता और परिजन फफकफफक कर रोने लगे. शव की शिनाख्त हो चुकी थी. मृतका का नाम शालिनी धुरिया उर्फ रोली था. उस के पिता राजेंद्र प्रसाद, मां व भाईबहन ने उसे पहचान लिया.

घर वाले यह जान कर हैरान थे कि शालिनी तो गुड़गांव में नौकरी कर रही थी तो प्रयागराज कब आ गई.

शालिनी पूरे परिवार की लाडली थी. उस की हत्या से घर वालों का रोरो कर बुरा हाल था. पेशे से ईरिक्शा ड्राइवर राजेंद्र प्रसाद के 4 बच्चों में सब से बड़ी बेटी श्रद्धा, उस से छोटी शालिनी उर्फ रोली व उस से छोटे भाई बहन अंकित और स्वाति थे.

बहरहाल, उस के अंतिम संस्कार के बाद घर वालों से, खासकर शालिनी के पिता से जब यह पूछा गया कि उस की कलाई पर जो रवि नाम लिखा हुआ है, वह कौन है? शालिनी का उस से क्या संबंध है? शालिनी यहां से पहले कहां रहती थी?

पुलिस को इन सवालों का जवाब मिलना जरूरी था, तभी वह शालिनी के हत्यारों तक पहुंच सकती थी. पूछताछ के दौरान शालिनी के पिता राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि रवि उन की बेटी का दोस्त है.

‘‘उस का आप के घर भी आनाजाना था?’’ इंसपेक्टर वीरेंद्र यादव ने पूछा.

उन्होंने बताया कि शालिनी बहुत होनहार थी. वह राष्ट्रीय स्तर की फुटबाल प्लेयर थी. परिवार की माली हालत को देखते हुए 2021 में दूसरे लौकडाउन के खत्म होने के बाद वह नवंबर महीने में गुड़गांव चली गई थी. और एक प्राइवेट कंपनी में जौब करने लगी थी.

शालिनी ने एलडीसी कालेज से मार्केटिंग का कोर्स किया हुआ था. एक अच्छी फुटबाल खिलाड़ी होने के साथसाथ उसे मार्केटिंग का भी अच्छा अनुभव था. इसलिए उस की नौकरी लगने में कोई परेशानी नहीं हुई. दिल्ली में शालिनी किराए का कमरा ले कर रहती थी.

फरवरी में उस की मकान मालकिन ने हमारे घर फोन कर जब पूछा कि शालिनी प्रयागराज पहुंची कि नहीं तो हम सन्न रह गए. क्योंकि मकान मालकिन ने बताया कि शालिनी 13 फरवरी, 2022 को ही प्रयागराज के लिए रवाना हो गई थी.

पिता ने लिखाई बौयफ्रैंड के खिलाफ रिपोर्ट

जब हम लोगों ने यह सुना तो आश्चर्यचकित रह गए क्योंकि शालिनी ने कुछ ही दिनों पहले फोन कर के हमें बताया था कि वह अभी नहीं आ पाएगी. अभी उसे छुट्टी नहीं मिल रही है. होली के अवसर पर वह प्रयागराज आएगी. मकान मालकिन के अनुसार उसे अब तक दिल्ली वापस आ जाना चाहिए था. तभी से हम लोग परेशान थे.

इस के बाद उस के मोबाइल पर कई बार काल की, लेकिन हर बार उस का मोबाइल स्विच्ड औफ मिला. जब शालिनी की मकान मालकिन ने हमें बताया कि वह कह कर निकली थी कि प्रयागराज अपने घर जा रही है और 2-4 दिन में वापस आ जाएगी.

तभी किसी अनहोनी की आशंका के मद्देनजर बिना पुलिस को सूचना दिए उस की खोजबीन कर रहे थे. उस की तलाश में शालिनी का प्रेमी रवि भी साथसाथ रातदिन  उन के साथ एक किए हुए था.

शालिनी का मोबाइल भी स्विच्ड औफ था, जिस से हमारी परेशानी और भी बढ़ गई थी. पूरा परिवार उस की चिंता कर रहा था और जब वह हमें मिली भी तो लाश के रूप में.

इतना कह कर राजेंद्र प्रसाद रोने लगे. राजेंद्र प्रसाद से रवि के खिलाफ तहरीर ले कर पुलिस ने जांचपड़ताल शुरू कर दी.

आगे की काररवाई के लिए सिविल लाइंस थाना पुलिस को कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि शालिनी का प्रेमी जोकि रेलवे स्टाफ क्वार्टर की लोको कालोनी में अपने बड़े भाई के साथ रहता था. उस समय वह थाने में ही मौजूद था. शालिनी के परिवार के साथ उस की खोजबीन का नाटक वह शुरू से ही कर रहा था.

रवि ठाकुर को फौरन पुलिस ने अपनी कस्टडी में ले लिया और पूछताछ शुरू कर दी. शुरुआत में उस ने पुलिस को काफी बहकाने और भटकाने की कोशिश की लेकिन जब पुलिस ने सख्ती की तो उस ने शालिनी धुरिया की हत्या कर के लाश को बोरे में भर कर कुएं में फेंकने से ले कर सभी जुर्म स्वीकार कर लिए.

वैलेंटाइंस डे पर मिलने इतनी दूर से आई शालिनी की हत्या की जो कहानी सामने उभर कर आई, वह इस प्रकार निकली—

शालिनी धुरिया उर्फ रोली और उस का प्रेमी रवि ठाकुर दोनों ही फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी थे. शालिनी के कोच अनिल सोनकर ने ‘मनोहर कहानियां’ को बताया कि शालिनी जब महज 6-7 साल की थी, तभी से उस का रुझान फुटबाल की तरफ था. सदर बाजार फुटबाल ग्राउंड में वह फुटबाल की प्रैक्टिस करती थी.

शालिनी एक अच्छी फुटबाल खिलाड़ी थी. गजब का स्टैमिना था उस के अंदर.  बहुत ही प्रतिभाशाली खिलाड़ी थी वह. तपती दोपहर में भी वह बड़ी ही मेहनत, लगन और ईमानदारी के साथ इतने बड़े फुटबाल मैदान में अकेले दम पर बाउंड्री पर चूने का छिड़काव करती थी.

अपनी मेहनत और लगन से शालिनी धुरिया ने महिला फुटबाल खिलाड़ी के रूप में बेहतरीन खिलाड़ी की छवि बना ली थी. अपनी बेहतरीन परफार्मेंस के चलते स्टेट व नैशनल लेवल पर शालिनी ने सिर्फ उत्तर प्रदेश के जिलों में, बल्कि गोवा, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, समेत विभिन्न राज्यों व जिलों में प्रयागराज जिले का तो नाम रोशन किया ही, साथ ही सदर बाजार फुटबाल एकेडमी का भी परचम फहराया था. शालिनी ने खेल के साथसाथ अपनी पढ़ाईलिखाई भी जारी रखी थी और गंगापार इलाके से बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद पर्ल्स प्राइवेट लिमिटेड कंपनी, गुरुग्राम में नवंबर 2021 से जौब करने लगी थी.

खेल के दौरान ही शालिनी को रवि ठाकुर नाम के फुटबाल खिलाड़ी से प्यार हो गया था. रवि मूलरूप से बिहार के जिला जहानाबाद के गांव मकदूमपुर का रहने वाला था.

उस के पिता दिनेश सिंह रेलवे में नौकरी करते थे. उन की पोस्टिंग प्रयागराज में ही थी, इसलिए सिविल लाइंस की रेलवे कालोनी में उन्हें क्वार्टर मिला हुआ था. उन्होंने करीब 5-6 साल पहले वीआरएस ले लिया और अपनी जगह अपने बड़े बेटे दिनेश ठाकुर को नौकरी पर लगवा दिया था.

रवि इलाहाबाद स्पोर्टिंग फुटबाल एकेडमी का होनहार खिलाड़ी था. वह स्कूल नैशनल से अंडर 17  के तहत सीनियर स्टेट चैंपियनशिप खिलाड़ी भी रहा है.

खेल के साथ वह इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीए सेकेंड ईयर की पढ़ाई भी कर रहा था.

शालिनी और रवि की प्रेम कहानी की शुरुआत लगभग 7-8 साल पहले खेल के दौरान मैदान में हुई थी.

दोनों ही फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी थे, इसलिए प्रेम परवान चढ़ने में समय नहीं लगा. दोनों के पास एकदूसरे से मिलने का भरपूर समय था. खेल के बहाने रोज मुलाकात स्वाभाविक थी.

इन की प्रेम कहानी के बारे में दोनों के ही परिजन भलीभांति परिचित थे. शालिनी तो रवि के प्यार में ऐसी दीवानी हो गई थी कि उस ने अपने हाथ पर प्रेमी रवि का नाम तक गुदवा लिया था. इस तरह इन का प्यार परवान चढ़ता गया.

लेकिन एक दिन रवि की थोड़ी सी गलतफहमी ने सब कुछ उजाड़ दिया. जब रवि को हिरासत में लिया तो पूछताछ करने पर रवि ने पुलिस को बताया, ‘‘हां सर, मैं ने उस चुड़ैल का गला दबा कर हत्या की है. वह थी ही इसी लायक. मेरी सच्ची मोहब्बत का उस ने गलत फायदा उठाया था बेवफा कहीं की. मोहब्बत तो बेपनाह मैं उस से करता था और उस के मर जाने के बाद भी करता हूं.

‘‘लेकिन क्या करूं उस के बिगड़ैल रवैए और हाईप्रोफाइल लाइफस्टाइल की चाह ने मुझे उस की हत्या करने पर मजबूर कर दिया. हालांकि मैं ऐसा नहीं करना चाहता था लेकिन उस के थप्पड़ से मैं इतना आहत हो गया था कि बरदाश्त नहीं कर पाया. रोक नहीं सका खुद को और…’’

रवि पुलिस को बतातेबताते अतीत के झरोखे में चला गया.

उस ने बताया कि अभी हफ्ता भर पहले की ही बात है. उस ने मुझे फोन कर के कहा कि वह मुझ से वैलेंटाइंस डे पर मिलने प्रयागराज आ रही है.

मैं ने उस से चहकते हुए पूछा, ‘‘सच बताओ रोली (शालिनी को रवि प्यार से रोली कहता था), मजाक मत करो. क्या सच में तुम मुझ से मिलने वैलेंटाइंस डे पर प्रयागराज आओगी? इतने दिनों बाद तुम ने फोन किया है, मुझे यकीन ही नहीं हो रहा है कि मेरी तुम से बात हो रही है.’’

‘‘अरे बुद्धू, मैं तुम्हारी रोली ही हूं और तुम्हीं से बात कर रही हूं. तुम किसी भूत या चुड़ैल से बात नहीं कर रहे हो. यकीन नहीं आ रहा तो अपने कान में कस कर चिकोटी काट कर देखो पता चल जाएगा.’’ इतना कह कर  शालिनी बात करतेकरते हंसने लगी.

‘‘हांहां, चलो, यकीन हो गया. अच्छा, अब यह बताओ कि गुड़गांव से तुम आ कब रही हो?’’ रवि ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘सुनो, मैं 14 फरवरी को प्रयागराज पहुंच जाऊंगी. उस दिन हम दोनों खूब मौजमस्ती और सैरसपाटा करेंगे. उस के बाद मैं वापस दिल्ली चली जाऊंगी.’’ शालिनी ने कहा.

‘‘क्यों, क्या तुम अपने घर नहीं जाओगी?’’

‘‘अरे नहीं बाबा. और यह बात तुम मेरे घर पर पापा या दीदी किसी से भी नहीं बताना क्योंकि मैं ने पापा से पहले ही कह रखा है कि मैं होली पर घर आऊंगी. मुझे इधर छुट्टी नहीं मिल रही है. समझे?’’ शालिनी ने बताया.

‘‘हां, समझा. ठीक है, मुझे तुम्हारे आने का बेसब्री से इंतजार है.’’ रवि बोला.

इस के बाद हम दोनों के बीच काफी देर तक बातें होती रहीं. अंतत: वह घड़ी भी आ गई जब 14 फरवरी की शाम शालिनी प्रयागराज जंक्शन के प्लेटफार्म पर उतरी. उस के आने से पहले ही रवि ने 10 हजार रुपए का मोबाइल बतौर सरप्राइज गिफ्ट खरीद रखा था.

वह शालिनी को वैलेंटाइंस डे पर मोबाइल उपहार में देना चाहता था ताकि उस की प्रेमिका का प्यार और ज्यादा बढ़े.

14 फरवरी को तय समय पर शालिनी का प्रेमी रवि ठाकुर स्टेशन पहुंचा. उसे बाइक पर बिठाया और सीधे रेलवे स्टाफ की लोको कालोनी स्थित अपने आवास पर ले आया.

यहां गौरतलब है कि शालिनी धुरिया को 13 फरवरी को ही प्रयागराज आना था लेकिन ट्रेन मिस हो जाने के कारण वह 14 फरवरी को वहां पहुंची थी.

क्या शालिनी के और भी बौयफ्रैंड थे?

बहरहाल, जब रवि उसे ले कर अपने कमरे पर पहुंचा तो उस समय उस के घर वाले टीवी देख रहे थे. शालिनी फ्रैश होने चली गई.

जब वह फ्रैश हो रही थी तो रवि ने शक के आधार पर उस का मोबाइल चैक किया. उसे शक था कि उस की प्रेमिका दिल्ली जा कर बदल गई है. उस के कई लोगों के साथ संबंध बन गए होंगे.

मोबाइल की गैलरी में फोटो में शालिनी कई लड़कों के साथ स्टाइल में दिखी. फिर क्या था रवि को उस पर गहरा शक हो गया.

शालिनी जब बाथरूम से निकली तो रवि ने उस से पूछा, ‘‘रोली, तू दिल्ली जा कर बहुत बदल गई है. बेवफा है तू. अब तू पहले वाली रोली नहीं रही.’’

‘‘जुबान संभाल कर बात करो रवि, अगर मैं तुम से सच्चा प्यार न करती तो इतनी दूर तुम से मिलने नहीं आती. अपनी औकात में रह कर बात करो. क्या सबूत है तुम्हारे पास जो मुझ पर इतना बड़ा इलजाम लगा रहे हो.’’

‘‘अरे छिनाल, शरम कर जरा. सबूत है तेरा ये मोबाइल. इस में तेरे यारों के साथ खिंचवाई गई फोटो.’’ रवि गुस्से में बोला.

‘‘क्या कहा छिनाल? तेरी हिम्मत कैसे हुई, यह कहने की?’’

‘‘एक बार नहीं सौ बार कहूंगा मादर…कहीं कहीं.’’ रवि ने उसे गाली दी.

अब शालिनी से सहा नहीं गया. उस ने एक जोरदार थप्पड़ रवि के गाल पर जड़ दिया. रवि तिलमिला उठा. गुस्से में गाली देते हुए बोला, ‘‘तेरी मां की… साली, तेरी इतनी हिम्मत कि मुझे थप्पड़ मारा…’’

शालिनी भी आपे से बाहर थी, ‘‘और नहीं तो क्या तेरी पूजा करूं. तूने मुझे समझ क्या रखा है अपनी रखैल? साले, अपने भाई के टुकड़ों पर पलने वाला मुझ पर इलजाम लगाता है. मैं इतनी बड़ी कंपनी में काम कर रही हूं. मेरा सभी के साथ उठनाबैठना, खानापीना, घूमनाफिरना है तो सब क्या मेरे यार हो गए. मैं पागल हूं जो इतनी दूर तुझ से मिलने यहां आई.’’

‘‘पता नहीं किसकिस को बयाना दे रखा होगा तूने. कौन जाने क्या खेल खेल रही है मेरे साथ फुटबाल की तरह.’’

रवि का इतना कहना था कि शालिनी ने फिर उसे झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया. फिर क्या था दोनों के बीच ठेठ इलाहाबादी बोली में गालीगलौज और मारपीट होने लगी.

‘‘मादर…बहुत हाथ उठने लगे हैं तेरे. तू ऐसे नहीं मानेगी…’’ कह कर रवि ने जोर से शालिनी की गरदन पकड़ ली.

शालिनी गरदन छुड़ाने के लिए तड़पने लगी लेकिन अब रवि के ऊपर शैतान सवार हो चुका था. थोड़ी देर में शालिनी के प्राणपखेरू उड़ चुके थे. गला घोटे जाने से उस की जीभ और आंखें दोनों बाहर आ गई थीं.

रवि ठाकुर को जब होश आया तब तक काफी देर हो चुकी थी. अब उसे लाश ठिकाने लगानी थी.

उस ने अकेले ही शालिनी के शव को बोरे में भरा. सूजे और सुतली से बोरे का मुंह सिला और अकेले ही रात के 9 बजे उस की डेडबौडी बाइक पर रख कर पोलो ग्राउंड वाले पुराने कुएं में फेंक आया.

सब कुछ अकेले ही कर डाला उस ने और किसी को पता तक नहीं चला? सेना की गश्ती गाड़ी, क्यूआरटी और हाईकोर्ट पर हमेशा चैकिंग में लगे रहने वाले पुलिस के जवान सभी नदारद रहे उस समय?

न शालिनी की लड़ाईझगड़े के दौरान किसी ने चीखें सुनीं? जबकि पीछे वाले कमरे में रवि के घर वाले मौजूद थे. उन्हें भी इस की जरा भी भनक नहीं लगी? सवाल बहुत हैं मगर कोई फायदा नहीं.

इंसपेक्टर वीरेंद्र कुमार यादव ने रवि की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त मोबाइल और आलाकत्ल बरामद कर न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

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