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वो भूली दास्तां- भाग 1: कुछ रिश्ते अजनबी ही रहने चाहिए

कभी कभी जिंदगी में कुछ घटनाएं ऐसी भी घटती हैं, जो अपनेआप में अजीब होती हैं. ऐसा ही वाकिआ एक बार मेरे साथ घटा था, जब मैं दिल्ली से हैदराबाद जा रहा था. उस दिन बारिश हो रही थी, जिस की वजह से मुझे एयरपोर्ट पहुंचने में 10 मिनट की देरी हो गई थी और काउंटर बंद हो चुका था.

आज पूरे 2 साल बाद जब मैं दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरा और बारिश को उसी दिन की तरह मदमस्त बरसते देखा, तो अचानक से वह भूला हुआ किस्सा न जाने कैसे मेरे जेहन में ताजा हो गया.

मैं खुद हैरान था, क्योंकि पिछले 2 सालों में शायद ही मैं ने इस किस्से को कभी याद किया होगा.

एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर होने के चलते काम की जिम्मेदारियां इतनी ज्यादा हैं कि कब सुबह से शाम और शाम से रात हो जाती है, इस का हिसाब रखने की फुरसत नहीं मिलती. यहां तक कि मैं इनसान हूं रोबोट नहीं, यह भी खुद को याद दिलाना पड़ता है.

लेकिन आज हवाईजहाज से उतरते ही उस दिन की एकएक बात आंखों के सामने ऐसे आ गई, जैसे किसी ने मेरी जिंदगी को पीछे कर उस दिन के उसी वक्त पर आ कर रोक दिया हो.

चैकआउट करने के बाद भी मैं एयरपोर्ट से बाहर नहीं निकला या यों कहें कि मैं जा ही नहीं पाया और वहीं उसी जगह पर जा कर बैठ गया, जहां 2 साल पहले बैठा था.

मेरी नजरें भीड़ में उसे ही तलाशने लगीं, यह जानते हुए भी कि यह सिर्फ मेरा पागलपन है. मेन गेट की तरफ देखतेदेखते मैं हर एक बात फिर से याद करने लगा.

टिकट काउंटर बंद होने की वजह से उस दिन मेरे टिकट को 6 घंटे बाद वाली फ्लाइट में ट्रांसफर कर दिया गया था. मेरा उसी दिन हैदराबाद पहुंचना बहुत जरूरी था. कोई और औप्शन मौजूद न होने की वजह से मैं वहीं इंतजार करने लगा.

बारिश इतनी तेज थी कि कहीं बाहर भी नहीं जा सकता था. बोर्डिंग पास था नहीं, तो अंदर जाने की भी इजाजत नहीं थी और बाहर ज्यादा कुछ था नहीं देखने को, तो मैं अपने आईपैड पर किताब पढ़ने लगा.

अभी 5 मिनट ही बीते होंगे कि एक लड़की मेन गेट से भागती हुई आई और सीधा टिकट काउंटर पर आ कर रुकी. उस की सांसें बहुत जोरों से चल रही थीं. उसे देख कर लग रहा था कि वह बहुत दूर से भागती हुई आ रही है, शायद बारिश से बचने के लिए. लेकिन अगर ऐसा ही था तो भी उस की कोशिश कहीं से भी कामयाब होती नजर नहीं आ रही थी. वह सिर से पैर तक भीगी हुई थी.

यों तो देखने में वह बहुत खूबसूरत नहीं थी, लेकिन उस के बाल कमर से 2 इंच नीचे तक पहुंच रहे थे और बड़ीबड़ी आंखें उस के सांवले रंग को संवारते हुए उस की शख्सीयत को आकर्षक बना रही थीं.

तेज बारिश की वजह से उस लड़की की फ्लाइट लेट हो गई थी और वह भी मेरी तरह मायूस हो कर सामने वाली कुरसी पर आ कर बैठ गई. मैं कब किताब छोड़ उसे पढ़ने लगा था, इस का एहसास मुझे तब हुआ, जब मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी.

ठीक उसी वक्त उस ने मेरी तरफ देखा और तब तक मैं भी उसे ही देख रहा था. उस के चेहरे पर कोई भाव नहीं था. मैं सकपका गया और उस पल की नजर से बचते हुए फोन को उठा लिया.

Satyakatha: जहरीली इश्क की दवा

सौजन्य- सत्यकथा

22 अप्रैल, 2020 को लाठगांव पिपरिया में सहकारी समिति के माध्यम से गेहूं की खरीदी चल
रही थी. गांव के हीरालाल विश्वकर्मा को भी अपना गेहूं बेचने जाना था. वह अपने बड़े बेटे मोहन का इंतजार कर रहे थे. मोहन खेतों पर था. उस का दोस्त कुंजी भी उस के साथ था. दरअसल, गांव के ही देवेंद्र पटेल से बंटाई पर लिए गए खेत पर गेहूं की फसल की मड़ाई हो रही थी. मोहन और कुंजी बीती रात 9 बजे खाना खा कर खेत पर गए थे. सुबह 11 बजे के बाद भी मोहन घर नहीं आया तो हीरालाल ने उसे फोन किया. लेकिन रिंग जाने पर भी फोन रिसीव नहीं हुआ. हीरालाल को लगा कि थ्रेशर की आवाज में फोन की रिंग सुनाई नहीं दी होगी. हीरालाल अपने छोटे बेटे को साथ ले कर गेहूं बेचने सहकारी समिति चला गया.
हीरालाल गेहूं बेच कर दोपहर के 2 बजे घर आया तो उस की पत्नी ने बताया कि मोहन अभी तक खेत से नहीं लौटा है. इस से उसे लगा कि थ्रेशर में कोई खराबी आने की वजह से फसल की मड़ाई पूरी नहीं हो पाई होगी, इसलिए मोहन घर नहीं आया होगा.

जल्दी से खाना खा कर हीरालाल खुद ही खेत पर चला गया. दूर से ही खेत में रखे गेहूं और भूसे के ढेर को देख कर हीरालाल खुश हुआ कि रात में फसल की मड़ाई हो गई है. लेकिन जब पास जा कर देखा तो उस के मुंह से चीख निकल गई. बिस्तर पर उस के बेटे मोहन विश्वकर्मा और उस के दोस्त कुंजी यादव की रक्तरंजित लाशें पड़ी थीं.

जैसेतैसे खुद को संभाल कर हीरालाल ने गांव के कोटवार (चौकीदार) द्वारा इस वारदात की सूचना पुलिस चौकी झोतेश्वर को दिलवा दी. सूचना मिलने पर थाना गोटेगांव के टीआई प्रभात शुक्ला और झोतेश्वर पुलिस चौकी की एसआई अंजलि अग्निहोत्री पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए.
लौकडाउन में हुए दोहरे हत्याकांड से पूरे जिले में सनसनी फैल गई थी. घटना को ले कर गांव में आक्रोश न फैले, इसलिए कलेक्टर दीपक सक्सेना और एसपी डा. गुरुकरण सिंह ने शाम के समय घटनास्थल का दौरा किया और पुलिस को जरूरी निर्देश दिए. उन्होंने गांव वालों को आश्वस्त किया कि हत्यारों को जल्द ही पकड़ लिया जाएगा.

पुलिस टीम ने जरूरी लिखापढ़ी के बाद दोनों शवों को पोस्टमार्टम के लिए गोटेगांव के सरकारी अस्पताल भेज दिया. पोस्टमार्टम के बाद शवों को उन के घर वालों के सुपुर्द कर दिया गया. पुलिस की उपस्थिति में लाठगांव में दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया.पुलिस टीम ने जब मृतकों के घर वालों के साथ गांव के कुछ लोगों से पूछताछ की तो मामला नाजायज प्रेम संबंधों से जुड़ा हुआ निकला. कुंजी यादव की दादी ने तो पुलिस के सामने दोनों की हत्या का शक गांव के शिवराज उर्फ गुड्डा ठाकुर पर व्यक्त किया.
इस से पुलिस की राह आसान हो गई. जब पुलिस टीम गुड्डा ठाकुर के घर पहुंची तो वह घर पर नहीं मिला. घर के पास ही रहने वाले उस के भाई ने बताया कि गुड्डा उस के घर दोपहर को खाना खाने आया था. भाई ने बताया कि वह ज्यादा समय जामुनपानी गांव के खेत में बनी टपरिया (झोपड़ी) में रहता है.

पुलिस टीम ने 22 अप्रैल, 2020 की रात खेत में बनी गुड्डा ठाकुर की झोपड़ी में दबिश दी तो वह वहां नहीं मिला. 23 अप्रैल के तड़के पुलिस ने फिर झोपड़ी में दबिश दी. मगर पुलिस को देख कर उस की झोपड़ी में मौजूद कुत्ता दूर से ही भौंकने लगा. जिस पर गुड्डा ठाकुर बिस्तर से उठा और चड्ढीबनियान में ही जंगल की ओर भाग गया.जब पुलिस झोपड़ी में पहुंची तो चूल्हे की आग गरम थी. बिस्तर बिछा हुआ था. उस के कपड़े और जूते रखे थे. झोपड़ी में पुलिस को गुड्डा ठाकुर की बैंक पासबुक और फोटो मिली.

23 अप्रैल, 2020 की शाम 5 बजे पुलिस को मुखबिर से सूचना मिली कि गुड््डा झोतेश्वर के मंदिर के पास घूम रहा है. एसआई अंजलि अग्निहोत्री ने पुलिस टीम के साथ जा कर झोतेश्वर मंदिर के आसपास के पूरे क्षेत्र की घेरेबंदी कर दी. लेकिन गुड्डा पुलिस से बच कर संकरे रास्तों से भाग गया. अंतत: उसे झोतेश्वर में हनुमान टेकरी मंदिर के पास से पकड़ लिया गया. थाना गोटेगांव ले जा कर उस से सख्ती से पूछताछ की गई तो उस ने पिपरिया लाठगांव निवासी मोहन और कुंजी यादव की हत्या करने का जुर्म कबूल कर लिया.
उस ने हत्या के पीछे की जो कहानी बताई, वह चौंकाने वाली थी. गुड्डा के पुलिस को दिए गए बयान के अनुसार हत्या का कारण दोस्ती में विश्वासघात था. मोहन ने उस की पत्नी रति से नाजायज संबंध बना रखे थे.

पिपरिया लाठगांव नरसिंहपुर जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूर है. हीरालाल का परिवार इसी गांव में किसानी करता है. हीरालाल के 2 बेटों में 30 साल के बड़े बेटे मोहन की शादी हो चुकी थी. उस के 2 बच्चे भी हैं.मोहन और कुंजी गुड्डा ठाकुर के अच्छे दोस्त थे. दोस्ती के चलते दोनों गुड्डा के घर आतेजाते थे. मोहन की नजर गुड्डा की खूबसूरत बीवी रति (परिवर्तित नाम) पर टिकी थी. तीखे नैननक्श और गठीले बदन की रति से मोहन हंसीमजाक कर लिया करता था.जब भी गुड्डा ठाकुर घर से बाहर रहता, मोहन उस के घर पहुंच जाता. हंसीमजाक का सिलसिला बढ़तेएक दिन मोहन ने रति से कहा, ‘‘रति भाभी, तुम मुझे बहुत सुंदर लगती हो, जी चाहता है कि तुम पर मैं अपना सब कुछ लुटा दूं.’’
रति भी मोहन को मन ही मन चाहने लगी थी. उस ने भी कह दिया, ‘‘तुम्हें रोका किस ने है.’’
रति की इस सहमति पर मोहन का दिल मचल गया. वह रति से बोला, ‘‘तो हुस्न के इस खजाने को लूटने का मजा कब मिलेगा?’’

रति मानो प्यासी बैठी थी. उस ने कह दिया, ‘‘रात में तुम्हारा दोस्त गन्ने के खेत में पानी देने जाता है, तभी घर आ जाना.’’तमाम लोग क्षणिक दैहिक सुख के लिए अंधे हो जाते हैं. उन्हें न समाज में बदनामी का डर रहता है और न ही अपने बीवीबच्चों की फिक्र. मोहन भी रति से शारीरिक संबंध बनाने के लिए कोई भी हद पार करने तैयार था. रति की सहमति मिलते ही मोहन के मन की मुराद पूरी हो गई.
रात में जब गुड्डा खेत पर गया था, मौका पा कर मोहन रति के पास पहुंच गया. निगरानी के लिए उस ने गुड्डा के घर के बाहर कुंजी को खड़ा कर दिया था. रति भी जैसे उसी के इंतजार में मूड बनाए बैठी थी.
मोहन के आते ही उस ने घर का दरवाजा बंद किया और मोहन के सीने में सिमट गई. मोहन रति को बांहों में भरते हुए बोला, ‘‘आज तो मेरी प्यास बुझा दो रानी.’’

फिर दोनों पास पड़े बिस्तर पर लेट गए. दोनों के अंदर मचल रहा वासना का तूफान तभी शांत हुआ, जब उन के जिस्मों की प्यास बुझ गई.मोहन और रति के नाजायज संबंधों का यह खेल परवान चढ़ने लगा. धीरेधीरे इस की चर्चा गांव के गलीमोहल्लों से हो कर रति के पति गुड्डा के कानों तक भी पहुंच गई थी.

नाजायज संबंधों की जानकारी होने पर गुड्डा ने मोहन को समझाने का प्रयास किया. मगर मोहन ने अपनी गलती मानने के बजाए उलटे गुड्डा की मर्दानगी का मजाक बनाना शुरू कर दिया. रति के मोहन से बने इन नाजायज संबंधों से पतिपत्नी के बीच आए दिन झगड़े और मारपीट होने लगी. इस के चलते करीब 2 महीने पहले रति अपने मायके गांव घरगवां चली गई.

गुड्डा अपनी घरगृहस्थी उजड़ने से परेशान रहने लगा. समाज में भी उस की बदनामी हो गई थी. गुड्डा का मन अब किसी काम में नहीं लगता था. उस के दिल में मोहन के प्रति इतनी नफरत भर गई थी कि उसे देखते ही उस का खून खौलने लगा था.
उस के दिमाग में बारबार यही खयाल आता था कि मोहन की वजह से उस की पत्नी उसे छोड़ कर चली गई. वह मोहन को अपने रास्ते से हटाने के बारे में सोचता रहता था.

एक दिन गुड्डा ने अपनी यह योजना कुंजी यादव के घर जा कर बता दी. उस ने कुंजी के घर वालों से साफ शब्दों में कहा, ‘‘मोहन उस की बीवी पर बुरी नजर रखता था, इसलिए वह मोहन को जान से मारना चाहता है.’’ फिर उस ने कुंजी के पिता को समझाया, ‘‘तुम्हारे बेटे कुंजी ने अगर मोहन के साथ रहना नहीं छोड़ा तो उस की भी खैर नहीं.’’इस बात को ले कर कुंजी के घर वालों ने कुंजी को मोहन के साथ न रहने की हिदायत भी दी लेकिन कुंजी ने उन का कहना नहीं माना.

प्रतिशोध की आग में जल रहे गुड्डा ने निश्चय कर लिया था कि वह मोहन को मौत के घाट उतार कर ही दम लेगा. गुड्डा को यह तो पता था ही कि मोहन और कुंजी रोज खेतों पर जाते हैं. 21 अप्रैल की रात वह अपने खेत की टपरिया से मोहन और कुंजी पर नजर रख रहा था. फसल की मड़ाई पूरी होने के बाद जब दोनों खेत पर सो गए तो रात करीब 2 बजे वह कुल्हाड़ी ले कर उन के पास पहुंच गया. गहरी नींद सो रहे मोहन और कुंजी के सिर पर लगातार कई वार कर के गुड्डा ने उन्हें हमेशा के लिए गहरी नींद सुला दिया. कुंजी ने चेतावनी के बाद भी उस का कहा नहीं माना था. मोहन की हत्या का कोई सबूत और गवाह न मिल सके, इसलिए गुड्डा ने कुंजी की भी हत्या कर दी थी.

गुड्डा के बयानों के आधार पर मोहन विश्वकर्मा और कुंजी यादव की हत्या के आरोप में आईपीसी की धारा 302 के तहत मुकदमा दर्ज कर गुड्डा ठाकुर को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया गया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

नाजायज संबंधों का अकसर इसी तरह दुखद अंत होता है. इस मामले में भी शादीशुदा होने के बावजूद विश्वासघात कर के दोस्त की पत्नी से नाजायज संबंध रखने वाले मोहन और इन संबंधों में सहयोग करने वाले कुंजी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. पत्नी की बेवफाई से हुई बदनामी ने गुड्डा ठाकुर को दोहरी हत्या करने के लिए मजबूर कर दिया.

अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक-भाग 2: रवीना पति से क्यों परेशान थी

कुछ दिन तक तो उसे इन तथाकथित स्वामीजी की बेतुकी बातें, बेहूदी निगाहें व उपस्थिति ?ोलनी ही पड़ेंगी. स्वामीजी को सोफे पर बैठा कर नरेन जब कमरे में कपड़े बदलने गया तो वह पीछेपीछे चली आई. ‘नरेन, कौन हैं ये दोनों, कहां से पकड़ लाए हो इन को?’ ‘तमीज से बात करो, रवीना. ऐसे महान लोगों का अपमान करना तुम्हें शोभा नहीं देता.’ ‘लौटते हुए स्वामीजी के आश्रम में चला गया था. स्वामीजी की सेहत कुछ ठीक नहीं चल रही है, इसलिए पहाड़ी स्थान पर हवा बदलने के लिए आ गए. उन की सेवा में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए.’

यह सुन कर रवीना पसीनापसीना हो गई, ‘कुछ दिन का क्या मतलब है. तुम औफिस चले जाओगे, बच्चे स्कूल और मैं इन 2 मुस्टंडों के साथ घर पर अकेली रहूंगी? मु?ो डर लगता है ऐसे बाबाओं से. इन के रहने का बंदोबस्त कहीं घर से बाहर करो,’ रवीना गुस्से में बोली. ‘वे यहीं रहेंगे घर पर,’ नरेन रवीना के गुस्से को दरकिनार कर तैश में बोला, ‘औरतों की तो आदत ही होती है हर बात पर शिकायत करने की. मु?ा में दूसरा कोई व्यसन नहीं. तुम्हें मेरी ये सात्विक आदतें भी बरदाश्त नहीं होतीं. आखिर यह मेरा भी घर है.’ ‘घर तो मेरा भी है,’ रवीना तल्खी से बोली, ‘जब मैं तुम से बिना पूछे कुछ नहीं करती तो तुम क्यों करते हो?’ ‘ऐसा क्या कर दिया मैं ने?’ नरेन का क्रोधित स्वर ऊंचा होने लगा, ‘हर बात पर तुम्हारी टोकाटाकी मु?ो पसंद नहीं.

जा कर स्वामीजी के लिए खानपान व स्वागतसत्कार का इंतजाम करो,’ कह कर नरेन बातचीत पर पूर्णविराम लगा बाहर निकल गया. रवीना के सामने कोई चारा नहीं था, वह किचन में चली गई. नरेन का दिमाग अनेक अंधविश्वासों व विषमताओं से भरा था. वह अकसर ही ऐसे लोगों के संपर्क में रहता और उन के बताए टोटके घर में आजमाता रहता, साथ ही घर में सब को ऐसा करने के लिए मजबूर करता. यह देख रवीना परेशान हो जाती. उसे अपने बच्चों को इन सब बातों से दूर रखने में मुश्किल हो रही थी. घर का नजारा तब और भी दर्शनीय हो जाता जब उस की सास उन के साथ रहने आती. सासुमां सुबह की दिनचर्या कर टीवी पर धार्मिक कार्यक्रम चलवा देतीं.

कई बार तो रोकतेरोकते भी रवीना की हंसी छूट जाती. ऐसे वक्तबेवक्त के आडंबर उसे उकता देते थे और जब माताजी मीलों दूर अमेरिका में बैठी अपनी बेटी की मुश्किल से पैदा हुई संतान की नजर यहां भारत में वीडियोकौल करते समय उतारतीं तो उस के लिए पचाना मुश्किल हो जाता. नरेन को शहर से कहीं बाहर जाना होता तो मंगलवार व शनिवार के दिन बिलकुल नहीं जाना चाहता. उस का कहना था कि ये दोनों दिन शुभ नहीं होते. बिल्ली का रास्ता काटना, चलते समय किसी का छींकना तो नरेन का मूड ही खराब कर देता. घर गंदा देख कर शाम को यदि वह गलती से ?ाड़ू हाथ में उठा लेती तो नरेन जमीनआसमान एक कर देता, ‘कब अक्ल आएगी तुम्हें, शाम को व रात को घर में ?ाड़ू नहीं लगाया जाता, अशुभ होता है.‘

वह सिर पीट लेती, ‘ऐसा करो नरेन, एक दिन बैठ कर शुभअशुभ की लिस्ट बना दो.’ शादी के बाद जब उस ने नरेन को सुबहशाम एकएक घंटे की लंबी पूजा करते देखा तो वह हैरान रह गई. इतनी कम उम्र से ही नरेन इतना अधिक धर्मभीरु कैसे और क्यों हो गया. वहीं, जब नरेन ने स्वामी व बाबाओं के चक्कर में आना शुरू कर दिया तो वह सतर्क हो गई. उस ने सारे साम, दाम, दंड, भेद अपनाए नरेन को बाबाओं के चंगुल से बाहर निकालने के लिए पर सफल न हो पाई और इन स्वामी सदानंद के चक्कर में तो वह नरेन को पिछले कुछ सालों से पूरी तरह से उल?ाते देख रही थी. अभी तक तो नरेन स्वयं जा कर स्वामीजी के निवास पर ही मिल आता था पर उसे नहीं मालूम था कि इस बार नरेन इन को सीधे घर ही ले आएगा. वह लेटी हुई मन ही मन स्वामीजी को जल्दी से जल्दी घर से भगाने की योजना बना रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.

‘लगता है बच्चे आ गए’ उस ने चैन की सांस ली. उस से घर में सहज नहीं रहा जा रहा था. उस ने उठ कर दरवाजा खोला. दोनों बच्चे शोर मचाते घर में घुस गए. थोड़ी देर के लिए वह सबकुछ भूल गई. शाम को नरेन औफिस से लगभग 7 बजे घर आया. वह चाय बनाने किचन में चली गई, तभी नरेन भी किचन में आ गया और पूछने लगा, ‘‘स्वामीजी को चाय दे दी थी?’’ ‘‘किसी ने कहा ही नहीं चाय बनाने के लिए. फिर स्वामी लोग चाय भी पीते हैं क्या?’’ वह व्यंग्य से बोली. ‘‘पूछ तो लेती, न कहते तो कुछ अनार, मौसमी वगैरह का जूस निकाल कर दे देती.’’ रवीना का दिल किया फट जाए पर खुद पर काबू रख वह बोली, ‘‘मैं ऊपर जा कर कुछ नहीं पूछूंगी नरेन. नीचे आ कर कोई बता देगा तो ठीक है.’’ नरेन बिना जवाब दिए भन्नाता हुआ ऊपर चला गया और 5 मिनट में नीचे आ गया, ‘‘कुछ फलाहार का प्रबंध कर दो.’’ ‘‘फलाहार? घर में तो सिर्फ एक सेब है और 2 ही संतरे हैं. वही ले जाओ.’’ ‘‘तुम भी न रवीना, पता है, स्वामीजी घर में हैं. सुबह से ला नहीं सकतीं थीं?’’

‘‘क्या तुम्हारे स्वामीजी को ताले में बंद कर के चली जाती. तुम्हारे स्वामीजी हैं, तुम्हीं जानो. फल लाओ, जल लाओ. चाहते हो उन को खाना मिल जाए तो मु?ो मत भड़काओ.’’ नरेन प्लेट में छुरी व सेब, संतरा रख उसे घूरता हुआ चला गया. ‘‘अपनी चाय तो लेते जाओ,’’ रवीना पीछे से आवाज देती रह गई. उस ने बेटे के हाथ चाय ऊपर भेज दी और रात के खाने की तैयारी में जुट गई. थोड़ी देर में नरेन नीचे उतरा. ‘‘रवीना, खाना लगा दो. स्वामीजी का भी और तुम व बच्चे भी खा लो.’’ वह प्रसन्नचित्त मुद्रा में बोला, ‘‘खाने के बाद स्वामीजी के मधुर वचन सुनने को मिलेंगे. तुम ने कभी उन के प्रवचन नहीं सुने हैं न, इसलिए तुम्हें श्रद्धा नहीं है. आज सुनो और देखो, तुम खुद सम?ा जाओगी कि स्वामीजी कितने ज्ञानी, ध्यानी व पहुंचे हुए हैं.’’ ‘हां, पहुंचे हुए तो लगते हैं,’ रवीना होंठों ही होंठों में बुदबुदाई. उस ने थालियों में खाना लगाया. नरेन दोनों का खाना ऊपर ले गया. इतनी देर में रवीना ने बच्चों को फटाफट खाना खिला कर सुला दिया और उन के कमरे की लाइट भी बंद कर दी.

स्वामीजी का खाना खत्म हुआ तो नरेन उन की छलकती थाली नीचे ले आया. रवीना ने अपना व नरेन का खाना भी लगा दिया. खाना खा कर नरेन स्वामीजी को देखने ऊपर चला गया. इतनी देर में रवीना किचन को जल्दीजल्दी समेट कर चादर मुंह तक तान कर सो गई. थोड़ी देर में नरेन उसे बुलाने आ गया. ‘‘रवीना, चलो तुम्हें व बच्चों को स्वामीजी बुला रहे हैं.’’ पहले तो रवीना ने सुनाअनसुना कर दिया लेकिन जब नरेन ने ?िं?ाड़ कर जगाया तो वह उठ बैठी, ‘‘नरेन, बच्चों को तो छेड़ना भी मत. बच्चों को सुबह स्कूल जाना है और मेरे सिर में दर्द हो रहा है. स्वामीजी के प्रवचन सुनने में मेरी वैसे भी कोई रुचि नहीं है. तुम्हें है, तुम्हीं सुन लो.’’ वह पलट कर चादर तान कर फिर सो गई. नरेन गुस्से में दांत पीसता हुआ चला गया. स्वामीजी को रहते हुए एक हफ्ता हो गया था. रवीना को एकएक दिन बिताना भारी पड़ रहा था. वह सम?ा नहीं पा रही थी, कैसे मोह भंग करे नरेन का. रवीना का दिल करता, कहे कि स्वामीजी अगर इतने महान हैं तो जाएं किसी गरीब के घर.

Diwali Special : घर पर बनाएं इतनी आसान तरीके से कलाकंद

कई बार आपको घर का बना हुआ डेजर्ट खाने का मन करता है ऐसे में आपको समझ नहीं आता कि क्या बनाएं तो आपको बताने जा रहे हैं कलाकंद बनाने की रेसिपी

समाग्री

पूर्ण क्रीम दूध – 1.5 लीटर
स्पष्ट मक्खन – 1.5 चम्मच
फिटकरी- कुचल- 1/4 चम्मच
पिस्ता कटा हुआ- 1 बड़ा चमचा
चीनी- 3 चम्मच

-एक मोटे तले वाले पैन में दूध उबालें. आंच को धीमा कर दें और लगभग 15 मिनट तक उबलने दें. समय-समय पर दूध को  हिलाते रहें ताकि वह पैन से न चिपके.

-दूध में फिटकरी मिला कर मिलाएं. दूध को तब तक हिलाते रहें जब तक वह दानेदार न हो जाए और दूध को तब तक पकाएं जब तक वह एक ठोस में न बदल जाए.

– गाढ़े दूध में चीनी डालकर अच्छी तरह मिलाएं. एक और 5 मिनट तक लगातार हिलाते रहें. मक्खन के साथ एक ट्रे ले लो. ट्रे में गाढ़ा दूध का मिश्रण डालें और सतह को चिकना करें. ऊपर से कटा हुआ पिस्ता छिड़कें.

-ट्रे को एक तरफ रखें और 2 घंटे के लिए सूखी जगह पर कलाखंड को ठंडा करें और इसे ठीक से सेट होने दें. सेट होने के बाद 1 इंच के चौकोर टुकड़ों में काट लें.  मीठा खाने और खाने के लिए तैयार है.

Diwali 2022 : आत्मविश्वास के उजाले में मनाएं रोशनी का पर्व

पर्वउत्सवों का भारतीय जनजीवन में बड़ा महत्त्व है. त्योहार हमारे जीवन को खुशियों से भर देते हैं, वर्षभर की खुशियों को एंजौय करने का अवसर देते हैं और वर्षभर के दुखों को भुलाने को प्रेरित करते हैं. जीवन में नया जोश, नया आत्मविश्वास, नया उत्साह देने वाले सब से बड़े त्योहार दीवाली की तैयारियां काफी दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं.

दीवाली अंधेरे से रोशनी में जाने का प्रतीक मानी जाती है. हम भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है, झूठ का नाश होता है. इसीलिए दीवाली को रामायण की एक दंतकथा से जोड़ दिया गया. हिंदुओं का विश्वास है कि इस दिन अयोध्या के राजा राम लंका के राजा रावण का वध कर के लौटे थे तो उन के स्वागत की खुशी में घी के दीये जलाए गए थे. इसलिए यह त्योहार मनाया जाता है.

इधर, कृष्णभक्तों का कहना है कि इस दिन कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था. इस नृशंस राक्षस के वध से जनता को अपार हर्ष हुआ और लोगों ने खुशी से घी के दीपक जलाए. लेकिन प्राचीन साहित्य में इस पर्व को मनाए जाने का कारण इन में से कोई भी नहीं मिलता. इस त्योहार को मनाने के पीछे नई फसल के आगमन का वर्णन जरूर मिलता है.

अफसोस है कि इस पर्व का रूप परिवर्तित हो चुका है. रोशनी का यह पर्व घोर अंधकार को भी साथ ढोता चल रहा है. असल में दीवाली के पर्व में अंधविश्वास का अंधेरा भर दिया गया है. धर्म के व्यापारियों ने खुशियों के इस पर्व को धार्मिक ढोंगढकोसलों से जोड़ दिया है ताकि उन की अंधी कमाई होती रहे और मुफ्तखोरों, तिलकधारियों के लिए हलवापूरी का इंतजाम बना रहे. उस में कोई व्यवधान न आए, इस के लिए बाद के धार्मिक साहित्य में कई भय व अंधविश्वास भी खड़े कर दिए गए और साथ में सुखसमृद्धि का लालच भी दिया गया.

लक्ष्मी को इस पर्व की अधिष्ठात्री देवी बता कर उसे प्रसन्न करने के लिए तरहतरह के उपाय भी सुझा दिए गए. प्रचारित किया गया कि लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए उस की पूजा आवश्यक है. उसे प्रसन्न करने के लिए कई तरह के विधिविधान बना दिए गए. कहा गया कि इस की प्रसन्नता से ही धन की प्राप्ति होगी. दीवाली के अवसर पर पुजारी इसीलिए एक घर से दूसरे घर भागते हैं ताकि सारे जजमानों से वसूली की जा सके. कर्म, पुरुषार्थ के सहारे समृद्धि पाने की प्रेरणा देने वाले इस पर्व पर वे लक्ष्मी की प्रसन्नता के उपाय, दान के मार्ग बता कर लोगों को गुमराह करते हैं, उन्हें अंधकार की ओर ले जाते हैं.

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात अंधेरे से ज्योति (प्रकाश) की ओर जाइए, के बजाय समाज अंधेरे से और अंधेरे की तरफ जा कर समृद्धि तलाश रहा है जबकि दीवाली को अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व कहते हैं.

जगाएं आत्मविश्वास

दीवाली व्यक्तिगत व सामूहिक दोनों तरह से मनाए जाने वाला खास पर्व है जिस की अपनी सामाजिक व सांस्कृतिक विशिष्टता है. इस पर्व को व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर एंजौय करें. घर में, परिवार में उमंग का माहौल बनाएं. घर का कोनाकोना खुशियों से महकाएं. नए कपड़े पहनें. परिवार के लिए नई वस्तुओं की खरीदारी करें. मिठाइयों का उपहार एकदूसरे को भेंट करें. एकदूसरे से मिलें. आपसी गिलेशिकवे दूर करें. घरघर में सुंदर रंगोली बनाएं, दीये जलाएं, आतिशबाजी करें. वे खुशियां ही हैं जो आत्मविश्वास जगाती हैं.

इस पर्व पर सारी खुशियां समेट कर अपनों का साथ और प्यार पाएं. पकवानों का परिवार के साथ आनंद लें. दीवाली पर लगने वाले मेलों में जाएं.  कई पर्वों का समूह होने के कारण खूब धूम रहती है. आप सभी अंधविश्वास की कालिख को हटा कर इस आत्मविश्वास से भरे पर्व का आनंद लें. इस समय खुशियों से सराबोर लोग बाजारों में उमड़ पड़ते हैं. दुकानों पर विशेष साजसज्जा और भीड़ दिखाई देती है. प्रत्येक परिवार अपनी आवश्यकतानुसार कोई न कोई खरीदारी करता है.

दीवाली जीवन की रंगीनियों का पर्व है. इसे अंधविश्वासों के अंधेरों में मत खोइए. घर, परिवार, समाज व देश की खुशहाली का संकल्प लीजिए. इसी से प्रकाश आएगा, प्रगति आएगी. धर्म ने आज जीवन के हर हिस्से पर अपनी जकड़न बना ली है. इस ने जन्म, विवाह, त्योहार, मनोरंजन, मरण आदि हर जगह जबरन अवैध कब्जा कर लिया है.

धर्म व धर्म के कारोबारियों ने उत्सवों की खुशियों पर भी फुजूल के कर्मकांड व अंधविश्वासों का खौफ पैदा कर दिया है. कुछ पाने का लालच लोगों के मनमस्तिष्क में भर दिया गया है. आप को पता ही नहीं चलता कि किस कदर धर्म के कारोबारियों ने आप के दिलोदिमाग में घुसपैठ कर ली है.

उत्सवों पर हावी अंधविश्वासों से दूर होइए. बदलते वक्त के साथ आज समस्याएं और मान्यताएं बदल रही हैं. ऐेसे में दीवाली जैसे त्योहार के स्वरूप को नियंत्रित करना भी आवश्यक हो गया है. फुजूल कर्मकांडों के साथसाथ त्योहारों पर अपव्यय और दिखावा बढ़ गया है. प्रेम, मिलन, भाईचारे की जगह आगे दिखने की होड़ पीछे की ओर ले जा रही है. अधिकतर मध्यवर्गीय लोगों का वेतन निश्चित होता है और आमदनी थोड़ी होती है. लेकिन परंपरा में बंधे होने के चलते दीवाली के मौके पर चादर से बाहर पैर फैला लेने के कारण उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

नई शुरुआत करें

दीवाली पर हर घर की मुंडेर पर जगमगाते दीये निरंतर अंधकार से प्रकाश व जड़ता से प्रगति की ओर बढ़ने का संदेश देते हैं. इसी माने में दीवाली प्रकाशोत्सव है. यह संपूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति है. इस दिन नए खाते खोले जाते हैं. घरबाहर की

साफसफाई की जाती है लेकिन केवल घरदुकान की जबकि आवश्यकता है मन की सफाई की, मनुष्य की आंतरिक चेतना को जगाने की, ताकि भारतीय जनजीवन की ऊर्जा व उल्लास को अभिव्यक्त करने वाला यह आलोक पर्व वास्तव में प्रगति और विकास का संदेश दे सके.

आज भी ऐसे लोग हैं जो तर्क और बुद्धि को छोड़ कर लकीर के फकीर बने भाग्यवाद, अंधविश्वासों और आडंबरों की लकीर पीट रहे हैं और पुरुषार्थ पर भरोसा करने के बजाय दिवास्वप्नों में भटक रहे हैं. अफसोस की बात तो यह है कि गांवकसबों के अनपढ़ लोग ही नहीं, खुद को मौडर्न और अपडेटेड कहने वाले सभ्य लोग भी व्यर्थ के कर्मकांडों और अंधविश्वासों में डूबे हैं.

दीवाली के दिन हर घर में जलने वाले दीये की रोशनी का उद्देश्य मन में छिपे व्यर्थ के अंधविश्वासों और आडंबरों को दूर करना है जबकि व्यर्थ की पूजापाठ व पंडेपुजारियों के चक्कर में पड़ कर लोग मेहनत व ईमानदारी के बजाय ऐसे काम करते हैं जो उन्हें भाग्यवादी तथा मन से निकम्मा और अकर्मण्य बना देते हैं. अंधविश्वास व आडंबर हमें भीतर से कमजोर बनाते हैं तथा हमारे संकल्प को खोखला करते रहते हैं. जो लोग साल के दूसरे दिनों में जुआ नहीं खेलते वे भी इस दिन रीति, परंपरा व अंधविश्वासों की लकीर पीटते हुए जुआ खेलते हैं और यह सब धर्म की आड़ में होता है.

इस दीवाली प्रण कीजिए कि आप अंधविश्वासों और आडंबरों के बजाय समाज की प्रगति में निवेश करेंगे, खुद को नए विचारों की रोशनी में देखेंगे और घरबाहर की सफाई के साथसाथ मन को भी विवेक के सहारे जाग्रत करेंगे तभी हर ओर धनधान्य और खुशहाली के दीये जलेंगे और तब दीवाली एक सच्चे आलोक पर्व का रूप लेगी.

मिलजुल कर मनाएं दीवाली

आज के अति व्यस्त दौर में यदि प्रकाशोत्सव को पड़ोसियों के साथ मिलजुल कर मनाया जाए तो आसपास के वातावरण के साथसाथ दिल भी रोशन हो जाते हैं. यदि समाज से कटुता और वैमनस्य को खत्म करना है तो दीवाली की खुशियां पड़ोसी के साथ भी बांटें. कई बार किसी पड़ोसी की मजबूरी हो सकती है कि वह निसंतान हो या उन के बच्चे उन से दूर शिक्षा, नौकरी आदि के कारण दूसरे शहरों में हों. ऐसे में आप का कर्तव्य बनता है कि ऐसे पड़ोसियों को अपनी खुशियों में शामिल करें और इस दीवाली उन के चेहरों पर खुशियों की रोशनी चमकाएं.

अमावस्या के अंधकार में अंधेरे से रोशनी की तरफ जाने का संदेश देता दीवाली का त्योहार जहां सत्य की विजय का संदेश देता है वहीं जीवन में जीने का उत्साह और उल्लास का रंग भरने का अवसर भी देता है. दीवाली फुजूल व्यय का रूप धारण कर चुकी है. मध्यवर्गीय भारतीय समाज के लिए त्योहारों पर अपव्यय करना अभिशाप के समान है. परिवार की त्योहारी मांगों के आगे कमाऊ त्योहार के नाम पर कतराने लगते हैं. वास्तविक खुशियों की जगह त्योहार औपचारिक पर्व न बन जाएं, इसलिए ऐसे पर्वों के प्रति अतिभावुकता व आस्था को त्याग कर खुशियों को तरजीह दें. दीयों के उत्सव को अंधविश्वास के अंधेरे में नहीं, आत्मविश्वास के उजाले में मनाएं.

कुछ प्रचलित धारणाएं बनाम अंधविश्वास

  1. कहा जाता है कि इस दिन विष्णु ने राजा बलि को पाताललोक का स्वामी बनाया था और इंद्र ने स्वर्ग को सुरक्षित जान कर प्रसन्नतापूर्वक दीवाली मनाई थी.
  2. इसी दिन समुद्रमंथन के समय क्षीरसागर से लक्ष्मी प्रकट हुई थीं और विष्णु को अपना पति स्वीकार किया था.
  3. इस दिन जब राम लंका से वापस आए तो उन का राज्यारोहण किया गया था. इसी खुशी में अयोध्यावासियों ने घरों में दीपक जलाए थे.
  4. इसी समय कृषकों के घर में नवीन अन्न आते हैं, जिस की खुशी में दीपक जलाए जाते हैं.
  5. इसी दिन गुप्तवंशीय राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने ‘विक्रम संवत’ की स्थापना की थी. धर्म, गणित तथा ज्योतिष के दिग्गज विद्वानों को आमंत्रित कर यह मुहूर्त निकलवाया कि नया संवत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मनाया जाए.
  6. इसी दिन आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती का निर्वाण हुआ था.
  7. कार्तिक वदी अमावस्या के दिन सिखों के छठे गुरु हरगोविंद सिंह बादशाह जहांगीर की कैद से मुक्त हो कर अमृतसर वापस लौटे थे.
  8. 500 ईसापूर्व की मोहनजोदड़ो सभ्यता के पास अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार, उस समय भी दीवाली मनाई जाती थी. उस मूर्ति में मातृदेवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं.

भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं दलबदलू

दलबदल के इस जमाने में पंजाब में आम आदमी पार्टी ने अपने ठुलमुल मुख्यमंत्री भगवत ङ्क्षसह मान की सरकार को बचाए रखा है और अपने सारे विधायकों को. हाल में हुई विधानसभा की वोङ्क्षटग में उस के सारे विधायक गिनती में पूरे धर गए.

यह अजूबा है. भाजपा आजकल सेंध मारने को सरकार का मुख्य फर्ज मानकर चल रही है और गृहमंत्री अमित शाह हर रोज दूसरी पाॢटयों के आफर मिलने वाले विधायकों का सम्मान करते नजर आते हैं, लगभग हर पार्टी में तोडफ़ोड़ करने की कोशिश की जा रही है और लगातार यही एक काम है जो सरकार सही ढंग से कर रही है.

दलबदल असल में भारत के रगरग में पौराणिक कहानियों में आया है. हमारे यहां सदियों तक पढ़ाईलिखाई के नाम पर पुराणों, महाभारत, रामायण की कहानियां कही जाती रही हैं. इन में हर मजेदार कहानी की तरह पाला बदलने वाले भी होते रहे हैं जो कभी एक तरफ होते थे तो कभी दूसरी तरफ.

आज जब सच को परखने का विज्ञान और तकनीक हमारे हाथ में आ गई है और देशों का काम पाले बदलने वालों से नहीं, अपने स्टैंड पर जमा रहने वालों से चलता है, हमारे यहां रातदिन इन्हीं कहानियों को दोहराया जाता है. नई शिक्षा नीति में बारबार यही कहा गया है कि पौराणिक बातें पढ़ाने में चूक न हो. इस युग में लगता है देवीदेवता तभी अपना मकसद पूरा कर पाते थे जब वे किसी को दूसरे पाले से फोड़ लें चाहे वे अमृत मंथन में दस्यु हो या विभीषण हो या जयचंद.

भारतीय जनता पार्टी की कई राज्यों की सरकारें दलबदलूओं पर बनी हैं. कम वोट और सीटें जीत कर भी वे सत्ता में है क्योंकि उन्होंने सामदामदंडभेद का इस्तेमाल किया. पंजाब में यह नहीं हो पा रहा, यह अजब है. अरङ्क्षवद केजीवाल की आम आदमी पार्टी में ऐसे तो कोई गुण नहीं है कि उन के विधायक भाजपा की धमकियों और लालच के दोहरे वार बारबार सहते रहें.

आम आदमी पार्टी की अब तक की सफलता यही है कि जो इस के टिकट पर जीतता है वह इतना पक्का जरूर है कि भाजपा के झांसे में नहीं आ रहा. आम आदमी पार्टी कुछ और चाहे न कर पाए कम से कम अपनी मेजों को संभाल कर रख सकती है. कांग्रेस की सब से बड़ी कमजोरी यह है कि उसे अब बेड़ा बेदी नहीं समझ आ रही. उस के नेता जरा सी धमकी से डर जाते है, जरा से पैसों में बिक जाते हैं. जनता अभी भी पार्टी को पसंद करती है पर कांग्रेस के छोटे से बड़े नेता ऐसे हैं जो हर दम खरीदने वालों के लाल गलीचा बिछाए रखते हैं. यह काम सांसदों से ले कर पंचायतों तक चलता है क्योंकि बिक जाना कांग्रेसी नेताओं का एक गुन बन गया है.

देश को यदि अच्छी सरकार चाहिए तो वह तभी मिलेगी जब अपनी जमीन पर टिकने वाले नेता उस में जाएं. बिकाऊ नेताओं के बल पर देश का भला नहीं हो सकता. क्योकि नई पार्टी में खरीदे जाने पर भी वे भाड़े के नेता ही बने रहेंगे और उन से देश का कोर्ई काम हो ही नहीं सकता.

प्रतीक्षा-भाग 2 : नंदिता के बीमारी के दौरान राजेंद्र ने क्या सहयोग दिया

जब ये सारे तर्क मेरे मस्तिष्क में उभरते तो मु?ो लगता यह मेरी ही भूल है. राजेंद्र और नंदिता की प्रगाढ़ता एक स्वाभाविक मानवीय व्यवहार ही है. मैं उस संदेह को भुला देता था. आज औपरेशन था. एक अज्ञात भय, अज्ञात अनहोनी और आशंका के बीच मैं औपरेशन कक्ष के सामने चहलकदमी करता रहा. राजेंद्र भी साथ था. उस की मौजूदगी से मु?ो बल मिला. साढ़े 5 घंटे बाद जब नंदिता बाहर आई तो मैं ने लपक कर पूछा, ‘‘कैसी हो नंदिता?’’ मेरे स्वर में बेचैनी थी. ‘‘ठीक हूं,’’ दर्दभरे शब्दों में उत्तर मिला. मेरे पीछे खड़े राजेंद्र ने मुसकरा कर हाथ हिलाया.

नंदिता ने उसे भरपूर नजर देखा और फिर दर्द के कारण आंखें बंद कर लीं. तभी राजेंद्र मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘‘भाईसाहब, धैर्य रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’’ उस के सांत्वना के इन शब्दों से मु?ा में जैसे साहस का पुनर्संचार हुआ. आज नंदिता को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी. मैं बहुत खुश था. उल्लास से भरा था कि अब नंदिता रोगमुक्त हो चुकी है. जाने से पहले मैं डाक्टर से मिलने गया तो डाक्टर ने कहा, ‘‘माधवेशजी, बायोप्सी जांच की रिपोर्ट आ गई है और बहुत ही अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि ‘ट्यूमर’ कैंसरयुक्त है. सो, इस औपरेशन से कुछ दिनों का फायदा तो होगा किंतु रोग से स्थायी मुक्ति संभव नहीं है.’’ यह सुन कर तो मैं ठगा सा रह गया.

सारी खुशी, सारा उल्लास पलक ?ापकते ही एक आघात और विषाद में बदल गया. साथ में राजेंद्र भी था. उस ने मु?ो संभाला. हम तीनों घर पहुंचे. मैं निष्प्राण सा एक कुरसी पर जा गिरा. राजेंद्र ने ही नंदिता को सहारा दिया. उसे बिस्तर पर लिटाया. पास ही मेज पर उस की दवाइयां रख दीं. नंदिता को सहारा दे कर उस के सिर के पीछे तकिया लगा दिया. मैं मूकदर्शक सब देखता रहा. मेरी आंखों के सामने एक अपरिचित व्यक्ति मेरी पत्नी को स्पर्श कर रहा था और मैं चुपचाप देख रहा था. मु?ो गुस्सा नहीं आया, घृणा नहीं हुई, न ही दिमाग में कोई ईर्ष्या उपजी. ऐसा क्यों हुआ. मु?ो प्रतीत हुआ कि यह मेरी अपनी दुर्बलता थी जिस से राजेंद्र नंदिता को स्पर्श कर सकने की सीमा तक बढ़ गया, किंतु नंदिता को तो इस स्पर्श से बचना चाहिए था. इस अंतरंगता से राजेंद्र को दूर रखना चाहिए था.

कम से कम नंदिता मु?ो बुला ही लेती जबकि मैं सामने ही बैठा था. कुल मिला कर यह बात मु?ो ठीक नहीं लगी. न जाने क्यों, यह छोटी सी बात एक संदेह के रूप में मु?ा में घर कर गई. खैर, संभव हो यह सबकुछ परिस्थितिजन्य हो, यह मान कर मैं ने इस बात को भूलने का प्रयास किया. उपचार के दूसरे चरण में नंदिता की रेडियोथेरैपी की जानी थी. मैं ने नंदिता को भुलवा दिया कि गांठ दोबारा न उभरे, इसलिए रेडियोथेरैपी की जरूरत है. इस दौरान राजेंद्र बहुधा उपलब्ध ही रहता. न जाने क्यों, धीरेधीरे उस पर मेरी निर्भरता बढ़ती गई और आशा घटती गई. मैं बातबात पर अब ?ाल्लाने लगता. एक हफ्ते में लगातार 5 दिन रेडियोथेरैपी की जाती थी.

ज्यों ही नंदिता को ले कर अस्पताल के लिए निकलता, मैं बेचैन होने लगता था. मैं जान गया था कि मृत्यु ही अब नंदिता को इस रोग से मुक्ति दिला सकती है. यही भय, यही निराशा मु?ो अस्पताल जाने से रोकती. शुरू के 3-4 दिन मैं नंदिता के साथ गया किंतु फिर न जाने क्यों, मैं ने यह दायित्व राजेंद्र को सौंप दिया. वह एक अद्भुत अपनत्वभरे भाव से नंदिता की सेवा में लगा रहता. मैं ने महसूस किया कि राजेंद्र नंदिता का ज्यादा से ज्यादा सामीप्य चाहने लगा था. उस की इस चाह के पीछे क्या कारण हो सकता था, यह तो मैं नहीं भांप पाया किंतु यह निश्चित था कि जिस तन्मयता, तत्परता और समर्पण की भावना से वह नंदिता की सेवा में लगा था, वह मात्र परिस्थितिजन्य नहीं हो सकता था.

फिर नंदिता ने भी कभी ऐसा संकेत नहीं दिया कि राजेंद्र का इस सीमा तक हस्तक्षेप उसे स्वीकार नहीं बल्कि मैं ने यह महसूस किया कि राजेंद्र की मौजूदगी से वह खुश रहती थी. गाहेबगाहे मैं इस बारे में गंभीरता से सोचता भी, लेकिन संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सका. रेडियोथेरैपी पूरी हुई. नंदिता का स्वास्थ्य फिर से डगमगाने लगा. डाक्टर ने कीमोथेरैपी का परामर्श दिया. मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी. मु?ा में साहस नहीं था कि मैं नंदिता को कीमोथेरैपी के लिए तैयार करूं. ऐसी परिस्थिति में मैं ने राजेंद्र से राय ली तो वह बोला, ‘‘क्या कीमोथेरैपी से फायदा होने की संभावना है?’’ ‘‘शायद,’’ कहते हुए मैं कमरे से बाहर आ गया. रूमाल से आंखें पोंछीं. मेरे पीछेपीछे राजेंद्र भी आया. ‘‘अब क्या होगा?’’ राजेंद्र बोला. उस का स्वर भर्राया हुआ था. आंखें नम थीं. चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

मैं अपनी पीड़ा भूल गया. ‘‘तुम क्यों विचलित हो राजेंद्र? तुम ने ही तो नंदिता के जीवन में बहुमूल्य 8 महीने जोड़े वरना मैं न जाने कब का उसे खो चुका होता,’’ मैं ने उसे सम?ाने का प्रयास किया पर वह रुका नहीं. अपने भीगे नेत्रों को मु?ा से छिपाता हुआ तेजी से बाहर निकल गया. इस तरह से उस का भावविह्वल हो उठना, मेरे मन में फिर संदेह पैदा कर गया. उस के जाने के बाद घर में मरघट सी शांति छा गई थी. मैं ने कीमोथेरैपी का विचार त्याग दिया कि जब मृत्यु निश्चित है तो शरीर को पीड़ा पहुंचाने से क्या फायदा. उधर जब 4-5 दिन तक राजेंद्र नहीं आया तो मन में कई तरह के विचार उठने लगे. कभी सोचता, चलो, अच्छा हुआ, स्वयं ही चला गया.

फिर सोचता, राजेंद्र के रहने से कम से कम नंदिता खुश तो रहती थी. करीब 10 दिनों बाद अचानक ही राजेंद्र एक दिन आ गया. ‘‘कहां चले गए थे?’’ मैं ने आते ही पूछा. ‘‘नंदिता कैसी है?’’ उस ने मु?ा से ही प्रश्न पूछ डाला. ‘‘जाओ, स्वयं ही मिल लो,’’ मैं ने नंदिता के कमरे की ओर इशारा किया. राजेंद्र अंदर गया और मैं कमरे के बाहर छिप कर उन दोनों की बातें सुनने लगा. ‘‘अकेले नहीं रह सके न, क्यों?’’ नंदिता कह रही थी, जिसे सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया था. ‘‘क्या चंदन से सुगंध को अलग किया जा सकता है कभी?’’ यह रहस्यमय प्रत्युत्तर राजेंद्र का था, ‘‘खैर, बताओ, तुम कैसी हो?’’ ‘‘जैसी देख रहे हो. मेरे पति और तुम मु?ा से जरूर कुछ छिपा रहे हो,’’ नंदिता ने पूछा. ‘‘कैसी बातें करती हो? तुम्हारे पति तुम्हें कितना चाहते हैं. इस का शायद तुम्हें आभास नहीं.

तुम्हारे उपचार के लिए क्या नहीं कर रहे हैं वे पर जब बीमारी ही ठीक न होने वाली हो तो कोई भी…’’ कहता हुआ राजेंद्र अचानक चुप हो गया. वह भयानक गलती कर चुका था. जो अब तक एक भेद था, उसे उस की ही भावुकता ने खोल दिया. ‘‘मैं तो जानती थी कि सिरदर्द है, उपचार के बाद ठीक हो जाएगा. कौन सी बीमारी है मु?ो?’’ मगर राजेंद्र चुप रहा तो नंदिता फिर बोली, ‘‘तुम बताते क्यों नहीं?’’ इस बार नंदिता की आवाज तेज थी. शायद वह घबरा गई थी. राजेंद्र फिर भी चुप रहा. ‘‘राजेंद्र, तुम चुप क्यों हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? कुछ बताते क्यों नहीं?’’ इस बार नंदिता लगभग चीख पड़ी थी. मु?ो लगा कि मेरा वहां पहुंचना ही ठीक होगा. मैं ने कुछ भी न देखनेसुनने का अभिनय करते हुए प्रवेश किया. ‘‘क्या बात है, नंदिता?’’ मैं बोला. ‘‘राजेंद्र कहता है कि मु?ो ठीक न होने वाली बीमारी है.

आप ने अब तक बताया नहीं मु?ो,’’ नंदिता आवेश में थी पर जिस अपनत्व से उस ने राजेंद्र का नाम लिया था उस से लगा कि उस पर उस का बहुत ही गहरा अधिकार है. ‘‘राजेंद्र को पूरी बात मालूम नहीं है. तुम इस हालत में ज्यादा दिनों तक नहीं रहोगी,’’ मैं ने स्थिति को संभालने का प्रयास करते हुए कहा. ‘‘मर जाऊंगी, यही कहना चाहते हैं आप. मैं जी ही कब रही थी. अब तक का मेरा पूरा जीवन विवशताओं और वेदनाओं के चक्रव्यूह में फंसा रहा लेकिन स्वेच्छा और स्वतंत्रता से मरने का अधिकार तो मत छीनिए,’’ कहती हुई नंदिता अब पूरी तरह असंतुलित हो चुकी थी. मैं सम?ा नहीं पा रहा था क्या कहूं.

Diwali 2022 : हैंडमेड उपहार से बांटें अपनों में प्यार

दीवाली हो और अपनों से उपहारों का लेनदेन न हो, ऐसा भला कैसे हो सकता है. इस बार अपनों को दीजिए अपने हाथों से बने उपहार और जीत लीजिए उन का मन ताकि पाएं त्योहार की असली खुशी.

दीवाली गिफ्ट्स की आसमान छूती कीमतों ने आम आदमी को जेब टटोलने पर मजबूर कर दिया है. कुछ लोग लिस्ट से अपने मित्रों और रिश्तेदारों की छंटनी कर रहे हैं तो कुछ लोगों ने मन मसोस कर इस बार गिफ्ट न देने का निर्णय कर लिया है. लेकिन ऐसा किसी किताब में तो नहीं लिखा कि तोहफे खरीद कर ही दिए जाएं. आप इस दीवाली अपने प्रियजनों को हैंडमेड तोहफे दे कर भी खुशियां बांट सकते हैं.

होममेड मिठाई

दीवाली का पर्व हो और मिठाइयों का जिक्र्र  न हो, ऐसा नहीं हो सकता. इस दीवाली आप घर पर ही मिठाई बना कर अपनों को भेंट करें. घर में बनी मिठाइयां हाईजिनिक होने के साथसाथ स्वास्थ्यवर्धक भी होती हैं. इस तरह आप अपने रिश्तेदारों और मित्रों को दीवाली पर स्वस्थ रहने का तोहफा दे सकते हैं. मिठाइयों में गुझिया, नारियल की बर्फी, बेसन के लड्डू, मैसूर पाक, घीए की बर्फी के अलावा घर में और बहुत कुछ भी आसानी से बनाया जा सकता है.

डैकोरेटिव ड्राइफ्रूट्स पैक

दीवाली में एकदूसरे को ड्राइफ्रूट्स पैक देने का भी बहुत चलन है. मार्केट में मिलने वाले डिजाइनर ड्राइफ्रूट्स पैक्स बहुत महंगे होते हैं. आप अपने मित्रों को ड्राइफ्रूट्स ही देना चाहते हैं तो बाजार से ड्राइफ्रूट्स ला कर घर में ही उसे आकर्षक टोकरियों और ट्रे में पैक कर गिफ्ट करें.

डिजाइनर मोमबत्तियां व दीए

प्रकाश के इस त्योहार को अगर आप अपने प्यार से जगमगाना चाहते हैं तो इस बार अपने मित्रों को कैंडल्स और दीए उपहारस्वरूप दें. बाजार से थोक में दीए और कैंडल्स ला कर उन्हें डैकोरेटिव सामान से सजा लें और पैकेट में 6 से10 पीस रख कर भेंट करें. इस से आप की भावनाओं के साथ ही आप की कलात्मकता का भी आप के मित्रों को अंदाजा हो जाएगा. आप को कैंडल मेकिंग आती है तो आप खुद से बनाए कैंडल्स भी अपने मित्रों को भेंट कर सकते हैं.

दीवाली पर घर के दरवाजे पर बंदनवार लगाने की पुरानी परंपरा है. पहले जहां आम के पत्तों के बंदनवार घरों में लगाए जाते थे अब वहीं मार्केट डिजाइनर बंदनवारों से पटा रहता है. कुछ लोग बंदनवार को तोहफे के रूप में अपने प्रियजनों को भेंट करते हैं. इस बंदनवार का रिश्ता तब और अटूट हो जाता है जब आप का स्नेह और अपनापन इस में मिल जाता है और ऐसा तब हो सकता है जब आप रेडीमेड की जगह हैंडमेड बंदनवार भेंट करें. इस के लिए बाजार से डैकोरेटिव सामग्री ला कर बंदनवार को तैयार करें.

क्रोशिया टेबल ऐंड चेयर पैड्स

कई महिलाएं क्रोशिया वर्क में ऐक्सपर्ट होती हैं. अगर आप भी हैं तो इसे भी तोहफे के विकल्प में चुन सकती हैं. दीवाली में हर कोई नए कपड़े पहनने के साथ ही नई बैडशीट बिछाता है या फिर नए टेबल और चेयर पैड्स से घर सजाता है. इसलिए आप अपने मित्रों या रिश्तेदारों को क्रोशिया वर्क किए हुए टेबल और चेयर पैड्स भी तोहफे में  दे सकती हैं.

हैंडमेड चौकलेट्स

चौकलेट्स दीवाली के मौके पर मिठास घोलने का काम करती हैं. मार्केट की चौकलेट की जगह अगर आप खुद से चौकलेट बना कर अपने प्रियजनों को भेंट करें तो इस की मिठास और भी ज्यादा बढ़ जाती है. इस के लिए ज्यादा कुछ नहीं, बस, इंटरनैट या फिर कुकरी बुक्स जिस में इस की विधि हो से चौकलेट बनाने की विधि जान लीजिए और बाजार से सामग्री ला कर घर पर ही चौकलेट तैयार कर लीजिए. चौकलेट्स को आप डैकोरेटिव डब्बों में सजा कर अपने प्रियजनों को गिफ्ट कर सकते हैं.

इस तरह घर पर उपहार तैयार कर सगेसंबंधियों को गिफ्ट भेंट करने में न सिर्फ खर्च कम आएगा बल्कि गिफ्ट स्वीकार करने वालों को भी ज्यादा खुशी और अपनत्व का एहसास होगा. वे आप की काबिलीयत के प्रशंसक भी बन जाएंगे. आप को संतुष्टि भी खूब मिलेगी व आप का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा.

 

Diwali 2022 : दीवाली की रात

मैं अपनी रूही से धनतेरस के दिन मिलने वाला था, लेकिन पता चला कि वह आस्ट्रेलिया से लौटी ही नहीं है, तो मेरी व्याकुलता बढ़ गई. क्योंकि मैं मन ही मन चाह रहा था कि इंतजार की घडि़यां जल्दी खत्म हो जाएं. कई रातों से मैं ठीक से सोया भी नहीं हूं. नींद आती भी तो कैसे. कभी उस के बारे में तो कभी अपने बारे में सोचसोच कर मैं परेशान हुए जा रहा हूं. इधर मेरी डायरी के पन्ने प्यार के खत लिखलिख कर भर गए हैं.

मैं ने उसे 3 माह पहले एक सौंदर्य प्रतियोगिता में देखा था. मुझे निर्णायक के तौर पर बुलाया गया था. मैं भी इस प्रतियोगिता के लिए आतुर था.

सौंदर्य प्रतियोगिता का चिरप्रतीक्षित दिन आ गया. मैं सुगंधित इत्र लगा कर फैशनेबल कपड़ों में वहां पहुंच गया. वहां का नजारा देख दिल बागबाग हो गया. सरसराते आंचलों और मदभरी सुगंधलहरियों के बीच नाना सुंदरियां खिलखिला रही थीं.

रूप का हौट हाट लगा हुआ था. सौंदर्य प्रतियोगिता के मुख्य अतिथि तथा अन्य अतिथि मंच की ओर प्रस्थान करने लगे. मैं भी उन में शामिल था.

मंच के एक ओर मनमोहक झलक पड़ी. अरे…यह कौन? अनूठा रंगरूप है…ऐसा रूप तो पहले कहीं नहीं देखा था.

रूही के रूपवैभव पर तो सारा विश्व गर्व करता है. आज मैं ही नहीं अपितु सारा विश्व इस लावण्यमयी की रूपराशि के समक्ष नतमस्तक होने को आतुर है. ऐसा सौंदर्य मुंबई महानगर में भी नहीं दिखता.

उस की आवाज में जादू है. विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा स्वर भी होता है. वह रूपगुण की धनी थी.

उस दिन मैं पहली ही झलक में उस पर मरमिटा था. न जाने कितनी कल्पनाएं कर बैठा था. ऐसा लगा था जैसे मेरी वर्षों की तलाश पूरी हो गई हो. मैं मन में एक प्यारे सपने का घरौंदा संजोने लगा.

उस शाम हमारा एकदूसरे से परिचय हुआ और हम ने एकसाथ चाय पी. उस के साथ बिताए 4 घंटे बेहद खुशनुमा रहे. अब रूही मेरी रूह बन गई. उस का निश्छल स्वभाव, उत्कृष्ट संस्कार, उच्चशिक्षा और खूबसूरत व्यवहार…सब से बढ़ कर उस के चेहरे का भोलापन, उस के द्वारा गाए गीत, ये सब मेरे मन में बैठ गए.

दूसरे दिन प्रतियोगिता के फोटो आ गए. वह मेरे रूपरंग और गठीले बदन के साथ खड़ी फब रही थी. मन ही मन मैं सोचने लगा कि हमारी जोड़ी जंच रही है. और मैं मन ही मन उसे अपनी अर्द्धांगिनी के रूप में देखने लगा था. उसे फोन कर बधाई दी और शाम को क्लब में बुला लिया. हमारी लगातार मुलाकातें होती रहीं. उस दिन यह भी पता चला कि उसे 4 फिल्मी गीतों के लिए साइन किया गया है.

यह सुन मुझे खुशी हुई. उसे गले लगा कर मैं ने बधाई दी. उस के व्यवहार से लगा जैसे वह भी मुझे मन ही मन चाहने लगी है या उस की तलाश भी मंजिल की ओर है. मैं जब उसे बुलाता तो वह आ जाती और जब वह बुलाती तो मैं भी सारे काम छोड़ उस के पास दौड़ादौड़ा चला आता.

उस के करीब होने का एहसास दिल को इतना खुश कर देता कि मैं खुद गीत लिखने लगा. मेरी दैनिक गतिविधियों में परिवर्तन आने लगा और अब ये सब मुझे भी काफी अच्छा लगने लगा. मैं अब सुबह जल्दी उठ कर सैर के लिए जाने लगा जहां मेरी रूह जाया करती. उस से मिलने की इच्छा मुझ में नई ऊर्जा का संचार करने लगी. वह किसी प्रसाधन का उपयोग नहीं करती थी. वह इतनी सुंदर थी कि उस पर से मेरी नजरें हटती ही नहीं थीं. उस की मुसकराहट ने मेरी दुनिया ही बदल डाली. मेरे पांव जमीन पर नहीं टिकते थे.

एक सुबह जब वह सामने से मुसकराती, जौगिंग करती आ रही थी तो मैं सोचने लगा कि इसे क्या दूं क्योंकि इस के सामने तो दुनिया की हर चीज फीकी लगती है.

उस ने आते ही मुसकरा कर देखा और कहा, ‘‘ मैं चाहती हूं कि आप कल मेरे घर डिनर पर आएं.’’

मैं उस का निमंत्रण पा कर फूला नहीं समाया. मैं भी तो रातदिन, उठतेबैठते यही प्रार्थना कर रहा था. आज मुझे अपनी मुराद पूरी होती लगी.

उस के घर में प्रवेश करते ही मैं रोमांचित हो गया. फाटक के रोबदार प्रहरियों ने मेरी आदरपूर्वक अगवानी की. वातावरण देख खुशी से मन झूम उठा. रूही के मातापिता ने सस्नेह आशीर्वाद दिया. इधरउधर की तथा मेरे परिवार की खूब चर्चा हुई. रूही उन की एकलौती बेटी थी. मैं ने उन्हें अपना परिचय देते हुए बताया कि मैं श्याम मनोहर दासजी का एकलौता सुपुत्र तथा लोकप्रिय मौडल के साथसाथ उद्योगपति रूपेश हूं, यह सुन कर वे बेहद प्रसन्न हुए.

मेरे मातापिता शहर के नामी लोगों में अग्रणी स्थान रखते हैं तथा उद्योगपतियों की लिस्ट में उन के साथ मेरा नाम भी जुड़ा हुआ है. मेरे लिए कई रिश्ते आ रहे हैं, लेकिन मुझे एक भी नहीं भाता है, न जाने रूही में ऐसा क्या कुछ था, जो मुझे अपनी ओर खींच रहा था. शायद मुझे ऐसी ही लड़की की तलाश थी.

एक शाम दोनों परिवारों ने एकसाथ बिताई. फिर संकोच  छोड़ हम दोनों भी घुलमिल गए. हम ने एकदूसरे के परिवारों के बारे में भी बात की.

इस दौरान रिकौर्डिंग के सिलसिले में रूही को आस्ट्रेलिया जाना पड़ा. इधर मेरा मन व्याकुल था. मैं बेसब्री से उस का इंतजार कर रहा था.

मैं कभी अंदर कभी बाहर जाता. कहीं दिल लगता ही नही था. उस दिन मुझे प्यार की तड़प का सही एहसास हुआ.

चौथे दिन सुबह होते ही जैसे ही सूचना मिली कि रूही आ गई है, मेरी खुशी का तो ठिकाना ही न रहा था. मैं सोचने लगा कि जिन खुशियों की तलाश में हम सारा जीवन गुजार देते हैं, आखिर वे खुशियां क्या हैं? दार्शनिक इस पर लंबी बहस कर सकते हैं, लेकिन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आत्मसंतुष्टि तथा संसार के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण ही व्यक्ति की खुशी है.

सच ही तो है, जीवन में हम जो कुछ भी करते हैं, उस का एकमात्र लक्ष्य खुशियों को पाना ही तो होता है. हमारी जिंदगी में जो कुछ महत्त्वपूर्ण है, जैसे प्यार, विश्वास, सफलता, मित्रता, रिश्ता, चाहत, सैक्स, पैसा सभी खुशियों को बटोरने के साधन ही तो हैं.

कब, कैसे, कहां और क्यों आप खुशी से झूमने लगेंगे? यह आप भी नहीं जानते. खुशियां न बढि़या होती हैं और न घटिया. खुशियां केवल खुशियां होती हैं यानी मन की संतुष्टि कौन, कैसे, किस हाल में पा लेगा और खुश रहेगा यह न तो कोई मनोवैज्ञानिक बता सकता है, न कोई दार्शनिक और न ही डाक्टर, क्योंकि हर इंसान की खुशी उस के आसपास घट रही परिस्थितियों की देन है. किसी व्यक्ति की खुशी अगर प्यार में है लेकिन उस का प्यार किसी कारण से उस से दूर हो गया है और हम उसे फिर भी खुश रहने के लिए कहते हैं तो यह संभव नहीं है क्योंकि खुश इंसान मन से होता है.

हर व्यक्ति को अलगअलग चीजों से खुशी मिलती है, जैसे कोई प्यार में खुशी देखता है, तो कोई पैसे में खुशी तलाशता है, किसी के लिए बूढ़े मातापिता की सेवा ही सब से बड़ी खुशी है, तो कोई अनाथ को पाल कर व अनपढ़ को पढ़ा कर खुश हो जाता है.

मुझे सुखद दांपत्य जीवन के लिए सच्चा प्यार चाहिए. साथ ही मैं चाहता हूं कि जो भी मेरा जीवनसाथी बने वह मुझे और मेरे परिवार को समझे और उन्हें सम्मान और प्यार दे. ये सब बातें मुझे रूही में नजर आती थीं. इसलिए ही मैं ने उसे अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला किया.

मैं उसी क्षण मां के पास गया और मन की बात भी उन्हें बता दी. मां को मेरी पसंद अच्छी लगी. उन्होंने यह बात पिताजी को भी बता दी.

पिताजी ने सामाजिक औपचारिकताएं निभाते हुए रूही के पिता से बात की. शाम को मैं बाहर जाने की तैयारी में था कि मां और पिताजी कमरे में आए.

‘‘कहीं बाहर जा रहे हो?’’ पिताजी ने पूछा.

‘‘कुछ काम है?’’ मैं ने पूछा.

पिताजी ने बताया, ‘‘मैं ने रूही के पिता से तुम्हारे विवाह की बात कर ली है. उन्होंने कल दोपहर हमें जिमखाना क्लब में लंच के लिए बुलाया है.’’

हम वहां पहुंचे तो जिमखाना क्लब का वातावरण बड़ा शांत था. रूही और उस के मातापिता हमारी अगवानी के लिए खड़े थे.

रूही के पिता ने रूपेश से पूछा, ‘‘आप बेंगलुरु के हैं हम मंगलौर के, दोनों के रहनसहन में अंतर है. क्या विवाह सफल होगा?’’

रूही पर एक नजर डालते हुए रूपेश ने कहा, ‘‘मेरी दृष्टि में विवाह अपनेआप सफल नहीं होते उन्हें सफल बनाना पड़ता है. इस के लिए पतिपत्नी दोनों को निरंतर प्रयास करना पड़ता है.’’

रूपेश के पिता ने रूही से पूछा,‘‘रूही बेटे, तुम्हारा क्या विचार है?’’

‘‘विवाह स्त्रीपुरुष का गठबंधन है जिन का लालनपालन अलगअलग परिवेश में होता है. जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए दोनों पक्षों को समझौते करने होते हैं,’’ रूही ने उत्तर दिया.

रूही की मां ने प्रसन्न होते हुए कहा, ‘‘इस ओर भी ध्यान देना जरूरी होता है कि भावुक हो कर किए गए समझौते भी इस रिश्ते को प्रभावित कर खुशियों का गला घोंट देते हैं.’’

‘‘नहीं, हम भावुक नहीं हैं…’’ दोनों ने समवेत स्वर में कहा.

हम दोनों के मातापिता ने और विचार करने को कहा.

2 सप्ताह बीत गए. मेरा मन डूबता जा रहा था, क्योंकि रूही के मातापिता ने हामी नहीं भरी थी.

दीवाली की सुबह रूही के मातापिता बहुत सारे कीमती तोहफे ले कर हमारे घर आए. यह देख कर मेरी खुशी का ठिकाना ही न रहा.

रूही के मातापिता की खूब आवभगत हुई. दोनों परिवार बेहद प्रसन्न थे. मुझे और रूही को यह दीवाली खुशियों भरी लग रही थी. शांत रूही मुझे अर्थपूर्ण नजरों से देख रही थी. मानो कुबेर का खजाना उस की और मेरी झोली में आ गिरा हो.

पिताजी ने मुझे गले लगा लिया और मां ने रूही को. चारों ओर से पटाखों के स्वर के साथ आकाश में कई मनमोहक आतिशबाजियां फूट रही थीं.

‘‘दीवाली की रात खुशियों की रात,’’ मां ने कहा. रूही और मैं उन पलों का आनंद लेने लगे.

Diwali 2022 : खुशी की दीवाली

दीवाली को सिर्फ एक दिन बाकी था. सोसाइटी के ज्यादातर घरों का रंगरोगन और लाइटिंग हो गई थी और लोग दीवाली की तैयारी में इधरउधर चक्कर लगा रहे थे. मिठाइयों की महक से भरी सोसाइटी में जबतब पटाखे के धमाके भी सुनाई दे रहे थे. चारों तरफ हलचल मची हुई थी, सब जगह खुशी का माहौल था. इस सारे कोलाहल के बीच कालोनी का एक घर चुप्पी साधे खड़ा था. वह था मिनी, रिनी व बबलू का घर. तीनों बच्चे बारबार बालकनी में जा खड़े होते और सोसाइटी की रौनक देख कर ठंडी आहें भरते, ‘काश, मम्मी और पापा आते और हम भी दीवाली मनाते.’

उन के पापा 5 दिन पहले कार दुर्घटना में घायल हो कर अस्पताल में भरती हुए थे और अभी तक अस्पताल में थे. उन की देखरेख करने के लिए मम्मी भी वहीं थीं. इतने दिन तीनों बच्चों ने किसी तरह घरबार संभाल लिया था. खाना बना कर खाना, स्कूल ले जाना आदि वे खुद करते लेकिन अब मम्मी और पापा के बिना वे त्योहार कैसे मनाते?

‘‘अब मम्मी व पापा शायद दीवाली के बाद ही आएंगे,’’ रात को खाना खाते वक्त रिनी और बबलू ने मिनी से कहा.

‘‘हां…’’ मिनी ने भी उदास हो कर कहा, ‘‘शायद डाक्टर ने पापा को घर जाने की इजाजत न द होगी.’’

रिनी और बबलू ने एकदूसरे का चेहरा देखा और चुप रह गए. अस्पताल नजदीक होता तो वे कभी के जा कर सारा हाल जान आते. पर अस्पताल घर से दूर था और वे दूसरों की मदद के बिना जा भी नहीं सकते थे. इन 5 दिनों में वे सिर्फ एक बार मम्मी व पापा से मिल पाए थे. सिर झुका कर खा रहे रिनी, बबलू को देख कर मिनी सोच में पड़ गई. पापा व मम्मी की अनुपस्थिति के कारण इन दिनों उन में कितना भारी परिवर्तन हो आया था. पहले बातबात पर लड़नेझगड़ने पर उतरने वाले अब कैसे एक हो गए थे. इन 5 दिनोंमें एक बार भी उन के बीच जरा भी नोकझोंक नहीं हुई थी. पापा और मम्मी होते तो अब घर में कितनी खुशी छाई होती. कितने पटाखे आते, कितनी मिठाइयां बनतीं, और अब इस तरह गुमसुम रहने वाले रिनी व बबलू कितना ऊधम मचाते. अपने छोटे भाईबहन को देखतेदेखते मिनी अचानक किसी निर्णय पर पहुंच गई.

‘‘कल हम दीवाली मनाएंगे,’’ उस ने एकाएक चुप्पी तोड़ी.

‘‘सच,’’ रिनी व बबलू के चेहरे खिल गए, ‘‘लेकिन कैसे?’’

‘‘अपने ही ढंग से…’’ मिनी मुसकराई, ‘‘खीर भी बनाएंगे, नए रखे कपड़े पहनेंगे और थोड़े पटाखे व तोहफे भी खरीदेंगे.’’

‘‘ठीक है, ठीक है…’’ रिनी और बबलू ने चहक कर कहा, ‘‘लेकिन तोहफे इस बार मम्मी व पापा के लिए भी खरीदेंगे.’’

मिनी सुन कर अचंभित रह गई. रिनी और बबलू ने तो उस के मुंह की बात छीन ली थी.

‘‘हां, सब के लिए खरीदेंगे,’’ उस ने खुश हो कर कहा, ‘‘और शाम को मां व पिताजी को दीवाली की मुबारकबाद भी दे आएंगे.’’ रिनी और बबलू खुशखुश सो गए तो मिनी ने अगले दिन का बजट बनाया. उस के पास मम्मी के दिए 5,000 रुपए थे और उतने रुपयों से उन्हें सारी दीवाली मनानी थी. दीवाली की सुबह हुई. तीनों बच्चे बड़े तड़के उठे. घर की सफाई करने के बाद नहाधो कर उन्होंने नए कपड़े पहने. बबलू ने घर के दरवाजे पर खूबसूरत बंदनवार बांधी. रिनी ने आंगन में छोटी सी रंगोली सजाई. मिनी ने नाश्ता बनाते वक्त थोड़ी सी खीर भी बनाई. फिर नाश्ता कर के मिनी घर के पास की मार्केट की ओर चल दी. पापा के लिए एक शर्ट, मां के लिए परफ्यूम, बबलू के लिए वीडियो गेम सीडी, रिनी के लिए बार्बी डौल, अपने लिए एक क्लच पर्स और पटाखे व मिठाई ले कर वह जल्दी घर लौटी. रिनी और बबलू अपनाअपना तोहफा ले कर खुश हो गए. मिनी की बांटी आतिशबाजियां भी उन्होंने सहर्ष ले लीं. वैसे हर साल पटाखे बंटते वक्त उन में छोटा सा युद्ध भी हो जाता था. ऐसे समय पर मिनी भी उन के साथ खूब लड़ती थी. आज मिनी ने अपने लिए कुछ न रखा, जितनी थी छोटे भाईबहन को ही बांट दीं.

‘‘शाबाश, मेरे अच्छे बच्चों, शाबाश…’’

कमरे में अचानक किसी की आवाज सुन कर बच्चों ने सिर उठा कर देखा और देख कर दंग रह गए. मम्मी व पापा जाने कब आ कर कमरे में खड़े थे. दोनों बड़े प्यार से तीनों बच्चों को देख रहे थे. पापा के पैर व हाथ में पट्टियां भी थीं, पर वे काफी स्वस्थ लग रहे थे.

‘‘मम्मी, पापा…’’ तीनों बच्चे खुशी से एकसाथ चिल्ला कर उन से लिपट गए, ‘‘आज सचमुच खुशी की दीवाली है.’’

मम्मी ने तीनों को एकसाथ बांहों में भर कर कहा, ‘‘हां बच्चों, तुम्हारे जैसे समझदार बच्चे जहां होते हैं वहां दीवाली एक दिन ही नहीं, हर दिन होती है.’’ पापा ने कुछ न कहा. बस, बच्चों द्वारा लाए उपहारों को देख कर उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े. दीवाली की जगमगाहट से उन का घरआंगन भी रोशन हो गया था.

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