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सजा थी नोटबंदी

8 नवंबर हर साल एक महायातना की याद दिलाता है जब पूरे देश के नागरिकों की जमापूंजी को नरेंद्र मोदी के एक भाषण से सरकार ने एक तरह से अपराध का पैसा मान कर जब्त कर लिया था. नोटबंदी थोपे जाने के 6 वर्षों बाद यह जिन्न एक बार फिर से बाहर आ गया है. सुप्रीम कोर्ट ने नोटबंदी की संवैधानिक वैधता पर सुनवाई करना शुरू कर दिया है. कोर्ट ने केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक को विस्तृत हलफनामा दाखिल कर नोटबंदी की प्रकिया बताने को कहा है. कोर्ट ने कहा कि वह सरकार के नीतिगत फैसलों की न्यायिक समीक्षा पर अपनी लक्ष्मणरेखा को जानता है.

5 जजों की एस ए नजीर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि जब संविधान पीठ के सामने कोई मुद्दा उठता है तो जवाब देना उस का कर्तव्य है. इस से पहले 16 दिसंबर, 2016 को तत्कालीन सीजेआई टी एस ठाकुर की अध्यक्षता वाली बैंच ने नोटबंदी की वैधता वाली याचिका को 5 न्यायाधीशों की एक बड़ी बैंच के पास भेज दिया था. हर साल का नवंबर माह आते ही देशवासियों को 8 नवंबर, 2016 का वह दिन और रात 8 बजे का समय याद आ जाता है. यह बताया जाता है कि आज रात 8 बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के नाम अपना संदेश देंगे. लोगों को इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि प्रधानमंत्री मोदी अपने संदेश में क्या कहने वाले हैं. मोदी ने जैसे ही यह कहा कि ‘आज रात 12 बजे के बाद आप के 1 हजार और 500 रुपए के नोट लीगल टैंडर नहीं रहेंगे.’

लोगों को यह सम झ ही नहीं आया कि ‘लीगल टैंडर नहीं रहेंगे, का मतलब क्या है? अभी प्रधानमंत्री का संदेश खत्म भी नहीं हुआ था कि व्हाट्सऐप पर लोगों को यह मैसेज मिलने लगा कि 500 और 1 हजार रुपए के नोट चलन से बाहर कर दिए गए हैं. यह पता चलते ही भारी भीड़ बैंकों के एटीएम के सामने लाइन लगा कर खड़ी हो गई. रात 12 बजे से पहले ही सभी एटीएम पूरी तरह से खाली हो गए. देशवसियों की पूरी रात यह सम झने में निकल गई कि नोटबंदी का मतलब यह है कि सरकार की नजर में आप के पास जो भी नकद पैसा रखा है वह ‘कालाधन’ है. वह अपराध से जमा किया पैसा है और आप को साबित करना है कि आप शरीफ हैं, बेगुनाह हैं. नरेंद्र मोदी की एक घोषणा ने नकद पैसा रखे हर किसी को अपराधी बना दिया. अब वह इस की सजा भुगतने के लिए सुबहसुबह अखबारों में यह पढ़ने लगा कि नोटबंदी क्या है? उस के पैसों का क्या होगा? नए नोट उस को कैसे मिलेंगे? देश की दिनचर्या बदल गई.

देशवासी सारा कामधाम छोड़ कर नोट बदलने के लिए बैंकों के चक्कर लगाने लगे. यह एक तरह की अदालती कार्रवाई थी जिस में लोग अपने पैसे को गुनाह का पैसा नहीं है सिद्ध कर रहे थे. एटीएम से पैसे निकालने की पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी. बैंकों के सामने लंबी लाइनें लग चुकी थीं. जैसेजैसे एटीएम काम करने लगे थे वहां लंबी लाइनें लगने लगी थीं. किसी को अस्पताल के लिए पैसा चाहिए था, किसी को शादी के लिए, किसी को स्कूलकालेज की फीस के लिए तो किसी को किसी दूसरी जरूरत के लिए. उस के अपने ही पैसे बैंक में रखे थे पर उस के काम नहीं आ रहे थे. जिन के पैसे बैंकों में जमा थे वे अपने पैसे लेने के लिए मुजरिमों की तरह बैंक के मैनेजर के सामने गिड़गिड़ा रहे थे कि ‘हुजूर हमारे पैसे हमें दे दीजिए.’ बैंक का मैनेजर कह रहा था कि ‘नहीं, केवल दो हजार रुपए ही रोज के बदले जा सकते हैं.’ नहीं भूलते नोटबंदी वाले दिन देश का सामाजिक तानाबाना बनताबिगड़ता दिखने लगा.

लोगों के अंदर बहुत भाईचारा देखने को मिलने लगा था. अमीर दोस्तों को उन के गरीब दोस्त याद आए. अमीर रिश्तेदारों को अपने गरीब रिश्तेदारों के महत्त्व का एहसास होने लगा. मालिक ने नौकर को पुराने नोट दे कर नए नोट लाने के लिए विवश किया. अपने ही पैसे बचाने के लिए गरीब दोस्तों, रिश्तेदारों के बैंक अकाउंट्स में पैसा डालना पड़ा. लोगों ने 20 से 30 प्रतिशत के लालच पर पुराने नोटों को बदलना शुरू किया. कुछ बैंकों व डाक कर्मचारियों ने कालाधन खपाने के लिए रिश्वत ले कर काम किया. नोटबंदी ऐसा कदम था जिस में समूचा भारत व्यापक स्तर पर प्रभावित हुआ. गरीब, अमीर, छोटा, बड़ा, बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं हर किसी को नोटबंदी के फैसले ने प्रभावित किया. नोटबंदी लागू करने के लिए किसी तरह की पुख्ता तैयारी सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक और बैंकों की नहीं थी.

इस वजह से रोज नए नियमों में बदलाव हो रहे थे. रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार दोनों ने कुल 70 से अधिक बदलाव किए. 9 से 13 नवंबर तक नोटबंदी के चलते बैंक और एटीएम बंद रखे गए. सप्ताह में रुपया निकासी की लिमिट तय कर दी गई थी मानो यह पैसा सरकार का था और जनता को दान में या उपहार में मिल रहा है. एटीएम की लाइन में लगी महिला ने दिया बच्चे को जन्म सब से यादगार घटना उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में घटी. 2 दिसंबर, 2016 को पंजाब नैशनल बैंक की झीं झक शाखा में सरदार पुरवा गांव की रहने वाली महिला सर्वेशा देवी पैसे निकालने के लिए सुबह 11 बजे से लाइन में लगी थी. उस को अस्पताल जाना था. उसे बच्चा होने वाला था. पैसे निकालने में देर हो रही थी. 2 घंटे लाइन में लगेलगे ही उस को लेबर पेन शुरू हो गया. महिला ने वहीं लाइन में ही बच्चे को जन्म दे दिया. उत्तर प्रदेश के उस समय के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस बच्चे का नाम खजांची रख दिया था.

परिवार की मदद के लिए एक लाख रुपए भी दिए थे. अखिलेश यादव ने इस परिवार की मदद का वादा किया था और वे बराबर इस काम को करते आ रहे हैं. 2018 में खजांची के परिवार को रहने के लिए घर गिफ्ट में दिया था. अखिलेश यादव खुद खजांची के पैतृक गांव सरदार पुरवा पहुंचे थे. खजांची के नए घर का निरीक्षण किया था. खजांची को दिया यह घर इसलिए भी खास है क्योंकि गांव में यह पहला लोहे व कंक्रीट से बना घर है. जिस कसबे में खंजाची का जन्म हुआ था उसी कसबे में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का पैतृक आवास है. अखिलेश यादव ने नोटबंदी का विरोध करने के लिए खजांची को नोटबंदी विरोध का ‘ब्रैंड एंबेसडर’ बनाया है. उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव के समय जब अखिलेश यादव की विजय रथ यात्रा कानपुर आई तो उस का शुभारंभ खजांची के हाथ से हुआ था. नोटबंदी के 6 साल पूरे लेकिन घाव हरे नोटबंदी के दौरान बैंक और एटीएम की लाइन में लगे लोगों को तमाम तरह की दिक्कतों का सामना पूरे देश में करना पड़ा था. नोटबंदी के 50 दिनों में करीब 115 लोगों की मौतें हुई थीं.

8 नवंबर आते ही याद आता है कि किस तरह से अपना पैसा लेने के लिए बैंक मैनेजर को सफाई देनी पड़ रही थी. आधार कार्ड पर लिख कर देना पड़ रहा था कि यह पैसा हमारा ही है, हम अपराधी नहीं हैं. घंटों लाइन में लगे होने के बाद भी जब पैसा मिलने का नंबर आता था तो बैंक और एटीएम दोनों ही जगह नोट खत्म होने की बात कह हर पैसा देने से मना कर दिया जाता था. सरकार का मानना है कि नोटबंदी का सकारात्मक असर रहा. हालांकि जिस उम्मीद के साथ सरकार ने नोटबंदी का फैसला लिया था वह उम्मीद पूरी होती नहीं दिखी है. नोटबंदी का सब से ज्यादा प्रभाव उन उद्योगों पर पड़ा जो ज्यादातर कैश में लेनदेन करते थे. उन में अधिकतर छोटे उद्योग शामिल हैं. नोटबंदी के दौरान इन उद्योगों के लिए कैश की किल्लत हो गई. इस की वजह से उन का कारोबार ठप पड़ गया. लोगों की नौकरियां गईं. बड़ी संख्या में बेरोजगारी बढ़ी. 6 साल के बाद भी यह खत्म नहीं हुई है. अचानक नोटबंदी के फैसले से पूरे देश में अफरातफरी का माहौल बन गया था.

नोटबंदी का प्रभाव संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के कारोबारों पर पड़ा. हालात को काबू में करने के लिए नोटबंदी से जुड़े नियम हर रोज बदले जा रहे थे, जिस से यह साफ हो गया था कि नोटबंदी को ले कर सरकार की पहले से कोई तैयारी नहीं थी. नोटबंदी की मोदी सरकार ने कई वजहें बताईं. उन में कालेधन का खात्मा करना, सर्कुलेशन में मौजूद नकली नोटों को खत्म करना, आतंकवाद और नक्सल गतिविधियों पर लगाम कसना आदि थीं. सरकार का तर्क था कि नोटबंदी के बाद टैक्स कलैक्शन बढ़ेगा और कालेधन में इस्तेमाल होने वाला पैसा सिस्टम में आ जाएगा. रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी के दौरान बंद हुए 99.30 फीसदी 500 और 1,000 के पुराने नोट बैंक में वापस आ गए.

इस का मतलब यह था कि वह कालाधान नहीं था. नोटबंदी के बाद जीडीपी को झटका लगा, जिस से देश अभी तक नहीं उबर पाया है. नोटबंदी की घोषणा के बाद की पहली तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर घट कर 6.1 फीसदी पर आ गई थी. जबकि इसी दौरान साल 2015 में यह 7.9 फीसदी पर थी. सरकार का कहना है कि डिजिटल लेनदेन बढ़ा है. इस का दूसरा सच यह है कि इस से कारोबार करने वालों की परेशानी बढ़ी है. उस ने अपनी चीजों के दाम बढ़ा दिए है. नोटबंदी और जीएसटी के चक्कर में छोटेछोटे दुकानदारों को अपने हिसाबकिताब के लिए एक सीए यानी चार्टर्ड अकाउंटैंट, एक वकील और एक कंप्यूटर जानने वाले की जरूरत पड़ने लगी है. इस का खर्च भी उस ने अपने सामान में जोड़ दिया है, जिस से महंगाई और भी बढ़ी है. नोटबंदी में किसान हुए परेशान कृषि मंत्रालय ने वित्त पर संसदीय स्थायी समिति को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा कि नोटबंदी की वजह से भारत के लाखों किसान ठंड की फसलों के लिए खाद और बीज नहीं खरीद पाए थे.

वित्त पर संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष कांग्रेस सांसद वीरप्पा मोइली को कृषि मंत्रालय, श्रम एवं रोजगार मंत्रालय और सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग मंत्रालय द्वारा नोटबंदी के प्रभावों के बारे में बताया गया. कृषि मंत्रालय द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि नोटबंदी ऐसे समय पर की गई जब किसान अपनी खरीफ फसलों की बिक्री और रबी फसलों की बुआई में लगे थे. इन दोनों कामों के लिए भारी मात्रा में कैश की जरूरत थी लेकिन नोटबंदी की वजह से सारा कैश बाजार से खत्म हो गया था. मंत्रालय ने कहा कि भारत के 26.3 करोड़ किसान ज्यादातर कैश अर्थव्यवस्था पर आधारित हैं. इस की वजह से रबी फसलों के लिए लाखों किसान बीज और खाद नहीं खरीद पाए थे.

यहां तक कि बड़े जमींदारों को भी किसानों को मजदूरी देने और खेती के लिए चीजें खरीदने में समस्याओं का सामना करना पड़ा था. कैश की कमी की वजह से राष्ट्रीय बीज निगम लगभग 1.38 लाख क्विंटल गेंहू के बीज नहीं बेच पाया था. यह स्थिति तब भी नहीं सुधर पाई जब सरकार ने कहा था कि 500 और 1,000 के पुराने नोट गेंहू के बीज बेचने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं. मजदूरों को बड़े शहरों से भागना पड़ा मिलों में काम करने वाले लेबर यानी सब से गरीब तबके पर नोटबंदी के फैसले की मार सब से अधिक पड़ी. जहां उद्योगों निर्यातकों को अपने सप्लाई और्डर कैंसिल कर भारी घाटा उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा वहीं दिल्ली से यूपी या बिहार जाने वाली ट्रेनों की भीड़ यह बात चीखचीख कर कह रही है कि लोग कई सालों, कई महीनों कड़ी मेहनत कर कमाए गए पैसों के कागज बन जाने के कारण शहर छोड़ कर खाली हाथ गांवों को लौटने को मजबूर हुए.

सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी (सीएमआईई) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि नोटबंदी के बाद जनवरीअप्रैल 2017 के बीच 15 लाख लोगों की नौकरियां चली गईं. मई से ले कर अगस्त 2019 के बीच 59 लाख लोगों को फैक्ट्रियों और सेवा क्षेत्रों से निकाल दिया गया. सरकारी विभागों में तो नौकरियों की किल्लत लगातार बढ़ ही रही थी. इधर नोटबंदी के बाद निजी कंपनियों ने भी नौकरियों में छंटनी की. कंपनियों में सैलरी समय से नहीं मिल रही है. दोदो महीने की देरी हो रही है. दो साल से सैलरी नहीं बढ़ी है. ठेकेदारों, दुकानदारों व छोटे उद्योगपतियों ने अपने कर्मचारियों व मजदूरों का भुगतान पुरानी करैंसी में किया जो बेकार हो गई थी. इस से मजबूरों को भूखे मरने की नौबत आ गई. उन में से जिन लोगों के बैंक खाते में पैसे थे वे निकल नहीं पा रहे थे. नोटबंदी के फैसले से अपने ही कमाए पैसों पर अधिकार नहीं रह गया था. ऐसे में नोट पर से जनता का भरोसा खत्म हो गया.

नोटबंदी के कारण मंदी में फंसे कारोबार में काम खत्म होने के कारण कई सालों की नौकरी छोड़ कर बेरोजगारी के कारण लोगों को अपने गांवघर वापस जाना पड़ा. नकद मतलब अपराध से मिला धन नोटबंदी के फैसले का मकसद कालेधन पर चोट करना था. सरकार को इस में कोई कामयाबी नहीं मिली है. सरकार के इस फैसले से नकद पैसा रखने वाला हर आदमी अपराधी बन गया. सरकार ने अपने इस कदम से यह साबित किया कि जिस के पास भी नकद धन है वह कालाधन जो किसी अपराध कर के कमाया गया है. अपनी मेहनत का पैसा रखने वाला अपराधी बन कर गिड़गिड़ा रहा था कि उस का बैंक में जमा कर के बैंक से नए नोट के रूप में दे दो. इस काम में आम जनता को ही सब से अधिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा. बड़ा नेता, अफसर, कारोबारी जिस के पास अपराध का पैसा था उस ने जुगाड़ कर के कालेधन को सफेद कर लिया. नोटबंदी की मार छोटे कारोबारियों पर ज्यादा पड़ी. नकदी की कमी से कारोबार ठप पड़ गए.

नोट की कमी से रिकशा वालों या रेहड़ी वालों, मजदूरों और किसानों को ज्यादा दिक्कतें हुईं. बड़े उद्योगपतियों का ज्यादातर कामकाज नकद में नहीं होता. इसलिए उन पर खास असर नहीं पड़ा था. नोटबंदी का सब से बड़ा नुकसान यह हुआ कि लोगों का करैंसी से भरोसा उठ गया. इस का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा. कांग्रेस नेता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उस समय कहा था कि नोटबंदी का असर देश की खराब अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. देश मंदी का शिकार हो जाएगा. उस समय उन की बात को महत्त्व नहीं दिया गया पर नोटबंदी के 6 साल बाद आज वह बात सच साबित हो गई है. सरकार ने दावा किया था कि नोटबंदी की वजह से साढ़े 11 लाख करोड़ रुपए बैंकों में जमा हो गए. उस में से 4 लाख करोड़ रुपए बैंकों ने लोगों को दे दिए. इस हिसाब से बैंकों के पास साढ़े 7 लाख करोड़ रुपए जमा हो गए थे. इस का नुकसान बैंकों को चुकाना पड़ा. बैंकों को इस जमा धन पर ब्याज देना पड़ा.

इस से तमाम बैंकों की हालत खराब हो गई. जिस की वजह से कई बैंकों को एकदूसरे में मिलाना पड़ा. इस से देश की पूरी बैंकिंग व्यवस्था चरमरा गई. आम जनता को नुकसान यह हुआ कि बैंक ने अपनी हर सर्विस की बढ़ी हुई फीस वसूलनी शुरू कर दी. नोटबंदी में जो पैसा बैंकों में जमा हो गया उसे वापस ले कर किसी ने खर्च नहीं किया. इस से मुद्रा का सर्कुलेशन ठप हो गया. खर्च न होने से कारोबार का पहिया रुक गया. नोटबंदी का देश की जीडीपी पर असर पड़ा. भारत का कालाधन विदेश जाने लगा क्योंकि लोगों के मन में डर बन गया कि मौजूदा सरकार फिर से नोटबंद कर सकती है. नोट पर भरोसा घटने का ही प्रभाव है कि लोग डौलर खरीदने लगे हैं जिस से डौलर के मुकाबले रुपया लगातार कमजोर होता जा रहा है. नोटबंदी नहीं घोटाला कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों ने नोटबंदी पर लगातार सवाल उठाए.

इस को देश की अर्थव्यवस्था के लिए खराब बताया. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस को स्वतंत्र भारत के इतिहास में सब से बड़ा घोटाला बताया था. इस से कालाधन तो बाहर नहीं आ सका, उलटे, किसानों, मजदूरों, दुकानदारों, मध्यवर्ग और छोटे कारोबारियों को खासी परेशानियां उठानी पड़ीं. नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि 50 दिनों में स्थिति सामान्य हो जाएगी लेकिन इस का प्रभाव सालों बाद भी खत्म नहीं हो रहा है. नोटबंदी के बाद बंद हुए तमाम बैंकों के एटीएम बदहाल और बंद पड़े हैं. महंगाई, बेरोजगार की स्थितियां नियंत्रण से बाहर हैं. करैंसी की कमी से एटीएम चल नहीं पा रहे हैं, बैंकों की चमक गायब है. नोटबंदी को सफल बताने वाली भाजपा का दावा है कि 2016 के बाद भाजपा ने 2019 को लोकसभा चुनाव जीता. कई प्रदेशों के विधानसभा चुनाव जीते.

जो इस बात का प्रमाण है कि देश की जनता नोटबंदी से खुश थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के 3 कारण- आतंकवाद बंद होना, कालाधन वापस आना और भ्रष्टाचार खत्म होना- बताए थे. नोटबंदी के 6 साल बाद आज भी ये तीनों मुद्दे जस के तस अपनी जगह हैं. उलटे, महंगाई, बेरोजगारी बढ़ी है. देश मंदी की तरफ बढ़ रहा है. रुपए की कीमत लगातार घट रही है जिस से देश की अर्थव्यवस्था खराब हो रही है और जीडीपी 2016 के मुकाबले लगातार कमजोर हो रही है. नोटबंदी के समय सरकार ने कहा था कि एक बार 1,000 और 5 सौ रुपए के नोट चलन से बाहर हो जाएंगे तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा.

लेकिन नोटबंदी के 6 साल बाद भी भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ. जो लोग कालाधन 500 और 1,000 रुपए के नोटों की शक्ल में रखते थे अब वे 500 और 2,000 रुपए के नोटों की शक्ल में रखने लगे हैं. नोटबंदी के बाद कई अफसरों के घरों पर पड़े छापे इस बात को दिखाते हैं कि वहां पर कालाधन बड़े नोटों की शक्ल में रखा मिला. नोट इतने थे कि गिनने के लिए मशीनों का प्रयोग करना पड़ा. इस से साफ हो गया कि नोटबंदी से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ है. नोटबंदी का फैसला लेते समय सरकार और उस के सलाहकारों को यह अनुमान नहीं था कि इतनी बड़ी नकदी बाजार से हटा देने से देश की अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचेगा.

अपनी गलती को स्वीकार करने की जगह पर यह धारणा बनाने का काम हुआ कि नोटबंदी की निंदा करना भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी लड़ाई का विरोध करने के समान है. विपक्ष ने नोटबंदी पर जायज सवाल उठाए तो प्रधानमंत्री ने कहा, ‘मैं देख रहा हूं कि सार्वजनिक जीवन में कुछ लोग भ्रष्टाचार और कालेधन के समर्थन में भाषण दे रहे हैं.’ इस के अलावा, नोटबंदी के संबंध में जब गलत तथ्य पकड़े जाने लगे तो सरकार बड़ी चतुराई से इस के लाभ गिनाने की कोशिश करने लगी. उदाहरण के तौर पर, नोटबंदी के बाद उम्मीद थी कि काफी सारे नोट वापस नहीं आएंगे लेकिन जब लगभग सारे नोट बैंकों में जमा हो गए तो कहा गया कि इस से आयकर विभाग को जांच करने में मदद मिलेगी. यानी सरकार द्वारा हर तरह से जनता को अपराधी साबित करने का प्रयास किया गया.

उसे अपराधी बना कर बैंक मैनेजर और आयकर विभाग के लोगों के सामने खड़ा कर दिया कि वह न्याय करेगा, दंड देगा. कर वसूल करने वाले विभागों में सब से अधिक भ्रष्टाचार है. ऐसे लोगों को सरकार ने न्याय देने के काम पर लगा दिया. जिस की वजह से इन की भूमिका पर सवाल उठने लगे. कैशलैस ने बढ़ाई महंगाई छोटे नोट बाजार से कम करने के चक्कर में छोटेछोटे दुकानदारों को अपनी दुकानों पर पेटीएम व्यवस्था लागू करनी पड़ी, जिस से छोटे सामान की कीमत में भारी इजाफा हो गया. दुकानदार ने इन सब की कीमत के बहाने सामान की कीमत को कई गुना बढ़ा दिया. उदाहरण के लिए 2016 में चाय के एक कप की कीमत 4 से 5 रुपए थी, नोटबंदी के 6 साल के बाद यह कीमत बढ़ कर 12 से 15 रुपए हो गई है. कुल्हड की चाय की कीमत 20 से 25 रुपए हो गई है.

5 रुपए का मिलने वाला समोसा 10 से 15 रुपए का हो गया है. हर सामान की कीमत में दोगुने से अधिक का इजाफा हुआ है. इस में पैट्रोल, डीजल और एलपीजी गैस की कीमतों में होने वाली तेजी का भी प्रमुख हाथ है. दोचार सौ रुपए की खरीदारी पर भी दुकानदार खुदरा पैसे की मांग करने लगे हैं. खुदरा पैसा नहीं होने पर पेटीएम करने को कहते हैं. दुकानदार कहता है, उसे पेटीएम का खर्च देना पड़ता है, इसलिए सामान के दाम बढ़ाने पड़ रहे हैं. नकदी का संकट बरकरार होने के कारण लोगों को अपनी छोटीबड़ी जरूरतों के लिए दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. छोटीबड़ी हर दुकान पर पेटीएम और क्यूआर कोड देखे जा सकते हैं. इस से यह लगता है कि शौपिंग कैशलैस हो गई है. इस का उपभोक्ता को कोई लाभ नहीं हो रहा. उसे अधिक महंगाई का सामना करना पड़ रहा है.

नोटबंदी और जीएसटी के बाद महंगाई घटने का दावा उलटा साबित हुआ है. महंगाई कम होने के बजाय बढ़ गई है. नोटबंदी के बाद भी चलन में है फेक करैंसी नोटबंदी का एक बड़ा कारण फेक करैंसी बताया गया था. नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘नोटबंदी से फेक करैंसी का चलन कम होगा.’ प्रधानमंत्री का यह दावा भी सही साबित नहीं हुआ. नोटबंदी के बाद भी 500 के नकली नोट पकड़े गए. नोटबंदी से पहले 86 प्रतिशत बड़े नोट यानी 5 सौ और 1 हजार रुपए के नोट चलन में थे. अब सिर्फ 18 प्रतिशत यानी 28 लाख करोड़ रुपए के 2 हजार रुपए के नोट चलन में हैं. इस से यह दावा खारिज हो जाता है कि बड़े नोटों का चलन कम हुआ है और फेक करैंसी कम हुई है. इस समय 55 फीसदी 5 सौ रुपए के नोट चलन में हैं. 200 रुपए के नोट तकरीबन 15 फीसदी हैं. भारतीय रिजर्व बैंक की अगस्त 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, बंद किए नोटों का 99 फीसदी हिस्सा बैंकों के पास लौट आया.

इस से यह पता चलता है कि फेक करैंसी को रोकने के लिए नोटबंदी करनी पड़ी, यह तर्क बेकार का था. भारतीय रिजर्व बैंक के मुताबिक, नोटबंदी के फैसले के बाद पिछले सालों की तुलना में 500 और 2,000 रुपए के जाली नोट कहीं ज्यादा संख्या में बरामद हुए. पहले भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से कहा गया था कि बाजार में 500 और 2,000 रुपए के नए नोट जारी किए गए हैं, उन की नकल कर पाना मुश्किल होगा. यह दावा भी गलत साबित हुआ. मिला कुछ नहीं, नोट छापने पर खर्च अलग 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी की घोषणा के बाद भारतीय रिजर्व बैंक ने सरकारी घोषणा के अनुसार बड़े नोटों का चलन बंद कर दिया था. इस का तात्कालिक प्रभाव यह पड़ा था कि लगभग 86 प्रतिशत मुद्रा चलन से बाहर हो गई. देश में नकदी का संकट पैदा हो गया. नए नोट छापने में होने वाली देरी के कारण नकदी का संकट गहराया.

इस को दूर करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने 500 व 2,000 रुपए के लगभग 14 लाख करोड़ रुपए की नई मुद्रा जारी की. इस में जितना पैसा खर्च किया, उस की भरपाई बैंक में जमा पुराने नोटों से क्या हो पाई? इन के छापने में जो पैसा लगा वह बेमतलब का खर्च हो गया क्योंकि नोटबंदी से कालाधन तो मिला नहीं. नई मुद्रा के प्रकाशन व निर्गमन की लागत लगभग 13 हजार करोड़ रुपए आई है जोकि चारगुना अधिक है. आरबीआई द्वारा भारत सरकार को देय लाभांश में व्यापक कमी आई है. वर्ष 2016 में यह लाभांश लगभग 65 हजार करोड़ रुपए था जोकि वर्ष 2017 में घट कर 30 हजार करोड़ रह गया. इस का कारण यह रहा है कि नोटबंदी के कारण बैंकों के पास अतिरिक्त जमा में तेजी से वृद्धि हुई है जिस पर जमा धारकों को ब्याज देना पड़ रहा है और बैंकों ने यह पैसा भारतीय रिजर्व बैंक में जमा करवा दिया जिस पर आरबीआई को ब्याज देना पड़ रहा है.

भारतीय आयकर विभाग में लगभग 18 लाख ऐसे मामले सर्च किए गए हैं जिन में 2 लाख रुपए से अधिक की नकदी जमा करवाई गई. लगभग आधे करधारकों ने नोटिस का जवाब नहीं दिया. कर विभाग ने यह माना कि लगभग एक लाख व्यक्ति संदेह के घेरे में हैं जिन्होंने लगभग 1.72 लाख करोड़ रुपए से अधिक की नकदी जमा करवाई है. नोटबंदी के कारण निवेश रियल एस्टेट, जेम्स एवं ज्वैलरी, सोनाचांदी आदि धातुओं में किया गया लेकिन म्युचअल फंड के निवेश में व्यापक वृद्धि हुई है. वर्ष 2015-16 में म्यूचुअल फंड में निवेश 1.34 लाख करोड़ रुपए हुआ है जोकि वर्ष 2016-17 में बढ़ कर 3.43 लाख करोड़ रुपए हो गया. मात्र 3 महीनों में अप्रैल से जून 2017 में लगभग 93 हजार करोड़ रुपए की वृद्धि हुई है.

नोटबंदी से तबाह हुए बैंक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश के झाबुआ में एक चुनावी रैली में कहा था कि ‘कालाधन बैंकिग सिस्टम में वापस लाने के लिए नोटबंदी एक कड़वी दवा थी, जिस को दिया गया. इस के बाद देश में आर्थिक सुधार होगा. लेकिन देखें तो इस का सब से खराब प्रभाव देश की बैकिंग व्यवस्था पर पड़ा. एनपीए का बो झ झेल रहे बैंक दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गए. उन को बचाने के लिए सरकार ने बैंकों को आपस में मिला दिया. इस के बाद भी बैंकिंग और आर्थिक व्यवस्था में कोई सुधार नहीं आया. नोटबंदी के समय मोदी ने कहा था कि इस से नक्सल और आतंक समाप्त हो जाएगा. लेकिन आंकड़े और घटनाएं बताती हैं कि नोटबंदी के बाद दोनों क्षेत्रों में बढ़ोतरी हुई है. झारखंड और छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या खत्म नहीं हुई है.

जम्मूकश्मीर में आतंकवाद रहरह कर अपना असर दिखाता रहता है. नोटबंदी का दूसरा लाभ कालाधन बंद हो जाएगा, यह दावा भी गलत निकल रहा है. नोटबंदी के बाद भी बाजार से जिस तरह से कालाधन निकल रहा है उस से साफ हो जाता है कि नोटबंदी से कालाधन नहीं रुका है. नोटबंदी के समय यह दावा किया गया था कि भारत का चौमुखी आर्थिक विकास होगा. लेकिन देश के सभी सैक्टरों में गिरावट दर्ज की जा रही है. सुधार की जगह पर यह बदलाव हुआ कि बैंक अपने हर छोटे से छोटे काम की फीस ग्राहकों से लेने लगे. इस में एटीएम से पैसा निकालने की तय लिमिट हो गई. चैकबुक और एसएमएस भेजने के लिए फीस ली जाने लगी. बैंक खातों में मिनिमम बैलेंस की सीमा खत्म कर दी गई.

चैक बाउंस होने पर कटने वाली पैनल्टी का रेट बढ़ गया. जमादारों पर ब्याज कम हो गया. एक तरह से यह देखें तो बैंक में पैसा रखना ग्राहकों को भारी पड़ने लगा है. नोटबंदी के समर्थक कहते हैं कि इस से कैशलैस व्यवस्था को मजबूत करने में मदद मिल रही है. ऐसे में यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि क्या एक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए दूसरी व्यवस्था को ध्वस्त करना चाहिए? दरअसल केंद्र सरकार द्वारा देश में देशवासियों पर थोपी गई नोटबंदी फ्लौप शो साबित हुई. नोटबंदी ने लोगों को परेशानी और मौत के अलावा कुछ भी नहीं दिया. जनता अपराधी साबित हुई. जज बने बैंकरों की चांदी हो गई. नोट बदलने के काम में लोग करोड़पति हो गए. नोटबंदी के फेल होने का सब से बड़ा कारण यह था कि नोटबंदी बिना किसी तैयारी के थोप दी गई, जिस से लाभ की जगह नुकसान ही नुकसान हुआ.

द्य हर देश में नोटबंदी लाई मंदी नोटबंदी के इतिहास को देखें तो साफ पता चलता है कि जिस भी देश में नोटबंदी लागू की गई, वह देश कुछ ही सालों में मंदी का शिकार हो गया. 1921 से 1927 के बीच जब मुसोलिनी ने इटली की करैंसी लीरा को बंद कर के अपना प्रभाव जमाने का प्रयास किया तो इस का दुष्परिणाम यह हुआ कि बाकी देशों ने इटली की करैंसी पर विश्वास करना बंद कर दिया. कुछ ही वर्षों में इटली आर्थिक रूप से कंगाल हो गया. जरमनी में हिटलर ने करैंसी बंद की तो लोग एक वेलियन मार्क से भी दिनभर की रोटी नहीं खरीद पा रहे थे. हिटलर ने यह काम स्टालिन को नीचा दिखाने के लिए किया लेकिन इस का गंभीर परिणाम निकला.

यह तब तक जारी रहा जब तक 1933 में नैशनल सोशलिस्ट सत्ता में नहीं आ गए. 1991 में सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने कालेधन पर काबू पाने के लिए 50 और 100 रुबल को बंद कर दिया जो कुल करैंसी का एकतिहाई हिस्सा हुआ करते हैं. नतीजतन कुछ सालों के बाद सोवियत संघ का भूगोल ही बदल गया. वहीं, अब 21वीं सदी के दूसरे शतक में भारत के सर्वेसर्वा नरेंद्र मोदी ने देश में 500 और 1,000 रुपए के नोटों को चलन से बाहर करने का निर्णय थोप दिया बिना यह सोचेविचारे कि इस के साइड इफैक्ट्स कितने भयानक हो सकते हैं. नोटबंदी ने न सिर्फ देश की आम जनता का जीना मुहाल कर दिया बल्कि व्यापार एवं दूसरे धंधों पर भी इस ने बहुत बुरा असर डाला.

विंटर स्पेशल: विंडीप वेन थ्रोम्बोसिस- चुपके से डसता है DVT

डीप वेन थ्रोम्बोसिस ऐसा रोग है जिस के चलते शरीर में कहीं किसी नस के भीतर रक्त का थक्का बन जाता है. डीवीटी ज्यादातर निचले पैर या जांघ में होता है, हालांकि यह कभीकभी शरीर के अन्य भागों में भी हो सकता है. कोविड के कई मरीजों की जान पिछले 2 सालों में इसलिए गई क्योंकि उन्हें पहले से डीवीटी यानी डीप वेन थ्रोम्बोसिस की बीमारी थी. इस बीमारी में टांगों की नसों के सुकड़ जाने से खून के थक्के बन जाते हैं. जब कोविड में लंग्स पर अटैक होता है और ये थक्के वहां मौजूद होते हैं तो जान बचाना मुश्किल हो जाता है. डीवीटी को कभी हलके में नहीं लेना चाहिए.

मानव शरीर में नाडि़यों में खून के थक्के जम जाना काफी खतरनाक हो सकता है. पुराने रोगियों यानी जिन में क्रौनिक ढंग से रोग ने जड़ें जमा ली हों तो उन की टांगों की रक्त धमनियों में थक्के जमा होने लगते हैं और ये थक्के जानलेवा हो सकते हैं. इसलिए ऐसे मामले में उपचार व परहेज की तरफ खास ध्यान देने की बहुत जरूरत रहती है. विशेषज्ञ डाक्टर के अनुसार, ‘कई बार होता यह है कि टांगों की रक्त धमनियों से ये थक्के फेफड़ों या दिमाग में चले जाते हैं. इन के लक्षण सामने ही नहीं आ पाते. इस से रोग का सही निदान नहीं हो पाता. कुछ मामलों में तो रोगी की जान चली जाती है और मगर इस रोग का पता ही नहीं चल पाता. डाक्टरी भाषा में इसे डीप वेन थ्रोम्बोसिस या डीवीटी कहते हैं.’

जानकारों के अनुसार, आज की कंप्यूटर केंद्रित जिंदगी में जो लोग लंबे समय तक बिना टांगें हिलाए कंप्यूटर पर काम करते हैं या फिर लंबी यात्राएं करते हैं और घंटों सीधे बैठे रहते हैं, उन को इस तरह के रोग हो जाने की आशंका ज्यादा रहती है. एक ही जगह एकजैसी हालत में लंबे समय तक बैठे रहने से खून के संचार में रुकावट आ जाती है. यहीं से खून के थक्कों का बनना शुरू हो जाता है. जब खून में थक्के बनने लगते हैं और वे अपना असर मानव मस्तिष्क पर दिखाने लगते हैं तो रोग खतरनाक हो जाता है. एक ही हालत में लगातार बैठे रहने से थक्के पूरी जकड़ बना लेते हैं और रक्त संचालन में अवरोध पैदा कर देते हैं. फिर इस का सीधा असर दिमाग पर पड़ता है,

जिस के बाद यह दिल पर अपना असर दिखाना शुरू कर देते हैं. जो लोग अस्पतालों में लंबे समय से लेटे रहते हैं, उन के लिए यह एक गंभीर रोग बन जाता है. फिर इस से संक्रामक रोग, श्वास रोग, और यहां तक कि कैंसर हो जाने का डर भी रहता है. डाक्टरों के मुताबिक, ‘जब किसी रोगी के पैर काले पड़ जाएं, फोड़ाफुंसी लंबे समय तक ठीक न हो, घाव न भरे, चलने पर पैर में तकलीफ हो, शरीर में बेचैनी महसूस हो तो सम झ लिया जाना चाहिए कि डीवीटी शुरू हो चुका है.’ इस रोग की जरा भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए. कई बार तो जब नसें फूल जाती हैं तो यह बीमारी बेकाबू हो जाती है. वैसी हालत में दिल की धमनी फट जाने से व्यक्ति की मौत भी हो सकती है.

वैसे भी इस वजह से हार्टअटैक की आशंका बढ़ जाती है. विशेषज्ञों के अनुसार इस रोग से दिल का दौरा पड़ने की आशंकाएं कई गुना बढ़ जाती हैं. एक और चिकित्सक का कहना था, ‘यह रोग 50 साल से बड़ी उम्र वालों को ज्यादा होता है. सब से बड़ा कारण तो यह है कि रोगी या उस के परिवार वाले इस रोग के प्रति गंभीरता नहीं दिखाते. इलाज में देरी की वजह से रोगी अपने अंग भी नकारा करवा बैठता है. ‘जो लोग शराब पीते हैं, घूम्रपान करते हैं, जो लगातार मोटे होते रहते हैं और जिन का रक्तचाप हमेशा ही ऊंचा रहता है वे इस रोग के ज्यादा शिकार होते हैं. सब से ज्यादा असर तो टांगों पर पड़ता है और रोगी को उठाने या बैठाने में बहुत तकलीफ होने लगती है.’

दिल जब सारे शरीर को रक्त संचरित करता है तो कमजोर नसें उस का दबाव सहन नहीं कर पातीं. फिर खून अपना दौर पूरा कर के दिल को लौटता है, मगर कमजोर नसें इसे वहन करने में समर्थ नहीं रह जातीं. जब नसों में थक्के बढ़ें हों तब भी टांगों में सब से ज्यादा इस रोग की वजह से परेशानी होती है. रक्त संचार के लिए 2 जगह की नाडि़यां काम करती हैं. एक आम नाडि़यां जो चमड़ी के नीचे स्पष्ट नजर आती हैं. दूसरी, गहरी नसें जो टांगों के नीचे पुट्ठों में भीतर ही भीतर होती हैं और दिखाई नहीं देतीं. खून का दौरा ऊपरी नसों से भीतर की नसों को जाता है जिन का संचालन छोटेछोटे छिद्रों द्वारा किया जाता है. ऊपरी नसें और छिद्र ऐसे वाल्वों से जुड़े रहते हैं जो रक्त को केवल दिल की ओर भेजते हैं. जब तक इन की गति समान रहती है, तब तक शरीर को कोई नुकसान नहीं होता मगर जब इन में थक्के जमना शुरू हो जाते हैं तो रोग भी शुरू हो जाता है. एक प्रमुख चिकित्सक का कहना है,

‘टांगों में थक्के होना कोई खतरा नहीं कहा जा सकता, मगर जब कोई थक्का दिल की तरफ या दिल से हो कर आगे बढ़ता है तब वह फेफड़े में अटक जाता है. रोग का निदान और इलाज यही पता लगाने पर जोर देता है कि कोई थक्का इस राह पर न जाए या न अटके. वैसे, ऊपरी सतह की नसों में थक्के कोई नुकसान नहीं कर पाते, उन के सिर पर रक्त को भीतरी नसों की तरफ बढ़ाने वाले छिद्र उन्हें रोक लेते हैं.’ इस रोग की एक बड़ी मुश्किल यह है कि इसे पहचानने वाले लक्षणों का अकसर पता नहीं चलता. फिर भी निदानकर्ताओं ने जो शोध किया है, उस के अनुसार डीवीटी हो जाने पर दर्द होने लगता है, टांगों पर लाली और सूजन आ जाती है. कई बार टांगें पीली पड़ जाती हैं, बहुत ठंडी रहती हैं. मगर कोई भी परीक्षण ऐसा नहीं जो डीवीटी को सही तौर पर स्पष्ट कर सके.

कई बार तो यह रोग वंशानुगत भी होता है. ऐसा माना जाता है कि डीवीटी हर बार घातक नहीं होता. कई बार तो इस की वजह से दर्द भी नहीं होता. मगर कुछ मामलों में दर्द बढ़चढ़ कर होता है. यानी, इस रोग में दर्द हो भी सकता है और नहीं भी. वहीं, डीवीटी हर बार खतरे के निशान को पूरी तरह पार किए नहीं होता. कुशल चिकित्सिक के उपचार से जिंदगी पर मंडराने वाला खतरा टाला जा सकता है. जब थक्का किसी नस में धंस जाता है तो जानलेवा हो सकता है. इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय ही कहा जा सकता है कि इस रोग का जल्दी से पता नहीं चलता. एक नामी अस्पताल के चिकित्सक का कहना है, ‘इस रोग के दोतीन लक्षण अब तक माने गए हैं. पहला यह कि रक्तचाप की गति धीमी हो जाती है. दूसरे, किसी व्यक्ति विशेष के शरीर में ये थक्के तेजी से बनने लगते हैं, उस के खून में इस तरह ही हालत पाई जाती है. तीसरे, ये थक्के नाडि़यों में जलन से पैदा होने लगते हैं.’

दरअसल थक्के जमा होने का कोई एक निश्चित कारण नहीं है. इस की कई वजहें हो सकती हैं. कभी लंबी बीमारी या औपरेशन के बाद ऐसा हो सकता है. इस से दिल का दौरा पड़ सकता है और उस से बचने के बाद यह रोग घर कर सकता है. लंबी दूरी की कार यात्रा के बाद भी थक्के अपना असर दिखा सकते हैं. परिवार में किसी सदस्य को यह रोग होने पर दूसरे को भी हो सकता है. जांघ या घुटने के औपरेशन के बाद लंबे बैडरैस्ट से बेचैनी महसूस होने वालों, सांस के पुराने रोगियों, लगातार धूम्रपान करने वालों या किसी बड़ी दुर्घटना के शिकार रोगी को भी यह रोग हो सकता है. मोटापा भी डीवीटी की वजह हो सकता है. इन में से कोई सा संकेत मिलते ही डाक्टर की सलाह जरूर लेनी चाहिए.’ थक्कों की वजह से पीडि़त रोगी की कोशिश यही होनी चाहिए कि थक्के खून में से बिना दवाई के घुल जाएं. इस के लिए रोजाना सुबह या शाम को कम से कम 4 किलोमीटर सैर करनी चाहिए.

भोजन बिलकुल सादा लेना चाहिए. हर रोज रसदार फल जरूर खाना चाहिए. इस रोग से ग्रसित व्यक्ति में, सही व्यक्ति की तुलना में हार्टअटैक की संभावना 4-5 गुना ज्यादा रहती है. जो लोग बिस्तर पर ज्यादा पड़े रहते हैं उन्हें भी इस रोग का खतरा होने की आशंका रहती है. इस रोग में सावधानी, सतर्कता, खानेपीने में सजगता, शरीर को हिलातेडुलाते या काम में लगाए रहने से बचा जा सकता है. आलस्य, प्रमोद, ज्यादा खाना, धूम्रपान, शराब का सेवन और कोई सा भी नशा करते रहने से यह रोग जल्दी ही अपना बुरा नतीजा दिखा सकता है. जो लोग इस सचाई को सही मानो में सम झते हैं, उन्हें डीवीटी कभी नहीं सता सकता.

मोह भंग: रिश्तों में सेंधमारी

मैं 28 वर्षीय नौजवान हूं, मेरी जिससे शादी होने वाली है उससे मैं मिला नहीं हूं, शादी करने में डर लग रहा है क्या करूं?

सवाल

मैं 28 वर्षीय नौजवान हूं. अगले महीने मेरी शादी होने वाली है. मैं लड़की से अभी तक अकेले में सिर्फ एक बार मिला हूं क्योंकि वह हिमाचल की है और मैं दिल्ली में रहता हूं. मु झे शर्मीली स्वभाव की लगती है. बात जब सैक्स तक पहुंचती है तो चुप हो जाती है. खुल कर रिप्लाई नहीं देती. उस का यह रवैया देख कर मु  झे लगता है कि शादी के बाद मुझे सैक्स को ले कर ज्यादा उतावला नहीं होना चाहिए. मैं हैल्दी सैक्स, एक हैल्दी रिलेशनशिप कैसे बना कर रख सकता हूं. थोड़ा बताएं ताकि मैं उन बातों का ध्यान रखूं.

जवाब

हैल्दी सैक्स ही हैल्दी रिलेशनशिप की पहचान होता है. आप को लगता है कि आप की मंगेतर शर्मीली है तो शादी के बाद आप को सम  झदारी, प्यार से उसे अपने करीब लाना होगा क्योंकि हर बात की पहल आप को करनी होगी. हां, बाद में वह आप से खुल ही जाएगी, वह दूसरी बात है.

लेकिन आप की प्रौब्लम पहली है यानी कि अभी आप लोग आपस में खुले नहीं हैं. ज्यादा एकदूसरे के बारे में जानते नहीं. इसलिए सैक्स को ले कर आप ओवरएक्साइटेड न हों.

शादी के बाद हसबैंड और वाइफ दोनों की एकदूसरे से एक्सपैक्टेशन होती है. इसलिए शादी के बाद सैक्स के दौरान दोनों को एकदूसरे की भावना का खयाल रखते हुए सैक्स एंजौय करना चाहिए और इसे ही हैल्दी सैक्सुअल लाइफ से जोड़ कर देखा जाता है. यदि आप शादी के बाद हैल्दी सैक्स लाइफ अचीव करना चाहते हैं तो कुछ बातों का हमेशा ध्यान रखें जैसे कि फोरप्ले को बेकार न सम  झें. महिलाओं को फोरप्ले बहुत पसंद आता है. अगर आप इस से बचेंगे तो सैक्स लाइफ पर बुरा असर पड़ेगा.

दूसरी बात, जल्दबाजी में सैक्स करने की कोशिश न करें. अगली बात, पार्टनर से उस की पसंद और नापसंद के बारे

में जरूर पूछें. चौथी, सैक्स के समय प्रोटैक्शन का ध्यान जरूर रखें. 5वीं, सैक्स हाइजीन के बारे में जानकारी हासिल करें. आखरी बात, किसी प्रकार की सैक्स प्रौब्लम होने पर उसे छिपाएं नहीं, बल्कि पार्टनर को बताएं.

क्यों होती हैं मोरबी जैसी घटनाएं

बढ़ते शहरीकरण ने देश में कंक्रीट के ऐसे जंगल खड़े कर दिए हैं जिस ने लोगों से उन के घरों के आसपास घूमने की जगहें छीन ली हैं. छुट्टियों के दिन सार्वजनिक स्थानों पर अत्यधिक भीड़ का उमड़ना यानी मोरबी जैसी घटनाएं इसी का नतीजा है. गुजरात के मोरबी में मच्छू नदी पर ब्रिज के टूटने से 135 लोगों की मौत हो गई. इन 135 में से 54 बच्चे थे. गुजरात के इतिहास का यह अब तक का सब से बड़ा पुल हादसा है, जिस में इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हुई.

यह हादसा 30 अक्तूबर को शाम साढ़े 6 बजे हुआ. ब्रिटिश टाइम के बने जिस मच्छू पुल पर एक वक्त में सौ से अधिक लोगों को जाने की मनाही थी, उस पर 700 से ज्यादा लोग चढ़े हुए थे. गलती सरकार से ले कर टिकट बेचने वाले और पुल का प्रबंधन संभालने वालों की भी थी, जो अधिक से अधिक संख्या में टिकट बेच कर पैसा कमाने के लालच में लोगों की जान से खेल रहे थे. लोग 21 रुपए का टिकट 50 रुपए में खरीद कर पुल पर पहुंच गए थे. बच्चे उत्साह से उछलकूद मचा रहे थे, युवा सैल्फियां निकाल रहे थे, वीडियो बना रहे थे तो कुछ जोर लगा कर पुल को झुलाने की कोशिश में जुटे थे.

अचानक एक तरफ से पुल की स्ट्रिंग टूटी, पलक झपकते पुल 2 भागों में टूट गया और 700 लोग नीचे गहरी नदी में समा गए. जो तैरना जानते थे उन्होंने तैर कर अपनी जान बचा ली. कुछ जो टूटे पुल के हिस्से पकड़ कर झूल गए, वे भी किसी तरह बचा लिए गए. आसपास के बचावकर्मियों ने भी कइयों की जानें बचाईं मगर अनेक महिलाएं और मासूम बच्चे गहरी नदी में समा गए. घटना के 2 दिनों बाद तक बचाव दल नदी में से लाशें निकालते रहे. कुछ तो ऐसे डूबे कि उन की लाशें भी नहीं मिलीं. इस से पहले 3 अक्तूबर को भदोही-औराई मार्ग पर स्थित दुर्गा पूजा पंडाल में भीषण आग ने पूरे जिले को झक झोर कर रख दिया था. पंडाल स्थल पर प्रोजैक्टर पर धार्मिक कार्यक्रम चल रहा था.

सैकड़ों आदमियों के अलावा 150 से अधिक महिलाएं और बच्चे वहां मौजूद थे. गुफानुमा बनाए गए इस धार्मिक स्थल में आनेजाने का सिर्फ एक रास्ता था. अचानक शौर्ट सर्किट से वहां आग लग गई और भगदड़ मच गई. इस में कई महिलाएं और बच्चे गिर कर चोटिल हो गए. आग तेजी से फैलने लगी. पूरी गुफा चूंकि फाइबर और प्लास्टिक की पन्नियों से बनी थी लिहाजा आग भड़कते देर न लगी और पलभर में पूरा पूजा पंडाल धूधू कर जलने लगा. वहां मौजूद लोगों को संभलने का मौका ही नहीं मिला और अधिकतर लोग इस आग में झुलस गए.

साउथ कोरिया की राजधानी सियोल में 29 अक्तूबर की देररात हैलोवीन फैस्टिवल के दौरान भगदड़ मचने से 151 लोगों की मौत हो गई. 2 हजार से ज्यादा लोग लापता बताए जा रहे हैं. इस फैस्टिवल में ज्यादातर टीनएजर्स अलगअलग तरह के डरावने आउटफिट्स पहने हुए थे, उन के चेहरों पर गहरा मेकअप और मास्क था. तेज म्यूजिक के बीच यह भीड़ एक तंग सुरंगनुमा जगह में बढ़ती जा रही थी. तभी वहां भगदड़ मच गई और लोग एकदूसरे पर गिरने लगे. अधिकांश लोगों की मौत दहशत के कारण हार्टअटैक से हुई. बहुतेरे कुचले गए. इस फैस्टिवल में भाग लेने के लिए विदेश से भी लोग आए थे जिन्होंने इस भीड़ में अपनी जान गंवा दी. 24 सितंबर, 2015 को सऊदी अरब की मक्का मसजिद के पास मीना में भगदड़ मचने से एक हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों घायल हुए. भगदड़ की घटना शैतान को पत्थर मारने की रस्मअदायगी के दौरान हुई.

शैतान को पत्थर मारने की रस्मअदायगी के दौरान करीब 12 से 15 लाख लोग मीना में एकसाथ जमा होते हैं. लखनऊ के चिडि़याघर में रविवार के दिन अथवा ईद और दीवाली के दूसरे दिन इतनी ज्यादा भीड़ उमड़ती है कि एक ओर जहां चिडि़याघर प्रबंधन के हाथपांव फूल जाते हैं वहीं इतनी भीड़ और शोरगुल देख कर जानवर भी अपने बाड़े में डरेसहमे दिखाई देते हैं. छुट्टी वाले दिन दिल्ली के इंडिया गेट पर भी हजारों की भीड़ देखी जाती है. जबकि यहां न तो कोई शौपिंग सैंटर है और न फूड कोर्ट. अब तो कई स्थानों पर हरी घास पर चलने या फैमिली के साथ घास पर चटाई बिछा कर बैठने व खानेपीने की भी परमिशन नहीं है, फिर भी लोग टाइम स्पैंड करने यहां चले आते हैं.

शाम को इंडिया गेट पर तिल रखने की जगह नहीं होती. इसी भीड़ में चोरउचक्कों को भी हाथ साफ करने का सुनहरा मौका मिलता है. सवाल यह उठता है कि इन स्थलों पर इतनी भीड़ क्यों उमड़ने लगी है? इस की 2 मुख्य वजहें हैं. पहली- बढ़ते शहरीकरण ने लोगों से उन के घूमनेफिरने की जगहें छीन ली हैं. दूसरी- मोदी सरकार में धार्मिक कर्मकांडों को जितनी हवा दी जा रही है, आस्था को जिस तरह से उकसाया जा रहा है, तमाम टीवी चैनलों और सोशल मीडिया के जरिए धर्म के नाम पर जितना डर लोगों के दिलों में बिठाया जा रहा है उस से सहमे लोग बड़ी तादाद में धार्मिक स्थानों का रुख करते हैं. सरकार इस भीड़ को काबू करने के इंतजाम नहीं कर पाती है, लिहाजा ऐसी दर्दनाक घटनाएं घटित हो रही हैं. गौरतलब है कि शहरी आबादी बढ़ने के साथसाथ अब लोगों के रहने की जगहें संकुचित होती जा रही हैं.

महानगरों में ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों में भी पहले जैसे खुलेखुले मकान अब नहीं बचे हैं. पहले के मकानों में घर के बीच एक आंगन होता था. बाहर बगीचा होता था. ऊपर खुली छत होती थी. उन घरों में बच्चों को खेलनेघूमने और मस्ती करने के लिए पर्याप्त स्पेस था. घर के ऊपर खुली छत पर बच्चे पतंगें उड़ाते थे, बैडमिंटन खेलते थे. घर की औरतें पापड़अचार बनाने के बहाने, कपड़े सुखाने के बहाने छत पर चढ़ कर पड़ोसी से गप्पें मार लेती थीं. घर के बाहर अनेक पार्क होते थे. शाम होते ही इन पार्कों में बच्चों का जमघट लगना शुरू हो जाता था. सुबह के वक्त बुजुर्ग अपने हमउम्र साथियों के साथ वहां सैर करते थे. किसी जगह पर बैठ कर गपशप कर लेते थे. मगर धीरेधीरे शहरों की आबादी बढ़ी, मकानों की जगहें फ्लैट्स ने ले लीं. आज कहीं भी 50-60 माले की बिल्ंिडग पलक झपकते खड़ी हो जाती है.

टू बीएचके, थ्री बीएचके में लोगों की जिंदगी सिमटती जा रही है. लोग हवा में टंग से गए हैं. इन फ्लैट्स में न जमीन अपनी है न आसमान. कहने का तात्पर्य यह कि इस तरह के घरों में न तो बच्चों, बुजुर्गों और महिलाओं को आंगन का सुख मिल रहा है न छत का. साथ ही, संयुक्त परिवार भी अब नहीं हैं जहां सब के साथ रहने, बातचीत करने, हंसने, ठिठोली करने का अवसर मिलता था. फ्लैट कल्चर में एकल परिवार की ही परिकल्पना की गई है. आज छोटे शहरों से ले कर महानगरों तक में बिल्डर बड़ेबड़े प्रोजैक्ट खड़े कर रहे हैं. ऊंचीऊंची बिल्ंिडग्स में कबूतरनुमा कमरे हैं. हालांकि कई सोसाइटी ऐसी हैं जिन के बीच में छोटा पार्क है, लेकिन इन पार्कों में कोई आता नहीं है क्योंकि पार्क का लुत्फ उठाने के लिए अलग से पैसा देना पड़ता है. दूसरी दिक्कत यह है कि इन पार्कों में आप हरी घास पर चल नहीं सकते, किसी कोने में अपने दोस्तों के साथ बैठ कर पिकनिक नहीं कर सकते. यहां खापी नहीं सकते.

बच्चे यहां घास पर खेल नहीं सकते क्योंकि इस से घास खराब होती है और सोसाइटी की सुंदरता नष्ट होती है तो ऐसे प्रतिबंधों के बीच रहने वाले लोग छुट्टी के दिन उस जगह जाना चाहते हैं जहां उन्हें पैरों के नीचे जमीन और सिर पर खुला आसमान मिले. साथ ही, जहां ज्यादा पैसा भी न खर्च करना पड़े. घर छोटे होने, लोगों के घूमनेफिरने और बच्चों के खेल स्थलों के लगातार कम होते जाने के कारण वैकेशन पर लोग अब पूरे परिवार के साथ ऐसी जगह की तलाश में निकलते हैं जहां कम पैसे में दिनभर एंजौय किया जा सके. ऐसी जगहें चूंकि कम हैं, लिहाजा, वहां भीड़ ज्यादा हो जाती है और फिर होती हैं दुर्घटनाएं. ऐसी खबरें जिन में धर्मस्थलों पर भारी भीड़ में हादसा हुआ हो.

हर दिन देश के किसी न किसी कोने से आती हैं और दिन बीतने के साथ भुला दी जाती हैं. धार्मिक स्थलों पर पहले ऐसी भीड़ नहीं उमड़ती थी, मगर सोशल मीडिया, टीवी चैनलों, अखबारों, पत्रिकाओं और कथावाचकों द्वारा धर्म और कर्मकांडों का ऐसा डर लोगों के दिल में पैदा कर दिया गया है कि उन्हें लगता है कि धार्मिक स्थलों पर जा कर दर्शन किए बगैर तो मुक्ति ही नहीं है. पहले गलीमहल्ले के पार्क या धर्मशाला में सत्संग वगैरह होते थे, जिस में जा कर लोग अपने भक्तिभाव की संतुष्टि कर लेते थे, अब जगह की कमी और फ्लैट कल्चर के चलते वे नहीं होते हैं.

ऐसे में लोग धार्मिक स्थलों की ओर भागते हैं जहां यदि अत्यधिक भीड़ की वजह से कोई दुर्घटना हो जाए तो मुक्ति की आस लिए वे दुनिया से ही मुक्त हो जाते हैं. भारत के अधिकांश शहर अब अतिशहरीकरण के शिकार हैं. जब शहरी आबादी इतनी बढ़ जाए कि शहर अपने निवासियों को अच्छी जीवनशैली देने में असफल हो जाए तो हादसे होने स्वाभाविक हैं. वहीं अब ग्रामीण इलाकों से रोजगार की तलाश में बहुतायत में लोग परिवार सहित शहरों का रुख कर रहे हैं. इस के कारण भी घूमनेफिरने की जगहें ओवरक्राउडेड होने लगी हैं. ऐसे में मोरबी जैसी दुर्घटनाओं पर रोक लगना असंभव सा होता जा रहा है.

‘‘इंडिया लॉक डाउनः बुरी तरह से मात खा गए मधुर भंडारकर

रेटिंग: एक स्टार

निर्माता: जयंतीलाल गाड़ा, मधुर भंडारकर व प्रणव जैन

निर्देशकः मधुर भंडारकर

कलाकारः प्रतीक बब्बर,साई ताम्हणकर,श्वेता बसु प्रसाद, अहाना कुमरा,प्रकाश बेलावडी,पंकज झा, आयशा एम एमन व अन्य.  

ओटीटी प्लेटफार्मः जी 5

अवधि: एक घंटा पचास मिनट

‘चांदनी बार’,‘सत्ता’,‘पेज 3’,‘कारपोरेट’,‘फैशन’,‘हीरोईन’,‘कलेंडर गर्ल’,‘इंदू सरकार’ व ‘बबली बाउंसर’ जैसी फिल्मों के फिल्मकार मधुर भंडारकर की अपनी एक अलग पहचान रही है. उनकी फिल्में लोगों के दिलों तक पहुॅचती रही हैं. मगर‘इंदू सरकार’ व ‘बबली बाउंसर’ में उनकी पकड़ ढीली पड़ गयी थी. बहरहाल,अब वह कोरोना महामारी के चलते लगे लाॅक डाउन के दौरान घटी सत्य घटनाक्रमों पर फिल्म ‘‘इंडिया लाॅकडाउन’’ लेकर आए हैं,जो कि दो दिसंबर से ओटीटी प्लेटफार्म ‘जी 5’ पर स्ट्ीम हो रही है. इस फिल्म में सेक्स का तड़का भरा हुआ है,मगर कहानी गायब है. फिल्म में दृश्य है,मगर आत्मा नही है. वास्तव में दर्शकों को अंदर से झकझोर कर रख देने वाली कहानी उनके पास नही है.

कहानीः                                

यूं तो फिल्म में चार कहानियां समांनांतर चलती हैं. एक कहानी मंुबई में मजदूरी करने वाले बिहारी युवक माधव (प्रतीक बब्बर) की है,जो कि अपनी फूलमती पत्नी (साई ताम्हणकर) व छोटी बच्ची के साथ किराए की खोली में रहता है. कोरोना महामारी फैलने से पहले से ही वह आर्थिक तंगी से जूझ रहा है. लाॅक डाउन लगने पर खोली का मालिक किराया देने के लिए धमका रहा है तो वह कुछ लोगों के साथ झंुड में बिहार अपने गांव की तरफ परिवार के साथ पैदल निकल पड़ता है. रास्तें में उनके झंुड का ही एक साथी फूलमती के साथ छेड़छाड़ भी करता है.

दूसरी कहानी कमाठीपुरा की सेक्स वर्करों की है. इसमें से मेहरुनिसा कुछ ज्यादा ही तेज है. उसकी मां गांव में रहती है. मेहरुनिसा (श्वेता बसु प्रसाद) ने अपनी मां को बताया है कि वह मंुबई में एक अस्पताल में नर्स है. कोरोना महामारी और लाॅकडाउन के चलते फोन सेक्स से लेकर नेताओं के चमचों द्वारा एम्बूलेंस मंे ही सेक्स करने से लेकर कई घटनाक्रम हैं.

तीसरी कहानी एक युवा प्रेमी जोड़े की है. पायल अपने साथ पढ़ने वाले लड़के देव के प्रेम में डूबी है. दोनों वर्जिन हैं और वर्जिनिटी को खत्म करने के लिए उन्हे सुरक्षित व एकांत जगह की तलाश है. देव के चाचा एक सप्ताह के लिए शिमला जाने वाले हैं. तब देव को चाचा के घर में ही रहना है. अब पायल व देव को उस दिन का इंतजार है,जब देव के चाचा षिमला जाए. देव के चाचा शिमला के लिए रवाना होेते हैं,और इधर लाॅक डाउन लग जाता है. देव व पायल नही मिल पाते. मगर देव की दोस्ती उसी इमारत में रहने वाली एअर होस्टेस मून एल्वेस (अहाना कुमारा) से हो जाती है. पर एक दिन पायल व देव अपनी वर्जीनिटी को तोड़ने में सफल हो जाते हैं.

चौथी कहानी एम नागेश्वर राव (प्रकाश बेलेवाड़ी) की है. जो मंुबई में अकेले ही रहते हैं. पत्नी का देहांत चुका है. उनकी बेटी हैदराबाद मंे है और वह मां बनने वाली है. इसलिए नागेश्वर राव ने हैदराबाद जाने के लिए प्लेन की टिकट निकाल रखी है. पर लाॅकडाउन की वजह से हवाई यात्रा भी बंद हो जाती है. तब एम नोगष्वर राव जुगाड़ लगाकर परमिट हासिल कर सड़क मार्ग से ख्ुाद ही कार चलाते हुए हैदराबाद के लिए रवाना होते हैं और रास्ते में उनके साथ हादसा होता है. अंत में चारों कहानियों का सुखद अंत होता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म की कहानी व पटकथा काफी कमजोर और विखरी विखरी सी है. कोरोना के चलते लगे लाॅकडाउन के वक्त की कई रोचक किस्से हैं. लोगों की जिंदगी में बहुत कुछ घटा. मगर फिल्म निर्देशक मधुर भ्ंाडारकर को हर तरफ केवल ‘सेक्स’ की भूख ही नजर आयी. उन्होने अपनी फिल्म में जिस तरह से सेक्स परोसा है,उससे उन्होने लाॅक डाउन के दिनों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा काम ही किया है.

मधुर भंडारकर ने लाॅक डाउन के दौरान जिस तरह से आम इंसानों को मेडिकल सेवाओं, अस्पताल में बेड न मिलने,जरुरत की चीजों के दाम अचानक आसमान पर पहुॅचने सहित कई समस्याओं की अनदेखी की है. वास्तव में मधुर भंडारकर आज भी बीस वर्ष पहले वाली सोच के साथ ही जी रहे हैं.

तभी तो उनके जैसा संवेदनषील फिल्म सर्जक अपनी फिल्म में कोठे पर ब्लैकमेलिंग का षिकार हो रही मेहरूनिषा सागर किनारे पलक व देव को चंुबन करते देख कहती है-‘‘जो काम हम पैसा लेकर करते हैं,दूसरी युवतियां उसे मुफ्त में क्यों करने देती हैं. तब साथ वाली दूसरी सेक्स वर्कर उसे समझाते हुए कहती है कि वह पैसा नहीं मगर इसके बदले बहुत कुछ पाती हैं. स्त्री पुरूष संबंधों पर इस तरह की छिछांरीटिप्पणी कम से कम मधुर भ्ंाडारकर जैसे संवेदनशील फिल्मकार को शोभा नहीं देती.

फिल्म के निर्देशक मधुर भ्ंाडारकर और लेखक द्वय अमित जोशी व अराधना सहा को भारत की भौगोलिक जानकारी भी नही है. तभी तो मंुबई से बिहार के पैदल निकले मजदूर और मंुबई से हैदराबाद निकले धनी कार वाल इंसान आधे रास्ते पर मिल जाते हैं. शायद मध्ुार भंडारकर की नजरों में मंुबई ही इंडिया है.

अच्छा है कि ‘इंडिया लाॅकडाउन’ ओटीटी प्लेटफार्म ‘जी 5’ पर स्ट्ीम हो रही है. क्योंकि सिनेमाघरों में इस फिल्म को देखने के लिए दर्शक अपनी गाढ़ी कमायी बर्बाद करने से बचता और तब आनंद एल राय की तरह मध्ुार भ्ंाडारकर भी अपनी गलती को स्वीकार करने की बजाय यही कहते कि ‘दर्शक बेवजह बाॅलीवुड से नाराज है. ’’

अभिनयः

बिहारी मजदूर माधव के किरदार में प्रतीक बब्बर पूरी तरह से न्याय नही कर पाए. वह बिहारी लहजे को सही ढंग से पकड़ नही पाए. फूलमती के किरदार में साई ताम्हणकर के हिस्से केवल संुदर दिखना ही आया. इस तरह मध्ुार भ्ंाडारकर ने एके बेहतरीन प्रतिभाशाली कलाकार साई ताम्हणकर को जाया ही किया है. एम नागेश्वर राव के किरदार को अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान करने में प्रकाश बेलवाड़ी पूरी तरह से सफल रहे हैं. एअर होस्टेस मून एल्वेस के किरदार मंेे अहना कुमरा याद रह जाती हैं. सेक्स वर्कर मेहरूनिसां के किरदार में श्वेता बसु प्रसाद का चिलबुलापन याद रह जाता है.

विंटर स्पेशल : कोकोनट औयल के ये टिप्स आपको दिलाएंगी ग्लोइंग स्किन

आजकल के पौल्यूशन और केमिकल से बने प्रोडक्टस का इस्तेमाल न करके हेल्दी स्किन पाना हर किसी की चाहत होती है, जिसके लिए वह होममेड टिप्स का सहारा लेता है. आज हम आपको ऐसी ही होममेड टिप्स के बारे में बताएंगे जिससे आपकी स्किन बिना केमिकल प्रोडक्टस का इस्तेमाल करे चमकेगी. गरमी हो या सरदी हर किसी के घर में कोकोनट औयल का इस्तेमाल होता है. चाहे वह खाना बनाने के लिए हो या बालों को लंबा और शाइनी बनाने के लिए. पर क्या आपको पता है कि कोकोनट औयल का इस्तेमाल स्किन के लिए भी होता है. आज हम कोकोनट की उन्ही टिप्स के बारे में बात करेंगे…

  1. स्‍क्रब के रूप में भी इस्तेमाल होता है कोकोनट औयल

साफ स्किन पाने के लिए कोकोनट स्‍क्रब काफी असरदार है. इस स्‍क्रब को बनाने के लिये आपको शहद, ओट्स और कोकोनट औयल चाहिये. इन सभी चीजों को मिक्‍स करें और पेस्‍ट तैयार कर लें.

फिर इसे अपने हाथों से चेहरे पर लगा कर गोल गोल स्‍क्रब करें. यह हर तरह की स्‍किन पर सूट करता है. इससे डेड स्‍किन हटती है और स्‍किन में चमक आती है. यह स्‍किन का मौइस्‍चर भी देता है. यह ट्रीटमेंट उनके लिये अच्‍छा है जिनके चेहरे पर मुंहासे होते हैं.

  1. डार्क स्‍पौट के लिये फायदेमंद है कोकोनट औयल

अक्‍सर चेहरे पर मुंहासे के दाग रह जाते हैं जो काफी दिनों के बाद जाते हैं, लेकिन इस ट्रीटमेंट से आपको काफी फायदा होगा. इसके लिये आपको कोकोनट औयल, लेवेंडर औसल और फ्रैंकइनसेन्स एशेंशल औयल (frankincense essential oil जो आपको आसानी से दुकानों में मिल जाएगा) मिलाना होगा. ये तीनों चीजों को मिला कर किसी गहरे कांच की शीशी में भर कर रखिए. फिर इसे ड्रौपर से लगाइये. इसे हर रात सोने से पहले लगाएं. कोशिश करें कि अपनी स्‍किन को अच्‍छी तरह से मसाज करें जिससे औयल आपकी स्‍किन में पूरी तरह से समा जाए.

  1. ड्राई स्किन को सौफ्ट बनाएगा कोकोनट औयल

इसके लिये आपको चाहिये कच्‍ची शहद और कोकोनट औयल। शहद स्‍किन को काफी अच्‍छी तरह से हाइड्रेट करती है और स्‍किन को बिल्‍कुल नुकसान नहीं करती। इन दोनों चीजों को मिक्‍स कर के चेहरे पर लगाएं और कछ मिनट के लिये लगा छोड़ दें। फिर इसे गुनगुने पानी से धो लें।

  1. डीप क्‍लीजिंग के अच्छा है कोकोनट औयल

घर पर अगर आपको डीप क्‍लीजिंग करनी हो तो आपको बेकिंग सोडा और कोकोनट औयल लें. बेकिंग सोडे मे एंटीबैक्टीरियल और एंटी इनफ्लेमेंटरी गुण होते हैं. जो पोर्स को डीप क्‍लींज करते है और जिन लोंगो को ब्‍लैकहेड या एक्‍ने होता है उनके लिये यह काफी अच्‍छा है.

विंटर स्पेशल : ऐसे बनाएं हांडी पनीर

आज आपको हांडी पनीर की रेसिपी बताते हैं. जो काफी टेस्टी है और आप इस मसालेदार डिश को घर पर ही रेस्टोरेंट जैसा बना सकतै हैं. तो आइए जानते हैं इस स्वादिष्ट डिश की रेसिपी.

सामग्री

मिर्च पाउडर 1/2 चम्मच

टमाटर 1 बारीक कटा

कटी हुई धनिया की पत्ती मुट्ठीभर

रिफाइंड तेल 4 टेबलस्पून

पनीर 200 ग्राम

हल्दी पाउडर 1/2 चम्मच

गरम मसाला 1/2 चम्मच

पानी 1/2 कप

पिसी हुई काली मिर्च 2 चुटकी

अदरक के टुकड़े 2 घिसे हुए

मेन डिश के लिए

प्याज 3 कटे

दही 1/2 कप

बनाने की वि​धि

हांडी में तेल डालें, मध्यम आंच पर कटा हुआ प्याज फ्राई करें इसके बाद आंच धीमी कर लें.

इसके बाद अदरक, हल्दी, मिर्च, गरम मसाला डालकर अच्छी तरह मिलाएं.

बारीक कटा हुआ टमाटर और हरी मिर्च डालें और धीमी आंच पर 10 मिनट तक पकाएं.

नमक डालने से पहले आधा कप दही डालर सूखने तक पकाएं.

आधा कप पानी डालकर उबाल आने दें.

पनीर और कटी हुई धनिया मिलाएं और मसाले के सूखने तक इसे पकाएं.

काली मिर्च डालकर इसे आंच से हटा लें और धनिया से गार्निश करें.

बंटी-भाग 2: क्या अंगरेजी मीडियम स्कूल दे पाया अच्छे संस्कार?

अगर स्कूल महंगा और बड़ा था तो उस की किताबें भी वैसी ही महंगी और कठिन थीं. बंटी इसलिए परेशान था क्योंकि नए स्कूल की किताबों में से उस के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा था. नए स्कूल की किताबों में जो कुछ था वह पहले वाले स्कूल की किताबों में नहीं था.

शिक्षा के क्षेत्र में जो अजीब चलन चल पड़ा उस का शिकार बंटी जैसे मासूम बच्चे ही बनते हैं.

किसी स्कूल के स्टैंडर्ड का मानदंड इन दिनों भारीभरकम डोनेशन, ऊंची फीस और कठिन सिलेबस बन चुका. जितनी बड़ीबड़ी और कठिन शब्दावली की किताबें उतना ही नामी स्कूल.

नए स्कूल में से जो किताबें बंटी को मिलीं वे खूबसूरत और आकर्षक थीं. चिकने पृष्ठों वाली किताबों के अंदर जानवरों, पक्षियों, वाहनों, नदी और पहाड़ों के सुंदर व रंगबिरंगे चित्र थे. ये चित्र बंटी को खूब भाए थे. लेकिन किताबों में मौजूद अंगरेजी की पोएम्स समझना बंटी के लिए मुश्किल था. कमोवेश शब्दों के अर्थ भी बदल गए थे. जैसे पहले वाले स्कूल की किताबों में बंटी ‘ए फौर एप्पल’ पढ़ता आ रहा था, मगर नए स्कूल की किताबों में ‘ए फौर एलिगेटर’ बन गया था. ‘सी फौर कैट’, नए स्कूल में ‘सी फौर क्राउन’ हो गया था.

स्कूल बदलते समय बंटी के मन की किसी ने नहीं जानी थी. उस की मरजी किसी ने नहीं पूछी थी. यों?भी सोसाइटी में बड़ों की नाक के मामले में मासूमों की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं.

यह साफ था कि नए स्कूल में अपर केजी में पढ़ने वाले बंटी की सारी पढ़ाई भी नए सिरे से ही शुरू होने वाली थी.

उधर बंटी का स्कूल बदल कर सुधा ने बैठेबिठाए अपने लिए परेशानी मोल ले ली थी.

बंटी का पहला स्कूल घर के काफी पास था, उस पर उस को स्कूल ले जाने के लिए रिकशा घर के दरवाजे तक आता था. बंटी को स्कूल भेजने के लिए सुधा काफी आराम से उठती थी. अगर बंटी ने नाश्ता न किया हो और स्कूल की रिकशा आ जाए तो सुधा के कहने पर रिकशा वाला दोचार मिनट रुक भी जाता था.

लेकिन स्कूल को बदलने से सारी बात ही दूसरी हो गई थी. बंटी के नए स्कूल की बस चौराहे तक आती थी जोकि घर से बहुत दूर नहीं तो ज्यादा पास भी नहीं था बंटी को साथ ले और उस का भारीभरकम स्कूल बैग उठा कर पैदल चौराहे तक पहुंचने में सुधा को कम से कम 15-20 मिनट तो लग ही जाते थे. नए स्कूल की बस किसी के लिए 1 मिनट भी नहीं रुकती थी इसलिए उस के आने के समय से काफी पहले ही चौराहे पर जा कर खड़े होना पड़ता था.

यही हालत बंटी के स्कूल से आने के समय होती थी. कड़कती धूप में बस के आने के समय से 10-15 मिनट पहले ही सुधा को चौराहे पर खड़े हो उस की राह देखनी पड़ती थी.

बंटी को स्कूल की बस में चढ़ाने और उतारने के चक्कर में सुधा हांफ जाती थी. कभीकभी खीज भी उठती थी. लेकिन अपनी खीज को वह जाहिर नहीं कर पाती थी.

करती भी कैसे, सारी मुसीबत उस की अपनी ही तो मोल ली हुई थी. केवल एक ही खयाल उस को काफी राहत और संतोष देने वाला था और वह था कि बंटी के कारण अब कम से कम अपनी नखरैल भाभियों के सामने उस की स्थिति कमजोर नहीं पड़ेगी.

एक और समस्या भी बंटी के स्कूल बदलने से सुधा के सामने आ खड़ी हुई थी. बंटी के नए स्कूल की किताबें सुधा के पल्ले नहीं पड़ रही थीं. ऐसे में उस को होमवर्क करवाना सुधा के बस की बात नहीं थी. बंटी के लिए ट्यूशन का इंतजाम करना भी अब जरूरी हो गया था.

इधर बंटी के दिल और दिमाग की हालत क्या थी, किसी को भी इसे जानने की फुरसत न थी.

सुबह सुधा गहरी नींद से उसे जगा देती और फिर जल्दीजल्दी उस को स्कूल के लिए तैयार करती.

बंटी को तैयार करते वक्त सुधा का ध्यान उस की तरफ कम और दीवार पर लटक रही घड़ी की तरफ ज्यादा रहता. उसे डर रहता कि कहीं स्कूल की बस निकल न जाए इसलिए वह बंटी को लगभग घसीटते हुए चौराहे तक ले जाती.

बस में स्कूल जाना बंटी के लिए नया और मजेदार अनुभव था. नए स्कूल की साफसुथरी और शानदार इमारत में प्रवेश भी बंटी के लिए रोमांचपूर्ण अनुभव था. बाकी चीजों के मामले में पहले वाले स्कूल से नया स्कूल बंटी के लिए कुछ अच्छा और कुछ बुरा था.

नए स्कूल में आ कर शुरूशुरू में तो बंटी को ऐसा लगा था जैसे वह किसी एकदम बेगानी दुनिया में आ गया हो. वह बहुत घबराया हुआ था. अपनेआप में ही सिमटा चला जा रहा था. क्लास में बाकी बच्चे उस की इस हालत पर हंसते थे.

नए स्कूल की मैम बंटी को बहुत पसंद आईं. उन का बोलचाल का ढंग भी अच्छा था. पहले वाले स्कूल की मैडम की तरह पढ़ाते समय वे तेज आवाज में बच्चों पर चिल्लाती नहीं थीं. एक बच्चे ने जब अपना सबक ठीक से नहीं सुनाया तो मैम ने बस उस के कान को हलके से खींच दिया था. पहले वाले स्कूल की मैडम तो ऐसे बच्चों को फौरन अपनी टेबल के पास मुर्गा बना देतीं या उन की पीठ अथवा हाथों पर स्केल से जोरजोर से मारती थीं.

बड़ी अच्छी चीजें देखी बंटी ने नए स्कूल में, पर कुछ चीजें बहुत बुरी भी लगीं उस को.

नए स्कूल में बच्चे बड़ी गंदीगंदी हरकतें करते थे. वे गालियां भी निकालते थे, जो अभी बंटी की समझ में नहीं आती थीं, क्योंकि उन के द्वारा दी जाने वाली अधिकांश गालियां अंगरेजी में होती थीं. अपनी उम्र से कहीं बड़ीबड़ी बातें करते थे नए स्कूल के बच्चे.

इधर बंटी को महंगे और बढि़या स्कूल में दाखिल करवाने के बाद गर्व से इतरा रही सुधा को उस दिन फिर अपमान का सामना करना पड़ा जब उस के घर बच्चों समेत आई भाभियों की मौजूदगी में बंटी और उन के बच्चों में झगड़ा हो गया और इस झगड़े में बंटी के मुख से ठेठ पंजाबी जबान में मांबहन वाली गाली निकल गई. गुस्से से सुधा ने बंटी के गाल पर एक जोर का चांटा रसीद कर दिया.

सुधा के लिए शर्म की बात थी कि बढि़या अंगरेजी स्कूल में जाने के बाद भी बंटी की जबान से घटिया गाली निकली थी.

ऐसे मौके पर भी बड़ी भाभी आरती कटाक्ष करने से नहीं चूकी थीं, ‘‘जाने दो दीदी, इतना गुस्सा क्यों करती हो? शुरू से ही इस को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाया होता तो यह ऐसी गालियां नहीं सीखता. नए स्कूल के माहौल का असर होने में थोड़ा समय तो लगता ही है. इसलिए बुरी आदतें भी जाने में कुछ वक्त तो लगेगा ही. आखिर कौआ एकदम से हंस की चाल तो नहीं चल पड़ेगा.’’

सुधा कुछ बोली नहीं, मगर उस का चेहरा अपमान से लाल हो गया.

यह देख दोनों भाभियां कुटिलता से मुसकरा दीं. सुधा को नीचा दिखलाने का कोई मौका वे कभी नहीं छोड़ती थीं.

शाम को दोनों भाभियां बच्चों को ले कर चली गईं, मगर सुधा के मन में अपमान की कड़वाहट छोड़ गईं.

तिलमिलाई सुधा अपने दिल की सारी भड़ास एक बार फिर से बंटी पर निकालना चाहती थी मगर सुधीर ने उस को ऐसा करने से रोक दिया.

बंटी की वजह से सुधा को एक बार फिर नीचा देखना पड़ा था. भाभी की बातें नश्तर बन कर उसे काटे जा रही थीं.

सुधीर उस को शांत करने की लगातार कोशिश करता रहा. सहमा हुआ बंटी रात को भूखा ही सो गया.

बंटी के भूखे सो जाने से सुधा के अंदर की ममता जागी. शायद अपने व्यवहार के लिए उस को पश्चात्ताप भी हुआ था. सुधा बंटी को जगा कर कुछ खिलाना चाहती थी मगर सुधीर ने उसे मना कर दिया.

नए अंगरेजी स्कूल का असर 4-5 महीने में बंटी में साफ नजर आने लगा था. रोजमर्रा की छोटीमोटी बातों के लिए बंटी अंगरेजी के शब्दों का इस्तेमाल करने लगा था. सुबह उठते ही ‘गुडमौर्निंग पापा, गुडमौर्निंग ममा’ और रात को सोते वक्त ‘गुडनाइट पापा, गुडनाइट ममा’ कहना बंटी की दिनचर्या का हिस्सा बन गया था. अंडे को अब वह ‘एग’ कहता था और सेब को ‘एप्पल’.

 

 

खनन माफिया का दुस्साहस: कुचल डाला डीएसपी

पुलिस की वरदी का अपराधियों पर खौफ रहता है, लेकिन हरियाणा में खनन माफिया ने प्रदेश पुलिस के डीएसपी सुरेंद्र सिंह बिश्नोई को जिस निर्दयता के साथ डंपर से कुचला है, उस से यही लगता है कि खनन माफिया को जरूर प्रशासनिक या राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है, वरना एक ड्राइवर का इतना साहस नहीं हो सकता कि वह…

राजधानी दिल्ली एनसीआर के गुरुग्राम से सटे नूंह जिले के तावडू थाने की पुलिस को 18 जुलाई, 2022 की रात में सूचना मिली थी कि पचगांव के पहाड़ी इलाके में अवैध खनन का काम चल रहा है. यह
सूचना उसी वक्त डीएसपी सुरेंद्र सिंह बिश्नोई को भी भेज दी गई थी.

बगैर समय गंवाए डीएसपी बिश्नोई ने छापेमारी के लिए टीम बनाई और अगले रोज 19 जुलाई की पूर्वाह्न साढ़े 11 बजे अपनी टीम के साथ मेवात के पचगांव के पहाड़ी इलाके में जा पहुंचे. टीम में 2 पुलिसकर्मी, एक ड्राइवर और एक गनमैन था.

सूचना सही थी. इलाके में खनन का काम चल रहा था. पुलिस टीम को देख कर पहाड़ी के पास खड़े पत्थरों से भरे डंपर, उन के चालक और खनन में लगे लोग भागने लगे.

डीएसपी उन के वाहन रोकने के लिए आगे आए और अपनी गाड़ी डंपर से सटा दी और गाड़ी से उतर कर उन्होंने डंपर के ड्राइवर से उस के कागजात मांगे, लेकिन बेखौफ ड्राइवर ने डंपर के ब्रेक से एक पैर हटाया और दूसरे पैर से एक्सीलेटर को एक झटके में दबा दिया. पलक झपकते ही डंपर गति में आ गया, जिस से उस के बिलकुल पास खड़े डीएसपी वहीं गिर गए.

बेलगाम डंपर उन को रौंदता हुआ आगे निकल गया. यह सब इतनी जल्दी में हुआ कि डीएसपी खुद को नहीं संभाल पाए और डंपर के मोटे टायरों के नीचे आ गए. उन की गाड़ी में बैठे पुलिसकर्मी देखते रह गए और ड्राइवर डंपर ले कर भागने में सफल हो गया.

मौजूद पुलिसकर्मियों ने यह सूचना विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों को दे दी. इस के बाद तो प्रदेश के पुलिस अधिकारियों के अलावा सैकड़ों पुलिसकर्मी वहां पहुंच गए. अपने अधिकारी की दर्दनाक हत्या किए जाने पर सभी हैरान थे.

उस इलाके में पुलिस ने तुरंत सर्च औपरेशन शुरू कर दिया. तब तक यह खबर तेजी से पूरे प्रदेश से ले कर दिल्ली तक पहुंच गई. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर समेत गृहमंत्री अनिल विज ने कड़ी काररवाई के आदेश दे दिए. उन्होंने कहा कि जितनी फोर्स लगानी पड़े, लगाई जाए खनन माफियाओं को नहीं बख्शा जाए. फरार डंपर चालक और खनन माफिया को गिरफ्तार करने के आदेश दिए.

इस का असर भी हुआ. घटना के 4 घंटे बाद ही हरियाणा के नूंह में डीएसपी सुरेंद्र बिश्नोई की हत्या के आरोपियों की धरपकड़ शुरू हो गई. घटनास्थल से कुछ दूरी पर ही आरोपियों संग पुलिस की मुठभेड़ भी हुई. इस में एक आरोपी को गोली लगी और उसे पकड़ लिया गया. पकड़ा गया व्यक्ति डंपर का क्लीनर था, जिस ने अपना नाम इकरार बताया.

टायरों के नीचे आने से डीएसपी की मौके पर ही मौत हो गई. इस घटना की सूचना मिलते ही एसपी (नूंह) वरुण सिंगला मौके पर पहुंचे. उन्होंने डीएसपी को अस्पताल पहुंचाया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

दरअसल, डीएसपी बिश्नोई ने यह छापेमारी तावड़ू क्षेत्र में अरावली की पहाडि़यों में बड़े स्तर पर अवैध खनन को रोकने लिए बनाई गई योजना के तहत की थी.

प्रशासन ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के संदर्भ में 3 जून को ही उपमंडल स्तर पर एक स्पैशल टास्क फोर्स का गठन किया था. इस में कई विभागों के अधिकारी शामिल किए गए थे. इस की कमान डीएसपी सुरेंद्र सिंह बिश्नोई को दी गई थी.

एसडीएम तावड़ू सुरेंद्र पाल के अनुसार, टास्क फोर्स गठित कर अरावली के प्रतिबंधित क्षेत्र में अवैध खनन पर लगाम लगाने की काररवाई प्रशासन कर रहा था. टास्क फोर्स को सप्ताह में 2 बार अरावली क्षेत्र से
लगे गांवों का दौरा कर स्थिति का जायजा लेना था.

3 महीने बाद होने वाले थे रिटायर

डीएसपी सुरेंद्र सिंह बिश्नोई हिसार जिले के आदमपुर विधानसभा क्षेत्र में सारंगपुर गांव के रहने वाले थे. वह 12 अप्रैल, 1994 को हरियाणा पुलिस में एएसआई के पद पर भरती हुए थे. हालांकि पहले वह पशुपालन विभाग में क्लस्टर सुपरवाइजर के रूप में भरती हुए थे. यह पद वीएलडी के बराबर होता है. बाद में वर्ष 1993 में उन्होंने हरियाणा पुलिस में एएसआई पद के लिए आवेदन किया. शारीरिक और लिखित परीक्षा पास करने के बाद उन का चयन हो गया. लंबे समय तक वह कुरुक्षेत्र तथा यमुनानगर में तैनात रहे.

सुरेंद्र बिश्नोई ने कुरुक्षेत्र में अपना मकान बनाया हुआ है और करीब 10 साल पहले 2012 में उन की डीएसपी के पद पर पदोन्नति हुई थी. 3 महीने बाद ही पुलिस से 31 अक्तूबर, 2022 रिटायर होने की तारीख थी. परिवार में पत्नी कौशल्या के अलावा उन के 2 बच्चे हैं. एक बेटा और एक बेटी.
वह 8 भाई हैं, जिन में 2 भाई जीवित नहीं हैं. इसी साल फरवरी में उन की मां मन्नी देवी और मार्च में उन के पिता उग्रसेन बिश्नोई की मौत हो गई थी. कुल 23 दिनों के अंतराल में मातापिता की मौत होने के बाद सुरेंद्र बिश्नोई अपने पैतृक गांव सारंगपुर आ गए थे.
सब से बड़े भाई अजीत बिश्नोई की 2009 में मौत हो गई थी, जबकि दूसरे नंबर के भाई ओमप्रकाश गांव में ही खेतीबाड़ी का काम संभालते हैं. तीसरे भाई मक्खन राजकीय महाविद्यालय हिसार से रिटायर हो चुके हैं.

चौथे भाई जगदीश हाईकोर्ट में एएजी के पद से रिटायर हुए थे, उन का देहांत हो चुका है. पांचवें नंबर पर सुरेंद्र बिश्नोई थे. छठें भाई सुभाष राजकीय स्कूल में प्रधानाचार्य हैं. सातवें भाई कृष्ण हिसार शहर में डेयरी चलाते हैं. आठवें सब से छोटे भाई अशोक बिश्नोई सहकारी बैंक कुरुक्षेत्र में मैनेजर हैं.

अगले महीने बेटा कनाडा से अचानक आ कर देता सरप्राइज

घटना के दिन उन की छोटे भाई अशोक से ही 19 जुलाई की सुबह करीब 9 बजे बात हुई थी. उन की मौत की खबर सुन कर परिवार के सभी सदस्य और रिश्तेदार गुरुग्राम पहुंच गए. उन में बेटी प्रियंका और दामाद भी हैं.

प्रियंका बंगलुरु के एक बैंक में डिप्टी मैनेजर है, जबकि उन के दामाद भी बैंक मैनेजर हैं. बेटा सिद्धार्थ बीटेक के बाद मास्टर डिग्री के लिए कनाडा गया हुआ है. सिद्धार्थ की भी शादी हो चुकी है. उस के जुड़वां बेटे 11 सितंबर, 2020 को पैदा हुए थे.

सुरेंद्र की पत्नी कौशल्या गृहिणी हैं. घटना के दिन ही सुरेंद्र ने छोटे भाई अशोक से सुबहसुबह फोन कर कहा था, ‘‘3 महीने बाद रिटायरमेंट होनी है, फिर जल्द ही घर आऊंगा.’’
साथ ही अशोक ने उसी दिन सुरेंद्र के बेटे सिद्धार्थ से भी फोन पर बात होने की बात बताई. सिद्धार्थ ने उन्हें कहा था कि उस ने अगस्त में अपने पिता को सरप्राइज देने के लिए टिकट बुक करवा ली है.

उन की ड्यूटी पर हुई इस मौत से आहत मुख्यमंत्री खट्टर ने उन के परिवार को एक करोड़ रुपए की सहायता राशि और एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देने के अलावा सुरेंद्र को शहीद का दरजा दिए जाने की घोषणा की.

हरियाणा में यह पहला मामला है, जब खनन माफिया ने किसी डीएसपी को डंपर से कुचल कर मार डाला हो. खनन माफिया गुरुग्राम और नूंह जिले में काफी समय से सक्रिय हैं, जिस के चलते अरावली की तलहटी में पेड़ों की कटाई और पत्थरों की खुदाई का काम लगातार हो रहा है.

इस से पर्यावरण के लिए खतरा बना हुआ है. साथ में जीवजंतुओं की प्रजातियों को भी नुकसान होने की आशंका बनी हुई है. बावजूद इस के खनन माफिया का दुस्साहस बना हुआ है.

हालांकि इस संबंध में नगीना पुलिस ने नांगल मुबारिकपुर, घागस कंसाली तथा झिमरावट, शेखपुर आदि गांवों के लोगों पर अवैध खनन के मुकदमे भी दर्ज किए हैं. अवैध खनन करने वालों के हौसले इतने बुलंद हैं कि पुलिस और खनन विभाग की सख्ती के बावजूद वे नहीं मानते हैं. इसी तरह से पेड़ों को काटने वालों ने भी जुरमाना भरने के बाद भी पेड़ों को काटना बंद नहीं किया है.

35 करोड़ साल पुरानी हैं अरावली पहाडि़यां

यानी कि नूंह जिले के खेड़लीकलां, झिमरावट, घागस कंसाली, फिरोजपुर झिरका, शेखपुर के अलावा कई स्थानों पर अवैध खनन और पेड़ों की लगातार कटाई चरम पर है.

दिल्ली से ले कर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात तक फैली अरावली पर्वत शृंखला करीब 800 किलोमीटर लंबी है, जो करीब 35 करोड़ साल पुरानी बताई जाती हैं.

यहां तक कि इसे भूवैज्ञानिक हिमालय पर्वत से भी पुराना कहते हैं. ये पहाडि़यां सिर्फ थार के मरुस्थल को फैलने से ही नहीं रोकती हैं, बल्कि इस की बदौलत ही भूजल जमीन में जमा होता रहता है.

और तो और, इस में जैव विविधता के भंडार भरे हुए हैं. इस में से निकलने वाला खनिज तांबा है तो इन पहाडि़यों के जंगलों में 20 पशु अभयारण्य बने हैं.

यहां तक कि इन में होने वाले खनन से राजधानी दिल्ली तक पर असर होता है. कारण, दिल्ली से मात्र 40 किलोमीटर दूरी पर ही अरावली में खनन का काम अवैध तरीके से चल रहा है. स्टोन क्रशर, ट्रक, ट्रैक्टर ट्रौली और बड़ीबड़ी मशीनें इन पहाडि़यों को रौंदती रहती हैं. यहीं से भवन निर्माण की सामग्री आती है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में ही पहाड़ी के इस 10 किलोमीटर लंबे इलाके में खनन पर रोक लगा दी थी, लेकिन यहां कई लोग अभी भी खनन का काम कर रहे हैं. स्थानीय ग्रामीणों कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की रोक का कोई असर नहीं है.

4-5 साल पहले यहां हरियाली से भरापूरा एक पहाड़ हुआ करता था, जिस का अब यहां बस नामोनिशान ही बचा है. पहाडि़यों की खुदाई करना दिल्ली के बाहर एक बड़ा व्यापार बन गया है. जबकि 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वत की वर्तमान स्थिति को जानने के लिए एक केंद्रीय समिति का गठन किया था. समिति ने पाया कि अवैध खनन के चलते पिछले 50 सालों में 128 में से 31 पहाडि़यों का नामोनिशान खत्म हो चुका है.

ऐसा भी नहीं है कि अवैध खनन की शिकायतें खनन विभाग के आला अधिकारियों तक न पहुंचती हैं, फिर भी काररवाई नहीं होने से उन का मनोबल बढ़ा हुआ है. अरावली में वन विभाग द्वारा लगाए गए चौकीदार ही लोगों से अवैध खनन करवाते हैं. साथ में पेड़ों को काट कर आरा मशीन मालिकों को बेच देते हैं.

वन विभाग के चौकीदारों की माफियाओं से रहती है मिलीभगत

जबकि अरावली में हर साल वन विभाग लाखों पौधे पर्यावरण को स्वच्छ बनाने के लिए लगाता है, लेकिन यहां पर ये पौधे बड़े होने से पहले ही नष्ट कर दिए जाते हैं. वन विभाग को सालाना घाटा होने का एक कारण यह भी है.

इसी तरह से यहां रात में पत्थरों को तोड़ने काम होता है, उस के बाद उस की दिन में ट्रैक्टरों और ट्रकों में भर कर ढुलाई होती है. उन्हें गांवों में ही छिपा कर रखा जाता है, फिर वहां से जरूरतमंद लोगों और बिल्डरों को बेच दिया जाता है.

अरावली पर्वत शृंखला असोला से शुरू हो कर फरीदाबाद के सूरजकुंड, मांगर बणी, पाली बणी, बड़खल व गुड़गांव के दमदमा तक लगभग 180 वर्गकिलोमीटर के करीब है. पर्यावरण के जानकार एवं ‘सेव अरावली’ के सदस्य जितेंद्र भड़ाना का कहना है कि लकड़ी माफियाओं की नजर अरावली के कीमती पेड़ों पर है. अरावली में लकड़ी माफिया यहां की लकडि़यों को काट कर बाजार में बेचते हैं. पूरे इलाके में खनन भी तेजी से हो रहा है.

सुप्रीम कोर्ट ने दिए थे आदेश

अरावली में अवैध खनन को ले कर सरकार और प्रशासन को कोर्ट की फटकार भी लग चुकी है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी हरियाणा सरकार और जिला प्रशासन अरावली में अवैध रूप से हो रहे खनन रुकवाने में असफल रहा है. इस के विरोध में ‘न्यायिक सुधार संघर्ष समिति’ ने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर की है.

इस की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में 26 जुलाई, 2022 तय की गई. कथा लिखे जाने तक इस का फैसला नहीं आया था. इस में हरियाणा सरकार और जिला प्रशासन को अवैध खनन नहीं रुकवाने का जवाब मांगा गया है.

इस अवमानना याचिका में चीफ सेक्रेटरी हरियाणा, डीसी फरीदाबाद, खनन विभाग और कई अधिकारियों को पार्टी बनाया गया. कोर्ट का कहना है कि अरावली में सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध के बावजूद वहां बड़े पैमाने पर खनन और अवैध निर्माण क्यों हो रहे हैं?

न्यायिक सुधार संघर्ष समिति के प्रधान एडवोकेट एल.एन. पाराशर ने बताया कि अरावली में अवैध खनन पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध होने के बाद भी हो रहे खनन को देख उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. उन्होंने अवैध खनन की कई तसवीरें और वीडियो कोर्ट को दिए. मामला मीडिया में आने के बाद कुछ खनन माफियाओं पर मामला दर्ज कर खानापूर्ति कर दी गई.

याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि सरकार पिछले दिनों पंजाब लैंड प्रिजर्वेशन ऐक्ट (पीएलएपी) में संशोधन बिल लाने की तैयारी में जुटी थी. मामला कोर्ट के संज्ञान में आने के बाद सरकार ने संशोधन बिल पर रोक लगा दी थी. सरकार जो संशोधन बिल ला रही थी, उस से अरावली वन क्षेत्र से बाहर हो जाता. साथ ही यहां हो रहे निर्माण कार्य वैध हो जाते.

क्योंकि पीएलपीए ऐक्ट की धारा 4 व 5 लागू ही नहीं होगी. इस बारे में ‘सेव अरावली व फरीदाबाद एक्टिविस्ट ग्रुप’ का कहना है कि पीएलपीए ऐक्ट 1900 अंगरेजों के जमाने से चला आ रहा है.
इस का मकसद वन क्षेत्र को समाप्त होने से बचाना है. यदि सरकार इस में संशोधन करती है तो आने वाले दिनों में यहां कंक्रीट के जंगल खड़े हो जाएंगे.

इस संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा में महज 3.5 फीसदी ही हरियाली बची है. वह भी अरावली पर्वत शृंखला के कारण है. अरावली में एक हेक्टेयर जमीन में प्रतिवर्ष 25 लाख लीटर भूजल रिचार्ज होता है. अरावली खत्म होने से पानी और पर्यावरण दोनों पर संकट पैदा हो जाएगा. द्य

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