Download App

त्यौहार 2022: घर पर ऐसे बनाएं ड्राईफ्रूट बर्फी, मावा खीर और मूंग दाल का हलवा

व्यंजन सहयोग: मीना रावत

त्योहार के समय में अगर आप कुछ स्पेशल बनाना चाहती हैं , तो ऐसे में आप अपने घर पर ड्राईफ्रूट बर्फी बा सकती हैं, इसे आप व्रत में भी खा सकती हैं.

 

  1. ड्राईफ्रूट्स बर्फी

सामग्री

1 कप खजूर

1 बड़ा चम्मच घी

1 बड़ा चम्मच खसखस

1 बड़ा चम्मच तिल

1/4 कप सूखा नारियल

1/4 कप काजू के टुकड़े

1/4 कप बादाम के टुकड़े

1/4 कप पिस्ता कटा

1/4 पिस्ता कटा

1/4 कप अखरोट कटा

2 बड़े चम्मच किशमिश

1 छोटा चम्मच इलायची पाउडर

1 कप गुड़ पाउडर.

विधि

1 पैन में घी गरम कर खसखस और तिल सुनहरे होने तक चलाते हुए भूनें. उसी पैन में नारियल, पिस्ता, काजू, बादाम, किशमिश, अखरोट भी चलाते हुए भूनें. धीमी आंच पर मिश्रण में खजूर, इलायची पाउडर और गुड़ पाउडर अच्छी तरह मिलाते हुए भूनें. मिश्रण भुन जाने पर उसे आंच से उतारें और कुछ देर ठंडा होने के बाद एक ट्रे में सैट होने के लिए रखें. मनचाहे टुकड़ों में काट कर सर्व करें.

  1. मावा खीर

सामग्री

1 लिटर दूध

 स्वादानुसार गुड़

1/4 कटोरी मावा

1/2 छोटा चम्मच इलायची पाउडर

1 बड़ा चम्मच चावल

1/2 कटोरी ड्राईफू्रट्स कटे

1 चम्मच घी.

विधि

दूध को पैन में थोड़ा गाढ़ा होने तक उबालें. दूसरे  पैन में थोड़ा घी गरम कर चावलों को चलाते हुए फ्राई करें और उबलते हुए दूध में डाल दें. दूध और चावल के मिश्रण को गाढ़ा होने तक धीमे आंच पर पकाएं. अब इस में मावा मिला कर मिश्रण को थोड़ा और गाढ़ा करें. मिश्रण में इलायची पाउडर और गुड़ मिला कर 1-2 मिनट तक चलातेहुए पकाएं. तैयार खीर को ड्राईफ्रूट से सजा कर परोसें.

  1. राइस पुडिंग

सामग्री

1 लिटर दूध

1/2 कप चावल पानी में भीगे

1/2 कप गुड़ पाउडर

2 छोटे चम्मच कस्टर्ड पाउडर

2 छोटे चम्मच ड्राईफू्रट्स कटे

1 छोटा चम्मच इलायची पाउडर.

विधि

पैन में दूध उबाल कर चावलों को उस में मिला कर धीमे आंच पर मिश्रण थोड़ा गाढ़ा होने तक पकाएं. 1 कटोरी में कस्टर्ड पाउडर में थोड़ा सा दूध मिला कर पेस्ट तैयार करें. चावल और दूध के मिश्रण में गुड़ पाउडर और कस्टर्ड पेस्ट मिला कर गाढ़ा होने तक पकाएं. तैयार पुडिंग को इलायची पाउडर और ड्राईफ्रूट्स से गार्निश कर परोसें.

  1. मूंग दाल हलवा

सामग्री

1 कटोरी मूंग दाल पानी में भीगी

3/4 कटोरी कुनकुना दूध

1 कप गुड़ पाउडर

5-6 चम्मच घी

4-5 केसर के धागे

2 हरी इलायची

थोड़े से ड्राईफ्रूट्स कटे.

विधि

मूंग दाल को मिक्स्चर में दरदरा पीस लें. कड़ाही में घी गरम कर मूंग दाल को धीमी आंच पर अच्छी तरह भूनें. अब इस में दूध, थोड़ा सा पानी और गुड़ मिला कर लगातार चलाते हुए भूनें. मिश्रण को तब तक भूनना है जब तक कि वह घी न छोड़ दे. फिर इस में इलायची, केसर के धागे मिक्स कर आंच से उतारें और ड्राईफ्रूट्स से गार्निश कर परोसें.

त्यौहार 2022: औनलाइन पूजा दक्षिणा का षड्यंत्र

कोरोना के डर और लौकडाउन ने पुरानी धार्मिक परंपराओं को बदलने पर मजबूर किया है. दानदक्षिणा के लोभ में विज्ञान की पीठ पर सवार हो कर संतपुजारी भी हाईटैक हो गए हैं. कस्टमर छूट न जाए, इस के लिए औनलाइन पूजापाठ व वैबसाइटों की भरमार होने लगी है. सवाल यह है कि धर्म के नाम पर मुफ्त का माल उड़ाने वाली इस जमात पर भरोसा क्यों किया जाए?

पूजा सेवाएं, कैरियर, नौकरी, लव मैरिज, दूसरी जाति में विवाह, शादी में रुकावट, पतिपत्नी में अनबन, मांगलिक दोष, काल सर्प दोष, संतान दोष, श्रापित दोष, तिल दोष, मनचाहा जीवन साथी, शीघ्र धन प्राप्ति के लिए कुबेर की पूजा, पूर्णिमा को सामूहिक ब्राह्मण भोज आदि के लिए पुजारी, ज्योतिषी से औनलाइन संपर्क करें और घरबैठे ही पूजा का लाभ उठाएं.

कोरोनाकाल में धार्मिक क्लासेस, बच्चों की पढ़ाई, शादीविवाह, डाक्टर्स की सलाह से ले कर पूजापाठ भी औनलाइन हो गया. पूजा और दान जैसे महत्त्वपूर्ण धार्मिक कार्य, जैसे मन्नत पूरी करनी हो, घर में सत्यनारायण की कथा करवानी हो, हवन या अन्य कोई भी धार्मिक अनुष्ठान करवाना हो, कोरोना के खतरे में पुजारी को अपने घर बुलाने की कोई जरूरत नहीं, बस सर्च कीजिए आप को हजारों पुजारियों के नंबर मिल जाएंगे. कौल कर आप अपनी समस्याएं बताएं और वे समाधान बताएंगे. वे वीडियोकौलिंग के जरिए घर बैठे ही पूजा भी करवा देंगे और फिर तय रेट के अनुसार दानदक्षिणा आप उन के अकाउंट में औनलाइन, पेटीएम या नैट बैंकिंग द्वारा दे सकते हैं. यहां जैसी पूजा वैसा रेट तय है. आप औनलाइन पर्सनल पूजा के लिए भी आवेदन कर

सकते हैं. लेकिन उस का रेट थोड़ा ज्यादा होगा.

क्या है औनलाइन पूजा सेवाएं

औनलाइन पूजा सेवाओं के माध्यम से आप घर बैठे बस एक क्लिक पर देश के किसी भी कोने से प्रतिष्ठित मंदिरों में पूजन आयोजित करवा सकते हैं. विद्वान पंडित वैदिक अनुष्ठान के अनुसार पूजन कर के आप को देवता का दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने व आप की इच्छाओं को पूर्ण करने में मदद करेंगे. वैसे भी आज कई ऐसी वैबसाइट खुल गई हैं जहां आप पूजा के लिए संपर्क कर सकते हैं.

पुजारी हुए हाईटैक पूजा और दान जैसे महत्त्वपूर्ण धार्मिक कार्य भी अब दुनियाभर में डिजिटलीकरण, विशेष रूप से भारत में होने से पूजापाठ भी औनलाइन होने लगा है. पूजा हजारों प्रकार की होती है. हिंदू धर्म में हर साल अनगिनत व्रतत्योहार होते हैं. ऐसे में कोरोना के डर व लौकडाउन ने परंपराओं को बदलने पर मजबूर कर दिया. संक्रमण न फैले, इस के लिए पंडेपुजारी घर बैठे ही सारे धार्मिक अनुष्ठान वीडियोकौलिंग के जरिए करवाने लगे हैं.

भगवान भी हुए हाईटैक

सिर्फ पुजारी और यजमान ही नहीं, बल्कि कोरोनाकाल में भगवान भी हाईटैक हो गए हैं. कोरोना के कहर को देखते हुए भगवान के मंदिरों में भी दानदक्षिणा का काम औनलाइन ट्रांजैक्शन से होने लगा है. यानी कि अब डिजिटल लेनदेन से भगवान का डर भी जुड़ गया है. भगवान को चढ़ाया जाने वाला दान भी क्यूआर कोड स्कैन कर चढ़ाया जाने लगा है. वैसे भी, जब हर लेनदेन औनलाइन हो रहा है तो दानदक्षिणा कैसे पीछे रह सकता है. दानपेटी और औनलाइन आने वाले कुल दान में हर माह करीब 35 से 40 फीसदी राशि औनलाइन ट्रांसफर की जाती है और यह अब बदलते दौर की नई तसवीर है.

प्रांतीय पुजारी महासभा के अध्यक्ष पंडित संजय पुरोहित बताते हैं, ‘‘25 से ज्यादा विद्वान आचार्य इन दिनों औनलाइन पूजन करा रहे हैं. यजमान के कल्याण के लिए वे सारे जप, अनुष्ठान, संकल्प अपने घर से ही वीडियोकौलिंग द्वारा कराते हैं. पूजा के बाद ब्राह्मण भोज की जगह गाय को हरी घास या कन्या भोजन करा कर यजमान ब्राह्मण के भोजन के विधान से मुक्त हो जाता है. यहां यह भी देखने वाली बात है कि गाय और कन्या में कोई खास फर्क नहीं है. दोनों में से किसी एक को खिला दो, पूजा संपन्न मानी जाएगी. आखिर दोनों बने तो हैं खूटे से बंधने के लिए ही. मनमाफिक दानदक्षिणा मिल पाने से पुजारी तो खुश हैं ही, साथ में यजमान भी खुश हैं कि वीडियोकौलिंग के जरिए ही सही पर शुभ मुहूर्त पर उन के घर में पूजा, गृहप्रवेश आदि हो पा रहे हैं.

इंटरनैट में भी घुसपैठ

आज औनलाइन पूजा और दानदक्षिणा का ऐसा ट्रैंड चला है कि लोग बाकायदा इस की ट्रेनिंग लेने लगे हैं. सिर्फ पुरुष ही नहीं बल्कि कई महिलाएं भी ज्योतिष गुरु बन गई हैं जो आप को आप की समस्याओं से छुटकारा दिलवाने का दावा करती हैं.

वर्तमान में ज्योतिष विद्या के कई भिन्नभिन्न रूप प्रचलित हो गए हैं. लेकिन अब इस विद्या के जानकार कम और इस विद्या से धनलाभ प्राप्त करने वाले ज्यादा देखे जा सकते हैं जो मनमाने उपाय बता कर लोगों को भटकाने, डराने का काम ज्यादा करते हैं. सच कहें तो आज इंसान ज्यादा डरपोक हो गया और जिस का फायदा ये पुजारी, ज्योतिष उठाते हैं और यह फायदे का सौदा है. तभी तो आज दुनिया में पुजारी और ज्योतिषियों की भरमार सी हो गई है. एक ढूंढि़ए तो हजार मिल जाएंगे.

मोहन शुक्ला ने अनिच्छा से ही पर अपने पिता की विरासत संभालते हुए पंडिताई का काम शुरू तो कर दिया पर यह काम उन्हें बड़ा मुश्किल जान पड़ता था क्योंकि इस में कोई खास कमाई नहीं होती थी और मुंबई जैसे बड़े शहर के लिए इतनी थोड़ी सी कमाई पर्याप्त नहीं थी उन के लिए. इसलिए पंडिताई छोड़ उन्होंने एक प्राइवेट फर्म में जौब पकड़ ली. लेकिन अब वे फिर जौब छोड़ पूजा कराने के काम में लग गए. वे ‘व्हेयर इज माई पंडित’ नामक पोर्टल से जुड़ गए. यह पोर्टल उसी तर्ज पर काम करता है जिस तरह से ज्यातदार सर्विस एग्रीगेटर्स करते हैं. पूजा के लिए अनुरोध हासिल होने के बाद क्लाइंट की जरूरतों और पंडित की काबिलीयत के हिसाब से उन्हें बुलाया जाता है.

ऐसी ही एक और ऐप है, ‘माय ओम नमो’. यहां लोग घर बैठे पूजाअनुष्ठान करवाते हैं. इस ऐप के जरिए ही पंडित बुक किए जाते हैं और ई-स्टोर से पूजा सामग्री और्डर भी की जा सकती है. यहां तक कि फूलमाला, केले के पत्ते और प्रसाद का जिम्मा भी ‘माय ओम नमो’ ऐप लेती है. ‘माय ओम नमो’ कंपनी के पास रजिस्टर्ड पुरोहित होते हैं जो 12 भाषाओं में पूजा करा सकते हैं. 2016 में स्पिरीच्युअल इंडस्ट्री के वन स्टौप ‘माय ओम नमो’ शुरुआत की गई थी. आज इस ऐप पर ग्राहकों के लिए पूजा करने के कई विकल्प मौजूद हैं.

‘एम पंचांग’ द्वारा भी औनलाइन पूजा सेवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं. यहां प्रशिक्षित पुजारियों की एक टीम है जो आप को स्वास्थ्य, कैरियर, शिक्षा, व्यवसाय, विवाह, वित्त और कानूनी लड़ाई से संबंधित आप की सभी परेशानियों के लिए औनलाइन पूजा कराते हैं.

कोरोना कहर के बाद से इस तरह की कई और वैबसाइटें लौंच की गईं. ‘बुक योर पंडित’ के बिजनैस हैड ऋषिकेश कहते हैं कि औनलाइन पोर्टल्स के जरिए पंडितों को अपनी पहुंच बढ़ाने, बेहतर कस्टमर हासिल करने और इनकम में बढ़ोतरी करने में मदद मिली है. यहां तक कि ये पुजारी रूस और नीदरलैंड में रह रहे श्रद्धालुओं के लिए भी औनलाइन पूजा कराते हैं. ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में रहने वाले भारतीय समुदाय के लोग ऐसे पोर्टल के जरिए लोकल पंडितों की सेवाएं लेते हैं.

जब से औनलाइन पूजा का ट्रैंड बना है तब से बाबाओं की भरमार हो गई. क्या दर्जी, क्या कुम्हार, जिस का मन चाहे पुजारी बनने की ट्रेनिंग ले सकता है और इसे अपनी कमाई का जरिया बना सकता है. ज्योतिष पुरुषमहिलाएं टीवी चैनलों पर, सोशल मीडिया पर प्रवचन करते नजर आ जाते हैं. उन के पास चेलों की भीड़ और श्रद्धालु भक्तों की फौज खड़ी है और इसी अंधश्रद्धाओं की बढ़ती भीड़ का ये लोग फायदा उठाते हैं.

अंधविश्वास और ढोंग

अंधविश्वास से वशीभूत लोग ज्योतिष, बाबाओं के फेर में पड़ कर अपनी मेहनत की कमाई लुटाते हैं. लेकिन उन्हें यह बात पता होनी चाहिए कि ये चमत्कारी बाबा और ज्योतिष तब कहां थे जब कोरोना से लोगों की मौत हो रही थी. जब लोग घुटघुट कर सांसें ले रहे थे तब उन के मंत्रजाप कहां भुला दिए गए थे? क्यों नहीं इन ज्योतिषी बाबाओं ने लोगों को कोरोना से बचाने का कोई उपाय सु?ाया?

अमित को जब कहीं जौब नहीं मिला तब उस ने बाबा का दामन थामा. बाबा ने उसे ढेरों उपाय बताए, रंगबिरंगी अंगूठियां पहनने को बताईं, पूजा बताई, जप बताया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. अफसोस कि आज भी वह बेरोजगार घूम रहा है.

सच कहें तो लोगों में अंधविश्वास इतना घर कर गया कि उन्हें लगता है इन बाबाओं के पास हर मर्ज की दवा है, वे फूंक मारेंगे और चमत्कार हो जाएगा. लेकिन अंधविश्वास और सफलता का दूरदूर तक कोई मेल दृष्टिगोचर नहीं है.

जहां अंधविश्वास है वहां सफलता के लिए कोई स्थान नहीं है और जहां सफलता है वहां अंधविश्वास के लिए कोई जगह नहीं है. अंधविश्वास व्यक्ति को केवल भ्रमित करता है. हमारा कर्म तो तभी सार्थक होगा जब हम सफल होने के लिए पूरी मेहनत, लगन और अपना पूरा आत्मबल, विश्वास उस कार्य को करने में लगा देते हैं और यह कैसी आस्था जहां हमारा विश्वास ही अंधा हो?

अभिताभ बच्चन ने अपने बुरे वक्त के समय आस्था का दामन पकड़ा था और कई तरह की अंगूठियां पहनी थीं. वे सफल भी हुए लेकिन उन्हें सफलता अपनी मेहनत की बदौलत मिली. उस समय उन्हें जो भी काम मिलता गया, करते गए और सफल भी हुए. लेकिन आज इंसान पलभर में कुबेर का खजाना पा लेना चाहता है. बिना मेहनत के नौकरी पा लेना चाहता है और इस के लिए वह मंत्रजाप, पूजा, हवन, रत्नअंगूठी में हजारों रुपए स्वाहा करने से भी बाज नहीं आता. उसे लगता है पूजापाठ से सब संभव है. लेकिन उसे नहीं पता कि यहां फायदा पुजारी बाबाओं का हो रहा है. तिजोरी उन की भर रही है और जेब आप की खाली हो रही है.

संत और बाबाओं को जनता हमेशा से ही भगवान का दर्जा देती आई है. लेकिन यही बाबासंत आम लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहे हैं. कभी मंदिर के नाम पर तो कभी धर्मशाला के नाम पर लोगों की मेहनत की कमाई ऐंठते रहे हैं.

क्या जनता को नहीं पता कि इन होटलनुमा धर्मशालाओं में होता क्या है? कितने ऐसे संतबाबा हुए जिन्होंने कभी पैसे नहीं मांगे, लेकिन आज के पंडेपुजारी लोभी बन गए हैं. वे सुखसुविधाओं से लैस घरों में रहते हैं, बड़ीबड़ी लग्जरी गाडि़यों में घूमते हैं. उन के बच्चे विदेशों में पढ़ाई करते हैं और लोग यहां अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए उन्हीं ढोंगी बाबाओं के जाल में फंस कर अपनी जिंदगीभर की मेहनत की कमाई लुटा डालते हैं तो इसे मूर्खता नहीं तो और क्या कहेंगे?

औनलाइन द्वारा पूजा, हवन, जाप, बाबाओं का मोटा धन कमाने का जरिया बन चुका है. धनलोलुपता में फंसे बाबाओं को लोगों के दुखदर्द से नहीं, बल्कि अपनी दानदक्षिणा से मतलब है. पहले तो कम से कम यह था कि लोग जेब से निकाल कर जो मन में आता दानदक्षिणा दे दिया करते थे, लेकिन औनलाइन पूजापाठ के कारण अब दानदक्षिणा का रेट भी तय हो गया तो लोगों के पास देने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा.

दूसरों को दान देने का क्या तात्पर्य

दान देना अच्छी बात है पर दान उसी को दो जिस की उसे सच में जरूरत है. बिना जरूरतमंदों को कुछ देना विशेष महत्त्व नहीं रखता. कुपात्रों को धन देना व्यर्थ ही है. जिस का पेट भरा हुआ है उसे जब ठूसठूस कर और भोजन कराया जाए तो वह बीमार पड़ जाएगा.

हिंदू शास्त्र एक स्वर में कहते हैं कि मनुष्य जीवन में परोपकार ही सार है. हमें जितना संभव हो सके, परोपकार में रत रहना चाहिए. लेकिन आज परोपकार के नाम पर लोगों को ठगा जाने लगा है. आज दानदक्षिणा और भिक्षा का स्वरूप ही बदल चुका है. आजकल दानवृत्ति से अनुचित लाभ उठाने वाले अनेक अकर्मण्य भिखमंगे, ठग, दुष्ट व्यक्ति आम लोगों को ठगते फिर रहे हैं. वे स्वयं परिश्रम करना नहीं चाहते, मुफ्त का माल उड़ाना चाहते हैं. आज पढे़लिखे लोग भी भिक्षावृत्ति में पड़ चुके हैं ताकि उन्हें कोई परिश्रम न करना पड़े और बैठेबैठे भोजन की व्यवस्था होती रहे.

हमारे भारत देश में दानधर्म की परंपरा सदियों पुरानी है. हिंदू धर्म में दान का बहुत महत्त्व बताया गया है. ऐसा माना जाता है कि दान देने से व्यक्ति को पुण्य की प्राप्ति होती है. दान देने से व्यक्ति का लोक के बाद परलोक भी सुधर जाता है. शास्त्रों में 5 दानों को महादान बतलाया गया है. जिन में भूमि दान, गोदान, अन्न दान, कन्या दान और विद्या दान शामिल हैं. वैसे और भी कई दान बतलाए गए हैं जिन से व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होती है.

उदाहरण के तौर पर एक कथा आज भी सोशल मीडिया पर मिल जाएगी जो षटतिला एकादशी से संबंधित है. षटतिला एकादशी में तिल के दान का बहुत महत्त्व है. इस दिन तिल के उपयोग का बहुत महत्त्व है. इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु का पूजन तिल से करने का महत्त्व है. नहाते समय जल में तिल मिला कर स्नान करने से आरोग्य का वरदान मिलता है तथा तिल का दान, हवन और तर्पण आदि करना चाहिए. इस दिन तिल का अधिक से अधिक उपयोग करने से पुण्य फल की प्राप्ति होती है.

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, एकादशी के दिन श्रीहरि विष्णु के पूजन से इंसान की हर मुराद पूरी होती है, दरिद्रता दूर होती है, घर में सुखशांति बनी रहती है, आरोग्य तथा सुखी दांपत्य जीवन का आशीर्वाद मिलता है, इसलिए इस दिन तिल का दान अवश्य करना चाहिए.

एक कथा के अनुसार, प्राचीनकाल में मृत्युलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी. वह सदैव व्रत किया करती थी. एक समय वह एक मास तक व्रत करती रही जिस से उस का शरीर दुर्बल हो गया. लेकिन उस ने कभी भी देवताओं या ब्राह्मणों को अन्नधन दान नहीं किया. ब्राह्मणी को लगा कि व्रतउपवास से उस ने अपना शरीर शुद्ध कर लिया तो अब उसे विष्णुलोक मिल ही जाएगा. परंतु उस ब्राह्मणी ने कभी भी अन्नधन का दान नहीं किया था, इसलिए उसे इस की तृप्ति होना कठिन था.

एक रोज भगवान स्वयं उस ब्राह्मणी के घर भिखारी के वेश में पहुंच गए तो उस ब्राह्मणी ने एक मिट्टी का ढेला उठा कर उन के भिक्षापात्र में डाल दिया और भगवान उसे ले कर स्वर्गलोक लौट गए. कुछ समय बाद वह ब्राह्मणी भी अपना शरीर त्याग कर स्वर्गलोक पहुंच गई. वहां उसे एक बहुत ही सुंदर महल मिला क्योंकि उस ने मिट्टी का दान किया था. लेकिन उस महल में अन्नधन नदारद थे. ब्राह्मणी के पूछने पर कि उस ने तो कितने व्रतउपवास किए, फिर भी उस का घर अन्न आदि वस्तुओं से शून्य है. इस पर भगवान बोले कि उस ने षटतिला पर कभी तिल का दान नहीं किया, इसलिए वह अन्नधन रहित है.

लेकिन जब उस ब्राह्मणी ने षटतिला एकादशी का व्रत कर तिल का दान किया तब इस के प्रभाव से वह रूपवती हो गई और उस का घर अन्न आदी समस्त सामग्रियों से युक्त हो गया. इस कथानुसार इंसान को मूर्खता त्याग कर षटतिला एकादशी के दिन लोभ न कर के व्रत और तिल आदि का दान करना चाहिए. इस से इंसान के कष्ट, दुर्भाग्य, दरिद्रता दूर हो कर मोक्ष की प्राप्ति होती है.

दान और भिक्षा

हिंदू धर्मशास्त्रों में कुछ काम हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य बताए गए हैं. उन में अपने सामर्थ्य अनुसार दान करना भी एक महत्त्वपूर्ण काम है. अपनी कमाई का कुछ भाग जरूरतमंद को दान करना एक तरह से सेवा ही है. दान का शाब्दिक अर्थ है ‘देना’. जो वस्तु स्वयं की इच्छा से दे कर वापस न ली जाए उसे हम दान कहते हैं. दान में आप कुछ भी दे सकते हैं, जो आप की इच्छा हो.

परंपरा में दान को कर्तव्य और धर्म माना जाता है. शास्त्रों में इस के बारे में लिखा है,

दानं दमो दया क्षन्तिर् सर्वेषां धर्मसधानम याज्ञवल्क्यस्मृति गृहस्थ अर्थात, कृदान, अंत:करण का संयम, दया और क्षमा सभी के लिए धर्म साधन है.

वैसे दान का विधान हर किसी के लिए नहीं है. जो धनधान्य से संपन्न हैं वे ही दान देने के अधिकारी हैं. जो निर्धन हैं और बड़ी कठिनाई से अपने परिवार का पालनपोषण कर रहे हैं, उन के लिए दान देना जरूरी नहीं माना गया है.

प्राचीनकाल में ऐसे निस्वार्थ लोकहित निरत ऋषिमुनि, ब्राह्मण, पुरोहित, योगी, संन्यासी हुआ करते थे जो समस्त आयु लोकहित के लिए दे डालते थे. कुछ विद्यादान और पठनपाठन में ही आयु व्यतीत करते थे. मानवीय स्वभाव में जो सत तत्त्व हैं, उन्हीं की वृद्धि में वे अपना अधिकांश समय व्यतीत करते थे. ये ज्ञानी, उदार महात्मा अपनेआप में जीवित-कल्याण की संस्थाएं थे, यज्ञरूप थे. जब ये जनमानस की इतनी सेवा करते थे, तब बदले में वे भी अपना कर्तव्य सम?ा कर उन के भोजन, निवास और वस्त्र का प्रबंध करते थे. जैसे, लोक हितकारी संस्था आज भी कई जगह सार्वजनिक चंदे से चलाई जाती है, उसी प्रकार ये ऋषिमुनि, ब्राह्मण, पुजारी भी दानपुण्य आदि द्वारा निर्वाह करते थे.

प्राचीन भारतीय ऋषिमुनियों का व्यक्तित्व इतना उच्च, पवित्र और प्रवृत्ति इतनी सात्विक होती थी कि उन के संबंध में किसी प्रकार के संदेह की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. उन्हें दानदक्षिणा के तौर पर पैसा आदि दे कर लोग निश्ंिचत रहते थे कि इस का कोई दुरुपयोग न होगा. पहले के पंडितपुरोहित दानदक्षिणा द्वारा जनता की सर्वतोमुखी उन्नति का प्रबंध किया करते थे और दान द्वारा उन की आवश्यकताओं को पूरी करने का विधान उचित था. वे परमार्थ और लोकहित में इतने तन्मय रहते थे कि उन के भरणपोषण की चिंता जनता को करनी पड़ती थी. लेकिन आज वह सब नहीं रहा. आज बाबाओं को अपने भविष्य की चिंता ज्यादा है, तभी तो वे जैसेतैसे कर के अपनी तिजोरी जल्द से जल्द भर लेना चाहते हैं.

शास्त्रों में दान 2 प्रकार के बतलाए गए हैं, एक जो ऋषिमुनियों को दिया जाता था और दूसरा, जो जरूरतमंदों को. ऋषिमुनियों, ब्राह्मणों, पुरोहितों, आचार्यों, संन्यासियों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता का नाम दान रखा गया और अपंग, लंगड़ा, लूला, अपाहिज या हर प्रकार से लाचार व्यक्ति को दी जाने वाली सहायता को भिक्षा का नाम दिया गया.

दान और भिक्षा दोनों का तात्पर्य दूसरों की सहायता करना ही था. लेकिन आज इस का मतलब बदल चुका है. लोगों की भावनाओं का फायदा उठाया जाने लगा है. आजकल दानवृत्ति से अनुचित लाभ उठाने वाले अनेक अकर्मण्य भिखमंगे, ठग, दुष्ट व्यक्ति लोगों को ठगते फिर रहे हैं. वे स्वयं परिश्रम करना नहीं चाहते, बस मुफ्त का माल उड़ाना चाहते हैं. आज पढे़लिखे लोग भी भिक्षावृति में पड़ चुके हैं ताकि उन्हें कोई परिश्रम न करना पड़े और बैठेबैठे भोजन की व्यवस्था होती रहे.

धर्म के नाम पर नाना प्रकार के आडंबर, घृणित मायाचार और असत्य व्यवहार होते हैं. धर्म के नाम पर हमारे समाज में विषैला, अनिष्टकारी वातावरण फैल रहा है. धर्म के नाम पर व्यापार चलाया जा रहा है. आज पूजा का रेट तय हो चुका है तो सोचिए कि यह व्यापार नहीं तो और क्या हुआ.

आज ?ाठ, पाखंड, ढोंग का बोलबाला हो गया है. धर्म के नाम पर मुफ्त का माल उड़ाने वालों की एक जमात है. दानदक्षिणा के नाम पर पंडेपुजारी लोगों को लूट रहे हैं. ग्रहनक्षत्रों का भय दिखा कर पूजा, हवन, जाप कर वे लोगों से मनमरजी पैसे ऐंठ रहे हैं. यहां तक कि टीका लगाने और कलावा बांधने तक का भी रेट तय है. उस के लिए भी आप को पैसे देने होंगे.

आध्यात्मिक चैनलों पर ज्योतिषबाबाओं की ऐसी फौज खड़ी है जो अध्यात्म के नाम पर लूटखसोट कर रही है. बाबाओं की चलने वाली यह औनलाइन कक्षा सिर्फ लोगों को उल्लू बना रही है. धनलोलुपता में गरदन तक धंसे चैनलों के स्वामी भी बाबाओं के पंडाल में बैठ कर उन के गुणगान करते रहते हैं. ये बाबा लोगों को मोहमाया छोड़ने का आह्वान करते हैं और खुद गले तक मोहमाया में फंसे हुए हैं.

मैं अपनी पत्नी से ऊबने लगा हूं, क्या करूं ?

सवाल

मैं 30 वर्षीय पुरुष हूं. मेरी शादी 22 वर्ष में ही हो गई थी. मेरे 2 बच्चे हैं जो अभी छोटे हैं. मेरी पत्नी गृहिणी है और घर में ही उस की जिंदगी बंधी हुई है. मैं एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी करता हूं. अपनी सोच और समझ से मेल खाती लड़कियों के बीच रहता हूं. ऐसा नहीं है कि मेरी पत्नी अच्छी नहीं है या मैं उस से प्यार नहीं करता, लेकिन मैं उस से ऊबने लगा हूं. मुझे उस का आलिंगन पसंद है, परंतु मुझे उस से बातें करने या उस की बातें सुनने में दिलचस्पी नहीं रही.

मैं ने उसे प्रत्यक्ष रूप से कह दिया है कि वह गंवार है, पर मुझे यह कहना अच्छा नहीं लगा. अब वह दुखी रहने लगी है. मैं समझ नहीं पा रहा कि उस की खुशी उसे कैसे वापस दूं?

जवाब

आप की बातें सुन कर यह तो स्पष्ट है कि आप अपनी पत्नी की, अपनी सहकर्मियों से तुलना कर रहे हैं, जो सही नहीं है. आप की पत्नी का अपना एक अस्तित्व है जो अपनेआप में विशेष है. आप का उन्हें गंवार कहना किसी भी पृष्ठभूमि पर सही नहीं बैठता. वे आप से यदि आप की सहकर्मियों की तरह या आप की नजर में जो समझदारी की बातें हैं, नहीं करतीं तो इस का स्पष्ट कारण है कि वे उस माहौल में नहीं रहतीं जिन में आप या आप की सहकर्मी रहती हैं.

वे आप के 2 बच्चों को संभालती हैं, पूरे घर की देखरेख करती हैं और यहां तक कि आप का खयाल भी रखती हैं जबकि बदले में आप उन्हें गंवार की संज्ञा दे रहे हैं. आप उन्हें प्यार से यदि यह कहते कि वे भी सुबह अखबार पढ़ें, बाहर घूमेंफिरें, नए लोगों से मिलें और मौडर्न रहें तो शायद वे आप की अपेक्षाओं पर खरी उतरतीं.

अब आप के पास माफी मांगने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. आप उन्हें यकीन दिलाएं कि आप अपने किए पर शर्मिंदा हैं और एक नई शुरुआत करना चाहते हैं. अपनी पत्नी के साथ घूमें फिरें, उन्हें समय दें. उन्हें नई नई पत्रिकाएं और किताबें ला कर दें और साथ बैठ कर अच्छी फिल्में देखें. इस सब के बाद वे आप की मौडर्न सोच वाली सहेलियों से आप को बेहतर लगेंगी. फिर धीरेधीरे सबकुछ सामान्य होने लगेगा.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

आधी आबादी: आजादी का अधूरा उत्सव

आजाद भारत में 75 साल बाद भी बड़े पैमाने पर पुरानी मानसिकता कायम है. यह तय है कि संपत्ति, गर्भपात, तलाक, महिला आरक्षण व महिलाओं से जुड़े कानूनों का इस्तेमाल वही महिलाएं कर सकती हैं जो तार्किक और व्यावहारिक हैं, बाकी तो निर्जला रह कर चांद दिखने का इंतजार करती रहती हैं. आधी आबादी संवैधानिक आजादी का सपना भर देख रही है.

भारत की आजादी के 75 साल गुजर गए मगर भारतीय महिलाओं की हालत पर नजर डालें तो आज भी देश की 90 फीसदी महिलाएं अपने जीवन से जुड़े निर्णय खुद नहीं ले सकती हैं. उन के सारे फैसले परिवार और समाज में मौजूद मर्द ही लेते हैं. औरतों में इतनी हिम्मत अब तक नहीं आई है कि वे परिवार व समाज द्वारा जबरन थोपी जा रही रवायतों के खिलाफ एक शब्द भी बोल सकें. आजादी का 75 साला जश्न मना रही देश की महिलाएं आज भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई हैं.

संविधान से जो हक औरत को मिले हैं, अधिकांश औरतों को उन हकों की जानकारी नहीं है, जिन्हें जानकारी है वे चाह कर भी उन हकों को पा नहीं पाईं और जो थोड़ी सी शिक्षित औरतें हिम्मत कर के अपने अधिकार पाने की जद्दोजहेद करती हैं उन की पूरी उम्र अदालतों के चक्कर काटने में गुजर जाती है. उन पर लांछन लगते हैं, उन का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है, अनेक स्तरों पर उन का शोषण होता है, उन की सारी जमापूंजी पुलिस और वकील खा जाते हैं, सालोंसाल अदालतों में वे केस लड़ती हैं और आखिर में मिलता है अकेलापन और उपेक्षित बुढ़ापा. यह सिर्फ और सिर्फ इसलिए क्योंकि सालोंसाल धर्म की ठोकपीट में महिलाओं को यही सिखायासम?ाया गया कि वे दासी और भोग की वस्तु मात्र हैं.

संपत्ति की ?ाठी आस

मनु स्मृति के अध्याय 9, श्लोक 416 में मनु बेहद स्पष्ट कहते हैं कि स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है. स्त्री की संपत्ति का मालिक उस का पति पिता या पुत्र है.

इन दिनों महिलाओं की संपत्ति को ले कर दर्जनों तरह के कानून अस्तित्व में हैं लेकिन अपवादों को छोड़ दें तो हालात जस के तस हैं. महिलाएं, खासतौर से नए जमाने की युवतियां, कमा तो उत्साह और पूरी मेहनत से रही हैं लेकिन उन की कमाई जायदाद में नहीं बदल पा रही है और जो थोड़ीबहुत बदल भी रही है तो उस का मालिक और उपभोक्ता कोई पुरुष ही है. यह तो बहुत छोटी सी हुई महिलाओं की स्वअर्जित संपत्ति की बात, फसाद पिता और पति को विरासत में मिली संपत्ति को ले कर ज्यादा हो रहे हैं.

आजादी मिलने तक हिंदू समाज स्मृतियों के हिसाब से ही चलता था, इस का यह मतलब नहीं कि आज नहीं चलता. हां, हालात थोड़े बदले हैं. महिलाएं संपत्ति के लिए अदालत जाने लगी हैं क्योंकि कानून उन्हें संपत्ति में बराबरी का हक देने लगा है. इस की शुरुआत कांग्रेस द्वारा लाए गए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के लागू होने के बाद हुई.

इस अधिनियम को हाहाकारी इस लिहाज से कहा जा सकता है कि क्योंकि यह परंपराओं को नकारता था, इस से ही महिलाओं को संपत्ति का अधिकार मिल रहा था. यह मान लिया कि स्त्री भी पुरुष की तरह संपत्ति में बराबरी की हकदार

है. इतना होना भर था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर चढ़ाई कर दी गई थी कि वे हिंदू धर्म के मूलभूत सिद्धांतों को खत्म कर रहे हैं.

इस अधिनयम का हर तरह से विरोध हुआ लेकिन बेकार गया. प्रसंगवश यह जान लेना जरूरी और दिलचस्प है कि न केवल नेहरू बल्कि इंदिरा, राजीव और सोनिया, राहुल गांधी आज भी सियासी तौर पर भगवा गैंग के निशाने पर रहते हैं क्योंकि वे आजादी मिलने के बाद से ही लगातार महिलाओं के संपत्ति में अधिकार के अलावा उन के दूसरे अधिकारों- विवाह, मतदान, तलाक और वर्ण व्यवस्था जैसे मुद्दों पर मुखर रहे हैं.

सियासी तौर पर कांग्रेस को इस का फायदा 80 के दशक तक इफरात से मिलता रहा. बात संपत्ति के अधिकार की करें तो उस वक्त तक 1956 के अधिनियम की खामियां सामने आने लगी थीं कि कोई भी अदालत अपने हिसाब यानी विवेक से इस की व्याख्या कर सकती है.

इस के बाद इस अधिनियम में समयानुसार कई संशोधन हुए. मसलन, यह बेटी को बेटे के बराबर का हकदार जायदाद में नहीं मानता था. कानून में जरा सी भी दिलचस्पी रखने वाले लोग सहदायिक शब्द से अच्छी तरह वाकिफ होंगे जिस का सरल भाषा में मतलब होता है अविभाजित हिंदू परिवार में पैतृक संपत्ति में बराबरी के अधिकार ले कर पैदा होना. इसे संयुक्त उत्तराधिकारी भी कह सकते हैं.

तब तक महिलाएं शादी के बाद पिता की संपत्ति में हिस्सेदार नहीं मानी जाती थीं क्योंकि वे  सहदायिक नहीं होती थीं. यह एक भारी कमी थी जिसे दूर साल 2005 में किया गया. मनमोहन सिंह की अगुआई वाली कांग्रेस नेतृत्व की सरकार ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 में संशोधन कर उन्हें कानूनी तौर पर सहदायिक का दर्जा दे दिया तो इस दफा हल्ला कांग्रेसियों ने भी अंदरूनी तौर पर मचाया. कहा जाता है कि कोई भी कांग्रेसी सांसद महिलाओं को जायदाद में बराबर का हकदार मानने को राजी नहीं था, लेकिन सोनिया गांधी टस से मस नहीं हुईं जिस से महिलाओं को संपत्ति का स्पष्ट और पारदर्शी अधिकार मिला.

तभी से कई कांग्रेसियों का सवर्ण और मनुवादी चेहरा उजागर होना शुरू हुआ था जिस की सजा कांग्रेस आज भी भुगत रही है. इस बदलाव से महिलाओं ने राहत की सांस ली क्योंकि अब वे ससुराल में रहते हुए भी पैतृक संपत्ति में बराबरी की हकदार हो गई थीं और उन के न रहने की स्थिति में ये अधिकार संतानों को मिल रहे थे.

साल 2005 के पहले बेटियां जायदाद के बंटबारे की मांग करने की हकदार नहीं थीं लेकिन नए संशोधन में उसे बेटा मान लिया गया हालांकि दिक्कत अभी भी यह थी कि इस संशोधन में यह स्पष्ट नहीं था कि 2005 से पहले की स्थिति क्या होगी. इस को अगस्त 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा मामले में फैसला देते हुए स्पष्ट किया कि बेटियों को अपने पिता की संपत्ति पर सहदायिक अधिकार ही होगा भले ही उस की मृत्यु इस संशोधन के पहले हो गई हो.

मकड़जाल से मुक्ति नहीं

नए फैसले से महिलाओं को राहत तो मिली है लेकिन कानूनों के मामले में

2 बातें बहुत माने रखती हैं. पहली यह कि इन से किसी, खासतौर से महिला की सामाजिक स्थिति बहुत ज्यादा नहीं बदलती और दूसरे, कोई भी कानून अपनेआप में पूर्ण नहीं होता. उत्तराधिकार संबंधी मामलों में हर दसवां फैसला एक नया फसाद या उल?ान ले कर आता है.

इस में कोई शक नहीं कि अब बहनें भाइयों से अपना हिस्सा मांगने अदालत जाने लगी हैं. अधिकतर मामलों में हक उन्हें मिल भी रहा है पर ऐसी महिलाओं की संख्या कम है जो कुछ लाख रुपए की जायदाद की शर्त पर भाई से संबंध बिगाड़ने का रिस्क लें.

ऐसा क्यों है, इस से पहले एक दिलचस्प मामले पर नजर डालें जिस में सहदायिक होते भी महिला कानूनी मकड़जाल में उल?ा गई है. यहां मामला कुछ लाख का नहीं, बल्कि साढ़े 4 हजार करोड़ का है. प्रद्यूमन सिंह जडेजा राजकोट के 15वें राजा थे जिन्हें वहां ठाकोर साहब भी कहा जाता है. प्रद्यूमन सिंह के बाद उन के बड़े बेटे मनोहर सिंह, जो गुजरात के वित्त मंत्री भी रहे थे, राजा बने और साल 2018 में उन की मौत के बाद मांधाता सिंह राजकोट के राजा पूरे वैदिक रीतिरिवाजों के साथ बने. मनोहर सिंह की बेटी का नाम अंबालिका है और मनोहर सिंह के छोटे भाई प्रह्लाद सिंह के पोते का नाम रणसूरवीर सिंह है.

अंबालिका से जून 2019 में मांधाता सिंह ने एक कानूनी कागज पर उन के दस्तखत ले लिए और उन्हें इस बात के लिए सहमत कर लिया कि अगर वे संपत्ति में अपना दावा छोड़ दें तो इस के बदले में उन्हें संपत्ति का 5वां हिस्सा दे दिया जाएगा. लगभग 2 साल पहले मांधाता सिंह की पत्नी ने वही किया जिस के लिए दुनियाभर की भाभियां और चाचियां बदनाम हैं.

राजतिलक के दौरान उन्होंने अंबालिका को बेइज्जत कर दिया. इधर अंबालिका के 2 महीने बाद रणसूरवीर सिंह ने भी अपने परदादा प्रद्यूमन सिंह की बेशुमार जायदाद का सभी कानूनी वारिसों में बंटबारे का मुकदमा ठोक दिया. इस में लेनदेन पर स्टे और्डर भी चाहा गया था.

अंबालिका के जवाब में मांधाता सिंह ने राज परिवार के तौरतरीकों का हवाला देते हुए कहा कि शाही घरानों के अलिखित नियमों में से एक यह भी है कि बड़ा बेटा ही जायदाद संभालता है और दूसरे कानूनी वारिसों को खर्च और मेंटिनैंस देता रहता है.

रणसूरवीर सिंह के जवाब में उन्होंने दलील दी है कि 1948 में तत्कालीन सरकार ने प्रधुमन सिंह की जायदाद को मुक्त घोषित कर दिया था जिस की वसीयत करने का हक उन्हें था और उन के बाद मनोहर सिंह को भी था. उन के एक और तर्क के मुताबिक शाही जायदाद अविभाज्य रहनी चाहिए. इस दलील से अदालत सहमत नहीं हुई और उस ने फैसला अंबालिका के पक्ष में दिया. अब यह दिलचस्प मामला ऊपरी अदालत में है और तय है सुप्रीम कोर्ट तक भी जाएगा.

इस मुकदमे पर देशभर के वकीलों की निगाहें हैं क्योंकि अंबालिका ने अपने पिता की 2013 में की गई वसीयत को भी चुनौती दी है कि उन्हें उन के हिस्से से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि उन के पिता को विरासत में मिली संपत्ति के वसीयतनामे का अधिकार नहीं था. अब अगर यह फैसला भी अंबालिका के पक्ष में गया तो ऐसे मुकदमों की तादाद बढ़ेगी जिन में महिला अपने दादापरदादा की जायदाद में से भी हिस्सा मांगेंगीं.

फैसला जो भी हो लेकिन मामला उल?ा हुआ तो है जिस पर किसी भी अदालत को अपने विवेक से फैसला लेना पड़ेगा. ऐसी कई उल?ानें 1956 के अधिनियम के वजूद में आने के बाद भी सामने आई थीं कि अगर वाकई महिलाओं को बराबरी का हक जायदाद में दिया गया है तो कानूनन ही इतने रोड़े क्यों हैं? अंबालिका राजघराने की हैं और बात करोड़ों की है लेकिन क्या कोई आम महिला कुछ लाख की जायदाद के लिए भाई से बैर लेगी, ऐसा सामाजिक हालत देखते लग नहीं रहा.

भोपाल की 44 वर्षीया बैंककर्मी दीक्षा शर्मा (आग्रह पर बदला हुआ नाम) से जब बात की गई तो उन्होंने बताया कि

70 हजार रुपए की सैलरी में से वे केवल अपने खर्चे के लिए 15 हजार रुपए लेती हैं. बाकी पति के खाते में ट्रांसफर कर देती हैं. वे ही तय करते हैं कि कब कितना पैसा किस के नाम से कहां इन्वैस्ट करना है. अपने पति पर दीक्षा को पूरा भरोसा है. बात अच्छी है कि इन दोनों में अच्छी ट्यूनिंग और प्यार है लेकिन यह बात भी कम हैरत की नहीं कि एक खासी पढ़ीलिखी बैंककर्मी में स्वअर्जित

पैसे के लिए ही जागरूकता या दिलचस्पी नहीं.

पति पर भरोसा कहीं से गलत बात नहीं लेकिन खुद पर इतना अविश्वास और हीनता क्यों, इस सवाल का जवाब साफ है, इसलिए कि करोड़ों दीक्षाएं ‘भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है’ की तर्ज पर जीती हैं और पैसों या जायदाद के लिए फसाद नहीं चाहतीं, क्योंकि धर्म को उन्होंने पढ़ा नहीं बल्कि भोगा है कि कल को अकेले रह गए तो समाज के गिद्ध उन्हें नोच खाएंगे. इसी डर को मनुस्मृति के ही अध्याय 9 के श्लोक 2 से ले कर 6 तक में यह कहते और बढ़ाया गया है कि

‘‘पुत्री, पत्नी, माता, कन्या, युवा या वृद्धा किसी भी स्वरूप में नारी स्वतंत्र नहीं रहनी चाहिए.’’

गर्भपात का अधिकार

और महिला

हाल ही में कंजर्वेटिव जजों से भरे अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को रद्द कर दिया और इस तरह से उस ने ‘रो बनाम वेड’ के नाम से लोकप्रिय अपने पुराने फैसले को पलट दिया. अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के 6-3 के फैसले ने वहां के राज्यों को अपने स्वयं के गर्भपात कानून बनाने की अनुमति दे दी.

इस तरह से महिलाओं के मौलिक अधिकारों में से एक को छीन लिया गया. जाहिर है गर्भपात को अपराध मानने से महिलाओं के जीवन और अमेरिकी समाज पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार दुनिया में लगभग आधे गर्भधारण अनचाहे होते हैं और उन में से 60 प्रतिशत से अधिक मामलों में गर्भपात हो जाता है. दुनिया में होने वाले सभी गर्भपातों में से 45 प्रतिशत असुरक्षित होते हैं और ये गर्भवती महिलाओं की मौत का कारण बनते हैं.

अमेरिका से पहले साल 1971 में भारत में मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसी कानून लागू किया गया था. हालांकि कई बार इस में बदलाव भी हुए लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि भारत में महिलाओं को अबौर्शन की खुली छूट है. एमटीपी की तरफ से कई टर्म्स और कंडीशंस दिए गए हैं, केवल उन्हीं हालात में महिलाएं गर्भपात करा सकती हैं.

भारत में एमटीपी एक्ट के तहत अबौर्शन अधिकारों को 3 कैटेगरीज में बांटा गया है. प्रैग्नैंसी के 0 हफ्ते से

20 हफ्ते के बीच गर्भपात कराने के लिए कुछ कंडीशंस दी गई हैं. अगर कोई महिला मां बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है या फिर कौन्ट्रासैप्टिव मैथड या डिवाइस फेल हो जाने के कारण न चाहते हुए भी महिला प्रैग्नैंट हो गई है तो वह अपना गर्भपात करा सकती है. इस दौरान एक रजिस्टर्ड डाक्टर का होना बेहद जरूरी है.

मार्च 2020 में संसद के दोनों सदनों द्वारा एमटीपी संशोधन विधेयक पारित किया गया था. यह लौकडाउन से पहले पारित किए जाने वाले कानून के अंतिम कानूनों में से एक था. इस से गर्भवती महिलाओं के लिए गर्भपात की समयसीमा 20 सप्ताह से बढ़ा कर 24 सप्ताह कर दी गई है.

इस अधिनियम ने अविवाहित महिलाओं को गर्भ निरोधकों की विफलता के आधार पर अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दी. महिलाओं को निजता का अधिकार भी दिया गया है. चिकित्सा संस्थान केवल अधिकृत व्यक्ति को गर्भपात के संबंध में जानकारी दे सकता है.

इस से पहले एक पंजीकृत चिकित्सक को 12 सप्ताह तक भ्रूण गर्भपात की अनुमति दी गई थी. जबकि 12 सप्ताह से अधिक और 20 सप्ताह से कम समय के लिए 2 चिकित्सकों की राय लेना अनिवार्य था. अब इसे 20 सप्ताह के भीतर गर्भपात के लिए एक चिकित्सक और 20 से 24 सप्ताह के बीच गर्भपात के लिए 2 चिकित्सकों में परिवर्तित किया गया है.

यदि कोई महिला 24 हफ्ते पूरे हो जाने के बाद गर्भपात की मांग कर रही है तो चिकित्सा बोर्ड आवश्यकता की गंभीरता का अध्ययन कर के निर्णय लेने का अधिकारी है पर कानून का फेर और देश की वास्तविक हकीकत दोनों में अंतर है.

कलंक का एहसास

आधुनिक समाज में गर्भपात को एक मैडिकल मामले के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि एक आपराधिक कृत्य के रूप में. मगर भारत में लोगों की सोच अभी भी पिछड़ी हुई है. आजादी के 75 साल बीतने के बाद भी भले ही महिलाएं कितना भी आगे बढ़ जाएं मगर कई बार गर्भवती होना उन के लिए खतरे की वजह बन जाता है. शादी के बगैर गर्भवती होने पर उन्हें कलंकित घोषित कर दिया जाता है. घरवालों द्वारा उन की इच्छा के बगैर भी उन का गर्भपात करा दिया जाता है.

कई दफा घरवालों की खुशी के लिए न चाहते हुए भी उन्हें गर्भपात से वंचित रहना पड़ता है. इस तरह कानून होने के बावजूद वे अपनी मरजी से नहीं चल सकतीं. कई दफा उन्हें पता ही नहीं होता कि गर्भपात से जुड़े उन के अधिकार क्या हैं. करीब 80 प्रतिशत भारतीय महिलाओं को इस बात का अंदाजा नहीं है कि 20 सप्ताह के भीतर गर्भपात कानूनी हो सकता है. यही वजह है कि भारत जैसे देश में जहां कई तरह के गर्भपात कानून बनाए गए हैं, असुरक्षित गर्भपात मातृ मृत्यु के तीसरे प्रमुख कारण के रूप में मौजूद है.

दरअसल कानूनी संशोधन गर्भवती महिलाओं की स्वतंत्रता में वृद्धि नहीं करते हैं या गर्भपात को कम करने की दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाते हैं. संशोधन यह भी सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं कि किसी को भी असुरक्षित गर्भपात के लिए मजबूर नहीं किया जाता है. इस के लिए पारिवारिक मंजूरी जरूरी होती है जो अब भी कई दफा उन्हें नहीं मिलती.

भारत में गर्भपात को ले कर कानून बना हुआ है लेकिन आधेअधूरे ज्ञान के चलते और अवैध तरीके से हो रहे गर्भपात महिलाओं की मौत की वजहें बन रहे हैं. भारत में गर्भपात को ले कर कानून बना हुआ है लेकिन उस में काफी लूप होल्स हैं और इस वजह से अवैध तरीके से हो रहे गर्भपात महिलाओं की मौत की वजह बन रहे हैं. देश में महिलाओं या उन के परिजनों द्वारा असुरक्षित गर्भपात कराया जाता है जो उन की सेहत के लिए खतरा बन जाता है.

गर्भपात को ले कर बना कानून द मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसी एक्ट ने 50 साल से भी पहले अबौर्शन को लीगल कर दिया था लेकिन अभी भी सड़कछाप डाक्टर और नीमहकीम अपना धंधा चला रहे हैं.

कोख पर भी हक नहीं

गर्भपात कराना है या नहीं और कब कराना है, इस का पूरा अधिकार महिला और उस के डाक्टर के पास होना चाहिए. एक महिला के पास अपने शरीर से जुड़े हर मसले का अधिकार आखिर क्यों न हो. शरीर उस का है, बच्चा उस की कोख में 9 महीने पलने वाला है, उसे इस पूरी प्रक्रिया में बहुत से कौम्प्रोमाइज करने होंगे, बहुत सी तकलीफें सहनी होंगी, मैडिकल कौम्प्लीकेशंस फेस करने होंगे, ऐसे में क्या उसे यह हक नहीं होना चाहिए कि यह सब उसे करना है या नहीं, इस बात का फैसला वह ले सके.

वह अपने शरीर और अपनी परिस्थितियों के हिसाब से सोचेसम?ो और फिर फैसला ले कि उसे बच्चा चाहिए या नहीं. कोई और व्यक्ति उसे सलाह दे सकता है या डाक्टर उस की मैडिकल कंडीशंस के आधार पर बता सकता है कि उस के लिए क्या बेहतर है. आखिर कोई गैरव्यक्ति उस के शरीर से जुड़ी इस बात का फैसला उस की अनिच्छा के बावजूद कैसे ले सकता है.

मगर आजादी के 75 साल बाद भी एक औरत सही माने में आजाद नहीं. उस के पास अपने तन और मन से जुड़े मामलों में भी फैसले लेने का हक नहीं. धर्मगुरुओं ने सदियों से लोगों को यही सिखाया है कि स्त्री महज पुरुष के हाथ का खिलौना है.

आज भी स्त्री की इच्छा के बिना भी उसे गर्भधारण करना होता है. कोख में बेटी हो तो जबरन घरवाले उस का गर्भपात करा देते हैं, कभी डराधमका कर और कभी धोखे से. असुरक्षित गर्भपात के कारण वह जान से हाथ धोती है तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता.

शादी और तलाक के फैसले लेना भी दूभर

भारतीय कानून ने देश की महिलाओं को कई मुख्य अधिकार दिए जिन में समान सैलरी का अधिकार, गरिमा व शालीनता का अधिकार, दफ्तर या कार्यस्थल पर उत्पीड़न से सुरक्षा, घरेलू हिंसा के खिलाफ अधिकार, रात में महिला को गिरफ्तार नहीं कर सकते, वर्चुअल शिकायत दर्ज करने का अधिकार, अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकते, महिला का पीछा नहीं कर सकते, जीरो एफआईआर का अधिकार शामिल हैं.

कितना जानती हैं महिलाएं कानून और अधिकार

दिल्ली के गोविंदपुरी इलाके की एक हालिया घटना है. 6 जुलाई को जब संजीव नाम के सरकारी बस ड्राइवर की उस की 2 पत्नियों ने हत्या कर दी. कारण यह कि वह एकसाथ

2 महिलाओं के साथ शादीशुदा जिंदगी जी रहा था, जहां वह दोनों का इस्तेमाल कर रहा था बल्कि प्रताडि़त भी कर रहा था. जिस वजह से दोनों ने संजीव को मारने की प्लानिंग बना ली.

अगर आजादी के 75 साल बाद भी निम्नमध्य वर्ग की एक हिंदू औरत, जो किसी दूरदराज के गांवदेहात में नहीं बल्कि लंबे समय से देश की राजधानी दिल्ली में रह रही है, को इस बात की जानकारी नहीं है कि उस का पति बिना तलाक लिए दूसरी शादी नहीं कर सकता और वह उस पर केस कर सकती है, उसे जेल भिजवा सकती है.

वहीं अगर एक मुसलिम औरत को यह जानकारी नहीं है कि वह पहले से शादीशुदा आदमी से अगर शादी करती है तो वह मान्य नहीं है और इस कृत्य के चलते आदमी को जेल हो सकती है तो क्या सरकार का यह दावा खोखला साबित नहीं होता कि आधी आबादी ने 75 में बहुत तरक्की कर ली? क्या सचमुच?

कितनी औरतें हैं जिन्हें अपने अधिकार मालूम हैं? जिन्हें मालूम है उन में से कितनी औरतें हैं जो अपने अधिकार के लिए लड़ने की हिम्मत रखती हैं?

पंडित को सजा क्यों नहीं

लड़कालड़की एकदूसरे को पसंद करते हैं, एकदूसरे से प्यार करते हैं मगर पंडित कह दे कि गुण नहीं मिलते तो विवाह नहीं होता है. पंडित डराता है कि यदि विवाह हो गया तो परिवार में अशुभ घटित होगा वगैरहवगैरह. तो दोनों की शादी नहीं हो पाती है. परिवार, समाज अशुभ की आशंका में प्रेमी जोड़े को जबरन अलग कर देते हैं. यह नहीं सोचते कि गुण तो मिले ही होंगे तभी तो दोनों एकदूसरे के करीब आए. वरना विपरीत गुण वालों से दोस्ती ही कहां होती है?

पंडित कुंडली मिलाता है. इस के लिए वर और वधू पक्ष से हजारोंलाखों रुपए वसूलता है. मगर शादी के बाद अगर दोनों को पता चले कि उन की तो आदतें, पसंद, व्यवहार, सोच आदि सब एकदूसरे से जुदा हैं, एक भी गुण ऐसा नहीं जो एकदूसरे से मेल खाता हो, दोनों दो ध्रुव, एक जमीन दूसरा आसमान तो दोषी कौन होगा? क्या वह पंडित दोषी नहीं जिस ने जन्मपत्री देख कर दोनों के गुणों का मिलान कर ऐलान किया था कि यह जोड़ी तो स्वर्ग, यदि कहीं है तो, से बन कर आई है, इस से सुखी जोड़ी तो कोई हो ही नहीं सकती.

जहां पतिपत्नी में नहीं निभती है वहां पहले जलीकटी बातें, गालीगलौच, फिर मारपीट और कभीकभी मर्डर तक बात पहुंच जाती है मगर परिवार वाले और समाज तब उस पंडित को पकड़ कर उस के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं कराते जिस ने वरवधू के गुण मिला कर उन की शादी करवाई थी और कहा था ये तो जन्मजन्म के साथी हैं.

भारत में तलाक लेना भी आसान नहीं है

विश्व में किसी भी धर्म, संस्कृति में तलाक को आसानी से कुबूल नहीं किया गया है. हिंदू संस्कृति में तो शादीविवाह को 7 जन्मों का रिश्ता माना जाता है. लड़की मायके से ससुराल के लिए विदा होती है तो उस से कहा जाता है कि अब वही तेरा घर है और वहां से अब तू नहीं, तेरी अर्थी ही निकलेगी.

यह घुट्टी धार्मिक ग्रंथों के जरिए, हिंदी फिल्मों के जरिए, उपन्यासकहानियों के जरिए, समाज व परिवार के बुजुर्गों के जरिए पीढ़ीदरपीढ़ी स्त्री को पिलाई जाती रही है और ये बातें उस के खून में ऐसी घुस गई हैं कि ससुराल में दिनरात पिटने, गालियां खाने, भूखी रखी जाने, कई बार सामूहिक बलात्कार का शिकार होने और कई बार जिंदा जला दिए जाने के बावजूद वह ससुराल छोड़ने या तलाक लेने की बात नहीं सोच पाती है.

यह समस्या सिर्फ हिंदू औरतों की नहीं, बल्कि सभी धर्म की औरतों के सामने है कि वे ससुराल में प्रताडि़त होने पर भी तलाक के लिए कदम नहीं बढ़ा पाती हैं. बाइबिल में भी तलाक को बुरा माना गया है. बाइबिल में कहा गया है कि तलाक लेने वाले व्यक्ति से परमेश्वर घृणा करता है. इसलाम में भी औरतों द्वारा तलाक लेने पर कड़ी पाबंदी है. आज लाखों ऐसी मुसलमान औरतें इस देश में हैं जो पति द्वारा त्याग दिए जाने पर या दूसरी शादी कर लेने पर भी उस से तलाक नहीं ले पाईं और घर के किसी कोने में पति द्वारा फेंके गए चंद टुकड़ों पर रोरो कर जीवन काट रही हैं.

तलाक ले भी लें तो बच्चों को ले कर वे कहां जाएं? अगर मायके वाले गरीब हुए तो कौन उठाएगा उन का बो?ा? कौन रोटी देगा? बच्चों की शिक्षा कैसे होगी? खुद वह औरत समाज के तानों से, पुरुषों की गिद्ध नजरों से अपनेआप को कैसे और कब तक बचा पाएगी? ये तमाम सवाल उस के सामने होते हैं.

तलाक न लेने का सामाजिक रूप से इतना दबाव औरत पर होता है कि स्थिति बहुत ज्यादा बिगड़ जाने पर ही कोई हिम्मती औरत तलाक का फैसला ले पाती है. एक सर्वे के मुताबिक, 37 प्रतिशत जोड़े बच्चों की चिंता के कारण तलाक का फैसला नहीं लेते. जिन औरतों के पास अपना थोड़ा पैसा होता है वे अगर हिम्मत जुटा कर तलाक की अर्जी कोर्ट में डालती भी हैं तो वकीलों और जजों के चक्कर में सालोंसाल अदालतों के चक्कर काटते बीत जाते हैं. तब तक दूसरी शादी की सारी संभावनाएं धूमिल हो जाती हैं.

अदालतों को सम?ाना चाहिए कि एक औरत जिस के मांबाप ने जीवनभर की पूंजी खर्च कर के उस की शादी की है, वह खुद नहीं चाहेगी कि वह अपनी ससुराल छोड़ कर, अपने पति को छोड़ कर वापस अपने मांबाप पर बो?ा बन जाए. जब हिंसा और प्रताड़ना की हद पार हो जाती है तभी कोई औरत ससुराल छोड़ने और तलाक लेने की तरफ कदम बढ़ाती है क्योंकि उस के सामने शांति से जीवन जीने का कोई और रास्ता नहीं बचता है.

ऐसे में अदालतों को उस का केस ज्यादा लंबा न खींच कर तुरंत फैसला कर देना चाहिए. मांबाप को भी समाज और धर्म को दरकिनार कर अपनी बेटी का सपोर्ट करना चाहिए. जिस नरक से वह भागना चाहती है उसे वापस उसी नरक में भेजना तो बिलकुल भी ठीक नहीं है. ऐसी कई महिलाएं समाज में हैं. कुछ जीवित हैं, कुछ मर चुकी हैं.

धर्म के चंगुल में अदालतें

अदालतों पर धर्म कैसे हावी हो रहा है, इस का उदाहरण देखिए. जून 2020 में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तलाक के एक केस में विचित्र और्डर पास किया. जजमैंट के हिसाब से गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तलाक के एक मामले में कहा कि ‘‘अगर हिंदू रीतिरिवाज के अनुसार कोई विवाहित महिला शाखा, चूडि़यां और सिंदूर लगाने से इनकार करती है तो यह माना जाएगा कि विवाहिता को शादी अस्वीकार है.’’ यह टिप्पणी हाईकोर्ट ने एक पति द्वारा दायर की गई तलाक की याचिका मंजूर करते हुए की.

जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया की डबल बैंच ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि इन परिस्थितियों में अगर पति को पत्नी के साथ रहने को मजबूर किया जाए तो इसे पुरुष का उत्पीड़न माना जा सकता है. हाईकोर्ट से पहले फैमिली कोर्ट ने पत्नी द्वारा शाखासिंदूर न लगाने पर पति की तलाक याचिका खारिज कर दी थी. फैमिली कोर्ट ने पाया था कि पत्नी अगर ये चीजें न पहनना चाहे तो इस से पति पर कोई क्रूरता नहीं हुई पर जब मामला गुवाहाटी हाईकोर्ट के सामने आया तो उस ने यह अजीबोगरीब जजमैंट दे दिया. जबकि हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 5(1) के अनुसार विवाह के नियम इस प्रकार हैं-

१. विवाह के लिए किसी भी व्यक्ति या पार्टी को पहले से शादीशुदा नहीं होना चाहिए, यानी शादी के समय किसी भी पार्टी के पास पहले से ही जीवनसाथी नहीं होना चाहिए. इस प्रकार यह अधिनियम बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाता है.

२. शादी के समय यदि कोई भी पक्ष बीमार है तो उस की सहमति वैध नहीं मानी जाएगी. भले ही वह वैध सहमति देने में सक्षम हो लेकिन किसी मानसिक विकार से ग्रस्त नहीं होना चाहिए जो उसे शादी के लिए और बच्चों की जिम्मेदारी के लिए अयोग्य बनाता है. दोनों में से कोई पक्ष पागल भी नहीं होना चाहिए.

३. दोनों पक्षों में से किसी की उम्र विवाह के लिए तय उम्र से कम नहीं होनी चाहिए. दूल्हे की उम्र न्यूनतम 21 साल और दुलहन की उम्र कम से कम 18 हो.

४. दोनों पक्षों को सपिंडों या निषिद्ध संबंधों की डिग्री के भीतर नहीं होना चाहिए, जब तक कि कोई भी कस्टम प्रशासन उन्हें इस तरह के संबंधों के बीच विवाह की अनुमति नहीं देता.

वहीं, एक्ट में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि मंगलसूत्र या शाखा न पहनना अथवा सिंदूर न लगाना पति के प्रति क्रूरता है या इस का मतलब है कि महिला शादी को नहीं मानती है. ये प्रथाएं धर्मों का अहम अंग हैं जो औरतों पर जबरन लादी गई हैं लेकिन जब अदालतें ऐसी प्रथाओं को संरक्षण देने लगें तो आने वाले अंधेरे को रोकना नामुमकिन हो जाएगा.

भारत में शादीशुदा होने का मतलब है शादीशुदा दिखना. यह दिखावा औरत के हिस्से में ही है, पुरुष के हिस्से में नहीं. सवाल यह है कि क्या किसी पुरुष को खुद को शादीशुदा साबित करने के लिए सिंदूर लगाना या चूड़ी पहनना पड़ता है? वह शादी से पहले भी मिस्टर होता है और शादी के बाद भी. जबकि महिला मिस से मिसेज हो जाती है और उस  पर परंपराओं का सारा बो?ा डाल दिया जाता है.

कोई महिला विवाह के पश्चात कैसे सजनासंवारना चाहती है, यह तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ उसी का है. अदालत का इस मामले में दखल देना पिछड़ेपन की निशानी है.

महिला आरक्षण की बाट जोहती महिलाएं

पौराणिक काल से आज तक महिलाओं को वह बराबरी नहीं मिल पाई है जिस की वे हकदार हैं. आधुनिक भारत में भी महिलाओं के हाथ में सत्ता देने से पुरुष वर्ग डर रहा है. पंचायती राज में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण आजादी के 46 साल के बाद मिला. संसद और विधानसभाओं में अभी भी यह अधिकार नहीं मिला है. 75 वर्षों बाद आज भी महिलाओं को वे अधिकार नहीं मिले जो देश के आजाद होते ही उन्हें मिल जाने चाहिए थे.

पुरुषों की सोच यह है कि महिलाएं राजनीति में आएं और पुरुषों की दया पर निर्भर रहें. पुरुष जैसा कहे वैसा करें. अपनी अक्ल न लगाएं. राजनीति में जो महिलाएं अपने बल पर आगे आती हैं उन का भी विरोध होता है. किसी न किसी तरह से उन को पीछे धकेलने का काम होता है.

महिला आरक्षण की जरूरत

यह बात हकीकत है कि आरक्षण के अभाव में महिलाएं राजनीति में महज शोपीस जैसी बन कर रह गई हैं. पंचायती राज में महिलाओं को ग्राम पंचायत, ब्लौक और जिला पंचायत में एकतिहाई यानी 33 फीसदी महिलाओं को आरक्षण मिला हुआ है. इस का लाभ भी देखने को मिल रहा है. पंचायत चुनावों में आरक्षित सीटों को राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में चक्रीय आधार पर आवंटित किया जाता है.

ग्लोबल जैंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार, राजनीतिक सशक्तीकरण सूचकांक में भारत के प्रदर्शन में गिरावट आई है. महिला मंत्रियों की संख्या वर्ष 2019 के 23 से घट कर वर्ष 2021 में 9 तक पहुंच गई है.

सरकार के आर्थिक सर्वेक्षणों में भी यह माना गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बहुत कम है. विभिन्न सर्वेक्षणों से यह पता चलता है कि पंचायती राज में महिला प्रतिनिधियों ने गांवों में समाज के विकास और समग्र कल्याण में सराहनीय कार्य किया है. इन में से कई महिला नेता संसद और विधानसभा में भी काम करना चाहती हैं. संसद और विधानसभा में महिला आरक्षण न होने के कारण चुनाव लड़ना कठिन काम होता है क्योंकि उन को सामान्य सीट पर पुरुषों से मुकाबला करना पड़ता है.

भारत में महिलाएं देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं. इस के बावजूद महिलाओं के लिए इस से खराब हालात और क्या होंगे कि संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने के लिए लाया गया महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा से पारित होने के बाद लोकसभा में सालों से लंबित पड़ा है. आरक्षण के अभाव में राजनीतिक दल भी बहुत कम संख्या में महिला उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए टिकट देते हैं.

महिला आरक्षण विधेयक का मुद्दा

पहली बार वर्ष 1974 में संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा भारत में महिलाओं की स्थिति के आकलन संबंधी समिति की रिपोर्ट में उठाया गया था. राजनीतिक इकाइयों में महिलाओं की कम संख्या का जिक्र करते हुए रिपोर्ट में पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का सु?ाव दिया गया.

वर्ष 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गईं. वर्ष 1996 में महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार एच डी देवगौड़ा सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया. देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई और 11वीं लोकसभा को भंग कर दिया गया.

वर्ष 1996 में महिला आरक्षण बिल का भारी विरोध किया गया. इस के बाद इसे संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था. वर्ष 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में फिर से विधेयक पेश किया. लेकिन गठबंधन की मजबूरियों और भारी विरोध के बीच यह पास नहीं हो पाया. वर्ष 1999, 2002 तथा 2003 में इसे फिर लाया गया लेकिन महिला आरक्षण बिल कानून नहीं बन सका. वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से जुड़ा 108वां संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश किया.

साल 2010 में तमाम राजनीतिक विरोधों को दरकिनार कर राज्यसभा में यह विधेयक पारित कर दिया गया. कांग्रेस को बीजेपी और वाम दलों के अलावा कुछ अन्य दलों का साथ मिला लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार विधेयक को पारित नहीं करा पाई. लोकसभा में अब भी महिला आरक्षण विधेयक पर लुकाछिपी का खेल चल रहा है और सभी राजनीतिक दल तथा सरकार इस पर सहमति बनाने में असमर्थ दिखाई दे रहे हैं. विधेयक की जरूरत क्यों महसूस हुई

भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 11.8 फीसदी है. ऐसे में सवाल है कि देश की आधी आबादी राजनीति के क्षेत्र में कहां है और अभी उसे कितनी दूरी तय करनी है. जब बंगलादेश जैसा देश संसद में महिला आरक्षण दे सकता है तो भारत में दशकों बाद भी महिला आरक्षण क्यों नहीं दिया गया? इस की केवल एक वजह है कि हमारा समाज पूरी तरह से पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित है.

इस विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि एससी/एसटी और ओबीसी महिलाओं के लिए अलग से कोटा होना चाहिए. इन का तर्क है कि सवर्ण, एससी, एसटी और ओबीसी महिलाओं की सामाजिक परिस्थितियों में अंतर होता है. इन वर्ग की महिलाओं का शोषण अधिक होता है. विरोधी तर्क देते हैं कि इस विधेयक से केवल शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही संसद में बढ़ पाएगा.

विरोध करने वालों के तर्क अपनी जगह हैं. इस के पीछे उन का भी मकसद केवल महिला आरक्षण को कानूनी दर्जा न देना भर है. अगर ये दल सही रूप से अपने ही दल में महिलाओं को चुनाव लड़ने के लिए टिकट दे दें तो भी राजनीति में महिलाओं की संख्या बढ़ ही जाएगी.

एक अध्ययन के अनुसार, जिन सरकारों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है वहां भ्रष्टाचार कम होता है. भारत में महिलाओं के कई उदाहरण हैं जिन्होंने अवसर मिलने पर राजनीति में न केवल अपनी पहचान बनाई बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति अर्जित की. इस का अर्थ यह है कि अगर महिलाओं को अवसर मिल जाएंगे तो वे पीछे नहीं हटेंगी.

महिला समानता और भारत

अमेरिका की हिलेरी क्लिंटन का कहना है, ‘‘जब तक महिलाओं की आवाज नहीं सुनी जाएगी तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आ सकता. जब तक महिलाओं को अवसर नहीं दिया जाता तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता.’’ दुनिया में लोकसभा जैसे निचले सदन में महिला प्रतिनिधित्व की बात करें तो भारत इस मामले में पाकिस्तान से भी पीछे है. जिनेवा स्थित इंटरपार्लियामैंट्री यूनियन की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत 150वें स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान को 101वां स्थान मिला है. रवांडा पहले, क्यूबा दूसरे और बोलिविया तीसरे स्थान पर हैं.

भारत में 1952 में लोकसभा में

22 सीटों पर महिलाएं चुन कर आई थीं लेकिन 2014 में हुए चुनाव के बाद लोकसभा में 62 महिलाएं ही पहुंच सकीं. हमारे संविधान की प्रस्तावना में व्यक्त की गई आकांक्षाओं के अलावा अनुच्छेद 14, 15 (3), 39 (।) और 46 में सामाजिक न्याय एवं अवसर की समानता की बात कही गई है ताकि राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने के लिए उचित उपाय किए जा सकें. भारतीय महिलाओं का सशक्तीकरण शिक्षा की खाई को पाट कर, लैंगिक भेदभाव को कम कर के और पक्षपाती नजरिए को दूर करने के माध्यम से किया जा सकता है. भारतीय राजनीति में आजादी के इतने वर्षों बाद भी महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है.

यह तो सामने है कि भारत की आधी आबादी का एक बहुत बड़ा भाग अभी भी अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित है. जो अधिकार संविधान से मिले, उन में भी कहीं न कहीं लूप होल्स हैं या महिलाएं व हमारी व्यवस्था इतनी सक्षम नहीं कि महिलाओं की उन अधिकारों तक आसानी से पहुंच हो सके. आज सवाल यह खड़ा है कि महिलाओं को विकास की मुख्यधारा से कैसे जोड़ा जाए? कैसे उन्हें उन के अधिकारों से अवगत कराया जाए या हमारी न्यायिक व्यवस्था को निचले से निचले पायदान पर खड़ी महिला के लिए सुगम बनाया जाए.

–भारत भूषण श्रीवास्तव, नसीम अंसारी कोचर, शैलेंद्र सिंह, गरिमा पंकज 

‘‘महारानी 2ः राजनीतिक दांव पेच का बेहतर चित्रण..’’

रेटिंग: तीन स्टार

निर्माता:नरेन कुमार और डिंपल खरबंदा

लेखकः क्रिएटिव निर्देशक: सुभाष कपूर

निर्देशकः रवींद्र गौतम

कलाकारः हुमा कुरेशी, सोहम शाह, अमित सियाल,विनीत कुमार, दिव्येंदु भट्टाचार्य,प्रमोद पाठक,कानी कुश्रुती, अतुल तिवारी,पंकज झा, सुशील पांडे, अशिक हुसेन, अनुजा सठे, नेहा चैहाण, दानिश इकबाल,कुमार सौरभ, निर्मलकांत चैधरी व अन्य.

अवधिः एक घंटे से 32 मिनट के दस एपीसोड,कुल अवधि लगभग छह घंटे 45 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: सोनी लिव

राजनीति हर इंसान के लिए नीरस विषय हो सकता है, मगर राजनीतिक पत्रकारिता करते करते फिल्मकार बन बैठे सुभाश कपूर के लिए तो राजनीति रोचक विषय है और उन्हें राजनीति की इस कदर समझ है कि वह उसे रोचक अंदाज में आम लोगों के लिए पेश करने में भी माहिर हैं. बतौर फिल्मकार सुभाष कपूर ने ‘से सलाम इंडिया’,‘फंस गए रे ओबामा’,‘जौली एलएलबी’, ‘जौली एलएलबी 2’ और ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ जैसी सफल फिल्मों के बाद गत वर्ष बिहार की राजनीति खासकर लालू यादव का षासन काल,चारा घोटाला,राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने आदि से प्रेरित होकर दस भाग की वेब सीरीज ‘‘महारानी’’ लेकर आए थे.सोनी लिव पर स्ट्रीम हुई इस वेब सीरीज को काफी पसंद किया गया था.अब वह उसी का दूसरा सीजन ‘‘महारानी 2’’ लेकर आए हैं. मगर पहला सीजन जितना जमीनी सतह से जुड़ा हुआ था,दूसरा सीजन उतना जमीनी सतह से जुड़ा नही है,बल्कि इस बार फिल्मी रंग में ज्यादा रंगा हुआ है.वैसे पहले सीजन के निर्देषन का भार करण षर्मा ने उठाया था.जबकि इस बार निर्देषन का भार रवींद्र गौतम के कंधे पर रहा.‘कसौटी जिंदगी के’ ,‘बड़े अच्छे लगते हैं’ सहित दर्जन भर से अधिक सफलतम सीरियलों का निर्देषन करने के अलावा 2014 में असफल फिल्म ‘‘इक्कीस तोपों की सलामी’’का निर्देषन कर चुके हैं.अब उन्होने ‘‘महारानी 2’’का निर्देशन किया है. मगर ‘सीजन 2’ का अंत जिस मुकाम पर हुआ है,उसे संयोग कहे या कुछ और,पर चंद दिनों पहले वही सब कुछ बिहार की राजनीति में घटित हुआ है.पहला सीजन चारा घोटाला था और दूसरे सीजन में चारा घोटाला करने वाले सत्ता केभागीदार बनते हैं.यही बिहार की राजनीति में हकीकत में हुआ है.

कहानीः

पहले सीजन में भ्रष्टाचार से घिरे राज्य के मुख्यमंत्री भीमा भारती (सोहम शाह) ने गोली लगने से घायल होने पर ने गांव- गोबर-गृहस्थी संभालने वाली दो बेटो व एक बेटी की मां, अपनी पत्नी रानी भारती (हुमा कुरैशी) को राजनीतिक वारिस बनाया था.मुख्यमंत्री बनते ही कावेरी(कनु श्रुति) की सलाह बिहार को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की मुहीम के तहत अपने पति भीमा भारती व कुछ अन्य मंत्रियों को जेल की सलाखों के पीछे भिजवाने के अलावा राज्यपाल गोवर्धन (अतुल तिवारी) की भी छुट्टी करवा देती हैं.
अब दूसरे सीजन की षुरूआत एक झटके के साथ होती है.तीन सदस्यों की जांच कमेटी रानी भारती से पहला सवाल करती है- ‘क्या आप अपने पति व पूर्व मुख्यमंत्री भीम सिंह भारती की हत्या की साजिश में शामिल हैं?’उसके बाद कहानी वहीं से शुरू होती है, जहां पर पहला सीजन खत्म हुआ था.रानी भारती एक तरफ अपनी सत्ता को बरकरार रखने के साथ ही भ्रष्ट नेता, नौकरशाह व पुलिस अफसरों की नकेल कसने में लगी हुई है, तो वहीं उनके पति भीमा भारती व अन्य मंत्री प्रेम बाबू जेल के अंदर से ही अपनी सरकार चलाते हुए बलात्कार, गुंडागर्दी , असामाजिक तत्वो को उकसाते हुए रानी भारती की कुर्सी हिलाने में लगी हुई हैं.इतना ही नही रानी भारती के तमाम प्रयासों के बावजूद भीमा भारती को अदालत से जमानत मिल जाती है.जेल से बाहर आने पर भी रानी अपने पति को सत्ता सौंपने से इंकार कर देती है. उसके बाद एक तरफ भीमा भारती तो दूसरी तरफ 17 साल से बिहार का मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने वाले नवीन बाबू (अमित सियाल), रानी को कमजोर करने के लिए जाल बिछाना षुरू करते हैं.राज्य में कानून व्यवस्था बिगाड़ने की कोशिशों के साथ ही भीमा भारती विधायक दल की बैठक में सभी विधायको को रानी भारती के खिलाफ कर देते हैं. अब रानी भारती के सामने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने का रास्ता ही रहता है.पर एक कुटिल राजनीतिज्ञ की तरह रानी भारती राज्यपाल से मिलकर फ्लोर टेस्ट की अनुमति मांगती हैं. और सदन के अंदर वर्मा कमीषन की पिछड़ी जातियों को आरक्षण की रिपोर्ट को लागू करने का प्रसताव रख देती है,चुनाव नजदीक होने के चलते पक्ष व विपक्ष का कोई भी विधायक विरोध नही कर पाता. अब विधानसभा चुनाव में भीमा भारती अपनी नई राजनीतिक पार्टी बना कर मैदान में उतरते हैं.तो वहीं उनकी जिंदगी में जेल के दिनों से कांति सिंह आ चुकी हंै.इसी के साथ भीमा भारती और नवीन बाबू झारखंड राज्य देने के लिए समझौता करने जैसे रोचक प्रसंगों के साथ कहानी नौ एपीसोड तक पहुंचती है. इस बार चुनाव में भीमा भारती से रानी भारती पांच सौ वोटों से हार जाती हैं.उनके दल को 85,नवीन बाबू की पार्टी को 105 और भीमा भारती की पार्टी को पचपन सीटे मिलती हैं.जोड़ तोड़ का खेल षुरू होता है.नौवे एपीसोड में भीमा भारती की होली की पार्टी में तमाम नेता जुड़ते हैं. और नाटकीय अंदाज में भीमा भारती की मौत हो जाती है.दसवें एपीसोड में जांच कमीशन जांच करता हैै कि भीमा भारती की हत्या किसने की?इस बीच पुनः गोवर्धन दास राज्यपाल बनकर आ जाते हैं, जो कि रिश्ते में नवीन बाबू के मौसिया हैं. वह नवीन बाबू को मुख्यमंत्री की शपथ दिला देते हैं. रानी भारती को भीमा भारती की हत्या की साजिष रचने के आरोप में नवीन बाबू जेल भिजवा देते हैं.पर सीरीज का अंत जिस अंदाज में हुआ है, उससे इसका तीसरा सीजन आना तय है.

लेखन व निर्देशनः

सत्त में काबिज रहने व पाॅवर की भूख के चलते राजनीतिक दांव पेंच, दंगे कराने ,बलात्कार, हत्याएं, पिछड़ा जाति आरक्षण, उच्च वर्ग द्वारा पिछड़ा वर्ग क आरक्षण के खिलाफ विरोध सहित बहुत कुछ है.मगर इस बार बहुत कुछ फिल्मी कर दिया है.पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने के बाद एक सरकारी स्कूल में मिड डे मील बनाने के लिए पिछड़ा वर्ग की महिला की नियुक्ति होती है,तब एक लड़का उसके हाथ का बना खाने से सभी लड़कों को रोकता है.यह पूरा दृश्य अति फिल्मी व हास्यप्रद ही है.दृश्य अपना प्रभाव नही पैदा कर पाता.राजनीतिक पत्रकारिता करते हुए वीपी सिंह के शासन काल में सुभाष कश्यप ने मंडल कमंडल के चलते युवकों द्वारा आत्मदाह की घटनाएं देखी होंगी, जिसे उन्होने अपनी इस सीरीज मंे भी रखा है, मगर इस दृश्य को भी फिल्मी अंदाज में बहुत ही बचकाने तरीके से स्कूल के बच्चे पर फिल्माया गया है.इसतना ही नही रवींद्र गौतम मूलतः सीरियल निर्देशित करते रहे हैं, तो कुछ एपीसोड के कुछ घटनाक्रम सीरियल की तरह खींचा है,जिन्हे एडीटिंग टेबल पर कसा जा सकता था,पर ऐसा नही हुआ, जो कि सीरीज को नीरस बनाता है.

वैसे राजनीति और राजनेताओं के रंग एपिसोड -दर-एपिसोड बदलते हैं.कुछ घटनाक्रम तथा संवाद दर्षकों को असली राजनीति की भी याद दिलाते हैं. ऐसे में जिनकी दिलचस्पी राजनीतिक कहानियों में है,जिन्हे असली राजनीतिक उठा- पटक पसंद है,उन्हें इसे देखने में ज्यादा आनंद आएगा.इस बार लेखक ने राजनीतिक धुरंधरों के रूप में नवीन बाबू (अमित सियाल),गौरी शंकर(विनीत कुमार) और गोवर्धन दास (अतुल तिवारी) के किरदारों रोचक ढंग से गढ़ा है. फिल्मी रंग दकर कुछ दृष्य व किरदार काफी रोचक बना दिए गए हैं.जिसके चलते पिछले सीजन में नीरसता का जो आरोप लगा था,वह इस बार नहीं लगा. मगर इस बार कहानी जमीनी हकीकत से काफी दूर है.रानी भारती जिस तरह से राजनीतिक कुटिल चालें चलती हैं,वह थोड़ा सा अखरता है.क्योंकि एक गांव की औरत में अचानक यह बदलाव कैसे आया, इस पर कुछ खास रोशनी नहीं डाली गयी है.

सीरीज के कुछ दृश्यों को लार्जर देन लाइफ पेश कर इसे और बेहतर बनाया जा सकता था, मगर लेखक व निर्देशक दोनों चूक गए हैं. सीजन दो में पिछली बार से बेहतर संगीत रचने के लिए संगीतकार रोहित शर्मा व गीतकार डाॅं. सागर की तारीफ की जानी चाहिए. होली गीत तो काफी अच्छा बना है. इसके अलावा भी इस सीरीज का हर गीत बिहार नजर आता है.

अभिनयः

पहले सीजन की बनिस्बत इस सीजन में रानी भारती के किरदार में हुमा कुरेशी का अभिनय ज्यादा प्रभावषाली है. वह हर दृश्य में काफी सहज नजर आती हैं. मगर हर बार बिहारी लहजे को संभाल नहीं पाती हैं. मुख्यमंत्री रानी भारती की सहायक के रूप में कनी कुश्रुति भी इस सीजन में निखर कर आई हैं. मगर कई दृष्यों में उनका शुद्ध हिंदी उच्चारण के साथ बात करना अखरता है. इतना ही नही कई दृश्यों में वह ब्यूरोके्रट्स की बजाय राजनतिज्ञ ही नजर आती हैं.नवीन बाबू के किरदार में अमित सियाल दर्शकों के दिलों में पहुॅच जाते हैं. सोहम शाह,विनीत कुमार और अतुल तिवारी ने अपनी भूमिकाओं को अच्छे से निभाया है.दिवाकर झा के किरदार में पंकज झा की प्रतिभा को जाया किया गया है.

अनुपमा के सामने आएगा तोषु के अफेयर का सच, व्हीलचेयर से गिरेगा अनुज

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ के बीते एपिसोड में दिखाया गया कि किंजल की बेटी हुई है. इस बच्ची की आने की खुशी में शाह परिवार खूब प्यार लूटाता है. अनुपमा अपनी पोती का नाम परी रखती है दूसरी तरफ अनुज अपने घर पर अकेला परेशान होता है. शो के अपकमिंग एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते हैं शो के नए एपिसोड के बारे में…

‘अनुपमा’ के अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि  राखी दवे हॉस्पिटल पहुंच जाती है. लेकिन अस्पताल आते ही राखी दवे सबसे पहले तोषू के बारे में पूछती है और कहती है कि इस वक्त उसे अपने बीवी बच्चे के साथ होना चाहिए था.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Anupama (@anupammastarplusofficial)

 

शो में आप ये भी देखेंगे कि छोटी अनु बेबी से मिलने की जिद करती है, लेकिन अनुज उसे डांटकर चुप करवा देता है. तो वहीं अनुज देखता है कि मंदिर में बेबी के नाम से जलाया गया दीया बुझने वाला है, ऐसे में वह उठकर दीये में घी डालने की कोशिश करता है, लेकिन तभी उसका पैर फिसल जाता है और वह व्हीलचेयर से गिर जाता है.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Anupama (@anupammastarplusofficial)

 

ऐसे में बरखा और अंकुश अनुज को उठाकर व्हीलचेयर पर बैठाते हैं. अनुपमा के ना होने से अनुज घबड़ा जाता है और नर्स के लिए चीखने लगता है, लेकिन बाद में उसे पता चलता है कि नर्स को खुद उसी ने छुट्टी दी थी.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Anupama (@anupammastarplusofficial)

 

शो में आप देखेंगे कि तोशू किंजल के पास आता है तभी राखी दवे उसे अकेले में लेकर जाती है और पूछती है कि वह पूरे दिन कहां था. इसपर तोषू कहता है कि वह किसी काम से गया था, राखी का खून खौल जाता है, जिससे वह उसका गिरेबान पकड़कर कहती है कि तुम कुछ बताओगे नहीं तो इसका मतलब ये नहीं है कि मुझे कुछ पता नहीं चलेगा. आज तुम होटल में एक लड़की के साथ क्या कर रहे थे. इसी बीच वहां अनुपमा आ जाती है.

GHKKPM: देवर-भाभी के रोमांस को देख खौला फैंस का खून, पाखी को मिला चुड़ैल का टैग

टीवी सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ (Ghum Hai Kisikey Pyaar Meiin) में लीप के बाद कहानी में हाईवोल्टेज ड्रामा देखने को मिल रहा है. शो में दिखाया जा रहा है कि सई अपनी बेटी के साथ जिंदगी गुजार रही है. तो वहीं पाखी और विराट ने विनायक को माता-पिता का प्यार देने के लिए शादी कर ली है. शादी के बाद पाखी अपना पूरा समय चौहान परिवार को दे रही है. इसी बीच फैंस ने पाखी को चुड़ैल का टैग दिया है. आइए बताते हैं, क्या है पूरा मामला…

शो के आने वाले एपिसोड में आप देखेंगे कि विराट और पाखी को करीब लाने के लिए भवानी ने दोनों को हनीमून पर भेजने का फैसला किया है. शो में जल्द ही दिखाया जाएगा कि विराट और पाखी हनीमून पर जाएंगे.

 

सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ की कहानी में आये इस बदलाव को फैंस पसंद नहीं कर रहे हैं. यही वजह है जो एक बार फिर से सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ के फैंस ने मेकर्स को ट्रोल करना शुरू कर दिया है. फैंस नील भट्ट और ऐश्वर्या शर्मा को भी जमकर खरीखोटी सुना रहे हैं.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by sairat??❤ (@gukkpm_serial)

 

एक यूजर ने कमेंट करते हुए लिखा है कि हर बार मेकर्स मुझे गलत साबित करते हैं. जब भी मुझे लगता है कि सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ की कहानी में कुछ अच्छा होता तभी मेकर्स कोई घटिया सा ट्विस्ट ले आते हैं. इस शो के मेकर्स की सोच वाकई बहुत घटिया है. इस शो को तो बंद कर देना चाहिए. इतना ही नहीं कुछ लोग तो मेकर्स को बेवकूफ तक बता रहे हैं.

 

त्यौहार 2022 : कुछ मीठा खाने का मन करे तो बनाएं बेसन का हलवा

कभी- कभी आपका मन करता है कुछ अलग खाने का तो ऐसे में आप चाहे तो घर पर बेसन का हलवा बना सकते हैं. इसे बनाने में भी कम वक्त लगता है. आइए जानते हैं बेसन का हलवा बनाने का तरीका.

सामग्री−

आधा कप देसी घी

एक कप बेसन

दो टेबलस्पून सूजी

ये भी पढ़ें- व्यवहार ‘ना’ कहने की कला और इस का फायदा

आधा कप चीनी

तीन चौथाई कप केसर का पानी

इलायची का पाउडर

मिक्स डाई फ्रूट्स

विधि

बेसन का हलवा बनाने के लिए सबसे पहले आप एक नॉन−स्टिक पैन में आधा कप देसी घी डालकर गर्म करें. अब इसमें करीबन एक कप बेसन डालें. अब गैस को लो फ्लेम करके बेसन को पकाएं. अब इसमें सूजी डालकर तब तक पकाएं, जब तक इसका रंग व टेक्सचर ना बदल जाए. आप जैसे−जैसे इसे पकाते जाएंगे, यह धीरे−धीरे लिक्विड होता चला जाएगा. साथ ही इसका कलर लाइट होता चला जाएगा.

ये भी पढ़ें- फेस्टिवल स्पेशल: मीठा खाने का मन करे तो घर पर बनाएं कच्चे पपीते का हलवा

जब यह अच्छी तरह पक जाए तो इसमें चीनी व केसर का पानी डालें. केसर का पानी बनाने के लिए आप तीन चौथाई कप पानी में सात−आठ केसर के धागे मिलाएं. अगर आपके पास केसर नहीं है तो आप सादा पानी मिलाएं. अब इसे अच्छी तरह चलाएं ताकि वह गाढ़ा हो जाए और वह पैन की साइड्स छोड़ने लगे. अब इसमें एक छोटा चम्मच हरी इलायची का पाउडर व डाई फ्रूट्स मिक्स करें. आखिरी में इसमें एक चम्मच घी डालकर अच्छी तरह मिलाएं.

आपका टेस्टी−टेस्टी बेसन का हलवा बनकर तैयार है. बस आप इसे सर्विंग बाउल में निकालें और फैमिली के साथ मिलकर खाएं.

नोटः बेसन कड़ाही में बेहद जल्दी चिपकता है, इसलिए हलवा बनाने के लिए नॉन−स्टिक पैन का इस्तेमाल करें. साथ ही हलवा बनाते समय पूरे टाइम का गैस का फ्लेम लो ही रखें.

त्यौहार 2022: घर पर बनाएं आटे की बर्फी

घर पर कुछ न कुछ अक्सर मीठा बनते ही रहता है. ऐसे में आपको बता दें कि इन दिनों आपको बाहर का खाना ज्यादा पसंद नहीं आ रहा है तो आप अपने घर पर ही कुछ मीठा बना सकते हैं. ऐसे में आपको बताने जा रहे हैं. आटे की मदद से कैसे बनाएं बर्फी.

सामग्री−

डेढ़ कप गेंहू का आटा

आधा कप घी

ये भी पढ़ें- वक्ता ही नहीं अच्छे श्रोता के भी हैं कई लाभ

आधा कप मिल्क पाउडर

एक कप चीनी

एक कप पानी

आधा छोटा चम्मच इलायची पाउडर

विधि−

ये भी पढ़ें- चावल के आटे से बनाएं पौष्टिक राइस रोल

आटा बर्फी बनाने के लिए सबसे पहले आप एक पैन लें. अब इसमें घी हल्का गर्म करें. इसके बाद इसमें आटा डालें और इसे गोल्डन होने तक रोस्ट होने दें. जब आटे में से खुशबू आए तो आप आंच बंद कर दें. अब इसमें मिल्क पाउडर डालकर अच्छी तरह मिक्स कर दें.

अब एक दूसरा पैन लें. अब इसमें चीनी और पानी डालें. इसे तब तक गर्म करें, जब तक कि चीनी मेल्ट ना हो जाए. अब एक प्लेट लेकर उस पर घी की मदद से हल्का ग्रीस करें. ध्यान रखें कि चीनी की चाशनी बहुत अधिक ना उबलें. बस आप चिपचिपी चाशनी तैयार करें. अब आंच बंद कर दें और एक तरफ रखें. अब गैस को धीमा करके आटे के मिश्रण में चीनी का सिरप डालकर मिक्स करें. इसे तब तक पकाएं, जब तक कि वह पैन ना छोड़ने लगे.

ये भी पढ़ें- सेब और नारियल की बर्फी घर पर बनाएं मेहमान भी हो जाएंगे हैरान

इसके बाद आंच बंद करें और ट्रे में ट्रांसफर करें. इसे फैलाएं और इसे ऊपर से चिकना करें. किसी भी ड्राई फ्रूट्स / सिल्वर वार्क से गार्निश करें. करीबन 15−30 मिनट के लिए सेट होने दें. 15 मिनट बाद चेक करें. अगर बर्फी सेट हो गई है तो उसे टुकड़ों में काटें.

आपकी आटे की बर्फी तैयार है. आप इसे फैमिली के साथ एन्जॉय कर सकते हैं.

जब हमने इस रेसिपी से आटा बर्फी को बनाया तो यकीनन यह बेहद ही टेस्टी थी. अगर आप आटा हलवा नहीं खाते तो आटा बर्फी आपको एक बार जरूर ट्राई करनी चाहिए.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें