आजाद भारत में 75 साल बाद भी बड़े पैमाने पर पुरानी मानसिकता कायम है. यह तय है कि संपत्ति, गर्भपात, तलाक, महिला आरक्षण व महिलाओं से जुड़े कानूनों का इस्तेमाल वही महिलाएं कर सकती हैं जो तार्किक और व्यावहारिक हैं, बाकी तो निर्जला रह कर चांद दिखने का इंतजार करती रहती हैं. आधी आबादी संवैधानिक आजादी का सपना भर देख रही है.
भारत की आजादी के 75 साल गुजर गए मगर भारतीय महिलाओं की हालत पर नजर डालें तो आज भी देश की 90 फीसदी महिलाएं अपने जीवन से जुड़े निर्णय खुद नहीं ले सकती हैं. उन के सारे फैसले परिवार और समाज में मौजूद मर्द ही लेते हैं. औरतों में इतनी हिम्मत अब तक नहीं आई है कि वे परिवार व समाज द्वारा जबरन थोपी जा रही रवायतों के खिलाफ एक शब्द भी बोल सकें. आजादी का 75 साला जश्न मना रही देश की महिलाएं आज भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई हैं.
संविधान से जो हक औरत को मिले हैं, अधिकांश औरतों को उन हकों की जानकारी नहीं है, जिन्हें जानकारी है वे चाह कर भी उन हकों को पा नहीं पाईं और जो थोड़ी सी शिक्षित औरतें हिम्मत कर के अपने अधिकार पाने की जद्दोजहेद करती हैं उन की पूरी उम्र अदालतों के चक्कर काटने में गुजर जाती है. उन पर लांछन लगते हैं, उन का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है, अनेक स्तरों पर उन का शोषण होता है, उन की सारी जमापूंजी पुलिस और वकील खा जाते हैं, सालोंसाल अदालतों में वे केस लड़ती हैं और आखिर में मिलता है अकेलापन और उपेक्षित बुढ़ापा. यह सिर्फ और सिर्फ इसलिए क्योंकि सालोंसाल धर्म की ठोकपीट में महिलाओं को यही सिखायासम?ाया गया कि वे दासी और भोग की वस्तु मात्र हैं.
संपत्ति की ?ाठी आस
मनु स्मृति के अध्याय 9, श्लोक 416 में मनु बेहद स्पष्ट कहते हैं कि स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है. स्त्री की संपत्ति का मालिक उस का पति पिता या पुत्र है.
इन दिनों महिलाओं की संपत्ति को ले कर दर्जनों तरह के कानून अस्तित्व में हैं लेकिन अपवादों को छोड़ दें तो हालात जस के तस हैं. महिलाएं, खासतौर से नए जमाने की युवतियां, कमा तो उत्साह और पूरी मेहनत से रही हैं लेकिन उन की कमाई जायदाद में नहीं बदल पा रही है और जो थोड़ीबहुत बदल भी रही है तो उस का मालिक और उपभोक्ता कोई पुरुष ही है. यह तो बहुत छोटी सी हुई महिलाओं की स्वअर्जित संपत्ति की बात, फसाद पिता और पति को विरासत में मिली संपत्ति को ले कर ज्यादा हो रहे हैं.
आजादी मिलने तक हिंदू समाज स्मृतियों के हिसाब से ही चलता था, इस का यह मतलब नहीं कि आज नहीं चलता. हां, हालात थोड़े बदले हैं. महिलाएं संपत्ति के लिए अदालत जाने लगी हैं क्योंकि कानून उन्हें संपत्ति में बराबरी का हक देने लगा है. इस की शुरुआत कांग्रेस द्वारा लाए गए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के लागू होने के बाद हुई.
इस अधिनियम को हाहाकारी इस लिहाज से कहा जा सकता है कि क्योंकि यह परंपराओं को नकारता था, इस से ही महिलाओं को संपत्ति का अधिकार मिल रहा था. यह मान लिया कि स्त्री भी पुरुष की तरह संपत्ति में बराबरी की हकदार
है. इतना होना भर था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर चढ़ाई कर दी गई थी कि वे हिंदू धर्म के मूलभूत सिद्धांतों को खत्म कर रहे हैं.
इस अधिनयम का हर तरह से विरोध हुआ लेकिन बेकार गया. प्रसंगवश यह जान लेना जरूरी और दिलचस्प है कि न केवल नेहरू बल्कि इंदिरा, राजीव और सोनिया, राहुल गांधी आज भी सियासी तौर पर भगवा गैंग के निशाने पर रहते हैं क्योंकि वे आजादी मिलने के बाद से ही लगातार महिलाओं के संपत्ति में अधिकार के अलावा उन के दूसरे अधिकारों- विवाह, मतदान, तलाक और वर्ण व्यवस्था जैसे मुद्दों पर मुखर रहे हैं.
सियासी तौर पर कांग्रेस को इस का फायदा 80 के दशक तक इफरात से मिलता रहा. बात संपत्ति के अधिकार की करें तो उस वक्त तक 1956 के अधिनियम की खामियां सामने आने लगी थीं कि कोई भी अदालत अपने हिसाब यानी विवेक से इस की व्याख्या कर सकती है.
इस के बाद इस अधिनियम में समयानुसार कई संशोधन हुए. मसलन, यह बेटी को बेटे के बराबर का हकदार जायदाद में नहीं मानता था. कानून में जरा सी भी दिलचस्पी रखने वाले लोग सहदायिक शब्द से अच्छी तरह वाकिफ होंगे जिस का सरल भाषा में मतलब होता है अविभाजित हिंदू परिवार में पैतृक संपत्ति में बराबरी के अधिकार ले कर पैदा होना. इसे संयुक्त उत्तराधिकारी भी कह सकते हैं.
तब तक महिलाएं शादी के बाद पिता की संपत्ति में हिस्सेदार नहीं मानी जाती थीं क्योंकि वे सहदायिक नहीं होती थीं. यह एक भारी कमी थी जिसे दूर साल 2005 में किया गया. मनमोहन सिंह की अगुआई वाली कांग्रेस नेतृत्व की सरकार ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 में संशोधन कर उन्हें कानूनी तौर पर सहदायिक का दर्जा दे दिया तो इस दफा हल्ला कांग्रेसियों ने भी अंदरूनी तौर पर मचाया. कहा जाता है कि कोई भी कांग्रेसी सांसद महिलाओं को जायदाद में बराबर का हकदार मानने को राजी नहीं था, लेकिन सोनिया गांधी टस से मस नहीं हुईं जिस से महिलाओं को संपत्ति का स्पष्ट और पारदर्शी अधिकार मिला.
तभी से कई कांग्रेसियों का सवर्ण और मनुवादी चेहरा उजागर होना शुरू हुआ था जिस की सजा कांग्रेस आज भी भुगत रही है. इस बदलाव से महिलाओं ने राहत की सांस ली क्योंकि अब वे ससुराल में रहते हुए भी पैतृक संपत्ति में बराबरी की हकदार हो गई थीं और उन के न रहने की स्थिति में ये अधिकार संतानों को मिल रहे थे.
साल 2005 के पहले बेटियां जायदाद के बंटबारे की मांग करने की हकदार नहीं थीं लेकिन नए संशोधन में उसे बेटा मान लिया गया हालांकि दिक्कत अभी भी यह थी कि इस संशोधन में यह स्पष्ट नहीं था कि 2005 से पहले की स्थिति क्या होगी. इस को अगस्त 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा मामले में फैसला देते हुए स्पष्ट किया कि बेटियों को अपने पिता की संपत्ति पर सहदायिक अधिकार ही होगा भले ही उस की मृत्यु इस संशोधन के पहले हो गई हो.
मकड़जाल से मुक्ति नहीं
नए फैसले से महिलाओं को राहत तो मिली है लेकिन कानूनों के मामले में
2 बातें बहुत माने रखती हैं. पहली यह कि इन से किसी, खासतौर से महिला की सामाजिक स्थिति बहुत ज्यादा नहीं बदलती और दूसरे, कोई भी कानून अपनेआप में पूर्ण नहीं होता. उत्तराधिकार संबंधी मामलों में हर दसवां फैसला एक नया फसाद या उल?ान ले कर आता है.
इस में कोई शक नहीं कि अब बहनें भाइयों से अपना हिस्सा मांगने अदालत जाने लगी हैं. अधिकतर मामलों में हक उन्हें मिल भी रहा है पर ऐसी महिलाओं की संख्या कम है जो कुछ लाख रुपए की जायदाद की शर्त पर भाई से संबंध बिगाड़ने का रिस्क लें.
ऐसा क्यों है, इस से पहले एक दिलचस्प मामले पर नजर डालें जिस में सहदायिक होते भी महिला कानूनी मकड़जाल में उल?ा गई है. यहां मामला कुछ लाख का नहीं, बल्कि साढ़े 4 हजार करोड़ का है. प्रद्यूमन सिंह जडेजा राजकोट के 15वें राजा थे जिन्हें वहां ठाकोर साहब भी कहा जाता है. प्रद्यूमन सिंह के बाद उन के बड़े बेटे मनोहर सिंह, जो गुजरात के वित्त मंत्री भी रहे थे, राजा बने और साल 2018 में उन की मौत के बाद मांधाता सिंह राजकोट के राजा पूरे वैदिक रीतिरिवाजों के साथ बने. मनोहर सिंह की बेटी का नाम अंबालिका है और मनोहर सिंह के छोटे भाई प्रह्लाद सिंह के पोते का नाम रणसूरवीर सिंह है.
अंबालिका से जून 2019 में मांधाता सिंह ने एक कानूनी कागज पर उन के दस्तखत ले लिए और उन्हें इस बात के लिए सहमत कर लिया कि अगर वे संपत्ति में अपना दावा छोड़ दें तो इस के बदले में उन्हें संपत्ति का 5वां हिस्सा दे दिया जाएगा. लगभग 2 साल पहले मांधाता सिंह की पत्नी ने वही किया जिस के लिए दुनियाभर की भाभियां और चाचियां बदनाम हैं.
राजतिलक के दौरान उन्होंने अंबालिका को बेइज्जत कर दिया. इधर अंबालिका के 2 महीने बाद रणसूरवीर सिंह ने भी अपने परदादा प्रद्यूमन सिंह की बेशुमार जायदाद का सभी कानूनी वारिसों में बंटबारे का मुकदमा ठोक दिया. इस में लेनदेन पर स्टे और्डर भी चाहा गया था.
अंबालिका के जवाब में मांधाता सिंह ने राज परिवार के तौरतरीकों का हवाला देते हुए कहा कि शाही घरानों के अलिखित नियमों में से एक यह भी है कि बड़ा बेटा ही जायदाद संभालता है और दूसरे कानूनी वारिसों को खर्च और मेंटिनैंस देता रहता है.
रणसूरवीर सिंह के जवाब में उन्होंने दलील दी है कि 1948 में तत्कालीन सरकार ने प्रधुमन सिंह की जायदाद को मुक्त घोषित कर दिया था जिस की वसीयत करने का हक उन्हें था और उन के बाद मनोहर सिंह को भी था. उन के एक और तर्क के मुताबिक शाही जायदाद अविभाज्य रहनी चाहिए. इस दलील से अदालत सहमत नहीं हुई और उस ने फैसला अंबालिका के पक्ष में दिया. अब यह दिलचस्प मामला ऊपरी अदालत में है और तय है सुप्रीम कोर्ट तक भी जाएगा.
इस मुकदमे पर देशभर के वकीलों की निगाहें हैं क्योंकि अंबालिका ने अपने पिता की 2013 में की गई वसीयत को भी चुनौती दी है कि उन्हें उन के हिस्से से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि उन के पिता को विरासत में मिली संपत्ति के वसीयतनामे का अधिकार नहीं था. अब अगर यह फैसला भी अंबालिका के पक्ष में गया तो ऐसे मुकदमों की तादाद बढ़ेगी जिन में महिला अपने दादापरदादा की जायदाद में से भी हिस्सा मांगेंगीं.
फैसला जो भी हो लेकिन मामला उल?ा हुआ तो है जिस पर किसी भी अदालत को अपने विवेक से फैसला लेना पड़ेगा. ऐसी कई उल?ानें 1956 के अधिनियम के वजूद में आने के बाद भी सामने आई थीं कि अगर वाकई महिलाओं को बराबरी का हक जायदाद में दिया गया है तो कानूनन ही इतने रोड़े क्यों हैं? अंबालिका राजघराने की हैं और बात करोड़ों की है लेकिन क्या कोई आम महिला कुछ लाख की जायदाद के लिए भाई से बैर लेगी, ऐसा सामाजिक हालत देखते लग नहीं रहा.
भोपाल की 44 वर्षीया बैंककर्मी दीक्षा शर्मा (आग्रह पर बदला हुआ नाम) से जब बात की गई तो उन्होंने बताया कि
70 हजार रुपए की सैलरी में से वे केवल अपने खर्चे के लिए 15 हजार रुपए लेती हैं. बाकी पति के खाते में ट्रांसफर कर देती हैं. वे ही तय करते हैं कि कब कितना पैसा किस के नाम से कहां इन्वैस्ट करना है. अपने पति पर दीक्षा को पूरा भरोसा है. बात अच्छी है कि इन दोनों में अच्छी ट्यूनिंग और प्यार है लेकिन यह बात भी कम हैरत की नहीं कि एक खासी पढ़ीलिखी बैंककर्मी में स्वअर्जित
पैसे के लिए ही जागरूकता या दिलचस्पी नहीं.
पति पर भरोसा कहीं से गलत बात नहीं लेकिन खुद पर इतना अविश्वास और हीनता क्यों, इस सवाल का जवाब साफ है, इसलिए कि करोड़ों दीक्षाएं ‘भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है’ की तर्ज पर जीती हैं और पैसों या जायदाद के लिए फसाद नहीं चाहतीं, क्योंकि धर्म को उन्होंने पढ़ा नहीं बल्कि भोगा है कि कल को अकेले रह गए तो समाज के गिद्ध उन्हें नोच खाएंगे. इसी डर को मनुस्मृति के ही अध्याय 9 के श्लोक 2 से ले कर 6 तक में यह कहते और बढ़ाया गया है कि
‘‘पुत्री, पत्नी, माता, कन्या, युवा या वृद्धा किसी भी स्वरूप में नारी स्वतंत्र नहीं रहनी चाहिए.’’
गर्भपात का अधिकार
और महिला
हाल ही में कंजर्वेटिव जजों से भरे अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को रद्द कर दिया और इस तरह से उस ने ‘रो बनाम वेड’ के नाम से लोकप्रिय अपने पुराने फैसले को पलट दिया. अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के 6-3 के फैसले ने वहां के राज्यों को अपने स्वयं के गर्भपात कानून बनाने की अनुमति दे दी.
इस तरह से महिलाओं के मौलिक अधिकारों में से एक को छीन लिया गया. जाहिर है गर्भपात को अपराध मानने से महिलाओं के जीवन और अमेरिकी समाज पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार दुनिया में लगभग आधे गर्भधारण अनचाहे होते हैं और उन में से 60 प्रतिशत से अधिक मामलों में गर्भपात हो जाता है. दुनिया में होने वाले सभी गर्भपातों में से 45 प्रतिशत असुरक्षित होते हैं और ये गर्भवती महिलाओं की मौत का कारण बनते हैं.
अमेरिका से पहले साल 1971 में भारत में मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसी कानून लागू किया गया था. हालांकि कई बार इस में बदलाव भी हुए लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि भारत में महिलाओं को अबौर्शन की खुली छूट है. एमटीपी की तरफ से कई टर्म्स और कंडीशंस दिए गए हैं, केवल उन्हीं हालात में महिलाएं गर्भपात करा सकती हैं.
भारत में एमटीपी एक्ट के तहत अबौर्शन अधिकारों को 3 कैटेगरीज में बांटा गया है. प्रैग्नैंसी के 0 हफ्ते से
20 हफ्ते के बीच गर्भपात कराने के लिए कुछ कंडीशंस दी गई हैं. अगर कोई महिला मां बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है या फिर कौन्ट्रासैप्टिव मैथड या डिवाइस फेल हो जाने के कारण न चाहते हुए भी महिला प्रैग्नैंट हो गई है तो वह अपना गर्भपात करा सकती है. इस दौरान एक रजिस्टर्ड डाक्टर का होना बेहद जरूरी है.
मार्च 2020 में संसद के दोनों सदनों द्वारा एमटीपी संशोधन विधेयक पारित किया गया था. यह लौकडाउन से पहले पारित किए जाने वाले कानून के अंतिम कानूनों में से एक था. इस से गर्भवती महिलाओं के लिए गर्भपात की समयसीमा 20 सप्ताह से बढ़ा कर 24 सप्ताह कर दी गई है.
इस अधिनियम ने अविवाहित महिलाओं को गर्भ निरोधकों की विफलता के आधार पर अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दी. महिलाओं को निजता का अधिकार भी दिया गया है. चिकित्सा संस्थान केवल अधिकृत व्यक्ति को गर्भपात के संबंध में जानकारी दे सकता है.
इस से पहले एक पंजीकृत चिकित्सक को 12 सप्ताह तक भ्रूण गर्भपात की अनुमति दी गई थी. जबकि 12 सप्ताह से अधिक और 20 सप्ताह से कम समय के लिए 2 चिकित्सकों की राय लेना अनिवार्य था. अब इसे 20 सप्ताह के भीतर गर्भपात के लिए एक चिकित्सक और 20 से 24 सप्ताह के बीच गर्भपात के लिए 2 चिकित्सकों में परिवर्तित किया गया है.
यदि कोई महिला 24 हफ्ते पूरे हो जाने के बाद गर्भपात की मांग कर रही है तो चिकित्सा बोर्ड आवश्यकता की गंभीरता का अध्ययन कर के निर्णय लेने का अधिकारी है पर कानून का फेर और देश की वास्तविक हकीकत दोनों में अंतर है.
कलंक का एहसास
आधुनिक समाज में गर्भपात को एक मैडिकल मामले के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि एक आपराधिक कृत्य के रूप में. मगर भारत में लोगों की सोच अभी भी पिछड़ी हुई है. आजादी के 75 साल बीतने के बाद भी भले ही महिलाएं कितना भी आगे बढ़ जाएं मगर कई बार गर्भवती होना उन के लिए खतरे की वजह बन जाता है. शादी के बगैर गर्भवती होने पर उन्हें कलंकित घोषित कर दिया जाता है. घरवालों द्वारा उन की इच्छा के बगैर भी उन का गर्भपात करा दिया जाता है.
कई दफा घरवालों की खुशी के लिए न चाहते हुए भी उन्हें गर्भपात से वंचित रहना पड़ता है. इस तरह कानून होने के बावजूद वे अपनी मरजी से नहीं चल सकतीं. कई दफा उन्हें पता ही नहीं होता कि गर्भपात से जुड़े उन के अधिकार क्या हैं. करीब 80 प्रतिशत भारतीय महिलाओं को इस बात का अंदाजा नहीं है कि 20 सप्ताह के भीतर गर्भपात कानूनी हो सकता है. यही वजह है कि भारत जैसे देश में जहां कई तरह के गर्भपात कानून बनाए गए हैं, असुरक्षित गर्भपात मातृ मृत्यु के तीसरे प्रमुख कारण के रूप में मौजूद है.
दरअसल कानूनी संशोधन गर्भवती महिलाओं की स्वतंत्रता में वृद्धि नहीं करते हैं या गर्भपात को कम करने की दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाते हैं. संशोधन यह भी सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं कि किसी को भी असुरक्षित गर्भपात के लिए मजबूर नहीं किया जाता है. इस के लिए पारिवारिक मंजूरी जरूरी होती है जो अब भी कई दफा उन्हें नहीं मिलती.
भारत में गर्भपात को ले कर कानून बना हुआ है लेकिन आधेअधूरे ज्ञान के चलते और अवैध तरीके से हो रहे गर्भपात महिलाओं की मौत की वजहें बन रहे हैं. भारत में गर्भपात को ले कर कानून बना हुआ है लेकिन उस में काफी लूप होल्स हैं और इस वजह से अवैध तरीके से हो रहे गर्भपात महिलाओं की मौत की वजह बन रहे हैं. देश में महिलाओं या उन के परिजनों द्वारा असुरक्षित गर्भपात कराया जाता है जो उन की सेहत के लिए खतरा बन जाता है.
गर्भपात को ले कर बना कानून द मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसी एक्ट ने 50 साल से भी पहले अबौर्शन को लीगल कर दिया था लेकिन अभी भी सड़कछाप डाक्टर और नीमहकीम अपना धंधा चला रहे हैं.
कोख पर भी हक नहीं
गर्भपात कराना है या नहीं और कब कराना है, इस का पूरा अधिकार महिला और उस के डाक्टर के पास होना चाहिए. एक महिला के पास अपने शरीर से जुड़े हर मसले का अधिकार आखिर क्यों न हो. शरीर उस का है, बच्चा उस की कोख में 9 महीने पलने वाला है, उसे इस पूरी प्रक्रिया में बहुत से कौम्प्रोमाइज करने होंगे, बहुत सी तकलीफें सहनी होंगी, मैडिकल कौम्प्लीकेशंस फेस करने होंगे, ऐसे में क्या उसे यह हक नहीं होना चाहिए कि यह सब उसे करना है या नहीं, इस बात का फैसला वह ले सके.
वह अपने शरीर और अपनी परिस्थितियों के हिसाब से सोचेसम?ो और फिर फैसला ले कि उसे बच्चा चाहिए या नहीं. कोई और व्यक्ति उसे सलाह दे सकता है या डाक्टर उस की मैडिकल कंडीशंस के आधार पर बता सकता है कि उस के लिए क्या बेहतर है. आखिर कोई गैरव्यक्ति उस के शरीर से जुड़ी इस बात का फैसला उस की अनिच्छा के बावजूद कैसे ले सकता है.
मगर आजादी के 75 साल बाद भी एक औरत सही माने में आजाद नहीं. उस के पास अपने तन और मन से जुड़े मामलों में भी फैसले लेने का हक नहीं. धर्मगुरुओं ने सदियों से लोगों को यही सिखाया है कि स्त्री महज पुरुष के हाथ का खिलौना है.
आज भी स्त्री की इच्छा के बिना भी उसे गर्भधारण करना होता है. कोख में बेटी हो तो जबरन घरवाले उस का गर्भपात करा देते हैं, कभी डराधमका कर और कभी धोखे से. असुरक्षित गर्भपात के कारण वह जान से हाथ धोती है तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता.
शादी और तलाक के फैसले लेना भी दूभर
भारतीय कानून ने देश की महिलाओं को कई मुख्य अधिकार दिए जिन में समान सैलरी का अधिकार, गरिमा व शालीनता का अधिकार, दफ्तर या कार्यस्थल पर उत्पीड़न से सुरक्षा, घरेलू हिंसा के खिलाफ अधिकार, रात में महिला को गिरफ्तार नहीं कर सकते, वर्चुअल शिकायत दर्ज करने का अधिकार, अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकते, महिला का पीछा नहीं कर सकते, जीरो एफआईआर का अधिकार शामिल हैं.
कितना जानती हैं महिलाएं कानून और अधिकार
दिल्ली के गोविंदपुरी इलाके की एक हालिया घटना है. 6 जुलाई को जब संजीव नाम के सरकारी बस ड्राइवर की उस की 2 पत्नियों ने हत्या कर दी. कारण यह कि वह एकसाथ
2 महिलाओं के साथ शादीशुदा जिंदगी जी रहा था, जहां वह दोनों का इस्तेमाल कर रहा था बल्कि प्रताडि़त भी कर रहा था. जिस वजह से दोनों ने संजीव को मारने की प्लानिंग बना ली.
अगर आजादी के 75 साल बाद भी निम्नमध्य वर्ग की एक हिंदू औरत, जो किसी दूरदराज के गांवदेहात में नहीं बल्कि लंबे समय से देश की राजधानी दिल्ली में रह रही है, को इस बात की जानकारी नहीं है कि उस का पति बिना तलाक लिए दूसरी शादी नहीं कर सकता और वह उस पर केस कर सकती है, उसे जेल भिजवा सकती है.
वहीं अगर एक मुसलिम औरत को यह जानकारी नहीं है कि वह पहले से शादीशुदा आदमी से अगर शादी करती है तो वह मान्य नहीं है और इस कृत्य के चलते आदमी को जेल हो सकती है तो क्या सरकार का यह दावा खोखला साबित नहीं होता कि आधी आबादी ने 75 में बहुत तरक्की कर ली? क्या सचमुच?
कितनी औरतें हैं जिन्हें अपने अधिकार मालूम हैं? जिन्हें मालूम है उन में से कितनी औरतें हैं जो अपने अधिकार के लिए लड़ने की हिम्मत रखती हैं?
पंडित को सजा क्यों नहीं
लड़कालड़की एकदूसरे को पसंद करते हैं, एकदूसरे से प्यार करते हैं मगर पंडित कह दे कि गुण नहीं मिलते तो विवाह नहीं होता है. पंडित डराता है कि यदि विवाह हो गया तो परिवार में अशुभ घटित होगा वगैरहवगैरह. तो दोनों की शादी नहीं हो पाती है. परिवार, समाज अशुभ की आशंका में प्रेमी जोड़े को जबरन अलग कर देते हैं. यह नहीं सोचते कि गुण तो मिले ही होंगे तभी तो दोनों एकदूसरे के करीब आए. वरना विपरीत गुण वालों से दोस्ती ही कहां होती है?
पंडित कुंडली मिलाता है. इस के लिए वर और वधू पक्ष से हजारोंलाखों रुपए वसूलता है. मगर शादी के बाद अगर दोनों को पता चले कि उन की तो आदतें, पसंद, व्यवहार, सोच आदि सब एकदूसरे से जुदा हैं, एक भी गुण ऐसा नहीं जो एकदूसरे से मेल खाता हो, दोनों दो ध्रुव, एक जमीन दूसरा आसमान तो दोषी कौन होगा? क्या वह पंडित दोषी नहीं जिस ने जन्मपत्री देख कर दोनों के गुणों का मिलान कर ऐलान किया था कि यह जोड़ी तो स्वर्ग, यदि कहीं है तो, से बन कर आई है, इस से सुखी जोड़ी तो कोई हो ही नहीं सकती.
जहां पतिपत्नी में नहीं निभती है वहां पहले जलीकटी बातें, गालीगलौच, फिर मारपीट और कभीकभी मर्डर तक बात पहुंच जाती है मगर परिवार वाले और समाज तब उस पंडित को पकड़ कर उस के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं कराते जिस ने वरवधू के गुण मिला कर उन की शादी करवाई थी और कहा था ये तो जन्मजन्म के साथी हैं.
भारत में तलाक लेना भी आसान नहीं है
विश्व में किसी भी धर्म, संस्कृति में तलाक को आसानी से कुबूल नहीं किया गया है. हिंदू संस्कृति में तो शादीविवाह को 7 जन्मों का रिश्ता माना जाता है. लड़की मायके से ससुराल के लिए विदा होती है तो उस से कहा जाता है कि अब वही तेरा घर है और वहां से अब तू नहीं, तेरी अर्थी ही निकलेगी.
यह घुट्टी धार्मिक ग्रंथों के जरिए, हिंदी फिल्मों के जरिए, उपन्यासकहानियों के जरिए, समाज व परिवार के बुजुर्गों के जरिए पीढ़ीदरपीढ़ी स्त्री को पिलाई जाती रही है और ये बातें उस के खून में ऐसी घुस गई हैं कि ससुराल में दिनरात पिटने, गालियां खाने, भूखी रखी जाने, कई बार सामूहिक बलात्कार का शिकार होने और कई बार जिंदा जला दिए जाने के बावजूद वह ससुराल छोड़ने या तलाक लेने की बात नहीं सोच पाती है.
यह समस्या सिर्फ हिंदू औरतों की नहीं, बल्कि सभी धर्म की औरतों के सामने है कि वे ससुराल में प्रताडि़त होने पर भी तलाक के लिए कदम नहीं बढ़ा पाती हैं. बाइबिल में भी तलाक को बुरा माना गया है. बाइबिल में कहा गया है कि तलाक लेने वाले व्यक्ति से परमेश्वर घृणा करता है. इसलाम में भी औरतों द्वारा तलाक लेने पर कड़ी पाबंदी है. आज लाखों ऐसी मुसलमान औरतें इस देश में हैं जो पति द्वारा त्याग दिए जाने पर या दूसरी शादी कर लेने पर भी उस से तलाक नहीं ले पाईं और घर के किसी कोने में पति द्वारा फेंके गए चंद टुकड़ों पर रोरो कर जीवन काट रही हैं.
तलाक ले भी लें तो बच्चों को ले कर वे कहां जाएं? अगर मायके वाले गरीब हुए तो कौन उठाएगा उन का बो?ा? कौन रोटी देगा? बच्चों की शिक्षा कैसे होगी? खुद वह औरत समाज के तानों से, पुरुषों की गिद्ध नजरों से अपनेआप को कैसे और कब तक बचा पाएगी? ये तमाम सवाल उस के सामने होते हैं.
तलाक न लेने का सामाजिक रूप से इतना दबाव औरत पर होता है कि स्थिति बहुत ज्यादा बिगड़ जाने पर ही कोई हिम्मती औरत तलाक का फैसला ले पाती है. एक सर्वे के मुताबिक, 37 प्रतिशत जोड़े बच्चों की चिंता के कारण तलाक का फैसला नहीं लेते. जिन औरतों के पास अपना थोड़ा पैसा होता है वे अगर हिम्मत जुटा कर तलाक की अर्जी कोर्ट में डालती भी हैं तो वकीलों और जजों के चक्कर में सालोंसाल अदालतों के चक्कर काटते बीत जाते हैं. तब तक दूसरी शादी की सारी संभावनाएं धूमिल हो जाती हैं.
अदालतों को सम?ाना चाहिए कि एक औरत जिस के मांबाप ने जीवनभर की पूंजी खर्च कर के उस की शादी की है, वह खुद नहीं चाहेगी कि वह अपनी ससुराल छोड़ कर, अपने पति को छोड़ कर वापस अपने मांबाप पर बो?ा बन जाए. जब हिंसा और प्रताड़ना की हद पार हो जाती है तभी कोई औरत ससुराल छोड़ने और तलाक लेने की तरफ कदम बढ़ाती है क्योंकि उस के सामने शांति से जीवन जीने का कोई और रास्ता नहीं बचता है.
ऐसे में अदालतों को उस का केस ज्यादा लंबा न खींच कर तुरंत फैसला कर देना चाहिए. मांबाप को भी समाज और धर्म को दरकिनार कर अपनी बेटी का सपोर्ट करना चाहिए. जिस नरक से वह भागना चाहती है उसे वापस उसी नरक में भेजना तो बिलकुल भी ठीक नहीं है. ऐसी कई महिलाएं समाज में हैं. कुछ जीवित हैं, कुछ मर चुकी हैं.
धर्म के चंगुल में अदालतें
अदालतों पर धर्म कैसे हावी हो रहा है, इस का उदाहरण देखिए. जून 2020 में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तलाक के एक केस में विचित्र और्डर पास किया. जजमैंट के हिसाब से गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तलाक के एक मामले में कहा कि ‘‘अगर हिंदू रीतिरिवाज के अनुसार कोई विवाहित महिला शाखा, चूडि़यां और सिंदूर लगाने से इनकार करती है तो यह माना जाएगा कि विवाहिता को शादी अस्वीकार है.’’ यह टिप्पणी हाईकोर्ट ने एक पति द्वारा दायर की गई तलाक की याचिका मंजूर करते हुए की.
जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया की डबल बैंच ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि इन परिस्थितियों में अगर पति को पत्नी के साथ रहने को मजबूर किया जाए तो इसे पुरुष का उत्पीड़न माना जा सकता है. हाईकोर्ट से पहले फैमिली कोर्ट ने पत्नी द्वारा शाखासिंदूर न लगाने पर पति की तलाक याचिका खारिज कर दी थी. फैमिली कोर्ट ने पाया था कि पत्नी अगर ये चीजें न पहनना चाहे तो इस से पति पर कोई क्रूरता नहीं हुई पर जब मामला गुवाहाटी हाईकोर्ट के सामने आया तो उस ने यह अजीबोगरीब जजमैंट दे दिया. जबकि हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 5(1) के अनुसार विवाह के नियम इस प्रकार हैं-
१. विवाह के लिए किसी भी व्यक्ति या पार्टी को पहले से शादीशुदा नहीं होना चाहिए, यानी शादी के समय किसी भी पार्टी के पास पहले से ही जीवनसाथी नहीं होना चाहिए. इस प्रकार यह अधिनियम बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाता है.
२. शादी के समय यदि कोई भी पक्ष बीमार है तो उस की सहमति वैध नहीं मानी जाएगी. भले ही वह वैध सहमति देने में सक्षम हो लेकिन किसी मानसिक विकार से ग्रस्त नहीं होना चाहिए जो उसे शादी के लिए और बच्चों की जिम्मेदारी के लिए अयोग्य बनाता है. दोनों में से कोई पक्ष पागल भी नहीं होना चाहिए.
३. दोनों पक्षों में से किसी की उम्र विवाह के लिए तय उम्र से कम नहीं होनी चाहिए. दूल्हे की उम्र न्यूनतम 21 साल और दुलहन की उम्र कम से कम 18 हो.
४. दोनों पक्षों को सपिंडों या निषिद्ध संबंधों की डिग्री के भीतर नहीं होना चाहिए, जब तक कि कोई भी कस्टम प्रशासन उन्हें इस तरह के संबंधों के बीच विवाह की अनुमति नहीं देता.
वहीं, एक्ट में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि मंगलसूत्र या शाखा न पहनना अथवा सिंदूर न लगाना पति के प्रति क्रूरता है या इस का मतलब है कि महिला शादी को नहीं मानती है. ये प्रथाएं धर्मों का अहम अंग हैं जो औरतों पर जबरन लादी गई हैं लेकिन जब अदालतें ऐसी प्रथाओं को संरक्षण देने लगें तो आने वाले अंधेरे को रोकना नामुमकिन हो जाएगा.
भारत में शादीशुदा होने का मतलब है शादीशुदा दिखना. यह दिखावा औरत के हिस्से में ही है, पुरुष के हिस्से में नहीं. सवाल यह है कि क्या किसी पुरुष को खुद को शादीशुदा साबित करने के लिए सिंदूर लगाना या चूड़ी पहनना पड़ता है? वह शादी से पहले भी मिस्टर होता है और शादी के बाद भी. जबकि महिला मिस से मिसेज हो जाती है और उस पर परंपराओं का सारा बो?ा डाल दिया जाता है.
कोई महिला विवाह के पश्चात कैसे सजनासंवारना चाहती है, यह तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ उसी का है. अदालत का इस मामले में दखल देना पिछड़ेपन की निशानी है.
महिला आरक्षण की बाट जोहती महिलाएं
पौराणिक काल से आज तक महिलाओं को वह बराबरी नहीं मिल पाई है जिस की वे हकदार हैं. आधुनिक भारत में भी महिलाओं के हाथ में सत्ता देने से पुरुष वर्ग डर रहा है. पंचायती राज में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण आजादी के 46 साल के बाद मिला. संसद और विधानसभाओं में अभी भी यह अधिकार नहीं मिला है. 75 वर्षों बाद आज भी महिलाओं को वे अधिकार नहीं मिले जो देश के आजाद होते ही उन्हें मिल जाने चाहिए थे.
पुरुषों की सोच यह है कि महिलाएं राजनीति में आएं और पुरुषों की दया पर निर्भर रहें. पुरुष जैसा कहे वैसा करें. अपनी अक्ल न लगाएं. राजनीति में जो महिलाएं अपने बल पर आगे आती हैं उन का भी विरोध होता है. किसी न किसी तरह से उन को पीछे धकेलने का काम होता है.
महिला आरक्षण की जरूरत
यह बात हकीकत है कि आरक्षण के अभाव में महिलाएं राजनीति में महज शोपीस जैसी बन कर रह गई हैं. पंचायती राज में महिलाओं को ग्राम पंचायत, ब्लौक और जिला पंचायत में एकतिहाई यानी 33 फीसदी महिलाओं को आरक्षण मिला हुआ है. इस का लाभ भी देखने को मिल रहा है. पंचायत चुनावों में आरक्षित सीटों को राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में चक्रीय आधार पर आवंटित किया जाता है.
ग्लोबल जैंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार, राजनीतिक सशक्तीकरण सूचकांक में भारत के प्रदर्शन में गिरावट आई है. महिला मंत्रियों की संख्या वर्ष 2019 के 23 से घट कर वर्ष 2021 में 9 तक पहुंच गई है.
सरकार के आर्थिक सर्वेक्षणों में भी यह माना गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बहुत कम है. विभिन्न सर्वेक्षणों से यह पता चलता है कि पंचायती राज में महिला प्रतिनिधियों ने गांवों में समाज के विकास और समग्र कल्याण में सराहनीय कार्य किया है. इन में से कई महिला नेता संसद और विधानसभा में भी काम करना चाहती हैं. संसद और विधानसभा में महिला आरक्षण न होने के कारण चुनाव लड़ना कठिन काम होता है क्योंकि उन को सामान्य सीट पर पुरुषों से मुकाबला करना पड़ता है.
भारत में महिलाएं देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं. इस के बावजूद महिलाओं के लिए इस से खराब हालात और क्या होंगे कि संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने के लिए लाया गया महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा से पारित होने के बाद लोकसभा में सालों से लंबित पड़ा है. आरक्षण के अभाव में राजनीतिक दल भी बहुत कम संख्या में महिला उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए टिकट देते हैं.
महिला आरक्षण विधेयक का मुद्दा
पहली बार वर्ष 1974 में संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा भारत में महिलाओं की स्थिति के आकलन संबंधी समिति की रिपोर्ट में उठाया गया था. राजनीतिक इकाइयों में महिलाओं की कम संख्या का जिक्र करते हुए रिपोर्ट में पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का सु?ाव दिया गया.
वर्ष 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गईं. वर्ष 1996 में महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार एच डी देवगौड़ा सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया. देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई और 11वीं लोकसभा को भंग कर दिया गया.
वर्ष 1996 में महिला आरक्षण बिल का भारी विरोध किया गया. इस के बाद इसे संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था. वर्ष 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में फिर से विधेयक पेश किया. लेकिन गठबंधन की मजबूरियों और भारी विरोध के बीच यह पास नहीं हो पाया. वर्ष 1999, 2002 तथा 2003 में इसे फिर लाया गया लेकिन महिला आरक्षण बिल कानून नहीं बन सका. वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से जुड़ा 108वां संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश किया.
साल 2010 में तमाम राजनीतिक विरोधों को दरकिनार कर राज्यसभा में यह विधेयक पारित कर दिया गया. कांग्रेस को बीजेपी और वाम दलों के अलावा कुछ अन्य दलों का साथ मिला लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार विधेयक को पारित नहीं करा पाई. लोकसभा में अब भी महिला आरक्षण विधेयक पर लुकाछिपी का खेल चल रहा है और सभी राजनीतिक दल तथा सरकार इस पर सहमति बनाने में असमर्थ दिखाई दे रहे हैं. विधेयक की जरूरत क्यों महसूस हुई
भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 11.8 फीसदी है. ऐसे में सवाल है कि देश की आधी आबादी राजनीति के क्षेत्र में कहां है और अभी उसे कितनी दूरी तय करनी है. जब बंगलादेश जैसा देश संसद में महिला आरक्षण दे सकता है तो भारत में दशकों बाद भी महिला आरक्षण क्यों नहीं दिया गया? इस की केवल एक वजह है कि हमारा समाज पूरी तरह से पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित है.
इस विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि एससी/एसटी और ओबीसी महिलाओं के लिए अलग से कोटा होना चाहिए. इन का तर्क है कि सवर्ण, एससी, एसटी और ओबीसी महिलाओं की सामाजिक परिस्थितियों में अंतर होता है. इन वर्ग की महिलाओं का शोषण अधिक होता है. विरोधी तर्क देते हैं कि इस विधेयक से केवल शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही संसद में बढ़ पाएगा.
विरोध करने वालों के तर्क अपनी जगह हैं. इस के पीछे उन का भी मकसद केवल महिला आरक्षण को कानूनी दर्जा न देना भर है. अगर ये दल सही रूप से अपने ही दल में महिलाओं को चुनाव लड़ने के लिए टिकट दे दें तो भी राजनीति में महिलाओं की संख्या बढ़ ही जाएगी.
एक अध्ययन के अनुसार, जिन सरकारों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है वहां भ्रष्टाचार कम होता है. भारत में महिलाओं के कई उदाहरण हैं जिन्होंने अवसर मिलने पर राजनीति में न केवल अपनी पहचान बनाई बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति अर्जित की. इस का अर्थ यह है कि अगर महिलाओं को अवसर मिल जाएंगे तो वे पीछे नहीं हटेंगी.
महिला समानता और भारत
अमेरिका की हिलेरी क्लिंटन का कहना है, ‘‘जब तक महिलाओं की आवाज नहीं सुनी जाएगी तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आ सकता. जब तक महिलाओं को अवसर नहीं दिया जाता तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता.’’ दुनिया में लोकसभा जैसे निचले सदन में महिला प्रतिनिधित्व की बात करें तो भारत इस मामले में पाकिस्तान से भी पीछे है. जिनेवा स्थित इंटरपार्लियामैंट्री यूनियन की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत 150वें स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान को 101वां स्थान मिला है. रवांडा पहले, क्यूबा दूसरे और बोलिविया तीसरे स्थान पर हैं.
भारत में 1952 में लोकसभा में
22 सीटों पर महिलाएं चुन कर आई थीं लेकिन 2014 में हुए चुनाव के बाद लोकसभा में 62 महिलाएं ही पहुंच सकीं. हमारे संविधान की प्रस्तावना में व्यक्त की गई आकांक्षाओं के अलावा अनुच्छेद 14, 15 (3), 39 (।) और 46 में सामाजिक न्याय एवं अवसर की समानता की बात कही गई है ताकि राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने के लिए उचित उपाय किए जा सकें. भारतीय महिलाओं का सशक्तीकरण शिक्षा की खाई को पाट कर, लैंगिक भेदभाव को कम कर के और पक्षपाती नजरिए को दूर करने के माध्यम से किया जा सकता है. भारतीय राजनीति में आजादी के इतने वर्षों बाद भी महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है.
यह तो सामने है कि भारत की आधी आबादी का एक बहुत बड़ा भाग अभी भी अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित है. जो अधिकार संविधान से मिले, उन में भी कहीं न कहीं लूप होल्स हैं या महिलाएं व हमारी व्यवस्था इतनी सक्षम नहीं कि महिलाओं की उन अधिकारों तक आसानी से पहुंच हो सके. आज सवाल यह खड़ा है कि महिलाओं को विकास की मुख्यधारा से कैसे जोड़ा जाए? कैसे उन्हें उन के अधिकारों से अवगत कराया जाए या हमारी न्यायिक व्यवस्था को निचले से निचले पायदान पर खड़ी महिला के लिए सुगम बनाया जाए.
–भारत भूषण श्रीवास्तव, नसीम अंसारी कोचर, शैलेंद्र सिंह, गरिमा पंकज