Download App

मेरी फ्रेंड नाराज रहती है, क्या करूं?

सवाल

मेरी उम्र 24 साल है. एक लड़की कालेज टाइम में मेरी बहुत अच्छी फ्रैंड बन गई थी. हम दोनों एकदूसरे के बहुत क्लोज हैं. एकदूसरे से सारी बातें शेयर करते हैं. अभी हाल ही में मेरा एक बौयफ्रैंड बना है. मैं ने यह बात अपनी फ्रैंड को बताई तो उस का रिऐक्शन कुछ अजीब लगा मुझे, जैसे मैं ने बौयफ्रैंड बना कर कोई बहुत बड़ी गलती कर दी हो.

अब वह रोज मुझसे मेरे बौयफ्रैंड के बारे में पूछती रहती है, जैसे वह क्या बातें करता है, कहांकहां गए तुम घूमने, कितने क्लोज आ गए हो, जरा उस से बच कर रहा कर, लड़के लोग धोखेबाज होते हैं. यानी वह मुझे उस से दूर रहने की सलाह देती रहती है. मैं तंग आ गई हूं. मैं क्या करूं कि जिस से वह मुझसे नाराज भी न हो और मुझसे मेरे बौयफ्रैंड के बारे में भी न पूछे?

जवाब

लगता है आप की फ्रैंड आप को ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव है. आप की या तो वह ज्यादा ही केयर करती है या फिर आप का बौयफ्रैंड बनाना उसे अच्छा नहीं लगा. बहुत बार ऐसा होता है, इस की कई संभावनाएं हैं. कारण यह भी हो सकता है कि उसे लग रहा हो कि आप दोनों की दोस्ती अब पहले जैसी नहीं रहेगी या उस ने कुछ गलत अनुभव किया हो तो आप को ज्यादा ही अवेयर रहने को कह रही हो.

कारण कुछ भी हो सकता है, यह आप की लाइफ है. आप की मरजी है कि बौयफ्रैंड बनाएं या न. आप किसे कितना समय दें, यह आप की चौइस है. किसी दूसरे को इस में दखलंदाजी करने का हक नहीं.

आप चाहती हैं कि आप की फ्रैंड की दखलंदाजी न हो और उसे किसी बात का बुरा भी न लगे तो उस से अपने बौयफ्रैंड की कोई बात मत कीजिए. वह पूछे तो गोलगोल जवाब दें. बात को दूसरी तरफ घुमा दें.

मजाकमजाक में यह भी कह दें कि छोड़ न उसे, हम अपनी बात करते हैं. आप की फ्रैंड सम?ादार होगी तो सम?ा जाएगी कि आप अपने बौयफ्रैंड की बात उस से नहीं करना चाहती हैं.

वैसे भी, यदि आप की लव लाइफ अच्छी चल रही है तो उसे यारदोस्तों से ज्यादा शेयर न करें. ऐसे दोस्तों से तो अपनी पर्सनल लाइफ के बारे में बात न ही करें जो आप को हर छोटी बात में गलत सलाह देते हों. कुछ बातें ऐसी होती हैं जो अपने तक ही सीमित रखनी ठीक होती हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

देश की चुनौती टूटता विश्वास टूटता समाज

आज लोगों का आपसी विश्वास टूट चुका है. पड़ोसी का पड़ोसी पर विश्वास नहीं रहा, जनता को राजनीति पर भरोसा नहीं. कानून समय पर मदद करेगा, विश्वास नहीं. धर्म व जाति के नाम पर हर रोज नई दरारें सामने आ रही हैं जो इस टूट की जिम्मेदार हैं. आमजन इस टूटन को भांप नहीं पा रहा है. भारत के बारे में सदियों से एक कहावत मशहूर है कि यहां ‘कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वाणी.’ यानी भारत में हर एक कोस की दूरी पर पानी का स्वाद बदल जाता है और 4 कोस पर भाषा यानी वाणी बदल जाती है.

यह भिन्नता खानपान, पहनावे, भाषा, आस्था सब में दिखती है, लेकिन इन जबरदस्त भिन्नताओं के बावजूद भारत एकता के सूत्र में बंधा रहा है. यहां के लोगों में भारतीयता की भावना सर्वोपरि रही है. अनेकता में एकता हमेशा से भारत का मूल स्वभाव था लेकिन बीते एक दशक से विघटनकारी शक्तियां बड़ी तेजी से भारत को उस के मूल स्वभाव से दूर करने की कोशिश में लगी हैं. भारत टूट रहा है, दरक रहा है. पारिवारिक तौर पर, सामाजिक तौर पर और राजनीतिक तौर पर खंडखंड हो रहा है लेकिन सत्ताशीर्ष पर बैठे लोग इस को स्वीकार नहीं करना चाहते. ऐसा क्यों? क्योंकि इस टूटन से ही उन्हें राजनीतिक फायदा मिला है और उन का मानना है कि ध्रुवीकरण के जरिए ही वे सत्ताशीर्ष पर बने रह सकते हैं. सत्ता का मजा लूट रहे लोग भारत के जनमानस के बीच इस संदेश को हरगिज जाने नहीं देना चाहते कि भारत टूट रहा है. वे जनता को धर्म और आस्था के भ्रमजाल में फंसाए रखना चाहते हैं.

जाति और धर्म के आधार पर समाज को बांटना देश के लिए ठीक नहीं है लेकिन देश में होने वाला हर छोटे से बड़ा चुनाव जाति व धर्म के नाम पर लोगों को बांट कर ही लड़ा जाता है. चुनाव के समय गरीब के जीवन से जुड़े असल मुद्दे सिरे से नदारद होते हैं. राजनेता देशवासियों के बीच द्वेष की भावना को पुख्ता कर राजनीति में अपना उल्लू तो सीधा कर रहे हैं मगर देश को वे जर्जर कर रहे हैं. धार्मिक ध्रुवीकरण चुनाव में अन्य मुद्दों को पूरी तरह दरकिनार कर देता है. इस से पूरे देश का अहित हो रहा है. लोगों के दिमाग में जातीय और धर्म से जुड़ी दुर्भावनाएं डाल कर नेता अपनी कमियां छिपा लेते हैं. द्वेष से भरा मस्तिष्क इस के आगे कुछ सोच भी नहीं पाता और राष्ट्रीय मुद्दे गौण हो जाते हैं,

लोकतंत्र कमजोर होने लगता है और समाज में धर्म व जाति के नाम पर वैमनस्यता बढ़ जाती है. विकास के मुद्दों से ध्यान हटा कर लोगों के अंदर धार्मिक और जातीय उन्माद पैदा किया जाना किसी भी लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है. राजनीति के चक्कर में कुरसी पाने की चाहत में और समाज में जातिवादी व्यवस्था की जड़ों को सींचने का काम कर अपना उल्लू सीधा करने वाले राजनेताओं ने भारतीयता की जड़ों को खोखला कर दिया है. जोड़ने की बात क्यों उठी जब कुछ टूटता है तभी जोड़ने की बात उठती है. बात उठी है तो हमें भी नजर डालनी चाहिए कि टूट कहां और कितनी गहरी है. आज हमारा आपसी विश्वास टूट चुका है. हम अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, सहयोगियों पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं.

हमें डर लगने लगा है कि पता नहीं कब, कौन हमारी पीठ में छुरा भोंक दे. हिंदू अपने पड़ोसी मुसलमान पर विश्वास नहीं कर रहा है. मुसलमान अपने पड़ोसी हिंदू पर विश्वास नहीं कर रहा है. बनिया ब्राह्मण पर और ब्राह्मण क्षत्रिय पर विश्वास नहीं कर रहा है. पीढि़यों से जिन के घरों में आनाजाना रहा, रोटीबेटी का संबंध रहा, आज एकदूसरे को शक की नजर से देख रहे हैं. उन के बीच का विश्वास टूट गया है. कौन जिम्मेदार है इस विश्वास को तोड़ने का? जिस का मूल मंत्र है तोड़ना सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी जिस का मूल मंत्र ‘तोड़ना’ है उन्होंने मसजिदें तोड़ीं. बुलडोजर लगा कर लोगों के घरोंदुकानों को तोड़ा. जिस ने डर, दबाव और लालच दिखा कर विपक्षी पार्टियों के विधायकों को तोड़ा. जिस ने इस देश में भाईचारे को खत्म कर दिया. जिस ने लोगों के दिलों में शक के बीज बो दिए. जिस ने दिलों में नफरत की आग भर दी. जिस ने लिंचिंग का दर्द दे कर गरीब घरों को उजाड़ा.

जिस ने जीएसटी और नोटबंदी थोप कर व्यापारियों की कमर तोड़ दी, किसानों की उम्मीदें तोड़ दीं. आज स्थिति ऐसी हो गई है कि एकदूसरे से टूटे हुए लोग अपनेअपने संकीर्ण दायरों में सिमट कर ही खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. यही वजह है कि फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर अनेकानेक जातीय समूहों के ब्लौग्स या ग्रुप नजर आने लगे हैं. कुर्मी ग्रुप, सिसोदिया समाज, जायसवाल सभा, ब्राह्मण चेतना मंच, शिया ग्रुप, सुन्नी समुदाय, भूमिहार सभा जैसे छोटेछोटे समूहों में पूरा समाज विभक्त हो गया है. ये खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए दूसरी जातियों व धर्मों पर छींटाकशी करते हैं, इस से चारों तरफ भय और अराजकता पैदा हो रही है.

जांच एजेंसियां बनीं हथियार आज देश की तमाम जांच एजेंसियां अपने आका के इशारे पर विपक्षी पार्टियों को नेस्तनाबूद करने के मिशन पर काम कर रही हैं. इंडियन एक्सप्रैस के रिपोर्टर दीप्तिमान तिवारी ने तो सीबीआई और ईडी जैसी देश की सर्वोच्च जांच एजेंसियों का पूरा रिकौर्ड ही खंगाल डाला है. 20 और 21 सितंबर को उन के द्वारा इंडियन एक्सप्रैस में लिखी गई खबरों से यह साफ हो जाता है कि राष्ट्रीय जांच एजेंसियां केंद्र सरकार के हाथ का खिलौना बन चुकी हैं. उन की खबर का सार यह है कि एक तरफ इलैक्टोरल बौंड के जरिए चुनावी फंड को विपक्षी पार्टियों से दूर रखो और दूसरी तरफ जांच एजेंसियां लगा कर विपक्ष को पूरी तरह तोड़ दो, समाप्त कर दो और निरंकुश शासन का रास्ता पुख्ता करो.

जनता को बगैर विपक्ष के रहने की आदत डाल दो. दीप्तिमान तिवारी की दो दिनों में प्रकाशित की गईं रिपोर्ट्स से यह साफ होता है कि कांग्रेस और अन्य दलों से विधायक व सांसद सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए अपनी पार्टी छोड़ कर भाजपा को जौइन कर रहे हैं क्योंकि उन पर दबाव है कि या तो वे भाजपा की शरण में आ जाएं या जेल जाएं. भ्रष्टाचार की जांच के नाम पर विपक्ष को तोड़ने की जबरदस्त कवायद चल रही है. जांच एजेंसियों का डर नहीं होता तो ये नेता कभी भाजपा में न जाते. दीप्तिमान की रिपोर्ट कहती है कि 2014 के बाद राजनीतिज्ञों के खिलाफ ईडी ने 4 गुना ज्यादा केस दर्ज किए हैं और उन में से 95 फीसदी केस विपक्षी नेताओं के खिलाफ दर्ज हुए हैं. ईडी, सीबीआई, एनआईए के नाम से पूरे देश में हड़कंप मचा हुआ है. साफ है, भाजपा टूट की राजनीति में महारत हासिल कर चुकी है. चारों तरफ टूट का परचम बुलंद है. किसी को डर दिखा कर तोड़ा जा रहा है तो किसी को लालच दे कर. विघटन हमेशा विनाशकारी आजादी मिलने के बाद भी देश का विभाजन हुआ था.

सड़कें लोगों के खून से लाल हो गई थीं. जिन्हें पाकिस्तान जाना था चले गए. जो भारत में रह गए उन्होंने फिर आपस में भाईचारा बना लिया. मिलजुल कर रहने लगे. रोटीबेटी का संबंध आपस में बन गया. थोड़ाबहुत मतभेद हर समाज में होता है मगर उस के परिणाम विनाशकारी नहीं होते हैं. लेकिन बीते दो दशकों से जिस तरह के मतभेद और मनभेद भारतीय जनता पार्टी द्वारा देश के लोगों के बीच पैदा किए गए हैं उन के परिणाम खतरनाक साबित होंगे. देश में पहले हिंदू और मुसलमान को ले कर बातें हुईं, फिर दलित और सवर्ण को ले कर माहौल बनाया गया. एक तरफ हिंदू सड़कों पर थे ही, फिर मुसलमान भी सड़कों पर उतर आए. उधर दक्षिण भारत में ईसाई भी अपने वजूद के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं. उत्तर भारत में हिंदुओं के वर्ण आपस में लड़ रहे हैं. कल तक जो मुसलमान और ईसाइयों के सामने भगवा झंडे के नीचे हिंदू एकता के लिए लड़ाई लड़ रहे थे वे भगवा झंडे वाले आज आपस में ही लड़ रहे हैं कि कौन किस को दबा रहा है. इन सब के बीच इंसानी जीवन से जुड़े मूलभूत सवाल गायब हो चुके हैं. जातीय व्यवस्था में फंस चुका आदमी देश के बारे में नहीं सोच रहा. चारों तरफ धर्म और जाति का शोर है.

कोई मसजिद गिरा रहा है, कोई उस पर मंदिर बना रहा है, कोई बाबासाहेब अंबेडकर के नारे लगा रहा है तो कोई मनु की किताबें जला रहा है. क्या इस से होगा देश का विकास? अफसोस कि आज भारत में भारतीयता को ढूंढ़ना मुश्किल हो गया है. उदाहरण के तौर पर रूस और यूक्रेन के युद्ध को देखें. 70 साल तक यूक्रेन रूस का हिस्सा रहा लेकिन रूस यूक्रेनियों को मन से अपना बना नहीं पाया. आखिरकार, यूक्रेन रूस से अलग हो गया. अब उस का अलग होना भी रूस को रास नहीं आ रहा, लिहाजा उस ने वहां तोड़फोड़ मचा रखी है. गोलियों और बमों से यूक्रेन को तबाह कर दिया है. हजारों मासूमों की जानें ले लीं. घरों, दुकानों, दफ्तरों, सार्वजनिक स्थलों, सरकारी संस्थानों को नष्ट कर दिया. रूस दमनकारी है, विघटनकारी है, जो जोड़ने में नहीं तोड़ने में ही विश्वास रखता है.

हालांकि यूक्रेन डट कर उस का सामना कर रहा है और उस ने रूस को यह बात अच्छी तरह समझा भी दी है कि वह बहुमत में भले हो मगर कोई तोप नहीं है. हौसला दिखाना ही बड़ी बात भारत के प्रधानमंत्री भले रूस के राष्ट्रपति को यह नसीहत कर आए हों कि यह वक्त लड़ाई का नहीं है लेकिन उन्हें भारत के हालात पर भी गौर फरमाना चाहिए. भारत में अखबारों के पृष्ठ सिर्फ टूट, दमन और झगड़े की खबरों से भरे रहते हैं. भारत के पास जोड़ने की कोई खबर नहीं है. ऐसे हालात में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा और भी जरूरी हो जाती है. देश को तोड़ने वाले खुद कभी नहीं स्वीकारेंगे कि देश टूट रहा है. कांग्रेस इस हकीकत को कहने का साहस कर रही है और उस के नुकसान भी भुगत रही है. उस के तमाम शीर्ष नेताओं पर ईडी और सीबीआई छोड़ दी गई है. बावजूद इस के, राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा निकालने का हौसला कर बैठे हैं. राहुल गांधी भारत को फिर से जोड़ पाएंगे या नहीं, लोगों के एकदूसरे के प्रति टूटे हुए विश्वास के तारों को फिर एक कर पाएंगे या नहीं, यह तो समय के गर्भ में है लेकिन राहुल ने कोशिश की, हौसला दिखाया, यह बड़ी बात है.

राहुल गांधी के नेतृत्व में 7 सितंबर को शुरू हुई कन्या कुमारी से जम्मूकश्मीर तक 3,700 किलोमीटर की ‘भारत जोड़ो’ पदयात्रा अपने पहले चरण में पूरे उत्साह और जनसमर्थन के साथ सफलतापूर्वक तमिलनाडु से हो कर केरल से गुजरती हुई आगे बढ़ रही है. केरल के तिरुअनंतपुरम, कोच्चि और नीलांबुर होती हुई यह यात्रा कर्नाटक के मैसूर, बेल्लारी, रायचूर, तेलंगाना के विकाराबाद, महाराष्ट्र के नांदेड़, जलगांव जामोद, मध्य प्रदेश के इंदौर पहुंचेगी. यहां से राजस्थान के कोटा, दौसा, अलवर, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, दिल्ली, हरियाणा के अंबाला, पंजाब के पठानकोट होते हुए जम्मू होते हुए 150 दिनों बाद श्रीनगर पहुंच कर यात्रा का समापन होगा.

राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू करने से पहले श्रीपेरुमबुदूर में राजीव गांधी की समाधि पर जा कर श्रद्धांजलि अर्पित की और उस के बाद बेहद भावुक अपील करते हुए कहा, ‘‘नफरत और विभाजन की राजनीति के कारण मैं ने अपने पिता को खोया. इस के कारण अपने देश को नहीं खोऊंगा. प्यार से नफरत हारेगी. एकसाथ मिल कर हम इस पर जीत हासिल करेंगे.’’ कांग्रेस ने राहुल गांधी समेत 118 ऐसे नेताओं को चुना है जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक पूरी यात्रा में राहुल के साथ हैं. राज्यों के प्रतिनिधि बीचबीच में उन से जुड़ रहे हैं, मगर सब से ज्यादा आश्चर्यचकित करने वाला दृश्य वह अभूतपूर्व जनसैलाब है जिस में शहरोंगांवोंकसबों के हजारों बूढ़े, बच्चे, जवान, किशोर, औरतें, स्कूली बच्चियां राहुल के पीछे चल रही हैं. भीड़ में मौजूद हर आदमी राहुल गांधी से बात करने के लिए, अपने दुखदर्द बांटने के लिए बेताब है.

इस यात्रा को सिर्फ कांग्रेसियों और जनता का ही नहीं, बल्कि गैरकांग्रेसी राजनीतिक दलों और अनेक गैरसरकारी संगठनों का भी भरपूर समर्थन मिल रहा है. मचा हुआ है हड़कंप राहुल गांधी के नेतृत्व में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से जिस तरह आम जनमानस जुड़ गया है, उस ने सांप्रदायिक ताकतों के होश उड़ा दिए हैं. शुरू में यात्रा को ले कर अनर्गल बयान देने वालों, छींटाकशी करने वालों, ‘भारत जोड़ो नहीं बल्कि परिवार जोड़ो’ कह कर उपहास उडने वालों के अब मुंह से बोल नहीं फूट रहे हैं. इस में कोई शक नहीं कि कांग्रेस को मृतप्राय समझने वाले लोग राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा से भयभीत हो उठे हैं. सांप्रदायिकता, अराजकता, जातिवाद, पूंजीवादी लूट, बेरोजगारी, महंगाई, ध्वस्त शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था के मुद्दे अब सामने आने लगे हैं.

चर्चा आम लोगों से इस यात्रा के दौरान कर रहे हैं. नोटबंदी से चौपट हुई अर्थव्यवस्था और सरकारी जांच एजेंसियों पर कब्जा कर उन के दुरुपयोग के बारे में लोगों को एहसास होने लगा है. संवैधानिक ढांचे को कमजोर करने वाले सवाल भी उठ रहे हैं. ऐसे में भाजपा के पास काट नहीं है. कांग्रेस से जुड़ चुके कन्हैया कुमार ने ‘भारत जोड़ो’ यात्रा को ले कर दावा किया कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा वर्ष 1990 में की गई ‘रथ यात्रा’ सत्ता के लिए थी मसजिद तोड़ने के लिए थी, हिंदू मुसलिम बचाखुचा सौहार्द तोड़ने को थी. जनता से जुड़ाव की यात्रा इस यात्रा में दर्शक उत्साह से लबरेज दिखते हैं. यात्रा को ले कर भाजपाई दुष्प्रचार कर रहे हैं, उस के विपरीत पूरी यात्रा में कोई फाइवस्टार कल्चर नहीं दिख रहा है.

धूलभरे रास्तों पर राहुल के साथ तमाम कांग्रेसी नेता लगातार आगे बढ़ रहे हैं. रातें वे ट्रकों पर बनाए गए कंटेनरों में गुजार रहे हैं जिन के साथ मोबाइल टौयलेट्स बने हैं. रेलवे के स्लीपर डब्बों जैसे बने इन 60 कंटेनरों में करीब 230 लोग रह सकते हैं. इन्हीं में से एक कंटेनर राहुल गांधी का भी है. यात्राएं व्यर्थ नहीं जातीं सत्ता-शासन में यात्राओं का बड़ा महत्त्व है. राजनीतिक लक्ष्य साधने के लिए जनमानस से जुड़ना बहुत जरूरी है. आजादी से पहले और आजादी के बाद, यात्राओं की अनेकानेक कहानियों से भारत का इतिहास भरा पड़ा है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी रहे गोपाल कृष्ण गोखले स्वतंत्रता सेनानी होने के साथसाथ एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ थे. महात्मा गांधी उन्हें अपना गुरु मानते थे. लंदन से बैरिस्टर की डिग्री ले कर आए मोहनदास करमचंद गांधी तब अंगरेजों के समान कोटपतलून पहनते थे. यह वेशभूषा गरीब देश की गरीब और गुलाम जनता की भावनाओं और विचारों से मेल नहीं खाती थी और उन के नजदीक पहुंचने में सब से बड़ी बाधक थी.

तब गोपाल कृष्ण गोखले ने गांधी को देश की आजादी के लिए लड़ने की प्रेरणा दी, साथ ही उन्हें धिक्कारा भी कि ‘अपनी मांबहनों पर हो रहे अत्याचार को चुप्पी साध कर देख रहे हो. इतना तो पशु भी नहीं सहते. यदि भारत को समझना चाहते हो तो तुम्हें संपूर्ण भारत को अपनी खुली आंखों से देखना पड़ेगा.’ द्य बस, फिर क्या था, गांधीजी ने विदेशी वस्त्र त्याग कर धोती बांध ली और निकल पड़े भारत की असली सूरत देखने. अधनंगे फकीर ने गांवगांव घूम कर भारतीयों की गरीबी और दुर्दशा को देखासमझा और राष्ट्र को अंगरेजों के चंगुल से मुक्त कराने का बीड़ा उठा लिया. गांधीजी ने पूरे देश में अनेकानेक यात्राएं कीं. उन की यात्राओं से अंगरेज थरथर कांपने लगे. कभी उन को नजरबंद किया गया तो कभी जेल में डाल दिया गया. लेकिन गांधी की यात्राएं नहीं रुकीं. उन की 340 किलोमीटर की दांडी यात्रा ने तो अंगरेज सरकार की नींव हिला कर रख दी. यह यात्रा अहमदाबाद साबरमती आश्रम से समुद्रतटीय गांव दांडी तक हुई और 6 अप्रैल, 1930 को समुद्रतट पर नमक हाथ में ले कर गांधीजी ने अंगरेजों का नमक कानून तोड़ा. द्य युवा तुर्क के नाम से मशहूर जनता दल के नेता चंद्रशेखर ने कन्याकुमारी से ले कर दिल्ली तक 4,000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की.

उन की यात्रा को ‘भारत यात्रा’ के नाम से जाना जाता है. उन की यात्रा 6 जनवरी, 1983 को कन्याकुमारी से शुरू हुई और 5 जून, 1984 को दिल्ली के राजघाट पर खत्म हुई थी. इस दौरान उन्हें देश की तमाम समस्याओं को नजदीक से जानने का मौका मिला. इस यात्रा में उन्होंने सब के लिए पीने का स्वच्छ पानी, सब को शिक्षा, कुपोषण से लड़ाई, स्वास्थ्य का अधिकार जैसे मुद्दों को जोरशोर से उठाया. हालांकि इस यात्रा से चंद्रशेखर को तात्कालिक कोई फायदा नहीं हुआ लेकिन उन की पहुंच पूरे देश में हो गई. इस यात्रा से दक्षिण भारत में जनता दल का विस्तार हुआ. कर्नाटक में आज जेडी (एस) की मजबूत स्थिति की एक वजह चंद्रशेखर की भारत यात्रा है. इस के बाद चंद्रशेखर साल 1990 में देश के 8वें प्रधानमंत्री बने. द्य सुनील दत्त ने शांति और सामाजिक सद्भाव को ले कर लंबी पदयात्रा की. इन सभी यात्राओं में उन की बेटी प्रिया दत्त उन के साथ होती थीं.

1987 में उन्होंने पंजाब में उग्रवाद की समस्या के समाधान के लिए बंबई से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर तक 2,000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की थी. द्य जब आंध्र प्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था, उस वक्त 2003 में कांग्रेस नेता वाई एस राजशेखर रेड्डी ने पदयात्रा शुरू की थी. इस यात्रा के दौरान उन्होंने 60 दिनों के अंदर 1,500 किलोमीटर की यात्रा की. इस यात्रा में सूखाग्रस्त इलाकों पर उन का फोकस रहा. 11 जिलों की उन की यात्रा का असर यह हुआ कि राज्य में कांग्रेस ने चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलुगुदेशम पार्टी को सत्ता से उखाड़ फेंका और मुख्यमंत्री के रूप में वाई एस राजशेखर रेड्डी की ताजपोशी हुई. राजशेखर रेड्डी की तरह सत्ता में आने का रास्ता चंद्रबाबू नायडू ने भी चुना. उन्होंने 2013 में 1,700 किलोमीटर लंबी पदयात्रा की और उस का नतीजा यह हुआ कि उन की सत्ता में वापसी हुई.

कांग्रेस से अलग हो कर जब जगन मोहन रेड्डी ने वाईएसआर कांग्रेस का गठन किया तो सत्ता में आने के लिए उन्होंने अपने पिता के रास्ते को ही अपनाया. इस के तहत नवंबर 2017 में जगन मोहन रेड्डी ने 341 दिनों की यात्रा शुरू की. इस दौरान उन्होंने 3,648 किलोमीटर की पदयात्रा की. रेड्डी 2,500 से ज्यादा गांवों में गए और उस का फायदा उन्हें चुनावों में मिला. उन्होंने चुनाव में एकतरफा जीत हासिल की. द्य कांग्रेस नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने साल 2017 में नर्मदा यात्रा की थी. 6 महीने तक चली यात्रा में दिग्विजय सिंह ने 110 विधानसभाओं का दौरा किया था. इस यात्रा का ही असर था कि कांग्रेस की 2018 में एक दशक बाद सत्ता में वापसी हुई थी और उसे 114 सीटें मिलीं. द्य 1990 में सत्ता राम और मंदिर के लिए भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथ यात्रा निकाली तो उस का बहुत बड़ा राजनीतिक लाभ भाजपा को मिला.

25 सितंबर, 1990 को गुजरात के सोमनाथ से रथयात्रा शुरू हुई और जब वह अपने अंतिम पड़ाव पर बिहार पहुंची तो बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर समस्तीपुर में यात्रा रोक कर आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया. इस यात्रा के दौरान देश में कई जगहों पर सांप्रदायिक दंगे हुए. लेकिन रथयात्रा और आडवाणी की गिरफ्तारी का फायदा यह हुआ कि जहां यात्रा से पूर्व 1985 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात्र 2 सीटें मिली थीं, वहीं यात्रा के बाद 1991 में हुए चुनाव में भाजपा ने 120 सीटें हासिल कर लीं. कभी फूट डालो और राज करो की नीति अपना कर अंगरेजों ने देश पर राज किया था, देश को बांटने वाले तत्त्व आज उसी नीति का अनुसरण कर सत्ता पर काबिज रहना चाहते हैं. ‘कानून का राज’ बस एक मुहावरा बन कर रह गया है और पूरा देश जातियों के राज पर विश्वास करने के लिए विवश किया जा रहा है. जातियां वोटबैंक में तबदील हो चुकी हैं. जाट, गुर्जर, कायस्थ, लोधी, कुर्मी, मुसलमान, बनिया आदि में पूरे समाज को बांट कर बड़ेबड़े वोटबैंक खड़े किए जा चुके हैं जिन के जरिए राजनीतिक हित साधे जा रहे हैं. द्वेष की राजनीति की ओछी सोच पर यदि अब भी लगाम न कसी गई तो जातिवादी संघर्ष पैदा होगा और देश में गृहयुद्ध जैसी स्थितियां पैदा हो जाएंगी.

भाजपा आज भी उसी खांटी हिंदूवादी राजनीति को ही अपना जनाधार मान कर आगे बढ़ रही है और वह यह बात भी बखूबी समझ रही है कि कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा या राहुल गांधी को रोकने का अर्थ है कांग्रेस को फायदा पहुंचाना. इसलिए खिसियायी बिल्ली खंभा नोचे वाली हालत में भाजपा के कुछ नेता तो थोड़ीबहुत चूंचूं कर रहे हैं लेकिन खुल कर बोलने या ऐक्शन लेने का हौसला नहीं दिखा पा रहे हैं. बुलंद हौसले सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर भले भाजपा ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे लगाए लेकिन जो भीड़ ‘भारत जोड़ो’ अभियान में राहुल के पीछे आ जुटी थी, वह न तो टीवी चैनलों की भड़काऊ डिबेट देखतीसुनती है, न सत्ता के हाथों बिके हुए अखबार पढ़ती है और न ही सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर ऐक्टिव है. मगर यह भीड़ चुनाव के वक्त अपने सारे कामधंधे छोड़ कर सरकार चुनने के लिए पोलिंग बूथ पर जरूर जुटती है जबकि सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहने वाले, नफरत और विभाजन का जहर बांटने वाले अधिकांश लोग चुनाव के रोज पोलिंग बूथ तक नहीं पहुंचते हैं.

भाजपा में पसरी घबराहट ‘भारत जोड़ो’ यात्रा जब शुरू हुई तो केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने सब से पहले राहुल पर अटैक किया. अपनी अल्प जानकारी के चलते उन्होंने बेंगलुरु की एक सभा में बड़े भद्दे लहजे और बेहद भद्दी भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा, ‘अरे, अगर कन्याकुमारी से चले तो कम से कम इतनी निर्लज्जता तो न दिखाते, स्वामी विवेकानंदजी को प्रणाम कर के तो बताते लेकिन वह भी राहुल गांधी को स्वीकार नहीं क्योंकि स्वामी विवेकानंद राष्ट्र संत हैं, गांधी खानदान के सदस्य नहीं.’ जबकि कांग्रेस के औफिशियल सोशल मीडिया हैंडल पर अपलोड किए गए वीडियोज और न्यूज रिपोर्ट्स से साफ हो गया कि राहुल गांधी ने यात्रा शुरू करने से पहले 7 सितंबर को कन्याकुमारी में स्थित विवेकानंद स्मारक शिला में श्रद्धांजलि अर्पित की थी. इस के बाद यात्रा को ‘फाइवस्टार प्रबंधन’ वाली यात्रा कह कर दुष्प्रचार करने की कोशिश की गई. दुष्प्रचार का लैवल इतना गिर गया कि देश के गृहमंत्री एक सभा में राहुल द्वारा यात्रा के दौरान पहनी गई टीशर्ट की कीमत बताने लगे.

यात्रा को सांप्रदायिक रंग देने की भी कोशिश की गई जब राहुल गांधी यात्रा के दौरान पादरी जौर्ज पोन्नैया से मिले. एक ने तो यहां तक कह दिया कि राहुल को यह यात्रा पाकिस्तान में करनी चाहिए. भाजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कहते राहुल गांधी पर तंज कसा कि, ‘जो व्यक्ति अपनी पार्टी को नहीं जोड़ सका, जो अकसर विदेश चला जाता है और जिसे अध्यक्ष बनाए जाने के लिए कांग्रेस में एक ‘दरबारी गायन’ होता है, वह भारत जोड़ने के मिशन पर है.’ इस राष्ट्रव्यापी कांग्रेसी अभियान से भाजपा में घबराहट का होना स्वाभाविक है क्योंकि उस की सोच अब तक यही है कि उस ने कांग्रेस से भारत को मुक्त कर दिया है और वह अब ‘निरंकुश शासन’ करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है. मगर कांग्रेस के यात्रा अभियान से उसे अपना सपना टूटता नजर आ रहा है और इसी बौखलाहट में उस के नेता अनापशनाप बयान दे रहे हैं ताकि आमजन भ्रमित हो.

क्यों ट्रोलिंग का शिकार हुईं ‘रामायण’ की ‘सीता’

रामानंद सागर की रामायण सीरियल में सीता का किरदार निभाने वाली दीपिका चिखलिया का अंदाज इन दिनों बदला बदला सा लग रहा है. दीपिका का किरदार इतना ज्यादा फेमस था कि लोग आज भी उन्हें मां सिता के रूप में देखना पसंद करते हैं.

भले ही रामायण सीरियल खत्म हो गया है लेकिन आज भी उनकी लोकप्रियता खत्म नहीं हुई है, दीपिका ने एक्टिंग छोड़ दिया है लेकिन वह सोशल मीडिया पर काफी ज्यादा एक्टिव रहती हैं. दीपिका आए दिन इंस्टाग्राम पर नए- नए पोस्ट शेयर करती रहती हैं. जिसमें लोग उन्हें खूब पसंद करते हैं. फैंस को भी उनके पोस्ट का इंतजार रहता है.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Dipika (@dipikachikhliatopiwala)

हाल ही में उन्होंने अपना एक वीडियो शेयर किया है, जिसमें वह काफी ज्यादा यंग दिखने कि कोशिश कर रही हैं. फैंस को भी उनका यह वीडियो पसंद आया है. वीडियो में दीपिका व्यू कलर का वन पिस पहनी हुईं हैं.

इस वीडियो को शेयर करते हुए दीपिका ने लिखा है चेंज और ट्रांसफोर्मेशन ,हालांकि दीपिका के बदले हुए लुक की लोग खूब तारीफ कर रहे हैं. वहीं कुछ यूजर ने लिखा है कि इसे कृप्या हटा दें,  एक ने लिखा कि अब ऐसे पोस्ट मत डालना, आपको शोभा नहीं देता है. लेकिन दीपिका ने इस पर कोई रिप्लाई नहीं दिया है.

वैशाली ठाकरे का पुराना वीडियो हो रहा वायरल – कहा था जिंदगी कीमती है

ससुराल सिमर का और ये रिश्ता क्या कहलाता है में नजर आ चुकी वैशाली ठक्कर ने बीते शनिवार को सुसाइड कर लिया था, जिससे पूरे टीवी इंडस्ट्री और उनके को स्टार को भारी सदमा लगा था. वैशाली के मौत के बाद से उनका एक पुराना वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है.

जिसमें वैशाली ठक्कर हॉस्पिटल में हैं और बता रही हैं कि जिंदगी बहुत कीमती है. वायरल वीडियो में वैशाली कह रही हैं कि ये जो लाइफ है  न बहुत कीमती है. वह आगे कह रही है कि तुमलोगों ने जो फालतू में जिंदगी खराब की है वह मत करो जिंदगी को अपने हिसाब से जियो.

यह सकारात्मक वीडियो को वैशाली ने खुद अपने यूट्यूब चैनल पर शेयर किया है, वैशाली के मौत के बाद यह वीडियो खूब वायरल हो रहा है, लोग इस वीडियो को देखकर इमोशनल भई हो रहे हैं. इस वीडियो पर यूजर ने कमेंट किया है कि खुद को समझाने वाली आज खुद इस दुनिया को छोड़कर चली गई.

वैशाली के मौत के बाद से उनके घर में सुसाइड नोट वरामद हुआ था, जिस पर पुलिस करवाई कर रही है. पुलिस ने उनके एक्स बॉयफ्रेंड राहुल नवलीन को गिरफ्तार कर लिया है. इस पर जॉच चल रही है.

क्या यह प्रेम था : भाग 2

उस के पीछेपीछे कुहू भी आ गई. वह इस तरह खुश थी मानो उस ने आईएएस की परीक्षा पास कर ली हो. कुहू बहुत ज्यादा नहीं पढ़ती थी, फिर भी उस के नंबर बहुत अच्छे आते थे, जबकि मोनिका खूब मेहनत करती थी, तब जा कर उस के अच्छे नंबर आते थे.

उस दिन के बाद कुहू आरव से लगभग रोज बातें करने लगी थी. दिन में कभी 1 बार तो कभी 2 बार उस से बातें जरूर करती थी. उस दिन कुहू कुछ ज्यादा ही खुश थी, जिस दिन आरव उस से मिलने होस्टल आ रहा था, पर मन ही मन वह घबरा भी रही थी, क्योंकि इस से पहले वह किसी लड़के से इस तरह नहीं मिली थी और न आमनेसामने बात की थी. मगर अब तो आरव को आना ही था. उस दिन खुश होने के बावजूद वह काफी बेचैन दिखाई दे रही थी.

11 बजे के आसपास होस्टल के गेट पर बैठने वाली सरला ने आवाज लगाई, ‘‘कुहू, आप से कोई मिलने आया है.’’

मोनिका भी कुहू के पीछेपीछे भागी कि देखे तो कुहू का बौयफ्रैंड कैसा है, क्योंकि वह अकसर मुंह टेढ़ा कर के उस के बारे में बताया करती थी.

आरव काफी सुंदर नौजवान था. दोनों होस्टल के पार्क में एकदूसरे के सामने बैठे थे. मोनिका ने देखा तो शायद आरव सोच रहा था कि वह क्या बात करे. वैसे कुहू के बताए अनुसार वह बातूनी नहीं था. पर किसी लड़की से शायद यह उस की पहली मुलाकात थी, वह भी गर्ल्स हौस्टल में. शायद वह रिस्क ले कर वहां आया था बात करने के लिए.

कुहू भी उत्सुक थी. उस से रहा नहीं गया और उस ने आरव के हाथ के एक काले निशान के बारे में पूछ लिया, ‘‘यह क्या है? स्कूटर की ग्रीस लग गई है या जल गए हैं?’’

आरव मुसकराया. अब उसे बातचीत करने का बहाना मिल गया था. अत: उस ने कहा, ‘‘यह मेरा बर्थ मार्क है.’’

थोड़ी देर तक दोनों इधरउधर की बातें करते रहे. उस के बाद आरव चला गया.

वह गीतसंगीत का बहुत शौकीन था. यह कुहू को पसंद नहीं था. उसे सोना अच्छा लगता था.

एक दिन वह सो रही थी, तभी सरला ने आवाज दी, ‘‘कुहू तुम्हारा फोन आया है.’’

थोड़ी देर बाद कुहू बातचीत कर के लौटी तो जोरजोर से हंसने लगी. मोनिका उस का मुंह ताक रही थी. हंस लेने के बाद कुहू ने कहा, ‘‘यार मोनिका, आज तो आरव ने गाना गाया. उस की आवाज तो बहुत अच्छी है.’’

‘‘कौन सा गाना गाया?’’ मोनिका ने पूछा तो कुहू ने कहा, ‘‘बड़े अच्छे लगते हैं, ये धरती, ये नदियां, ये रैना और तुम. यही नहीं, वह सिनेमा देखने को भी कह रहा था. मैं मना नहीं कर पाई. यार वह कितना भोला है. थोड़ा बुद्धू भी है यार मोनिका. तुम भी साथ चलना. मैं उस के साथ अकेली नहीं जाऊंगी. ठीक नहीं लगता.’’

आरव कुहू को ओपी नैयर की फिल्म दिखाने ले गया, साथ में मोनिका भी थी. लौट कर मोनिका ने मजाक किया, ‘‘अंधेरे में उस ने तेरा हाथ तो नहीं कपड़ लिया था?’’

कुहू एकदम से चौंक कर बोली, ‘‘क्यों? वह कोई डरने वाली फिल्म तो नहीं थी, जो अंधेरे में डर के मारे मेरा हाथ पकड़ लेता.’’

मोनिका को खूब हंसी आई, पर कुहू समझ नहीं पाई. बोली, ‘‘यार मोनिका, आरव की वकालत नहीं चलेगी तो वह अच्छा गायक बन जाएगा. आज उस ने फिर मुझे एक गाना सुनाया था, ‘आप की आंखों में कुछ महके हुए राज हैं, आप से भी खूबसूरत आप के अंदाज हैं…’’

मोनिका ने हंसते हुए उसे झकझोर कर कहा, ‘‘कहीं उसे तुम से प्यार तो नहीं हो गया है?’’

कुहू थोड़ी ढीली पड़ गई. उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘देख मोनिका, यह प्यारव्यार कुछ नहीं होता बस एक कैमिकल असर होता है… यार तू छोड़ इस बात को, चल खाना खाने चलते हैं.’’

इस के बाद हम पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी में लग गए.

कुहू के पेपर पहले खत्म हो गए तो वह घर जाने की तैयारी करने लगी. सुबह 7 बजे की उस की बस थी. उसे पहुंचाने के लिए मेरी सहेली बिंदु भी बस स्टाप पर आई थी. उसे बस पर बैठाने आरव भी आया था. जातेजाते उस ने अलग ही हाथ मारा. उस ने आरव से खुद तो हाथ मिलाया ही, पकड़ कर बिंदु का भी हाथ मिलवाया.

‘‘मोनिका, सही बात तो मैं वहां से जा नहीं सकी, अभी भी उस का हाथ पकड़े वहीं खड़ी हूं. जब मैं ने हाथ बढ़ाते हुए उस की आंखों में झांका तो उन में जो दिखाई दिया, उसे उस समय मैं समझ नहीं सकी. उस की बातें, उस के सुनाए गाने कानों में गूंज रहे थे. उस ने मेरी सगाई की बात सुनी थी तो उस का चेहरा उतर गया था. मेरा शरीर कहीं भी रहा हो, मन अभी भी वहीं है,’’ आंसू पोंछते हुए कुहू ने कहा और चाय बनाने किचन में चली गई.

उस के पीछेपीछे मोनिका भी गई. उस ने पूछा, ‘‘उस के बाद तुम फेसबुक पर आरव के संपर्क में आई थी क्या?’’

 

अनकहा प्यार- भाग 3: क्या सबीना और अमित एक-दूसरे के हो पाए?

लेकिन एमए पूरा होते ही सबीना के निकाह की बात चलने लगी. उस के पिता चुनाव हार चुके थे. और सारी जमापूंजी चुनाव में लगा चुके थे. बहुत सारा कर्र्ज भी हो गया था उन पर. जब सबीना ने निकाह से मना करते हुए पीएचडी की बात कही, तो उस के अब्बू ने कहा, ‘बीएड कर लो. पढ़ाई करने से मना नहीं करता. लेकिन पीएचडी नहीं. मैं जानता हूं कि पीएचडी के नाम पर पीएचडी करने वालों का कैसा शोषण होता है? निकाह करो और प्राइवेट बीएड करो. अपने अब्बू की बात मानो. समय बदल चुका है. मेरी स्थिति बद से बदतर हो गई है. अपने अब्बू का मान रखो.’ अब्बू की बात तो वह काट न सकी, सोचा, जा कर अमित के सामने ही हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार कर दे.

अमित को जब उस ने बीएड की बात बताई और साथ ही निकाह की, तो अमित चुप रहा.

‘तुम क्या कहते हो?’

‘तुम्हारे अब्बू ठीक कहते हैं,’ उस ने उदासीभरे स्वर में कहा.

‘उदास क्यों हो?’

‘दहेज न दे पाने के कारण बहन की शादी टूट गई.’ सबीना क्या कहती ऐसे समय में चुप रही. बस, इतना ही कहा, ‘अब हमारा मिलना नहीं होगा. कुछ कहना चाहते हो, तो कह दो.’

‘बस, एक अच्छी नौकरी चाहता हूं.’

‘मेरे बारे में कुछ सोचा है कभी.’

वह चुप रहा और उस ने मुझे भी चुप रहने को कहा, ‘कुछ मत कहो. हालात काबू में नहीं हैं. मैं भी पीएचडी करने के लिए दिल्ली जा रहा हूं. औल द बैस्ट. तुम्हारे निकाह के लिए.’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश कर रहे थे. जो कहना था वह अनकहा रह गया. और आज इतने वर्षों के बीत जाने के बाद वही शख्स नागपुर में पार्क में इस बैंच पर उदास, गुमसुम बैठा हुआ है. सबीना उस की तरफ बढ़ी. उस की निगाह सबीना की तरफ गई. जैसे वह भी उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘पहचाना,’’ सबीना ने कहा.

कुछ देर सोचते हुए अमित ने कहा, ‘‘सबीना.’’

‘‘चलो याद तो है.’’

‘‘भूला ही कब था. मेरा मतलब, कालेज का इतना लंबा साथ.’’

‘‘यह क्या हुलिया बना रखा है,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘अब यही हुलिया है. 45 साल का वक्त की मार खाया आदमी हूं. कैसा रहूंगा? जिंदा हूं. यही बहुत है.’’

‘‘अरे, मरें तुम्हारे दुश्मन. यह बताओ, यहां कैसे?’’

‘‘मेरी छोड़ो, अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं ठीक हूं. खुश हूं. एक बेटे की मां हूं. प्राइवेट स्कूल में टीचर हूं. पति का अपना बिजनैस है,’’ सबीना ने हंसते

हुए कहा.

‘‘देख कर तो नहीं लगता कि खुश हो.’’

‘‘अरे भई, मैं भी 40 साल की हो गई हूं. कालेज की सबीना नहीं रही. तुम बताओ, यहां कैसे? और हां, सच बताना. अपनी बैस्ट फ्रैंड से झठ मत बोलना.’’

‘‘झठ क्यों बोलूंगा. बहन की शादी हो चुकी है. मां अब इस दुनिया में नहीं रहीं. मैं एक प्राइवेट कालेज में प्रोफैसर हूं. मेरा भी एक बेटा है.’’

‘‘और पत्नी?’’

‘‘उसी सिलसिले में तो यहां आया हूं. पत्नी से बनी नहीं, तो उस ने प्रताड़ना का केस लगा कर पहले जेल भिजवाया. किसी तरह जमानत हुई. कोर्ट में सम?ौता हो गया. आज कोर्ट में आखिरी पेशी है. उसे ले जाने के लिए आया हूं. अदालत का लंचटाइम है, तो सोचा पास के इस बगीचे में थोड़ा आराम कर लूं,’’ उस ने यह कहा तो सबीना ने कहा, ‘‘मतलब, खुश नहीं हो तुम.’’

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘खुश तो हूं लेकिन सुखी नहीं हूं.’’

जी में तो आया सबीना के, कि कह दे कालेज में जो प्यार अनकहा रह गया, आज कह दो. चलो, सबकुछ छोड़ कर एकसाथ जीवन शुरू करते हैं. लेकिन कह न सकी. उसे लगा कि अमित ही शायद अपने त्रस्त जीवन से तंग आ कर कुछ कह दे. लगा भी कि वह कुछ कहना चाहता था. लेकिन, कहा नहीं उस ने. बस, इतना ही कहा, ‘‘कालेज के दिन याद आते हैं तो तुम भी याद आती

हो. कम उम्र का वह निश्छल प्रेम, वह मित्रता अब कहां? अब तो

केवल गृहस्थी है. शादी है. और उस शादी को बचाने की हर

संभव कोशिश.’’

‘‘आज रुकोगे, तुम्हारा तो ससुराल है इसी शहर में,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘नहीं, 4 बजे पेशी होते ही मजिस्ट्रेट के सामने समझौते के कागज पर दस्तखत कर के तुरंत निकलना पड़ेगा. 8 दिन बाद से कालेज की परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं. फिर, बस खानापूर्ति के लिए, समाज के रस्मोरिवाज के लिए कानूनी दांवपेंच से बचने के लिए पत्नी को ले कर जाना है. ऐसी ससुराल में कौन रुकना चाहेगा. जहां सासससुर, बेटी के माध्यम से दामाद को जेल की सैर करा दी जा चुकी हो.’’ उस के स्वर में कुछ उदासी थी.

‘‘अब कब मुलाकात होगी?’’ सबीना ने पूछा.

इस घने अंधकार में उजाले का टिमटिमाता तारा लगा अमित. सबीना की आंखों में आंसू आ गए. आंसू तो अमित की आंखों में भी थे. सबीना ने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, अब कब मुलाकात होगी.’’

‘‘शायद ऐसे ही किसी मोड़ पर. जब मैं दर्द में डूबा हुआ रहूं और तुम मिल जाओ अचानक. जैसे आज मिल गईं. मैं तो तुम्हें देख कर पलभर को भूल ही गया था कि यहां किस काम से आया हूं. मेरी कोर्ट में पेशी है. अपनी बताओ, तुम कैसी हो?’’

सबीना उस के दुख को बढ़ाना नहीं चाहती थी अपनी तकलीफ बता कर. हालांकि, समझ चुका था अमित कि उस की दोस्त खुश नहीं है. ‘‘बस, जिंदगी मिली है, जी रही हूं. थोड़े दुख तो सब के हिस्से में आते हैं.’’

‘‘हां, यह ठीक कहा तुम ने,’’ अमित ने कहा.

‘‘मेरे कोर्ट जाने का समय हो गया, मैं चलता हूं.’’

‘‘कुछ कहना चाहते हो,’’ सबीना ने कुरेदना चाहा.

‘‘कहना तो बहुतकुछ चाहता था. लेकिन कमबख्त समय, स्थितियां, मौका ही नहीं देतीं,’’ आह सी भरते हुए अमित ने कहा.

‘‘फिर भी, कुछ जो अनकहा रह गया हो कभी,’’ सबीना ने कहा. सबीना चाहती थी कि वह अमित के मुंह से एक बार अपने लिए वह अनकहा सुन ले.

‘‘बस, यही कि तुम खुश रहो अपनी जिंदगी में. मैं भी कोशिश कर रहा हूं जीने की. खुश रहने की. जो नहीं कहा गया पहले. उसे आज भी अनकहा ही रहने दो. यही बेहतर होगा. झठी आस पर जी कर क्यों अपना जीना हराम करना.’’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश करते हुए अपनीअपनी अंधेरी सुरंगों की तरफ बढ़ चले. जो पहले अनकहा रह गया था, आज भी अनकहा ही रह गया.

मेरी उम्र 43 साल है लेकिन अभी तक बच्चा नहीं है जिससे मेरे पति मुझसे नाराज रहते हैं?

सवाल

मेरी उम्र 43 साल है और शादी हुए 15 साल हो चुके हैं. शादी के 5-6 साल तक तो सबकुछ ठीक रहा. पति का व्यवहार मेरे प्रति प्यारभरा था, लेकिन बच्चा न होने के कारण धीरेधीरे उन का व्यवहार मेरे प्रति रूखा होता गया. मैं ने तब भी सम?ाता किया. बच्चा गोद लेने के लिए पति तैयार नहीं थे. मु?ो एक साल से शक हो रहा है कि पति के किसी दूसरी औरत के साथ संबंध हैं.

कुछेक ऐसी बातें मेरे सामने आई हैं कि मेरा शक यकीन में बदल गया है. मैं अब सम?ाता करकर के थक गई हूं. दुखभरी जिंदगी से बाहर निकलना चाहती हूं. क्या मु?ो पति से तलाक ले लेना चाहिए. अभी तक तो मैं चुपचाप सब सहती आ रही थी कि मैं पति को बच्चा नहीं दे पाई लेकिन पति का किसी और के साथ संबंध मैं बरदाश्त नहीं कर सकती. अब आप ही मु?ो सही राह सु?ाएं.

जवाब

आप के बच्चा नहीं हो पायाकमी आप में है या पति मेंयह बात आप ने नहीं बताईक्योंकि अब तो कई तरीके हैं कि औरत बच्चा पैदा कर सकती है.

खैरबात करते हैं आप के पति के किसी और औरत के साथ नाजायज संबंध की तो यह वाकई बरदाश्त करने लायक बात नहीं है. पति कुछ भी करे और पत्नी चुपचाप सहन करती रहेऐसा किसी कानून में नहीं लिखा है. पतिपत्नी के रिश्ते को बचाए रखने का काम दोनों का होता है. ताली एक हाथ से नहीं बजती. आप के पति के रवैये से लगता है कि वे अपने रिश्ते को ग्रांटेड ले रहे हैं.

जब आप को लगे रिश्ते को बचाने की सारी कोशिशें आप ही कर रही हैं. रिश्ते में रहने के लिए आप सब से अकेले ही लड़ रही हैं तब आप ये लड़ाई जीवनभर अकेले नहीं लड़ पाएंगी. वास्तविक रह कर सोचें.

आप के पति किसी और के साथ अपना सुख ढूंढ़ रहे हैं. उन्हें आप के साथ की जरूरत नहीं महसूस हो रही. वे आप के बिना रह सकते हैं. ऐसे में आप उन के साथ रहने के लिए कब तक लड़ेंगी?

आप को भविष्य भांपते हुए कड़े निर्णय लेने होंगे. एक समयसीमा तक आप जरूर रिश्ता बचाने के लिए लड़ें लेकिन उस के सकारात्मक नतीजे न आने के बाद भी यदि आप अकेली ही लड़ती रहेंगी तो अंत में नुकसान केवल आप के समयशारीरिक व मानसिक सेहत का ही होगा.

गुस्सानिराशा व अवसाद में आप घिर जाएंगी. याद रहे व्यक्ति दोस्ती व रिश्ते अपनी भावनाओंअनुभवों के आदानप्रदान के लिए बनाता है. जब किसी रिश्ते में ये निरंतर व समान रूप से न हों तो ऐसे रिश्ते को ढोने का कोई औचित्य नहीं है.

ज्योति : सब्जबाग के जाल में

Diwali 2022:  जुए और शराब से बरबाद होती दीवाली

‘‘हैलो, क्या हाल है गौरव, मैं बोल रहा हूं, मोहित. क्या तैयारियां हैं इस बार…’’

‘‘तैयारियां पूरी हैं, इस बार विनोद के फार्म हाउस पर बैठेंगे, 20 की रात से.’’

‘‘और बाकी सब…’’

‘‘अरे टैंशन मत लो यार, सारे इंतजाम हो जाएंगे. विनोद को तो तुम जानते ही हो, खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ता. तुम तो बस बैंक से सौसौ के नोटों की दोचार गड्डियां निकाल लो. पिछले साल का हिसाब बराबर करना है. पक्की टौप राउंड ब्लाइंड में निकाल कर एक दांव में ही 6 हजार रुपए झटक ले गए थे.’’

‘‘अब यह तो समय की बात है यार, अब इस बार संभल कर खेलना और कलर पर इतनी लंबी चालें मत चलना, और हां, बाकियों को बोल दिया न?’’

‘‘हां, सब तैयार हैं. अब तो बस 20 का इंतजार है. 27 की दीवाली है. लेकिन अपनी फड़ 30 तक जमेगी. पीनेपिलाने के सामान का इंतजाम शुभम कर लेगा ऐक्साइज वाला जो ठहरा.’’

‘‘ओके, मिलते हैं फिर.’’

‘‘ओके.’’

न तो उक्त बातचीत काल्पनिक है और न ही ये पात्र जो बीते 4-5 सालों से भोपाल में हर दीवाली कुछ और न करें, जुआ जरूर खेलते हैं और पीने वाले शराब भी पीते हैं. दीवाली को ले कर इन के उत्साह की वजह पूजापाठ, यज्ञ, हवन, नए कपड़े या आतिशबाजी नहीं, बल्कि जुआ है जिसे ले कर ये महीनेभर पहले से ही बेचैन हो कर प्लान बनाने लगे थे कि इस बार फड़ कहां जमेगी.

दीवाली मनाने का तरीका अब तेजी से बदल रहा है जिसे देख कई बार तो ऐसा लगता है कि इस से जुड़े तमाम मिथक और पौराणिक किस्सेकहानियां वाकई झूठे हैं. सच और शाश्वत है तो जुआ और शराब जिन के शौकीनों की संख्या में हर साल इजाफा हो रहा है.

बात, दरअसल, सच भी इस लिहाज से है कि अधिकांश लोगों को समझ आ गया है कि लक्ष्मीपूजा तो मजबूरी है लेकिन असली लक्ष्मी, जो जुए के जरिए आती है (दरअसल जाती ज्यादा है), का रोमांच ही अलग है.

जुआ दीवाली का धार्मिक शगुन है जिस में अपनेअपने समय को आजमाने का लालच बिरले ही छोड़ पाते हैं और जो छोड़ देते हैं वे सभ्य और आधुनिक समाज की निगाह व विश्लेषण में पिछड़े और परंपरावादी होते हैं. पर यह शगुन कब अपशगुन और ऐब में बदल जाता है, इस का एहसास जब होता है तब तक सेहत, प्रतिष्ठा और पैसों का काफी नुकसान हो चुका होता है.

दीवाली के बदलते माने

दीवाली के त्योहार के माने कभी वाकई सामाजिक सौहार्द्र और उल्लास के हुआ करते थे जिस में नए कपड़े पहनना, आतिशबाजी चलाना, पकवान खानाखिलाना और एकदूसरे से रूबरू हो कर बधाइयां देना एक अनिवार्यता हुआ करती थी.

अब यह सब जरूरी नहीं रहा है, बल्कि लक्ष्मीपूजन भी लोग एक रिवाज सा निभाने के लिए करते हैं. यह ज्ञान प्राप्त हो जाना एक अच्छी बात है कि लक्ष्मी पूजापाठ से नहीं, बल्कि मेहनत से आती है लेकिन यह अज्ञान कि दीवाली पर जुआ खेलने से सालभर पैसे की स्थिति का अंदाजा लगेगा, बहुत खतरनाक और नुकसानदेह है, जिस से हर साल करोड़ों पेशेवर जुआरी पैदा होते हैं.

धार्मिक और पौराणिक आख्यानों का इस में बड़ा हाथ है जिन में विकट का विरोधाभास भी है. एक तरफ तो ये किस्सेकहानी ही बताते हैं कि जुआ बरबाद कर देता है. द्वापर में इसी जुए ने धर्मराज युधिष्ठिर की बुद्धि हरते उन्हें सड़क पर ला दिया था. धर्मराज तो कहनेभर की बात है, नहीं तो युधिष्ठिर को अधर्मराज कहा जाना चाहिए जिस ने राजपाट सहित भाइयों और पत्नी तक को दांव पर लगा दिया था.

तो क्या वाकई दीवाली के माने सिर्फ जुए और शराब तक सीमित हो कर रह गए हैं, इस सवाल का जवाब बेहद निराशाजनक तरीके से हां में ही निकलता है. जिस की अपनी वजहें भी हैं.

दीवाली का सामाजिक पहलू अब हाशिए पर है और चलन में है तो दांव लगाने का जनून व रोमांच जो एक हद तक मानवीय स्वभाव को देखते प्राकृतिक बात भी लगती है पर कोई त्योहार इस की वजह बने, तो बात चिंता की है. क्या वजह है कि लोग महीनेभर पहले से दीवाली की नहीं, बल्कि जुए की तैयारी की बात कर रहे हैं. इस की वजह है कि धर्म बताता है कि दीवाली पैसों का त्योहार है और पैसा मेहनत से नहीं, बल्कि किस्मत से आता है.

इसी किस्मत को आजमाने दीवाली एक पैमाना बना दिया गया है. धर्म से निकली जुए नाम की एक और बुराई की गिरफ्त में अब लगभग 50 फीसदी लोग आ चुके हैं. शगुन शौकिया हो या आदत हो, है तो नुकसानदेह, जिस से बचनेबचाने वाला कोई कभी नहीं रहा. उलटे, उकसाने वालों की तादाद हर साल बढ़ती जा रही है.

दीवाली पर होटलों के कमरे, फार्महाउस, किसी का भी घर, होस्टल और गांवों के खलिहान तक फड़ में तबदील हो जाते हैं. जहां 4-6 से ले कर 12-15 लोग तक इत्मीनान से बैठे तंबाकूखैनी मुंह में ठूंसे पिचपिच करते, बीड़ी, सिगरेट का धुआं उड़ाते नजर आते हैं. उन के मुंह से निकलने वाले शब्द होते हैं, ‘एक ब्लाइंड मेरी भी’, ‘यह मेरी चाल’, ‘यह ले सौ का काउंटर’, ‘मैं तो पैक हो गया’, ‘यह रही मेरी एक और चाल और अब शो कर दे.’

अफसोस तो इस बात का है कि यह सब सहज स्वीकार्य होता जा रहा है. जुए को सामाजिक बुराई कहना अब सरकारी स्लोगन सा होता जा रहा है. मुमकिन है लोग पूजापाठ से ऊब चले हों और उस से व दूसरे धार्मिक दबावों से वे छुटकारा पाने की हिम्मत न कर पा रहे हों लेकिन जो विकल्प उन्होंने दीवाली मनाने का जुए और शराब की शक्ल में चुना है वह हर लिहाज से नुकसानदेह है

शायद ही कोई बता पाए कि दीवाली के जुए से हासिल क्या होता है – चंद घंटों या दिनों का मनोरंजन, रोमांच, उत्सुकता और किस्मत आजमाने की जिज्ञासा या कुछ और. यकीन मानें, हासिल कुछ नहीं होता, होता इतनाभर है कि लोग एक अच्छाखासा त्योहार इन 2 ऐबों और लतों की बलि चढ़ा देते हैं.

साल का जो वक्त परिवारजनों और मित्रों के साथ गपों में, खानेपीने में, हंसीमजाक और मेलमिलाप में गुजरना चाहिए वह एक बेचैनी, उत्तेजना, नशे और दांवपेचों में जाया हो जाता है. कौन कितना हारा, कितना जीता जैसे हिसाबकिताब में सिमटी दीवाली के माने वाकई खत्म हो चले हैं जिस में अब युवा और महिलाएं भी शामिल हो गई हैं.

जुआ और शराब अब फैशन और स्टेटस सिंबल हो गए हैं. यह कतई तारीफ की या खुश होने की नहीं, बल्कि चिंतनीय बात है कि उत्साह के इस पर्व को खुद हम ने अवसाद का त्योहार बना दिया है.

कंगाल होते लोग

कोई भी वर्ग दीवाली के जुए और शराब की लत से अछूता नहीं है. फर्क सिर्फ दांव और पैसा लगाने की हैसियत का है. पिछले साल दीवाली पर लुधियाना के एक व्यापारी के एक रात में 2 करोड़ रुपए हार जाने की खबर सुर्खियों में रही थी. पर बाद में उस पर लीपापोती हो गई थी.

मेहनत की गाढ़ी कमाई फिर चाहे वह किसी व्यापारी की हो, अधिकारी की हो या मजदूर की हो, दीवाली के जुए में चंद मिनटों में हाथ से फिसलती है तो लोग देखते ही देखते कंगाल हो जाते हैं. यह कैसा त्योहार और शगुन है जो पैसा कमाने को प्रेरित नहीं करता, बल्कि गंवाने को एक मुहूर्त देता है.

बेईमानी, लालच और अंधविश्वास एक जुआरी की बुनियादी मानसिकता होते हैं. ये सब बारीकी से देखें तो धर्म से ही आए हैं. कौरवपांडवों का जुआ इस का बेहतर उदाहरण है जो माया शकुनि के छलकपट से भरा हुआ था. शिव और पार्वती भी दीवाली पर जुआ खेलते थे. यह मिसाल देना कौन सी शान की बात है कि आप के देवीदेवता ही इस व्यसन का शिकार थे. इसी तरह एक और पौराणिक पात्र राजा नल के अलावा कृष्ण का बड़ा भाई बलराम भी जुए की लत का शिकार था.

ये हमारे आदर्श हैं तो कोई क्या कर लेगा. लोग तो देवीदेवताओं का अनुसरणभर कर रहे हैं. बस, बदला इतनाभर है कि चौसर और पांसों की जगह ताश के पत्तों ने ले ली है. मानसिकता तो वही है जो सदियों पहले थी.

कोई दोपांचसौ हारे या हजारदसहजार या फिर लाखकरोड़, जुआ तो जुआ है जिस में वक्त और पैसों की बरबादी ही होती है और दीवाली पर लगने वाली यह लत कितनी अपशगुनी होती है, इस के जीतेजागते उदाहरण आसपास हर कहीं आसानी से मिल जाएंगे.

यह हास्यास्पद और तरस खाने वाली बात है कि लोग कोई सबक हार से नहीं लेते, बल्कि ‘अगले साल कवर कर लूंगा’ की मानसिकता से ग्रस्त हो जाते हैं. यह और बात है कि जुए में हारा पैसा कभी कवर नहीं होता. उलटे, दूसरी दीवाली पर और भी चला जाता है.

शराब का बढ़ता चलन

जुए के बाद दीवाली पर तेजी से सालदरसाल बढ़ता चलन शराब का है. गलत नहीं कहा जाता कि एक बुराई दूसरी को ले कर आती है.

जिन घरों में सालभर शराब का नाम लेना भी गुनाह समझा जाता है उन में भी दीवाली पर शराब तबीयत से छलकती है. यह भी जुए की तरह शान, प्रतिष्ठा और दिखावे की बात हो चली है. जुआरी तो शराब पीते ही पीते हैं लेकिन जो कुछ लोग जुआ नहीं खेलते, वे दीवाली पर गला तर करना नहीं भूलते. यह पैसों की बरबादी का दूसरा तरीका है.

जैसे बचाव में यह कहा जाता है कि जुआ तो दीवाली का शगुन है जो साल में एक बार ही आती है, वैसे ही यह कहा जाने लगा है कि अरे, क्या हुआ जो दीवाली पर पी ली. एक बार ही तो आती है. इस में कोई शक नहीं कि शराब की लत जुए के मुकाबले जल्द लगती है क्योंकि यह अकेले भी पी जा सकती है और आसानी से हर कहीं मिल जाती है. और एक बार इस के फेर में जो आ गया, उसे साथ देने वाले भी आसानी से आसपास ही मिल जाते हैं.

दीवाली पर शराब के बढ़ते चलन को आंकड़ों की शक्ल में देखें तो वे हैरान कर देने वाले हैं. देश की राजधानी दिल्ली में हर सप्ताह लोग 75 करोड़ रुपए की शराब गटकते हैं. लेकिन दीवाली के दिनों में यह आंकड़ा 125 करोड़ रुपए पार कर जाता है यानी 50 करोड़ रुपए की शराब अतिरिक्त बिकती है. यह सिलसिला फिर दिसंबर के आखिर तक चलता है और नए साल के जश्न में भी बेतहाशा शराब बिकती है. दीवाली की ही तरह लोग अब साल के आखिरी दिन भी जुआ खेलते किस्मत आजमाने लगे हैं.

बड़े और बी श्रेणी के शहरों में दीवाली से ही पार्टियों का भी सिलसिला शुरू हो जाता है, जिन में समारोहपूर्वक जुआ खेला जाता है और शराब पी जाती है. नई चिंता और हैरानी की बात कई महफिलों में कौलगर्ल्स को बुलाना भी हो चली है यानी एक तीसरी बुराई आकार ले रही है.

दीवाली पर शराब की बिक्री के लिहाज से देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का हाल भी दिल्ली की तरह ही रहा था. साल 2018 की दीवाली के 5 दिनों में लखनऊ वालों ने 15 करोड़ रुपए की शराब गटक डाली थी, जोकि अपनेआप में रिकौर्ड है. दीवाली के दिन ही 1 करोड़ 40 लाख रुपए की तो अकेली बियर ही बिकी थी. मशहूर पर्यटन स्थल नैनीताल में पिछली दीवाली पर 5 करोड़ रुपए की शराब बिकी थी, जो औसत से 2 करोड़ रुपए ज्यादा थी. यानी पर्यटक भी दीवाली का जश्न जुए और शराब में डूब कर मनाते हैं. मध्य प्रदेश के हिल स्टेशन पचमढ़ी के एक नामी होटल के मैनेजर की मानें तो दीवाली पर पर्यटक जम कर जुआ खेलते हैं और छक कर शराब पीते हैं.

दरअसल, दीवाली पर शराब पीना भी एक कर्मकांड बनता जा रहा है. अब तो इसे बड़े पैमाने पर बतौर गिफ्ट दिया और लिया भी जाने लगा है. मिठाई के पैकेटों की जगह शराब के गिफ्ट पैकेट चलन में आ गए हैं जिन्हें पा कर हर कोई खुश हो उठता है. यह एक तरह की घूस ही है जो अफसरों और नेताओं को खुश करने को दी जाती है.

लखनऊ शराब एसोसिएशन के महामंत्री कन्हैयालाल की मानें तो शराब के गिफ्ट पैक अब आसानी से शराब की दुकानों में ही मिलने लगे हैं जिन की कीमत 5 से ले कर 15 हजार रुपए तक होती है. ये गिफ्ट पैक बड़े आकर्षक होते हैं जिन में आकर्षक गिलास, ताश की महंगी गड्डी और ब्रैंडेड सिगरेट के पैकेट्स, कीमती पैन व कीरिंग भी रखे होते हैं.

हर शहर का यही हाल है और गांवदेहात भी दीवाली पर शराब की बढ़ती बिक्री व चलन से अछूते नहीं हैं. भोपाल के नजदीक बैरसिया कसबे के एक शराबविक्रेता की मानें तो दीवाली पर वे लोग भी शराब पीने लगे हैं जो सालभर इस से परहेज करते हैं. ऐसा क्यों, इस सवाल का जवाब विक्रेता के पास नहीं है सिवा इस के कि दीवाली है और लोग इसे अपने तरीके से मनाना चाहते हैं. आसपास के गांवों के लोग साप्ताहिक बाजार यानी हाट से दीवाली के नए कपड़े, पूजापाठ की सामग्री और पटाखों के अलावा शराब की बोतलें भी खरीद कर ले जाने लगे हैं.

बरबादी नहीं तो क्या

कोई वजह नहीं कि दीवाली पर जुए और शराब के बढ़ते चलन पर चिंता न जताई जाए जिन के चलते हर वर्ग के लोग बरबाद हो रहे हैं. दीवाली मनाने के ये नए तरीके कल को कितने महंगे पड़ने वाले हैं, इस का अंदाजा किसी को नहीं, और जिन्हें है वे इन पर से आंखें बंद किए बैठे हैं.

ऐसा नहीं कि जुए और शराब की लत के नतीजे लोगों को नजर न आते हों. प्रकाश, उल्लास और दीपों के इस त्योहार पर अपराधों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. जुए की फड़ों पर जम कर हिंसक वारदातें होती हैं और शराब के नशे में भी लोग अपराध करते हैं.

यानी दीवाली के माने वाकई अफसोसजनक और नुकसानदेह तरीकों से बदल रहे हैं. खुशी कहनेभर की बात रह गई है, नहीं तो वक्त और पैसा बरबाद करती यह दीवाली दुखी ज्यादा करती है.

और इन से बचाने के लिए कोई ऊपर से नहीं आएगा बल्कि लोगों को खुद गंभीरतापूर्वक इस पर विचार करना होगा कि त्योहार मनाने के ये कौन से तरीके हैं कि जुए की फड़ पर बैठे पैसा लुटा आएं और फिर नशे में झूमते कहीं भी लुढ़क जाएं. अगर यही दीवाली के अर्थ रह गए हैं तो फिर अनर्थ क्या होगा? द्य

अंधविश्वास भी कम नहीं

जुआ तो अपनेआप में एक बुराई है ही लेकिन तरस और हैरानी की एक और बात है जुए में पैसे जीतने, टोनोंटोटकों, तंत्रमंत्र और पूजापाठ का सहारा लेना. किसी भी शहर में देख लें ऐसे बाबा मिल ही जाएंगे जो जुए में जीत के लिए यजमान से तगड़ी दक्षिणा झटक उसे कोई ‘हीम कलीम फट’ टाइप का मंत्र थमा कर खासी कमाई बिना जुआ खेले ही कर लेते हैं.

भोपाल के अशोका गार्डन इलाके के एक बाबा या फकीर, कुछ भी कह लें, के पास दीवाली के दिनों में खासी भीड़ उमड़ती है, क्योंकि यह ठग एक सिद्ध अभिमंत्रित तावीज देता है जिसे पहन कर दीवाली का जुआ जीतने की गारंटी रहती है. यह और बात है कि यह गारंटी वैसी ही होती है जैसी यह कि मिनटों में कोई भी औरत आप की गुलाम हो जाएगी या क्रूर से क्रूर पति भी पत्नी के पांवों में लोट लगाने लगेगा. यह बाबा सवा सौ रुपए से ले कर 11 हजार रुपए तक के तावीज दे कर उन से, उन की पावर यानी यजमान की हैसियत के मुताबिक, खूब लक्ष्मी बटोरता है.

दीवाली पर सब से ज्यादा शामत बेचारे उल्लू नाम के शिकारी पक्षी की हो आती है जो लक्ष्मी का वाहन है. उल्लू से जुड़ा अंधविश्वास यह है कि दीवाली की रात इस की बलि देने से धन की कमी नहीं रहती. अब तो दीवाली के दिनों में उल्लू 50 हजार रुपए तक में बिकता है.

राजस्थान के कुछ शिकारियों ने तो उल्लू विक्रय को पूरी इंडस्ट्री ही बना रखा है. ये लोग ज्यादा उल्लुओं के लिए उन का प्रजनन भी करवाते हैं. यहां से देशभर में मांग के मुताबिक उल्लू सप्लाई किए जाते हैं. यजमान को मिले न मिले लेकिन तांत्रिक पूजा कराने वाले पंडित को जरूर मोटी लक्ष्मी दक्षिणा की शक्ल में मिल जाती है.

तंत्र साधना के लिए कुख्यात दीवाली की रात तो छोटेबड़े तात्रिकों की चांदी हो जाती है. इन के यजमान झुग्गीझोंपडि़यों से ले कर आलीशान इमारतों तक में हैं जो मनोकामना पूर्ति के लिए तरहतरह की तांत्रिक पूजा करवाते हैं. श्मशान साधना के लिए भी दीवाली की रात मुफीद मानी जाती है. इस रात इतने बेहूदे क्रियाकलाप होते हैं जिन्हें देख लगता नहीं कि हम किसी सभ्य या आधुनिक समाज में रहते हैं.

तरस तो लोगों पर उस वक्त भी आता है जब वे दीवाली की रात अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जाहिलों से भी गईगुजरी हरकतें करते हैं. दीवाली की रात किसी दूसरे के घर के जलते दीये से तेल चुरा लो तो चर्म रोग नहीं होते, दीवाली की रात छिपकली देखने से सालभर सब अच्छा होता है और दीवाली की रात काजल लगाने से आंखें कभी खराब नहीं होतीं जैसे अंधविश्वास के शिकार वे लोग भी हैं जो खुद को बुद्धिमान और तार्किक कहते हैं. लेकिन इन की हकीकत दीवाली की रात खूब उजागर होती है जब ये भी दीवाली के टोनोंटोटकों और अंधविश्वासी हरकतें करने से खुद को रोक नहीं पाते, फिर जुए में जीत के लिए मंत्र और तावीज के अंधविश्वासों की बिसात क्या.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें