दीवाली को सिर्फ एक दिन बाकी था. सोसाइटी के ज्यादातर घरों का रंगरोगन और लाइटिंग हो गई थी और लोग दीवाली की तैयारी में इधरउधर चक्कर लगा रहे थे. मिठाइयों की महक से भरी सोसाइटी में जबतब पटाखे के धमाके भी सुनाई दे रहे थे. चारों तरफ हलचल मची हुई थी, सब जगह खुशी का माहौल था. इस सारे कोलाहल के बीच कालोनी का एक घर चुप्पी साधे खड़ा था. वह था मिनी, रिनी व बबलू का घर. तीनों बच्चे बारबार बालकनी में जा खड़े होते और सोसाइटी की रौनक देख कर ठंडी आहें भरते, ‘काश, मम्मी और पापा आते और हम भी दीवाली मनाते.’

उन के पापा 5 दिन पहले कार दुर्घटना में घायल हो कर अस्पताल में भरती हुए थे और अभी तक अस्पताल में थे. उन की देखरेख करने के लिए मम्मी भी वहीं थीं. इतने दिन तीनों बच्चों ने किसी तरह घरबार संभाल लिया था. खाना बना कर खाना, स्कूल ले जाना आदि वे खुद करते लेकिन अब मम्मी और पापा के बिना वे त्योहार कैसे मनाते?

‘‘अब मम्मी व पापा शायद दीवाली के बाद ही आएंगे,’’ रात को खाना खाते वक्त रिनी और बबलू ने मिनी से कहा.

‘‘हां...’’ मिनी ने भी उदास हो कर कहा, ‘‘शायद डाक्टर ने पापा को घर जाने की इजाजत न द होगी.’’

रिनी और बबलू ने एकदूसरे का चेहरा देखा और चुप रह गए. अस्पताल नजदीक होता तो वे कभी के जा कर सारा हाल जान आते. पर अस्पताल घर से दूर था और वे दूसरों की मदद के बिना जा भी नहीं सकते थे. इन 5 दिनों में वे सिर्फ एक बार मम्मी व पापा से मिल पाए थे. सिर झुका कर खा रहे रिनी, बबलू को देख कर मिनी सोच में पड़ गई. पापा व मम्मी की अनुपस्थिति के कारण इन दिनों उन में कितना भारी परिवर्तन हो आया था. पहले बातबात पर लड़नेझगड़ने पर उतरने वाले अब कैसे एक हो गए थे. इन 5 दिनोंमें एक बार भी उन के बीच जरा भी नोकझोंक नहीं हुई थी. पापा और मम्मी होते तो अब घर में कितनी खुशी छाई होती. कितने पटाखे आते, कितनी मिठाइयां बनतीं, और अब इस तरह गुमसुम रहने वाले रिनी व बबलू कितना ऊधम मचाते. अपने छोटे भाईबहन को देखतेदेखते मिनी अचानक किसी निर्णय पर पहुंच गई.

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