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भगवन, तेरी कृपा बरसती रहे : भाग 1

आज सुबह से ही पंडित दयाशंकर बहुत बेचैन थे. उन की समझ में ही नहीं आ रहा था कि कहांक्या गड़बड़ हो गई भगवन की पूजा में या फिर आज के सारे यजमान दिल की जगह दिमाग से काम लेने लगे हैं जो गत पूरे महीने से उन के पास कहीं से कोई न्योता नहीं आया. वैसे तो हर दूसरे तीसरे दिन ही नामकरण, गृहप्रवेश, सत्यनारायण की कथा या फिर सुंदरकांड के लिए उन के पास निमंत्रण आते ही रहते हैं जिन्हें वे बड़ी ख़ुशीख़ुशी मैनेज भी कर लेते हैं. इन आयोजनों से उन की रोजीरोटी बड़े मजे से चलती रहती है. पर इस बार तो अति ही हो गई. पूरा महीना होने को आया किसी ने कुछ करवाया ही नहीं.

यों तो रोज ही वे 3 सोसाइटियों के मंदिर में सुबहशाम पूजापाठ करने जाते हैं जिस की उन्हें हर माह 8 हजार रुपए प्रति सोसाइटी के हिसाब से तनख्वाह मिलती है. सो, 24 हजार रुपए कुल तनख्वाह और ऊपर से चढ़ावे के तीनों सोसाइटीयों से 3 से 4 हजार रुपए तक आ जाया करते हैं पर असली कमाई तो यजमानों द्वारा घर बुला कर पूजापाठ करवाने से होती है जिस में वीवीआईपी ट्रीटमैंट, बढ़िया खाना, दानदक्षिणा और फलमेवा आदि मिलते हैं. यही सब सोचतेसोचते उन की आंख लगी ही थी और जब तक कि वे गहरी निद्रा में जा पाते तभी उन के मोबाइल की घंटी बज उठी. उन्होंने फोन उठाया तो सोसाइटी की ही एक निवासी मिसेज गुप्ता का फोन था.

“कैसे हैं पंडितजी? हम लोग कुछ दिनों पूर्व ही कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर लौटे हैं, सोच रहे हैं कि कथा करवा लें. आप बताइए, कब करवाना ठीक रहेगा?”

पंडितजी एकदम बैड पर उचक कर उकडूं बैठ गए और उन के होंठों पर स्निग्ध मुसकान फ़ैल गयीई. जिह्वा पर दसियों व्यंजनों का स्वाद छाने लगा. मन ही मन भगवन को धन्यवाद देते हुए उन्होंने स्वयं को संयत किया और सुमधुर स्वर में बोले,

“नमस्कार भाभीजी, कैसी रही आप की यात्रा? यह तो बहुत बढ़िया विचार है आप का. किसी भी तीर्थ की पूर्ति तब तक नहीं होती जब तक कि सत्यनारायनजी की कथा न करवाई जाए, कब करवाना है, भाभी जी?”

“इसीलिए तो आप को फोन किया है, आप बताइए कब का मुहूर्त ठीक रहेगा? वैसे हमें संकोच हो रहा था आप को फोन करते हुए क्योंकि आप की अभी 15 दिनों पहले ही शादी हुई है न. पर हम ने सोचा, पहले आप से पूछ लें. यदि आप फ्री नहीं होंगे तो फिर दूसरे पंडितजी को बुलाएं.”

 

सघन बागबानी : कमाई का दमदार जरिया

कमाई का दमदार जरीया खेतीबागबानी की जमीन बढ़ती जनसंख्या के साथसाथ लगातार घट रही है, ऐसे में लंबेचौड़े इलाके में खुलेआम बाग लगाना घाटे का सौदा है. हालात से निबटने के लिए सघन बागबानी अपनाने में ही बागबानों व देश की भलाई है फल इनसानों के लिए सभी जरूरी पोषक तत्त्वों से भरपूर होते हैं. वर्तमान में फलों की पैदावार में देश का दूसरा स्थान है. आजादी के बाद देश का फल उत्पादन 6 गुने से भी अधिक बढ़ा, मगर देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए इसे और बढ़ाने की जरूरत है. इस समय देश में फलों के पेड़ों को लगाने की जो परंपरा है,

वह ज्यादा जगह लेने के साथसाथ ज्यादा समय भी ले रही है. इन समस्याओं से नजात पाने के लिए वर्तमान में हाईडैंसिटी प्लांटिंग (एचडीपी) यानी सघन बागबानी एक दमदार जरीया साबित हुई है. इस से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन और लाभ लिया जा सकता है. क्या है सघन बागबानी यह फलों के पेड़ लगाने की नई तरकीब है, जिस का मतलब है प्रति इकाई क्षेत्र में अधिकतम पैदावार लेने के लिए कम अंतर पर फलों के पेड़ों को लगाना. इस विधि में जमीन का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने के लिए पौधों को उन के क्रांतिक अंतर पर रोपा जाता है. बहुत से देशों में आम, सेब, आड़ू व संतरा वगैरह फलों में इस विधि के जरीए सामान्य विधि के मुकाबले 5 से 10 गुना ज्यादा उपज हासिल की जा रही है.

खास बात यह है कि भारत में बागबानी क्षेत्र को बढ़ाने के साथसाथ उस के उत्पादन में इजाफा करने के लिए वर्ष 2005-2006 से चलाए जा रहे राष्ट्रीय बागबानी मिशन के तहत सघन बागबानी को पूरा बढ़ावा व सहयोग दिया जा रहा है. भारत में इस तकनीक का इस्तेमाल प्राय: आम, अमरूद, नीबूवर्गीय फलों, सेब, केला, पपीता, अनार, नाशपाती, अनानास वगैरह में किया जा रहा है. उत्तर भारत के राज्यों में आम, अमरूद और नीबूवर्गीय फलों में सघन बागबानी बहुत ही सफल साबित हुई है. सघन बागबानी में ध्यान रखने वाली बातें जल्दी फल व अधिक उपज देने वाली प्रजातियां : फलों की अधिक बढ़ने वाली जातियों के मुकाबले कम बढ़ने वाली जातियां सघन रोपण के लिए ज्यादा अच्छी होती हैं. जैसे कि आम की आम्रपाली, अमरूद की लखनऊ 49 (सरदार), सेब की सुपर गोल्डन प्रजातियां. इसी प्रकार जल्दी फल व अधिक उपज देने वाली प्रजातियों का चयन करना चाहिए. छोटे मूलवृंत वाले पौधे?: नाटे बहुभू्रणीय मूलवृंत छोटे आकार के पौधे तैयार करने के लिए ज्यादा अच्छे होते हैं.

नाटे मूलवृंतों पर फलों की व्यावसायिक जातियां ग्राफ्ट करने से छोटे आकार के पौधे तैयार होते हैं. उपजाऊ मिट्टी : फलों के पेड़ों के सघन रोपण के लिए अच्छी उपजाऊ मिट्टी की जरूरत होती है, क्योंकि इस विधि में प्रति इकाई क्षेत्र में अधिक पेड़ों को लगाया जाता है, इसीलिए जमीन से अधिक मात्रा में तत्त्व लिए जाते हैं. अच्छी आबोहवा : तापमान, रोशनी, बारिश, वातावरण की नमी और वायु वगैरह आबोहवा के खास कारक हैं, जो फलों के पेड़ों के लगाने के अंतर को प्रभावित करते हैं. सघन बागबानी के लिए, बाग लगाने वाले क्षेत्र में सही तापमान व रोशनी का भरपूर मात्रा में होना जरूरी है. इस के अलावा बारिश की मात्रा, वातावरण की नमी और हवा का असर भी जरूरत के हिसाब से होना चाहिए.

सिंचाई : जिन क्षेत्रों में सिंचाई का सही इंतजाम नहीं है और बारिश भी जरूरत के मुताबिक नहीं होती है, वहां सघन बागबानी करना मुनासिब नहीं है, क्योंकि प्रति इकाई क्षेत्र ज्यादा पेड़ होने के कारण ज्यादा मात्रा में पानी की जरूरत होती है. सघन बागबानी में सिंचाई का ड्रिप तरीका अधिक मुफीद साबित हुआ है. साधारण बागबानी के मुकाबले सघन बागबानी में पेड़ों की सही बढ़वार के लिए अधिक कटाई की जरूरत होती है. शुरुआती सालों में फल के पेड़ों का ढांचा बनाने के लिए और बाद के सालों में पेड़ों को उपजाऊ बनाने के लिए कटाई व सधाई की जाती है.

सघन बागबानी के फायदे

* प्रति इकाई पेड़ों की संख्या अधिक होने के कारण उत्पादन भी अधिक.

* जल्दी फल उत्पादन.

* पौधों का आकार छोटा होने के कारण बागों की देखरेख में आसानी.

* कम मजदूरों की जरूरत. * कम उत्पादन लागत.

* कम जगह में अधिक पैदावार मुमकिन.

सघन बागबानी की जानकारी का जरीया : चूंकि सघन बागबानी के लिए काफी तकनीकी जानकारी की जरूरत होती है, लिहाजा, शुरुआत करने से पहले बेहतर होगा कि इस के माहिरों से जरूर मिलें.

इस के लिए आप अपने जिला उद्यान अधिकारी या कृषि विज्ञान केंद्र के उद्यान विशेषज्ञ से संपर्क कर सकते हैं. इस के अलावा नजदीकी कृषि विश्वविद्यालय या उत्तर प्रदेश स्थित केंद्रीय उपोष्ण बागबानी संस्थान से भी संपर्क कर सकते हैं.

पश्चाताप-भाग 3: क्या जेठानी के व्यवहार को सहन कर पाई कुसुम?

मधु ने आंखें बंद कर लीं. आंखों से आंसू गिरने लगे. पुरानी बातें एकएक कर उस के जेहन में उभरने लगीं. अपने बच्चों की नजरों में इतनी नीचे गिर कर कैसे जिएगी वह… सच में कुसुम ने तो कभी भी उस से ऊंचे स्वर में बात भी नहीं की थी. उस ने हमेशा कुसुम को बात सुनाया. उस के मधुर व्यवहार का उपहास उड़ाया.  उस पर इतना गंदा इल्जाम लगाया.

तभी बगल वाली बुजुर्ग महिला की सांसें उखड़ने लगीं. डाक्टरों की टीम आई और उस महिला को आईसीयू में ले जाया गया. उस का बेटा भी पीछेपीछे तेजी से निकल गया.  इस सारे घटनाक्रम के फलस्वरूप मधु के दिमाग पर एक अजीब सा सदमा लगा था.

वह बैठीबैठी चीखने लगी. उसे लगा जैसे कुसुम शरीर छोड़ कर बाहर आ गई है और उस की तरफ हिकारत भरी नजरों से देखती हुई दूर जा रही है. मधु को एहसास हुआ जैसे वह पूरी तरह अकेली हो गई है. सब उस पर हंस रहे हैं. वह जोरजोर से रोने लगी. रोतीरोती बेहोश हो गई. जब आंखें खुलीं तो खुद को बैड पर पाया. पास में डाक्टर खड़े थे. दूर पति भी खड़े थे. उस ने तुरंत अपनी आंखें बंद कर लीं. वह अंदर से इतना टूटा हुआ महसूस कर रही थी कि उसे पति से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

तभी उस ने सुना कि डाक्टर उस के देवर से कह रहे थे कि कुसुम की सर्जरी करनी पड़ेगी. सर्जरी, दवा और हौस्पिटल के दूसरे खर्च मिला कर करीब ₹15-20 लाख तो लग ही जाएंगे पर कुसुम को ठीक करने के लिए यह सर्जरी करानी बहुत जरूरी है.

डाक्टर की बात सुन कर देवर काफी परेशान दिख रहा था. मधु जानती थी कि उस के देवर के पास अभी ₹2- 3 लाख से अधिक नहीं हैं. हाल ही में उस ने अपनी सास की हार्ट सर्जरी में करीब ₹10 लाख लगाए थे और वह खाली हो चुका था.

मधु हिसाब लगाने लगी कि उस के पति के पास भी ₹4-5 लाख से ज्यादा नहीं निकल सकेंगे. वैसे भी दोनों भाईयों ने अपनी आधी से ज्यादा जमापूंजी बिजनैस में जो लगा रखी थी.

तभी मधु को अपने जेवर का खयाल आया. कुल मिला कर ₹7-8 लाख के जेवर तो थे ही उस के पास. बाकी के रुपए कहां से आएंगे, वह इस सोच में डूब गई. तब उसे अपनी बड़ी बहन का खयाल आया. उस से थोड़े जेवर ले सकती है. कुछ रुपए अपने भैया से उधार भी मिल सकते हैं.

डाक्टर के जाने के बाद दोनों भाई आपस में बातें करने लगे. छोटे ने उदास स्वर में कहा,”भैया, डाक्टर तो इलाज के लिए इतना लंबाचौड़ा खर्च बता रहे हैं. कहां से लाऊंगा मैं इतने रुपए?”

“हां अमन, इतने रूपए तो मेरे पास भी नहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करें.”

तभी बैड पर लेटी मधु उठ बैठी और बोली,” देवरजी आप चिंता न करो. रुपयों का इंतजाम मैं करूंगी. आप बस डाक्टर को सर्जरी के लिए हां बोल दो और 2 दिनों की मुहलत ले लो.”

“मगर भाभी आप 2 दिनों के अंदर रूपए कहां से ले आएंगी?”

“देवरजी मेरे गहने किस दिन काम आएंगे? फिर भी रूपए कम पड़े तो दीदी या मां के जेवर भी मिला लूंगी. मेरे भैया से कुछ कैश रूपए भी मिल जाएंगे.”

मधु की बात सुन कर देवर मना करने लगा. मधु के पति ने भी टोका,”मधु उन से रूपए लेना ठीक होगा क्या? और फिर तुम्हारे जेवर… तुम तो कभी उन्हें हाथ तक नहीं लगाने देती थीं. अपने जेवर तो तुम्हें जान से प्यारे थे.”

“प्यारे तो हैं पर कुसुम की जान से प्यारे नहीं,” मधु ने कहा तो दोनों भाई उसे आश्चर्य से देखने लगे.

मधु ने 2 दिन के अंदर ही ₹20 लाख इकट्ठे कर लिए. कुसुम की सर्जरी हो गई. सर्जरी सफल रही.
15 दिन अस्पताल में रहने के बाद कुसुम घर आ गई. अब भी उसे काफी कमजोरी थी. इस दौरान करीब 1 महीने तक मधु ने पूरे दिल से कुसुम की सेवा की. अपने बच्चों के साथ कुसुम की बेटी को भी संभाला. इस भागदौड़ में मधु का वजन काफी कम हो गया.

एक दिन कुसुम से मिलने उस की बहन आई तो उस ने मधु को आश्चर्य से देखते हुए कहा,”अरे मधु दीदी तुम्हारा वजन तो आधा रह गया.”

इस पर हंसती हुई मधु बोली,”हम दोनों जेठानीदेवरानी का वजन मिला लो तो उतना ही वजन मिल जाएगा, जितना पहले मेरा हुआ करता था.”

यह सुन कर कुसुम की आंखें खुशी से भीग उठीं और वह उठ कर मधु को गले से लगा ली. दोनों लड़के भी प्यार से अपनी मां की तरफ देखने लगे.

मुझे अहसास हुआ जैसे कि मुझे ऑस्कर अवार्ड मिल गया हो- अभिनेता संजय मिश्रा

1989 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय की पढ़ाई कर मुंबई पहुंचे अभिनेता संजय मिश्रा ने काफी संघर्ष किया. कुछ टीवी सीरियलों में छोटे किरदार निभाकर अपने अभिनय की ऐसी पताका फहराई की 1995 से वह फिल्मों में व्यस्त हो गए. फिल्मों में हास्य कलाकार के रूप में उनकी पहचान बनीं. मगर वह फिल्म दर फिल्म अभिनय के नित नए आयाम रचते रहे.

2015 में आयी फिल्म ‘‘आंखों देखी’’ में गंभीर किरदार निभाकर अपने अभिनय को एक नया आयाम दिया. उसके बाद वह एक तरफ हास्य किरदार निभाते रहे तो दूसरी तरफ ‘कड़वी हवा’ सहित कुछ फिल्मों में गंभीर किरदार निभाकर लोगों को आश्चर्य चकित करते रहे. अब उन्होंने निर्देशक जसपाल सिंह संधू और राजीव बरनवाल की फिल्म ‘‘वध’’ में एक बुजुर्ग का किरदार निभाकर अपने अभिनय में एक नया अध्याय जोड़ा है.

संजय मिश्रा का दावा है कि वह इस किरदार के लिए बने ही नही है. अब तक इस तरह का किरदार निभाया भी नही है. मजेदार बात यह है कि फिल्म ‘‘वध’’ में उनका किरदार शंभूनाथ मिश्रा ‘‘मनोहर कहानियां’’ पढ़ने का शौकीन है, जिस पत्रिका को पढ़ने का संजय मिश्रा को निजी जिंदगी में भी शौक रहा है.

 

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हाल ही में संजय मिश्रा से उनके घर पर हुई एक्सक्लूसिव बातचीत इस प्रकार रही. . .

आपका तीस वर्ष का एक लंबा कैरियर रहा है. इस पूरे करियर को आप किस तरह से देखते हैं.

-30 साल सिर्फ करियर ही नहीं था, जिंदगी भी थी. जो अपनी जिंदगी है,जिसमें दोस्त है, भाई है, मां है, बाप है, आप हंै, घर का किराया है, मकान में बाई को भी लगाना है. कैसे कैसे आप अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं और साथ में कैरियर भी चलता रहा है. लेकिन यह सच है कि हम कलाकारो कों ही नही हर इंसान को उसके कैरियर के माध्यम से ही पहचाना जाता है. लेकिन उसके बाद की जो जिंदगी होती है,वह इंसान जीता है. मुझे इन तीस वर्षों ने बहुत कुछ सिखाया. किसी से जुड़ा होना सिखाया. किसी से मिलना सिखाया. किसी से लड़ना सिखाया, किसी से प्यार करना सिखाया. आपने आपको पहचानना सिखाया.

 

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यह वह वक्त है. जैसे अभी बहुत से इंटरव्यू में मुझसे कहा जाता है की नीना गुप्ता जी का पिछले 3 साल एक दौर था,जब उनके पास कोई काम नही था. लेकिन उस न काम होने के दौर में जो उनकी कला में निखार आया है, वह आज दिख रहा है. 30 साल का जो स्ट्रगल है,30 साल में जो निखार आया है, हम लोगों के काम में वह अब दिख रहा है. इस तरह से आप देखें, तो आम इंसान की तरह, हर हिंदुस्तानी की तरह हमारी भी जिंदगी है.

आज काम है, तो परसो नही हैं. और फिर काम आ गया. जब हमारे पास काम आ जाता है,तो जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है. दर्शक की हमसे उम्मीदें बढ़ जाती हैं. वह चाहता है कि हम कुछ अलग तरह से किरदार केा निभाकर दिखाएं. दर्शक हमसे हर फिल्म में एक जैसा अभिनय नहीं चाहता. तो हमने पिछले तीस वर्षों में अपने आपको साबित किया है.

 

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खुद को साबित करना आसान नही होता है. हम कलाकारों पर दोधारी तलवार लटकती रहती है. हमें दर्शकों के अलावा अपने परिवार के सदस्यों व अपने रिश्ते, नातेदार जो होते हैं, उनके सामने भी साबित करना होता है. रिश्तेदार कहते हैं,‘गए थे मुंबई कमाने, क्या उखाड़ लिए. ’ तो उनके सामने भी अपने कदम को सही ठहराने की चुनौती होती है.

मुंबई फिल्म नगरी में अपनी अभिनय क्षमता को साबित करने का अपना एक अलग संघर्ष व चुनौती होती है. तो हमने रिश्तेदारों और अपने समाज के सामने खुद को साबित किया. कुछ लोग ट्वीटर पर लिखकर जवाब देते हैं. पर हम कलाकार हैं. हम अपनी फिल्मों के माध्यम से अपना संदेश देते हैं.

फिल्म ‘‘कड़वी हवा’’ में हमने क्लायमेट का संदेश दिया. संदेश था कि जिंदगी में पानी कम हो रहा है, पानी की बचत कीजिए. कुल मिलाकर मेरी अब तक की अभिनय यात्रा बेहतरीन रही. यह तीस वर्ष अच्छे रहे. हमारे कैरियर में बदलाव आता रहा. कभी हम अपनी फोटो लिए आफिस आफिस भटकते थे. अब लोग अपनी स्क्रिप्ट लिए हमारे आगे पीछे घूम रहे हैं. पहले हम ऑडिशन देते थे.

अब लोग कहते हैं कि उन्होंने मेरे लिए ही यह स्क्रिप्ट लिखी है. तो यह एक अचीवमेंट भी अच्छा लगता है. लेकिन दिमाग नही दौड़ाना चाहिए. दिमाग से वही हैं.

जब आपका कैरियर हास्य कलाकार के तौर पर उंचाइयों पर था, तभी आपके कैरियर में जबरदस्त टर्निंग प्वाइंट रही फिल्म आंखों देखी’, जिसमें आपने गंभीर किरदार निभाकर लोगों को चौंकाया और पुरस्कार बटोरे?

-जब ‘आंखो देखी’,‘गोलू और पप्पू’, ‘अंग्रेजी में कहते हैं’ या ‘कड़वी हवा ’ की तो एक बहुत बड़े पत्रकार ने मुझसे कहा था- ‘संजय जी आप तो गंभीर किरदार में छा गए. तो अब आपके जो हास्य के फैन फालोवअर हैं, उनका क्या होगा?’ तब मैने उन्हे जवाब दिया था कि हम ऐसे फैन्स के लिए जीवन भर काम करेंगे. इसीलिए में आज भी हास्य किरदार निभाता रहता हूं.

नौ दिसंबर को लोग मुझे ‘वध’ में देखेंगें, उसके बाद 23 दिसंबर को ‘सर्कस’ में कॉमेडी करते हुए देखने वाले हैं. देखिए, दोनो तरह के मेरे फैन्स मुझसे अलग अलग अंदाज में मिलते हैं. फिल्म ‘‘आंखों देखी’’ के पहले प्रिव्यू में एक बालक ने खुद को बाथरूम में बंद कर लिया. और बापू जी कह कह कर रो रहा था. हम तो वहां से निकल चुके थे. पर मुझे फोन करके वापस बुलाया गया कि मामला गंभीर हो गया है.

मै वापस आया ओर बाथरूम के दरवाजे पर बालक से मैने कहा-‘‘दरवाजा खोलो, हम संजय मिश्रा, बाबूजी हैं. तब उसने थोड़ा सा दरवाजा खोलकर देखा. फिर बाहर निकलकर मुझसे चिपक कर रोया. ऐसी प्रतिक्रिया मेरी फिल्म ‘‘सर्कस’’ देखने वाले फैंस नहीं देंगे. ‘सर्कस’ देखकर लोग अलग ढंग से रिएक्ट करेंगे. मैं तो अपनी निजी जिंदगी में दर्शक ही हैं.

जब बालक आपसे चिपककर रोया था,तब आपके अंदर के अहसास क्या थे?

-मुझे अहसास हुआ जैसे कि मुझे ऑस्कर अवार्ड मिल गया हो. मैं आपको एक दूसरा ऑस्कर अवार्ड मिलने वाला वाकिया बताना चाहूंगा. मैं अस्पताल में भर्ती था. एक बूढ़ी औरत भी अस्पताल में अपने अंतिम दिन गिन रही थी. उसका लीवर जवाब दे चुका था. उसका चेहरा पीला पड़ चुका था. कई माह से वह जीवन व मृत्यू से संघर्ष कर रही थी. उन दिनों लोग मुझे किरदार के नाम से पहचानते थे, संजय मिश्रा के नाम से कम लोग पहचानते थे. उस औरत को पता चला कि बगल में संजय मिश्रा हैं, तो उसके पति मुझे बुलाने के लिए आए.

मैं छड़ी के सहारे उस महिला के पास गया. उसके पति ने उससे कहा कि देखो कौन आया है. जब वह मेरी तरफ मुड़ी तो मुझे देखकर उसके चेहरे पर जो मुस्कुराहट आयी, वह देखकर मेरे हाथ से छड़ी ही छूट गयी. उसे देखते ही मेरी आंखों से आंसू बहने लगे थे. मौत के बिस्तर पर पड़ी महिला आपकी आंखों में आंखें डालकर मुस्कुरा रही हो, तो इससे बड़ा ऑस्कर अवार्ड क्या हो सकता है?

देखिए,यह इस बात का सबूत है कि लोगों को हमारा काम इतना पसंद आया. तभी तो पं. भीमसेन जोशी या कुमार गंधर्व जैसे महान गायक बनते हैं.

किसी किरदार को निभाने में कलाकार की कल्पना शक्ति और उसके निजी जीवन के अनुभव का योगदान होता है. आप किसी किरदार को निभाते समय इन दोनों में से किसका उपयोग ज्यादा करते हैं?

-जब कलाकार निजी अनुभव और कल्पना शक्ति इन दोनों को जोड़ता है, तभी कलाकार का फार्मूला बनता है. निजी अनुभव बहुत जरुरी है. एक फिल्म थी-‘कड़वी हवा’. फिल्म में सुबह साढ़े सत बजे 35 डिग्री तापमान होता था. दोपहर में 45 डिग्री के बाद लोग व सरकार तापमान देखना बंद कर देती थी. अब वह गर्मी मैं अपने दर्षक को कैसे दिखाउं? उपर से पानी की कमी. यानी कि कड़वी हवा.

बारिश नहीं हो रही है. किसान मर रहे हैं. यहां पर अपना निजी अनुभव व कल्पना शक्ति दोनों काम आया. यदि इस तरह का निजी अनुभव मैं नही लूंगा, तब तक मैं यह बात दर्शक तक नही पहुंचा सकता था. इस फिल्म मे मेरा निजी अनुभव रचनात्मकता के साथ नजर आया.

तो फिल्म वधका किरदार निभाते हुए निजी अनुभव क्या था और कल्पना षक्ति क्या रही?

-इसमें निजी अनुभव मेरे किरदार का नाम ही रहा. फिल्म में मेरे किरदार का नाम है- शंभूनाथ मिश्रा. निजी जीवन में यह मेरे पिता जी का नाम है. जब मेरे पिताजी अपने वरिष्ठ से मिलने जाते थे,तो अक्सर मैं भी उनके साथ होता था. तो वहां पर मुझे ‘वध’ वाले अंकल व आंटी काफी दिखे. अग्रवाल आंटी. . . नहीं भाई हम लहसुन नही खाते. चप्पल पहनकर रसोई में मत आना. टायलेट गए तो हाथ पैर धोकर ही आओ.

उन दिनों राजेंद्र अग्रवाल जी समाचार पढ़ा करते थे. उनकी पत्नी हमारी अग्रवाल आंटी थी. उसी तरह का फिल्म में शंभूनाथ का घर है. उसी तरह की सारी बातें हैं. तो जब मैने किरदार पढ़ा तो मुझे अहसास हुआ कि इन सब को तो मैने देखा है. बस इसी में रचनात्मकता पिरोकर हमने अभिनय कर डाला. हमने इस फिल्म में अभिनय नहीं किया. बल्कि जो देखा हुआ अनुभव था, उसे ही पेश कर डाला.

मैं सही कहना चाहता हूं कि हमारी फिल्म ‘‘वध’’ देखने के बाद यदि किसी बच्चे ने अपने घर पर फोन कर दिया,तो मेरी मेहनत सफल हो गयी. यही मेरे लिए ऑस्कर होगा.

वधके किरदार में आपने अपने पिता की कौन सी बातें डाली हैं?

-मैं उनके जैसा ही परदे पर भी दिखता हॅूं. हर पिता पैसे का हिसाब एक डायरी में लिखता है, उसी तरह से मेरे पिता जी भी लिखते थे. फिल्म में मेरा किरदार भी हिसाब लिखता है.

फिल्म वधमें मनोहर कहानियां पत्रिका एक किरदार के रूप में मौजूद है?

– जी हां! आपने एकदम सही पकड़ा.

क्या आपने इस फिल्म में अभिनय करने से पहले मनोहर कहानियांपढ़ी थी?

-जी हां! बहुत पढ़ी थी. आज से नही बल्कि मुझे लगता है कि मेरे जन्म से पहले से बिहार, दिल्ली, उत्तर प्रदेश सहित हर हिंदी भाषी क्षेत्र, हर पटना व बनारस वाली ट्रेन में, पटना कलकत्ता की ट्रेन में, दिल्ली पटना की ट्रेन में हम सभी के लिए मनोहर कहानियां पत्रिका ही सिनेमा थी.

कम से कम मेरी पीढ़ी के लोग इस बात से सहमत होंगे. मनोहर कहानियां में जिस तरह से लिखते हैं कि उसने लाश को दफनाया… वगैरह हमें सिनेमा जैसा लगता था. मैं बहुत पहले से पढ़ता आया हूं. जब में दिल्ली में एनएसडी में अभिनय की ट्रेनिंग ले रहा था, उस वक्त कनॉट प्लेस की तरफ फुटपाथ पर अखबार व मैगजीन बेचने वाले के पास ठिठक कर स्क्रीन व मनोहर कहानियां ही ढूढते थे. एक बार हाथ में मनोहर कहानियां उठा लेते थे. आज मुझे खुशी है कि मैं ‘मनोहर कहानियां को इंटरव्यू दे रहा हूं.

मनोहर कहानियां पढ़ने वाले बहुत अलग लोग हैं. जिन्हे थ्रिल/रोमांच चाहिए,वह ‘मनोहर कहानियां’ पढ़े बिना रह ही नहीं सकते.

‘दृष्यम’ की सफलता की वजह भी रोमांच है. किसी ने ‘वध’ देखकर कहा कि,‘आप तो एंग्री ओल्ड मैन’ बनते जा रहे हैं. हर इंसान को थ्रिल चाहिए. और ‘मनोहर कहानियांथ्रिल देती है. हम सब इस पत्रिका के पुराने पाठक हैं. क्या इसका कवर होता था. हमारी फिल्म में हमने ‘मनोहर कहानियां’ को प्रमोट नहीं किया है, बल्कि वह हमारी फिल्म की जरुरत है. हमारी फिल्म का एक किरदार है. हम इस फिल्म में ‘धर्मयुग’ पढ़ते हुए नहीं दिखा सकते थे.

वधकी शूटिंग के दौरान जब आपके हाथ में मनोहर कहानियांकी प्रति आयी, तब आपको कौन सी पुरानी यादें याद आ गयी?

-हमने शूटिंग के वक्त पत्रिका के कई अंक उपयोग किए हैं. कुछ अंक तो मैं अपने कमरे में ले गया और पढ़ा. कुछ कहानियां पसंद आयी. एक नौकर के साथ वाली कहानी थी. वास्तव में मनोहर कहानियां में जो कहानी लिखी जाती थी,वह सिनेमैटिक कहानी होती थीं. पढ़ने वाले के सामने वह कहानी फिल्म की तरह उभरती है.

‘वध’ में चार चीजें हैं. पहला पिता पुत्र का रिश्ता है,जहां पुत्र मोह में पिता बर्बाद होता है. दूसरा एक लड़की को बचाने के लिए इंसान किस हद तक जा सकता है. तीसरा पांडे और चौथा पुलिस इंस्पेक्टर शक्ति सिंह का किरदार.

आपको नहीं लगता कि यह सब आज भी समाज का हिस्सा हैं?

-हम जब आठ वर्ष के थे,तब हम पटना में रहते थे. तब दो बड़े लोग बात कर रहे थे कि,‘जानते हो. वह नागमणि था. बीबी को ही काट डाला. फ्रिज में रखा है. तो हमारी फिल्म में जो कुछ दिखाया है,वह हमेषा होता रहा है. मैं कहीं पढ़ रहा था कि पूरे विश्व में ग्यारह मिनट में एक हत्या होती है, खासकर औरतों की. यह महज संयोग है कि हमारी फिल्म उस वक्त आयी है,जब बेचारी श्रृद्धा की निर्मम हत्या हुई है. सिनेमा समाज के साथ चलता रहता है. समाज के लोग ही सिनेमा बनाते हैं. फिल्म में जो कुछ दिखाया गया है और जिस तरह का शंभूनाथ मिश्रा का किरदार है, उसमें वह सब खप जाता है.

फिल्म में शंभूनाथ का बेटा दिवाकर उर्फ गुड्डू जिस तरह से अमरीका जाकर बस गया है. उसी तरह से आज की युवा पीढ़ी काम कर रही है?

-लगता तो ऐसा ही है. मैं यहां पर अपने गांव की बात करना चाहॅूंगा.  मैंकुछ दिन पहले अपने गांव नारायण पुर सकरी गया. मेरे गांव के घर की कहानी व फिल्म ‘वध’ की कहानी एक जैसी ही है. जब हम बच्चे थे,तो वहां जाया करते थे. घर में बड़ा सा आंगन था. कुलदेवी का मंदिर था. दो तीन कमरे थे. धीरे धीरे दादाजी वहां से निकलकर पटना आ गए. दादाजी के बच्चे बड़े होकर दिल्ली व भोपाल मे रहने चले गए. घर अकेला पड़ गया. उस घर में रहने वाले दूसरे शहर चले गए. अब आप जाने वाले को बुरा कहेंगे?

लेकिन अहम सवाल यह है कि जाने वाले जो गए, वह अपने अच्छे भविष्य के लिए दूसरे षहर गए और अपने काम में लगे रहे. हर इंसान अपनी अगली पीढ़ी को आगे बढ़ाना चाहता है. पर वह घर तो अकेला हो गया. इसी तरह षंभूनाथ भी अपने बेटे के अच्छे भविष्य के लिए उसे जाने देता है. पहले दादा जी थे तो वह घर की मरम्मत करवा दिया करते थे. उसके बाद मेरे पापा वगैरह दिल्ली में बस गए. तो वह मरम्मत भी नही हो पा रही है. उसके बाद हम लोग उससे अधिक गए गुजरे. हम लोग कभी इधर तो कभी उधर है.

अब जब में गांव गया तो पाया कि हमारा पुष्तैनी मकान पूरी तह से ‘वध’ के पैरेंट्स की तरह है. बच्चे अपने माता पिता व मकान का ध्यान ही नही दे रहे हैं. तो ऐसे कई बेटे हैं. सवाल है कि इसे आप किस नजरिए से देखते हैं. बेटा के नजरिए से देखें, तो वह सही है. अब बेटे ने हीरोईन से शादी कर ली है,जो आपसे बात नही करना चाहती, उसके पास इतना फालतू समय नही है. वह आज की पीढ़ी है. सारी कहानी उम्मीद पर है.

जब मेरी दूसरी बेटी का जन्म होने वाला था, तब एक पंडित जी ने कहा कि, ‘कृष्ण का बाल रूप आप अपने सोने वाले कमरे में दीवार पर लगाएं, पुत्र ही होगा. तो पुत्र की चाह भी उम्मीद ही है कि बेटा ऐसा करेगा. सभी को पुत्र चाहिए.

जबकि मेरा कहना हे कि पुत्र या पुत्री क्या, वह होगा तो हमारा ही बच्चा. लोग बेटे की चाह इसलिए करते हैं, जिससे बुढ़ापे में बेटी के घर जाकर न रहना पड़े.

अब पूत, सपूत की बजाय कपूत हो जाए तो क्या कर लोगो? उम्मीद जो है, बहुत खतरनाक चीज है. मेरा कहना यह है कि उम्मीद होनी चाहिए, मगर पुत्र मोह में अंधा नही होना चाहिए. लेकिन लोग पुत्र मोह में अंधे होते हैं. हर इंसान को यह भी मानकर चलना चाहिए कि धोखा भी हो सकता है.

देखिए, हम उम्मीद लगाए बैठे हैं कि 23 दिसंबर को जब मेरी फिल्म ‘सर्कस’ आएगी, तो सुपर हिट हो जाएगी. मजा आ जाएगा. बढ़िया हो जाएगा. लोग कहेंगें कि संजय ने हिट फिल्म दे दी. भई,सिनेमाघर में फिल्म हिट नही होती. ओटीटी पर तो सब हिट हो जाती हैं. थिएटर में यदि फिल्म हिट नहीं हुई, तो हम दूसरी फिल्म से उम्मीद लगाना शुरू कर देंगे. यह सिलसिला चलता रहता है.

आपके लिए हास्य या गंभीर किस तरह के किरदार निभाना सहज होता है?

-मैं तो बैट्समैन हूं. मुझे टी 20 और टेस्ट मैच दोनों खेलने में मजा आता है. मेरे लिए हास्य किरदार निभाना ‘टी 20’ खेलने जैसा है.

Bigg Boss 16 : अंकित गुप्ता के पीछे पड़े बिग बॉस, बर्दाश्त नई हो रही ये बात

टीवी का सबसे चर्चित शो बिग बॉस 16 इन दिनों चर्चा मेंं बना हुआ है, इस सीजन को मजेदार बनाने के लिए मेकर्स कोई भी कसर नहीं छोड़ रहे हैं,  इस शो में एक तरफ कंटेस्टेंट को वाइल्ड कार्ड एंट्री करवाई जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ कंटेस्टेंट को बेइज्जति करने का कोई मौका नहीं छोड़ा जा रहा है.

वैसे देखा जाए तो शो में अंकित गुप्ता सबसे शांत कंटेस्टेंट में से एक है, उन्हें इस बात के लिए कई बार कहा जा चुका है,  अंकित का गुस्सा घरवालों पर कई बार फूटा है लेकिन फिर वह शांत हो जाते हैं,

 

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इन हरकतों कि वजह से अंकित बिग बॉस के निशाने पर आ जा रहे हैं, बता दें कि अंकित इन दिनों घर के राजा हैं, लेकिन अंकित को लेकर सभी घरवालें काफी परेशान हैं तो वहीं बिग बॉस बार- बार अंकित को सुनाते रहते हैं कि वह चीजों को अच्छी तरह से नहीं कर रहा हैं.

बीते एपिसोड में बिग बॉस के घर में श्रीजिता ने एंट्री तो ली है लेकिन बिग बॉस ने सभी घरवालों की भी फटकार लगाई है. वहीं श्रीजिता घर में एंट्री लेने के बाद से योगा करना शुरू कर दी हैं. कुछ कंटेस्टेंट को भी योगा करवा रही हैं.

हालांकि जब श्रीजिता बिग बॉस के घर में आई थी, तब भी बिग बॉस के तरफ से अंकित गुप्ता को खूब सुनाया जा रहा था.

 

एक्ट्रेस कामना पाठक बॉयफ्रेंड संग लेंगी सात फेरे, प्लानिंग शुरू

टीवी एक्ट्रेस कामना पाठक अपनी एक्टिंग से अलग पहचान बनाई हैं, हाल ही में उन्होंने सीरियल हप्पु की पल्टन से उन्हें अच्छी कामयाबी मिल रही है. कामना इन दिनों अपनी शादी की तैयारियों में व्यस्त है.

बता दें कि कामना लॉग टाइम से डेट कर रही अपने बॉयफ्रेंड संदीप श्रीधर के साथ शादी के बंधन में बंधने वाली हैं. इन दोनों के शादी की प्री वेंडिग फंक्शन अभी से शुरू हो चुके हैं. और इस बारे में अभिनेत्री ने खुद ही बताया है.

कामना ने एक रिपोर्ट में बताया है कि वह साल 2014 से संदीप को जानती हैं वह दोनों उसी वक्त एक नाटक के दौरान एक दूसरे से मिले थें, जिसके बाद से लेकर अकतक दोनों साथ में हैं, कामना और संदीप की बॉन्डिंग काफी ज्यादा अच्छी है इसलिए यह दोनों अच्छे दोस्त हैं.

दोनों ने कई तरह के वर्कशॉप पर एक साथ काम किया है, दोनों को साथ में देखने के लिए फैंस भी लंबे समय से इंतजार कर रहे हैं.

इसके साथ ही कामना ने एक्साइटेड होते हुए बताया कि वह इन दिनों शादी के फंक्शन में काफी ज्यादा व्यस्त हैं, इसके साथ ही उन्होंने बताया कि उनकी शादी नागपुर से होने वाली है, इसके बाद वह अपने ससुराल प्रयागराज जाएंगी जहां पर कई तरह की रस्में होंगी. लेकिन उन्होंने बताया कि वह शादी के तुरंत बाद कहीं हनीमून पर नहीं जा रही हैं वह जल्ग वापस सेट पर लौट आएंगी

ये प्यार न कभी होगा कम -भाग 5: अनाया की रंग लाती कोशिश

“ठीक है, तुम पीजी में रह लेना, सैटरडे को मैं तुम्हें अपने फ्लैट में शिफ्ट करवा लूंगी, यानी 3 दिन बाद. संडे मेरा औफ होगा, हम साथ में एंजौय करेंगे.”

बिना किसी हंगामे के सौम्या अनाया के इस 2 कमरे वाले किराए के फ्लैट में आ गई थी. यह फ्लैट सौम्या के कालेज के पास ही था, और तीसरे माले पर लगभग सभी सुविधा से पूर्ण था.

इस परिवार की नई जेनेरेशन की एक खासियत थी कि कोई भी एक कुछ निर्णय लेता तो अन्य भाईबहनों को भी आपस की बातचीत में बताया जाता. और सभी भाईबहन सही निर्णय का बिना भेद के समर्थन करते. इस बार भी ऐसा ही हुआ. इधर सौम्या भी घर में बिना बताए रह न सकी. और इस से एक चीज यह अच्छी नहीं हुई कि मितेश को जब यह बात पता चली, तो वे पशोपेश में पड़ गए.

अनाया का सौम्या के प्रति प्रेम देख जहां मितेश गदगद हो गए, वहीं बड़े भाई के न चाहते उन की बेटी भाई की बेटी के पास रहे, यह भी मितेश के लिए तनाव बढ़ाने वाली बात हो गई.

मितेश ने अरुणेश से खुल कर कह दिया कि आप अपनी बेटी से बात कर लो, मेरी इच्छा नहीं है कि आप की बेटी आप की बातों को नजरंदाज कर मेरी बेटी को अपने पास रखे.”

अब इस के बाद ग्वालियर में अरुणेश के घर जो भी खिचड़ी तैयार हुई, उस का सार यह निकला कि शीना ने बेटी अनाया को फोन पर काफी सुनाया, “खुद कमाने लगी हो, तो मांबाप तुम्हारे सामने कुछ हैं ही नहीं. जब तुम्हारे पापा ने चाचा को मना कर दिया था, तो कैसे उठा लाई तुम उसे?”

“जो भी किया सही किया,” उस ने दोटूक कह कर फोन रख दिया.

अरुणेश, जीतेश, शीना और आयशा के न चाहते हुए भी उन के बच्चों का प्रभाव उन की जिंदगी में बढ़ता ही जा रहा था.

अनाया 25 साल की हो गई थी, वह शादी लायक थी और उस ने घर में अभी तक किसी अदद बौयफ्रैंड के बारे में जिक्र नहीं किया था.

अरुणेश उस की शादी के बारे में सोचा ही करते कि ऐन वक्त उन के औफिस में उन के अधीनस्थ कर्मचारी राघव सहाय का बेटा स्कालरशिप होल्डर नेट की परीक्षा पास कर प्रोफैसर में चयनित हो गया.

राघव सहाय की उम्र कोई 59 साल की होगी, रिटायरमेंट को सालभर बाकी, एक बेटी अभी कालेज की पढ़ाई में है, ऐसे में बड़े बेटे का कैरियर तय हो जाना उन के लिए बड़ी राहत की बात थी. राघव इसी खुशी को सब के साथ साझा करने आज औफिस कलीग के बीच मिठाई बांट रहे थे.

बड़े साहब अरुणेश के केबिन में वे एक अलग मिठाई का पूरा डब्बा ले कर आए थे.

राघव अपने मोबाइल में सुरक्षित अपने बेटे की 2 दिन पहले ली गई तसवीर भी सभी को दिखा रहे थे.
अरुणेश ऐसे बौस थे, जिन्हें अपने कर्मचारियों की स्पैशल उपलब्धि खुद की तौहीन सी लगती थी.
मिठाई का डब्बा तो रखवा लिया, लेकिन बधाई कुछ इस तरह दी, “चलो, कुछ तो तीर मारा तुम ने. बढ़िया है. किसी अच्छे कालेज में नौकरी के लिए पैरवी चाहिए तो कहना मुझे.”

राघव बहुत सीधे व सरल इनसान थे, बेटे की खुशी में फूले नहीं समा रहे थे, सोचा, बेटे की तसवीर दिखाएं, तो अरुणेश सर को समझ आएगा कि राघव को देख कर उन के बेटे के बारे में कमतर राय बनाना सही नहीं.

और राघव की यह सोच इतनी खरी होगी, राघव ने सोचा भी नहीं था.

गजब का स्मार्ट, 5 फीट, 11 इंच की हाइट का मनोहारी 26 साल का युवक, जो सिर्फ कैरियर और परिवार के लिए समर्पित था.

अरुणेश जैसे ऊंचे ओहदे के अफसरशाही लोग दामाद कुछ ऐसा पसंद करते हैं, जिस की पर्सनैलिटी ऊंची सोसाइटी में परोसने लायक हो, कैरियर बढ़िया हो और हो बड़ों का आज्ञाकारी.
यह तो बिलकुल ऐसा था, जैसा अरुणेश सोचते थे.

अरुणेश ने तारीफ तो नहीं की, तसवीर देखने के बाद राघव को उसे अरुणेश के मोबाइल में भेजने को कहा.

घर पहुंच कर अरुणेश ने पत्नी शीना से बात की.
“4 साल में मैं रिटायर हो जाऊंगा, और अगर सुविधा बन पड़ी तो बीच में ही रिटायरमेंट ले सकता हूं. अभी बेटी की शादी की जुगत करूं तो जो धूम होगी, जो प्यादे लावलश्कर का हुजूम पीछे आएगा वो रिटायरमेंट के बाद कहां…? तब तो दस बुलाओ तो एक मुश्किल से झांकने आए. फिर यह लड़का पूरी तरह जम गया है मुझे. जैसा दामाद चाहिए था मुझे, यह वैसा ही है. अपनी अनाया के साथ इस की अच्छी जोड़ी रहेगी. 5 फीट और 5 इंच हाइट और गोरी सुंदर मौडल बेटी के लिए अच्छा है लड़का.

“फिर हमारी बेटी की यह फितरत नहीं कि ससुरालियों के आगे दुम हिलाए. लड़के का बाप हमारे अधीन काम करता है, रिटायरमेंट के लिए उस के सारे कागजात पर मेरे ही हस्ताक्षर चाहिए, अड़ंगा लगा दूं तो रोता फिरे. इसलिए जो मैं कहूंगा वही होगा. फिर इस की बेटी और पत्नी भी बिलकुल सीधी है, मैं जानता हूं, इसलिए मेरी बेटी के इशारों पर वे आराम से चलेंगी.”

शीना को अरुणेश की सारी बात अच्छी तरह समझ आ गई थी. उस ने उत्साहित हो कर कहा, “ये तो वाकई अच्छा है, हम लड़के को मुंबई में किसी बेहतर औपर्च्युनिटी में भेज सकते हैं.”

“अनाया को लड़के की तसवीर भेजता हूं, वो जब खाली रहेगी, उस से बात कर लेना. और सुनो, बात ऐसे करना कि वो आराम से राजी हो जाए. पिछली बार के सौम्या केस की तरह उस से कुछ भी बोल कर मत बैठ जाना.”

 

धरा – भाग 1: धरती पर बोझ नहीं बेटियां

“डाक्टर से 4 दिन बाद का अपौइंटमेंट ले लेता हूं,” चाय का घूंट भरते हुए अरुण ने कहा, तो शिखा का कलेजा धक्क से रह गया.

“एक काम करो, जल्दी से नाश्ता तैयार कर दो. औफिस जाते समय हो सकेगा तो डाक्टर से मिल कर कल या परसों का ही समय ले लूंगा, क्योंकि यह काम जितनी जल्दी निबट जाए, अच्छा है.“

“हां, वो तो ठीक है अरुण… पर, एक बार ठंडे दिमाग से सोच कर देख लेते कि कहीं हम…”

“अब इस में सोचना क्या है…?” शिखा की बात को बीच में ही काटते हुए अरुण बोला, “वैसे भी कितनी मुश्किल से तो एक डाक्टर मिला है, और तुम्हें और वक्त चाहिए. यह काम तो उसी दिन हो जाता, पर तुम्हें ही वक्त चाहिए था. पता है न, इन सब कामों में रिस्क कितना बढ़ गया है. नौकरी पर तो आफत आएगी ही, जेल भी हो सकती है. लेकिन, जो भी हो, यह तो करवाना ही पड़ेगा. मां सही ही कह रही हैं कि जितनी जल्दी इस समस्या से छुटकारा पा लें, अच्छा है.“

“पर, अरुण…”

“क्या, पर…? कहना क्या चाहती हो तुम? पता है न, सिर्फ तुम्हारी मूर्खता के कारण आज 3-3 बेटियां पैदा हो गईं. लेकिन, इस बार कोई मूर्खता नहीं करूंगा मैं, क्योंकि मुझ में अब और बोझ उठाने की ताकत नहीं है,” भुनभुनाता हुआ अरुण अखबार में आंखें गड़ा दिया कि तभी ढाई साल की प्यारी से जूही ‘पापापापा’ कर उस की गोद में चढ़ने की कोशिश करने लगी. लेकिन अरुण ने बड़ी निर्दयता से उसे परे धकेल दिया और उठ कर कमरे में चला गया.

अरुण का व्यवहार देख शिखा की आंखों से दो बूंद आंसू टपके और रोती हुई बच्ची को गोद में उठा कर वह भी अरुण के पीछेपीछे कमरे में आ गई.

“अरुण… एक बार सोच कर देखो न, अगर यह बेटा होता तो क्या उस की जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती तुम्हें ?” बोलतेबोलते शिखा की आवाज भर्रा गई, “अरुण, यह भी तुम्हारा ही खून है न. और क्या पता, कल को यही बेटी तुम्हारा नाम रोशन करे. अरुण, एक बार फिर से सोच कर देखो,” शिखा गिड़गिड़ाई. लेकिन अरुण यह बोल कर बाथरूम में घुस गया कि ज्यादा भावना में बहने की जरूरत नहीं है. और बच्चे को सिर्फ जन्म देने से ही सबकुछ नहीं हो जाता, पालने के लिए पैसे भी चाहिए होते हैं. इसलिए ज्यादा मत सोचो, वरना हम फैसला लेने में कमजोर पड़ जाएंगे.

अरुण के तर्कवितर्क के आगे शिखा की एक न चली. सोनी और मोही को स्कूल भेज कर वह जल्दीजल्दी अरुण के लिए नाश्ता बनाने लगी.

औफिस जाते समय रोज की तरह प्यारी सी जूही जब पापा का लंच बौक्स ले कर लड़खड़ाते कदमों से ‘पापापापा’ करने लगी, तो अरुण को उसे गोद में उठाना ही पड़ा. लेकिन, जैसे ही मां सुमित्रा पर उस की नजर पड़ी, जूही को गोद से उतार कर फिर वही हिदायत दे कर घर से निकल पड़ा. हाथों में पूजा का थाल लिए जिस तरह से सुमित्रा ने शिखा को घूर कर देखा, वह सकपका कर रह गई.

अरुण को औफिस भेज कर वह जूही को दूध पिला कर सुलाने की कोशिश करने लगी. जानती थी, सुमित्रा को मंदिर से आने में घंटाभर तो लगेगा ही. रोज ही ऐसा होता है. मंदिर में पूजा के बाद भजनकीर्तन कर के ही वे घर लौटती हैं. लेकिन, ये कैसी पूजा है? जहां देवी की पूजा तो होती है, लेकिन वहीं एक अजन्मी बच्ची को, जिसे देवी का रूप कहा गया है, मां के पेट में ही मारने का फरमान सुना दिया गया. हां, सुमित्रा ही नहीं चाहती कि यह बच्ची पैदा हो. वह इस बच्ची को मां की कोख में ही मार देना चाहती है. और अरुण भी अपनी मां का ही साथ दे रहे हैं. लेकिन, शिखा क्या करे? किस से जा कर कहे कि वह अपनी बच्ची को जन्म देना चाहती है. उसे इस दुनिया में लाना चाहती है.

अंधविश्वास: भूतप्रेत का भ्रम एक मानसिक रोग

भय का भूत होता है, वास्तविकता का नहीं. भ्रामक धारणाओं व अंधविश्वास के वशीभूत हो कर भूतप्रेत की कल्पना कैसे मानसिक रोगों को जन्म देती है, जानें. बिहार के चैनपुर रोड पर एक राजा के पुराने किले में बना हरसू ब्रह्मा जिला मुख्यालय भसुआ से 10 किलोमीटर दूर है. चैत्र नवरात्र को यहां हजारों लोग जमा होते हैं जिन में वे औरतें ज्यादा होती हैं जिन पर देवी या माता आईर् होती है. तरहतरह के स्वांग करती इन औरतों में कुछ को तो बांध कर भी लाया जाता है.

मल्टीपल पर्सनैलिटी डिसऔर्डर की शिकार ये औरतें असल में घरों में बेहद कुंठित रहती हैं और दूसरों की नजर में चढ़ने के लिए तरहतरह के स्वांगों को करने लगती हैं जो इन्होंने खुद बचपन से देखे हैं. मेंहदीपुर के बालाजी महाराज मंदिर की भी ऐसी ही पूछ है जहां जाने से मरीज का भूत उतर सकता है और गांव वाले ही नहीं, शहरी भी इस में बहुत उत्साह व उम्मीद से हिस्सा लेने को सालभर आते हैं. गुजरात में हजरत सैयद मीरा दातार दरगाह में जाओ तो वहां भी चीखतेचिल्लाते लोग दिखेंगे जिन पर साया चढ़ा हुआ माना जाता है.

राजस्थान में तो अगस्त 2022 में एक 7 साल की लड़की की बलि 16 साल की बहन ने ले ली और कहा कि मरते समय उस पर देवी आई हुई थी और देवी ने कहा था कि वह सब को मार कर खा जाएगी. पुलिस अब खानापूर्ति कर रही है और लड़की बालगृह में है. यह आम बात है कि किसी गांव की गली या कसबे के महल्ले की कोई महिला अचानक चीखनेचिल्लाने लगती है, इधर से उधर दौड़ती है और खुद को किसी देवी का रूप बताने लगती है. उस की इस तरह की हरकत को तुरंत भूतबाधा मान कर गांव के ही एक झाड़फूंक करने वाले को बुला लिया जाता है. वह आते ही उस रोगी महिला को आग के सामने बैठा देता है और आग में ढेरों मिर्च झोंक कर महिला से कुछ सवाल पूछता है.

महिला की आंखों में मिर्च से असहाय वेदना होती है और वह तड़प उठती है. जब इस से कोई लाभ नहीं होता, वह ओझा लोहे के सरिए को आग में गरम कर के रोगी के हाथ व पैरों पर रख देता है. इस सब से रोगी बेहोश हो जाती है. ऐसी ही एक महिला रोगी जब इलाज के लिए आई तो उस के शरीर पर गहरे घाव थे. कई दिनों से कुछ भी न खाने से शरीर जीर्ण था. रोगी की जांच व मानसिक स्थिति का जायजा लेने के बाद शुरू में उसे इंजैक्शन के जरिए दवाएं दी गईं, बाद में वह मुंह से दवा खाने लगी. केवल 2 सप्ताह तक दवाएं खाने पर उस की स्थिति में व्यापक सुधार हुआ. इस के बाद उस के परिवार व आसपास के वातावरण में मौजूद तनावभरे माहौल का भी अध्ययन किया गया.

परिवार में आपसी रिश्तों में बहुत अधिक तनाव पाया गया. परिवार के सभी लोगों को एकसाथ बैठा कर समझाया गया. इस तरह इलाज के दौरान रोगी को जांच के लिए बुला कर देखा जाता रहा जिस में वह पूरी तरह स्वस्थ व खुश पाई गई. ऐसे ही एक कमजोरी की निशानी मान कर एक बच्चे का स्कूल छुड़वा दिया गया और ऊपरी हवा या भूत का असर मान कर उस का उपचार किया गया. इस से हुआ कुछ नहीं और न दौरा पड़ना कम हुआ. बच्चा जब परामर्श के लिए डाक्टर के पास लाया गया तो लगभग 3 साल से वह स्कूल नहीं गया था. कारण, कभी भी दौरे आ जाते थे, सिर पर बारबार गिरने से चोट के निशान भी थे. बच्चे के मांबाप को कई सालों तक लगातार दवा देने के लिए राजी करना कठिन काम था.

जब उन की मुलाकात इसी तरह के एक दूसरे रोगी से कराई गई जो पिछले 3 साल से नियमित दवा ले रहा था और पूरी तरह से दौरे से मुक्त था तो उन्होंने भी दवा के लिए अपनी सहमति दे दी. उस बच्चे को दवा लेने के साथ एक भी दौरा नहीं आया और उस की पढ़ाईलिखाई सामान्य हो गई. एक संभ्रांत महिला अपने पति व बच्चों के साथ एक पौश कालोनी में रहती है. कुछ दिनों से वह कुछ अजीब सा अनुभव करती है, मसलन उस के सामने वाले फ्लैट के लोग उस की हर गतिविधि को गौर से देखते हैं, उस का पीछा करते हैं और कई बार तो वे उस की बातों को दोहराते भी हैं.

धीरेधीरे उसे लगने लगा कि सामने घर वालों ने जगहजगह वीडियो कैमरे लगा रखे हैं. इन सब से उसे षड्यंत्र की बू आने लगी और इन भ्रामक आवाजों को हकीकत मान कर गालियां देने लगी. उस की इस हरकत से परेशान हो कर उस के घरवालों ने वह मकान बदल लिया पर नई जगह भी महिला को वही सब होने लगा तो इसे किसी ऊपरी बाधा का प्रकोप मान लिया गया और जम कर उस की झाड़फूंक करवाई गई. सलाह के लिए महिला डाक्टर के पास जब लाई गई तो कुछ दिनों पहले उस ने खानापीना छोड़ दिया था और दवा भी लेने को तैयार न थी. सभी को वह अपनी जान का दुश्मन मान रही थी.

महिला को पहले इलैक्ट्रोशौक ट्रीटमैंट दिया गया, फिर दवाएं शुरू की गईं. नतीजतन, 2 सप्ताह में वह महिला सामान्य हो गई. इन रोगियों के विवरण उन अधिकांश मानसिक रोगियों की कहानी कहते हैं जोकि उपचार तक पहुंचने से पहले भूतप्रेत के व्याप्त अंधविश्वास के कारण शारीरिक यातनाएं व आर्थिक नुकसान झेल चुके होते हैं. क्या कहते हैं विशेषज्ञ मानसिक रोग विशेषज्ञों का मानना है कि 60 से 70 प्रतिशत मानसिक रोगी चिकित्सालय पहुंचने से पहले झाड़फूंक का सहारा ले चुके होते हैं. इंसान दिमागी तौर पर किस प्रकार भ्रामक धारणाओं से पीडि़त है, इस का उदाहरण है भूतप्रेत में उस का विश्वास, जो पढ़ेलिखों, अनपढ़ों, शहरियों व ग्रामीणों में समानरूप से व्याप्त है.

भूतप्रेत केवल कल्पना होने पर भी इतना सशक्त भ्रम है कि इसे इंसान हमेशा से सच मानता आ रहा है. दरअसल मानसिक रूप से असंयमित व्यवहार करने वाले व्यक्ति को भूत से पीडि़त करार दे दिया जाता है, जबकि इस अवस्था में रोगी कुछ का कुछ बोलता है तो झाड़फूंक करने वाले भूत का भ्रम पैदा कर रोगी को तरहतरह का शारीरिक कष्ट दे कर अपनी बातों का उत्तर हां में देने को मजबूर कर देते हैं. वास्तव में ऐसा व्यक्ति न तो ढोंग कर रहा होता है न ही किसी तरह की हवा के प्रभाव में होता है.

भूतपीड़ा जहां रोगी के लिए असहनीय है वहीं इस के सहारे अपनी रोटियां सेंकते लोगों के लिए यह लोगों की जेब पर डाका डालना है. कुछ पत्रपत्रिकाएं भी कई बार भूतों पर विशेषांक निकाल कर केवल मनगढ़ंत बातों के आधार पर सस्ता बिकाऊ माल तैयार कर लेती हैं. मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने अपने अथक प्रयासों से मानव मस्तिष्क के उस भाग की ओर ध्यान खींचा, जो इंसान की चेतन्यता से सुप्त पड़ा रहता है. मानव के इस अवचेतन मन में कुंठाओं, हीनभावनाओं, पश्चात्तापों, इच्छाओं का भंडार जमा रहता है. ये संवेदनशील भावनाएं सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कारणों से बाहर नहीं आ पातीं तथा मन में धीरेधीरे इन्हें भुलाने की प्रक्रिया चलती रहती है. इन में जिन भावनाओं की संवेदनशीलता अधिक होती है वे अवचेतन मन में जा कर दब जाती हैं. चैतन्य अवस्था में मस्तिष्क किसी भी ऐसी भावना, जो प्रचलित मान्यताओं व आचरण के खिलाफ हो पर नियंत्रण रखता है. यही अंकुश भावनाओं के दबाव के प्रबल होने पर उन्हें नियंत्रित कर पाने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाता.

ऐसी स्थिति में भावनाएं विस्फोट के रूप में बाहर आती हैं. इन्हीं भावनाओं के बाहर आने से शरीर में अत्यधिक ऊर्जा पैदा होती है जोकि कई प्रकार के हार्मोन स्रावित होने के कारण होती है. इस में शरीर कांपने लगता है, होंठ फड़फड़ाने लगते हैं, कुछ समय के लिए जोश इतना बढ़ जाता है कि उस में किसी का भी सामना करने की हिम्मत आ जाती है. इस स्थिति को भूत या प्रेत पीड़ा जान कर लोग झाड़फूंक का सहारा लेते हैं. इस तरह की मानसिक अवस्था को मैडिकल शब्दावली में हिस्टेरिकल साइकोसिस कहा जाता है. इस के बारे में जानने के लिए मस्तिष्क की सामान्य गतिविधि के लिए जिम्मेदार जैव रासायनिक पदार्थों की जानकारी आवश्यक है. जैव रासायनिक पदार्थों को न्यूरोट्रांसमीटर कहते हैं. दरअसल इंसान के मस्तिष्क में कुछ ऐसे पदार्थ हैं जिन के असंतुलित हो जाने से मस्तिष्क में विचार, भावनाएं, तर्क, बौद्धिकता व संवेदनशीलता प्रभावित होती है तथा व्यवहार असंतुलित व असंगत हो जाता है.

ये न्यूरोट्रांसमीटर मनोवैज्ञानिक दबावों के अलावा आनुवांशिक व वातावरण प्रदूषण जैसे कारणों से भी असंतुलित हो जाते हैं. आधुनिक अनुसंधान से अब तक कई ऐसे न्यूरोट्रांसमीटर्स का पता लगा लिया गया है जिन के बढ़ने या घटने से तरहतरह की मानसिक शिकायतें होती हैं और इसी का नतीजा है कि न्यूरोट्रांसमीटर के असंतुलन को दूर करने के लिए अत्यधिक प्रभावशाली दवाएं अब आसानी से उपलब्ध हैं. दवाओं के अलावा इलैक्ट्रिक शौक थेरैपी भी एक कारगर उपाय है. व्यक्तिगत तथा पारिवारिक कारणों से पैदा होने वाले तनाव ही खासतौर से ऐसे कारक हैं जिन्हें कम कर के इस रोग को होने से रोका जा सकता है. तनाव की स्थिति को अपने ऊपर हावी न होने देना रोकथाम की ओर प्रथम कदम माना जा सकता है. इंसान खुद ही तनाव का सामना सफलतापूर्वक करने में असफल रहता है.

ऐसे में मानसिक रोग विशेषज्ञ से सलाह लेने में संकोच नहीं करना चाहिए. तनाव बहुतकुछ व्यक्ति के गलत दृष्टिकोण या किसी समस्या के गलत ढंग से सामना करने से पैदा होता है. चिकित्सक इन हालात का सही विश्लेषण कर के उस का उचित निराकरण बताने का कार्य करते हैं. साइको थेरैपी मानसिक रोगी को दवाओं व इलैक्ट्रिक शौक दिलाने के बाद लंबे समय तक के लिए साइको थेरैपी दी जानी सहायक होती है. इस में तनावपूर्ण स्थिति का सामना अधिक सक्षमता से करना सिखाया जाता है, रोगी को अपने वातावरण से सही तालमेल बैठाने के बारे में बताया जाता है.

इस थेरैपी में रोगी की समस्याओं को गलत ढंग से देखने के तरीकों को बदला जाता है. परिवार के सदस्यों को एकसाथ बैठा कर परिवारजनिक तनावों को कम किया जाता हैं. इस प्रकार मानसिक तनाव को कम कर के इस रोग की पुनरावृत्ति को कम किया जाता है. मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं अभी हर जिले में संभव नहीं है, फिर भी ज्यादातर जिलों में अब ये सेवाएं उपलब्ध हैं. आश्चर्य तो यह है कि भारत में हृदय की बाइपास सर्जरी तथा अंग प्रत्यारोपण का दौर चल रहा है, ऐसे में मानसिक रोग के लिए झाड़फूंक का उपयोग किया जाना शर्म की बात है.

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