जीवन आजकल अंक बहुत माने हो गए हैं जिस के लिए कई व्यवसाय फलफूल रहे हैं. पेरैंट्स और बच्चों को यह सम झना होगा कि कागज का एक टुकड़ा किसी के ज्ञान और व्यक्तित्व की कसौटी नहीं हो सकता, भले ही उस में कितने ही अंक क्यों न टंके हों इस साल जुलाई में बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आए. सीबीएसई और आईसीएससी बोर्डों में प्रतिभा का जबरदस्त विस्फोट दिखाई पड़ा. सैंट्रल बोर्ड औफ सैकंड्री एजुकेशन यानी सीबीएसई में तो कई परीक्षार्थी शतप्रतिशत नंबर हासिल करते देखे गए. इस बोर्ड के तहत 12वीं के इम्तिहान में 91.25 फीसदी बच्चे पास हुए.
छात्राओं ने छात्रों से 3.29 प्रतिशत बेहतर प्रदर्शन किया. 33 हजार से अधिक छात्रों ने 95 प्रतिशत से अधिक अंक हासिल किए तो वहीं 1.34 लाख ने 90 प्रतिशत से अधिक अंक हासिल किए. आईसीएससी बोर्ड में भी इस साल कुल पास प्रतिशत 99.38 फीसदी रहा. 18 छात्रछात्राओं ने टौप किया है और सभी टौपर्स को 99.75% नंबर मिले हैं. जून के तीसरे हफ्ते में यूपी बोर्ड का रिजल्ट भी आया. यह नंबर देने के मामले में सब से कंजूस बोर्ड माना जाता है. मगर इस बार यहां भी 97.67 से 96 प्रतिशत तक अंक बच्चों ने पाए. अंकों के पीछे भागने और ढेर सारे नंबर देने की प्रवृत्ति इधर दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. दरअसल अब परीक्षा का प्रारूप औब्जैक्टिव कहे जाने वाले प्रश्नों पर केंद्रित हो गया है. ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की तर्ज पर प्रश्नपत्र में हर सवाल के 4 संभावित उत्तर नीचे लिखे होते हैं. इन में कभीकभी सट्टे या ताश के पत्तों की तरह तुक्के भी सटीक लग ही जाते हैं.
नकल करने में भी आसानी होती है. इस तरह के प्रश्नपत्रों में अधिक अंक पाने की गुंजाइश रहती है. लिखना कुछ नहीं होता. लिखे पर बस टिक लगाना होता है या बिंदी भरनी होती है. मगर इस तरह के प्रश्नपत्रों के कारण बच्चों की तर्क करने की क्षमता, कल्पना करने की शक्ति, लेखन कौशल, भाषा ज्ञान, वाक्य विन्यास और स्मृति की कोई परीक्षा नहीं होती. यह पूरी की पूरी अंक देने वाली प्रणाली ही गलत है. एक तरह से यह पौराणिक मंत्र पढ़ने के समान है. गणित में यह संभव हो सकता है. भौतिक और रसायन विज्ञान तक में भी इसे स्वीकार किया जा सकता है. मगर भाषा और सामाजिक विषयों में यह कैसे हो पाएगा. यहां तक कि कब, कौन, कहां वाले अति लघु उत्तरीय प्रश्नों के उत्तरों की विधिवत जांच हो तो कोमा, पूर्ण विराम, वर्तनी, व्याकरण और लिखावट के स्तर पर नंबर कम हो जाएंगे. क्या, क्यों, कैसे वाले डिस्क्रिप्टिव प्रश्नों के संश्लेषण/विश्लेषण में बच्चा कितनी भी तेज बुद्धि का हो,
गलती जरूर करेगा. यही प्रारूप बच्चे की क्षमता का सही विश्लेषण कर सकता था मगर औब्जैक्टिव प्रश्नों के वर्तमान प्रारूप ने उस के सर्वांगीण विकास को रोक दिया है. इस प्रारूप से किसी छात्र की संपूर्ण योग्यता की जांच हरगिज संभव नहीं है. सालभर की मेहनत की जांच क्या 3 घंटे की परीक्षा केवल पैंसिल से गोले भरने में हो जाती है? स्कूली शिक्षा बच्चों की नींव को मजबूत करती है. ठीक उसी तरह उच्च शिक्षा नौजवानों के भविष्य को संवारने का काम करती है. लेकिन आज सरकार और समाज दोनों मिल कर कल के नौजवानों के भविष्य के साथ खेल कर रहे हैं. कहने को हर रोज नएनए स्कूल व संस्थान खुल रहे हैं, नएनए पाठ्यक्रम लाए जा रहे हैं पर स्कूली सिलेबस में लगातार बदलाव ने छात्रों में भारी तनाव भर दिया है. मातापिता की बढ़ती अपेक्षाओं ने उन की किशोरावस्था को खत्म कर दिया है. विभिन्न सरकारी, गैरसरकारी बोर्डों द्वारा रेवडि़यों की तरह नंबर दिए जा रहे हैं और छात्र इन नंबरों को बटोरने की अंधी दौड़ में एकदूसरे से रेस लगा रहे हैं और उन की निगाहें कहीं और हैं ही नहीं. वर्ष 1970 से 1990 तक 55+ प्रतिशत अंक लाने वाला बच्चा गुड सैकंड क्लास कहा जाता था.
यह बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी. 60 से 70 प्रतिशत अंक पाने वाले अति मेधावी सम झे जाते थे. टौप टैन में जगह बनाने वाले छात्र बमुश्किल 85 प्रतिशत तक अंक प्राप्त कर पाते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब बच्चों को बोर्ड परीक्षाओं में 99 प्रतिशत तक अंक प्राप्त हो रहे हैं. पहले सीबीएसई अधिक नंबर देता था. इस बोर्ड से निकलने वाले बच्चे अपनी हाई मैरिट की वजह से अच्छे कालेजों में एडमिशन में बाजी मार ले जाते थे. सीबीएसई परीक्षा प्रणाली को देख कर देश के 40 अन्य बोर्डों ने अपने मूल्यांकन के पैरामीटर ढीले करने शुरू कर दिए. आज यह उसी का परिणाम है कि बच्चे अंक बटोरने के मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं. अब सीयूईटी (क्यूट) भी आ गया है जिस में 17-18 साल के छात्रों को फिर से एक दौड़ में भाग लेना होगा. नीट, जेईई जैसे दसियों एग्जाम तो पहले से ही हैं.
राहुल के पिता को उस से बड़ी उम्मीदें हैं. वह उन का इकलौता पुत्र है जिसे वे अपनी तरह इंजीनियर बनाना चाहते हैं. राहुल पढ़ने में ठीक है. गुड सैकंड डिवीजन मार्क्स लाता है. लेकिन उस के पिता चाहते हैं कि क्लास के टौप बच्चों की तरह वह शतप्रतिशत रिजल्ट ले कर आए. अब नतीजा यह है कि रोहित अवस्थी को अपने 14 साल के बेटे राहुल से हमेशा इस बात की नाराजगी रहती है कि वह अपने क्लास के टौप बच्चों के साथ दोस्ती न रख कर क्या हमेशा अपने से कम नंबर लाने वाले लड़कों से दोस्ती करता है. वह पढ़ने में एवरेज है, खेलकूद और अन्य गतिविधियों में भी रुचि लेता है. मगर उस के पिता चाहते हैं कि पढ़ाई में टौप करने वाले बच्चों की तरह उस के नंबर भी 90-95 प्रतिशत आएं. रोहित इस के लिए उस की दोस्ती को जिम्मेदार ठहराते हैं. राहुल की समस्या यह है कि वह अपने पिता को कैसे सम झाए कि क्लास में टौप करने वाले बच्चों ने अपना अलग ही ग्रुप बना रखा है और वे अपने से कम अंक लाने वाले बच्चों को अपने पास फटकने भी नहीं देते हैं.
वे 90 प्रतिशत से ज्यादा नंबर लाते हैं. वे 80 या 70 प्रतिशत मार्क्स लाने वाले बच्चों तक से बात नहीं करते हैं, फिर उस को साथ बिठाने या दोस्ती करने जैसी बातें तो बहुत दूर की हैं. ये क्रीमी लेयर हर टीचर की चहेती है. आगे की सीट पर बैठती है. साथ में ही लंच करती है. साथ ही खेलती है और लाइब्रेरी में भी साथ बैठ कर स्टडी करती है. पिकनिक वगैरह पर पूरी क्लास जाए तो भी इन का ग्रुप दूसरे बच्चों से बिलकुल अलग रहता है. श्रेष्ठता की भावना से ग्रस्त इन बच्चों को दोस्त बना पाना अन्य बच्चों के लिए आसान नहीं है. क्लासरूम में अभिजात्य वर्ग दो दशकों पहले तक की बात करें तो एक क्लास, जिस में 40 से 45 बच्चे होते थे, में पढ़ाई में कमजोर बच्चों को भी टीचर्स खुद ही अच्छे बच्चों के साथ बैठाते थे ताकि संगत का असर उन की पढ़ाई में बेहतरी लाए. तब मार्क्स भी इतने अधिक नहीं मिलते थे. 55+ प्रतिशत लाने वाला बच्चा भी अच्छा सैकंड डिवीजन माना जाता था,
यह बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी और उस के सामने थोड़ी और मेहनत कर के फर्स्ट डिवीजन मार्क्स लाने का विकल्प खुला रहता था. पिछली सदी के अंतिम दशक तक कम अंक पाने वाला छात्र मानसिक रूप से बहुत बेचैन नहीं होता था. वह ज्यादा नंबर लाने वाले बच्चों के साथ सहजता से उठताबैठता और हंसीठट्ठा करता था. क्लास का बैस्ट बच्चा उस को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखता था. उन के बीच कोई दीवार नहीं थी. कोई प्रश्न नहीं आया तो आपस में पूछ लेते थे, सम झ लेते थे. मगर अब क्लासरूम के भीतर नंबरों की दीवारें खड़ी हो रही हैं. 95 से शतप्रतिशत नंबर वाले छात्रों का एक अभिजात्य वर्ग बन गया है. 70 से 80 प्रतिशत वाले बच्चे भी उस संवर्ग के आसपास फटकने से ि झ झकते हैं. 50 से 60 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे तो बड़े सकुचाए से पिछली सीटों पर बैठने लगे हैं. दूसरी ओर कोचिंग पढ़ने वाले बच्चों की तादाद भी तेजी से बढ़ रही है. बायजूस, आकाश और इस तरह की कई औनलाइन कोचिंग क्लासेस की चर्चा टौप करने वाले बच्चों के बीच चलती है.
कुछ बच्चे जो स्कूल के टीचर्स से ही कोचिंग पढ़ते हैं उन्हें मार्क्स भी अच्छे मिलते हैं. धनाढ्य वर्ग अपने बच्चों को स्कूल के बाद अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ा रहा है. वह उन पर शतप्रतिशत नंबर लाने का दबाव बनाए हुए है. नंबर्स के पीछे भागते ये बच्चे अपने से कम नंबर लाने वाले बच्चों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, उन का मजाक उड़ाते हैं और उन्हें अपने आसपास नहीं फटकने देते. आज हालत यह है कि 65-70 प्रतिशत मार्क्स लाने वाला बच्चा किसी को अपने मार्क्स बताते हुए ि झ झकने लगा है. यही नहीं, मातापिता भी 90-95 प्रतिशत नंबर लाने वाले बच्चों का उदाहरण दे कर उस को ताने मारने में पीछे नहीं रहते, जबकि 60-70 प्रतिशत मार्क्स फर्स्ट डिवीजन की श्रेणी में आते हैं. ये छात्र बहुत कमजोर नहीं हैं, बेवकूफ नहीं हैं पर दौड़ में बीच में हैं. खुद को अव्वल मानने की ग्रंथि शतप्रतिशत अंक पाने वाले बच्चों, जो 98-99 प्रतिशत मार्क्स ला रहे हैं, के बीच 90-95 प्रतिशत पाने वाला बच्चा भी हीनताबोध से ग्रस्त रहता है. वहीं, शतप्रतिशत अंक पाने वाले छात्र श्रेष्ठता ग्रंथि के शिकार हो रहे हैं. जब कभी उन की दूसरे या तीसरे स्थान पर होने की स्थिति बनती है तो वे इस से असहज और बेचैन हो जाते हैं, यह उन्हें स्वीकार्य नहीं होता. कई बच्चे तो काफी उग्र आचरण करने लगते हैं.
वहीं, कई डिप्रैशन का शिकार हो जाते हैं. कुल मिला कर अंकों की यह प्रतिस्पर्धा भावात्मक रूप से बच्चों को विभाजित, अस्थिर, कमजोर और जड़ता की ओर ले जा रही है. शेफाली का बेटा अनुराग एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में 8वीं कक्षा में है. उस के ऊपर 99 प्रतिशत मार्क्स ला कर क्लास में सब से अव्वल आने का ऐसा जनून छाया है कि उस का खेलनाकूदना, खानापीना सब पीछे छूट गया है. बस, किताबों में सिर गड़ाए वह इस कोशिश में लगा रहता है कि एग्जाम में किसी भी तरह 99 प्रतिशत अंक आ जाएं. शेफाली को खुश होना चाहिए कि उस का बेटा पढ़ाई में इतनी रुचि रखता है, मगर वह अपने बेटे की हालत को देख कर चिंतित है. हर वक्त पढ़ाई में लगे रहने के कारण न तो वह ठीक से खाता है और न ही कहीं खेलने जाता है. बीते 2 सालों में अनुराग अन्य बच्चों की तुलना में बहुत दुबलापतला, झुका और कमजोर दिखता है. बच्चों जैसी नटखट हरकतें उस में नहीं दिखतीं. वह किसी धीरगंभीर बुजुर्ग सा नजर आता है. शेफाली किसी के घर उसे ले कर जाए तो वह थोड़ी देर में ही घर वापस चलने की जिद करने लगता है.
शेफाली के शब्दों में, अच्छे नंबर लाने के चक्कर में मेरा बेटा सनकी होता जा रहा है. शतप्रतिशत नंबर श्रेष्ठता के द्योतक शिक्षा व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए होती है. किताबी ज्ञान के अलावा भी बच्चे के कुछ अन्य व्यावहारिक पहलू होते हैं जो व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं, जैसे- नेतृत्व क्षमता, कलात्मक अभिरुचियां, मैत्री, संवाद कौशल, प्रकृति और परिवेश के प्रति सजगता, निर्णय लेने का विवेक, खेलकूद, सहयोग आदि. विद्यालय के स्तर पर सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में इस के लिए अंक भी निर्धारित होते हैं, लेकिन बोर्ड परीक्षाओं में इन का खास महत्त्व नहीं है. यह एक तथ्य है कि विश्लेषणात्मक और यांत्रिक बुद्धि के बच्चे किताबी पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करते हैं जबकि सामाजिक बुद्धि के बच्चे मैदान यानी खेलकूद और सांस्कृतिक गतिविधियों में अपेक्षाकृत अच्छी प्रस्तुति देते हैं.
आज देश का नेतृत्व करने वाले अनेक नेता हैं जिन का किताबी ज्ञान बहुत कम रहा मगर नेतृत्व क्षमता, भाषा कौशल और सामाजिक कार्यों की बदौलत उन्होंने समाज में अपनी ऊंची जगह निर्धारित की. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी किताब में लिखा है, ‘‘अगर सपने पूरे न हों तब भी हार नहीं माननी चाहिए. नए सपने, नई राहें हमेशा आप का इंतजार करती हैं.’’ अभिभावकों को जानना चाहिए कि हर बच्चा अद्वितीय है, अद्भुत और अतुल्य है. उसे उस के हिसाब से चलने दें. वह अपने मनमाफिक क्षेत्र में जरूर कुछ कर गुजरेगा.’’ अंकों के मकड़जाल में मरता बचपन हमें नहीं भूलना चाहिए कि द्वितीय विश्वयुद्ध के महानायक विंस्टन चर्चिल हों या महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन, अफ्रीका से ले कर हिंदुस्तान तक अपनी नेतृत्व क्षमता से चमत्कृत करने वाले महात्मा गांधी हों अथवा पंडित जवाहरलाल नेहरू या राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर, इन में से कोई शतप्रतिशत स्कोरर नहीं था. अल्बर्ट आइंस्टीन, विंस्टन चर्चिल और रवींद्रनाथ टैगोर तो तत्कालीन शिक्षा तंत्र की दृष्टि में बहुत कमजोर विद्यार्थी थे.
मगर वे निराश हो कर रुके नहीं. अपने मन के अनुसार कार्य करते रहे और मंजिल तक पहुंचे. ये तीनों ही अपनेअपने क्षेत्र में विश्व के सर्वोच्च नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए गए. मगर आज बच्चे अंकों के मकड़जाल में उल झ कर अपना जीवन दांव पर लगा रहे हैं. नंबरों की चकाचौंध के बीच कोई जरा ठहर कर यह सोचने को तैयार नहीं कि बोर्ड परीक्षा जिंदगी की आखिरी परीक्षा नहीं है, अभी और अवसर मिलेंगे. प्रतिदिन देश के किसी न किसी कोने से किसी बच्चे की मौत की सूचना प्राप्त हो रही है, वजह, कम अंक लाना या फेल हो जाना. चौंकाने वाली बात है कि 60 से 70 प्रतिशत अंक पाने वाले वाले बच्चे एडमिशन की कटऔफ मैरिट और प्रतियोगी परीक्षाओं में असफलता के डर से आत्महत्या करते देखे जा रहे हैं. कम नंबर आने से छात्रा ने लगा ली फांसी 24 जुलाई, 2022 को मेरठ जिले के कंकरखेड़ा थाना क्षेत्र में बोर्ड परीक्षा परिणाम घोषित होने के एक दिन बाद ही सहारनपुर जिले के बड़गांव थाने में एसएचओ पद पर तैनात शोबिर नागर की 16 वर्षीया बेटी कशिश ने फांसी लगा कर जान दे दी.
12वीं की परीक्षा में कम नंबर आने के कारण कशिश परेशान थी. वह बारबार अपनी मां से कह रही थी कि, ‘‘मैं ने इस परीक्षा के लिए काफी मेहनत की थी, लेकिन मेरा रिजल्ट अच्छा नहीं आया.’’ इस के बाद कशिश ने खुद को कमरे में बंद कर लिया. घर वालों ने सोचा कि कुछ देर अकेले रहने पर वह ठीक हो जाएगी लेकिन काफी देर होने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो उसे तोड़ना पड़ा. अंदर कशिश की लाश पंखे से लटकी पाई गई. अंश निषाद ने फेल होने पर जान दे दी जून 19, 2022 को हमीरपुर जिले के लालपुरा थाना क्षेत्र के मोराकंदर गांव के 17 साल के अंश निषाद ने इंटरमीडिएट की परीक्षा में फेल होने पर फांसी लगा कर अपनी जान दे दी. इस दौरान अंश ने साइंस और मैथमैटिक्स सब्जैक्ट ले कर 12वीं का एग्जाम दिया था. वह मैथ्स में फेल हो गया था.
अवसादग्रस्त अंश ने अपने चाचा के घर पर जा कर फांसी लगा कर अपनी जान दे दी. अंश के पिता खेतीकिसानी कर अपने परिवार का भरणपोषण कर रहे थे. वे अंश को पढ़ालिखा कर अधिकारी बनाना चाहते थे. अंश भी अपने मांबाप की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहता था और जीजान लगा कर पढ़ाई करता था. मगर जब रिजल्ट आया तो वह मैथ्स में फेल हो गया और हताश हो कर उस ने आत्महत्या कर ली. 30 मई, 2018 को दिल्ली के द्वारका नौर्थ इलाके में 10वीं के छात्र रोहित ने आशा के अनुरूप नंबर नहीं आने पर फांसी लगा कर जान दे दी. परिवार वालों के अनुसार कम नंबर आने के बाद वह काफी तनाव में था. उसे 59 फीसदी नंबर मिले थे मगर रोहित को ज्यादा नंबर आने की उम्मीद थी. कम नंबर आने से वह परेशान हो गया और खुद को कमरे में बंद कर लिया. परिवार वालों ने जब दरवाजा तोड़ा तो छात्र पंखे से लटका हुआ मिला. उज्जैन के सेंट पौल स्कूल के एक छात्र अमन ने भी फांसी लगा कर जान दे दी. किशोर के आत्महत्या की वजह 11वीं की परीक्षा में कम नंबरों से पास होना था. अमन सिर्फ 17 साल का था. कम नंबर आने पर परिजनों ने उसे डांट कर 12वीं में ज्यादा मेहनत करने को कहा था. इसी कारण अमन परेशान था.
नतीजतन, अमन ने कमरे में जा कर पंखे से दुपट्टे को बांध कर फांसी लगा ली. गौरतलब है कि अमन के दादादादी शिक्षा के पेशे से जुड़े थे. मां कालेज में प्रोफैसर है और पिता आफताब अहमद खुद सैंट पौल स्कूल में ही शिक्षक है. बीते साल बलिया में सीबीएसई के छात्र अंश ने बोर्ड एग्जाम में नंबर कम आने पर फांसी लगा कर जान दे दी. रेवती थाना क्षेत्र के उत्तर टोला पुल निवासी अतुल कुमार पांडेय के इकलौते पुत्र अंश (17) ने रात में सब के सो जाने के बाद पंखे के हुक से दुपट्टे का फंदा बना कर फांसी लगा ली. परिजन कहते हैं कि स्कूल वाले उस पर कोचिंग में भी पढ़ने का दबाव बना रहे थे. कोचिंग न पढ़ने पर उस को कम नंबर दिए गए. रिजल्ट देख कर छात्र सदमे में आ गया और उस ने जान दे दी. अंश पढ़ने में होनहार था. वह मनस्थली स्कूल में 10वीं का छात्र था. अन्य छात्रों के मुताबिक, स्कूल के टीचर उस पर कोचिंग पढ़ने का दबाव बना रहे थे. चूंकि छात्र पढ़ने में होशियार था, इसलिए उस ने कोचिंग में भी पढ़ने से इनकार कर दिया था. इस से नाराज टीचर ने उसे कम नंबर दिए. रिजल्ट देख कर वह बदहवास सा हो गया. ऐसी अनेक खबरें आएदिन देश के किसी न किसी कोने से आ रही हैं.
अगर इस दिशा में अभी न सोचा गया तो आने वाले समय में स्थितियां और भी भयावह होंगी. पेरैंट्स और बच्चों को यह सम झना होगा कि कागज का एक टुकड़ा किसी के ज्ञान और व्यक्तित्व की कसौटी नहीं हो सकता, भले ही उस में कितने ही नंबर क्यों न टंके हों. अभिभावकों का सकारात्मक नजरिया ही बच्चों की ताकत है. इसलिए मातापिता को अपने बच्चे की दूसरों के बच्चे से तुलना करने की आदत छोड़नी चाहिए. इस का बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. बच्चा 90 प्रतिशत अंक क्यों नहीं लाया, इस के लिए उसे कोसने के बजाय हमें उसे 55 से 60 प्रतिशत अंक लाने के लिए बधाई देनी चाहिए. उस की गलतियां बताएं लेकिन प्यार से. दबाव से परिस्थितियां बिगड़ जाती हैं.
मां ने कुछ खाने के लिए बनाया है तो बच्चा उसे मन से खाएगा, लेकिन मां अगर उस के पीछे पड़ जाए कि खाओ, खाओ, खाओ तो उस का मन उठ जाएगा. कई बार मातापिता अपने दोस्तों, संबंधियों या किसी फंक्शन में अपने बच्चे के रिपोर्ट कार्ड को अपना विजिटिंग कार्ड बना कर पेश करते हैं. ऐसा न करें. बच्चे की सफलताअसफलता को अपनी नाक का सवाल न बनाएं. यह सिर्फ एक क्लास की परीक्षा है, जिंदगी की नहीं. अभी नहीं तो कभी नहीं जैसी कोई बात नहीं होती है. परीक्षा के बाहर भी बहुत बड़ी दुनिया है. कुछ खिलौनों के टूटने से बचपन नहीं मरा करता, एकाध एग्जाम में बच्चा इधरउधर हो जाए, तो जिंदगी ठहर नहीं जाती है.