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गोलियों की बौछारें

हाथ में बंदूक हो, नाक पर गुस्सा हो, दिल में घृणा हो और समाज व परिवार की अवहेलना हो तो कुछ लोग इस तरह पागल हो जाते हैं कि वे निर्दोष, अनजानों को बिना बात के, बिना किसी एजेंडे के मार डालते हैं. पहले यह बीमारी अमेरिका में ही दिख रही थी जहां टूटे घरों से आए युवा हथियारों का भंडार जमा कर के किसी स्कूल, सुपरमार्केट, थिएटर में घुस कर मौजूद लोगों पर बेबात गोलियों की बौछारें कर देते थे और फिर खुद को गोली मार लेते.

अब यह बीमारी एशिया में आ गई है. थाईलैंड की राजधानी बैंकौक से 500 किलोमीटर दूर एक शहर में एक शख्स पान्या खामराप ने बच्चों के एक डे-केयर सैंटर पर अकेले हमला कर दिया और 34 जानें ले लीं जिन में 23 छोटेछोटे बच्चे थे. उस के बाद वह आराम से टहलता हुआ घर पहुंचा और वहां पत्नी व पुत्र को मार कर खुद को भी मार डाला.

ड्रग्स, जुए, नौकरी की कुंठा उस में इतनी भर गई थी कि उस ने अपना गुस्सा इन निहत्थे निर्दोषों पर उतार दिया. ऐसी घटनाएं अमेरिका में होती हैं तो समझा जाता है कि वहां परिवार संस्था टूट चुकी है और टूटे घरों के अकसर बच्चे युवा होने पर अपना गुस्सा कहीं भी निकाल देते हैं, खासतौर पर, इसलिए कि वहां बाजार में हथियार मोबाइलों की तरह मिलते हैं.

थाईलैंड के लोग आमतौर पर घरपरिवार की इज्जत करते हैं और व्यवहार में भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, अफ्रीकी देशों के लोगों से वे कम उग्र होते हैं. यह बौद्ध धर्म की संस्कृति का असर है या कुछ और, लेकिन आम थाई व्यक्ति सभ्य और सौम्य होता है. अपवाद होते हैं पर ऐसा अपवाद जिस में छोटे बच्चों के डे-केयर सैंटर में छुरे से बच्चों के गले काट दिए जाएं और बड़ों को गोलियां मार दी जाएं, बहुत कम मिलता है.

अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में हुई इस घटना का सदमा पूरे देश को है पर यह एक ऐसी बीमारी है जिस का कोई इलाज नहीं. कौन व्यक्ति कब व कहां फट पड़े, पता नहीं. भारत में यह धार्मिक झुंड में कभीकभार दिखता है जैसे 2002 के गुजरात के दंगों में दिखा जब सभ्य हिंदू भीड़ों ने मुसलिम घरों को जलाया, औरतों का बलात्कार किया, लोगों को जिंदा जलाया. पर तब कम से कम, गलत ही सही, धार्मिक कारण तो था.

पान्या खामराप के इस हत्याकांड का कोई कारण अभी तक साफ नहीं है. वह कर्ज में डूबा हुआ जरूर था पर इस के लिए लोग आत्महत्या करते हैं, सामूहिक हत्याएं नहीं. धर्म के नाम पर इसलामी आतंकवादी अकसर अपने देशों में या दूसरे देशों में निहत्थों को मारते रहते हैं. पर अमेरिका वाली मानसिक दौरे पडऩे की बीमारी अब एशिया में भी आ गई है जो चिंता की बात है.

फाइनैंस: सही समय पर करें बचत की प्लानिंग

यह प्लानिंग रिटायरमैंट के बाद काम आती है. प्लानिंग कब व कैसे की जाए, यह जान लेना आवश्यक है. रिटायरमैंट के बाद सुजाता पटेल और उस के पति के पास आज के हिसाब से बहुत कम पैसे रह गए थे. दोनों ही कमाते थे पर बचत की जानकारी उन के पास नहीं थी. जब तक कमा रहे थे वे, दिल खोल कर खर्चा किया. उन्हें लगा था कि रिटायरमैंट के बाद मिलने वाला पैसा उन के लिए काफी होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने अपने रिटायरमैंट के पैसे से अपनी एकमात्र बेटी की शादी की. बचे हुए पैसे थोड़े दिनों बाद खत्म हो गए.

अब वे अपनी बेटी की आय पर निर्भर रहने लगे, क्योंकि वह कमाती थी. सरकारी नौकरी के बावजूद वह चाहती थी कि उस का लाइफस्टाइल अपनी जाति वालों से ऊंचा हो. ऐसे में कुछ दिनों बाद बेटी भी मातापिता से दूरी बनाने लगी. मजबूरी में मातापिता इस आयु में काम तलाश कर अपना जीवन गुजारने पर मजबूर हुए. इस उम्र में काम करना अब उन के लिए मुश्किल हो रहा है. आखिर कब तक वे काम कर पाएंगे? कैसे बीतेगा उन का भविष्य? ऐसी कई बातें उन्हें मानसिक रूप से परेशान कर रही हैं. कोविड की मार के बाद से वे ज्यादा डर गए हैं. दरअसल ऐसी परिस्थति तब आती है जब आप ने भविष्य की प्लानिंग पहले से न की हो. कई लोगों को लगता है कि रिटायरमैंट के बाद मिला पैसा उन के लिए काफी होगा पर ऐसा नहीं होता, क्योंकि महंमाई की दर समान नहीं होती.

वह लगातार बढ़ती रहती है. ऐसे में जो पैसा आज अधिक दिखता है, 10 वर्षों बाद उस की कीमत कम रह जाती है. नौकरीपेशा लोगों के लिए रिटायरमैंट की उम्र 60 साल होती है, अगर आप ने 26-27 साल की उम्र में नौकरी पा ली है तो 30 साल से आप को अपनी वित्तीय प्लानिंग कर लेनी चाहिए क्योंकि इस समय आप की गृहस्थी शुरू हो जाती है. आप का परिवार बढ़ता है. साथ ही, इस समय आप स्वस्थ रहते हैं. समय रहते अगर आप प्लानिंग करते हैं तो नौकरी के दौरान आए उतारचढ़ाव को भी आसानी से संभाल लेते हैं. कई बार नौकरी करतेकरते आप को अलग से इनकम की आवश्यकता महसूस होती है तो इस समय आप वह भी कर सकते हैं, क्योंकि आजकल कई ऐसे आमदनी के साधन उपलब्ध हैं जो नौकरी के साथ अपनाए जा सकते हैं. असल में समय के साथसाथ आप की सैलरी बढ़ती है तो आप का खर्च भी बढ़ता जाता है.

इसलिए अगर सही समय से आप बचत करना शुरू कर देंगे तो रिटायरमैंट के बाद आप की पैंशन या बचत आप की सैलरी का स्थान ले लेगी. इस से आप पर रिटायरमैंट की वजह से कम खर्च का दबाव नहीं रहेगा. अपनी कमाई गई राशि जो आप के हाथ में आती है उस का केवल 20 प्रतिशत अगर 30 साल तक जमा किया है तो वह राशि 30 साल के बाद लाखों में हो जाती है. यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अगर अभी आप का महीने का खर्चा 25 हजार है तो 30 साल बाद 8 प्रतिशत की महंगाई की दर से यह खर्चा बढ़ कर 2.5 लाख रुपए महीना हो सकता है. महंगाई आप की रिटायरमैंट के बाद भी जारी रहती है. ‘पोस्ट टैक्स रिटर्न’ 10 प्रतिशत भी हर साल शामिल होता है.

इन सब का सही लेखाजोखा तैयार कर लेने से इसे ‘पे करना मुश्किल नहीं होता.’

-टर्म की प्लानिंग हमेशा फायदेमंद होती है. इस में ऐसी जगह पैसा जमा करने पर जोर को प्राथमिकता देनी चाहिए जिस में ब्याज महंगाई से अधिक हो. ऐसे में घर का मकान इक्विटी, म्यूचुअल फंड में इन्वैस्ट करने के बाद समयसमय पर इसे पुनर्संतुलन करते रहना चाहिए ताकि आप का फायदा चलता रहे. द्य ‘शौर्ट टर्म’ के लिए ‘इक्विटी’ रिस्की होता है. हमेशा 5 साल से अधिक के लिए इन्वैस्ट करें. द्य जमा करने की प्लानिंग’ में बाहर घूमने जाने का खर्च, मनोरंजन पर खर्च, मैडिकल खर्च, आकस्मिक खर्च आदि सभी को शामिल कर प्लानिंग करें.

-धर्म पर खर्च न करें तो अच्छा है. पंडों ने पट्टी पढ़ापढ़ा कर लोगों की आय का 10-15 फीसदी खर्च धर्म पर करवाना शुरू करवा दिया है.

तरहतरह के व्रत, तीर्थ, काशी, केदार डोर, राम देबड़ी की मन्नत, वैष्णो देवी आदि जहां भगदड़ में मौतें तक होती हैं, बेहद खर्चीले हैं. इन पर खर्च न कर पैसा बचत खाते में जमा करें. द्य जो यूथ किसी प्रकार की स्कौलरशिप पाते हैं या उन के पास कुछ पैसा है, वे फिक्स्ड डिपौजिट या डेब्ट म्यूचुअल फंड में अपना पैसा रख सकते हैं जो समय आने पर वे निकाल सकें और उन का पैसा सहीसलामत हो.

मोटी रकम 30 साल में जमा करना मुश्किल दिखता है, लेकिन सही निवेश से यह हो सकता है. बैंक में निवेश करना एक आसान तरीका है चाहे ब्याज कम हो. आमदनी का 20 फीसदी जमा जरूर करें.

इस के अलावा अर्निंग मैंबर को इंश्योरैंस करवाना चाहिए. नौर्मल इंश्योरैंस न ले कर टर्म प्लान लें जिस से ज्यादा कवर हो. ऐसे में कुछ भी हादसा होने पर परिवार को एश्योर्ड मनी मिल जाती है. कोविड का इलाज उस में अवश्य जुड़वाएं.

समय के बाद जमा करने की इच्छा रखने का पूरा हिसाबकिताब ही खराब हो जाता है, इसलिए समय रहते प्लानिंग करें.

बचत की प्लानिंग हमेशा अच्छे सर्टिफाइड एडवाइजर की सहायता से करें.

अपनी बचत का छोटा सा हिस्सा उन रिश्तेदारों की पढ़ाई पर खर्च जरूर करें जो पढ़ने या काम करने में तेज हैं. वे आप के काम भी आ सकते हैं.

असाध्य बीमारियां: टोटके नहीं, ट्रीटमैंट है कारगर

आयुर्वेद की प्राचीन पद्धति के जानकार घर घर में हैं और सोशल मीडिया की मेहरबानी से इन की संख्या दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ रही है. इस के चलते कई छोटीबड़ी बीमारियों में रोगी प्राथमिकता में आयुर्वेद को रखता है जिस कारण उसे लेने के देने पड़ जाते हैं. कैंसर कैसी और कितनी जानलेवा बीमारी है, यह तो कोई भुक्तभोगी या उस के परिवारजन ही बता सकते हैं. कैंसर से होने वाली मौतों का आंकड़ा हर दिन बढ़ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में दुनियाभर में कैंसर से लगभग 96 लाख मौतें हुई थीं इन में से करीब 8 लाख भारतीय थे.

जर्नल औफ ग्लोबल औंकोलौजी की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कैंसर से मरने वालों की दर विकसित देशों के मुकाबले लगभग दोगुनी है. आंकड़ा चिंतित करने वाला है कि भारत में 10 कैंसर मरीजों में से 7 की मौत हो जाती है. इस हालत की घोषित वजहों में से एक अहम यह है कि हमारे यहां प्रति 2 हजार मरीजों पर एक कैंसर स्पैशलिस्ट यानी औंकोलौजिस्ट है जबकि अमेरिका जैसे विकसित देशों में प्रति हजार कैंसर मरीजों पर एक डाक्टर है जिस से मौतों का आंकड़ा वहां कम है. ऐसा हर कोई मानता है कि अगर शुरुआती स्टेज में कैंसर की पहचान हो जाए तो एलोपैथी में उस का इलाज मुमकिन है लेकिन हमारे यहां आयुर्वेदाचार्यों, नीमहकीमों, जड़ीबूटियों, सिद्धमहात्माओं और सिद्धस्थलों की भरमार है जो घंटों में इस असाध्य बीमारी से छुटकारा दिलाने का इतना आत्मविश्वास से दावा करते हैं कि जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा मरीज और उस के परिजन ?ांसे में आ कर अपना कीमती वक्त व पैसा बरबाद करने को मजबूर हो ही जाते हैं.

कैंसर मौत का दूसरा नाम है, यह मिथक हालांकि धीरेधीरे टूट रहा है लेकिन बिलाशक इस का इलाज इतना महंगा और तकलीफदेह है कि लोग सस्ते और दर्दरहित इलाज के ?ांसे में आ कर मुसीबत मोल लेते हुए मौत को दावत दे ही देते हैं. इस प्रतिनिधि के एक नजदीकी रिश्तेदार को मुंह का कैंसर हुआ तो वे और उन के परिजन घबरा उठे कि अब क्या करें. बात फैली तो कई शुभचिंतक दोस्त और रिश्तेदार घर आ कर पंचायत लगाने लगे. जानलेवा इलाज इन लोगों के पास तरहतरह के चमत्कारिक किस्से थे. कैंसर को शर्तिया ठीक कर देने वाले नीमहकीमों के नामपते थे. एक सज्जन तो मध्य प्रदेश के सतना के एक आयुर्वेदिक संस्थान, जो अपनेआप को रिसर्च सैंटर भी लिखता था, से दवाइयां ही ले आए.

संभव है उन की भावनाएं और मंशा अच्छी हों पर गिनती तो ऐसे लोगों की पढ़ेलिखे गंवारों में ही की जाएगी जो यह जानतेसम?ाते हैं कि जड़ीबूटियों से और आयुर्वेद से कैंसर क्या, किसी भी असाध्य बीमारी के मरीज का ठीक होना असंभव है लेकिन कई पूर्वाग्रहों, जिन में धार्मिक भी शामिल हैं, के चलते वे इस अवैज्ञानिक चक्कर में आ जाते हैं और निश्चित ही बतौर प्रयोग अपने घर वालों को भी घसीट लेते हैं. खैर, मरीज ने भरोसा न होते हुए भी अपने मित्र के आग्रह पर ये दवाएं कुछ दिन लीं जिन के बारे में साहित्य में बड़ेबड़े दावे किए गए थे.

इन दवाओं से फायदा तो कुछ नहीं हुआ, उलटे मसूड़ों का फोड़ा बड़ा हो कर तकलीफ ज्यादा देने लगा, तब तक वैद्यजी 25 हजार रुपए ?ाटक चुके थे और दवा के नाम पर बिना रैपर वाली रंगबिरंगी गोलियां और गेंहू की बालियों का रस दे रहे थे. संपर्क करने पर हर बार उन के संस्थान के कर्मचारी यह कहते गुमराह करते रहे कि ‘दवाएं असर दिखा रही हैं, कैंसर पूरी तरह फूट कर ही विदा होगा यानी जड़ से खत्म हो जाएगा. आप सब्र रखें.’ जब बहुत हो गया यानी सब्र का पैमाना टूट गया तो मरीज के परिजन आक्रामक हो उठे. इस पर इस वैद्यजी ने दोटूक कह दिया कि हम ने तो पूरी कोशिश की, कैंसर ठीक नहीं हो रहा तो क्या करें. हमारे पास तो रिकौर्ड है कि हजारों को हम ने ठीक किया है. इस हकीम से कानूनी या दूसरी कोई लड़ाई लड़ने में काफी वक्त और पैसा जाया होता.

चूंकि कैंसर कोशिकाएं मुंह के बाहर आने लगी थीं, इसलिए मरीज को सीधे मुंबई में टाटा मैमोरियल अस्पताल ले जाया गया. वहां के डाक्टरों ने जांच कर यही कहा कि आप ने देर कर दी, फिर भी औपरेशन कर देखते हैं. यह देर आयुर्वेद के चक्कर में हुई थी. बहरहाल मुंबई में औपरेशन हुआ और सालभर इलाज भी चला लेकिन कैंसर के एडवांस स्टेज पर आ जाने के कारण उन्हें बचाया नहीं जा सका. अपनी मृत्यु से पहले मरीज ने आयुर्वेद के चक्कर में पड़ने को ले कर पाठकों को आगाह करते एक लेख भी लिखा था जो सरिता में ही प्रकाशित हुआ था. इस घटना को 25 साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी लोगों की मानसिकता नहीं बदली है और न ही आयुर्वेद के टोनेटोटकेनुमा इलाज पर कोई फर्क पड़ा है. वजह, वही चमत्कारों पर भरोसा और आयुर्वेद का कथित तौर पर सस्ता होना है. इस प्रतिनिधि ने भोपाल के आसपास के कुछ मरीजों से मुलाकात की तो वे आयुर्वेद को ?ांकते और कोसते नजर आए कि इस के चक्कर में न केवल लुटपिट गए बल्कि इलाज में भी देर हो गई.

भोपाल के लालघाटी स्थित कैंसर हौस्पिटल के बाहर चाय की दुकान पर बात करते सीहोर के एक युवक सुनील वर्मा ने बताया कि उस के पिता को मुंह का कैंसर है. पता चलने पर डेढ़दो साल इधरउधर भागादौड़ी की. राजगढ़ और नरसिंहपुर के वैद्यों से आयुर्वेदिक इलाज कराया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. परेशान हो कर और थकहार कर अब एलोपैथी के इलाज के लिए भोपाल आए हैं. कीमोथेरैपी चल रही है. आगे देखते हैं कि अब क्या होगा. आगे जो भी हो लेकिन ऐसे लोग वक्त रहते बजाय आयुर्वेदिक इलाज के चक्कर में पड़ने के एलोपैथी का ट्रीटमैंट लें तो जिंदगी बच भी सकती है. ऐसे ही कई उदाहरणों में से एक है भोपाल की ही शैफाली चक्रवर्ती. उन्हें भी 5 साल पहले मुंह का कैंसर हुआ था जिस की पहचान होते ही उन के इंजीनियर पति अमित उन्हें मुंबई ले कर गए.

जहां औपरेशन के बाद कुछ दिन दवाइयां चलीं. 52 वर्षीय शैफाली अब बिलकुल ठीक हैं और अपनी घरगृहस्थी व बच्चे संभाल रही हैं. अगर वे भी शुरू में आयुर्वेदिक इलाज के चक्कर में पड़ जातीं तो हश्र क्या होता, सहज सम?ा जा सकता है. ऐसा नहीं है कि शैफाली और उन के पति अमित को मुफ्त के सलाहकारों ने घेरने की कोशिश नहीं की पर वे इस मूर्खतापूर्ण चक्कर में नहीं पड़े. 7 बनाम 10 बात अकेले कैंसर की ही नहीं, बल्कि सफेद दाग, किडनी, लिवर, एड्स और दिल से जुड़ी बीमारियों की भी है जिन में अधिकतर रोगियों की पहली प्राथमिकता आयुर्वेद होता है क्योंकि इस प्राचीन पद्धति के जानकार घरघर में हैं और सोशल मीडिया की ‘मेहरबानी’ से इन की संख्या दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ रही है.

अब से कुछ महीनों पहले इस प्रतिनिधि की एक परिचित किडनी फेल होने से भोपाल के एक प्राइवेट अस्पताल में भरती हुई थी. उन से मिलनेजुलने वाले खबर लगते ही अस्पताल आने का शिष्टाचार, जोकि गैरजरूरी था, निभा रहे थे. यहां तक कोई खास दिक्कत नहीं थी लेकिन दिक्कत खड़ी तब हुई जब इन के भीतर का आयुर्वेदिक ज्ञान छलकने लगा कि यह फलां पेड़ की पत्ती चबा लो, यह काढ़ा पी लो, यह गोली तो 3 दिन में आप को दौड़ा देगी. मेरे फलां चाचा का भी क्रिटिनाइन बढ़ा हुआ था. 3 दिनों में ही नौर्मल हो गया था. बात तब और बिगड़ी जब वे एक सुर में एलोपैथी को तकलीफदेह और खर्चीली साबित करने पर तुल गए और तुरंत साबित कर भी दिया कि 2 हजार रुपए बैड का रोज, इतने ही डाक्टर के, एलोपैथी की दवाइयां 5 हजार रुपए रोज से कम क्या आएंगी और फिर पैथोलौजी का भारीभरकम खर्च अलग. इस पर भी किडनी ठीक होने की गारंटी नहीं. अगले ही मिनटों में आयुर्वेद के इन हिमायतियों ने अस्पतालों को लूट का अड्डा भी साबित कर दिया. मरीज, जिन को सब दीदी कह रहे थे, ने एक न सुनी और सख्ती से बोलीं, ‘आयुर्वेद के चक्कर में मैं 2 साल और इतने ही रुपए बरबाद कर चुकी हूं.

खूब फलपत्तेफूल खाए, गोलियां लीं, सीरप गटके पर फायदा कुछ नहीं हुआ. उलटे, अब तो फेफड़ों में भी पानी भर गया है. इसलिए तय कर लिया है कि इलाज तो एलोपैथी का ही लूंगी फिर चाहे यहीं क्यों न मर जाऊं. आप लोगों का धन्यवाद जो मेरी इतनी चिंता करते हैं.’ चिंता करने वालों को डेढ़ महीने बाद हैरत हुई जब दीदी किडनी सलामत ले कर घर आ गईं. इस पर भी दबी आवाज में सुनने को यह मिला कि 5-6 लाख रुपए फूंक दिए. आयुर्वेद में तो 5-6 हजार भी न लगते. ठीक हो कर आत्मविश्वास से लबरेज हुई दीदी ने भी दबी आवाज में जवाब दिया, 5-6 हजार में तड़पतड़प कर मरती. उस से तो बेहतर यह रहा कि 5-6 लाख खर्च कर सलामत हूं. एक आंकड़े के मुताबिक किडनी की बीमारियों से देश में सालभर में कुल 2 लाख मरीज मरते हैं लेकिन जो लोग एलोपैथी का इलाज ले कर बच जाते हैं उन की तादाद बहुत ज्यादा है. यह सहूलियत एलोपैथी में ही है कि दवाइयों के बेअसर होने पर किडनी ट्रांसप्लांट भी हो सकती है.

हाल में ही इस का बड़ा और चर्चित उदाहरण राजद प्रमुख लालू यादव का देखने में आया जिन्हें सिंगापुर में उन की बेटी रोहिणी आचार्य ने अपनी एक किडनी डोनेट कर जीवन दिया. रोहिणी की हर जगह वाहवाही हुई और एलोपैथी की भी. बता दें कि आजकल भारत में भी आसानी से किडनी ट्रांसप्लांट हो जाती है. कैंसर के जरूर 10 में से 7 मरीज मर जाते हैं क्योंकि वक्त पर रोग का निदान नहीं हो पाता. भोपाल के एक कैंसर सर्जन डाक्टर श्याम अग्रवाल के मुताबिक, ‘‘अभी जब कोविड के बाद के आंकड़े आएंगे तब तसवीर और साफ होगी लेकिन मेरा अनुभव है कि कैंसर के डायग्नोस होते ही अगर ट्रीटमैंट शुरू कर दिया जाए तो यह मृत्युदर काफी कम हो सकती है.’’ दिक्कत या परेशानी यह है कि कैंसर के डायग्नोस होते ही लोग पहले आयुर्वेद की तरफ भागते हैं जिस से 10 में से 7 लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ जाती है. आयुर्वेद के वैद्य हर जगह कुंडली मारे बैठे हैं. इन का दावा आयुर्वेद के जरिए कैंसर को जड़ से खत्म कर देने का रहता है और इस बाबत ये खूब प्रचार भी करते हैं. अगर ऐसा है तो फिर कैंसर है ही क्यों? वह तो इन की दवाओं और इलाज से ठीक हो ही जाना चाहिए लेकिन इन के अड्डों पर लोग जब तबीयत से लुटपिट जाते हैं और फायदों की जगह नुकसान होने लगते हैं तो जान बचाने एलोपैथी की तरफ आते हैं.

कई मामलों में जेब खाली और देर इतनी हो चुकी होती है कि डाक्टर भी कुछ नहीं कर पाते. एलोपैथी क्यों, आयुर्वेद क्यों नहीं छोटीमोटी और मौसमी बीमारियों में आयुर्वेद का इलाज बहुत ज्यादा खतरे की बात नहीं है लेकिन असाध्य रोगों में इसे आजमाना एक बहुत बड़ा खतरा साबित होता है. यह बात ऊपर बताए उदाहरणों से साबित हो जाती है. सर्दीजुकाम में काढ़ा पीना, शहद लेना, नीम और तुलसी की पत्ती चबाने से जान को खतरा नहीं होता लेकिन असाध्य रोगों में आयुर्वेदिक इलाज लेने से बचना चाहिए क्योंकि उस में नया कुछ नहीं होता, न ही कोई रिसर्च होती है, न ह्यूमन और ड्रग ट्रायल होता है.

बस, होता तो कहेसुने की बिना पर सदियों से चले आ रहे टोटकों को दवाई और इलाज की शक्ल दे कर इलाज करने बैठ जाना. आयुर्वेद कोई वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति नहीं है जिस के बारे में बड़ीबड़ी डींगें हांकी जाती हैं कि यह हमारे ऋषिमुनियों द्वारा विकसित की गई है और इस में हर मर्ज का इलाज है. जाहिर है आयुर्वेद में लोगों का भरोसा धर्मग्रंथों के चलते है जिस में कई दवाइयां अभिमंत्रित कर मुहूर्त विशेष में बनाई और मरीज को दी जाती हैं. उलट इस के, एलोपैथी में तमाम तरह के ट्रायल होते हैं. वैज्ञानिक और डाक्टर रिसर्च से संतुष्ट होने के बाद ही इलाज और दवाइयों की सिफारिश करते हैं. एलोपैथी में जटिल से जटिल बीमारियों को औपरेशन के जरिए भी ठीक किया जाता है. एलोपैथी प्रिवैंटिव मैडिसिंस के जरिए भी सफल इलाज करती है. इस का बेहतर उदाहरण वैक्सीन है. कोरोना के वक्त में बचाव वैक्सीन से ही हुआ जबकि आयुर्वेद वाले नीम तुलसी गिलोय, लहसुन वगैरह का हल्ला मचाते रहे.

अगर ये टोटके कारगर होते तो कोरोना से एक भी मौत नहीं होनी चाहिए थी. दरअसल लोगों के डर को भुनाने का रिवाज कोरोना के कहर के समय शबाब पर था, जिस पर योगगुरु बाबा रामदेव ने कोरोनिल नाम की दवा लौंच कर अरबों रुपए बनाए. दूसरी कंपनियों ने भी जम कर चांदी इम्यूनिटी के नाम पर काटी थी. यही काम छोटेमोटे नाजानकार हकीम और वैद्य भी करते हैं और करतेकरते पैसों के लालच में कैंसर, किडनी, एड्स और हार्ट का भी इलाज करने लगते हैं क्योंकि इन से ज्यादा कमाई होती है. यह कम हैरानी की बात नहीं कि अधिकतर असाध्य और दूसरी बीमारियां होती तो एलोपैथी से ठीक हैं लेकिन गुणगान आयुर्वेद का गाया जाता है क्योंकि यह धार्मिक आस्था और पूर्वाग्रह की देन है. मान लिया गया है कि दम तोड़ते लक्ष्मण की जान संजीवनी से बची थी, चूंकि इस का वर्णन रामायण में है, इसलिए इस का अस्तित्व भी होना चाहिए.

बाबा रामदेव और उन के सहयोगी बालकृष्ण ने तो बाकायदा हिमालय के जंगलों में संजीवनी ढूंढ़ने की मुहिम भी छेड़ी हुई है जिस का मकसद एक प्रोपगंडा के तहत आयुर्वेद का प्रचारप्रसार करना है. एलोपैथी किसी धर्मग्रंथ से चमत्कार की तरह नहीं प्रकट हुई है. इस शब्द का सब से पहले इस्तेमाल 1810 में जरमन चिकित्सक सैमुअल हेनीमेन ने किया था. एलोपैथी 2 ग्रीक शब्दों एलोस यानी अलग और पैथोज यानी सफरिंग से मिल कर बना है. इस पद्धति में रोग को दबाने के लिए दवा दी जाती है. धीरेधीरे इस की लोकप्रियता और स्वीकार्यता बढ़ी तो इसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और और्थोडौक्स मैडिसिन भी कहा जाना लगा. अब इस का पूरा हैल्थकेयर सिस्टम होता है जिस में कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जाता है. उन के काम उन की पढ़ाई और डिग्री के मुताबिक बंटे होते हैं. क्लिनिकल ट्रायल इस की एक और खूबी है जो कई चरणों से हो कर गुजरती है. भारत में इसे विदेशी कह कर इस से इलाज न कराने की सलाह दी जाती थी लेकिन फायदा होने लगा तो लोग इसे अपनाने लगे. अब जरूरत इस बात की है कि अगर ठीक होना है और जान बचाना है तो असाध्य रोगों के इलाज के लिए आयुर्वेद का मुंह ताकने के बजाय एलोपैथी की तरफ देखना जरूरी है.

महिलाओं का उच्च पदों पर काम करना नहीं आसान

उच्च पदों पर कार्यरत महिलाएं भले कितनी ही प्रतिभाशाली हों या लगन से काम कर रही हों पर तरहतरह के भेदभाव के चलते उन का उस पद पर काम करना मुश्किल बना रहता है. क्या है इस की वजह, जानिए. एक कस्टमर सरकारी बैंक में आ कर चिल्ला रहा था कि उसे बीमार पत्नी के इलाज के लिए पैसे की जरूरत है लेकिन वह निकाल नहीं पा रहा है क्योंकि एटीएम खराब है और बैंक का सर्वर डाउन है. वह बैंक की महिला मैनेजर से शिकायत किए जा रहा था और कह रहा था कि सरकारी बैंकों के कर्मचारी ठीक से काम नहीं करते. अभी सरकार की बेकार की नीतियों से बैंकों को महिलाओं को प्रधान बनाया जा रहा है और ये महिलाएं कुछ सही से नहीं कर पातीं, कोई निर्णय नहीं ले पातीं.

ऐसा सुनने पर उस महिला को गुस्सा आया और उस ने उस व्यक्ति को रोक कर सारी बातें सम?ाईं कि इस की वजह महिला या पुरुष कर्मचारी से तय नहीं होती बल्कि कम पैसे में खरीदे गए सर्वर की वजह से होता है. सर्वर डाउन हो तो काम कैसे हो पाएगा? आप को थोड़ा रुकना पड़ेगा. अभी एटीएम ठीक हो जाएगा, उसे रिपेयर करने वाला आ चुका है. थोड़ी देर में एटीएम के ठीक होते ही वह व्यक्ति पैसा निकाल कर वहां से चला जाता है. महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कर रही हैं लेकिन उन की किसी बात को कोई सुनना नहीं चाहता.

सरकारी बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत सुनीता से जब इस बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि आजकल महिलाओं को किसी भी प्रोफैशन में जगह मिलने की वजह समय पर काम का होना, कस्टमर से सही बातचीत बनाए रखना आदि हैं. इस का असर व्यापार पर पड़ता है. आजकल सरकारी काम को टिकाए रखना बहुत मुश्किल हो चुका है क्योंकि अगर कहीं कोई हायर पोस्ट वाले गलती करते हैं तो उस का खमियाजा उन के नीचे काम करने वाले को भुगतना पड़ता है. बैंक की नौकरी में हमेशा इस बात की चिंता रहती है कि कम से कम कस्टमर की बात उसे सुननी पड़े. इसलिए उसे बारबार बैंक के अंदर चक्कर लगा कर सारे ग्राहकों और कर्मचारियों की समस्या सुल?ानी पड़ती है. सर्वर की देखभाल असल में ऐसी समस्या आज आम हो चली है.

डिजिटल इंडिया बनाने के उद्देश्य से सर्वर बनाने वाली कंपनियों की भरमार हो चली है, जिन में कुछ फेमस कंपनियां तो कुछ स्टार्टअप कंपनियां हैं जो अपने सर्वर के सही होने का दावा करती हैं. नामचीन कंपनियों के सर्वर खरीदने पर सरकारी तंत्र को अधिक पैसे देने पड़ते हैं, इसलिए कम पैसे में काम निकालने की इच्छा से वे ऐसा कर जाते हैं और कुछ दिनों बाद ये सर्वर काम करना बंद कर देते हैं जिस का खमियाजा आम इंसान और उन का काम करने वाले कर्मचारियों को भुगतना पड़ता है. इस के अलावा, ऐसी मशीनों की बीचबीच में देखभाल करने की जरूरत होती है जो नहीं होती और अचानक से मशीन ठप हो जाती है व काम पूरा करने के लिए महिला कर्मचारियों को देररात तक ठहरना पड़ता है. मैनेजर सुनीता कहती हैं, ‘‘एक टूटी कुरसी पर बैठ कर मु?ो काम करना पड़ता है.

किसी के विरोध करने पर बड़े अधिकारी ट्रांसफर कर देने की धमकी देते हैं और फाइल खोलने की चेतावनी देते हैं. यही वजह है कि कई महिला कर्मचारी सरकारी नौकरी छोड़ कर प्राइवेट कंपनियों में जा रही हैं. महिलाओं को पुरुषों की तरह केवल बाहर ही नहीं, बल्कि घर और बच्चे भी संभालने पड़ते हैं.’’ महिलाएं बिठाती हैं सामंजस्य सुनीता आगे कहती हैं, ‘‘एक महिला बाहर और घर के काम करती हुई मानसिक स्ट्रैस को कम करने के लिए अगर छुट्टी पर जाना चाहती है तो उन्हें हजारों पैंडिंग काम गिना दिए जाते हैं. इस के अलावा सही समय पर वेतन का न मिलना, सैलरी का कट होना, असमानता का व्यवहार आदि कई चीजें हैं जिन की वजह से महिलाएं जौब छोड़ कर कुछ अलग काम करना पसंद कर रही हैं. यह सही भी है क्योंकि सरकारी तंत्र में उच्च पद पर काम करना एक कुएं में गिरने के समान है जहां अंदर डूबने का डर और बाहर आग में जल कर निकलने की तरह है.

‘‘यह सही है कि जिन कर्मचारियों का अपने बौस से सीधा संबंध नहीं होता उन को समस्या कम आती है. आज भी 10 से 20 प्रतिशत लोग जैंडर बायस हैं और उन्हें लगता है कि महिलाओं से कुछ बड़ा काम नहीं हो सकता. मेरी प्रतिभा कुछ तो होगी जिस से मैं यहां तक परीक्षा दे कर पहुंची हूं. बहुत अधिक मानसिक तनाव में जीना पड़ता है.’’ अर्थव्यवस्था में होगी उन्नति शोध में यह प्रमाणित हुआ है कि महिलाएं, जो पुरुषों की आबादी से बहुत कम अंतर पर हैं, काफी शिक्षित और एक्टिव हैं. इस आबादी को वर्कफोर्स में प्रयोग किया जाना काफी जरूरी है.

इस से देश की अर्थव्यवस्था में काफी बढ़ोतरी हो सकती है क्योंकि महिलाओं के कार्यक्षेत्र में हैल्दी कंपीटिशन, टीमवर्क और आपस में अच्छी बौंडिंग रखने की वजह से कंपनी को ग्रो करने में बहुत अधिक मदद मिलती है. इतना ही नहीं, आज हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. विज्ञापनों में तो महिला का होना जरूरी माना जाता है. इस के अलावा कुछ फायदे निम्न हैं- द्य महिलाओं का वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर होना. द्य अपनी लाइफ पर उन का पूरी तरह से नियंत्रण होना. द्य शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत होना. द्य सामाजिक भेदभावों का मजबूती से विरोध कर पाना. द्य भविष्य को अच्छी और मजबूत दिशा देना आदि. द मेकिनसे ग्लोबल इंस्टिट्यूट ने कहा है कि साल 2025 तक भारत में महिलाओं का वर्कफोर्स में शामिल होना अगर लगातार चलता रहे तो भारत विश्व की 700 बिलियन डौलर का योगदान ग्लोबल जीडीपी ग्रोथ में कर सकेगा. इस के लिए भारत को महिलाओं को अधिक से अधिक जौब करने के अवसर प्रदान करने होंगे.

अपना काम स्वयं करें

अच्छी आदतें हमारे व्यक्तित्व को निखारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. अच्छी आदतों से हमारे लाइफस्टाइल में लगातार निखार आता है. कैसी भी परिस्थितियां हों, अच्छी आदतों के कारण बुरे से बुरे समय में भी आप के अंदर एक आत्मविश्वास रहता है, जिस से जीवन के रास्ते खुद सहज होते चले जाते हैं. इन्हीं अच्छी आदतों में से एक है अपना काम स्वयं करने की आदत यानी परिश्रम और मेहनत से कभी भी पीछे न हटना. हर व्यक्ति चाहे किशोर ही क्यों न हों, में यह आदत वरदान है. किशोरावस्था से ही यदि अपना काम स्वयं करने की आदत खुद में विकसित कर लें, तो हर क्षेत्र में सफलता की उम्मीद रहेगी.

अपना हाथ मजबूत करें

इंसान अपने हाथों से अपनी मेहनत, अपनी कर्मठता द्वारा सफलता के शिखर को छू सकता है. हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने से आलसी व्यक्ति अपना जीवन बेकार कर लेता है. इसलिए बच्चों को अपने हाथों को हमेशा मजबूत बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए. किशोर जो भी काम करें, उस में दूसरे व्यक्ति की भूमिका कम से कम हो. किसी भी काम को छोटा या बड़ा न समझें. अपनी क्षमता को देखते हुए जो भी बन पड़े अपने काम को करते रहना चाहिए. धीरेधीरे काम की आदत में निखार और निपुणता का विकास होता चला जाएगा.

घर से करें शुरुआत

कहा जाता है कि घर बच्चों की प्रथम पाठशाला है. घर में बहुत से काम होते हैं, जिन में अपनी मांबहन या बड़ों की मदद से काम करने की शुरुआत की जा सकती है. अपने काम खुद करने की आदत डालें. सुबह उठने के बाद अपना बिस्तर ठीक करना, चादर आदि तह बना कर रखना, बिखरे सामान निश्चित जगह पर रखना, नहाते समय बाथरूम में बहता साबुन का पानी साफ करना, जमा पानी को वाइपर द्वारा निकालना, अपना गीला तौलिया धूप में सुखाना, जूते पौलिश करना आदि बहुत से ऐसे छोटेमोटे काम हैं जिन्हें किशोर खुद करने की आदत डालें.

इस से जहां किशोरों में आत्मनिर्भरता विकसित होती है वहीं वे हर किसी के दुलारे भी बनते हैं. भविष्य में किसी कारणवश घर से दूर रहना पड़े तो भी ज्यादा असुविधा नहीं होती.

नौकर हैं तो खुद काम क्यों करें

बहुत से घरों में काम करने के लिए नौकर या मेड रखे होते हैं. ऐसे में यह सोच पनपना स्वाभाविक है कि किशोर काम क्यों करें? इस प्रसंग में एक प्रेरक कहानी प्रस्तुत है, ‘बेहद अमीर खलीफा हजरत (मुहम्मद साहब के साथी) के घर रात के समय किसी जरूरी काम से एक सज्जन आए, उस समय सभी नौकर सोने जा चुके थे. ‘खलीफा ने उन के सभी कागजों को ध्यान से पढ़ना शुरू किया ही था कि लैंप में तेल खत्म हो गया और वे तेल लेने के लिए उठे. तभी मेहमान ने हैरानी से कहा कि आप नौकर को क्यों नहीं उठा देते. आप को क्या पता कि तेल कहां रखा होगा. ‘खलीफा ने कहा कि नौकर भी तो इंसान ही हैं. उन्हें भी आराम और छुट्टी की जरूरत होती है, उन के साथ भी मैं छोटेमोटे काम करता रहता हूं ताकि उन की अनुपस्थिति में मुझे कोई परेशानी न हो.’

अकसर देखा गया है कि मेड या नौकर के छुट्टी पर जाते ही घर में काम को ले कर अफरातफरी मच जाती है इसलिए मेड के साथ भी छोटेमोटे काम कराते रहें. नौकर या मेड के होने पर काम की आदत होने से थोड़ीबहुत असुविधा तो होगी पर काम भारी बोझ नहीं लगेगा. एक और बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि वक्त हमेशा एकसमान नहीं रहता, इसलिए मेड या नौकरों पर निर्भरता एक हद तक रखनी चाहिए. अपने हाथों पर भरोसा रखें और मेहनत से काम करने की आदत डालें. अगर आप ऐसा करेंगे तो जीवन में कैसा भी बदलाव आए, आप को कोई चिंता या भय नहीं सताएगा. मेड के न आने पर भी परिजनों का इंतजार नहीं करना पड़ेगा. साथ ही घर में कितने भी सदस्य हों सभी काम समय रहते पूरे हो जाएंगे.

रसोई में करें छोटेमोटे काम

जब भी समय मिले रसोई में किसी बड़े के साथ मिल कर छोटेमोटे काम करते रहना चाहिए. रसोईर् में आजकल बहुत से सहायक यंत्र आ गए हैं जैसे, मिक्सी फूडप्रोसैसर, माइक्रोवेव, ओवन आदि जिन की मदद से खाना बनाना बहुत आसान हो गया है. किशोर मां के साथ किचन में चाय बनाना, सब्जी काटना, बाजार से लाया गया सामान डब्बों में डालना या सुनिश्चित स्थान पर रखना, डाइनिंगटेबल पर बरतन, मैट लगाना, पानी रखना, मेहमानों के आने पर पानी देना, खाना सर्व करना आदि बड़े आराम से कर सकते हैं. काम करते रहने से आप में एक सैल्फ कौन्फिडैंस डैवलप होगा. आप को पता होगा कि किचन में कौन सी चीज कहां रखी है. इस से अकेले रहने पर आराम से अपने लायक भोजन का इंतजाम कर सकेंगे.

अपना काम खुद करने के फायदे

अपना काम स्वयं करने के बहुत से फायदे हैं. मेहनत और काम का अभ्यास होने से आप को भविष्य में आराम हो सकता है कभी भी नुकसान नहीं होगा. आज के दौर में अकसर घर से दूर जौब या पढ़ाई के लिए जाना पड़ता है. ऐसे में आप को घर से दूर बाहर अकेले होस्टल में, किराए पर या बतौर पीजी में रहना पड़ सकता है. अगर आप को किचन या घरेलू कामों की समझ होगी तो अपना इंतजाम अच्छे से कर पाएंगे. रोजरोज बाहर का खाना बहुत महंगा भी पड़ता है और उस के हाइजैनिक होने की भी गारंटी नहीं होती.

अन्य फायदे

सेहतमंद लंबी उम्र : काम करने से शरीर मजबूत बनाता है. इम्यूनिटी बढ़ती है और सेहत ठीक रहती है. एक स्वस्थ शरीर में एक स्वस्थ दिमाग का विकास होता है. एकाग्रता भी बढ़ती है और आप अपनी पढ़ाई आराम से कर सकते हैं.

कार्य कुशलता : किसी भी काम के निरंतर करते रहने से आप उस के अभ्यस्त हो जाते हैं. यह कार्यकुशलता जीवन में हमेशा आप को लाभ पहुंचाएगी.

मजबूत रिश्ते : सेहतमंद और कुशाग्रबुद्धि का बच्चा समाज में हर रिश्ते को सफलता से जीता है. उस का सामाजिक दायरा हमेशा बड़ा रहता है.

दिनचर्या में सुधार : अपने काम को नियम और सुचारु रूप से करने से आलसभरी दिनचर्या में बदलाव आता है. जो काम धीरेधीरे पूरे दिन घसीट कर किया जाता था वह समय पर पूरा हो जाता है. इस से पढ़ाईर् या कुछ भी करने के लिए समय की काफी बचत हो जाती है.

नई सोच और संतोष : काम की आदत के विकास से आत्मनिर्भरता का गुण विकसित होता है. काम की सफलता के बाद एक उत्साह और संतोष का भाव जागता है, जिस से जीवन में उन्नति के नए मार्ग खुलते हैं.

सुंदरता में निखार : काम करने से शरीर ऐक्टिव रहता है. चेहरे पर आत्मविश्वास झलकता है. पसीना निकालने से शरीर का जमा फैट निकल जाता है.

अंत में हम कह सकते हैं कि एक सुनहरे भविष्य के लिए मेहनत और काम करने का जज्बा होना बेहद जरूरी है. एक एवरेज स्टूडैंट अपनी मेहनत से आलसी व कुशाग्रबुद्धि छात्र से ज्यादा आगे निकल जाता है. जिंदगी जीना ही सिर्फ हमारा मकसद नहीं होना चाहिए बल्कि किसी लक्ष्य को प्राप्त करना, जीवन को भरपूर जीना और खुश रहना हमारा मकसद होना चाहिए.

पिछले दिनों मेरी पत्नी और मेरे बड़े भाई के बीच शारीरिक संबंध बन गए,आप ही बताएं मैं क्या करूं?

सवाल
मेरी उम्र 40 वर्ष है और मेरी नौकरी में तबादले होते हैं जिस कारण मुझे एक शहर से दूसरे शहर जाना पड़ता है. हम 3 भाईबहन हैं. बड़े भाई की शादी को कई साल हो गए हैं. पिछले दिनों मेरी मां और भाभी को किसी काम के सिलसिले में एक महीने के लिए बाहर जाना पड़ा. इस बीच मेरी पत्नी और बड़े भाई के बीच संबंध बन गए. इस बात की भनक जब घर वालों को लगी तो दोनों ने एकदूसरे से दूरी बनाने में ही समझदारी समझी. आप ही बताएं कि क्या मैं अपनी पत्नी को छोड़ दूं?

जवाब
देखिए, आप का आहत होना स्वाभाविक है, क्योंकि जिस रिश्ते को आप सब से ज्यादा अहमियत देते हैं और जब वह ही आप को धोखा दे जाए तो दिल तो दुखता ही है.

अब आप संयम से काम लें क्योंकि इस से सिर्फ आप का रिश्ता ही नहीं टूटेगा बल्कि आप की भाभी का घर भी बरबाद हो जाएगा. आप ठंडे दिमाग से अपनी पत्नी से बात करें कि उस ने आप के साथ ऐसा क्यों किया. हो सकता है आप की ट्रांसफर वाली नौकरी इस का कारण बनी हो. इस बीच वह खुद को काफी अकेला महसूस कर रही हो और अपनी भावनाओं पर काबू नहीं कर पाने के कारण यह गलती कर बैठी हो.

आप उस से इस का कारण जानें व उसे ज्यादा से ज्यादा टाइम दें और हो सके तो जहां आप की पोस्टिंग हो, उसे साथ ले कर जाएं. उसे यह भी स्पष्ट शब्दों में समझा दें कि अगर ऐसी गलती दोबारा हुई तो यह बरदाश्त से बाहर होगी और भाई को भी बता दें. आप यह बात भी ध्यान में रखें कि छोड़ना किसी समस्या का हल नहीं होता. अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इस उलझन को कैसे सुलझाते हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

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पति परदेस में तो डर काहे का

जिला अलीगढ़ मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर थाना गोंडा क्षेत्र में एक गांव है वींजरी. इस गांव में एक किसान परिवार है अतर सिंह का. उस के परिवार में उस की पत्नी कस्तूरी के अलावा 5 बेटे हैं. इन में सब से छोटा है जयकिंदर. अतर सिंह के तीसरे नंबर के बेटे को छोड़ कर सभी बेटों की शादियां हो चुकी हैं. इस के बावजूद पूरा परिवार आज भी एक ही मकान में संगठित रूप से रहता है.

अतर सिंह का सब से छोटा बेटा जयकिंदर आंध्र प्रदेश में रेलवे में नौकरी करता है. डेढ़ साल पहले उस की शादी पुरा स्टेशन, हाथरस निवासी फौजी रमेशचंद्र की बेटी प्रेमलता उर्फ मोना के साथ तय हो गई थी. मोना के पिता के सामने अतर सिंह की कुछ भी हैसियत नहीं थी. यह रिश्ता जयकिंदर की रेलवे में नौकरी लग जाने की वजह से हुआ था.

अतर सिंह ने समझदारी से काम लेते हुए जयकिंदर की शादी से पहले अपने मकान के ऊपरी हिस्से पर एक हालनुमा बड़ा सा कमरा, बरामदा और रसोई बनवा दी थी, ताकि दहेज में मिलने वाला सामान ढंग से रखा जा सके. साथ ही उस में जयकिंदर अपनी पत्नी के साथ रह भी सके. मई 2015 में जयकिंदर और मोना की शादी हुई तो मोना के पिता ने दिल खोल कर दहेज दिया, जिस में घर गृहस्थी का सभी जरूरी सामान था.

मोना जब मायके से विदा हो कर ससुराल आई तो अपने जेठजेठानियों की हालत देख कर परेशान हो उठी. उन की माली हालत ठीक नहीं थी. उस की समझ में नहीं आया कि उस के पिता ने क्या देख कर उस की शादी यहां की. मोना ने अपनी मां को फोन कर के वस्तुस्थिति से अवगत कराया. मां पहले से ही हकीकत जानती थी. इसलिए उस ने मोना को समझाते हुए कहा, ‘‘तुझे उन सब से क्या लेनादेना. छत पर तेरे लिए अलग मकान बना दिया गया है. तेरा पति भी सरकारी नौकरी में है. तू मौज कर.’’

मोना मां की बात मान गई. उस ने अपने दहेज का सारा सामान ऊपर वाले कमरे में रखवा कर अपना कमरा सजा दिया. उस कमरे को देख कर कोईर् भी कह सकता था कि वह बड़े बाप की बेटी है. उस के हालनुमा कमरे में टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन और गैस वगैरह सब कुछ था. सोफा सेट और डबलबैड भी. शादी के बाद करीब 15 दिन बाद जयकिंदर मोना को अपने घर वालों के भरोसे छोड़ कर नौकरी पर चला गया.

पति के जाने के बाद मोना ने ऊपर वाले कमरे में न केवल अकेले रहना शुरू कर दिया, बल्कि पति के परिवार से भी कोई नाता नहीं रखा. अलबत्ता कभीकभार उस की जेठानी के बच्चे ऊपर खेलने आ जाते तो वह उन से जरूर बोलबतिया लेती थी. वरना उस की अपनी दुनिया खुद तक ही सिमटी थी.

उस की जिंदगी में अगर किसी का दखल था तो वह थी दिव्या. जयकिंदर के बड़े भाई की बेटी दिव्या रात को अपनी चाची मोना के पास सोती थी ताकि रात में उसे डर न लगे. इस के लिए जयकिंदर ही कह कर गया था.

देखतेदेखते जयकिंदर और मोना की शादी को एकडेढ़ साल बीत गया. जयकिंदर 10-5 दिन के लिए छुट्टी पर आता और लौट जाता. उस के जाने के बाद मोना को अकेले ही रहना पड़ता था.

मोना को घर की जगह बाजार की चीजें खाने का शौक था. इसी के मद्देनजर उस के पति जयकिंदर ने एकदो बार नौकरी पर जाने से पहले उसे समझा दिया था कि जब उसे किसी चीज की जरूरत हो तो सोनू को बुला कर बाजार से से मंगा लिया करे. सोनू जयकिंदर के पड़ोसी का बेटा था जो किशोरावस्था को पार कर चुका था. वह सालों से जयकिंदर का करीबी दोस्त था. सोनू बिलकुल बराबर वाले मकान में रहता था. मोना को वह भाभी कह कर पुकारता था. मोना ने शादी में सोनू की भूमिका देखी थी. वह तभी समझ गई थी कि वह उस के पति का खास ही होगा.

जयकिंदर के जाने के बाद सोनू जब चाहे मोना के पास चला आता था, नीचे घर की महिलाएं या पुरुष नजर आते तो वह छज्जे से कूद कर आ जाता. दोनों आपस में खूब हंसीमजाक करते थे. मोना तेजतर्रार थी और थोड़ी मुंहफट भी. कई बार वह सोनू से द्विअर्थी शब्दों में भी मजाक कर लेती थी.

एक दिन सोनू जब बाजार से वापस लौटा तो मोना छत पर खड़ी थी. उस ने सोनू को देखते ही आवाज दे कर ऊपर बुला कर पूछा, ‘‘आज सुबह से ही गायब हो? कहां थे?’’

‘‘भाभी, बनियान लेने बाजार गया था.’’ सोनू ने हाथ में थामी बनियान की थैली दिखाते हुए बताया. यह सुन कर मोना बोली, ‘‘अगर गए ही थे तो भाभी से भी पूछ कर जाते कि कुछ मंगाना तो नहीं है.’’

‘‘कल फिर जाऊंगा, बता देना क्या मंगाना है?’’ सोनू ने कहा तो मोना ने पूछा, ‘‘और क्या लाए हो?’’

‘‘बताया तो बनियान लाया हूं.’’ सोनू ने कहा तो मोना बोली, ‘‘मुझे भी बनियान मंगानी है, ला दोगे न?’’

‘‘तुम्हारी बनियान मैं कैसे ला सकता हूं? मुझे नंबर थोड़े ही पता है.’’ सोनू बोला.

‘‘साइज देख कर भी नहीं ला सकते?’’

‘‘बेकार की बातें मत करो, साइज देख कर अंदाजा होता है क्या?’’

‘‘तुम बिलकुल गंवार हो. अंदर आओ साइज दिखाती हूं.’’ कहती हुई मोना कमरे में चली गई. सोनू भी उस के पीछेपीछे कमरे में चला गया.

कमरे में पहुंचते ही मोना ने साड़ी का पल्लू नीचे गिरा दिया और सीना फुलाते हुए बोली, ‘‘लो नाप लो साइज. खुद पता चल जाएगा.’’

‘‘मुझ से साइज मत नपवाओ भाभी, वरना बहुत पछताओगी.’’

‘‘पछता तो अब भी रही हूं, तुम्हारे भैया से शादी कर के.’’ मोना ने अंगड़ाई लेते हुए साड़ी का पल्लू सिर पर डालते हुए कहा.

‘‘क्यों?’’ सोनू ने पूछा तो मोना बोली, ‘‘महीने दो महीने बाद घर आते हैं, वह भी 2 दिन रह कर भाग जाते हैं. और मैं ऐसी बदनसीब हूं कि देवर भी साइज नापने से डरता है. कोई और होता तो साइज नापता और…’’ मोना की आंखों में नशा सा उतर आया था. अभी तक सोनू मोना की बातों को केवल मजाक में ले रहा था. उस में उसी हिसाब से कह दिया, ‘‘जब भैया नौकरी से आएं तो उन्हीं को दिखा कर साइज पूछना.’’

‘‘अगर पति बुद्धू हो तो भाभी का काम समझदार देवर को कर देना चाहिए.’’ मोना ने सोनू का हाथ पकड़ते हुए कहा.

‘‘क्याक्या काम कराओगी देवर से?’’ सोनू ने शरारत से पूछा.

‘‘जो देवर करना चाहे, भाभी मना नहीं करेगी. बस तुम्हारे अंदर हिम्मत होनी चाहिए.’’ मोना हंसी.

‘‘कल बात करेंगे.’’ कहते हुए सोनू वहां से चला गया.

दूसरे दिन सोनू मां की दवाई लेने बाजार जाने के लिए निकला तो मोना के घर जा पहुंचा. उस वक्त मोना खाना बना कर खाली हुई थी. सोनू को देखते ही वह चहक कर बोली, ‘‘बाजार जा रहे हो क्या?’’

‘‘मम्मी की दवाई लेने जा रहा हूं. तुम्हें कुछ मंगाना हो तो बोलो?’’ सोनू ने पूछा. मोना बोली, ‘‘बाजार में मिल जाए तो मेरी भी दवाई ले आना.’’ मोना ने चेहरे पर बनावटी उदासी लाते हुए कहा.

‘‘पर्ची दे दो, तलाश कर लूंगा.’’

‘‘मुंह जुबानी बोल देना कि ‘प्रेमरोग’ है, जो भी दवा मिले, ले आना.’’

‘‘भाभी, तुम्हें ये रोग कब से हो गया?’’ सोनू ने हंसते हुए पूछा.

‘‘ये बीमारी तुम्हारी ही वजह से लगी है.’’ मोना की आंखों में खुला निमंत्रण था.

‘‘फिर तो तुम्हें दवा भी मुझे ही देनी होगी.’’

‘‘एक खुराक अभी दे दो, आराम मिला तो और ले लूंगी.’’ कहते हुए मोना ने अपनी दोनों बांहें उठा कर उस की ओर फैला दीं.

सोनू कोई बच्चा तो था नहीं, न बिलकुल गंवार था, जो मोना के दिल की मंशा न समझ पाता. बिना देर लगाए आगे बढ़ कर उस ने मोना को बांहों में भर लिया. थोड़ी देर में देवरभाभी का रिश्ता ही बदल गया.

सोनू जब वहां से बाजार के लिए निकला तो बहुत खुश था. मन में कई महीनों की पाली उस की मुराद पूरी हो गई थी.

दरअसल, जब से मोना ने उसे इशारोंइशारों में रिझाना शुरू किया था, तभी से वह उसे पाने की कल्पना करने लगा था. उस ने आगे कदम नहीं बढ़ाया था तो केवल करीबी रिश्तों की वजह से. लेकिन आज मोना ने खुद ही सारे बंधन तोड़ डाले थे. धीरेधीरे मोना और सोनू का प्यार परवान चढ़ने लगा. मोना को सासससुर, जेठजेठानी किसी का डर नहीं था. वह परिवार से अलग और अकेली रहती थी. पति परदेश में नौकरी करता था, बालबच्चा कोई था नहीं. बच्चों के नाम पर सब से बड़े जेठ की

14 वर्षीय बेटी दिव्या ही थी जो रात को मोना के साथ सोती थी. वह भी इसलिए क्योंकि जाते वक्त मोना का पति बडे़ भैया से कह कर गया था मोना अकेली है, दिव्या को रात में सोने के लिए मोना के पास भेज दिया करें.

तभी से दिव्या रात में मोना के पास सोती थी. सुबह को चाय पी कर दिव्या अपने घर आ जाती थी और स्कूल जाने की तैयारी करने लगती थी. उस के स्कूल जाने के बाद मोना 4-5 घंटे के लिए फ्री हो जाती थी. इस बीच वह शरारती देवर सोनू को बुला लेती थी. स्कूल से आने के बाद दिव्या कभी चाची के घर आ जाती तो कभी अपने घर रह कर काम में मां का हाथ बंटाती. कभीकभी वह अपनी सहेलियों को ले कर मोना के घर आ जाती और उसे भी अपने साथ खिलाती. मोना पूरी तरह सोनू के प्यार में डूब चुकी थी. वह चाहती थी कि दिन ही नहीं बल्कि पूरी रात सोनू के साथ गुजारे.

शाम ढल चुकी थी. अंधेरे ने चारों ओर पंख पसारने शुरू कर दिए थे. दिव्या को उस की मां मंजू ने कहा, ‘‘जब चाची के पास जाए तो किताबें साथ ले जाना, वहीं पढ़ लेना.’’ दिव्या ने ऐसा ही किया.

दिव्या चाची के घर पहुंची तो दरवाजे के किवाड़ भिड़े हुए थे. वह धक्का मार कर अंदर चली गई. अंदर जब चाची दिखाई नहीं दी तो वह कमरे में चली गई. कमरे में अंदर का दृश्य देख कर वह सन्न रह गई. वहां बेड पर सोनू और मोना निर्वस्त्र एकदूसरे से लिपटे पड़े थे. दिव्या इतनी भी अनजान नहीं थी कि कुछ समझ न सके. वह सब कुछ समझ कर बोली, ‘‘चाची, यह क्या गंदा काम कर रही हो?’’

दिव्या की आवाज सुनते ही सोनू पलंग से अपने कपड़े उठा कर बाहर भाग गया. मोना भी उठ कर साड़ी पहनने लगी. फिर मोना ने दिव्या को बांहों में भरते हुए पूछा, ‘‘दिव्या, तुम ने जो भी देखा, किसी से कहोगी तो नहीं?’’

‘‘जब चाचा घर वापस आएंगे तो उन्हें सब बता दूंगी.’’

‘‘तुम तो मेरी सहेली हो. नहीं तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी.’’ मोना ने दिव्या को बहलाना चाहा, लेकिन दिव्या ने खुद को मोना से अलग करते हुए कहा, ‘‘तुम गंदी हो, मेरी सहेली कैसे हो सकती हो?’’

‘‘मैं कान पकड़ती हूं, अब ऐसा गंदा काम नहीं करूंगी.’’ मोना ने कान पकड़ते हुए नाटकीय अंदाज में कहा.

‘‘कसम खाओ.’’ दिव्या बोली.

‘‘मैं अपनी सहेली की कसम खा कर कहती हूं बस.’’

‘‘चलो खेलते हैं.’’ इस सब को भूल कर दिव्या के बाल मन ने कहा तो मोना ने दिव्या को अपनी बांहों में भर कर चूम लिया, ‘‘कितनी प्यारी हो तुम.’’

26 दिसंबर, 2016 की अलसुबह गांव के कुछ लोगों ने गांव के ही गजेंद्र के खेत में 14 वर्षीय दिव्या की गर्दन कटी लाश पड़ी देखी तो गांव भर में शोर मच गया. आननफानन में यह खबर दिव्या के पिता ओमप्रकाश तक भी पहुंच गई. उस के घर में कोहराम मच गया. परिवार के सभी लोग रोतेबिलखते, जिन में मोना भी थी घटनास्थल पर जा पहुंचे. बेटी की लाश देख कर दिव्या की मां का तो रोरो कर बुरा हाल हो गया. किसी ने इस घटना की सूचना थाना गोंडा पुलिस को दे दी.

सूचना मिलते ही गोंडा थानाप्रभारी सुभाष यादव पुलिस टीम के साथ गांव पींजरी के लिए रवाना हो गए. तब तक घटनास्थल पर गांव के सैकड़ों लोग एकत्र हो चुके थे. थानाप्रभारी ने भीड़ को अलग हटा कर लाश देखी. तत्पश्चात उन्होंने इस हत्या की सूचना अपने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भी दे दी और प्रारंभिक काररवाई में लग गए.

थोड़ी देर में एसपी ग्रामीण संकल्प शर्मा और क्षेत्राधिकारी पंकज श्रीवास्तव भी पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर जा पहुंचे. लाश के मुआयने से पता चला कि दिव्या की हत्या उस खेत में नहीं की गई थी, क्योंकि लाश को वहां तक घसीट कर लाने के निशान साफ नजर आ रहे थे. मृत दिव्या के शरीर पर चाकुओं के कई घाव मौजूद थे.

जब जांच की गई तो जहां लाश पड़ी थी, वहां से 300 मीटर दूर पुलिस को डालचंद के खेत में हत्या करने के प्रमाण मिल गए. ढालचंद के खेत में लाल चूडि़यों के टुकड़े, कान का एक टौप्स, एक जोड़ी लेडीज चप्पल के साथ खून के निशान भी मिले.

जांच चल ही रही थी कि डौग एक्वायड के अलावा फोरेंसिक विभाग के प्रभारी के.के. मौर्य भी अपनी टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए.

घटनास्थल से बरामद कान के टौप्स और चप्पलें मृतका दिव्या की ही थीं. जबकि लाल चूडि़यों के टुकड़े उस के नहीं थे. इस से यह बात साफ हो गई कि दिव्या की हत्या में कोई औरत भी शामिल थी. डौग टीम में आई स्निफर डौग गुड्डी लाश और हत्यास्थल को सूंघने के बाद सीधी दिव्या के घर तक जा पहुंची. इस से अंदेशा हुआ कि दिव्या की हत्या में घर का कोई व्यक्ति शामिल रहा होगा.

पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी में पंचनामा भर कर दिव्या की लाश को पोस्टमार्टम के लिए अलीगढ़ भिजवा दिया गया. पूछताछ में दिव्या के परिवार से किसी की दुश्मनी की बात सामने नहीं आई. अब सवाल यह था कि दिव्या की हत्या किसने और

किस मकसद के तहत की थी.

हत्या का यह मुकदमा उसी दिन थाना गोंडा में अज्ञात के खिलाफ भादंवि की धारा 302 के अंतर्गत दर्ज हो गया. पोस्टमार्टम के बाद उसी शाम दिव्या का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

दूसरे दिन थानाप्रभारी ने महिला सिपाहियों के साथ पींजरी गांव जा कर व्यापक तरीके से पूछताछ की. दिव्या की तीनों चाचियों से भी पूछताछ की गई. सुभाष यादव अपने स्तर पर पहले दिन ही दिव्या की हत्या की वजह के तथ्य जुटा चुके थे. बस मजबूत साक्ष्य हासिल कर के हत्यारों को पकड़ना बाकी था.

दिव्या की सब से छोटी चाची मोना से जब चूडि़यों के बारे में सवाल किया गया तो उस ने बताया कि वह चूड़ी नहीं पहनती, लेकिन जब तलाशी ली गई तो उस के बेड के पीछे से लाल चूडि़यां बरामद हो गईं, जो घटनास्थल पर मिले चूडि़यों के टुकड़ों से पूरी तरह मेल खा रही थीं. सुभाष यादव का इशारा पाते ही महिला पुलिस ने मोना को पकड़ कर जीप में बैठा लिया. पुलिस उसे थाने ले आई.

थाने में थानाप्रभारी सुभाष यादव को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी. मोना ने हत्या का पूरा सच खुद ही बयां कर दिया. सच सामने आते ही बिना देर किए गांव जा कर मोना के प्रेमी सोनू को भी गिरफ्तार कर लिया गया.

सोनू के अलावा नगला मोनी के रहने वाले मनीष को भी धर दबोचा गया. दोनों को थाने ला कर पूछताछ के बाद हवालात में डाल दिया गया. दिव्या हत्याकांड के खुलासे की सूचना एसपी ग्रामीण संकल्प शर्मा और सीओ इगलास पंकज श्रीवास्तव को दे दी गई.

दोनों अधिकारियों ने थाना गोंडा पहुंच कर थानाप्रभारी सुभाष यादव को शाबासी देने के साथ अभियुक्तों से खुद भी पूछताछ की.

पूछताछ में मोना के साथ उस के प्रेमी सोनू व उस के दोस्त ने जो कुछ बताया वह कुछ इस तरह था-

दिव्या ने सोनू को मोना के साथ शारीरिक संबंध बनाते देख लिया था. उस ने चाचा के घर लौटने पर उसे सब कुछ सचसच बता देने की बात भी कही थी. उस समय बात खत्म जरूर हो गई थी. फिर भी डर यही था कि बाल बुद्धि की दिव्या ने अगर यह बात जयकिंदर को बता दी तो उस का क्या हश्र होगा, इसी से चिंतित मोना व सोनू ने योजना बनाई कि जयकिंदर के आने से पहले दिव्या की हत्या कर दी जाए.

दिव्या हर रोज मोना के साथ ही सोती थी और अलसुबह चाची के साथ दौड़ लगाने जाती थी. कभीकभी वह दौड़ने के लिए वहीं रुक जाती थीं. जब कि मोना अकेली लौट आती थी. दिव्या को दौड़ का शौक था, ये बात घर के सभी लोग जानते थे. इसी लिए हत्या में मोना का हाथ होने की संभावना नहीं मानी जाएगी, यह सोच कर मोना ने सोनू के साथ योजना बना डाली, जिस में सोनू ने दूसरे गांव के रहने वाले अपने दोस्त मनीष को भी शामिल कर लिया.

26 दिसंबर को सोनू व मनीष पहले ही वहां पहुंच गए. मोना दिव्या को ले कर जब डालचंद के खेत के पास पहुंची तो घात में बैठे सोनू और मनीष ने दिव्या को दबोच कर चाकुओं से वार करने शुरू कर दिए. दिव्या ने बचने के लिए मोना का हाथ पकड़ा, जिस से उस के हाथ से 2 चूडि़यां टूट कर वहां गिर गईं. हत्यारे उसे खींच कर खेत में ले गए, जहां गर्दन काट कर उस की हत्या कर डाली. इसी छीनाझपटी में दिव्या के कान का एक टौप्स भी गिर गया था और चप्पलें भी पैरों से निकल गई थीं.

दिव्या की हत्या के बाद ये लोग लाश को खींचते हुए लगभग 300 मीटर दूर गजेंद्र के खेत में ले गए. इस के बाद सभी अपनेअपने घर चले गए.

हत्यारा कितना भी चतुर हो फिर भी कोई न कोई सुबूत छोड़ ही जाता है. जो पुलिस के लिए जांच की अहम कड़ी बन जाता है. ऐसा ही साक्ष्य मोना की चूडि़यां बनीं, जिस ने पूरे केस का परदाफाश कर दिया.

बोनसाई-भाग 2: सुमित्रा अपनी बात को रखते हुए क्या कहीं थी?

मेरे ससुरालवाले तो रुष्ट हो कर अगले ही दिन लौट गए थे. बाकी को भी लौटना ही था. कुछ समय गुजरा तो नातेरिश्तेदार, जानपहचान वाले स्नेहा की शादी कर देने पर जोर डालने लगे. रिश्ते भी सुझाने लगे. असमय मनोज के साथ छोड़ कर चले जाने से मैं स्वयं को बेहद असहाय महसूस करने लगी थी. उस पर नातेरिश्तेदारों, अड़ोसपड़ोस के बढ़ते दबाव में मेरी जागरूकता और दृढ़ता तिनके की भांति बहने लगी थी. पर बेटियों के हौसले बुलंद थे. स्नेहा ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा कर दी कि जब तक वह अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाएगी तब तक शादी नहीं करेगी. एक बार फिर निर्लज्ज, चरित्रहीन जैसे विशेषणों की बौछार ने हम मांबेटियेां को भिगो डाला. पर बेटियों ने दृढ़ता से न केवल मुझे बल्कि खुद को भी संभाले रखा. उन के संयम और दृढ़ता ने मुझ में फिर से जीने का हौसला जगा दिया.

पर अब मैं और मेरा परिवार नातेरिश्तेदारों, अड़ोसपड़ोस की निगाहों में बुरी तरह खटकने लगा. हमारे सुखदुख में शामिल होना तो दूर की बात, लोगों ने हमें अपने सुखदुख में शामिल होने लायक समझना भी छोड़ दिया. ऐसे में जब भी मुझ पर नैराश्य के बादल हावी होने लगते हैं, बेटियां तुरंत मुझे घेर कर समझाइश पर उतर आती हैं. ‘हम तीनों हैं न मां आप के साथ? क्या हमारा साथ कम लगता है आप को? रही समाज की बात, तो वह आप के तो क्या, किसी के भी साथ स्थायी रूप से खड़ा नहीं है. कल को सफलता और संपन्नता ने हमारे कदम चूमे तो आज विरोध का नारा गुंजाने वाले ये ही लोग हमारे आगेपीछे घूमते नजर आएंगे. आप ने तो पढ़ा ही है,

सभी सुख और सबलता के साथी होते हैं, निर्बल और असहाय के साथ कौन खड़ा होना पसंद करेगा. थोड़ा इंतजार करो, मां. खुद को बुलंद बनाओ. फिर देखना, कैसे एक दिन यही समाज तुम्हें झुकझुक कर सलाम करता है.’

सविता भाभी को यह सब बताते मैं आत्मविभोर हो जाती थी. ‘अब आप ही बताइए भाभी, बेटियों की ऐसी आशावादी और उत्साहजनक सोच पर मैं क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूं?’

‘सलाम करो ऐसी सोच को और खुश रहो कि तुम ने ऐसी होनहार संतानें जनीं, सुमित्रा. वैसे भी इस संसार में सब से बड़ी संपति बुद्धि, सब से अच्छा हथियार धैर्य, सब से अच्छी सुरक्षा विश्वास और सब से बढ़िया दवा हंसी है. और कितने आश्चर्य की बात है कि ये सब निशुल्क हैं.’

सविता भाभी की प्रतिक्रिया से उत्साहित मैं आसपास के नकारात्मक वातावरण को भुला कर फिर से अपने घरसंसार में डूब जाती. उन का साथ मुझ में नई ऊर्जा भर देता. कुछ लोग मिल कर बदल जाते हैं और कुछ लोगों से मिल कर जिंदगी बदल जाती है.

गुजरते वक्त के साथ मेरे परिवार पर छाए दुख के बादल भी छंटने लगे. स्नेहा की पढ़ाई पूरी हुई और उसे एक अच्छी नौकरी भी मिल गई. सब से छोटी सुमेधा ने सीनियर सैकंडरी की परीक्षा में प्रांत में प्रथम स्थान हासिल किया और उसी दिन घोषित राजस्थान पब्लिक सर्विस कमीशन के परिणाम में सुगंधा लड़कियों में टौपर घोषित हुई. अखबार में दोनों बहनों के फोटो सहित विवरण, साथ ही मेरे और स्नेहा के त्याग की कहानी छपी तो बधाइयां देने वालों का तांता सा बंध गया.

लंबे नैराश्य और दुख के अंधकार के बाद निकलने वाली खुशी की किरण का उजाला कुछ और ही रौनक लिए होता है. तीनों बहनों का उत्साह देखते ही बनता था. मेरे लिए बेटियों की खुशी ही खुश होने की सब से बड़ी वजह थी.

 

6 टिप्स: अदरक से यूं बनाएं कैंडी, जिंजर टॉनिक और चटनी

अदरक में कई महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्व जैसे विटामिन सी, कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन, जिंक, कौपर, मैगनीज और क्रोमियम पाए जाते हैं. अदरक में बैक्टीरिया और वायरस से लड़ने की क्षमता होती है, इसलिए इस के नियमित सेवन करने से यह गले के संक्रमण से बचाता है. यह शरीर में पैदा होने वाले केलोस्ट्राल को कम कर देता है. भूख न लगने पर अदरक को महीन काट कर उस में थोड़ा सा नमक मिलाने और रोज एक बार लगातार 1 सप्ताह तक थोड़ाथोड़ा खाने से भूख लगनी शुरू हो जाएगी.

कोल्ड और फ्लू जैसी बीमारियों में लाभप्रद होने के अलावा अदरक दस्त और फूड पौइजनिंग जैसी बीमारियों के लिए भी लाभप्रद है. इस का नियमित सेवन करने से पाचन शक्ति दुरुस्त रहती है. अदरक का नियमित सेवन माइग्रेन के दर्द में फायदा करता है. पीरियड के दौरान पेट में होने वाले दर्द में गुड़ के साथ अदरक की चाय बना कर पीने से आराम होता है. अदरक एक बेहतरीन दर्दनाशक है. खांसी, जुकाम, बुखार और सिरदर्द में इस का सेवन करने से तुरंत आराम मिलता है.अ

दरक से निम्नलिखित खाद्य पदार्थ बनाए जा सकते हैं .

1. अदरक की कैंडी: 

  • बहुत कम रेशे वाली बड़ी घाट की पकी हुई अदरक ले कर अच्छी प्रकार से पानी से साफ कर लें.
  • छिलका उतार कर फिर एक बार पानी से साफ करें.
  • गांठों को खूब अच्छी तरह से गोद कर गोलगोल उचित साइज में काट लें.
  • कटे हुए टुकड़ों को मलमल के कपड़े में बांध कर उबलते हुए पानी में 1 घंटे के लिए छोड़ दें, जिस से कि वे नरम हो जाएं.
  • इस के बाद टुकड़ों को निकाल कर सुखा लें.
  • एक किलोग्राम कैंडी के लिए 1 किलोग्राम चीनी और 4 ग्राम साइट्रिक एसिड की आवश्यकता होती है.
  • पहले आधा किलोग्राम चीनी ले कर उस में 1 लिटर पानी मिला कर उबालें और इस में साइट्रिक एसिड डाल दें.
  • उस के ऊपर आए सफेद मैल को निकाल कर कपड़े से छान लें.
  • उस के बाद अदरक को इसी शरबत में डाल कर तकरीबन 20 मिनट तक पकाएं. इस के बाद ठंडा होने पर रातभर वैसे ही रहने दें.
  • दूसरे दिन शरबत से अदरक को बाहर निकाल लें और शरबत में बाकी आधी मात्रा चीनी को डाल कर उबालें और कपड़े से छान लें.
  • अदरक के टुकड़ों को डाल कर फिर शरबत को उबालें, जिस से शरबत अच्छी तरह गाढ़ा हो जाए.
  • अब अदरक को शरबत मेें 2 दिन के लिए रख कर छोड़ें.
  • अदरक को शरबत से निकाल कर सुखा लें. थोड़ा सूख जाने पर दाने दालचीनी में लपेट कर रखें और सूखी मात्रा का संग्रह करें.

2. जिंजर टौनिक

जिंजर टौनिक बनाने के लिए निम्नलिखित सामग्री की आवश्यकता होती है :

सामग्री मात्रा

  1. अदरक का रस 50 मिलीलिटर
  2. चीनी 200 ग्राम
  3. साइट्रिक एसिड 3.5 ग्राम
  4. पानी 750 मिलीलिटर

बनाने की विधि

  • ताजा व साफ अदरक ले कर अच्छी तरह साफ कर लें और उसे रातभर पानी में भिगो कर रखें.
  • दूसरे दिन अदरक को छील कर कद्दूकस कर लें और मिक्सी में पीस कर इस का रस निकाल लें.
  • पानी और चीनी को मिला कर आंच पर रख दें.
  • उबाल आने पर साइट्रिक एसिड डालें और मैल इत्यादि उतार कर मलमल के कपड़े के द्वारा छान लें और चाशनी में अदरक का रस मिला दें.
  • बोतलों में डाल कर ढक्कन लगा कर किसी सूखे स्थान पर रख दें.

3. अदरक वाली चौकलेट 

सामग्री

  1. अदरक का रस 150 मिलीलिटर
  2. चीनी 200 ग्राम
  3. कोको पाउडर 10 ग्राम
  4. दूध 250 मिलीलिटर
  5. घी 20 ग्राम

बनाने की विधि

  • दूध और चीनी को मिला कर एक तार की चाशनी बनने तक पकाएं.
  • इसी में अदरक का रस डाल दें और थोड़ी देर बाद घी और कोको पाउडर मिला कर जमने योग्य चला कर पकाएं.
  • एक थाली में घी लगा कर सामग्री जमने के लिए रखें.
  • जब वह जम जाए तो उस के चौकोर टुकड़े काट कर बटर पेपर में लपेट कर संग्रह करें.

4. अदरक का अचार

सामग्री

  1. अदरक 250 ग्राम
  2. अजवाइन 10 ग्राम
  3. काला नमक 10 ग्राम
  4. जीरा 10 ग्राम
  5. मिर्च पाउडर 10 ग्राम
  6. साइट्रिक एसिड 10 ग्राम

बनाने की विधि

  • अदरक को छील लें और इसे कद्दूकस कर लें. कद्दूकस की गई
  • अदरक को बाकी सभी मसालों में मिला कर कांच के जार में भर दें.
  • अचार को धूप में 2 सप्ताह तक रखें और बीचबीच में हिलाते रहें. इस के बाद प्रयोग में लाएं.

5. अदरक का शरबत

सामग्री

  1. अदरक का रस 0.25 लिटर
  2. चीनी 1.25 किलोग्राम
  3. साइट्रिक एसिड 2.5 ग्राम
  4. पानी 0.50 लिटर

बनाने की विधि

  • अदरक को छील कर मिक्सी द्वारा रस निकाल लें.
  • रस को एक साफ बरतन में रातभर रखा रहने दें और दूसरे दिन रस को साफ कपड़े से छानें.
  • चीनी और पानी को मिला कर थोड़ा गरम करें और उस में साइट्रिक एसिड मिला देें. चीनी घुल जाने पर कपड़े द्वारा छान लें.
  • अदरक के रस में चीनी के घोल को मिला दें और इसे एक उबाल आने पर बोतलों में भर लें.
  • रस से भरी बोतलों को सूखे व ठंडे स्थान पर संग्रह कर के रख दें.

6. अदरक की चटनी बनाना

सामग्री

  1. अदरक 500 ग्राम
  2. इमली 250 ग्राम
  3. चीनी 500 ग्राम
  4. नमक 100 ग्राम
  5. मिर्च पाउडर 10 ग्राम
  6. लहसुन 200 ग्राम
  7. मेथी पिसी 20 ग्राम
  8. राई पिसी 20 ग्राम
  9. सरसों का तेल 250 ग्राम

बनाने की विधि

  • अदरक को पानी से साफ कर के छील लें और बारीक पीस लें. इमली को भी पीस लें.
  • आधा लहसुन छील कर पीस लें. पिसी हुई अदरक, इमली और लहसुन को एकसाथ मिला कर गरम करें और नमक भी मिला दें.
  • आधे बचे हुए लहसुन को छील कर मेथी व राई के साथ तेल में अच्छी तरह भून लें और अदरक को भी मिला दें.
  • तैयार चटनी को कांच के जार में संग्रह कर के रखें लें.

लेखक- डा. साधना वैश, वैज्ञानिक, गृह विज्ञान ] डा. जितेंद्र सिंह, वैज्ञानिक, शस्य विज्ञान

इस खूबसूरत लोकेशन पर सगाई करेंगे मलाइका अर्जुन

बॉलीवुड एक्ट्रेस मलाइका अरोड़ा और अर्जुन कपूर को लेकर एक बड़ी खबर सामने आ रही है, जिसमें इस बात का खुलासा हुआ है जिसका इनके फैंस को लंबे समय से इंतजार था, मलाइका अर्जुन जल्द सगाई करने वाले हैं.

खबर है कि बी टॉउन का हॉट कपल अगले हफ्ते सगाई करने वाला है,एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ कि मलाइका अर्जुन जल्द सगाई करने वाले हैं, इस खबर के आते ही सोशल मीडिया पर हंगामा मच गया है. फैंस उन्हें खूब सारी बधाई दे रहे हैं.

 

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एक्ट्रेस मलाइका ने चंद घंटों पहले एक तस्वीर शेयर की थी, जिसमें वह दोनों साथ में मुस्कुराते नजर आ रहे हैं.  इस तस्वीर को शेयर करते हुए मलाइका ने लिखा कि आपकी मुस्कान औऱ हंसी काफी ज्यादा संक्रामक है. जिसे देखकर फैंस समझ तो गए थें कि यह कपल जल्द एक दूसरे का होने वाला है लेकिन सोशल मीडिया पर इसकी रिपोर्ट आते ही खलबली मच गई है.

बता दें कि एक्ट्रेस मलाइका अरोड़ा और अर्जुन कपूर काफी लंबे समय से एक दूसरे को डेट कर रहे हैं, साल 2019 में इन्होंने अपने रिश्ते पर मुहर लगाया था, जिसके बाद से लगातार यह कपल एक साथ नजर आता है. इन दोनों की जोड़ी को लेकर पहले विवाद भी हुआ लेकिन समय के साथ लोगों ने इन्हें पसंद करना शुरू कर दिया था.

बेटे संग अवार्ड फंक्शन में पहुंची रूपाली गांगुली, सादगी ने खींचा लोगों का ध्यान

टीवी सीरियल अनुपमा के जरिए सबका दिल जीतने वाली रूपाली गांगुली हमेशा अपनी सादगी से अपने फैंस का दिल जीत लेती हैं, हाल ही में रूपाली गांगुली का नया लुक खूब चर्चा में हैं, जिसमें रूपाली अपने बेटे के साथ नजर आईं.

दरअसल ,दादा साहेब इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में रूपाली गांगुली पिंक कलर के सलवार सूट में खुले बाल में नजर आईं , साथ में बेटे का हाथ पकड़ा हुआ था, रूपाली गांगुली के इस तस्वीर को लोग खूब पसंद कर रहे हैं. बता दें कि रूपाली गांगुली अक्सर ट्रेडिशनल लुक में ही नजर आती हैं. शायद यहीं वजह है कि रूपाली की सादगी लोगों को पसंद भी आती है.

 

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फोटोशूट के दौरान रूपाली गांगुली मुस्कुराती हुई नजर आईं, जिसमें वह और भी ज्यादा खूबसूरत लग रही थीं. बता दें कि रूपाली गांगुली बेटे रूद्रांश को लेकर अवार्ड लेने पहुंची. जहां पर उन्होंने सबका ध्यान खींच लिया. बता दें कि रूपाली गांगुली टेलीविजन की अब तक की हाइएस्ट पेड एक्ट्रेस है, रूपाली की सादगी सभी को खूब पसंद आताी है.

कैमरे के सामने रूपाली की सादगी देखने लायक थी, वह बेटे के साथ खूब एंजॉय भी कर रही थी. बता दें इन दिनों रूपाली गांगुली का शो टॉप पर बना हुआ है. रूपाली गांगुली टीआरपी लिस्ट में सबसे आगे चल रही हैं.

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