आयुर्वेद की प्राचीन पद्धति के जानकार घर घर में हैं और सोशल मीडिया की मेहरबानी से इन की संख्या दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ रही है. इस के चलते कई छोटीबड़ी बीमारियों में रोगी प्राथमिकता में आयुर्वेद को रखता है जिस कारण उसे लेने के देने पड़ जाते हैं. कैंसर कैसी और कितनी जानलेवा बीमारी है, यह तो कोई भुक्तभोगी या उस के परिवारजन ही बता सकते हैं. कैंसर से होने वाली मौतों का आंकड़ा हर दिन बढ़ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में दुनियाभर में कैंसर से लगभग 96 लाख मौतें हुई थीं इन में से करीब 8 लाख भारतीय थे.
जर्नल औफ ग्लोबल औंकोलौजी की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कैंसर से मरने वालों की दर विकसित देशों के मुकाबले लगभग दोगुनी है. आंकड़ा चिंतित करने वाला है कि भारत में 10 कैंसर मरीजों में से 7 की मौत हो जाती है. इस हालत की घोषित वजहों में से एक अहम यह है कि हमारे यहां प्रति 2 हजार मरीजों पर एक कैंसर स्पैशलिस्ट यानी औंकोलौजिस्ट है जबकि अमेरिका जैसे विकसित देशों में प्रति हजार कैंसर मरीजों पर एक डाक्टर है जिस से मौतों का आंकड़ा वहां कम है. ऐसा हर कोई मानता है कि अगर शुरुआती स्टेज में कैंसर की पहचान हो जाए तो एलोपैथी में उस का इलाज मुमकिन है लेकिन हमारे यहां आयुर्वेदाचार्यों, नीमहकीमों, जड़ीबूटियों, सिद्धमहात्माओं और सिद्धस्थलों की भरमार है जो घंटों में इस असाध्य बीमारी से छुटकारा दिलाने का इतना आत्मविश्वास से दावा करते हैं कि जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा मरीज और उस के परिजन ?ांसे में आ कर अपना कीमती वक्त व पैसा बरबाद करने को मजबूर हो ही जाते हैं.
कैंसर मौत का दूसरा नाम है, यह मिथक हालांकि धीरेधीरे टूट रहा है लेकिन बिलाशक इस का इलाज इतना महंगा और तकलीफदेह है कि लोग सस्ते और दर्दरहित इलाज के ?ांसे में आ कर मुसीबत मोल लेते हुए मौत को दावत दे ही देते हैं. इस प्रतिनिधि के एक नजदीकी रिश्तेदार को मुंह का कैंसर हुआ तो वे और उन के परिजन घबरा उठे कि अब क्या करें. बात फैली तो कई शुभचिंतक दोस्त और रिश्तेदार घर आ कर पंचायत लगाने लगे. जानलेवा इलाज इन लोगों के पास तरहतरह के चमत्कारिक किस्से थे. कैंसर को शर्तिया ठीक कर देने वाले नीमहकीमों के नामपते थे. एक सज्जन तो मध्य प्रदेश के सतना के एक आयुर्वेदिक संस्थान, जो अपनेआप को रिसर्च सैंटर भी लिखता था, से दवाइयां ही ले आए.
संभव है उन की भावनाएं और मंशा अच्छी हों पर गिनती तो ऐसे लोगों की पढ़ेलिखे गंवारों में ही की जाएगी जो यह जानतेसम?ाते हैं कि जड़ीबूटियों से और आयुर्वेद से कैंसर क्या, किसी भी असाध्य बीमारी के मरीज का ठीक होना असंभव है लेकिन कई पूर्वाग्रहों, जिन में धार्मिक भी शामिल हैं, के चलते वे इस अवैज्ञानिक चक्कर में आ जाते हैं और निश्चित ही बतौर प्रयोग अपने घर वालों को भी घसीट लेते हैं. खैर, मरीज ने भरोसा न होते हुए भी अपने मित्र के आग्रह पर ये दवाएं कुछ दिन लीं जिन के बारे में साहित्य में बड़ेबड़े दावे किए गए थे.
इन दवाओं से फायदा तो कुछ नहीं हुआ, उलटे मसूड़ों का फोड़ा बड़ा हो कर तकलीफ ज्यादा देने लगा, तब तक वैद्यजी 25 हजार रुपए ?ाटक चुके थे और दवा के नाम पर बिना रैपर वाली रंगबिरंगी गोलियां और गेंहू की बालियों का रस दे रहे थे. संपर्क करने पर हर बार उन के संस्थान के कर्मचारी यह कहते गुमराह करते रहे कि ‘दवाएं असर दिखा रही हैं, कैंसर पूरी तरह फूट कर ही विदा होगा यानी जड़ से खत्म हो जाएगा. आप सब्र रखें.’ जब बहुत हो गया यानी सब्र का पैमाना टूट गया तो मरीज के परिजन आक्रामक हो उठे. इस पर इस वैद्यजी ने दोटूक कह दिया कि हम ने तो पूरी कोशिश की, कैंसर ठीक नहीं हो रहा तो क्या करें. हमारे पास तो रिकौर्ड है कि हजारों को हम ने ठीक किया है. इस हकीम से कानूनी या दूसरी कोई लड़ाई लड़ने में काफी वक्त और पैसा जाया होता.
चूंकि कैंसर कोशिकाएं मुंह के बाहर आने लगी थीं, इसलिए मरीज को सीधे मुंबई में टाटा मैमोरियल अस्पताल ले जाया गया. वहां के डाक्टरों ने जांच कर यही कहा कि आप ने देर कर दी, फिर भी औपरेशन कर देखते हैं. यह देर आयुर्वेद के चक्कर में हुई थी. बहरहाल मुंबई में औपरेशन हुआ और सालभर इलाज भी चला लेकिन कैंसर के एडवांस स्टेज पर आ जाने के कारण उन्हें बचाया नहीं जा सका. अपनी मृत्यु से पहले मरीज ने आयुर्वेद के चक्कर में पड़ने को ले कर पाठकों को आगाह करते एक लेख भी लिखा था जो सरिता में ही प्रकाशित हुआ था. इस घटना को 25 साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी लोगों की मानसिकता नहीं बदली है और न ही आयुर्वेद के टोनेटोटकेनुमा इलाज पर कोई फर्क पड़ा है. वजह, वही चमत्कारों पर भरोसा और आयुर्वेद का कथित तौर पर सस्ता होना है. इस प्रतिनिधि ने भोपाल के आसपास के कुछ मरीजों से मुलाकात की तो वे आयुर्वेद को ?ांकते और कोसते नजर आए कि इस के चक्कर में न केवल लुटपिट गए बल्कि इलाज में भी देर हो गई.
भोपाल के लालघाटी स्थित कैंसर हौस्पिटल के बाहर चाय की दुकान पर बात करते सीहोर के एक युवक सुनील वर्मा ने बताया कि उस के पिता को मुंह का कैंसर है. पता चलने पर डेढ़दो साल इधरउधर भागादौड़ी की. राजगढ़ और नरसिंहपुर के वैद्यों से आयुर्वेदिक इलाज कराया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. परेशान हो कर और थकहार कर अब एलोपैथी के इलाज के लिए भोपाल आए हैं. कीमोथेरैपी चल रही है. आगे देखते हैं कि अब क्या होगा. आगे जो भी हो लेकिन ऐसे लोग वक्त रहते बजाय आयुर्वेदिक इलाज के चक्कर में पड़ने के एलोपैथी का ट्रीटमैंट लें तो जिंदगी बच भी सकती है. ऐसे ही कई उदाहरणों में से एक है भोपाल की ही शैफाली चक्रवर्ती. उन्हें भी 5 साल पहले मुंह का कैंसर हुआ था जिस की पहचान होते ही उन के इंजीनियर पति अमित उन्हें मुंबई ले कर गए.
जहां औपरेशन के बाद कुछ दिन दवाइयां चलीं. 52 वर्षीय शैफाली अब बिलकुल ठीक हैं और अपनी घरगृहस्थी व बच्चे संभाल रही हैं. अगर वे भी शुरू में आयुर्वेदिक इलाज के चक्कर में पड़ जातीं तो हश्र क्या होता, सहज सम?ा जा सकता है. ऐसा नहीं है कि शैफाली और उन के पति अमित को मुफ्त के सलाहकारों ने घेरने की कोशिश नहीं की पर वे इस मूर्खतापूर्ण चक्कर में नहीं पड़े. 7 बनाम 10 बात अकेले कैंसर की ही नहीं, बल्कि सफेद दाग, किडनी, लिवर, एड्स और दिल से जुड़ी बीमारियों की भी है जिन में अधिकतर रोगियों की पहली प्राथमिकता आयुर्वेद होता है क्योंकि इस प्राचीन पद्धति के जानकार घरघर में हैं और सोशल मीडिया की ‘मेहरबानी’ से इन की संख्या दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ रही है.
अब से कुछ महीनों पहले इस प्रतिनिधि की एक परिचित किडनी फेल होने से भोपाल के एक प्राइवेट अस्पताल में भरती हुई थी. उन से मिलनेजुलने वाले खबर लगते ही अस्पताल आने का शिष्टाचार, जोकि गैरजरूरी था, निभा रहे थे. यहां तक कोई खास दिक्कत नहीं थी लेकिन दिक्कत खड़ी तब हुई जब इन के भीतर का आयुर्वेदिक ज्ञान छलकने लगा कि यह फलां पेड़ की पत्ती चबा लो, यह काढ़ा पी लो, यह गोली तो 3 दिन में आप को दौड़ा देगी. मेरे फलां चाचा का भी क्रिटिनाइन बढ़ा हुआ था. 3 दिनों में ही नौर्मल हो गया था. बात तब और बिगड़ी जब वे एक सुर में एलोपैथी को तकलीफदेह और खर्चीली साबित करने पर तुल गए और तुरंत साबित कर भी दिया कि 2 हजार रुपए बैड का रोज, इतने ही डाक्टर के, एलोपैथी की दवाइयां 5 हजार रुपए रोज से कम क्या आएंगी और फिर पैथोलौजी का भारीभरकम खर्च अलग. इस पर भी किडनी ठीक होने की गारंटी नहीं. अगले ही मिनटों में आयुर्वेद के इन हिमायतियों ने अस्पतालों को लूट का अड्डा भी साबित कर दिया. मरीज, जिन को सब दीदी कह रहे थे, ने एक न सुनी और सख्ती से बोलीं, ‘आयुर्वेद के चक्कर में मैं 2 साल और इतने ही रुपए बरबाद कर चुकी हूं.
खूब फलपत्तेफूल खाए, गोलियां लीं, सीरप गटके पर फायदा कुछ नहीं हुआ. उलटे, अब तो फेफड़ों में भी पानी भर गया है. इसलिए तय कर लिया है कि इलाज तो एलोपैथी का ही लूंगी फिर चाहे यहीं क्यों न मर जाऊं. आप लोगों का धन्यवाद जो मेरी इतनी चिंता करते हैं.’ चिंता करने वालों को डेढ़ महीने बाद हैरत हुई जब दीदी किडनी सलामत ले कर घर आ गईं. इस पर भी दबी आवाज में सुनने को यह मिला कि 5-6 लाख रुपए फूंक दिए. आयुर्वेद में तो 5-6 हजार भी न लगते. ठीक हो कर आत्मविश्वास से लबरेज हुई दीदी ने भी दबी आवाज में जवाब दिया, 5-6 हजार में तड़पतड़प कर मरती. उस से तो बेहतर यह रहा कि 5-6 लाख खर्च कर सलामत हूं. एक आंकड़े के मुताबिक किडनी की बीमारियों से देश में सालभर में कुल 2 लाख मरीज मरते हैं लेकिन जो लोग एलोपैथी का इलाज ले कर बच जाते हैं उन की तादाद बहुत ज्यादा है. यह सहूलियत एलोपैथी में ही है कि दवाइयों के बेअसर होने पर किडनी ट्रांसप्लांट भी हो सकती है.
हाल में ही इस का बड़ा और चर्चित उदाहरण राजद प्रमुख लालू यादव का देखने में आया जिन्हें सिंगापुर में उन की बेटी रोहिणी आचार्य ने अपनी एक किडनी डोनेट कर जीवन दिया. रोहिणी की हर जगह वाहवाही हुई और एलोपैथी की भी. बता दें कि आजकल भारत में भी आसानी से किडनी ट्रांसप्लांट हो जाती है. कैंसर के जरूर 10 में से 7 मरीज मर जाते हैं क्योंकि वक्त पर रोग का निदान नहीं हो पाता. भोपाल के एक कैंसर सर्जन डाक्टर श्याम अग्रवाल के मुताबिक, ‘‘अभी जब कोविड के बाद के आंकड़े आएंगे तब तसवीर और साफ होगी लेकिन मेरा अनुभव है कि कैंसर के डायग्नोस होते ही अगर ट्रीटमैंट शुरू कर दिया जाए तो यह मृत्युदर काफी कम हो सकती है.’’ दिक्कत या परेशानी यह है कि कैंसर के डायग्नोस होते ही लोग पहले आयुर्वेद की तरफ भागते हैं जिस से 10 में से 7 लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ जाती है. आयुर्वेद के वैद्य हर जगह कुंडली मारे बैठे हैं. इन का दावा आयुर्वेद के जरिए कैंसर को जड़ से खत्म कर देने का रहता है और इस बाबत ये खूब प्रचार भी करते हैं. अगर ऐसा है तो फिर कैंसर है ही क्यों? वह तो इन की दवाओं और इलाज से ठीक हो ही जाना चाहिए लेकिन इन के अड्डों पर लोग जब तबीयत से लुटपिट जाते हैं और फायदों की जगह नुकसान होने लगते हैं तो जान बचाने एलोपैथी की तरफ आते हैं.
कई मामलों में जेब खाली और देर इतनी हो चुकी होती है कि डाक्टर भी कुछ नहीं कर पाते. एलोपैथी क्यों, आयुर्वेद क्यों नहीं छोटीमोटी और मौसमी बीमारियों में आयुर्वेद का इलाज बहुत ज्यादा खतरे की बात नहीं है लेकिन असाध्य रोगों में इसे आजमाना एक बहुत बड़ा खतरा साबित होता है. यह बात ऊपर बताए उदाहरणों से साबित हो जाती है. सर्दीजुकाम में काढ़ा पीना, शहद लेना, नीम और तुलसी की पत्ती चबाने से जान को खतरा नहीं होता लेकिन असाध्य रोगों में आयुर्वेदिक इलाज लेने से बचना चाहिए क्योंकि उस में नया कुछ नहीं होता, न ही कोई रिसर्च होती है, न ह्यूमन और ड्रग ट्रायल होता है.
बस, होता तो कहेसुने की बिना पर सदियों से चले आ रहे टोटकों को दवाई और इलाज की शक्ल दे कर इलाज करने बैठ जाना. आयुर्वेद कोई वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति नहीं है जिस के बारे में बड़ीबड़ी डींगें हांकी जाती हैं कि यह हमारे ऋषिमुनियों द्वारा विकसित की गई है और इस में हर मर्ज का इलाज है. जाहिर है आयुर्वेद में लोगों का भरोसा धर्मग्रंथों के चलते है जिस में कई दवाइयां अभिमंत्रित कर मुहूर्त विशेष में बनाई और मरीज को दी जाती हैं. उलट इस के, एलोपैथी में तमाम तरह के ट्रायल होते हैं. वैज्ञानिक और डाक्टर रिसर्च से संतुष्ट होने के बाद ही इलाज और दवाइयों की सिफारिश करते हैं. एलोपैथी में जटिल से जटिल बीमारियों को औपरेशन के जरिए भी ठीक किया जाता है. एलोपैथी प्रिवैंटिव मैडिसिंस के जरिए भी सफल इलाज करती है. इस का बेहतर उदाहरण वैक्सीन है. कोरोना के वक्त में बचाव वैक्सीन से ही हुआ जबकि आयुर्वेद वाले नीम तुलसी गिलोय, लहसुन वगैरह का हल्ला मचाते रहे.
अगर ये टोटके कारगर होते तो कोरोना से एक भी मौत नहीं होनी चाहिए थी. दरअसल लोगों के डर को भुनाने का रिवाज कोरोना के कहर के समय शबाब पर था, जिस पर योगगुरु बाबा रामदेव ने कोरोनिल नाम की दवा लौंच कर अरबों रुपए बनाए. दूसरी कंपनियों ने भी जम कर चांदी इम्यूनिटी के नाम पर काटी थी. यही काम छोटेमोटे नाजानकार हकीम और वैद्य भी करते हैं और करतेकरते पैसों के लालच में कैंसर, किडनी, एड्स और हार्ट का भी इलाज करने लगते हैं क्योंकि इन से ज्यादा कमाई होती है. यह कम हैरानी की बात नहीं कि अधिकतर असाध्य और दूसरी बीमारियां होती तो एलोपैथी से ठीक हैं लेकिन गुणगान आयुर्वेद का गाया जाता है क्योंकि यह धार्मिक आस्था और पूर्वाग्रह की देन है. मान लिया गया है कि दम तोड़ते लक्ष्मण की जान संजीवनी से बची थी, चूंकि इस का वर्णन रामायण में है, इसलिए इस का अस्तित्व भी होना चाहिए.
बाबा रामदेव और उन के सहयोगी बालकृष्ण ने तो बाकायदा हिमालय के जंगलों में संजीवनी ढूंढ़ने की मुहिम भी छेड़ी हुई है जिस का मकसद एक प्रोपगंडा के तहत आयुर्वेद का प्रचारप्रसार करना है. एलोपैथी किसी धर्मग्रंथ से चमत्कार की तरह नहीं प्रकट हुई है. इस शब्द का सब से पहले इस्तेमाल 1810 में जरमन चिकित्सक सैमुअल हेनीमेन ने किया था. एलोपैथी 2 ग्रीक शब्दों एलोस यानी अलग और पैथोज यानी सफरिंग से मिल कर बना है. इस पद्धति में रोग को दबाने के लिए दवा दी जाती है. धीरेधीरे इस की लोकप्रियता और स्वीकार्यता बढ़ी तो इसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और और्थोडौक्स मैडिसिन भी कहा जाना लगा. अब इस का पूरा हैल्थकेयर सिस्टम होता है जिस में कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जाता है. उन के काम उन की पढ़ाई और डिग्री के मुताबिक बंटे होते हैं. क्लिनिकल ट्रायल इस की एक और खूबी है जो कई चरणों से हो कर गुजरती है. भारत में इसे विदेशी कह कर इस से इलाज न कराने की सलाह दी जाती थी लेकिन फायदा होने लगा तो लोग इसे अपनाने लगे. अब जरूरत इस बात की है कि अगर ठीक होना है और जान बचाना है तो असाध्य रोगों के इलाज के लिए आयुर्वेद का मुंह ताकने के बजाय एलोपैथी की तरफ देखना जरूरी है.