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दें अपनों को तारीफ का तोहफा

नन्ही खुशी उदास बैठी थी. आज स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेते समय वह गिर पड़ी थी. एक तो दौड़ से बाहर हो गई दूसरे सभी दोस्तों ने उस का खूब मजाक उड़ाया.

‘‘अरे मेरी परी, तू तो मेरी रानी बेटी है. बहादुर बच्चे ऐसे हिम्मत हार कर नहीं बैठते. अगली बार तुम पक्का फर्स्ट आओगी, मुझे पूरा विश्वास है,’’ मां के इन चंद प्यारे बोलों ने उस पर जादू सा असर किया और वह उछलतीकूदती फिर चल पड़ी बाहर खेलने.

15 वर्षीय होनहार छात्र मयंक अपना 10वीं कक्षा का रिजल्ट आने पर बहुत दुखी था. उस के उम्मीद के  मुताबिक 90% से कम मार्क्स आए थे. अपने पेरैंट्स और टीचर्स का प्यारा आज अकेले बैठे आंसू बहा रहा था. उसे अपने मम्मीपापा की आशाओं पर पूरा न उतर पाने का बहुत दुख था. वह हताशा के भंवर में पूरी तरह डूब चुका था. तभी उस के दादाजी का उस के घर आना हुआ. अपने कमरे में उदास बैठे मयंक के कंधे पर जैसे ही दादाजी ने हाथ रखा वह चौंक गया. उस का मुरझाया चेहरा देख दादाजी ने बड़े प्यार से कारण पूछा, तो अपने दादा से लिपट कर रोने लगा और बोला कि उस जैसे हारे हुए लड़के को जिंदगी जीने का हक नहीं है. वह मर जाना चाहता है.

मासूम मयंक के मुंह से ऐसी बातें सुन कर दादाजी को बहुत हैरानी हुई. फिर बोले, ‘‘अरे तेरे 82% मार्क्स सुन कर ही तो मैं तुझे बधाईर् देने आया हूं और तू इस तरह की बातें कर रहा है. बेटा तूने बहुत अच्छे नंबर लिए हैं. हम सभी को तुझ पर गर्व है. आइंदा कभी ऐसे विचार मन में मत लाना,’’ कह कर दादाजी ने उसे गले से लगा लिया. दादाजी की इतनी सी तारीफ ने मयंक में  एक नई ऊर्जा का संचार कर दिया. वह जिंदगी को सकारात्मक तरीके से जीने लगा. अगर उस वक्त मयंक अपने दादाजी से नहीं मिला होता तो निराशा और हताशा की उस स्थिति में शायद आत्महत्या ही कर लेता.

‘‘अरे मां, भाभी की बात का क्या बुरा मानना. वे दूसरे घर से आई हैं. आप को अभी अच्छी तरह जानती नहीं. मुझे पूरा विश्वास है धीरेधीरे आप उन्हें सब सिखा देंगी. मेरी मां हैं ही इतनी प्यारी, वे सब से तालमेल बैठा लेती हैं,’’ स्नेहा द्वारा कहे गए तारीफ के चंद शब्दों ने उस की मां अलका का खोया विश्वास वापस ला दिया.

इन सभी स्थितियों में जरा सी तारीफ या प्रशंसा भरे बोलों से इनसान में सकारात्मक बदलाव आते देखा. उम्र बचपन की हो या फिर 56 की अथवा युवावस्था आखिर प्रोत्साहन सभी को चाहिए. अपनों के स्नेह में पगे दो बोल व्यक्तिविशेष पर जादू सा असर करते हैं.

आज आधुनिकतम सुविधाओं और तकनीकों से लैस हमारा जीवन बहुत व्यस्त तथा प्रतिस्पर्धी हो चुका है. फलस्वरूप हमें कई बार बेहद जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. इस के चलते हम अत्यधिक तनाव में जीने लगते हैं और निराशावादी हो जाते हैं. यदि कोई कार्य हमारे मनमुताबिक नहीं होता या किसी कार्य में मेहनत करने के बाद भी हमें आशातीत सफलता नहीं मिलती तो जीवन के प्रति हम उदासीन हो जाते हैं और कई बार यह उदासीनता आगे बढ़ कर विकराल रूप धारण कर लेती है, जो आत्महत्या जैसे दुखांत परिणाम के रूप में सामने आती है.

होता यों है कि जब नकारात्मकता हम पर पूरी तरह हावी हो जाती है, तो जिंदगी के प्रति हमारी सोच और नजरिया भी पूरी तरह बदल जाता है. अचानक जिंदगी से सभी खुशियां रूठी हुई सी लगती हैं. चारों ओर दुख व निराशा के बादल मंडराते से नजर आते हैं. दुखी मन नकारात्मक विचारों के प्रवाह को जन्म देता है. ये नकारात्मकता हमारे आसपास निराशा की एक ऐसी चादर बुन देती है, जिस से एक अनजाना सा भय पैदा हो जाता है और अपने आसपास की कोई भी खुशी हमें नजर नहीं आती. हम कुछ भी करने में अपनेआप को असमर्थ पाते हैं.

हम सभी के जीवन में कभी न कभी ऐसा एक पल जरूर आता है जब हम अपनेआप को अकेला महसूस करते हैं. खुद को दुनिया का सब से बेकार इनसान समझते हैं, जिस की जरूरत किसी को नहीं है. उस वक्त किसी के द्वारा की गई जरा सी तारीफ हमारे भीतर एक नया जोश भर देती है. प्रशंसा में कहे उस के शब्द संजीवनी बूटी का काम करते हैं, जिस से हमारे भीतर का डर नष्ट हो जाता है तथा आशा की किरण स्फुटित होती दिखाई देती है.

अपनों को जरा सा तारीफ का तोहफा दे कर हम उन्हें अवसाद में जाने से बचा सकते हैं. जिंदगी बहुमूल्य होती है, पर अवसाद में घिरा व्यक्ति इतना दुखी व व्यथित होता है कि उसे जीवन के दूसरे सकारात्मक पहलू दिखाई ही नहीं देते. वक्त के थपेड़ों से वह इतना भयक्रांत हो जाता है कि उसे जिंदगी जीने की तुलना में मौत को गले लगाना अधिक सरल लगता है.

कई लोगों को लगता है कि सिर्फ छोटे बच्चों को ही तारीफ या प्रोत्साहन की जरूरत होती है, जबकि सचाई यह है कि तारीफ और प्रोत्साहन किसी उम्र विशेष से संबंधित नहीं है, बल्कि हर उम्र के इनसान को इस की दरकार होती है. इस का सीधा सा कारण है कि हम कितने भी बड़े हो जाएं मन में भावनाएं ज्यों की त्यों ही रहती हैं. हां, बड़े हो कर हम कुछ हद तक उन पर काबू रखना अवश्य सीख जाते हैं. लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में जब हम अपने को कमजोर व अकेला महसूस करते हैं तब हमारी तारीफ में कहे गए किसी के दो शब्द भी हमारी तकलीफ व तनाव को कम करने के लिए काफी होते हैं. उस से अवसाद की स्थिति उत्पन्न नहीं होती है. यहां तक कि भयंकर तनाव के बीच आत्महत्या करने का मन बना चुका व्यक्ति भी अगर किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आ जाए जो उसे पौजिटिव ऐनर्जी दे, तो वह बड़ी आसानी से उक्त विचार को त्याग सकता है.

सारिका के केस में ऐसा ही हुआ. 17 वर्षीय सारिका आधुनिक खयालात की मस्त बिंदास लड़की थी. उस के इसी खुले व्यवहार का फायदा उठा कर उस के क्लासमेट अंकित ने पहले तो उस से दोस्ती की और फिर उसी दोस्ती को प्यार का जामा पहना कर उसे फुसला कर उस से प्रेम संबंध बनाए. यही नहीं अपने बीच बने संबंधों का वीडियो बना कर उस ने उसे ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया. हर समय हंसतीखिलखिलाती रहने वाली सारिका अचानक बुझीबुझी व उदास सी रहने लगी.

सारिका के स्वभाव में अचानक हुआ यह परिवर्तन उस की मां की अनुभवी आंखों से छिप न सका. उन के बहुत पूछने पर भी सारिका उन्हें उस हादसे के बारे में बताने की हिम्मत न जुटा सकी. ऐसे में उस की समझदार मां ने उस की तारीफ कर न सिर्फ अपनी बेटी का हौसला बढ़ाया, बल्कि उसे विश्वास भी दिलाया कि जिंदगी के हर कदम, हर परेशानी में वे उस के साथ खड़ी हैं.

मां से जरा सा स्नेह और सहारा मिलने पर सारिका बच्चों की तरह फफक पड़ी और उस ने अपनी मां को सारी हकीकत बता दी. उस की मां यह जान कर और भी हैरत से भर उठीं जब उन्हें सारिका ने बताया कि कोई और रास्ता न निकलता देख इस जिल्लत से तंग आ कर वह आत्महत्या जैसा कदम उठाने की सोच रही है.

तारीफ करनी होगी सारिका  की मां की जिन्होंने अपनी बेटी पर नजर रख कर उसे आत्महत्या जैसा संगीन जुर्म करने से बचा लिया. और फिर अपनी कोशिशों से कुसूरवार अंकित को न सिर्फ सजा दिलवाई, बल्कि सारिका का खोया आत्मविश्वास भी लौटाया. प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डा. सुनील मित्तल के अनुसार हमारे देश में आज डिप्रैशन इतना आम हो चुका है कि लोग इसे बीमारी के तौर पर नहीं लेते. लेकिन समस्या अगर वाकई बड़ी हो तो काउंसलर के पास पीडि़त को ले जाने में ही भलाई होती है अन्यथा नतीजा घातक सिद्ध हो सकता है. इसी बारे में मनोचिकित्सक डा. समीर कलानी कहते हैं कि आज के आधुनिक जीवन की जटिलताओं एवं सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के कारण डिप्रैशन की स्थितियों में तेजी आई है. अत: आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनों की समस्याओं को समझने के तौरतरीकों व दृष्टिकोण में बदलाव लाएं. साथ ही अपनों की तारीफ में कुछ बातें कह उन के साथ मस्ती के कुछ पल अवश्य बिताएं.

आप को जान कर आश्चर्य होगा कि अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में तो हर साल 6 फरवरी का दिन तारीफ के लिए ही होता है. उन लोगों द्वारा यह दिन एक विशेष अंदाज में मनाया जाता है. इस दिन लोग अपनों को बाकायदा ग्रीटिंग कार्ड्स भेंट कर उन की तारीफ करते हैं. इतना ही नहीं कार्यालयों में भी इस दिन ऐसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं ताकि अधिकारी व अधीनस्थों के बीच संवाद और विश्वास की नींव मजबूत हो सके. तो अब किसी की तारीफ करने में कंजूसी क्यों? हम सब भी आज से ही बल्कि अभी से देना शुरू कर सकते हैं, अपनों को तारीफ का अनमोल तोहफा.

चौथापन- भाग 3: बाबूजी का असली रूप क्या था?

वह मुकेश की गुस्ताखी की चर्चा करना चाहते थे, लेकिन कुछ सोच कर चुप रह गए थे. वह जानते थे कि मुन्ना सब कुछ सुन कर तपाक से कहेगा, ‘‘अरे बाबूजी, क्यों बच्चों के मुंह लगते हैं? नौकर से कह दिया होता. वह दबा देता आप का सिर.’’

लेकिन प्रश्न यह था कि क्या नौकर खाली बैठा रहता था उन के लिए? दूध लाओ, सब्जी लाओ, बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिए छोड़ कर आओ, बहू और बच्चों के कमरे साफ करो, रसोई धोओ. हजार काम थे उस के लिए. वह भला उन का काम कैसे करता?

‘‘दर्द निवारक टिकिया मंगवाई थी न आप ने? 2 गोलियां एकसाथ खा लीजिए. तुरंत आराम आ जाएगा. मैं सुबह डाक्टर को बुलवा कर दिखवा दूंगा. अच्छा, मैं चलता हूं. अगर रात में ज्यादा तकलीफ हो तो हमें आवाज दे दीजिएगा,’’ कह कर मुन्ना चल दिया था.

मुन्ना के पहले उन की 2 बेटियां और थीं. वह सोचते थे कि बेटियां तो पराया धन होती हैं. दूसरे घर चली जाएंगी. उन का बेटा मुन्ना ही बुढ़ापे में उन की सेवा करेगा. उस की बहू आ जाएगी तो वह उन की सेवा करेगी. फिर नातीनातिन हो जाएंगे तो वे बाबाबाबा कहते हुए उन के आगेपीछे घूमेंगे. मुन्ना बचपन में आए- दिन बीमार पड़ जाता था. उन्होंने उस की बड़ी सेवा की थी और धन भी खूब लुटाया था. न जाने कितने दवाखानों की धूल छानी थी. न जाने कितनी मनौतियां मानी थीं. न जाने कितनी रातें जागते हुए गुजार दी थीं. अब उस का रवैया देख कर लगता था कि उन्होंने कितना बड़ा भ्रम पाल लिया था. वह भी कैसे पागल थे.

उन का शरीर बुखार से तप रहा था. कुछ देर तक मुन्ना के कमरे से डिस्को संगीत का शोर और बच्चों के हंगामे की कर्णभेदी आवाजें आती रहीं और उन का सिर दर्द से फटता रहा. फिर खामोशी छा गई. कमरे के सन्नाटे में छत के पंखे की खड़खड़ाहट गूंजती रही. उन्हें लेटेलेटे बारबार यह खयाल सताता रहा कि बहू बेटे को उन से कोई हमदर्दी नहीं है. बहू ने तो एक बार भी आ कर नहीं पूछा उन की तबीयत के विषय में.

एकाएक उन्हें अपना गला सूखता सा महसूस हुआ. लो, कमरे में पानी रखवाना तो वह भूल ही गए थे. अब क्या करें? वह उस बुखार में उठ कर रसोई तक कैसे जा सकेंगे? अचानक उन की नजर शाम को पानी से भर कर खिड़की पर रखे गिलास पर गई. उन्होंने उठ कर वही पानी पी लिया.

वह मन की घबराहट को दूर करने के लिए खिड़की के पास ही खड़े हो गए और सूनी सड़क पर चल रहे इक्कादुक्का लोगों को देखने लगे. काश, वह उन्हें आवाज दे पाते, ‘‘आओ, भाई, मेरे पास बैठो थोड़ी देर के लिए. मेरा मन बहुत घबरा रहा है. कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो.’’

सहसा वह पागलों की तरह हंस पड़े अपने पर. ‘अरे, जिसे छोटे से बड़ा किया, पढ़ायालिखाया, अपने जीवन भर की कमाई सौंप दी, वह बेटा तो चैन की नींद सो रहा है. भला ये अपरिचित लोग अपना काम- धंधा छोड़ कर मेरे पास क्यों बैठने लगे? वह फिर से पलंग पर आ कर लेट गए.’

उन्हें याद आया कि कैसे दिनरात मेहनत कर के उन्होंने कारखाना खड़ा किया था, किस तरह मशीनें खरीदी थीं, किस तरह कारखाने की नई इमारत तैयार की थी, धूप में घूमघूम कर, भूखेप्यासे रहरह कर, देर रात तक जागजाग कर वह किस तरह काम में लगे रहते थे. किस के लिए? मुन्ना के लिए ही तो. अपने परिवार के सुख के लिए ही तो? जिस में वह खुद भी शामिल थे.

अब कहां गया वह सुख? उन के परिवार ने क्या कीमत रखी है उन की या उन के सुख की? वह सब के सामने इतने दीनहीन क्यों बन जाते हैं? क्या वह मुन्ना की कमाई पर पल रहे हैं? क्यों खो दी उन्होंने अपनी शक्ति? नहीं, बहुत हो चुका, वह अब और नहीं सहेंगे.

वह आवेश में उठ कर बैठ गए. क्षण भर में ही उन का शरीर पसीने से लथपथ हो गया. दूसरे दिन सुबह मुन्ना सपरिवार नाश्ता कर रहा था, तभी गोपाल ने आ कर सूचना दी, ‘‘भैयाजी, नाश्ते के बाद आप को दादाजी ने अपने कमरे में बुलाया है.’’

मुन्ना ने नाश्ते के बाद उन के कमरे में जा कर देखा कि वह पलंग पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे हैं.

‘‘आओ, मुन्ना बैठो,’’ उन्होंने सामने पड़ी कुरसी की ओर संकेत किया. जाने कितने वर्षों के बाद उन्होंने उसे ‘मुन्ना’ कह कर एकदम सीधे संबोधित किया था.

‘‘कैसी तबीयत है आप की?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है. मैं ने एक दूसरी ही चर्चा के लिए तुम्हें बुलवाया था.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘यहां इस घर में पड़ेपड़े अब मेरा मन नहीं लगता. स्वास्थ्य भी बिगड़ता रहता है. बेकार पड़ेपडे़ तो लोहा भी जंग खा जाता है, फिर मैं तो हाड़मांस का आदमी हूं. मैं चाहता हूं कि घर से निकलूं और…’’

‘‘इन दिनों मैं भी यही सोच रहा था, बाबूजी,’’ मुन्ना ने उन की बात पूरी होने से पहले ही उचक ली और बड़े निर्विकार भाव से बोला, ‘‘आप का चौथापन है. इस उम्र में लोग वानप्रस्थी हो जाते हैं, घरसंसार को तिलांजलि दे देते हैं. आप भी हरिद्वार चले जाइए और वहां किसी आश्रम में रह कर भगवान की याद में बाकी जीवन बिता दीजिए.’’

सुनते ही उन्हें जोरों का गुस्सा आ गया. वह क्रुद्ध शेर की तरह गरज उठे, ‘‘मुन्ना, क्या तू ने मुझे उन नाकारा और निकम्मे लोगों में से समझ लिया है, जिन के आगे अपने जीवन का कोई महत्त्व ही नहीं है. अभी मेरे हाथपांव चलते हैं. दुनिया में बहुत से अच्छे काम हैं करने के लिए. मैं घर में निठल्ला नहीं पड़ा रहना चाहता. घर से बाहर निकल कर समाज- सेवा करना चाहता हूं.’’

‘‘तो फिर कीजिए समाजसेवा. किस ने रोका है?’’

‘‘हाथपैरों से तो करूंगा ही समाज- सेवा, मगर उस के लिए कुछ धन भी चाहिए, इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम कम से कम 1 हजार रुपए महीना मुझे जेब- खर्च के तौर पर देते रहो.’’

मुन्ना के कान खड़े हो गए, ‘‘1 हजार रुपए, किसे लुटाएंगे इतने पैसे आप?’’

हमेशा की तरह वह कमजोर नहीं पड़े, झुके भी नहीं, बल्कि वह मुन्ना से आंखें मिला कर बोले, ‘‘इस से तुम्हें क्या? त्रिवेणी को भी मैं अपने साथ रखना चाहता हूं. दे सकोगे न तुम मुझे मेरा खर्च?’’

‘‘कैसे दे पाऊंगा, बाबूजी, इतना पैसा? अभी जो मुंबई से नई मशीन मंगवाई हैं, उस का पैसा भी भेजना बाकी है.’’

‘‘तुम खुद मुझे इन झगड़ों से दूर कर चुके हो. यह देखना तुम्हारा काम है. मैं भी कोई मतलब नहीं रखना चाहता कारोबारी बखेड़ों से. मैं इतना जानता हूं कि यह कारखाना मेरा है और मैं चाहूं तो इसे बेच भी सकता हूं या किसी के भी सुपुर्द कर सकता हूं, लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहता. मेरा तो इतना ही कहना है कि जब तुम लोगों के खर्च के लिए हजारों रुपए महीना निकल सकते हैं तो क्या मेरे लिए 1 हजार रुपए महीना भी आसानी से नहीं निकल सकते? आखिर मैं ने भी बरसों कारखाना चलाया है और अभी भी चलाने की हिम्मत रखता हूं. तुम से नहीं संभलता तो मुझे सौंप दो फिर से.’’

मुन्ना कोई उत्तर नहीं दे सका. वह सिर झुकाए बैठा रहा. कमरे का वातावरण बोझिल हो चला था. फिर मुन्ना ने ही धीरे से कहा, ‘‘अच्छा होता, बाबूजी, आप हरिद्वार…’’

‘‘नहीं, बेटा, मैं जिंदा इनसान हूं. कोई मुरदा नहीं कि हरिद्वार जा कर किसी आश्रम की कब्र में दफन हो जाऊं या घर में समाधि ले कर बैठा रहूं. तुम अपने ढंग से जीना चाहते हो, तो मैं अपने ढंग से.’’

‘‘अच्छा,’’ मुन्ना उठ कर बाहर जाने लगा. उन्होंने उन्नत मस्तक को उठा कर देखा कि वह अब भी सिर नीचा किए कमरे से बाहर जा रहा था.

चौथापन- भाग 2: बाबूजी का असली रूप क्या था?

मुन्ना ने जोर से कार का दरवाजा बंद किया. फिर कार चल दी. मुन्ना ने अचानक पूछ लिया, ‘‘बाबूजी, बूआ यहां कब तक रहेंगी?’’

वह चौंके, ‘‘क्यों बेटा? उस से तुम्हें क्या तकलीफ है?’’

‘‘तकलीफ की बात नहीं है, बाबूजी. मां के मरने पर बूआजी आईं तो फिर वापस गईं ही नहीं.’’

‘‘वह तो मैं ही उसे रोके हुए हूं बेटा. फिर उस पर ऐसी कोई बड़ी जिम्मेदारी अभी नहीं है. सो वह हमारे यहां ही रह लेगी.’’

‘‘लेकिन हम उन की जिम्मेदारी कब तक उठाएंगे? उन के अपने बेटाबहू हैं. उन्हें उन के पास ही रहना चाहिए. फिर वह यहां तरीके से रहतीं तो कोई बात नहीं थी पर वह तो हमेशा आप की बहू ममता पर रोब गांठती रहती हैं.’’

मुन्ना के शब्दों ने ही नहीं उस के स्वर ने भी उन्हें आहत कर दिया था. वह जानते थे कि त्रिवेणी पर लगाया गया आरोप झूठा है. आखिर त्रिवेणी उन की एकमात्र बहन है. वह उसे बचपन से जानते हैं. ममता उस के विषय में ऐसी बात कह ही नहीं सकती थी. लेकिन वह चाह कर भी मुन्ना से अपना विरोध प्रकट नहीं कर सके थे. वह जानते थे कि मुन्ना और बहू अब त्रिवेणी को घर में शांति से नहीं रहने देंगे. उसी को ले कर हर समय कलह मची रहेगी. बातबात पर त्रिवेणी को अपमानित किया जाता रहेगा. वह यह ज्यादती सहन नहीं कर सकेंगे. इसीलिए उन्होंने त्रिवेणी को भेज दिया था.

त्रिवेणी चली गई थी. जिस दिन वह गई, उस दिन उन्हें ऐसा लगा मानो इंदू की मौत अभीअभी हुई हो. कितने ही दिनों तक वह अनमने से रहे थे. अब उन्हें पूछने वाला कोई न था. सुबह की चाय के लिए भी तरस जाते थे. वह बारबार बच्चों द्वारा बहू के पास संदेश भेजते रहते, पर वह संदेश अकसर बीच में ही गुम हो जाता था. थक कर वह खुद रसोईघर के द्वार पर जा कर दस्तक देते. जवाब में बहू का तीखा स्वर सुनाई देता, ‘‘आप को चाय नहीं मिली? अंजू से कहा तो था मैं ने. ये बच्चे ऐसे बेहूदे हो गए हैं कि बस… अकेला आदमी आखिर क्याक्या करे? मैं तो काम करकर के मर जाऊंगी, तब ही शांति मिलेगी सब को.’’

वह अपराधी की तरह मुंह लटकाए अपने कमरे में लौट आते थे.

भोजन के समय भी अकसर ऐसा ही तमाशा होता था. कई बार उन के मुंह का कौर विष बन जाता था. पर उस जहर को निगल लेने की मजबूरी उन की जिंदगी की विडंबना बन गई थी.

सुबह के समय वह कितनी ही देर तक गरम पानी के अभाव में बिना नहाए बैठे रहते थे. अब त्रिवेणी तो घर में थी नहीं कि सुबह जल्दी उठ कर गीजर चला देगी. बहू उठती थी पूरे 7 बजे के बाद और नौकर 8 बजे तक आता था.

जब तक पानी गरम होता था, स्नानघर में पहले ही कोई दूसरा व्यक्ति स्नान के लिए घुस जाता था. भला उन्हें कौन सा काम था? उन के जरा देर से नहाने से कौन सा अंतर पड़ जाता. बहू, बच्चे, मुन्ना सब को जल्दी थी, सब कामकाजी आदमी थे. बस, वही बेकार थे.

वह इंतजार में इधरउधर टहलते हुए बारबार नौकर से पूछते रहते थे, ‘‘गोपाल, क्या स्नानघर खाली हो गया?’’

‘‘स्नानघर खाली हो जाएगा तो मैं खुद बता दूंगा आप को, दादाजी,’’ नौकर भी मानो बारबार एक ही प्रश्न पूछे जाने पर उकता कर कह देता था.

और केवल नहानेखाने की ही तो बात नहीं थी. घर की हर गतिविधि में उन्हें पंक्ति के सब से आखिर में खड़ा कर दिया जाता था. घर में उन के दुखसुख का साथी कोई नहीं था.

एक दिन अचानक उन के सिर में भयंकर पीड़ा होने लगी. बड़ा नाती मुकेश कमरे में अपना बल्ला रखने आया. उन्होंने उसे पकड़ कर चापलूसी की, ‘‘बेटे, जरा मेरा सिर तो दबाना. बड़ा दर्द हो रहा है.’’

मुकेश ने अनिच्छा से 2-4 हाथ सिर पर मारे और तत्काल उठ खड़ा हुआ. वह घबरा कर कराहे, ‘‘अरे बस, जरा और दबा दे.’’

‘‘मेरे हाथ दुखते हैं, दादाजी.’’

वह दंग रह गए. फिर दूसरे ही क्षण तमक कर बोले, ‘‘बूढ़े दादा की सेवा करने में तुम्हारे हाथ टूटते हैं? आने दे मुन्ना को.’’

मुकेश ढिठाई से मुसकराता हुआ चला गया. वह पड़ेपड़े मन ही मन कुढ़ते रहे थे. उन्हें अपना बचपन याद आने लगा था. वह कितनी सेवा करते थे अपने बाबा की. रोजाना रात को नियम से उन के हाथपैर दबाया करते थे. बाबा उन्हें अच्छीअच्छी कहानियां सुनाया करते थे.

बाबा की याद आई तो उन्हें एहसास हुआ कि आज जमाना कितना बदल गया है. मजाल थी तब परिवार के किसी सदस्य की कि बाबा की बात को यों टाल देता.

भोजन के बाद मुन्ना उन के कमरे में आया. पूछा, ‘‘बाबूजी, सुना है, आप ने खाना नहीं खाया है आज?’’

‘‘इच्छा नहीं थी, बेटा. सिर अभी तक बहुत पीड़ा कर रहा है. शायद बुखार आ कर ही रहेगा.’’

मेरी 26 साल की बेटी को स्कीजोफ्रेनिया है, क्या उस का विवाह करना ठीक होगा?

सवाल

मेरी 26 साल की बेटी को स्कीजोफ्रेनिया है. उस की 3 साल से दवा चल रही है. वह स्कूल में टीचर है. हम उस की दवा का पूरा ध्यान रखते हैं. उस का रोग कंट्रोल में है. क्या उस का विवाह करना ठीक होगा? परिवार के कुछ लोगों का कहना है कि विवाह करने से मनोरोग ठीक हो जाता है? यह बात कहां तक सच है?

जवाब

स्कीजोफ्रेनिया गंभीर रोग है. आप को खुश होना चाहिए कि चाहे दवा के साथ ही सही, आप की बेटी का मानसिक स्वास्थ्य इस अनुकूल स्थिति में है कि वह अध्यापिका के दायित्व का निर्वाह कर पा रही है और अपने पांवों पर खड़ी है. उस का मानसिक संतुलन इसी प्रकार संतुलित बना रहे सभी परिवार वालों के लिए इस से बड़ी खुशी की कोई बात नहीं हो सकती. इस संभावना के प्रति सदा सावधान रहें कि यह रोग किसी भी घड़ी दवा में थोड़ी सी भी ढील बरतने या थोड़ा सा भी तनाव होने पर अचानक बिगड़ सकता है. उस स्थिति में बिटिया को प्यार, समझ, विवेक के साथ संभालने की जरूरत होगी.

मनोरोगों में लोग प्राय: यह बात नहीं समझ पाते कि रोगी के बेतुके, अटपटे व्यवहार की जड़ में वह मानसिक घमासान होता है जिस पर रोगी का कोई वश नहीं चलता. इसी से बात बिगड़ती है. लोग सोचते हैं कि रोगी जानबूझ कर गलत ढंग से पेश आ रहा है, जबकि यह उलटपुलट व्यवहार वास्तविक रूप से मनमस्तिष्क के असंतुलन के कारण उपजता है. घरपरिवार वाले यह सच समझ भी लें, कोई नया परिवार यह बात समझ लेगा यह संभावना न के बराबर है.

यह सोच कि विवाह से स्कीजोफ्रेनिया जैसा गंभीर रोग ठीक हो जाएगा बिलकुल गलत है. सच तो यह है कि विवाह के बाद रोग के पहले से कहीं अधिक गंभीर होने की पूरी आशंका रहती है. इस के अपने स्वाभाविक कारण हैं. वैवाहिक जीवन में पांव रखने पर वरवधू दोनों को एकसाथ कई नई भावनात्मक चुनौतियों से गुजरना पड़ता है, दोनों के सामाजिक दायित्व पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ जाते हैं और दोनों के सामने जीवन में अनगिनत नए तनाव आ खड़े होते हैं.

इतना ही नहीं, अधिकांश मामलों में ससुराल वालों को जब रोग के बारे में पता चलता है तो उन्हें यह सच स्वीकार नहीं होता, बल्कि अधिकांश परिवारों का यही नजरिया होता है कि उन के साथ छल किया गया है. यह अनबन कब अदालत में पहुंच जाए कुछ पता नहीं. यदि आप विवाह से पहले ससुराल वालों से बिटिया के रोग की बात छिपा जाते हैं, तो कानूनी तौर पर फैसला बिटिया के विरुद्ध ही लिखा जाएगा. यह स्थिति किसी के लिए भी सुखदाई नहीं होगी.

अच्छा होगा कि आप बिटिया के विवाह का इरादा छोड़ कर उस के खुश और स्वस्थ बने रहने के लिए यथासंभव प्रयत्न करते रहें. बिटिया के व्यवहार में कैसे भी उतारचढ़ाव आएं, आप को उस का पूरा साथ देना होगा. इलाज के प्रति जरा सी भी लापरवाही बरतने से रोग हाथ से निकल सकता है.

Summer Special: गरमी में खाएं ये फल, होंगे ये फायदे

गर्मियों में  खरबूज सब से ज्यादा पसंद किया जाने वाला फल है. तरबूज की तरह ही खरबूज में भी पानी काफी मात्रा में पाया जाता है, जो गर्मियों में शरीर में पानी की कमी नहीं होने देता. यही नहीं खरबूज में भरपूर मात्रा में शर्करा, कैल्सियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम, विटामिन ए, विटामिन सी, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट आदि तत्व पाए जाते हैं, जो शरीर में कई पोषक तत्वों की कमी को दूर करते हैं. ज्यादातर लोग खरबूज का जूस बना कर पीना पसंद करते हैं, आइए, जानते हैं इस के फायदे –

खरबूजा: मस्तिष्क तक ऑक्सीजन पहुंचाता है

खरबूजे में पाए जाने वाला तत्व पोटेशियम मस्तिष्क तक ऑक्सीजन सप्लाई को बढ़ाने में मदद करता है. इसे खाने से दिमागी तनाव कम होता है. इस के अलावा इस में कई तरह के सुपरऑक्साइड गुण भी पाए जाते हैं जो रक्तचाप को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं. जिस से दिल से संबंधित रोगों का खतरा कम हो जाता है.

विटामिन ए की कमी होती है दूर

खरबूजे का नियमित सेवन करने से शरीर में विटामिन ए की कमी दूर होती है. प्रदूषण की वजह से शरीर में विटामिन की मात्रा बहुत कम हो जाती है, इसलिए खरबूज खाने से फेफड़े स्वस्थ रहते हैं, जो लोग धूम्रपान करते हैं, उन के लिए भी खरबूजा लाभदायक होता है.

कैंसर सेल्स को फैलने से रोकता है खरबूज

खरबूज में पाए जाने वाले बीटा कैरटिन और विटामिन सी शरीर के कई घातक कणों (रेडिकल्स) को शरीर से बाहर करने में मदद करते हैं. ये घातक कण शरीर की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाते हैं और कैंसर को पनपने में मदद करते हैं, इसलिए कैंसर पीड़ित लोगों को भी खरबूज का सेवन करना चाहिए.

आंखों की रोशनी बढ़ाए

आंखों की रोशनी यदि कमजोर हो तो खरबूज खाना फायदेमंद होता है. खरबूज में मौजूद विटामिन ए आंखों की कोशिकाओं के निर्माण में सहायक होता है. गाजर की तरह खरबूज भी विटामिन ए का मुख्य स्रोत है. यदि रोज खरबूज का सेवन करें तो मोतियाबिंद की बीमारी का खतरा बहुत ही कम हो जाता है.

खरबूजा वजन कम करने में भी सहायक

खरबूजे में कैलोरी बहुत कम मात्रा में पाई जाती है, इसलिए जो लोग वजन घटाना चाहते हैं, वे इस का सेवन नियमित रूप से करेंगे तो इस से पेट काफी समय तक भरा हुआ महसूस होगा, जिस से भूख कम लगेगी. इस के अलावा इस में फाइबर की मौजूदगी के कारण शरीर का मेटाबॉलिज्म भी बढ़ेगा, जिस से वजन कम होगा. खरबूजे में फाइबर की अधिकता की वजह से शरीर का पाचन भी बेहतर होगा.

अपच और सर्दीबुखार में फायदेमंद

खरबूजे का बीज मौसमी बीमारियों में फायदा करता है. इस के नियमित सेवन से अपच, सर्दी, बुखार और जुकाम आदि सभी बीमारियां जल्दी ठीक हो जाती हैं. दरअसल, खरबूज आसानी से पचने वाला फल है, जो छोटी व बड़ी आंत की सफाई भी करता है, जिस से कब्ज, अपच और गैस जैसी समस्या नहीं होती है.

खून में गाढ़ापन कम करता है

खरबूजे में मौजूद पोटेशियम हृदय के लिए काफी फायदेमंद है. इस से रक्तचाप संतुलित होता है, खरबूजे में कई प्रकार के मिनरल्स हाइपर टेंशन की समस्या को भी ठीक करते हैं. खरबूजे में पोटेशियम बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है. पोटेशियम शरीर में सोडियम के नकारात्मक प्रभावों को दूर करता है. इस में एडेनोसिन नामक तत्त्व खून के गाढ़ेपन को भी कम करता है, जिस से हार्ट अटैक आने की आशंकाएं कम हो जाती हैं. इस प्रकार खरबूजे का सेवन दिल के स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है. खरबूजा दिल के रोगियों को नियमित रूप से खाना चाहिए.

अपने हुए पराए : भाग 1

‘‘अजय, हम साधारण इनसान हैं. हमारा शरीर हाड़मांस का बना है. कोई नुकीली चीज चुभ जाए तो खून निकलना लाजिम है. सर्दी गरमी का हमारे शरीर पर असर जरूर होता है. हम लोहे के नहीं बने कि कोई पत्थर मारता रहे और हम खड़े मुसकराते रहें.

‘‘अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल करेंगे तो शायद सामने वाले का सम्मान ही न कर पाएं. हम प्रकृति के विरुद्ध न ही जाएं तो बेहतर होगा. इनसानी कमजोरी से ओतप्रोत हम मात्र मानव हैं, महामानव न ही बनें तो शायद हमारे लिए उचित है.’’

बड़ी सादगी से श्वेता ने समझाने का प्रयास किया. मैं उस का चेहरा पढ़ता रहा. कुछ चेहरे होते हैं न किताब जैसे जिन पर ऐसा लगता है मानो सब लिखा रहता है. किताबी चेहरा है श्वेता का. रंग सांवला है, इतना सांवला कि काले की संज्ञा दी जा सकती है…और बड़ीबड़ी आंखें हैं जिन में जराजरा पानी हर पल भरा रहता है.

अकसर ऐसा होता है न जीवन में जब कोई ऐसा मिलता है जो इस तरह का चरित्र और हावभाव लिए होता है कि उस का एक ही आचरण, मात्र एक ही व्यवहार उस के भीतरबाहर को दिखा जाता है. लगता है कुछ भी छिपा सा नहीं है, सब सामने है. नजर आ तो रहा है सब, समझाने को है ही क्या, समझापरखा सब नजर आ तो रहा है. बस, देखने वाले के पास देखने वाली नजर होनी चाहिए.

‘‘तुम इतनी गहराई से सब कैसे समझा पाती हो, श्वेता. हैरान हूं मैं,’’ स्टाफरूम में बस हम दोनों ही थे सो खुल कर बात कर पा रहे थे.

‘‘तारीफ कर रहे हो या टांग खींच रहे हो?’’

श्वेता के चेहरे पर एक सपाट सा प्रश्न उभरा और होंठों पर भी. चेहरे पर तीखा सा भाव. मानो मेरा तारीफ करना उसे अच्छा नहीं लगा हो.

‘‘नहीं तो श्वेता, टांग क्यों खींचूंगा मैं.’’

‘‘मेरी वह उम्र नहीं रही अब जब तारीफ के दो बोल कानों में शहद की तरह घुलते हैं और ऐसा कुछ खास भी नहीं समझा दिया मैं ने जो तुम्हें स्वयं पता न हो. मेरी उम्र के ही हो तुम अजय, ऐसा भी नहीं कि तुम्हारा तजरबा मुझ से कम हो.’’

अचानक श्वेता का मूड ऐसा हो जाएगा, मैं ने नहीं सोचा था…और ऐसी बात जिस पर उसे लगा मैं उस की चापलूसी कर रहा हूं. अगर उस की उम्र अब वह नहीं जिस में प्रशंसा के दो बोल शहद जैसे लगें तो क्या मेरी उम्र अब वह है जिस में मैं चापलूसी करता अच्छा लगूं? और फिर मुझे उस से क्या स्वार्थ सिद्ध करना है जो मैं उस की चापलूसी करूंगा. अपमान सा लगा मुझे उस के शब्दों में, पता नहीं उस ने कहां का गुस्सा कहां निकाल दिया होगा.

‘‘अच्छा, बताओ, चाय लोगे या कौफी…सर्दी से पीठ अकड़ रही है. कुछ गरम पीने को दिल कर रहा है. क्या बनाऊं? आज सर्दी बहुत ज्यादा है न.’’

‘‘मेरा मन कुछ भी पीने को नहीं है.’’

‘‘नाराज हो गए हो क्या? तुम्हारा मन पीने को क्यों नहीं, मैं समझ सकती हूं. लेकिन…’’

‘‘लेकिन का क्या अर्थ है श्वेता, मेरी जरा सी बात का तुम ने अफसाना ही बना दिया.’’

‘‘अफसाना कहां बना दिया. अफसाना तो तब बनता जब तुम्हारी तारीफ पर मैं इतराने लगती और बात कहीं से कहीं ले जाते तुम. मुझे बिना वजह की तारीफ अच्छी नहीं लगती…’’

‘‘बिना वजह तारीफ नहीं की थी मैं ने, श्वेता. तुम वास्तव में किसी भी बात को बहुत अच्छी तरह समझा लेती हो और बिना किसी हेरफेर के भी.’’

‘‘वह शायद इसलिए भी हो सकता है क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण भी वही होगा जो मेरा है. तुम इसीलिए मेरी बात समझ पाए क्योंकि मैं ने जो कहा तुम उस से सहमत थे. सहमत न होते तो अपनी बात कह कर मेरी बात झुठला सकते थे. मैं अपनेआप गलत प्रमाणित हो जाती.’’

‘‘तो क्या यह मेरा कुसूर हो गया, जो तुम्हारे विचारों से मेरे विचार मेल खा गए.’’

‘‘फैशन है न आजकल सामने वाले की तारीफ करना. आजकल की तहजीब है यह. कोई मिले तो उस की जम कर तारीफ करो. उस के बालों से…रंग से…शुरू हो जाओ, पैर के अंगूठे तक चलते जाओ. कितने पड़ाव आते हैं रास्ते में. आंखें हैं, मुसकान है, सुराहीदार गरदन है, हाथों की उंगलियां भी आकर्षक हो सकती हैं. अरे, भई क्या नहीं है. और नहीं तो जूते, चप्पल या पर्स तो है ही. आज की यही भाषा है. अपनी बात मनवानी हो या न भी मनवानी हो…बस, सामने वाले के सामने ऐसा दिखावा करो कि उसे लगे वही संसार का सब से समझदार इनसान है. जैसे ही पीठ पलटो अपनी ही पीठ थपथपाओ कि हम ने कितना अच्छा नाटक कर लिया…हम बहुत बड़े अभिनेता होते जा रहे हैं…क्या तुम्हें नहीं लगता, अजय?’’

‘‘हो सकता है श्वेता, संसार में हर तरह के लोग रहते हैं…जितने लोग उतने ही प्रकार का उन का व्यवहार भी होगा.’’

‘‘अच्छा, जरा मेरी बात का उत्तर देना. मैं कितनी सुंदर हूं तुम देख सकते हो न. मेरा रंग गोरा नहीं है और मैं अच्छेखासे काले लोगों की श्रेणी में आती हूं. अब अगर कोई मुझ से मिल कर यह कहना शुरू कर दे कि मैं संसार की सब से सुंदर औरत हूं तो क्या मैं जानबूझ कर बेवकूफ बन जाऊंगी? क्या मैं इतनी सुंदर हूं कि सामने वाले को प्रभावित कर सकूं?’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो, श्वेता. तुम से किस ने कह दिया कि तुम सुंदर नहीं हो.’’

सहसा मेरे होंठों से भी निकल गया और मैं कहीं भी कोई दिखावा या झूठ नहीं बोल रहा था. अवाक् सी मेरा मुंह ताकने लगी श्वेता. इतनी स्तब्ध रह गई मानो मैं ने जो कहा वह कोरा झूठ हो और मैं एक मंझा हुआ अभिनेता हूं जिसे अभिनय के लिए पद्मश्री सम्मान मिल चुका हो.

चौथापन- भाग 1: बाबूजी का असली रूप क्या था?

वह एक कोने में कुरसी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे. अचानक उन्होंने ऊब कर किताब एक ओर  रख दी. आंखों  से चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया. रूमाल से आंखें साफ कीं और निरुद्देश्य खिड़की  से बाहर की चहलपहल देखने लगे.

‘‘दादाजी, यह कामिक्स पढ़ कर सुनाइए जरा,’’ उन की 10 वर्ष की नातिन अंजू रंगबिरंगी पुस्तकें लिए कमरे में पहुंच गई.

‘‘लाओ, देखें,’’ उन्होंने बड़े चाव से  पुस्तकें ले लीं.

वह पुस्तकों के चित्र तो देख पा रहे थे, किंतु चश्मा लगाने के बाद भी उन पुस्तकों को पढ़ पाना उन्हें बड़ा कठिन लग रहा था. फिर नाम भी क्या थे पुस्तकों के, ‘आग का दरिया’, ‘अंतरिक्ष का शैतान’.

‘‘छि: छि:… ये क्या हैं? अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो, बेटे.’’

‘‘अच्छी कौन सी, दादाजी?’’

‘‘जिस पुस्तक से कोई अच्छी बात सीखने को मिले. बच्चों के लिए तो आजकल बहुत सी पत्रपत्रिकाएं  निकलती हैं.’’

‘‘आप नहीं जानते, दादाजी, ये थ्री डायमेंशनल कामिक्स हैं. इन को पढ़ने के लिए अलग से चश्मा मिलता है. यह देखिए.’’

‘‘अरे, यह कोई चश्मा है? लाल पन्नी लगी है इस में तो. इस से आंखें खराब हो जाएंगी. फेंको इसे.’’

‘‘आप को कुछ नहीं मालूम, दादाजी,’’ अंजू ने उपेक्षा से कहा और पुस्तकें ले कर तेजी से बाहर चली गई.

वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे. शायद वह वर्तमान से कट चुके हैं. उन का जमाना लद चुका था. उन के सिद्धांत, आदर्श ओैर विचार अब अप्रासंगिक हो चुके थे.

अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात थी. उन के बेटे मुन्ना  ने भी यही कहा था. हुआ यों था कि उस दिन वह कारखाने में मौजूद थे. नौकर ने एक ग्राहक को बिल दिया तो उन्हें वह बहुत ज्यादा लगा. वह एक प्रकार से ग्राहक को लूटने जैसा ही  था. उन्होंने नौकर को डांट दिया और जोर दे कर उस से बिल में परिवर्तन करने को कहा.

उसी दिन मुन्ना रात को घर आने के बाद  उन पर बहुत बिगड़ा था, ‘बाबूजी, आप तो बैठेबिठाए नुकसान करवा देते हैं. क्या जरूरत थी आप को  कारखाने में जा कर कीमत कम करवाने की?’

‘मैं ने तो उचित दाम ही लगाए थे, बेटा. वह नौकर बहुत ज्यादा  बिल बना रहा था.’

‘आप बिलकुल नहीं समझते, बाबूजी. इतना बड़ा कारखाना चलाना आज के जमाने में कितना मुश्किल काम है. अब कामगारों को वेतन कितना बढ़ा कर देना पड़ता है, जानते हैं आप? नई मशीन की किश्त हर माह देनी पड़ती है सो अलग. फिर आयकर भी इसी महीने में भरना है.’

उन की दृष्टि में ग्राहकों से मनमाना पैसा वसूल करने का यह कोई उचित तर्क नहीं था, लेकिन वह चुप ही रह गए.

एक बार वह बीमार पड़ गए थे. 2-3 महीने तक कारखाने नहीं जा सके. बस, तभी अचानक मुन्ना ने उन की गद्दी हथिया ली. फिर मुन्ना यह सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि वह व्यापार में उन से अधिक कुशल है.

जहां उन्हें ग्राहक से 4 पैसे वसूल करने में कठिनाई होती थी वहां मुन्ना बड़ी आसानी से 6 पैसे वसूल कर लेता था. उस ने बैंकों से ऋण ले कर अल्प समय में ही नई मशीनें मंगवा ली थीं. किस आदमी से कैसे काम लिया जा सकता है, इस काम में मुन्ना खुद को उन से कहीं अधिक दक्ष होने का दावा करता था.

जब वह स्वस्थ हो कर कारखाने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कारखाने का शासन सूत्र मुन्ना अपने हाथों में दृढ़ता से थामे हुए है. एक बार हाथों में शासन सूत्र  आने के बाद कोई भी उसे सरलता से वापस नहीं करना चाहता.

अब मुन्ना कारखाने के तमाम कार्य अपनी मरजी से करता था. उन की ठीक सलाह भी उसे अपने मामलों में दखलंदाजी लगती थी. मुन्ना अकसर उन्हें एहसास दिलाता था, ‘बाबूजी, डाक्टर ने आप को पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है. आप घर पर रह कर ही आराम किया करें. कारखाने का सारा कारोबार मैं संभाल लूंगा. आप बेकार उधर की चिंता किया करते हैं.’

जब उन की पत्नी इंदू जिंदा थी तो उस का भी यही विचार था. वह प्राय: कहा करती थी, ‘आज नहीं तो कल, मुन्ना को ही तो संभालना है कारखाना. वह व्यापार को बढ़ा ही रहा है, घटा तो नहीं रहा? वैसे भी अब लड़का बड़ा हो गया है. बाप का जूता उस के पैर में आने लगा है. उन्हें खुद आगे हो कर मुन्ना को कारोबार सौंप देना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार आदमी को चौथेपन में सांसारिक झंझटों से संन्यास ले लेना चाहिए.’

और इस तरह बीमारी के दौरान अकस्मात ही उन की इच्छा के विरुद्ध कारखाने से उन का निष्कासन हो गया था.

उन्होंने एक नजर नाश्ते की प्लेट पर डाली. आज फिर घर का नौकर बड़ी उपेक्षा से उन के सामने सिर्फ मक्खन लगे स्लाइस रख गया था. उन के अंदर ही अंदर कुछ घुटने सा लगा था, ‘यह भी कोई नाश्ता है? बाजार से डबलरोटी मंगवाई और चुपड़ दिया उस पर जरा सा मक्खन.’

जब इंदू थी तब उन के लिए बीसियों तरह के तो लड्डू ही बनते थे घर में. मूंग के, मगज के, रवे के वगैरहवगैरह. मठरी, सेव और कई तरह के नमकीन भी परोसे जाते थे उन के आगे. पकवानों का तो कोई हिसाब ही नहीं था और अब मात्र मक्खन लगे डबलरोटी के टुकड़े.

वह खीज उठे और उठ कर सीधे अंदर गए, ‘‘बरसात में डबलरोटी क्यों मंगवाती हो, बहू? घर में ही कुछ मीठा या नमकीन बना लिया करो. कल जो डबलरोटी आई थी उस में फफूंद लगी हुई थी.’’

‘‘डाक्टर ने उन्हें अधिक घीतेल खाने की मनाही कर दी है. अगर आप को डबलरोटी पसंद नहीं है तो आप के लिए दूसरा इंतजाम हो जाएगा,’’ बहू ने रूखेपन से जवाब दिया.

दूसरे दिन उन के लिए जो नाश्ता लगाया गया वह होटल से मंगवाया गया था. एक प्लेट में बेसन का लड्डू तथा थोड़ा सा चिड़वा था. बरसात के कारण चिड़वा बिलकुल हलवा बन गया था. लड्डू बेशक स्वादिष्ठ था, परंतु उस में वनस्पति घी इतनी अधिक मात्रा में था कि खाने के बाद उन्हें बहुत देर तक खट्टी डकारें आती रही थीं.

वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि त्रिवेणी उन के पास रहती तो बड़ा सुविधाजनक होता. वह उन के खानेपीने का कितना खयाल करती थी. भैयाभैया कहते उस की जबान नहीं थकती थी.

सच  पूछो तो अपनी पत्नी इंदू की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे. त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था.

सब से बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित रूखेपन, बहू की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती- नातिनों की बदतमीजियों की ओर उन का ध्यान ही नहीं जाता था. वह तो त्रिवेणी को भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उस का घर में रहना असंभव कर दिया.

एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिशा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उन के सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूं आप को पार्क तक.’’

वह कहना चाहते थे, ‘भाई, पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूं. खुद चला जाऊंगा,’ पर चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए.

तलाक के बाद पूरी तरह टूट गए थे आशीष विद्यार्थी, पहली पत्नी ने किया खुलासा

बॉलीवुड एक्टर आशीष विद्यार्थी अपनी पर्सनल लाइफ को लेकर सुर्खियों में रहते हैं, इन दिनों वह अपनी दूसरी शादी को लेकर चर्चा में बने हुए हैं. कुछ दिनों पहले कलकता कि फैशन इंटरप्रयोनर रूपाली से वह शादी रचाए हैं. जिसे लेकर लगातार वह चर्चा में बने हुए हैं.

57 साल की रूपाली से शादी के बाद आशीष को खूब ट्रोल किया जा रहा है. इसी दौरान आशीष ने एक इंटरव्यू में अपनी पहली पत्नी के साथ अलग होने के बाद का दर्द साझा किया है. यही नहीं उन्होंने रूपाली को लेकर अपना दर्द भी साझा किया है.

 

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उन्होंने बताया कि रूपाली से उनकी मुलाकात एक बॉलगिंग के जरिए हुई थीं, जहां पर वह जानें थें कि रूपाली काफी ज्यादा दर्द से गुजर रही है, उसके बाद से उन्होंने रूपाली की मदद करने की कोशिश की थी, फिर उन्होंने अपनी पहली पत्नी से भी रूपाली के बारे में बताया था कि वह काफी ज्यादा परेशान हैं उन्हें एक पार्टनर की जरुरत है. जिसके बाद उन्होंने रूपाली को लेकर हां कहा था.

आशीष अपनी शादी से काफी ज्यादा खुश हैं, बता दें कि 5 साल पहले रूपाली के पति का निधन हो गया था, जिसके बाद से रूपाली काफी ज्यादा परेशान रह रही थीं. आशीष ने उनकी प्रॉब्लम को समझते हुए उनके साथ शादी करने का फैसला लिया था.

आखिर क्यों आमिर खान नहीं जाते ‘द कपिल शर्मा शो’ खुद किया खुलासा

द कपिल शर्मा शो में जाने के लिए हर कोई एक्साइटेड रहता है, हाल ही में आमिर खान और कपिल शर्मा की मुलाकात एक शो के जरिए हुई है, जहां पर उन लोगों ने एक-दूसरे से बात किया. जहां पर कपिल शर्मा ने आमिर खान से सवाल पूछा कि आप क्यों नहीं आते हैं हमारे शो में .

इस पर आमिर खान ने हंसते हुए बोला की मुझे पता था कि आप मुझसे यह सवाल करेंगे, बता दें कि एक इवेंट में आमिर खान जट्टा3 के प्रमोशन में पहुंचे थें, जहां पर उनकी मुलाकात आमिर खान से हुई.

 

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अभी तक आमिर खान द कपिल शर्मा शो का हिस्सा नहीं बने हैं, जिस वजह से कपिल शर्मा उनसे यह बात कह रहे हैं. द कपिल शर्मा शो में आए दिन कुछ न कुछ नए मेहमान देखने को मिलते रहते हैं. हाल ही में द कपिल शर्मा शो में नए-नए मेहमान नजर आते रहते हैं.

हालांकि आमिर खान इस शो का हिस्सा नहीं है यह सवाल लोगों के मन में गुत्थी बना हुआ है कि आखिर वह इस शो का हिस्सा क्यों नहीं बने हैं. खबर है कि जल्द आमिर खान अपने दिए हुए बयान के ममुताबिक इस शो में आएगें.

आमिर इन दिनों अपनी अपकमिंग फिल्म को लेकर चर्चा में बने हुए हैं, आमिर कि यह फिल्म काफी चर्चा में बनी हुई है.

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