आप ने कई बार खबरों में एक तथाकथित नई न्यायिक परिभाषा, जिस को ‘बुलडोजर न्याय’ के रूप में परिभाषित करने का भरसक प्रयास किया जा रहा है, के बारे में सुना होगा. ‘राष्ट्रवाद’, ‘साम्यवाद’ और ‘समाजवाद’ पढ़ और सुन लेने के बाद राजनीतिक और न्यायिक परिक्षेत्र में लगातार खलबली मचाए रखने वाला एक नया ‘वाद’ सामने आया है- ‘बुलडोजरवाद’.
‘न्यूजलांड्री’ के अनुसार मध्य प्रदेश में पिछले डेढ़ साल के दौरान इस बुलडोजर अभियान के तहत अब तक ध्वस्त की गईं 331 संपत्तियों में से अधिकांश ‘संगठित अपराधियों’ की नहीं, बल्कि सामान्य लोगों की हैं जिन में से अधिकांश गरीब और मुसलिम हैं.
एक परिवार, एक इंसान के लिए घर एक आशियाने से ज्यादा होता है जो कि भारतीय सामाजिक परिवेश में एक महत्त्वपूर्ण वस्तु माना जाता है. भारतीय संविधान में मौजूद अनुच्छेद 300 (अ), जोकि संपत्ति का अधिकार प्रदान करता है, सीधेतौर पर इस प्रशासनिक कुव्यवस्था द्वारा धूमिल किया जा रहा है.
हाल ही में कानपुर देहात के मैथा तहसील क्षेत्र के मड़ौली पंचायत के चालहा गांव में ग्राम समाज की जमीन से कब्जा हटाने के लिए एक सरकारी टीम पुलिस एवं राजस्व कमचारियों के साथ पहुंची. आरोप है कि टीम ने जेसीबी से घर और मंदिर तोड़ने के साथ ही छप्पर गिरा दिया. इस से छप्पर में आग लग गई और वहां मौजूद प्रमिला (44) व उन की बेटी नेहा (21) की आग की चपेट में आने से जल कर मौके पर ही मौत हो गई. जबकि कृष्ण गोपाल गंभीर रूप से झुलस गए. प्रशासन का कहना है कि यह आत्महत्या है पर ग्रामीणों के अनुसार यह प्रशासन की गलती है.
मध्य प्रदेश के पंचायत मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया ने हाल ही में संपन्न हुए पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के निजी क्षेत्र राघोगढ़ के नगर पालिका चुनाव के प्रचार के दौरान इस ‘बुलडोजरवाद’ की सोच को जाहिर किया. चुनावी सभा में उन्होंने कुछ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को धमकाते हुए कहा कि, “चुपचाप खिसक जाओ कांग्रेसियो, मामा का बुलडोजर तैयार खड़ा है.”
इस बयान से साफ पता चलता है कि बुलडोजर का उपयोग न केवल दोषियों के खिलाफ बिना ‘उचित न्याय प्रक्रिया’ के न्याय देने में किया जा रहा है बल्कि राजनीतिक द्वेष एवं निजी मंसूबों को अंजाम देने के लिए भी इसे उपयोग में लाया जा रहा है. इस से न केवल अनुच्छेद 19 (1) अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरनाक प्रभाव पड़ेगा बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों व अधिकारों को भी नुक्सान पहुंचगा.
बुलडोजर अन्याय प्राकृतिक न्याय (नैचुरल जस्टिस) के सिद्धांत के खिलाफ है. इस सिद्धांत को विस्तृत कर मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त के मामले में अदालत ने कहा कि निष्पक्षता की अवधारणा हर कार्रवाई में होनी चाहिए चाहे वह न्यायिक, अर्धन्यायिक, प्रशासनिक और अर्धप्रशासनिक कार्य हो. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उचित और न्यायसंगत निर्णय पर पहुंचना न्यायिक और प्रशासनिक निकायों का उद्देश्य है. प्राकृतिक न्याय का मुख्य उद्देश्य न्याय के गर्भपात को रोकना है. लेकिन न तो कोई सुनवाई है न कोई शिकायत निवारणतंत्र. हजारों सालों से अनुसरण में रहे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को पूर्णरूप से निरंकुश बुलडोजर न्याय की कुव्यवस्था तारतार करती नजर आ रही है.
एक ऐतिहासिक केस बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 14 को ध्यान में रखते हुए कहा गया कि ‘कानून का शासन’ और ‘कानून के समक्ष समानता’ लोकतांत्रिक देशों के सब से महत्त्वपूर्ण प्रावधानों में से एक है. राज्य में प्रत्येक कार्यवाही मनमानी से मुक्त होनी चाहिए वरना अदालत उस अधिनियम को असंवैधानिक करार दे कर रद्द कर देगी.
ठीक कुछ ऐसा ही वर्ष 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत संघ के अब तक के सुप्रसिद्ध मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे की व्याख्या करते हुए कहा था. बुलडोजर अन्याय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19, 21 और 300 (अ) को रौंदता हुआ वह वाहन है जो सरकार को ‘सत्तावादी’ और जनतंत्र को ‘अन्याय तंत्र’ में तबदील करते जा रहा है.
दूसरा घटनाक्रम भी मध्य प्रदेश के ही उज्जैन शहर का है जहां जिला प्रशासन ने चायना डोर (जिस का उत्पादक भारत है) के बेचने और उपयोग करने को ले कर धारा 144 के तहत रोक लगा दी थी. रोक के बावजूद 2 आरोपी कारोबारी- हितेश भोजवानी (40) एवं मुहम्मद इक़बाल (35) चायना डोर का व्यापार कर रहे थे. दोनों आरोपियों के घर पर एक दिन पहले नोटिस आता है और दूसरे दिन बुलडोजर चला दिया गया और उन के अवैध हिस्से को गिरा दिया गया.
यहां सवाल खड़े होते हैं कि क्या हर छोटीबड़ी आपराधिक घटना पर बुलडोजर का इस्तेमाल करना सही है? क्या आरोप सिद्ध होने से पहले इस प्रकार का न्याय चाहे किसी भी संस्था के द्वारा किया गया हो या करवाया गया हो, वैध है? क्या आरोपी का घर तोड़ कर उस के परिवार या उस पर आश्रित परिवार के अन्य सदस्यों के साथ यह न्यायिक ज्यादती नहीं है? बिना कानूनी प्रक्रिया का उचित पालन किए बिना उचित एवं वैध अनुमति के घर गिराना न्यायसंगत है?
न्यायपालिका और बुलडोजरवाद में फर्क
- न्यायपालिका का कार्य आरोपी का अपराध सिद्ध होने पर दंड देना है जबकि बुलडोजरवाद आरोपी को प्रत्यक्ष रूप से अपराधी मान कर दंडित करता है.
- न्यायपालिका के न्यायसंगत प्रक्रिया एवं न्यायिक सिद्धांतों का अनुसरण कर कई मापदंडों पर नापतौल कर न्याय करता है जबकि बुलडोजर न्याय आमतौर पर लोकप्रिय जनमत पर आधारित रहता है.
- न्यायपालिका पुनर्स्थापनात्मक / सुधारात्मक न्याय व्यवस्था के मूल्यों के अनुसार न्याय करने की कोशिश करती है जबकि बुलडोजरवाद प्रतिशोधात्मक न्याय करता है जोकि एक ऐसी न्याय व्यवस्था है जिस का आधार ‘आंख के बदले आंख’ और ‘हाथ के बदले हाथ’ है, अर्थात, जो प्रतिशोध के सिद्धांत पर आधारित है.
न्याय संहिता में कहीं भी कानून तोड़ने पर किसी अपराधी के घर या निर्माण को तोड़ने का प्रावधान नहीं है. बुलडोजरवाद में अपराधी की निजी या वह संपत्ति तोड़ी जाती है जिस से वह जुड़ा हुआ हो. उत्तर प्रदेश के दंगे के आरोपी जावेद मोहम्मद की बीवी के नाम घर होने के बावजूद उसे धराशायी कर दिया गया. न्यायालय मात्र मूकदर्शक रह गए. एक आरोपी जिस के आरोप सिद्ध भी नहीं हुए उस के परिवार से उस का आशियाना छीन लिया गया. उस महिला के परिप्रेक्ष्य से देखें तो शायद संविधान महज एक धूल खाती किताब और न्यायपालिका महज एक खोखला ढांचा नजर आए.
न्यायपालिका ने भी इस संदर्भ में कई कोशिशें कीं. 20 नवंबर, 2022 को गोहाटी उच्च न्यायालय ने खुद संज्ञान लेते हुए असम राज्य एवं अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस अधीक्षक को आगजनी के 5 आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलवाने के कारण फटकार लगाई. कोर्ट की शिनाख्त से पता चला कि तलाश के आदेश पर घर पर बुलडोजर चला दिया गया जो की पूर्णतया गैरन्यायिक है.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी इसी संदर्भ में कहा है कि किसी व्यक्ति को बिना नोटिस के सुबह या देर शाम उन के दरवाजे पर बुलडोजर से बेदखल नहीं किया जा सकता. वे पूरी तरह से आश्रयहीन हैं, उन्हें वैकल्पिक स्थान प्रदान किया जाना चाहिए.
बौम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में पश्चिम रेलवे को आदेशित करते हुए कहा है कि ‘अतिक्रमण एक गंभीर मुद्दा है, बुलडोजर इस का समाधान नहीं.’
बुलडोजरवाद का उदगम तथाकथित ‘शीघ्र न्याय’ से होते हुए महज कुछ वर्षों में राजनीतिक हथकंडे और न्यायिक प्रक्रिया को लांघ कर त्वरित न्याय करने के रूप में बदल गया है. बुलडोजर न्याय धीरेधीरे एक विचारधारा का रूप लेता जा रहा है जो ठोस न्यायिक उपायों के भाव में एक ऐसा विकल्प बन गया है जो प्राकृतिक न्याय के मूल्यों के विपरीत है.
इस नए न्यायिक अभियान ने ‘अतिक्रमण रोधी अभियान और सामूहिक न्याय’ का चोला ओढ़ कर ‘सामूहिक अन्याय’ का रूप ले लिया है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बिना पूर्ण जांचपड़ताल, बिना आरोपसिद्ध हुए, न्यायपालिका और लोकतांत्रिक मूल्यों को रौंदते हुए ‘बुलडोजरवाद’ ने अपना स्थान मूल राजनीति में बना लिया है.
न्याय व्यवस्था में त्रुटि एवं दोष सिद्ध होने में लंबा विलंब होने के कारण त्वरित न्याय के लिए उत्सुक देश की जनता ने इस बुलडोजरवाद को सहीगलत के परे कुछ हद तक एक न्यायिक स्वीकृति दे दी है. ऐसा न होता तो उत्तर प्रदेश से ‘बुलडोजर न्याय’ की हवा गुजरात, दिल्ली, मध्य प्रदेश तक न आती और न ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री इस ‘अनुचित न्यायिक विकल्प’ को अपने उपनाम ‘मामा’ के साथ जोड़ते और ‘बुलडोजर मामा’ कहने/कहलवाने में गर्व महसूस करते.
लेखक–नंदेश यादव