हिंदी की 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम की एक कविता की बानगी देखें-
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर,
छोड़ रहे हैं जंग के विक्षत वक्षस्थल पर.
शतशत फेनोच्छवासित, स्फीत फुत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पांतर,
अखिल विश्व ही विवर, वक्र कुंडल, दिक्मंडल
शत सहस्त्र शशि, असंख्य ग्रहउपग्रह, उड़गण,
जलतेबुझते हैं स्फुलिंग से तुम में तत्क्षण,
अचिर विश्व में अखिल दिशावधि, कर्म, वचन, भव,
तुम्हीं चिरंतन, अहे विवर्तन हीन विवर्तन
यह प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत की कविता निष्ठुर परिवर्तन है. इस में संदेह नहीं कि कविता में बिंब और प्रतीकों का खूबसूरती से चित्रण किया गया है. पर ऐसी कविता पढ़ने या पढ़ाने से पहले यह समझना जरूरी है कि 12वीं कक्षा के विद्यार्थी इसे आसानी से समझ सकते हैं या नहीं.
सच कहा जाए तो स्टूडैंट्स को इस में कुछ भी समझ नहीं आता. उन्हें तो कविता पढ़ने से पहले हर शब्द के अर्थ के लिए शब्दकोश खोल कर बैठना होगा. फिर ऐसी कविता पढ़ाने का क्या फायदा? क्या हम कवि की दूसरी अपेक्षाकृत आसान कविताएं नहीं रख सकते ताकि बच्चे ऊंची क्लास में पहुंचते ही हिंदी छोड़ कर, फ्रैंच या दूसरी किसी विदेशी भाषा की तरफ न भागें.
ऐसा नहीं हैं कि हिंदी में आज की नई पीढ़ी के समझ में आने लायक कविताएं या रचनाएं नहीं हैं पर हिंदी का पाठ्यक्रम तय करने वालों को या हिंदी साहित्य पढ़ाने वाले प्राध्यापकों को जब तक संस्कृतनिष्ठ, क्लिष्ट हिंदी की पंक्तियां नहीं मिलतीं, उन्हें कविता या किसी रचना में भाषागत सुंदरता दिखाई नहीं देती. उन्हें लगता है कि सहज, सपाट रचना या कविता को पाठ्यक्रम में क्या पढ़ाना जो बिना प्राध्यापक के भी समझ में आ जाए.
यह हाल सिर्फ हिंदी विषय के पाठ्यक्रम में ही नहीं है बल्कि कमोबेश सभी विषयों का यही हाल रहता है. विज्ञान और तकनीकी विषयों का हाल तो और भी बुरा होता है. उन में इतने कठिन शब्द होते हैं कि हिंदी के बजाय इंग्लिश में उन शब्दों को समझना आसान लगने लगता है.
कुछ और उदाहरण
क्लास 12
भौतिकी (अध्याय 10)
तरंग प्रकाशिकी
मुख्यतया न्यूटन के प्रभाव के कारण तरंग सिद्धांत को सहज ही स्वीकार नहीं किया गया. इस का एक कारण यह भी था कि प्रकाश निर्वात में गमन कर सकता है और यह महसूस किया गया कि तरंगों के एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक संचरण के लिए सदा माध्यम की आवश्यकता होती है. इस संबंध में जब टामस यंग ने वर्ष 1801 में अपना व्यतिकरण संबंधी प्रसिद्ध प्रयोग किया तब यह निश्चित रूप से प्रमाणित हो गया कि वास्तव में प्रकाश की प्रकृति तरंगवत है. दृश्यप्रकाश की तरंगदैर्घ्य को मापा गया तो यह पाया गया कि यह अत्यंत छोटी है.
उदाहरण के लिए पीले प्रकाश की तरंग दैर्घ्य लगभग पौइंट सिक्स है. दृश्यप्रकाश की तरंगदैर्घ्य छोटी होने के कारण प्रकाश को लगभग सरल रेखा में गमन करता हुआ माना जा सकता है. यह ज्यामितीय प्रकाशिकी का अध्ययन क्षेत्र है. वास्तव में प्रकाशिकी की वह शाखा जिस में तरंगदैर्घ्य की परिमितता को पूरी तरह से नग्न्य मानते हैं, ज्यामितीय प्रकाशिकी कहलाती है तथा किरण को ऊर्जा संचरण के उस पथ की भांति परिभाषित करते हैं जिस में तरंगदैर्घ्य का मान की ओर प्रवृत्त होता है.
अध्याय 7
प्रत्यावर्ती धारा
अब तक हम ने दिष्टधारा स्रोतों एवं दिष्टधारा स्रोतों से युक्त परिपथों पर विचार किया है. समय के साथ इन धाराओं की दिशा में परिवर्तन नहीं होता. हालांकि, समय के साथ परिवर्तित होने वाली धाराओं और वोल्टताओं का मिलना आम बात है. हमारे घरों व दफ्तरों में पाया जाने वाला मुख्य विद्युतप्रदाय एक ऐसी ही वोल्टता का स्रोत है जो समय के साथ जया फलन की भांति परिवर्तित होता है. ऐसी वोल्टता को प्रत्यावर्ती वोल्टता तथा किसी परिपथ में इस के द्वारा अचालित धारा को प्रत्यावर्ती धारा कहते हैं. आजकल जिन विद्युत युक्तियों का हम उपयोग करते हैं उन में से अधिकांश के लिए एसी वोल्टता की ही आवश्यकता होती है. इस का मुख्य कारण यह है कि अधिकांश विद्युत कंपनियों द्वारा बेची जा रही विद्युत ऊर्जा प्रत्यावर्ती धारा के रूप में संप्रेषित एवं वितरित होती है.
ज्योग्राफी
क्लास 12 (दूसरा अध्याय) प्रवास
प्रवास के परिणाम
आर्थिक
सकारात्मक परिणाम
उद्धव क्षेत्र प्रवासियों द्वारा भेजी गई राशि से लाभ प्राप्त करना. अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों द्वारा भेजी गई हुंडियां विदेशी विनिमय के प्रमुख स्रोत में से एक है. पंजाब, केरल, तमिलनाडु अपने अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों से महत्त्वपूर्ण राशि प्राप्त करते हैं. यह रकम क्षेत्र की आर्थिक वृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. प्रवासियों द्वारा भेजी गई राशि का उपयोग भोजन, ऋणों की अदायगी, उपचार, विवाह, बच्चों की शिक्षा, कृषि में निवेश इत्यादि के लिए किया जाता है. बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश इत्यादि के हजारों निर्धन गांवों की अर्थव्यवस्था के लिए यह रकम जीवनदायक रक्त का काम करती है. हरित क्रांति की सफलता के पीछे प्रवासी श्रम शक्ति की बहुत बड़ी भूमिका रही है.
समाजशास्त्र
क्लास 11 (अध्याय 2)
सामाजिक नियंत्रण के प्रकार
औपचारिक नियंत्रण
जब नियंत्रण के संहिताबद्ध व्यवस्थित और अन्य औपचारिक साधन प्रयोग किए जाते हैं तो उसे औपचारिक सामाजिक नियंत्रण के रूप में जाना जाता है.
अनौपचारिक नियंत्रण
यह व्यक्तिगत, अशासकीय और असंहिताबद्ध होता है. उदाहरण के लिए धर्म, प्रथा, परंपरा आदि ग्रामीण समुदाय में जाति नियमों का उल्लंघन करने पर हुक्कापानी बंद कर दिया जाता है.
सामाजिक नियंत्रण के दृष्टिकोण
प्रकार्यवादी दृष्टिकोण
व्यक्ति और समूह के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए बल का प्रयोग करना. समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए मूल्यों और प्रतिमानों को लागू करना.
संघर्षवादी दृष्टिकोण
समाज के प्रभावी वर्ग के बाकी समाज पर नियंत्रण को सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में देखते हैं. कानून को समाज में शक्तिशालियों और उन के हितों के औपचारिक दस्तावेज के रूप में देखना.
मानदंड
व्यवहार के नियम जो संस्कृति के मूल्यों को प्रतिबिंबित या जोड़ते हैं.
मानदंडों को हमेशा एक तरह से या किसी अन्य की स्वीकृति से समर्थित किया जाता है जो अनौपचारिक अस्वीकृत से शारीरिक संज्ञा या निष्पादन में भिन्न होता है.
प्रतिबंध
ईनाम या दंड का एक तरीका जो व्यवहार के सामाजिक रूप से अपेक्षित रूपों को मजबूत करता है.
संघर्ष
यह किसी समूह के भीतर उत्पन्न घर्षण या असहमति के कुछ रूपों को संदर्भित करता है जब समूह के एक या एक से अधिक सदस्यों की मान्यताओं या कार्यों को या तो किसी अन्य समूह के एक या अधिक सदस्यों से प्रतिस्पर्ध या अस्वीकार किया जाता है.
समुच्चय
यह केवल उन लोगों का संग्रह है जो एक ही स्थान पर है लेकिन एकदूसरे के साथ निश्चित संबंध साझा नहीं करते हैं.
कक्षा 11
गणित (अध्याय 8)
एनसीईआरटी समाधान
द्विपद प्रमेय
द्विपद प्रमेय एक ऐसा बीजगणितीय सूत्र है जिस से हम x + y रूप के द्विपद के किसी धन पूर्णांक घातांक का मान x एवं y के nवें घात के बहुपद के रूप में निकाल सकते हैं. द्विपद जब बड़े रूप में होता है उस समय पद के गुणक ही द्विपद गुणक होते हैं. हम a + b एवं a – b जैसे पदों का वर्ग एवं घन निकालना पहले से ही जानते हैं.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
प्राचीन भारतीय गणितज्ञ (x + y)ⁿ, 0 छोटा है या बराबर है n ≤ 7, के प्रसार में गुणांकों को जानते थे. ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में पिंगल ने अपनी पुस्तक ‘छंद शास्त्र’ (200 ई० पू०) में इन गुणांकों को एक आकृति, जिसे मेरुप्रस्त्र कहते हैं, के रूप में दिया था. 1303 में चीनी गणितज्ञ चुसी की के कार्य में भी यह त्रिभुजाकार विन्यास पाया गया.
धन पूर्णांकों के लिए द्विपद प्रमेय
गणित में द्विपद प्रमेय एक महत्त्वपूर्ण बीजगणितीय सूत्र है जो x + y प्रकार के द्विपद के किसी धन पूर्णांक घातांक का मान x एवं y के nवें घात के बहुपद के रूप में प्रदान करता है.
द्विपद विस्तार विधि
द्विपद विस्तार में गुणांक से तात्पर्य है, किसी विशिष्ट घात का गुणांक ज्ञात करना. द्विपद प्रसार में विशिष्ट घात का गुणांक ज्ञात करने के लिए व्यापक पद के सूत्र का प्रयोग किया जाता है. व्यापक पद के सूत्र द्वारा विशिष्ट घात के पद को ज्ञात कर के उस का गुणांक ज्ञात किया जा सकता है.
निम्नलिखित सर्वसमिकाओं पर हम विचार करें:
(a + b)⁰ = 1; a + b ≠¬ 0
द्विपद प्रसारों के गुणधर्म
इन प्रसारों में हम देखते हैं कि-
(i) प्रसार में पदों की कुल संख्या, घातांक से 1 अधिक है. उदाहरणतया (a +b)² के प्रसार में (a+b)² का घात 2 है जबकि प्रसार में कुल पदों की संख्या 3 है.
(ii) प्रसार के उत्तरोत्तर पदों में प्रथम a की घातें एक के क्रम से घट रही हैं जबकि द्वितीय राशि b की घातें एक के क्रम से बढ़ रही हैं.
(iii) प्रसार के प्रत्येक पद में a तथा b की घातों का योग समान है और a +b की घात के बराबर है. एक द्विपद की उच्च घातों का प्रसार भी पास्कल के त्रिभुज के प्रयोग द्वारा संभव है. आइए, हम पास्कल त्रिभुज का प्रयोग कर के (2x + 3y) ⁵का विस्तार करें. घात 5 की पंक्ति है.
जाहिर है इस तरह की क्लिष्ट भाषा में कोई भी विषय पढ़ना आसान नहीं. बात गणित की हो, समाजशास्त्र की हो, भूगोल या इतिहास की हो, ऐसी भाषा स्टूडैंट्स की उस विषय में रुचि कम करती है. वह पढ़ाई से उकताने लगता है. उसे कुछ समझ नहीं आता तो नंबर भी अच्छे नहीं आते और फिर वह हर मामले में पिछड़ता चला जाता है.
हिंदी भाषा को अगर ज़िंदा रखना है तो पहली कक्षा की नर्सरी राइम्स से ले कर एम ए के पाठ्यक्रम तक में पूरी तरह बदलाव किए जाने की जरूरत है. हमें ऐसा पाठ्यक्रम रखना चाहिए जिस से बच्चे कुछ सीख सकें और जिन की भाषा बहुत क्लिष्ट न हो. जनसाधारण की भाषा को बढ़ावा मिलना चाहिए. हमारे पाठ्यक्रम बदल रहे हैं मगर रचनाओं का चुनाव करते समय पढ़ाई के मूल उद्देश्य से खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए.
इंग्लिश के बाद हिंदी ही विश्व की दूसरे नंबर पर सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है. विदेशियों में हिंदी भाषा सीखने और जानने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. इस के विपरीत हमारे अपने देश में दूसरी कक्षा में जब उन्हें क ख ग सिखाया जाता है तो पेरैंट्स हिंदी को अहमियत ही नहीं देते. हमारे यहां इंग्लिश भाषा के धुरंधर बच्चे कालेज में पहुंच कर भी हिंदी में मात्राओं और हिज्जों की गलतियां करते हैं. उन्हें सही हिंदी नहीं आती जब कि हिंदी सीखना दूसरी अन्य भाषाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा आसान है. फिर इस में दोष किस का है?
दरअसल, भारत में अपनी भाषा की दुर्दशा के लिए सब से पहले तो हिंदी के प्रति हमारी सोच जिम्मेदार है. हम ने इंग्लिश को एक उच्चवर्ग की भाषा मान रखा है. जवाहरलाल नेहरू ने सालों पहले यह बात कही थी, ‘मैं इंग्लिश का इसलिए विरोधी हूं क्योंकि इंग्लिश जानने वाला व्यक्ति अपने को दूसरों से बड़ा समझने लगता है और उस की दूसरी क्लास बन जाती है. यह इलीट क्लास होती है.’
बहुत से परिवारों में बच्चे अपने मांबाप से इंग्लिश में बात करते हैं और नौकर या आया से हिंदी में क्योंकि उन्हें यह लगता है कि हिंदी मजदूर तबके की ही भाषा है. बच्चों को नर्सरी स्कूल में भेजने से पहले यह जरूरी हो जाता है कि इंटरव्यू में पूछे गए इंग्लिश सवालों का वे सही उत्तर दे सकें और एकाध नर्सरी राइम्स सुना सकें. मातापिता उन्हें इस इंटरव्यू के लिए तैयार करने में अपनी सारी ऊर्जा खपा डालते हैं.
हम ने खुद ही तो अपने बच्चों को इंग्लिश माध्यम से पढ़ाया है. उन के बोलना सीखते ही ‘ट्विंकलट्विंकल लिटिल स्टार’ और ‘जौनी जौनी यस पापा’ जैसी कविताएं रटवाई हैं. हिंदी माध्यम के स्कूलों को म्यूनिसिपल स्कूलों जैसा दोयम दर्जा दे दिया है.
दरअसल, आज हमारी पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हमारी नई पीढ़ी कैसे हिंदी की ओर आकर्षित हो. हिंदी भाषा से उसे उकताहट व झुंझलाहट न हो. हिंदी एक आम भारतीय आदमी की भाषा है, फिर भी आज तक इस की अपेक्षित प्रगति नहीं हो पाई. आज भी इंग्लिश बोलने वाले लोग श्रेष्ठता का दंभ भरते हैं और हिंदीभाषी लोग अकसर हीनता की ग्रंथि से ग्रस्त प्रतीत होते हैं.
इस का एक बड़ा कारण है हिंदी का संस्कृतभरा तत्सम रूप जो सिर्फ भाषाई पंडितों को रास आता है, आम आदमी को नहीं. हिंदी का तद्भव रूप वह है जिस में उर्दू, अरबी, फारसी, इंग्लिश और तमाम भाषाओं के शब्द मिले हुए हैं. यही हिंदी आम आदमी की बातचीत की भाषा रही है. मगर हिंदी का एक शुद्धीकरण अभियान चल रहा है. अकसर जारी की जा रही सरकारी विज्ञप्तियों, बहुत से कानूनों के हिंदी अनुवाद और सरकारी आदेशों की भाषा में हिंदी को विचित्र काटछांट कर तोड़मरोड़ कर, पेंचदार भाषा में अजीब रूप में पेश किया जाता है. इस तरह जब हिंदी को क्लिष्ट रूप में लोगों के समक्ष लाया जाएगा तो लोगों में इस के प्रति अरुचि ही पैदा होगी.
कम पढ़ेलिखे लोगों के लिए क्लिष्ट हिंदी एक बड़ी समस्या है. ऐसी हिंदी जब अच्छेखासे पढ़ेलिखे लोग नहीं समझ पाते तो भला हम यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि कम पढ़ेलिखे लोग इसे समझ पाएंगे. यह तो एक तरह से उन के खिलाफ साजिश ही है. इंग्लिश उन्हें आती नहीं और हिंदी अपनी भाषा होने के बावजूद जब समझ में न आए तो कितनी दयनीय हालत होती होगी. आवश्यक है कि हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए हम हिंदी को सरल और सुगम रूप में प्रस्तुत करें.
इस संदर्भ में आर जे, एंकर, ऐक्टर और राइटर अरुण कोचर कहते हैं, “क्लिष्ट हिंदी कम पढ़ेलिखे लोग समझ ही नहीं पाते. इसलिए वे उस से उतना दूर भागते हैं जितना इंग्लिश से भी नहीं. बच्चे भी उसी तरफ आकर्षित होते हैं जो उन्हें समाज में रुतबा दिलाए. हमारे हिंदीभाषी ही क्लिष्ट हिंदी से परहेज करते हैं. वैसे भी, ऐसी हिंदी ज्यादा उपयोग में नहीं आती. केवल नाटकों में, रामलीला मंचनों या क्लास रूम में ही इस का प्रयोग होता है.
“”हम जब धाराप्रवाह बोलते हैं तो बीच में इंग्लिश या उर्दू के शब्द आ ही जाते हैं. दैनिक जीवन में क्लिष्ट हिंदी का कभी इस्तेमाल नहीं होता. यह एक तरह से इंग्लिश में लिखी दवा के नाम जैसा हो जाता है जो न समझ आती है और न जिस में हमें कोई रुचि ही होती है.
“”देखा जाए तो हमारे समाज में इंग्लिश का चलन है. जब आप इंग्लिश में जवाब देते हैं तो आप को सम्मान की नजरों से देखते हैं. ज्यादातर पुस्तकें इंग्लिश में हैं. जैसे अकाउंट, इनकम टैक्स, मर्केंटाइल लौ आदि की पुस्तकें इंग्लिश में ही हैं. बाहर के देशों से कानून आए हैं, उन्हें हिंदी में समझ पाना कठिन है. सारा कामकाज इंग्लिश में होता है. क्लिष्ट हिंदी में अनुवाद करें तो भी उसे समझना कठिन हो जाता है. सरकार ने भी हिंदी के प्रचारप्रसार पर उतना ध्यान नहीं दिया है.”
सरल हिंदी के विकास में एक बड़ी बाधा है नेता तथा उच्चवर्ग की दोहरी नीति. स्थानीय नेता जो इंग्लिश को कोसते नहीं थकते, वहीं, अपने बच्चों को इंग्लिश में तुतलाते देख कर उस की बलैया लेते हैं. इसी तरह उच्च और संपन्न वर्ग वाले भी इंग्लिश से चिपके रहते हैं. उन के बच्चे ए,बी,सी,डी पहले सीखते हैं, क, ख, ग बाद में. नर्सरी राइम पहले, कविता पीछे. उन्हें डर लगता है कि बच्चे को कहीं हिंदी का रोग न लग जाए, इसलिए बचपन से ही उन्हें इंग्लिश का चस्का लगा दिया जाता है.
यही नहीं, हिंदी में सरल भाषा में तकनीकी पाठ्यपुस्तकों का भी अभाव है. लेखन में लेखक की स्वाभाविक शैली का बहुत प्रभाव पड़ता है. कुछ लेखक लेखन में तत्सम शब्दावली एवं इंग्लिश लेखन में यूएस इंग्लिश के क्लिष्ट शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं. इस से विषयवस्तु को समझने में कठिनाई उत्पन्न होती है.
यही नहीं, हमारे अदालती दस्तावेज, जमीन के कागज और सिनेमा के गाने उर्दू-फारसी शब्दों से भरे हुए हैं. इसी तरह इंग्लिश शासन के प्रभाव से हमारे संविधान, सभी तरह के कानून और उच्चशिक्षा हेतु तकनीकी विषयों की पाठ्यपुस्तकें इंग्लिश में ही उपलब्ध हैं. तकनीकी विषयों, जैसे डाक्टरी, इंजीनियरिंग, अर्थशास्त्र, वाणिज्य, प्रबंधन, आदि सब की पढ़ाई इंग्लिश मंत ही होती है. इंग्लिश आज निश्चित रोजगार की भाषा मानी जा रही है.
ऐसे में सरल हिंदी का विकास जरूरी है. आवश्यक है कि तकनीकी विषयों, जैसे मैडिकल इंजीनियरिंग, अर्थशास्त्र, कौमर्स, मैनेजमैंट आदि की पुस्तकें अगर हिंदी में उपलब्ध नहीं हैं तो उन का सरल हिंदी अनुवाद करवाया जाए ताकि भारतीयों को अपनी भाषा में उच्चशिक्षा दी जा सके. हिंदी की पत्रिकाओं का प्रचारप्रसार हो.
शब्द महज ध्वनियां नहीं होते. हर शब्द का अपना एक संसार होता है. जब वे अपने संसार के साथ हम तक नहीं पहुंचते, वे अपना अर्थ खो देते हैं. किसी भी शब्द को स्वीकार या खारिज करने का सरल तरीका यह है कि वह हमें कितना स्वाभाविक लगता है.
हिंदी ने बड़ी सहजता और सरलता से समय के साथ चलते हुए कई बाहरी भाषाओं के शब्दों को भी अपने अंदर समेट लिया है. इस से हिंदी का शब्द भंडार बहुत समृद्ध हो गया है. वास्तव में हिंदी जीवंत भाषा है. वह समय के साथ बहती रही है, कहीं ठहरी नहीं.
यह बात अलग है कि हिंदी के ‘सरलीकरण’ के नाम पर उसे ‘हिंग्लिश’ बना दिया गया है. हिंदी में अन्य भाषाओं, खासकर इंग्लिश, के शब्दों को जबरन ठूंसा जा रहा है. किसी भी भाषा के विकास, उस के जीवित बने रहने और जनसामान्य की भाषा बनी रहने के लिए दूसरी भाषा के शब्दों का योगदान निश्चित तौर पर महत्त्वपूर्ण होता है. लेकिन आवश्यकता से अधिक उपयोग से मूलभाषा ही परिवर्तित होने लगती है. यह परिवर्तन उस के अस्तित्व के लिए संकट बन जाता है.