टैलीफोन की घंटी से सुकुमार का ध्यान भंग हुआ. रिसीवर उठा कर उन्होंने कहा, ‘‘हैलो.’’ ‘‘बाबा, मैं सुब्रत बोल रहा हूं,’’ उधर से आवाज आई. ‘‘हां बेटा, बोलो कैसे हो? बच्चे कैसे हैं? रश्मि कैसी है?’’ एक सांस में सुकुमार ने कई प्रश्न कर डाले. ‘‘बाबा, हम सब ठीक हैं. आप की तबीयत कैसी है?’’ ‘‘ठीक ही है, बेटा. अब इस उम्र में तबीयत का क्या है, कुछ न कुछ लगा ही रहता है. अब तो जिंदगी दवा के सहारे चल रही है. बेटा, बहुत दिन बाद आज मेरी याद आई है?’’ ‘‘बाबा, क्या करूं? इतनी व्यस्तता हो गई है कि समय ही नहीं मिल पाता. रोज ही सोचता हूं, फोन करूं परंतु किसी न किसी काम में व्यस्तता हो जाती है.’’ ‘‘सच कह रहे हो बेटा. जैसेजैसे तुम्हारी पदोन्नति होगी, जिम्मेदारियां भी बढ़ेंगी और व्यस्तता भी.’’ ‘‘बाबा, आप से एक बात कहना चाहता हूं, बुरा तो नहीं मानेंगे?’’

‘‘कहो न, बेटा, बुरा मानने की क्या बात है?’’ ‘‘मैं सोच रहा था, मां के चले जाने के बाद आप बिलकुल अकेले हो गए हैं. आप की तबीयत भी ठीक नहीं रहती है. हम लोग भी आप से मिलने कभीकभार ही कोलकाता आ पाते हैं. अगर आप ठीक समझें तो कोलकाता का मकान बेच कर आप भी अमेरिका चले आएं. यहां गुडि़या और राज के साथ आप का समय भी कट जाएगा और हम लोग भी आप की ओर से निश्ंिचत हो सकेंगे.’’ सुब्रत का प्रस्ताव सुकुमार को ठीक ही लगा. सोचने लगे, ‘नौकरी से रिटायर हुए 10 वर्ष बीत चुके हैं और कितने दिन चलूंगा. किसी दिन आंख बंद हो जाने पर सुब्रत मेरी अरथी को कंधा भी देने नहीं आ पाएगा.’ लिहाजा सुकुमार ने अपनी सहमति दे दी. सुकुमार ने पेपर में विज्ञापन दे कर मकान का सौदा कर लिया और निश्चित समय पर कोलकाता आ कर सुब्रत ने पैसों का लेनदेन कर लिया. पोस्ट औफिस से एमआईएस और बैंक में जो कुछ सुकुमार ने रखा था, उस का भी ड्राफ्ट सुब्रत ने अपने नाम से बनवा लिया. कोलकाता की संपत्ति बेचने के बाद वे लोग अमेरिका जाने के लिए तैयार थे.

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