समाज बदल रहा है, महिलाएं बाहर निकल पुरुषों से कंधे से कंधा मिला रही हैं. ऐसे में पुरुषों को महज वीर्यदान और संसाधन जुटानेभर तक सीमित रखना ठीक नहीं है, उन्हें पितृत्व का एहसास कराया जाना भी जरूरी है.

भारतीय क्रिकेटर विराट कोहली पहली बार पिता बने तो ऐसे में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से ब्रेक लेने का फैसला किया. इस का समर्थन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने भी किया और इस के लिए उस ने उन्हें पितृत्व अवकाश भी दिया. ऐसे ही न्यूजीलैंड टीम के क्रिकेटर केन विलियमसन ने भी पहली बार पिता बनने पर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से ब्रेक लेने का फैसला किया.

एक गर्भवती औरत बच्चा होने के पहले ही उस के बारे में सोचना शुरू कर देती है. बच्चा होने के बाद उस की चिंता और बढ़ जाती है कि सब कैसे हैंडल करेगी. ऐसे में अगर पिता भी छुट्टियां ले ले और अपनी पत्नी के साथ रहे तो मां की चिंता काफी हद तक कम हो जाती है.

ऐक्टर इमरान खान ने भी कुछ ऐसा ही किया था. जब उन की बेटी पैदा होने वाली थी तब उन्होंने भी कुछ समय के लिए फिल्मों से अवकाश ले लिया था. इमरान के मुताबिक, ऐसी चीजें आप की जिंदगी में एक या दो बार होती हैं. ऐसे में किसी भी कीमत पर ये पल गंवाने नहीं चाहिए.

उन का कहना था कि एक पिता होने के नाते उन्होंने महसूस किया कि बेटी को ले कर वे हमेशा नर्वस रहते थे कि क्या मैं सही कर रहा हूं? क्या मैं गलत कर रहा हूं? क्या मैं ने बच्चे को ठीक से खिलाया? कहीं वह भूखा तो नहीं रह गया? कहीं मैं ने उसे ओवरइटिंग तो नहीं करवा दिया? ऐसे तमाम सवाल उन के मन में आते रहते थे. उन्होंने शिद्दत से महसूस किया कि बच्चा होने के समय एक पति को अपनी पत्नी के पास होना चाहिए. बच्चे पैदा करना एक मां को नए जीवन मिलने जैसा होता है.

रितेश देशमुख की पत्नी जेनेलिया डिसूजा का कहना है, ‘‘रितेश ग्रेट फादर हैं. वे अपने बेटे के डायपर तक चेंज करते थे. उसे नहलाते थे. यहां तक कि रात में उठ कर रोते बच्चे को हाथों में ?ाला ?ालाते थे.’’

यह सही भी है कि अपने बच्चे के प्रति जितनी जिम्मेदारी एक मां की होती है, उतनी पिता की भी होनी चाहिए. फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने भी अपनी बेटी के जन्म के बाद 2 महीने का पितृत्व अवकाश लिया था और अपनी नवजात बच्ची के साथ खुशनुमा पल बिताए थे.

लेकिन क्या एक आम भारतीय पिता ऐसा करने की सोच सकता है? बिल्कुल नहीं, क्योंकि एक बच्चे को पालने की भूमिका तो मां ही अदा करती है, पिता तो परिवार और बच्चों को सुखसुविधा मुहैया कराता है. यह सोच पूरे देश में व्याप्त है कि घरपरिवार और बच्चों की देखभाल तो घर की औरतें ही कर सकती हैं. पुरुषों का काम तो बाहर जा कर कमाना और महत्त्वपूर्ण फैसले लेना है. लेकिन यह मिथ्या है कि एक पिता अपने नवजात बच्चे की उस तरह से देखभाल नहीं कर सकता, जैसे एक मां.

यूनिवर्सिटी औफ कैलिफोर्निया रिवर साइड के मनोवैज्ञानिकों ने 18 हजार से ज्यादा लोगों पर रिसर्च की. रिसर्च के मुताबिक, मां की तुलना में पिता बच्चे की देखभाल न केवल बेहतर ढंग से कर पाते हैं, बल्कि वे बच्चों की देखभाल को ले कर अधिक सक्रिय भी होते हैं. यह शोध बतलाता है कि एक पिता भी मां की तरह नवजात बच्चे की देखभाल कर सकता है.

इसराईल के शोधकर्ता रूथफील्डमेन ने अपने शोध में यह पाया कि बच्चे की देखभाल के समय जिस तरह से हार्मोनल बदलाव मां में होते हैं, वैसे पिता में भी देखने को मिले हैं. जब उन का मस्तिष्क यह बात स्वीकार कर लेता है कि बच्चा संभालने का दायित्व उन पर है तो बच्चे के साथ उन का लगाव एक मां जैसा ही होने लगता है.

बच्चे और पिता की ऐसी रिलेशनशिप को ले कर हमेशा से ही रिसर्च होती रही हैं. रिसर्च के अनुसार, पिता और बच्चे की रिलेशनशिप बहुत खास होती है. बच्चे को पालना मांपिता दोनों की जिम्मेदारी होती है. इस से बच्चे के विकास में अच्छा प्रभाव पड़ता है. लेकिन पेरैंटिंग में पिता की भूमिका खास होती है. साइंस भी इस बात की पुष्टि करती है कि जो पिता मां की तरह बच्चे के सारे काम करते हैं, वे आगे चल कर सोशल लाइफ में सक्सैसफुल भूमिका निभाते हैं.

पुराने जमाने में जब महिलाएं मां बनने वाली होती थीं तब उन्हें मायके भेज दिया जाता था. एक प्रथा थी, इस में पिता की कोई भूमिका नहीं रहती. पहले के जमाने में घर में ही दाई के हाथों बच्चे पैदा करवाए जाते थे. कम उम्र में मां बनने के कारण कई बार प्रसूति के दौरान ही महिलाओं की मौत भी हो जाती थी. लेकिन आज ऐसा नहीं है. फिर भी बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी औरतों की ही मानी जाती है.

आज भी समाज के बड़े हिस्से में यह सोच दिखती है कि पिता को बच्चे के पास रहने की क्या जरूरत है? हमारे देश में पितृत्व अवकाश परंपरागत रूप से स्वीकार्य नहीं और न ही इस की आवश्यकता सम?ा जाती है. यह स्पष्ट है कि ऐसा न मानने का कोई तार्किक या वैज्ञानिक कारण नहीं है, सिवा उन सामाजिक व परंपरागत मान्यताओं के जो पुरुषों को यह दायित्व स्वीकार नहीं करने देती हैं.

बच्चों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ के आंकड़े भी यही दिखाते हैं. यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में दोतिहाई पिता ऐसे हैं जिन्हें बच्चा होने पर एक दिन भी छुट्टी नहीं मिलती. एक साल से कम उम्र के करीब 9 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जिन के पिता को ‘पेड लीव’ यानी काम से बिना तनख्वाह कटे छुट्टी नहीं मिली.

ये आंकड़े 92 देशों के हैं. जहां बच्चा होने पर पुरुषों के लिए ‘पेड लीव’ का कोई प्रावधान नहीं है. यूनिसेफ ने इन देशों से गुजारिश की है कि वे परिवार के हक में नीतियां बनाएं.

यूनिसेफ के कार्यकारी निर्देशक हेंरिएटा का कहना है कि शुरू में ही मातापिता का साथ सकारात्मक और सार्थक संपर्क जीवनभर के लिए बच्चों के दिमागी विकास के लिए महत्त्वपूर्ण होता है. इस से वे ज्यादा स्वस्थ और सुखी रह पाते हैं और उन के सीखने की क्षमता भी बढ़ती है.

लेकिन सरकार मातृत्व अवकाश की तरह पितृत्व अवकाश जरूरी नहीं सम?ाती. अगर महिलाओं के लिए छुट्टी के प्रावधान हैं तो पुरुषों को पितृत्व अवकाश न देना एक तरह से जैंडर भेदभाव को बढ़ावा देना है.

बच्चे की देखभाल करना बेशक मां का काम है लेकिन पिता को इस जिम्मेदारी से दूर रखना भी तो गलत है. 4 साल पहले जब मेनका गांधी महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का पदभार संभाल रही थीं तब उन्होंने पितृत्व अवकाश का मजाक उड़ाते हुए कहा था, ‘‘भारतीय पुरुषों के लिए यह छुट्टी मनाने का समय होगा.’’

अगर हम वास्तव में स्त्रीपुरुष समानता चाहते हैं तो हमें यह सोच बदलनी होगी. अभी तक हम यही मान कर चलते आए हैं कि बच्चों को पालना प्राकृतिक रूप से औरतों का काम है और पुरुषों का काम उन्हें इस की सुविधा उपलब्ध कराना है.

आइसलैंड जैसे प्रगतिशील देश इसे बदल रहे हैं. वहां दोनों अभिभावकों को समानरूप से 3 महीने की छुट्टी दी जाती है. इस के अलावा दोनों में से किसी एक को 3 महीने की अतिरिक्त छुट्टी भी मिल सकती है. यह छुट्टी मातापिता दोनों में से कौन लेंगे, मिल कर तय करते हैं. अभिभावकों को बराबर छुट्टियां मिलने से बच्चे का पालनपोषण सही तरीके से हो सकता है.

बहुत जगहों पर बच्चों, बूढ़ों की देखभाल और घर के सारे कामकाज औरतों के ऊपर डाल दिए जाते हैं. लेकिन फिर भी इन कामों को वह दर्जा और सम्मान नहीं मिल पाता है जो बाहर जा कर किए जाने वाले कामों को मिलता है.

मैकिंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट ने अपने एक अध्ययन में पाया था कि भारत में महिलाएं, पुरुषों की तुलना में 10 गुना ज्यादा अवैतनिक काम करती हैं. अगर पुरुषों को भी पितृत्व अवकाश मिलता है तो इस से एक मां को तो भावनात्मक संबल मिलेगा ही, साथ में पुरुषों में सौम्यता और विनम्रता आएगी. पुरुष केवल साधन या सुविधाएं प्रदान करने भर को नहीं रह जाएंगे, बल्कि वे एक जिम्मेदार पिता और पति भी बनेंगे.

वैसे कई मामलों में खुद महिलाएं भी मातृत्व अवकाश लेना नहीं चाहतीं. उन्हें लगता है कि कहीं उस वजह से उन्हें कम पेशेवर या कम स्पर्धी न मान लिया जाए या मातृत्व अवकाश के कारण कहीं ऐसा न सोचने लगें कि उस के बिना काम चल सकता है. कई जगह तो नौकरी छूट जाने का भी डर बना रहता है. लेकिन अगर पतिपत्नी दोनों समान छुट्टियां लें तो यह डर खत्म हो सकता है.

एक भ्रामक धारणा यह है कि लड़कियों को जन्म से ही बच्चे पालना आता है. लड़कियां जब मां बनती  हैं और चीजें उन के सिर पर पड़ती हैं तब वे सारी चीजें सीख जाती हैं. लेकिन बच्चे के जन्म के समय मां भी उतनी ही अनपढ़ और नासम?ा होती है जितना पिता.

वैसे धीरेधीरे पितृत्व अवकाश को ले कर निजी क्षेत्र में भी जागरूकता बढ़ रही है. कुछ साल पहले खबर आई थी कि दिल्ली के एक निजी स्कूल के शिक्षक ने पितृत्व अवकाश की अपनी कानूनी लड़ाई जीत ली थी. इस शिक्षक ने अपने बच्चे पैदा होने पर स्कूल से 15 दिनों की छुट्टी ली थी. लेकिन काम पर लौटने पर पता चला कि उन का 15 दिनों का वेतन काट लिया गया.

पिछले साल ही फूड एग्रीगेटर कंपनी जोमैटो ने पितृत्व अवकाश के मामले में नई पहल की थी. उस ने बच्चे का पिता बनने वालों के लिए 26 दिन पेड लीव देने का निर्णय लिया था. दिलचस्प था कि कंपनी के मुताबिक, यह पितृत्व अवकाश सैरोगेसी, बच्चे गोद लेने और यहां तक कि समलैंगिक शादियों के मामले में भी कायम रहेगा.

अब जमाना पहले जैसा नहीं रह गया, जहां भरापूरा परिवार होता था. जन्म के बाद नवजात बच्चे के पालनपोषण के लिए दादी, चाची, बूआ हुआ करती थीं तो मां को उतनी समस्या नहीं होती थी. आज एकल फैमिली का जमाना है, जहां सिर्फ पति और पत्नी होते हैं और दोनों कामकाजी. इसलिए अब समय आ गया है कि मातृत्व अवकाश की तरह पितृत्व अवकाश के बारे में भी सोचा जाना चाहिए.

पिता को भी उतनी ही छुट्टियां मिलें जितनी मां को मिलती हैं क्योंकि बच्चे को 9 महीने गर्भ में रखने, प्रसव और स्तनपान के अलावा भी असंख्य ऐसे काम होते हैं. अभी तक ज्यादातर पिता सिर्फ वीर्यदान और संसाधन जुटाने में ही अपनी जिम्मेदारी निभाते आए हैं. जबकि बदलते वैश्विक सामाजिक परिवेश में मांएं मातृत्व की जिम्मेदारी निभाने के साथसाथ संसाधन जुटाने में भी अहम भूमिका निभा रही हैं. ऐसे में पिता का भी दायित्व बनता है कि वे भी बच्चों के लालनपालन में अपनी भूमिका तय करें. समाज का भी कर्तव्य बनता है कि इस दायित्व को निभाने में उन की मदद करे.

दुनियाभर में 109 देश ऐसे हैं जहां पैटर्निटी लीव यानी बच्चा होने पर पुरुषों को छुट्टी दी जाती है. जरमनी इन में सब से आगे है. हालांकि, छुट्टी मिलने पर पिताओं को पूरा वेतन नहीं मिलता. कुल 14 महीने की छुट्टी में मातापिता आपस में मिल कर निर्धारित कर सकते हैं कि कौन कितना वक्त दफ्तर से दूर रहना चाहता है.

इस के बाद फिनलैंड, आइसलैंड, नौर्वे, दक्षिण कोरिया और स्वीडन का नंबर आता है. इस के विपरीत अमेरिका में न ही महिलाओं को पेड लीव मिलती है और न ही पुरुषों को. नौकरी से छुट्टी लेने पर मातापिता को वेतन नहीं दिया जाता.

भारत में महिलाओं को 12 हफ्ते की छुट्टी मिला करती थी जिसे साल 2017 में आए मैटरनिटी अमैंडमैंट बिल के बाद इसे बढ़ा कर 26 हफ्ते कर दिया गया है. इस के अलावा महिलाओं को घर से काम करने का विकल्प भी दिया गया है. लेकिन पुरुषों के लिए ऐसी कोई नीति अब तक देश में नहीं बनाई गई है.

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