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सत्ता और सरकारी एजेंसियां

यह खेद की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की सीबीआई, ईडी व एनआईए जैसी जांच एजेंसियों के जरिए विपक्षी दलों को डराने की कोशिशों को गलत ठहराने से इनकार कर दिया है. एक याचिका में विपक्षी दलों ने आंकड़ों से स्पष्ट किया कि 2014 से इन जांच एजेंसियों का विपक्षी दलों के खिलाफ जम कर इस्तेमाल हो रहा है और अनसुल झे मामले भरे पड़े हैं पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे सरकार और जांच एजेंसियों की स्वायत्तता का मामला कह कर टाल दिया.

विपक्षी दलों की याचिका में स्पष्ट किया गया था कि ईडी यानी एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट के 121 मामलों और सीबीआई यानी केंद्रीय जांच ब्यूरो के 124 मामलों में से 95 फीसदी विपक्षी दलों के खिलाफ ही हैं और कुछ में ही अंतिम फैसला हो पाया है. लेकिन कोर्ट ने इसे सामान्य बात कह कर ठुकरा दिया. नेता दूध के धुले हैं, यह कोई नहीं मानता पर भाजपा के नेता गाय के दूध, गौमूत्र और गंगाजल तीनों से धुले व पवित्र हैं, यह भी कोई नहीं मान सकता. यह अनायास ही नहीं है कि ऐन चुनावों से पहले ये एजेंसियां उन राज्यों में विपक्षी दलों के खिलाफ सक्रिय हो जाती हैं जो भारतीय जनता पार्टी के लिए खतरा बन सकते हैं.

दिल्ली में नगरनिगम के चुनावों से पहले और तुरंत बाद आम आदमी पार्टी के नेताओं की गिरफ्तारी क्या साबित करती है? ममता बनर्जी को परेशान करने के लिए ठीक चुनावों से पहले वहां कई नेताओं को लपेटे में लिया गया. राजनीति में जम कर बेईमानी हो रही है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि हर राजनेता बहुत थोड़े से वेतन के बावजूद शानदार तरीके से रहना शुरू कर देता है. चुनावों पर भारी खर्च होता है जो कहीं से तो आता है पर यह काम सिर्फ विपक्षी दल कर रहे होते तो वे ही जीतते और भारतीय जनता पार्टी पैसे की कमी के कारण हारती नजर आती.

सुप्रीम कोर्ट ने इस ओर आंखें क्यों मूंदीं, यह अस्पष्ट है. राजनीति में बेईमानी हटाना असंभव है और आज जब एक शासकीय फैसला लेने वाले लोग 5-7 लाख रुपए नहीं, 500-700 करोड़ रुपए कमा सकते हैं, यह सोचना भी नामुमकिन है कि जिस के हाथ में शक्ति है वह अपना हिस्सा नहीं रखेगा पर यह काम सिर्फ विपक्षी पार्टियां कर रही हों और भारतीय जनता पार्टी जनता के वोटों व उन की इच्छा से दिए चंदे से चल रही हो, यह मानना भी ठीक नहीं है. जांच एजेंसियों को अपनी साख बनाए रखना बहुत जरूरी है क्योंकि लोकतंत्र उन्हीं पर निर्भर है.

उन्हीं की रिपोर्टें संसद व बाहर राजनीतिक आरोपों का आधार बनती हैं. जिन के पास सत्ता होती है आमतौर पर वे पैसा नहीं चाहते क्योंकि जो पैसे वाले होते हैं वे तो खुद अपना पैसा लगा कर सत्ता में आने के लिए छटपटाते हैं क्योंकि उस की आनबान पैसे से कहीं बड़ी होती है. सत्ता में बैठा हर राजनीतिबाज पैसे का लालची है, यह सम झना भी गलत है पर हाल की घटनाएं कुछ ऐसी छवि ही प्रकट करती हैं.

हाल तो यह हो गया है कि अमेरिका के एक पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की गिरफ्तारी के बाद बीसियों कार्टून भारत में बने जिन में ट्रंप को भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने की बात कही गई ताकि वे आरोपों से छुटकारा पा सकें. इस असंभव बात को कार्टूनिस्टों और चुटकुले बनाने वालों ने इस्तेमाल किया. यह बात दरअसल जांच एजेंसियों और सत्ताधारी पार्टी के गैरसंवैधानिक संबंधों की छवि स्पष्ट करती है.

नीलकंठ – भाग 4 : अकेलेपन का दंश

स्वाभाविक था कि नानी को यह सब सहन हो सकता है, पर मामी को चिंता अपने बच्चों की थी, कहीं उन के बच्चों पर उस का असर न हो जाए. सो, उन का उदासीन भाव रहा. जैसेतैसे एक बरस दोनों ओर से अनचाहे रिश्ते का निर्वाह हुआ, किंतु उस से अधिक निभाह न हो सका.

कोई समाधान न देख कर काका ने उसे पुन: गांव चलने को कहा, किंतु उस ने मानो गांव न लौटने की प्रतिज्ञा कर ली थी. उस का व्यवहार बेहद रूखा हो गया था, इसलिए काका अधिक कुछ कहने से बचते, कहीं कुछ कर न बैठे लड़का… जैसा भी है कम से कम आंखों के सामने तो है. अतः उस की इच्छानुसार उसे फिर से शहर के एक स्कूल में एडमिशन दिला दिया. समझ आ रहा था उस की जिंदगी कैसे तहसनहस हो रही है, मगर कोई चारा भी तो नहीं.

दिल पर जब कोई भारी बोझ हो तो अपने जीवन के सुखदुख सब निरर्थक लगते हैं. अपने बाबू को पिछले एक बरस से देख रही थी रानू अपने ब्याह के लिए दरदर भटकते हुए. नजरें नहीं मिला पाती थी उन से, औलाद मांबाप का बोझ हलका करने के लिए होती है… मैं ने तो उन्हें कभी न खत्म होने वाला दर्द दिया है. किस्मत की मारी मैं, अपनों के लिए ही भार बन गई. महज 18 बरस की उम्र में जिंदगी इतनी पथरीली राहों से हो कर गुजरी है कि अब दामन में बस कांटे ही कांटे नजर आ रहे थे. बस इसी से नाउम्मीद हो उस ने काका से कहा था, “बाबू, मुझे ब्याह नहीं करना है.”

किंतु बेटियों को घर में रखने का हौसला भला कौन बाप कर पाया है. फिर जो कलंक उस के सिर लगा है, तो भला आसानी से कोई वर कैसे मिल जाता, भले ही जमाना बदला हो, मगर आज भी समाज में निर्दोष सीता को ही कुसूरवार ठहराया जाता है. ऊपर से समझौता गरीब की बेटियों के नसीब में लिखा होता है. सो, बड़ी मुश्किल से काका एक दूजवर को खोज पाए. एक परिवार बिना कोई अपराध किए अपराधी सिद्ध कर दिया गया.

किसी ओर काका के हाथ सफलता नहीं आ रही थी. एक ओर बेटी, तो वहीं दूसरी ओर बेटा दोनों ही का भविष्य दांव पर लगा था.

काका मनोचिकित्सकों के चक्कर दर चक्कर लगाते हुए समय से पहले ही बालों में सफेदी उतर आई. नीलकंठ पहले से अधिक गुमसुम रहने लगा. बातबात पर वह गुस्साता. अब की बार डाक्टर ने नई चुनौती सामने रख दी, “सूरज सिंह, आप का बच्चा ‘सिजोफ्रेनिया’ का शिकार है.”

भारीभरकम बीमारी का नाम सुन कर काका घबरा गए, “डाक्टर साहब, क्या बहुत बड़ी बीमारी है…? कभी सुने नहीं ये नाम…? मेरा बेटा ठीक तो हो जाएगा न?”

“यह एक मानसिक बीमारी है, जो अकसर इस उम्र के बच्चों को होती है. हां, ऐसी लाइलाज भी नहीं, मगर यह कोई छोटी बीमारी नहीं. आप के बेटे को यह बीमारी उस के अकेलेपन से उपजी है.”

“अकेलेपन से…, का करें साहब, नियति ने सारा खेल बिगाड़ दिया.

“दरअसल, इस घटना के तुरंत बाद उसे यह अहसास कराने की आवश्यकता थी कि उस ने एक गलत आदमी को उस के अंजाम तक पहुंचा कर कोई गलत काम नहीं किया.

“जिस तरह सैनिक आतंकवादी को मार कर वीरता की पदवी पाते हैं, उस ने भी वीरता दिखाई है अपनी बहन की जान बचा कर.”

“आप कह तो ठीक रहे हैं, मगर हमारा कानून तो उसे गुनाहगार मान ले गया अपने संग… बच्चे का भविष्य बिगाड़ दिया.”

“हम्म, जिस समय उसे आप के स्नेह और हौसले की जरूरत थी, वह बाल सुधारगृह में अनचाहे लोगों के बीच था. निश्चित उस में कुछ हिंसक बच्चे भी रहे होंगे, जिन से धीरेधीरे उस के मन में यह बात घर कर गई कि वह अपराधी है.”

“डाक्टर साहब, हम तो कोर्ट में बहुत कहे थे कि बच्चे को हमारे पास रहने दें. वे जब कहेंगे, हम ले कर हाजिर हो जाएंगे… मगर, किसी ने हमारी बात न सुनी और दूर कर दिया हमारे बबुआ को हम से.”

“यही तो विडंबना है, हमारे कानून व्यवस्थाओं में सुधार की बहुत आवश्यकता है, अरे, वह कोई जन्मजात अपराधी तो था नहीं… छोड़ दिया उसे अपराधियों के बीच. जानते हो, इस से उस के मन में एक डर बैठ गया है कि इस दुनिया में वह अकेला है. रातों को उसे डरावने सपने सोने नहीं देते. हर समय उसे यह भय बना रहता है कि कोई उसे मारने का प्रयास कर रहा है.”

“मेरा बच्चा… जाने किस दौर से गुजर रहा है. अब तो डाक्टर साहब वह हमारे साथ गांव आना ही नहीं चाहता.”

“तो आप आ जाइए शहर, उस के पास.”

“डाक्टर साहब, कोई नौकरीचाकरी नहीं है हमारे पास. तनिक जमीनजायजाद है, उसी से परिवार का पालन करते हैं. भला जमीन को बेच कर शहर में कैसे गुजारा होगा?”

“हम्म, किंतु यह बात जान लो कि उस के भीतर बड़ी लड़ाई चल रही है, जिस से वह खुद को हारा हुआ महसूस कर रहा है. ऐसे मरीज आत्महत्या की कोशिश भी कर सकते हैं.”

“ऐसे मत बोलिए साहब. हमें बताइए कि हम क्या करें कि हमारा बच्चा हमें वापस मिल जाए. पढ़ने में इतना होशियार था… अब तो तनिक भी ध्यान नहीं है पढ़ने में उस का.”

“कैसे होगा, डर के साए में जीतेजीते उस के सोचनेसमझने की शक्ति खो गई है.”

“डाक्टर साहब, वह तो अपनी मां और बहन को भी मिलना नहीं चाहता. हम कैसे उसे समझाएं… कैसे उस के पास आएं?”

“यह बात नहीं है, शुरू में उस ने अपनी बात किसी को कहना चाही होगी, भले ही आप से, बाल सुधारगृह में, पुलिस वालों को या उस के साथ रह रहे लड़कों को… मगर, किसी ने उस की बात को नहीं सुना. उस का यह परिणाम है कि उसे लगता है, कोई नहीं उस का अपना.”

“डाक्टर साहब ठीक तो हो जाएगा हमार बबुआ?”

“हम कोशिश कर सकते हैं. यह दिमागी बीमारी है, जो सामान्य नहीं बहुत कम लोगों को होती है और उस का परिणाम… आप ने फिल्म ऐक्ट्रैस परवीन बौबी का नाम तो सुना होगा, उन्हें हुई थी यह बीमारी.”

“ओह, वे तो…”

“हम्म… मगर, इतना निराश होने की आवश्यकता नहीं. हम सब प्रयास करेंगे. दिक्कत तो यह है कि ऐसे मरीज दवा भी नहीं लेते, इन्हें दवा भी दी जाए तो ये फैंक देते हैं, क्योंकि इन्हें भ्रम होता है कि कोई इन्हें जहर देना चाहता है.”

“ये मुई कैसी बीमारी है डाक्टर साहब?”

“हमारे दिमाग में न्यूरोट्रांसमीटर पाया जाता है, जिसे डोपामाइन कहते हैं, इस के असंतुलन से यह बीमारी होती है, जिस का एकमात्र कारण है तनाव. यही लक्षण है इस बीमारी के. इस में रोगी की संवेदनाएं मर जाती हैं… वह किसी से रिश्ता नहीं रखना चाहता. उसे सुखदुख कुछ महसूस नहीं होता.”

“फिर भी कुछ तो बताइए डाक्टर साहब?”

“हम कोशिश कर सकते हैं, अब तो स्थिति और भी नाजुक हो गई है… आप ने इलाज में देर कर दी. ऐसे बच्चे प्राय: ड्रग के भी आदी हो जाते हैं, पर शुक्र मनाइए कि आप का बच्चा इस से बचा हुआ है.”

“मैं समझा नहीं डाक्टर साहब?”

“बात यह है कि नीलकंठ को कानों में आवाजें सुनाई देती हैं, जिस से वह किसी काम में ध्यान नहीं दे पाता, ये इस बीमारी के लक्षण हैं.

“अच्छा, ये बताइए कि उन दिनों में उस के कौनकौन से शौक थे, जिस से वह बहुत खुश रहता था?”

“शौक तो ऐसा कुछ नहीं था हमार बचुआ को… हां, अपने कुत्ते के संग बहुत खुश रहता था वह.”

“गुड… आप ऐसा करिए, उस को वापस गांव ले जाइए, स्थितियों से भागने से समस्या हल नहीं होती… और उस के लिए एक कुत्ते का प्रबंध कीजिए. हो सके तो वैसा ही कुत्ता लाइए. और कुछ रिलैक्स होने को दवाएं मैं लिख देता हूं. जितना हो सके, उस के साथ रहिए. उस का आत्मबल बढ़ाइए… उसे अहसास करने की आवश्यकता है कि वह अकेला नहीं है, सब उस के साथ हैं.”

नीलकंठ घर आ गया, किंतु घर में अपनी जिस बहन के साथ मिल कर वह धूममस्ती करता था उस बहन के ब्याह को ले कर उस में तनिक उत्साह नहीं. गई थी मैं भी रानू के ब्याह में, तब देखा था टाबर को… कुत्ता, पहले भी टाबर ही नाम था कुत्ते का. नीलकंठ को बहुत लगाव था उस से. डाक्टर का यह वाक्य कि ‘वास्तव में हर बीमारी का इलाज डाक्टर नहीं होता. कुछ रोग प्रेम के स्पर्श से भी ठीक हो जाते हैं.’

काश, सच हो, फिर भी इन 8 बरसों में उस ने जो कुछ खोया है, उसे किसी भी कीमत पर लौटाया नहीं जा सकता. हां, उस के भविष्य को सहेज पाएं तो शायद इस घर की खामोश दीवारों में कुछ हलचल हो.

चौक पूरे आंगन में घर की सुहागनें मंगलगीत के साथ तेल चढ़ा रही हैं, रानू एक जिंदा लाश सी खामोश बैठी थी. उसे सचेत करते हुए कहा था मैं ने, “रानू, तेरा ब्याह है… चेहरे पर रौनक ला… यों बुझीबुझी सी क्यों बैठी है री, पिया के घर जा रही है.”

बहुत मायूस, आंखों में आंसू ले बोली थी वह, “कैसे रौनक लाऊं ऋतु दी? ये जो तेल से भरा कटोरा है, इस में मुझे तेल नहीं भाई के आंसू नजर आ रहे हैं, जो उस ने पिछले 8 बरस घर से दूर रह कर बहाए हैं. हलदी लगी है मेरी देह पर, किंतु हलदी का रंग तो उदासियों से घिरे मेरे लाड़ले भाई के पीले पड़े चेहरे पर चढ़ा है. हाथों की मेहंदी के लाल रंग में मुझे भाई के रक्त में डूबे भविष्य का अहसास हो रहा है.

“दरवाजे पर खड़ी बरात मुझे सुख का अहसास नहीं दे रही. बारबार खुद को अपराधिनी महसूस कर रही हूं. अपने ही भाई के वीरान हुए जीवन पर भला मेरे सुखद भविष्य का घरौंदा कैसे खड़ा हो सकता है…? मेरा इन खुशियों पर कैसा अधिकार…? और कैसी खुशी…? समझौता कभी खुशी को जन्म नहीं दे सकता. सप्तपदी में फेरों के समय भाई के हाथों को हाथों में ले अग्नि को धानी आहुत करती मैं अपने सपनों के राजकुमार के लिए मंगलकामना करने के बजाय अपने भाई के सुखी और उज्ज्वल भविष्य की कामना कर रही थी अग्नि देव से. इसी उहापोह में कब सात फेरे हो गए, मुझे नहीं पता. मैं तो महज देह से वहां उपस्थित थी… मन… वह स्वयं नहीं जानती कहां चक्कर खा रहा है,” हैरान मैं सोच रही थी कि क्या यह ‘सिजोफ्रेनिया’ की निशानी नहीं…?”

पिछले 8 बरस से रानू ने भी तनाव को पलपल जिया है, बचपन तो उस का भी उसी दिन आहूत हो गया था, मगर क्या उस का दर्द कोई समझ पाएगा? एक इनसान के कुकर्म ने दो बच्चों के बचपन को तहसनहस कर खुद तो उसी समय मुक्ति पा ली, मगर एक निर्दोष परिवार के जीवन को कभी न समाप्त होने वाला कुरुक्षेत्र बना दिया है.

सोच रही हूं एक नीलकंठ वे थे भोले भंडारी, जिन्होंने समुद्रमंथन से निकले उस विष को लोक कल्याण की रक्षार्थ अपने कंठ में समाहित कर अमर हो गए, फिर भी उस विष को पचाने के लिए उन्हें भी हिमालय पर एकांतवास झेलना पड़ा. दूसरा नीलकंठ, जिस ने बहन के मंगल की कामना से समाज की उपेक्षा और तिरस्कार का विष पी लिया… एक सामान्य इंसान है यह नीलकंठ, विषपान के पश्चात मिला एकांतवास ही उस के जीवन का कंटक बना वह उस बिष को पचा नहीं पा रहा. तीसरी रानू, जिसे निर्दोष होते हुए भी विष पीना पड़ा, एक स्त्री में विष को पचाने की क्षमता अपेक्षाकृत अधिक होती है. शायद इसी से रानू ने खामोशी से अपना बचपन ही नहीं, अपना यौवन भी खोया और आज जीवन का सब से बड़ा समझौता कर इस देहरी से तो विदा हो गई, मगर क्या वह विष उस का पीछा छोड़ पाएगा…?

काश, नीलकंठ लौट आए… फिर भी सोच रही हूं कि इन तीनों नीलकंठ को किस क्रम में रखूं , रानू, नीलकंठ, भोला… नीलकंठ, रानू , भोला या…?

मैं बिना मेकअप के ही खूबसूरत कैसे दिखूं ताकि पति मेरी खूबसूरती के कायल रहें, कृप्या बताएं ?

सवाल

मैं बिना मेकअप के ही खूबसूरत कैसे दिखूं ताकि पति मेरी खूबसूरती के कायल रहें. मैं जब भी मंगेतर से मिली हूंपूरे मेकअप में होती हूं. मेरी उम्र 26 साल है. जल्दी ही मेरी शादी होने वाली है. मेरे होने वाले पति मेरी खूबसूरती की बहुत तारीफ करते हैं. शादी के बाद तो मैं हर वक्त मेकअप लगा कर नहीं रह सकती न. इस के लिए मु झे क्या करना चाहिए?

जवाब

आप बिलकुल सही सोच रही हैं. नैचुरल ब्यूटी की अपनी बात होती है. मेकअप तो उस खूबसूरती को और बढ़ाता है. नैचुरली चेहरे की खूबसूरती को बढ़ाने के लिए आप अभी से प्रयास शुरू कर दें.

स्वस्थ विकास के लिए पोषक तत्त्वों से भरपूर आहार लेना शुरू कीजिएजैसे फलसब्जियांप्रोटीनखूब पानी पीना. चेहरे को नियमित रूप से साफ करें और एक्सफोलिएटर का उपयोग करें ताकि चेहरा कीटाणुओं से फ्री रहे. शरीर को संतुलित और त्वचा को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम करें. त्वचा की ताजगी के लिए सुबह की सैर बहुत फायदेमंद है. सही नींद चेहरे की चमक बढ़ाती है. स्ट्रैस न लें. अच्छे स्किनकेयर उत्पादों का उपयोग करेंएक्सफोलिएटरमौइस्चराइजरटोनरस्क्रब क्वालिटी के हों.

यदि त्वचा को ले कर किसी समस्या से जू झ रही हैं तो त्वचा विशेषज्ञ की मदद लें. आप के व्यवहार और सोच का भी असर आप की त्वचा पर पड़ता हैइसलिए अपने व्यवहार को सकारात्मक और स्वस्थ रखने का प्रयास करें.

टेक्नोलॉजी: चैट जीपीटी- टेक्नोलॉजी के बढ़ते कदम

आप सबने चैट जीपीटी का नाम तो सुना ही होगा, बल्कि उम्मीद है कि अब तक एकाध बार इस्तेमाल भी कर लिया होगा.कोई रैसिपी पूछिए, कोई बुक की रिकमेंडेशन या फिर कहीं पर्यटन के लिए सुझाव मांगिए, तुरंत जवाब दे देगा. बढ़िया है न!

वाकई एकदो पंक्तियों वाले आसान से सवाल से लेकर देशदुनिया की तमाम बड़ी खबरों के बारे में विस्तार से जवाब देने में सक्षम है यह चैटबोट. इतना ही नहीं, चैटजीपीटी चैटबोट ने पिछले दिनों एमबीए, मैडिकल और लौके एग्जाम भी पास किए हैं. आलम यह रहा कि लौंच होने के 5 दिनों के भीतर ही चैट जीपीटी के 10 लाख यूजर्स बन गए थे और महज2 महीने में ही यह आंकड़ा 100 मिलियन तक पहुंच गया.

इसकी तुलना यदि इंस्टाग्राम और टिकटौक से करें जहां100 मिलियन यूजर्स बनाने में इन्हें क्रमशः ढाई साल और 9 महीने का वक्त लगा था, तब इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाना आसान होगा. आंकड़े बताते हैं, जनवरी महीने में हर दिन औसतन 13 मिलियन लोग इससे जुड़े थे.

सच कहें तो इसे लेकर इंटरनैट जगत में हंगामासा मचा है. इस टैक्नोलौजी की क्षमता से हर कोई प्रभावित है. सबके मन में सवालों और आशंकाओं की झड़ी भी लगी है. कोई इसे इंसानों के लिए उपयोगी बता रहा है तोकई हैं जिन्हें इसमें कुछ खास नहीं दिखरहा और कुछ लोग तो इसे मानव के लिए कई तरह के खतरों की घंटी मान रहे हैं. फिलहाल हम समझते हैं कि है क्या बला यह? आखिरक्योंखबरों में छाया है चैट जीपीटी?

चैट जीपीटी की कुछ खास बातें

चैट जीपीटी,दरअसल, एक आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस टूल है जो यूजर्स के सवालों का लिखित और लगभग सटीक जवाब देता है. चैट मतलब बातचीत और जीपीटी का फुलफौर्म है जेनरेटिव परट्रेंड ट्रांसफौर्मर. यानी, ऐसी मशीन जो प्रशिक्षित हैसवालों को सुनकर उन्हें मशीनी भाषा से आम बोलचाल की भाषा में प्रवर्तित करके जवाब देने के लिए.

मसलन, यह चैटबोट आपको जटिल लेकिन लजीज रैसिपी समझा सकता है. औरतोऔर, इसी रैसिपी का नया वर्जन भी तुरंत क्रिएट कर सकता है. बस इतना ही नहीं, यह चैटबोट आप की निजी समस्याओं पर भी सलाह दे सकता है, नौकरी ढूंढने में मदद कर सकता है, कविताएं, अकादमिक पेपर और यहां तक कि खास दोस्तों को खतलिखने में भी मदद कर सकता है.कोई गेम डैवलप करना हो, व्यापार के लिए मार्केटिंग प्लान बनाना हो,देशदुनिया से संबंधित जानकारी चाहिए,पलक झपकते ही सब हाजिर.

जवाब से संतुष्ट न हों या फिर इससे संबंधित कुछ और जिज्ञासाएं हैं तब, बस, सवाल पूछ डालिए, जवाब देने को तैयार है चैट जीपीटी.यह अपनी गलतियों को स्वीकारता भी है, अनुचित अनुरोधों का जवाब देने से बचता भी है. उदहारण के तौर पर, महिलाओं पर चुटकुले बनाने संबंधी सवाल पर पर उसका जवाब होता है, “माफ करिए, मैं ऐसे चुटकुले सुनाने में असमर्थ हूं जिन्हें आपत्तिजनक या अनुचित माना जा सकता है.क्या कोई और चीज है जिसमें मैं आपकी मदद कर सकता हूं?”

कुछ ही सैकंड में एक पूरा निबंध या कंप्यूटर कोड लिख देने वाली ऐसी जादुईसी चीज के असीम ज्ञान और रचनात्मक एवं तार्किक बातचीत करने में सक्षमता ने ही इसे बहुत ही कम समय में लोगों के मध्य लोकप्रिय बना दिया है.अभी हालिया रिलीज हुए नए वर्जन जीपीटी-4 इमेज इनपुट को भी प्रोसैस करने में सक्षम है, अर्थात किसी चित्र को दिखा कर भी सवाल के जवाब मांगने की सुविधा है और इसके पुराने मौडल जीपीटी-3.5 की तुलना में ज्यादा सटीक जानकारी देने वाला और यूजर्स के साथ लंबी बातचीत करने में सक्षम बताया गया है.निसंदेह अभी तक के इंटरनैट इतिहास में यह अपने अलग तरीके का ही ऐप है जिसे ओपन एआई नाम की कंपनी ने साल 2015 में विकसित किया था.

गूगल से कैसे है अलग

गूगल से हम सब परिचित हैं.उसमें किसी भी तरह के प्रश्न पूछे जाने पर हमें उस प्रश्न से संबंधितवैबसाइट की लिंक दिखाई जाती है,परंतु चैट जीपीटी वैबसाइट के लिंक के बजाय उन प्रश्नों का उत्तर आपको लिख कर विस्तारपूर्वक देता है. यदि आप उस उत्तर से संतुष्ट नहीं हैं तो पूछने पर वह लगातार अपने रिजल्ट अपडेट करके और अधिक विस्तारपूर्वक जानकारी देता है जिससे कि आप संतुष्ट हो सकें.

खतरे की घंटी

जब बात एआई की होती है तब जेहन में सबसे पहला डर आता है मानवों के रिप्लेसमैंट का, यानी नौकरियों के जाने का. चैट जीपीटी को लेकर भी ऐसी ही कई आशंकाएं हैं. अगर यह सबकुछ कर लेगा तब हमारी नौकरी का क्या होगा? चिकित्सा और शिक्षण में भी कुछ नौकरियां खतरे में हैं. कुछ एक्सपर्ट्स ने चिंता भी जताई है कि चैटजीपीटी से इंसानों की नौकरियां ख़त्म हो सकती हैं, खासकर उन नौकरियों में जिन में शब्दों और वाक्यों पर निर्भरता है, जैसे कि पत्रकारिता. अगर सिस्टम और बेहतर हुआ तो पत्रकारों की नौकरियां कम होंगी और संभवतया एक समय ऐसा भी आ सकता है जब उनकी जरूरत ही न पड़ेगी क्योंकि हर आर्टिकल चैटबोट ही लिख देगा.

चैटजीपीटी की कोड लिखने की क्षमता एक और सैक्टर पर सवाल खड़ा कर सकती है और वह सैक्टर है- कंप्यूटर प्रोग्रामिंग.अगर एआई प्रोग्रामर के 80 प्रतिशत काम कर सकता है, तो निसंदेह लोग अपने जौब को लेकर खतरा महसूस कर सकते हैं. एक और क्षेत्र जिसमें सर्वाधिक चिंता है, वह है शिक्षक.बच्चों द्वारा धड़ल्ले से इसका उपयोग असाइनमैंट पूरा करने में किए जाने के बाद इसे कई जगह बैन करने की नौबत आ गई.लोगों का कहना है कि बच्चों में नकल करने की आदत बढ़ सकती है और नई चीजें सीखने पर उनका जोर घट सकता है.

कुछ विशेषज्ञ विचारों के मशीनीकरण होने को लेकर भी आशंकित हैं. यह दुनिया को समझने के तरीके को पलट देने जैसा है. इतना सुविधाजनक टूल के आने के बाद क्या मानवों में क्रिएटिव होने की प्रवृत्ति कम नहीं होगी?

चैट जीपीटीजैसे एडवांस्ड एआई को लेकर कई नैतिक और कानूनी चिंताएं भी जताई जा रही हैं. साइबर क्राइम से लेकर अफवाहें फैलाने तक का रिस्क जताया जा रहा है.

चैट जीपीटी की खामियां

सवाल है कि क्या वास्तव में एआई बेस्ड टूल चैट जीपीटी द्वारा बताए गए नतीजों पर हम पूरी तरह भरोसा कर सकते हैं? आइए देखते हैंशोधकर्ताओं का इस संबंध में क्या कहना है:

*यह टूल अभी हर तरह के सवालों का जवाब देने के लिए सक्षम नहीं है, जैसे साल 2023 की किसी जानकारी के बारे में पूछने पर यह उसका उत्तर नहीं दे पाता है.

*अभी यह टूल हर प्रकार की इमेज या वीडियो नहीं बना सकता है.

* भाषापर अभी भी इस की कमजोर पकड़ है. यह टूल अभी हर भाषा में जवाब देने के लिए सक्षम नहीं है.

*इसके द्वारा दिया गया जवाब 100 प्रतिशत सटीक नहीं है. इसके द्वारा दिए गए जवाब पर निर्भर नहीं रहा जा सकता बल्कि इसके जवाबों को केवल सुझाव के तौर पर लेना ज्यादा अच्छा रहेगा.

*चैट जीपीटीने कई सवालों के गलत और निरर्थक जवाब भी दिए. विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें सुधार की बहुत गुंजाइश है.

*कई लोग इसकी आलोचना इस आधार पर भी करते हैं कि चैट जीपीटीका फोकस एल्गोरिदम का इस्तेमाल कर वाक्य को बेहतरीन तरीके से लिखने पर है. कुछ लोगों ने तो इसे ‘स्टोचैस्टिक तोता’ तक कहा है, यानी, बिना कुछ सोचेसमझे बोलने वाला प्राणी जो शब्दों को खास अंदाज में एकसाथ पिरोने से ज्यादा कुछ नहीं करता.

*शोधकर्ताओं ने पाया है कि चैट जीपीटीगणितीय गणनाओं के साथ भी संघर्षकरता है.

*फटाफट उत्तर पाने के लिए और नए वर्जन का उपयोग करने के लिए अच्छीखासी रकम का भुगतान भी करना होगा. मुफ्त वर्जन उपयोग करने पर आपको उत्तर के लिए इंतजार करना पड़ सकता है.

चैट जीपीटी के निर्माता सैम आल्टमैन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यह काम जितना आसान दिखता है,उतना है नहीं. इसे हासिल करने में अभी और समय लगेगा. इंजीनियर दिनरात इसे स्मार्ट बनाने में लगे हुए हैं.

आप क्या सोच रहे हैं? क्या चैट जीपीटी वाकई खतरा है और आने वाले दिनों में क्या हम इसके गुलाम बनने वाले हैं या फिर इसके विपरीत आप इसे एक ऐसा उपकरण मान रहे हैं जो मानव की क्षमताओं को बढ़ाने में सहायता करेगा?शोधकर्ताओं के भी ऐसे ही भिन्नभिन्न मत हैं.

इसे खतरा मानने वाले वर्ग का कहना है कि इंसानों की काबिलीयत से होड़ करने वाले ये सिस्टम खतरनाक साबित हो सकते हैं. अभी हमारा समाज ऐसे बदलावों के लिए तैयार नहीं है. क्या गारंटी है कि इनका केवल पौजिटिव ही असर होगा और इनसे जो रिस्क हैं क्या उन्हें मैनेज करना हमारे लिए संभव है?

दूसरे वर्ग का कहना है कि एआई कोई नई चीज नहीं है. 90 के दशक से हम इससे परिचित हैं और ये मानवों की कार्यक्षमता को बढ़ाने में ही सहायक हुए हैं. यह सही है कि यह इंसानों से ज्यादा तेजी से सोच सकता है, रिऐक्टिव होता है और इंटैलीजैंट भी. पर सचाई यह है कि यह इंसानों द्वारा ही दिए गए इनपुट और सुधारों के बगैर बिना काम का है.

इसे कैलकुलेटर के उदहारण से समझा जा सकता है. जिस तरह कैलकुलेटर के आने से गणित पढ़ाने का तरीका बदला है,उसी तरह एआई से शिक्षक के क्षेत्र में भी नए सुधार की संभावना बनती है. साइंटिफिक रिसर्च जैसी फील्ड में शामिल कर शायद हम वह हासिल करें जो अभी नामुमकिन सा प्रतीत होता है. इसे बनाने वाली ओपन एआई कंपनी की वैबसाइट के मुताबिक भी इसका मिशन यह तय करना है कि आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस को पूरी मानवता के लिए फायदेमंद बनाया जाए, न कि इससे कोई क्षति हो.

निसंदेह अभी कुछ कहना जल्दबाजी है, पर हां, सरकारों और कंपनियों को इस दिशा में सोचसमझ कर कदम आगे बढ़ाने होंगे ताकि इस तकनीक का मानव जाति की सोचने की क्षमता,आजीविका आदि पर बुरा प्रभाव न पड़े.

युवाओं में बढ़ता सौलिड और्गन कैंसर

कैंसर सब से घातक बीमारियों में से एक माना जाता है. वैसे तो कैंसर से उम्रदराज लोग प्रभावित होते हैं लेकिन धीरेधीरे युवाओं में भी इस का फैलाव बढ़ रहा है, जो चिंताजनक है. दुनियाभर में मृत्यु के प्रमुख कारणों में कैंसर से मृत्यु का आंकड़ा सब से अधिक माना जाता है. ट्रैडिशनली इस रोग से बड़ी उम्र के लोग अधिक प्रभावित होते हैं, लेकिन हाल में ही किए गए अध्ययनों से पता चला है कि कैंसर युवाओं में भी तेजी से फैल रहा है, जिस से चिकित्सा के पेशेवरों और सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठनों में चिंता बढ़ रही है.

युवाओं, खासकर 15 से 19 साल के यूथ, में सब से कौमन कैंसर ब्रेन ट्यूमर, थाइराइड कैंसर, मेलिग्नेट बोन ट्यूमर आदि का होना है. इस बारे में न्यूबर्ग सुप्राटैक रैफरैंस लैबोरेटरी के सीनियर कंसलटैंट डाक्टर भावना मेहता कहती हैं कि युवाओं में कैंसर वृद्धि होने की वजहें बदलती जीवनशैली, अस्वास्थ्यकर आहार, शारीरिक गतिविधियों में कमी, पर्याप्त नींद न होना, पर्यावरण में विषाक्त पदार्थों से प्रदूषण, कीटनाशक, तंबाकू चबाने की आदत, धूम्रपान, शराब आदि हैं.

इन में सब से अधिक योगदान शारीरिक गतिविधियों की कमी और अस्वास्थ्यकर आहार का होना है. यह समस्या हर दशक के बाद कम उम्र के लोगों में देखी जा रही है, जो चिंता का विषय है. दरअसल कैंसर का पता बहुत देर से चलना भी एक बड़ी समस्या है, जिस से इलाज में देर हो जाती है. हालांकि यह देखा गया है कि कम उम्र के युवाओं में जल्दी कैंसर का पता लगने पर इलाज संभव होता है,

लेकिन यूथ को पहले विश्वास करना मुश्किल होता है कि उन्हें कैंसर है. तकरीबन 70 हजार टीनएजर्स हर साल कैंसर डायग्नोस किए जाते हैं, जिन में से 80 प्रतिशत यूथ सालों तक इलाज के बाद सरवाइव कर पाते हैं और यह एक अच्छी बात है. कैंसर की देर से जानकारी होने की मुख्य वजहें निम्न हैं- द्य कैंसर के बारे में जागरूकता की कमी. द्य यूथ होने की वजह से नियमित जांच का न होना. द्य कैंसर का पता चलने पर किसी से इस बात को कह पाने की हिचकिचाहट. द्य आर्थिक समस्याएं आदि. बेहतर स्क्रीनिंग और डायग्नोस्टिक टूल के कारण ऐसे कैंसर, जिन के बारे में पहले पता ही नहीं चल पाता था,

अब उन का शुरुआती चरणों में निदान किया जा रहा है. लेकिन इस सब के बावजूद युवा आबादी के लिए कैंसर का खतरा बड़े पैमाने पर बना हुआ है. जिन युवाओं के कैंसर का निदान हुआ है उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे शिक्षा और कैरियर में बाधा पड़ना, सामाजिक और भावनात्मक कठिनाइयों का होना और परिवार के लिए आर्थिक तनाव में वृद्धि. इस के अलावा कैंसर के कई उपचारों का प्रजनन क्षमता पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है. इसलिए कैंसर से पीडि़त युवाओं को प्रजनन संबंधी अतिरिक्त चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. इन निम्न समस्याओं के होने पर डाक्टर की सलाह तुरंत लें- द्य अचानक वजन का घटना. द्य थकान का अनुभव करना.

-बारबार बुखार आना लगातार दर्द का अनुभव करना. द्य त्वचा में परिवर्तन दिखाई पड़ना, मसलन तिल में बदलाव का दिखना, पीलिया का संकेत दिखाई देना आदि. डा. भावना मेहता आगे कहती हैं कि कैंसर किसी भी अन्य बीमारी की तरह है और किसी को भी हो सकती है. लोगों को परिवार और समाज में भी इस के बारे में खुल कर चर्चा करनी चाहिए. कैंसर जैसी बीमारी के बारे में बात करने से होने वाली िझ झक समाप्त होना बेहद जरूरी है.

यह बात हर किसी को पता होनी चाहिए कि कैंसर का डायग्नोस जितना शुरुआती चरण में होता है, उपचार की प्रक्रिया और उस का असर उतना ही बेहतर होता है और कुछ कैंसर पूरी तरह निदानयोग्य होते हैं. युवा आबादी देश का भविष्य है और उसे बचाना सभी की जिम्मेदारी है. सही जीवनशैली अर्थात जल्दी उठना और जल्दी सोना, स्वस्थ और संतुलित आहार लेना, किसी भी रूप में दैनिक शारीरिक गतिविधियों, जैसे टहलना, स्ट्रैचिंग व्यायाम और सब से बड़ी बात, ऐसा वातावरण बनाना जहां कोई भी बिना किसी हिचकिचाहट के कैंसर के बारे में बात कर सके व प्रारंभिक निदान और उपचार के लिए स्वास्थ्य पेशेवरों और शोधकर्ताओं द्वारा किए गए प्रयास का लाभ उठा सके.

चारलुगाई : अच्छे विषय पर बनी लचर फिल्म

रेटिंग : 1 स्टार

निर्माता : गीता शर्मा और अशोक शर्मा

लेखक व निर्देशक : प्रकाश सैनी

कलाकार : निधि उत्तम,मानसी जैन,दीप्ति गौतम,कमल शर्मा,ब्रजेंद्र काला,सानंद वर्मा व अन्य.

अवधि :2 घंटा 23 मिनट

लगभग पूरे देश में हर गांव के तमाम पुरूष शहरों में अकेले रहकर नौकरी करते हुए धन कमाने के लिए प्रयासरत नजर आते हैं.इनकी पत्नियां गांव में रहती हैं और अपने पतियों के आने का इंतजार करती रहती हैं.पुरूष हो या औरत,यौन सुख सभी की शारीरिक जरुरत है.

पुरूष शहर में रहते हुए छोटी नौकरी करने की वजह से जल्दी गांव नहीं जा पाते.पुरूष अपनी पत्नियों को पैसे भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैंपर औरतें पति के प्यार व सैक्स की भूखी रह जाती है.पुरूष शहरों में वह अपनी सैक्स की भूख वेश्याओं के पास जाकर पूरी कर लेते हैंपर बेचारी गांव में रह रही पत्नियां अपनी सैक्स की भूख कैसे मिटाए?

यदि वह मजबूरन अपनी शरीर की इस जरुरत को गांव के किसी मर्द से पूरा करती हैं,तो उन पर बदचलन होने का आरोप लगता है.इसी मूल मुद्दे पर फिल्मकार प्रकाश सैनी फिल्म ‘चार लुगाई’लेकर आए हैं.

कहानी

फिल्म की कहानी ऊषा (निधि उत्तम), रश्मि (मानसी जैन), मीनू (दीप्ति गौतम) और रंजू (कमल शर्मा) की है जो कि मथुरा स्थित पानीगांव नामक गांव में एकदूसरे की पड़ोसी हैं. इन चारों के पति मुंबई में नौकरी करते हैं और सालदो साल घर नहीं आते हैं, जिसकी वजह से इन चारों की शारीरिक जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं.

अपने सासससुर की प्यारी उषा ने अपनी शारीरिक जरुरतों को पूरा करने के लिए गांव के एक युवक डुग्गू (अभिनव सीशोर) को फांस रखा है.डुग्गू का रोमांस गांव के डाक्टर रस्तोगी (ब्रजेंद्र काला) की बेटी संग भी चल रहा है.यह बात रंजू को पता चल जाती है.तब एक दिन रंजू, रश्मि और मीनू को बताती है कि हम सभी की शारीरिक जरूरतें पूरी नहीं होती है.

अब रश्मि और मीनू फैसला करती हैं कि वह भी ऊषा को बोलकर डुग्गू के जरिए अपनी जरूरतें पूरी करेंगी.

एक दिन जब सभी लोग गांव के प्रधान के भाई की शादी में चले जाते हैंतो उसी रात ऊषा,डुग्गू को घर पर बुलाती है और बताती है कि उसे अब उसके अलावा रश्मि और मीनू की भी जरूरतें पूरी करनी होगी.

डुग्गू,ऊषा के नजदीक पहुंचता है कि बिजली चली जाती है और धड़ाम से गिरने की आवाज आती है. जब लाइट आती है तो इन चारों सहेलियों को पता चलता है कि डुग्गू की मौत हो चुकी है.

रश्मि अपने आकर्षण का उपयोग करके डा. रस्तोगी (बृजेंद्र काला) को शरीर को ठिकाने लगाने में मदद करने के लिए मना लेती है.फिर पुलिस इंस्पेक्टर संतोष (सानंद वर्मा) अपराध की जांच शुरू करते हैं.

लेखन व निर्देशन

लेखक व निर्देशक प्रकाश सैनी ने अपनी फिल्म में एक ऐसे ज्वलंत मुद्दे को उठाया है,जिस पर कोई बात ही नहीं करतालेकिन अफसोस लचर कहानी,लचर पटकथा व लचर निर्देशन के चलते यह मानवीय और शारीरिक जरुरत का मुद्दा महज एक ‘सैक्स’ की घटिया भूख बनकर रह गया है.

इंटरवल के बाद पूरी फिल्म हास्य के साथ हत्यारे की तलाश में बीतती है.जबकि इस समस्या के सबंध में काफी कुछ कहा जाना चाहिए था.पुरूष प्रधान समाज में औरतों के अकेलेपन,शारीरिक अंतरंगता के लिए उनका तरसना आदि तथा इस वजह से उत्पन्न होने वाली शारीरिक व मानसिक बीमारियों की बात की जानी चाहिए थी,मगर फिल्मकार ऐसा कुछ नहीं कर पाए.

फिल्म का ट्रीटमेंट काफी कमजोर है. वास्तव में निर्देशक प्रकाश सैनी ने एक मानवीय व औरत की जरुरत की बात करने की बजाय पूरी कहानी को अपराध व रोमांच के साथ हास्य का जामा पहना कर फिल्म का सत्यानाश कर डाला.

फिल्मकार ने प्यार और भावनात्मक समर्थन की लालसा की बजाय सारा ध्यान शारीरिक जरूरतों पर कर डाला.परिवार और आसपड़ोस के पुरुषों की चारों दोस्तों पर नजर डालने वाली बात कुछ मजबूर सी लगती है.

एक दृष्य में चारों महिलाएं अपने रुख को सही ठहराने की कोशिश करती हैं और अनुचित व्यवहार के बारे में बात करती हैंतब वह उतना उत्साहजनक नहीं हैजितना होना चाहिए था.

वह विषयवस्तु के साथ न्याय करने में बुरी तरह से विफल रहे हैं. गांव की स्थापना और पात्रों के रूप और बोली प्रामाणिक हैंलेकिन कथा असंगत है.

अभिनय

निधि उत्तम और मानसी जैन ने जोखिम भरी महिलाओं के रूप में अच्छा अभिनय किया है. कमल शर्मा, मासूम और मददगार रंजू के रूप में, और बृजेंद्र काला अपनी भूमिकाओं में जमे हैं.सानंद वर्मा का अभिनय ठीकठाक है.

कच्चे लिम्बू : नाम के अनुरूप फिल्म भी कच्ची

रेटिंग : 1 स्टार

निर्माताः नेहा आनंद,ज्योति देशपांडे,प्रांजल खंधड़िया,

लेखक: नीरज पांडे,शारण्या राजगोपाल व सुकन्या सुब्रमणियम

निर्देशक: शुभम योगी

कलाकारः रजत बारमेचा, राधिका मदान,आयुष मेहरा, महेश ठाकुर व अन्य

अवधिः 1 घंटा 46 मिनट

ओटीटीः जियो सिनेमा

भारतीय सिनेमा जगत में क्रिकेट आधारित कई फिल्में बन चुकी हैंमगर यदि हम एम एस धोनी पर बनी फिल्म ‘एम एस धोनी : अन टोल्ड स्टोरी’ को नजरंदाज कर दें तो क्रिकेट के खेल पर आधारित फिल्मों को सफलता नसीब नही हुई है.

अब फिल्मकार शुभम योगी ‘गली क्रिकेट’ के कांसेप्ट और भाईबहन के प्यार को रेखांकित करने वाली मध्यमवर्गीय परिवारों की कहानी ‘कच्चे लिंबू’ लेकर आए हैं,जो कि अपने नाम के अनुरूप कच्ची ही रह गई है.

लेखक व निर्देशक दोनों इसे सही ढंग से बना नही पाए.बहरहाल, यह फिल्म 19 मई से ओटीटी प्लेटफार्म ‘जियो सिनेमा’’ पर स्ट्रीमहुईचुकी है.

कहानी

फिल्म की कहानी के केंद्र में मध्यमवर्गीय नाथ परिवार की पिता की आज्ञाकारी बेटी अदिति (राधिका मदान ) और बड़ा बेटा आकाश नाथ (रजत बरमेचा) हैं.

आकाश नाथ केवल क्रिकेट के दीवाने हैं और अपनी गली के गली क्रिकेट के स्टार हैं. सोशल मीडिया पर आकाश की टीम,आकाश और उसकी टीम के खिलाड़ी, कबीर सेन ( आयुष मेहरा) छाए रहते हैं.

यहां तक कि आकाश नाथ के क्रिकेट खेलने के वीडियो तो सचिन भी पोस्ट करते रहते हैं.अदिति अपनी मां के कहने पर भरत नाट्यम डांस सीख रही है.जबकि पिता की आज्ञाकारी बेटी होने के कारण वह मेडिकल की पढ़ाई कर रही है.

उसका मकसद फैशन डिजायनर बनना है.उनके पिता के मुताबिक कालेज जाने वाली हर लड़की फैशन डिजाइनर बनना चाहती है.आकाश क्रिकेट जगत में कैरियर बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है.उसे एक ब्रांड अपने साथ जोड़ना भी चाहता है.

क्रिकेट के किंगमेकर चाहते हैं कि वह ‘अंडरआर्म प्रीमियर लीग’ का चेहरा बने. आकाश के पिता (महेश ठाकुर) चाहते हैं कि उनका बेटा आकाश नाथ एक अच्छी नौकरी पा जाए.इसके लिए वह अपने स्रोतों को फोन करते रहते हैं. लेकिन आकाश हर जगह इंटरव्यू में कह देता है कि वह क्रिकेट से बाहर की जिंदगी की कल्पना ही नहीं करता.

एक मुकाम पर आकाश अपनी बहन अदिति को अपनी खुद की टीम बनाने और उसके खिलाफ एक खेल जीतने के लिए खुले तौर पर चुनौती देता है.आकाश नाथ अपनी बहन अदिति के सामने शर्त रख देता है कि अगर अदिति की टीम ने उसकी टीम को हरा दिया तो वह नौकरी कर लेगा.

यहां से कहानी का ट्रैक अदिति को अपनी टीम बनाने में आने वाली परेशानियों,प्रेमी कबीर सेन को अपने भाई की टीम से बाहर करवा अपने साथ जोड़ने से लेकर क्रिकेट मैच तक चलती है.

लेखन व निर्देशन

‘बिन बुलाए’,‘ग्लिच’,‘सुनो’ और ‘कांदे पोहे’ जैसी लघु फिल्मों के बाद फीचरी फिल्म निर्देशक के तौर पर शुभम योगी ने लंबी छलांग जरुर लगायी है. वह उम्मीदें जगाते हैंपर यहां पूरी तरह से सफल नही रहे.

जब फिल्म ‘गली क्रिकेट’ के बारे में होतो भरत नाट्यम या फैशन आदि पिरोकर फिल्मकार ने महज दर्शकों को भटकाने का ही काम किया है.इतना ही नहीं इंटरवल के बाद फिल्म पूरी तरह से ‘लगान’ की नकल लगती है.

फिल्म में अदिति, आकाश व कबीर सेन की निजी आकांक्षाओं,सपनों आदि पर ज्यादा बात की जानी चाहिए थीपर यह सब गायब है.

फिल्म के कुछ सीन जरुर बेहतर बन पड़े हैं.मसलन- मातापिता के साथ मतभेद होने के बाद अदिति को माता पिता के ही कमरे में एक विस्तारित बिस्तर पर सोना पड़ता है और वह चुपचाप दिल से रोती है.

यही हर मध्यवर्गीय परिवार के अंदर का कटु सत्य है क्योंकि उसके पिता आकाश को नौकरी दिलाने पर तुले हुए हैं.

फिल्मकार ने इस बात को भी अच्छे ढंग से रेखांकित किया है कि मध्यम वर्गीय परिवारों में आज भी किस तरह बेटे व बेटी के बीच अंतर किया जाता है.भाईबहन के बीच प्यार को सही अंदाज में पेश किया गया है.रूढ़िवादिता को चुनौती भी दी गई है.

फिल्मकार ने आकाशनाथ के पिता के किरदार को ठीक से लिखा नहीं गया.हर छोटी सी समस्या के समय युवा पीढ़ी को शराब का सेवन करते हुए दिखाना जरुरी तो नहीं था.क्रिकेट के मैदान पर भाई बहन प्रतिस्पर्धी बनकर उतरते हैं,पर उनके बीच वैमनस्यता या दुश्मनी के भाव न दिखाकर फिल्मकार ने एक नई सोच को जन्म दिया है.

अभिनय

आकाशनाथ के किरदार में ‘उड़ान’ फेम रजत बरमेचा का अभिनय ठीकठाक है.अदिति के किरदार में राधिका मदान केवल सुंदर नजर आई हैं.हां, एकदो इमोशनल दृश्योंमें जरुर वह छा जाती हैं.

राधिक मदान और रजत बरमेचा भाईबहनों के बीच के छोटेछोटे तनाव और उसके पीछे छिपे सम्मान और स्नेह को बाखूबी पेश करते हैं.कबीर सेन के किरदार में आयुष मेहरा निराश करते हैं.महेश ठाकुर के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं.

शादी को लव जिहाद कहने पर देबोलीना का करारा जवाब ,पति को बताया सच्चा मुस्लिम

टीवी फेम एक्ट्रेस देबोलीना भट्टाचार्जी इन दिनों अपनी शादी को लेकर चर्चा में बनी हुई हैं. हाल ही में वह अपने पति शहनवाज के साथ द केरल स्टोरी देखने गई थी, जिसके बाद से लगातार उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया.

एक शख्स ने उनकी शादी को लव जिहाद से जोड़ दिया, जिसके बाद से लगातार उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. देबोलीना ने इस सवाल पर करारा जवाब दिया है, जिससे साफ पता चल रहा है कि देबोलीना अपने पति के साथ खुश हैं,

 

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देबोलीना ने सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स का जवाब देते हुए लिखा है कि वह एक सच्चा भारतीय मुस्लमान है. यह सब तब शुरू हुआ जब  राइट विंग की मेंबर साध्वी प्राची ने द केरल स्टोरी के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की है.

एक यूजर ने देबोलीना को जवाब देते हुए लिखा है लव जिहाद ऐसा ही होता है.

बता दें कि देबोलीना ने कुछ वक्त पहले ही शादी किया है, इन दोनों कि मुलाकात जिम में हुई थी, जिसके बाद से इनकी दोस्ती प्यार में बदल गई.

आयुष्मान खुराना ने नम आंखों से दी पिता की अंतिम विदाई

बीते दिनों आयुष्मान खुराना के पिता का निधन हो गया है, दिल की बीमारी से जुझ रहे पी खुराना बीते कुछ दिनों से दिल की बीमारी से जुझ रहे थें, अस्पताल में भर्ती थें. पी खुराना के अंतिम संस्कार से जो तस्वीर आई है वह दिल तोड़ने वाली है.

बता दें कि 19 मई को आयुष्मान खुराना के पिता का निधऩ हो गया है, जिसकी खबर मिलते ही परिवार वालों पर दुखों का पहाड़ टूट गया. बता दें कि आयुष्मान के पिता उनके सबसे बड़े मेंटर भी रहे हैं. आयुष्मान ने इस बात की जानकारी दी है कि हम भारी मन से आप सभी को सूचित कर रहे हैं कि अब हमारे पिता जी नहीं रहें.

पी खुराना का ज्योतिष के क्षेत्र में काफी ज्यादा योगदान रहा है, आयुष्मान ने एक इंटरव्यू में बताया था कि मेैं ज्योतिष पर विश्वास नहीं करता था लेकिन मेरे पिता मुझे हमेशा समझाते थें कि बेटा पब्लिक की नब्ज पकड़ो और मैंने वही किया मुझे ड्रीम गर्ल 2 में एंट्री मिल गई.

बता दें कि उनके अलावा इस फिल्म में अन्नया पांडे कि अहम भूमिका होगी, बता दें कि पी खुराना पंजाब के चंडीगढ़ से थे. उन्होंने ज्योतिष पर कई सारी पुस्तकें भी लिखी है. इस खबर से पूरे परिवार में शोक का लहर है.

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