मृत्युभोज जीमने से पहले इस नन्हे से बालक पर गौर कीजिए. थाली पर बैठने से पहले इस बच्चे की मासूमियत पर अपनी नजर दौड़ाइए, फिर खाने का निवाला मुंह में लीजिए. इस बच्चे की 5 साल बाद की तसवीर देखिए. जब यह अपनी मां की मेहनत से तैयार की गई फसल को बेच कर आप के एक वक्त के भोजन का ब्याज चुकाएगा.

स्कूल तो दूर की बात, यह दिनरात खेत में धूप में पसीने से तरबतर फटे कपड़ों से शरीर को ढकते हुए आप के एक वक्त के भोजन के एकएक कोर का हिसाब करेगा. आप का एक दिन का पेट एक मासूम को जिंदगीभर भूखा रख देगा. यह बड़े अफसोस की बात है. आप खुद को पढ़ालिखा सभ्य इंसान मानते होंगे, मगर आप एक शैतान से भी बदतर प्राणी हो क्योंकि नरभक्षी शैतान एक झटके में ही मार डालता है, लेकिन आप ही समाज के लोग इस बच्चे को कर्ज में दबा कर तिलतिल मारने पर मजबूर कर रहे हो.

2 या 3 तरह की देशी घी की मिठाइयां, पूड़ी, 2-2 सब्जियां, फिर अफीम, डोडा पोस्त, बीड़ी, जर्दा लाओ तब जा के होता है मृत्युभोज. और वो ही लोग 12वें दिन तक खापी कर बोलेंगे, ‘इन्होंने किया ही क्या?’

इस मासूम बच्चे की तरह ही उन तमाम बच्चों को मृत्युभोज कराना पड़ता है जिन के मांबाप अचानक किसी ऐक्सीडैंट या बीमारी के चलते अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं. मांबाप की मौत के बाद असहाय, रोतेबिलखते बच्चों को समाज व परिवार के सहारे व संबल की जरूरत होती है जबकि उन पर मृत्युभोज का बोझ  लाद दिया जाता है, चाहे वे जमीन बेच कर मृत्युभोज कराएं या कर्जा ले कर.

एक सच्ची दास्तान

इसी तरह की एक सच्ची दास्तान से गुजरे हैं प्रेमसिंह सिहाग जो आज दिल्ली एम्स हौस्पिटल में नर्सिंग औफिसर के पद पर सेवारत हैं और राजस्थान के जोधपुर के ग्रामीण इलाके के रहने वाले हैं.

वे कहते हैं, “मैं डेढ़ साल का था और मेरे पिताजी गुजर गए. समाज के सफेदपोश लोगों ने मिल कर मृत्युभोज किया. मेरी विधवा मां ने दशकों तक कर्ज के बोझ को ढोया. हम 2 भाई व एक बहन का पेट भरने के लिए रात में खुद के खेत में काम करती व दिन में मजदूरी के लिए दूसरों के खेतों में काम करती थी.

“बड़े भाई की पढ़ाई छूट गई. भाई 14 साल की उम्र में स्टील फैक्ट्री में एक मजदूर बन गया. हम दोनों बहनभाई स्कूल जाने लगे. अकाल पड़ गया. घर में कुछ खाने को नहीं था. आसपड़ोस में उम्मीदभरी नजरों से देखा, मगर मायूसी मिली. दोनों बहनभाई ननिहाल उम्मीद ले कर गए थे मगर उन की हालत भी ज्यादा ठीक नहीं थी.

“एक दिन उपवास में कटा व अगले दिन नानी कुछ बाजरी ले कर आई. उस साल अकाल में राशन वितरण हो रहा था मगर एक बोरी धान की 180 रुपए कीमत थी. मां 2-4 लोगों के पास गई. किसी ने कहा कि जमीन का क्या करेगी तो किसी ने तीसरे को संबोधित करते हुए कहा कि दे तो दें मगर वसूली कौनसे हुड़ (भेड़ का नर बच्चा) बेच कर करेंगे.

“भाई ने फैक्ट्री में मजदूरी कर के घर चलाने का बहुत प्रयास किया मगर मजबूरी में मेरी बहन को स्कूल छोड़ना पड़ गया. संघर्ष करतेकरते मेरे परिवार को गांव छोड़ना पड़ा. 15 साल बाहर बंटाई पर खेतीबाड़ी की और सहारा बना एक जैन परिवार. मैं ने शिक्षा को भविष्य समझा और रातदिन एक ही बात सोचता था कि दोबारा परिवार अगर जड़ों पर खड़ा हो सकता है तो सिर्फ मेरी शिक्षा से. सरकारी नौकरी के 2 साल बाद मैं परिवार को अपने बाप की जमीन व उन के द्वारा निर्मित घर मैं स्थापित कर पाया.

“पिताजी के मृत्युभोज पर समाज लूटने के बजाय सहारा बन जाता, खाने के बजाय मददगार बन जाता तो मेरे भाई को पढ़ाई छोड़नी न पड़ती, बहन को पढ़ाई न छोड़नी पड़ती. पूरे परिवार का दर्द व बेबसी के आंसू मेरी कौपियों में चलने वाली कलम के इर्दगिर्द मंडराते रहे. कई बार आत्महत्या करने का खयाल मन में आया, मगर दूसरे ही पल सोचता कि परिवार जिंदा ही मेरी शिक्षा व सफलता की उम्मीदों पर है. नहीं, यह खयाल लड़ाकों के नहीं होते, इस पर मुझे जीत हासिल करनी है.

“जीवन के इस संघर्ष में कई बार ढीठ बनना पड़ता है. घर में कई महीनों तड़का नहीं लगता था, स्कूल में कभी टिफिन साथ ले कर नहीं गया, मां के हाथ से सिला बैग ले कर जाता था. बहन के गौने में पहली बार पैंट पहनी थी. 11वीं कक्षा में पहली बार जूता पहना.

“जो लोग आज मृत्युभोज के समर्थक बन कर कह रहे हैं कि बाप ने तुम्हारे लिए इतना किया तो तुम उन के पीछे मिठाइयां तक नहीं करोगे. उन से मेरा एक ही सवाल है, मेरे बाप की मौत हुई थी उस दिन तक परिवार पर कोई कर्ज नहीं था. उन की मौत के बाद समाज ने परिवार को कर्ज में धकेला. किसी का बाप 5-10 लाख का कर्ज परिवार पर छोड़ कर गुजर जाए तो उन के पीछे मृत्युभोज करना चाहिए या मरने पर चौराहे पर पैट्रोल डाल कर फूंकना चाहिए?

“ये भामाशाह, दानदाता जो भजन संध्या लगाते हैं, मंदिरों पर इंडा चढ़ाने की बोलियां आदि लगाते हैं, उन में से ज्यादातर बाप या मां के पीछे मृत्युभोज कर के भाई की जमीन पर नजर गड़ाए, गांव के किसी गरीब की जमीन पर कब्जा करने, 24 फीसदी ब्याज गरीबों से वसूली करने वाले गिद्ध निकलेंगे.

“बड़ा बेदर्द समाज, संस्कृति की रवायत व धार्मिक पोंगापंथी है. जो इस से बच गया वो दुनिया के सब से बड़े आतंक से बच गया. सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आतंक से बड़ा दुनिया में कोई आतंक नहीं है. इस आतंक को गुलजार करने की कहानियां सुनाई जाती हैं, इस के समर्थन में समाजसेवी, पंच, पटेल तैयार होते हैं. अपने जीवन के संघर्ष की कितनी ही सचाई सामने रख दो लेकिन सामाजिक आतंकियों के आगे आप जीत नहीं सकते.”

दिलचस्प घिनौना रिवाज

ऊंची/दबंग जातियों के यहां होने वाले मृत्युभोज में गांव की निम्न जातियों के लोग तेरहवीं खाने आ जाते हैं, लेकिन जब मृत्युभोज दलित जाति के यहां हो तो सवर्ण जातियों के लोग कभी नहीं जाते. चूंकि निम्न जाति के लोग आए थे तो इस लिहाज से सवर्णों को बदले का व्यवहार तो रखना ही है, सो, इस के लिए एक अलग तरीका निकाला जाता है.

तरीका यह है कि मृत्युभोज का पूरा पैसा वह देगा जिस के यहां मौत हुई है. तेहरवीं का खाना निम्न जाति वाले के यहां नहीं बनेगा. भोजन किसी ऊंची जाति वाले के खेत में बनेगा या फिर गांव के सरकारी स्कूल में. राशन खरीदी से ले कर टैंट, तंबू, हलवाई तक की सब व्यवस्था ऊंची जाति के लोग करेंगे.

जब तेरहवीं का खाना बन कर तैयार हो जाएगा तो पहले पंडितजी लोग भोजन करेंगे. फिर गांव के सवर्ण लोग भोजन करेंगे. खाना परोसने से ले कर खानेखिलाने तक का काम सवर्ण अपने हाथ में रखेंगे.

दलितों का उधर फटकना हरगिज मना है. यहां तक कि जिस के यहां मृत्यु हुई है और जो मृत्युभोज में पैसा लगा रहा है उस का व उस के परिवार का पैर रखना सख्त मना है. जब तक सवर्ण मृत्युभोज खा रहे हैं तब तक किसी बरतनभांडे, जगचमचे को छूना मना है.

जब सवर्ण व उन के परिवार की औरतेंबच्चे तक अच्छे से छक कर खापी लेंगे, तब शेष बचा खाना उस परिवार के लोगों के लिए छोड़ दिया जाता है कि अब वे अपने मृत्युभोज की व्यवस्था खुद संभालें, खुद खाएं और अपने नातेरिश्तेदारों को खिलाएं.

सब से बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग

सब से बड़ा है रोग, क्या कहेंगे लोग, इस बुनियाद पर मृत्युभोज टिका है. अपने प्रिय की मृत्यु पर किसी को खुशी नहीं होती, फिर भी ज्यादातर लोग लोकलाज के चक्कर में मृत्युभोज करते हैं. शादी समारोह की तरह मृत्युभोज पर लाखों रुपए खर्च करने को मजबूर हैं, भले ही कर्जा ले कर खर्च करना पड़े.

सभ्य और शिक्षित समाज में यह अजीबोगरीब लगता है कि शोक मनाने के लिए आने वाले परिचितोंरिश्तेदारों को लजीज पकवान परोसे जाते हैं. गांजा, अफीम, शराब तक पिलाई जाती है. इतना ही नहीं, तेरहवीं पर नाचगाना तक होता है और बेटियों को कपड़ों के साथसाथ सोनेचांदी के गिफ्ट तक दिए जाते हैं. शोक और जश्न में कोई फर्क नजर नहीं आता.

तेरहवीं तक मृत्युभोज पर एक सामान्य परिवार का औसत खर्च 2 लाख रुपए तक आता है. मोटा खर्चा खाना खिलाने के साथ लड्डुओं का है. व्यापारी केदार गुप्ता बताते हैं, “एक हजार किलो लड्डू बंटना सामान्य बात है. फिर पूरे कुनबे की बेटियों को कपड़ेगहने देने का खर्चा भी कम नहीं होता.”

सांवलिया गांव के सुखदेव चौधरी बताते हैं, “जाट, गूजर, मीना समुदाय में औसत 4 लाख रुपए तक खर्चा आता है. हलवे पर 25 से 30 टीन देसी घी और 5 से 6 क्विंटल चीनी खर्च हो जाती है.”

इस संवाददाता ने मृत्युभोज को ले कर विभिन्न जातियों के मौजिज व्यक्तियों और प्रतिनिधियों से बातचीत की. सभी ने मृत्युभोज को गलत ठहराते हुए शोक के दिनों को घटाने की बात भी कही. उन का कहना था कि मृत्युभोज करने को ले कर अनावश्यक सामाजिक दबाव बना हुआ है. उस से बाहर निकलने की जरूरत है.

चाय की तरह अफीम

नागौर निवासी शिवनारायण इनाणियां ने बताया कि मारवाड़ के इलाकों में तो शोक प्रकट करने के लिए आने वाले लोगों को चाय की तरह अफीम खिलाते हैं. डेढ़ से 2 लाख रुपए तो सिर्फ अफीम पर खर्च कर देते हैं. खर्चा पूरा करने के लिए जमीन तक बेचने को मजबूर हैं. लोगों की एक सोच बनी हुई है कि लोग क्या कहेंगे. ‘म्हारे बूढ़ा मरण पै खाग्या, खुद का बूढ़ा मरया तो दो लाडू तक नहीं खिलाया.’

शराब व रागिनी का चलन

गुर्जर समाज से रामविलास लांगडी ने बताया कि तेरहवीं पर शादी से ज्यादा खर्च होने लगा है. मृत्यु के तीसरे दिन चिट्‌ठी फाड़ी जाती है. उस के बाद शोक प्रकट करने लोग आने लगते हैं. शादीब्याह में भी 9 दिन तक मिठाई नहीं चलती होगी, मगर मृत्यु होने पर खिलाई जाती है. दूरदराज से आने वाले अगर लोग रुकते हैं तो उन के लिए शराब तक का इंतजाम किया जाता है.

अलवर, मेवात व हरियाणा के इलाकों में तो रागिनी कार्यक्रम तक करवाए जा रहे हैं. ऐसे खर्चों से संपन्न लोगों को फर्क नहीं पड़ता, मगर उन का अनुसरण करते हुए गरीब लोग कर्ज उठा कर खर्च करते हैं.

बिश्नोई समुदाय में 16 दिन के शोक के दौरान 3 बार रिश्तेदार इकट्ठा होते हैं. मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार वाले दिन, फिर चौथे या पांचवें दिन और उस के बाद 16वें दिन. तीनों बार आगंतुकों के लिए खानपान का इंतजाम किया जाता है. देसी घी का हलवा और छोले जरूरी हैं, तो सब्जियां, पूरी, रोटी के अलावा मिठाइयां बनती हैं.

पहले संसाधनों का अभाव था तो रिश्तेदारों को मौत की खबर देरी से मिलती थी, इसलिए शोक के दिन लंबे रखे जाते थे. दूर से आने वाले लोगों के लिए खाने का इंतजाम करना पड़ता था. समय बदल चुका है पर परंपरा कायम है जो बदली जानी चाहिए.

बीकानेर निवासी रामलाल विश्नोई बताते हैं, “करीब 2 दशकों पहले तक बिश्नोई समाज में 29 दिनों का शोक होता था मगर अब यह 16 दिन का है. फिर भी ज्यादा है. पहले तो दिवाली से होली तक शोक मनता था. अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु दिवाली के बाद हुई तो शोक होली खत्म होने के बाद पूरा होता था. इस समयावधि के दौरान संबंधित परिवार के लोग सप्ताह में 3 से 4 दिनों तक अपना कामकाज छोड़ कर घर बैठ जाते थे.”

पंडों की लूट का जरिया

किसी भी समाज की प्रगति का पैमाना शिक्षा होता है. जो समाज पाखंड व अंधविश्वास के बजाय अपने बच्चों की बेहतर शिक्षा पर पूंजी निवेश करता है वो समाज का भविष्य होता है. अर्थयुग में पूंजी के इर्दगिर्द ही नैतिकता के मापदंड घूमते हैं. पूंजी कमाना एक अलग बात है और पूंजी खर्च करना अलग बात.

किसानकमेरे वर्ग के लोग मेहनत के बल पर पूंजी का निर्माण करते हैं मगर निर्मित पूंजी पर कब्जा दूसरे कर लेते हैं. चाहे वो सरकार के नाम से हो या व्यापार का जरूरी हिस्सा बता कर हो. चाहे धर्म के नाम पर हो, चाहे मूढ़ परंपराओं के नाम पर, मगर पूंजी मेहनतकश लोगों के हाथ से फिसलती रहती है.

मृत्युभोज शुरू में एक परंपरा थी जिस में रिश्तेदार लोग दुख की घड़ी में सांत्वना देने के लिए मिलते थे. जिस घर में मौत होती थी उस घर में खाना नहीं बनता था. दूरदराज से जो रिश्तेदार आते थे व आवागमन के साधनों के अभाव में समय ज्यादा लगता था उन को खाना पड़ोसी अपने घर ले जा कर खिलाते थे.

धीरेधीरे इस परंपरा में धर्म घुसा और इस परंपरा को विकृत कर दिया. आज मौत पर मातम नहीं बल्कि जश्न व लूट का संगम होता है. घरवाले मिठाइयां बनाते हैं, ब्राह्मण कर्मकांड करता है और मरने वाले की आत्मा के विशेषज्ञ बन कर इलाज करते हैं. गले में फुलड़ा डाल कर हरिद्वार की यात्रा होती है व वहां पंडों के पंजों में लुटाया जाता है. सिर मुंडवाए, रोतेबिलखते बच्चों के बीच सफेदपोश ठहाके लगाते हुए मिठाइयों का आनंद लेते हैं.

अकसर किसी भी पाखंड व अंधविश्वास को स्थापित करने में धर्म का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. हर कर्मकांड धर्म बता कर ही शुरू किया जाता है. ब्राह्मण ग्रंथों में हर पन्ने में लिखी नैतिकता आपस में उलझती है. अगर सारांश रूप में कुछ सीखना चाहें तो यह है कि इन में समय व्यर्थ करने का कोई सार नहीं है.

जब 16 संस्कारों में अंतिम संस्कार दाह संस्कार बताया था तो बात वहीं तक खत्म हो जानी चाहिए थी. उस से आगे की जो प्रक्रिया है वह खुद ही स्थापित नहीं हुई है बल्कि पंडितों ने बताया है कि अंतिम संस्कार के बाद अगले दिन सुबह अस्थियां घर लानी हैं, मंत्रोच्चार के साथ बेटों के गले में डालनी है, हरिद्वार ले जा कर उस का विसर्जन करना है. हर प्रक्रिया में पंडित मौजूद रहता है, मंत्रोच्चार करता है व मृत्युभोज के बाद दक्षिणा लेता है.

अगर दक्षिणा कम हो तो झगड़े तक करता है. यह मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है. बेटे लोकलिहाज से खामोश बैठे रहते हैं, नाराज होते हैं मगर बोल नहीं पाते क्योंकि समाज के लोग दक्षिणा की सौदेबाजी करते हैं.

अगर किसी को लगता है कि पंडित मृत्युभोज में कर्मकांड नहीं करवाते हैं और इसे धर्म की प्रक्रिया नहीं बताते हैं तो उस को मृत्युभोज के समय उपस्थित रहना चाहिए. अव्वल बात तो यह है कि मृतकों की आत्मा को पोषण देने के लिए वार्षिक हफ्तावसूली के रूप में श्राद्ध तक का कर्मकांड करते हैं और दक्षिणा लेते हैं और इस के लिए बाकायदा कहानियां रची गई हैं. जब मानव जीवन का अंतिम संस्कार ही दाह संस्कार है तो ये पंडित लोग बाद में कौन से संस्कार स्थापित कर रहे हैं?

कोरोना के संकट में जब बिना मृत्युभोज के काम चल रहा था तो फिर ये पढ़ेलिखे प्राचार्य औनलाइन दक्षिणा किस के लिए मांग रहे थे? ब्राह्मण समाज के लोगों को चाहिए कि वो ऐसे पंडितों व शिक्षकों पर खुद आगे आ कर रोक लगाएं. अन्यथा जिन के कंधों पर धर्म का टैंडर है तो त्रुटियां भी उन्हीं के हिस्से आएंगी. और इस को त्रुटियां भी नहीं मान सकते,  क्योंकि यह जानबूझ कर धर्म की आड़ में चलाया गया पंडितों का धंधा है.

कबीरदास ने कहा था-

जिंदा बाप कोई न पूजे, मरे बाद पूजवाए!

मुट्ठीभर चावल लेई, कौवे को बाप बनाए!!

ब्रह्मभोज ही मृत्युभोज

जयपुर में ताड़केश्वर मंदिर के महंत पंडित नवलकिशोर शर्मा ब्रह्मभोज यानी मृत्युभोज व तेरहवीं का पक्ष लेते हुए बताते हैं कि धार्मिक ग्रंथों, जैसे गरुड़ पुराण, पितृ संहिता और वेदों में अनेक जगह यह वर्णित है कि मृत प्राणी के नाम पर कराए गए सामूहिक भोजन का एक भाग मरने वाली आत्मा ग्रहण करती है. मृत्यु के बाद आत्मा को भोजन कराना धर्मग्रंथों में धर्म और संस्कृति का एक हिस्सा बताया गया है. शास्त्र अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों एवं रिश्तेदारों को भगवान का प्रसाद बना कर भोजन की आज्ञा देते हैं.

पंडित नवलकिशोर आगे कहते हैं, “किंतु आजकल शास्त्रसम्मत इस रीति की अपव्यय कह कर आलोचना की जा रही है और आलोचना भी वो कर रहे हैं जो खुद को श्रेष्ठ सनातनी बताने का कोई अवसर नहीं चूकते. यदि किसी को अपव्यय की इतनी ही चिंता है तो शादीविवाह में हो रहे अनावश्यक खर्चों में क्यों नहीं कटौती की बात करते? क्यों वहां पर बड़ेबड़े कैटरर को बुला कर सैकड़ों/हजारों लोगों को 2-2 हजार की थाली खिलाने और महंगी शराब लुटाने का भोंडा दिखावा किया जाता है वह भी अपनी बेटी के कन्याभोज के नाम पर.

“मृत्युभोज देना कुरीति नहीं है. मृत्युभोज तो सामाजिक और शास्त्रीय ढांचे का अभिन्न हिस्सा है. मृत्युभोज के पीछे तो हमारे मनीषियों की सोच धार्मिक, वैज्ञानिक होने के साथसाथ मनोवैज्ञानिक भी थी. मृत्युभोज तो वह प्रथा है जिस के माध्यम से मृत्युभोज ग्रहण करने वाला व्यक्ति अपने द्वारा अर्जित पुण्य के कुछ अंश को मृत व्यक्ति को प्रदान कर ख़ुद को धन्य बनाता है.”

अनेकों शास्त्रों में मृत्युभोज का विधान है-

यजुर्वेद के पारस्कर गृह्यसूत्र में अन्त्येष्टि संस्कारविधा में श्लोक हैं,

”एकादश्यामयुग्मान् ब्राह्मणान् भोजयित्वा।  प्रेतायोद्दिश्य गामप्येके घ्नन्ति।।”

एकादश्यामेकादशेऽहनि ब्राह्मण: कर्ता चेत् आयुग्मान् त्रिप्रभृतिविषमसङ्ख्याकान् द्विजोत्तमान् भोजयित्वा भोजनं कारयित्वा एकोद्दिष्टश्राद्धविधिना  (३/१०/४९)

“कर्तव्यं विप्रभोजनम् ।प्रेता यान्ति तथा तृप्तिं बन्धुवर्गेण भुञ्जता।।“(विष्णु पुराण ३/१३/१२)

यानी, दाह संस्कार के 11वें दिन विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराएं. मृतक के उद्देश्य से गांवगुवाड वालों को भी भोजन कराना चाहिए.

हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार किया जाता है, इस के बाद 13 दिनों तक मृतक के निमित्त पिंडदान किए जाते हैं और आखिरी में 13वें दिन उस की तेहरवीं होती है.

गरुड़ पुराण में बताया गया है कि तेरहवीं तक आत्मा अपनों के बीच ही रहती है. इस के बाद उस की यात्रा दूसरे लोक के लिए शुरू होती है और उस के कर्मों का हिसाब किया जाता है.

गरुड़ पुराण के मुताबिक, जब किसी व्यक्ति के प्राण निकलते हैं तो यमदूत उस की आत्मा को यमलोक ले जाते हैं और वहां उसे वो सब दिखाया जाता है जो उस ने अपने जीवन में किया है. इस दौरान करीब 24 घंटे तक आत्मा यमलोक में ही रहती है. इस के बाद यमदूत उसे उस के परिजनों के बीच छोड़ जाते हैं. इस के बाद मृतक व्यक्ति की आत्मा अपने परिवार वालों के आसपास ही भटकती रहती है क्योंकि उस में इतना बल नहीं होता कि मृत्युलोक से यमलोक की यात्रा तय कर सके.

इस बीच, परिजन मृतक की आत्मा के लिए नियमित रूप से पिंडदान करते हैं. गरुड़ पुराण के अनुसार मृत्यु के बाद 10 दिनों तक जो पिंडदान किए जाते हैं, उन से मृत आत्मा के विभिन्न अंगों का निर्माण होता है. 11वें और 12वें दिन के पिंडदान से शरीर पर मांस और त्वचा का निर्माण होता है, फिर 13वें दिन जब तेरहवीं के दिन ब्रह्मभोज किया जाता है, उस से ही वह यमलोक तक की यात्रा तय करती है. इस से आत्मा को बल मिलता है और वह अपने पैरों पर चल कर मृत्युलोक से यमलोक तक की यात्रा संपन्न करती है.

आत्मा को मृत्युलोक से यमलोक पहुंचने में एक साल का समय लगता है. माना जाता है कि परिजनों द्वारा 13 दिनों में जो पिंडदान व ब्रह्मभोज किया जाता है वो एक वर्ष तक मृत आत्मा को भोजन के रूप में प्राप्त होता है. तेरहवीं के दिन कम से कम 13 ब्राह्मणों को भोजन कराने से आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है. साथ ही, उस के परिजन शोकमुक्त हो जाते हैं.

जब कि जिस मृतक आत्मा के नाम से पिंडदान नहीं किया जाता, उसे तेरहवीं के दिन यमदूत जबरन घसीटते हुए यमलोक ले कर जाते हैं. ऐसे में यात्रा के दौरान आत्मा को काफी कष्ट उठाने पड़ते हैं. इसलिए मृतक की आत्मा की शांति के लिए तेरहवीं को जरूरी माना गया है.

जब तक इंसान जिंदा होता है तब तक कोई महत्त्व नहीं है, मगर मरने के बाद जो सब नहीं होना चाहिए वो सब किए जा रहे हैं. धर्म ने परंपरा का नाश किया ही था मगर बाजार के साथसाथ राजनेता भी इस में शामिल हैं. जो आज मृत्युभोज का विकृत स्वरूप हमारे सामने है वो धर्म-बाजार-सियासत द्वारा पोषित है. प्रतियोगिता सी चल पड़ी है बड़ा स्वरूप देने की.

समाज का नैतिक धर्म यही होता है कि अपने लोगों की सारसंभाल करें, शिक्षित कर के प्रगति के पथ पर ले जाएं, पूंजी के खर्च को सही दिशा दें मगर बहुतायत में समाज के सफेदपोश लोग अपना ईमानधर्म भूल गए हैं.

हालांकि धीरेधीरे जागरूकता भी आ रही है. नेक परंपरा से सामाजिक कलंक बने इस मृत्युभोज को मिटाने के लिए प्रयास तेज होने लगे हैं. सामाजिक चिंतक प्रेमाराम सियाग कहते हैं, “समाज के जागरूक लोगों से निवेदन है कि अब बस कर दो. बहुत घरपरिवार उजड़ गए. बहुत बच्चों का भविष्य खराब कर के पीढ़ियां बरबाद कर दीं. साधनसंपन्न लोग तो गलत जगह पैसा खर्च कर के भी बच निकलते हैं मगर गरीब इस दौड़ में लड़खड़ा कर गिरता ही जा रहा है और उस को उठने में पीढ़ियां खप जाती हैं.

“धीरेधीरे इस कलंक को पूरी तरह से मिटाने के लिए छोटेछोटे प्रयास ही असल माने रखते हैं. जब ऐसे लोग हमारे समाज में हों जो गिद्ध बन कर खाने को तड़प रहे हों,  तो ऐसे दौर में खिलाफ लिखनाबोलना भी साहस का कार्य होता है. जो खिलाफ लिखतेबोलते हैं उन की हौसलाअफजाई के जानी जरूरी है.”

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