मृत्युभोज जीमने से पहले इस नन्हे से बालक पर गौर कीजिए. थाली पर बैठने से पहले इस बच्चे की मासूमियत पर अपनी नजर दौड़ाइए, फिर खाने का निवाला मुंह में लीजिए. इस बच्चे की 5 साल बाद की तसवीर देखिए. जब यह अपनी मां की मेहनत से तैयार की गई फसल को बेच कर आप के एक वक्त के भोजन का ब्याज चुकाएगा.

स्कूल तो दूर की बात, यह दिनरात खेत में धूप में पसीने से तरबतर फटे कपड़ों से शरीर को ढकते हुए आप के एक वक्त के भोजन के एकएक कोर का हिसाब करेगा. आप का एक दिन का पेट एक मासूम को जिंदगीभर भूखा रख देगा. यह बड़े अफसोस की बात है. आप खुद को पढ़ालिखा सभ्य इंसान मानते होंगे, मगर आप एक शैतान से भी बदतर प्राणी हो क्योंकि नरभक्षी शैतान एक झटके में ही मार डालता है, लेकिन आप ही समाज के लोग इस बच्चे को कर्ज में दबा कर तिलतिल मारने पर मजबूर कर रहे हो.

2 या 3 तरह की देशी घी की मिठाइयां, पूड़ी, 2-2 सब्जियां, फिर अफीम, डोडा पोस्त, बीड़ी, जर्दा लाओ तब जा के होता है मृत्युभोज. और वो ही लोग 12वें दिन तक खापी कर बोलेंगे, ‘इन्होंने किया ही क्या?’

इस मासूम बच्चे की तरह ही उन तमाम बच्चों को मृत्युभोज कराना पड़ता है जिन के मांबाप अचानक किसी ऐक्सीडैंट या बीमारी के चलते अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं. मांबाप की मौत के बाद असहाय, रोतेबिलखते बच्चों को समाज व परिवार के सहारे व संबल की जरूरत होती है जबकि उन पर मृत्युभोज का बोझ  लाद दिया जाता है, चाहे वे जमीन बेच कर मृत्युभोज कराएं या कर्जा ले कर.

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