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Arvind Kumar : ‘लापतागंज’ के ‘चौरसिया जी’ थे परेशान, हार्ट अटैक से हुई मौत

Arvind Kumar : छोटे पर्दे के शो ‘लापतागंज’ को दर्शकों का खूब प्यार मिला है. इसका हर एक किरदार लोगों को खूब पसंद आता है. शो में चौरसिया जी की भूमिका निभाने वाले अरविंद कुमार को भी इसी सीरियल से एक नई पहचान मिली थी. उनकी एक्टिंग के लोग दीवाने थे, लेकिन अब फिर कभी वो किसी शो में नजर नहीं आएंगे.

दरअसल ‘लापतागंज’ में चौरसिया जी की भूमिका निभाने वाले एक्टर अरविंद कुमार (Arvind Kumar) की मौत हो गई है. वैसे तो उनकी मौत के लिए हार्ट अटैक को जिम्मेदार माना जा रहा है, लेकिन असल में वो बहुत परेशान थे.

रोहिताश गौर ने किया कंफर्म

‘लापतागंज’ के लीड एक्टर रोहिताश गौर ने खुद इस बात की पुष्टी की है. उन्होंने बताया कि 12 जुलाई को अरविंद कुमार की हार्ट अटैक से मौत हुई है. साथ ही उन्होंने ये भी बताया कि, अरविंद (Arvind Kumar) काम न होने और आर्थिक तंगी की वजह से स्ट्रेस में थे.

रोहिताश गौर ने बताया कि, ”अक्सर हम फोन पर बात किया करते थे, लेकिन कभी मेरी अरविंद के परिवार से कोई बात नहीं हुई और न ही हम कभी मिले थे. वह गांव में रह रहे थे. वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के बाद से कई एक्टर्स परेशान थे, क्योंकि कोई भी इस मुश्किल घड़ी में कलाकारों के सपोर्ट में सामने नहीं आया. मैं लकी हूं कि मेरे पास काम है.”

कई शो में काम किया था अरविंद ने

आपको बता दें कि, साल 2004 में अरविंद कुमार (Arvind Kumar) ने टीवी इंडस्ट्री में कदम रखा था. उन्होंने 5 साल तक लापतागंज शो में चौरसिया जी की भूमिका निभाई थी. इसके अलावा वह ‘सावधान इंडिया’ और ‘क्राइम पेट्रोल’ जैसे शो में भी काम कर चुके थे. वहीं उन्हें फिल्मों में भी काम करने का मौका मिला था. उन्होंने ‘चीनी कम’, ‘रामा राम क्या है ड्रामा’  और ‘मैडम चीफ मीनिस्टर’ जैसी कई बड़ी फिल्मों में काम किया था.

राहुल रॉय के लिए मसीहा बने Salman Khan, चुकाया हॉस्पिटल का बिल

Salman Khan helps Rahul Roy : बॉलीवुड एक्टर सलमान खान जितनी अपनी फिल्मों के लिए चर्चा में रहते हैं. उतने ही अभिनेता अपनी दरियादिली से भी लाइफलाइट बटोरते हैं. भाईजान कभी भी किसी की भी मदद करने से इंकार नहीं करते है. इसके अलावा कई बार तो वो मुसीबत में फंसे बॉलीवुड सितारों के लिए भी मसीहा साबित हुए हैं.

हालांकि अब एक बार फिर सलमान खान ने अपनी दरियादिली का सबूत दिया है. दरअसल इस बार उन्होंने ‘आशिकी’ फेम एक्टर राहुल रॉय (Rahul Roy) की मदद की है, जिस बात का खुलासा खुद राहुल रॉय और उनकी बहनन प्रियंका ने किया है.

ब्रेन स्ट्रॉक के कारण अस्पताल में भर्ती थे एक्टर

मीडिया से बात करते हुए राहुल रॉय (Rahul Roy) की बहन ने बताया कि जब राहुल LAC की शूटिंग कर रहे थे तो तब उनको ब्रेन स्ट्रॉक हुआ था. इसके बाद उन्हें मुंबई के नानावटी अस्पताल में भर्ती कराया गया. जहां उनके हार्ट और दिमाग की एंजियोग्राफी हुई और करीब 1.5 महीने तक उनका इलाज चला. इसके अलावा प्रियंका ने ये भी बताया कि, राहुल के अस्पताल का बिल सलमान खान (Salman Khan) ने चुकाया हैं.

प्रियंका ने सलमान को दिया ‘नगीने’ का टैग

प्रियंका के मुताबिक, एक्टर सलमान खान (Salman Khan) ने खुद राहुल को फोन करके पूछा था कि क्या उन्हें किसी भी तरह की मदद की जरूरत तो नहीं है. इसके अलावा राहुल की बहन ने सलमान खान को ‘नगीने’ का भी टैग दे दिया. उन्होंने सलमान की तारीफ करते हुए कहा, ” इस बारे में कभी भी सलमान ने मीडिया के सामने जिक्र नहीं किया. भले ही हमने उनसे मदद नहीं मांगी थी, लेकिन फिर भी परेशानी के समय वह हमारे साथ खड़े रहे और ये ही चीज उन्हें असल मायने में स्टार बनाती है. न कि केवल कैमरे के सामने खड़े होने से व्यक्ति स्टार बन जाता हैं,”

राहुल ने की भाईजान की तारीफ

आपको बता दें कि, प्रियंका रॉय के साथ-साथ राहुल ने भी सलमान खान (Salman Khan) की तारीफ की है. राहुल ने कहा, “सलमान खान के लिए हर कोई बोलता है कि वो ऐसा है, वो वैसा है. लेकिन मेरे लिए वो एक बहुत अच्छे इंसान हैं.” बहरहाल राहुल रॉय की तबीयत अब पहले से बेहतर है और अब वो जल्द ही किसी नए प्रोटेक्ट पर काम करना चाहते हैं.

तलाश : भाग 1, क्या मम्मीपापा के पसंद किए लड़के से शादी करेगी कविता?

‘‘अपने मम्मीपापा की बात मान लो, कविता. वे जहां चाह रहे हैं वहीं शादी कर लो.’’

‘‘रवि, क्या तुम मेरे बिना अकेले जी सकोगे?’’

‘‘नहीं, कविता, वह जिंदगी तो मौत से भी बदतर होगी.’’

‘‘और मैं भी तुम्हारे सिवा किसी और की नहीं होना चाहती. पापा अपने मानसम्मान के लिए अगर मेरे प्यार का गला घोंटने की कोशिश जारी रखेंगे तो उन्हें कल सुबह अपनी मरी बेटी का मुंह देखने को मिलेगा.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो, कविता। हमें साथसाथ मरने से तो कोई नहीं रोक सकता न.’’

‘‘रवि, पापा ने अगर कल उन लङके वालों को रोकने की रस्म अदा करने आने से नहीं रोका तो रात ठीक 10 बजे मैं नींद की सारी गोलियां खा लूंगी.’’

‘‘10 बजे तक तुम ने यदि मेरे पास फोन नहीं किया तो मैं भी अपना जीवन तुम्हारे साथसाथ समाप्त कर लूंगा, कविता.’’

सार्वजनिक पार्क की एक बैंच पर बैठा एक 16 वर्षीय विशाल ने जब यह बातचीत साफसाफ सुनी तो कुछ ही सैकंड बाद उस ने देखा कि रवि और कविता पार्क के गेट की तरफ निकल गए हैं.

विशाल को यह समझते देर न लगी कि ये दोनों एकदूसरे से बेहद प्यार करते हैं और शादी न हो सकने के कारण साथसाथ आत्महत्या करने का फैसला कर चुके हैं. अब वह खुद को एकाएक बेहद परेशान व उत्तेजित सा महसूस कर रहा था, लेकिन वह क्या करे उसे कुछ समझ नहीं आया.

रवि और कविता उस के लिए बिलकुल अनजान थे. यही वजह थी कि वह उन के पास जा कर उन्हें आत्महत्या न करने के लिए समझाने की हिम्मत न कर पाया. लेकिन उसे कुछ करना जरूर चाहिए, यह भाव लगातार उस के मन में आ रहा था.

आखिरकार वह यही निर्णय कर पाया कि वह उन के घर देखने के लिए उन दोनों का पीछा करे. लगभग भागता हुआ वह जब पार्क के गेट से बाहर निकला तो रवि व कविता एक रिकशा में बैठ कर आगे निकल चुके थे.

विशाल ने चाहा कि वह चिल्ला कर उन से कुछ बोले, लेकिन उस के कंठ से आवाज नहीं निकली. देखते ही देखते वह रिकशा उस की आंखों से ओझल हो गया और आंखों में आंसू लिए विशाल अपने घर की तरफ दौङने लगा.

जब उस ने अपने घर में प्रवेश किया तब दीवार पर लगी घड़ी शाम के 5 बजे का समय दर्शा रही थी.

कविता को अपने घर में घुसते ही मातापिता का सामना करना पड़ा. वे दोनों उस से बहुत खफा नजर आ रहे थे,”तू रवि से मिल कर आ रही है न?’’ उस के पिता नरेश चंद्र ने कङकती आवाज में कहा. मगर सदा की तरह अपने पिता के गुस्से के सामने कविता की जबान को लकवा सा मार गया. वह सिर्फ गरदन हिला कर ‘हां’ कर दी.

“क्यों तू मेरी इज्जत का जनाजा निकालने पर तुली हुई है, बेशर्म, कल लङके वाले आ रहे हैं और तुझे अब भी आवारागर्दी करने से फुरसत नहींं है,’’ पिता की आंखों में समाए नफरत के भाव कविता के दिल को कंपा गए.

कविता आगे बढ़ कर अपनी मां अनुपमा के कलेजे से लग गई और रोआंसी हो कर बोली, ‘‘मां, मेरी जबरदस्ती कहीं और शादी मत करो. रवि से दूर हो कर मैं कभी सुखी नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘हम तेरा बुरा नहीं चाहते हैं बेटी,’’ मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फिराया, ‘‘वह लङका अच्छा है. उस का घरपरिवार अच्छा है. रवि का घरबार मामूली है. दवाइयां बेचने का मामूली सा धंधा करता है. रवि के मुकाबले जहां हम ने रिश्ता तय किया है वहां तू हजारगुना ज्यादा सुखी रहेगी.’’

‘‘मां, तुम गलत कह रही हो. मैं रवि को अपनी जान से ज्यादा चाहती हूं. उस की आमदनी जरूर कम है पर उस का प्यार मेरी खुशियों की गांरटी है मां.’’

‘‘ज्यादा बकबक कर के हमारा दिमाग खराब मत कर कविता,’’ नरेश दहाड़ उठे, ‘‘जिंदगी की परेशानियां प्यार का भूत बहुत ही जल्दी सिर से उतार देती हैं. कल को तू ही हमें धन्यवाद देगी कि तेरी जिद को नजरअंदाज कर के हम ने सचमुच तेरा भला किया था.’’

‘‘पापा, प्लीज,’’ कविता की आंखों से आंसू बह निकले.

‘‘जाओ, जा कर अपने कमरे में आराम करो और मुझ से पूछे बिना अब तुम्हें घर से बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं है,’’ पिता ने कठोर लहजे में अपना अंतिम निर्णय सुना दिया.

कविता को मां की आंखों में भी दया या सहानुभूति के भाव नजर नहींं आए. एकाएक उस की जोर से रुलाई फूट पड़ी और वह ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चली गई. विशाल की घबराहट और चिंता देख कर उस के पिता आदित्य और मां नीरजा ने उस की बात बड़े ध्यान से सुनी.

‘‘पापा, कविता और रवि की आवाज से उन की निराशा, दुख और तनाव साफ जाहिर हो रहा था,’’ विशाल ने उत्तेजित लहजे में पूरी बात सुना कर कहा, ‘‘मेरा दिल कह रहा है कि अगर कविता के मम्मीपापा ने उस की शादी कहीं और कहने का अपना इरादा नहीं बदला तो वे दोनों आज रात जरूर आत्महत्या कर लेंगे.’’

‘‘तू इतना टैंशन मत ले, इस बात के लिए विशाल. जान देना इतना आसान भी नहीं होता है,’’ आदित्य ने अपने बेटे को चिंतित लहजे में समझाया.

‘‘पापा, बिलकुल इस तरह कविता के मातापिता भी सोचते होंगे, लेकिन मैं पूछता हूं कि अगर रवि और कविता दोनों ने सचमुच आत्महत्या कर ली, तब क्या वे दोनों खुद को जीवनभर अपराधी महसूस नहीं करेंगे?’’

‘‘करेंगे, कौन मातापिता कभी यह चाहेंगे कि उन की औलाद अपने हाथों अपनी जान ले ले,’’ नीरजा ने अपना मत व्यक्त किया.

‘‘हमें उन दोनों की जान बचाने को कुछ करना होगा, पापा. कविता के मातापिता तक यह खबर पहुंचानी ही होगी वरना कल हमें उन दोनों की मौत का समाचार पढ़नेसुनने को मिला तो कितने अफसोस की बात होगी यह. खुद को तब कैसे माफ कर पाएंगे हम तीनों. विशाल बहुत भावुक हो उठा.

‘‘क्या मुसीबत खड़ी कर रहा है यह तुम्हारा बेटा. इस बात को इतनी गंभीरता से क्यों ले रहा है यह. कहां ढूंढ़ेंगे हम रवि, कविता या उन के मातापिता को. इस ने तो उन दोनों की शक्ल तक नहीं देखी है,’’ विशाल के पापा बुरी तरह चिढ़ उठे.

विवाह का सुख तभी जब पतिपत्नी स्वतंत्र हों

रिद्धिमा अकसर बीमार रहने लगी है. मनोज के साथ उसकी शादी को अभी सिर्फ 5 साल ही हुए हैंमगर ससुराल में शुरू के एक साल ठीकठाक रहने के बाद वह मुरझाने सी लगी. शादी से पहले रिद्धिमा एक सुंदर,खुशमिजाज और स्वस्थ लड़की थी. अनेक गुणों और कलाओं से भरी हुई लड़की. लेकिन शादी करके जब वह मनोज के परिवार में आई तो कुछ ही दिनों में उसको वहां गुलामी का एहसास होने लगा.

दरअसल, उसकी सास बड़ी तुनकमिजाज और ग़ुस्सेवाली है. वह उसके हर काम में नुक्स निकालती है. बातबात पर उसको टोकती है. घर के सारे काम उससे करवाती है और हर काम में तमाम तानेउलाहने देती है. तेरी मां ने तुझे यह नहीं सिखाया, तेरी मां ने तुझे वह नहीं सिखाया, तेरे घर में ऐसा होता होगा हमारे यहां ऐसा नहीं चलेगा, जैसे कटु वचनों से उसका दिल छलनी करती रहती है.

रिद्धिमा बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती है मगर उसकी सास और ननद को उसके हाथ का खाना कभी अच्छा नहीं लगा.वे उसमें कोई न कोई कमी ही निकालती रहती हैं. कभी नमक ज्यादा तो कभी मिर्च ज्यादा का राग अलापती हैं. शुरू में ससुर ने बहू के कामों की दबे सुरों में तारीफ की मगर पत्नी की चढ़ी हुई भृकुटि ने उनको चुप करा दिया. बाद में तो वे भी रिद्धिमा के कामों में मीनमेख निकालने लगे.

रिद्धिमा का पति मनोज सब देखता है कि उसकी पत्नी पर अत्याचार हो रहा है मगर मां, बाप और बहन के आगे उसकी जबान नहीं खुलती. मनोज के घर में रिद्धिमा खुद को एक नौकरानी से ज्यादा नहीं समझती है, वह भी बिना तनख्वाह की. इस घर में वह अपनी मरजी से कुछ नहीं कर सकती. यहां तक कि अपने कमरे को भी यदि वह अपनी सुरुचि के अनुसार सजाना चाहे तो उस पर भी उसकी सास नाराज हो जाती है, कहती है,‘इस घर को मैंने अपने खूनपसीने से बनाया है, इसलिए इसमें परिवर्तन की कोशिश भूल कर भी मत करना. जो चीज मैंने जहां सजाई है, वह वहीं रहेगी.’

रिद्धिमा की सास ने अपनी हरकतों और अपनी कड़वी बातों से यह जता दिया है कि घर उसका है और उसके मुताबिक चलेगा.यहां रिद्धिमा या मनोज की पसंद कोई मतलब नहीं रखती.5 साल लगातार गुस्सा, तनाव और अवसाद में ग्रस्त रिद्धिमा आखिरकार ब्लडप्रैशर की मरीज हो चुकी है. इस शहर में न तो उसका मायका है और न दोस्तों की टोली, जिनसे मिल कर वह अपने तनाव से थोड़ा मुक्त हो जाए.

उसकी तकलीफ दिनबदिन बढ़ रही है. सिर के बाल झड़ने लगे हैं. चेहरे पर झाइयां आ गई हैं. सजनेसंवरने का शौक तो पहले ही खत्म हो गया था. अब तो कईकई दिन वह कपड़े भी नहीं बदलती है. सच पूछो तो वह सचमुच नौकरानी सी दिखने लगी है. काम और तनाव के कारण 3 बार मिसकैरिज हो चुका है. बच्चा न होने के ताने सास से अलग सुनने पड़ते हैं. अब तो मनोज की भी उस में दिलचस्पी कम हो गई है. उसकी मां जब घर में टैंशन पैदा करती है तो उसकी खीझ वह रिद्धिमा पर निकालता है.

वहीं, रिद्धिमा की बड़ी बहन कामिनी, जो शादी के बाद से ही अपने सास, ससुर, देवर और ननद से दूर दूसरे शहर में अपने पति के साथ अपने घर में रहती है, बहुत सुखी, संपन्न और खुश है. चेहरे से नूर टपकता है. छोटीछोटी खुशियां एंजौय करती है. बातबात पर दिल खोल कर खिलखिला कर हंसती है.

कामिनी जिंदगी का भरपूर आनंद उठा रही है. अपने घर की और अपनी मरजी की मालकिन है. कोई उसके काम में हस्तक्षेप करने वाला नहीं है. अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार अपना घर सजाती है. घर को डैकोरेट करने के लिए अपनी पसंद की चीजें बाजार से लाती है. पति भी उसकी सुरुचि और कलात्मकता पर मुग्ध रहता है. बच्चों को वह अपने अनुसार बड़ा कर रही है. इस आजादी का ही परिणाम है कि कामिनी उम्र में बड़ी होते हुए भी रिद्धिमा से छोटी और ऊर्जावान दिखती है.

दरअसल, महिलाओं के स्वास्थ्य, सुंदरता, गुण और कला के विकास के लिए शादी के बाद पति के साथ अलग घर में रहना ही ठीक है. सास, ससुर, देवर, जेठ, ननदों से भरे परिवार में उनकी स्वतंत्रता छिन जाती है. हर वक्त एक अदृश्य डंडा सिर पर रहता है. उन पर घर के काम का भारी बोझ होता है. काम के बोझ के अलावा उनके ऊपर हर वक्त पहरा सा लगा रहता है. सासससुर की नजरें हर वक्त यही देखती रहती हैं कि बहू क्या कर रही है. घर में अगर ननद भी हो तो सास शेरनी बन कर बहू को फाड़ खाने के लिए तैयार रहती है. बेटी की तारीफ और बहू की बुराइयां करते उसकी जबान नहीं थकती.

ये हरकतें बहू को अवसादग्रस्त कर देती हैं. जबकि पति के साथ अलग रहने पर औरत का स्वतंत्र व्यक्तित्व उभर कर आता है. वे अपने निर्णय स्वयं लेती हैं. अपनी रुचि से अपना घर सजाती हैं. अपने अनुसार अपने बच्चे पालती हैं और पति के साथ भी उनका रिश्ता अलग ही रंग लेकर आता है. पतिपत्नी अलग घर में रहें तो वहां काम का दबाव बहुत कम होता है. काम भी अपनी सुविधानुसार और पसंद के अनुरूप होता है. इसलिए कोई मानसिक तनाव और थकान नहीं होती.

बच्चों पर बुरा असर

घर में ढेर सारे सदस्य हों तो बढ़ते बच्चों पर ज्यादा टोकाटाकी की जाती है. उन्हें प्रत्येक व्यक्ति अपने तरीके से सहीगलत की राय देता है, जिससे वे कन्फ्यूज होकर रह जाते हैं. वे अपनी सोच के अनुसार सहीगलत का निर्णय नहीं ले पाते. एकल परिवार में सिर्फ मातापिता होते हैं जो बच्चे से प्यार भी करते हैं और उसको समझते भी हैं, तो बच्चा अपने फैसले लेने में कंफ्यूज नहीं होता और सहीगलत का निर्णय कर पाता है. लेकिन ससुराल में जहां सासबहू की आपस में नहीं बनती है तो वे बच्चों को एकदूसरे के खिलाफ भड़काती रहती हैं.

वे अपनी लड़ाई में बच्चों को हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं. इससे बच्चों के कोमल मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. उनका विकास प्रभावित होता है. देखा गया है कि ऐसे घरों के बच्चे बहुत उग्र स्वभाव के, चिड़चिड़े, आक्रामक और ज़िद्दी हो जाते हैं. उनके अंदर अच्छे मानवीय गुणों जैसे मेलमिलाप, भाईचारा, प्रेम और सौहार्द की कमी होती है. वे अपने सहपाठियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते.

अपना घर तो खर्चा कम

पतिपत्नी स्वतंत्र रूप से अपने घर में रहें तो खर्च कम होने से परिवार आर्थिक रूप से मजबूत होता है. मनोज का ही उदाहरण लें तो यदि किसी दिन उसको मिठाई खाने का मन होता है तो सिर्फ अपने और पत्नी के लिए नहीं बल्कि उसको पूरे परिवार के लिए मिठाई खरीदनी पड़ती है. पत्नी के लिए साड़ी लाए तो उससे पहले मां और बहन के लिए भी खरीदनी पड़ती है. पतिपत्नी कभी अकेले होटल में खाना खाने या थियेटर में फिल्म देखने नहीं जातेक्योंकि पूरे परिवार को ले कर जाना पड़ेगा.

जबकि कामिनी अपने पति और दोनों बच्चों के साथ अकसर बाहर घूमने जाती है. वे रैस्तरां में मनचाहा खाना खाते हैं, फिल्म देखते हैं, शौपिंग करते हैं. उन्हें किसी बात के लिए सोचना नहीं पड़ता. ऐसे अनेक घर हैं जहां2 या 3 भाइयों की फैमिली एक ही छत के नीचे रहती है. वहां आएदिन झगड़े और मनमुटाव होते हैं. घर में कोई खाने की चीज आ रही है तो सिर्फ अपने बच्चों के लिए नहीं, बल्कि भाइयों के बच्चों के लिए भी लानी पड़ती है. सभी के हिसाब से खर्च करना पड़ता है. यदि परिवार में कोई कमजोर है तो दूसरा ज्यादा खर्च नहीं करता, ताकि उसे बुरा महसूस न हो.

मनोरंजन का अभाव

ससुराल में आमतौर पर बहुओं के मनोरंजन का कोई साधन नहीं होता है. उन को किचेन और बैडरूम तक सीमित कर दिया जाता है. घर का टीवी अगर ड्राइंगरूम में रखा है तो उस जगह सासससुर और बच्चों का कब्ज़ा रहता है. बहू अगर अपनी पसंद का कोई कार्यक्रम देखना चाहे तो नहीं देख सकती. पतिपत्नी कभी अकेले कहीं जाना चाहें तो सबकी निगाहों में सवाल होते हैं, कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? कब तक आओगे?

इससे बाहर जाने का उत्साह ही ठंडा हो जाता है. ससुराल में बहुएं अपनी सहेलियों को घर नहीं बुलातीं, उनके साथ पार्टी नहीं करतीं, जबकि पतिपत्नी अलग घर में रहें तो दोनों ही अपने फ्रैंड्स को घर में इन्वाइट करते हैं, पार्टियां देते हैं और खुल कर एंजौय करते हैं.

जगह की कमी

एकल परिवारों में जगह की कमी नहीं रहती. वन बैडरूम फ्लैट में भी पर्याप्त जगह मिलती है. कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं होता है. बहू खाली वक्त में ड्राइंगरूम में बैठे या बालकनी में, सब जगह उसकी होती है, जबकि सासससुर की उपस्थिति में बहू अपने ही दायरे में सिमट जाती है. बच्चे भी दादादादी के कारण फंसाफंसा अनुभव करते हैं. खेलें या शोरगुल मचाएं तो डांट पड़ती है उन्हें.

स्वतंत्रता खुशी देती है

पतिपत्नी स्वतंत्र रूप से अलग घर ले कर रहें तो वहां हर चीज, हर काम की पूरी आजादी रहती है. किसी की कोई रोकटोक नहीं होती. जहां चाहा, वहां घूम आए. जो मन किया, वह बनाया और खाया. पकाने का मन नहीं है तो बाजार से और्डर कर दिया. जैसे चाहे वैसे कपड़े पहने. सासससुर के साथ रहने पर नौकरीपेशा महिलाएं उनकी इज्जत का खयाल रखते हुए साड़ी या चुन्नी वाला सूट ही पहनती हैं, जबकि स्वतंत्र रूप से अलग रहने वाली औरतें सुविधा और फैशन के अनुसार जींस-टौप, स्कर्ट, मिडी सब पहन सकती हैं. घर में पति के साथ अकेली हैं, तो वे नाइट सूट या सैक्सी नाइटी में रह सकती हैं.

रोमांस और सैक्स की छूट

पति के साथ अकेले हों तो रोमांस और सैक्स का आनंद कभी भी, और घर के किसी भी कोने में उठा सकते हैं. जबकि अन्य परिजनों के बीच रहते हुए ऐसा संभव ही नहीं है. वहां तो छुट्टी के दिन पतिपत्नी अगर दिन में कमरा बंद कर लें तो खुसुरफुसुर होने लगती है और सारा ठीकरा अकेले बहू के सिर पर फूटता है. सास के ताने, ननद के उलाहने और देवर का मजाक हद पार कर जाता है. एकल परिवार में जब पतिपत्नी हर वक्त एकदूसरे के करीब रहते हैं तो उनके बीच आपसी समझ बढ़ती है और बौन्डिंग मजबूत होती है. वे एकदूसरे की जरूरतों को इशारे में समझ जाते हैं.

फैसला लेने की स्वतंत्रता

पतिपत्नी स्वतंत्र घर में रहें तो अपने फैसले दोनों मिलजुल कर लेते हैं जबकि परिजनों के साथ रहने पर हर बात में उनसे राय लेना एक मजबूरी हो जाती है. देखा जाता है कि पतिपत्नी के नितांत निजी फैसलों में भी सास की घुसपैठ बनी रहती है.

अलग घर ले कर रहने पर आप अपने बच्चों को कहीं भी पढ़ा सकते हैं. स्कूल सस्ता हो या मंहगा, हिंदी मीडियम हो या इंग्लिश मीडियम, यह आपका डिसीजन होता है पर पूरे परिवार के साथ रहने पर आपको अपने बच्चे को भी वहीं पढ़ाना पड़ता है जहां बड़े भाई के बच्चे पढ़ रहे हैंभले आपकी आमदनी इतनी है कि आप अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में भेज सकते हैं, उसका अच्छा भविष्य बना सकते हैं.

हमें एक ही जीवन मिला है. उसका 25 फीसदी मातापिता के घर में उनकी सलाह और आज्ञा मानते हुए बीत जाता है. अगर शादी के बाद भी अपनी जिंदगी अपने तरीके और अपनी पसंद से न जी पाएं तो बुढ़ापे में सिवा अफसोस के और कुछ नहीं रहेगा. बहू के लिए ससुराल में सबके साथ तालमेल बैठाना किसी भी हालत में संभव नहीं है. बड़ों के आदर और छोटों से स्नेह के नाम पर वहां हिप्पोक्रेसी ही ज्यादा है. परिवार के सभी सदस्यों के बीच काम का बंटवारा भी ठीक तरीके से नहीं होता है.

आमतौर पर घर की बहू पर सारे काम लाद दिए जाते हैं.वह गधे की तरह दिनभर काम का बोझ ढोती है और लातें भी खाती है. आज लाखों पतिपत्नी ऐसे हैं जो परिजनों के साथ रहते हुए तनावग्रस्त हैं. तनाव के कारण अनेक गंभीर बीमारियों का शिकार भी हैं. कितनी महिलाएं इस तनाव के कारण आत्महत्या कर रही हैं. कितने ही पुरुष इस तनाव के कारण हृदय रोगों का शिकार बन गए हैं. इस तनाव से मुक्त होना जरूरी है और उसके लिए परंपरागत बेड़ियों को काटना आवश्यक है.

अलग घर ले कर रहना कोई जुर्म नहीं है. अगर आपके मातापिता का 4 बैडरूम वाला बड़ा घर है तो आप एक बैडरूम वाला घर लेकर रहें, जहां आप पूरी तरह स्वतंत्र और अपनी मरजी के मालिक हों. जहां सारे फैसले आपके अपने हों. इससे खुशी भी मिलेगी और आप में मैच्योरिटी भी आएगी. जरूरत पड़ने पर, किसी फंक्शन पर, तीजत्योहार में आप मिठाई का डब्बा ले कर मातापिता से मिलने भी जाएं, इससे उनका मानसम्मान भी बना रहेगा और आपकी कद्र भी रहेगी.

लेटरल के नाम पर कुलीनों की डायरैक्ट एंट्री

सुजीत कुमार वाजपेयी, राजीव सक्सेना, सुमन प्रसाद सिंह, अंबर दुबे ये कुछ नाम उन भाग्यशाली लोगों के हैं जिनकी योग्यताएं और अनुभव एक दफा शक के दायरे में खड़े किएजा सकते हैं लेकिन उनके जन्मना श्रेष्ठ यानी ऊंची जाति के होने पर कोई शक नहीं किया जा सकता. इन और इन जैसे कई अधेड़ों को सरकार पिछले 5वर्षों से सीधे आईएएस अधिकारी बना रही है. अंदाजा है कि अब तक कोई डेढ़ सौ के लगभग आईएएस एक नई स्कीम ‘लेटरल एंट्री’ के तहत बनाए जा चुके हैं और 2023 की भरती प्रक्रिया अभी चल रही है.

देश को आईएएस देने वाली संस्था यूपीएससी यानी संघ लोक सेवा आयोग ने एक बार फिर रिक्तियां (विज्ञापन क्रमांक 52/2023) निकालकर प्रतिभाशाली उम्रदराज लोगों से आवेदन मांगे थे जिसकी आखिरी तारीख 19 जून, 2023 थी. ये पद बड़े, मलाईदार और अहम थे, मसलन विभिन्न मंत्रालयों में जौइंट सैक्रेटरी, डिप्टी सैक्रेटरी और डायरैक्टर, जो पद से ज्यादा सरकारी ताकतों के नाम होते हैं.इन पदों के लिए अनिवार्य शैक्षणिक योग्यता अपने विषय में स्नातक मांगी गई थी और 15 साल का अनुभव अपने क्षेत्र का चाहा गया था. उम्र 40से लेकर 55 सालतक रखी गई थी.वेतन विभिन्न भत्तों सहित लगभग 2 लाख 18 हजार रुपए एक बड़ा आकर्षण साफसाफ दिख रहा था. यह नियुक्ति 3 साल के लिए होती है जिसे 2 साल और बढ़ाया जा सकता है.

इस इश्तिहार के मसौदे में इकलौती अच्छी बात जातपांत यानी जातिगत आरक्षण का झंझट या जिक्र न होना थी कि इतनी पोस्ट एससी, एसटी, ईडब्लूएस के लिए और इतनी ओबीसी के लिए आरक्षित हैं. लेटरल एंट्री का यह 6ठा साल है, इसलिए समझने वाले समझ गए कि हमारे उच्च कुल में जन्म लेने के पुण्य अब फलीभूत हो रहे हैं और बहती गंगा में हाथ धो लिए जाएं.पिछले 3बैचों में जिन भाग्यशाली अधेड़ों को आईएएस अफसर बनाया गया है, उम्मीद और मंशा के मुताबिक उन में से 95 फीसदी सवर्ण थे. भूषण कुमार जैसे 5 फीसदी पिछड़े वर्ग से थे.

क्या है यह लेटरल एंट्री और इसके पीछे छिपी मंशा, इसे समझने से पहले एक नजर 2021 के चयनित 31 उम्मीदवारों, जो आईएएस बने, की लिस्ट पर डालें तो 29 उच्च कुलीन सरनेम थे. एकएक नाम मुसलिम और इसाई समुदाय का था. मुमकिन है एकाध कोई पिछड़े वर्ग का हो हालांकि इस इम्तिहान (प्रतियोगिता परीक्षा कहने की तो कोई वजह ही नहीं) में कास्ट कैटेगरी बताना मना था लेकिन जाहिर है सभी उच्च कुलीन अनारक्षित या सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार माने जाएंगे.

इन होनहारों को भाग्यशाली कहने की एक बड़ी वजह यह भी है कि इन्हें आईएएस बनने के लिए दिनरात हाड़तोड़ मेहनत नहीं करनी पड़ी, महंगी कोचिंग क्लासेस में वक्त और पैसा खर्च नहीं करना पड़ा, घरपरिवार का, खानेपीने और सोने का सुख नहीं छोड़ना पड़ा. पढ़ने के लिए महंगा साहित्य नहीं खरीदना पड़ा, साथियों और दोस्तों से करंट और परंपरागत विषयों व मुद्दों पर बहस नहीं करनी पड़ी. और तो और, उन 3 कड़े स्टैप्स से भी होकर नहीं गुजरना पड़ा जहां इंटरव्यू लेने वाले आकाश पाताल से भी सवाल खोद लाते हैं. किस्मत के धनी इन लोगों का चयन सिर्फ मौखिक साक्षात्कार की बिना पर हुआ. चयन के बाद भी कोई कड़ी मैदानी ट्रेनिंग नहीं, जो नए आईएएस अधिकारियों को देशविदेश में दी जाती है.

केबीसी की तर्ज पर

ये नियुक्तियां या खैरात, कुछ भी समझ लें, रेवड़ी की तरह अपनों को बांटी जाती हैं. जो कुछेक घोषित तौर पर अपने नहीं होते उन में भी मलाई खाने के बाद अपनापन आ जाता है. ये भरतियां ठीक वैसी ही हैं जैसी लोकप्रिय गेम शो कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन हर किसी को करोड़पति बनाते हैं. इस खेल में तो फिर भी थोड़ेबहुत सामान्य ज्ञान की जरूरत प्रतिभागियों को पड़ती है और हौट सीट तक पहुंचने के लिए लाखों लोगों को पार करना पड़ता है.

लेटरल एंट्री में यह जरूरी नहीं. सरकार अगर सहकारिता और किसान कल्याण विभाग में अधिकारी नियुक्त करना चाह रही है तो उम्मीदवार की जनरल नौलेज किस स्तर की है, यह नहीं देखा जाता. देखा यह भी नहीं जाता कि उसे देश में पाई जाने वाली विभिन्न मिट्टियों के बारे में कुछ पता है या नहीं. सहकारी खेती क्या होती है, यह मामूली बात सीखने के लिए उसके पास 3 से 5 साल होते हैं और इस मियाद में भी वह ये बुनियादी बातें न सीखे और जाने तो भी कोई बात नहीं क्योंकि सरकार की मंशा उसे कम से कम एक करोड़ रुपए देने की रहती है.

लेटरल एंट्री के बारे में प्रचार यह किया गया है कि यह निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों का फायदा उठाने के लिए है क्योंकि वे अनुभवी होते हैं.यह एक मूर्खतापूर्ण बात है. मिसाल सहकारिता और किसान कल्याण की ही लें तो यह जमीन से जुड़ा अहम विषय है जिसमें उम्मीदवार का एमएससी एग्रीकल्चर से होना जरूरी होना चाहिए. नियमित परीक्षाओं के जरिए जो फ्रैशर्स आते हैं वे कृषि स्नातक हों यह भी अनिवार्यता नहीं. लेकिन कुछ साल विभिन्न पदों और जिलों में काम करने के बाद वे जमीन और किसान की कई समस्याओं व परेशानियों से अवगत हो जाते हैं.

प्राइवेट सैक्टर के किसी तजारबेकार अधिकारी, जो विलासी जिंदगी और एयर कंडीशंसवगैरह का आदी हो चुका होता है, से यह उम्मीद करना दिल बहलाने जैसी बात होगी कि वह किसानों की जरूरत के मुताबिक उनके हित में कृषि नीतियों में बदलाव की बात कर सके. प्राइवेट सैक्टर सिर्फ बेचना और मुनाफा कमाना जानते हैं. लिहाजा, उनका बंदा सिर्फ इसी दिशा में सोचेगा जिसका खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ेगा.

कौर्पोरेट कल्चर का देश या जनता के हितों से कोई वास्ता नहीं होता. इसलिए उनसे एक अच्छे ब्यूरोक्रेट होने की अपेक्षा पालना नादानी ही है. आईएएस की रोजमर्राई जिंदगी बेहद सार्वजनिक होती है जबकि प्राइवेट सैक्टर के अधिकारी कूपमंडूक से होते हैं जो अपनी कंपनी के कुएं में कैद रहते हैं.

3 साल पहले ही आईएएस बनी मध्यप्रदेश की एक अधिकारी का नाम न छापने की शर्त पर कहना है कि,‘हम चौबीसों घंटे ड्यूटी पर रहते हैं जिस में जिम्मेदारियां और जवाबदेहियां बहुत हैं. इन लोगों (लेटरल एंट्री वालों) के साथ ऐसा कुछ नहीं है. वे अपनी जिंदगी जी चुके होते हैं, खासा पैसा भी उनके पास जमा हो चुका होता है. हमें तो अभी उनसे आधी सैलरी भी नहीं मिल रही. लिहाजा, उन्हें किसी बात का डर नहीं रहता.’ यह स्मार्ट अधिकारी रामचरितमानस का भय बिन होत न प्रीत वाला दोहा सुनाकर काफीकुछ इशारों में कह देती है.

बात इस लिहाज से भी दमदार है कि आईएएस के इम्तिहान में कामयाबी की औसत दर 0.2 फीसदी है जबकि लेटरल एंट्री में यह 20 फीसदी से भी ज्यादा होती है. इस पर भी चयन न हो तो इन कुलीनों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. अभी तक आईएएस बने विशेषज्ञों ने क्या कारनामा ऐसा कर दिखाया जिसकी मिसाल दी जा सके. इसका जवाब तो मिलने से रहा क्योंकि यूपीएससी की नोडल एजेंसी डीओपीटी यानी कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के पास तो इस सवाल का भी जबाब नहीं कि 2018 में कितने विशेषज्ञों की भरती की गई थी.

आरटीआई के तहत दायर एक याचिका में जब एक प्रश्नकर्ता ने यह सवाल किया तो दो टूक जवाब यह मिला कि इसका ब्योरा उपलब्ध नहीं. एक तरह से यह लौटरी लग जाने जैसी बात है कि आप बैठेबिठाए आईएएस अधिकारी बन जाएं. जो ओहदा और रुतबा आप उम्र और वक्त रहते इस दौड़ में पिछड़ जाने के चलते या काबिल न होने के कारण हासिल नहीं कर पाए थे वह जिंदगी के उत्तरार्ध में तोहफे में मिल रहा है. सो, इसमें हर्ज क्या.

आरक्षण का भक्षण

लेटरल एंट्री का इतिहास महज 5 साल पुराना है हालांकि इसके पहले भी सरकार ऐसी भरतियां करती रही है लेकिन इन दोनों में बहुत अंतर है. भक्त लोग किसी भी आरोप से बचने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और रघुराम राजन जैसे आधाएक दर्जन नाम गिनाते यह साबित करने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं कि इसमें नया क्या है, यह रिवाज भी तो कांग्रेस ने शुरू किया था. ये लोग इस बात और तथ्य से कोई वास्ता नहीं रखते कि वे नियुक्तियां अपवाद और छिटपुट थीं और वाकई सरकार को ऐसे विषय विशेषज्ञों की जरूरत थी जो किसी इम्तिहान के जरिएनहीं मिलते.

आज की नियुक्तियां थोक में बाकायदा वैकेंसी निकाल कर की जा रही हैं, इसलिए उन्हें नियुक्ति की जगह भरती कहना ज्यादा बेहतर होगा.सरकार अगर एकाधदो नामी विशेषज्ञों को सीधे नियुक्ति देदे तो उस में कोई सवाल नहीं करेगा खासतौर से आरक्षण के बाबत जो लेटरल एंट्री की थोक भरतियों के बाद इस शक को यकीन में बदलता हुआ है कि भगवा गैंग धीरेधीरे जातिगत आरक्षण खत्म नहीं, तो कमजोर तो कर ही रहा है. और लेटरल एंट्री आधुनिक भारत केएकलव्यों के अंगूठे काटने का नया तरीका है.

लेटरल एंट्री से पिछड़ी और दलित जातियों की युवतियों को ज्यादा हानि हो रही है क्योंकि अब इन जातियों की युवतियों की बड़ी संख्या नौकरियों की प्रतियोगिता में सफल हो रही है. आरक्षणप्राप्त जातियों के युवाओं को तो खेतों, कारखानों में जगह मिल जाती है या फिर हिंदू धर्म के रक्षक बन कर कांवड़ ढोने जैसे काम कर जिंदगी बरबाद कर रहे हैं.

इन जातियों की युवतियों को घरों में रहना होता है और वे अपना समय पढ़ने में लगाती हैं. कम पैसे के बावजूद बिना महंगी कोचिंग के ये युवतियां परीक्षाओं में लड़कों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं और ऊंची जातियों के लड़कों व लड़कियों को पीछे छोड़ रही हैं. भाजपा सरकारों ने इन्हें योजनाबद्ध तरीके से हतोत्साहित करने का फैसला किया है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण साक्षी मलिक जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैडल जीतकर आई पहलवान लड़कियों की मांग को अनदेखा करना है.

इस प्रक्रिया में आरक्षण नियमों की बाध्यता नहीं है. इससे बड़ा नुकसान आरक्षित वर्ग के युवाओं का हो रहा है. अगर सरकार ने अब तक 200 आईएएस अधिकारी बैकडोर से बनाए हैं तो उनमें से आधे के लगभग पिछड़े, दलित और आदिवासी होने चाहिए जैसी कि आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है.

लेटरल एंट्री की सिफारिश कांग्रेस के शासनकाल में भी कई एजेंसियों ने की थी लेकिन सरकार ने साफ मना कर दिया था. प्रधानमंत्री बनने के बाद जो नए प्रयोग नरेंद्र मोदी ने किए उनमें से एक लेटरल एंट्री के जरिए कुलीनों को आईएएस अधिकारी बना देना है.

साल 2018 में जब सरकार ने यह फैसला लिया था तब सबसे ज्यादा विरोध उत्तरपश्चिम दिल्ली से भाजपा सांसद उदित राज ने यह कहते किया था कि इसमें आरक्षण का पालन नहींहो रहा है. इस गुस्ताखी के एवज में बाद में उन्हें भाजपा छोड़नी पड़ी थी. बाकी बातें जो उदित राज तब भाजपाई होने के नाते नहीं कर पाए थे. उन्हें कांग्रेसी सांसद पीएल पुनिया ने यह आरोप लगाते पूरा किया था कि इस फैसले के जरिए सरकार आरएसएस और भाजपा से जुड़े लोगों को पिछले दरवाजे से एंट्री दे रही है. उसने यूपीएससी की कड़ी चयन प्रक्रिया को हाशिए पर रख दिया है. इसमें आरक्षण नीति का पालन न करना सरकार की बदनीयती को दर्शाता है.

जाहिर है यह एक बड़ी चालाकी है जिसमें हल्ला मचने की गुंजाइश न के बराबर है. बहुत सीमित विरोध के साथ जितना हल्ला मचना था वह मच चुका है क्योंकि इससे आरक्षित वर्गों का सीधे और बड़ा नुकसान नहीं हो रहालेकिन इन वर्गों के सोचने वाले यानी हितचिंतकों की राय या चिंता कुछ और है कि सरकार आरक्षण पूरी तरह खत्म करने का जोखिम नहीं उठा सकती लेकिन वह आरक्षण को कमजोर तो कर ही सकती है. छोटे पदों पर आउटसोर्सिंग इसकी बेहतर मिसाल है.

इस प्रतिनिधि ने जब इस बाबत कुछ सरकारी विभागों को टटोला तो हैरतअंगेज बात यह उजागर हुई कि 80 फीसदी कंप्यूटर औपरेटर अनारक्षित वर्ग से हैं यानी सवर्ण हैं, बाकी 20 फीसदी में दलित, पिछड़े वर्ग के युवा हैं. आदिवासी तो न के बराबर हैं. भोपाल नगर निगम सहित मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी में छोटे अनियमित पदों पर काम कर रहे 80 फीसदी युवा सवर्ण हैं. इनकी जानकारी रखना और रखी भी हो तो सार्वजनिक करना या मीडिया को देना विभागों के लिए जरूरी नहीं है क्योंकि ये अस्थायी हैं और ठेका पद्धति से आए हैं.

हैरत की बात यह है कि सड़कों पर सुबहशाम झाड़ू लगा रही महिलाएं और पुरुष दलित जातियों के ही हैं. उनकी संख्या 90 फीसदी के लगभग है.यह इस डिजिटल दौर का मनुवाद और वर्णव्यवस्था है.

भाजपा शासित राज्यों सहित केंद्र सरकार भी नियमित रिक्तियां नहीं निकाल रही क्योंकि इसमें उन्हें आरक्षण रोस्टर का पालन करना पड़ेगा. ओडिशा के भीषण रेल हादसे के बाद पता चला था कि रेलवे में हजारों छोटेबड़े पद सालों से खाली पड़े हैं.इससे सरकार के पैसे तो बच ही रहे हैं, साथ ही, आरक्षितों को नौकरी देने की झंझट से भी वह बची हुई है. जानमाल के नुकसान पर दुख जता देने व खजाने से मुआवजा दे देने से सरकार अपनी जवाबदेही से बच जाती है.

सवर्णवाद आरक्षण पर एक साजिश के तहत भारी पड़ रहा है और दलित, पिछड़े, आदिवासी व अब गरीब भी इस ज्यादती पर खुलकर नहीं बोल पा रहे या विरोध कर पा रहे तो इसकी वजह उनके समुदाय का कमजोर नेतृत्व और एकजुटता का न होना ही है. उसे भी भगवा गैंग ने 9 साल में इतना कमजोर कर दिया है कि अब उसका अपने पैरों पर मजबूती से उठ खड़े होना एक कठिन चुनौती दिख रहा है.

सरकार की मंशा का हलका विरोध सोशल मीडिया पर हुआ था. एक यूजर सौम्या स्वीटी का यह ट्वीट जमकर वायरल हुआ था जिसमें उन्होंने कमैंट किया था कि ‘बिना परीक्षा दिए सवर्णों को आईएएस बना दिया और एससी, एसटी, ओबीसी वालों को भी निराश नहीं किया, उन्हें कांवड़ यात्रा के दौरान डीजे बजाने की छूट दी है.’

जब सरकार ने लेटरल एंट्री का फैसला लिया था तब दिग्गज दलित भाजपाई नेता खामोश रहे थे. इन में सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत सहित 2 और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान और रामदास अठावले के नाम प्रमुख हैं.सरकार की गोद में बैठे इन दलित नेताओं को अपने ही तबके के युवाओं का भविष्य और अधिकार नहीं दिखे थे लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने जरूर तुक की एक बात यह कही थी कि यूपीएससी द्वारा आयोजित इम्तिहान पास नहीं करने वालों को नियुक्त करने का फैसला मोदी सरकार की प्रशासनिक विफलता का संकेत है. यह नीति निर्माण के जरिए बड़े व्यवसायों को फायदा पहुंचाने की साजिश है.

तकनीकी तौर पर इस फैसले के चिथड़े आरजेडी सांसद मनोज झा ने यह बताते उड़ाए थे कि अनुच्छेद 15 (4) और अनुच्छेद 16 (4) के माध्यम से सार्वजानिक रोजगार में आरक्षण/प्रतिनिधित्व विचार को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के पदों को कम करके व्यवस्थित रूप से कमजोर किया जा रहा है.

मुखर दलित इंडियन चैंबरऔफ कौमर्स एंड इंडस्ट्री के संस्थापक अध्यक्ष मिलिंद काम्बले और एक वरिष्ठ दलित लेखक चंद्रभान प्रसाद भी रहे थे जिन्होंने यह तो कहा कि सरकार को आनुपातिक आरक्षण पर विचार करना चाहिए और यह एक संकेत है कि सरकार आरक्षण को खत्म करने की कोशिश कर रही है. लेकिन अब जबकि 2023 की भरतियां हो रही हैं तब इन लोगों के कहीं अतेपते नहीं हैं जिससे लगता है कि इन लोगों ने भी मोदी सरकार के सामने घुटने टेक दिए हैं.

भाजपा सरकारों का संदेश है कि आरक्षण समाप्त ही किया जाएगा और जो विरोध करेगा उन्हें उन्हीं की जातियों की पुलिस से पिटवाया जाएगा. लेटरल एंट्री सुबूत है कि अधिकतर अफसर तो ऊंची जातियों के ही रहेंगे और पिछड़े, दलित युवा, खासतौर पर युवतियां, भूल जाएं कि उन्हें कभी आरक्षण का लाभ मिलेगा या साष्टांग प्रणाम करने के बावजूद कोई हक मिलेगा.

और सच भी है क्योंकिसरकार बिना किसी लिहाज के छोटीबड़ी सभी सरकारी नौकरियों में  नीचे से ऊपर तक कुलीनों व सवर्णों के लिए अलग रास्ता बना रही है. ऐसे में कोई क्या कर लेगा. रहे कल के शूद्र रहे आज के दलित, पिछड़े और आदिवासी, तो वे बागेश्वर जैसे बाबाओं के दिव्य दरबारों में इफरात से हाजिरी देते खुद को सवर्णों जैसा समझ रहे हैं और इसके लिए वे अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई भी बतौर दक्षिणा चढ़ा रहे हैं.अब कौन उन्हें बताएव समझाए कि इसी साजिश ने उन्हें सदियों से पिछड़ा रखा है और आज सरकारी नौकरी से वंचित किया जा रहा है.

खोखली होती जड़ें : गलती पर पछतावा करते एक बेटे की कहानी

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पैरों में सूजन हाई बीपी की निशानी

निहारिका एक मीडिया संस्थान में कार्यरत है. काफी लंबे समय से उस को पैरों में दर्द की समस्या बनी हुई थी. मेट्रो की सीढ़ियां चढ़ते वक़्त या कार्यालय की सीढ़ियों पर वह रुकरुक कर चढ़ती थी. पैरों के जोड़ों में दर्द और कभीकभी की सूजन ने उसकी परेशानी बढ़ा रखी थी. अभी उम्र ही क्या थी, 35 की ही तो थी, लेकिन लगता था जैसे साठ साल की बुढ़िया की तरह चल रही है. कभीकभी बड़ी शर्म आती जब मेट्रो की सीढ़ियों पर बूढ़े लोग उससे ज़्यादा तेज़ी से चढते हुए प्लेटफार्म पर पहले पहुंच जाते थे. औफिस में निहारिका अपने पैरों को स्टूल पर रख कर बैठती थी. वरना कुरसी से लटकायएलटकायए सूजन इतनी बढ़ जाती थी कि शाम को छुट्टी के वक़्त अपनी चप्पल में पैर डालना मुश्किल हो जाता था. उसने जूते और बेलीज़ पहनना तो लगभग बंद ही कर दिया था. हील्स भी नहीं पहनती थी. बस, फ्लैट खुली चप्पलें ही पहन कर चली आती थी. रात को गर्म पानी में सेंधा नमक डाल कर पैरों की सिंकाई भी करती थी, लेकिन सूजन जाने का नाम ही नहीं ले रही थी.

निहारिका को समझ में ही नहीं आ रहा था कि उसकी एड़ियों और घुटनो में दर्द और सूजन की क्या वजह है. यूरिन टेस्ट भी करवा लिया था. उस में भी सब नौर्मल था. आखिर एक दिन ब्लडप्रेशर चेक करवाया तो 170/110 निकला. ‘आपका बीपी तो बहुत ज़्यादा है ! कब से रह रहा है इतना ज़्यादा बीपी ?’ डाक्टर ने हैरान हो कर पूछा तो निहारिका इतना ही कह पाई कि पता नहीं डॉक्टर साहब, कभी चेक ही नहीं करवाया.

खैर, डाक्टर ने तुरंत ही नमक और चीनी बंद करने को कहा और कुछ दवा और एक्सरसाइज बताई. एक हफ्ते के परहेज़ के बाद निहारिका को पैरों के दर्द और सूजन में कुछ राहत महसूस हुई. डायटीशियन से संपर्क कर के निहारिका ने अपने लिए डाइट चार्ट भी बनवाया. अब वह उसी चार्ट के मुताबिक़ परहेज़ी खाना खाती है और ढेर सारा पानी पीती है.

निहारिका हैरान है कि इतनी कम उम्र में उस को बीपी कैसे हो गया? यह तो बुढ़ापे का रोग होता है. पता नहीं कितने लंबे समय से वह बढे हुए बीपी के साथ सारे काम कर रही थी. शुरू के दिनों में तो उस ने पैरों के दर्द की ओर ध्यान ही नहीं दिया था. दर्द ज़्यादा होता तो वह कौम्बिफ्लेम जैसी दर्दनिवारक गोली खा कर काम में लग जाती थी. क्या पता था कि वह हाई ब्लडप्रेशर की शिकार होती जा रही है. अकसर लोग पैर के दर्द और सूजन को बीपी से नहीं जोड़ते हैं.

फोर्टिस अस्पताल में कार्यरत डाक्टर नीना बहल अपने एक मरीज़ का जिक्र करते हुए बताती हैं कि आशीष एक मल्टिनैशनल कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर हैं. उस पर काम का काफी प्रेशर है. पिछले कुछ समय से वह सिरदर्द और थकान से परेशान था. उस ने इस लक्षण को हलके में लिया और दर्द से राहत के लिए पेनकिलर लेता रहा. जब तक पेनकिलर का असर रहता, सिरदर्द से राहत रहती, लेकिन थकान में ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा था. फिर वह एक दिन मेरे पास आया. मैं ने उस से उस के फैमिली बैकग्राउंड के बारे में पूछा कि कहीं पेरेंट्स को तो हाई बीपी या हाइपरटेंशन की समस्या नहीं है? आशीष ने बताया कि उस की माँ को हाई ब्लडप्रेशर की शिकायत रहती है और वे उस के लिए लंबे समय से दवाएं खा रही हैं. मैं ने आशीष का बीपी टेस्ट किया तो उस का बीपी 177/109 निकला. काफी ज़्यादा था. फिर मैं ने उस को बीपी की दवा शुरू करवाई और लाइफस्टाइल और खानपान में भी काफी बदलाव किए. उस को हिदायत दी कि वह हर दिन जौगिंग और एक्सरसाइज करेगा. बेशक आशीष को बीपी की समस्या पिछले कुछ समय से नहीं बल्कि हो सकता है कि एक या दो साल से रह रही थी, लेकिन उस ने कभी ध्यान नहीं दिया. दरअसल, वह शरीर में उभर रहे लक्षणों को पहचान ही नहीं पाया और सिरदर्द और थकान को काम की वजह से होना मानते रहे.

क्या है हाई ब्लडप्रेशर या हाइपरटेंशन

डाक्टर नीना बहल कहती हैं कि बीपी या हाइपरटेंशन का सीधा संबंध दिल से है. दरअसल, शरीर के सभी अंगों या कोशिकाओं तक साफ खून पहुंचाने और फिर साफ खून का उपयोग अंगों या कोशिकाओं द्वारा करने के बाद खराब खून वापस किडनी और फेफड़ों में भेजने का काम दिल का ही होता है. दिल एक मिनट में यह काम अमूमन 70 से 75 बार करता है. जब सबकुछ सही रहता है तो हमारी खून की नाड़ियों में ब्लडप्रेशर 120/80 होता है. लेकिन खून की नाड़ियों में फैट जमा होने, किडनी की समस्या होने, तंबाकू आदि के सेवन की वजह से नाड़ियों का रास्ता संकरा हो जाता है या नाड़ियों का लचीलापन कम हो जाता है. इस वजह से दिल को विभिन्न अंगों और कोशिकाओं तक खून पहुंचाने और वापस लाने में ज्यादा जोर लगाना पड़ता है. यहीं से हाई बीपी या हाइपरटेंशन की शुरुआत होती है. अगर बीपी मशीन पर रीडिंग 120/80 से अधिक आए तो यह सामान्य नहीं है. 130/90 होने पर डाक्टर से सलाह कर लेना बेहतर है. अगर बीपी  180/120 हो तो देर न करें, तुरंत अस्पताल जाएं.

 हाइपरटेंशन के कारण

  •  खानदानी बीमारी

हाइपरटेंशन का बहुत बड़ा कारण आनुवंशिक होता है यानी अगर पेरेंट्स को हाइपरटेंशन की शिकायत रही है तो बच्चों में भी यह परेशानी हो सकती है. ऐसे में सवाल जरूर उठता है कि क्या इससे बचने का कोई उपाय नहीं है? उपाय जरूर है. अगर हम रूटीन और लाइफस्टाइल को दुरुस्त रखें तो हाइपरटेंशन की समस्या से बच सकते हैं.

  •  खराब लाइफस्टाइल

आजकल हाइपरटेंशन के मामले में खराब लाइफस्टाइल का रोल सब से बड़ा होता है. रात में देर तक जगना, सुबह देर तक सोना, न जौगिंग, न फिजिकल ऐक्टिविटीज, सूरज की रोशनी से दूरी, मेहनत से पसीना न निकालना… ऐसे तमाम कारणों से हमारी लाइफ पूरी तरह से डिस्टर्ब हो जाती है. नतीजा होता है हाइपरटेंशन.

  •  फिजिकल ऐक्टिविटी कम

अगर पेरेंट्स से हम तक हाइपरटेंशन की परेशानी पहुंचने का खतरा है तो हम फिजिकल ऐक्टिविटीज के द्वारा इसे काफी हद तक कम कर सकते हैं. अगर यह खतरा नहीं भी है तो भी हमें फिजिकल ऐक्टिविटीज को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. सच तो यह है कि ज्यादातर लोग न तो जौगिंग करते हैं और न ही एक्सरसाइज. ऐसे में मोटापा और बीपी का बढ़ जाना आम है.

  •  मोटापा

यह जेनेटिक भी हो सकता है और लाइफस्टाइल की वजह से भी. अगर जेनेटिक है तो भी लाइफस्टाइल को दुरुस्त कर के मोटापे से बच सकते हैं. सच तो यह है कि मोटापा सीधेतौर पर कोई बीमारी नहीं है, लेकिन इसकी वजह से शरीर बीमारियों का घर जरूर बन जाता है. हाइपरटेंशन के मामले में तो यह और भी खतरनाक हो जाता है. दरअसल, मोटापे की वजह से शरीर में वसा या कोलेस्ट्रोल सिर्फ स्किन के नीचे ही जमा नहीं होता, बल्कि यह शरीर के विभिन्न अंगों तक खून लाने और ले जाने वाली नाड़ियों में भी जमा हो जाता है. जिस से दिल पर अनावश्यक बोझ बढ़ता है और उसे बहुत ज़ोर लगाना पड़ता है.

  •  नींद पूरी न होना

स्वस्थ शरीर के लिए नींद का पूरा होना जरूरी है. हमारा रिलैक्स होना हमारे अंगों को ऊर्जा से भर देता है. दरअसल, जब हम नींद में होते हैं तो हमारे सभी अंग पूरी तरह से आराम कर रहे होते हैं. जब हम नींद पूरी नहीं करते तो हमारे अंगों को अतिरिक्त काम करना पड़ता है और नतीजा होता है अतिरिक्त दबाव.

  •  किडनी की समस्या

कई बार बीपी बढ़ने की वजह किडनी भी होती है. किडनी से रेनिन एंजियोटेंसिन सिस्टम के द्वारा शरीर में ब्लडप्रेशर को रेग्युलेट किया जाता है. साथ ही, यह फ्लूड और इलेक्ट्रोलाइट के बैलेंस में भी अहम भूमिका निभाता है. ऐसे में जब किडनी में समस्या होती है तो इस सिस्टम पर भी असर होता है और नतीजा होता है बीपी का बढ़ जाना. यही कारण है कि जिन की किडनी में समस्या होती है, उन में अमूमन बीपी की समस्या हो ही जाती है. अगर अचानक बीपी बढ़ गया हो और कोई कारण समझ में नहीं आ रहा हो तो डाक्टर की सलाह से किडनी का अल्ट्रासाउंड करवाना चाहिए. अगर बीपी किडनी की परेशानी की वजह से नहीं बढ़ा हो, किसी और वजह से बढ़ा हो तो भी किडनी का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है क्योंकि हाइपरटेंशन का सीधा असर किडनी पर पड़ता है.

  •  नमक ज्यादा लेना

शरीर के लिए नमक जरूरी है, लेकिन जब इसकी मात्रा शरीर में ज्यादा हो जाए तो बीपी बढ़ जाता है. दरअसल, इसकी वजह यह है कि खून में सोडियम की ज्यादा मौजूदगी खून के संतुलन को बिगाड़ देती है और किडनी की कार्यक्षमता को घटा देती है. इससे किडनी खून में मौजूद पानी को पूरी तरह से नहीं छान पाती. फिर शरीर में पानी की मात्रा बढ़ जाती है. इससे दिल पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है और बीपी बढ़ जाता है.

  •  नौनवेज ज्यादा लेना

मांसाहारी भोजन में वसा की मात्रा अमूमन ज्यादा होती है. वहीं इसे ज्यादा तापमान और ज्यादा चिकनाई में पकाना भी पड़ता है. इस वजह से इन्हें खाने से हाई बीपी की समस्या होने का खतरा बना रहता है.

शराब, तंबाकू का सेवन

इन सभी नशीले पदार्थों के सेवन से खून का रासायनिक संतुलन बिगड़ जाता है. लिहाज़ा, बीपी बढ़ जाता है.

  •  तनाव है बड़ी वजह

तनाव सभी बीमारियों की जड़ है. इसलिए हमें चिंता नहीं, चिंतन करना चाहिए. तनाव की वजह से हमारी नींद खराब होती है. तनाव से हाइपरटेंशन और इससे शुगर और दूसरी बीमारियां होती हैं.

हाइपरटेंशन के लक्षण

– सिर दर्द या सिर में भारीपन

– थकावट

– पैरों के जोड़ो में सूजन और दर्द

– चिड़चिड़ापन या जल्दी और तेज गुस्सा आना

– आंखों में परेशानी

– सीने में दर्द

– सांस लेने में परेशानी

– अनियमित धड़कन

– धड़कनों का बढ़ जाना (ट्रैकी कार्डिया)

– कानों में सनसनाहट

– जबड़ों में जकड़न

– कुछ मामलों में पेशाब में खून

– सांस फूलना

हाइपरटेंशन का नतीजा

– दिल का कमजोर होना

– रक्त नलिकाओं का कमजोर होना

– हार्टअटैक का खतरा

– ब्रेनस्ट्रोक का खतरा

– पैरों की नसें खराब होना

– पैरों में सूजन

– आंखों की परेशानी

– किडनी की परेशानी

– नींद में कमी

लाइफस्टाइल करें दुरुस्त

रूटीन को सुधारें

– हाइपरटेंशन को काबू में रखने के लिए यह जरूरी है कि हम लाइफस्टाइल को बेहतर बनाएं. इस के लिए एक सही रूटीन को फौलो करें. सुबह उठने से ले कर रात में सोने तक की टाइमिंग सही हो.

– औफिस की टेंशन को औफिस में छोड़ें और घर पर फ्री हो कर लौटें. वैसे आजकल ज्यादातर लोगों का वर्क फ्रौम होम है, ऐसे में इस बात का ध्यान रखना और भी जरूरी है.

– इंसान के हाथ में सबकुछ नहीं होता, यह सोच कर आगे बढ़ना चाहिए.

– पिछली गलतियों को सुधारा नहीं जा सकता, लेकिन उन से सीख कर आगे की गलती से बच सकते हैं. पछताने से कोई फायदा नहीं होता. ऐसा सोचने से तनाव जरूर कम होता है. इस से पौजिटिविटी डेवेलप होती है.

– हर दिन सुबह 10 से 15 मिनट मेडिटेशन करने से तनाव काफी कम होता है. यह हमें आपात स्थिति को भी बेहतर तरीके से संभालने में सक्षम बनाता है.

सही खानपान

मैग्नीशियम वाला भोजन

ऐसे फूड का चुनाव करें, जिन में मैग्नीशियम की मात्रा ज्यादा हो. मसलन, सभी तरह के सीड्स (लौकी के बीज, फ्लैक्स सीड आदि), काजू और हरी पत्तेदार सब्जियां. हर दिन अगर हम एक चम्मच लौकी के बीज या सूरजमुखी के बीज अथवा अलसी के भुने हुए बीज या 2 से 3 काजू की कली खाएं तो हमारा काम चल जाएगा. वहीं हरी सब्जियों को रूटीन के हिसाब से ही एक कटोरी हर दिन खाने से मैग्नीशियम की कमी नहीं होगी. अगर किसी के शरीर में मैग्नीशियम की कमी ज्यादा हो गई है तो डाक्टर की सलाह से मैग्नीशियम का सप्लिमेंट ले सकते हैं. मैग्नीशियम एक नेचुरल एंटीडिप्रेशंट एजेंट है. नींद लाने में भी मदद करता है.

चिकनाई कम

हाइपरटेंशन को कम करने में हमारे खानपान का काफी अहम रोल होता है. अगर हाइपरटेंशन से बचना है तो ज्यादा फैट (घी, रिफाइंड और तेल) और मसाले वाले खाने से जरूर बचें. जिन्हें इस परेशानी ने घेर लिया है, उन के लिए तो चिकनाई वाला खाना 15 दिन में एक बार ही होना चाहिए.

नमक बहुत कम

खाने में ऊपर से नमक ले कर खाने की आदत जरूर बंद दें. जिन्हें हाइपरटेंशन की समस्या है, उन के लिए तो यह जरूरी है कि नमक सामान्य से भी कम लें. हर दिन 3 से 5 ग्राम (लगभग 1 छोटा चम्मच) नमक काफी है. कई लोग ऊपर से नमक लेते हैं, यह हानिकारक है. नमकीन, मिक्सचर को न कहें. सेंधा नमक दूसरे नमक की तुलना में कुछ बेहतर हो सकता है.

हरीसब्जी, फल की मात्रा बढ़ाएं

हर दिन सब्जियों और फलों का सेवन करें. सब्जियों में पालक और दूसरे साग, बंद गोभी आदि का सेवन खूब करें.

मैं एक लड़के से प्यार करती हूं, लेकिन वह सिर्फ मेरे शरीर से प्यार करता है, मैं क्या करूं?

सवाल
मैं 17 साल की युवती हूं, एक लड़के से प्यार करती हूं, लेकिन वह सिर्फ मेरे शरीर से प्यार करता है. वह मेरे अलावा और भी कई लड़कियों से संबंध बनाता है. मैं यह सब जानते हुए भी उसे नहीं छोड़ पा रही हूं, जब मेरी उस से बात नहीं होती तो मैं बेचैन हो जाती हूं, लेकिन उस को कोई फर्क नहीं पड़ता. आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?

जवाब
प्यार हमेशा उस से किया जाता है जो आप की और आप की फीलिंग्स की कद्र करे, न कि उस से जो आप को सिर्फ यूज करे. ऐसा कर के वह सिर्फ अपने शरीर की भूख को शांत कर रहा है क्योंकि आप उसे अपने शरीर के साथ खेलने की इजाजत जो दे रही हैं.

जब आप के सामने पूरी पिक्चर साफ है तो उस से दूरी बनाने में ही समझदारी है वरना आप को जीवनभर पछताना पड़ सकता है. उसे भूलने के लिए आप उस की यादों को मिटा डालिए. भले ही शुरुआत में ऐसा करना मुश्किल होगा लेकिन धीरेधीरे आप को उस के बिना रहने की आदत पड़ जाएगी.

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सैक्स: मजा न बन जाए सजा

पहले प्यार होता है और फिर सैक्स का रूप ले लेता है. फिर धीरेधीरे प्यार सैक्स आधारित हो जाता है, जिस का मजा प्रेमीप्रेमिका दोनों उठाते हैं, लेकिन इस मजे में हुई जरा सी चूक जीवनभर की सजा में तबदील हो सकती है जिस का खमियाजा ज्यादातर प्रेमी के बजाय प्रेमिका को भुगतना पड़ता है भले ही वह सामाजिक स्तर पर हो या शारीरिक परेशानियों के रूप में. यह प्यार का मजा सजा न बन जाए इसलिए कुछ बातों का ध्यान रखें.

सैक्स से पहले हिदायतें

बिना कंडोम न उठाएं सैक्स का मजा

एकदूसरे के प्यार में दीवाने हो कर उसे संपूर्ण रूप से पाने की इच्छा सिर्फ युवकों में ही नहीं बल्कि युवतियों में भी होती है. अपनी इसी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए वे सैक्स तक करने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन जोश में होश न खोएं. अगर आप अपने पार्टनर के साथ प्लान कर के सैक्स कर रहे हैं तो कंडोम का इस्तेमाल करना न भूलें. इस से आप सैक्स का बिना डर मजा उठा पाएंगे. यहां तक कि आप इस के इस्तेमाल से सैक्सुअल ट्रांसमिटिड डिसीजिज से भी बच पाएंगे.

अब नहीं चलेगा बहाना

अधिकांश युवकों की यह शिकायत होती है कि संबंध बनाने के दौरान कंडोम फट जाता है या फिर कई बार फिसलता भी है, जिस से वे चाह कर भी इस सेफ्टी टौय का इस्तेमाल नहीं कर पाते. वैसे तो यह निर्भर करता है कंडोम की क्वालिटी पर लेकिन इस के बावजूद कंडोम की ऐक्स्ट्रा सिक्योरिटी के लिए सैक्स टौय बनाने वाली स्वीडन की कंपनी लेलो ने हेक्स ब्रैंड नाम से एक कंडोम बनाया है जिस की खासीयत यह है कि सैक्स के दौरान पड़ने वाले दबाव का इस पर असर नहीं होता और अगर छेद हो भी तो उस की एक परत ही नष्ट होती है बाकी पर कोई असर नहीं पड़ता. जल्द ही कंपनी इसे मार्केट में उतारेगी.

ऐक्स्ट्रा केयर डबल मजा

आप के मन में विचार आ रहा होगा कि इस में डबल मजा कैसे उठाया जा सकता है तो आप को बता दें कि यहां डबल मजा का मतलब डबल प्रोटैक्शन से है, जिस में एक कदम आप का पार्टनर बढ़ाए वहीं दूसरा कदम आप यानी जहां आप का पार्टनर संभोग के दौरान कंडोम का इस्तेमाल करे वहीं आप गर्भनिरोधक गोलियों का. इस से अगर कंडोम फट भी जाएगा तब भी गर्भनिरोधक गोलियां आप को प्रैग्नैंट होने के खतरे से बचाएंगी, जिस से आप सैक्स का सुखद आनंद उठा पाएंगी.

कई बार ऐसी सिचुऐशन भी आती है कि दोनों एकदूसरे पर कंट्रोल नहीं कर पाते और बिना कोई सावधानी बरते एकदूसरे को भोगना शुरू कर देते हैं लेकिन जब होश आता है तब उन के होश उड़ जाते हैं. अगर आप के साथ भी कभी ऐसा हो जाए तो आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियों का सहारा लें लेकिन साथ ही डाक्टरी परामर्श भी लें, ताकि इस का आप की सेहत पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े.

पुलआउट मैथड

पुलआउट मैथड को विदड्रौल मैथड के नाम से भी जाना जाता है. इस प्रक्रिया में योनि के बाहर लिंग निकाल कर वीर्यपात किया जाता है, जिस से प्रैग्नैंसी का खतरा नहीं रहता. लेकिन इसे ट्राई करने के लिए आप के अंदर सैल्फ कंट्रोल और खुद पर विश्वास होना जरूरी है.

सैक्स के बजाय करें फोरप्ले

फोरप्ले में एकदूसरे के कामुक अंगों से छेड़छाड़ कर के उन्हें उत्तेजित किया जाता है. इस में एकदूसरे के अंगों को सहलाना, उन्हें प्यार करना, किसिंग आदि आते हैं. लेकिन इस में लिंग का योनि में प्रवेश नहीं कराया जाता. सिर्फ होता है तन से तन का स्पर्श, मदहोश करने वाली बातें जिन में आप को मजा भी मिल जाता है, ऐंजौय भी काफी देर तक करते हैं.

अवौइड करें ओरल सैक्स

ओरल सैक्स नाम से जितना आसान सा लगता है वहीं इस के परिणाम काफी भयंकर होते हैं, क्योंकि इस में यौन क्रिया के दौरान गुप्तांगों से निकलने वाले फ्लूयड के संपर्क में व्यक्ति ज्यादा आता है, जिस से दांतों को नुकसान पहुंचने के साथसाथ एचआईवी का भी खतरा रहता है.

यदि इन खतरों को जानने के बावजूद आप इसे ट्राई करते हैं तो युवक कंडोम और युवतियां डेम का इस्तेमाल करें जो छोटा व पतला स्क्वेयर शेप में रबड़ या प्लास्टिक का बना होता है जो वैजाइना और मुंह के बीच दीवार की भूमिका अदा करता है जिस से सैक्सुअल ट्रांसमिटिड डिजीजिज का खतरा नहीं रहता.

पौर्न साइट्स को न करें कौपी

युवाओं में सैक्स को जानने की इच्छा प्रबल होती है, जिस के लिए वे पौर्न साइट्स को देख कर अपनी जिज्ञासा शांत करते हैं. ऐसे में पौर्न साइट्स देख कर उन के मन में उठ रहे सवाल तो शांत हो जाते हैं लेकिन मन में यह बात बैठ जाती है कि जब भी मौका मिला तब पार्टनर के साथ इन स्टैप्स को जरूर ट्राई करेंगे, जिस के चक्कर में कई बार भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है. लेकिन ध्यान रहे कि पौर्न साइट्स पर बहुत से ऐसे स्टैप्स भी दिखाए जाते हैं जिन्हें असल जिंदगी में ट्राई करना संभव नहीं लेकिन इन्हें देख कर ट्राई करने की कोशिश में हर्ट हो जाते हैं. इसलिए जिस बारे में जानकारी हो उसे ही ट्राई करें वरना ऐंजौय करने के बजाय परेशानियों से दोचार होना पड़ेगा.

सस्ते के चक्कर में न करें जगह से समझौता

सैक्स करने की बेताबी में ऐसी जगह का चयन न करें कि बाद में आप को लेने के देने पड़ जाएं. ऐसे किसी होटल में शरण न लें जहां इस संबंध में पहले भी कई बार पुलिस के छापे पड़ चुके हों. भले ही ऐसे होटल्स आप को सस्ते में मिल जाएंगे लेकिन वहां आप की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होती.

हो सकता है कि रूम में पहले से ही कैमरे फिट हों और आप को ब्लैकमैल करने के उद्देश्य से आप के उन अंतरंग पलों को कैमरे में कैद कर लिया जाए. फिर उसी की आड़ में आप को ब्लैकमेल किया जा सकता है. इसलिए सावधानी बरतें.

अलकोहल, न बाबा न

कई बार पार्टनर के जबरदस्ती कहने पर कि यार बहुत मजा आएगा अगर दोनों वाइन पी कर रिलेशन बनाएंगे और आप पार्टनर के इतने प्यार से कहने पर झट से मान भी जाती हैं. लेकिन इस में मजा कम खतरा ज्यादा है, क्योंकि एक तो आप होश में नहीं होतीं और दूसरा पार्टनर इस की आड़ में आप के साथ चीटिंग भी कर सकता है. हो सकता है ऐसे में वह वीडियो क्लिपिंग बना ले और बाद में आप को दिखा कर ब्लैकमेल या आप का शोषण करे.

न दिखाएं अपना फोटोमेनिया

भले ही पार्टनर आप पर कितना ही जोर क्यों न डाले कि इन पलों को कैमरे में कैद कर लेते हैं ताकि बाद में इन पलों को देख कर और रोमांस जता सकें, लेकिन आप इस के लिए राजी न हों, क्योंकि आप की एक ‘हां’ आप की जिंदगी बरबाद कर सकती है.

सैक्स के बाद के खतरे

ब्लैकमेलिंग का डर

अधिकांश युवकों का इंट्रस्ट युवतियों से ज्यादा उन से संबंध बनाने में होता है और संबंध बनाने के बाद उन्हें पहचानने से भी इनकार कर देते हैं. कई बार तो ब्लैकमेलिंग तक करते हैं. ऐसे में आप उस की ऐसी नाजायज मांगें न मानें.

बीमारियों से घिरने का डर

ऐंजौयमैंट के लिए आप ने रिलेशन तो बना लिया, लेकिन आप उस के बाद के खतरों से अनजान रहते हैं. आप को जान कर हैरानी होगी कि 1981 से पहले यूनाइटेड स्टेट्स में जहां 6 लाख से ज्यादा लोग ऐड्स से प्रभावित थे वहीं 9 लाख अमेरिकन्स एचआईवी से. यह रिपोर्ट शादी से पहले सैक्स के खतरों को दर्शाती है.

मैरिज टूटने का रिस्क भी

हो सकता है कि आप ने जिस के साथ सैक्स रिलेशन बनाया हो, किसी मजबूरी के कारण अब आप उस से शादी न कर पा रही हों और जहां आप की अब मैरिज फिक्स हुई है, आप के मन में यही डर होगा कि कहीं उसे पता लग गया तो मेरी शादी टूट जाएगी. मन में पछतावा भी रहेगा और आप इसी बोझ के साथ अपनी जिंदगी गुजारने को विवश हो जाएंगी.

डिप्रैशन का शिकार

सैक्स के बाद पार्टनर से जो इमोशनल अटैचमैंट हो जाता है उसे आप चाह कर भी खत्म नहीं कर पातीं. ऐसी स्थिति में अगर आप का पार्टनर से बे्रकअप हो गया फिर तो आप खुद को अकेला महसूस करने के कारण डिप्रैशन का शिकार हो जाएंगी, जिस से बाहर निकलना इतना आसान नहीं होगा.

कहीं प्रैग्नैंट न हो जाएं

आप अगर प्रैग्नैंट हो गईं फिर तो आप कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगी. इसलिए जरूरी है कोई भी ऐसावैसा कदम उठाने से पहले एक बार सोचने की, क्योंकि एक गलत कदम आप का भविष्य खराब कर सकता है. ऐसे में आप बदनामी के डर से आत्महत्या जैसा कदम उठाने में भी देर नहीं करेंगी.

पश्चिम बंगाल : न राम न वाम

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव नतीजों में आंकड़ों से ज्यादा अहमियत चेहरों की है, जहां 2 ही चेहरे थे- पहला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का और दूसरा वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का.

मोदी कट्टर हिंदुत्व का प्रतीक हैं जो हर समय यही राग अलापते रहते हैं कि पश्चिम बंगाल में हिंदुओं को दुर्गा पूजा नहीं करने दी जाती जबकि दुनिया जानती है कि वहां दुर्गा पूजा बड़े जोरशोर से होती है और ममता बनर्जी इस में न केवल बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती हैं बल्कि पंडालों के लिए उदारतापूर्वक सरकारी खजाने से पैसा भी देती हैं.

ममता बनर्जी की छवि धर्मनिरपेक्ष नेता की है जो न केवल सियासी, बल्कि सामाजिक तौर पर राज्य के 30% मुसलमानों की अहमियत समझती हैं। लेकिन उन के साथ हिंदुओं की तादाद भी कम नहीं है जो यह मानते और समझते हैं कि राज्य की सुखशांति और भविष्य उन्हीं के हाथों में सुरक्षित है. आएदिन जो हिंसा होती रहती है उस में कट्टर हिंदूवादियों का रोल अहम रहता है, जिन्हें वे भाजपाई गुंडे कहती रहती हैं।

पंचायत चुनाव के दौरान 10 जुलाई की हिंसा सांप्रदायिक थी या नहीं थी यह कह पाना मुश्किल काम है, मगर दुखद यह रहा कि इस हिंसा में तकरीबन 47 लोग मारे गए थे, जिन में अधिकतर टीएमसी के कार्यकर्त्ता थे।

बड़े पैमाने पर हिंसा

छोटे चुनावों में हिंसा आम बात है जो सभी राज्यों में होती है लेकिन पश्चिम बंगाल में इस बार यह बड़े पैमाने पर हुई। चुनाव की तरह हिंसा में भी वाम दलों और कांग्रेस की भूमिका तमाशबीन की ही थी जो मैदान में होने भर को थे। नतीजों पर नजर डालें तो लगता है नंबर 2 पर आई भाजपा के हाथ भी कुछ खास नहीं लगा है. टीएमसी की आंधी ने पूरे विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया है.

एक तरह से यह ममता बनर्जी के प्रति जताया गया भरोसा है जिसे अगले साल लोकसभा और फिर 2026 के विधानसभा चुनाव तक कायम रखना ममता के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा क्योंकि भाजपा चुनाव हारी है हिम्मत अभी नहीं हारी है. पश्चिम बंगाल का माहौल बिगाड़ने की उस की कोशिशें थम जाएंगी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं है.

ममता का जादू चल गया

त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में ग्राम पंचायत की कुल 63,229 सीटों में से (घोषित 54,478) टीएमसी ने 35,500 सीटें जीतीं जबकि भाजपा के खातें में महज 9,877 सीटें गईं। सीपीएम गठबंधन ने 3,154 और कांग्रेस ने 2,611 सीटें जीतीं। अन्य और निर्दलीय 3,286 सीटों पर जीते.

पंचायत समिति की 9,730 सीटों में से (घोषित 8460) टीएमसी ने 6,651 सीटें जीतीं जबकि भाजपा ने 1,038 सीटें जीतीं। सीपीएम के खाते में 200 और कांग्रेस के खाते में 273 सीटें गईं. अन्य व निर्दलीयों ने 298 सीटें जीतीं.

सब से अहम थी जिला परिषद की 928 सीटें जिन पर सभी की नजरें थीं। इन में से 880 सीट जीत कर टीएमसी ने अपना दबदबा कायम रखा. भाजपा 31 सीटों पर सिमट कर रह गई तो सीपीएम को महज 2 सीटों से तसल्ली करना पड़ा. कांग्रेस 13 सीटें जीत कर तीसरे नंबर पर रही। अन्य और निर्दलीय 2 सीटों पर जीते।

कुछ सीटों के नतीजे अभी स्पष्ट नहीं हुए हैं लेकिन यह साफ हो गया है कि टीएमसी की झोली मतदाताओं ने 85% सीटों के साथ भर दी है जिसे 70% के लगभग वोट मिले हैं. इस चुनाव में 5 करोड़ 67 लाख वोटर्स में से 81% ने वोट किया था.

भाजपा को झटका

पंचायत चुनाव से भाजपा को उम्मीद थी कि पिछले लोकसभा का ट्रैंड बरकरार रहेगा और वोटर का इरादा अभी बहुत ज्यादा बदला नहीं होगा। गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 42 में से 18 सीटें 40% वोट के साथ मिली थीं जो ममता बनर्जी के लिए खतरे का अलार्म था। तब ऐसा माना जाने लगा था कि कभी श्यामा प्रसाद मुखर्जी का हिंदुत्व खारिज कर देने बाले पश्चिम बंगाल को नरेंद्र मोदी और भाजपा का हिंदुत्व रास आ गया है. लेकिन तब सियासी पंडितों को यह भी समझ आया था कि दरअसल में सीपीएम और कांग्रेस का वोट बैंक भाजपा की तरफ शिफ्ट हो गया है, टीएमसी का तो बरकरार है। लेकिन यह भी बहुत बड़ा खतरा था जिसे ममता बनर्जी नजरंदाज करने की स्थिति में नहीं थीं।

ममता का उपहास भारी पङा

फिर आया 2021 का विधानसभा चुनाव जिस में लोकसभा नतीजों से उत्साहित भाजपा ने खुद को पूरी तरह झोंक दिया था और ममता बनर्जी के कथित मुसलिम तुष्टिकरण को मुद्दा बनाने की कोशिश की जो कि चला नहीं। चुनाव प्रचार के आखिरी चरण में नरेंद्र मोदी का एक खास अपमानजनक और उपहासजनक अंदाज में ममता बनर्जी को “दीदी ओ दीदी….” कहना काफी महंगा साबित हुआ था. भाजपा को तब 292 में से 77 सीटें (38% वोट) मिली थीं लेकिन टीएमसी के खातें में रिकौर्ड 215 सीटें (48% वोट ) गई थीं। लैफ्ट और कांग्रेस जीरो पर सिमट कर रह गए थे। इस चुनाव में भी जाहिर है, भाजपा को वामदलों और कांग्रेस के हिस्से का वोट मिला था।

पंचायत चुनाव नतीजों ने साफ कर दिया है कि वामदलों और कांग्रेस का जो वोट भाजपा को जा रहा था वह अब टीएमसी की तरफ टर्न हो रहा है जिस के मद्देनजर भाजपा को लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं लगाना चाहिए क्योंकि मोदी और हिंदुत्व का जादू और प्रभाव दोनों गांवदेहातों तक से खारिज हो चुके हैं। असल में पश्चिम बंगाल के मुसलमान और आदिवासी भाजपा का नया शिगूफा यूसीसी जो धौंस की शक्ल में है, पसंद नहीं कर रहे हैं जिस को ले कर उन का गुस्सा चुनाव में फूटा भी। ये दोनों ही तबके गांवोंकसबों में बड़ी तादाद में रहते हैं।

नहीं चलेगा उत्तर भारतीय हिंदुत्व

कर्णाटक विधानसभा चुनाव नतीजों से ही साबित हो गया था कि राम नामी हिंदुत्व हिंदी भाषी राज्यों के अलावा कहीं और नहीं चलेगा और वहां भी और ज्यादा घिसट पाएगा, ऐसे आसार दिख नहीं रहे. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का माहौल जहां इस साल के आखिर में चुनाव हैं, देखते लग नहीं रहा कि काठ की यह हांडी चुनावी चूल्हे पर चढ़ पाएगी।

रामनामी हिंदुत्व सनातनी है और वर्ण व्यवस्था पर आधारित है। ऐसा नहीं है कि पश्चिम बंगाल में जातिवाद या जातिगत छुआछूत नहीं है या नहीं थे वहां तो बल्कि और ज्यादा थे। बंगला साहित्य और फिल्में इस की गवाह हैं। लेकिन 60 के दशक में चारू मजूमदार के नक्सली आंदोलन ने भद्र सवर्ण बंगालियों की मुश्कें कस दी थीं। नक्सली आंदोलन मूलतया जमींदारी और शोषण के खिलाफ था जो बाद में दक्षिणी राज्यों सहित ओडिशा, मध्य प्रदेश और बिहार में भी फैला।

धार्मिक इतिहास की छाप

चारू मजूमदार के डेढ़ दशक पहले कट्टर हिंदूवादी नेता डाक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा से अलग हो कर जनसंघ की स्थापना की थी जिस का सावरकर छाप राष्ट्रवाद और हिंदुत्व हिंदी भाषी इलाकों में तो चला लेकिन नक्सल प्रभावित राज्यों में नहीं, क्योंकि इन इलाकों का हिंदू उत्तर भारत के हिंदुओं से अलग है. वह न तो राम का उपासक है और न ही कृष्ण का यानी विष्णु अवतारों को वह नहीं मानता। इसलिए रामायण और गीता भी वहां दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं है। व्रतउपवास के दिनों में वहां मांसाहार वर्जित नहीं है. पश्चिम बंगाल के सवर्ण हालांकि कृष्ण को पूजते हैं लेकिन उन का कृष्ण मथुरा, द्वारका और महाभारत के कृष्ण से एकदम अलग है.

इस धार्मिक इतिहास की छाप अभी भी दिखती है. पश्चिम बंगाल में नरेंद्र मोदी अब “जय श्रीराम…” का उद्घोष अब नहीं करते। एकाध बार कोशिश की थी तो ममता बनर्जी ने उस का सार्वजनिक विरोध किया था जिस पर आम लोगों ने कोई एतराज नहीं जताया था क्योंकि वे दुर्गा और काली के उपासक हैं. इसीलिए ममता बनर्जी का चंडी पाठ विधानसभा चुनाव में खासा चर्चित रहा था।

60 के दशक के बाद चारू मजूमदार का नक्सलवादी आंदोलन श्यामाप्रसाद मुखर्जी के राष्ट्रवाद पर इतना भारी पड़ा था कि वहां उस का कोई नामलेवा नहीं बचा था. फिर लंबे वक्त तक वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल पर शासन किया. बुद्धदेव भट्टाचार्य के पहले मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु के राजकाज में गरीब मजदूर आंखें मुंदे कम्युनिस्टों को अपना मसीहा मानते रहे.

लेकिन जैसे ही वामपंथियों ने पूंजीपतियों से पींगे बढ़ाना शुरू कीं तो जनता ने ममता बनर्जी को सत्ता सौंप दी जो अभी तक तो उन की उम्मीदों पर खरी उतर रहीं हैं. पंचायत चुनावों में टीएमसी को मिली भारी कामयाबी इस की गवाह है और यह मैसेज भी देती है कि अब वहां न तो राम चलेगा न वाम, इस लिहाज से कांग्रेस कुछ उम्मीदें लगा सकती है, जो इन चुनाव में तीसरे नंबर पर रही है।

अनुपमा के बगैर टूट जाएगा अनुज, छोटी अनु को शाह हाउस ले जाएगी काव्या?

Anupama Upcoming Twist : छोटे पर्द पर इस समय रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना का शो ‘अनुपमा’ खूब सुर्खियां बटोर रहा है. साथ ही सीरियल की टीआरपी रेटिंग भी पहले के मुकाबले दोगुनी हो गई है. शो के करंट ट्रैक की बात करें तो बीते एपिसोड में दिखाया गया था कि अनुपमा दिल पर पत्थर रखकर अमेरिका जाने की फ्लाइट में बैठ जाती है. हालांकि उसे छोटी अनु की चिंता हो रही थी, लेकिन उसे लगा कि अनुज उसका ध्यान रख लेंगे.

वहीं दूसरी तरफ छोटी अपनी मां को ढूंढते हुए पूरे घर में भागती है और जमीन पर गिर जाती है. अनुज के लिए उसे ऐसी हालत में संभालना मुश्किल हो जाता है. इसके अलावा आगामी एपिसोड (Anupamaa New Episode) में एक और ट्विस्ट देखने को मिलेगा, जिसके बाद दर्शक दंग रह जाएंगे.

मां-पापा दोनों का फर्ज निभाएगा अनुज

आज के एपिसोड (Anupamaa New Episode) में दिखाया जाएगा कि अनुज छोटी को समझाता है कि अनुपमा अब यहां कभी वापस नहीं आएगी. हालांकि छोटी अनु के साथ-साथ वह खुद को भी समझाने की कोशिश करता है कि उसे अपनी आगे की जिंदगी अनुपमा के बगैर जीनी सीखनी होगी. वह छोटी से कहता है कि, ‘भले ही आपकी मम्मी यहां नहीं हैं, लेकिन मैं आपको मां और पापा दोनों का प्यार दूंगा.’ इसके बाद दिखाया जाएगा कि, जब एक कमरे में बैठकर अनुज रो रहा होता है तो वहां उसे अनुपमा की झलक दिखाई देती है. जो उसके पास आकर बैठती है और उसके आंसू पोछती है.

अनुपमा को पड़ेगा चाटा

इसके अलावा आगे दिखाया जाएगा कि छोटी अनु को काव्या संभालती है और उसका ध्यान रखती है. वहीं जब सब लोग एक दूसरे को दिलासा दे रहे होते हैं तो घर की घंटी बजती है. जब अनुज गेट खोलता है तो उसे वहां रोती हुई अनुपमा दिखाई देती है. जो अनुज के गले लगकर कहती है कि मैं (Anupamaa New Episode) नहीं रह सकती आपसे दूर. फिर वहां गुरू मां भी पहुंच जाती है, जो अनुपमा को चाटा मारती है और उसे चैलेंज देती है कि वो उसकी जिंदगी बर्बाद कर देंगी. हालांकि इसे देखने के बाद ऐसा लग रहा है कि अब जल्द ही शो में एक नया ट्विस्ट आएगा.

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