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तुम्हारे हिस्से में : भाग 2

‘‘अरे, वंडरफुल आइडिया, यार,’’ बुलबुल के जिक्र मात्र से ही हर्ष रोमांच से भर गया.

बुलबुल संजना की इकलौती बहन थी. शोख व चंचल. रूप और लावण्य में संजना से दो कदम आगे. 12वीं कक्षा में कौमर्स की छात्रा. शादी की गहमागहमी में तो परिचय बस औपचारिक ही रहा था, पर सप्ताह भर बाद ‘पीठफेरी’ पर संजना को लिवाने हर्ष गया तो संकोचों की बालुई दीवार को ढहते देर नहीं लगी. 3 दिनों का प्रवास था. एक दिन मैथान डैम की सैर का प्रोग्राम बना. डैम देख चुकने के बाद तीनों समीप के पार्क में चले गए. अचानक संजना की नजर दूर खड़े आइसक्रीम के ठेले पर पड़ी तो वह उठ कर आइसक्रीम लाने चली गई. बरगद की ओट. रिश्ते की अल्हड़ता और बुलबुल की आंखों से झरती महुआ की मादक गंध. हर्ष ने आगे बढ़ कर बुलबुल के होंठों पर चुंबन जड़ दिया.

हर्ष की उंगलियां अनायास ही होंठों पर चली गईं. बुलबुल के होंठों का गीलापन अभी भी कुंडली मारे बैठा था वहां. सिहरन से लरज कर हर्ष चहका, ‘‘जींसटौप के साथसाथ एक साड़ी भी ले लो. अपनी जैसी प्राइस रेंज की लेना, ठीक?’’

दोनों वापस एस्केलेटर पर सवार हो कर ऊपर की ओर बढ़ गए.

रमा सिलाई मशीन से उठ कर बाहर बरामदे में आ गई. मशीन पर लगातार 5 घंटे बैठने से पीठ और कमर अकड़ गई थी. सूई की ओर लगातार नजरें गड़ाए रखने से आंखें जल रही थीं. रात के 11 बज रहे थे. बाहर रात की काली चादर पर आधे चांद की धूसर चांदनी झर रही थी. अंधेरे के अदृश्य कोनों से झींगुरों का समवेत रुदन सन्नाटे को रहस्यमय बना रहा था.

चैन नहीं पड़ा तो वापस कोठरी में लौट आई. कोठरी के भीतर बिखरे सामान को देख कर हंसी छूट गई. मरम्मत की हुई पुरानी सिलाई मशीन. पास ही कपड़ों के ढेर, जो महाजनों के यहां से रफू के लिए आए थे. मरम्मत की हुई पुरानी खड़खड़ करती टेबल. बरतनभांडे, दीवार, छत, कपड़ेलत्ते, खाटखटोले सब के सब जैसे रफूमय हों, मरम्मत किए हुए.

रमा ब्याह कर पहली बार आई थी यहां तो उम्र 16 साल थी. रमेसर एक एल्युमिनियम कारखाने में लेबर था. जिंदगी की गाड़ी सालभर ठीकठाक चली. उस के बाद श्रमिक संगठनों व प्रबंधन के आपसी मल्लयुद्ध में लहूलुहान हो कर एशिया का यह सब से बड़ा संयंत्र भीष्म पितामह की तरह शरशय्या पर ऐसा पड़ा कि फिर उठ नहीं सका. हजारों श्रमिक बेकारी की अंधी सुरंग में धकेल दिए गए.

रमेसर ने काम के लिए बहुत हाथपांव मारे पर कहीं भी जुगाड़ नहीं बैठ पाया. अंत में वह रिकशा चलाने लगा. पर दमे का पुराना मरीज होने के कारण कितनी सवारियां खींच पाता भला? खाने के लाले पड़ने लगे. तब बचपन में सीखा सिलाई और रफूगीरी का शौकिया हुनर काम आया. रमा ने पुरानी सिलाई मशीन का जुगाड़ किया. धैर्य रखते हुए पास के रानीगंज व आसनसोल शहर के व्यापारियों से संपर्क साधा और इस तरह सिलाई व रफूगीरी के पेशे से जिंदगी की फटी चादर पर रफू लगाने की कवायद शुरू हुई.

फिर हर्ष पेट में आया. तबीयत ढीली रहने लगी. डाक्टरों के पास जाने की औकात कहां? देशी टोटकों को देह पर सहेजा. देखतेदेखते 9वां महीना आ गया. फूले पेट के भीतर हर्ष की कलाबाजियों से मरणासन्न रमा वेदना को दांत पर दांत जमा कर बर्दाश्त करने की नाकाम कोशिश करती रही, तभी डाक्टर ने ऐलान किया, ‘केस सीरियस हो गया है और जच्चा या बच्चा दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है.’

रमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, पर दूसरे ही पल उस ने दृढ़ता के साथ डाक्टर से कहा, ‘सिर्फ और सिर्फ बच्चे को बचा लेना हुजूर. रमेसर की गोद में हमारे प्यार की निशानी तो रह जाएगी जो इस सतरंगी दुनिया को देख सकेगी.’

डाक्टर ने हर्ष को जीवनदान दे दिया. रमा कोमा में चली गई. कोमा की यह स्थिति 15 दिनों तक बनी रही. डाक्टरों ने उस की जिंदगी की उम्मीद छोड़ दी थी. पर मौत के संग लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार रमा बच ही गई.

हर्ष पढ़नेलिखने में औसत था. पढ़ने से जी चुराता. स्कूल के नाम पर घर से निकल जाता और स्कूल न जा कर आवारा लड़कों के संग इधरउधर मटरगश्ती करता रहता. राजमार्ग के पास वाली पुलिया पर बैठ कर आतीजाती लड़कियों को छेड़ा करता. इन सब बातों को ले कर रमेसर अकसर उस की पिटाई कर देता.

‘तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं रे,’ रमा उसे प्यार से समझाती, ‘पढ़लिख लेगा तो इज्जत की दो रोटियां मिलने लगेंगी, नहीं तो अभावों और जलालत की जिंदगी ही जीनी पड़ेगी.’

किसी तरह मैट्रिक पास हो गया तो रमा ने उसे कोलकाता भेज देने का निश्चय कर लिया. पुराने आवारा दोस्तों का साथ छूटेगा, तभी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो सकेगा.

‘पर वहां का खर्च क्या आसमान से आएगा?’ रमेसर ने शंका जाहिर की तो रमा के चेहरे पर आत्मविश्वास की पुखराजी धूप खिल आई, ‘आसमान से कभी कोई चीज आई है जो अब आएगी? खर्चा हम पूरा करेंगे. आधा पेट खा कर रह लेंगे. जरूरतों में और कटौती कर लेंगे. चाहे जैसे भी हो, हर्ष को पढ़ाना ही होगा. उस की जिंदगी संवारनी होगी.’

रमा की जीवटता देख कर रमेसर चुप हो गया. हर्ष को कोलकाता भेज दिया गया. एक सस्ते से पीजी होम में रहने का इंतजाम हुआ. नए दोस्तों की संगत रंग लाने लगी. रमा पैसे लगातार भेजती रही. इन पैसों का जुगाड़ किन मुसीबतों से गुजर कर हो रहा है, हर्ष को कोई मतलब नहीं था. पहले इंटर, फिर बीए और फिर एमबीए. एकएक सीढि़यां तय करता हुआ हर्ष अपनी मंजिल तक पहुंच ही गया.

एमबीए की डिगरी का झोली में आ जाना टर्निंग पौइंट साबित हुआ हर्ष के लिए. पहले ही प्रयास में एक बड़ी स्टील कंपनी में जौब मिल गया. फिर सुंदर और पढ़ीलिखी संजना से ब्याह हो गया. कोलकाता में पोस्ंिटग और अलीपुर में कंपनी के आवासीय कौंप्लैक्स में शानदार फ्लैट. अरसे से दानेदाने को मुहताज किसी वंचित को जैसे अथाह संपदा के ढेर पर ही बैठा दिया गया हो. एकबारगी ढेर सारी सुविधाएं, ढेर सारा वैभव. सबकुछ छोटे से आयताकार क्रैडिट कार्ड में कैद.

उस स्टील कंपनी में जौब लगे 3 साल हो गए. जौब लगते ही हर्ष ने कहा था, ‘नई जगह है मम्मी, सैट होने में हमें वक्त लगेगा. सैट होते ही तुम्हें यहां अपने पास बुला लेंगे. इस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे.’

सुन कर अच्छा लगा. रफूगीरी का काम करतेकरते तन और मन पर इतने सारे रफू चस्पां हो गए हैं कि घिन्न आने लगी है इन से. अब वह भी सामान्य जिंदगी जीना चाहती है, जिस दिन भी हर्ष कहेगा, चल देगी. यहां कौन सी संपत्ति पड़ी है? सारी गृहस्थी एक छोटी सी गठरी में ही समा जाएगी.

लेकिन 3 साल गुजर गए. इसी बीच हर्ष कई बार आया यहां. 2 दिनों के प्रवास के डेढ़ दिन ससुराल में बीतते. फिर बिना कुछ कहे लौट जाता. ‘मम्मी, इस बार तुम्हें भी साथ चलना है,’ इस एक पंक्ति को सुनने के लिए तड़प कर रह जाती रमा.

‘तो क्या अपने साथ ले चलने के लिए हर्ष के आगे हाथ जोड़ते हुए, गिड़गिड़ाते हुए विनती करनी होगी? मां की तनहाइयों और मुसीबतों का एहसास खुद ही नहीं होना चाहिए उसे? न, वह ऐसा नहीं कर सकती. उस के जमीर को ऐसा कतई मंजूर नहीं होगा. सिर्फ एक बार, कम से कम एक बार तो हर्ष को मनुहार करनी ही होगी. अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो न करे. वह भी कहीं जाने के लिए मरी नहीं जा रही.’

शोरूम में आधे घंटे का वक्त और लगा. जींसटौप के साथ सीक्वेंस वर्क की खूबसूरत साड़ी भी खरीद ली. क्रैडिट कार्ड पर एक और गहरी खरोंच. हाथों में झूलते चमगादड़ों के गुच्छों में एक चमगादड़ और जुड़ गया. लिफ्ट से नीचे उतर कर दोनों शाही अंदाज से चलते हुए मुख्यद्वार तक आए ही थे कि हर्ष एकाएक चौंक पड़ा.

‘‘मम्मी को तो भूल ही गए. उन के लिए साड़ी,’’ हर्ष मिमियाया.

‘‘ओह,’’ संजना भी थम गई.

‘‘एक बार फिर वापस अप्सरा,’’ हर्ष हंसा और हड़बड़ा कर वापस भीतर जाने को मुड़ा तो संजना ने उसे बांह से पकड़ कर रोक लिया, ‘‘अब उतर ही आए हैं तो चलो न, बाहर के किसी स्टोर से ले लेंगे.’’

‘‘बाहर के स्टोर से?’’ हर्ष सकपका गया.

‘‘ऐनी प्रौब्लम?’’ संजना ने आंखें मटकाईं, ‘‘मां ही तो हैं, मैडम मिशेल ओबामा जैसी बड़ी तोप तो नहीं कि साउथ मौल की साड़ी न हुई तो शान में गुस्ताखी हो जाएगी. हुंह…वैसे भी उन जैसी कसबाई महिला को क्या फर्क पड़ेगा कि साड़ी कहां से खरीदी गई है. बाहर के स्टोर से खरीदने पर सस्ती भी तो मिलेगी, आखिर बचत ही तो होगी.’’

भाग्यश्री : किस कारण मालती देवी ने लिया इतना बड़ा फैसला?

शाम का वक्त था भाग्यश्री के घर पर काफी चहलपहल थी. सभी सेवक भागभाग कर काम कर रहे थे. घर की सजावट देखने लायक थी. उसी समय वह कालेज से घर आई. यों कोलकाता का धर्मतल्ला काफी भीड़भाड़ वाला इलाका है। यही वजह थी कि उसे घर आतेआते देर हो गई थी. भाग्यश्री के पिता वहीं पर एक साधारण व्यापारी थे। वे दहेज के लिए पैसे इकट्ठा करने से ज्यादा अपनी दोनों बेटियों को शिक्षित करने पर जोर देते थे और इस में वे कामयाब भी रहे. भाग्यश्री को अपने घर में किए गए सजावट आदि के बारे में कुछ नहीं पता था.

‘‘अरे वाह, आज इतनी सजावट? कोई खास बात है क्या?’’ चारों तरफ नजर दौड़ाते हुए भाग्यश्री ने पूछा.

‘‘शायद तेरी शादी का खयाल दिल में आया है, इसीलिए मम्मी ने लड़के वालों को बुलाया है…’’ छोटी बहन दिव्या फिल्मी अंदाज में बोलती हुई उसे छेड़ने लगी।

‘‘मां, इस बार कौन आ रहा है तुम्हारी इस कालीकलूटी बेटी को देखने के लिए? कितनी नुमाइश करनी है आप को… क्यों नहीं थक जातीं आप?’’ कंधे से बैग उतार कर पैर पटकते हुए भाग्यश्री ने रोष प्रकट किया.

‘‘बेटा, बड़े अच्छे लोग हैं। तुम्हारी मौसी के सुसराल वाले हैं. लड़का मानव यहीं यादवपुर में अपना कारोबार करता है। बहुत पैसे वाले लोग हैं।

“अच्छी बात क्या है पता है? तुम्हारे रंग से उन्हें कोई ऐतराज नहीं है बेटा,’’ मां ने उसे समझाते हुए लड़के और उस के पूरे खानदान की जानकारी दी, जिस में भाग्यश्री की कोई दिलचस्पी नहीं थी.

‘‘यह क्या बात हुई… मुझ से पूछा भी नहीं और रिश्ता तय कर दिया? अभी तो स्नातक का आखिरी साल चल रहा है और उस के बाद मुझे कानून की पढ़ाई करनी है…’’ वह बोले जा रही थी.

‘‘हां पढ़ लेना, एक बार रिश्ता हो जाए उस के बाद सबकुछ करना। किस ने रोका है तुम्हें,’’ मां ने बीच में ही टोका.

‘‘और हर बार यही अच्छे और संस्कारी लोग न तुुम्हारी बेटी को डार्क कौंप्लैक्शन का खिताब दे कर चले जाते हैं…रहम करो मां,’’ भाग्यश्री पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई.
वहां बिस्तर पर उस के लिए एक सुंदर गुलाबी साड़ी रखी हुई थी।

“अब क्या इसे भी पहनना होगा,’’ वह लगभग चिल्ला कर बोली.

उस ने अपनेआप को आईने में देखा। लंबा कद, छरहरा बदन, पतले होंठ लेकिन सब से ऊपर उस का सांवला रंग… उस ने आईने से नजरें फेर लीं.
तभी गैस्टरूम से पापा की आवाज आई, ‘‘मेहमान आ गए.’’

पापा की आवाज सुनते ही भाग्यश्री का मन स्थिर हो गया। फिर वही सब होगा। लड़के वालों को सबकुछ पसंद आएगा पर सांवली रंगत के आगे सब कुछ फीका पड़ जाएगा. वह अनमने ढंग से तैयार हो गई। उस की खूबसूरती गुलाबी साड़ी में और निखर गई थी। उस के तीखे नैननक्श किसी का भी दिल चुराने लिए काफी थे.

शरबत का गिलास लिए जैसे ही वह अंदर आई, मानव की नजरें भाग्यश्री पर स्थिर हो गईं। दोनों की आंखें चार हुईं, दिल की धड़कनों ने एकसाथ धड़क कर एकदूसरे का अभिनंदन किया. मानव को भाग्यश्री देखते ही पसंद आ गई थी. दोनों पक्षों में बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ ही था कि भाग्यश्री ने अपनी बात रख दी,”मुझे आप सभी से कुछ कहना है… मैं पहले अपनी पढ़ाई पूरी करूंगी और एक सफल वकील बनने के बाद ही शादी करूंगी,’’ भाग्यश्री ने तनिक ऊंची आवाज में अपनी बात रखी, जिसे सुन सभी स्तब्ध हो गए.

मानव के घर वाले जहां बड़ी मुश्किल से उस के सांवले रंग से समझौता कर लड़की के घरेलू होने की बात पर राजी हो कर रिश्ता ले कर आए थे, वहीं उस का मुखर हो कर बोलना एवं पढ़ाई और नौकरी वाली बात को सभी के समक्ष बेबाक हो कर रखना उन से बरदाश्त नहीं हुआ.

मानव की मां मालती देवी बोलीें, ‘‘लड़कियों को घर के काम ही शोभा देते हैं और हमारा मानव इतना कमा लेता है कि उस की गृहस्थी अच्छे से गुजरबसर हो जाएगी। तुम्हारी नौकरी हमें…’’ वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि भाग्यश्री उठ खड़ी हुई. मालती देवी का इशारा साफ था। न तो वह भाग्यश्री को आगे पढ़ने की अनुमति दे रही थीं और न ही एक सफल वकील बनने की इजाजत जोकि भाग्यश्री का सपना था। ऐसे घर में शादी कर अपने सपनों को कुचलना उसे कतई मंजूर नहीं था.

उस ने उन की शर्तों पर शादी करने से इनकार कर दिया और अपने कमरे में चली गई। भाग्यश्री के इस व्यवहार को मालती देवी ने अपना अपमान समझ लिया और मानव का हाथ पकड़ कर खींचती हुईं कमरे से बाहर निकल गईं.

पर मानव का दिल तो वहीं भाग्यश्री के पास छूट गया था। उस ने घर पहुंचते ही भाग्यश्री के मोबाइल पर मैसेज किया…

“प्रिए भाग्यश्री,

‘‘मुझे आप के सपनों के साथ कदम से कदम मिला कर चलना है। मां पुराने खयालात की हैं लेकिन मेरा यकीन कीजिए कि मैं उन्हें मना लूंगा। आप बस वह कीजिए जो आप का दिल चाहता है और हां, कहीं अगर मेरी जरूरत महसूस हो तो एक बार आवाज जरूर दें.

“एक बात और… मैं मां के खिलाफ जा कर आप से शादी कर तो सकता हूं पर करना नहीं चाहता। थोड़ा समय दीजिए, मैं सबकुछ ठीक कर लूंगा। यकीन मानिए, मैं बारात ले कर आप के घर ही आऊंगा। आशा है तब तक आप भी मेरा इंतजार करेंगी.’’

“आप का और सिर्फ आप का
मानव.”

‘‘सामने तो कुछ बोला न गया, पीठ पीछे हल्ला बोल… बहुत देखे ऐसे आशिक आवारा,” कहते हुए वह संदेश को मिटाने लगी पर हाथ रुक गया। पहली बार किसी से इतनी आत्मीयता मिली थी, कैसे जाने देती भला.

इस बात को बीते लगभग 7 साल हो गए थे. भाग्यश्री ने वह मुकाम हासिल कर लिया था, जिस के लिए उस ने शादी के कई रिश्ते को ठुकराया था. वैसे इन 7 सालों में मानव ने कभी उसे अकेलेपन का एहसास होने नहीं दिया था. दोनों औपचारिक रूप से मिलते व एकदूसरे का हालचाल लेते रहते थे. यह बात और थी कि मालती देवी इन बातों से बिलकुल अनजान थीं. भाग्यश्री अपने सपनों को साकार करती सिविल कोर्ट में प्रैक्टिस करने लगी थी. उस की छोटी बहन का विवाह अच्छे घराने में हो गया था.

उस दिन सुबह के करीब 10 बजे थे। मालती देवी रोजमर्रा के कामों के लिए अपने नौकरों पर हुक्म चला रही थीं। तभी उन की बेटी कामिनी रोतेबिलखते मुख्य दरवाजे से अंदर आई.

‘‘मां, अब मैं कभी ससुराल वापस नहीं जाऊंगी,’’ चेहरे पर खून जमने से बने स्याह धब्बे साफ नजर आ रहे थे.

कामिनी मानव की बड़ी बहन थी. कहने को तो शादी के 8 साल हो गए थे लेकिन 1 भी साल ऐसा नहीं गुजरा था जब कामिनी को सताया न गया हो और कामिनी रोतीबिलखती घर न आई हो. हर बार उसे समझा दिया जाता, हाथ जोड़े जाते थे और समझाबुझा कर उसे ससुराल भेज दिया जाता था।

‘‘लोग क्या कहेंगे… बेटी की डोली मायके से निकलती है और अर्थी ससुराल से,’’ मालती देवी हर बार इन्हीं बातों का वास्ता दे कर कामिनी को सुसराल भेज देती थीं और यही वजह थी कि उन्होंने भाग्यश्री का रिश्ता ठुकरा दिया था क्योंकि वह समाज के नियमों के विरुद्ध जा कर पढ़ना चाहती थी, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी, वकील बनना चाहती थी। मगर आज कामिनी के इस दशा ने कोई ठोस कदम लेने पर उन्हें मजबूर कर दिया था.

‘‘राजू…राजू…’’ मालती देवी ने ड्राइवर को जोर से आवाज लगाई.

‘‘जी मैम साहब…’’ राजू दौड़ कर आया.

‘‘गाड़ी निकालो,’’ मालती देवी ने आदेश दिया.

‘‘कामिनी, गाड़ी में बैठो,’’ मालती देवी ने पर्स हाथ में लेते हुए कहा.

राजू गाड़ी निकाल कर खड़ा था। दोनों मांबेटी गाड़ी में बैठ गए। गाड़ी चलने लगी.

‘‘कहां जाना है मैम साहब?’’ ड्राइवर ने डरतेडरते पूछा.

‘‘सिविल कोर्ट,’’ मालती देवी ने आत्मविश्वास के साथ कहा.

कामिनी उन के चेहरे को आश्चर्य से देखने लगी, क्योंकि उसे लग रहा था कि इस बार भी मां उसे ससुराल छोड़ने जा रही हैं और उस ने यह भी सोच लिया था कि इस बार अर्थी निकलने वाली बात को वह सच कर दिखाएगी.

लेकिन मां द्वारा सिविल कोर्ट का जिक्र करने से वह अपने अंदर संतोष का अनुभव करने लगी। अब तक वह दूर बैठी थी। करीब आ कर वह मां से लिपट कर रोने लगी.

सिविल कोर्ट के आगू राजू ने गाड़ी रोक दी. मालती देवी कामिनी का हाथ पकड़े लगभग दौड़ती हुई चल रही थीं. मन में केवल यही था कि इस बार बेटी को इस नकली रिश्ते से आजाद करना है, तलाक दिलवा कर ही चैन लेगी। जहां न पति का प्यार है, न सासससुर का स्नेह फिर क्यों बनी रहे वहां? उन्हें सारी बातें याद आ रही थीं कि किस तरह से कामिनी को बहू न समझ बेटी समझने का वादा किया था उस के ससुराल वालों ने लेकिन खोखले वादों के अलावा कुछ भी नहीं दिया था. मालती देवी के आंखों के आगे चलचित्र की तरह सारे दृश्य घूमने लगे थे.

कामिनी का हाथ थामे सिविल कोर्ट के बड़े से दरवाजे से अंदर चली गईं वह। सभी वकील अपनेअपने क्लाइंट के साथ व्यस्त थे. किस से अपनी बात कहे, किसी को तो नहीं जानतीं वे. तभी उन की नजर एक नेम प्लेट पर पड़ी ‘भाग्यश्री।’

नाम को दोहराया उन्होंने. यादों के मानस पटल पर धूल जम चुकी थी। उसे झाड़ा तो तसवीर साफ हो गई। वे लगभग दौड़ती हुई उस के पास पहुंचीं. भाग्यश्री के आगे हाथ जोड़ कर खड़ी हो गईं. उन्हें ऐसी स्थिति में देख कर भाग्यश्री हड़बड़ा कर उठ कर खड़ी हो गई. वह समझ नहीं पा रही थी कि मालवी देवी ऐसे क्यों खड़ी हैं? कई सवाल एकसाथ सामने आजा रहे थे.

‘‘आप बैठ जाइए न मैडम,’’ भाग्यश्री ने औपचारिकता निभाई.

‘मैडम कहा उस ने। लगता है, मुझे नहीं पहचाना,’ मन ही मन सोचने लगीं मालवी देवी.

मालती देवी ने पर्स से फोन निकाला और नंबर डायल करने लगीं,”मानव, तुम जहां कहीं भी हो यहां आ जाओ? पता राजू से पूछ लेना,’’ जल्दबाजी में केवल इतना ही बोल पाईं वह.

“मां, क्या हुआ?” मानव ने कभी मां को इस तरह बात करते नहीं सुना था. वह भी घबरा गया.

आधे घंटे में मानव उन सब के सामने था. भाग्यश्री ने मालती देवी को पानी पिलाया, उन्हें शांत किया और फिर एकएक जानकारी उन से लेने लगी.
मामला दहेज उत्पीड़न का था.

‘‘मैडम देखिए, हमारे पास 2 रास्ते हैं, एक तो आप जा कर पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करवाएं और आगे कानूनी काररवाई की लंबी प्रक्रिया होगी फिर जो फैसला होगा वह हमें मानना ही होगा। दूसरा, मैं कामिनीजी के ससुराल वालों से मिल कर उन्हें न्यायिक प्रक्रिया के साथ समझाऊं, क्योंकि किसी का घर टूटे यह कोई नहीं चाहता, मैं तो बिलकुल भी नहीं। आगे आप जैसा कहें,’’ भाग्यश्री बोले जा रही थी, जिसे मालवी देवी सुन कर निहाल हुई जा रही थीं और उन्हें अपने किए पर ग्लानि भी हो रही थी.

‘‘बेटा, तुुम्हें जो ठीक लगे वही करो,’’ मालती देवी बोलीं।

भाग्यश्री मानव के साथ जा कर कामिनी के ससुराल वालों से मिली. काले कोर्ट वाले को देखते ही वे सिहर गए थे. रहीसही कसर उस के रौबीले अंदाज ने पूरी कर दी थी. उस ने उन्हें दहेज उत्पीड़न पर लगने वाले धाराओं के बारे में बताया। न मानने की स्थिति में होने वाले दुष्परिणामों की भी जानकारी दी. ‘मरता क्या न करता…’ नतीजा यह हुआ कि कामिनी के ससुराल वाले उन की हर बात मानने के लिए तैयार हो गए.

कामिनी के लिए 6 महीने का पूरा आराम, साथ ही पति द्वारा खाना बना कर खिलाए जाने की हिदायत एवं देखभाल करने की जिम्मेदारी सासससुर के ऊपर दे कर साथ ही दहेज में दी गई पूरी रकम को कामिनी के बैंक खाते में भेजने का आदेश दे कर भाग्यश्री और मानव वापस आ गए थे.

यह सब देख मालती देवी की आंखों में भाग्यश्री के लिए ढेर सारा प्यार उमड़ रहा था. जब उन्हें पश्चाताप करने का कोई और रास्ता नहीं दिखा तो एक दिन बेटे से बोलीं,‘‘मानव, मैं भाग्यश्री को बहू बनाना चाहती हूं, वह मान तो जाएगी न?”

‘‘मां, पिछले 7 सालों से वह भी हमारा ही इंतजार कर रही है.’’

‘‘सच मानव,’’ सजल नेत्रों से कहा मालती देवी ने.

उत्तर में मानव ने कुछ फोटोज दिखाए जिस में वे साथसाथ थे. भाग्यश्री के घर जा कर उस की मां से उन्होंने जो कुछ भी कहा वह काबिलेतारीफ थी,
‘‘मुझे अपने बेटे के लिए आप की होनहार और काबिल बेटी का हाथ चाहिए। आशा है, आप मुझे मना नहीं करेंगी.’’

भाग्यश्री की मां ने नम आंखों से मालती देवी को गले से लगा लिया था. मालती देवी ने भाग्यश्री के गले में सोने का हार पहनाया, ‘‘अब से मैं तुम्हारी मां हूं। मुझे मैडम मत कहना प्लीज,” मालती देवी ने याचना भरे शब्दों में कहा.

मानव वहीं सोफे पर बैठा मुसकरा रहा था। जैसे ही एकांत मिला तो बोल पड़ा, ‘‘कहा था न मैं ने बारात ले कर आप के घर ही आऊंगा…’’

भाग्यश्री क्या कहती भला… शरमा कर दोनों हाथों से चेहरे को ढंक लिया था उस ने.

‘‘वाह…वाह… जी, क्या जोड़ी है बनाई… भैया और भाभी को बधाई हो बधाई…” दिव्या ने फिल्मी अंदाज में गा कर दोनों को साथ खड़ा किया। फिर दोनों ने घर के सभी बड़े सदस्यों का आशीर्वाद लिया. माहौल बेहद खुशनुमा लग रहा था।

मां आनंदेश्वरी : भाग 1

नलिनी लगभग 10 वर्षों बाद अपने ननिहाल बरेली जा रही थी. वह बहुत खुश थी. रास्ते में फरूखाबाद में लगे टैंट की नगरी को देख कर उसे अपना बचपन याद आ गया जब वह अपनी मम्मी और नानी के साथ कई बार रामनगरिया मेला घूमने आया करती थी. उसे हमेशा से मेले की भीड़भाड़ और वहां पर साधु/महात्मा लोगों का जमघट आकर्षित करता रहा है. उन की अजीबोगरीब वेशभूषा- कहीं नांगा बाबा तो कहीं मचान पर बैठा साधु, कोई बाबा एक पैर पर खड़ा रह कर तपस्या करता होता आदिआदि. वह बचपन से इन दृश्यों को देख कर रोमांचित हो उठती थी. हालांकि अब उसे यह सब ढकोसला और पाखंड लगता लेकिन वह अपने को आज भी नहीं रोक पाई थी. मेले में लगने वाले हर माल और तरहतरह के झूले देख वह अपने बचपन के दिनों में खो गई.

तभी एक साधुओं के पंडाल के बाहर एक आदमकद पोस्टर को देख कर वह चौंक पड़ी. यह चेहरा तो पहले कहीं देखा देखा सा और पहचाना सा लग रहा है. बहुत कोशिश के बाद याद कर पाने में असमर्थ हो जाने पर जिज्ञासावश वह उस पंडाल के अंदर पहुंच गई.

वहां पर स्टेज पर बहुत बड़ा सा कटआउट लगा था और नाम लिखा था मां आनंदेश्वरी. वह उलझीउलझी हुई सी एक स्टौल पर गई और चाय पी लेकिन मन उस कटआउट में ही उलझा रहा था. उस ने उस कटआउट का एक फोटो खींच लिया था. वह अपनी मामी से जरूर इस के बारे में पूछेगी, यह सोचती हुई वह पहुंच गई थी और फिर सबकुछ भूल गई.

जिन गलियों में वह इक्खटदुक्खट और आइसपाइस खेल खेला करती थी, अब वहां बड़ीबड़ी अट्टालिकाएं और शोरूम खुल चुके थे. जहां बड़ेबड़े पेड़ के नीचे से वह नीम की निबौरियां चुनती थी वहां अब सबकुछ बदल चुका था.

लंबे अंतराल में सबकुछ कितना बदल चुका था. नानी के जाने के बाद बड़े मामा भरी जवानी में कैंसर जैसी बीमारी के चलते गुंजन मामी की दुनिया सूनी कर के चले गए थे.

गुंजन मामी बंगाली परिवार से थीं. स्कूल के ऐनुअल फंक्शन में स्टेज पर उन का गाना सुन कर मामा उन पर रीझ उठे थे. वे रूपरंग में भी बहुत सुंदर थीं, गोरा चंपई रंग और हिरणी जैसी चंचल आंखें.

नानाजी ने बहुत कोशिश की कि इस घर में शादी न हो लेकिन मामा की जिद के आगे उन्हें हार माननी पड़ी थी. गुंजन दुलहन बन कर घर आ गई. मामी का दुलहन रूप इतना मोहक था कि जो आता वह प्रशंसा किए बिना न रह पाता. उस दौरान पापा के बागेश्वर ट्रांसफर के कारण वह वहीं पर रह कर पढ़ रही थी, इसलिए मामा का संदेशा पहुंचाने के लिए वह कई बार उन के घर जाया करती थी.

नानाजी की निरीह जर्जर काया पलंग के एक कोने में सिमटी हुई थी. उन को इस हालत में देखना उस के लिए सदमा जैसा था. उस को देखते ही उन की आंखों के कोने से आंसू बह निकले थे. जिस नानाजी की एक आवाज पर सारा घर कांप उठता था, उन के ऐसे रूप की तो वह स्वप्न में भी कल्पना ही नहीं कर सकती थी. वह मुंह घुमा कर बरबस अपने आंसू छिपाने की कोशिश कर रही थी.

वह ठीक से संभल भी नहीं पाई थी कि श्रृंगारविहीन गुंजन मामी सूनी मांग और सूनेसूने माथे के साथ आ कर उस के गले से लग कर सिसक पड़ीं. वह भी अपने को नहीं रोक पाई थी और अनायास ही अश्रुधारा बह निकली.

चंद मिनटों में मामी संभल गईं और उस के लिए उस के मनपसंद आटे के गोंद और मेवे वाले लड्डू व पानी ले कर आ गईं.

“वाउ, मामी, बिलकुल नानी वाला स्वाद है. और वह यादों में खो गई…”

मामी रोज सिंदूर से अपनी मांग सजाती थीं. वे कहतीं कि जितनी लंबी मांग का सिंदूर उतना लंबा पति का जीवन. वह हंसा करती थी और मजाक भी बनाती थी लेकिन उन का विश्वास…सब झूठा ही निकला. फिर खानापीना और पुरानी बातों को याद करते कब रात बीत गई, पता नहीं लगा था. तभी मुंबई और दूसरी फोटो दिखातेदिखाते उस की उंगली उस पोस्टर की फोटो पर रुक गई थी, “मामी, इस फोटो को देखो, इस का चेहरा मुझे देखादेखा लग रहा है!”

वी आर प्राउड औफ यू अम्मा : भाग 1

‘‘अब के बरस भेज भइया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय रे…’’ आशा भोंसले की आवाज में गाए इस गीत के बोलों को सुन कर मायके जाने के रोमांच से अंशिका का मन मयूर नाच उठा. सूटकेस में कपड़े जमातेजमाते ही वह प्रफुल्लता और उल्लास से भर उठी और गाने के बोलों के साथसाथ स्वयं भी गुनगुनाने लगी. ऐसा लग रहा था मानो उड़ कर पहुंच जाए अपने मायके. अम्माबाबूजी से तो जब भी बात करो, वे सदैव एक ही रट लगाए रहते, ‘‘कब आएगी बेटा, ऐसा लगता है तू तो मायके का रास्ता ही भूल गई है.’’

गलत भी तो नहीं थे मांबाबूजी, क्योंकि अनु और कनु के कारण वह पिछले 4 साल से घर से निकल ही नहीं पाई. एक के बोर्ड एक्जाम समाप्त, तो दूसरे के प्रारंभ. कैसे सोच पाती वह अपने जाने के बारे में. ऊपर से पति अस्मित की नौकरी, जिस में न जाने का समय और न आने का. लाख चाह कर भी वह मायके यानी लखनऊ जाने के बारे में सोच तक नहीं पाई.

कनु इंजीनियरिंग कर के प्लेसमेंट ले कर विदेश चला गया. एक माह पूर्व ही बेटी अनु भी मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट औफ सोशल साइंस से पीजी करने चली गई थी. सो, अब उस की बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों से उसे थोड़ी राहत मिल पाई थी.

अस्मित उस के अम्माबाबूजी के प्रति लगाव को समझते थे. सो, इस बार जब उन्हें 10 दिन की ट्रेनिंग पर दिल्ली जाना था तो, वे स्वयं ही बोले, ‘‘अंशु तुम चाहो तो इन 10 दिनों के लिए लखनऊ चली जाओ अम्माबाबूजी के पास. कब से बुला रहे हैं वे तुम्हें. मेरे हिसाब से लखनऊ जाने के लिए इस से अच्छा समय नहीं मिलेगा तुम्हें.’’

‘‘हां, ये ठीक रहेगा. मैं छोटी को भी फोन कर देती हूं. वह भी आ जाएगी. उस से मिले भी 4 साल हो गए हैं, यों भी उस के बच्चों के समर वेकेशन चल ही रही हैं,’’ पति अस्मित की बात सुन कर वह खुशी से उछल पड़ी और तुरंत जोश में भर कर छोटी बहन को कानपुर फोन लगा दिया. और इस प्रकार फटाफट दोनों बहनों के मायके लखनऊ जाने का प्रोग्राम बना डाला. कल रात का ही उस का और अस्मित दोनों का रिजर्वेशन था. सो, अपना और पति अस्मित का सूटकेस तैयार करने में वह तेजी से जुट गई.

अगले दिन रात की ट्रेन से अस्मित दिल्ली और वह लखनऊ के लिए रवाना हो गए. पुष्पक ऐक्सप्रैस के एसी कोच में अस्मित ने उस का रिजर्वेशन करवाया था, ताकि भीषण गरमी के मौसम में भी वह आराम से पहुंच जाए.

सीट पर लेटते ही उस का मन भी बरसों पहले जा पहुंंचा कैसे सब भाईबहन मिल कर मस्ती करते थे. पिताजी कितने भी फल ले आए, सब कम ही पड़ जाया करते थे. छत पर सर्दी की कुनकुनी धूप में बैठ कर जब सब एकसाथ बैठ कर मूंगफलियां खाते तो 2 किलो मूंगफली भी गधे के सिर से सींग की भांति गायब हो जाती थीं. सब बच्चों में किस का मूंगफलियों के छिलकों का ढेर ऊंचा होगा, इसी बात की होड़ मची रहती थी. पर अब तो सब बस अपनीअपनी गृहस्थी और परिवार की जिम्मेदारियों में इस कदर व्यस्त थे कि सालोंसाल एकदूसरे से मिल ही नहीं पाते थे. पर फिर भी अम्माबाबूजी ने अपने प्यार की डोर से अपने दो बेटियों और एक बेटे के परिवार को मजबूती से बांध रखा था.
अपनी बेटियों को भी उन्होंने यही शिक्षा दी कि निज स्वार्थों की खातिर परिवार की एकता की बलि कभी मत दो. अम्माबाबूजी ने अपने प्यार और स्नेह की छांव में तीनों बच्चों का ऐसा पालनपोषण किया कि आज सभी अपनेअपने परिवारों में खुश और मस्त थे. अम्माबाबूजी भी सभी बच्चों के पास बारीबारी से जा कर वृद्धावस्था का सुख उठा रहे थे. लखनऊ के उस घर की कल्पना से ही उस का मन बागबाग होने लगा, जिस में उस का बचपन बीता था. सच में इनसान चाहे कितना भी उम्रदराज हो जाए, पर बचपन की यादें सदा उस के साथ साए की भांति रहती हैं.

सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई, उसे ही पता नहीं चला. ‘चायचाय, गरमागरम चाय’ की आवाज से उस की आंख खुली तो पता चला कि गाड़ी लखनऊ स्टेशन पर ही खड़ी है.

अपना ट्राली बैग ले कर जैसे ही प्लेटफार्म पर उतरी तो सामने बाबूजी को खड़ा देख कर उस की आंखें भर आईं. बाबूजी के पैर छू कर भरे गले से बोली, ‘‘अरे, आप क्यों परेशान हुए? मैं कोई वापस भोपाल तो नहीं चली जाती.’’

‘‘अरे तो इस में परेशान होने की क्या बात है, तुम्हें क्या लगता है कि मैं इतना बूढ़ा हो गया हूं कि अपने बच्चों को लेने स्टेशन भी नहीं आ सकता,’’ सदा की ही भांति बाबूजी जोश में भर कर बोले.

‘‘नहीं, वो बात नहीं है बाबूजी,’’ कार की डिग्गी में अपना बैग रख कर वह बाबूजी की बगल की सीट पर आ कर बैठ गई और कार की खिड़की से अपने प्यारे शहर को प्यारभरी नजरों से यों निहारने लगी मानो शहर के एकएक दृश्य को अपनी नजरों में कैद कर लेना चाहती हो.

‘‘और बताओ बेटा क्या हाल हैं भोपाल के…? अस्मित की नौकरी तो ठीकठाक चल रही है न,’’ कार ड्राइव करते हुए बाबूजी ने पूछा.

‘‘जी बाबूजी, सब बढ़िया है. सभी अपनेअपने काम में व्यस्त हैं. बाबूजी आप अभी भी कितने कान्फीडेंट हो कर गाड़ी चलाते हो, आप को याद है कि आप ने हम दोनों बहनों को ग्रेजुएट होते ही ड्राइविंग सिखा दी थी.’’

‘‘हां सो तो है. लो भई, तुम्हारी अम्मा भी बाहर ही खड़ी हैं. तुम्हें पता है, तुम्हारे आने की खुशी में सुबह से अंदरबाहर किए जा रही हैं,’’ कहते हुए बाबूजी ने गाड़ी घर के मुख्य द्वार पर रोक दी.

कार से उतर कर अंशू अम्मा के गले लग गई. अम्मा अपनी आंखों की कोरों में आए आंसुओं को पोंछते हुए बोलीं, ‘‘बड़े दिन के बाद चक्कर लगा इस बार बेटा.’’

प्रेम की उदास गाथा : भाग 1

चपरासी एक स्लिप दे गया था, जब उस की निगाहें उस पर पड़ीं तो वह चौंक गया,’क्या वे ही होंगे जिन के बारे में वह सोच रहा है।’ उसे कुछ असमंजस सा हुआ। उस ने खिड़की से झांक कर देखने का प्रयास किया पर वहां से उसे कुछ नजर नहीं आया। वह अपनी सीट से उठा। उसे यों इस तरह उठता देख औफिस के कर्मचारी भी अपनीअपनी सीट से उठ खड़े हुए। वह तेजी से दरवाजे की ओर लपका। सामने रखी एक बैंच पर एक बुजुर्ग बैठे थे और शायद उन के बुलाने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

हालांकि वह उन्हें पहचान नहीं पा रहा था पर उसे जाने क्यों भरोसा सा हो गया था कि यह रामलाल काका ही होंगे। वह सालों से उन से मिला नहीं था। जब वह बहुत छोटा था तब पिताजी ने परिचय कराया था…

‘‘अक्षत, यह रामलालजी हैं। कहानियां और कविताएं वगैरह लिखते हैं और एक प्राइवेट स्कूल में गणित पढ़ाते हैं।”

मुझे आश्चर्य हुआ था कि भला गणित के शिक्षक कहानियां और कविताएं कैसे लिख सकते हैं। मैं ने उन्हें देखा। गोरा, गोल चेहरा, लंबा और बलिष्ठ शरीर, चेहरे पर तेज।

‘‘तुम इन से गणित पढ़ सकते हो,’’ कहते हुए पिताजी ने काका की ओर देखा था जैसे स्वीकृति लेना चाह रहे हों। उन्होंने सहमति में केवल अपना सिर हिला दिया था। मेरे पिताजी सुखमन और रामलाल काका बचपन के मित्र थे। दोनों ने साथसाथ कालेज तक की पढ़ाई की थी। पढ़ाई के बाद मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में आ गए पर रामलाल काका प्रतिभाशाली होने के बाद भी नौकरी नहीं पा सके थे। उन्हें एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापन का कार्य कर अपनी रोजीरोटी चलानी पड़ रही थी। वे गणित के बहुत अच्छे शिक्षक थे। उन के द्वारा पढ़ाया गया कोई भी छात्र  गणित में कभी फेल नहीं होता था, यह बात मुझे बाद में पता चली।

मैं इंजीनियर बनना चाहता था। इस कारण पिताजी के मना करने के बाद भी मैं ने गणित विषय ले लिया था पर कक्षाएं प्रारंभ होते ही मुझे लगने लगा था कि यह चुनाव मेरा गलत था। मुझे गणित समझ में आ ही नहीं रही थी। इस के लिए मैं क्लास के शिक्षक को दोषी मान सकता था। वे जो समझाते मेरे ऊपर से निकल जाता।

तीसरे सेमेस्टर परीक्षा में जब मुझे गणित में बहुत कम अंक मिले तो मैं उदास हो गया। मुझे यों उदास देख कर एक दिन पिताजी ने प्यार से मुझ से पूछ ही लिया वैसे तो मैं उन्हें कुछ भी बताना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उन्होंने तो मुझे मना किया था पर उन के प्यार से पूछने से मैं अपनी पीड़ा व्यक्त करने से नहीं रह सका। पिताजी ने धैर्य के साथ सारी बात समझी और मुसकराते हुए रामलाल काका से गणित पढ़ने की सलाह दे दी। पिताजी मुझे खुद ले कर काका के पास आए थे। रामलाल काका ट्यूशन कभी नहीं पढ़ाते थे इस कारण ही तो मुझे उन के पास जाने में हिचक हो रही थी। पर वे पिताजी के बचपन के मित्र थे यह जान कर मुझे भरोसा था कि वे मुझे मना नहीं करेंगे। हुआ भी ऐसा ही। मैं रोज उन के घर पढ़ने जाने लगा।

मेरे जीवन में चमत्कारी परिवर्तन दूसरे तो महसूस कर ही रहे थे मैं स्वयं भी महसूस करने लगा था। मेरा बहुत सारा समय अब काका के घर ही गुजरने लगा था। मैं उन के परिवार का एक हिस्सा बन गया था। उन्होंने शादी नहीं की थी, इस कारण वे अेकेले ही रहते थे। स्वयं खाना बनाते और घर के सारे काम करते। काका से मैं गणित की बारीकियां तो सीख ही रहा था साथ ही जीवन की बारीकियों को भी सीखने का अवसर मुझे मिल रहा था। काका बहुत ही सुलझे हुए इंसान थे। ‘न काहू से दोस्ती और न काहू से बैर’ की कहावत का जीवंत प्रमाण थे वे। शायद इसी कारण समाज में उन की बहुत इज्जत भी थी। लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे और सम्मान भी देते थे। उन की दिनचर्या बहुत सीमित थी। वे स्कूल के अलावा घर से केवल शाम को ही निकलते थे, सब्जी वगैरह  लेने। इस के अलावा वे पूरे समय घर पर ही रहते थे। वे अकसर कहानियां या कविता लिखते नजर आते।

‘‘काका इन कहानियों के लिखने से समाज नहीं बदलता। आप कुछ और लिखा करिए,’’ एक दिन मैं बोल पङा।

‘‘मैं समाज को बदलने के लिए और उन्हें सिखाने के लिए कहानियां लिखता हूं और मैं अपने सुख के लिए कहानियां लिखता हूं। किसी को पसंद आए इस के लिए नहीं।’’

शिकायतनामा : भाग 1

देर शाम अनुष्का का फोन आया. कामधाम से खाली होती तो अपने पिता विश्वनाथ को फोन कर अपना दुखसुख अवश्य साझा करती. शादी के 3 साल हो गए, यह क्रम आज भी बना हुआ था. पिता को बेटियेां से ज्यादा लगाव होता है, जबकि मां को बेटों से. इस नाते अनुष्का निसंकोच अपनी बात कह कर जी हलका कर लेती.

‘‘पापा, आज फिर ये जोरजोर से चिल्लाने लगे,’’ अनुष्का ने अपने पति कृष्णा का जिक्र किया.

‘‘क्यों?’’ विश्वनाथ निर्विकार भाव से बोले.

‘‘इसी का जवाब मैं खोज रही हूं.’’ कह कर वह भावुक हो गई.

विश्वनाथ का जी पसीज गया. विश्वनाथ उन पिताओं जैसे नहीं थे जो बेटी का विवाह कर के गंगा नहा लेते थे. वे उन पिताओं सरीखे थे जिन्हें अपनी बेटी का दुख भारी लगता. तनिक सोच कर बोले, “उन की बातों को ज्यादा तवज्जुह मत दिया करो. अपने काम से काम रखो.’’

जब भी अनुष्का का फोन आता वे उसे धैर्य और बरदाश्त करने की सलाह देते. विश्वनाथ की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने अपनी तरफ से कभी बेटियों को निराश नहीं किया. उन की बात पूरी लगन से सुनते. वे चाहते तो कह सकते थे कि यह तुम दोनों का आपसी मामला है. बारबार फोन कर के मुझे परेशान मत किया करो. ज्यादातर पिताओं की यही भूमिका होती है. बेटियों की शादी कर दिया तो अपने बेटाबहू में रम गए.

विश्वनाथ की 3 बेटियां थीं और एक बेटा. उन्होंने बेटाबेटियों में कोई फर्क नहीं किया. अमूमन लोग बेटियों को बोझ समझते हैं. इस के विपरीत विश्वनाथ को लगता, उन की बेटियां ही उन की ताकत हैं. उन की पत्नी कौशल्या की सोच उन से इतर थी. उन्हें अपना बेटा ही हीरा लगता. वे बेटियों को जबतब कोसती रहतीं. विश्वनाथ को बुरा लगता. इसी बात पर तूतूमैंमैं शुरू हो जाती.

विश्वनाथ का जीवन अभावपूर्ण था. बड़े संघर्षो से गुजर कर उन्होंने अपनी औलादों को पढ़ालिखा कर इस लायक बनाया कि वे अपने पैरों पर खडे हो गए. बड़ी बेटी की शादी से वे खुश नहीं थे क्योंकि दामाद का कामधाम कोई खास नहीं था. वे अच्छी तरह जानते थे कि उन की कामाऊ बेटी की बदौलत ही गृहस्थी की गाड़ी चलेगी. उन की मजबूरी थी. कहां से अच्छे वर के लिए दहेज ले आते? बेटी की शक्लसूरत कोई खास नहीं थी. हां, पढ़ने में तेज जरूर थी. पहली से निबटे तो दूसरी अनुष्का आ गई. सब बेटियों में 2 से 3 साल का फर्क था. अनुष्का देखनेसुनने के साथ पढ़ने में भी होशियार थी. उस ने साफसाफ कह दिया कि वह किसी भी सूरत में प्राइवेट नौकरी वाले लडके से शादी नहीं करेगी. सब चिंता में पड गए. कहां से लड़का ढूंढें.

ऐसे में उन के बड़े दामाद ने कृष्णा का जिक्र किया. वह सरकारी नौकरी में था. देखने में ठीकठाक था. रही पढ़ाई, तो वह अनुष्का की तुलना में औसत दर्जे का था तो भी क्या? सरकारी नौकरी थी. जिस आर्थिक अनिश्चितता के दौर से विश्वनाथ का परिवार गुजरा, उस से तो मुक्ति मिलेगी. यही सब सोच कर विश्वनाथ इस रिश्ते के लिए अपने दामाद की मनुहार करने लगे. साथसाथ, उन्होंने अपनी तीसरी बेटी के लिए भी सरकारी नौकरी वाले वर से करने का मन बना लिया.

लड़के को अनुष्का पसंद आ गई. दहेज पर मामला रुका, तो विश्वनाथ ने साफसाफ कह दिया कि उन की औकात ज्यादाकुछ देने की नहीं है. सांवले रंग के कृष्णा को जब गोरीचिट्टी अनुष्का मिली तो वह न न कर सका. इस के पहले उस ने काफी लड़कियां देखीं. किसी की पढ़ाई पसंद आती तो रूपरंग मनमाफिक न मिलता. रूपरंग होता तो पढ़ाई साधारण रहती. यहां सब था. नहीं था तो दहेज की रकम. कृष्णा को लगा अब अगर और छानबीन में लगा रहेगा तो उम्र निकल जाएगी, ढंग की लड़की न मिलेगी. लिहाजा, उसे भी गरज थी. शादी संपन्न हो गई.

अनुष्का फूले नहीं समा रही थी. उस ने जो चाहा वह मिल गया. बिना आर्थिक किचकिच के जिंदगी आसानी से कटेगी. शादी होते ही वह जयपुर घूमने निकल गई. बड़ी बहन लतिका को तकलीफ हुई. वह सोचने लगी, आज उस का भी पति ऐसी ही नौकरी में होता तो वह भी वैवाहिक जीवन की इस प्रथम पायदान पर चढ़ कर जिदगी का लुफ्त उठाती.

दोनों के विवाह का शुरुआती दौर बिना किसी शिकवाशिकायत के कटा. अनुष्का इस रिश्ते से निहाल थी. वहीं कृष्णा को लगा, उस ने जैसा चाहा उसे मिल गया. इस बीच, वह एक बेटे की मां बनी.

कृष्णा में एक खामी थी. उसे रुपए से बहुत मोह था. घरगृहस्थी के लिए खर्च करने में कोई कोताही नहीं बरतता तो भी बिना मेहनत के धन ही मिल जाए तो हर्ज ही क्या है. इसी लालच में उस ने अपना काफी रुपया शेयर में लगा दिया. अनुष्का ने एकाध बार टोका. मगर कृष्णा ने नजरअंदाज कर दिया.

एक दिन तो हद हो गई, कहने लगा, ‘‘मेरा रुपया है, जहां भी खर्च करूं.’’

कृष्णा को ऐसे तेवर में देख कर अनुष्का सहम गई. एकाएक उस के व्यवहार में आए परिवर्तन ने उसे असहज कर दिया. उस का मन खिन्न हो गया. मारे खुन्नस कृष्णा से बोली नहीं. कृष्णा की आदत थी, जल्द ही सामान्य हो जाता. वहीं अनुष्का के लिए आसान न था. चूंकि यह पहला अवसर था, इसलिए अनुष्का ने भी अपनी तरफ से भूलना मुनासिब समझा. मगर कब तक. जल्द ही उसे लगा कि कृष्णा अपने मन के हैं, उन्हें समझाना आसान नहीं. इस बीच, शेयर के भाव बुरी तरह से नीचे आ गए और उस के लाखों रुपए डूब गए. सो, अनुष्का को कहने का मौका मिल गया.

15 अगस्त स्पेशल : स्वदेश के परदेसी

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15 अगस्त स्पेशल : “शहीद भगत सिंह के विचार और नास्तिक बनने की वजह”

देश आजादी के 76 साल पूरे होने का जश्न मना रहा है. आज भी गाहेबगाहे चाहेअनचाहे भगत सिंह की प्रासंगिकता सामने आ ही जाती है. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के मौके पर भी उन्हें याद किया जाता है. उन पर बनी फिल्मों के गीत सुनाए जाते हैं. सो, उन्हें याद करने व उन के प्रति सम्मान व्यक्त करने के अनेक कार्यक्रम किए जाते हैं – कुछ सरकारी, कुछ अर्धसरकारी और कुछ गैरसरकारी.

इन्हीं कार्यक्रमों के दौरान भगत सिंह के स्वरूप और धर्म को ले कर चर्चाएं भी होती रहती हैं. कुछ उन के केशधारी स्वरूप को आगे लाने की कोशिश करते दिखेंगे तो दूसरे उन के हैटधारी स्वरूप को. जब उन के नाम पर सिक्का या टिकट जारी करने की बात चली तब भी यही विवाद उठा था.

सांप्रदायीकरण और विवाद

प्रश्न पैदा होता है कि ऐसा सब क्यों? इस का सीधासादा उत्तर तो यही है कि जब कुछ लोग शहीद का सांप्रदायीकरण करने का प्रयास करते हैं तो दूसरे उस का विरोध करते हैं. इस से विवाद का उपजना स्वाभाविक ही है.

भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ, यह निर्विवाद है. परंतु वह परिवार विचारधारा की दृष्टि से आर्यसमाजी था. यह बात स्वयं भगत सिंह ने लिखी है. परंतु बाद में भगत सिंह आर्यसमाजी के स्थान पर बुद्घिवादी व वैज्ञानिक विचारधारा के हो गए और उन के लिए सिख या आर्यसमाजी होना बेमाने हो गया. यह उन की सच्ची महानता थी.

वे यदि महान हैं तो इसलिए नहीं कि वे कभी केशधारी थे. वे इसलिए भी महान नहीं हैं कि वे कभी आर्यसमाजी विचारधारा के पक्षधर थे. उन की महानता उन की उस स्पष्टमानवी, बुद्घिवादी और वैज्ञानिक विचारधारा में निहित है, जिस पर वे जीवन के अंतिम क्षणों तक चले और अटल बने रहे.

भगत सिंह जब जेल में बंद थे और उन के केस का फैसला आने वाला था, तभी उन्हें मालूम पड़ चुका था कि अंगरेज सरकार उन्हें जीवित छोड़ने वाली नहीं. उन्होंने 5 और 6 अक्तूबर, 1930 को एक लेख के रूप में अपनी विचारधारा को अंगरेजी में लिपिबद्घ किया, जो 27 सिंतबर, 1931 को लाहौर से प्रकाशित होने वाले ‘द पीपल’ में ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ शीर्षक से छपा था. ध्यान रहे 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी थी.

लेख में भगत सिंह ने इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर दिया है कि मैं नास्तिक क्यों हूं. अपने बारे में चर्चा करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘मेरे दादा, जिन के प्रभाव में मेरा पालनपोषण हुआ, कट्टर आर्यसमाजी हैं… मैं लाहौर के डीएवी स्कूल में सुबह और शाम की प्रार्थनाओं के अलावा भी घंटों गायत्री मंत्र जपता रहा… आगे चल कर मैं अपने पिता के साथ रहने लगा… वे उदारवादी हैं… अब, मैं बिना कटेछंटे दाढ़ी और केश रखने लगा था, मगर मैं सिख मत या किसी अन्य धर्म के मिथकों व सिद्घांतों में विश्वास कभी नहीं कर पाया. फिर भी ईश्वर के अस्तित्व में मेरी पक्की आस्था थी.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 457)

भगत सिंह जब क्रांतिकारी दल में शामिल हुए तो अनेक क्रांतिकारी नेताओं से उन का संपर्क हुआ. वे लिखते हैं, ‘‘मैं पहलेपहल जिस नेता के संपर्क में आया, वह ईश्वर को मानता तो नहीं था लेकिन उस के अस्तित्व को नकारने का साहस भी उस में नहीं था. जब मैं उस से ईश्वर के बारे में लगातार प्रश्न करता तो वह कह दिया करता था ‘जब तुम्हारा मन करे, प्रार्थना कर लिया करो.’ ’’

इस के बाद भगत सिंह शचींद्रनाथ सान्याल के संपर्क में आए, जो आस्तिक थे. उन्होंने अपनी एकमात्र किताब ‘बंदीजीवन’ के पहले पृष्ठ से ही ईश्वर की महिमा का जबरदस्त गुणगान किया है.

भगत सिंह लिखते हैं कि काकोरी कांड के चारों विख्यात शहीदों ने अपना अंतिम दिन प्रार्थनाएं करते हुए बिताया था. रामप्रसाद बिस्मिल कट्टर आर्यसमाजी थे. समाजवाद और साम्यवाद के अपने विस्तृत अध्ययन के बावजूद राजेंद्र लाहिड़ी उपनिषदों और गीता के श्लोकों का पाठ करने की अपनी इच्छा को दबा नहीं सके. उन लोगों में मैं ने सिर्फ एक आदमी ऐसा देखा जो कभी प्र्रार्थना नहीं करता था, लेकिन ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस वह भी कभी नहीं जुटा सका.

वे लिखते हैं कि ऐसे में जब आगे चल कर क्रांतिकारी आंदोलन की पूरी जिम्मेदारी मुझे अपने कंधों पर उठाने का मौका मिला तो मेरे दिमाग के हर कोने-अंतरे से एक ही आवाज रहरह कर उठती ‘अध्ययन करो, स्वयं को विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनाने के लिए अध्ययन करो’, ‘अपने मत के समर्थन में तर्कों से लैस होने के लिए अध्ययन करो.’

आतंकवाद से मुंह मोड़ा

भगत सिंह के शब्दों में, ‘‘मैं ने अध्ययन करना शुरू किया. उस से मेरी पूर्ववर्ती आस्थाओं और मान्यताओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. केवल हिंसात्मक उपायों में विश्वास करने का रूमानीपन जाता रहा. रहस्यवाद और अंधविश्वास के लिए अब कोई गुंजाइश नहीं रही. यथार्थवाद हमारा मत बन गया.’’

अपने अध्ययन का संक्षिप्त सा परिचय देते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मैं ने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, थोड़ा सा साम्यवाद के जनक कार्ल मार्क्स को पढ़ा और अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति करने वाले लेनिन, त्रात्सकी और अन्य लोगों को खूब पढ़ा. ये सब नास्तिक थे. बाकुनिन की पुस्तक ‘ईश्वर और राज्य’ अधूरीसी होने के बावजूद इस विषय का एक रोचक अध्ययन है. बाद में निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मेरे पढ़ने में आई.

‘‘अध्ययन के फलस्वरूप 1926 के अंत तक मैं इस बात का कायल हो गया कि सारी दुनिया को बनाने, चलाने और निमंत्रित करने वाली कथित सर्वशक्तिमान परमसत्ता का अस्तित्व निराधार है. मैं ने अपने अविश्वास के बारे में दूसरों को बता भी दिया था. मित्रों के साथ मैं इस विषय पर बहस करने लगा. मैं घोषितरूप से नास्तिक बन चुका था.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 459).

मई 1927 में भगत सिंह की गिरफ्तारी हुई उस घटना के लिए जिस के लिए वे जिम्मेदार नहीं थे. 1926 के दशहरे के दिन भीड़ पर किसी द्वारा फेंके बम केस में उन्हें धमकाया, फुसलाया गया. सीआईडी के तत्कालीन वरिष्ठ अधीक्षक मि. न्यूमैन ने उन से कहा, ‘मेरे पास तुम्हें सजा दिलाने और फांसी पर चढ़ाने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं.’

भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मैं पूरी तरह बेकुसूर था, फिर भी मुझे पता था कि पुलिस चाहे तो मुझे किसी भी केस में फंसा कर सजा दिला सकती है.’’

उन दिनों कुछ पुलिस अफसरों ने भगत सिंह को सुबहशाम दोनों समय नियमपूर्वक प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया. भगत सिंह ने अपने मन में सोचा कि क्या वे सुखशांति के दिनों में ही नास्तिक होने की शेखी बघारते हैं या ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी अपने सिद्घांतों पर अटल रह सकते हैं. वे लिखते हैं, ‘‘बहुत सोचविचार करने के बाद मैं ने यह निश्चय किया कि मैं स्वयं को ईश्वर में विश्वास करने और उस की प्रार्थना करने के लिए तैयार नहीं कर सकता और मैं ने प्रार्थना नहीं की.’’

आत्मविश्वास बनाम अहंमन्यता

भगत सिंह से उन के साथी कहते रहे कि ईश्वर को न मानना उन की अहंमन्यता है, अहंकार है. साथियों की बात को काटते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘आदमी ईश्वर में बड़ी राहत और दिलासा पा सकता है, जबकि उस (ईश्वर) के बिना आदमी को अपने ऊपर ही भरोसा करना होता है और आंधियोंतूफानों के बीच अपने पैरों पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है. परीक्षा की ऐसी घडि़यों में अहंमन्यता (वेनिटी) अगर हो भी, तो कपूर की तरह उड़ जाती है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता, अगर करता है तो हमें कहना पड़ेगा कि उस में निरी अहंमन्यता के अलावा और ताकत है.’’

भगत सिंह आगे लिखते हैं, ‘‘सब लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे मुकदमे का फैसला क्या होना है. (जिस दिन भगत सिंह ने यह वाक्य लिखा उस के तीसरे दिन 7 अक्तूबर को उन्हें फांसी की सजा हो गई थी.) हफ्तेभर में वह सुना भी दिया जाएगा. मेरे लिए इस खयाल के अलावा और क्या राहत हो सकती है कि मैं एक उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूं. ईश्वर में विश्वास करने वाला हिंदू राजा के रूप में पुनर्जन्म लेने की आशा कर सकता है, मुसलमान या ईसाई जन्नत में मिलने वाले मजे लूटने और अपनी मुसीबतों व कुरबानियों के बदले ईनाम हासिल करने के सपने देख सकता है. मगर मैं किस चीज की उम्मीद करूं?

‘‘मैं जानता हूं कि जब मेरी गरदन में फांसी का फंदा डाल कर मेरे पैरों के नीचे से तख्ते खींचे जाएंगे, सबकुछ समाप्त हो जाएगा. वही मेरा अंतिम क्षण होगा. मेरा, अथवा आध्यात्मिक शब्दावली में कहूं तो, मेरी आत्मा का, संपूर्ण अंत उसी क्षण हो जाएगा. बाद के लिए कुछ नहीं बचेगा. अगर मुझ में इस दृष्टि से देखने का साहस है तो एक छोटा सा संघर्षमय जीवन ही, जिस का अंत भी कोई शानदार अंत नहीं, अपनेआप में मेरा पुरस्कार होगा. बस, और कुछ नहीं.’’

वे आगे लिखते हैं, ‘‘किसी स्वार्थपूर्ण इरादे के बिना, इहलोक या कथित परलोक में कोई पुरस्कार पाने की इच्छा के बिना, बिलकुल अनासक्त भाव से मैं ने अपना जीवन आजादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया क्योंकि मैं ऐसा किए बिना रह नहीं सका.’’

अहंमन्यता नहीं, आत्मविश्वास

भगत सिंह के सिद्घांत को अहंमन्यता नहीं कहा जा सकता. यह आत्मविश्वास है. जो लोग इसे अहंमन्यता कहते हैं, उस का कारण दूसरा है. ‘‘आप जब भी लकीर से हट कर चलेंगे, किसी प्रचलित विश्वास का विरोध करेंगे अथवा किसी नायक या महान व्यक्ति की आलोचना करेंगे तो आप के तर्कों से पराजित व मजबूर हो कर लोग आप को अहंकारी कह कर आप का मजाक उड़ाएंगे. इस का कारण मानसिक जड़ता है,’’ भगत सिंह लिखते हैं.

क्रांतिकारी के गुण

क्रांतिकारी में, भगत सिंह के अनुसार, 2 गुण अनिवार्य होते हैं- आलोचना और स्वतंत्र चिंतन. उन के अनुसार, ‘‘क्रांतिकारी यह नहीं मानता कि महात्माजी महान हैं, सो किसी को उन की आलोचना नहीं करनी चाहिए. चूंकि वे पहुंचे हुए आदमी हैं इसलिए राजनीति, धर्म, अर्थशास्त्र या नीतिशास्त्र पर वे जो कुछ भी कह देंगे, वह सही ही होगा, आप सहमत हों या न हों, आप को कहना ही होगा कि यही सत्य है. यह मानसिकता प्रगति की ओर नहीं ले जा सकती.’’

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘इसी तरह ईश्वर में विश्वास है. हमारे पूर्वजों ने किसी परमसत्ता में, ईश्वर में, विश्वास बना लिया था. उस के विरोध में जब तर्क दिया जाता तो उस का जवाब देने में अपने को असमर्थ पा कर ईश्वरवादी कभी उस के कोप के कारण आने वाली मुसीबतों का भय दिखाते और कभी उसे तर्क देने वाले को काफिर, गद्दार, नास्तिक आदि कह कर दबाते और कभी उसे अहंकारी, अहंमन्य आदि कह कर उस का मजाक उड़ाते. परंतु यह सब इस बात का प्रमाण था कि ईश्वरवादियों के पास विरोधी तर्कों का न जवाब था और न उन के तर्क विरोधियों को कायल करने वाले थे.’’

यथार्थ का सामना

भगत सिंह जीवन के यथार्थ का सामना बिना किसी नशे के, वह चाहे भक्ति का हो या परलोक में मिलने वाले बताए जाते स्वर्ग या रहस्यवाद आदि का, करने के पक्षधर थे. कई बार संभव है, आदमी फिसल जाए, परंतु यह तो एक अपवाद है और अपवाद को नियम नहीं बनाना चाहिए. इसलिए भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं अपनी नियति का सामना करने के लिए किसी नशे का सहारा लेना नहीं चाहता. मैं यथार्थवादी हूं. मैं अपनी सहजवृत्ति पर विवेक से विजय पाने की कोशिश करता रहा हूं. मैं इस कोशिश में हमेशा कामयाब नहीं रहता हूं. मगर इंसान का फर्ज है कि वह कोशिश करे.’’

प्रगति के लिए आलोचना अनिवार्य

भगत सिंह से पहले के क्रांतिकारी बहुत से मामलों में लकीर के फकीर थे, सिर्फ आजादी के मामले में वे क्रांतिकारी थे. बाकी मामलों में आम आदमी के समान ही दकियानूसी विचार ढोते रहते थे.

सो, भगत सिंह कहते हैं, ‘‘प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से संबंधित हर बात की आलोचना करे, उस में अविश्वास करे और उसे चुनौती दे. प्रचलित विश्वास की एकएक बात के हर कोने-अंतरे की विवेककपूर्ण जांचपड़ताल उसे करनी होगी. यदि कोईर् विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोचविचार के बाद किसी सिद्घांत या दर्शन में विश्वास करता है तो उस के विश्वास का स्वागत है… मगर कोरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक होता है, क्योंकि वह दिमाग को कुंद करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘यथार्थवादी होने का दावा करने वाले को तो समूचे पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी. यदि विश्वास विवेक की आंच बरदाश्त नहीं कर सकता तो ध्वस्त हो जाएगा. यथार्थवादी आदमी को सब से पहले उस विश्वास के ढांचे को पूरी तरह गिरा कर उस की जगह एक नया दर्शन खड़ा करने के लिए जमीन साफ करनी होगी.’’

सकारात्मक कार्य

भगत सिंह कहते हैं कि कई बार पुराने विश्वास की कुछ सामग्री पुनर्निर्माण के लिए भी इस्तेमाल की जा सकती है यदि वह किसी काम की हो, जैसे भौतिकवादी दृष्टि या आलोचनात्मक दृष्टि के लिए प्राचीन चार्वाक दर्शन का कुछ हद तक आज भी उपयोग किया जा सकता है.

हमारा दर्शन

अपने दर्शन का सारांश प्रस्तुत करते हुए भगत सिंह कहते हैं कि हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और प्रकृति को मानव की सेवा में नियोजित करने के लिए उसे मनुष्य की वशवर्ती बनाना समूचे प्रगतिशील आंदोलन का लक्ष्य है. उसे चलाने वाली कोई चेतनाशक्ति उस के पीछे नहीं है. यही हमारा दर्शन है.

क्यों नहीं है?

भगत सिंह ईश्वर नामक चेतनाशक्ति के अस्तित्व से इनकार करते हैं तो अकारण नहीं. वे अपने कारण प्रस्तुत करते हैं, अपने तर्क पेश करते हैं और अपने प्रश्न उठाते हैं, जिन के आज तक किसी ने संतोषजनक उत्तर नहीं दिए हैं.

ईश्वरवादियों से प्रश्न

भगत सिंह ईश्वरवादियों से कहते हैं कि यदि आप के अनुसार कोई सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर है तो उस ने ऐसी दुनिया क्यों बनाई, जिस में तमाम दुख हैं, तकलीफें हैं, त्रासदियों का एक अनंत व निरंतर सिलसिला है और एक भी प्राणी पूरी तरह संतुष्ट नहीं?

वे कहते हैं कि आप यह मत कहना कि ईश्वर नियम का बंधा है, क्योंकि यदि उसे नियम का बंधा कहोगे तो फिर वह सर्वशक्तिमान नहीं रहेगा. तब तो वह हमजैसा ही एक गुलाम है.

शाश्वत नीरो

भगत सिंह कहते हैं कि यह भी मत कहना कि यह उस की लीला है, जिस में उसे आनंद आता है. वेदांत में उस की लीला की ही बात की जाती है. इसीलिए तो रामलीला और कृष्णलीला हैं परंतु भगत सिंह कहते हैं, ‘‘नीरो ने तो एक ही रोम को जलाया था, उस ने तो थोड़े से ही लोगों की जानें ली थीं, फिर भी इतिहास में उस की जगह कहां है? इतिहासकार उसे किस नाम से याद करते हैं? उस पर दुनियाभर की नफरतभरी लानतें बरसाईर् जाती हैं. अत्याचारी, हृदयहीन और दुष्ट नीरो की भर्त्सना करते हुए पृष्ठ पर पृष्ठ गालियों से भरी कटु निंदाओं से काले किए गए हैं.

‘‘एक चंगेजखां था, जिस ने हत्या का आनंद लेने के लिए कुछ हजार लोगों की जानें ली थीं और हम उस के नाम तक से नफरत करते हैं.

‘‘तब आप अपने सर्वशक्तिमान, शाश्वत नीरो को उचित कैसे ठहराएंगे जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य त्रासदियों को जन्म देता रहा है और आज भी दे रहा है? कैसे आप उस के इन कुकृत्यों का समर्थन करेंगे, जो प्रतिक्षण चंगेजखां के दुष्कृत्यों को मात करते हैं.’’

(भगत सिंह और उन के साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृ. 464).

भगत सिंह आगे कहते हैं, ‘‘मैं पूछता हूं उस ने यह दुनिया बनाई ही क्यों, जो साक्षात नरक है, अनंत और तलख बेचैनी का घर है? उस कथित सर्वशक्तिमान ने मनुष्य की सृष्टि क्यों की जबकि उस के पास ऐसी सृष्टि न करने की शक्ति थी? इस सब का औचित्य क्या है?’’

परलोक का तर्क या ग्लैडिएटरों का?

ईश्वरवादी कहा करते हैं कि जो निर्दोष यहां उत्पीडि़त होते हैं, उन्हें परलोक में पुरस्कार मिलता है और जो यहां कुकर्म करते हैं, वे परलोक में दंडित होते हैं.

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप उस आदमी को कहां तक सही ठहराएंगे जो बाद में मुलायम और आरामदेह मरहम लगाने के लिए आप के शरीर को जख्मों से छलनी कर दे?’’ वे ग्लैडिएटरों का उदाहरण दे कर पूछते हैं, ‘‘ग्लैडिएटरों की संस्था के समर्थक और प्रबंधक, जो पहले तो लोगों को भूखे और कु्रद्घ शेरों के सामने फेंक देते थे और बाद में अगर वे लोग जिंदा बच जाते तो उन की बड़ी अच्छी तरह देखभाल करते थे, कहां तक सही थे? इसीलिए मैं पूछता हूं कि उस कथित चेतन परमसत्ता ने इस दुनिया की और उस में भी मनुष्य की सृष्टि क्यों की? अपने मजे के लिए? तो फिर उस में और नीरो में क्या फर्क है?’’

ईसाइयों और मुसलमानों से

भगत सिंह ईसाइयों और मुसलमानों को संबोधित कर के कहते हैं कि आप के पास उपरोक्त प्रश्न का क्या उत्तर है? आप तो हिंदुओं की तरह यह तर्क भी नहीं दे सकते कि प्रत्यक्षरूप से निर्दोष लोग इसलिए दुख पा रहे हैं कि इन्होंने पिछले जन्म में बुरे कर्म किए थे, क्योंकि आप लोग तो पूर्वजन्म में विश्वास ही नहीं करते.

वे कहते हैं, ‘‘मैं आप ईसाइयों और मुसलमानों से पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिमान ने 6 दिनों तक शब्द के द्वारा इस दुनिया को बनाने की मेहनत क्यों की और क्यों प्रतिदिन यह कहा कि ‘सब ठीक है.’

‘‘आज उसे बुलाइए, उसे पिछला इतिहास दिखाइए, उस से कहिए कि वह वर्तमान स्थिति का अध्ययन करे. देखें तब वह कैसे कहता है कि ‘सब ठीक है.’

‘‘जेलों की कालकोठरियों, गंदी बस्तियों और झुग्गीझोंपडि़यों में भूखे मरते लाखों लोगों, शोषित और जरूरतमंदों में बांटने के बजाय अतिरिक्त उत्पादन को समुद्र में फेंक देने जैसे कार्यों से ले कर नरकंकालों की नींव पर खड़े किए गए शाही महलों तक हर चीज उसे दिखाइए और जरा उस से कहलवाइए कि ‘सब ठीक है.’

‘‘यह सब क्यों और कहां से आया? यह है मेरा सवाल.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 465).

पूर्वज चालाक थे

भगत सिंह हिंदुओं से कहते हैं, ‘‘अच्छा, हिंदुओ, आप कहते हैं कि जो लोग आज दुख पा रहे हैं, वे पूर्वजन्मों के पापी हैं. ठीक, आप यह भी कहते हैं कि आज के उत्पीड़क लोग पूर्वजन्मों के धर्मात्मा हैं, इसलिए उन के हाथ में सत्ता है.’’

इस पर टिप्पणी करते हुए भगत सिंह लिखते हैं, ‘‘मानना पड़ेगा कि आप के पूर्वज बड़े चालाक थे. उन्होंने ऐसे सिद्घांत खोज निकालने का प्रयास किया जिन से विवेक और अविश्वास के आधार पर की जाने वाली तमाम कोशिशों को दबा दिया जाए.’’

वे अपराध और दंड की चर्चा करते हुए कहते हैं कि दंड का उद्देश्य या तो बदला लेना हो सकता है या सुधार करना या फिर दंड के भय से लोगों को अपराध करने से रोकना (निवारण).

बदले के लिए दंड देने को आज कोई बुद्घिमान उचित नहीं मानता. भगत सिंह कहते हैं कि निवारण के सिद्घांत का यही हश्र होने वाला है. सो, एकमात्र सुधार का सिद्घांत ही सारवान है जो मानवीय प्रगति के लिए अपरिहार्य है. इस का उद्देश्य है दोषी व्यक्ति को अत्यंत सुयोग्य व शांतिप्रिय बना कर समाज को वापस कर देना.

वे कहते हैं, ‘‘अब अगर हम सभी मनुष्यों को अपराधी मान भी लें तो ईश्वर द्वारा उन्हें दी जाने वाली सजा कैसी है? मैं पूछता हूं, इस का मनुष्य पर कौन सा सुधारात्मक प्रभाव पड़ता है? आप को ऐसे कितने लोग मिले जो कहते हों कि पाप करने के कारण पिछले जन्म में वे गधा बने थे? एक भी नहीं. अपने पुराणों के उद्घरण रहने दीजिए. आप की पौराणिक कहानियों के लिए मेरे पास फुरसत नहीं है.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 466).

गरीबी : सजा या पाप?

ईश्वरवादियों से भगत सिंह कहते हैं, ‘‘दुनिया में सब से बड़ा पाप गरीब होना है. परंतु आप के अनुसार, यह लोगों को ईश्वर द्वारा दी गई सजा है. मैं पूछता हूं कि आप उस अपराधविज्ञानी को, उस विधिवेत्ता या विधायक को कैसे उचित ठहराएंगे जो आदमी के लिए ऐसी सजाएं सुझाए व तजवीज करे जो उसे अनिवार्यतया और ज्यादा अपराध करने के लिए मजबूर करने वाली हों? गरीबी में पड़ा व्यक्ति तो और भी अपराध करने को विवश होता है. क्या आप के ईश्वर ने इस चीज पर गौर नहीं किया? या, उसे भी ऐसी बातें अनुभव से सीखनी पड़ती है?’’

विषय को स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं, ‘‘किसी गरीब, अनपढ़, अछूत परिवार में पैदा होने वाले आदमी की नियति क्या होगी? वह गरीब है, इसलिए पढ़लिख नहीं सकता. उस के इर्दगिर्द के लोग अपने को श्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि वे तथाकथित ऊंची जातियों जन्में हैं, वे उसे अछूत मान कर अलगथलग रखते हैं.

‘‘उस का अज्ञान, उस की गरीबी और उस के साथ किया जाने वाला बरताव उसे समाज के प्रति कठोर हृदय बना देगा. अब वह यदि कोई पाप करता है, तो उस की सजा कौन भुगतेगा? ईश्वर या वह स्वयं या समाज के ज्ञानवान लोग?’’

भगत सिंह बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘‘घमंडी और स्वार्थी ब्राह्मणों द्वारा जानबूझ कर अज्ञानी बना कर रखे गए उन लोगों की सजा के बारे में आप क्या कहते हैं जिन्हें आप के पवित्र ज्ञानग्रंथों, अर्थात वेदों, की कुछ पंक्तियां सुन लेने का दंड अपने कानों में पिघले हुए गरम रांगे (सीसे) की धार झेल कर भरना पड़ता था? उन का अगर कोई अपराध था भी तो उस के लिए जिम्मेदार कौन था और उस का परिणाम किस को भुगतना चाहिए था.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 466).

अमरता का सिद्घांत : लूट का लाइसैंस

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मेरे प्यारे दोस्तो, ये सिद्घांत का विशेषाधिकारप्राप्त लोगों के मनगढं़त सिद्घांत हैं. इन सिद्घांतों द्वारा वे बलात् थियाई हुई अपनी शक्ति, संपन्नता और श्रेष्ठता को उचित ठहराते हैं.’’

अपटन सिंक्लैर ने कहीं लिखा है कि आदमी को अमरता में विश्वास करने वाला बना दो, फिर उस की चाहे सारी धनसंपत्ति लूट लो, वह उफ तक नहीं करेगा. यही नहीं, वह अपने को लूटने में खुद आप की मदद करेगा. धार्मिक उपदेशकों और सत्ताधारियों की मिलीभगत से ही जेलों, फांसियों, कोड़ों और इन सिद्घांतों का निर्माण हुआ है.

ईश्वर : बुराई से रोकता क्यों नहीं?

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं आप से पूछता हूं कि आदमी जब पाप या अपराध करना चाहता है, तब आप का सर्वशक्तिमान ईश्वर उसे रोकता क्यों नहीं? उस के लिए तो यह बहुत आसान होना चाहिए, फिर उस ने जंगबाजों को मार कर या उन के भीतर के युद्घोन्माद को मार कर मानवता को विश्वयुद्घ की महाविपत्ति से क्यों नहीं बचाया? वह अंगरेजों के मन में कोई ऐसी भावना क्यों पैदा नहीं कर देता कि वे भारत को आजाद कर दें?’’

(ध्यान रहे ये बातें 1930 में लिखी गई हैं.)

शक्ति ईश्वर में नहीं, तोपों और फौजों में है

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप गोलमाल तर्क देना बंद कीजिए. वे नहीं चलेंगे. अंगरेजों का शासन यहां इसलिए नहीं है कि यह कथित ईश्वर की इच्छा है, बल्कि इसलिए है कि उन के पास ताकत है और हम उन का विरोध नहीं करते. वे ईश्वर की सहायता से नहीं, बल्कि तोपों, बंदूकों, बमों, गोलियों, पुलिस व फौज की सहायता से तथा हमारी उदासीनता के चलते हमें गुलाम बनाए हुए हैं. और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का निर्लज्ज शोषण करने का सब से घृणित पाप समाज के विरुद्घ सफलतापूर्वक करते चले जा रहे हैं.’’

इस के बाद भगतसिंह निष्कर्ष स्वरूप पूछते हैं, ‘‘कहां है ईश्वर? क्या कर रहा है वह? क्या वह मानवजाति के इन सब दुखोंकष्टों का मजा ले रहा है? तब तो वह नीरो है, चंगेजखां है, उस का नाश हो.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 467).

दुनिया व इंसान कहां से आए

यदि तुम मुझ से पूछते हो कि यदि ईश्वर नहीं है तो यह दुनिया व इंसान कहां से आए, तो मैं तुम्हें बताता हूं, तो चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर प्रकाश डालने की कोशिश की है. उस का अध्ययन कीजिए. निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ पढि़ए. (अब और बहुत सी पुस्तकें उपलब्ध हैं, यथा गुणाकर मूले कृत ‘ब्रह्मांड परिचय’, हाकिंज कृत ‘समय का इतिहास’, प्रगति प्रकाशन, मास्को की ‘मानव जाति की उत्पत्ति’ आदि). इन के अध्ययन से आप के सवाल का जवाब मिल जाएगा.

यह दुनिया बनना एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के आकस्मिक संयोग से उत्पन्न नीहारिका से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई. कब? यह जानने के लिए इतिहास देखिए. इसी प्रकार जीवधारी उत्पन्न हुए और उन में से ही एक लंबे अरसे बाद मनुष्य का विकास हुआ. (ध्यान रहे, विकास हुआ, उत्पत्ति नहीं हुई.) डार्विन की पुस्तक ‘जीवों की उत्पत्ति’ (अब यह हिंदी में भी उपलब्ध है) पढि़ए.

आप का दूसरा तर्क कि जन्म से ही अंधे या लंगड़े पैदा होने वाले बच्चे यदि पूर्वजन्म के कर्मों के कारण ऐसे नहीं हैं, तो किस कारण से ऐसे हैं?

भगत सिंह कहते हैं कि इस विषय में मेरा उत्तर है कि जीवविज्ञानी इस की व्याख्या कर चुके हैं कि यह एक जीव वैज्ञानिक घटना है, न कि ईश्वरीय या कार्मिक. उन के अनुसार, इस के लिए बहुत बार मातापिता उत्तरदायी होते हैं, जो तरहतरह के नशे करते हैं या दवाइयां खाते हैं या दूसरे कई तरह के उलटेसीधे काम करते हैं चाहे वे गर्भावस्था में ही बच्चे में हो जाने वाली विकृतियों को जन्म देने वाले अपने कार्यों के प्रति सचेत हों या न हों.

ईश्वर नहीं तो विश्वास कैसे जन्मा?

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘आप पूछ सकते हैं कि यदि ईश्वर था ही नहीं तो लोग उस में विश्वास कैसे करने लग गए?’’ उत्तर में वे कहते हैं, ‘‘इस बचकाना प्रश्न के उत्तर में मैं संक्षेप में यही कहूंगा कि जिस तरह लोग भूतों और प्रेतात्माओं में विश्वास करने लगे, उसी तरह ईश्वर में विश्वास करने लगे, फर्क सिर्फ यह है कि भूतों आदि की अपेक्षा ईश्वर में विश्वास सर्वव्यापी है और इस का दर्शन बहुत विकसित है. पर चीज एक ही है.’’

ईश्वर : शोषकों की चालबाजी?

कई लोग यह कहा करते हैं कि ईश्वर की उत्पत्ति उन शोषकों की चालबाजी से हुई है जो एक परमसत्ता के अस्तित्व का प्रचार कर के और फिर उस से प्राप्त होने वाली सत्ता व विशेषाधिकारों का दावा कर के लोगों को गुलाम बनाना चाहते थे.

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘मैं यह नहीं मानता कि ईश्वर को उन्हीं लोगों ने पैदा किया, चाहे मैं इस मूल बात से सहमत हूं कि सभी विश्वास, धर्म, मत और इस प्रकार की अन्य संस्थाएं आखिरकार दमनकारी तथा शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों और वर्गों की समर्थक बन कर ही रहीं. राजा के विरुद्घ विद्रोह करना हर धर्म के मुताबिक पाप रहा है.’’

नास्तिक : आत्मविश्वास व दृढ़ता

भगत सिंह कहते हैं, ‘‘ईश्वर में विश्वास के विरुद्घ उसी तरह संघर्ष करना होगा जिस तरह मूर्तिपूजा और धार्मिक संकीर्णताओं के विरुद्घ किया गया है. जब मानव अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करेगा और यथार्थवादी बनेगा, वह आदिम युग के इस अवशेष ईश्वर में विश्वास को छोड़ देगा, उसे अपनी आस्तिकता को झटक कर फेंक देना पड़ेगा. तब परिस्थितियां चाहे उसे कैसी भी मुसीबत और परेशानी में डाल दें उसे उन का मुकाबला दृढ़ता के साथ करना पड़ेगा. मेरी हालत ठीक इसी तरह की है.’’

प्रेरणास्रोत नास्तिक

वे आगे कहते हैं, ‘‘मेरे दोस्तो, यह मेरी अहंमन्यता नहीं है. यह मेरे सोचने का तरीका है, जिस ने मुझे नास्तिक बना दिया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास करने और रोज प्रार्थना करने से, जिसे मैं आदमी का सब से स्वार्थपूर्ण और घटिया काम समझता हूं, मुझे राहत मिलती या मेरी हालत और भी बदतर हुई होती.’’

‘‘मैं ने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने साहसपूर्वक सारी मुसीबतों का सामना किया. उन्हीं की तरह मैं भी यह कोशिश कर रहा हूं कि आखिर तक, फांसी के तख्ते पर भी, मर्द की तरह सिर ऊंचा किए खड़ा रहूं. देखिए, इस कोशिश में कहां तक कामयाब होता हूं.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज, पृ. 469)

आस्तिकता : स्वार्थ व पस्तहिम्मती

भगत सिंह कहते हैं कि एक मित्र ने उन से प्रार्थना करने के लिए कहा था. लेकिन जब उसे पता चला कि मैं नास्तिक हूं तो उस ने कहा, ‘अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैं ने उत्तर में कहा, ‘नहीं जनाब, यह नहीं होगा. मैं इसे अपने लिए अपमान और पस्तहिम्मती का काम समझूंगा. स्वार्थपूर्ण इरादों से प्रार्थना हरगिज नहीं करूंगा.’

अंत में भगत सिंह कहते हैं, ‘‘पाठकों और मित्रो, क्या यह अहंमन्यता है? अगर है, तो मैं इस का हामी हूं.’’

(भगत सिंह… दस्तावेज पृ. 469)

इतिहास गवाह है कि भगत सिंहको जब फांसी पर लटकाने के लिए जेल के अधिकारी व संतरी गए तो वे कालकोठरी में लेनिन के बारे में एक किताब पढ़ रहे थे.

वीरेंद्र सिंधू ने अपनी पुस्तक में उस समय का जो चित्र, संतरी के कहे के अनुसार, चित्रित किया है, वह कुछ इस प्रकार है : भगत सिंह अपने मित्र व वकील प्राणनाथ मेहता से मंगवाईर् लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे जब दरवाजा खुला. दहलीज पर अफसर खड़ा था.

‘‘सरदारजी,’’ उस ने कहा, ‘‘फांसी लगाने का हुक्म आ गया है. तैयार हो जाइए.’’

भगत सिंह के दाएं हाथ में किताब थी. उस से नजरें उठाए बिना ही उन्होंने बायां हाथ उठा कर कहा, ‘‘ठहरिए. यहां एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है.’’

कुछ पंक्तियां और पढ़ कर उन्होंने किताब एक तरफ रख दी और उठ खड़े हुए तथा बोले, ‘‘चलिए.’’

इस तरह के थे भगत सिंह. उन्होंने जिस नास्तिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया, जीवन के अंतिम क्षण तक फांसी के फंदे को चूमने तक उस पर दृढ़ रहे. न कोई पूजा, न पाठ, बल्कि उन क्षणों में एकदूसरे नास्तिक व्यक्तित्व लेनिन की पुस्तक का अध्ययन किया.

जो लोग आज भगत सिंह के समागमों क अवसर पर धार्मिक पाखंड करते हैं, वे दरअसल उस शहीद का घोर अपमान करते हैं. यदि हमें भगत सिंह के प्रति जरा भी लगाव है, उन के प्रति हमारे अंदर यदि जरा भी सम्मान है, तो हमें उन्हें उसी रूप में स्वीकार करना होगा जो उन का अपना असली स्वरूप है. यदि उन के विचार हम में से किसी को अच्छे नहीं लगते, तो उसे उन्हें पूजने, उन के समागम करने की क्या विवशता है? हमें उन्हें अपनी इच्छा या पसंद के अनुरूप विकृत करने का, उन का कार्टून बनाने का कोई अधिकार नहीं है.

भगत सिंह तभी तक भगत सिंह  हैं जब हम उन की कथनी और करनी को एकसाथ उसी रूप में स्वीकार करते हैं जिस क दर्शन उन के लेख और कालकोठरी के अंदर के उन के जीवन में पाते हैं. यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम उन की पैरोडी बनाने का जघन्य कुकृत्य कर रहे होंगे, जो एक अक्षम्य अपराध होगा.

सशक्त प्रेरणास्रोत

आज 21वीं शताब्दी में जब भारत, धर्म के नाम पर पाखंड के साथसाथ आतंकवाद की मार भी झेल रहा है, दूरदर्शन के विभिन्न चैनल जब धर्म के नाम पर हर तरह की संकीर्णता, अंधविश्वास, क्रूरता और अवैज्ञानिकता को निरंतर परोस रहे हैं, चारों ओर भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता और उत्तरदायित्वहीनता का बोलबाला है, धर्म के अनेक स्वयंभू ठेकेदारों व धर्मध्वजियों के घिनौने चेहरों पर से परदा उठ रहा है और युवा पीढ़ी राजनीतिबाजों व धर्म के धंधेबाजों से निराश व हताश हो कर उद्देश्यहीनता के चौराहे पर पहुंच गई है.

तब, आशा है कि शहीद ए आजम भगत सिंह के ये विचार व उन का बलिदान उसे वैज्ञानिक विचारधारा अपनाने, देश के लिए निस्वार्थभाव से कुछ कर गुजरने और अपना दायित्व पहचानने के लिए सशक्त प्रेरणास्रोत सिद्घ होंगे.

तुम्हारे हिस्से में : भाग 1

बाइक ‘साउथ सिटी’ मौल के सामने आ कर रुकी तो एक पल के लिए दोनों के बदन में रोमांच से गुदगुदी हुई. मौल का सम्मोहित कर देने वाला विराट प्रवेशद्वार. द्वार के दोनों ओर जटायु के विशाल डैनों की मानिंद दूर तक फैली चारदीवारी. चारदीवारी पर फ्रेस्को शैली के भित्तिचित्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय उत्पादों की नुमाइश करते बड़ेबड़े आदमकद होर्डिंग्स और विंडो शोकेस. सबकुछ इतना अचरजकारी कि देख कर आंखें बरबस फटी की फटी रह जाएं.

भीतर बड़ा सा वृत्ताकार आंगन. आंगन के चारों ओर भव्यता की सारी सीमाओं को लांघते बड़ेबड़े शोरूम. बीच में थोड़ीथोड़ी दूर पर आगतों को मासूमियत के संग अपनी हथेलियों पर ले कर ऊपर की मनचाही मंजिलों तक ले जाने के लिए तत्पर एस्केलेटर.

‘‘कैसा लग रहा है, जेन?’’ नाम तो संजना था, पर हर्ष उसे प्यार से जेन पुकारता. शादी के पहले संजना मायके में ‘संजू’ थी. शादी के बाद हर्ष उसे बांहों में भरते हुए ठुनका था, ‘संजू कैसा देहाती शब्द लगता है. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सबकुछ ग्लोबल होना चाहिए, नाम भी. इसलिए आज से मैं तुम्हें जेन कहूंगा, माय जेन फोंडा.’

‘‘अद्भुत,’’ संजना के होंठों की लिपस्टिक में गर्वीली ठनक घुल गई. चेहरा ओस में नहाए गुलाब सा खिल गया, ‘‘लगता है, पेरिस का मिनी संस्करण ही उतर आया हो यहां.’’

‘‘एक बात जान लो. यहां हर चीज की कीमत बाहर के स्टोरों की तुलना में दोगुनी मिलेगी,’’ हर्ष चहका.

संजना खिलखिला कर हंस पड़ी तो लगा जैसे छोटीछोटी घंटियां खनखना उठी हों. होंठों की फांक के भीतर करीने से जड़े मोतियों से दांत चमक उठे. वह शरारत से आंखें नचाती बोली, ‘‘कुछ हद तक बेशक सही है तुम्हारी बात. पर जनाब, इस तरह के मौल में खरीदारी का रोमांच ही कुछ और है. इस रोमांच को हासिल करने के लिए थोड़ा त्याग भी करना पड़ जाए तो सौदा बुरा नहीं.’’

‘‘लगता है, इस क्रैडिट कार्ड का कचूमर निकाल देने का इरादा है आज,’’ हर्ष ने जेब से आयताकार क्रैडिट कार्ड निकाल कर संजना के आगे लहराते हुए कहा. संजना फिर से खिलखिला पड़ी. इस बार उस की हंसी में रातरानी सी महक घुली थी. हंसने से देह में थिरकन हुई तो बालों की एक महीन लट आंखों के पास से होती हुई होंठों तक चली आई.

‘‘तुम औरतों में बचत की आदत तो बिल्कुल नहीं होती,’’ होंठों पर लोटते लट को मुग्ध भाव से देखता हर्ष मुसकराया.

‘‘न, ऐसा नहीं कह सकते तुम. उचित जगह पर भरपूर किफायत और बचत भी किया करती हैं हम औरतें. विश्वास करो, तुम्हारे इस क्रैडिट कार्ड पर जो भी खरोंचें लगेंगी आज, उन पर जल्द ही बचत की पौलिश भी लगा दूंगी. ठीक? पर अभी स्टेटस सिंबल…’’

दोनों एस्केलेटर की ओर बढ़ गए.

‘‘जानते हो हर्ष, पड़ोस के 402 नंबर वाले गुप्ताजी तुम से जूनियर हैं न? उन की मिसेज इसी मौल से खरीदारी कर गई हैं कल,’’ संजना हाथ नचानचा कर बता रही थी, ‘‘आज मैं खबर लूंगी उन की.’’

‘‘नारीसुलभ डाह,’’ हर्ष ने चुटकी ली.

‘‘नहीं, केवल स्टेटस सिंबल,’’ दोनों की आंखों में दुबके शरारत के नन्हे चूजे पंचम स्वर में चींचीं कर रहे थे.

पहली मंजिल. मौल का सब से मशहूर शोरूम ‘अप्सरा’. दोनों शोरूम के भीतर चले आए. अंदर का माहौल तेज रोशनी से जगमगा रहा था. चारों ओर बड़ीबड़ी शैल्फें. वस्त्र ही वस्त्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय ब्रांड. फैशन व डिजाइनों के नवीनतम संग्रह. जीवंत से दिखने वाले पुतले खड़े थे, तरहतरह के डिजाइनर कपड़ों को प्रदर्शित करते हुए.

शोरूम का विनम्र व कुशल सेल्समैन उन्हें खास काउंटर पर ले आया. साडि़यां, जींसटौप, पैंटशर्ट, अंडरगार्मेंट्स…रंगों के अद्भुत शेड्स. एक से बढ़ कर एक कसीदाकारी की नवीनतम बानगी. मनपसंद को चुन लेने की प्रक्रिया 3 घंटे तक चली. आखिरकार चुने हुए वस्त्र ढेर से अलग हुए और आकर्षक भड़कीले पैकेटों में बंद हो कर आ गए. पेमेंट काउंटर पर बिल पेश हुआ, 18,500 रुपए का. क्रैडिट कार्ड पर कुछ खरोंचें लगीं और भुगतान हो गया.

संजना के चेहरे पर संतुष्टि के भाव झलक रहे थे. पैकेटों को चमगादड़ की तरह हाथों में झुलाए कैप्सूल लिफ्ट से नीचे उतरे ही थे कि संजना के पांव थम गए.

‘‘दीवाली के इस मौके पर जींसटौप का एक सैट बुलबुल के लिए भी ले लिया जाए तो कैसा रहेगा, हर्ष? जीजू की ओर से गिफ्ट पा कर तो वह नटखट बौरा ही जाएगी.’’

एक नन्ही परी : भाग 1

विनीता कठघरे में खड़े राम नरेश को गौर से देख रही थीं पर उन्हें याद नहीं आ रहा था कि इसे कहां देखा है. साफ रंग, बाल खिचड़ी और भोले चेहरे पर उम्र की थकान थी. साथ ही, चेहरे पर उदासी की लकीरें थीं. वह उन के चैंबर में अपराधी की हैसियत से खड़ा था. वह आत्मविश्वासविहीन था. लग रहा था जैसे उसे दुनिया से कोई मतलब ही नहीं. वह जैसे अपना बचाव करना ही नहीं चाहता था. कंधे झुके थे. शरीर कमजोर था. वह एक गरीब और निरीह व्यक्ति था. लगता था जैसे बिना सुने और समझे हर गुनाह कुबूल कर रहा था. ऐसा अपराधी उन्होंने आज तक नहीं देखा था. उस की पथराई आंखों में अजीब सा सूनापन था, जैसे वे निर्जीव हों.

लगता था वह जानबूझ कर मौत की ओर कदम बढ़ा रहा था. जज साहिबा को लग रहा था, यह इंसान इतना निरीह है कि यह किसी का कातिल नहीं हो सकता. क्या इसे किसी ने झूठे केस में फंसा दिया है या पैसों के लालच में झूठी गवाही दे रहा है? नीचे के कोर्ट से उसे फांसी की सजा सुनाई गई थी. आखिरी अपील के समय अभियुक्त के शहर का नाम देख कर उन्होंने उसे बुलवा लिया था और चैंबर में बात कर जानना चाहा था कि वह है कौन.

विनीता ने जज बनने के समय मन ही मन निर्णय किया था कि कभी किसी निर्दोष या लाचार को सजा नहीं होने देंगी. झूठी गवाही से उन्हें सख्त नफरत थी. अगर राम नरेश का व्यवहार ऐसा न होता तो शायद जज साहिबा ने उस पर ध्यान भी न दिया होता. दिनभर में न जाने कितने केस निबटाने होते हैं. ढेरों जजों, अपराधियों, गवाहों और वकीलों की भीड़ में उन का समय कटता था. पर ऐसा दयनीय कातिल नहीं देखा था. कातिलों की आंखों में दिखने वाला पश्चाताप या आक्रोश कुछ भी तो नजर नहीं आ रहा था. विनीता अतीत को टटोलने लगीं. आखिर कौन है यह? कुछ याद नहीं आ रहा था.

विनीता शहर की जानीमानी सम्माननीय हस्ती थीं. गोरा रंग, छोटी पर सुडौल नासिका, ऊंचा कद, बड़ीबड़ी आंखें और आत्मविश्वास से भरे व्यक्तित्व वाली विनीता अपने सही और निर्भीक फैसलों के लिए जानी जाती थीं. उम्र के साथ सफेद होते बालों ने उन्हें और प्रभावशाली बना दिया था. उन की चमकदार आंखें एक नजर में ही अपराधी को पहचान जाती थीं. उन के न्यायप्रिय फैसलों की चर्चा होती रहती थी.

पुरुषों के एकछत्र कोर्ट में अपना कैरियर बनाने में उन्हें बहुत तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा था. सब से पहला युद्ध तो उन्हें अपने परिवार से लड़ना पड़ा था. विनीता के जेहन में बरसों पुरानी बातें याद आने लगीं…

घर में सभी प्यार से उसे विनी बुलाते थे. उस की वकालत करने की बात सुन कर घर में तो भूचाल आ गया. मां और बाबूजी से नाराजगी की उम्मीद थी, पर उसे अपने बड़े भाई की नाराजगी अजीब लगी. उन्हें पूरी आशा थी कि महिलाओं के हितों की बड़ीबड़ी बातें करने वाले भैया तो उस का साथ जरूर देंगे. पर उन्होंने ही सब से ज्यादा हंगामा मचाया था.

तब विनी को हैरानी हुई जब उम्र से लड़ती बूढ़ी दादी ने उस का साथ दिया. दादी उसे बड़े प्यार से नन्ही परीबुलाती थीं. विनी रात में दादी के पास ही सोती थी. अकसर दादी कहानियां सुनाती थीं. उस रात दादी ने कहानी तो नहीं सुनाई पर गुरुमंत्र जरूर दिया. दादी ने रात के अंधेरे में विनी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘मेरी नन्ही परी, तू शिवाजी की तरह गरम भोजन बीच थाल से खाने की कोशिश कर रही है. जब भोजन बहुत गरम हो तो किनारे से फूंकफूंक कर खाना चाहिए. तू सभी को पहले अपनी एलएलबी की पढ़ाई के लिए राजी कर, न कि अपनी वकालत के लिए. मैं कामना करती हूं, तेरी इच्छा जरूर पूरी हो.

विनी ने लाड़ से दादी के गले में बांहें डाल दीं. फिर उस ने दादी से पूछा, ‘दादी, तुम इतनी मौडर्न कैसे हो गईं?’

दादी रोज सोते समय अपने नकली दांतों को पानी के कटोरे में रख देती थीं. तब उन के गाल बिलकुल पिचक जाते थे और चेहरा झुर्रियों से भर जाता था. विनी ने देखा दादी की झुर्रियों भरे चेहरे पर विषाद की रेखाएं उभर आईं और वे बोल पड़ीं, ‘बिटिया, औरतों के साथ बड़ा अन्याय होता है. तू उन के साथ न्याय करेगी, यह मुझे पता है. जज बन कर तेरे हाथों में परियों वाली जादू की छड़ी भी तो आ जाएगी न.

अपनी अनपढ़ दादी की ज्ञानभरी बातें सुन कर विनी हैरान थी. दादी के दिए गुरुमंत्र पर अमल करते हुए विनी ने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली. तब उसे लगा, अब तो मंजिल करीब है. पर तभी न जाने कहां से एक नई मुसीबत सामने आ गई. बाबूजी के पुराने मित्र शरण काका ने आ कर खबर दी. उन के किसी रिश्तेदार का पुत्र शहर में ऊंचे पद पर तबादला हो कर आया है. क्वार्टर मिलने तक उन के पास ही रह रहा है. होनहार लड़का है. परिवार भी अच्छा है. विनी के विवाह के लिए बड़ा उपयुक्त वर है. उस ने विनी को शरण काका के घर आतेजाते देखा है. बातों से लगता है कि विनी उसे पसंद है. उस के मातापिता भी कुछ दिनों के लिए आने वाले हैं.

शरण काका रोज सुबह एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में धोती थाम कर टहलने निकलते थे. अकसर टहलना पूरा कर उस के घर आ जाते थे. सुबह की चाय के समय उन का आना विनी को हमेशा बड़ा अच्छा लगता था. वे दुनियाभर की कहानियां सुनाते. बहुत सी समझदारी की बातें समझाते. पर आज विनी को उन का आना अखर गया. पढ़ाई पूरी हुई नहीं कि शादी की बात छेड़ दी. विनी की आंखें भर आईं. तभी शरण काका ने उसे पुकारा, ‘बिटिया, मेरे साथ मेरे घर तक चल. जरा यह तिलकुट का पैकेट घर तक पहुंचा दे. हाथों में बड़ा दर्द रहता है. तेरी मां का दिया यह पैकेट उठाना भी भारी लग रहा है.

बरसों पहले भाईदूज के दिन मां को उदास देख कर उन्होंने बाबूजी से पूछा था. भाई न होने का गम मां को ही नहीं, बल्कि नानानानी को भी था. विनी अकसर सोचती थी कि क्या एक बेटा होना इतना जरूरी है? उस भाईदूज से ही शरण काका ने मां को मुंहबोली बहन बना लिया था. मां भी बहन के रिश्ते को निभातीं, हर तीजत्योहार में उन्हें कुछ न कुछ भेजती रहती थीं. आज का तिलकुट मकर संक्रांति का एडवांस उपहार था. अकसर काका कहते, ‘विनी की शादी में मामा का फर्ज तो मुझे ही निभाना है.

शरण काका और काकी अपनी इकलौती काजल की शादी के बाद जब भी अकेलापन महसूस करते, तब उसे बुला लेते थे. अकसर वे अम्माबाबूजी से कहते, ‘काजल और विनी दोनों मेरी बेटियां हैं.

शरण काका भी अजीब हैं. लोग बेटी के नाम से घबराते हैं और काका का दिल ऐसा है कि दूसरे की बेटी को भी अपना मानते हैं.

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