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किडनैपिंग : क्या अनामिका अपने मंसूबों में कामयाब हो पाई ?

शाम के करीब साढ़े 7 बजे का वक्त था. मोहन कुमार खंडेलवाल पटना स्थित अपने होटल में ही थे तभी उन के मोबाइल पर एक काल आई. वह काल एक अनजान नंबर से आई थी. जिस तरह वह अन्य काल्स को रिसीव करते थे, उसी तरह उस को भी रिसीव करते हुए जैसे ही हैलो कहा तभी दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘तुम्हारे बेटे शिवम का कार सहित अपहरण कर लिया है.’’

शिवम उन का 14 साल का बेटा था, जो पटना के बीरचंद पटेल रोड स्थित न्यू पटना क्लब में टेनिस खेलने जाता था. कार उन का ड्राइवर गिरीश पाठक चला कर ले जाता था. बेटे के अपहरण की बात सुन कर मोहन कुमार के तो जैसे होश ही उड़ गए. अपहर्त्ता बेटे को कोई हानि न पहुंचा सकें इसलिए वह बड़ी ही विनम्रता से बोले, ‘‘आप मेरे बेटे को छोड़ दीजिए, बदले में आप मुझ से जो भी मांगेंगे, मैं दे दूंगा.’’

‘‘हमें 2 करोड़ रुपए चाहिए. पैसों का इंतजाम करने के लिए कल दोपहर 2 बजे तक का वक्त दिया जाता है. तुम तब तक पैसों का इंतजाम कर लो और अगर तुम ने पैसे नहीं दिए या फिर कोई चालाकी दिखाने की कोशिश की तो तुम बेटे से हाथ धो बैठोगे.’’ अपहर्त्ता ने चेतावनी दी.

‘‘मैं पैसे दे दूंगा लेकिन बेटे को कुछ नहीं कहना. हमें बेटे से बात तो करा दो ताकि हमें कुछ तसल्ली आ जाए.’’ मोहन कुमार विनम्रता से बोले. बेटे की आवाज सुनने के लिए वह फोन को कान से चिपकाए रहे.

कुछ देर बाद उन के कान में बेटे की आवाज आई, ‘‘हां पापा, मैं अंकल के कब्जे में हूं.’’

बेटे की आवाज से उन्हें महसूस हुआ कि जैसे वह डरासहमा हुआ है. उन्होंने बेटे को हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘बेटा, घबराना मत. तुम बहुत जल्दी आ जाओगे.’’

इस से पहले कि वह और कुछ कहते दूसरी ओर से फोन डिसकनेक्ट हो गया. उन्होंने कई बार हैलोहैलो कहा. इस के बाद भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली तो जिस नंबर से उन के फोन पर काल आई थी, काल बैक किया लेकिन फोन स्विच्ड औफ हो चुका था.

उस नंबर को उन्होंने कई बार डायल किया लेकिन स्विच्ड औफ होने की वजह से वह नहीं मिल सका. उन्होंने अपने ड्राइवर गिरीश पाठक को फोन लगाया लेकिन उस का फोन भी स्विच्ड औफ आ रहा था. अपहरण शिवम का हुआ है तो ड्राइवर का फोन बंद क्यों है? अपहर्त्ताओं ने क्या उसे भी अपने काबू में कर रखा है या वह उन के चंगुल से बाहर है. यह बात वह समझ नहीं पा रहे थे.

मोहन कुमार खंडेलवाल की घबराहट बढ़ गई. वह होटल से सीधे कौशल्या एस्टेट स्थित अपने घर पहुंचे. उन्होंने सब से पहले पत्नी से पूछा, ‘‘शिवम टेनिस खेलने के लिए घर से कितने बजे निकला था?’’

‘‘रोज की तरह वह शाम सवा 4 बजे निकला था. मगर क्या हुआ उसे? आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?’’ पत्नी ने पूछा.

न चाहते हुए भी मोहन कुमार को बेटे के अपहरण की बात पत्नी को बतानी पड़ी. बेटे के अपहरण की खबर सुनते ही पत्नी रोने लगीं. तब मोहन कुमार ने उन्हें समझाते हुए भरोसा दिलाया कि उन की अपहर्त्ता से बात हो चुकी है. जल्द से जल्द बेटे को उन के पास से ले आएंगे.

जिस टेनिस क्लब में शिवम प्रैक्टिस करने जाता था, मोहन खंडेलवाल ने फोन से उस क्लब के संचालक से संपर्क किया तो पता चला कि शिवम आज क्लब में पहुंचा ही नहीं था. इस का मतलब यह हुआ कि घर से क्लब जाते समय ही शिवम का अपहरण कर लिया था.

उन्होंने रात करीबन साढ़े 8 बजे फोन से पटना के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक मनु महाराज से बात कर बेटे के अपहरण की बात बता दी. साथ ही जिस फोन नंबर से उन के पास फिरौती के लिए फोन आया था, वह फोन नंबर भी उन्हें बता दिया. यह 7 फरवरी, 2014 की बात है.

मामला अपहरण का था इसलिए एसएसपी ने तुरंत तेजतर्रार पुलिस अधिकारियों की 3 टीमें बनाईं. तीनों टीमों के निर्देशन की जिम्मेदारी एसपी सिटी जयंत कांत को सौंपी गई.  एक पुलिस टीम शहर पुलिस उपाधीक्षक (सिटी) ममता कल्याणी की अगुवाई में बनी थी. एसएसपी के कहने पर मोहन खंडेलवाल एसपी सिटी जयंत कांत से मिले और उन्हें बेटे के अपहरण की कहानी बता दी. मोहन खंडेलवाल से बात करने के बाद एसपी सिटी ने शहर कोतवाली में अपहरण का केस दर्ज करा दिया.

मोहन खंडेलवाल ने पुलिस को बताया कि उन का ड्राइवर गिरीश पाठक ही सैंट्रो कार बीआरओ 1वी 8578 से शिवम को न्यू पटना क्लब ले जाता था और शाम 7 सवा 7 बजे वह टेनिस खेल कर घर लौट आता था. उन्होंने यह भी बताया कि शिवम के अपहरण के बाद ड्राइवर का फोन बंद है. इसलिए उन्होंने आशंका जताई कि शायद गिरीश पाठक ने ही अपने साथियों के साथ मिल कर शिवम का अपहरण कर लिया है.

जिस नंबर से फिरौती की काल आई थी, पुलिस ने उस नंबर को सर्विलांस पर लगा दिया. जांच से यह पता चला कि वह फोन नंबर कर्नाटक का है और वह प्रदीप पाठक के नाम से लिया गया है. लेकिन फिरौती की काल करते समय वह सिम दूसरे आईएमईआई नंबर वाले फोन में डाला गया था.

पुलिस की तीनों टीमें आईएमईआई नंबर और फोन नंबर के सहारे रात भर जांच को आगे बढ़ाने की कोशिश में जुटी रहीं. पुलिस को यह पता लग चुका था कि जिस समय अपहर्त्ता ने मोहन खंडेलवाल को फिरौती की काल की थी, उस समय उस के फोन की लोकेशन बिहार के ही भोजपुर जिले के नजदीक धनुपुरा गांव की थी.

एक पुलिस टीम पटना में मुख्य जगहों पर लगे सीसीटीवी और एएनपीआर कैमरों की फूटेज खंगालने लगी. एएनपीआर कैमरे शहर के मुख्य चौराहे पर लगे थे. इन कैमरों से वाहनों की नंबर प्लेट भी पढ़ी जा सकती है. पुलिस के पास खंडेलवाल की सैंट्रो कार का नंबर था इसलिए वह इन कैमरों से यह जानने की कोशिश करने लगी कि वह सैंट्रो कार किस तरफ गई है?

उधर बेटे की चिंता में खंडेलवाल दंपति को भी रात भर नींद नहीं आई. बीचबीच में वह पुलिस को फोन कर के यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि पुलिस को अपहर्त्ताओं और बेटे के बारे में कोई जानकारी मिली कि नहीं. पुलिस से उन्हें आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिल रहा था.

सुबह होते ही पुलिस की टीमें धुनुपुरा गांव चली गईं और अपने तरीके से बच्चे के बारे में पता लगाने लगीं. इसी दौरान पुलिस सर्विलांस टीम से खबर मिली कि जिस फोन नंबर से खंडेलवाल से फिरौती की रकम मांगी गई थी, वह नंबर कुछ देर के लिए दूसरे फोन में डाला गया था. वह फोन वही था जिस में कर्नाटक वाला यही नंबर रेग्युलर यूज किया जाता था.

वह फोन कुछ देर के लिए औन होने पर पुलिस का काम आसान हो गया. इस से पुलिस को उस की लोकेशन पता चल गई. उस की लोकेशन धनुपुरा के पास इब्राहीमनगर की  थी. इब्राहीमनगर में पुलिस टीमों ने घरघर जा कर सर्चिंग शुरू कर दी. तभी सुबह 6 बजे एक मकान में 2 युवक और अपहृत शिवम मिल गया. शिवम के हाथपैर बंधे हुए थे और उस का मुंह भी कपड़े से बंधा था.

शिवम को सहीसलामत बरामद करने की बात जांच टीम ने एसएसपी को बता दी. बाद में बात मोहन खंडेलवाल को भी बता दी गई. बेटे को अपहर्त्ताओं के चंगुल से छुड़ाने पर खंडेलवाल दंपति की खुशी का ठिकाना न रहा. वे तुरंत कोतवाली पहुंच गए.

पुलिस ने जिन 2 युवकों को हिरासत में लिया था, उन्होंने अपने नाम अभिषेक सिंह और प्रदीप पाठक बताए थे. दोनों युवकों से पूछताछ करने के लिए पुलिस गिरफ्तार कर के उन्हें कोतवाली ले आई.

अभिषेक और प्रदीप पाठक से पूछताछ करने पर पता चला कि शिवम के अपहरण की साजिश खंडेलवाल के होटल में काम करने वाली युवती अनामिका और उस के पति गिरीश पाठक ने रची थी.

मोहन खंडेलवाल ने भी बेटे के अपहरण में गिरीश पाठक पर शक जताया था. गिरीश और उस की पत्नी अनामिका पिछले 2 दिनों से अपनी ड्यूटी पर भी नहीं आ रहे थे और उन के फोन भी स्विच्ड औफ थे. पुलिस ने भी दोनों मास्टर माइंड की तलाश शुरू कर दी, लेकिन उन का पता नहीं लगा.

केवल 14 घंटे के अंदर अपहृत बच्चे के सहीसलामत बरामद के अलावा 2 अपहर्त्ता भी गिरफ्तार किए जा चुके थे. यही पुलिस की बड़ी उपलब्धि थी. अभियुक्त अभिषेक और प्रदीप पाठक से विस्तार से पूछताछ की गई तो शिवम के अपहरण की दिलचस्प कहानी सामने आई.

बिहार की राजधानी पटना शहर में कौशल्या एस्टेट के रहने वाले मोहन कुमार खंडेलवाल का शहर में एग्जिवेशन रोड पर एक होटल था. इस के अलावा उन के कई और बिजनैस भी थे. इस की वजह से उन की गिनती शहर के अच्छे बिजनैसमैनों में थी. उन का एक बेटा था शिवम. वह सेंट जोसफ हाई स्कूल में कक्षा 9वीं में पढ़ता था.

14 वर्षीय शिवम को पढ़ाई के साथ टेनिस खेलने का शौक था. बेटे की रुचि को देखते हुए मोहन खंडेलवाल उस की प्रतिभा बढ़ाना चाहते थे. अच्छे खिलाड़ी बनने के गुर सीखने के लिए शिवम पटना के बीरचंद पटेल रोड पर स्थित न्यू पटना क्लब जाने लगा. वहां  वह ढाईतीन घंटे टेनिस की प्रैक्टिस करता था.

खंडेलवाल ने बेटे को क्लब ले जाने और वहां से घर लाने के लिए अपने ड्राइवर गिरीश पाठक की ड्यूटी लगा रखी थी. गिरीश ही सैंट्रो कार से शिवम को शाम 4 बजे क्लब ले जाता और उस के प्रैक्टिस करने के बाद 7-सवा 7 बजे घर लाता था.

गिरीश पाठक खंडेलवाल के होटल में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी करने वाली अनामिका का पति था. अनामिका पटना के ही थाना जगनपुर के ककरबाग के रहने वाले दिलीप कुमार की बेटी थी. वह वहां पर एक डेयरी चलाते थे.

अनामिका अपने 2 भाइयों के बीच अकेली बहन थी. इसलिए परिवार में वह सब की दुलारी थी. इंटरमीडिएट पास करने के बाद उस ने मोहन खंडेलवाल के होटल में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी कर ली.

खंडेलवाल के यहां गिरीश पाठक नाम का एक युवक ड्राइवर था जो भोजपुर जिले के कचनत गांव में रहने वाले देवेंद्रनाथ पाठक का बेटा था. मोहन खंडेलवाल को जब वह उन के होटल ले जाता तो फुरसत में रिसैप्शनिस्ट अनामिका से बात करता था. हमउम्र होने की वजह से दोनों खूब बातें करते थे. धीरेधीरे उन के बीच बातों का दायरा बढ़ता गया और वे एकदूसरे को चाहने लगे.

दिनोंदिन उन का प्यार बढ़ने लगा. हालात यहां तक पहुंच गए कि अलगअलग जाति होने के बावजूद उन्होंने शादी करने का फैसला ले लिया. फिर घर वालों की मरजी के खिलाफ गिरीश पाठक और अनामिका ने जनवरी 2013 में प्रेम विवाह कर लिया.

शादी के बाद दोनों ही पटना में किराए पर कमरा ले कर रहने लगे. चूंकि दोनों ही कमा रहे थे इसलिए उन की गृहस्थी ठीकठाक चल रही थी. वे एक बड़े बिजनैसमैन मोहन खंडेलवाल के यहां नौकरी करते थे. खंडेलवाल के ठाठबाट देख कर उन के मन में भी ऐश की जिंदगी गुजारने की लालसा होती थी, मगर जितनी पगार उन्हें मिलती थी उस से उन की महत्त्वाकांक्षाएं पूरी होने वाली नहीं थीं. ऐसा क्या करें, जिस से उन के पास भी अकूत संपत्ति हो जाए, इसी बात पर वे विचार करते थे.

इसी दौरान उन के दिमाग में विचार आया कि जिस खंडेलवाल के यहां वे नौकरी कर रहे हैं, क्यों न उन के बेटे शिवम का किडनैप कर लिया जाए. क्योंकि वह पैसे वाले हैं इसलिए शिवम की फिरौती पर उन्हें मोटा पैसा मिलने की उम्मीद थी. शिवम को क्लब तक गिरीश ही छोड़ने जाता था इसलिए उस का किडनैप भी आसानी से होने की उम्मीद थी.

गिरीश पाठक ने जल्दी से मालदार होने का उपाय तो खोज लिया लेकिन जो काम कर के अपनी तमन्ना पूरी करनी चाहते थे, वह काम इतना आसान नहीं था. उस ने इस योजना में अपने ताऊ के बेटे प्रदीप पाठक को शामिल करने का फैसला कर लिया.

प्रदीप पाठक भोजपुर जिले के ही थाना पीटो का रहने वाला था. वह बंगलुरु में एक ट्रैवल एजेंसी में ड्राइवर था. गिरीश की प्रदीप से फोन पर बात होती रहती थी. प्रदीप भी अपनी नौकरी से खुश नहीं था, वह भी जल्दी मोटे पैसे कमाना चाहता था.

29 जनवरी, 2014 को गिरीश ने उसे एक काम में मोटा पैसा कमाने का लालच दे कर पटना आने को कहा. प्रदीप ने उस से काम के बारे में जानना चाहा तो गिरीश ने कह दिया कि काम के बारे में वह पटना आने पर ही बताएगा.

पहली फरवरी, 2014 को प्रदीप बंगलुरु से पटना आ गया और मीठापुर बस स्टैंड के नजदीक अपने भाई विनय पाठक के मकान में ठहर गया. फोन कर के उस ने गिरीश को अपने आने की सूचना दी तोवह उस के कमरे पर ही पहुंच गया.

गिरीश ने उसे बिजनैसमैन मोहन खंडेलवाल के 14 वर्षीय बेटे शिवम के अपहरण कर मोटी फिरौती वसूलने की योजना बताई. अच्छे पैसे मिलने की उम्मीद में प्रदीप ने हामी भर दी.

वे इस गेम को सुरक्षापूर्वक खेलना चाहते थे. गिरीश चाहता था कि उन के साथ कोई ऐसा शख्स और शामिल हो जाए जो दबंग टाइप का हो. तब प्रदीप ने अभिषेक सिंह को शामिल करने का सुझाव दिया जो सीआरपीएफ की बटालियन नंबर 197 में नौकरी करता है. उस की पोस्टिंग सारंदा (झारखंड) में थी.

अभिषेक सिंह जिला भोजपुर के गड़हवी गांव के रहने वाले संतोष सिंह का बेटा था. आरडीएम हाईस्कूल में पढ़ते समय अभिषेक ने प्रदीप पाठक के यहां किराए पर कमरा लिया था. वहां रहने के दौरान ही उस की प्रदीप से दोस्ती हो गई. कभीकभी गिरीश भी प्रदीप पाठक के यहां आता था इसलिए वह भी अभिषेक सिंह को जानता था. बाद में अभिषेक की सीआरपीएफ में नौकरी लग गई. नौकरी लग जाने के बाद भी प्रदीप की अभिषेक से फोन पर बात होती रहती थी.

प्रदीप जब पटना आ गया तो उस ने मिलने के लिए अभिषेक को बुलाया. दोस्त के कहने पर अभिषेक पटना आ गया तो प्रदीप ने उस से बिजनैसमैन के बेटे का अपहरण करने के बारे में बात की. पैसों के लालच में अभिषेक भी उन की योजना में शामिल हो गया. फिर गिरीश, अनामिका, प्रदीप और अभिषेक ने योजना को अंजाम देने की रूपरेखा बनाई. उन्होंने हथियार वगैरह का इंतजाम भी कर लिया.

गिरीश ने प्रदीप और अभिषेक से कहा, ‘‘शाम करीबन 4 बजे शिवम को टेनिस खेलने के लिए सफेद रंग की सैंट्रो कार नंबर बीआर ओ 1वी 8578 से ले जाता हूं. जैसे ही मैं क्लब से थोड़ी पहले डबल ब्रेकर पर पहुंचूंगा, कार धीमी कर दूंगा. तुम लोग वहां पहले से ही तैयार रहना. कार धीमी होते ही गेट खोल कर कार में बैठ जाना.’’

7 फरवरी, 2014 को गिरीश पाठक शिवम को सैंट्रो कार से क्लब की ओर ले कर रवाना हुआ. अभिषेक और प्रदीप पाठक पहले से ही डबल ब्रेकर के पास खड़े हो गए थे. जैसे ही गिरीश डबल ब्रेकर के पास पहुंचा तो अपने साथियों को देख कर उस ने कार धीमी कर ली.

कार के पिछले गेटों के लौक उस ने पहले से ही खोल रखे थे. कार धीमी होते ही प्रदीप और अभिषेक कार के पिछले गेट खोल कर अंदर बैठ गए. शिवम ने अंजान लोगों को गाड़ी में चढ़ते देखा तो वह चौंक गया. इस से पहले कि शिवम उन से कुछ कहता, प्रदीप और अभिषेक ने तमंचा दिखा कर उसे डरा दिया. गिरीश कार तेज गति से चलाते हुए प्रदीप के भाई विनय पाठक के मकान पर ले गया.

मकान की चाबी प्रदीप के पास ही थी. उस ने ताला खोला और शिवम को डराधमका कर एक कमरे में बंद कर दिया. कार उन्होंने उसी मकान में खड़ी कर दी थी. प्रदीप के पास बंगलुरु का एयरसेल कंपनी का सिम था. गिरीश ने उस से वह सिम ले कर अपने मोबाइल फोन में डाला और शाम साढ़े 7 बजे शिवम के पिता मोहन खंडेलवाल को फोन कर के शिवम के अपहरण की जानकारी दी और 2 करोड़ रुपए की फिरौती मांगी. उस ने उस समय शिवम की उस के पिता से बात करा दी ताकि उन्हें बेटे के अपहरण होने का विश्वास हो जाए.

खंडेलवाल से बात करने के बाद उस ने एयरसेल का सिम निकाल कर प्रदीप को दे दिया और कहा कि वह इसे फोन में न डाले. गिरीश बहुत शातिरदिमाग था वह खुद को सेफ रखना चाहता था. इसलिए वह शिवम के साथ कमरे पर नहीं ठहरना चाहता था.

उस ने अभिषेक और प्रदीप से बहाना बनाते हुए कहा, ‘‘अभीअभी मेरी पत्नी का फोन आया है वह आरा आई हुई है. मैं उसे होटल में ठहरा कर रात में ही यहां आने की कोशिश करूंगा. नहीं तो सुबह जरूर आ जाऊंगा.’’ इतना कह कर गिरीश पाठक वहां से चला गया.

अगले दिन गिरीश को किसी तरह पता चल गया कि पुलिस शिवम को सरगर्मी से तलाश रही है तो वह पत्नी अनामिका को ले कर पटना से रफूचक्कर हो गया.

प्रदीप और अभिषेक को गिरफ्तार करने के बाद पुलिस ने विनय के मकान से ही मोहन खंडेलवाल की कार भी बरामद कर ली. इस के बाद पुलिस ने अनामिका और गिरीश पाठक की सरगर्मी से तलाश शुरू कर दी.

पुलिस ने गिरफ्तार किए गए दोनों अभियुक्त प्रदीप पाठक और अभिषेक सिंह को 8 फरवरी, 2014 को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया. लेकिन फरार मास्टरमाइंड गिरीश और अनामिका का पता नहीं लग सका. पटना पुलिस उन्हें हर संभावित जगहों पर खोजती रही. कई महीने की खोजबीन के बाद भी उन का कोई सुराग नहीं मिला.

इसी बीच पटना पुलिस को सूचना मिली कि अभियुक्त गिरीश पाठक और उस की पत्नी अनामिका दिल्ली में कहीं छिपे हुए हैं. घटना के दोनों मास्टर माइंडों को खोजने में पटना पुलिस ने दिल्ली पुलिस से सहयोग मांगा.  पुलिस आयुक्त बी.एस. बस्सी ने यह जांच क्राइम ब्रांच को करने के आदेश दिए.

क्राइम ब्रांच के डीसीपी भीष्म सिंह ने एसीपी के.पी.एस. मल्होत्रा के निर्देशन में एक पुलिस टीम बनाई. इस टीम में इंसपेक्टर सुनील कुमार, एसआई रविंद्र तेवतिया, निर्भय सिंह राणा, हेडकांस्टेबल ईश्वर सिंह, कुसुम पाल, अजय शर्मा, विक्रम दत्त, ईद मोहम्मद, कांस्टेबल मोहित कुमार, मनोज, प्रेमपाल, सुरेंद्र, उदयराम, अंजू आदि को शामिल किया गया.

टीम के पास केवल गिरीश पाठक का मोबाइल नंबर और फोटोग्राफ था. इन के सहारे उसे तलाशना किसी चुनौती से कम नहीं था. पुलिस टीम ने उस के फोन को सर्विलांस पर लगा दिया. लेकिन वह स्विच्ड औफ आ रहा था.

इतनी बड़ी दिल्ली में फोटो के सहारे उसे ढूंढना आसान नहीं था. पुलिस ने दिल्ली के बड़े सभी रेलवे स्टेशनों और अंतरराज्यीय बसअड्डों पर अपने मुखबिरों को लगा दिया. पुलिस ने मुखबिरों को अभियुक्त गिरीश पाठक का फोटो दे दिया था ताकि वे उसे पहचान सकें.

12 जून 2014 को आखिर क्राइम ब्रांच को सफलता मिल ही गई. एक मुखबिर ने सूचना दी कि फोटो में दिखने वाली सूरत का एक आदमी एक औरत के साथ सराय कालेखां बस टर्मिनल पर खड़ा है. मुखबिर की खबर पा कर पुलिस टीम तुरंत सराय कालेखां बस टर्मिनल पहुंच गई और उस आदमी और उस के साथ खड़ी औरत से पूछताछ की तो उन्होंने अपने नाम गिरीश पाठक और अनामिका हैं.

क्राइम ब्रांच औफिस ला कर दोनों से पूछताछ की गई तो उन्होंने पटना के बिजनैसमैन मोहन खंडेलवाल के बेटे शिवम के अपहरण की सारी कहानी उगल दी. चूंकि वे दोनों अभियुक्त पटना पुलिस के वांटेड थे इसलिए दिल्ली पुलिस ने उन की गिरफ्तारी की खबर  पटना पुलिस को दे दी.

दोनों अभियुक्तों को 12 जून, 2014 को साकेत कोर्ट में महानगर दंडाधिकारी अनु अग्रवाल के समक्ष पेश किया जहां से उन्हें जेल भेज दिया.

वांटेड अभियुक्तों की गिरफ्तारी की सूचना पर पटना पुलिस 14 जून को दिल्ली पहुंच गई और कोर्ट में उक्त दोनों अभियुक्तों को ट्रांजिट रिमांड पर दिए जाने की अर्जी पेश की. कोर्ट ने उन की अर्जी को मंजूर कर लिया. फिर पटना पुलिस अभियुक्त गिरीश पाठक और अनामिका को ट्रांजिट रिमांड पर पटना ले गई.

पटना कोतवाली में दोनों से पूछताछ की गई तो उन्होंने शिवम के अपहरण की साजिश रचने से ले कर अपहरण करने की कहानी बता दी. पूछताछ के बाद उन्हें पटना के न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया.

— कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित हैं.

कौन हारा : भाग 1

वैशाली अपने जीवन से बहुत सुखी व संतुष्ट थी. घर में पति, 2 प्यारे से बच्चे, धनदौलत, ऐशोआराम और सामाजिक जीवन में मानसम्मान. और क्या चाहिए था. उस दिन भी वह सुखसागर में डूबी आंखें बंद किए बैठी थी कि उस की प्रिय सहेली वसुधा ने आ कर ऐसा बम सा फोड़ा कि वैशाली हक्काबक्का रह गई. वह क्या कह रही थी उसे समझ में नहीं आ रहा था या समझने के बाद भी उस पर भरोसा करने का मन नहीं हो रहा था.

‘‘हो सकता है वसुधा, तुम्हें कोई गलतफहमी हुई हो. सुधीर ऐसा कैसे कर सकते हैं? मैं उन के बच्चों की मां हूं और उन्हें कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचाने में मदद करने वाली हमसफर हूं.’’ वैशाली ने विश्वास न करने वाले अंदाज में वसुधा की ओर देख कर कहा.

‘‘इतनी बड़ी बात बिना विश्वास के मैं कैसे कह सकती हूं. यदि मुझे यह बात किसी और ने बताई होती तो विश्वास नहीं होता पर यह सब मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है और एक नहीं, कई बार. तुम हो कि न जाने कौन सी दुनिया में खोई रहती हो,’’ वसुधा की आंखों में गहरा दुख और चिंता थी.

वैशाली तड़प उठी थी, ‘‘लेकिन सुधीर तो मेरे हैं, सिर्फ मेरे. मुझ से पूछे बिना तो वह एक कदम नहीं उठाते फिर इतना बड़ा कदम कैसे? नहीं, लोग जलते हैं मुझ से, सुधीर से और हमारी कामयाबी से. यह शायद उन्हीं की कोई चाल होगी.’’

‘‘नहीं, चालवाल कुछ नहीं. बस इतना समझ लो, मर्द का प्यार आखिरी नहीं होता,’’ वसुधा ने कहा.

वैशाली बेजान सी सोफे पर गिर पड़ी और माथा पकड़ कर बैठ गई. फिर बुझे से स्वर में बोली, ‘‘क्या वह बहुत खूबसूरत है?’’

‘‘नहीं, तुम से क्या मुकाबला? लेकिन वही बात है न कि गधी पे दिल आ जाए तो परी क्या चीज है. सुना है कि सुधीर उस से जल्दी ही शादी करने वाले हैं.’’

‘‘शादी, नहींनहीं, ऐसा कैसे हो सकता है. क्या कमी है मुझ में. मैं ने क्या नहीं किया उन के लिए. बिजनेस को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचाने में मदद की. न दिन देखा न रात और फिर उन के घर को सजाया, संवारा. बच्चे, पैसा, शोहरत सबकुछ तो है, फिर?’’ वैशाली सुधीर की बेरुखी का कारण नहीं समझ पा रही थी.

‘‘शायद मर्द जात होती ही ऐसी है. मर्द कभी संतुष्ट नहीं होता. खैर, यह समय कमजोरी दिखाने का नहीं है. हमें खुद ही कुछ करना होगा और उस लड़की को डराधमका कर, बहलाफुसला कर किसी भी तरह सुधीर से दूर रखना होगा. और हां, सुधीर से इस विषय में अभी कुछ मत कहना वरना बात खुल कर सामने आ जाएगी. परदा पड़ा ही रहे तो अच्छा है.’’

वसुधा तो वैशाली को समझाबुझा कर चली गई पर वैशाली का दम घुट सा रहा था. वह तो समझती थी कि सुधीर अपनी जिंदगी से संतुष्ट है फिर उस दूसरी औरत की जरूरत कहां से निकल आई थी यही सब सोचतेसोचते उस के आगे अतीत का दृश्य घूमने लगा.

वैशाली का सुधीर से परिचय उन दिनों हुआ था जब वह अपनी विज्ञापन एजेंसी का काम जमाने के लिए जीतोड़ कोशिश कर रहा था. वैशाली को उन दिनों काम की आवश्यकता थी और उसी सिलसिले में वह अपने किसी रिश्तेदार के माध्यम से सुधीर से मिली थी. सुधीर ने उसे साफसाफ कह दिया था कि वह अभी खुद ही संघर्ष कर रहा है. अत: ज्यादा वेतन नहीं दे सकेगा. अगर उसे कहीं और अच्छी नौकरी मिले तो वह जरूर कर ले. वैशाली इस बात पर हैरान थी पर उस ने बड़े विश्वास से कहा, ‘शायद इस की जरूरत ही न पड़े.’

और फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि वैशाली के आते ही सुधीर को कामयाबी मिलती गई. वैशाली सुंदर होने के साथ मेहनती और समझदार भी थी. सुधीर ने उसे अपना दायां हाथ बना लिया था. जल्दी ही उन की एजेंसी का नाम देश भर में जाना जाने लगा था. सुधीर वैशाली से, और उस की कार्यपद्धति से बहुत प्रभावित था फिर एक दिन ऐसा भी आया जब सुधीर ने वैशाली के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया.

वैशाली को क्या आपत्ति हो सकती थी. सुधीर में कोई ऐब नहीं था. वह कम बोलने वाला, खुशमिजाज व चरित्रवान था. बस, कमी थी तो इतनी कि वैशाली के मुकाबले वह एक बहुत साधारण शक्लसूरत का इनसान था, लेकिन पुरुष कामयाब और मालदार हो तो उस की यह कमी कोई कमी नहीं होती और फिर सुधीर तो उस से प्यार भी करता था. एक खूबसूरत भविष्य तो उस के सामने खड़ा था. फिर भी वैशाली ने उस से पूछा था, ‘क्या आप को लगता है कि आप मुझ से विवाह कर के खुश रहेंगे?’

नरेंद्र मोदी : अपने ही घर में सम्मान का मजाक

देश में संभवतया यह पहली बार हुआ है कि नरेंद्र मोदी का सम्मान ‘भाजपा’ द्वारा किया गया और वह भी इसलिए कि जी-20 सम्मेलन अच्छी तरह संपन्न हो गया.

यह कुछ ऐसी बात हो गई जैसे ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पूर्ण करने के बाद अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राहुल गांधी का सम्मान कार्यक्रम आयोजित करती. अगर मल्लिकार्जुन खड़गे राहुल गांधी का इसी तरह सम्मान किसी मसले पर कर दें तो क्या भारतीय जनता पार्टी और भाजपा के नेता मौन देखते रहेंगे. क्या ऐसे सम्मान समारोह आयोजित किए जाने चाहिए. ‌

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सम्मान हो और उन की मातृसंस्था भाजपा ही सम्मान करे तो इसे अपनेआप में एक बड़ा मजाक ही कहा जाएगा.

अभी तक माना यह जाता रहा है कि आप ने अगर कुछ अच्छा किया है तो समाज, सामाजिक संस्थाएं, राज्य सरकार या देश की सरकार आप का सम्मान करें तो यह उचित और न्यायसंगत माना जाएगा. जी-20 सम्मेलन समाप्त होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी का भारतीय जनता पार्टी द्वारा 13 सितंबर को गुलाब के फूल दे कर सम्मान किया गया और यह सुर्खियां बनाया गया. इस से स्पष्ट है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी की सोच कितनी नीचे चली गई है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के बड़े पदों पर बैठे लोग जैसा आचरण करते हैं, समाज भी वैसा ही करने लगता है. अब धीरेधीरे यह सब देख कर कोई भी व्यक्ति अपना सम्मान अपनी ही संस्थानों में कराने लगेगा क्योंकि वह अपनी संस्था का प्रमुख है तो ऐसा बहुत आसानी से संपन्न हो जाएगा. जबकि, नैतिकता की दृष्टि से यह पूरी तरह एक गलत आचरण ही होगा. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में अगर जी-20 का सम्मेलन ऐतिहासिक रूप से संपन्न हो गया माना जा रहा है और सम्मान की आवश्यकता है तो यह कार्यक्रम अन्य दूसरी संस्थाएं करें तो अच्छा संदेश समाज में जाता. आप के आलोचक आप की प्रशंसा करें, सम्मान करें तभी वह सम्मान सम्मान है, अन्यथा यह तो कुछ ऐसा हो गया कि कोई शख्स बड़े पद पर पहुंच जाए, पैसे कमा ले तो अपने घर के ड्राइंगरूम में खरीद कर अपनी प्रशंसा के ‘ताम्रपत्र’ सजा ले.

देश के प्रधानमंत्री के रूप में तो नरेंद्र मोदी को ऐसी नजीर पेश करनी चाहिए जिसे देश के लोग स्वीकार करें. तो, आने वाला समय जब उस पर चले तो समाज और देश का भला हो. दरअसल, हुआ यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने जी-20 शिखर सम्मेलन को ऐतिहासिक सफल मान कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए 13 सितंबर को एक प्रस्ताव पारित किया और कहा- ‘समूह की भारत की अध्यक्षता को हमेशा पीपल्स जी-20 के रूप में देखा जाएगा.’ प्रस्ताव में भाजपा संसदीय बोर्ड ने शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिखाए गए मजबूत नेतृत्व और अटूट प्रतिबद्धता का उल्लेख किया.

प्रस्ताव में कहा गया- “जी-20 दिल्ली शिखर सम्मेलन भारत के कूटनीतिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण अध्याय के रूप में जुड़ गया है. यह एक परिवर्तनकारी क्षण है, जिस के नजरिए से वैश्विक मंच पर अब हमारे राष्ट्र को देखा जाएगा. प्रस्ताव में कहा गया है कि हम भाजपा कार्यकर्ता 9-10 सितंबर को नई दिल्ली में आयोजित सफल जी-20 शिखर सम्मेलन के लिए प्रधानमंत्री मोदी और भारत सरकार की गहरी सराहना करते हैं और उन का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं. यह सफलता अद्वितीय और अभूतपूर्व है जो भारत की क्षमताओं और दूरदर्शी दृष्टिकोण में विश्व के विश्वास की पुष्टि करती है और इस से भारत की क्षमता व प्रधानमंत्री मोदी के प्रति दुनिया का विश्वास भी प्रमाणित हुआ है.” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान में भाजपा ने कहा, “हम विगत वर्षों में अपनाए गए पारंपरिक जीडीपी केंद्रित विकास पथ से आगे बढ़ते हुए दुनिया को विकास का एक मानवकेंद्रित मौडल दिखाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की सराहना करते हैं.”

जे पी नड्डा के नेतृत्व में भाजपा ने कहा- “स्थिरता, समावेश और समृद्धि पर जोर देने वाला यह मौडल जी-20 शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले देशों के बीच गहराई से प्रतिध्वनित हुआ, जिस ने मानवता की सामूहिक भलाई के लिए एक पुरोधा के रूप में भारत को प्रमुखता से स्थापित किया है. लोगों के प्रतिनिधि के रूप में हम अपने विश्वास में दृढ़ हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत लगातार विकास, सहयोग और वैश्विक नेतृत्व द्वारा चिह्नित मार्ग तैयार करेगा, एक विरासत तैयार करेगा जिसे भविष्य की पीढ़ियां आशा और सकारात्मकता के साथ देखेंगी.” भारतीय जनता पार्टी, दरअसल, आंख बंद कर के अपने और अपने नेताओं के कार्यों का गुणगान कर रही है. यह भाजपा के लिए बेहद खतरनाक स्थिति है क्योंकि कहा जाता है कि अगर अपनी खामियों को नहीं देख रहे हैं तो आप का अंत अवश्यंभावी है.

दोषी कौन : भाग 1

लॉकडाउन के कारण सभी की जानकारी में आई भोपाल की इस सच्ची कहानी में असली दोषी कौन है यह मैं आपको वाकिए के आखिर में बता पाऊँगा तो उसकी अपनी वजहें भी हैं . मिसेज वर्मा कोई 17 साल की अल्हड़ हाई स्कूल की स्टूडेंट नहीं हैं जिसे नादान , दीवानी या बाबली करार देते हुये बात हवा में उड़ा दी जाये . यहाँ सवाल दो गृहस्थियों और तीन ज़िंदगियों का है इसलिए फैसला करना मुझे तो क्या आपको और मामला अगर अदालत में गया तो किसी जज को लेना भी कोई आसान काम नहीं होगा .

जब कोई पेशेवर लिखने बाला किसी घटना को कहानी की शक्ल देता है तो उसके सामने कई चुनौतियाँ होती हैं जिनमें से पहली और अहम यह होती है कि वह इतने संभल कर लिखे कि किसी भी पात्र के साथ ज्यादती न हो इसलिए कभी कभी क्या अक्सर उस पात्र की जगह खुद को रखकर सोचना जरूरी हो जाता है . चूंकि इस कहानी का मुख्य पात्र 45 वर्षीय रोहित है इसलिए बात उसी से शुरू करना बेहतर होगा हालांकि इस प्लेटोनिक और मेच्योर लव स्टोरी की केंद्रीय पात्र 57 वर्षीय श्रीमति वर्मा हैं जिनका जिक्र ऊपर आया है .

श्रीमति वर्मा भोपाल के एक सरकारी विभाग में अफसर हैं लेकिन चूंकि विधवा हैं. इसलिए सभी के लिए उत्सुकता , आकर्षण और दिखावटी सहानुभूति की पात्र रहती हैं . दिखने वे ठीकठाक और फिट हैं लेकिन ठीक वैसे ही रहना उनकी मजबूरी है जैसे कि समाज चाहता है . हालांकि कामकाजी होने के चलते कई वर्जनाओं और बन्दिशों से उन्हें छूट मिली हुई है पर याद रहे इसे आजादी समझने की भूल न की जाए . कार्यस्थल पर और रिश्तेदारी में हर किसी की नजर उन पर रहती है कि कहीं वे विधवा जीवन के उसूल तो नहीं तोड़ रहीं . ऐसे लोगों को मैं सीसीटीवी केमरे के खिताब से नबाजता रहता हूँ जिन्हें दूसरों की ज़िंदगी में तांकझांक अपनी ज़िम्मेदारी लगती है .

उनके पति की मृत्यु कोई दस साल पहले हुई थी लिहाजा वे टूट तो तभी गईं थीं लेकिन जीने का एक खूबसूरत बहाना और मकसद इकलौता बेटा था जिसकी शादी कुछ साल पहले ही उन्होने बड़ी धूमधाम से की थी . उम्मीद थी कि बहू आएगी तो घर में चहल पहल और रौनक लेकर आएगी , कुछ साल बाद किलकारियाँ घर में गूँजेंगी और उन्हें जीने एक नया बहाना और मकसद मिल जाएगा . उम्मीद तो यह भी उन्हें थी कि बहू के आने के बाद उनका अकेलापन भी दूर हो जाएगा जो उन्हें काट खाने को दौड़ता था . कहने को तो बल्कि यूं कहना ज्यादा बेहतर होगा कि कहने को ही उनके पास सब कुछ था , ख़ासी पगार बाली सरकारी नौकरी रचना नगर जैसे पोश इलाके में खुद का घर और जवान होता बेटा , लेकिन जो नहीं था उसकी भरपाई इन चीजों से होना असंभव सी बात थी .

बहरहाल वक्त गुजरता गया और वे एक आस लिए जीती रहीं . यह आस भी जल्द टूट गई , बहू वैसी नहीं निकली जैसी वे उम्मीद कर रहीं थीं .  बेटे ने भी शादी के तुरंत बाद रंग दिखाना शुरू कर दिए . यहाँ मेरी नजर में इस बात यानि खटपट के कोई खास माने नहीं क्योंकि ऐसा हर घर में होता है कि बहू आई नहीं कि मनमुटाव शुरू हुआ और जल्द ही चूल्हे भी दो हो जाते हैं .  लेकिन जाने क्यों श्रीमति वर्मा से मुझे सहानुभूति इस मामले में हो रही है लेकिन पूरा दोष मैं उनके बेटे और बहू को नहीं दे सकता .

ऊपर से देखने में सब सामान्य दिख रहा था पर श्रीमति वर्मा की मनोदशा हर कोई नहीं समझ सकता जो जो दस साल की अपनी सूनी और बेरंग ज़िंदगी का सिला बेटे बहू से चाह रहीं थीं . कहानी में जो आगे आ रहा है उसका इस मनोदशा से गहरा ताल्लुक है जिसने खासा फसाद 30 अप्रेल को खड़ा कर दिया . इस दिन भी लोग असमंजस में थे कि 3 मई को लॉकडाउन हटेगा या फिर और आगे बढ़ा दिया जाएगा . बात सच भी है कि कोरोना के खतरे को गंभीरता से समझने बाले भी लॉकडाउन से आजिज़ तो आ गए थे .  खासतौर से वे लोग जो अकेले हैं लेकिन उनसे भी ज्यादा वे लोग परेशानी और तनाव महसूस रहे थे जो घर में औरों के होते हुये भी तन्हा थे जैसे कि श्रीमति वर्मा .

मुझे जाने क्यों लग रहा है कि कहानी में गैरज़रूरी और ज्यादा सस्पेंस पैदा करने की गरज से मैं उसे लंबा खींचे जा रहा हूँ .  मुझे सीधे कह देना चाहिए कि श्रीमति वर्मा अपने सहकर्मी रोहित से प्यार करने लगीं थीं जो उम्र में उनसे दो चार नहीं बल्कि 12 साल छोटा था और काबिले गौर बात यह कि शादीशुदा था . रोहित की पत्नी का नाम मैं सहूलियत के लिए रश्मि रख लेता हूँ . ईमानदारी से कहूँ तो मुझे वाकई नहीं मालूम कि रोहित और रश्मि के बाल बच्चे हैं या नहीं लेकिन इतना जरूर मैं गारंटी से कह सकता हूँ कि शादी के 14 साल बाद भी दोनों में अच्छी ट्यूनिंग थी . ये लोग भी भोपाल के दूसरे पाश इलाके चूनाभट्टी में रहते हैं

न उम्र की सीमा हो : भाग 1

नलिनी औफिस पहुंच कर अपनी सीट पर बैठी. नजरें अपनेआप कोने की ओर उठ गईं. विकास उसे ही देख रहा था. नलिनी ने पहली बार महसूस किया कि आंखें मौन रह कर भी कितनी स्पष्ट बातें कर जाती हैं और बचपन से जिस उदासी ने उस के अंदर डेरा जमा रखा था, वह धीरेधीरे दूर होने लगा है. एक उत्साह, एक उमंग सी भरने लगी है उस के रोमरोम में. नलिनी का मन शायद वर्षों से कुछ मांग रहा था, सूखे पड़े जीवन के लिए मांग रहा था थोड़ा पानी और अचानक बिना मांगे ही जैसे सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई हो.

नलिनी ने बैग खोला, फाइल निकाली और काम शुरू किया. फिर विकास की तरफ देखा. वह एक पुरुष की मुग्ध दृष्टि थी जो नारी के सौंदर्यभाव से दीप्त थी. नलिनी की आंखें झुक गईं. वह बस हलका सा मुसकरा दी. विकास वहीं उठ कर चला आया, बोला, ‘‘आज बड़ी देर कर दी?’’

‘‘हां, 2 बसें छोड़नी पड़ीं… बहुत भीड़ थी.’’

‘‘तुम से कितनी बार कहा है, मेरे साथ आ जाया करो. आज शाम को जल्दी न हो तो मेरे साथ बीच पर चलना पसंद करोगी?’’

नलिनी ने संभल कर उस की तरफ देखा. न जाने क्यों उस की आंखों का सामना न कर पाती थी. उस ने सिर झुका लिया. दोनों के बीच गहरी खामोशी छाई रही. नलिनी को लगा विकास की नजरें जैसे देखती नहीं थीं, छूती थीं. वे जहां से हो कर बढ़ती थीं जैसे उस के रोमरोम को सहला जाती थीं.

नलिनी के मुंह से इतना ही निकल सका, ‘‘ठीक है, चलेंगे.’’

विकास थैंक्स कह कर अपनी सीट पर जा कर काम करने लगा.

पूरा दिन दोनों अपनीअपनी जगह घड़ी देखते रहे. शायद जीवन में पहली बार नलिनी ने ठीक 5 बजे अपना बैग समेट लिया. विकास तो जैसे तैयार ही बैठा था. विकास की गाड़ी से दोनों समुद्र के किनारे पहुंच गए.

शाम सी बीच पर झागदार लहरों में अपने पांव डुबोए शीतल नम हवा के स्पंदन को अपने रोमरोम में स्पर्श करने के स्वर्गिक आनंद में कुछ देर दोनों डूबे रहे. फिर दोनों एक किनारे पत्थरों पर बैठ गए. नलिनी समझ नहीं पाई वह इतना घबरा क्यों रही है. उस ने पुरुष दृष्टि का न जाने कितनी बार सामना किया था, मगर विकास की नजर उसे बेचैन कर रही थी. विकास की दृष्टि में प्रशंसा थी और वह प्रशंसा उस के शरीर को जितना पिघला रही थी उस का मन उतना ही घबरा रहा था.

विकास कह रहा था, ‘‘तुम बहुत सुंदर हो, तन से भी और मन से भी. यहां मुंबई आए 1 साल हो गया है मुझे, कितनी बार सोचा तुम्हारे साथ यहां आऊं. आज जा कर आ पाया हूं तुम्हारे साथ.’’

अपने रूप की प्रशंसा सब को अच्छी लगती है. नलिनी भी सम्मोहित सी उसे देखती रही. सोच रही थी, वह उस से छोटा है, कई साल छोटा, चेहरे पर खुलापन था, मोह लेने वाली शराफत थी. विकास ने उसे अपने बारे में, अपने परिवार के बारे में बताया कि उस के मातापिता मेरठ में रहते हैं और वह उन का इकलौता बेटा है, यहां अपने कुछ दोस्तों के साथ फ्लैट शेयर कर के रहता है.

समुद्र में सूरज का गोला लालभभूका हो धीरेधीरे उतर रहा था और उस के जीवन की कहानी भी धीरेधीरे बंद किताब के पन्नों सी विकास के सामने फड़फड़ाने लगी.

शुरुआत विकास ने ही यह पूछ कर कर दी थी, ‘‘कई महीनों से देख रहा हूं तुम्हें, मुझे ऐसा लगता है तुम ने खुद को एक सख्त खोल में छिपा रखा हो जैसे तुम्हारी आंखों में रहने वाली एक उदासी, मुझे अपनी ओर खींचती है नलिनी, तुम मुझ पर विश्वास कर के अपना दिल हलका कर सकती हो.’’

‘‘मुझे अपने चारों ओर खोल बनाना पड़ा. खुद को बचाने के लिए, चोट खाने और दर्द से दूर रहने के लिए. अगर ऐसा न करती तो शायद पागल हो गई होती. मेरे पापा की मृत्यु हुई तो कुछ दिन मृत्यु और शोक के रस्मोरिवाज निभाते हुए मैं ने जैसे सारे जीवन के लिए मिले आंसू बहा दिए. अपने छोटे दोनों भाइयों को अंतिम संस्कार करते देख मैं बहुत रोई. मैं बड़ी थी. उन दोनों पर क्या जिम्मेदारी डालती. पापा की मृत्यु कार्यकाल में ही हुई थी, इसलिए मानवीय दृष्टिकोण से मुझे उन के विभाग में ही यह नौकरी मिल गई और इसी के साथ अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी. मां को मेरा ही सहारा था. अगर मेरे लिए कोई रिश्ता आ जाता तो मां मुझे याद दिलातीं कि शादी करने और परिवार बसाने से पहले क्या तुम्हें अपनी जिम्मेदारियां पूरी नहीं करनी चाहिए?’’

और मेरे दोनों भाई जब पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो गए तो मां को उन के विवाह की चिंता सताने लगी. मेरे लिए रिश्ते आते. मैं इंतजार करती कि शायद मां या मेरी छोटी बहन कुसुम कुछ कहे पर उन्होंने कुछ नहीं कहा. मैं भी इस दर्द को पी गई और अपने दिल की बात अपने अंदर ही रहने दी. फिर भाइयों की भी शादी हो गई और वे अब विदेश जा बसे हैं. कुसुम की भी शादी हो गई है. मां मेरे साथ रहती हैं. अब मैं 35 साल की होने वाली हूं.’’

‘‘क्या?’’ विकास चौंक पड़ा, फिर हंसा, ‘‘अरे, लगती तो नहीं हो,’’ फिर उस के हाथ पर हाथ रख कर कहने लगा, ‘‘बहुत सोच लिया तुम ने सब के बारे में. अब दुनिया की परवाह करना बंद कर दो तो जीवन आसान हो जाएगा. बस, याद रखना कि तुम्हें ही अपना ध्यान रखना है.’’

विकास की आंखों में नलिनी ने वह सबकुछ पढ़ लिया था जिस की उम्मीद एक स्त्री किसी पुरुष से कर सकती है. वे दोनों साथसाथ चुप बैठे रहे. उस का शरीर विकास के शरीर को छू रहा था, उन के खयाल एकदूसरे के पास मंडरा रहे थे, उन का रिश्ता एक नए मोड़ पर आ पहुंचा था.

अब अचानक नलिनी के जीवन में वसंत आ गया था. धीरेधीरे विकास उस के हर खयाल, हर पल पर छा गया. औफिस में यों ही नजर भर देखना जैसे ढेरों बातें कह जाता, हाथों के मामूली स्पर्श से भी जैसे बदन में लपटें उठने लगतीं, नन्हेनन्हे शोले भड़क उठते जो हर तर्क को जला देते. वे कभी समुद्र किनारे मिलते, कभी एकांत पार्क में, लहरों के शोर से खामोश रेत में बैठे रहते एकदूसरे का हाथ थामे. वह जानती थी उस से बड़ी होने के बावजूद उस का शरीर अभी भी सुडौल और जवान है. पहले वे इसी में खुश थे, लेकिन अब ज्यादा चाहने लगे थे. जब नलिनी घर जाने के लिए उठती तो उसे हमेशा ऐसा लगता जैसे कुछ अधूरा रह गया हो. अगले दिन जब दोनों मिलते तो यह असंतोष उन्हें और बेचैन कर देता. अब नलिनी का दिल चाहता कि वे कहीं दूर चले जाएं और रातभर साथ रहें. वह विकास की बांहों में सोए पर वह कुछ कह न पाती. प्यार में सब शक्तियां होती हैं बस एक बोलने की नहीं होती.

पिया बावरा : भाग 1

सुभाष ने हैरत से अपने हाथों को देखा कि जिन में कल तक सिरिंज और आपरेशन के पतले नाजुक औजार होते थे अब उन में फावड़ा और कुदाल थमा दी गई.

‘‘क्यों डाक्टर, उठा तो पा रहे हो न?’’ एक कैदी ने मसखरी की, ‘‘अब यहां कोई नर्स तो मिलेगी नहीं जो अपने नाजुकनाजुक हाथों से आप को कैंचीछुरी थमाएगी.’’

सभी कैदियों को एक बड़ी चट्टान पर पहुंचा दिया गया और कहा गया कि यहां की चट्टानों को तोड़ना शुरू करो.

यह सुन कर सुभाष के पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी.

‘यह क्या हो गया मुझ से. कुछ भी बुरा करते समय आखिर ऐसे अंजाम के बारे में हम क्यों नहीं सोच पाते हैं?’ सुभाष मन ही मन अपने उस अतीत के लिए तड़प उठे जिस की वजह से आज वे जेल की सजा काट रहे हैं और अब कुछ हो भी नहीं सकता था. इतनी भारी कुदाल उठा कर पत्थर तोड़ना आसान नहीं था. डा. सुभाष गर्ग बहुत जल्दी थक गए. पहले पत्थर तोड़ना फिर उन्हें फावड़े की मदद से तसले में डालना. कुदाल की चार चोटों में ही उन की सांस फूल गई थी. काम रोक कर वहीं पत्थर पर बैठ कर वे सुस्ताने लगे. हीरालाल ने दूर से देखा और अपना काम रोक कर वहीं आ गया.

‘‘थक गए, डाक्टर?’’

सुभाष चुप रहे.

हीरालाल ने पूछा, ‘‘क्यों मारा था पत्नी को?’’

‘‘मैं ने नहीं मारा.’’

‘‘तो मरवाया होगा?’’ हीरालाल ने व्यंग्य से कहा.

डाक्टर चुप रहे.

‘‘बहुत सुंदर होगी वह जिस के लिए तुम ने पत्नी को मरवाया?’’ हीरा शरारत से बोला.

तभी एक सिपाही का कड़कदार स्वर गूंज उठा, ‘‘क्या हो रहा है. एक दिन आए हुआ नहीं कि कामचोरी शुरू हो गई,’’ और दोनों पर एकएक बेंत बरसा कर तुरंत काम करने का आदेश दिया.

बेंत लगते ही दर्द से तड़प उठे डाक्टर. अपनी हैसियत और हालात पर सोच कर उन की आंखें भर आईं. चुपचाप डाक्टर ने कुदाल उठा ली और काम में जुट गए.

जैसेतैसे शाम हुई. सभी कैदी अपनीअपनी कोठरी में पहुंचा दिए गए.

अपनी कोठरी में लेटेलेटे डा. सुभाष बारबार आंखें झपकाने की कोशिश कर रहे थे पर गंदी सीलन भरी जगह और नीची छत देख कर लग रहा था जैसे वह अभी सिर पर टपकने ही वाली है. 2 दिन पहले एक रिपोर्टर उन का इंटरव्यू लेने आई थी. उस ने प्रश्न किया था :

‘अपने प्यार को पाने के लिए क्या पत्नी का कत्ल जरूरी था? आप तलाक भी तो ले सकते थे?’

डाक्टर की यादों के मलबे में जाने कितने कांच और पत्थर दबे हुए थे. रात भर खयालों की हथेलियां उन पत्थरों और कांच के टुकड़ों को उन के जज्बातों पर फेंकती रहती हैं. काश, वे उत्तर दे पाते कि इतने बड़ेबड़े बच्चों की मां और अमीर बाप की उस बेटी को तलाक देना कितना कठिन था.

सुभाष गर्ग जिस साल डाक्टरी की डिगरी ले कर घर पहुंचे थे उसी साल 6 माह के भीतर ही वीणा पत्नी बन कर उन के जीवन में आ गई थी.

वीणा बहुत सुंदर तो नहीं पर आकर्षक जरूर थी. बड़े बाप की इकलौती संतान थी वह. उस के पिता ने सुभाष के लिए नर्सिंग होम बनवाने का केवल वादा ही नहीं किया, बल्कि टीके की रस्म होते ही वह हकीकत में बनने भी लगा था.

मातापिता बहत गद्गद थे. सुभाष भी नए जीवन के रोमांचक पलों को भरपूर सहेज रहे थे. जैसेजैसे डा. सुभाष अपने नर्सिंग होम में व्यस्त होने लगे और वीणा अपने बच्चों में तो पतिपत्नी के बीच की मधुरता धूमिल हो चली.

वीणा के तेवर बदले तो मुंह से अब कर्कश स्वर निकलने लगे. उसे हर पल याद रहने लगा कि वह एक अमीर पिता की संतान है और वारिस भी. इसलिए घर में उस की पूछ कुछ अधिक होनी चाहिए. इसीलिए उस की शिकायतें भी बढ़ने लगीं. सुभाष जैसेजैसे पत्नी वीणा से दूर हो रहे वैसेवैसे वे नर्सिंग होम और अपने मरीजों में खोते जा रहे थे. जीवन में तनिक भी मिठास नहीं बची थी. दवाओं की गंध में फूलों से प्यारे जीवन के क्षण खो गए थे. याद करतेकरते जाने कब डा. सुभाष को नींद ने आ घेरा.

खाने की थाली ले कर जब डा. सुभाष कैदियों की लाइन में लगते तो अपने नर्सिंग होम पर लगी मरीजों की लाइन उन्हें याद आने लगती. वह लाइन शहर में उन की लोकप्रियता का एहसास कराती थी जबकि यह लाइन किसी भिखारी का एहसास दिलाती है. डा. सुभाष को उस पत्रकार महिला का प्रश्न याद आ गया, ‘क्या सचमुच समस्या इतनी बड़ी थी, क्या और कोई राह नहीं थी?’

खाना खाते समय लगभग वे रोते रहते. अपने घर की वह शानदार डाइनिंग टेबल उन्हें याद आने लगती. बस, वही तो कुछ पल थे जिस में पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर खाना खाता था. हालांकि यह नियम भी वीणा ने ही बनाया था.

वीणा का नाम व चेहरा दिमाग में आते ही डा. सुभाष फिर पुरानी यादों में खो से गए.

उस साल बड़ा बेटा पुनीत इंजीनियरिंग पढ़ने आई.आई.टी. रुड़की गया था और छोटा भी मेडिकल के लिए चुन लिया गया था. इधर नर्सिंग होम में पहले से और अधिक काम बढ़ गया तो डा. सुभाष दोपहर में घर कम आने लगे. रोज की तरह उस दिन भी घर से उन का टिफिन नर्सिंग होम आ गया था और उन के सामने प्लेट रख कर चपरासी ने सलाद निकाला था. तभी तीव्र सुगंध का झोंका लिए 30 वर्ष की एक युवती ने कमरे में प्रवेश किया.

‘सौरी सर, आप को डिस्टर्ब किया.’

डा. सुभाष ने गर्दन उठाई तो आंखें खुली की खुली रह गईं. मन में खयाल आया कि इतना सौंदर्य कहां से मिल जाता है किसीकिसी को.

‘सर, मैं डा. सुहानी, मुझे आप के पास डा. रावत ने भेजा है कि तुरंत आप से मिलूं.’

एक सांस में बोल कर युवती अपना पसीना पोंछने लगी.

सुभाष मुसकरा दिए.

‘आइए, बैठिए.’

‘नो सर. आप कहें तो मैं थोड़ी देर में आती हूं.’

‘नर्वस क्यों हो रही हैं डाक्टर, आप बैठिए,’ सुभाष ने खड़े हो कर सामने वाली कुरसी की ओर संकेत किया.

सुहानी डरती हुई कुरसी पर बैठ गई. डा. सुभाष ने चपरासी को इशारा किया तो उस ने दूसरी प्लेट सुहानी की तरफ रख दी.

‘नो सर, मैं दोपहर में पूरा खाना नहीं खाती हूं.’

‘आप सलाद लीजिए.’

उन के इतने अनुरोध की मर्यादा रखते हुए सुहानी ने थोड़ा सा सलाद अपनी प्लेट में रख लिया.

डा. सुभाष उस के सौंदर्य को देखते हुए मुसकरा कर बोले, ‘आज मेरी समझ में आया है कि कैसे लड़कियां केवल सलाद खा कर सुंदरता बनाए रखती हैं.’

सुहानी ने संकोच से देखा और बोली, ‘ओके, डाक्टर.’

डा. सुभाष ने कांटे में पनीर का एक टुकड़ा फंसा कर मुख में रख लिया और बोले, ‘आप यहां मेरी सहायक के रूप में काम करेंगी. अभी थोड़ी देर में सुंदर आप को केबिन दिखा देगा.’

उस दिन के बाद डा. सुभाष का हर दिन सुहाना होता गया. सुहानी केवल सौंदर्य की ही नहीं, मन की भी सुंदरी थी. उस के मीठे बोल डा. सुभाष में स्फूर्ति भर देते. यह काम की नजदीकियां कब प्यार में बदल गईं, दोनों को पता ही नहीं चला.

तब घर का पूरा उत्तरदायित्व वे अच्छी तरह पूरा कर रहे थे. पर पहले की तरह अब घर पर दुखी भी होते तो सुहानी की यादें उन की आंखों में घुलीमिली रहतीं.

उन दिनों वीणा कुछ अधिक ही चिड़चिड़ी होती जा रही थी. शायद इस की वजह यह थी कि बच्चों के जाने के बाद सुभाष भी उस से दूर हो गए थे और बढ़ती दूरी के चलते उस को अपने पति सुभाष पर शक हो गया था. एक रात वीणा ने पूछ ही लिया, ‘आजकल कुछ ज्यादा ही महकने लगे हो, क्या बात है?’

डा. सुभाष चौंक पड़े, ‘ये क्या बेसिरपैर की बातें कर रही हो. अब उम्र महकने की तो रही नहीं. मेरी तकदीर में तो आयोडीन और…’

‘बसबस. आदमियों की उम्र महकने के लिए हमेशा 16 की होती है.’

‘देखो वीणा, रातदिन दवाओं की खुशबू सूंघतेसूंघते जी खराब होने लगता है तो कभीकभार सेंट छिड़क लेता हूं. बहुत संभव है कि कभी ज्यादा सेंट छिड़क लिया होगा,’ सुभाष ने सफाई दी, लेकिन धीरेधीरे वीणा की शिकायतों और डा. सुभाष की सफाइयों का सिलसिला बढ़ गया.

नर्सिंग होम में वीणा के बहुत सारे अपने आदमी भी थे जो तरहतरह की रिपोर्ट देते रहते थे.

‘तुम्हारे इतने बड़ेबड़े बच्चे हो गए हैं. कल को उन की शादी होगी. बुढ़ापे में इश्क फरमाते कुछ तो शर्म करो,’ वीणा क्रोध में उन्हें सुनाती.

सुभाष ने उन दिनों चुप रहने की ठान ली थी. इसीलिए वीणा का पारा अधिक गरम होता जा रहा था.

रोजरोज की चिकचिक से तंग आ कर आखिर एक दिन सुभाष के मुख से निकल ही गया कि हां, मैं सुहानी से प्यार करता हूं और उस से शादी भी करना चाहता हूं.

डा. सुभाष को जेल की यातना सहते महीनों बीत चुके थे, लेकिन घर से मिलने कोई नहीं आया था. वे बच्चे भी नहीं जो उन के ही अंश हैं और जिन को उन्होंने अपना नाम दिया है. ऐसा नहीं कि बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते थे पर मां तो मां ही होती है. मां की हत्या ने उन्हें बच्चों की नजरों में एक अपराधी, मां का हत्यारा साबित कर दिया था, पर क्या इस हादसे के लिए वे अकेले ही उत्तरदायी हैं?

मां का घर : भाग 1

पूजा तेजी से सीढि़यां चढ़ कर लगभग हांफती हुई सुप्रिया के घर की कालबेल दबाने लगी. दोपहर का समय था, उस पर चिलचिलाती धूप. वह जब घर से निकली थी तो बादल घिर आए थे.

सुप्रिया ने दरवाजा खोला तो पूजा हांफती हुई अंदर आ कर सोफे पर पसर गई. आने से पहले पूजा ने सुप्रिया को बता दिया था कि वह मां को ले कर बहुत चिंतित है. कल शाम से वह फोन कर रही है, पर मां का मोबाइल स्विच औफ जा रहा है और घर का नंबर बस बजता ही जा रहा है.

सुप्रिया ने फौरन उस के सामने ठंडे पानी का गिलास रखा तो पूजा एक सांस में उसे गटक गई. फिर रुक कर बोली, ‘‘सुप्रिया, मैं ने धीरा आंटी को कल रात फोन किया था और सुबह वे मां के घर गई थीं. वे कह रही थीं कि वहां ताला लगा हुआ है. अब क्या करूं? कहां ढूंढूं उन्हें?’’

रोंआसी पूजा के पास जा कर सुप्रिया बैठ गई और उस के कंधे पर हाथ रख धीरे से पूछा, ‘‘तेरी कब बात हुई थी उन से?’’

‘‘एक सप्ताह पहले, मेरे जन्मदिन के दिन. मां ने सुबहसुबह फोन कर के मुझे बधाई दी थीं.’’

पूजा रुक कर फिर बोलने लगी, ‘‘मैं चाहती थी कि मां यहां आ कर कुछ दिन मेरे पास रहें. मां ने हंस कर कहा कि तेरी नईनई गृहस्थी है, मैं तुम दोनों के बीच क्या करूंगी? देर तक मैं मनाती रही मां को, उन से कहती रही कि 2 दिन के लिए ही सही, आ जाओ मेरे पास. 5 महीने हो गए उन्हें देखे, होली पर घर गई थी, तभी मिली थी.’’

पूजा ने अपनी आंखों से उमड़ आए आंसुओं को रुमाल से पोंछा.

सुप्रिया चुप बैठी रही. कल शाम जब पूजा ने उसे फोन पर बताया था कि उस की मां फोन नहीं उठा रहीं तो वह खुद परेशान हो गई थी. पूजा की शादी के बाद मां मुंबई में अकेली रह गई थीं. सुप्रिया और पूजा मुंबई में एकसाथ स्कूलकालेज में पढ़ी थीं. सुप्रिया उस समय भी पूजा के साथ थी जब उस के पापा का एक्सीडेंट से देहांत हो गया था. उस समय वे दोनों 8वीं में पढ़ती थीं.

पूजा की मां अनुराधा बैंक में काम करती थीं. उन्होंने पूजा की पढ़ाई और परवरिश में कोई कमी नहीं रखी. पूजा ने स्नातक की पढ़ाई के बाद एमबीए किया और नौकरी करने लगी. 2 साल पहले सुप्रिया शादी कर दिल्ली आ गई. पिछले साल पूजा ने जब उसे बताया कि उस का मंगेतर सुवीर भी दिल्ली में काम करता है, तो सुप्रिया खुशी से उछल गई. कितना मजा आएगा, दोनों सहेलियां एक ही शहर में रहेंगी.

पूजा की मां ने बेटी की शादी बहुत धूमधाम से की. हालांकि पूजा और सुवीर लगातार कहते रहे कि बिलकुल सादा समारोह होना चाहिए. पूजा नहीं चाहती थी कि मां अपनी सारी जमापूंजी उस पर खर्च कर दें, लेकिन मां थीं कि बेटी पर सबकुछ लुटाने को आतुर. पूजा के मना करने पर मां ने प्यार से कहा, ‘यही तो मौका है पूजा, मुझे अपने अरमान पूरे कर लेने दे. पता नहीं कल ऐसा मौका आए न आए.’

आज पूजा को न जाने क्यों मां की कही वे बातें याद आ रही हैं. ऐसा क्यों कहा था मां ने?

सुप्रिया ने रोती हुई पूजा को ढाढ़स बंधाया और अपना फोन उठा लाई. उस ने मुंबई अपने भाई को फोन लगाया और बोली, ‘‘अजय भैया, आप से एक जरूरी काम है. मेरी सहेली पूजा को तो आप जानते ही हैं. अरे, वही जो कांदिवली में अपने पुराने घर के पास रहती थी? उस की मां अनुराधाजी कल शाम से पता नहीं कहां चली गईं. प्लीज, भैया, पता कर के बताओ तो. वे बोरिवली के कामर्स बैंक में काम करती हैं. मैं उन का पूरा पता आप को एसएमएस कर देती हूं. भैया, जल्द से जल्द बताइए. पूजा बहुत परेशान है, रो रही है. अच्छा, फोन रखती हूं.’’

सुप्रिया ने अजय भैया को बैंक और घर का पता एसएमएस कर दिया और पूजा के पास आ कर बैठ गई.

‘‘पूजा, भैया सब पता कर बताएंगे, तू चिंता मत कर.’’

पूजा ने सिर उठाया, ‘‘पूरे 24 घंटे हो गए हैं, सुप्रिया. धीरा आंटी बता रही थीं कि पिछले 3 दिन से घर बंद है. पड़ोस के फ्लैट में रहने वाली अमीना आंटी ने 4 दिन पहले मां को बाजार में देखा था. इस के बाद से मां की कोई खबर नहीं है. घर के बाहर न अखबार पड़े हैं न दूध की थैली. इस का मतलब है मां बता कर गई हैं अखबार और दूध वाले को.’’

सुप्रिया ने सिर हिलाया और बोली, ‘‘पूजा, हो सकता है मां कहीं जल्दी में निकल गई हों. पिछले दिनों उन्होंने तुम से कुछ कहा क्या? या कोई बात हुई हो?’’

पूजा कुछ सोचती हुई बोली, ‘‘सुप्रिया, मैं ने अपने जन्मदिन के बारे में तुम को बताया था न कि उस दिन मां ने मुझ से कहा कि वे मुझे जन्मदिन पर कुछ देना चाहती हैं…इस के लिए उन्होंने मेरा बैंक अकाउंट नंबर मांगा था. कल मैं बैंक गई थी. मां ने मेरे नाम 5 लाख रुपए भेजे हैं. यह बात थोड़ी अजीब लगी मुझे, अभीअभी तो मेरी शादी पर इतना खर्च किया था मां ने और…मैं इसी सिलसिले में मां से बात करना चाहती थी तभी तो लगातार फोन पर फोन मिलाती रही, पर…’’

सुप्रिया के चेहरे का भाव बदलने लगा, ‘‘5 लाख रुपए? यह तो बहुत ज्यादा हैं. कहां से आए उन के पास इतने रुपए? अभी तुम्हें देने का क्या मतलब है?’’

पूजा चुप रही. उसे भी अजीब लगा था. मां को इस समय उसे पैसे देने की क्या जरूरत? सुप्रिया दोनों के लिए चाय बना लाई. चाय की चुस्कियों के बीच चुप्पी छाई रही. पूजा पता नहीं क्या सोचने लगी. सुप्रिया को पता था कि पूजा अपनी मां से बेहद जुड़ी हुई है. वह तो चाहती थी कि शादी के बाद मां उस के साथ रहें लेकिन अनुराधाजी इस के खिलाफ थीं. पूजा बड़ी मुश्किल से शादी के लिए राजी हुई थी. उसे हमेशा लगता था कि उस के जाने के बाद मां कैसे जी पाएंगी?

अनुराधा ने उस से बहुत कहा कि 12वीं के बाद वह पढ़ाई करने बाहर जाए, किसी अच्छे कालेज से इंजीनियरिंग या एमबीए करे, लेकिन पूजा मुंबई छोड़ने को तैयार ही नहीं थी. उस ने एक ही रट लगा रखी थी, ‘मैं आप को अकेला नहीं छोड़ सकती. यहीं रहूंगी आप के साथ.’

अनुराधा जब कभी दफ्तर के काम से या अपने किसी रिश्तेदार से मिलने 2 दिन भी शहर से बाहर जातीं, पूजा बेचैन हो जाती. साल में 2 बार अनुराधा अपने किसी गुरु से मिलने जाती थीं. पूजा ने कई बार कहा था कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी उन के पास लेकिन मां यह कह कर मना कर देतीं, ‘पूजा, जब मुझे लगेगा कि तुम इस लायक हो गई हो तो मैं खुद तुम्हें ले जाऊंगी.’

टाइमपास : भाग 1

‘‘पार्वती, तुम आज और अभी यह कमरा खाली कर दो और यहां से चली जाओ.’’

‘‘भाभी, मैं कहां जाऊंगी?’’

‘‘मुझे इस से कोई मतलब नहीं. तुम कहीं भी जाओ. जिओ, मरो, मेरी बला से. मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती.’’ रीना का दिल पिघलाने के लिए पार्वती आखिरी अस्त्र का प्रयोग करते हुए उन के पैर पकड़ कर फूटफूट कर रोने लगी. अपना सिर उन के पैरों पर रख कर बोली, ‘‘भाभी, माफ कर दो, मुझ से गलती हो गई.’’

‘‘तुम अपना सामान खुद बाहर निकालोगी कि मैं वाचमैन से कह कर बाहर फिंकवाऊं?’’ रीना खिड़की से चोरनिगाहों से रोमेश के घबराए हुए चेहरे को देख रही थी. वे ड्राइंगरूम में बेचैनी से चहलकदमी करते हुए चक्कर काट रहे थे. साथ ही, बारबार चेहरे से पसीना पोंछ रहे थे. रीना की कड़कती आवाज और उस के क्रोध से पार्वती डर गई और निराश हो कर उस ने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया. उस की आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे. आज रोमेश ने रीना के विश्वास को तोड़ा था. रीना के मन में विचारों की उमड़घुमड़ मची हुई थी. 30 वर्ष से उस का वैवाहिक जीवन खुशीखुशी बीत रहा था. रोमेश जैसा पति पा कर वह सदा से अपने को धन्य मानती थी. वे मस्तमौला और हंसोड़ स्वभाव के थे. बातबात में कहकहे लगाना उन की आदत थी. रोते हुए को हंसाना उन के लिए चुटकियों का काम था. रोमेश बहुत रसिकमिजाज भी थे. महिलाएं उन्हें बहुत पसंद करती थीं.

62 वर्षीया रीना 2 प्यारीप्यारी बेटियों की सारी जिम्मेदारी पूरी कर चुकी थी. त्रिशा और ईशा दोनों बेटियों को पढ़ालिखा कर, उन की शादीब्याह कर के अपनी जिम्मेदारियों से छुट्टी पा चुकी थी. वह और रोमेश दोनों आपस में सुखपूर्वक रह रहे थे. बड़ी बेटी त्रिशा की शादी को 8 वर्ष हो चुके थे परंतु वह मां नहीं बन सकी थी. अब इतने दिनों बाद कृत्रिम गर्भाधान पद्धति से वह गर्भवती हुई थी. डाक्टर ने उसे पूर्ण विश्राम की सलाह दी थी. उस की देखभाल के लिए उस के घर में कोई महिला सदस्य नहीं थी. इसलिए रीना का जाना आवश्यक था. लेकिन वह निश्ंिचत थी क्योंकि उसे पार्वती पर पूर्ण विश्वास था कि वह घर और रोमेश दोनों की देखभाल अच्छी तरह कर सकती थी. रोमेश हमेशा से छोटे बच्चे की तरह थे. अपने लिए एक कप चाय बनाना भी उन के लिए मुश्किल काम था. पार्वती के रहने के कारण रीना बिना किसी चिंता के आराम से चली गई थी. कुछ दिनों बाद त्रिशा के घर में प्यारी सी गुडि़या का आगमन हुआ. वह खुशी से फूली नहीं समा रही थी. रोमेश भी गुडि़या से मिलने आए थे. वे 2-3 दिन वहां रहे थे और चिरपरिचित अंदाज में बेटी त्रिशा से बोले, ‘तुम्हारी मम्मी को मेरे लिए टाइमपास का अच्छा इंतजाम कर के आना चाहिए था. घर में बिलकुल अच्छा नहीं लगता.’ उन की बात सुन कर सब हंस पड़े थे. रीना शरमा गई थी. वह धीमे से बोली थी, ‘आप भी, बच्चों के सामने तो सोचसमझ कर बोला करिए.’ वह चुपचाप उठ कर रसोई में चली गई थी.

मुंबई से वह 3 महीने तक नहीं लौट सकी. त्रिशा की बिटिया बहुत कमजोर थी और उसे पीलिया भी हो गया था. वह 10-12 दिन तक इन्क्यूबेटर में रही थी. त्रिशा के टांके भी नहीं सूख पा रहे थे. इसलिए वह चाह कर भी जल्दी नहीं लौट सकी. उस का लौटने का प्रोग्राम कई बार बना और कई बार कैंसिल हुआ. इसलिए आखिर में जब उस का टिकट आ गया तो उस ने मन ही मन रोमेश को सरप्राइज देने के लिए सोच कर कोई सूचना नहीं दी और बेटी त्रिशा को भी अपने पापा को बताने के लिए मना कर दिया. दोपहर का 1 बजा था. वह एअरपोर्ट से टैक्सी ले कर सीधी अपने घर पहुंची. गाड़ी पोर्च में खड़ी देख उस का मन घबराया कि आज रोमेश इस समय घर पर क्यों हैं? वह दबेपांव घर में घुस गई. उस को बैडरूम से पार्वती और रोमेश के खिलखिलाने की आवाज सुनाई दी. वह अपने को रोक नहीं पाई. उस ने खिड़की से अंदर झांकने का प्रयास किया. पार्वती बैड पर लेटी हुई थी. यह देख रीना की आंखें शर्म से झुक गईं. पार्वती तो पैसे के लिए सबकुछ कर सकती है, परंतु रोमेश इतना गिर जाएंगे, वह भी इस उम्र में, वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी.

आज रोमेश को देख कर लग रहा था उन में और जानवर में भला क्या अंतर है? जैसे पशु अपनी भूख मिटाने के लिए यहांवहां कहीं भी मुंह मार लेता है वैसे ही पुरुष भी. इतने दिन बाद घर आने की उस की सारी खुशी काफूर हो चुकी थी. उसे लग रहा था कि वह जलते हुए रेगिस्तान में अकेले झुलस कर खड़ी हुई है. दूरदूर तक उसे सहारा देने वाला कोई नहीं है. फिर भी अपने को संयत कर के उस ने जोर से दरवाजा खटखटा दिया था. जानीपहचानी आवाज रोमेश की थी, ‘पार्वती, देखो इस दोपहर में कौन आ मरा?’ पार्वती अपनी साड़ी और बाल ठीक करती हुई दरवाजे तक आई, उस ने थोड़ा सा दरवाजा खोल कर झांका. रीना को देखते ही उस के होश उड़ गए. रीना ने जोर से पैर मार कर दरवाजा पूरा खोल दिया. रोमेश और बिस्तर दोनों अस्तव्यस्त थे. वे पत्नी को अचानक सामने देख आश्चर्य से भर उठे थे. अपने को संभालते हुए बोले, ‘तुम ने अपने आने के बारे में कुछ बताया ही नहीं? मैं गाड़ी ले कर एअरपोर्ट आ जाता.’

‘मैं तुम्हारी रंगरेलियां कैसे देख पाती?’

‘तुम कैसी बात कर रही हो? मुझे बुखार था, इसलिए पार्वती से मैं ने सिर दबाने को कहा था.’

‘रोमेश, कुछ तो शर्म करो.’ मिमियाती सी धीमी आवाज में रोमेश बोले, ‘तुम जाने क्या सोच बैठी हो? ऐसा कुछ भी नहीं है.’ रीना ने हिकारत से रोमेश की ओर देखा था. क्रोध में वह थरथर कांप रही थी. उस ने जोर से पार्वती को आवाज दी, ‘वाह पार्वती वाह, तुम ने तो जिस थाली में खाया उसी में छेद कर दिया. मैं ने तुम पर आंख मूंद कर विश्वास किया. सब लोग तुम्हारे बारे में कितना कुछ कहते रहे, लेकिन मैं ने किसी की नहीं सुनी थी. अभी यहां से निकल जाओ, मैं तुम्हारा मुंह नहीं देखना चाहती.’

रीना आज खुद को कोस रही थी, क्यों पार्वती पर इतना विश्वास किया. वह ड्राइंगरूम में आ कर चुपचाप बैठ गई थी. थोड़ी देर में रोमेश उस के लिए खुद चाय बना कर लाए. उस के पैरों के पास बैठ कर धीरे से बोले, ‘‘रीना, प्लीज मुझे माफ कर दो. वह तो मैं बोर हो रहा था, इसलिए टाइमपास करने के लिए उस से बातें कर रहा था.’’ ‘‘रोमेश, तुम इस समय मुझे अकेला छोड़ दो. आज मैं ने जो कुछ अपनी आंखों से देखा है, सहसा उस पर विश्वास नहीं कर पा रही हूं. प्लीज, तुम मेरी नजरों से दूर हो जाओ. मुझे एक बात बता दो, यह सब कब से चल रहा था?’’

‘‘रीना, तुम्हारी कसम खाता हूं, ऐसा कुछ नहीं हुआ है जो तुम सोच रही हो.’’

बिन घुंघरू की पायल : भाग 1

‘‘पायल कैसा नाम है, दीदी,’’ पालने में बिटिया को लिटाते हुए निशा भाभी ने मुझे से पूछा. ‘‘हूं, पायल भी कोई नाम हुआ?’’ मां बीच में ही मुंह बिचकाती हुई बोल उठीं, ‘‘इस से तो झूमर, बिंदिया, माला न रख लो. पैर में पहनने की चीज का क्या नाम रखना.’’ ‘‘पैर में पहनने से क्या होता है? पायल की झनकार कितनी प्यारी होती है. नाम लेने में रुनन की आवाज कानों में गूंजने लगती है.’’ भाभी और मां में ऐसी ही कितनी ही बातों पर नोकझोंक हो जाया करती थी. मैं तटस्थ भाव से देख रही थी. न भाभी के पक्ष में कह सकती थी, न मां के. मां का पक्ष लेती तो भाभी को बुरा लगता.

भाभी का पक्ष लेती तो मां कहतीं, लो, अपने ही पेट की जाई पराई हो गई. यों भाभी और मां में बहुत स्नेह था पर कभीकभी किसी बात पर मतभेद हो जाता तो फिर एकमत होना मुश्किल हो जाता. भैया आयु में मुझ से बड़े थे पर मेरा विवाह उन से पहले हो गया था. मेरे पति की नौकरी उसी शहर में थी, इसलिए मैं अकसर मां से मिलने आती रहती थी. विवाह के 2 वर्ष पश्चात जब भाभी के पैर भारी होने का आभास मां को हुआ तो उस पड्ड्रसन्नता में न जाने कितने नाम उन्होंने अपप्ने पोतेपोती के सोच डाले. बिटिया होते ही मां ने अपने सोचे हुए नामों की पूरी सूची ही सुना डाली. लक्ष्मी, सरस्वती, सीता जैसी देवियों के नाम के सामने मां को काजल, कोयल, पायल जैसे नाम बिलकुल बेतुके और सारहीन लगते. आधुनिक सभ्यता में पलीबढ़ीं भाभी को मां का रखा कोई भी नाम पसंद न आया.

उन्हें पायल पसंद था, सो वही रखा पर मां भी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने कभी अपनी जबान से पायल न पुकारा और बिटिया को रुनझन कहने लगीं. रुनझन क्या हो गई थी, मां को जीने का सहारा मिल गया था. हरदम उसे सीने से लगाए रखतीं. निरे प्यार में पायल पल रही थी. जब कुछ चलने लायक हुई तो मां भाभी से बोलीं, ‘‘नाम तो इस का पायल रखा है, अब पैरों में भी पायल ला कर डाल दो न.’’ और फिर एक दिन स्वयं ही छोटेछोटे घुंघरुओं की पायल ला कर उस के पैरों में पहना दीं. घर का कोना छमछम की आवाज से गूंजने लगा. भाभी और मां उस की बलैया लेते न थकतीं. उस के गोलमटोल चेहरे पर बड़ीबड़ी आंखें बहुत ही प्यारी लगती थीं. खुश रहना उस का स्वभाव था. उस की खिलखिलाती हंसी को देख कर सब खुश हो उठते. पायल के साथ मां भी जैसे बच्चा बन गई थीं. कभी उस के साथ लुकाछिपी खेलतीं, कभी अक्कड़बक्कड़. उस की तोतली बोली सुन कर वे निहाल हो जातीं. फिर एक दिन मां को बीमारी ने आ पकड़ा.

पुनर्जन्म : भाग 1

परिवार की जिम्मेदारी शिखा के कंधों पर आ पड़ी तो उस ने सूरज को सलाह दी कि वह उसे भूल जाए. अपना घर न बसा कर उस ने छोटे भाई व बहन को पढ़ायालिखाया, उन की शादियां कीं. मां का पूरा खयाल रखा. इसी बीच, काम की थकान उतारने को वह एकांतवास में चली गई तो उस ने महसूस किया कि उस का पुनर्जन्म हो रहा है.

‘‘आप को मालूम है मां, दीदी का प्रोमोशन के बाद भी जन कल्याण मंत्रालय से स्थानांतरण क्यों नहीं किया जा रहा, क्योंकि दीदी को व्यक्ति की पहचान है. वे बड़ी आसानी से पहचान लेती हैं कि किस समाजसेवी संस्था के लोग समाज का भला करने वाले हैं और कौन अपना. फिर आप लोग इतनी पारखी नजर वाली दीदी की जिंदगी का फैसला बगैर उन्हें भावी वर से मिलवाए खुद कैसे कर सकती हैं?’’ ऋचा ने तल्ख स्वर से पूछा, ‘‘पहले दीदी के अनुरूप सुव्यवस्थित 2 लोगों को आप ने इसलिए नकार दिया कि वे दुहाजू हैं और अब जब एक कुंआरा मिल रहा है तो आप इसलिए मना कर रही हैं कि उस में जरूर कुछ कमी होगी जो अब तक कुंआरा है. आखिर आप चाहती क्या हैं?’’

‘‘शिखा की भलाई और क्या?’’ मां भी चिढ़े स्वर में बोलीं.

‘‘मगर यह कैसी भलाई है, मां कि बस, वर का विवरण देखते ही आप और यश भैया ऐलान कर दें कि यह शिखा के उपयुक्त नहीं है. आप ने हर तरह से उपयुक्त उस कुंआरे आदमी के बारे में यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि उस की अब तक शादी न करने की क्या वजह है?’’

‘‘शादी के बाद यह कुछ ज्यादा नहीं बोलने लगी है, मां?’’ यश ने व्यंग्य से पूछा.

‘‘कम तो खैर मैं कभी भी नहीं बोलती थी, भैया. बस, शादी के बाद सही बोलने की हिम्मत आ गई है,’’ ऋचा व्यंग्य से मुसकराई.

‘‘बोलने की ही हिम्मत आई है, सोचने की नहीं,’’ यश ने कटाक्ष किया, ‘‘सीधी सी बात है, 35 साल तक कुंआरा रहने वाला आदमी दिलजला होगा…’’

‘‘फिर तो वह दीदी के लिए सर्वथा उपयुक्त है,’’ ऋचा ने बात काटी, ‘‘क्योंकि दीदी भी अपने बैचमेट सूरज के साथ दिल जला कर मसूरी की सर्द वादियों में अपने प्रणय की आग लगा चुकी हैं.’’

‘‘तुम तो शादी के बाद बेशर्म भी हो गई हो ऋचा, कैसे अपने परिवार और कैरियर के प्रति संप्रीत दीदी पर इतना घिनौना आरोप लगा रही हो?’’ यश की पत्नी शशि ने पूछा.

‘‘यह आरोप नहीं हकीकत है, भाभी. दीदी की सगाई उन के बैचमेट सूरज से होने वाली थी लेकिन उस से एक सप्ताह पहले ही पापा को हार्ट अटैक पड़ गया. पापा जब आईसीयू में थे तो मैं ने दीदी को फोन पर कहते सुना था, ‘पापा अगर बच भी गए तो सामान्य जीवन नहीं जी पाएंगे, इसलिए बड़ी और कमाऊ होने के नाते परिवार के भरणपोषण की जिम्मेदारी मेरी है. सो, जब तक यश आईएएस प्रतियोगिता में उत्तीर्ण न हो जाए और ऋचा डाक्टर न बन जाए, मैं शादी नहीं कर सकती, सूरज. इस सब में कई साल लग जाएंगे, सो बेहतर होगा कि तुम मुझे भूल जाओ.’

‘‘उस के बाद दीदी ने दृढ़ता से शादी करने से मना कर दिया, रिश्तेदारों ने भी उन का साथ दिया क्योंकि अपाहिज पापा की तीमारदारी का खर्च तो उन के परिवार का कमाऊ सदस्य ही उठा सकता था और वह सिर्फ दीदी थीं. पापा ने अंतिम सांस लेने से पहले दीदी से वचन लिया था कि यश भैया और मेरे व्यवस्थित होने के बाद वे अपनी शादी के लिए मना नहीं करेंगी. आप को पता ही है कि मैं ने डब्लूएचओ की स्कालरशिप छोड़ कर अरुण से शादी क्यों की, ताकि दीदी पापा की अंतिम इच्छा पूरी कर सकें.’’

‘‘हमारे लिए उस के पापा की अंतिम इच्छा से बढ़ कर शिखा की अपनी इच्छा और भलाई जरूरी है,’’ मां ने तटस्थता से कहा.

‘‘पापा की अंतिम इच्छा पूरी करना दीदी की इच्छाओं में से एक है,’’ ऋचा बोली, ‘‘रहा भलाई का सवाल तो आप लोग केवल उपयुक्त घरवर सुझाइए, उस के अपने अनुरूप या अनुकूल होने का फैसला दीदी को करने दीजिए.’’

‘‘और अगर हम ने ऐसा नहीं किया न मां तो यह दीदी की परम हितैषिणी स्वयं दीदी के लिए घरवर ढूंढ़ने निकल पड़ेगी,’’ यश व्यंग्य से हंसा.

‘‘बिलकुल सही समझा आप ने, भैया. इस से पहले कि मैं और अरुण अमेरिका जाएं मैं चाहूंगी कि दीदी का भी अपना घरसंसार हो. आज मैं जो हूं दीदी की मेहनत और त्याग के कारण. सच कहिए, अगर दीदी न होतीं तो आप लोग मेरी डाक्टरी की पढ़ाई का खर्च उठा सकते थे?’’ ऋचा ने तल्ख स्वर में पूछा, ‘‘आप के लिए तो पापा की मृत्यु मेहनत से बचने का बहाना बन गई भैया. बगैर यह परवा किए कि पापा का सपना आप को आईएएस अधिकारी बनाना था, आप ने उन की जगह अनुकंपा में मिल रही बैंक की नौकरी ले ली क्योंकि आप पढ़ना नहीं चाहते थे. मां भी आप से मेहनत करवाना नहीं चाहतीं. और फिर पापा के समय की आनबान बनाए रखने को आईएएस अफसर दीदी तो थीं ही. नहीं तो आप के बजाय यह नौकरी मां भी कर सकती थीं, आप पढ़ाई और दीदी शादी.’’

‘‘ये गड़े मुर्दे उखाड़ कर तू कहना क्या चाहती है?’’ मां ने झल्लाए स्वर में पूछा.

‘‘यही कि पुत्रमोह में दीदी के साथ अब और अन्याय मत कीजिए. भइया की गृहस्थी चलाने के बजाय उन्हें अब अपना घरसंसार बसाने दीजिए. फिलहाल उस डाक्टर का विवरण मुझे दे दीजिए. मैं उस के बारे में पता लगाती हूं,’’ ऋचा ने उठते हुए कहा.

‘‘वह हम लगा लेंगे मगर आप चली कहां, अभी बैठो न,’’ शशि ने आग्रह किया.

‘‘अस्पताल जाने का समय हो गया है, भाभी,’’ कह कर ऋचा चल पड़ी. मां और यश ने रोका भी नहीं जबकि मां को मालूम था कि आज उस की छुट्टी है.

ऋचा सीधे शिखा के आफिस गई.

‘‘आप से कुछ जरूरी बात करनी है, दीदी. अगर आप अभी व्यस्त हैं तो मैं इंतजार कर लेती हूं,’’ उस ने बगैर किसी भूमिका के कहा.

‘‘अभी मैं एक मीटिंग में जा रही हूं, घंटे भर तक तो वह चलेगी ही. तू ऐसा कर, घर चली जा. मैं मीटिंग खत्म होते ही आ आऊंगी.’’

‘‘घर से तो आ ही रही हूं. आप ऐसा करिए मेरे घर आ जाइए, अरुण की रात 10 बजे तक ड्यूटी है, वह जब तक आएंगे हमारी बात खत्म हो जाएगी.’’

‘‘ऐसी क्या बात है ऋचा, जो मां और अरुण के सामने नहीं हो सकती?’’

‘‘बहनों की बात बहनों में ही रहने दो न दीदी.’’

‘‘अच्छी बात है,’’ शिखा मुसकराई, ‘‘मीटिंग खत्म होते ही तेरे घर पहुंचती हूं.’’

उसे लगा कि ऋचा अमेरिका जाने से पहले कुछ खास खरीदने के लिए उस की सिफारिश चाहती होगी. मीटिंग खत्म होते ही वह ऋचा के घर आ गई.

‘‘अब बता, क्या बात है?’’ शिखा ने चाय पीने के बाद पूछा.

‘‘मैं चाहती हूं दीदी कि मेरे और अरुण के अमेरिका जाने से पहले आप पापा को दिया हुआ अपना वचन कि जिम्मेदारियां पूरी होते ही आप शादी कर लेंगी, पूरा कर लें,’’ ऋचा ने बगैर किसी भूमिका के कहा, ‘‘वैसे आप की जिम्मेदारी तो मेरे डाक्टर बनते ही पूरी हो गई थी फिर भी आप मेरी शादी करवाना चाहती थीं, सो मैं ने वह भी कर ली…’’

‘‘लेकिन मेरी जिम्मेदारियां तो खत्म नहीं हुईं, बहन,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘यश अपना परिवार ही नहीं संभाल पाता है तो मां को कैसे संभालेगा?’’

‘‘यानी न कभी जिम्मेदारियां पूरी होंगी और न पापा की अंतिम इच्छा. जीने वालों के लिए ही नहीं दिवंगत आत्मा के प्रति भी आप का कुछ कर्तव्य है, दीदी.’’

शिखा ने एक उसांस ली.

‘‘मैं ने यह वचन पापा को ही नहीं सूरज को भी दिया था ऋचा, और जो उस ने मेरे लिए किया है उस के बाद उसे दिया हुआ वचन पूरा करना भी मेरा फर्ज बनता है लेकिन महज वचन के कारण जिम्मेदारियों से मुंह तो नहीं मोड़ सकती.’’

‘‘मां के लिए पापा की पेंशन काफी है, दीदी, और जरूरत पड़ने पर पैसे से मैं और आप दोनों ही उन की मदद कर सकते हैं, उन्हें अपने पास रख सकते हैं. यश का परिवार उस की निजी समस्या है, मेहनत करें तो दोनों मियांबीवी अच्छाखासा कमा सकते हैं, उन के लिए आप को परेशान होने की जरूरत नहीं है,’’ ऋचा ने आवेश से कहा और फिर हिचकते हुए पूछा, ‘‘माफ करना, दीदी, मगर मुझे याद नहीं आ रहा कि सूरज ने आप के लिए क्या किया?’’

‘‘मुझे रुसवाई से बचाने के लिए सूरज ने मेहनत से मिली आईएएस की नौकरी छोड़ दी क्योंकि हमारे सभी साथियों को हमारी प्रेमकहानी और होने वाली सगाई के बारे में मालूम था. एक ही विभाग में होने के कारण गाहेबगाहे मुलाकात होती और अफवाहें भी उड़तीं, सो मुझे इस सब से बचाने के लिए सूरज नौकरी छोड़ कर जाने कहां चला गया.’’

‘‘आप ने उसे तलाशने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘उस के किएकराए यानी त्याग पर पानी फेरने के लिए?’’

‘‘यह बात भी ठीक है. देखिए दीदी, जब आप वचनबद्ध हुई थीं तब आप की जिम्मेदारी केवल भैया और मेरी पढ़ाई पूरी करवाने तक सीमित थी, लेकिन आप ने हमारी शादियां भी करवा दीं. अब उस के बाद की जिम्मेदारियां आप के वचन की परिधि से बाहर हैं और अब आप का फर्ज केवल अपना वचन निभाना है. बहुत जी लीं दूसरों के लिए और यादों के सहारे, अब अपने लिए जी कर देखिए दीदी, कुछ नए यादगार क्षण संजोने की कोशिश करिए.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है…’’

‘‘तो फिर आज से ही इंटरनेट पर अपने मनपसंद जीवनसाथी की तलाश शुरू कर दीजिए. मां तो पुत्रमोह में आप की शादी करवाएंगी नहीं.’’

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