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Shailesh Lodha के दावे को Asit Modi ने बताया झूठा! किया बड़ा खुलासा

Taarak Mehta Ka Ooltah Chashmah Controversy : छोटे पर्दे के सबसे चहेते शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ के प्रोड्यूसर असित मोदी (Asit Modi) पिछले कई समय से सुर्खियों में बने हुए हैं.  प्रोड्यूसर के खिलाफ शो के कई कलाकारों ने गलत व्यवहार करने के आरोप लगाए है. इसके अलावा शो में तारक मेहता का किरदार निभाने वाले शैलेश लोढ़ा ने असित मोदी के खिलाफ केस भी दर्ज करवाया था.

वहीं बीते दिनों खबर आई थी कि शैलेश (Shailesh Lodha) कोर्ट में प्रोड्यूसर के खिलाफ केस जीत गए हैं. लेकिन अब इन खबरों पर चुप्पी तोड़ते हुए प्रोड्यूसर असित मोदी ने बड़ा खुलासा किया है.

ट्विटर पर किया खुलासा

आपको बता दें कि, असित मोदी (Asit Modi) ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट ट्विटर पर कोर्ट के पेपर की कुछ तस्वीरें शेयर की है. साथ ही उन्हेंने कैप्शन में लिखा शैलेश लोढ़ा केस जीतने का झूठा दावा कर रहे हैं. आगे उन्होंने लिखा, ‘कोर्ट का आदेश कहता है कि ये मामला आपसी सहमति से सुलझाया गया है.’

असित मोदी ने लगाए तारक मेहता पर आरोप

इसके अलावा मीडिया को दिए इंटरव्यू में भी उन्होंने अपनी बात दोहराई. उन्होंने कहा, ”शैलेश (Shailesh Lodha) ने केस जीतने का झूठा दावा किया है. वह जो ये कह रहे हैं कि वो केस जीते हैं, ये गलत है. क्योंकि कोर्ट का ऑर्डर ये कहता है कि केस आपसी सहमति से सुलझाया गया है.” इसके आगे उन्होंने कहा, ‘गलत जानकारी फैलाने के पीछे वह उनकी मंशा नहीं जान पा रहे हैं. अब यह ही बेहतर होगा कि इसे यहीं खत्म करा जाएं और वो फैक्ट्स को तोड़ना मरोड़ना छोड़ दें.’

असित- शैलेश ने बिना बताए छोड़ा शो

असित मोदी (Asit Modi) यहीं नहीं रुके उन्होंने आगे कहा, ‘जब कोई आर्टिस्ट शो (Taarak Mehta Ka Ooltah Chashmah) को छोड़ कर जाता है तो उसे कुछ पेपर साइन करने होते हैं. वो सबूत होता है कि उसे शो से रीलिव किया जा रहा है, जिसे हर आर्टिस्ट को मानना ही होता है. लेकिन शैलेश ने वो पेपर साइन करने से भी मना कर दिया था.’ साथ ही उन्होंने कहा, ‘हमने कभी भी किसी को भी पेमेंट देने और औपचारिकताएं पूरी करने से मना नहीं किया था. हमने मिस्टर लोढ़ा से शो छोड़ने की औपचारिकताओं पर बात करने की भी कोशिश की थी. लेकिन उन्होंने प्रोसेस को पूरा नहीं किया बल्कि वो NCLT के पास अपने पेमेंट की बात लेकर चले गए.

वहीं प्रोडक्शन हाउस के प्रोजेक्ट हेड सोहेल रमनानी ने कहा, साल 2022 में हमे शैलेश का एक ईमेल आया था, जिसमें उन्होंने शो छोड़ने की बात लिखी थी और वो उस दिन के बाद से सेट पर नहीं आए.

तारक के अलावा सोढ़ी और बावरी ने भी लगाए थे आरोप

आपको बता दें कि शो (Taarak Mehta Ka Ooltah Chashmah) में तारक मेहता का किरदार निभाने वाले शैलेश लोढ़ा (Shailesh Lodha) ने मेकर्स के खिलाफ उनके बकाया राशि का भुगतान न करने पर मामला दर्ज करवाया था. इसके अलावा शो में रोशन सोढ़ी का किरदार निभाने वाली एक्ट्रेस जेनिफर मिस्त्री ने असित मोदी, कार्यकारी निर्माता जतिन बजाज और प्रोजेक्ट हेड सोहेल रमानी के खिलाफ वर्किंग प्लेस पर यौन दुर्व्यवहार की शिकायत दर्ज करवाई है. वहीं शो में बावरी का रोल निभाने वाली मोनिका भदौरिया ने भी खुलासा किया था कि सेट पर कलाकारों को टॉर्चर किया जाता हैं.

15 अगस्त स्पेशल : औपरेशन, डाक्टर सारांश की कहानी

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मुंहबोला भाई और बौयफ्रैंड : कैसे बैठाएं तालमेल?

रिश्ते बेहद नाजुक डोर से बंधे होते हैं. अगर समझदारी से निभाए जाएं तो ठीक वरना एक गलतफहमी की गांठ इन की नाजुक डोर को उलझा कर रख देती है. ऐसा ही रिश्ता मुंहबोले भाईबहन का भी है. पहले तो यह आसानी से बनता नहीं है और एक बार बन जाए तो संभाल कर रखना भी एक चुनौती होती है.

आज के गैर इमोशनल दौर में तकनीक और मूवऔन का फंडा अपनाने वाली यूथ जनरेशन रिश्तों को ले कर बहुत लापरवाह है. जरा सी बात पर छोटीछोटी नोकझोंक, नादानियों और तकरार से वर्षों के रिश्तों को तोड़ देती है. हालांकि कई बार इन्हीं तकरारों से रिश्ता संवरता भी है. बहरहाल, दिक्कत तब आती है जब लड़की के बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच उचित तालमेल के अभाव में रिश्ते दरकने लगते हैं. आखिर कैसे बैठाएं इन में तालमेल?

गलतफहमी की दीवार

कई बार ऐसा भी होता है कि लड़कियां बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई को एकदूसरे से मिलवाती भी नहीं हैं. लिहाजा, जब वे कहीं बौयफ्रैंड को मुंहबोले भाई के साथ या फिर मुंहबोले भाई को बौयफ्रैंड के साथ मौजमस्ती करते या घूमते दिखते हैं तो उन में गलतफहमी पैदा हो जाती है. एक तरफ बौयफ्रैंड को लगता है कि उस की प्रेमिका उसे धोखा दे कर किसी और के साथ घूम रही है, वहीं दूसरी ओर मुंहबोला भाई अपनी बहन के रास्ता भटकने या गलत राह पर जाने की आशंका से घबरा जाता है, इस क्रम में वह या तो अपनी मुंहबोली बहन को डांट देता है या फिर मातापिता से शिकायत कर देता है.

इस तरह एकदूसरे से सही परिचय और रिश्तों में तालमेल न होने के चलते सब के बीच गलतफहमी की दीवार खड़ी हो जाती है. यह दीवार कई बार रिश्तों की नींव तक हिला देती है. इसलिए सब से पहले अपने बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई को एकदूसरे से मिलवाएं. इस से दोनों के बीच कोई गलतफहमी नहीं पैदा होगी और तालमेल में भी कोई अड़चन नहीं आएगी.

मिक्स न करें व्यवहार

अकसर किशोर इस बात में फर्क करना भूल जाते हैं कि बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के साथ एक ही तरीके से पेश आना तर्कसंगत नहीं है. मान लीजिए आप अपने मुंहबोले भाई से कैरियर या पढ़ाई के बाबत गंभीर बातें करती हैं और बौयफ्रैंड से हंसीमजाक तो जब आप दोनों व्यवहार मिला देंगी यानी गंभीर बातें बौयफ्रैंड से करने लगेंगी और मुंहबोले भाई से हंसीमजाक, तो रिलेशन में पेच आना स्वाभाविक है. हर रिश्ते की अपनी गरिमा होती है जो हमें बरकरार रखनी चाहिए. बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच भी अपने व्यवहार को संयमित और स्पष्ट रख दोनों के बीच आराम से तालमेल बैठा सकती हैं.

आत्मसम्मान को न पहुंचे ठेस

किसी भी रिश्ते की मजबूत इमारत में सैल्फ रिस्पैक्ट यानी आत्मसम्मान की नींव अहम भूमिका निभाती है. इस बुलंद नींव पर ही दो शख्स एकदूसरे से किसी रिश्ते में बंधते हैं. फिर चाहे वह बौयफ्रैंड हो या मुंहबोला भाई. दोनों की अपनी अहमियत है. कभी बौयफ्रैंड को खुश करने के लिए या उसे बड़ा दिखाने के लिए मुंहबोले भाई का मजाक न उड़ाएं. इसी तरह किसी एक को कमतर दिखाने या जलाने के लिए किसी के आत्मसम्मान से न खेलें, उस की व्यक्तिगत कमियों को निशाना बना कर उसे शर्मिंदा करने से बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच अहम और वर्चस्व की लड़ाई पैदा हो जाएगी, जो रिश्तों को अंदर से खोखला कर सकती है.

भले ही आप बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई में से किसी एक को ज्यादा करीब आंकती हों या स्नेह करती हों, इस भावना को अपने अंदर ही रखें, क्योंकि ऐसी बातें जाहिर करने पर किसी के भी स्वाभिमान को चोट पहुंचा सकती हैं और रिश्तों में तालमेल गड़बड़ा सकता है.

दोनों को मिले ईक्वल प्राइवेसी

रिश्ते कभी थोपे नहीं जाते. उन में हमेशा एक स्पेस जरूरी होता है. जिन रिश्तों में उचित प्राइवेसी नहीं मिलती वे जल्दी ही जड़ से उखड़ जाते हैं. बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच में निजता का ध्यान रखना जरूरी है. ऐसा न हो कि आप बौयफ्रैंड के साथ किसी पार्टी में जा रही हैं और वहां अपने मुंहबोले भाई को भी जबरन ले जाना चाहती हैं. हो सकता है उस का साथ जाने का मन न हो या फिर वह आप के और बौयफ्रैंड के साथ कंफर्टेबल फील न करता हो. लिहाजा, उस की प्राइवेसी में दखल न दें. सब को बराबर समय दें. उस की मरजी भी सुनें. अगर कभी बौयफ्रैंड और मुंहबोला भाई अकेले रहने की बात करें तो उन की निजता का उल्लंघन न करें.

ऐसा भी हो सकता है कि बौयफ्रैंड या मुंहबोले भाई को आप से अकेले में कोई बात करनी है तो दोनों के सामने वहीं बात करने की जिद न करें. अगर हर जगह आप की दोनों को साथ रखने की जिद होगी तो पक्का है कि संबंध चटक जाएंगे. इसलिए दोनों के बीच आवश्यक तालमेल और संबंधों में मधुरता बनाए रखने के लिए निजता का सम्मान और ध्यान रखना जरूरी है.

पर्सनल लाइफ और टाइम

बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई की अपनीअपनी प्राथमिकताएं होती हैं. किसी के साथ ज्यादा क्लोज हो सकते हैं, लेकिन एक को ज्यादा खुश रखने के लिए दूसरे को यानी बौयफ्रैंड या मुंहबोले भाई को नजरअंदाज करना उसे चुभ सकता है. होना तो यह चाहिए कि अपनी सूझबूझ से बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई को पर्याप्त समय दिया जाए ताकि दोनों से रिश्ता सुचारु रूप से चलता रहे.

परस्पर ईमानदारी व निष्पक्षता

झूठ और सिर्फ एक का ही पक्ष लेने की मानसिकता भी कई बार बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच तकरार का कारण बन जाती है. हो सकता है कि किसी बात को ले कर बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच न बनती हो या स्वभाव में फर्क के चलते भी मनमुटाव की बात हो जाए. ऐसे हालात में अगर आप बौयफ्रैंड की गलती पर उस का पक्ष लेंगी या फिर मुंहबोले भाई को बेवजह बचाने की कोशिश करेंगी तो संबंधों में तालमेल बिगड़ जाएगा. इसलिए जरूरी है कि आप बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच परस्पर ईमानदारी और निष्पक्षता भरा रुख अपनाएं.

सामाजिक नजरिए में

आजकल रिश्ते पुराने समय की तुलना में कहीं ज्यादा सहज हो गए हैं. लड़का और लड़की फ्रैंड के तौर पर तो स्वीकार कर लिए जाते हैं, लेकिन मुंहबोले भाईबहन भी बन सकते हैं ऐसा कोई नहीं मानता. पहले महल्ले या गली में रहने वाले किसी अंकल का बेटा मुंहबोला भाई बन जाया करता था. बदलते वक्त के साथ मुंहबोला भाई बनाने का ट्रैंड अब लगभग खत्म हो चुका है, फिर भी आज बौयफ्रैंड और मुंहबोले भाई के बीच समाज आसानी से फर्क नहीं कर पाता, ऐसे में लड़की की जिम्मेदारी है कि दोनों रिश्तों को स्पष्ट और खरा रखे.

कई समाजशास्त्री कहते हैं कि मुंहबोले भाईबहन के रिश्ते को बनाना आसान है, लेकिन इसे निभाना बेहद मुश्किल है. यहां यह कहने का मतलब है कि बौयफ्रैंड का रिश्ता कमजोर है उस को इंपौर्टेंस नहीं देनी. दरअसल, आज जब लोग रिश्तों को सहजता से निभा नहीं पा रहे हैं, तो फिर इस तरह के बनाए हुए रिश्तों की अहमियत और गरिमा को कैसे संभालेंगे? संबंधों में अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा सहजता आ गई है. पहले अगर कोई लड़का किसी लड़की से बात करता दिख जाता था, तो उस का उस के साथ अफेयर मान लिया जाता था. कहने का मतलब यह है कि पहले समाज लड़का और लड़की के बीच के रिश्ते को सहजता से नहीं लेता था.

15 अगस्त स्पेशल : आजादी के सिपाही

अंगरेजों से देश को मुक्त कराने के लिए न जाने कितने लोग हंसतेहंसते फांसी के फंदे पर झूल गए तो न जाने कितने लोगों ने अपनी पूरी जवानी जेल में काट दी. इन में कुछ ही लोगों के बारे में देश को पता चल पाया. लेकिन इन में ऐसे तमाम लोगों के बारे में हम आज भी नहीं जान पाए हैं. उन्हीं में उत्तर प्रदेश के जिला संतकबीर नगर की तहसील मेहदावल के रक्शा कला गांव के रहने वाले 4 लोग हैं, जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अंगरेजों के जुल्म सहे. ये चारों सगे भाई थे.

रक्शा कला गांव के रहने वाले पं. पटेश्वरी प्रसाद मिश्र के बेटे लालताप्रसाद मिश्र, वंशराज मिश्र, द्विजेंद्र मिश्र और श्यामलाल मिश्र पढ़ाई के दौरान ही जंगएआजादी में कूद गए थे. स्वतंत्रता सेनानी श्यामलाल मिश्र के बुलाने पर पं. जवाहरलाल नेहरू और चंद्रशेखर आजाद उन के गांव आए थे.

लालताप्रसाद मिश्र जब बस्ती के सक्सेरिया इंटर कालेज में पढ़ रहे थे, तभी उन पर देश को आजाद कराने की धुन सवार हो गई थी. सन 1933 में उन्होंने अंगरेजों के खासमखास बांसी के राजा चंगेरा के खिलाफ विद्रोह कर दिया.

इस मामले में उन्हें 6 महीने जेल में रहना पड़ा, साथ ही 100 रुपए जुरमाना भी भरना पड़ा था. भाई के जेल में जाने के बाद छोटे भाई श्यामलाल मिश्र भी आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे.

सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने की वजह से लालताप्रसाद ही नहीं, उन के तीनों भाइयों वंशराज मिश्र, द्विजेंद्र मिश्र और श्यामलाल मिश्र को भी जेल भेज दिया गया था. सन 1942 में जब लालताप्रसाद इलाहाबाद की नैनी जेल में बंद थे, तब उन की मुलाकात जवाहरलाल नेहरू से हुई थी.

इस के बाद गाजीपुर की जेल में लालबहादुर शास्त्री के साथ चारों भाई बंद रहे. उसी बीच लालताप्रसाद मिश्र के एकलौते बेटे की मौत हो गई थी. बहुत कहने पर भी अंगरेजों ने उन्हें बेटे के अंतिम संस्कार के लिए नहीं छोड़ा था.

8 अगस्त, 1942 की शाम मुंबई में महात्मा गांधी ने ‘अंगरेजों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ का नारा दिया तो पूर्वांचल की धरती ने बड़े उत्साह से इस का स्वागत किया. अगले दिन पूरे देश के लोग अंगरेजों के खिलाफ उतर आए. सहजनवां तहसील के डोहरिया कला में भी लोग सड़कों पर उतर आए थे.

अंगरेजों ने उन पर गोलियां चलवा दीं, जिस से 9 लोग शहीद हो गए. इस में 23 लोग गंभीर रूप से घायल भी थे. यही नहीं पुलिस ने डोहरिया गांव में आग भी लगा दी थी, जिस से कई घर जल गए थे. देश आजाद होने के बाद उन लोगों की याद में गांव में बना शहीद स्मारक उन की याद दिलाता है.

जनवरी, 1922 में पूरे देश और संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में भी देश की आजादी से जुड़ी तमाम घटनाएं घटीं. उन्हीं में चौरीचौरा की भी घटना थी. चौरीचौरा विद्रोह अकस्मात नहीं हुआ था. गोरखपुर देश की आजादी से जुड़े आंदोलनों में काफी सक्रिय था. जलियांवाला बाग नरसंहार के खिलाफ यहां 15 हजार लोगों ने विरोध जताया था. अवध किसान आंदोलन के नेता बाबा राघवदास को दोषी करार दिए जाने पर 50 हजार लोगों ने अदालत में इकट्ठा हो कर विरोध जताया था. इस के बाद चौरीचौरा कांड हुआ.

चौरीचौरा के पास 2 गांव हैं डुमरी खुर्द और डुमरी कलां. ये दोनों गांव एकदूसरे से 8 किलोमीटर की दूरी पर हैं. डुमरी खुर्द में जमींदार और सवर्ण रहते थे तो डुमरी कलां में गरीब दलित रहते थे. इन्हीं के साथ मुसलमान भी रहते थे. चौरी और चौरा अगलबगल के 2 गांव थे, उन्हीं के नाम पर रेलवे स्टेशन का नाम चौरीचौरा पड़ा.

डुमरी खुर्द एक बड़ा गांव था, जिस की जनसंख्या ढाई हजार के करीब थी. 4 फरवरी को यहां एक सभा हुई, जिस में आसपास के गांवों के भी तमाम लोग शामिल हुए. सभा के बाद लोगों ने थाना चौरीचौरा की ओर मार्च किया. नजर अली और लाल मोहम्मद इस आंदोलन के प्रमुख थे. उन की मदद कर रहे थे भगवान अहीर, अब्दुल्ला, इंद्रजीत कोइरी, श्यामसुंदर और एक अज्ञात संन्यासी. शिकारी ने भी शुरुआत में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन बाद में सुनवाई के दौरान वह सरकारी गवाह बन गया था.

चौरा के लाल मोहम्मद की उम्र 40 साल थी, डुमरी खुर्द के नजर अली की 30 साल तो चौरा के भगवान अहीर की 24 साल. अब्दुल्ला 40 साल का था. ये सभी स्थानीय कांग्रेस समिति के पदाधिकारी थे. शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहा था. इस के बावजूद थानाप्रभारी ने भगवान अहीर की पिटाई कर दी. इस से इलाके में तनाव फैल गया. स्थानीय जमींदार और उन के एजेंट पुलिस के साथ थे.

पिटाई के विरोध में दोपहर 3 बजे तक लगभग 5 हजार लोग एकत्र हो गए. थाना पुलिस को पहले से ही जिला मुख्यालय से सशस्त्र पुलिस बल मिला हुआ था. उस दिन कई चौकीदार भी वेतन लेने थाने आए हुए थे. थानाप्रभारी गुप्तेश्वर सिंह और आंदोलनकारियों में हुई बहस से माहौल गरम हुआ तो पुलिस ने आंदोलनकारियों पर हमला कर दिया.

इस से 2 आंदोलनकारियों की मौत हो गई. इस से नाराज आंदोलनकारियों ने थाने पर हमला कर दिया. थाना पुलिस वाले थाने में घुस गए तो बाजार से मिट्टी का तेल ला कर आग लगा दी गई. इस आगजनी में आंदोलनकारियों ने पुलिस वालों की पत्नियों और बच्चों को छोड़ दिया था.

इस मामले में पुलिस ने 273 लोगों को गिरफ्तार किया, जबकि 54 फरार थे. इन में से एक की मौत हो गई. 272 में से 228 पर मुकदमा चला. मुकदमे के दौरान 3 लोगों की मौत हो गई, जिस से 225 लोगों के खिलाफ ही फैसला आया. इन में से 4 लोगों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया. 172 लोगों को मौत की सजा दी गई.

मामला हाईकोर्ट में पहुंचा तो हाईकोर्ट ने 30 अप्रैल, 1923 को सुनाए अपने फैसले में 19 लोगों को मौत की सजा सुनाई, जबकि 38 को बरी कर दिया गया. बाकी लोगों को कैद की सजा दी गई. फांसी की सजा पाए लोगों को उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में जुलाई, 1923 में फांसी दे दी गई.

जिन लोगों को आजीवन कारावास की सजा मिली थी, उन के घर वालों की दशा काफी दयनीय थी. सरकार ने चौरीचौरा विद्रोह में मारे गए पुलिसकर्मियों के परिवारों की तो हर तरह से सहायता की थी, लेकिन चौरीचौरा के विद्रोहियों के बारे में किसी ने नहीं सोचा. इन में जो 2 लोग सवर्ण थे, उन्हें ही सम्मान मिल पाया.

द्वारका पांडे सन 1952 से 1957 तक विधायक रहे. द्वारका गोसाईं को सन 1949 में पेंशन मिल गई थी. लेकिन बाकी लोगों को गुंडा और लुटेरे जैसे इलजाम से मुक्त होने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा. उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा 1993 में मिल पाया. इस के बाद ही उन के घर वालों को पेंशन मिल सकी. वह भी झारखंडे राय की बदौलत, जो कम्युनिस्ट नेता थे.

पुलिस वालों का स्मारक तो थाना परिसर में सन 1924 में ही बन गया था, जबकि विद्रोहियों का स्मारक 1993 में बन सका. चौरीचौरा शहीद स्मारक पर लगे शिलालेख में उन उच्च जातियों के बलिदान की झूठी कहानी लिख दी गई, जिन्होंने विद्रोह में भाग ही नहीं लिया था. मारे गए पुलिसकर्मियों के स्मारक पर सलामी स्वरूप ‘जयहिंद’ लिखा गया, लेकिन फांसी की सजा पाए 19 किसानों के स्मारक पर नहीं.

बाबू बंधु सिंह अंगरेजी अत्याचारों और उन की लूटखसोट से बहुत दुखी थे. उन का जन्म डुमरी रियासत के जागीरदार बाबू शिवप्रसाद सिंह के घर 1 मई, 1863 को हुआ था. उन के हम्मन सिंह, तेज सिंह, फतेह सिंह, जनक सिंह और करिया सिंह नाम के 5 भाई थे.

यह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले की बात है. उन के इलाके में घना जंगल था. जंगल के बीच से गुर्रा नदी गुजरती थी. बाबू बंधु सिंह जंगल के अंदर ही रहा करते थे. वह बड़े हुए तो उन के दिल में भी अंगरेजों के खिलाफ आग जल उठी.

उन की सोच थी कि भारत उन की धरती है. कोई उन की धरती पर राज करे, यह अच्छी बात नहीं है. अंगरेजों का बिहार और देवरिया जाने का मार्ग जंगल के बीच से ही हो कर जाता था. उस रास्ते से कोई भी अंगरेजों या अंगरेजों की सेना जाती, वे सभी की हत्या कर देते थे.

अंगरेज सिपाही रहस्यमय तरीके से जंगल में गायब होने लगे तो अधिकारियों का ध्यान इस ओर गया. उन्होंने पता किया तो जानकारी मिली कि बंधु सिंह सिपाहियों की हत्या कर रहा है. उस की तलाश में जंगल का कोनाकोना छान मारा गया, लेकिन उस का कुछ पता नहीं चला.

उन्होंने जिला कलेक्टर की भी हत्या कर दी. इस से नाराज सरकार ने डुमरी खुर्द स्थित उन की हवेली को जला दिया. इस लड़ाई में बंधु सिंह के पांचों भाई शहीद हुए. अंगरेजों ने मुखबिर की मदद से बंधु सिंह को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें भी फांसी दे दी.

आजादी की लड़ाई में हिंदुस्तान सोशलिस्ट एसोसिएशन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. इस एसोसिएशन की स्थापना भगत सिंह, चंद्रशेखर, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, बटुकेश्वर दत्त, राजेंद्र लाहिड़ी ने की थी. इस संगठन के क्रांतिकारियों में से एक अशरफी लाल भी थे. उन्होंने अपने अदम्य साहस से अंगरेजों को पानी पिला दिया था. अशरफीलाल श्रीवास्तव संतकबीर नगर के इस्माइलपुर गांव के रहने वाले थे.

अंगरेजों के अत्याचारों का मुंहतोड़ जवाब देने में अशरफीलाल माहिर थे. उन्होंने साथियों की मदद से रेल की पटरी उखाड़ दी, जिस से अंगरेज बौखला गए. पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने जब उन के घर पहुंची तो वह घर के सामने बने कुएं के चबूतरे पर खड़े दातून कर रहे थे. सिपाहियों के पास अशरफीलाल की कोई तसवीर नहीं थी. वे उन्हें पहचानते भी नहीं थे.

सिपाहियों ने उन्हीं से अशरफीलाल के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वह यहां नहीं रहते. इतना कह कर वह चले गए. सिपाही भी लौट गए. बाद में सिपाहियों को पता चला कि जिस व्यक्ति से उन्होंने अशरफीलाल के बारे में पूछा था, वही अशरफीलाल थे. उन पर अंगरेजों पर हमला करने का आरोप था. उन्हें गिरफ्तार कर के 3 सालों तक जेल में तनहाई में रखा गया. ?

मेरे पति सेविंग करने की जगह सारे पैसे खर्च कर देते हैं, मैं उन्हें पैसे जोड़ने के लिए कैसे समझाऊं?

सवाल

मैं 28 वर्षीय विवाहिता हूं. विवाह को 9 वर्ष हो चुके हैं. मेरा दांपत्य जीवन पूरी तरह से खुशहाल है. बस एक ही परेशानी है, वह यह कि मेरे पति खूब खुला खर्च करते हैं. कतई बचत नहीं करते. कई बार उन्हें समझा चुकी हूं कि हमें अपने और अपने बच्चों के लिए कुछ न कुछ सेविंग करनी चाहिए पर उन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. आज हमारी अच्छी आय है. पर भविष्य में जब बच्चे बड़े होंगे, उन की जरूरतें बढ़ेंगी तब उन्हें कहां से पूरा करेंगे.

यही सब सोच कर मैं ने मायके में एक गुप्त अकाउंट खुलवा लिया, जिस में हर महीने थोड़ाथोड़ा जमा करती आ रही हूं. इस तरह मैं ने अब तक 9 लाख जमा कर लिए हैं. संतोष है कि दोनों बच्चों के लिए मैं कुछ जमा कर रही हूं. पर साथ ही दिनरात यह चिंता भी सताती रहती है कि पति से छिपा कर बचत कर कहीं मैं गलती तो नहीं कर रही. यदि पति को पता चल गया तो उन्हें कितना बुरा लगेगा.

मेरे पति बहुत ही सीधे और नेकदिल इंसान हैं. मुझ पर पूरा भरोसा रखते हैं. वे मुझ से कोई भी बात नहीं छिपाते. ऐसे में उन से अपनी यह बात छिपा कर कहीं मैं उन से विश्वासघात तो नहीं कर रही? कृपया मुझे इस अपराधबोध से छुटकारा दिलाएं?

जवाब

आप की सोच बिलकुल वाजिब है कि आदमनी चाहे जितनी भी हो व्यक्ति को भविष्य के लिए थोड़ीबहुत बचत अवश्य करनी चाहिए. बच्चों के लिए और कई बार स्वयं के लिए भी कई खर्च आ जाते हैं, जिन के लिए व्यक्ति ने पहले से नहीं सोचा होता. ऐसी जरूरतों को पूरा करने के लिए समय पर की गई बचत काफी मददगार साबित होती है. संभवतया अभी आप के पति इस सचाई को नहीं समझ पा रहे, इसलिए वे आप की सलाह पर गौर नहीं कर रहे पर समय के साथ मैच्योर होने पर और जीवन के अनुभवों से वे जरूर समझ जाएंगे.

जहां तक आप के द्वारा उन्हें बिना बताए अकाउंट खुलवाने और बचत करने की बात है तो उस में कोई बुराई नहीं, कारण, आप ने अच्छी मंशा से ही यह कदम उठाया है. इसलिए इस के लिए आप को कतई अपराधबोध नहीं होना चाहिए. फिर भी उन का मूड देख कर आप उन से यह बात साझा कर सकती हैं. जान कर उन्हें अच्छा ही लगेगा और आप भी इस बात से चिंतामुक्त हो जाएंगी कि आप ने उन्हें विश्वास में नहीं लिया.

एनीमिया : आयरन की कमी

आयरन ऐसा मिनरल है जो शरीर में हीमोग्लोबीन का उत्पादन करने और कोशिकाओं, बालों, त्वचा व नाखूनों जैसे शरीर के हिस्सों का रखरखाव करने के लिए जिम्मेदार होता है. आयरन व्यक्ति द्वारा लिए जा रहे आहार के जरिए शरीर में प्रवेश करता है और इसे शरीर की उन कोशिकाओं द्वारा सोख लिया जाता है जो गैस्ट्रोइंटैस्टिनल ट्रैक्ट में मौजूद होती हैं और फिर वहां से आयरन रक्तप्रवाह में शामिल हो जाता है.

रक्तप्रवाह के दौरान ट्रांसफरिन नामक प्रोटीन खुद को इस मिनरल से जोड़ लेता है और आयरन को लिवर तक पहुंचाता है. इस के बाद आयरन लिवर में इकट्ठा हो जाता है और फिर जब भी बोनमैरो (अस्थिमज्जा) में लाल रक्त कोशिकाओं के विकास की जरूरत महसूस होती है, तो यह लिवर से थोड़ीथोड़ी मात्रा में जारी होता है. लाल रक्त कोशिकाएं (आरबीसी) अपना जीवनचक्र पूरा होने के बाद स्प्लीन में चली जाती हैं, जहां शरीर उन की रीसाइक्लिंग करता है.
एनीमिया किस को

शरीर में आयरन की कमी को एनीमिया कहते हैं और यह विशेषतौर पर भारतीय बच्चों में बहुत सामान्य होती है. यह बीमारी वयस्क लड़कियों और गर्भवती महिलाओं में बहुत नजरअंदाज की जाती है. इस के अलावा एनीमिया रोग निम्न लोगों में भी देखा जाता है-

  1. जिन महिलाओं को मासिकधर्म के दौरान भारी रक्तस्राव होता है.
  2. गर्भवती महिलाएं या शिशु को स्तनपान करा रही महिलाएं.
  3. बड़ी सर्जरी करा चुके व्यक्ति.
  4. गैस्ट्रोइंटैस्टिनल बीमारी से पीडि़त व्यक्ति क्योंकि लिवर में आयरन का स्टोरेज होता है.
  5. अल्सर की समस्या से जूझ रहे लोग क्योंकि इस का असर लिवर की गतिविधियों पर पड़ता है.
  6. बेरियाट्रिक सर्जरी करा चुके लोग.
  7. शाकाहारी व्यक्ति क्योंकि उन के भोजन में आयरन से भरपूर तत्त्वों की कमी होती है.
  8. अधिक मात्रा में दूध का सेवन करने वाले बच्चे.

एनीमिया के लक्षण

  1. किसी व्यक्ति की त्वचा के रंग में पीलापन बढ़ना.
  2. र्जा की कमी या जल्दी थक जाना.
  3. कोई शारीरिक गतिविधि करने पर छाती में दर्द होना.
  4. धड़कनें तेज होना या पल्स रेट बढ़ना.
  5. सामान्य कमजोरी से छाती में दर्द या अचानक सांस लेने में तकलीफ होना.
  6. कान में कुछ अजीब सी आवाजें.
  7. अकसर सिरदर्द होना.
  8. बाल झड़ना, कमजोरी, नाखून और जीभ में दर्द.

ऐसे होती है जांच

आयरन की कमी की जांच ब्लड टैस्ट से हो सकती है, विशेषतौर पर उन जांचों के जरिए जिन में निम्न जांच की जाती हैं :

  1. कंप्लीट ब्लड काउंट.
  2. सीरम फेरिटिन आयरन टैस्ट.
  3. टोटल आयरन बाइंडिंग कैपेसिटी टैस्ट.

इलाज

शरीर में आयरन की कमी का इलाज सिर्फ मल्टीविटामिन की मात्रा बढ़ा कर ही नहीं किया जा सकता है. इस के साथ, व्यक्ति को ऐसा आहार भी लेना पड़ता है जिस में भरपूर मात्रा में आयरन हो.

आहार : मांसाहारियों के लिए तो आयरन की भरपूर मात्रा वाले आहार के कई विकल्प उपलब्ध हैं, जैसे मांस, बीफ, पौर्क. इस के अलावा उन के पास पोल्ट्री का भी विकल्प होता है, जैसे चिकन, टर्की, बतख इत्यादि. मछली भी आयरन का अच्छा स्रोत होती है.

शाकाहारियों के लिए ब्रोकोली, बीट रूट (चुकंदर), टर्निप ग्रीन्स (शलगम का साग) इत्यादि में काफी मात्रा में आयरन होता है. इस के अलावा पालक, मेथी, पास्ता और ड्राई फ्रूट्स जैसे खुबानी, किशमिश व आलूबुखारा में भी काफी आयरन होता है.

विटामिन सी की अच्छी मात्रा वाले आहार भी अच्छे होते हैं क्योंकि विटामिन सी शरीर में आयरन सोखना आसान बनाता है. एनीमिया से पीडि़त व्यक्ति को दूध से परहेज या इस का कम सेवन करना चाहिए क्योंकि दूध शरीर की आयरन सोखने की क्षमता कम करता है. इस के साथ ही, चाय और कौफी पाचन में मदद करने वाले एंटासिड, डेयरी उत्पाद और कुछ ऐसी दवाएं जो आयरन सोखने की शारीरिक क्षमता को धीमा या नष्ट करती हैं, का भी कम सेवन करना चाहिए. डाक्टर द्वारा दी गई आयरन टैबलेट्स के अन्य प्रभाव भी होते हैं, जैसे पेट में असहजता, उबकाई आना, उलटी आना, हैजा, कब्ज और गहरे रंग का पाखाना होना.

इंट्रावीनस आयरन : कुछ गंभीर मामलों में डाक्टर इंट्रावीनस आयरन भी दे सकते हैं. इस की जरूरत उन मामलों में पड़ती है जब रोगी के शरीर में आयरन की कमी को दूर करने की तुरंत जरूरत होती है क्योंकि उस का शरीर पर्याप्त मात्रा में आयरन नहीं सोख रहा होता. किसी भी प्रकार की गैस्ट्रोइंटैस्टिनल बीमारी, गड़बड़ी या फिर संक्रमण से पीडि़त लोगों को भी इंट्रावीनस इंफ्यूजन दिया जाता है. जिन रोगियों को सप्लीमैंटरी एरिथ्रोपोइटिन, ऐसा हार्मोन जो रक्त उत्पादन को बढ़ाता है, दिया जा रहा है या ऐसे रोगी, जो भोजन के जरिए और आयरन लेने में असमर्थ हैं, उन्हें भी आयरन इंफ्यूजन कराने की सलाह दी जा सकती है.

आयरन इंफ्यूजन सौल्यूशन निम्न प्रकार में आते हैं — आयरन डैक्स्ट्रौन, आयरन सुक्रोज और फेरिक ग्लूकोनैट.

यों तो आयरन डैक्स्ट्रौन, आयरन सुक्रोज और फेरिक ग्लूकोनैट का इस्तेमाल कर एक ही बार में बड़ी मात्रा में आयरन दिया जा सकता है लेकिन इन की डोज कई सप्ताह के अंतराल पर दी जानी चाहिए. इंट्रावीनस आयरन के प्रति एलर्जिक रिएक्शन रखने वाले रोगियों को पहला इंफ्यूजन कराने से पहले एक टैस्टडोज लेनी पड़ सकती है. सब से ज्यादा एलर्जिक रिएक्शन आयरन डैक्स्ट्रौन से होते हैं और मुमकिन है कि इस के लिए कुछ अन्य तैयारी करनी पड़े. एलर्जिक रिएक्शन के अलावा दूसरे गंभीर प्रभाव बहुत दुर्लभ होते हैं. उन में अर्टिकेरिया यानी पित्ती बनना, प्रूरिटस यानी खुजली और मांसपेशियों व जोड़ों में दर्द होना शामिल हैं. ब्लड ट्रांसफ्यूजन : गंभीर क्रौनिक ब्लीडिंग या आयरन की गंभीर कमी से जूझने वाले लोगों को सांस लेने में तकलीफ, छाती में दर्द, अचानक थकान हो सकती है और उन्हें तुरंत रैड ब्लड ट्रांसफ्यूजन देना पड़ सकता है, जिस से जानलेवा परिस्थितियों से बचा जा सके. ट्रांसफ्यूजन, आयरन की कमी वाली आरबीसी को बदलने के लिए किया जाता है. इस से शरीर में आयरन की कमी पूरी तरह ठीक नहीं होती है बल्कि इस से हालत में अस्थायी सुधार होता है. इसलिए यह पता लगाना बेहतर होता है कि आप के शरीर में आयरन की कमी क्यों है और तब उस की वजह व लक्षणों का इलाज करना चाहिए.

(लेखिका नई दिल्ली स्थित फोर्टिज फ्लाइट लैफ्टिनैंट राजन ढल हौस्पिटल के इंटरनल मैडिसिन विभाग में सीनियर कंसल्टैंट हैं)

तारे जमीन पे : क्या राजेश के मम्मीपापा को अपनी गलती का एहसास हो पाया?

कालोनी के पार्क से ‘चौक्का’, ‘छक्का’ का शोर गूंजने लगा था. पार्क में अभी धूप पूरी तरह नहीं उतरी थी कि कालोनी के उत्साही किशोर खिलाड़ी नवीन, रजत, सौरभ, रौबिन, अनुराग, शेखर, विलास और सुहास अन्य सभी मित्रों के साथ मैदान में आ जमा हुए. परीक्षा नजदीक थी, पर इन क्रिकेट के दीवानों के सिर पर तो क्रिकेट का जादू सवार था. ऐसे में मम्मीपापा की नसीहतें सूखे पत्तों की तरह हवा में उड़ जाती थीं. कहां रोमांचक खेल कहां नीरस पढ़ाई.

सौरभ अपनी मम्मी की नजरों से बच कर घर से जैसे ही निकला, मम्मी दूध वाले की आवाज सुन कर बाहर आ गईं. सौरभ को चुपके से निकलते देख क्रोधित हो उठीं. फिर तो उसे मम्मी की इतनी फटकार सुननी पड़ी कि रोंआसा हो उठा.  मित्र मंडली में पहुंचते ही सौरभ बोला, ‘‘मम्मीपापा तो हमें कुछ समझते ही नहीं. हमारी पसंदनापसंद से उन्हें कुछ लेनादेना ही नहीं.’’

शेखर भी हाथ नचाते हुए बोला, ‘‘सचिन व गावस्कर के मम्मीपापा का उन के साथ ऐसा व्यवहार रहता तो वे क्रिकेट के सम्राट न बन पाते.’’  नवीन भी बड़े आक्रोश में था. उस के पापा ने तो रात को ही उस का बैट कहीं छिपा दिया था. फिर भी उस के कदम रुके नहीं. सीधे पार्क में पहुंच गया.

दूसरे दिन शनिवार का अवकाश था. आसपास के फ्लैटों में बड़ी रौनक थी. कहीं लजीज नाश्ते की फरमाइश हो रही थी तो कहीं बाहर लंच पर जाने का प्रोग्राम बन रहा था, पर इन सिरफिरे किशोरों पर तो सिर्फ क्रिकेट का भूत सवार था.

पार्क के दूसरी ओर राहुलजी का बंगला दिखाई दे रहा था. वहां की दास्तान और अलग थी. राहुलजी का इकलौता बेटा राजेश भी पार्क में खेल रहे बच्चों की ही उम्र का था पर उस की मम्मी रीमा किसी जेलर से कम नहीं थीं. राजेश की दशा भी किसी कैदी सी थी. कड़े अनुशासन में उस की दिनचर्या में सिर्फ पढ़ाई करना ही शामिल था. मौजमस्ती, खेलकूद का उस में कोई स्थान न था. राहुल व रीमा के विचार से चौक्के व छक्के लगाने वाले बच्चे बहुत ही गैरजिम्मेदार एवं बिगड़े होते हैं. वे अपने बेटे राजेश को इन लड़कों से दूर रखते थे. रास्ते में आतेजाते जब कभी राहुल दंपती का सामना इन बच्चों से हो जाता, तो दोनों बड़ी बेरुखी से मुंह फेर कर निकल जाते. बच्चे भी उन्हें देख कर सहम जाते थे.

आज अवकाश के दिन भी राजेश सवेरे से ही किताबी कीड़ा बना था. बच्चों की उत्साह भरी किलकारियां उस के भी कानों तक पहुंच रही थीं. उस का मन मचल उठता पर मम्मी की कड़ी पाबंदी के कारण मन मसोस कर रह जाता. जितना पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश करता मन उतना ही पंछी बन खेल के मैदान में उड़ने लगता.  राजेश इसी उधेड़बुन में बैठा था कि तभी अजीब सी गंध महसूस होने लगी. उस के पापा तो बहुत सवेरे ही जरूरी काम से शहर से बाहर गए थे. मम्मी भी किट्टी पार्टी में चली गई थीं. अवसर पा कर रसोइया रामू तथा शंकर भी 1 घंटे की छुट्टी ले कर किसी नेता के दर्शन करने चले गए थे. धीरेधीरे गंध राजेश के दिमाग पर छाने लगी. घरेलू बातों से वह बिलकुल अनजान था. पढ़ाईलिखाई के अलावा मम्मीपापा ने उसे कुछ बताया ही न था.

स्वादिष्ठ लंच व डिनर खाने की मेज पर हो जाता. बाहर जाना होता तो कार दरवाजे पर आ खड़ी होती. अब क्या करे? घबराहट के मारे वह थरथर कांपने लगा. बेहोशी सी आने लगी. सहायता के लिए किसे पुकारे? सामने बच्चे खेल रहे थे पर उन्हें किस मुंह से पुकारे? मम्मी तो उन्हें बिगड़े लड़कों के खिताब से कई बार विभूषित कर चुकी थीं. न जाने कैसे उस के मुंह से नवीन… नवीन… सौरभ… सौरभ… की आवाजें निकलने लगीं.

बच्चों के कानों में जब राजेश की आवाज टकराई तो वे आश्चर्य में डूब गए. खेल वहीं रुक गया. उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था पर रजत ने देखा राजेश सहायता के लिए हाथ से इशारा कर रहा था. फिर क्या था, बैटबौल छोड़ कर सारे बच्चे बंगले की ओर दौड़ पड़े.  राजेश बेहोश हो चुका था. नवीन व सौरभ उसे उठा कर खुले स्थान में ले आए. तब तक रजत, शेखर, सुहास ने घर के सारे दरवाजे, खिड़कियां खोल कर गैस सिलैंडर की नोब बंद कर दी. दरअसल, रसोइया जाने की जल्दी में गैस बंद करना भूल गया था. सौरभ ने तुरंत ऐंबुलैंस के लिए फोन कर दिया.

उसी समय राजेश की मम्मी रीना भी किट्टी पार्टी से लौट आईं. सारी बात जान कर वे बच्चों के सामने ही रो पड़ीं. आज इन बच्चों के कारण एक बड़ी दुर्घटना घटने से टल गई थी. 2 दिन में जब राजेश सामान्य हो गया तो सभी बच्चे उस से मिलने आए. तब राहुलजी ने बारीबारी से सभी बच्चों को गले से लगा लिया. अब वे जान चुके थे कि पढ़ाईलिखाई के साथसाथ खेलकूद भी जरूरी है. इस से सूझबूझ व आपसी सहयोग व मित्रता की भावनाएं पनपती हैं.  अगली शाम को जब क्रिकेट टीम कालोनी के पार्क में इकट्ठी हुई तो अधिक चौक्के व छक्के राजेश ने ही लगाए. सामने खड़ी उस की मम्मी मंदमंद मुसकरा रही थीं. उन्हें मुसकराते देख कर बच्चों को लगा जैसे तपिश भरी शाम के बाद हलकीहलकी बरसात हो रही हो.

गदर 2ः सनी देओल और मनीष वाधवा का दमदार अभिनय, मगर बेहद कमजोर पटकथा

रेटिंग : पांच में से डेढ़ स्टार

निर्माता : अनिल शर्मा व जी स्टूडियो

लेखक : शक्तिमान

निर्देशक : अनिल शर्मा

कलाकार : सनी देओल, अमिषा पटेल, उत्कर्ष शर्मा, सिमरत कौर, मनीष वाधवा, रोहित चौधरी, मीर सरवर, अनिल जौर्ज, गौरव चोपड़ा, डौली बिंद्रा, लव सिन्हा, शान कक्कड़ व अन्य.

अवधि : 2 घंटे, 50 मिनट.

वर्ष 2001 में प्रदर्शित सफलतम फिल्म ‘गदर : एक प्रेम कथा’ का सीक्वल फिल्मकार अनिल शर्मा ‘गदर 2’ के नाम से ले कर आए हैं. इस फिल्म के रिलीज होने से पहले अनिल शर्मा ने दावा किया था कि लेखक शक्तिमान ने उन्हें ‘वन लाइनर’ कहानी सुनाई, जो उन्हें पसंद आ गई और वही ‘वन लाइनर’ सनी देओल व जी स्टूडियो को भी पसंद आई, जिस पर उन्होंने फिल्म ‘गदर 2’ बनाई है.

फिल्म देखने के बाद यह बात समझ में आ गई कि लेखक व निर्देशक के पास एक वन लाइनर थी, मगर उस पर वे लगभग 3 घंटे की रोचक व मनोरंजक पटकथा लिखने में पूरी तरह से विफल रहे हैं. बेहद कमजोर पटकथा ने पूरी फिल्म बरबाद कर दी.

पूरे 22 वर्ष के अंतराल के बाद आई ‘गदर 2’ में लेखक व निर्देशक दोनों ही ‘गदर : एक प्रेम कथा’ से बेहतर कुछ नहीं दे पाए. फिल्म ‘गदर 2’ 22 वर्ष पहले की फिल्म ‘गदरः एक प्रेम कथा’ से काफी कमजोर है, जबकि लेखक व निर्देशक ने पहली फिल्म के कई दृश्यों को भर कर लोगों को इमोशनल ब्लैकमेल करने का प्रयास किया है. पहली फिल्म तारा सिंह व सकीना की प्रेम कहानी थी, जबकि ‘गदर 2’ तो वर्ष 1971 की पृष्ठभूमि में तारा सिंह व जीते यानी बापबेटे की कहानी है.

पूरी फिल्म देख कर इस बात का भी अहसास होता है कि अनिल शर्मा ने इस फिल्म का निर्माण अपने बेटे
उत्कर्ष के कैरियर को संवारने के लिए बनाई है, जिस में वह बुरी तरह से
विफल रहे हैं.

वैसे, उत्कर्ष शर्मा इस से पहले भी अपने पिता अनिल शर्मा के निर्देशन में ‘जीनियस’ जैसी असफल फिल्म दे चुके हैं.

कहानी :

फिल्म ‘गदर 2’ की कहानी शुरू होती है वर्ष 1971 के भारतपाक युद्ध से कुछ माह पहले, जब तारा सिंह (सनी देओल) अपनी पत्नी सकीना व बेटे जीते के साथ खुशहाल जिंदगी बिता रहे हैं. वे तब भी देशभक्त थे, आज भी देशभक्त हैं. वे अब भी ट्रक चलाते हैं. तारा सिंह अब एक ट्रांसपोर्ट ट्रक एसोसिएशन के नेता हैं. भारतीय सैनिक, खासकर मेजर रावत उन की बड़ी इज्जत करते हैं. तारा सिंह
का बेटा जीते (उत्कर्ष शर्मा) कालेज में पढ़ता है, मगर वह फिल्मों का शौकीन है. कालेज न जा कर नाटकों में अभिनय करता है. मगर उसे अपने पिता से उतना ही प्यार है.

वैसे, तारा सिंह अपने बेटे को भारतीय सैनिक बनाना चाहते हैं. सभी को पता है कि जब तारा सिंह अपनी पत्नी सकीना को ले कर भारत आ गए थे, तब अपने साथियों की मौत से पाकिस्तानी आर्मी के जनरल हामिद इकबाल (मनीष वाधवा) आगबबूला हो गए थे और वह तब से तारा सिंह को मारना चाहते हैं.

इतना ही नहीं, उस वक्त हामिद इकबाल ने सकीना के पिता अशरफ अली को गद्दार घोषित करवा कर उन्हें फांसी दिला दी थी. इधर बेटे जीते के रंगढंग देख कर तारा सिंह जीते को चंडीगढ़ पढ़ने के लिए भेजना चाहते हैं.

एक दिन भारतीय सेना के मेजर रावत तारा सिंह को बताते हैं कि पूर्वी पाकिस्तान केे हालात कैसे हैं. युद्ध के हालात बन रहे हैं. वह तारा सिंह से 40 ट्रक मांगते हैं. 2-4 दिन बाद ही खबर आती है कि पाकिस्तानी सेना ने धोखे से हमला कर कुछ भारतीय सैनिकों के साथ ही कुछ ट्रक चालकों को भी बंदी बना लिया है. इन में तारा सिंह भी हैं. खबर आती है कि यह सब पाकिस्तानी जनरल हामिद इकबाल के इशारे पर हुआ है. इस से जीते का खून खौल उठता है. अब उसे अपने पिता को पाकिस्तान से वापस लाने के साथ ही अपने नाना के हत्यारे को सजा देना भी है. वह नकली पासपोर्ट और वीजा के सहारे पाकिस्तान में अपने चचेरे नाना गुल खान के घर लाहौर पहुंच जाता है.

पिता की तलाश में वह कामयाब होटल के मालिक कुर्बान अली की बेटी मुसकान (सिमरत कौर) के साथ प्यार का नाटक भी करता है. इधर पिता की तलाश में मुसकान के साथ जीते लखपत जेल पहुंचता है और हामिद इकबाल के चक्रव्यूह में फंस जाता है. उधर तारा सिंह अपने घर पहुंचते हैं. पता चलता है कि तारा सिंह नहर में गिर गए थे. कुछ दिन अस्पताल में वह कोमा में रहे. जब तारा सिंह को पता चलता है कि जीते पाकिस्तान में है, तो तारा सिंह भी पाकिस्तान पहुंच जाते हैं.

कई घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदलते हैं. अंततः तारा सिंह अपने बेटे जीते व बहू मुसकान के संग भारत वापस आ जाते हैं.

लेखन व निर्देशन :

लेखक शक्तिमान व निर्देशक अनिल शर्मा दोनों ही मात खा गए. फिल्म
की पटकथा काफी कमजोर है. फिल्म का लगभग हर दृष्य काफी पुराना नजर आता है.

कहानी 1947 से 1971 में पहुंची है, मगर ऐसा कोई बदलाव या नयापन फिल्म में नजर नहीं आता. इस बार तारा सिंह का पाकिस्तान जाना पूरी तरह से बनावटी नजर आता है.

फिल्मकार को यही नहीं पता कि पाकिस्तान में सैनिकों को जवान नहीं कहा जाता. इस के अलावा जीते को नकली पासपोर्ट व वीजा बनवा कर पाकिस्तान जाना पड़ता है और रास्ते में उस की जांच भी होती है. मगर तारा सिंह बिना किसी रुकावट के बस में बैठ कर भारत से लाहौर पहुंच जाते हैं. यह भी लेखक व निर्देशक की कमजोर कड़ी ही है.

अनिल शर्मा ने क्लाइमैक्स में भी ‘गदर : एक प्रेम कथा’ के दृश्यों को ही दोहराया है. फिल्म का बैकग्राउंड संगीत काफी लाउड है.

अभिनय :

कमजोर पटकथा के बावजूद तारा सिंह के किरदार में सनी देओल ने अच्छा अभिनय किया है. उन की दहाड़ रोंगटे खड़े कर देने वाली है. सकीना के किरदार में अमीषा पटेल रोने के चंद दृश्यों के अलावा किसी भी दृश्य में नहीं जमी हैं. इस फिल्म में उन्हें देख कर अहसास होता है कि अब उन का अभिनय चुक गया है. जीते के किरदार में उत्कर्ष शर्मा ने एक बार फिर निराश किया है. उन के अभिनय को देख कर अहसास ही नहीं होता कि वह फिल्म मेकिंग व अभिनय में अमेरिका से ट्रेनिग ले कर आए हैं. इमोशनल दृश्यों में तो वे बिलकुल नहीं जमे.

‘गदर 2’ के मुख्य विलेन यानी पाकिस्तानी जनरल हामिद इकबाल के किरदार में मनीष वाधवा का अभिनय जानदार है. उन्होंने अपने अभिनय को एक नया रंग देने के लिए सिगार का शानदार उपयोग किया है. सिगार सुलगाते हुए वह अपने चेहरे पर जिस तरह से खतरनाक भाव लाते हैं, उस से दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

मनीष वाधवा ने अपने अभिनय से साबित कर दिया कि वह बौलीवुड के नए सशक्त खलनायक हैं. मुसकान के किरदार में सिमरत कौर खूबसूरत जरूर नजर आई हैं, मगर उन के चेहरे पर भाव कम ही आते हैं, जबकि वे 4 तेलुगु फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं. उन्हें एक बेहतरीन अदाकारा बनने के लिए काफी मेहनत करने की जरूरत है.

Jaya Prada को मिली जेल की सजा, लगा जुर्माना, जानें क्या है पूरा मामला

Jaya Prada gets jail : बॉलीवुड व साउथ सिनेमा की दिग्गज अभिनेत्री और राजनेता जया प्रदा पर मुसीबतों का पहाड़ टूट गया है. दरअसल, चेन्नई की अदालत ने एक्ट्रेस को एक मामले में दोषी पाया है, जिसके बाद उन्हें (Jaya Prada gets jail) 6 महीनों तक जेल में रहना होगा. साथ ही 5,000 रुपये का जुर्माना भी भरना होगा.

आखिर क्या है मामला?

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक्ट्रेस जया (Jaya Prada gets jail) को यह सजा सालों पुराने चल रहे एक कोर्ट केस मिली है. उन पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने उनके स्वामित्व वाले चेन्नई के रायपेट स्थित एक थियेटर के कर्मचारियों को उनकी सैलरी व ईएसआई का पैसा नहीं दिया है, जिसके बाद कर्मचारियों ने प्रबंधन और अदाकारा के खिलाफ केस दर्ज करवाया था. हालांकि केस दर्ज होने के बाद जया ने स्टाफ को पूरी सैलरी देने का वादा किया था. साथ ही उनके खिलाफ दर्ज केस को रद्द करने की भी याचिका डाली थी, जिस पर ”लेबर गर्वनमेंट इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन” के एक वकील ने अपनी आपत्ति दर्ज करवाई थी. साथ ही जया और जया के सहयोगियों के खिलाफ चेन्नई के एग्मोर मजिस्ट्रेट कोर्ट में मामला दायर किया.

सालों से यह केस अदालत में चल रहा था, लेकिन बीते दिनों केस की सुनवाई कर अदालत ने अपना फैसला सुना दिया. कोर्ट के फैसले के अनुसार, अब जया प्रदा (Jaya Prada gets jail) को 6 महीने तक जेल में रहना होगा. साथ ही उन्हें प्रत्येक कर्मचारी को पांच हजार रुपये का जुर्माना भी देना होगा. इसके अलावा उनके बिजनेस पार्टनर राम कुमार और राजा बाबू को भी इस मामले में दोषी पाया गया है.

जया ने क्यों बनाई फिल्मों से दूरी ?

आपको बता दें कि 70-80 और 90 के दशक की बड़ी व जानी-मानी एक्ट्रेस जया ने काफी लंबे समय से बड़े पर्दे से दूरी बना रखी हैं. अपने एक्टिंग करियर पर ब्रेक लगाकर जया (Jaya Prada Career) ने राजनीति में कदम रखा. उन्होंने 1994 में तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) ज्वाइन की थी. इसके बाद उन्होंने समाजवादी पार्टी का हाथ थामा और ओर रामपुर सीट से दो बार सांसद रहीं. हालांकि अब वह भारतीय जनता पार्टी के साथ है. जया, साल 2019 में भाजपा में शामिल हो गई थी.

फिल्म ‘गदर एक प्रेमकथा’ में नहीं बनना चाहता था सनी देओल का बेटा… -उत्कर्ष शर्मा

फिल्मकार अनिल शर्मा जब 2001 में प्रदर्शित अपनी सफलतम फिल्म ‘गदर एक प्रेमकथा’ की शूटिंग कर रहे थे, उस वक्त तारा सिंह और सकीना के बेटे जीते के लिए बाल कलाकार नहीं मिल रहा था. जीते को ऐक्शन दृश्यों का भी हिस्सा बनना था, जिस के चलते कोई भी मातापिता अपने 6 साल के बच्चे को इस फिल्म से जोड़ने के लिए तैयार नहीं था. तब अनिल शर्मा ने अपने बेटे उत्कर्ष शर्मा को ही जीते बना दिया था. उस वक्त उत्कर्ष शर्मा 6 साल के थे.

इस बात को 22 साल बीत गए हैं. उत्कर्ष ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. उस के बाद फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ने के लिए फिल्म मेकिंग सीखने वे अमेरिका चले गए. फिर फिल्म ‘जीनियस’ में हीरो बन कर आए थे. अब वह ‘गदर 2’ में युवा जीते के किरदार में नजर आने वाले हैं। प्रस्तुत हैं, उत्कर्ष शर्मा से हुई बातचीत के खास अंश :

आप की परवरिश फिल्मी माहौल में हुई है, तो आप को संघर्ष नहीं करना पड़ा?

देखिए, संघर्ष को हर इंसान अपनेअपने नजरिए से देखता है. जहां तक मेरा सवाल है, मैं ने काफी मेहनत की है. मैं ने कम उम्र में अपने पापा के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम किया जबकि बोर्ड की परीक्षाएं चल रही थीं.

ऐसा अकसर होता था, जब पढ़ाई के बीच में मैं अपने पापा के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम करता था. बाद में मैं फिल्म मैकिंग में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए अमेरिका चला गया. वहां पर मैं ने अभिनय की ट्रैनिंग लेने के साथ ही 1 साल तक थिएटर भी किया. बतौर कलाकार वहां की कई शौर्ट फिल्मों में अभिनय भी किया. मैं ने वहां कई शौर्ट फिल्मों का निर्माण व निर्देशन भी किया, जिन्हें फिल्म फैस्टिवल में पसंद भी किया गया. मैं यह सारी मेहनत अपने अंदर के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए कर रहा था.

देखिए, आप अभिनेता हैं तो घर से बाहर का इंसान ही पैसा लगाएगा तो वह भी अपने तरीके से परखेगा कि रिस्क कितना है. अब मेरी पहली फिल्म ‘जीनियस’ पर भी दीपक मुकुट व कमल मुकुट की कंपनी ने मेरी प्रतिभा पर भरोसा कर पैसा लगाया था. फिल्म ‘जीनियस’ को ओटीटी पर अच्छी सफलता मिली. इस के गाने बहुत ज्यादा हिट हुए हैं.

आप ने 5-6 साल की उम्र में अभिनय किया था. आप अपने पिता के साथ शूटिंग के दौरान सैट पर जाते थे. बतौर सहायक निर्देशक काम किया. फिर आप ने अमेरिका जा कर ट्रैनिंग लेने की जरूरत क्यों महसूस की?

फिल्म इंडस्ट्री में हमेशा कहा जाता है कि पश्चिम का सिनेमा हम से बेहतर है. तो मैं यह देखना चाहता था कि इन लोगों की ऐसी नींव क्या है। उन के पास ऐसी क्या कला है। फिल्में तो हम भी अच्छी बनाते हैं, इस में कोई शक नहीं है. हमारी कई फिल्में उन से ज्यादा अच्छी हैं. पर हम चाह कर भी हौलीवुड स्तर की फिल्में नहीं बना पा रहे हैं जबकि हमारे यहां कहानी कहने का तरीका बहुत ही सशक्त है।

हमारी फिल्मों में इमोशंस बहुत सशक्त ही नहीं बल्कि खासियत भी है. तो मैं यह समझना चाहता था कि हौलीवुड तकनीक में हम से किस तरह ज्यादा आगे हैं। अगर मैं वहां से कुछ सीख कर आऊंगा, तो अपने देश के सिनेमा की कुछ मदद कर सकता हूं. फिर वह वीएफऐक्स हो चाहे औनसैट प्रोडक्शन हो. आखिर हौलीवुड ही सिनेमा का आधार है. सिनेमा का जन्म वहीं हुआ है. फिल्म स्टूडियो से ले कर सारी चीजें, फिल्म कलाकार भी वहीं से थे। उन के यहां स्टूडियोज आज भी 1915 वाले हैं. वे आज भी चल रहे हैं. उन की ब्रैंड बहुत स्ट्रौंग है तो उन की खासियत जानने की मेरी उत्सुकता मुझे वहां तक खींच कर ले गई. वहां जा कर मैं ने काफी चीजें सीखी.

बतौर कलाकार मुझे वहां मौका मिला. एक अलग माहौल में एक अलग कल्चर में काम करने, अभिनय करने, स्टेज शो करने, थिएटर करने का अवसर मिला. मेरी अंगरेजी भारतीय एसेंट वाली है. इसलिए मेरे लिए वहां की भाषा के एसेंट को पकङना काफी तकलीफदेह रही. इन सारी चीजों का भी अनुभव मुझे मिला.

हर देश के दर्शकों का इमोशन एकजैसा ही है. भारतीय होने के नाते अगर आप को कोई भावना छू रही है, तो वही भावना अमेरिका के दर्शकों के साथ भी है. एक एशियन होने के नाते यूरोप तो मेरे लिए एक पर्सनल टेस्ट था कि मैं और क्या सीख सकता हूं।

वहां की ट्रैनिंग के बाद आप के अंदर क्या असर हुआ?

मैं ने कम मानवीय शक्ति यानी कि कम इंसानों के साथ काम कैसे किया जाए, यह सीखा. मुझे सब से अच्छी बात यही लगी थी कि वहां पर वे लोग कम मैनपावर के साथ अच्छा काम करते हैं. हमारे यहां सैट पर बहुत बड़ी युनिट होती है. वहां पर हरएक आदमी के आधार पर जिम्मेदारियां बांटी जाती हैं. हर आदमी ज्यादा जिम्मेदारियां सभालता है जबकि भारतीय आदमी ज्यादा मेहनती होता है. वहां पर मैनेजमैंट सिस्टम बहुत ज्यादा बेहतर है. अब धीरेधीरे भारत में भी वही चीजें आ रही हैं. लेकिन फिर भी अभी सुधार की जरूरत है.

अकाउंटेबिलिटी वाला मसला तो नहीं है?

नहीं। हर भारतीय तकनीशियन बहुत मेहनत करते हैं. लेकिन हम भारतीयों को भीड़ लगाने का भी शौक होता है. दूसरी बात यह भी है कि विदेशों की अपेक्षा हमारे देश में मैन पावर सस्ता है. इसलिए शायद हमलोग एक ही काम के लिए ज्यादा लोगों को रखते हैं. मसलन, फिल्म ‘लगान’ में एक ही गेंद/बौल के पीछे सभी लोग भागते हैं. यह कोई गलत बात नहीं है. लेकिन हमें सीखना चाहिए कि हम किस जगह पर खुद को सुधार सकते
हैं. आखिर, हमें भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को आगे बढ़ाना है.

हमारे देश में बमुश्किल 8 हजार स्क्रीन हैं. उस में से लगभग 5 हजार हिंदी फिल्मों के हिस्से में आते हैं. कुछ छोटे सिनेमाघर बंद भी होते रहते हैं. यह हालात तब है जब हमारे देश के लोग सिनेमाप्रेमी हैं. हमारे पास बहुत ज्यादा स्कोप है.

जब आप अमेरिका से ट्रैनिंग ले कर आए थे, उस के बाद आप के पिता से हमारी बात हो रही थी, तब उन्होंने कहा था कि उत्कर्ष ने जो कुछ सीखा है, उस से मुझे बहुत कुछ सीखना है?

ऐसा कुछ नहीं है. मैं पापा को क्या सिखा सकता हूं. वे तो खुद गुरु हैं. सच यही है कि मैं ने खुद ही उन से सबकुछ सीखा है. उन्होंने अपनी जिंदगी में इतनी बड़ीबड़ी फिल्में बनाई हैं। उन के पास कोई किताबी ज्ञान नहीं है. उन के पास अपने अनुभव का ज्ञान है. स्क्रीन तो उन लोगों ने बनाया है. पहले फिल्म मैकिंग की इस की कोई किताब नहीं थी. पहले यह कोई साइंटिफिक विषय नहीं था जिस की थ्योरी लिखी गई हो, जिसे आप जब तक पढ़ेंगे नहीं तब तक कुछ कर नहीं सकते हैं. जिस ने भी इस पर किताब लिखी है, वह पहले खुद ही लेखक, निर्देशक या अभिनेता रहा होगा. उसी आधार पर वह कह रहा है कि कैसे लिखा जाता है तो लोगों के अनुभवों से सीखा जा सकता है.

तो पापा को मैं ने कुछ नहीं सिखाया है, बल्कि मैं ने उन से बहुतकुछ सीखा है. मैं ने उन से सीखा है कि कहानी हमेशा दर्शकों को ध्यान में रख कर ही बनानी चाहिए. कई चीज व कई सीन हमें बहुत अच्छे लगते हैं पर जरूरी नहीं है कि वह सीन फिल्म को भी अच्छी बनाएं. फिल्म की कहानी और इमोशन सही हो. मतलब, संवाद या बेमतलब के ऐक्शन नहीं हों.

आप पहली बार 6 साल की उम्र में ‘गदर एक प्रेम कथा’ में जीते का किरदार निभाने के लिए सैट पर गए थे. उस वक्त की कोई बात आप को याद है? उस समय आप के मन में क्या चल रहा था? क्या आप खुश थे?

वह मेरा पहला अनुभव था. उस जमाने में वीएफऐक्स भी नहीं था. सारी चीजें वास्तविक होती थीं. कौस्ट्यूम से ले कर घोड़े तक. यहां तक कि उस फिल्म के सारे स्टंट पूरी तरह से वास्तविक थे, जिन्हें करना पड़ा था और ज्यादातर हमें ही करना पड़ा था. मुझे तो उस फिल्म का एकएक मूवमैंट याद है. फिल्म कैसे बनी थी? क्या गरमी थी? तब भी हम ने लखनऊ में गरमी के दिनों में शूटिंग की थी. कपड़े तो पसीने से ही भीगे रहते थे. पर क्या था, उस जमाने का लुक भी था. नैचुरल लुक आता था, जो मेकअप से नहीं आ सकता.

मुझे याद है कि मेरी शूटिंग का पहला दिन था. हमें पूरे 72 घंटे तक शूटिंग करनी पड़ी थी. उस जमाने में ऐसा नहीं था बाकी बची हुई शूटिंग मुंबई में आ कर सैट को रिक्रिएट कर के कर
लो. हमें वह पूरा सीक्वैंस फिल्माना ही था. हम ने गाना ‘उड़ जा काले…’ जहां सनी देओल, अमीषा को ले कर आते हैं, इस गाने व उस के आगेपीछे के दृश्य को हम ने लगातार 3 दिनों तक शूटिंग की थी. मेेरे लिए तो शूटिंग का यह पहला अनुभव था.

‘गदर एक प्रेम कथा’ में तो आप के पापा ने कहा और आप ने अभिनय कर लिया था. मगर आप ने स्वयं अभिनय को कैरियर बनाने का निर्णय कब लिया?

2-3 मोड़ आए. पहला मौका तब आया जब मैं फिल्म ‘वीर’ के सैट पर अपने पापा के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम कर रहा था. सलमान सैट पर आए, तो वे एकदम अलग नजर आए. मगर कैमरे के सामने पहुंचते ही मैं ने उन को बदलते देखा. उस दिन गाना फिल्माया जा रहा था, जिस में गाने के बोल पर सलमान को सिर्फ होंठ चलाने थे. मैं अपने पापा के साथ कैमरे के पीछे था और हमारी निगाहें मौनीटर पर थीं. पर मैं ने वास्तव में सलमान को देखने के लिए आंखें उठाईं तो वे एकदम बदले हुए नजर आए. मेरी आंखे खुली की खुली रह गईं. तब उस दिन मुझे लगा था कि मुझे अपनी जिंदगी में यही करना है.

मुझे अभिनय पसंद आया कि मैं हर इमोशंस को व्यक्त कर सकता हूं. लोगों से जुड़ सकता हूं. मेरे दिमाग में आया कि मुझे ऐक्टर ही बनना है. तब मैं ने यह नहीं सोचा था कि मुझे कौन से जोन में जाना है. बस, इतना जरूर सोचा था कि मुझे अच्छा ऐक्टर बनना है. अचानक अभिनय मेरी प्राथमिकता बन गई थी.

कई लोग कहते हैं कि आप का डांस रितिक रोशन या फलां के जैसा होना चाहिए. बौडी ऐसी होनी चाहिए, ऐक्शन ऐसा होना चाहिए?

मेरे हिसाब से यह सब चीजें ऐडिशनल हैं. यदि आप अभिनय कला में माहिर हैं तभी आप लंबी रेस का घोड़ा बन सकते हैं. अमिताभ बच्चनजी 80 साल की उम्र में भी अभिनय कर रहे हैं. धर्मेंद्रजी आज भी ऐक्टिंग कर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे बेहतरीन अभिनेता हैं. धर्मेंद्रजी ऐक्शन में माहिर हैं।

मैं इस प्रोफैशन को ऐंजौय कर रहा हूं और इस के लिए मैं अपनी ऐक्टिंग को ही प्राथमिकता देता हूं. बाकी तो फिर जिस तरह का किरदार है, इस के हिसाब से ही आप को बदलना होता है. यही तो अभिनय है.

अमेरिका में ट्रैनिंग के दौरान आप ने जो लघु फिल्में बनाई थीं, उन्हें वहां पर किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली थीं?

वहां के सिनेमा में बहुत रोचकता है क्योंकि मैं ने तो यहां ज्यादातर भारतीय सिनेमा ही देखा था. वहां जा कर मैं ने पश्चिमी सिनेमा ज्यादा देखा. हम वहां के सिनेमा के आधार पर ही निर्णय लेते थे कि वहां के लोग किस तरह के हैं. हम ज्यादा भावुक हैं. हमारे सिनेमा में भी बहुत ज्यादा इमोशंस हैं. ये इमोशंस मांबाप से जुड़े होते हैं. पश्चिमी सिनेमा में इस का घोर अभाव है. लेकिन जब आप वहां जाते हैं, तो आप को इमोशंस नजर आता है. वहां पर हम कई लड़के एकसाथ मिल कर रहते थे. जब मेरे सहपाठी/रूमर्पाटनर्स की मांएं उन्हें छोड़ने आती थीं, तो उन की आंखों में भी आंसू होते थे. मेरी मां की आंखों में भावनाएं थीं. कहने का अर्थ यह कि इमोशंस को तो इंसान बदल नहीं सकता. शायद रंग बदल जाएं, चाहे देश बदल जाए. अब फिल्म ‘गदर 2’ का ट्रेलर आने के बाद मुझे रूस व पूरे यूरोप से इतने ज्यादा कमैंट्स आए हैं कि कमाल हो गया।

खुद को एक परिपक्व कलाकार बनाने के लिए अभिनय के अलावा क्याक्या सीखा?

हर तरह का डांस सीखा. हिपहौप सीखा है. टैप डांस मैं ने अमेरिका में सीखा. हालांकि अभी तक उसे किसी फिल्म में करने का मौका नहीं मिला. मौका मिलेगा तो करूंगा. मैं जीन कैली का बहुत बड़ा फैन हूं तो अमेरिका में जब मैं था, तो मुझे टैप डांस सीखने का अवसर मिला. मैं ने ऐक्शन सीखा. इस के अलावा घुड़सवारी, स्वीमिंग, तलवारबाजी सहित कुछ छोटीछोटी चीजें भी सीखी हैं. इस के अलावा फिल्म व किरदार की मांग के अनुरूप चीजें सीखता रहता हूं. जैसेकि मैं ने फिल्म ‘जीनियस’ के लिए क्यूबिक सौल्व करना सीखा था.

फिल्म ‘गदर 2’ के लिए पंजाबी भाषा का उच्चारण सीखना पड़ा. फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि पंजाबी है. इसलिए मेरा जीते का किरदार पंजाबी बोलता है. लेकिन उसे उर्दू में भी बात करनी पड़ती है, जो गलत नहीं हो सकती थी. मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण था कि मैं भाषा और उस की बोली को पूरी ईमानदारी के साथ सीखूं.

अमेरिका से अभिनय की ट्रैनिंग पूरी करने के बाद आप ने ‘जीनियस’ से अभिनय कैरियर की शुरुआत की थी, जिसे खास सफलता नहीं मिली थी?

मैं ने पहले ही कहा कि वह गलत समय प्रदर्शित हुई थी. पर उस के गाने काफी सफल हैं. इस के अलावा इसे ओटीटी पर काफी पसंद किया गया. इन दिनों ‘गदर 2’ के प्रोमोशन इवेंट में जाता हूं तो लोग मुझ से फिल्म ‘जीनियस’ का संवाद सुनाने के लिए कहते हैं. यह देख कर हमें अच्छा लगता है कि ‘जीनियस’ हम ने जिस युवा पीढ़ी के लिए बनाई थी, उन्हें पसंद आई.

फिल्म ‘गदर एक प्रेम कथा’ में आप ने तारा सिंह व सकीना के 6 साल के बेटे जीते का किरदार निभाया था. अब ‘गदर 2’ में वही जीते बड़ा हो गया है. इसलिए आप ने यह फिल्म की अथवा घर की फिल्म है, इसलिए कर ली?

यदि ‘गदर 2’ एक प्रोजैक्ट बन रहा होता, तो मैं नहीं करता और मेरे पापा अनिल शर्माजी भी नहीं करते क्योंकि प्रोजैक्ट बनाना बहुत आसान है. ‘गदर एक प्रेम कथा’ को मिली ऐतिहासिक सफलता के बाद इस का सीक्वल बनाने में 22 साल लग गए क्योंकि हमें अच्छी कहानी नहीं मिल रही थी. अब जब लेखक शक्तिमान ने फिल्म की वन कहानी सुनाई, तो वह सुनते ही मेरेे पापा को लगा कि इस पर फिल्म बनाई जानी चाहिए. फिर वही वन लाइन की कहानी सुन कर जी स्टूडियो के शारिक पटेल ने भी हमें आगे बढ़ने के लिए हामी भर दी. उस के बाद मेरे अपने कुछ दूसरे प्रोजैक्ट थे, उन्हें छोड़ कर पूरी तरह से ‘गदर 2’ से जुड़ा.

मेरे पापा ने भी कुछ प्रोजैक्ट छोड़ दिए. सनीजी भी वन लाइन कहानी सुन कर फिल्म करने के लिए तैयार हो गए. यह सब लौकडाउन के वक्त हुआ, जब हालात अच्छे नहीं थे. किसी को पता नहीं था कि अब सिनेमा की क्या हालत होगी. सिनेमाघर खुलेंगे या नहीं. जहां तक मेरा ‘गदर 2’ से जुड़ने का सवाल है, तो जब तक मुझे एहसास नहीं होगा कि इस किरदार में अपनी तरफ से कुछ योगदान दे पाउंगा, मैं अपने दर्शकों का मनोरंजन कर पाउंगा, तब तक मैं कोई फिल्म स्वीकार नहीं करता. हां, फिल्म ‘गदर’ में अभिनय करना मेरी मजबूरी थी क्योंकि उस समय कोई भी 6 साल के बेटे को स्टंट के साथ अभिनय कराने के पक्ष में नहीं थे।

अब आप अपने जीते के किरदार को ले कर क्या कहेंगे?

देखिए, ‘गदर एक प्रेम कथा’ में जीते को लोग देख चुके हैं. जोकि अपने पिता के साथ हमेशा खड़ा रहता है. अगर कोई उस की मां को परेशान करे तो वह अपनी मां के लिए खड़ा हो सकता है. अगर पिता, मां को लेने जा रहे हैं, तो वह लक्ष्मण की तरह अपने पिता के साथ जाएगा ही जाएगा. मतलब वह अपने पिता से इस कदर भावनात्मक तरीके से जुड़ा हुआ है. अब वह युवा हो चुका है. पर आज भी उस के अंदर जिद और बचपना दोनों है. उस के अंदर परिपक्वता भी है. अब वह 22 साल का है, तो वह जवानी में जा रहा है.

जब हम जवानी मे जा रहे होते हैं, तो कुछ चीजों में बच्चे रह जाते हैं और कुछ चीजों में ओवर ऐक्साइटेड भी हो जाते हैं. तो जीते भी उसी के बीच जूझ रहा है. अपनी मां सकीना, जिसे अमिषा पटेल ने निभाया है, के संग भी उस का प्यारा रिश्ता है. पिता के साथ एक अलग जुगलबंदी है.

आप के लिए किस दृश्य को निभाना आसान रहा?

आसान तो कोई दृश्य नहीं रहता. जब फिल्म में कोई संवाद नहीं होता है, तब भी उस दृश्य को निभाना कई बार बहुत कठिन हो जाता है. यदि किसी दृश्य में मेरा कोई संवाद नहीं है. सिर्फ चलना है या केवल पैर या हाथ ही नजर आने वाला है. चेहरा नजर नहीं आने वाला है, तो भी यह दृश्य आसान नहीं है. हर दृश्य में एकएक चीज मायने रखती है. हाथ के पोस्चर से ले कर हर छोटी चीज उस किरदार में बैठना चाहिए. आखिर वह किरदार ऐसा क्यों है? क्या वह इसी तरह से बिहैव करेगा? यदि मैं कुछ ढूंढ़ रहा हूं तो कई किरदार एक उंगली से ढूंढ़ते हैं, तो कुछ 2 उंगलियों से, तो वहीं कुछ किरदार अपने होंठों के बीच उंगली रख कर तलाश करते हैं. तो हमें हर दृश्य के वक्त सोचना होता है कि किरदार के माइंड सैट के
अनुसार क्या फिट बैठेगा.

इस फिल्म में एक तगड़ा दृश्य है जो हमारे लिए सब से अधिक कठिन रहा. इस दृश्य का कुछ अंश ट्रेलर में भी है, जहां सनी देओल का संवाद है. इसे लखनऊ में अप्रैल माह में भीषण गरमी में फिल्माया गया है. 2 से 5 हजार की भीड़ उपयोग की गई है. प्रोडक्शन वाइज भी कठिन था क्योंकि मैं प्रोडक्शन वालों का भी पक्ष सुन रहा था. निर्देशक व अभिनय के लिए भी कठिन था. 5 हजार लोगों के सामने एक संवाद बोलना हो, जिस का असर 5 हजार लोगों के सामने बोलने वाला लगे, वह बहुत चुनौतीपूर्ण होता है. पर कलाकारों की गरमी, भीड़ सबकुछ नजरंदाज कर अपने किरदार के भावनाओं को पकड़ना बहुत ही ज्यादा चुनौतीपूर्ण होता है.

सुना है कि फिल्म में मुसकान का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री सिमरत कौर का औडीशन आप ने लिया था?

फिल्म में मुसकान के किरदार के लिए 5-6 लड़कियों के औडिशन लिए जा चुके थे. मगर किसी न किसी वजह से कोई फिट नहीं बैठ रही थी. यह सारा काम मेरे पापा ही संभाल रहे थे. कलाकार के चयन में मेरी कोई भूमिका नहीं थी. हम पालमपुर में शूटिंग कर रहे थे. कास्टिंग डाइरैक्टर मुकेश छाबड़ा मुंबई से लड़कियों को औडीशन के लिए वहीं पर भेज रहे थे. जिस दिन सिमरत कौर पालमपुर पहुंची, उस दिन हम लोग सुबह से ही बारिश व कीचड़ वाले दृश्य फिल्मा रहे थे. शाम तक हम सभी थक चुके थे. पालमपुर में हर लड़की का औडिशन कैमरा व स्क्रिप्ट के साथ होता था. लेकिन सिमरत के लिए उस वक्त कैमरामैन भी मौजूद नहीं था. मेरे और पापा के पैर में भी चोट थी. सिमरत को मुंबई वापस भी जाना था. तब उस को होटल में ही बुलाया गया कि यहीं पर तुम्हारा औडिशन ले लेते हैं. पापा ने मुझ से कहा कि उत्कर्ष तुम जा कर मोबाइल से ही उस का एक औडिशन ले लो.

मैं ने बहाना किया. पर फिर मुझे पापा के आदेश का पालन करना ही पड़ा. मैं ने सहायक से पूछा कि वह किरदार के अनुरूप सही लगती है, तो उस ने कहा सर, आप देखे लो। वह किरदार में फिट बैठेगी या नहीं।

जब मैं गया तो देखा कि सिमरत स्क्रिप्ट ले कर रिहर्सल कर रही थी. मैं ने पहले अपनी गुगली फेंकते हुए उस से कहा कि स्क्रिप्ट रख दो. हमलोग पहले इंप्रूवाइज करते हैं. हमें अच्छी महिला कलाकार चाहिए थी. शूटिंग लगातार चल रही थी, तो वक्त भी नहीं था. हमारे पास रिहर्सल आदि में समय खराब करने का वक्त ही नहीं था. मैं तो अपनेआप को तीसमारखां समझ रहा था. हम ने मोबाइल की लाइट में ही इंप्रूवाइज का खेल शुरू किया. मतलब हमारी तरफ से उस के साथ पूरी नाइंसाफी हो रही थी. खैर, कुछ देर में ही मेरी बोलती बंद हो गई. मैं अटक गया. पर सिमरत की परफौर्मैंस देख कर मुझे एहसास हुआ कि यह जबरदस्त कलाकार है.

मैं ने पापा को वह औडिशन का वीडियो देते हुए कहा कि लड़की कमाल की है. कुछ न कुछ कमाल का अभिनय कर के दिखाएगी. फिर पापा ने औडिशन देखा. उन्हें सिमरत पसंद आई और जब 3-4 दिन बाद हम वापस मुंबई पहुंचे, तब पापा ने सिमरत को बुला कर उस का सही ढंग से दोबारा औडिशन लिया और उसे चुन लिया गया.

सिमरत ने अच्छा काम किया है. हमारे बीच जल्द ही ट्यूनिंग भी हो गई थी. किसी भी किरदार को निभाने के लिए हर कलाकार अपनी कल्पनाशक्ति के साथ ही निजी जीवन के अनुभवों का उपयोग करता है.

आप को ‘गदर 2’ में जीते का किरदार निभाने में किस ने कितनी मदद की?

आप का यह सवाल बहुत अच्छा है. मेरी राय में हर किरदार को निभाने में निजी जीवन के अनुभव और कल्पनाशक्ति का मिश्रण होना चाहिए. क्योंकि जिंदगी के अनुभव बहुत हो सकते हैं, कल्पनाशक्ति भी बहुत हो सकती है. पर जब दोनों का मिश्रण होगा, तो एक नया किरदार निकल कर आएगा ही आएगा.

जब मैं अमेरिका में पढ़ाई कर रहा था, तो वहां पर जीवन के अनुभवों को ज्यादा महत्त्व देते हैं. हमारे यहां कल्पना को ज्यादा तरजीह दी जाती है. मैं ने मुंबई में गरमी की छुट्टियों में किशोर नमित कपूर के यहां से वर्कशौप किया था. यह तब की बात है जब मैं ने 12वीं पास किया था. इसलिए मेरी राय में दोनों का मिश्रण ही सही जवाब है. मैं ने जीते के किरदार को निभाते हुए यही किया. कई बार पटकथा पढ़ते दृश्य के साथ हम खुद जुड़ जाते हैं. तब कल्पनाशक्ति या जीवन के अनुभवों का उपयोग करने की जरूरत नहीं पड़ती. पर जब किसी दृश्य के लिए तैयारी करने की जरूरत हो तो अनुभवों व कल्पनाशक्ति के मिश्रण के हथियार का प्रयोग किया जाना चाहिए.

अभिनय में नृत्य कितनी मदद करता है?

वास्तव में हमारे यहां चेहरे पर भाव बहुत मायने रखते हैं। ऐक्सप्रैशंस जरूरी माना जाता है. जितने भी बड़ेबड़े कलाकार रहे हैं, उन के ऐक्सप्रैशंस की चर्चा रही है. फिर चाहे वे राजेश खन्ना जी रहे हों, राजकुमार जी रहे हों, गोविंदाजी हों, सनीजी हों, शाहरुख खानजी हों, सभी के ऐक्सप्रैशंस दिल से निकलते हैं. हमारे यहां डांस व म्यूजिक बहुत मायने रखता है. जब ये लोग डांस करते हैं, तो उन के हर स्टैप्स से पूरी कहानी समझ में आ जाती है.

भारतीय नृत्य तो हमारी अभिनय का सब से बड़ा हथियार है. भारतीय फिल्मों में डांस के बिना अभिनय करना मुश्किल है. कत्थक व भरतनाट्यम जैसे शास्त्रीय नृत्य से एक ग्रेस आता है.

आप के अनुसार वर्तमान समय में सिनेमा के हालात क्या हैं और उन्हें कैसे बेहतर बनाया जा सकता है?

हमारे देश में सिनेमा के हालात बेहतर होते जा रहे हैं. बौक्स औफिस कलैक्शन बढ़ रहा है जबकि हमारे यहां सिनेमाघर काफी कम हैं.

आप के शौक क्या हैं?

फिल्में देखने के अलावा किताबें पढ़ना पसंद है. फुटबाल खेलना पसंद है. गिटार बजाना पसंद है. संगीत का शौक है. मो रफी और किशोर कुमार को सुनना अच्छा लगता है. थोड़ाबहुत गाता रहता हूं पर माइक के सामने नहीं गाता.

आप को गाने का शौक कैसे हुआ?

मेरी मम्मी गायक हैं. मेरी बहन गायक है. मेरी नानी पक्ष के लोग संगीत में महारत रखते रहे हैं. मेरी मम्मी ने बचपन में हमें भी क्लासिकल संगीत सिखाया है. मैं ने अपनी फिल्म ‘गदर 2’ के लिए 60 व 70 के दशक के गीत बहुत सुने.

किताबें कौन सी पढ़ते हैं?

पिछले कुछ समय से हिंदी साहित्यिक किताबें भी पढ़ना शुरू किया है. मुंशी प्रेमचंदजी को भी पढ़ रहा हूं. कुछ अंगरेजी की किताबें भी पढ़ता रहता हूं।

आप तो पटकथाएं भी लिखते हैं?

जी, कहानियां लिखते रहता हूं।

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