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नया जमाना नई मार्केटिंग

इंफ्लूएंसर्स को अब काफी मोटा पैसा मिलने लगा है. मार्केटिंग वाले इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर पौपुलर हो रहे कैरेक्टर्स को अब अपने मौडलों की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि इन की पहले से ही काफी फैनफौलोइंग होती है. इस के लिए कंपनियों ने अब फिल्मस्टार्स से ज्यादा इन इंफ्लूएंसर्स पर खर्च करना शुरू कर दिया क्योंकि जितने में फिल्म या क्रिकेट स्टार आता है उतने में बीसियों इंफ्लूएंसर्स के बंधेबंधाए औडियंस मिल जाते हैं.

लेकिन कंज्यूमर मिनिस्ट्री ने इस आय में अब टांग अड़ा दी है और फिलहाल तो हैल्थ संबंधी प्रोडक्ट्स की पब्लिसिटी करने के लिए इंफ्लूएंसर्स का विशेषज्ञ होना होगा और यह बात उसे अपनी रील या शौर्ट वीडियों में स्पष्ट करनी होगी.

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कौन इसे मौनीटर करेगा. इंफ्लूएंसर्स की रील्स की संख्या बहुत ज्यादा है. सो, कंज्यूमर मिनिस्ट्री एक भारीभरकम पूरा डिपार्टमैंट बनाए जो हर रोल को देखे और उस के गलत होने पर ऐक्शन ले सके. इस में जो खर्च होगा वह उस रोकटोक से जनता को बचाने वाले पैसे से कहीं ज्यादा होगा.

इस में शक नहीं कि इंफ्लूएंसर्स बिना जांचेपरखे कुछ भी की मार्केटिंग करने को तैयार रहते हैं क्योंकि जो पैसा मिल रहा होता है, उस की उन्होंने कल्पना भी नहीं की होती है.

हैल्थ ही नहीं, इंफ्लूएंसर्स दूसरे प्रोडक्ट्स की भी मार्केटिंग करने लगे हैं जिन के दाम तो बहुत होते हैं पर उपयोगी उतने नहीं होते. बेचने वाले जानते हैं कि अगर कुछ हजार पीस भी बेच लिए तो उन्हें मुनाफा ही मुनाफा होगा और अगर ग्राहक बाद में शिकायत करे तो उसे किसी तरह का पता तक नहीं मिलेगा.

कंज्यूमर प्रोटैक्शन एक्ट का इस्तेमाल एक सामान्य नागरिक कम करता है. पेशेवर लोग इस का इस्तेमाल अकसर करते रहते हैं. ऐसे पेशेवर अब प्रोडक्ट बेचने वाले के साथसाथ सीधेसादे इंफ्लूएंसर पर भी दावा ठोक देंगे चाहे वह 50 मील दूर रहता हो या 500 मील दूर. उन्हें सिर्फ पेमैंट और खरीद की रसीद दिखानी है और मामला चालू हो जाएगा.

यह खतरनाक और एक पनप रही नई विधा को कुचलने के समान है. धर्मगुरु जिस तरह के थोथे आश्वासन देते रहते हैं उन के खिलाफ तो कंज्यूमर मिनिस्ट्री चुप रहती है पर इन बेचारों और बेचारियों के लपेटे में ले रही है जिन्होंने अपनी कल्पना के सहारे कुछ पैसे बनाए.

मोदी सरनेम मामला राहुल को राहत

31 जुलाई को ‘कहानी सम्राट’ के खिताब से नवाजे गए साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की जयंती देशभर के रचनाकारों ने जैसे भी हो सका, मनाई थी. मुमकिन है मौजूदा कई रचनाकारों को भी यह इल्म न होगा कि प्रेमचंद घोर अनास्थावादी और नास्तिक थे. उन की जिस खूबी के लिए उन्हें याद किया जाता है उसे आजकल की जबां में एक शब्द वामपंथ से व्यक्त किया जा सकता है या सहूलियत के लिए उन्हें अर्बन नक्सली भी कहा जा सकता है.

मोदी सरनेम वाले मामले में राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से जो राहत मिली है उस का प्रेमचंद से इतना ही लेनेदेना है कि इस अंतरिम राहत या टैंपरेरी स्टे से उन की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ याद हो आई जिस का सार इतना है कि इंसाफ की कुरसी पर बैठने वाला आखिरकार सबकुछ भूलभाल कर इंसाफ ही करता है. यही मानवीय स्वभाव है, बशर्ते इंसाफ की कुरसी दोस्ती, दुश्मनी और रिश्तेदारी को किनारे कर पाने में समर्थ हो. इसे ही कांग्रेसी और नवनिर्मित संयुक्त विपक्ष ‘इंडिया’ के तमाम नेता लोकतंत्र और न्यायपालिका की जीत करार दे रहे हैं.

इस मामले में घोषित तौर पर कोई जुम्मन शेख, अलगू चौधरी नहीं था, न ही कोई खाला और साहू थे. थे तो बस, राहुल गांधी, जो बेहद सधे ढंग और सब्र से इस मुकदमे को अदालतदरअदालत लड़ रहे थे जो एक बहुत बड़ा रिस्क भी सियासी लिहाज से था. हालांकि अभी पूरी तरह जीते नहीं हैं लेकिन 4 अगस्त का यह फौरी फैसला सियासी लिहाज से ही किसी जीत से कमतर नहीं, जिस पर भरे सावन में देशभर के कांग्रेसियों ने आतिशबाजी चला और जला कर दीवाली मनाई.

मामला क्या था, उस से पहले सब से बड़ी अदालत की मंशा को सम?ाना ज्यादा बेहतर होगा जिस के कहे का सार भी इतना भर है कि राहुल गांधी ने गलती तो की थी लेकिन कोई इतना बड़ा गुनाह नहीं किया था कि उन्हें 2 साल की सजा सुनाते उन की सांसदी भी छीन ली जाए. यानी मामला मामूली सड़क हादसे जैसा है जिस में ड्राइवर की गलती से सामने वाले को धक्का तो लगा है लेकिन किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ है. उस की मंशा ऐक्सिडैंट करने की नहीं थी. लेकिन चूंकि वह लापरवाही से गाड़ी चला रहा था, इसलिए उसे कड़ी सजा के बजाय न्यूनतम सजा दे कर भी काम चलाया जा सकता था. उस का ड्राइविंग लाइसैंस जब्त कर उसे हमेशा के लिए ड्राइविंग से वंचित किया जाना इंसाफ नहीं है. उसे चेतावनी और मामूली जुर्माने की सजा देना पर्याप्त था.

यह था मामला

2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान 13 अप्रैल को राहुल गांधी ने कर्नाटक के कोलार की एक सभा में बोलते कहा था- ‘नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेंद्र मोदी का सरनेम कौमन क्यों है, सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है.’ कर्नाटक के इस भाषण का असर सिर्फ नरेंद्र मोदी के गृहराज्य गुजरात में ही पड़ा. वहां के एक पूर्व मंत्री और मौजूदा विधायक पूर्णेश मोदी को यह नागवार गुजरा तो वे सीधे अदालत पहुंच गए और राहुल गांधी पर धारा 499 व 500 के तहत आपराधिक मानहानि का केस दर्ज करा दिया.

बकौल पूर्णेश मोदी, सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है, राहुल गांधी के इस वाक्य से पूरा मोदी समुदाय बदनाम हुआ है. अभी तक आम और खास लोग इस पर ज्यादा तवज्जुह नहीं दे रहे थे क्योंकि राजनीति में कुत्ता, सांप, बिच्छू, ताड़का और शूर्पणखा जैसे सैकड़ों विशेषण आम हैं जो जाहिर है अपने दुश्मन या प्रतिद्वंद्वी नेता को जलील करने की नीयत से ही इस्तेमाल किए जाते हैं. इन से किसी को इज्जत तो बख्शी नहीं जा सकती.

निचली अदालत ने इसे कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लिया और जोशजोश में राहुल गांधी को दोषी करार देते 23 मार्च, 2023 को 2 साल की सजा सुना दी. यहां तक भी बात कुछ खास नहीं थी लेकिन अगले ही दिन, यानी 24 मार्च को देश का सियासी पारा उस वक्त चढ़ गया जब राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी गई. वजह, इस बाबत जनप्रतिनधि कानून में प्रावधान का होना है कि किसी विधायक या सांसद को किसी भी मामले में 2 साल या उस से ज्यादा की सजा हो जाती है तो उस की न केवल सदस्यता रद्द हो जाती है बल्कि सजा काटने के

6 साल बाद तक वह चुनाव लड़ने योग्य भी नहीं रह जाता. लोकसभा सचिवालय ने इस पर चीते जैसी फुरती दिखाई.

बवाल इतना मचा कि तमाम संविधान विशेषज्ञ और कानून के जानकार मोटीमोटी किताबें खंगालने लगे कि शायद कोई रास्ता इस से बचने का निकल आए. लेकिन इस चक्रव्यूह को कोई नहीं भेद पाया. इसलिए केरल की वायनाड लोकसभा सीट से 4 लाख

31 हजार से भी ज्यादा वोटों से जीतने वाले राहुल गांधी सांसद भी नहीं रहे. राहुल गांधी ने अब सूरत की सैशन कोर्ट का दरवाजा खटखटाया लेकिन वहां से भी उन्हें नसीहत ही मिली कि सांसद और देश की दूसरी सब से बड़ी पार्टी का मुखिया होने के नाते उन्हें अधिक सावधान रहना चाहिए था.

फिर वही होता रहा जो आमतौर पर देश में हर मुवक्किल के साथ होता है कि न्याय के लिए एडि़यां घिसते रहो लेकिन वह मिलेगा, इस की कोई गारंटी नहीं. चूंकि राहुल गांधी समर्थ हैं, इसलिए

4 दिनों बाद ही हाईकोर्ट पहुंच गए लेकिन ?ाटका उन्हें वहां से भी लगा. 7 जुलाई, 2023 को गुजरात हाईकोर्ट ने भी उन्हें मानहानि के मामले में मिली सजा से कोई छूट देने से इनकार करते निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा. इस बीच, उन से ‘बाइज्जत’ सांसदों वाला बंगला भी छीन लिया गया था.

अब तक साबरमती का गैलनों पानी बह चुका था और मोदीभक्तों ने सोशल मीडिया पर बहुत से भद्दे व अपमानजनक कमैंट्स के साथ यह कहना शुरू कर दिया था कि मोदीजी कहते नहीं, कर के दिखाते हैं. वायरल हुए कुछ मीम्स में गेरुआ कपड़े पहने व हाथ में कमंडल लिए राहुल गांधी को हिमालय और कैलाश पर्वत की तरफ जाते दिखाया गया था.

राहुल गांधी इस से भी विचलित नहीं हुए और मिली सजा को ले कर पिछली 15 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट गए, जहां से 134 दिनों बाद 4 अगस्त को उन्हें थोड़ी राहत मिली. उन की दोषसिद्धि पर अंतरिम रोक लगी जिस से उन की सांसदी बहाल होने का रास्ता साफ हो गया, जिस के बारे में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने तंज कसा कि निकालने में तो 24 घंटे भी नहीं लगाए थे, अब देखते हैं…

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में तल्ख लहजे में कहा-

  • हम जानना चाहते हैं कि ट्रायल कोर्ट ने अधिकतम सजा क्यों दी, जज को फैसले में यह बात बतानी चाहिए थी. अगर जज ने एक साल 11 महीने की सजा दी होती तो राहुल गांधी अयोग्य करार न दिए जाते.
  • अधिकतम सजा के चलते एक लोकसभा सीट बिना सांसद के रह जाएगी. यह सिर्फ एक व्यक्ति के अधिकार का मामला नहीं है, यह उस सीट के मतदाताओं के अधिकार से भी जुड़ा मामला है.
  • इस बात में कोई शक नहीं कि भाषण में जो भी कहा गया वह अच्छा नहीं था. नेताओं को जनता के बीच बोलते वक्त सावधानी रखनी चाहिए. यह राहुल गांधी का फर्ज बनता है कि वे इस का ध्यान रखें.

साफ है कि राहुल गांधी फिर से सांसद हो गए हैं. वे लोकसभा की कार्रवाई में भी हिस्सा ले सकते हैं और उन्हें उन का बंगला भी वापस मिल गया है. अधिकतर सियासी पंडित इसे कांग्रेस के लिए संजीवनी बता रहे हैं तो वे गलत कहीं से नहीं हैं क्योंकि इस से इमेज भगवा गैंग की बिगड़ी है जो सीधे इस लड़ाई में कहीं नहीं दिख रहा था और पूर्णेश के कंधे पर बंदूक रखे हुए था.

अदालतें सरकार और जनता

कोर्ट रूम में राहुल गांधी के वकील अभिषेक मनु सिंघवी, पूर्णेश मोदी के वकील महेश जेठमलानी पर भारी पड़े और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिसों बी आर गवई, पी एस नायक और संजय कुमार ने भी बीचबीच में दोनों से सवाल कर बहस को दिलचस्प बना दिया. यहां गंभीरता से देखने और महसूस करने वाली अहम बात यह है कि देश की जनता भी इस मुकदमे को बारीकी से देख रही थी. अगर सुप्रीम कोर्ट निचली अदालतों और हाईकोर्ट का फैसला बरकरार रखता तो देशभर में बहस इस बात पर छिड़ना तय थी कि क्या वाकई में अब अदालतें भी सरकार के इशारे पर नाचने व उस के मुताबिक फैसले देने को मजबूर हो चली हैं.

असल में बीती 10 जुलाई को बुलडोजर कार्रवाई मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश देने से इनकार करते साफसाफ कह दिया था कि- ‘अगर निर्माण अवैध है तो निगम या परिषद उस पर कार्रवाई करने को अधिकृत हैं. ऐसे में हम उस अवैध निर्माण के विध्वंस पर सर्वग्राही आदेश कैसे पारित कर सकते हैं.’

जस्टिस बी आर गवई और पी एस नरसिम्हा की बैंच मुसलिम संस्था उलमा ए हिंद की याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी जिस ने वकील दुष्यंत दवे की इन दलीलों से सब से बड़ी अदालत ने कोई इत्तफाक नहीं रखा कि देश में एक समुदाय के खिलाफ पिक एंड चौइस की तरह बरताव हो रहा है और न्याय के लिए निष्पक्ष कार्रवाई नहीं हो पा रही है. इस याचिका में उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों की सरकारों को यह निर्देश देने की मांग की गई थी कि आरोपित अभियुक्तों की संपत्तियों को नुकसान न पहुंचाया जाए. बैंच ने दुष्यंत दवे की इन दलीलों पर भी गौर नहीं किया कि सिर्फ किसी अपराध में आरोपी होने के कारण व्यक्ति के घर को नहीं गिरा सकते. यह देश इस की इजाजत नहीं दे सकता. हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहां कानून का शासन है. यही संविधान की मूल भावना है.

लेकिन इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की भावनाओं को ध्यान में रखा तो लगा कि हम लोकतंत्र में जी नहीं रहे बल्कि राजशाही में घुट रहे हैं, जिस में राजा के हुक्म और इच्छा पर किसी को भी जिंदा दीवार में चुनवाया जा सकता है, हाथी के पैरों के नीचे कुचलवाया जा सकता है और सरेआम चौराहे पर फांसी दी जा सकती है. अब आप आजाद देश के नागरिक नहीं बल्कि राजा के गुलाम हैं, जिस में जनता की जायदाद कहने भर की होती है, उस की दिनचर्या भी राजमहल के मुताबिक चलेगी.

बुलडोजर राज को मंजूरी देते इस रुख से सब से ज्यादा जागरूक और बुद्धिजीवी घबराए थे क्योंकि आम लोगों तक तो ऐसे फैसलों का फ भी नहीं पहुंचने दिया जाता जिस का जिम्मेदार मीडिया भी होता है. वह मीडिया, जिस की स्क्रीन के शटर भी मोदीमोदी करते खुलते और गिरते हैं. वह मीडिया, जो दिनरात भगवा गैंग की खुशामद को ही अपना कर्म और भाग्य मान बैठा है.

अब अगर राहुल गांधी को राहत न मिलती तो आम लोग भी दहशत में आ जाते और इन में कट्टर सनातनी भी शामिल होते जो नोटबंदी और जीएसटी तो जैसेतैसे केवल भक्ति और हिंदू राष्ट्र के छलावे के सहारे ?ोल गए थे लेकिन अब उन का सब्र भी जवाब देने लगा है. मणिपुर और हरियाणा में जो हो रहा है उस से 8-10 फीसदी सवर्णों के अलावा किसी को कोई लेनादेना नहीं है और लोग डरे हुए हैं तथा वे सोचने व कहने भी लगे हैं कि हम ने इस दिन के लिए तो नरेंद्र मोदी और सरकार को नहीं चुना था.

मोदी सरनेम मामले ने राहुल गांधी को बैठेबिठाए हीरो बना दिया था. रहीसही कसर उन की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक विधानसभा चुनाव नतीजों ने पूरी कर दी थी जहां से भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया. पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में वहां के लोगों ने टीएमसी को भारी बहुमत दे कर यह जताया है कि हमें धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर भगवाई हिंसा और मारकाट कुबूल नहीं. अब हिंदीभाषी राज्यों के लोग भी सोचने लगे हैं कि राहुल गांधी क्यों नहीं, जो तमाम हमले ?ोलते अपनी मोहब्बत की दुकान पर अड़े हुए हैं. कब तक हिंदूमुसलमान के नाम पर हम ठगे जाते रहेंगे.

4 अगस्त के सुप्रीम कोर्ट के स्टे से राहुल गांधी से ज्यादा फायदा भगवा गैंग को हुआ है जो जनता के कठघरे में एक बार और खड़े होने से हालफिलहाल बच गया है. इमेज सुप्रीम कोर्ट की भी सुधरी है क्योंकि मणिपुर हिंसा और महिलाओं के नग्न वीडियो पर भी उस ने सख्ती दिखाई थी और ईडी चीफ संजय मिश्रा के कार्यकाल को बढ़ाए जाने पर भी सरकार की हां में हां नहीं मिलाई थी.

कहने का मतलब यह नहीं कि राहुल को राहत देना उस की मजबूरी हो गई थी बल्कि सच यही है कि मामला उतना गंभीर है नहीं, जितना कि निचली अदालतों और हाईकोर्ट की निष्ठा ने उसे बना दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने तो प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ को याद भर दिलाई है.

सोशल मीडिया गुरुकुल का कुलजोड़

सोशल मीडिया पर एक भगवा प्रोपेगंडा तेजी से वायरल हो रहा है, जिस में दावा किया जा रहा है कि साल 1850 तक भारत में कुल 7 लाख 32 हजार गुरुकुल थे. इसे प्रचार करने वाले खुद को कट्टर सनातनी बता रहे हैं और कह रहे हैं कि जिस समय ये गुरुकुल थे उस समय भारत के शतप्रतिशत लोग शिक्षित थे. इस गुरुकुल में अग्नि विद्या, वायु विद्या, जल विद्या, सूर्य विद्या समेत लगभग 50 तरह की शिक्षाएं दी जाती थीं.

इस वायरल मैसेज में कहा जा रहा है कि गुरुकुल के खत्म होने का कारण मैकाले की सोच और कौन्वेंट स्कूल थे. मैसेज के अनुसार, 1835 के दौरान अंगरेजों ने इंडियन एजुकेशन एक्ट बनाया, जिस की ड्राफ्ंिटग लौर्ड मैकाले द्वारा की गई. ड्राफ्ंिटग करने से पहले मैकाले ने भारत में एक सर्वे किया और सर्वे में पता चला कि देश में 100 प्रतिशत लोग साक्षर हैं.

इस के बाद मैकाले ने ड्राफ्ट बनाते हुए स्पष्ट किया कि अगर भारत को गुलाम बनाना है तो भारत की सांस्कृतिक शिक्षा को ध्वस्त करना होगा और उस की जगह इंग्लिश शिक्षा व्यवस्था लानी होगी.  वायरल मैसेज के अनुसार, यही कारण था कि देश के 7 लाख से अधिक गुरुकुल गैरकानूनी कर दिए गए और संस्कृत को गैरकानूनी घोषित कर पूरे देश में गुरुकुल खत्म किए गए.

इस मैसेज में बताया जा रहा है कि गुरुकुलों में शिक्षा निशुल्क दी जाती थी. जब इंग्लिश शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया तो कलकत्ता (अब कोलकाता) में पहला कौन्वेंट स्कूल खोला गया. उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’ कहा जाता था. इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गई, मुंबई यूनिवर्सिटी बनाई गई, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गई. ये तीनों गुलामी के जमाने की यूनिवर्सिटीज आज भी देश में हैं.

अब अगर इस मैसेज को सम?ाने की कोशिश करें तो सम?ा आ जाएगा कि इस तरह के मैसेज किस फैक्ट्री से बन कर तैयार हो रहे हैं और क्यों इतने ठेले जा रहे हैं. भारत की वर्तमान जनसंख्या लगभग 140 करोड़ है. देश जब आजाद हुआ तब यह जनसंख्या 31 करोड़ के आसपास थी. इसी आनुपातिक तौर पर 1820-22 में कथित गुरुकुल जब अपने चरम पर रहे थे तब जनसंख्या कोई 7 करोड़ के आसपास रही होगी.

अब इस आंकड़े के अनुसार, अगर 7,32,000 को उस समय देश की जनसंख्या से भाग दिया जाए तो लगभग हर 90-100 लोगों पर 1 गुरुकुल जरूर रहा होगा. इन 100 लोगों में बच्चे, बूढ़े, औरत, जवान सभी आ जाते हैं. चलो खींचखांच कर अगर शिक्षायोग्य 50 प्रतिशत लोगों को गिन लें तो एक गुरुकुल में 50 लोग पढ़ने योग्य रहे होंगे.

अब चूंकि सनातन संस्कृति में महिलाओं को पढ़ने की मनाही थी तो यह संख्या आधी बन जाती है, यानी हर 25 जने पर एक गुरुकुल. अब चूंकि 80 प्रतिशत आबादी इस देश में शूद्र दलितों की रही, जिन्हें वैसे ही वेद का उच्चारण करने तक में कड़ी सजा का प्रावधान था, तो वे पहले ही साइड हो लिए होंगे. यानी लेदे कर बचे 4-5 लोग गुरुकुल में पढ़ने जाते रहे होंगे. अब कोई बताए कि 4-5 लड़कों पर चलने वाला गुरुकुल अपनेआप भी टिक सकता है भला? ऐसी पाठशालाएं कोई दूसरा क्या खत्म करे, इकोनौमिकल और सोशल वायबल न होने के चलते खुद ही ढह जाएंगी.

लेकिन इस से बड़ी पते की बात यह है कि ये 4-5 ऊंचे लोग गुरुकुल से पढ़ कर भी निरे बेवकूफ ही निकले. वेदों को पढ़ कर इन से हवाई जहाज, फ्रिज, वाशिंग मशीन, कार, मैट्रो, मोबाइल तक नहीं बन पाए. ये सब इंग्लिश शिक्षा प्राप्त किए आविष्कारक ही बना पाए हैं.

इस मैसेज को समझा जाए तो इस में एकाध बात ही तथ्यात्मक होगी, बाकी सारी ?ाठ. एकआध तथ्यपरक इसलिए होगी कि लोगों को बेवकूफ बनाया जा सके. इन प्रोपेगंडा मैसेजों को फैलाने वालों की कुंडली निकाल ली जाए तो दिखेगा कि ये वे ही हैं जिन के बच्चे बढि़या इंग्लिश कौन्वेंट स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हैं और इन से बड़े वाले तो अपने बच्चों को सात समंदर पार विदेशी स्कूलकालेजों में पढ़ाने के लिए भेजे हुए हैं और ये गरीब भारतीयों से कह रहे हैं कि वे अपनी संस्कृति ढोएं.

एक छोटी सी गलतफहमी : समीर अपनी बहन के बारे में क्या जान कर हैरान हुआ?

भारत और पाकिस्तान के बीच पुन: एक दोस्ती का पैगाम. एक बार फिर से दिल्लीलाहौर बस सेवा शुरू होने जा रही है. जैसे ही रात के समाचारों में यह खबर सुनाई दी, रसोई में काम करतेकरते मेरे हाथ अचानक रुक गए. दिल में उठी हूक के साथ मां की ओर देखा तो उन का सपाट व शांत चेहरा थोड़ी देर के लिए हिला और फिर पहले जैसा शांत हो गया. आज के समाचार ने मुझे 2 साल पीछे धकेल दिया. वे सारी घटनाएं, जिन्होंने इस परिवार की दुनिया ही बदल दी, मेरी आंखों के सामने सिनेमा की तसवीर की तरह घूमने लगीं.

हम 2 बहन और 1 भाई थे. मातापिता का लाड़प्यार हर पल हमें मिलता रहता था. मैं सब से छोटी थी. भैया व दीदी जुड़वां थे. दीदी मात्र 4 मिनट भैया से बड़ी थीं. बचपन से ही वे आपस में काफी घुलेमिले थे पर झगड़े भी दोनों में खूब होते थे.

मैं उन दोनों से 7 साल छोटी होने के कारण दोनों की लाड़ली थी. मुझे तो शायद याद भी नहीं कि मेरी लड़ाई उन दोनों से कभी हुई हो. संजय भैया पढ़ाई में काफी होशियार थे. यद्यपि दीदी भी पढ़ने में तेज थीं किंतु उन का मन खेलकूद की ओर अधिक लगता था. जिला स्तर पर खेलतेखेलते कई बार उन का चुनाव राज्य स्तर पर भी हुआ जोकि मां को कभी अच्छा नहीं लगा क्योंकि मुझे व दीदी को ले कर मां की सोच पापा से थोड़ी संकरी थी. खासकर तब जब दीदी को खेलने के लिए अपने शहर से बाहर जाने की बात होती थी, तब भैया का साथ ही मां और पापा के प्रतिरोध को हटा पाता था और इस तरह दीदी को बाहर जा कर खेलने का मौका मिलता था.

मलयेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर में कई देशों की टीमें आई थीं. वहीं पर दीदी की मुलाकात अनुपम से हुई जो किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी का रिश्तेदार था और उस के साथ ही क्वालालम्पुर आया था. दोनों की मुलाकात काफी दिलचस्प थी. दिन में दोनों एकसाथ कौफी पीने जाया करते थे. चेहरे के नैननक्श अपने जैसे होने के कारण दोनों ने एकदूसरे से बात करने में दिलचस्पी दिखाई. धीरेधीरे दोनों ने ही महसूस किया कि उन में दोस्ती के अलावा कुछ और भी है. इसी तरह 7 दिन की मुलाकात में ही उन का प्यार परवान चढ़ने लगा था. दीदी जब लौट कर आईं तो कुछ बदलीबदली सी थीं. मां की अनुभवी आंखों को समझते देर न लगी कि दीदी के मन में कुछ उथलपुथल मची है. मां के थोड़े से प्रयासों से पता चला कि दीदी जिसे चाहती हैं वह पाकिस्तानी हिंदू है. यद्यपि लड़का पाकिस्तान में इंजीनियर है पर वह पाकिस्तान से बाहर किसी अच्छी नौकरी की तलाश में है. कुल मिला कर लड़का किसी भी तरफ से अनदेखा करने योग्य न था. बस, उस का पाकिस्तानी होना ही सब के लिए चुभने वाली बात थी.

यहां भी भैया ने दीदी का साथ दिया. आखिर एक दिन हम सब को छोड़ कर दीदी अपने ससुराल चली गई. हालांकि पाकिस्तान के नाम से दीदी के मन में भी थोड़ा अलग विचार आया था लेकिन वहां ऐसा कुछ नहीं था. अनुपम के परिवार ने दीदी का खुले दिल से स्वागत किया. एक खिलाड़ी के रूप में दीदी की शोहरत वहां पर भी थी, तो तालमेल बैठाने में दीदी को कोई परेशानी नहीं हुई.

दीदी के जाते ही पूरा घर सूना हो गया. भैया का मन नहीं लगता तो दीदी के घर का चक्कर लगा आते थे. मां कहतीं कि बेटी के घर इतनी जल्दीजल्दी जाना ठीक नहीं, पर भैया का यही उत्तर होता कि देखो न मां, दीदी के ससुराल जाते ही हमारी सरकार ने भारतपाकिस्तान के बीच बस सेवा शुरू कर दी है.

पढ़ाई समाप्त कर भैया ने भी नौकरी की तलाश शुरू कर दी. हमारा मध्यवर्गीय परिवार था. घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए भैया को नौकरी की जरूरत महसूस होने लगी. उन के प्रथम श्रेणी में पास होने के प्रमाणपत्र भी उन्हें कोई नौकरी नहीं दिला सके तो उन्होंने सोचा, जब तक नौकरी नहीं मिलती क्यों न राजनीति में ही हाथपांव मारे जाएं. कालिज में 2 बार उपाध्यक्ष पद पर रह चुके थे. ऐसे में उन्हें अपने दोस्त समीर की याद आई, जोकि उन के साथ कालिज में अध्यक्ष पद के लिए चुना गया था.

समीर हमारे घर भी काफी आताजाता था. उस के पिता विधायक थे. भैया को लगा, वे शायद कुछ मदद कर सकते हैं. पर भैया ने एक बात नोट नहीं की, वह थी कि दीदी की शादी होते ही समीर ने भैया के साथ अपनी दोस्ती काफी सीमित कर ली थी.

समीर के पिता ने आश्वासन दिया कि अच्छी नौकरी में वे भैया की मदद करेंगे, यदि कोई बात नहीं बनी तो राजनीति में तो शामिल कर ही लेंगे. इसी दौरान किसी काम के सिलसिले में भैया को दीदी के घर जाना पड़ा. इस बार समीर भी उन के साथ पाकिस्तान गया. दीदी के ससुराल वाले बड़ी आत्मीयता के साथ समीर से मिले. केवल बाबूजी यानी दीदी के ससुर से समीर की ज्यादा बातचीत नहीं हो सकी क्योंकि वे उस दौरान सरहदी मामलों को ले कर काफी व्यस्त थे और 2 ही दिन बाद भैया व समीर को वापस भारत आना था.

वापस आ कर भैया जब समीर के घर गए तो उस के पिता ने घुसते ही उन से सीधे सवाल पूछा, ‘संजय, क्या तुम बता सकते हो कि तुम्हारी बहन क्या जासूसी करती है?’

उन के मुंह से यह सवाल सुन कर भैया सन्न रह गए. उन्हें सपने में भी इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी. अत: वह पूछ बैठे, ‘अंकल, आप के इस तरह सवाल पूछने का मतलब क्या है?’

‘बड़े भोले हो तुम, संजय,’ वह बोले, ‘तुम्हारी बहन की शादी को 2 साल हो गए. अभी तक तुम वास्तविकता से अनजान हो. अरे, उस पाकिस्तानी ने जानबूझ कर तुम्हारी बहन को फंसाया है ताकि पत्नी के सहारे वह भारत की सारी गतिविधियों की खबर लेता रहेगा. यही नहीं उस का ससुर सेना में अधिकारी है. इसलिए उस ने तुम्हारी बहन को अपने घर की बहू बनाना स्वीकार किया ताकि देश के अंदर की जानकारी उसे हो सके.’

‘यह सब बेबुनियाद बातें हैं,’ इतना कह कर भैया घर वापस आ गए. पर जासूस वाली बात उन के दिल में कहीं चुभ गई. भैया ने नोट किया कि दीदी अपने ससुर से काफी हिलीमिली हैं. लगता ही नहीं कि दीदी उन की बहू हैं. वह उन के आफिस भी आतीजाती हैं. बाबूजी भी दीदी से काफी प्यार जताते हैं और जब भी मैं दीदी से मिलने जाता हूं तो मुझ से बात करने का भी उन के पास समय नहीं रहता. शक का छोटा बुलबुला जब कुछ बड़ा हुआ तो भैया दीदी से फोन पर घर के हालचाल से ज्यादा भारत के अंदर की खबरों के बारे में बात करते. दीदी सिर्फ सुनतीं और हां हूं में ही जवाब देतीं तो भैया को लगता कि दीदी पहले जैसी नहीं रहीं, सिर्फ पाकिस्तानी बन कर रह गई हैं.

पिछली बार जब समीर घर आया तो भैया से कहने लगा कि देख संजय, पिताजी की बातों में कुछ तो दम है. जब मैं तेरे साथ दीदी के घर गया था तो शायद तू ने ध्यान नहीं दिया हो, किंतु मैं ने ऐसी कई बातें नोट कीं जोकि मुझे शक करने को मजबूर कर रही थीं. जैसे तेरी दीदी के साथ उन के ससुराल वालों का हमेशा हिंदुस्तानी खबरों पर बात करना. और हमारे देश में भी उतारचढ़ाव होते रहे हैं, उन के बारे में विस्तार से चर्चा करना.

भैया उस की बातें चुपचाप सुनते रहे थे. एक बार भैया ने दीदी को फोन किया व जानबूझ कर अपनी नौकरी व देश के माहौल के बारे में बात करने लगे. थोड़ी देर तक दीदी उन की बातें सुनती रहीं फिर एकाएक भैया की बात काट कर वह बीच में ही बोल पड़ीं, ‘संजय, मैं तुम से रात में बात करती हूं, अभी मुझे कुछ जरूरी काम के सिलसिले में बाहर जाना है.’

अब तो भैया के मन में शक के बीज पनपने लगे. उन्होंने गौर किया कि आमतौर पर दीदी मेरा फोन नहीं काटतीं पर आज जब मैं ने थोड़ी अपने देश के अंदर की कुछ बातें उन्हें बताईं तो मेरा फोन काट कर फौरन अपने बाबूजी को खबर देने चली गईं.

इस दौरान जीजाजी को अमेरिका में नौकरी मिल गई. पतिपत्नी अमेरिका चले गए. वहां पर पाकिस्तानी ग्रुप एसोसिएशन के कारण काफी पाकिस्तानी लोग मिले. इन सब से वहां पर दीदी का मन लगने लगा. पिछली बार फोन कर के जब दीदी ने इस ग्रुप के बारे में भैया को बताया तो वह बीच में ही बोल पड़े, ‘तुम कोई इंडियन ग्रुप क्यों नहीं ज्वाइन करतीं? ऐसा तो है नहीं कि अमेरिका में इंडियन नहीं हैं.’

भैया की यह बात सुन कर दीदी बोली थीं, ‘क्या फर्क पड़ता है…मात्र एक दीवार से दिल नहीं बंटते. वैसे भी बाहर आ कर सब एक ही लगते हैं…क्या हिंदुस्तानी क्या पाकिस्तानी.’

अब भैया का शक अंदर ही अंदर साकार रूप लेने लगा. इधर हम सब इन बातों से काफी अनजान थे. भैया परेशान दिखते तो हम सब को यही लगता कि नौकरी को ले कर परेशान हैं. वह जब भी दीदी से बात करते तो दीदी जानबूझ कर चिढ़ाने के लिए पाकिस्तानी ग्रुप की बातें ज्यादा किया करती थीं. पर उन्हें क्या पता कि यही सब बातें एक दिन उन की जान की दुश्मन बन जाएंगी.

समीर व उस के पिता की बातें सुनतेसुनते भैया के अंदर एक कट्टर विचारधारा ने जन्म ले लिया था. दीदी कुछ दिनों के लिए घर आ रही थीं. उन्हें पहले अपनी ससुराल पाकिस्तान जाना था फिर मायके यानी हिंदुस्तान आना था. उन का प्लान कुछ ऐसा बना कि वह पहले मायके आ गईं और एक हफ्ते रह कर अपनी ससुराल चली गईं.

‘देखा संजय, तुम्हारी बहन पहले अपनी ससुराल जाने वाली थी फिर यहां हिंदुस्तान आती पर नहीं, यदि वह ऐसा करती तो यहां की ताजा खबरें कैसे अपने ससुर को दे पाती? वाह, मान गए तुम्हारी बहन को,’ ऐसा कह कर समीर के पिता ने जोर से ठहाका लगाया.

इस घटना के दूसरे ही दिन भैया मां से बोले, ‘मैं दीदी से मिलने पाकिस्तान जा रहा हूं. हो सका तो साथ ले कर आऊंगा.’

‘अभी तो हफ्ते भर रह कर गई है. थोड़ा उसे अपने ससुराल वालों के साथ भी रहने दे. वरना वे क्या सोचेंगे?’ मां बोलीं.

भैया ने मां की बात अनसुनी कर दी. मां को लगा शायद भाईबहन का प्यार उमड़ रहा है.

दीदी के घर पहुंच कर उन के घर वालों से भैया बोले कि घर पर पापा की तबीयत अचानक खराब हो गई है इसलिए कुछ दिनों के लिए दीदी को ले कर जा रहा हूं. जल्दी ही वापस छोड़ जाऊंगा.

जीजाजी तो नहीं आए पर भैया दीदी को ले कर लाहौर से दिल्ली वाली बस पर बैठ गए. बस में ही भैया ने दीदी से उलटेसीधे सवाल करने शुरू कर दिए. दीदी को लगा, यों ही पूछ रहा है पर उन के चेहरे पर गुस्सा व ऊंची होती आवाज से दीदी हैरान रह गईं. फिर भी उन्होंने भैया से यही कहा, ‘इस बस में तो ऐसी बातें मत करो, संजय, और भी पाकिस्तानी बैठे हैं.’

भैया को उस समय किसी की परवा नहीं थी. उन्हें सिर्फ अपने ढेरों सवालों के जवाब चाहिए थे. किसी तरह दीदी, भैया को धीरे बोलने के लिए राजी कर पाईं.

‘सुनो संजय, मुझे अपना घर सब से प्यारा है. भले ही वह पाकिस्तान में क्यों न हो और सब से ज्यादा घर वाले, ससुराल वाले प्यारे हैं,’ इतना कह दीदी चुप हो कर खिड़की से बाहर की ओर देखने लगीं. भैया भी चुपचाप बैठ गए.

लाहौर से निकलने के बाद विश्राम के लिए एक स्थान पर बस रुकी. सभी यात्री नीचे उतर कर सड़क पार करने लगे. भैया व दीदी दूसरे यात्रियों से थोड़ा पीछे थे क्योंकि दोनों का मूड खराब था. वे एकदूसरे से बात भी नहीं कर रहे थे. जैसे ही दीदी व भैया सड़क पार करने लगे कि सामने से दूसरी बस को आती देख वे रुक गए.

सामने से आती बस उन्हें क्रास करने वाली थी कि जाने कहां से भैया के हाथों में हैवानी शक्ति आ गई और पूरे जोर से उन्होंने दीदी को बस के सामने धकेल दिया पर दीदी ने बचाव के लिए भैया की बांह भी जोर से थाम ली, दोनों एकसाथ बीच सड़क पर बस के आगे जा गिरे और दोनों को रौंदती हुई बस आगे चली गई. इस हादसे को देख कर सारे यात्री सन्न रह गए. आननफानन में एंबुलेंस बुलाई गई. दोनों में प्राण अभी बाकी थे.

‘यह क्या किया मेरे भैया, अपनी बहन पर इतना विश्वास नहीं,’ दीदी रोरो कर, अटकअटक कर बोलती रहीं मानो जाने से पहले सारी गलतफहमी दूर कर देना चाहती थीं, ‘यह तुम्हारा ही दिया संस्कार है न मां कि पति का घर ही शादी के बाद अपना घर होता है व उस के घर वाले अपने. बोलो न मां, मेरी क्या गलती है? अरे, मैं तो बाबूजी को खाना देने उन के आफिस जाया करती थी. उन के कोई बेटी नहीं थी इसी से वह मुझे बेटी बना कर रखते थे. वे लोग तो बहुत ही सीधे हैं मेरे भैया. हमेशा मुझे मानसम्मान देते रहे हैं.’

‘मुझे माफ करना, दीदी, मैं लोगों की बातों में न आ कर काश, अपने दिल की सुनता,’ इतना कह कर भैया भी अटकअटक कर रोने लगे.

कुछ ही पल बाद दोनों भाईबहन शांत हो गए. एकसाथ ही इस दुनिया में आए थे और साथ ही चले गए.

मांपापा को तो जैसे होश ही नहीं रहा. उन की आंखों के सामने ही उन की 2 संतानों ने अपनी जान गंवा दी, महज एक गलतफहमी के कारण. मैं पागलों की भांति कभी मां को देखती, कभी पापा को चुप कराती. एक ही पल में सबकुछ बिखर गया.

दूसरे दिन समाचार की सुर्खियों में छाया रहा, ‘देश की भूतपूर्व खिलाड़ी की उस के भाई के साथ बस दुर्घटना में दर्दनाक मौत.’

तब से समीर हमारे घर नहीं आया. आता भी क्यों, उस की मनोकामना जो पूरी हो चुकी थी. उजड़ा तो हमारा घर था.

घड़ी ने 10 बजने का अलार्म दिया, मेरी तंद्रा भंग हुई. अभी तक मम्मीपापा ने खाना नहीं खाया है. उन्होंने अपने को बंद कमरे में समेट लिया है. वहीं उन की सुबह होती है, वहीं रात होती है. उन्हें अपनी परवा नहीं है किंतु मुझे तो है. आखिर, मेरे अलावा उन्हें देखने वाला और कौन है?

‘‘हिंदी रंगमंच की बदौलत भोजन करना संभव नहीं’’- नरोत्तम बेन

इन दिनों एमेजौन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही वैब सीरीज ‘जुबिली’ में मकसूद के किरदार में शोहरत बटोर रहे अभिनेता नरोत्तम बेन के लिए इस मुकाम तक पहुंचना आसान नहीं रहा. जबलपुर में 13 वर्ष तक थिएटर करने के बाद 2004 से मुंबई में थिएटर और फिल्मों से जुड़ कर वे काफी अच्छा काम करते आए हैं. उन्होंने कई सीरियल किए. ‘चलो दिल्ली’, लूटकेस’, ‘आखेट’, ‘मिमी’ सहित कई फिल्में कीं. अब वैब सीरीज ‘जुबली’ ने उन्हें अचानक एक अलग पहचान दिला दी है पर वे आज भी रंगमंच व लोक गायकी से जुड़े हुए हैं. वे 2 फिल्में व एक अन्य वैब सीरीज भी कर रहे हैं.

एक बातचीत में नरोत्तम बताते हैं कि कैसे कला के प्रति उन की रुचि जागृत हुई. वे कहते हैं, ‘‘मैं मूलतया जबलपुर का रहने वाला हूं. मेरे घर में या ननिहाल पक्ष में भी कला का कोई माहौल नहीं रहा पर जब मैं बचपन में थोड़ा सम?ादार हुआ, तभी से अभिनय करने लगा था. फिल्म पत्रिकाएं पढ़ते हुए मु?ो लगने लगा था कि अब तो मु?ो अभिनेता ही बनना है. फिर मेरे भाई के दोस्त मु?ा से मिमिक्री करवाते थे. भले ही वह ऐसा मेरा मजाक उड़ाने के लिए करते रहे हों, मगर इस तरह से मेरी ट्रेनिंग चल रही थी. फिर मैं जबलपुर में ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ गया. वहां पर थिएटर के जो वर्कशौप हुआ करते, उन का हिस्सा बन कर अभिनय सीखता रहा. उस के बाद मैं ने एनएसडी, दिल्ली से भी 45 दिन का अभिनय का वर्कशौप किया.

‘‘मैं बुंदेलखंडी भाषा में फोक गीत भी गाता हूं. मगर मेरी संगीत की कोई ट्रेनिंग नहीं है. बस, यों ही गातेगाते मेरा गला खुल गया. मैं ज्यादातर फोक ही गाता हूं, जिसे लोग काफी पसंद करते हैं. मेरा एक अलबम है- ‘चिलम तंबाकू डब्ब फांके’ जो काफी लोकप्रिय है. कई लोगों ने मेरे इस गीत की पायरेसी वीडियो बना कर यूट्यूब पर डाल रखे हैं. मतलब मेरी आवाज व मेरे वीडियो को ले कर लोगों ने अपनेअपने वीडियो बना कर डाले हैं. यह अलबम पूरे विश्व में बसे भारतीयों तक पहुंच चुका है पर अभिनय की ट्रेनिंग जबलपुर में रहते हुए ही हुई है.’’

मुंबई आने की जर्नी को ले कर वे कहते हैं, ‘‘मैं मुंबई 2004 में फिल्मों में अभिनय करने का सपना ले कर पहुंचा था. मु?ो हीरो नहीं, अभिनेता बनना था. ईमानदारी से कहूं तो मैं छोटी उम्र में ही मुंबई आना चाहता था पर मैं घर से भाग कर नहीं आना चाहता था पर सही दिशा नहीं मिल रही थी. सिर्फ यह सम?ा में आया कि थिएटर से जुड़ने के बाद फिल्मों से जुड़ना आसान हो जाएगा. इसी कारण मैं ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ा था. इरादा तो सिर्फ एक साल का था पर फिर कुछ हालात ऐसे रहे कि 13 साल तक वहीं रह गया.

‘‘मेरी सोच यह थी कि नाटक करते हुए कोई न कोई निर्देशक मु?ो देखेगा और मु?ो मुंबई ले जाएगा. मैं 13 साल सुबह से शाम तक सिर्फ नाटक ही करता रहा. ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ने के बाद मु?ो एहसास हुआ कि मैं गा भी सकता हूं. मैं लिख भी सकता हूं. इसी के साथ सम?ा आई कि हर चीज की विधिवत ट्रेनिंग भी जरूरी है. 13 सालों में मु?ो बहुतकुछ मिला और मैं ने भी बहुतकुछ दिया. फिर 2004 में ?ाला ले कर संघर्ष करने के लिए मुंबई पहुंच गया.’’

बातचीत में नरोत्तम अपने लोकप्रिय नाटकों के बारे में बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा बहुचर्चित नाटक ‘निठल्ले की डायरी’ है जोकि हरिशंकर परसाई के एक उपन्यास पर आधारित है. इस के 100 से अधिक शो हुए. मैं निठल्ला बनता था. यह नाटक अभी भी चल रहा है पर अब निठल्ला का किरदार दूसरा कलाकार कर रहा है. दूसरा चर्चित नाटक रहा- ‘भोले भेडि़या’ यानी कि हबीबजी जिसे चरणदास चोर कहते हैं पर हम ने इसे बुंदेली में किया था और मैं इस में भेडि़या का किरदार निभाता था.

‘‘इस के अलावा ज्ञान रंजन की एक कहानी ‘फैंके इधर उधर’ पर एक नाटक किया. वह भी काफी लोकप्रिय हुआ. इस के अलावा मुंबई आने के बाद भी मैं रंगमंच से जुड़ा रहा. मुंबई के चर्चित नाटकों में ‘इलहाम’ व ‘ऐसा कहते हैं’ के सर्वाधिक शो हुए. इन 2 नाटकों ने मुंबई रंगमंच पर मु?ो अच्छी पहचान दी.’’

अपनी दिलचस्पी को ले कर वे आगे कहते हैं, ‘‘मैं तो थिएटर करना ही नहीं चाहता था. मुंबई पहुंचने के बाद मैं सुबह से शाम तक भटकता हुआ औडिशन दिया करता था. मानव कौल अपना पहला म्यूजिकल प्ले पृथ्वी थिएटर पर करने वाले थे. इस से पहले मानव कौल ने म्यूजिकल नाटक नहीं किए थे. मेरा एक दोस्त उन के साथ काम कर रहा था. उस दोस्त के मारफत मानव कौल ने मु?ो मिलने के लिए बुलाया. मानव कौल से लंबी बातचीत हुई. अभिनय व संगीत पर भी चर्चा हुई. जब मैं उन से विदा लेने लगा तो उन्होंने पूरे अधिकार के साथ मु?ो नाटक की पटकथा देते हुए कहा कि इसे पढ़ लो, इस में आप को अभिनय करना है. मैं ने मना करते हुए कहा कि मु?ो केवल फिल्मों में अभिनय करना है. मानव कौल ने कहा, ‘आप इसे पढ़ें और सोचें, सबकुछ हो जाएगा. मु?ो विश्वास है कि आप कर लेंगे.’

‘‘उस नाटक ने मु?ो पृथ्वी थिएटर की तरफ खींचा. उस नाटक का नाम, ‘ऐसा कहते हैं’ था. उस नाटक का मेरा किरदार पहले शो में ही हिट हो गया. उन दिनों एचबीओ चैनल हुआ करता था. यूके की टीम एक सीरियल बना रही थी- ‘मुंबई कालिंग’, वह टीम भी हमारा यह नाटक देखने आई थी. नाटक का शो खत्म होने के बाद उस टीम के लोगों ने मु?ो एचबीओ के सीरियल ‘मुंबई कालिंग’ में अभिनय करने का अवसर दे दिया. उस के बाद मु?ो पहला चर्चित सीरियल मिला ‘तेरे मेरे सपने’. फिर उस के बाद मु?ो विनय पाठक की फिल्म ‘चलो दिल्ली’ में अभिनय करने का अवसर मिला.

‘‘इस फिल्म से मु?ो काफी फायदा मिला. बड़ी प्यारी सी कहानी है. उस से पहले जो मैं डेढ़ साल तक ?ाला लटका कर भटकते हुए औडिशन दे रहा था उस से कुछ नहीं मिला तो सम?ा में आया कि फिल्म करने के लिए साथ में थिएटर भी करते रहना चाहिए तो मेरी अभिनय की तैयारी से किसी को कोई लेनादेना नहीं था. लोगों ने थिएटर में मेरा काम देखा और मु?ा पर भरोसा किया. इस के बाद मैं ने ‘एमटीवी रिऐलिटी’, ‘लूटकेस’, ‘मिमी’ जैसी फिल्में की हैं.’’

फिल्म ‘आखेट’ पर विस्तार से वे यों बताते हैं, ‘‘रवि बुले निर्देशित यह फिल्म मानवीय संवेदनाओं की जांचपड़ताल करने के साथ ही टाइगर बचाओ, जंगल बचाओ की बात करने वाली है. इस में पहले दृश्य से अंतिम दृश्य तक मैं छाया हुआ हूं. इस में मैं ने मुर्शीद मियां का किरदार निभाया था जो कि जंगल की सैर व शिकार करने वालों का गाइड है. फिल्म की कहानी बहुत मार्मिक है. यह फिल्म मेरे दिल के करीब है. यह मानवीय संवेदना, जीवन कैसे चल रहा है, की कहानी है. यह फिल्म ?ाक?ार कर रख देती है.’’

नरोत्तम बेन एमेजौन प्राइम पर रिलीज सीरियल ‘जुबली’ में अपने अभिनय के अनुभव के बारे में कहते हैं, ‘‘जी हां, औडिशन दे कर ही इस वैब सीरीज से जुड़ा. मैं इस में मेकअपमैन मकसूद के किरदार में नजर आ रहा हूं. इस के निर्देशक विक्रमादित्य मोटावणे के साथ काम करने की मेरी दिली इच्छा भी पूरी हुई.’’

‘जुबली’ में निभाए अपने किरदार के बारे में वे बताते हैं, ‘‘मैं इस में मकसूद के किरदार में नजर आ रहा हूं जो कि लखनऊ से मुंबई आता है. उसे जमशेद भाई अपने साथ लखनऊ से ले कर आते हैं. वह उन का निजी मेकअपमैन के अलावा बहुतकुछ है.’’

रंगमंच में आ रहे बदलाव को ले कर वे कहते हैं, ‘‘अब प्रयोग वाला मसला ज्यादा होने लगा है. इस के अलावा हिंदी रंगमंच को कई मौलिक नाटक मिल गए हैं. 90 के दशक में नए नाटकों के नाम कम सुनाई देते थे. अब हिंदी रंगमंच पर कई नएनए लेखक आ गए हैं. वे बहुत अच्छे नाटक लिख रहे हैं जिन्हें दर्शक पसंद भी कर रहे हैं. इस दौर में हिंदी रंगमंच पर मौलिक कहानियों व पटकथा पर काफी काम हुआ है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘मैं मुंबई और जबलपुर के थिएटर की तुलना करूं तो जबलपुर में भी नाट्य गृह 900 लोगों के बैठने के लिए हैं और सभी हमेशा हाउसफुल रहते हैं. मगर हिंदी रंगमंच की बदौलत भोजन करना संभव नहीं है. पहले लगता था कि छोटे शहरों में थिएटर करना मुश्किल है पर फिर सम?ा में आया कि मुंबई में थिएटर करना ज्यादा मुश्किल है. यहां रिहर्सल के लिए किराए पर जगह लेना भी काफी खर्चीला होता है. हिंदी रंगमंच को अनुदान नहीं मिलता. मैं ने सुना है कि गुजराती और मराठी में थिएटर कर के लोगों के घर आराम से चल जाते हैं.’’

मानव स्वास्थ्य पर रेडिएशन के दुष्प्रभाव

रूस और यूक्रेन के युद्ध में जो बड़ा खतरा दुनिया को लग रहा है वह  सोवियत युग के बने चैरनोबिल में न्यूक्लियर रिएक्टर से निकलने वाले रेडिएशन से है. आज 40 वर्षों बाद भी ऐक्सिडैंट के बाद उस रिएक्टर को ठंडा किया जा रहा है जबकि चैरनोबिल के आसपास का इलाका अब रेडियोधर्मी यानी रेडिएशन अफेक्टेड माना जाता है. युद्ध इस रिएक्टर के आसपास भी हो रहा है.

दिल्ली में वर्षों पहले मायापुरी स्थित स्क्रैप मार्केट के रेडियोधर्मी कबाड़ से रेडिएशन (विकिरण) से प्रभावित होने की घटना ने न केवल जनसाधारण को अचंभित कर दिया बल्कि सरकार को भी इस से बचने के लिए कड़े उपाय अपनाने की दिशा में विवश कर दिया था. कहीं न कहीं चूक हुई और वर्षों से प्रयोगशाला में अनुप्रयुक्त कोबाल्ट-60 युक्त रेडियोधर्मी उपकरण स्क्रैप (कबाड़) व्यापारी के यहां पहुंच गया.

कबाड़ गलाने की प्रक्रिया में 3-4 लोग रेडिएशन से गंभीर रूप से प्रभावित हुए जिस में एक की मृत्यु हो गई और अन्य को सघन उपचार के उपरांत बचाया जा सका था. उस के बाद देश में इस तरह की कोई गंभीर घटना नहीं हुई या फिर प्रकाश में नहीं आई.

रेडिएशन उच्च ऊर्जायुक्त रेज या अल्फा, बीटा या न्यूट्रौंस, रेडौन और प्लूटोनियम नामक रेडियोएक्टिव पदार्थों से उत्पन्न होता है. यह 75 उपयोगी स्रोतों से भी उत्पन्न होता है जैसे कि एक्सरे और रेडियोथेरैपी मशीनें आदि.

रेडिएशन की मात्रा की माप विभिन्न इकाइयों में की जाती है जो एकत्रित ऊर्जा की मात्रा से संबंद्ध होती है. ये इकाइयां हैं- रेंटजन (आर), ग्रे और सीबर्ट (एसयू). सीबर्ट जिंदा लोगों पर विभिन्न प्रकार के रेडिएशन के प्रभावों से संबद्ध है.

रेडिएशन का असर मुख्यतया 2 प्रकार का होता है. ईरेडिएशन और कंटैमिनेशन. रेडिएशन की अधिकांश घटनाओं में इन दोनों का प्रभाव होता है.

रेडिएशन वैक्स शरीर के बाहर से सीधे शरीर को प्रभावित करती है. इस से व्यक्ति तुरंत बीमार हो सकता है जिसे तीव्र रेडिएशन बीमारी कही जाती है. इस के अतिरिक्त, उच्च मात्रा में रेडिएशन की स्थिति में व्यक्ति का डीएनए नष्ट हो सकता है जिस के परिणामस्वरूप कैंसर और जन्मजात दोष जैसी गंभीर स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं.

जो रेडियोधर्मी मैटीरियल त्वचा पर जमा हो सकता है उस से अन्य लोग प्रभावित हो सकते हैं. यह सामग्री फेफड़ों डाइजैस्टिव सिस्टम के माध्यम से अथवा त्वचा फटने के परिणामस्वरूप बोनमैरो जैसे शरीर के विभिन्न हिस्सों में पहुंच जाती है और लगातार रेडिएशन की स्थिति बनी रहती है. ऐसी स्थिति में कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी उत्पन्न हो सकती है.

वैसे, हम बहुत कम स्तर के नैचुरल रेडिएशन से लगातार प्रभावित होते ही रहते हैं. यह रेडिएशन बाह्य अंतरिक्ष से आता है जिसे कौसमिक रेडिएशन कहा जाता है, जिस का बहुत बड़ा हिस्सा पृथ्वी के वायुमंडल द्वारा रोक दिया जाता है. अत्यधिक ऊंचाई पर रहने वाले लोग कौसमिक रेडिएशन से ज्यादा प्रभावित होते हैं.

लोग मानवनिर्मित स्रोतों से ज्यादा रेडिएशन से प्रभावित होते हैं, जैसे कि- आण्विक हथियारों के परीक्षण स्थल तथा विभिन्न मैडिकल परीक्षणों एवं चिकित्सा से.

एक व्यक्ति प्रतिवर्ष प्राकृतिक रेडिएशन और मानव निर्मित स्रोतों से औसतन लगभग 3 से 4 एमएसवी मात्रा में रेडिएशन से प्रभावित होता है. रेडियोधर्मी मैटीरियल्स (द्रव्य) और एक्सरे स्रोतों से संबद्ध क्षेत्रों में कार्य करने वाले लोगों को उच्च स्तर के रेडिएशन की चपेट में आने का बहुत अधिक खतरा होता है.

बढ़ती आबादी की ऊर्जा जरूरतों के मद्देनजर आज न्यूक्लियर रिएक्टर बिजली बनाने के संयंत्र बनाए गए हैं. वैज्ञानिकों की पूरी कोशिश रहती है कि इन संयंत्रों से रेडिएशन न निकले. फिर भी वर्ष 1979 में पेंसिलवेनिया स्थित थ्री माइल आइलैंड संयंत्र और वर्ष 1986 में यूक्रेन स्थित चैरनोबिल संयंत्र में रेडिएशन की दुर्घटनाएं हुईं. प्रथम संयंत्र में विशेष नुकसान नहीं हुआ परंतु चैरनोबिल संयंत्र के आसपास लगभग 30 मौतें प्रकाश में आईं और बड़ी संख्या में लोग घायल हुए. अब फिर यह चर्चा में है.

आण्विक हथियार बड़ी मात्रा में रेडिएशन का उत्सर्जन करते हैं. विश्व में वर्ष 1945 के बाद ऐसे हथियारों का प्रयोग नहीं किया गया है. हालांकि आज विश्व के अनेक देश ऐसे हथियारों से लैस हैं और यहां तक कि कई आतंकवादी संगठन भी ऐसे हथियारों को प्राप्त करने अथवा इस के निर्माण संबंधी जानकारी जुटाने की दिशा में प्रयासरत हैं.

रेडिएशन का प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि शरीर का कितना हिस्सा इस से प्रभावित होता है. उदाहरण के लिए 6 ग्रे से अधिक यूनिट के रेडिएशन से यदि शरीर का संपूर्ण हिस्सा प्रभावित हो तो मृत्यु निश्चित होती है. हालांकि कैंसर के इलाज में रेडिएशन के कैंसरग्रस्त भाग में इस की 3 या 4 गुना अधिक मात्रा में रेडिएशन से शरीर के शेष अन्य हिस्सों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता.

शरीर के कुछ हिस्से रेडिएशन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं. आंत और बोनमैरो जैसे जिन अंगों में कोशिकाओं का गुणन धीमी प्रक्रिया में होता है वहां रेडिएशन का दुष्प्रभाव कम पड़ता है. रेडिएशन की चपेट में आने पर मुख्यतया 2 प्रकार के लक्षण उभरते हैं- तात्कालिक और क्रौनिक.

क्रौनिक स्थिति सामान्यतया शरीर के संपूर्ण भाग पर रेडिएशन प्रभावित होने पर उत्पन्न होती है. यह बीमारी अनेक अवस्थाओं में होते हुए बढ़ती है. शुरुआत में लक्षण उभरते हैं, बाद में लक्षणरहित अवस्था हो जाती है. यह ब्लड सैल्स के प्रमुख उत्पादन स्थलों, बोनमैरो, प्लीहा और लिम्फ नोड, के रेडिएशन से प्रभावित होने से उत्पन्न होता है. इस के अंतर्गत 2 ग्रे से अधिक मात्रा में रेडिएशन से प्रभावित होने के 2 से 12 घंटों के भीतर एनोरेक्सिया (भूख नहीं लगना), आलस, मतली और उलटी होने जैसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं. लगभग 24 से 36 घंटों के भीतर ये लक्षण दूर हो जाते हैं और व्यक्ति एक हफ्ते या इस से अधिक अवधि तक बेहतर अनुभव करता है.

इस अवधि के दौरान बोनमैरो, प्लीहा और लिम्फ नोड की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं. श्वेत रुधिर कोशिकाओं की संख्या अत्यधिक घट जाती है जिस के बाद प्लेटलेट्स और लाल रक्त कोशिकाओं (आरबीसीएस) की संख्या भी घट जाती है. प्लेटलेट्स की कमी से अनियंत्रित रक्तस्राव (ब्लीडिंग) होने लगता है और रैड ब्लड सैंपल की कमी से एनीमिया की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिस से थकान, कमजोरी, शरीर पीला पड़ने और मामूली कार्य करने पर भी सांस फूलने जैसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं.

डाइजैस्टिव सिस्टम की भीतरी कोशिकाओं के रेडिएशन से प्रभावित होने पर 2 से 12 घंटों के भीतर मतली, उलटी होने और अतिसार (डायरिया) जैसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं. इस के परिणामस्वरूप गंभीर डीहाइड्रेशन की स्थिति हो जाती है परंतु 2 दिनों के भीतर स्थिति में सुधार आ जाता है. बाद में सेल्स क्षतिग्रस्त होने लगते हैं. परिणामस्वरूप बहुधा ब्लीडिंग के साथ गंभीर डायरिया की स्थिति उत्पन्न होने के पश्चात गंभीर डीहाइड्रेशन हो जाता है.

कैंसर के लिए रेडिएशन उपचार

कैंसर के लिए रेडिएशन उपचार मुख्यतया 2 विधियों से किया जाता है- भीतरी और बाहरी. भीतरी विधि से उपचार में कैंसर में रेडियोएक्टिव मैटीरियल की एक छोटी गोली सीधे आरोपित की जाती है. बाहरी विधि से उपचार में व्यक्ति के शरीर के माध्यम से कैंसर स्थल को रेडिएशन के एक पुंज से प्रभावित किया जाता है.

बाहरी विधि द्वारा उपचार के दौरान मतली, उलटी होने, भूख नहीं लगने जैसी स्थितियों का अनुभव होता है. शरीर के एक हिस्से पर बड़ी मात्रा में रेडिएशन के प्रभाव में त्वचा क्षतिग्रस्त हो सकती है जिस के परिणामस्वरूप बाल ?ाड़ने, शरीर लाल पड़ने, त्वचा की बाहरी परत ?ाड़ने, घाव होने और त्वचा के नीचे रक्त वाहिकाओं के नष्ट होने जैसी गंभीर स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं.

रेडियोधर्मी संदूषण

रेडियोधर्मी संदूषण का पता लगाने के लिए प्रभावित व्यक्ति की नाक, गले और घाव से प्राप्त स्वैब नमूनों की जांच की जाती है. संदूषण की स्थिति में रेडियोधर्मी सामग्री को तत्काल बाहर निकालना आवश्यक होता है जिस से वह शरीर के अन्य हिस्सों में न फैल सके. प्रभावित त्वचा को साबुन और बड़ी मात्रा में पानी से धोना चाहिए. घाव की स्थिति में उस स्थान की अत्यधिक सफाई की जानी चाहिए. संदूषित बालों को तत्काल काट दिया जाना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति रेडियोधर्मी सामग्री निगल गया हो तो उसे उलटी कराई जानी चाहिए. विशेषज्ञ चिकित्सक से तत्काल संपर्क करना चाहिए जिस से विशिष्ट एंटीडौट्स दिया जा सके.

डाइजैस्टिव सिस्टम और रक्तसंलायी संलक्षणों सहित व्यक्तियों को अलग रखना चाहिए जिस से वे माइक्रोबैक्ट्रीरिया से संक्रमित न हो सकें. संलक्षण सहित व्यक्तियों को अंत:शिरा विधि से तरल (फ्लूड्स) देने की आवश्यकता होती है.

आवश्यकतानुसार एंटीबायोटिक, एंटीवाइकल और एंटीफंगल दवाइयां भी दी जाती हैं. मस्तिष्क संलक्षण की स्थिति में दर्द, व्याकुलता और सांस लेने में कठिनाई जैसी स्थितियों से बचने हेतु दवाइयां दी जानी चाहिए जिस से व्यक्ति को दौरा पड़ने और पैरालिसिस होने से बचाया जा सके.

रेडिएशन से प्रभावित होना अत्यंत खतरनाक होता है परंतु तरहतरह की बीमारियों की जांच में एक्सरे के प्रयोग अथवा कैंसर के उपचार में रेडियोथेरैपी जैसी विधियों से भयभीत अथवा आशंकित होने की जरूरत नहीं, क्योंकि ये सारी विधियां कुशल तकनीशियनों और विशेषज्ञ चिकित्सकों की देखरेख में अपनाई जाती हैं. रेडिएशन से प्रभावित होने की स्थिति में विशेषज्ञ चिकित्सक से तत्काल संपर्क किया जाना चाहिए और उन की सलाह पर ही दवाइयों का सेवन किया जाना चाहिए. स्वउपचार जानलेवा साबित हो सकता है.

एक रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए क्या जरूरी है?

सवाल

प्यार होने के बाद भी एक रिश्ता खत्म क्यों हो जाता है. मैं बहुत कन्फ्यूज हूं. उम्र 26 साल है. मैं ने अपने फ्रैंड्स को देखा है कि उन की रिलेशनशिप में शुरू में तो बहुत प्यार था लेकिन प्यार होने के बावजूद उन्होंने अपने रिश्ते को खत्म कर दिया या फिर शादी कहीं और कर ली. यह सब देख कर न तो मेरा किसी लड़की से दिल लगाने का मन करता है न ही शादी पर मेरा विश्वास रहा है. सम नहीं पा रहा हूं कि क्या किया जाए?

जवाब

आप परेशान हैं क्योंकि सब यही कहते हैं कि रिश्ते में सब से अहम चीज प्यार होती है लेकिन ब्रदरप्यार के अलावा भी एक रिश्ते में बहुतकुछ होना जरूरी है. देखिएप्यार एक चीज है. दो लोगों में हो जाता है लेकिन जब बात शादी की आती है तो आज लड़कीलड़काहर कोई चाहता है कि दोनों कमाएं और मिल कर घर चलाएं. लड़की न भी कमाए लेकिन लड़के का कमाना जरूरी माना जाता है. अगर वह इतना सक्षम नहीं है कि फाइनैंशियल अकेला घर चला पाए तो एक बड़ा कारण होता है कि प्यार होने के बाद भीप्यार करने वाले शादी नहीं कर पाते और उन का रिश्ता खत्म हो जाता है.

बहुत से प्यार करने वाले ऐसे हैं जो चाहते हैं कि उन के प्यार को परिवार की स्वीकृति मिले. बिना परिवार को साथ लिए वे अपने प्यार को आगे नहीं बढ़ाते और उन का रिश्ता प्यार के बावजूद अधूरा रह जाता है.

कई बार प्यार में लड़ाई शुरू हो जाती है और रिश्ता वहीं खत्म हो जाता है. प्यार में विश्वास जरूरी होता है लेकिन कई बार गलतफहमियां इतनी बढ़ जाती हैं कि रिश्ता पीछे छूट जाता है.

प्यार में बहुत बार पार्टनर में आया बदलाव रिलेशनशिप खत्म कर देता है.

अब आप सम गए होंगे कि आप के फ्रैंड्स लोगों की रिलेशनशिप क्यों टूटी होगी. आप इन सब बातों का ध्यान रखेंगे तो आप अपनी रिलेशनशिप को मजबूत बना सकते हैं. ज्यादा परेशान मत होइए. प्यार से विश्वास मत उठाइए. रिलेशनशिप को अपने प्यारविश्वास और समदारी से चलाइए.

कहो, कैसी रही चाची

लड़की लंबी हो, मिल्की ह्वाइट रंग हो, गृहकार्य में निपुण हो… ऐसी बातें तो घरों में तब खूब सुनी थीं जब बहू की तलाश शुरू होती थी. जाने कितने फोटो मंगाए जाते, देखे जाते थे.

फिर लड़की को देखने का सिलसिला शुरू होता था. लड़की में मांग के अनुसार थोड़ी भी कमी पाई जाती तो उसे छांट दिया जाता. यों, अब सुनने में ये सब पुरानी बातें हो गई हैं पर थोड़े हेरफेर के साथ घरघर की आज भी यही समस्या है.

अब तो लड़कियों में एक गुण की और डिमांड होने लगी है. मांग है कि कानवेंट की पढ़ी लड़की चाहिए. यह ऐसी डिमांड थी कि कई गुणसंपन्न लड़कियां धड़ामधड़ाम गिर गईं.

अच्छेअच्छे वरों की कतार से वे एकदम से बाहर कर दी गईं. उन में कुंभी भी थी जो मेरे पड़ोस की भूली चाची की बेटी थी.

‘‘कानवेंट एजुकेटेड का मतलब?’’ पड़ोस में नईनई आईं भूली चाची ने पूछा, जो दरभंगा के किसी गांव की थीं.

‘‘अंगरेजी जानने वाली,’’ मैं ने बताया.

‘‘भला, अंगरेजी में ऐसी क्या बात है भई, जो हमारी हिंदी में नहीं…’’ चाची ने आंख मटकाईं.

‘‘अंगरेजी स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियां तेजतर्रार होती हैं. हर जगह आगे, हर काम में आगे,’’ मैं ने उन्हें समझाया, ‘‘फटाफट अंगरेजी बोलते देख सब हकबका जाते हैं. अच्छेअच्छों की बोलती बंद हो जाती है.’’

‘‘अच्छा,’’ चाची मेरी बात मानने को तैयार नहीं थीं, इसलिए बोलीं, ‘‘यह तो मैं अब सुन रही हूं. हमारे जमाने की कई औरतें आज की लड़कियों को पछाड़ दें. मेरी कुंभी तो अंगरेजी स्कूल में नहीं पढ़ी पर आज जो तमाम लड़कियां इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ रही हैं, कुछ को छोड़ बाकी तो आवारागर्दी करती हैं.’’

‘‘छी…छी, ऐसी बात नहीं है, चाची.’’

‘‘कहो तो मैं दिखा दूं,’’ चाची बोलीं, ‘‘घर से ट्यूशन के नाम पर निकलती हैं और कौफी शौप में बौयफ्रैंड के साथ चली जाती हैं, वहां से पार्क या सिनेमा हाल में… मैं ने तो खुद अपनी आंखों से देखा है.’’

‘‘हां, इसी से तो अब अदालत भी कहने लगी है कि वयस्क होने की उम्र 16 कर दी जाए,’’ मैं ने कुछ शरमा कर कहा.

‘‘यानी बात तो घूमफिर कर वही हुई. ‘बालविवाह की वापसी,’’’ चाची बोलीं, ‘‘अच्छा छोड़ो, तुम्हारी बेटी तो अंगरेजी स्कूल में पढ़ रही है, उसे सीना आता है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘खाना पकाना?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘चलो, गायनवादन तो आता ही होगा,’’ चाची जोर दे कर बोलीं.

‘‘नहीं, उसे बस अंगरेजी बोलना आता है,’’ यह बताते समय मैं पसीनेपसीने हो गई.

चाची पुराने जमाने की थीं पर पूरी तेजतर्रार. अंगरेजी न बोलें पर जरूरत के समय बड़ेबड़ों की हिम्मत पस्त कर दें.

उस दिन चाची के घर जाना हुआ. बाहर बरामदे में बैठी चाची साड़ी में कढ़ाई कर रही थीं. खूब बारीक, महीन. जैसे हाथ नहीं मकड़ी का मुंह हो.

‘‘हाय, चाची, ये आप कर रही हैं? दिखाई दे रहा है इतना बारीक काम…’’

‘‘तुम से ज्यादा दिखाई देता है,’’ चाची हंस कर बोलीं, ‘‘यह तो आज दूसरी साड़ी पर काम कर रही हूं. पर बिटिया, मुझे अंगरेजी नहीं आती, बस.’’

मैं मुसकरा दी. फिर एक दिन देखा, पूरे 8 कंबल अरगनी पर पसरे हैं और 9वां कंबल चाची धो रही हैं.

‘‘चाची, इस उम्र में इतने भारीभारी कंबल हाथ से धो रही हैं. वाशिंगमशीन क्यों नहीं लेतीं?’’

‘‘वाशिंगमशीन तो बहू ने ले रखी है पर मुझे नहीं सुहाती. एक तो मशीन से मनचाही धुलाई नहीं हो पाती, कपड़े भी जल्दी पतले हो जाते हैं, कालर की गंदगी पूरी हटती नहीं जबकि खुद धुलाई करने पर देह की कसरत हो जाती है. एक पंथ दो काज, क्यों.’’

चाची का बस मैं मुंह देखती रही थी. लग रहा था जैसे कह रही हों, ‘हां, मुझे बस अंगरेजी नहीं आती.’

उस दिन बाजार में चाची से भेंट हो गई. तनु और मैं केले ले रही थीं. केले छांटती हुई चाची भी आ खड़ी हुईं. मैं ने 6 केलों के पैसे दिए और आगे बढ़ने लगी.

चाची, जो बड़ी देर से हमें खरीदारी करते देख रही थीं, झट से मेरा हाथ पकड़ कर बोलीं, ‘‘रुक, जरा बता तो, केले कितने में लिए?’’

‘‘30 रुपए दर्जन,’’ मैं ने सहज बता दिया.

‘‘ऐसे केले 30 रुपए में. क्या देख कर लिए. तू तो इंगलिश मीडियम वाली है न, फिर भी लड़ न सकी.’’

‘‘मेरे कहने पर दिए ही नहीं. अब छोड़ो भी चाची, दोचार रुपए के लिए क्या बहस करनी,’’ मैं ने उन्हें समझाया.

‘‘यही तो डर है. डर ही तो है, जिस ने समाज को गुंडों के हवाले कर दिया है,’’ इतना कह कर चाची ने तनु के हाथ से केले छीन लिए और लपक कर वे केले वाले के पास पहुंचीं और केले पटक कर बोलीं, ‘‘ऐसे केले कहां से ले कर आता है…’’

‘‘खगडि़या से,’’ केले वाले ने सहजता से कहा.

‘‘इन की रंगत देख रहा है. टी.बी. के मरीज से खरीदे होंगे 5 रुपए दर्जन, बेच रहा है 30 रुपए. चल, निकाल 10 रुपए.’’

‘‘अब आप भी मेरी कमाई मारती हो चाची,’’ केले वाला घिघिया कर बोला, ‘‘आप को 10 रुपए दर्जन के भाव से ही दिए थे न.’’

‘‘तो इसे ठगा क्यों? चल, निकाल बाकी पैसे वरना कल से यहां केले नहीं बेच पाएगा. सारा कुछ उठा कर फेंक दूंगी…’’

और चाची ने 10 रुपए ला कर मेरे हाथ में रख दिए. मैं तो हक्कीबक्की रह गई. पतली छड़ी सी चाची में इतनी हिम्मत.एक दिन फिर चाची से सड़क पर भेंट हो गई.

सड़क पर जाम लगा था. सारी सवारियां आपस में गड्डमड्ड हो गई थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे रास्ता निकलेगा. ट्रैफिक पुलिस वाला भी नदारद था. लोग बिना सोचेसमझे अपनेअपने वाहन घुसाए जा रहे थे. मैं एक ओर नाक पर अपना रुमाल लगाए खड़ी हो कर भीड़ छंटने की प्रतीक्षा कर रही थी.तभी चाची दिखीं.

‘‘अरे, क्या हुआ? इतनी तेज धूप में खड़ी हो कर क्या सोच रही है?’’

‘‘सोच रही हूं, जाम खुले तो सड़क के दूसरी ओर जाऊं.’’

‘‘जाम लगा नहीं है, जाम कर दिया गया है. यहां सारे के सारे अंगरेजी पढ़ने वाले जो हैं. देखो, किसी में हिम्मत नहीं कि जो गलत गाडि़यां घुसा रहे हैं उन्हें रोक सके. सभ्य कहलाने के लिए नाक पर रुमाल लगाए खड़े हैं या फिर कोने में बकरियों की तरह मिमिया रहे हैं.’’

‘‘तो आप ही कुछ करें न, चाची,’’ उन की हिम्मत पर मुझे भरोसा हो चला था.

चाची हंस दीं, ‘‘मैं कोई कंकरीट की बनी दीवार नहीं हूं और न ही सूमो पहलवान. हां, कुछ हिम्मती जरूर हूं. बचपन से ही सीखा है कि हिम्मत से बड़ा कोई हथियार नहीं,’’ फिर हंस कर बोलीं, ‘‘बस, अंगरेजी नहीं पढ़ी है.’’

चाची बड़े इत्मीनान से भीड़ का मुआयना करने लगीं. एकाएक उन्हें ठेले पर लदे बांस के लट्ठे दिखे. चाची ने उसे रोक कर एक लट्ठा खींच लिया और आंचल को कमर पर कसा और लट्ठे को एकदम झंडे की तरह उठा लिया. फिर चिल्ला कर बोलीं, ‘‘तुम गाड़ी वालों की यह कोई बात है कि जिधर जगह देखी, गाड़ी घुसा दी और सारी सड़क जाम कर दी है. हटो…हटो…हटो…पुलिस नहीं है तो सब शेर हो गए हो. क्या किसी को किसी की परवा नहीं?’’

पहले तो लोग अवाक् चाची को इस अंदाज से देखने लगे कि यह कौन सी बला आ गई. फिर कुछ चाची के पीछे हो लिए.

‘‘हां, चाची, वाह चाची, तू ही कुछ कर सकती है…’’ और थोड़ी ही देर में चाची के पीछे कितनों का काफिला खड़ा हो गया. मैं अवाक् रह गई.

गलतसलत गाडि़यां घुसाने वाले सहम कर पीछे हट गए. चाची ने मेरा हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘‘चल, धूप में जल कर कोयला हो जाएगी,’’ और बांस को झंडे की तरह लहराती, भीड़ को छांटती पूरे किलोमीटर का रास्ता नापती चाची निकल गईं. जाम तितरबितर हो चला था. कुछ मनचले चिल्ला रहे थे :

‘‘चाची जिंदाबाद…चाची जिंदाबाद.’’

चाची किसी नेता से कम न लग रही थीं. बस, अंगरेजी न जानती थीं. भीड़ से निकल कर मेरा हाथ छोड़ कर कहा, ‘‘यहां से चली जाएगी या घर पहुंचा दूं?’’

‘‘नहींनहीं,’’ मैं ने खिलखिला कर कहा, ‘‘मैं चली जाऊंगी पर एक बात कहूं.’’

‘‘क्या? यही न कहेगी तू कि कानवेंट की है, मुझे अंगरेजी नहीं आती?’’

‘‘अरे, नहीं चाची, पूरा दुलार टपका कर मैं ने कहा, ‘‘मैं जब बहू खोजूंगी तब लड़की का पैमाना सिर्फ अंगरेजी से नहीं नापूंगी.’’

चाची खिलखिला दीं, शायद कहना चाह रही थीं, ‘‘कहो, कैसी रही चाची?’’

Raksha Bandhan: अनमोल रिश्ता- रंजना को संजय से क्या दिक्कत थी?

फेसबुक पर फाइंड फ्रैंड में नाम डालडाल कर कई बार सर्च किया, लेकिन संजय का कोई पता न चला. ‘पता नहीं फेसबुक पर उस का अकाउंट है भी कि नहीं,’ यह सोच कर मैं ने लौगआउट किया ही था कि स्मार्टफोन पर व्हाट्सऐप की मैसेज ट्यून सुनाई दी. फोन की स्क्रीन पर देखा तो जानापहचाना चेहरा लगा. डबल क्लिक कर फोटो को बड़ा किया तो चेहरा देख दंग रह गई. फिर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. ‘बिलकुल वैसा ही लगता है संजय जैसा पहले था.’

मैं अपने मातापिता की एकलौती संतान थी और 12वीं में पढ़ती थी. पिताजी रेलवे में टीटीई के पद पर कार्यरत थे. इस कारण अकसर बाहर ही रहते. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण हम ने डिसाइड किया कि घर का एक कमरा किराए पर दे दिया जाए. बहुत सोचविचार कर पापा ने 2 स्टूडैंट्स जो ग्रैजुएशन करने के बाद आईएएस की तैयारी करने केरल से दिल्ली आए हुए थे, को कमरा किराए पर दे दिया. जब वे हमारे यहां रहने आए तो आपसी परिचय के बाद उन्होंने मुझे कहा, ‘पढ़ाई के सिलसिले में कभी जरूरत हो तो कहिएगा.’

उन में से एक, जिस का नाम संजय था अकसर मुझ से बातचीत करने को उत्सुक रहता. कभी 10वीं की एनसीईआरटी की किताब मांगता तो कभी मेरे कोर्स की. मुझे उस का इस तरह किताबें मांगना बात करने का बहाना लगता. एक दिन जब वह किताब मांगने आया तो मैं ने उसे बुरी तरह डांट दिया, ‘क्या करोगे 10वीं की किताब का. मुझे सब पता है, यह सब बहाने हैं लड़कियों से बात करने के. मुझ से मेलजोल बढ़ाने की कोशिश न करो. आगे से मत आना किताब मांगने.’ उस ने अपने पक्ष में बहुत दलीलें दीं लेकिन मैं ने नकारते हुए सब खारिज कर दीं. उस दिन मुझे स्कूल से ही अपनी फ्रैंड के घर जाना था. मैं मम्मी को बता भी गई थी, लेकिन जब घर आई तो जैसे सभी मुझे शक की निगाह से देखने लगे.

बस्ता रखा ही था कि मम्मी पूछने लगीं, ‘आज तुम रमेश के साथ क्या कर रही थीं?’

‘रमेश,’ मैं समझ गई कि यह आग संजय की लगाई हुई है. मैं ने जैसेतैसे मम्मी को समझाया, लेकिन संजय से बदला लेने उसी के रूम में चली गई. ‘तुम होते कौन हो मेरे मामले में टांग अड़ाने वाले. मैं चाहे किसी के साथ जाऊं, घूमूंफिरूं तुम्हें क्या. तुम किराएदार हो, किराया दो और चुपचाप रहो. आइंदा मेरे बारे में मां से बात करने की कोई जरूरत नहीं, समझे,’ मैं संजय को कह कर बाहर निकल गई. दरअसल, रमेश मेरी कक्षा में पढ़ता था. अच्छी पर्सनैलिटी होने के कारण सभी लड़कियां उस से दोस्ती करना चाहती थीं. मेरे दिल में भी उस के लिए प्यार था और मैं उसे चाहती थी. सो फ्रैंड के घर जाते समय उसी ने मुझे ड्रौप किया था, लेकिन संजय ने मुझे उस के साथ जाते हुए देख लिया था.

थोड़ी देर बाहर घूम कर आई तो संजय मम्मी के पास बैठा दिखा. मुझे उसे देखते ही गुस्सा आ गया, लेकिन मेरे आते ही वह उठ कर चला गया. बाद में मम्मी ने मुझे समझाया,  ‘संजय ने मुझे उस लड़के के बारे में बताया है. वह लड़कियों से फ्लर्ट करता है. उस का तुम्हारे स्कूल की 11वीं में पढ़ने वाली रंजना से भी संबंध है. तुम उस से ज्यादा दोस्ती न ही बढ़ाओ तो ठीक है.’ ‘ठीक है मां,’ मैं ने उन्हें कह दिया, लेकिन संजय पर बिफर पड़ी, ‘अब तुम मेरी जासूसी भी करने लगे. मैं किस से मिलती हूं, कहां जाती हूं इस से तुम्हें क्या?’

इस पर वह चुप ही रहा. शाम को मुझे मैथ्स का एक सवाल समझ नहीं आ रहा था तो मैं ने संजय से ही पूछा. उस ने भी बिना हिचक मुझे समझा दिया, लेकिन ज्यों ही वह सुबह की बात छेड़ने लगा मैं ने फिर डांट दिया, ‘मेरी जासूसी करने की जरूरत नहीं. रमेश को मैं जानती हूं वह अच्छा लड़का है और बड़ी बात है कि मैं उसे चाहती हूं. तुम अपने काम से काम रखो.’ कुछ दिन बाद मैं स्कूल पहुंची तो हैरान रह गई. स्कूल में पुलिस आई हुई थी. पता चला कि रमेश और रंजना घर से भाग गए हैं. अभी तक उन का कुछ पता नहीं चला. पुलिस ने पूछताछ वाले लोगोें में मेरा नाम भी लिख लिया व मुझे थाने आने को कहा. पापा दौरे पर गए हुए थे सो मम्मी ने और कोई सहारा न देख संजय से बात की. फिर न चाहते हुए भी मैं संजय के साथ थाने गई. वहां इंस्पैक्टर ने जो पूछा बता दिया. संजय ने इंस्पैक्टर से मेरी तारीफ की. रमेश से सिर्फ क्लासफैलो होने का नाता बताया और ऐसे बात की जैसे मेरा बड़ा भाई मुझे बचा रहा हो. उस की बातचीत से इंप्रैस हो इंस्पैक्टर ने उस केस से मेरा नाम भी हटा दिया. घर आए तो संजय ने मुझे समझाया, ‘ऐसे लड़कों से दूर ही रहो तो अच्छा है. वैसे भी अभी तुम्हारी उम्र पढ़ने की है. पढ़लिख कर कुछ बन जाओ तब बनाना ऐसे रिश्ते. तब तुम्हें इन की समझ भी होगी,’ साथ ही उस ने मुझे दलील भी दी, ‘‘मैं तुम्हारे भाई जैसा हूं तुम्हारे भले के लिए ही कहूंगा.’’

दरअसल, गुस्सा तो मुझे खुद पर था कि मैं रमेश को समझ न पाई और मुझे प्यार में धोखा हुआ, लेकिन खीज संजय पर निकल गई. मेरी इस बात का संजय पर गहरा असर हुआ. राखी का त्योहार नजदीक था सो शाम को आते समय संजय राखी ले आया और मम्मी के सामने मुझ से रमेश के बारे में बताने व समझाने के लिए क्षमा मांगता हुआ राखी बांध कर भाई बनाने की पेशकश कर खुद को सही साबित करने लगा. मैं कहां मानने वाली थी. मैं पैर पटकती हुई बाहर निकल गई. उस ने राखी वहीं टेबल पर रख दी. पापा अगले दिन जम्मू से लौटने वाले थे. मैं और मम्मी घर में अकेली थीं. रात के लगभग 12 बजे थे कि अचानक मुझे आवाज मारती हुई मम्मी उठ बैठीं.

मैं भी हड़बड़ा कर उठी और देखा कि मम्मी की नाक से खून बह रहा था. मैं कुछ समझ न पाई, बस जल्दी से दराज से रूई निकाल कर नाक में ठूंस दी और खून बंद करने की कोशिश करने लगी. इधरउधर देखा, कुछ समझ न आया कि क्या करूं. लेकिन अचानक संजय के कमरे की बत्ती जलती देखी. कल उन का ऐग्जाम होने के कारण वे दोनों काफी देर तक पढ़ रहे थे. तभी मम्मी बेसुध हो कर गिर पड़ीं. मैं ने उन्हें गिरते देखा तो मेरी चीख निकल गई, ‘मम्मी…’ मेरी चीख सुनते ही संजय के कमरे का दरवाजा खुला. सारी स्थिति भांपते हुए संजय बोला, ‘आप घबराइए नहीं, हम देखते हैं,’ फिर अपने दोस्त कार्तिक से बोला कि औटो ले कर आए. इन्हें अस्पताल ले जाना होगा.

औटो ला कर उन दोनों ने मिल कर मम्मी को उठाया और मुझे चिंता न करने की हिदायत दे कर मम्मी को औल इंडिया मैडिकल हौस्पिटल की इमरजैंसी में ले गए. वहां उन्हें डाक्टर ने बताया कि हाइपरटैंशन के कारण इन के नाक से खून बह रहा है. आप सही वक्त पर ले आए ज्यादा देर होने पर कुछ भी हो सकता था. फिर उन्हें 2 इंजैक्शन दिए गए और अधिक खून बहने के कारण खून चढ़वाने को कहा गया. संजय ने ब्लड बैंक जा कर रक्तदान किया तब जा कर मम्मी के लिए उन के ग्रुप का खून मिला. कार्तिक ने ब्लड बैंक से खून ला कर मम्मी को चढ़वाया. सुबह करीब 6 बजे वे दोनों मम्मी को वापस ले कर आए तो मेरी भी जान में जान आई. अब मम्मी ठीक लग रही थीं. संजय ने बताया कि घबराने की बात नहीं है आप आराम से सो जाएं. हम हफ्ते की दवाएं भी ले आए हैं. आज हमारा पेपर है लेकिन रातभर जगे हैं अत: हम भी थोड़ा आराम कर लेते हैं. मम्मी को सलामत पा मैं बहुत खुश थी. मेरे इतना भलाबुरा कहने के बावजूद संजय ने मुझ पर जो उपकार किया उस ने मुझे अपनी ही नजरों में गिरा दिया था. मैं इन्हीं विचारों में खोई बिस्तर पर लेटी थी कि कब सुबह के 8 बज गए पता ही न चला. मैं ने देखा संजय के कमरे का दरवाजा खुला था और वे दोनों घोड़े बेच कर सोए थे.

अचानक मुझे याद आया कि आज तो इन का पेपर है. अत: मैं तेजी से उन के कमरे में गई और उन्हें उठा कर कहा, ‘पेपर देने नहीं जाना क्या?’ हड़बड़ा कर उठते हुए संजय ने घड़ी देखी तो उन की नींद काफूर हो गई. दोनों फटाफट तैयार हो कर बिना खाएपीए ही पेपर देने चल दिए. मैं ने पीछे से आवाज दे कर उन्हें रोका, ‘भैया रुको,’ भैया शब्द सुन कर संजय अजीब नजरों से मुझे देखने लगा. लेकिन मैं ने बिना समय गंवाए उस की कलाई पर वही राखी बांध दी जो वह सुबह लाया था. फिर मैं ने कहा, ‘जल्दी जाओ, कहीं पेपर में देर न हो जाए.’ शाम को जब पापा आए और उन्हें सारी बात पता चली तो उन्होंने जा कर उन्हें धन्यवाद दिया. मैं ने भी पूछा, ‘पेपर कैसा हुआ?’ तो संजय ने हंस कर कहा, ‘‘अच्छा कैसे नहीं होता. बहन की शुभकामनाएं जो साथ थीं.’

अब मैं और संजय अनमोल रिश्ते में बंध गए थे. जहां बिगर दुरावछिपाव के एकदूसरे के लिए कुछ करने की तमन्ना थी. मेरा अपना तो कोई भाई नहीं था सो मैं संजय को ही भाई मानती. स्कूल से आती तो सीधा उस के पास जाती और बेझिझक उस से कठिन विषयों के बारे में पूछती. कुछ ही दिन में संजय के तरीके से पढ़ने पर मुझे वे विषय भी आसान लगने लगे जो अब तक कठिन लगते थे. घर का कोई सामान लाना हो या अपनी जरूरत का मैं संजय को ही कहती. कभी किसी काम से बाहर जाती तो संजय को साथ ले लेती. वह जैसे मेरा सुरक्षा कवच भी बन गया था. कभीकभी लोग बातें बनाते तो संजय उन को भी बड़े तरीके से हैंडिल करता.

एक बार एक अंकल ने कुछ कह दिया तो संजय बेझिझक उन के पास गया और बताया, ‘यह मेरी मुंहबोली बहन है, गलत न समझें. अगर आप की लड़की अपने भाई के साथ जाती दिखे और लोग गलत समझें तो आप क्या करेंगे.’ उन की बोलती बंद हो गई लेकिन फायदा हमें हुआ, अब गली के लोग हमें सही नजरों से देखने लगे. कुछ दिन बाद मेरा जन्मदिन था. मैं काफी समय से पापा से मोबाइल लेने की जिद कर रही थी, लेकिन हाथ तंग होने के कारण वे नहीं खरीद पा रहे थे. मेरे केक काटते ही संजय ने मुझे केक खिलाया और मेरे हाथ में मेरा मनपसंद तोहफा यानी मोबाइल रख दिया तो मैं इसे पा कर फूली नहीं समाई. उस समय नएनए मोबाइल चले थे. मैं खुश थी कि मैं कालेज जाऊंगी तो मोबाइल के साथ. कुछ दिन बाद उन की प्रतियोगी परीक्षा समाप्त हुई तो पता चला कि वे वापस जाने वाले हैं, यह जान कर मुझे दुख हुआ लेकिन मेरी भी मति मारी गई थी कि मैं ने उन का पता, फोन नंबर कुछ न पूछा. बस यही कहा, ‘भूलना मत इस अनमोल रिश्ते को.’

जिस दिन उन्होंने जाना था उसी दिन मेरी सहेली का बर्थडे था. मैं उस के घर गई हुई थी और पीछे से संजय ने कमरा खाली किया और दोनों केरल रवाना हो गए. वापस आने पर मैं ने पापा से पूछा तो पता चला कि उन्होंने भी उस का पताठिकाना नहीं पूछा था. इस पर मैं पापा से नाराज भी हुई. मैं संजय द्वारा बताए गए परीक्षा के टिप्स अपना कर 12वीं में अव्वल दर्जे से पास हुई और कालेज मोबाइल के साथ गई, जिस में हमारे अनमोल रिश्ते के क्षण छिपे थे. फिर कालेज के साथसाथ जब प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी तो मुझे ज्ञात हुआ कि एनसीईआरटी की किताबें इन में कितनी सहायक होती हैं. तब मुझे अपनी नादानी भरी भूल का भी एहसास हुआ. अब मैं हर साल राखी के सीजन में संजय को मिस करती. जब बाजार में राखियां सजने लगतीं तो मुझे अनबोला भाई याद आ जाता. समय के साथ मोबाइल तकनीक में भी तेजी से बदलाव आया और फोन के टचस्क्रीन और स्मार्टफोन तक के सफर में न जाने कितने ऐप्स भी जुड़े, लेकिन मैं ने अपना नंबर वही रखा जो संजय ने ला कर दिया था, भले मोबाइल बदल लिए. मैं हर बार फेसबुक पर फ्रैंड सर्च में संजय का नाम डालती, लेकिन नतीजा सिफर रहता. कुछ पता चलता तो राखी जरूर भेजती. इस बीच संजय ने भी कोई फोन नहीं किया था. लेकिन अचानक व्हाट्सऐप पर मैसेज देख दंग रह गई. तभी व्हाट्सऐप के मैसेज की टोन बजी और मेरी तंद्रा भंग हुई. संजय ने चैट करते हुए लिखा था, ‘‘नया स्मार्टफोन खरीदा तो पुरानी डायरी में नंबर देख सेव करते हुए जब तुम्हारा नंबर भी सेव किया तो व्हाट्सऐप में तुम्हारा फोटो सहित नंबर सेव हुआ देख मन खुश हो गया.

‘‘फिर फटाफट व्हाट्सऐप पर अपना परिचय दिया. तुम्हें मैं याद हूं न या भूल गई.’’ संजय के शब्दों से मेरी आंखें भर आईं. तुम्हें कैसे भूल सकती हूं निस्वार्थ रिश्ता. अगर तुम न होते तो शायद उस दिन पता नहीं मम्मी के साथ क्या होता. मेरे किशोरावस्था में भटके पांव कौन रोकता. मैं ने फट से मैसेज टाइप किया, ‘‘राखी भेजनी है भैया, फटाफट अपना पता व्हाट्सऐप करो.’’ मिनटों में व्हाट्सऐप पर ही पता भी आ गया और साथ ही  पेटीएम के जरिए राखी का शगुन भी, साथ ही लिखा था, ‘‘इस अनमोल रिश्ते को जिंदगी भर बनाए रखना.’’ मैं ने पढ़ा और अश्रुपूरित नेत्रों से बाजार में राखी पसंद करने चल दी अपने मुंहबोले भाई के लिए.

Raksha Bandhan : मायका- सुधा के ससुराल वाले क्यों ताने देते थे?

सुबह घर की सब खिड़कियां खोल  देना सुधा को बहुत अच्छा लगता था. खुली हवा, ताजगी और आदित्य देव की रश्मियों में वह अपने मन के खालीपन को भरने की कोशिश करती. हर दिन नई उम्मीदें लाता है, सुधा इस नैसर्गिक सत्य को जी रही थी. लेकिन मांजी को यह कहां पसंद आता? शकसंदेह के चश्मे से बहू को देखने की उन की आदत थी. बिना सोचेसमझे वे कुछ भी कह डालतीं.

‘‘किस यार को देखती है जो सुबहसुबह खिड़कियां खोल कर खड़ी हो जाती है.’’

कहते हैं तीरतलवार शायद इतनी गहरी चोट न दे सकें जितने शब्द घायल कर जाते हैं. यहां तो रोज का किस्सा था. औरत जो थी, जिस की नियति सब की सुनने की होती है, इसलिए सुधा उन के कटु शब्दों को भुला देती. सच ही तो है, जब विकल्प न रहे तो सीमा पार जा कर भी समझौते करने पड़ते हैं. इस समझदारी ने ही उसे ऐसा तटस्थ बना दिया था जिसे सब ‘पत्थर’ कह देते थे. कुछ असर नहीं, जो चाहे, कहो. लेकिन यह किसे पता था कि उस का अंतर्मन आहत हो कर कब टूटबिखर गया. यह तो उसे खुद भी पता नहीं था.

उस के मायके को ले कर ससुराल में खूब बातें बनतीं. रोजरोज के ताने सुधा को अब परेशान नहीं करते. आदत जो बन गईर् थी, सुनना और पत्थर की मूरत बनी रहना जिस की न जबान थी न कान. इस मूर्ति में भी दिल धड़कता था, यह एहसास शायद अब किसी को नहीं था. सास की फब्तियां उस के दिल को छलनी करतीं, लेकिन फिर भी वह उसी मुसकराहट से जीती जैसे कुछ हुआ ही नहीं. कितनी अजीब बात है, बहू मुसकराए तो बेहया का तमगा पाती है, बोले या प्रतिकार करे तो संस्कारहीन.

ससुराल में उस की एक देवरानी भी थी, प्रिया. बड़े घर की बेटी जिस के आगे सासुमां की जबान भी तलुए से चिपकी रहती. जब प्रिया अपने मायके जाती तो सुधा को भी अपने घर की बहुत याद आती. पर जाए तो कैसे? किस के घर जाए वह? रिश्ते इतने खोखले हो चुके थे कि अब कोई एक फोन कर के उस का हालचाल पूछने वाला भी नहीं था.

आज जब प्रिया अपने मायके से वापस आई तो उस का मन भी तड़पने लगा. सासुमां उस के लाए उपहारों, कपड़ेगहनों को देख फूली नहीं समा रही थीं. रहरह कर सुधा को कोसना जारी था. प्रिया, सुधा को अपने कमरे में ले आई. उसे अपने पीहर के मजेदार किस्से बताने लगी. सुधा जैसे अतीत

में खोने लगी. अपनी भाभी के कड़वे शब्द उसे फिर याद आने लगे. महारानी, जब चाहे मुंह उठा कर चली आती है. जैसे बाप ने करोड़ों की दौलत छोड़ रखी है.

प्रिया जा चुकी थी. दोपहर का समय था, इसलिए उदास मन के साथ सुधा बिस्तर पर सुस्ताने लेट गई. अतीत की यादें, कटु स्मृतियां चलचित्र की तरह मनमस्तिष्क में साकार होने लगीं. पापा दुनिया से विदा हुए तो पीहर का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो गया. मां बचपन में ही गुजर गई थीं. पापा ने ही दोनों भाईबहनों को संभाला था. यह सच था कि उन्होंने कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी थी.

सुधा ने छोटे भाई को ऐसा ही ममताभरा प्यार दिया जैसा बच्चा अपनी मां से उम्मीद करता है. उम्र में वह 3 साल बड़ी भी तो थी. लेकिन बचपन से उसे बड़ा भी तो बना दिया था. मासूमियत छिन गई, लेकिन भाई राहुल भी उस पर जान छिड़कता था.

समय पंख लगा कर ऐसे उड़ा कि पता ही न चला कि गुड्डेगुडि़यों से खेलते वे कब बड़े हो गए. पापा जल्दी से अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहते थे. विवान का रिश्ता आया. इंजीनियर, सुंदरसौम्य स्वभाव, प्रतिष्ठित परिवार, बस पापा को और क्या चाहिए था? झट से रिश्ता पक्का कर दिया.

सुधा खुदगर्ज नहीं थी. उसे अपनी

शादी के अरमान खुशी तो दे रहे

थे लेकिन पापा और भाई का खयाल उसे बेचैन करने लगा. वह विदा हुई तो फिर? कौन संभालेगा घर को? नारी के बिना घर, घर नहीं हो सकता. भाई के प्रति असीम प्रेम और पिता के स्नेह को समझ सुधा ने जिद पकड़ ली, ‘मैं शादी करूंगी तो एक ही शर्त पर, भाई की शादी भी उस के साथ हो.’ किसे पता था कि यह प्रेम ही आगे समस्या बन जाएगा. सरल जीवन को कठिन कर देगा, रिश्तों में दूरी बढ़ती जाएगी.

सब को झुकना पड़ा और सात दिनों के अंतराल पर दोनों की शादी संपन्न हो गई. सुधा ससुराल के लिए विदा हुई तो पीहर में उस की भाभी आ गई. बहुत खुश थी सुधा. कुदरत ने बहुत दिनों बाद कुछ ऐसा सुखद दिया था जिस से उन की अधूरी जिंदगी पूर्णता की ओर कदम बढ़ाने लगी थी.

लेकिन जिंदगी इतनी सरल कहां होती है? मन का सोचा पूरा हो जाए, तो क्या कहने. नई जिंदगी में सुधा के सपने यथार्थ की कठोर धरा पर शीघ्र ही दम तोड़ने लगे. विवान बहुत अच्छे समझदार पति थे लेकिन घर की स्थिति ऐसी थी कि वे खुलेरूम में अपनी पत्नी का साथ देने की स्थिति में नहीं थे. प्रतिभाशाली हो कर भी अभी बेरोजगार थे. दोनों ही सासससुर पर निर्भर थे, इसलिए मजबूरियों से समझौता समझदारी था. पापा को शायद यह उम्मीद न रही होगी, इसलिए सुधा की शादी के बाद क्षुब्धबेचैन रहने लगे. दूसरी तरफ राहुल भी अपनी पत्नी और पिता के बीच संतुलन बैठाने में पिस रहा था. पापा को दुख न पहुंचे, इसलिए सुधा ने मुंह सिल लिया.

लेकिन पापा थे कि उस की आंखों को पढ़ जाते. जितना वह छिपाने की कोशिश करती, पापा अनकही बातों को झट से पकड़ जाते. संतान के प्रति प्रेम ऐसा ही होता है जो बच्चे की हर बात को बिना कहे समझ जाता है. जिंदगी इसी का नाम है. अकसर हम अपने घरों में वही व्यवस्था लागू करने की जिद करने लगते हैं जो बेटियां अपनी ससुराल में जीती हैं. नतीजतन, घर में लोग टूटनेबिखरने लगते हैं. सच तो यह था कि सुधा को कहीं चैन नहीं मिल रहा था.

ससुराल में व्यंग्यतानों के बीच पिस रही थी तो मायके में अपने भाई राहुल और पिता के खयाल से. उस की भाभी ने जो समझदारी दिखानी चाहिए थी, उस के विपरीत आचरण किया. सुधा न तो मां बन सकी, न ही विवान के दिल में स्थान पा सकी. दूरी, तटस्थता, यंत्रचालित, कृत्रिम जीवन उसे आहत करता चला गया.

घड़ी ने टन्नटन्न अलार्म बजाया. सुधा जैसे चौंक पड़ी. उसे अपने जिंदा होने का एहसास हुआ. चेहरे पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं. वह उठी, एक गिलास पानी पिया और खाली कमरे में फिर अपने खालीपन से खेलने लगी. पुरानी यादें फिर से न चाहते हुए भी उस के आगे नाचने लगीं. जब पिता का देहांत हुआ तो 12 दिन भी उस ने मायके में कैसे निकाले थे, वह कटु अनुभव उसे याद आने लगा. भाई राहुल बेचारा कितनी कोशिश करता रहा कि दीदी को कुछ महसूस न हो लेकिन सुधा कोई बच्ची नहीं थी.

वह समझ गईर् कि पापा के बाद उस का रिश्ता भी इस घर से टूट गया है. फिर एक दिन वह अनुभव भी हो गया जिस ने सुधा के सारे भ्रम तोड़ दिए. राहुल की जिद पर वह मायके चली गई. भाई के साथ बहन को देख भाभी का मुंह फूल गया. रात को सुधा ने उन के कमरे से आती तेज आवाजों को सुन लिया. राहुल अपनी पत्नी के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार से खीझ उठा था. उस की बीवी ने साफसाफ शब्दों में अल्टीमेटम दे दिया, ‘अगर यह बेहया मुझे दोबारा यहां दिखी, तो समझ लेना उसी क्षण फांसी के फंदे से झूल जाऊंगी. मुझे क्या बेवकूफ समझते हो. मुझे पता है, यह मायके में क्यों मंडराती है? पूरी संपत्ति हड़पने के बाद तुम्हें सड़क पर न ला दे, तो कहना.’

इस के बाद शायद हाथापाई भी हुई होगी. राहुल यह बात कैसे सहन कर पाता? नफरत से सुधा तड़प उठी. छी, क्या कोई ऐसी नीच सोच भी हो सकती हैं? पूरी रात सुधा ने जागते निकाल दी. वह घर जिस में वह पलीबढ़ी थी, अचानक जहर की तरह चुभने लगा. सुबह होते ही वह बिना कुछ कहे वापस अपनी ससुराल आ गई. उसे इंतजार था कि राहुल आएगा माफी मांगने. लेकिन वह नहीं आया.

अब सुधा को अपना फैसला सही लगने लगा. भाईभाभी की जिंदगी में वह दीवार नहीं बनना चाहती थी. उस ने फैसला कर लिया. अब कभी नहीं… खून के रिश्ते पानी हो गए. राखी का त्योहार आया, भाईदूज भी, लेकिन मायके से कोई बुलावा न आया. कहना आसान होता है लेकिन भाई की सूरत देखने को सुधा भी तड़पती. अब उस ने अपना मुंह सिल लिया. किसी से कोई शिकायत नहीं.

एक साल बीत गया. विवान को

अच्छी नौकरी मिल गई. अब सुधा

की हालत भी पहले से बेहतर होने लगी. विवान उसे नौर्मल करने की बहुत कोशिश करता, लेकिन बुझेमन में अब उमंग, उम्मीदें फिर से जागना मुश्किल लगने लगा था.

आज फरवरी की 22 तारीख थी. वैसे तो खास दिन, उस का जन्मदिन था, लेकिन यहां किसे कद्र थी उस की? सुबह के 8 बजे थे. विवान अभी भी सो रहे थे. सासुमां व्यस्त थीं. तभी दरवाजे की घंटी बजी. सुधा ने खिड़की से बाहर देखा. अचानक उस का रोमरोम खिल उठा. अपनों का प्यार सैलाब बन फूट कर बाहर निकलने लगा. दरवाजे पर राहुल और भाभी खड़े थे. सुधा चहकते हुए दौड़ी, ‘‘हैप्पी बर्थडे, दीदी.’’ राहुल ने पैर छूते हुए दी को शुभकामनाएं दीं. भाभी भी उस के पैर छू रही थीं. स्नेहिल क्षणों में कटुता क्षणभर में छूमंतर हो गई.

सास और प्रिया आश्चर्यचकित थे. राहुल आज उन सब के लिए उपहार लाया था. सुधा किचन की तरफ दौड़ी. ससुराल में बहू का सब से बड़ा मेहमान भाई होता है. सुधा के मन पर जमी बर्फ बहने लगी थी. भाभी भी उस का हाथ बंटाने रसोई में आ गई. दोनों खिलखिला कर ऐसे बातें करने लगीं जैसे पहली बार मिली हों.

विवान भी उठ गए. नाश्ते की तैयारी होने लगी. मौका देख विवान ने सुधा को बांहों में भर चूम लिया. ‘‘कैसा लगा मेरा गिफ्ट?’’ सुधा कुछ पूछती, उस से पहले राहुल आ गया, बोला, ‘‘दीदी, यह लो आप का सब से कीमती गिफ्ट… मुझे जीजू ने ही सजैस्ट किया.’’

सुधा पैकेट खोलने लगी. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. एक बड़ी सी फ्रेम की हुई पापा की तसवीर, जिस में उन की मुसकराहट सुधा को नया जीवन देती महसूस हो रही थी. फोटो के अलावा गुड्डेगुडि़या भी थे जिन से सुधा और राहुल बचपन में खेला करते थे.

उपहार तो और भी बहुत लाया था राहुल, लेकिन यह चीज उस का दिल छू गई. आज पूरा दिन सुधा के नाम था. विवान ने शाम को एक आलीशान होटल में डिनर रखा था.

रात में जब सुधा विवान के पास आई, तो देखा सामने की दीवार पर पापा की फोटो टंगी है. विवान कह रहा था, ‘‘सुधा, ससुराल में मायके की यादें न हों, तो जीवन अधूरा रह जाता है.

अब अपने बैडरूम में आधी चीजें मेरी और आधी तुम्हारे मायके की यादगार वाली होंगी.’’

‘‘ओ विवान, तुम इतना चाहते हो मुझे?’’ सुधा भावविह्वल हो विवान से लिपट गई.

‘‘सुधा, चाहने का मतलब ही यही है कि हम बिना कुछ कहे एकदूसरे को समझें, एकदूसरे की कमी को पूरा करें. तुम अंदर ही अंदर घुल रही थीं लेकिन मैं तुम्हें जीतेजी मरता नहीं देख सकता था.’’ बत्ती बुझ गई. दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए. आज अचानक बर्फ पूरी तरह पिघल गई.

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